एकल परिवार में जब एक हो जाए बीमार, तो क्या करें?

आधुनिकीकरण ने परिवार नामक इकाई का ढांचा बदल दिया है. अब पहले की तरह संयुक्त परिवार नहीं होते. लोगों ने वैस्टर्न कल्चर के तहत एकल परिवार में रहना शुरू कर दिया है. लेकिन परिवार के इस ढांचे के कुछ फायदे हैं, तो कुछ नुकसान भी. खासतौर पर जब ऐसे परिवार में कोई गंभीर बीमारी से पीडि़त हो जाए.

इस बाबत एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस के नेफरोलौजिस्ट डाक्टर जितेंद्र कहते हैं कि न्यूक्लियर फैमिली का ट्रैंड तो भारत में आ गया, लेकिन इस टै्रंड को अपनाने वालों को यह नहीं पता कि वैस्टर्न कंट्रीज में न्यूक्लियर फैमिली में रहने वाले वृद्ध और बच्चों की जिम्मेदारी वहां की सरकार की होती है. वही उन्हें हर तरह की सुरक्षा और सुविधा मुहैया कराती है. यहां तक कि वहां पर ऐसे संसाधन हैं कि वृद्ध हो, युवा या फिर बच्चा किसी को भी विपरीत परिस्थितियों से निबटने में ज्यादा परेशानी नहीं होती.

डा. जितेंद्र आगे कहते हैं कि उन देशें में जब भी कोई बीमार पड़ता है और अगर उसे तत्काल चिकित्सा की जरूरत पड़ जाती है तब उसे ऐंबुलैंस के आने का इंतजार नहीं करना पड़ता, बल्कि ऐसे समय के लिए विशेष वाहन होते हैं जो बिना रुकावट सड़कों पर सरपट दौड़ सकते हैं और इन से मरीज को अस्पताल तक आसानी से पहुंचाया जा सकता है. लेकिन भारत में ट्रैफिक की हालत इतनी खराब है कि ऐंबुलैंस को ही मरीज तक पहुंचने में वक्त लग जाता है.

एकल परिवार में हर किसी को बीमारी से उबरने और उस से जुड़े सभी जरूरी काम स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए. बीमारी के समय भी इस तरह आत्मनिर्भरता को कायम रखा जा सकता है: बीमारी के लक्षण को गंभीरता से लें: रोज की अपेक्षा कमजोरी महसूस कर रहे हों या फिर हलका सा भी बुखार हो तो उस के प्रति लापरवाही अच्छी नहीं. हो सकता है जिसे आप मामूली बुखार या कमजोरी समझ रहे हों वह किसी बड़ी बीमारी का संकेत हो. अपने फैमिली डाक्टर से इस बारे में चर्चा जरूर करें. फैमिली डाक्टर के पास जाने में अधिक समय न लगाएं. इस बात का इंतजार न करें कि घर का कोई दूसरा सदस्य आप को डाक्टर के पास ले जाएगा.

डाक्टर से बात करने में न हिचकें: अपने डाक्टर से खुल कर बात करें. आप क्या महसूस कर रहे हैं और आप को क्या तकलीफ है, इस के बारे में अपने डाक्टर को जरूर बताएं. फिर डाक्टर जो भी पूछे उस का सोचसमझ कर जवाब दें. बढ़ाचढ़ा कर भी कुछ न बताएं क्योंकि डाक्टर इस से भ्रमित हो जाता है. मरीज इस बात का ध्यान रखे कि वह अब आधुनिक समय में जी रहा है, जहां हर बीमारी का इलाज है. फिर चाहे वह कैंसर हो, टयूबरक्लोसिस हो या फिर जौंडिस. बीमारी पर खुल कर बात करने में डरने की क्या जरूरत?

प्रैस्क्रिप्शन को सहेज कर रखें: डाक्टर जो प्रैस्क्रिप्शन लिख कर दें उसे हमेशा संभाल कर रखें. हो सकता है कोई शारीरिक समस्या आप को बारबार रिपीट हो रही हो. इस परिस्थिति में आप डाक्टर को पुराना प्रैस्क्रिप्शन दिखा कर याद दिला सकते हैं कि पिछली बार भी आप को यही समस्या हुई थी. बारबार होने वाली बीमारी गंभीर रूप भी ले सकती है. यदि आप के डाक्टर को यह पता चल जाएगा तो वह इस की रोकथाम के लिए पहले ही आप को सतर्क कर देगा. सही डाक्टर चुनें: अकसर देखा गया है कि लोगों को तकलीफ शरीर के किसी भी हिस्से में क्यों न हो, लेकिन वे जाते जनरल फिजिशियन के पास ही हैं. जबकि जनरल फिजिशियन आप को सिर्फ राय दे सकता है. यदि आप को दांतों की तकलीफ है तो डैंटिस्ट के पास जाएं. हो सकता है कि आप को दांतों से जुड़ी कोई गंभीर बीमारी हो.

बीमारी टालें नहीं: अकसर लोग बीमारी के सिमटम्स नजरअंदाज कर देते हैं. मसलन, शरीर के किसी अंग में गांठ होना, बलगम में खून आना या फिर कहीं पस पड़ जाना. ये सभी बड़ी बीमारियों के संकेत होते हैं. लेकिन लोग इन्हें महीनों नजरअंदाज करते हैं. वे सोचते हैं कि कुछ समय बाद उन की तकलीफ खुदबखुद खत्म हो जाएगी. लेकिन तकलीफ जब बढ़ती है तब उन्हें डाक्टर की याद आती है. तब तक देर हो चुकी होती है. जिस बीमारी पर पहले लगाम कसी जा सकती थी वह बेलगाम हो जाती है इसलिए तकलीफ छोटी हो या बड़ी डाक्टर से एक बार सलाह जरूर लें. मैडिकल कार्ड अपने साथ रखें: यदि आप को कोई गंभीर बीमारी है, तो आप अपना मैडिकल कार्ड और डायरी अपने पास रखें. डाक्टर जितेंद्र कहते हैं कि किसी को सड़क पर चलतेचलते अचानक चक्कर आ जाए या दौरा पड़ जाए तो राहगीर सब से पहले मरीज की जेब की तलाशी लेते हैं ताकि मरीज से जुड़ी कोई परिचय सामग्री मिल जाए. यदि मैडिकल कार्ड रखा जाए तो किसी को भी पता चल जाएगा कि आप को क्या बीमारी है और बेहोश होने की स्थिति में आप को क्या ट्रीटमैंट दिया जाना चाहिए. यदि इस मैडिकल कार्ड में आप का पता और आप के परिचितों का नंबर होगा तो राहगीरों को उन से संपर्क करने में भी आसानी होगी. इस तरह समय रहते आप का इलाज हो सकेगा और परिचित लोग आप के पास हो सकेंगे.

मैडिकल डायरी भी है जरूरी: गंभीर बीमारी होने पर मरीज को अपने पास एक मैडिकल डायरी भी रखनी चाहिए. इस डायरी में मरीज को अपने सभी जरूरी टैस्ट, दवाएं और खानेपीने का रूटीन लिख लेना चाहिए. डाक्टर जितेंद्र इस डायरी का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि मैडिकल डायरी में मरीज अपने होने वाले टैस्टों की तारीख, दवाओं के खाने का समय और उन के खत्म होने और लाने की तारीख लिख सकता है. कई बार बीमारी की वजह से उसे सब कुछ याद नहीं रहता. इसलिए रोजाना इस डायरी को एक बार पढ़ लेने पर उसे ज्ञात हो जाएगा कि कब उसे क्या करना है.

आधुनिक तकनीकों का हो ज्ञान: वैसे तो आधुनिक युग में प्रचलित तकनीकों का ज्ञान सभी को होना चाहिए. लेकिन यदि किसी, का कोई गंभीर रोग है तो उस के लिए तकनीकों को जानना अनिवार्य हो जाता है. जैसे आजकल स्मार्टफोन का जमाना है, तो स्मार्टफोन मरीज के पास होना चाहिए और उस का इस्तेमाल भी मरीज को आना चाहिए. आजकल स्मार्टफोन में बहुत से एप्स हैं जो काफी मददगार हैं. मसलन, कैब बुकिंग एप्स, डायट अलर्ट एप्स, चैटिंग एप्स और विभिन्न प्रकार के ऐसे एप्स जो मरीज को सुविधा और उसे नई जानकारियां देने में काफी मददगार हैं.

डाक्टर जितेंद्र की मानें तो चैटिंग एप्स ऐसे हैं जो मरीज और डाक्टर के बीच इंटरैक्शन को बाधित नहीं होने देते. यदि मरीज को कोई छोटीमोटी जानकारी लेनी है तो वह डाक्टर से इस के जरीए बात कर सकता है. कई बार मरीज अपने डाक्टर से काफी दूर पर होता है, तो उस के लिए डाक्टर से प्रत्यक्ष रूप से मिल पाना मुमकिन नहीं होता. तब वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के द्वारा मरीज अपने डाक्टर से परामर्श ले सकता है.नकद पैसा जरूर रखें: मरीज को घर में हमेशा कुछ नकद पैसा जरूर रखना चाहिए. यदि नकद पैसा रखने में असुरक्षा का एहसास हो तो मरीज अपने नाम से क्रेडिट या डेबिट कार्ड भी रख सकता है.

परिवार वालों का सहयोग भी जरूरी

एकल परिवार हो या संयुक्त परिवार, यदि परिवार में किसी को भी गंभीर बीमारी हो जाए तो मरीज को घर के सदस्यों का मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार का सहयोग चाहिए होता है. खासतौर पर एकल परिवार में मरीज खुद को ज्यादा अकेला महसूस करता है. एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस में साइकोलौजिस्ट डाक्टर मीनाक्षी मानचंदा कहती हैं कि एकल परिवार में चुनिंदा लोग होते हैं, इसलिए सब की जिम्मेदारियां और काम बंटे होते हैं. घर में किसी के बीमार पड़ने से उन के लिए अतिरिक्त काम बढ़ जाता है. ऐसे में मरीज यदि अपनी छोटीमोटी चीजों का खुद ध्यान रख ले तब भी उस के परिवार के सदस्यों को ही करना होता है.

मरीज को बीमारी से लड़ने के लिए मानसिक तौर पर कैसे मजबूत बनाया जा सकता है, आइए जानते हैं:

बीमारी कितनी भी गंभीर हो मरीज को इस बात का भरोसा दिलाएं कि उस का अच्छे से अच्छा इलाज कराया जाएगा और वह पूरी तरह ठीक हो जाएगा.

मरीज को ऐसा न बनाएं कि वह आप पर निर्भर रहे. यदि वह डाक्टर के पास खुद जाना चाहे तो उसे अकेले ही जाने दें.

काम में कितने भी व्यस्त हों, लेकिन मरीज का दिन में 2 से 3 बार हालचाल जरूर पूछें. इस से मरीज को लगता है कि उस के अपने भी उस की चिंता कर रहे हैं.

यदि मरीज बीमारी से पूर्व औफिस जाता था तो उस का औफिस जाना बंद न कराएं. डाक्टर से सलाह लें कि मरीज औफिस जा सकता है या नहीं? मरीज को किसी भी छोटेमोटे काम में उलझा कर रखें, जिस से उसे मानसिक तनाव भी न  महसूस करे.

अकेली पड़ी इकलौती औलाद

किरत अपने मातापिता की इकलौती औलाद है. उस की उम्र करीब 6 साल है. 6 साल पहले सब ठीक था. वह खुश थी अपने मातापिता के साथ. जब जो चाहती वह मिल जाता. भई, सबकुछ उसी का तो है. पिता पेशे से इंजीनियर हैं. मां मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती हैं. लिहाजा, कमी का तो कहीं सवाल नहीं था, लेकिन इन दिनों किरत कुछ बुझीबुझी से रहने लगी. चिड़चिड़ापन बढ़ने लगा. इतवार के दिन मातापिता ने अपने पास बिठाया और पूछा तो किरत फफक पड़ी.

किरत ने बताया कि उस के दोस्त हैं, लेकिन घर पर कोई नहीं है. न भाई न बहन. सब के पास अपने भाईबहन हैं लेकिन वह किस को परेशान करेगी. किस के साथ खाना खाएगी. किस के साथ सोएगी. किरत ने जो बात कही वह छोटी सी थी लेकिन गहरी थी.

ये परेशानी आज सिर्फ किरत की नहीं है, शहरों में रहने वाले अमूमन हर घर में यही परेशानी है. जैसेजैसे बच्चे बड़े होने लगते हैं वैसेवैसे वे अकेलापन फील करने लगते हैं. मातापिता कामकाजी हैं. बच्चे मेड या फिर दूसरे लोगों के भरोसे बच्चे छोड़ देते हैं. लेकिन बच्चे धीरेधीरे अकेलापन महसूस करने लगते हैं. सवाल कई हैं. क्या हम भागदौड़ भरी जिंदगी में बच्चों को अकेला छोड़ रहे हैं? क्या हम बच्चों से अपने रिश्ते छीन रहे हैं? क्या हम बच्चों से उन का बचपन छीन रहे हैं?

पहले से अलग है स्थिति

पिछली पीढ़ी के आसपास काफी बच्चे हुआ करते थे. खुद उन के घर में भाईबहन होते थे. पूरा दिन लड़नेझगड़ने में बीत जाता था. खेलकूद में वक्त का पता नहीं चलता था. कब पूरा दिन निकल गया और कब रात हो जाती थी, होश ही नहीं रहता था. चाचाचाची, ताऊताई, दादादादी कितने रिश्ते थे. हर रिश्ते को बच्चे पहचानते थे लेकिन अब स्थिति एकदम अलग है. अब बच्चे अकेलापन फील करने लगे हैं. न तो उन्हें रिश्ते की समझ है न ही खेलकूद के लिए घर में कोई साथ. स्कूल के बाद ट्यूशन और फिर टीवी बस इन्हीं में बच्चों की दुनिया सिमट कर रह गई है.

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क्या है वजह

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि मातापिता एक बच्चे से ही खुश हो जाते हैं. अब पहले की तरह भेदभाव नहीं होता. लड़का हो या लड़की, मातापिता दोनों को समान तरीकों से पालतेपोसते हैं. पहले एक सामाजिक व पारिवारिक दबाव था लड़का पैदा करने का, इसलिए काफी बच्चे हो जाते थे. ये तो अच्छी बात है कि समाज धीरेधीरे उस दबाव से निकल रहा है लेकिन इसी ने अब बच्चों को अकेला कर दिया है. दूसरी सब से बड़ी वजह यह है कि मातापिता के पास वक्तकी कमी है.

दरअसल, अब पतिपत्नी दोनों ही कामकाजी हैं. इसलिए बच्चा पैदा करना मातापिता झंझट समझते हैं. सोचते हैं कौन पालेगा, टाइम नहीं है, एक बच्चा ही काफी है, महंगाई बहुत है, एजुकेशन काफी ज्यादा महंगी होती जा रही है. और भी कई ऐसी बातें हैं जिस के चलते मातापिता दूसरा बच्चा करने से बचते हैं. महिलाओं को लगता है कि अगर दूसरा बच्चा हो गया तो वे अपने कैरियर को वक्त नहीं दे पाएंगी. लिहाजा, बच्चे अकेले रह जाते हैं. कई बार बच्चे मातापिता से शिकायत तो करते हैं लेकिन तब तक काफी देर हो जाती है. उम्र बढ़ने लगती है. कई बार बढ़ती उम्र के कारण महिलाएं मां नहीं बन पातीं. कई तरह के जटिलताएं आ जाती हैं.

जरूरी है बच्चों को मिले रिश्ते

बच्चों से उन के रिश्ते मत छीनिए. पहले बच्चे के कुछ साल बाद दूसरा बच्चा करने की कोशिश कीजिए, ताकि बच्चे आपस में खेल सकें. एकदूसरे के साथ बड़े हो कर बातें और चीजें शेयर कर सकें. कई बार इकलौता बच्चा चिड़चिड़ा हो जाता है. चीजें शेयर नहीं करता. अपनी चीजों पर एकाधिकार जमाने लगता है जिस के चलते मातापिता परेशान हो जाते हैं. ये स्थिति उन घरों में ज्यादा होती है, जहां बच्चे अकेले होते हैं. अगर एक भाई या बहन हो तो बच्चे शेयर करना आसानी से सीख जाते हैं. बच्चों को रिश्तों की समझ होने लगती है. एकदूसरे की परेशानी समझने लगते हैं.

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अगर आप भी इस तरह की परेशानी से गुजर रही हैं और रहरह कर आप का बच्चा आप से शिकायत करता है तो वक्त रहते संभल जाइए. बच्चों को उन का रिश्ता दीजिए, ताकि वह भी अपना बचपन जी सकें. थोड़ा लड़ सकें, थोड़ा प्यार कर सकें, थोड़ा प्यार पा सकें. अपनी चाहतों के चक्कर में या फिर कैरियर के लिए बच्चों से उन का बचपन न छीनिए वरना कोमल कली खिलने से पहले ही मुरझा जाएगी.

आधुनिकता के पैमाने पर छलकते जाम

आज भूमि की शादी की पहली सालगिरह थी और अपने पति कार्तिक के इसरार पर उस ने पहली बार बियर का स्वाद चखा था. अब कार्तिक का साथ देने के लिए वह भी कभीकभी ले लेती थी और एक दिन जब कार्तिक कहीं बाहर गया हुआ था तो भूमि ने अपने दोस्तों के साथ पार्टी कर ली पर उस के बाद भूमि अपने को रोक नहीं पाई और आए दिन ऐसी मदिरापान की पार्टियां उन के यहां आयोजित होने लगीं. भूमि और कार्तिक अपने इस शौक को हाई क्लास सोसाइटी में उठनेबैठने का एक अनिवार्य अंग मानते हैं. यह अलग बात है कि जहां कार्तिक शराब के अत्यधिक सेवन के कारण इतनी कम आयु में ही हाई ब्लडप्रैशर का शिकार हो गया है वहीं भूमि की प्रजनन क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है और वह मां नहीं बन पा रही है.

आज राजेश खन्नाजी बड़ी बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे. उन की बेटी तन्वी अब तक घर नहीं लौटी थी. दरवाजे की घंटी बजी और शराब के नशे में झूमती हुई तन्वी दरवाजे पर खड़ी थी. राजेशजी को तो काटो खून नहीं, उन्हें समझ नहीं आया कि उन की परवरिश में क्या गलती रह गई थी. अगले दिन जब तन्वी का कोर्टमार्शल हुआ तो तन्वी ने पापा से कहा, ‘‘पापा औफिस की पार्टीज में ये सब चलता है और फिर रोशन भैया भी तो पीते हैं.’’

राजेशजी गुस्से में बोले, ‘‘वह कुएं में कूदेगा तो तू भी कूदेगी, लड़कों की बराबरी करनी है तो बेटा अच्छी आदतों की करो.’’

आजकल की भागतीदौड़ती जिंदगी में सभी लोगों पर अत्यधिक तनाव है पर जहां पहले पुरुष ही तनाव से लड़ने के लिए मदिरापान का सेवन करते थे वहीं अब महिलाएं भी पुरुषों के साथ इस मोर्चे पर डट कर खड़ी हैं. क्यों न हो आखिर यह इक्कीसवीं सदी है. महिलाएं और पुरुष  हर कार्य में बराबरी के भागीदार हैं. जब से मल्टीनैशनल कंपनी और कौलसैंटर की बाढ़ भारत में आई है, तभी से शराब और सिगरेट के सेवन में भी आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई है. यहां पर काम करने की समयावधि, देर रात तक चलने वाली पार्टीज और कभी न खत्म होने वाले कामों के कारण, यहां के कर्मचारियों में  एक अजीब किस्म का तनाव व्याप्त रहता है. इस का निवारण वे मुख्यत: शराब के सेवन से करते हैं.

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एकल परिवारों में बढ़ती लत

ऐसा नहीं है कि पहले के जीवन में तनाव नहीं था पर पहले जहां परिवार के सदस्यों के साथ हम शाम को बैठ कर अपने दुखसुख साझा कर लेते थे. वहीं अब एकल परिवारों के चलन के कारण यह भूमिका मदिरा ने ले ली है.

मजे की बात यह है पहले जहां पत्नियां पति को शराब के सेवन को ले कर रोकटोक करती वहीं अब अगर पति इन नशों का आदी होता है तो उस को तनाव से लड़ने के लिए छोटी सी खुराक समझ कर चुप लगा जाती हैं. बहुत से घरों में तो यह भी देखने को मिलता है कि पत्नियां भी धीरेधीरे पति का साथ देने लगती हैं. बाद में पत्नियों का ये कभीकभी का शौक भी कब और कैसे लत में परिवर्तित हो जाता है वे खुद भी नहीं जान पाती हैं.

अखिल और प्रज्ञा मुंबई में रहते हैं. उन के घर में न पैसों की कोई कमी है और न ही आधुनिक संस्कारों की. दोनों खुद अपनी बेटी के सामने बैठ कर खुद ड्रिंक करते हैं बिना यह सोचे कि इस बात का उन की बेटी कायरा पर क्या असर होगा? हद तो तब हो गई जब एक दिन कायरा को स्कूल से निलंबित कर दिया गया क्योंकि वह पानी की बोतल में पिछले कई दिनों से शराब ले कर जा रही थी. बेटी को क्या समझाएं, यह वे खुद ही नहीं समझ पा रहे हैं. फिलहाल दोनों बेटी से आंखें चुरा रहे हैं और एकदूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं.

इंस्टैंट का जमाना है

आजकल इंस्टैंट जमाना है. हर चीज चाहिए पर बहुत जल्दी और बिना मेहनत करे. अगर तनाव है तो उस से लड़ने का सब से आसान विकल्प लगता है मदिरापान करना. इस के दो फायदे हैं पहले तो कुछ देर के लिए ही सही आप तनावमुक्त तो हो जाओगे और दूसरा आप मौडर्न भी कहलाएंगे.

वहीं जब घर के बुजुर्गों को बच्चों की इस आदत के बारे में बात पता चलता है तो कुछ जुमले बोल कर ही वे लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं.

‘‘कैसा जमाना आ गया है, आदमियों की तो बात जाने दो, आजकल तो औरतें भी शराब पीती हैं.’’

तंबाकू, सिगरेट और शराब, इन सारी चीजों का सेवन करना आजकल की युवा महिलाओं में एक आम बात सी हो गई है. पहले महिलाएं इन सब चीजों का सेवन मजे के लिए करती हैं और बाद में जब ये लत बन जाती है तो एक सजा जैसी हो जाती है. पहले जहां शराब या सिगरेट की दुकानों पर पुरुषों की भीड़ एक आम बात थी वहीं अब महिलाएं भी बिना किसी हिचक के उन दुकानों पर देखी जा सकती हैं.

गीतिका 28 वर्षीय युवती है और एक आधुनिक दफ्तर में काम करती है. जब मैं ने उस से इस बाबत बातचीत करी तो उस ने कहा, ‘‘दीदी, आजकल औफिस पार्टियों में शराब का सेवन अनिवार्य सा हो गया है. नौकरी तो करनी ही है न तो फिर शराब से कैसा परहेज.’’

मैं इस लेख के माध्यम से शराब या सिगरेट को बढ़ावा कदापि नहीं देना चाहती हूं पर मैं समाज के बदलते मापदंड की तरफ आप सब का ध्यान आकर्षित कराना चाहती हूं.

चलिए अब कुछ कारणों पर प्रकाश डालते हैं जिस कारण आजकल महिलाओं में शराब के सेवन की आदत बढ़ती जा रही है.

फैशन स्टेटमैंट: आजकल शराब या सिगरेट का सेवन भी एक तरह का फैशन स्टेटमैंट बन गया है. अगर आप शराब नहीं पीते हैं तो आप बाबा आदम के जमाने के हैं. आप कैसे अपने कैरियर में आगे बढ़ेंगे, अगर आप को आजकल के तौरतरीकों का पता नहीं है?

बराबरी की चाहत: आजकल की नारी जीवन के हर मोर्चे पर पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं. अगर पुरुषवर्ग मदिरापान करते हैं तो फिर आज की आधुनिका, श्रृंगारप्रिया कैसे पीछे रह सकती है. अधिकतर महिलाएं सबकुछ जानतेबूझते हुए भी बस बराबरी की चाहत में इस राह की तरफ मुड़ जाती हैं.

तनाव से राहत: तनाव से राहत एक तरफ कैरियर के दबाव, दूसरी तरफ बूढ़े मातापिता, बढ़ते बच्चों की जरूरतें, कभी न खत्म होने वाला काम, इन सब बातों से राहत पाने के लिए भी आजकल की महिलाएं शराब का सहारा लेने लगी हैं. कुछ देर के लिए ही सही उन्हें लगता है वह एक अलग दुनिया में चली गई हैं.

स्वीकार होने की चाह: आजकल अधिकतर लड़कियां नौकरी के कारण अपना घर छोड़ कर महानगरों में अकेले रहती हैं. नई जगह, नए दोस्त और उन दोस्तों में अपनी पहचान बनाने के लिए न चाहते हुए भी वे मदिरापान करने लगती हैं. नए रिश्ते बनते हैं तो सैलिब्रेशन में शराब का सेवन होता है और फिर जब रिश्ते टूटते हैं तो फिर शराब का सेवन गम गलत करने के लिए होता है.

शराब के सेवन से सेहत पर होने वाले बुरे असर से हम सब भलीभांति परिचित हैं. परंतु अगर हाल ही में हुए शोधों पर नजर डालें तो यह पता चलता है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की सेहत पर शराब का दुष्प्रभाव अधिक होता है.

– शराब को पचाने के लिए लिवर से एक ऐंजाइम निकलता है जो शराब को पचाने में सहायक होता है. महिलाओं में ये ऐंजाइम कम निकलता है जिस के कारण उन के लिवर को पुरुषों के मुकाबले अधिक मेहनत करनी पड़ती है.

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– महिलाओं की शारीरिक संरचना पुरुषों से अलग है  इसलिए उन की सेहत पर शराब का दुष्प्रभाव अधिक देर तक और जल्दी होता है.

– शराब के सेवन से महिलाओं की प्रजनन शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और यदि गर्भावस्था में महिलाएं शराब का सेवन करती हैं तो होने वाले  शिशु पर भी प्रभाव पड़ता है.

घर के मुखिया या बड़े होने के नाते यदि आप अपने बच्चों की शराब के सेवन की आदत से परेशान हैं तो उन्हें अवश्य समझाएं. शराब के सेवन से होने वाली हानि के बारे में भी बताएं पर बेटा और बेटी या बहू सब को एक समान ही सलाह दें. शराब का सेवन करना एक गंदी आदत है. पर इस का आशय यह नहीं है कि उस का सेवन करने वाली महिलाओं का चरित्र खराब है. जो बात गलत है वह सब के लिए ही गलत है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, दोनों को सलाह देते समय एक ही पैमाना रखें, बेटी और बहू को पाप और बेटे को शौक के तराजू पर ना तौलें.

यह जरूर याद रखिए कमजोर महिला ही विपरीत परिस्थितियों में शराब की डगर पर फिसल जाती है. किसी भी प्रकार के नशे की जरूरत तभी पड़ती है, अगर आप के अंदर हौसले की चिंगारी न हो.

नशा हो जब तुम को हौसले की उड़ान का तो फिर क्या करोगी तुम शराब के जाम का.

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कैंसर की तरह परिवार में फैलता अलगाव

हिंदी फिल्मों में से आजकल परिवार उसी तरह गायब हो गया है जैसे काफी समय से हौलीवुड की फिल्मों से हुआ है. हौलीवुड की फिल्मों में अब मारधाड़, स्पैशल इफैक्ट, स्पीड, तरहतरह की बंदूकें और स्पाइइंग ही दिखती है. भारतीय फिल्मों में बायोपिक बनने लगी हैं और जो परिवार दिखता है उन्हीं में होता है पर वे आमतौर पर एक पर्सनैलिटी पर केंद्रित रहती हैं. परिवार को सफल बनाने के लिए निरंतर पाठ पढ़ना जरूरी है. यह ऐसा नहीं कि विवाह करते समय किसी विवाह कराने वाले ने विवाह की शर्तें सुना दीं और हो गई इति. यह रोज का मामला है और रोज हर युगल के सामने एक नई चुनौती, एक नई समस्या, एक नई उपलब्धि, एक नया व्यवधान होता है और यदि आसपास के माहौल, समाचारों, पठनीय सामग्री, टीवी, फिल्मों में यह न दिखे तो वैवाहिक जीवन वैसे ही लड़खड़ाने लगता है जैसे विटामिनों की कमी के कारण शरीर.

लोग अब मैडिकल हैल्प के लिए डाक्टरों के पास ज्यादा जा रहे हैं बजाय फैमिली हैल्प के लिए जानकारी जुटाने या किसी विशेषज्ञ के पास. बढ़ते मानसिक रोगों और पारिवारिक तनाव का कारण यही है कि परिवार की सेहत का खयाल बिलकुल नहीं रखा जा रहा जबकि जिम जा कर शरीर की मेहनत पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. यह फिल्मों में दिखने लगा है. अगर 1950-60 की फिल्में जम कर चलीं तो इसीलिए कि पतिपत्नी और बच्चों के परिवारों ने तब अचानक सदियों पुरानी संयुक्त परिवार प्रणाली से मुक्त हो कर राहत की सांस ली थी और वे अपने संबंधों को अपने अनुसार चलाने के तरीके ढूंढ़ रहे थे. तभी नई नौकरियों, बढ़ते शहरों, सहशिक्षा, दफ्तरों आदि में आदमियों और औरतों के मिलने, प्रेम विवाहों के कारण जो समस्याएं पैदा हो रही थीं लोग उन के हल खोज रहे थे. कुछ पत्रिकाओं और उपन्यासों में पाते थे तो कुछ फिल्मों में.

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पारिवारिक फिल्में मानसिक और पारिवारिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी हैं और इन का कम बनना एक गंभीर चिंता का विषय है. पारिवारिक फिल्में चाहे परिवार को किसी भी ढंग से देखें कुछ सवालों के हल जरूर करता है. ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्मों की छद्म नैतिकता को चाहे हम पुरातनवादी और दकियानूसी कह लें पर कम से कम वे कुछ सवालों के जवाब तो देती थीं. ‘दंगल’ जैसी सफल फिल्में चाहे परिवार से बहुत दूर नहीं हैं पर उन में परिवार की कम खिलाड़ी की अपनी समस्याओं की चर्चा ज्यादा है. परिवार पर व्यक्ति हावी रहे इस में किसी को आपत्ति नहीं पर व्यक्तित्व निखारने के लिए जो नींव चाहिए होती है वह परिवार ही देता है. हिंदी फिल्में अब अकसर दिखाने लगी हैं कि टूटा परिवार होता है तो कैसे रहते हैं पर उन में अपनी सफलता से जूझ रहे पात्र साथसाथ परिवार की समस्याओं से भी जूझ रहे होते हैं.

‘इंगलिशविंगलिश’ और ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फिल्मों में परिवार के अच्छे चित्रण हैं और तभी बिना सितारों के भी ये चलीं. जो फिल्में अचानक सफल हुईं उन में अधिकांश में परिवार केंद्र में था और दर्शकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया. परिवार के प्रति उदासीनता दुनियाभर में बुरी तरह फैली है. सैल्फ डैवलपमैंट पर हजारों किताबें लिखी गई हैं. ‘मैं’ की महत्ता बहुत बढ़ी है पर इसी चक्कर में परिवारों के दीवाले निकल रहे हैं और बिना तलाक लिए भी पतिपत्नी और बच्चे मुंह फुलाए घूम रहे हैं. आमतौर पर लोगों के पास अपने दुख व्यक्त करने के शब्द ही नहीं होते. उन्हें समझ ही नहीं आता कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करें. वे अपनी धुन में मस्त रहते हैं और उसी को जीवन की सफलता मानते हैं पर कैंसर की तरह परिवार में फैलता अलगाव का ट्यूमर एक दिन अचानक फट जाता है. उस समय दवा नहीं मिलती सिर्फ या तो सर्जरी, रैडिएशन होती है या फिर मौत.

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