15 अगस्त स्पेशल: युवकों की तरह अब युवतियों को भी चाहिए आजादी

युवतियों को बराबर की शिक्षा और रोजगार के बल पर लड़कों के समान सामाजिक और आर्थिक अवसर व ईनाम मिलने का कानूनन हक है. लेकिन जमीनी हकीकत इस से कोसों दूर है, फिर चाहे वह भारत में हो या फिर अफ्रीका में, हौलीवुड में हो या आस्ट्रेलिया की संसद में. इसी असमानता के कारण युवतियों को कई बार विरोध करना पड़ता है, अपने लिए आवाज उठानी पड़ती है. आज की युवती अपने लिए केवल शिक्षा और रोजगार ही नहीं, युवकों के बराबर आजादी भी मांग रही है.

नीति आयोग के अध्यक्ष का कहना है कि 10 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि के  लिए देश में ह्यूमन डैवलैपमैंट इंडैक्स में सुधार होना चाहिए जिस में भारत 180 देशों में  130वें स्थान पर है. इस इंडैक्स में बराबरी को भी एक मानक माना जाना है.

विश्वभर में यौन अधिकारों को मानवाधिकारों से जोड़ कर देखा जाता है. एक लड़की पहले एक मानव है और उस के भी बराबर के अधिकार हैं. कहने को तो हम कह देते हैं कि हमारे यहां युवतियां युवकों के बराबर हैं, लेकिन जब बात युवतियों को उन की पसंद, उन के अपने शरीर पर हक देने की आती है तो क्या उन को मनमरजी करने का अधिकार मिलता है? इस विषय की असलियत जानने के लिए समाज के अलगअलग पहलुओं से जुड़ीं कुछ महिलाओं के विचार जानने की कोशिश करते हैं.

महिला सशक्तीकरण की बात

पुणे की सिंबायोसिस इंटरनैशनल यूनिवर्सिटी की प्रोफैसर डा. सारिका शर्मा बताती हैं, ‘‘कहने को तो हम सब कहते हैं कि हमारे लिए बेटों और बेटियों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन जब बात जमीनी सचाई की आती है तब युवकयुवतियों के लिए अलग नियम होते हैं. युवतियों के लिए अकसर कुछ अनकहे नियम होते हैं, जिन का उन्हें पालन करना होता है. जैसा कि फिल्म ‘पिंक’ में दिखाया गया कि युवकयुवतियों द्वारा किए गए एक ही काम के लिए समाज का नजरिया  बदल जाता है. उदाहरणस्वरूप, युवक सिगरेट पिएं तो सिर्फ उन के स्वास्थ्य की हानि की चिंता होती है, वहीं अगर युवती सिगरेट पिए तो उस के चालचलन तक बात पहुंच जाती है.’’

जहां तक सारिका का मां की हैसियत से प्रश्न है, वे बेटी को उस का कैरियर चुनने का, अपनी इच्छा के मुताबिक कपड़े पहनने का या फिर बाहर आनेजाने का पूरा अधिकार देती हैं. लेकिन यदि उन की बेटी उन्हें अपने बौयफ्रैंड से मिलवाए तो उस के लिए वे तैयार नहीं हैं.

वे मानती हैं कि महिला सशक्तीकरण के कई रास्ते हैं. आज युवतियां फौज में जा रही हैं, हवाईजहाज उड़ाने के साथसाथ सड़क पर ट्रक भी दौड़ा रही हैं और फाइटर जैट तक उड़ा रही हैं. लेकिन सैक्स की मनमानी का अधिकार देना उन की दृष्टि में आजादी नहीं है.

डा. सारिका कहती हैं, ‘‘अभी हमारा समाज इस स्तर तक नहीं पहुंचा है जहां युवतियों की शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति को हम सहज स्वीकार सकें. यदि इस समय हम अपनी बेटियों को ऐसी आजादी देंगे तो समाज में उन्हें कई मुसीबतें झेलनी पड़ सकती हैं.’’

नोएडा के एक स्कूल में अंगरेजी की अध्यापिका व फ्रीलांस क्विजीन ऐक्सपर्ट साक्षी शुक्ला बेबाकी से कहती हैं, ‘‘आज हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां महिला सशक्तीकरण एक अहम मुद्दा है. ऐसे में युवतियों को सैक्स के बारे में जागरूक करना चाहिए. एक ओर सैक्स एजुकेशन की बात होती है, जबकि दूसरी तरफ घर के अंदर इस विषय पर बात करने में भी मातापिता हिचकिचाते हैं. परंतु यदि सच में समाज में बदलाव लाना है, तो युवतियों को उन के अपने शरीर पर अधिकार की अनुमति देनी होगी.

‘‘सैक्स एक कुदरती प्रक्रिया है. एक महिला का सम्मान, उस की इज्जत सिर्फ उस की सैक्सुऐलिटी में ही नहीं है. समय आ गया है कि समाज अपनी इज्जत महिला के जननांगों में नहीं, बल्कि उस के बौद्धिक विकास में ढूंढ़े, उस के फैसले लेने की क्षमता में खोजे.’’

साक्षी आचार्य चाणक्य से सहमत हैं कि 5 वर्षों तक बच्चों को लाड़ करो, किशोरावस्था तक उन पर कड़े नियम लगाओ और फिर उस के मित्र बन जाओ. साक्षी कहती हैं, ‘‘आज हमें ‘मेरा शरीर मेरे नियम’ जैसे कैंपेन का हिस्सा बनना चाहिए, क्योंकि यदि लोग खुद इस का हिस्सा नहीं बनेंगे तो बदलते हालात में युवतियां बागी होने को मजबूर हो जाएंगी.

‘‘किशोरावस्था में गर्भधारण और फिर गर्भपात, यौनशोषण या यौनउत्पीड़न आदि से युवतियों को सही समय पर यौन संबंधी जानकारी दे कर बचाया जा सकता है और इस का सही समय तभी आरंभ हो जाता है जब युवतियां किशोरावस्था में कदम रखती हैं.’’

बराबर के हों नियम

फिनलैंड की एक बहुद्देशीय कंपनी में कार्य कर चुकीं रिंपी नरूला कहती हैं, ‘‘महिला होने के नाते मैं यह अनुभव करती हूं कि हमारे समाज में युवकों की तुलना में युवतियों को कम आजादी मिलती है.

‘‘मातापिता को अपने घर की चारदीवारी के अंदर युवकयुवतियों में फर्क नहीं करना चाहिए. उन्हें दोनों के लिए समान नियम लागू करने चाहिए. यदि एक घर में युवक को देररात तक बाहर आनेजाने की इजाजत है तो युवती को भी होनी चाहिए. और यदि युवतियों की इज्जत को खतरा लगता है तो फिर युवकों को भी देररात बाहर नहीं निकलने दिया जाना चाहिए.

‘‘आखिर युवकों के कारण ही तो युवतियों की इज्जत को खतरा होता है न. यदि नियम हों तो बराबर के हों. कुछ लोगों की ऐसी सोच होती है कि यदि युवतियों को पूरी आजादी दे दी जाएगी तो वे बिगड़ जाएंगी, यह सोच गलत है.

‘‘युवतियों पर भरोसा रखें, उन्हें संस्कार के साथ प्यार, विश्वास और इज्जत दें. उन में आत्मविश्वास जगाएं और फिर नतीजा देखें. युवतियों को घरेलू संस्कार देना हर परिवार अपना कर्तव्य समझता है, क्योंकि उन्हें गृहस्थी संभालनी होती है. लेकिन एक युवती की कुछ अपनी इच्छाएं भी हो सकती हैं. तो वह भी परिवार की जिम्मेदारी है कि वह युवतियों को अपनी ऐसी इच्छाओं को सुरक्षा के साथ कैसे पूरा करना है, यह सिखाए.

‘‘आजादी देने से युवतियां बिगड़ जाएंगी, यह जरूरी नहीं है. हां, वे अपनी सोच को अंजाम जरूर देंगी और इस के लिए जैसे समाज युवकों को स्वीकारता है वैसे ही उसे युवतियों को भी स्वीकारना होगा.’’

जिम्मेदारीभरी आजादी

मुंबई के टिस्स (टाटा इंस्ट्टियूट औफ सोशल साइंसैस) की मनोवैज्ञानिक मोना उपाध्याय अपने बेटाबेटी में पूरी तरह बराबरी रखती हैं. ऐसा वे एक सजग मां होने के नाते करती हैं. जब उन का बेटा कालेज में पढ़ने गया तब, और फिर जब बेटी दूसरे शहर कालेज गई तब उन्होंने अपने दोनों बच्चों से निजी वार्त्तालाप किया जिस में उन्होंने दबेढके रूप से यह बात उठाई कि दूसरी जगह, परिवार से दूर रहने पर, उम्र की इस दहलीज पर हो सकता है कि बच्चों के दिल को कोई भा जाए और उन के कदम बहक जाएं.

ऐसे में उन्हें यह यकीन होना चाहिए कि उन का परिवार उन के फैसले में साथ रहेगा, लेकिन साथ ही उन्हें यह एहसास भी होना चाहिए कि उन के जीवन के प्रति उन का कर्तव्य है कि वे सही फैसला लें. जो भी फैसला वे लेंगे उस का खमियाजा उन्हें खुद अपने जीवन में भुगतना होगा. उस के लिए परिवार के सदस्य उन की कोई सहायता नहीं कर सकेंगे.

मोना यह जानने को भी आतुर हैं कि यदि कदम आगे बढ़े तो उस की वजह क्या रही? एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते वे मानती हैं कि सैक्स एक कुदरती प्रक्रिया है और उसे भावनात्मक बनाना जरूरी नहीं है. फि र भी दिल टूटता है तो उसे जोड़ना खुद ही होता है. वे अपनी बेटी को टूटे दिल को संभालने के गुर जरूर सिखाना चाहेंगी. दिल टूटने का मतलब जीवन का अंत नहीं.

मोना अपनी बेटी को बेटे के समान आजादी देने के पक्ष में हैं. साथ ही, वे यह भी चाहती हैं कि बेटी अपने जीवन में भावनाओं में बह कर कोई गलत फैसला न ले. इस से निबटने का हथियार है बच्चों से बातचीत. यदि परिवार में बातचीत है तो कोई ठोस कदम उठाने से पहले बच्चे मातापिता से अपने दिल की बात कहने में हिचकिचाएंगे नहीं. परिवार की महिला का यह कर्तव्य है कि वह पूरे परिवार में खुली बातचीत का माहौल कायम करे. फिर चाहे वह बेटी को पीरिएड्स में पैड्स की जरूरत की बात हो या अपने दिल का हाल सुनाने की.

डेल कंपनी की सीनियर कंसल्टैंट पल्लवी बताती हैं, ‘‘विदेशों में बेटे की गर्लफ्रैंड हो या बेटी का बौयफ्रैंड, दोनों को घर आने की आजादी होती है. अंतर्राष्ट्रीय महिला स्वास्थ्य संगठन सैक्सुअल अधिकार को मानवाधिकार के रूप में देखता है. सैक्स हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है, लेकिन इतना भी महत्त्वूपर्ण नहीं कि सारी जिंदगी उस के आसपास ही डोलें और न इतना हलका होता है कि उस के बारे में सोचा भी न जाए.’’

सैक्सुअल अधिकार अपने शरीर पर अधिकार की एक खास भावना है. पल्लवी अपने बच्चों को उन के शरीर पर अधिकार देने के पक्ष में हैं. अपने शरीर पर अपना अधिकार एक बड़ा कौंसैप्ट है जो जितनी जल्दी समझ में आए उतना ही बेहतर है. यह जीवन में आगे चल कर बच्चों को भावनात्मक रूप से ताकतवर बनाता है और इस के चलते वे जिंदगी के कई अहम फैसले लेने में सक्षम होते हैं जो उन्हें शारीरिक व मानसिक तौर पर प्रभावित करते हैं.

जागरूक बेटियों को दें आजादी

दिल्ली के द्वारका कोर्ट में पारिवारिक मामलों की वकालत कर रहीं रजनी रानी पुरी कहती हैं, ‘‘कैसे दोहरे मापदंड हैं हमारे समाज में, जहां युवतियों को बौयफ्रैंड रखने पर बदचलन कहा जाता है जबकि युवकों को गर्लफ्रैंड रखने पर मर्द कहा जाता है. मेरी सहेली के बेटे की गर्लफ्रैंड घर आती है, कमरे का दरवाजा बंद कर वे दोनों घंटों बिता देते हैं और घर वाले हंस कर छेड़ते हैं कि चाय की जरूरत है क्या. लेकिन उसी सहेली की बेटी ने जब अपने बौयफ्रैंड को परिवार से मिलवाना चाहा तो हंगामा मच गया.

‘‘उस सहेली से जब मैं ने इस दोहरे मापदंड पर सवाल किया तो उस के पास एक ही सवाल था, लड़की के साथ घर की इज्जत जुड़ी होती है. माना कि कुदरती रूप से युवती सैक्स के मामले में कमजोर है, क्योंकि उस की बात पकड़ में आ सकती है जबकि युवक आसानी से बच जाता है, लेकिन इस से बचने के लिए हमें अपनी बेटियों को यौनशिक्षा देनी चाहिए, उन्हें उन के यौन अधिकारों से परिचित करवाना चाहिए.

‘‘हमारा पुरुषप्रधान समाज युवकों को शौर्ट्स पहनने पर कूल कहता है जबकि युवतियों को चरित्रहीन. उन्नति की ओर बढ़ते हमारे समाज की करनी और कथनी में बहुत अंतर है. समाज की कट्टर सोच को ध्यान में रखते हुए युवतियों को समान अधिकार पाने के लिए बहुत होशियारी के साथ जीवन के फैसले लेने होंगे. इस के लिए उन्हें बचपन से ही जागरूक करना मातापिता की जिम्मेदारी है.’’

समाज बदल रहा है और युवतियों को आजादी मिलने लगी है, कहीं कम तो कहीं ज्यादा. लेकिन आजादी मुफ्त नहीं होती, उस की कीमत अदा करनी पड़ती है और वह कीमत होती है जिम्मेदारी. केवल आजादी के नारे लगाने से आजादी नहीं मिल सकती. जिन्हें आजादी की गुहार लगानी आती है, उन्हें आजादी मिलने से पहले अपनी जिम्मेदारी भी निभानी होगी. यह जिम्मेदारी है अपने जीवन के प्रति, अपने परिवार की खुशियों और ख्वाहिशों के प्रति, ताकि आगे चल कर समाज को अपने बदलने पर कोई पछतावा न हो.

भांडा तो फूटा है मगर होगा क्या

लड़कियां मजबूत होंगी तो वे सैक्सुअल हैरेसमैंट से बच सकती हैं और उन्हें सैल्फ डिफेंस सीखना चाहिए. कुश्ती संघ के उधड़े जख्मों से अब साफ है कि वह बेकार है. जरूरत लड़कियों को शारीरिक रूप से मजबूत होने की नहीं है, उस सामाजिक ढांचे को पटकनी देने की है जो औरतों को एक पूरी जमात के तौर पर दबा कर रखता है.

भाजपा के ऊंची जाति के सांसद ब्रज भूषण सिंह खुद कुश्ती खेलना न जानते हों, वे ‘रैसलिंग फैडरेशन औफ इंडिया’ के प्रैसिडैंट हैं और उन के शैडो में सैकड़ों रैसलर सैक्सुअल हैरेसमैंट की शिकायतें ले कर उठ खड़ी हुई हैं.

रैसलिंग कैंपों, विदेशी टूरों, सिलैक्शन में कोचों और न जाने किनकिन को खुश करना पड़ता है तब महिला रैसलर विदेश व देश में मैडल पाने का मौका पाती हैं. हर महिला रैसलर की कहानी शायद मैडल के पीछे लगी पुरुष वीर्य की बदबू से भरी है. कदकाठी और ताकत में मजबूत होने के बाद रैसलरों को न जाने किसकिस को ‘खुश’ करना पड़ता है. रैसलर महिलाओं के साथ जो बरताव होता है उस के पीछे एक कारण है कि वे पिछड़ी जातियों से ज्यादा आती हैं जिन के बारे में हमारे धर्मग्रंथ चीखचीख कर कहते हैं कि वे तो जन्म ही सिर्फ सेवा करने के लिए लेती हैं. देश के देह व्यापार में यही लड़कियां छाई हुई हैं. जाति और समाज के बंधन रैसलर लड़कियों को सैक्सुअल हैरेसमैंट से मुक्ति नहीं दिला सकते. ऐसा बहुत से क्षेत्रों में होता है जहां औरतें अकेली रह जाती हैं. एक युग में जब काशी और वृंदावन हिंदू ब्राह्मण विधवाओं से भरे थे, जिन के घर वालों ने उन्हें त्याग दिया था. वहीं के पंडित संरक्षकों ने उन्हें विदेश ले जाए जा रहे गिरमिटिया मजदूरों के साथ भिजवाया था.

एक तरह से वे जापानी सेना की कंफर्ट वूमंस की तरह थीं जिन्हें कोरियाई सेना के साथ सैनिकों को सुख देने के लिए पकड़ कर रखा था. यह द्वितीय विश्वयुद्ध में हुआ था जब जापान ने कोरिया पर कब्जा कर लिया था. कोरियाई लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर थीं और जब देश ही हार गया हो तो वे क्या करें? अफसोस यह है कि बड़ीबड़ी बातें करने वाला समाज तुलसीदास का कथन औरतों को ताड़न का अधिकारी ही मानता है और सरकार समर्थक अपनी बात पर अड़े रहने के लिए ताड़ना शब्द का नयानया अर्थ रोज निकालते हैं. यही रैसलिंग फैडरेशन में होता है, सभी खेलों में होता है जहां चलती पुरुषों की है पर खेलती लड़कियां हैं. गांवों से आने वाली कम पढ़ीलिखी लड़कियां केवल कपड़े न उतारने की जिद के कारण चमकदमक, विदेशी दौरों, बढि़या रिहाइश का मौका नहीं खोना चाहतीं.

उन्हें बचपन से सिखाया गया है कि पिता, भाई, पति, ससुर के हर हुक्म को सिरआंखों पर रख कर मान लो. अब यह भांड़ा फूटा है पर होगा क्या? होगा यह कि विद्रोह करने वाली लड़कियों को शहद की बूंदों पर मंडराने वाली घरेलू मक्खियों की तरह मार दिया जाएगा. सरकारी आदेशों की हिट उन पर छिड़क दी जाएगी. अगले दौर में उन लड़कियों को लिया जाएगा जो पहले दिन से सर्वस्व देने को तैयार हों. न समाज बदलने वाला, न पुरुषों की लोलुपता और कामुकता. ऊपर से रामायण, महाभारत के किस्से स्पष्ट करते रहेंगे कि औरतो, तुम तो बनी ही यातनाएं सहने को, तुम्हें लक्ष्मण रेखाओं में रहना है, तुम्हें अग्नि में जलना है या भूमि में समाना है, तुम्हें एक नहीं कई पतियों को खुश रखना है, वंश चलाने के लिए व नपुंसक पतियों की इज्जत बचाने के लिए तुम्हें दूसरे पुरुषों के हवाले किया जा सकता है. वह स्वर्ण पौराणिक युग फिर लौट आया है. राम और कृष्ण की जन्मभूमियों को नमन करो और फैडरेशन के अफसरों को खुश करो वरना न पैसा मिलेगा, न 2 वक्त की कुछ दिन अच्छी रोटी मिलेगी.

क्या भारतीय मीडिया बिका हुआ है?

अडानी समूह पर बहस में कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकाअर्जुन खडगे ने एक जगह  कह दिया कि सरकार ने सारे न्यूज चैनलों के एंकर खरीद लिए हैं. गोदी मीडिया, गोदी मीडिया सुनने वाले चैनल एंकर आमतौर पर इस तरह की सुनने की आदत हैं पर एक को पूछ लिया कि साबित कर के दिखाओ कि एक भी पाई ली हो. यह साबित करने की बात भी मजेदार है. एकरों को यह कहना पड़ रहा है कि दूसरा पक्ष साबित करें कि वे झूठ बोल रहा है, अपनेआप में स्वीकारों की है. जनता या नेता कोई ईडी, सीबीआई, एनआईए तो हैं नहीं जो आप को महिनों बंद कर के रखे कि आप की पाई को ढूंढना है. यह ताकत तो उन के पास है जो पाई दे सकते हैं.

गोदी मीडिया बिका हुआ है यह तो साफ दिखता है कि वे रातदिन ङ्क्षहदूमुसलिम करते हैं, सरकार का प्रचार करते है. प्रधानमंत्री की चुनावी रैलियों का सीधा प्रसारण घंटों तक करते हैं और उन के चैनल ही फ्री औफ कौस्ट सैटटौप वाक्यों से ग्राहकों तक पहुंचाते हैं. किसी के बिकने के सुबूत इतना ही काफी है कि वह अमीरों, उद्योगपतियों, सब में बैठे लोगों की बातें रातदिन को और जो लोग उन की पोल खोले उन की बात को रिपोर्ट भी न करे.

अक्सर आलोचना करने वालों से पूछा जाता है कि आप दूसरा पक्ष भी क्यों नहीं देते. ‘सरिता’ को सैंकड़ों पत्र मिलते हैं हम दूसरी तरपु की बातें, यानी वे बातें जो सरकार ढिढ़ोरा पीट कर कह रही है और मंदिरों के प्रवचनों में रोजाना दोहराया जा रही हैं, हम भी क्यों नहीं कह रहे, नहीं कह रहे तो अवश्य किसी ने खरीद रखा है.

ये अजीबोगरीब तर्क है. जिस के पास पैसा वही तो खरीद सकता है. जब आप पैसे वालों की आलोचना कर रहे है, पोल खोल रहे हो, जनता को गुमराह होने से बचा रहे हो, पीडि़तों को उन के अधिकारों की बात कर रहे हो तो कौन आप को खरीदेगा. आप से तो हरेक को डर लगेगा कि अगर आज कुछ दे भी दिया तो कल ये उन के खिलाफ भी बोल सकी हैं.

कांग्रेस अपनेआप में पूरी तरह डिटरजैंक से धुली हो जरूरी नहीं. वह सत्ता में 50-60 साल रही. हर कांग्रेसी ठस के वाला है. हरेक छत गाडिय़ां बंगले हैं पर फिर भी यदि ये लोग आज भी कांग्रेस में हैं और भाग कर भारतीय जनता पार्टी के तले नहीं चले गए तो साबित करता है कि इन में कुछ अभी बाकी है जो लोकतंत्र, जवाबदेही, कमजोरों के अधिकारों की रक्षा कर रहा है.

जिस तरह से विपक्षी दलों और उन के नेताओं को बंद किया जा रहा है और करते समय जिस तरह एंकर सुॢखयों में समाचार प्रकाशित करते हैं, और जिस तरह से वे दिल्ली के उपराज्यपाल या अन्य राज्यपालों की दखलअंदाजियों की खबरें पचा जाते हैं, जिस तरह से वे औरतों पर हो रहे अत्याचारों की बात को 3 सैकंड में दिखा कर रफादफा कर देते हैं उस से काम साबित करना बचता है कि एंकर शुद्ध हरिद्वार जल से पाप रहित हो चुके हैं. भक्तिभाव में डूबे होना भी निकला है. हो सकता है कि चैनलों के मालिकों की श्रद्धा किसी नेता या किसी नेता में हो क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर किसी के अन्य पक्ष हों. यह भी बिकता है.

आज चाहे एक जने के अधिकार व आस्तित्म की रक्षा की बात हो या सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, अल्पसंख्यकों, औरतों, विचारकों, छोटे मजदूरों, किसानों की, यदि वे समाज में घुटन महसूस कर रहे हैं तो जो भी उन का मालिक या संचालक वह खुद टिका हुआ है या खरीद रहा है नुकसान उसका है जो दबा है.

बच्चे गोद लेने की प्रक्रिया

जब बच्चे न हो रहे हों तो आसपास के लोग कहने लगते है कि किसी को गोद ले लो. गोद लेने की सलाह देेने वाले नहीं जानते कि यह प्रोसीजर बहुत पेचीदा और सरकारी उलजुलूल नियमों वाला है जिस में आमतौर पर गोद लेने वाले मांबाप थक जाते हैं. कुछ ही महीनों, सालों की मेहनत के बाद एक बच्चा पाते हैं और उस में भी चुनने की गुंजाइश नहीं होती क्योंकि कानून समझता है, जो सही भी है, कि छोटे बच्चे कोई खिलौने नहीं है कि उन्हें पसंद किया जाए.

इस से ज्यादा मुश्किल गोद हुए बच्चे की होती है. वह नए घर में कैसे फिट बैठता है, यह पता करना असंभव सा है. अमेरिका की अनुप्रिया पांडेय ने कुछ बच्चों से बात की जिन्हें बचपन में भारत से गोद लिया गया था और वे अमेरिका में गोरोंकालों के बीच बड़े हुए. इन में से एक है लीला ब्लैक अब 41 साल की है. 1982 में उसे अकेली अमेरिकी नर्स ने एडोप्ट किया था. लीला ने अपना बचपन एक कौन पिताक्ट में गुजारा पर उसे खुशी थी कि जिस तरह उस की 2 माह की उम्र में हालत थी, वह बचती ही नहीं. अब अमेरिकी प्यार भी मिला, सुखसुविधाएं और हीयङ्क्षरग लौस व सेरीब्रल प्लासी रोग का ट्रीटमैंट भी.

2 बच्चों की एक अमेरिकी गोरे युवक से शादी के बाद लीला ने अपनी जड़ें खोजने की कोशिश की. उस ने भारतीय खाना बनाया, खाया, भारत की सैर 2-3 बार की, होलीदीवाली मनाई, अपने डीएनए टैस्ट से अपने जैसे 3-4 कङ्क्षजस को ढूंढा (न जाने वे चचेरे भाईबहन थे या नहीं पर भारतीय खून उन में है). अमेरिका में हर साल 200 से ज्यादा बच्चे भारत से एडोप्ट किए जाते हैं और उन की एक बिरादरी सी बन गई है. भारत में गोद लिए गए बच्चों के सामने मांबाप से मिलतेजुलते रंग, भाषा, कदकाठी के अलावा जाति का सवाल भी आ खड़ा होता है. कुंडलियों में आज भी विश्वास रखने वाला ङ्क्षहदू समाज यहां किसी भी गोद लिए बच्चो को आसानी से अपने में मिलाता है. पिछले जन्म के कर्मों का फल सोच कर हमेशा भारी रहता है.

अमेरिका यूरोप उदार देश हैं वहां जो भी कहीं से भी आएं. उन्हें खुले मन से स्वीकार किया जाता है पर फिर भी इशूस होते है. नैटफ्लिक्स पर चल रही ‘रौंग साइड औफ ट्रैक’ में एक स्पेनिश परिवार द्वारा नियटनामी लडक़ी को गोद लेना जो बड़ी हो कर विद्रोही हो जाते है, बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है. इस सीरीज में मुख्य पात्र दादा होता है जो इस वियटनामी लडक़ी के चीनी फीचर्स का मजाक उड़ाता है पर जब वह ड्रग टे्रडर्स के चुंगल में फंसने लगती है तो अपनी जान की बाजी लगा कर, पुलिस की आंखों में धूल डाल कर, पोती को बचा कर निकलता है जबकि उस को गोद लेने कभी उस की बेटी उस से तंग आ कर उसे किसी मंहगे होस्टल में भेजना चाह रही थी.

अब जब अकेलों की संख्या बढ़ रहे है. अनाथ कम हो रहे हैं, भारत में गर्भपात की सुविधाएं हैं, गोद लिए जा सकने वाले बच्चे कम मिलेंगे पर जो मिलेंगे उन्हें सही वातावरण मिलेगा, संदेह है. हम मूलत: कट्टरपंथी हैं और गोद लेने में मरने के बाद, मरने की रीतिरिवाजों की फिक्र ज्यादा रहती है, बजाए ङ्क्षजदगी के खालीपन को भरने की.

टेबल टेनिस का सितारा हैं मनिका बत्रा

कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं. इस कहावत को चरितार्थ करते हुए मनिका बत्रा ने अपने भाई बहन को टेबल टेनिस खेलते हुए देखा और उसे ऐसे आत्मसात कर लिया कि आज मनिका बत्रा ओलंपिक खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है, वहीं विश्व में भारत का लगातार प्रतिनिधित्व करके हार जीत की मजे लेते हुए खेल की दुनिया में एक ऐसा सितारा बन गई है जो बड़ी दूर से आभा फैला रहा है.

यह सच है कि अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश के अनेक खिलाड़ी अपने प्रभावशाली प्रदर्शन से खेलों के नक्शे पर भारत का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा रहे हैं. इधर भारतीय महिला खिलाड़ियों ने  खास तौर से देश का परचम दुनिया में लहराया है. एक महत्वपूर्ण  भारतीय महिला खिलाड़ियों में गिने जाने वाली मनिका बत्रा ने  अब एक और ऊंचाई हासिल करते  हुए एशियाई कप टेबल टेनिस में कांस्य पदक हासिल किया है और खास बात यह है कि आप ऐसा करने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी हैं.

मनिका बत्रा ने अपने सधे हुए खेल से खेल प्रेमियों का कई दफा दिल जीता है. यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा वर्ष 2020 में देश के सबसे बड़े खेल सम्मान  “मेजर ध्यान चंद खेल रत्न” पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यहां रेखांकित करने वाली बात यह है कि मनिका बत्रा ने बैंकाक, थाईलैंड में खेली गई इस प्रतियोगिता में महिला सिंगल्स का सेमीफाइनल मुकाबला हारने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में जापान की हीना हयाता को हरा कर  तीसरा स्थान हासिल कर लिया . इस तरह  इतिहास में कोई भी मेडल जीतने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी मनिका बत्रा बन गई.

शिखर पर है मनिका

स्मरण रहे कि एशियाई कप टेबल टेनिस प्रतियोगिता के पुरुष वर्ग में भारत को देश के  खिलाड़ी चेतन बबूर ने पदक दिलाया था. बबूर वर्ष 1997 में पुरुष सिंगल्स के फाइनल तक पहुंच गए और उन्होंने रजत पदक हासिल किया था. , तत्पश्चात वर्ष 2000 में चेतन बबूर ने एक बार फिर कांस्य पदक जीतकर भारत के पदकों की संख्या में वृद्धि कर दिखाई .

टेबल टेनिस में देश में आज एक सितारे का रूतबा हासिल कर चुकी मनिका बत्रा का जन्म पंद्रह जून 1995 को देश की राजधानी दिल्ली में हुआ. मनिका परिवार में  तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं. बड़ी बहन आंचल और भाई साहिल टेबल टेनिस के अच्छे खिलाड़ी थे और उन्हीं की प्रेरणा से नन्हीं मनिका ने भी पांच साल की उम्र से ही टेबल टेनिस खेलना शुरू कर दिया.

और आगे परिवार ने उनका समर्पण देख कर , भविष्य की एक प्रतिभावान खिलाड़ी की छवि देखकर मनिका को बहुत कम उम्र में ही टेबल टेनिस का बाकायदा प्रशिक्षण दिलाने का फैसला किया . खास बात यह है कि मनिका को किशोरावस्था में ही माडलिंग के कई प्रस्ताव मिले, लेकिन उन्होंने जीवन में हमेशा टेबल टेनिस को महत्व दिया  और यहां तक कि उन्हें खेल पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करने के लिए अपनी पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी . यही समर्पण है कि आज मनिका बत्रा खेल की दुनिया में महत्वपूर्ण मुकाम रखती है और भारत सरकार ने उन्हें सम्मानित किया.

मनिका के खाते में एक और उपलब्धि  दर्ज है, वह अपने हमवतन खिलाड़ी एस ज्ञानशेखरन के साथ मिश्रित युगल विश्व वरीयता क्रम में नंबर पांच पर पहुंचीं और किसी भारतीय जोड़ी के लिए टेबल टेनिस विश्व रैंकिंग में यह अब तक की शीर्ष वरीयता है.

मनिका बत्रा ओलंपिक खेलों में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं. 27 साल की मनिका बत्रा विश्व में 44 वें नंबर की खिलाड़ी हैं और उन्हें टेबल टेनिस के खेल में देश की अब तक की सबसे प्रतिभा पूर्ण तथा सफलतम महिला खिलाड़ी माना जाता है. देश को मनिका से और भी बहुत ज्यादा आशाएं हैं और अभी उनके पास भविष्य में समय भी है कि वे अपना और बेहतर प्रदर्शन दिखा सकें.

मुसलिम विवाहों के झगड़े और कोर्ट

माना जाता है कि मुसलिम विवाहों के झगड़ों के मामले आपस में सुलटा लिए जाते हैं और ये अदालतों में नहीं जाते पर अदालतें शादीशुदा मुसलिम जोड़ों के विवादों से शायद आबादी के अनुपात से भरी हुई हैं. ये मामले कम इसलिए दिखते हैं कि गरीब हिंदू जोड़ों की तरह गरीब मुसलिम जोड़े भी अदालतों का खर्च नहीं उठा सके और पतिपत्नी एकदूसरे की जबरदस्ती सह लेते हैं.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल में एक मामले में एक मुसलिम पति को पत्नी को अपने साथ रहने को मजबूर करने का हक देने से इंकार कर दिया क्योंकि उस पति ने दूसरी शादी भी कर ली थी और इसलिए पहली पत्नी अपने पिता के घर चली गर्ई थी. पहली पत्नी अपने पिता की इकलौती संतान है और उस के पिता ने मुसलिम कानून की जरूरत के हिसाब से जीते जी सारी संपत्ति बेटी को उपहार कर दी थी.

हालांकि अदालत ने कुरान का सहारा लिया, पतिपत्नी के मामलों में झगड़ों में धर्म को लिया ही नहीं जाना चाहिए क्योंकि धर्म ने जबरन एक आदमी और औरत के साथ रहने के अनुबंध पर सवार हो चुका है. शादी का न तो मंदिर से कोई मतलब है, न चर्च से, न मुल्ला से, न ग्रंथी से, शादी 2 जनों की आपसी रजामंदी का मामला है.

और जब रजामंदी से किसी की शादी की है कि दोनों किसी तीसरे को अपने संबंधों के बीच न आने देंगे तो यह माना जाना चाहिए, बिना चूं चपड़ के. कानून को पतिपत्नी के हक देने चाहिए लेकिन कौट्रैंक्ट एक्ट के हिसाब से, धर्म के हिसाब से नहीं. पति पत्नी के अधिकार एकदूसरे पर क्या हैं और वे अगर संबंध तोड़ें तो कौन क्या करेगा क्या नहीं, यह इसी तरह तय करना चाहिए जैसे पार्टनरशिप एक्ट, कंपनिज एक्ट, सोसायटीज एक्ट में तय होता है. धर्म बीच में नहीं आता. शादी न भगवानों के कहने पर होती है न भगवानों के कहने पर टूटती हैं.

एक आदमी और औरत जीवनभर एकदूसरे के साथ ही सुखी रहेंगे, यह जरूरी नहीं. शादी के बाद 50-60 या 70 सालों में बहुत कुछ बदल सकता है. पसंद बदल सकती है, स्तर बदल सकता है. शरीर बदल सकता है. जीवन साथी को हर मामले में ढोया जाए जबरन, यह गलत है. प्रेम में तो लोग एक पेड़ के लिए भी जान की बाजी लगा देते हैं, जिस के साथ सुख के हजारों पल बिताए हों, उस के साथ दुख में साथ देना कोई बड़ी बात नहीं.

मुसलिम जोड़े ने अदालत की शरण ली वह साबित करता है कि मुसलिम मर्द भी तलाक का हक कम इस्तेमाल करते हैं और जहां हक हो वहां खुला भी इस्तेमाल नहीं किया जाता. कट्टर माने जाने वाले मुसलिम जोड़े भी सेक्यूलर अदालतों की शरण में आते हैं. यह बात दूसरी कि बहुत सी अदालतों के जजों के मनों पर धार्मिक बोझ भारी रहता है, उस मामले में जज ने सही फैसला किया कि पतिपत्नी को साथ रहने घर मजबूर नहीं कर सकता, खासतौर पर तबजब उस ने दूसरी शादी भी कर रखी हो चाहे वह मुसलिम कानून समान हो.

आधी आबादी: न शिक्षा मिली न अधिकार

जुलाई, अगस्त 2022 में महिलाओं को ले कर 2-2 गुड न्यूज आई हैं- पहली रोशनी नेदार ने भारत की सब से अमीर महिला होने का गौरव हासिल किया है तो दूसरी ओर सावित्री जिंदल ने एशिया की सब से अमीर महिला होने का खिताब जीता है. इन दोनों महिलाओं की आर्थिक जगत में कामयाबी इशारा करती हैं कि महिलाएं आज सामाजिक और आर्थिक मोरचे पर पुरुषों से भी आगे निकल रही हैं.

लेकिन यह तसवीर का एक छोटा और अधूरा पहलू है क्योंकि जिस देश की आबादी 150 करोड़ से भी ज्यादा हो वहां की आधी आबादी यानी महिला शक्ति अभी भी आर्थिक मोरचे पर पुरुषों के मुकाबले बहुत कमजोर है.

इस के कारणों का विश्लेषण करेंगे तो शिक्षा ही एक ऐसा कारण नजर आता है, जो सालों से महिलाओं को पुरुषों से काबिलीयत में पीछे कर रहा है. भारत में महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति का जायजा लेने जाएंगे तो आज भी देश के कसबों, गांवों में महिलाएं स्कूल जाने के बजाय चूल्हेचौके में अपने भविष्य को  झोंक रही हैं. यही वजह है कि आजादी के 75 सालों के बाद भी शिक्षा के मोरचे पर महिलाएं फेल हैं.

महिला साक्षरता दर में राजस्थान फिसड्डी

अगर बात करें महिला साक्षरता की तो देश के अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान की स्थिति काफी खराब है. आंकड़ों के अनुसार महिला साक्षरता दर में राजस्थान फिसड्डी राज्य की श्रेणी में आता है. ऐसा हम नहीं कह रहे बल्कि यह जनगणना के आंकड़े बताते हैं. राजस्थान के जालौर और सिरोही में महिला साक्षरता दर महज 38 और 39% है जो काफी कम है. हालत में अभी भी ज्यादा सुधार नहीं है.

बिहार का हाल भी बेहाल

एनएसओ की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि बिहार में पुरुष साक्षरता दर महिलाओं से ज्यादा है. बिहार में जहां 79.7% पुरुष साक्षर हैं, वहीं सिर्फ 60% महिलाएं ही साक्षर हैं. बिहार में कुल ग्रामीण साक्षरता दर 69.5% है, वहीं शहरी साक्षरता 83.1% है.

बिहार में लगभग 36.4% लोग निरक्षर

बिहार में 36.4% लोग निरक्षर हैं. 19.2% लोग प्राथमिक स्कूल तक पढ़े, 16.5% लोग माध्यमिक तक, 7.7% उच्चतर माध्यमिक तक, 6% स्नातक तक. महिला निरक्षरता दर 47.7% है, जो पुरुषों की तुलना में लगभग 21% अधिक है.

 झारखंड की स्थिति भी खराब

अगर  झारखंड में महिला साक्षरता की बात करें तो वहां भी स्थिति अच्छी नहीं है. आज भी राज्य की 38% से अधिक महिलाओं को एक वाक्य भी पढ़ना नहीं आता है. अगर बात करें ग्रामीण क्षेत्रों की तो स्थिति और भी खराब है. वहां 55.6% महिलाएं पढ़नालिखना भी नहीं जानती हैं. इस का खुलासा भारत सरकार द्वारा 2019-2021 के बीच करवाए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से हुआ था.

आंध्र प्रदेश भी पीछे

आंध्र प्रदेश में महिला और पुरुष के बीच साक्षरता दर का अंतर 13.9% है. यह भी काफी ज्यादा है.

चौंकाने वाले फैक्ट्स

राष्ट्रीय सांख्यिकी की प्रकाशित रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है. इस में सर्वेक्षण 2017 और 2018 के दौरान पुरुषों की साक्षरता दर 80.08% बताई गई, जबकि महिलाओं में यह आंकड़ा महज 57.6% दर्ज किया गया और अगर आज की बात करें तो आज भी साक्षरता के मामले में पुरुषों और महिलाओं में काफी अंतर देखने को मिलता है. जहां पुरुषों में साक्षरता दर 82.14% है, वहीं महिलाओं में यह प्रतिशत सिर्फ और सिर्फ 65.45% है जो काफी कम है.

महिलाओं और पुरुषों की साक्षरता दर

एनएसओ की तरफ से 2 साल पहले किए गए सर्वे में पता चला था कि केरल में 97.4% पुरुष साक्षर हैं, तो महिलाएं 95.2%. दिल्ली में 93.7% पुरुष तो महिलाएं 82.4%. आंध्र प्रदेश में 73.4% पुरुष, तो 59.5% महिलाएं. राजस्थान में 80.8% पुरुष, तो 57.6% महिलाएं. बिहार में 79.7% पुरुष, तो 60.5% महिलाएं साक्षर हैं.

उत्तर प्रदेश में न्यूनतम महिला साक्षरता वाले जिले: जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश जो देश में नंबर 1 पर आता है, लेकिन आप 2011 की जनगणना के अनुसार आंकड़े जान कर हैरान रह जाएंगे क्योंकि हम आप को यहां के न्यूनतम महिला साक्षरता वाले जिलों से रूबरू जो करवा रहे हैं- श्रावस्ती में महिला साक्षरता दर 34.78%, बलरामपुर में 38.43%, बहराइच में 39.18%, बदायूं में 40.09%, रामपुर में 44.44% है. आंकड़े देख कर आप भी हैरान रह गए न.

अशिक्षित होने की वजह से महिलाओं को क्याक्या परेशानियां होती हैं

नौकरी न मिलना

जब महिलाएं पढ़ीलिखी नहीं होतीं, तब न तो उन्हें परिवार सम्मान देता है और न ही समाज. अपने अनपढ़ होने की वजह से वे कहीं नौकरी भी नहीं कर पातीं, जिस के कारण उन्हें मजबूरीवश अपनों की यातनाएं  झेलनी पड़ती हैं. सब उन्हें कुछ नहीं आता, कह कर बेवकूफ सम झते हैं. उन की किचन स्किल्स को कुछ नहीं सम झा जाता.

लेकिन अगर महिलाएं पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं, तब न तो उन्हें किसी की यातनाएं सहनी पड़ेंगी और न ही हर गलत बात में हां में हां मिला कर चलना पड़ेगा. वे अपने मन की कर पाएंगी और कुछ गलत होने पर उसे सहेंगी भी नहीं बल्कि उस के खिलाफ आवाज उठा पाएंगी जो समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को कम करने और महिलाओं को स्ट्रौंग बनाने में मदद करेगा.

बच्चों को पढ़ाने में दिक्कत

अगर मां पढ़ीलिखी होगी तो वह अपने बच्चों को खुद पढ़ा कर अच्छी शिक्षा दे पाएगी. लेकिन अगर वे ही पढ़ीलिखी न हो तो न तो वह अपने बच्चों की पढ़ाई में मदद कर पाएगी, जिस कारण मां की बच्चों के साथ अच्छी ट्यूनिंग भी नहीं होगी.

स्कूलगोइंग बच्चे भी हमारी मां को कुछ नहीं आता, कह कर बेइज्जत किए बिना नहीं रह पाते हैं. ऐसे में मां लाचार और बेचारी बन कर रह जाती है, जबकि आज जरूरत है कि आप पढ़लिख कर आगे बढ़ें, खुद भी पढें और अपने बच्चों को भी आगे बढ़ने में खूब मदद करें.

अधिकारों के लिए लड़ने में असमर्थ

जब महिलाएं शिक्षित ही नहीं होंगी तो अधिकारों का ज्ञान कैसे होगा. जो जिसने जैसे बता दिया, बस उसी को पत्थर की लकीर मान कर बैठ गए. लेकिन अगर आप पढ़ीलिखी होंगी, तो आप अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगी. न गलत सहेंगी और न गलत होने देंगी. इस से आप को सम्मान तो मिलेगा ही, साथ ही आप समाज में अपनी एक अलग जगह भी बना पाएंगी.

जबरन शादी के लिए मजबूर होना

जब लड़की पढ़ीलिखी नहीं होती तो उस के पेरैंट्स उस की जहां शादी तय करते हैं, उसे करनी पड़ती है. फिर चाहे लड़का उसे नापसंद ही क्यों न हो. लेकिन अगर लड़की पढ़ीलिखी होगी, तो वह अपने लिए सही पार्टनर का चुनाव खुद कर पाएगी. खुद आत्मनिर्भर होने के कारण कोई भी उस पर जोरजबरदस्ती नहीं कर पाएगा. उसे अपने लिए जो सही लगेगा, वह खुल कर अपनों के सामने राय रख पाएगी.

ये तो कुछ चुनिंदा कारण हैं और भी कई कारण हैं, जिस के कारण महिलाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. ऐसे में जरूरी है कि हम आजादी के 75 सालों का जश्न मनाने के साथसाथ खुद को कैसे अपने पैरों पर खड़ा करें, इस ओर भी गंभीरता से ध्यान दें.

युवा पीढ़ी और पढ़ाई

प्यार करने में कितने जोखिम हैं, यह शीरीं फरहाद, लैला मंजनू से ले कर शंकुलता दुष्यंन, आहिल्या इंद्र, हिंदी फिल्म ‘संगम’ जैसे तक बारबार सैंकड़ों हजार बार दोहराया गया है. मांबाप, बड़ों, दोस्तों, हमदर्दों की बात ठुकरा कर दिल की बात को रखते हुए कब कौन किस गहराती से प्यार कर बैठे यह नहीं मालूम. दिल्ली में लिवइन पार्टनर की अपनी प्रेमिका की हत्या करने और उस के शव के 30-35 टुकड़े कर के एकएक कर के कई दिनों तक फेंकने की घटना पूरे देश को इसी तरह हिला दिया है जैसा निर्भया कांड में जबरन वहशी बलात्कार ने दहलाया था.

इस मामले में लडक़ी के मांबाप की भी नहीं बनती और लडक़ी बिना बाप को बताए महीनों गायब रही और बाप ने सुध नहीं ली. इस बीच यह जोड़ा मुंबई से दिल्ली आ कर रहने लगा और दोनों ने काम भी ढूंढ़ लिया पर निरंतर ङ्क्षहसा के बावजूद लडक़ी बिना किसी दबाव के बावजूद प्रेमी को छोड़ कर न जा पाई.

ज्यादा गंभीर बात रही कि लडक़े को न कोई दुख या पश्चाताप था न ङ्क्षचता. लडक़ी को मारने के बाद, उस के टुकड़े फ्रिज में रख कर वह निश्ङ्क्षचतता से काम करता रहा.

जो चौंकाने वाला है, वह यह व्यवहार है. अग्रेजी में माहिर यह लडक़ा आखिर किस मिट्टी का बना है कि उसे न हत्या करने पर डर लगा, न कई साल तक जिस से प्रेम किया उस का विद्रोह उसे सताया. यह असल में इंट्रोवर्ट होती पीढ़ी की नई बिमारी का एक लक्षण है. केवल आज में और अब में जीने वाली पीढ़ी अपने कल का सोचना ही बंद कर रही है क्योंकि मांबाप ने इस तरह की प्रोटेक्शन दे रखी थी कि उसे लगता है कि कहीं न कहीं से रुपए का इंतजाम हो ही जाएगा.

जब उस बात में कुछ कमी होती है, जब कल को सवाल पूछे जाते हैं, कल को जब साथी कुछ मांग रखता है जो पूरी नहीं हो पाती तो बिफरता, आपा खोता, बैलेंस खोना बड़ी बात नहीं, सामान्य सी है. जो पीढ़ी मांबाप से जब चाहे जो मांग लो मिल जाएगा की आदी हो चुकी हो, उसे जरा सी पहाड़ी भी लांघना मुश्किल लगता है, उसे 2 मंजिल के लिए भी लिफ्ट चाहिए, 2 मील चलने के लिए वाहन चाहिए, और न मिले तो वह गुस्से में कुछ भी कर सकती है.

यह सबक मांबाप पढ़ा रहे हैं. मीडिया सिखा रहा है. स्कूली टैक्सट बुक्स इन का जवाब नहीं है. रिश्तेनातेदार हैं नहीं जो जीवन के रहस्यों को सुलझाने की तरकीब सुझा सकें. और कुछ है तो गूगल है. व्हाट्सएप है, फेसबुक है, इंस्टाग्राम है. ट्विटर है जिन पर समझाने से ज्यादा भडक़ाने की बातें होती है.

पिछले 20-25 सालों से धर्म के नाम पर सिर फोड़ देने का रिवाज सरकार का हिस्सा बन गया है. हिंसक देवीदेवताओं की पूजा करने का हक पहला बन गया है. जिन देवताओं के नाम पर हमारे नेता वोट मांगते हैं, जिन देवताओं के चरणों में मांबाप सिर झुकाते हैं, जिन देवीदेवताओं के जुलूस निकाले जाते हैं सब या तो हिंसा करने वाले हैं या हिंसा के शिकार हैं.

ऐसे में युवा पीढ़ी का विवेक, डिस्क्रीशन, लौजिक दूसरे के राइट्स के बारे में सोचने की क्षमता आएगी कहां से आखिर? न मांबाप कुछ पढऩे को देते है, न बच्चे कुछ पढ़ते हैं. न मनोविज्ञान के बारे में पक जाता है न जीवन जीने के गुरों के बारे में. नेचुरल सैक्स की आवश्यकता को संबंधों का फेवीफौल मान कर साथ सोना साथ निभाने और लगातार साथ रातदिन महीनों सालों तक रहने से अलग है.

युवाओं को दोष देने की हमारी आदत हो गई है कि वे भटक गए हैं. जबकि असलियत यह है कि भटकी वह जैनरेशन है जिस ने एमरजैंसी में इंदिरा गांधी के गुणगान किया, जिस ने ओबीसी रिजर्वेशन पर हल्ला किया, जिस के एक धड़े ने खालिस्तान की मांग की और फिर दूसरे धड़े ने मांगने वालों को मारने में कसर न छोड़ी. भटकी वह पीढ़ी है जिस ने हिंदू मुसलिम का राग अलापा, जिसने बाबरी मसजिद बनवाई. जिस ने हर गली में 4-4 मंदिर बनवा डाले जिस ने लाईब्रेरीज को खत्म कर दिया, जिस ने बच्चों के हाथों में टीवी का रिमोट दिया.

आज जो गुनाह हमें सता रहा है, परेशान कर रहा है वह इन दोने उस पीढ़ी से सीख कर किया जो देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार है, जो बाबरी मसजिद तोडऩे की जिम्मेदार है, जो करप्शन की गुलाम है. जो पैंपरिंग को पाल देना समझती है. जरा सा कुरेदेंगे तो सदा बदबूदार मैला अपने दिलों में दिखने लगेगा, इस युवा पीढ़ी में नहीं जिसे जीवन जीने का पाठ किसी ने पढ़ाया ही नहीं.

देश में महंगी होती शिक्षा

दिल्ली विश्वविद्यालय के अच्छे पर सस्ते कालेजों में एडमीशन पाना अब और टेढ़ा हो गया है क्योंकि केंद्र सरकार ने 12वीं की परीक्षा लेने वाले बोर्डों को नकार कर एक और परीक्षा कराई. कौमन यूनिवर्सिटी एंट्रैस टैस्ट और इस के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय और बहुत से दूसरे विश्वविद्यालयों के कालेजों में एडमीशन मिला. इस का कोई खास फायदा हुआ होगा यह कहीं से नजर नहीं आ रहा.

दिल्ली विश्वविद्यालय में 12वीं परीक्षा में बैठे सीबीएसई की परीक्षा के अंकों के आधार पर पिछले साल 2021, 59,199 युवाओं को एडमिशन मिला था तो इस बार 51,797 को. पिछले साल 2021 में बिहार पहले 5 बोटों में शामिल नहीं था पर इस बार 1450 स्टूडेंट के रहे जिन्होंने 12वीं बिहार बोर्ड से की और फिर क्यूइटी का एक्जाम दिया. केरल और हरियाणा के स्टूडेंट्स इस बार पहले 5 में से गायब हो गए.

एक और बदलाव हुआ कि अब आट्र्स, खासतौर पर पौलिटिकल साइंस पर ज्यादा जोर जा रहा है बजाए फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायोलौजी जैसी प्योर साइंसेस की ओर यह थोड़ा खतरनाक है कि देश का युवा अब तार्किक न बन कर मार्को में बहने वाला बनता जा रहा है.

क्यूयूइटी परीक्षा को लाया इसलिए गया था कि यह समझा जाता था कि बिहार जैसे बोर्डों में बेहद धांधली होती है और जम कर नकल से नंबर आते हैं. पर क्यूयूइटी की परीक्षा अपनेआप में कोई मैजिक खजाना नहीं है जो टेलेंट व भाषा के ज्ञान को जांच सके. औवजैक्टिव टाइप सवाल एकदम तुक्कों पर ज्यादा निर्भर करते हैं.

क्यूयूइटी की परीक्षा का सब से बड़ा लाभ कोचिंग इंडस्ट्री को हुआ जिन्हे पहले केवल साइंस स्टूडेंट्स को मिला करते थे तो नीट की परीक्षा मेडिकल कालेजों के लिए देते थे और जेइई की परीक्षा इंजीनियरिंग कालेजों के लिए. अब आर्ट्स कालेजों के लाखों बच्चे कोचिंग इंडस्ट्री के नए कस्टमर बन गए हैं.

देश में शिक्षा लगातार मंहगी होती जा रही है. न्यू एजूकेशन पौलिसी के नाम पर जो डौक्यूमैंट सरकार ने जारी किया है उस में सिवाए नारों और वादों के कुछ नहीं है ओर बारबार पुरातन संस्कृति, इतिहास, परंपराओं का नाम ले कर पूरी युवा कौम को पाखंड के गड्ढ़े में धकेलने की साजिश की गई है. शिक्षा को एक पूरे देश में एक डंडे से हांकने की खातिर इस पर केंद्र सरकार ने कब्जा कर लिया है. देश में विविधता गायब होने लगी है. लाभ बड़े शहरों को होने लगा है, ऊंची जातियों की लेयर को होने लगा है.

क्यूयूइटी ने इसे सस्ता बनाने के लिए कुछ नहीं किया. उल्टे ऊंची, अच्छी संस्थाओं में केवल वे आए जिन के मांबाप 12वीं व क्यूयूइटी की कोचिंग पर मोटा पैसा खर्च कर सकें. यह इंतजाम किया गया है. अगर देशभर में इस पर चुप्पी है तो इसलिए कि कोचिंग इंडस्ट्री के पैर गहरे तक जम गए हैं और सरकारें खुद कोचिंग आस्सिटैंस चुनावी वायदों में जोडऩे लगी हैं.

12वीं के बोर्ड ही उच्च शिक्षा संस्थानों के एडमीशन के लिए अकेले मापदंड होने चाहिए. राज्य सरकारों को कहा जा सकता है कि वे बोर्ड परीक्षा ऐसी बनाएं कि बिना कोचिंग के काम चल सके. आज के युवा को मौर्टक्ट की औवजैक्टिव टैस्ट नहीं दिया जाए  बल्कि उन की समझ, भाषा पर पकड़, तर्क की शक्ति को परखा जाए. आज जो हो रहा है वह शिक्षा के नाम पर रेवड़ी बांटना है जो फिर अपनों को दी जा रही है.

बढ़ती जीएसटी और महंगाई

नरेंद्र मोदी सरकार बढ़ते जीएसटी कलेक्शन पर बहुत खुश हो रही है. 2017 में जीएसटी लागू होने के कई सालों तक मासिक कलेक्शन 1 लाख करोड़ के आसपास रही थी पर इस जूनजुलाई से उस में उछाल आया है और 1.72 लाख करोड़ हो गई है. 1.72 लाख करोड़ मिलने होते हैं यह भूल जाइए, यह याद रखिए कि जीएसटी अगर ज्यादा है तो मतलब है कि सरकार जनता से ज्यादा टैक्स वसूल कर रही है. अगर साल भर में टैक्स 25-35 बढ़ता है और लोगों की आमदनी 2-3′ भी नहीं बढ़ती तो मतलब है कि हर घरवाली अपने खर्च काट रही है.

निर्मणा सीतारमन ने नरेंद्र मोदी की तर्ज पर एक आम गृहिणी की तरह अपना वीडियो एक सब्जी की दुकान पर सब्जी खरीदते हुए खिंचवाया. और इसे भाजपा आईटी सेल वायरल किया कि देखो वित्त मंत्री भी आम औरत की तरह हैं. पर यह नहीं समझाया गया कि सब्जी पर भी भारी टैक्स लगा हुआ या चाहे वह उस मिडिल एज्ड दुकानदार महिला ने चार्ज वहीं किया हो.

सब्जी आज दूर गांवों से आती है और ट्रक पर लद कर आती है. इस ट्रक पर जीएसटी, डीजल पर केंद्र सरकार का टैक्स है. सब्जी जिस खेत में उगाई जाती है उस पर चाहे लगान न हो पर जिस पंप से पानी दिया जाता है उस पर टैक्स है, जिस बोरी में सब्जी भरी गई, उस पर टैक्स है, जिस केब्रिज पर बोली गई उस पर टैक्स है.

उस एज्ड दुकानदार ने जिन इस्तेमाल किए लकड़ी के तख्तों पर अपनी दुकान लगाई, उन पर टैक्स है, जीवनी उस ने चलाई उस पर टैक्स है, जिस थैली, चाहे कागज की हो या पौलीथीन की हो, उस पर टैक्स है. निर्मला सीतारमन 100-200 रुपए की जो सब्जी खरीदी थी उस पर कितना है या इस का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है.

बढ़ता जीएसटी देश के बढ़ते उत्पादन को नहीं जानता यह महंगार्ई को भी बताता है. पिछले एक साल से हर चीज का दाम बढ़ रहा है. दाम बढ़ेंगे तो टैक्स भी बढ़ेगा. हर घर वेसे ही बढ़ती कीमत से परेशान है पर वह इस के लिए जिम्मा दुकानदार या बनाने वाले को ठहराता है जबकि कच्चे माल से दुकान तक बढ़ी कीमत वाले मौल पर कितना ज्यादा जीएसटी देना पड़ा. यह नहीं सोचता.

वह इसलिए नहीं सोचता क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि उस के आकाओं ने उसे राममंदिर दिला दिया, चारधाम का रास्ता साफ कर दिया, महाकाल के मंदिर को ठीक कर दिया तो सभी भला करेगा. वह मंदिरों को अपनी झोली खुदबखुद खाली कर के देता है और सरकार उस की झोली से बंदूक के बल पर छीन लेती है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें