आजकल अदालतें ऐसे मामलों से भरी हुई हैं जिन में तलाक के आदेश या गुजारेभत्ते के लिए पतिपत्नी, यानी भूतपूर्व पतिपत्नी, कुत्तेबिल्लियों की तरह लड़ रहे होते हैं और उन की लड़ाई का फायदा वकील उठाते हैं और तमाशा सारा वर्ग देखता है, पतिपत्नी संबंध प्रेम का संबंध है. इसे कानून और धर्म से जोडऩा ही मूलरूप से गलत था. राजाओं और धर्म के दुकानदारों को इस में दखल दे कर दोनों से वसूली करने का रास्ता ढूंढ़ लिया.
धर्म और कानून को सदियों पतिपत्नी विवादों में खूब कमाया है और आज भी काम रहे हैं. शादी के नियम कानून सारे धर्म ने बना दिए. जब से लोकतंत्र आया तब से संसदों ने कानून बनाने शुरू कर दिए पर वे भी धर्म की राह पर. उन्होंने दूसरे बिचोलिए, वकील, बैठा दिए.
राजेश और नेहा जनवरी, 2013 से झगड़ रहे हैं और सिर्फ 15000 मासिक के गुजारेभत्ते को ले कर 2-3 बार सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुके हैं. अहम के मारे दोनों लोग कानूनी दांवपेंच अपना रहे हैं. मामला क्या है, यह जाने दें, यह पूछें कि जब शादी प्रेम के बाद मिनटों में हो सकती है तो तोडऩे में फौजदारी क्यों जरूरी है. सीता को निकालना था तो मिनटों में रथ में बैठा कर रवाना कर दिया गया. जब भगवानों को छूट है तो राजेश और नेहा जैसे जोड़े एक नई …..पर काम करने के लिए आजाद क्यों न हों.
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शादी के बाद पतिपत्नी में मनमुटाव हो तो दोनों अपनेआप जिम्मेदार होने चाहिए. कानून सिर्फ बच्चों के लिए आगे आए कि उन की देखभाल का जिम्मा पिता और मां दोनों का है. बच्चे मां के पास रहें तो खर्च पिता को देना हो और पिता के पास रहें तो मां को मिलने की पूरी छूट हो.
न पति किसी गुजारेभत्ते देने को जिम्मेदार हो न पत्नी. यह प्रेम का संबंध था और दोनों की जिम्मेदारी थी कि इसे हराभरा रहने दें. सूखे पेड़ को पानी देने की जबरन ड्यूटी जो कानून ने लगा दी है वह गलत है. अगर पति को दूसरी पसंद आ गई तो पहली को अपना रास्ता वैसे ही खुद तय करना चाहिए जैसा वह शादी से पहले करती.
इस जबरदस्ती का नतीजा ही डोमेस्टिक वायलैंस है. इसी जबरदस्ती के कारण पत्नियां पतियों की संपत्ति बन गई है. पति चाहे 10 जगह मुंह मार ले, पत्नी किसी से हंस भी ल तो उस की पिटाई हो जाती है. पत्नी शादी के बाद आज बेबस हो जाती है. अगर शादी को कानून व धर्म की जंजीरों में नहीं बांधा जाएगा तो दोनों एकदूसरे को वैसे ही खुश रखेंगे जैसे प्रेमी प्रेमिका रखते हैं.
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जहां तक संबंध टूटने के सवाल हैं तो बापबेटे के संबंध टूटते हैं, भाईबहनों के टूटते हैं पर उन में किसी धाॢमक दुकानदारी की जरूरत नहीं होती. विरासत के समय भाईयोंबहनों में विवाद हो सकता है पर वह पार्टनरों जैसा व्यापारिक होता है. धर्म जब भाईभाई, भाईबहन और बहनबहन के संबंधों को पक्की मोहर नहीं लगा पाता तो शादी में क्यों लगाता. आज कोई कानून नहीं है कि किसी भाई को बहन के साथ रहना ही होगा या भाई के साथ जबरन काम करना ही होगा.
यह भेदभाव असल में पत्नियों को कमजोर करने के लिए. आजाद औरतें पत्नी बन कर भी अपने पैरों पर खड़ी रहतीं की न जाने कब पति उन्हें छोड़ जाए. यह पतिपत्नी के प्यार को बल देता, कमजोर नहीं करता.