अधूरा ज्ञान देता मोबाइल

सोशल मीडिया ने आज आम लोगों की खासतौर पर  लड़कियों, औरतों, मांओं, प्रौढ़ों, वृद्धाओं की सोच को कुंद कर दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि जो उन के मोबाइल की स्क्रीन पर दिख रहा है वही अकेला और अंतिम सच है, वही देववाणी है, वही धर्मादेश है, वही हो रहा है. अब यह न कोई बताने वाला बचा है कि जो दिखा है वह उस का भेजा है जो आप जैसी सोच का है, आप के वर्ग का है, आप की बिरादरी का है क्योंकि सोशल मीडिया चाहे अरबों को छू रहा हो, एक जना उन्हीं को फौलो कर सकता है जिन्हें वह जानता है या जानना चाहता है.

सोशल मीडिया की यह खामी कि इसे कोई ऐडिट नहीं करता, कोई चैक नहीं करता. इस पर कमैंट्स में गालियां तक दी जा सकती हैं. सोशल मीडिया को जानकारी का अकेले सोर्स मानना सब से बड़ी गलती है. यह दिशाहीन भी है, यह भ्रामक भी है,  झूठ भी है. यह जानकारी दे रहा है पर टुकड़ों में.

नतीजा यह है कि आज की लड़कियां, युवतियां, मांएं, औरतें पढ़ीलिखी व कमाऊ होते हुए भी देश व समाज को बदलने के बारे में न कुछ जान पा रही हैं, न कह पा रही हैं, न कर पा रही हैं क्योंकि उन्हें हर बात की जानकारी अधूरी है. यह उन से मिली है जो खुद अनजान हैं, उन के अपने साथी हैं. सभी प्लेटफौर्मों से आप उन्हीं के पोस्ट देखते हो जिन्हें फौलोे कर रहे हों और अगर कहीं महिलाओं के अधिकारों की बात हो भी रही हो तो वह दब जाती है क्योंकि जो फौरवर्ड कोई नहीं कर रहा. औरतों की समस्याएं कम नहीं हैं. आज भी हर लड़की पैदा होते ही सहमीसहमी रहती है. उसे गुड टच बैड टच का पाठ पढ़ा कर डरा दिया जाता है. उसे मोबाइल पकड़ा कर फिल्मों, कार्टूनों में उल झा दिया जाता है. उसे घर से बाहर के वायलैंस के सीन इतने दिखते हैं कि वह हर समय डरी रहती है. हर समय घर में मोरचा तो खोले रहती हैं पर घर के बाहर का जीवन क्या है यह उसे पता ही नहीं होता.

हमारी टैक्स्ट बुक्स आजकल एकदम खाली या भगवा पब्लिसिटी का सोर्स बन गई हैं. उन से जीने की कला नहीं आती. घरों में मोबाइल और सोशल मीडिया की वजह से संवाद कम हो जाता है, अनजानों की रील्स और आधीअधूरी जानने वालों की पोस्टों से ही फुरसत नहीं होती कि घर में रहने वाले कैसे रह रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, क्या कर रहे हैं. यह संवादहीनता ही घरों में विवादों की जड़ है. कोई दूसरे को सम झ ही नहीं रहा क्योंकि मोबाइल पर एकतरफा बात हो रही है और यह बात भी ऐसी कि अगर अच्छी हो तो उसे संजो कर नहीं रख सकते.

धर्म वाले अभी भी धंधा चालू रख रहे हैं. वे मोबाइलों पर आरतियों, कीर्तनों, धार्मिक उपदेशों,  झूठी महानता की कहानियों, रीतिरिवाजों को विज्ञान से जोड़ कर बकवास पोस्ट करे जा रहे हैं. चूंकि सोशल मीडिया एक तरफा मीडियम है, उसे देखने वालों को सच झूठ पता नहीं चल पा रहा. यह औरतों को ज्यादा भयभीत कर रहा है क्योंकि आज भी उन्हें डर है कि उन का बौयफ्रैंड या पति धोखा न दे जाए. औरतों को जो कहना होता है वे अब कह नहीं पा रहीं क्योंकि ऐसे प्लेटफौर्म कम होते जा रहे हैं, जहां कुछ गंभीर कहा जा सकता था.

बलौर्ग्स को भी इंस्टाग्राम और यूट्यूब को शौर्ट रील्स की फालतू की चुहुलबाजी, बेमतलब की ड्रैसों, फूहड़ नाचगानों ने कहीं पीछे कोने में धकेल दिया है.

जीवन आज भी फिजिकल चीजों से चलता है. सिर्फ पढ़ने या जानने के अतिरिक्त सबकुछ फिजिकल है, ब्रिक ऐंड मोर्टार का है, वर्चुअल नहीं है. आज जो भी हमारे चारों ओर है वह फिजिकल वर्ल्ड की देन है, यहां तक कि मोबाइल भी जो ब्रिक ऐंड मोर्टार व इंजीनियरिंग मशीनों से भरी फैक्टरियों से निकलते हैं, दुकानों में बिकते हैं. इस फिजिकल वर्ल्ड को भूल कर वर्चुअल वर्ल्ड में खो जाना एक तरह से धर्म की जीत है जो चाहता है कि भक्त काम करें पर फिजिकल चीजें उसे दे दें और खुद भक्ति में रमे रहें, किसी भगवान के आगे पसरे रहें, दान देते रहें.

फिजिकल वर्ल्ड का नुकसान आम लड़कियों को हो रहा है, युवतियों को हो रहा है, प्रौढ़ मांओंको हो रहा है, वृद्धाओं को हो रहा है जिन के पास अपना कहने को सिर्फ मोबाइल पर आने वाली सैकड़ों की तसवीरें और जल्दी मिट जाने वाले शब्दों के अलावा कुछ ज्यादा नहीं. अंबानी, अडानी, ऐलन मस्क को छोड़ दीजिए. वे धार्मिक कौंसपिरेसी का हिस्सा हैं, औरतों के दुश्मन हैं, उन्हें नाचने, अपनी वैल्थ दिखाने के लिए पास रखते हैं.

रील्स के लती बनते बुजुर्ग

बुजुर्गों के हाथों और चेहरे पर झुर्रियां पड़ चुकी हैं पर उन्हें रील देखने की बुरी लत लग चुकी है. फोन चला लेने में सक्षम हो चुके ये बुजुर्ग कांपते हाथों से हर समय रील्स देखने में लगे रहते हैं. पहले ये अपने से छोटों को समय की एहमियत पर लताड़ लगा दिया करते थे. टाइम पास नहीं होता था तो अपने पुराने किस्से बता दिया करते थे, पर अब खुद फोन पर घंटों लगे रहते हैं.

इन से भी फोन का मोह नहीं छूट पा रहा है. एक आंख में मोतियाबिंद का औपरेशन हो रखा है पिर भी दूसरी आंख से रील देखने में व्यस्त हैं जबकि तिरछे में सफेद पट्टी माथे डाक्टर ने आंख पर ज्यादा जोर डालने से मना किया है पर फिर भी रील देखने से कंप्रोमाइज नहीं करते. स्क्रीन से तब तक नजर नहीं हटती है जब तक कोई टोक न दे.

रील का चसका ऐसा कि बहू किचन से खाना तैयार है जोर से बाबूजीबाबूजी कह कर ड्राइंगरूम में बुला रही है पर बाबूजी अपने कमरे में मोबाइल में उलझे पड़े हैं. खाना ठंडा हो जा रहा है, फिर भी बिस्तर से सरक नहीं रहे हैं.

हैरानी की बात

जो बाबूजी पहले खुद जल्दबाजी मचाया करते थे, समय पर खाना खाने की अहमियत बताया करते थे उन्हें अब खुद फोन की घंटी बजा कर बुलाना पड़ता है. हैरानी की बात तो यह कि खातेखाते भी रील देख रहे हैं. फोन कुछ देर रखने को कहो तो ?ाल्ला कर खाना ही छोड़ देंगे.

यही हाल सास का भी है. पहले जिस सास का काम दिनभर बहू की निगरानी करना था, उसे आटेदाल का भाव बताना था, सुबह जल्दी उठने की नसीहत देना था, बातबात पर टोकनाडपटना था वह भी अब बिना अलार्म की बांग पर उठ नहीं रही है. अलार्म भी 4-5 सैट करने पड़ते हैं. पहले अलार्म से तो केवल भौंहें ही फड़कती हैं.

इन बुजुर्गों का स्लीप साइकिल बुरी तरह बिगड़ चुका है. रात को देर तक जाग रहे हैं. सास और बहू एक ही समय में सो कर उठ रही हैं. घर में बड़ा इक्वल सा माहौल चल रहा है. नए जमाने की बहू रील बनाते हुए अपनी सास को ही रील में खींच लेती है. 4 ठुमके बहू खुद मारती कहती है 1 सास को मारने को कहती है. सास भी गानों पर लिप्सिंग करना जान गई है, ‘मेरे पिया गए रंगून…’ की जगह अब ‘तेरे वास्ते फलक से चांद…’ गुनगुना रही है.

बुजुर्ग अब बीपी और आर्थ्राइटिस की गोलियां तो भूल ही रहे हैं. सुबह खाली पेट थायराइड की गोलियां खाना भी भूल रहे हैं. कोई फूल कर कुप्पा हो रहा है तो कोई सिकुड़ रहा है. कईयों के कान में हड़ताल चल रही है. मगर कान में रिसीविंग एन केनाल मशीन लगा कर रील सुनी जा रही हैं.

अजीबोगरीब शौक

रील्स का बैकग्राउंड वौइस बेहतर सुनाई दे इसलिए जिन के कान ठीक चल रहे हैं वे कान में कुछ ब्लूटूथ भी लगा रहे हैं. बुजुर्ग भी जानते हैं रील में ‘मोयेमोये,’ ‘आएं… बैगन’ की आवाज के बीच गालीगलौज निकल जाती है इसलिए कुछ वायर लीड से ही काम चला रहे हैं.

बुजुर्ग अलगअलग प्लेटफौर्म पर अलगअलग कंटैंट कंज्यूम कर रहे हैं. अधिकतर शौर्ट वीडियो यानी रील्स ही देख रहे हैं. जहां पर सोफिया अंसारी और कोमल पांडे की तड़कतीभड़कती रील्स भी दिख जा रही हैं. इन की रील्स पर रुकने का मन हो रहा है पर उम्र जवाब दे रही है.

बेटे का फ्लैट शहर में है. मम्मीपापा को शहर ही ले आया है. 100 गज के बंधे फ्लैट में गांव की याद आ रही है. गांवों से शहरों में पलायन कर चुके बुजुर्ग यूट्यूब पर गांव की खूब खबरें देख रहे हैं. पिज्जाबर्गर खाते हुए गांव के इन्फ्लुएंसरों को खोजखोज कर देख रहे हैं. शहर को गरिया रहे हैं, पिज्जाबर्गर खा रहे हैं.

अधकचरा ज्ञान

कुछ तो यूट्यूब पर पौलिटिकल ऐनालिसिस सुन रहे हैं. यूट्यूब पर पौलिटिकल रिसर्च करने वाले इन इन्फ्लुएंसर को ये बुजुर्ग रजनी कोठारी से ले कर विद्या धर सारीका राजनीतिक शास्त्री मान बैठे हैं. मामला अब व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से यूट्यूब रिसर्च इंस्टिटयूट में शिफ्ट हो चुका है. इन यूट्यूबरों कम इन्फ्लुएंसरों का मोबाइल पर इतना कंटैंट आ जाता है कि एक बार बुजुर्ग देखना शुरू करते हैं तो रुक ही नहीं पाते.

कुछ यहां से सुना अधकचरा ज्ञान ले कर वे सहबुजुर्गों के व्हाट्सऐप ग्रुप में शेयर कर रहे हैं. व्हाट्सऐप पर इन का ग्रुप बना पड़ा है, जिस पर आधे से ज्यादा मैसेज भगवान की पिक्चर के साथ गुड मौर्निंग, गुड नाइट के होते हैं.

पहले ये बुजुर्ग अपने इलाके में बनी चौपाल पर मिला करते थे. पुरुषों की सारी चुगलियां बरगद के पेड़ के नीचे हुआ करती थीं, चुगलियों के बीच घरपरिवार के दुखों को भी बांट जाया करते थे.

अंधविश्वास को बढ़वा

थोड़ीबहुत पौलिटिकल बातें भी होती थीं पर अब चौपाल में कहने को 500 साल पुराना बरगद का पेड़ कट चुका है. वहां महल्ले के लड़केलड़कियों की बाइकस्कूटियां खड़ी होती हैं. इसलिए व्हाट्सऐप ग्रुप ही नया चौपाल बना गया है.

समस्या यह कि इंटरनैट ऐल्गोरिदम में फंसे ये बुजुर्ग नया कुछ नहीं देखसुन पा रहे. जो सुन रहे हैं वही शेयर कर रहे हैं. उसी को ज्ञान मान रहे हैं, उसी को सही मान रहे हैं, कुछ तो अलग लैवल के भक्त बन पड़े हैं.

फेसबुक पर लंबेलंबे धार्मिक पोस्ट पढ़ रहे हैं. विटामिन की गोली खा रहे हैं फिर नीचे कमैंट में जय श्रीराम लिख रहे हैं. ऐल्गोरिदम इन्हें यही पोस्ट और रील्स भेज रहा है, जिसे देखसुन कर ये लोटपोट हुए जा रहे हैं.

इधर कुआं उधर खाई

हर मोबाइल में कैमरा होना एक टैक्नोलौजी का कमाल है पर हर नई टैक्नोलौजी की तरह उस में भी खतरे भरे हैं. अब इस कैमरे का वाशरूमों में लड़कियों के कपड़े बदलने के दौरान वीडियो बनाने के लिए जम कर इस्तेमाल किया जा रहा है जिसे बाद में ब्लैकमेल के लिए या यों ही मजा लेने के लिए वायरल कर दिया जाता है.

भारत की महान जनता भी ऐसी है कि इस तरह के सैक्सी वीडियो को देखने के लिए हर समय पागल बनी रहती है और इंस्टाग्राम, फेसबुक, ऐप्स, थ्रैड्स, यूट्यूब पर हरदम जुड़ी रहती है तो इसलिए कि इस तरह का कोई वीडियो डिलीट होने से पहले मिस न हो जाए.

दिल्ली के आईआईटी में स्टूडैंट्स के एक प्रोग्राम में फैशन शो के दौरान लड़कियों के ड्रैस बदलने व कौस्ट्यूम पहनने के समय वाशरूम की खिड़की से एक सफाई कर्मचारी शूटिंग करता पकड़ा गया. इस तरह के मामले तो आम हैं पर जिन लड़कियों के वीडियो वायरल हो जाते हैं उन की कितनी रातें हराम हो जाती हैं.

आजकल ऐडिटिंग टूल्स भी इतने आ गए हैं कि इन लड़कियों की बैकग्राउंड बदल कर इन्हें देहधंधे में लगी तक दिखाया जा सकता है, वह भी न के बराबर पैसे में.

अच्छा तो यही है कि मोबाइल का इस्तेमाल बात करने या मैसेज देने के काम आए और उसे कैमरों से अलग किया जाए. कैमरा आमतौर पर दूसरों की प्राइवेसी का हनन करता है. पहले जो कैमरे होते थे दिख जाते थे और जिस का फोटो खींचा जा रहा होता था वह सतर्क हो जाता था और आपत्ति कर सकता था.

अब जराजरा सी बात पर मोबाइल निकाल कर फोटो खींचना या वीडियो बनाना अब बड़ा फैशन बन गया है और लोग रातदिन इसी में लगे रहते हैं. यह पागलपन एक वर्ग पर बुरी तरह सवार हो गया है और टैक्नोलौजी का इस्तेमाल हर तरह से घातक होने लगा है.

मोबाइल बनाने वाली कंपनियां लगातार कैमरों में सुधार कर रही हैं पर यह बंद होना चाहिए. कैमरे की डिजाइन अलग होनी चाहिए और केवल अलग रंगों में मिलनी चाहिए ताकि इस का गलत इस्तेमाल कम से कम हो. यह टैक्नोलौजी विरोधी कदम नहीं है, यह कार में सेफ्टी ब्रेक, एअर बैलून जैसा फीचर है.

हर मोबाइल एक प्राइवेसी हनन का रास्ता बन जाए उतना खतरनाक है जैसा सुरक्षा के नाम रिवाल्वरों को हरेक हाथों में पकड़ा देना जो अमेरिका में किया जा रहा है. वहां हर थोड़े दिनों में कोई सिरफिरा 10-20 को बेबात में गोलियों की बौछारों से भून डालता है पर चर्च समर्थक इसे भगवान की मरजी और अमेरिकी संविधान के हक का नाम देते हैं. जब अमेरिका का संविधान बना था तब हर जगह पुलिस व्यवस्था नहीं थी और लोगों को गुंडों, डाकुओं और खुद सरकार की अति से बचना होता था.

मोबाइल कैमरे किसी भी तरह काम के नहीं हैं. वैसे ही सरकारों ने देशों को सर्विलैंस कैमरों से पाट रखा है. इस पर मोबाइल कैमरे बंद होने चाहिए. कैमरे बिकें, एक अलग डिवाइस की तरह. ऐसा करने से कम लोग कैमरे लेंगे और जो लेंगे उन में अधिकांश जिम्मेदार होंगे. वे अमेरिका के गन कल्चर की तरह काम करें, यह संभव है पर फिर भी उम्मीद की जाए कि निर्दोष मासूम लड़कियां अपने बदन की प्राइवेसी को बचा कर रख सकेंगी. वैसे यह मांग मानी जाएगी, इस में शक है क्योंकि जनता को अफीम की तरह मोबाइल कैमरों की लत पड़ चुकी है और ड्रग माफिया की तरह मोबाइल कंपनियां अरबों रुपए लगा कर ऐसे किसी बैन को रोकने में सक्षम हैं.

क्या है सोशल मीडिया एडिक्शन

अकसर हम अपना अकेलापन या बोरियत दूर करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं और फिर धीरेधीरे हमें इस की आदत हो जाती है. हमें खुद एहसास नहीं होता कि कैसे समय के साथ यही आदत एक नशे की तरह हमें अपने चंगुल में फंसा लेती है. तब हम चाह कर भी इस से दूर नहीं हो पाते. ड्रग एडिक्शन की तरह सोशल मीडिया एडिक्शन भी शारीरिक व मानसिक सेहत के साथसाथ सामाजिक स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है.

हाल ही में अमेरिकी पत्रिका ‘प्रिवेंटिव मैडिसिन’ में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक यदि हम सोशल मीडिया प्लेटफौर्म जैसे फेसबुक, ट्विटर, गूगल, लिंक्डइन, यूट्यूब, इंस्टाग्राम आदि पर अकेलापन दूर करने के लिए अधिक समय बिताते हैं, तो परिणाम उलटा निकल सकता है.

शोध के निष्कर्ष में पता चला है कि वयस्क युवा जितना ज्यादा सोशल मीडिया पर समय बिताएंगे और सक्रिय रहेंगे, उन के उतना ही ज्यादा समाज से खुद को अलग थलग महसूस करने की संभावना होती है.

शोधकर्ताओं ने 19 से 32 साल की आयु के 1,500 अमेरिकी वयस्कों द्वारा 11 सब से लोकप्रिय सोशल मीडिया वैबसाइट इस्तेमाल करने के संबंध में उन से प्राप्त प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण किया.

अमेरिका की पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रमुख लेखक ब्रायन प्रिमैक के मुताबिक, ‘‘हमें स्वाभाविक रूप से सामाजिक प्राणी हैं, लेकिन आधुनिक जीवन हमें एकसाथ लाने के बजाय हमारे बीच दूरियां पैदा कर रहा है जबकि हम ऐसा महसूस होता है कि सोशल मीडिया सामाजिक दूरियां को मिटाने का अवसर दे रहा है.’’

सोशल मीडिया और इंटरनैट की काल्पनिक दुनिया युवाओं को अकेलेपन का शिकार बना रही है. अमेरिका के संगठन ‘कौमन सैस मीडिया’ के एक सर्वेक्षण ने दिखाया कि किशोर नजदीकी दोस्तों से भी सामने मिलने के बजाय सोशल मीडिया और वीडियो चैट के जरिए संपर्क करना पसंद करते हैं. 1,141 किशोरों को अध्ययन में शामिल किया गया था और उन की उम्र 13 से 17 साल के बीच थी.

35% किशोरों को सिर्फ वीडियो संदेश के जरिए मित्रों से मिलना पसंद है. 40% किशोरों ने माना कि सोशल मीडिया के कारण मित्रों से नहीं मिल पाते. 32% किशोरों ने बताया कि वे फोन व वीडियो कौल के बिना नहीं रह सकते.

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इंटरनैट की लत किशोरों के दिमागी विकास अर्थात सोचनेसमझने की क्षमता पर नकारात्मक असर डाल सकती है. लगातार आभासी दुनिया में रहने वाले किशोर असल दुनिया से दूर हो जाते हैं. इस से वे निराशा, हताशा और अवसाद के शिकार बन सकते हैं.

जरा ध्यान दीजिए कि कैसे सोशल मीडिया का जाल धीरे धीरे हमें अपनी गिरफ्त में ले कर हमारा कितना नुकसान कर रहा है. आजकल घरों में सदस्य कम होते हैं, तो अकसर या तो मातापिता ही बच्चे का मन लगाने के लिए उन्हें स्मार्टफोन थमा देते हैं या फिर अकेलेपन से जूझते बच्चे स्वयं स्मार्टफोन में अपनी दुनिया ढूंढ़ने लगते हैं. शुरू शुरू में तो सोशल मीडिया पर नएन ए दोस्त बनाना बहुत भाता है, मगर धीरेधीरे इस काल्पनिक दुनिया की हकीकत से हम रूबरू होने लगते हैं. हमें एहसास होता है कि एक क्लिक पर जिस तरह यह काल्पनिक दुनिया हमारे सामने होती है वैसे ही एक क्लिक पर यह गायब भी हो जाती है और हम रह जाते हैं अकेले, तनहा, टूटे हुए से.

जिस तरह रोशनी के पीछे भागने से हम रोशनी को पकड़ नहीं सकते ठीक उसी तरह ऐसे नकली रिश्तों के क्या माने जो मीलों दूर हो कर भी हमारे दिलोदिगाम को जाम किए रहते हैं?

किसी को यदि एक बार सोशल मीडिया की लत लग जाए तो बेवजह बारबार वह अपना स्मार्ट फोन चैक करता रहता है. इस से उस का वक्त तो जाया होता ही है कुछ रचनात्मक करने की क्षमता भी खो बैठता है, जिस से रचनात्मक काम करने से मन को मिलने वाली खुशी से सदा वंचित रहता है.

इंसान एक सामाजिक प्राणी है. आमनेसामने मिल कर बातें कर इंसान को जो संतुष्टि, अपनेपन और किसी के करीब होने का एहसास होता है वह सोशल मीडिया में बने रिश्तों से कभी नहीं हो सकता.

जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं तो आप को समय का एहसास नहीं होता. आप घंटों इस में लगे रहते हैं. लंबे समय तक स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने पर कई तरह की शारीरिक व मानसिक समस्याएं भी पैदा होती हैं.

स्वास्थ्य पर पड़ता है असर

स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने से नींद में कमी आ जाती है. आंखें कमजोर होने लगती हैं. शारीरिक गतिविधियों की कमी से तरहतरह की बीमारियां पैदा होने लगती हैं. याददाश्त तक कमजोर हो जाती है.

आजकल लोग किसी भी समस्या का तुरंत समाधान चाहते हैं. उन्हें इंटरनैट पर हर सवाल का तुरंत जवाब मिल जाता है. इसीलिए वे अपनी सोचनेसमझने की शक्ति खोने लगते हैं. दिमाग का प्रयोग कम हो जाता है. यह एक नशे की तरह है. लोग घंटों अनजान लोगों से चैट करते रहते हैं पर हासिल कुछ नहीं होता.

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क्या आपको भी है सोशल मीडिया की लत

क्या आप भी अपना अधिकतम समय facebook ,netflix ,youtube और instagram पर व्यतीत  करते है? यदि हाँ तो ये लेख आपके लिए है . मेरे इस लेख को पूरा पढ़े क्योंकि आधा सच झूठ से भी बुरा होता है.

आप तो ये जानते ही है की सोशल मीडिया कितना पावरफुल है. सोशल मीडिया की पॉवर इतनी है कि दुनिया के किसी भी इंसान से आपको मिलवा सकती है  और सोशल मीडिया की पॉवर इतनी है की आपको आपके परिवार के साथ रहते हुए भी उनसे दूर कर सकती है .

इससे कोई नहीं बच पाया है आदमी से औरत तक,बच्चे से बूढ़े तक,हर जाति ,हर देश, इस मानव निर्मित दुनिया में खोते से जा रहे हैं.हम दिन में 100 से 200 बार phone उठा रहे है .उठते- बैठते ,खाते- पीते,आते -जाते ,सोते -जागते बस mobile ,mobile, सोशल मीडिया ,mobile .खुद के लिए तो हम टाइम निकालना ही भूल गएँ है. ,आज की तारीख में खाने से ज्यादा जरूरी हो गयी है इन्टरनेट कनेक्टिविटी.

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कोई मर रहा है तो video ,कोई किसी को मार रहा है तो video ,कोई गाडी चला रहा है तो वीडियो.  हम इस इन्टरनेट के चक्कर में कितने नकली से हो गये हैं . एक दिन को अगर internet बन्द हो जाता है तो लगता है की न जाने हमारा क्या खो   गया .कितने likes ,कितने share ,कितने comment बस इन्ही की गिनती कर रहे है हम .अपनी असली कीमत को तो हम भूलते ही जा रहे हैं.

एजुकेशन की जगह एंटरटेनमेंट का नशा हो गया है. क्या आप जानते हैं की सीखने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है ये इन्टरनेट और वहीँ टाइम पास करने वालों के लिए किसी शराब की लत से कम नहीं है इन्टरनेट.

गेम्स के राउंड पूरे करके लोग एक सफलता का अनुभव करते है पर मैं आपको बता दूं की वास्तविक जीवन के लक्ष्य पूरे करने पर जो सफलता मिलेगी उसका अनुभव अलग ही होगा .

इन्टरनेट एक अच्छा गुरु है इससे एक सवाल करो तो 1 सेकंड से कम में भी जवाब देता है. ये जो इन्टरनेट है ये चीज़ हमें सिखाने के लिए बनी है,हमें एक बेहतर इंसान बनाने के लिए ही बनी है ,किसी दूर बैठे को पास लाने के लिए बनी है,इस दुनिया में क्या हो रहा है ये बताने के लिए बनी है.

पर क्या करें हम है तो इंसान ही ना ,किसी अच्छी  चीज़ की हम इतनी अति कर देते हैं की वो चीज़ हमारे लिए बुरी हो जाती  है. वही हो रहा है इन्टरनेट के साथ ,वही हो रहा है mobile के साथ ,वही हो रहा है सोशल मीडिया के साथ .

हम हर वक़्त अपने mobile से चिपके रहते हैं .mobile के बिना हम घर से बाहर  कदम नहीं निकालते. एक भी मेसेज ,एक भी नोटीफिकेशन को जाया नहीं जाने देते हर वक़्त चेक एंड रिप्लाई चलता रहता है. हद तो तब हो जाती है जब हम खुद के साथ- साथ अपने बच्चो को भी इसकी चपेट में ले आते है. हम खुद में इतना ज्यादा मशरूफ हो जाते है है की हमारे पास अपने बच्चो  से बात करने तक का समय नहीं रहता और हम उन्हें mobile में इन्टरनेट कनेक्ट करके दे देते है ताकि वो हमें परेशान न करें .

बच्चों  को व्यस्त  रखने का ये तरीका कहीं आपके बच्चे को आपसे दूर न कर दे. हाल ही में किये गए एक शोध के मुताबिक डिजिटल उपकरणों के अधिक उपयोग से बड़ों से लेकर बच्चो तक में  आंखों की रोशनी कम होना , आंखें खराब होना , सिर दर्द, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई जैसे लक्षण पाए गए  है.

क्या आप जानते है की इन्टरनेट पर गेम खेलने की वजह से बच्चों  के अन्दर मनोवैज्ञानिक बीमारियाँ भी आ रही है .इन्टरनेट पर गेम खेलने से रोकने पर बच्चे घबराहट महसूस करते है.

अगर आपके  बच्चे में  बेवज़ह गुस्सा करना या चिडचिडाना ,ज्यादातर अकेले रहने की आदत  या हर वक़्त ऑनलाइन रहने की आदत है तो यह इन्टरनेट एडिक्शन की निशानी है. ज्यादातर बच्चे super- heroes को अपना ideal  मानते है और उनसे एक जुडाव महसूस करते हैं. super- heroes के साथ जुडी बच्चों की दीवानगी जानलेवा भी साबित हो सकती है.

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भारत ने इन्टरनेट इस्तेमाल करने के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है.एक अनुमान के हिसाब से सन 2021  में भारत में इन्टरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगभग 73 करोड़ होगी .ऐसे में इस देश के भविष्य (बच्चों)  को इस लत से बचाना होगा वरना इसका नतीजा बहुत भायानक होगा.

समझदार बनिए , इस इन्टरनेट के नौकर नहीं बल्कि मालिक बनिए  .ये आपको  use  न करे, आप  इसे use  करें .अपने परिवार के साथ ,अपने दोस्तों के साथ कीमती समय व्यतीत करें . Emoji के साथ- साथ लाइफ के real इमोशन भी फील करिए.फिर महसूस करिए की ये दुनिया कितनी खूबसूरत है.

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