लड़कियों को खुद चुननी है अपनी राह  

उत्तर प्रदेश के देवरिया से मुंबई आकर रहने वाली सिमरन और उसके परिवार को ये शहर बहुत पसंद आया, क्योंकि यहाँ उन्हें एक अच्छी शहर, साफ सुथरा इलाका, पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था सब मिला. 3 बहनों मे सबसे छोटी सिमरन ने कॉलेज मे पढ़ाई भी पूरी की और जॉब के लिए अप्लाइ किया और उन्हें काम भी मिला, लेकिन सिमरन के पिता को ये आपत्ति थी कि सिमरन कहीं काम न करें, बल्कि घर से कुछ कमाई कर सकती है, तो करें, बाहर जाकर उनके काम करने पर बिरादरी मे उनकी नाक कटेगी. सिमरन कई बार अपने पिता को समझाने की कोशिश करती रही कि उनकी बिरादरी यहाँ नहीं है और जॉब करना गलत नहीं, आज हर किसी को काम करना जरूरी है, उनके सभी दोस्त काम करते है, लेकिन उनके पिता नहीं मान रहे थे.

5 लोगों के परिवार में सिर्फ उनके पिता के साधारण काम के साथ अच्छी लाइफस्टाइल बिताना सिमरन के लिए संभव नहीं था, जिसका तनाव उनके पिता के चेहरे पर साफ सिमरन देख पा रही थी. साथ ही सिमरन काम करना चाह रही थी, क्योंकि वह आज के जमाने की पढ़ी – लिखी लड़की है और आत्मनिर्भर बनना उसका सपना है. इसलिए देर ही सही पर उसने आज अपने पेरेंट्स को मना लिया है और आज एक कंपनी मे काम कर वह खुश है, लेकिन यहाँ तक पहुँचने में उन्हें दो साल का समय लगा है.

आत्मनिर्भर बनना है जरूरी     

असल में आज लड़के हो या लड़की सभी को अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद आत्मनिर्भर बनने का उनका सपना होता है, ताकि वे अपने मन की जीवन चर्या बीता सकें. ये सही भी है, क्योंकि हर व्यक्ति के लिए सबसे बड़ी बात होती है उसकी आत्मसम्मान को बनाए रखना और उसके लिए जरूरी है, आत्मनिर्भर बनना. व्यक्ति चाहे कितना भी बुद्धिमान, सुंदर और बलशाली क्यों ना हो, अगर खुद की खर्चे उठाने के लिए उन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ रहा है, तो आपकी ज्ञान की कोई कीमत नहीं होती.

अंग्रेजी में एक कहावत है. “ There is no free lunch.” ( दुनिया में मुफ्त की रोटी कहीं नहीं मिलती). ये बात बहुत सही है. पश्चिमी देशों में बड़े बड़े अरबपतियों के बच्चे भी पढ़ाई के साथ साथ कहीं न कहीं काम करते हैं, क्योंकि वहां हर एक इन्सान को अपना काम खुद करना और अपने रोटी का इंतजाम खुद करना बचपन से सिखाया जाता है. इसीलिए उन लोगों को पैसों और परिश्रम का मोल बहुत अच्छे तरीके से पता रहता है. भारत में ऐसी उदाहरण बहुत कम देखने को मिलता है, क्योंकि भारत में पेरेंट्स को बच्चों के लिए अपना सबकुछ त्याग देने की एक आदत होती है. हालांकि आज इसमें बदलाव धीरे – धीरे आ रहा है, लेकिन कुछ लोग अभी भी इसे स्वीकार कर पाने में असमर्थ होते है.

इसका एक उदाहरण नासिक की एक मराठी अभिनेत्री की है. उनके पिता ने बेटी के साथ दो साल तक बात नहीं की, क्योंकि वह मुंबई जॉब करने की झूठी बात कहकर ऐक्टिंग के लिए आई थी, हालांकि उनकी माँ को इस बात की जानकारी थी. उनके पिता को ऐक्टिंग की बात, तब मालूम पड़ा, जब उन्होंने टीवी पर बेटी को अभिनय करते हुए देखा और रिश्तेदारों के तारीफ को सुनकर उन्होंने अपनी बेटी से दो साल बाद बात किया.

जिम्मेदारी बेटियों की   

इस बारें में काउन्सलर रशीदा कपाड़िया कहती है कि आज के जेनरेशन की लड़कियां पढ़ी – लिखी है और वे खुद कमाई कर अपना जीवन यापन करना पसंद करती है, उन्हें अपने पेरेंट्स पर बोझ बनना पसंद नहीं, क्योंकि बड़े शहरों में उनके उम्र के सभी यूथ जब जॉब कर रहे होते है, तो उन्हें भी काम करने की इच्छा होती है, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं कर पाते है, तो खुद को अपने दोस्तों के बीच में कमतर और शर्मिंदगी महसूस करते है, साथ ही उन्हे हताशा, स्ट्रेस आदि भी होती है, ऐसे में अगर उनके परिवार वाले काम करने से मना करते है, तो इसका रास्ता उन्हे खुद ही ढूँढना पड़ता है कि वे अपने पेरेंट्स को कैसे मनाएँ. ये सही है कि छोटे शहर या गाँव से आने वाले लोगों के लिए बड़े शहर को बेटियों के लिए सुरक्षित मानना सहज नहीं होता, क्योंकि वे इतनी बड़ी शहर से अनजान होते है, जबकि गाँव घर में रहने वाले सभी एक दूसरे को जानते और पहचानते है, ऐसे में बच्चों की जिम्मेदारी होती है कि वे इन बड़े शहरों की अच्छाइयों से पेरेंट्स को परिचित करवाएँ. फिर भी वे अगर काम करने से मना करते है, तो उसकी वजह जानने की कोशिश कर उसका हल निकालने चाहिए.

अपने अनुभव के बारें में राशीदा बताती है कि मेरे पास भी बैंक में जॉब करने वाली इंटेलिजेंट लड़की आई थी, उसके पेरेंट्स गाँव के थे. मुंबई में उसके काम से खुश होकर बैंक वालों ने उसे लंदन दो साल के लिए भेजा था, जिसके लिए उसे अपने पेरेंट्स को मनाना मुश्किल हुआ था. यहाँ वापस आने पर उसे अपने प्रेमी और जिम ट्रैनर से शादी करना संभव नहीं हो पा रहा था, क्योंकि उसके ससुराल वाले इतनी स्मार्ट लड़की को घर की बहू बनाना नहीं चाहते थे, लेकिन सबको समझाने पर उसकी शादी हुई और आज वह खुश है.

सुझाव को करें फॉलो

इसलिए जब भी पेरेंट्स, बेटी को जॉब करने से मना करें, तो बेटियों को कुछ बातों से पेरेंट्स को अवश्य अवगत करवाएँ,

  • अपने कार्यस्थल पर उन्हे ले जाए,
  • संभव हो तो, सह कर्मचारियों से मिलवाएँ,
  • उन्हे मोबाईल के जरिए लोकेशन की जानकारी दें,
  • जाने – आने की सुविधा के बारें मे जानकारी दें, क्योंकि आजकल कई ऑफिस में जाने आने की ट्रांसपोर्ट की अच्छी व्यवस्था भी होती है, जो सुरक्षित परिवहन होता है.

इन सभी जानकारी से पेरेंट्स आश्वस्त होकर बेटी को काम करने से मना नहीं कर सकेंगे और अंत में जब पैसे घर आते है, तो पूरा परिवार बेटी की कमाई को अच्छा महसूस करते है, क्योंकि बेटियाँ बेटों से अधिक समझदार होती है. उनके कमाने पर अधिकतर घरों की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है

सामाजिक बहिष्कार आत्महत्या का एक कारण

एक व्यक्ति सामाजिक जाल से बच कर नहीं जी सकता. हमारे अस्तित्व के लिए समाज के प्रति अपनेपन की भावना का होना आवश्यक है. जब किसी व्यक्ति का किसी एक सामाजिक समूह द्वारा जान बूझ कर बहिष्कार किया जाता है तो यह उसके दिमाग में स्ट्रेस का कारण बन सकता है. जिसके कारण न केवल डिप्रेशन बल्कि आत्महत्या की भी नौबत आ सकती है. इसलिए उसकी भागीदारी भी उसके मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य व सफलता के लिए आवश्यक होती है. इस कारण कोई भी इंसान नकारत्मक हो सकता है जिसकी वजह से उस के इम्यून सिस्टम पर भी प्रभाव पड़ सकता है. अतः अपनेपन की भावना को हम आत्मविश्वास से जोड़ सकते हैं.

किसी एक समूह से तालुकात रखना हमारी सामाजिक छवि को दर्शाता है जोकि हमारी व्यक्तिगत छवि के लिए बहुत आवश्यक है. आप की सामाजिक छवि आप की एक पहचान है जो आप को समाज में किसी गुणी समूहों का हिस्सा बनने पर मिलती है. अतः सामाजिक बहिष्कार एक बहुत ही दर्दनाक स्थिति होती है. किसी एक समूह द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को बिल्कुल इग्नोर करना उसके जीवन पर विभिन्न प्रकार से प्रभाव डाल सकता है. यदि कोई थोड़े समय के लिए बहिष्कृत किया जाता है तो उसे इससे संभलने में भी ज्यादा समय नहीं लगता है. परंतु यदि यह बहिष्कार काफी लंबे समय तक किया जाता है तो इसका उस व्यक्ति पर असर भी लंबा ही होता है. इसके दिमाग में बहुत नकारत्मकता भर जाती है.

सामाजिक बहिष्कार अनुत्पादकता, हाशिए ( जो लोग नीची जाति के होने के कारण समाज द्वारा एक किनारे पर धकेल दिए जाते हैं ) व गरीबी से जुड़ा हुआ है. बहिष्करण से संबंधित सामाजिक समस्याएं समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं.  इस तरह के अनुभव आम हैं और जो लोग सबसे असुरक्षित हैं, उनमें एकल महिलाएं, बेरोजगार लोग, विकलांग और बेघर शामिल हैं.  सच में, जब हम एक समूह से बाहर किए जाते हैं, तो हम सभी को बहुत दर्द होता है.

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किसी के जीवन में ऐसे समय भी आते हैं जब कोई ऐसे अनुभवों से वह सबसे अधिक कमजोर हो जाते है, विशेषकर किशोरावस्था में.  यह हमारे सहकर्मी समूह के साथ सामाजिक संबंधों को बढ़ावा देने और मजबूत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण समय में से एक समय है.  जीवन के इस पड़ाव पर सामाजिक पहचान की आवश्यकता सबसे महत्वपूर्ण है.  स्वीकृति और लोकप्रियता इस स्तर पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.  साथियों द्वारा बहिष्करण किसी को अस्वीकार्य महसूस करा सकता है और तीव्र नकारात्मक भावनाओं को पैदा कर सकता है, जो अक्सर बुलीइंग द्वारा बढ़ाए जाते हैं. जो लोग दूसरों को हीन महसूस करवाते हैं उन्हें बुली कहा जाता है और यह लोग एक ही इंसान को बार बार अपना शिकार बनाते हैं. यह तब बहुत ही मुश्किल हो जाता है जब एक समूह मिलकर हमें रणनीतियों के साथ बहिष्कृत करे. यह देखने में बहुत ही आम होता है इसलिए इसे कोई नोटिस नहीं करता है.

अब समय के साथ साथ सामाजिक बहिष्कार के लिए भी नई नई तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जिसमें साइबर बुलीइंग व सेक्सटिंग एक है. इन केस में किशोरों को बेइज्जत किया जाता है, उनका मजाक उड़ाया जाता है और इसलिए उन बच्चों को स्कूल बदलने की भी नौबत आन पड़ती है.

हम इसे कैसे संबोधित कर सकते हैं?

ऐसी घटनाओं से आत्महत्या के लिए जोखिम कारक में वृद्धि हुई है.  यह एक ऐसी समस्या है जो दुनिया भर के देशों में एक गंभीर समस्या है.  यही समय  है जब हम इसे एक वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या मानना होगा और आत्महत्या के मामलों को बढ़ने से रोकने के लिए उचित हस्तक्षेप को डिजाइन और कार्यान्वित करने के लिए कदम उठाना होगा.  आत्महत्या करना विशेष रूप से मुश्किल है क्योंकि यह कई धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ा हुआ है.  यद्यपि शोधकर्ताओं और मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि स्कूल स्तर पर आत्महत्या स्क्रीनिंग कार्यक्रम और आत्महत्या रोकथाम प्रोग्रामिंग आत्महत्या की दर को कम करने में मदद करती है, हमारे पास अभी तक व्यापक-आधारित कार्यक्रम नहीं हैं.  इस मोर्चे पर प्रगति करने के लिए, हमें उन सांस्कृतिक बाधाओं को दूर करना होगा जो इन मुद्दों पर संवाद और टकराव को रोकती हैं जो न केवल नाजुक हैं बल्कि सांस्कृतिक सामान की अलग-अलग डिग्री के साथ आती हैं.

प्रकृति पोद्दार,  वेलनेस लिमिटेड की डायरेक्टर व मेंटल हैल्थ एक्सपर्ट से बातचीत पर आधारित

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