Best Hindi Stories : इंसाफ की डगर पे – क्या सही था गार्गी का फैसला

Best Hindi Stories :  ‘टिंगटौंग’ दरवाजे की घंटी बजी. टू बीएचके फ्लैट के भूरे रंग के दरवाजे के ऊपर नाम गुदे हुए थे- डा. भाष्कर सेन, श्रीमती गार्गी सेन, आईपीएस. अधपके बालों वाली एक प्रौढ़ा ने दरवाजा खोला और मुसकराते हुए कहा, ‘‘दीदी, आज बड़ी देर कर दी तुम ने. दादाबाबू तो कब के आए हुए हैं. काफी थकीथकी दिख रही हो,’’ कहतेकहते उस ने महिला के हाथों से बैग ले लिया और फिर कहा, ‘‘तुम जाओ कपड़े बदल लो, मैं खाना गरम करती हूं.’’ ये हैं श्रीमती गार्गी सेन, जौइंट कमिश्नर औफ पुलिस, (क्राइम), आईपीएस 1995 बैच और इस घर की मालकिन. गार्गी जूते उतार कर बैडरूम की तरफ बढ़ गई. बैडरूम में उस के पति भाष्कर बिस्तर पर सफेद पजामा और कुरता पहने, आंखों पर चश्मा लगाए पैरासाइकोलौजी की किताब पढ़ रहा था.

गार्गी के पैरों की आहट सुनते ही उस ने आंखें किताब से ऊपर उठाईं और आंखों से चश्मा उतारा. किताब को बिस्तर के पास रखी साइड टेबल पर रखते हुए कहा, ‘‘आज लौटने में बहुत देर हो गई तुम्हें, उस नए मामले को ले कर उलझी हो क्या?’’ गार्गी उस के प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही बिस्तर पर उस की बगल में जा बैठी. भाष्कर ने उस की तरफ देखा और उस के गालों पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बहुत अपसेट लग रही हो, जाओ यूनिफौर्म बदलो, फ्रैश हो कर आओ, डिनर टेबल पर मिलते हैं.’’

गार्गी ने बिना कुछ कहे सिर हिला कर हामी भरी. बड़ी मुश्किल से रोंआसी आवाज में उस के मुंह से निकला, ‘‘हूं.’’ फिर एक लंबी सांस ले कर भाष्कर की तरफ आंखें उठाईं. उस की आंखों में आंसू लबालब भरे हुए थे, मानो अभी छलकने को तैयार हों. भाष्कर ने पहले ही उस की परेशानी भांप ली थी. उस ने गार्गी को आलिंगन किया और उसे अपने बाहुपाश में जोर से जकड़ते हुए 2-3 दफे उस की पीठ ठोकी.

गार्गी ने अपना सिर भाष्कर के कंधे पर रखते हुए कहा, ‘‘तुम कैसे बिना कुछ कहे ही सब समझ जाते हो.’’ भाष्कर ने उस के कंधे पर फिर एक बार थपकी दी और कहा, ‘‘जाओ, हाथमुंह धो कर आओ, बहुत भूख

लगी है.’’ गार्गी ने जबरन अपने होंठों को चीर कर बनावटी मुसकराने की कोशिश की और उठ कर बाथरूम की ओर बढ़ गई.

कुछ देर बाद कपड़े बदल कर जब वह डाइनिंग टेबल पर आई तो भाष्कर पहले से ही वहां मौजूद था. सामने टीवी चल रहा था. गार्गी भाष्कर की बगल वाली सीट पर आ कर बैठ गई और रिमोट ले कर टीवी चैनल बदल दिया. इतने में प्रौढ़ा अंदर से आई और खाना परोसने लगी.

टीवी पर एक न्यूज चल रही थी और दिनभर की महत्त्वपूर्ण खबरों को एक ही सांस में न्यूज रीडर पढ़े जा रही थी, ‘‘चांदनी चौक कांड का आज 5वां दिन. मंत्री आशुतोष समाद्दार के भतीजे मंटू समाद्दार और उस के 3 साथियों को पुलिस हिरासत में लिया गया. डैफोडिल अस्पताल के सीएमओ डा. नीतीश शर्मा ने बताया कि नाबालिग लड़की की हालत नाजुक. शरीर पर चोटों के कई निशान पाए गए हैं. हमारे संवाददाता से बातचीत में मंत्री आशुतोष समाद्दार ने बताया, ‘मेरा भतीजा निर्दोष है, उसे फंसाया जा रहा है. लड़की का चालचलन ठीक नहीं है. उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सही नहीं है. उस की मां के पेशे के बारे में तो आप सब जानते ही होंगे, मैं और क्या कहूं. ऐसे में आप ऐसी लड़कियों से क्या आशा रख सकते हैं?’’ संवाददाता बोला, ‘पर ऐसा क्यों किया उस ने? व्यक्तिगत स्तर पर आप से कोई दुश्मनी है या विरोधी पार्टी का काम है, आप का क्या मानना है?’

मंत्री बोले, ‘कुछ कह नहीं सकते, विरोधी पार्टी का हाथ इस के पीछे है या नहीं, यह पता लगाना तो पुलिस का काम है. मैं बस इतना ही कहूंगा कि मेरा भतीजा निर्दोष है, उसे पैसों के लिए फंसाया जा रहा है. ऐसी लड़कियों के लिए यह पैसे कमाने का एक जरिया है.’ न्यूज रीडर ने अब कहा, ‘‘आइए जानते हैं कि इस मामले में पुलिस का क्या कहना है. जौइंट सीपी (क्राइम) गार्गी सेन से हमारे संवाददाता ने बात की.’’ ‘मामले की छानबीन हो रही है, मैडिकल रिपोर्ट आने से पहले कुछ कहा नहीं जा सकता. हम अपनी तरफ से मामले की सचाई तक पहुंचने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.’

संवाददाता ने अपना अंदेशा जाहिर किया, ‘मुख्यमंत्री के करीबी रह चुके आशुतोष समाद्दार की राजनीतिक क्षेत्र में पहुंच काफी तगड़ी है. इसलिए यह आशंका जाहिर की जा रही है कि वे अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल कर सुबूतों के साथ छेड़छाड़ करने या पुलिस जांच को प्रभावित करने की कोशिश कर सकते हैं. कैमरामैन रंजन मुखोपाध्याय के साथ मौमिता राय, सी टीवी न्यूज, बंगाल.’ समाचार खत्म होते ही गार्गी और ज्यादा परेशान दिखने लगी. भाष्कर ने परिस्थिति को भांपते हुए झट से अपने हाथ में रिमोट ले कर चैनल बदल दिया. फिर धीमी आवाज में कहा, ‘‘पिछले 4-5 दिनों से यह खबर सभी अखबारों व टीवी चैनलों पर छाई हुई है. मैं रोज इस का फौलोअप देखता रहता हूं. मैं जानता हूं तुम…’’ अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि इतने में गार्गी ने थाली आगे की ओर सरकाते हुए आवाज लगाई, ‘‘बेनु पीसी, मेरी प्लेट उठा लो, खाने का मन नहीं है.’’

प्रौढ़ा रसाईघर से दौड़ती हुई आई और विनय भाव से कहने लगी, ‘‘क्या हुआ दीदीभाई, क्यों खाने का मन नहीं, खाना अच्छा नहीं बना है क्या?’’ भाष्कर ने गार्गी के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘खा लो, वरना तबीयत खराब हो जाएगी.’’ और प्रौढ़ा की ओर मुड़ कर बोले, ‘‘पीसी, जरा रसोई से गुड़ ले आओ, इस का स्वाद बदल जाएगा.’’

गार्गी रोंआसी हो गई. उस ने नजरें उठा कर भाष्कर की आंखों में देखा. उन आंखों में आश्वासन था, समर्थन था और थी एक सच्चे साथी की प्रेमभावना जिस ने हर परिस्थिति में साथ रहने का वादा किया है. उस के मुंह से बस इतना निकला, ‘‘तुम नहीं जानते, भाष्कर कितना पौलिटिकल प्रैशर है.’’ भाष्कर ने इतने में उस के मुंह में निवाला ठूंस दिया और कहा, ‘‘मैं कुछ नहीं जानता, पर मैं सबकुछ समझ सकता हूं. पहले खाना खत्म करो.’’

गार्गी ने आंखों की पलकों से अपने आंसुओं को छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए कहा, ‘‘मैं क्या करूं भाष्कर, एक तरफ मेरा कैरियर, दूसरी तरफ मेरा जमीर. अगर मैं समझौता नहीं करती हूं तो वे मेरे कैरियर को बरबाद कर देंगे. ऐसे में मुझे क्या

करना चाहिए?’’ भाष्कर ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें सालों से जानता हूं. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. चाहे कुछ भी हो जाए तुम कुछ गलत कर ही नहीं सकतीं. तुम सच्ची हो और मैं यह भी जानता हूं कि तुम सचाई के साथ ही रहोगी, और तुम्हारे साथ रहेगा हम सब का विश्वास, मेरे व तुम्हारे शुभचिंतकों का प्रेम और सहयोग. मैं जानता हूं इन सब के साथ तुम जरूर अपनी लड़ाई में विजयी होगी, चाहे विपक्ष कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो. और देखो, बातोंबातों में कैसे खाना भी खत्म हो गया.’’

गार्गी ने देखा, सामने प्लेट खाली थी. उस ने कहा, ‘‘सच, तुम कब मेरे मुंह में निवाला भरते रहे, मुझे पता ही नहीं चला. तुम सचमुच मेरी बच्चों की तरह केयर करते हो. मैं तुम जैसा पति पा कर बहुत खुश हूं. पापा के बाद, बस, तुम ही तो हो जिसे हर मुसीबत में मेरा मार्गदर्शन करते हुए पाती हूं. थैंक्यू.

‘‘आज बहुत दिनों बाद पापा बारबार याद आ रहे हैं. मैं जब छोटी थी वे अकसर कहा करते थे, ‘बेटा, जब भी जीवन में किसी मोड़ पर कोई दुविधा हो तो अपने जमीर की सुनना. ऐसे मोड़ पर तुम्हें 2 रास्ते मिलेंगे. बेईमानी का रास्ता आसान होगा पर अगर तुम लंबी दौड़ में विजयी होना चाहती हो और अपने जीवन में सुखचैन चाहती हो तो कभी भी उस रास्ते को मत अपनाना वरना अपनी ही नजरों में सदा के लिए छोटी हो जाओगी.’’’ बात खत्म होते ही भाष्कर ने कहा, ‘‘चलो, अब बहुत रात हो गई है,

हमें सो जाना चाहिए. कल फिर तुम्हें सुबह उठना भी तो है. ड्यूटी पर जाना है न.’’

गार्गी ने हामी भरते हुए सिर हिलाया. उस के होंठों पर मंद मुसकराहट थी और चेहरे पर बेफिक्री का भाव. अगले दिन शाम को 6 बजे दरवाजे की घंटी बजी. अंदर से बेनु पीसी आई और दरवाजा खोला. गार्गी के चेहरे पर सुकून और अजीब सी खुशी झलक रही थी. अंदर घुस कर जूते उतारते हुए उस ने कहा, ‘‘बेनु पीसी, अलमारी के ऊपर से मेरा सूटकेस उतार कर रखना. ट्रैवल बैग स्टोर में रखा हुआ है, उस में मेरी रोजमर्रा की जरूरत की चीजें और कुछ ड्राईफ्रूट्स डाल देना.’’

प्रौढ़ा ने पूछा, ‘‘क्यों, कहीं जा रही हो क्या?’’ गार्गी बाथरूम की ओर बढ़ती हुई बोली, ‘‘हूं, पहाड़ी इलाका है. परसों निकलूंगी. समझबूझ कर सारा सामान रख देना.’’

प्रौढ़ा प्रश्नों की बौछार करने ही वाली थी, मसलन, ‘कितने दिनों के लिए जाओगी, कब तक लौटोगी, दादाबाबू भी साथ जाएंगे या नहीं…’ पर इतने में गार्गी वहां से बैडरूम की तरफ जा चुकी थी. बैडरूम में पहुंच कर गार्गी ने भाष्कर को फोन किया और कहा, ‘‘जल्दी घर आओ, तुम से कुछ कहना है. नहीं, कुछ नहीं हुआ…न, कुछ नहीं चाहिए. बस, तुम आ जाओ.’’ घंटाभर बाद भाष्कर घर लौटने के बाद कपड़े बदल कर टीवी के सामने बैठ गए. गार्गी उन के पास वाली कुरसी पर जा बैठी. टीवी पर न्यूज चल रही थी, ‘‘ब्रेकिंग न्यूज, चांदनी चौक कांड ने लिया नया मोड़. मामले की देखरेख कर रहे आला पुलिस अधिकारी का मानना है कि मंटू समाद्दार और उस के साथी हैं दोषी. जौइंट सीपी (क्राइम) गार्गी सेन ने प्रैस को दिया बयान, ‘मैडिकल रिपोर्ट के अनुसार दुराचार किया गया है. हम ने नाबालिग लड़की का बयान लिया है. आरोपियों की पहचान हो गई है. कानून अपना काम करेगा. दोषी कोई भी हों, उन के खिलाफ आईपीसी की धाराओं के तहत कार्यवाही की जाएगी. पीडि़ता को इंसाफ जरूर मिलेगा. मैं ने अपनी रिपोर्ट जमा कर दी है और चार्जशीट भी कोर्ट में पेश किए जाने के लिए तैयार है.’ ’’

न्यूज रीडर ने आगे खबर पढ़ी, ‘‘जौइंट सीपी साहिबा के इस बयान के कुछ ही घंटों में उत्तरी बंगाल के किसी दूरस्थ पहाड़ी इलाके में उन के तबादले की घोषणा हुई. इस संबंध में तरहतरह की अटकलें लगाई जा रही हैं. यह तबादला क्या उन की सच्ची बयानबाजी की सजा है? क्या राजनीतिक दिग्गजों की स्वार्थसिद्धि न होने के परिणामस्वरूप प्रभाव का इस्तेमाल कर के यह तबादला करवाया गया. अब चलते हैं मौके पर मौजूद संवाददाता के पास. हां, मौमिता, इस मामले में पुलिस का क्या कहना है?’’ संवाददाता मौमिता बताती है, ‘पुलिस का तो यह कहना है कि यह रूटीन तबादला था. इस फैसले पर गार्गी सेन की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल पाई है.

‘अब सवाल यह उठता है कि क्या इस से पुलिस की छानबीन पर कोई प्रभाव पड़ेगा, क्या राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर सुबूतों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की जा सकती है? ऐसी परिस्थिति में क्या पीडि़ता को इंसाफ मिल जाएगा? कैमरामैन रंजन मुखोपाध्याय के साथ मौमिता राय, सी टीवी न्यूज, बंगाल.’ समाचार खत्म होते ही गार्गी और भाष्कर दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा. गार्गी ने भाष्कर से पूछा, मैं ने सही किया न?’’

भाष्कर ने उस का हाथ अपने हाथों में लिया और अपनी उंगलियां उस की उंगलियों में फंसा कर मुसकराते हुए हामी भर कर सिर हिला दिया. गार्गी ने अपने सिर का बोझ उस के कंधे पर रख कर आंखें बंद कर लीं. उस की आंखों से आंसुओं की धारा टपक रही थी.

भाष्कर ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘यह क्या, तुम रो रही हो? आज तो विजय दिवस है, झूठ पर सच की विजय, बुराई पर अच्छाई की विजय. आज से तुम आजाद हो, तुम्हें और ग्लानि का बोझ वहन नहीं करना पड़ेगा.’’ गार्गी ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं, ये तो कई दिनों से अंदर जमा थे, आज बाहर आए हैं. कोई और अफसोस नहीं, बस, तुम से दूर…’’ भाष्कर ने बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘अब तो हम और ज्यादा करीब हो गए. साथ रहने का अर्थ क्या हमेशा पास रहना है? अगर मेरी गार्गी बदल जाती तो शायद मैं उसे पहले जैसा प्यार न दे पाता और पास रहने के बावजूद उस से काफी दूर हो जाता. तुम सचाई के साथ हो और सदा रहना, मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा.’’

इतने में बेनु पीसी ने आ कर टीवी का चैनल बदल दिया था. टीवी पर संगीत बज रहा था, ‘‘इंसाफ की डगर पे…अपने हो या पराए, सब के लिए हो न्याय. देखो, कदम तुम्हारा, हरगिज न डगमगाए, रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना संभलसंभल के…इंसाफ की डगर पे…’’

Hindi Fiction Stories : बनते बिगड़ते रिश्ते – क्या हुआ था रमेश के साथ

Hindi Fiction Stories : उन दिनों रमेश बहुत ज्यादा माली तंगी से गुजर रहा था. उसे कारोबार में बहुत ज्यादा घाटा हुआ था. मकान, दुकान, गाड़ी, पत्नी के गहने सब बिकने के बाद भी बाजार की लाखों रुपए की देनदारियां थीं. आएदिन लेनदार घर आ कर बेइज्जत करते, धमकियां देते और घर का जो भी सामान हाथ लगता, उठा कर ले जाते.

रमेश ने भी अनेक लोगों को उधार सामान दिया था और बदले में उन्होंने जो चैक दिए, वे बाउंस हो गए. वह उन के यहां चक्कर लगातेलगाते थक गया, मगर किसी ने भी न तो सामान लौटाया और न ही पैसे दिए.

थकहार कर रमेश ने उन लोगों पर केस कर दिए, मगर केस कछुए की चाल से चलते रहे और उस की हालत बद से बदतर होती चली गई.

जब दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया, तो रमेश को अपने पुराने दोस्तों की याद आई. बच्चों की गुल्लक तोड़ कर किराए का इंतजाम किया. कुछ पैसे पत्नी कहीं से ले आई और वह अपने शहर की ओर चल दिया.

पृथ्वी रमेश का सब से अच्छा दोस्त था. रमेश को पूरी उम्मीद थी कि वह उस की मदद जरूर करेगा.

अपने शहर बीकानेर आ कर रमेश सीधा अपनी मौसी के घर चला गया. वहां से नहाधो कर व खाना खा कर वह पृथ्वी के घर की ओर चल दिया.

शनिवार का दिन था. रमेश को पृथ्वी के घर पर मिलने की पूरी उम्मीद थी. वह मिला भी और इतना खुश हुआ, जैसे न जाने कितने सालों बाद मिले हों. इस के बाद वे पूरे दिन साथ रहे. रमेश पृथ्वी से पैसे के बारे में बात करना चाहता था, मगर झिझक की वजह से कह नहीं पा रहा था.

वे एक रैस्टोरैंट में बैठ गए. रमेश ने हिम्मत जुटाई और बोला, ‘‘यार पृथ्वी, एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, बोल न,’’ पृथ्वी ने कहा.

इस के बाद रमेश ने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई. पृथ्वी गंभीर हो गया और बोला, ‘‘तेरी हालत तो खराब ही है. तू बता, मुझ से क्या चाहता है?’’

‘‘यार, वैसे तो मुझे लाखों रुपए की जरूरत है, मगर तू भी सरकारी नौकरी करता है, इसलिए फिलहाल अगर तू मुझे 3 हजार रुपए भी उधार दे देगा, तो मैं घर में राशन डलवा लूंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. सुबह ले लेना.’’

‘‘तो फिर मैं कितने बजे फोन करूं?’’

‘‘तू मत करना, मैं खुद ही कर लूंगा.’’

रमेश के सिर से एक बड़ा बोझ सा उतर गया था. उस ने चैन की सांस ली. इस के बाद उन्होंने काफी देर तक बातचीत की और बाद में वह रमेश को उस की मौसी के घर तक अपनी मोटरसाइकिल पर छोड़ गया.

रमेश ने पृथ्वी को बताया कि उस की ट्रेन दोपहर 2 बजे जाएगी. उस ने रमेश को भरोसा दिलाया कि वह सुबह ही 3 हजार रुपए पहुंचा देगा.

रमेश ऐसी गहरी नींद सोया कि आंखें 9 बजे ही खुलीं. नहाधो कर तैयार होने तक साढ़े 10 बज गए. पृथ्वी का फोन अभी तक नहीं आया था.

रमेश ने फोन किया, तो पृथ्वी का मोबाइल स्विच औफ ही मिला.

रमेश की ट्रेन आई और उस की आंखों के सामने से चली भी गई. उस का मन बुझ सा गया था. उस ने कोशिश करना छोड़ दिया. उस की सूरत ऐसी लग रही थी, जैसे किसी ने गालों पर खूब चांटे मारे हों. उस की आंखों में आंसू तो नहीं थे, मगर एक सूनापन उन में आ कर जम सा गया था. वह काफी देर तक प्लेटफार्म के एक बैंच पर बैठा रहा.

‘‘अरे, रमेश? तू रमेश ही है न?’’

रमेश ने आंखें उठा कर देखा. वह सत्यनारायण था. उस का एक पुराना दोस्त. वह एक गरीब घर से था और रमेश ने कभी भी उसे अहमियत नहीं दी थी.

‘‘हां भाई, मैं रमेश ही हूं,’’ उस ने बेमन से कहा.

‘‘रमेश, मुझे पहचाना तू ने? मैं सत्यनारायण. तुम्हारा दोस्त सत्तू…’’

‘‘क्या हालचाल है सत्तू?’’ रमेश थकीथकी सी आवाज में बोला.

‘‘मैं तो ठीक हूं, मगर तू ने यह क्या हाल बना रखा है? दाढ़ी बढ़ी हुई है और कितना दुबला हो गया है. चल, बाहर चल कर चाय पीते हैं.’’

रमेश की इच्छा तो नहीं थी, मगर सत्यनारायण का जोश देख कर वह उस के साथ हो लिया. वे एक रैस्टोरैंट में आ बैठे और चाय पीने लगे.

‘‘और सुना रमेश, कैसे हालचाल हैं?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘हालचाल क्या होंगे? जिंदा बैठा हूं न तेरे सामने,’’ रमेश ने बेरुखी से कहा.

यह सुन कर सत्यनारायण गंभीर हो गया, ‘‘बात क्या है रमेश? मुझे बताएगा?’’

‘‘क्या बताऊं? यह बताऊं कि वहां मेरे बच्चे भूखे बैठे हैं और सोच रहे हैं कि पापा आएंगे, तो घर में राशन आएगा. पापा आएंगे, तो वे फिर से स्कूल जाएंगे. पापा आएंगे, तो नए कपड़े सिला देंगे. क्या बताऊं तुझे?’’

सत्यनारायण हक्काबक्का सा रमेश का चेहरा देख रहा था.

‘‘मैं तुझ से कुछ नहीं पूछूंगा रमेश. कितने पैसों की जरूरत है तुझे?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

रमेश ने सत्यनारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. साधारण से कपड़े, साधारण सी चप्पलें, यह उस की क्या मदद करेगा?

‘‘2 लाख रुपए चाहिए, क्या तू देगा मुझे?’’ रमेश ने कहा.

‘‘रमेश, मैं ने अपना सारा पैसा कारोबार में लगा रखा है. अगर तू मुझे कुछ दिन पहले कहता, तो मैं तुझे 2 लाख रुपए भी दे देता. यह बता कि फिलहाल तेरा कितने पैसों में काम चल जाएगा?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘3 हजार रुपए में.’’

‘‘तू 10 मिनट यहां बैठ. मैं अभी आया,’’ कह कर सत्यनारायण वहां से चला गया.

रमेश को यकीन नहीं था कि सत्यनारायण लौट कर आएगा. अब तो लगता है कि चाय के पैसे भी मुझे ही देने पड़ेंगे.

इसी उधेड़बुन में 10 मिनट निकल गए. रमेश उठ ही रहा था कि उस ने सत्यनारायण को आते देखा.

सत्यनारायण की सांसें तेज चल रही थीं. बैठते ही उस ने जेब में हाथ डाला और 50 के नोटों की एक गड्डी रमेश के सामने रख दी.

‘‘यह ले पैसे…’’

रमेश को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘मगर, मुझे तो सिर्फ 3 हजार…’’ रमेश मुश्किल से बोला.

‘‘रख ले, तेरे काम आएंगे.’’

‘‘सत्तू, मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

‘‘क्या बकवास कर रहा है? दोस्ती में कोई एहसान नहीं होता है.’’

‘‘लेकिन, मैं ये पैसे तुझे 3-4 महीने से पहले नहीं लौटा पाऊंगा.’’

‘‘जब तेरे पास हों, तब लौटा देना. मैं कभी मांगूंगा भी नहीं. तुझ पर मुझे पूरा भरोसा है,’’ सत्यनारायण ने कहा, तो रमेश कुछ बोल नहीं पाया.

‘‘अब मैं निकलता हूं. चाय के पैसे दे कर जा रहा हूं. तुझे 5 बजे वाली ट्रेन मिल जाएगी, तू भी निकल. बच्चे तेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

सत्यनारायण चला गया. रमेश उसे दूर तक जाते देखता रहा. इस वक्त ये 5 हजार रुपए उस के लिए लाखों रुपए के बराबर थे. वह जिस इनसान को हमेशा छोटा समझता रहा, आज वही उस के काम आया.

रमेश वापस अपने घर लौट गया.

2-3 महीने का तो इंतजाम हो गया था. इस के बाद उस ने फिर से काम की तलाश शुरू कर दी.

एक दिन रमेश को कपड़े की दुकान पर सेल्समैन का काम मिल गया. तनख्वाह कम थी, मगर जीने के लिए काफी थी.

इस के बाद समय अचानक बदला. 3 मुकदमों का फैसला रमेश के हक में गया. जेल जाने से बचने के लिए लोगों ने उस की रकम वापस कर दी. कुछ दूसरे लोग डर की वजह से फैसला होने से पहले ही पैसे दे गए. 6 महीने में ही पहले जैसे अच्छे दिन आ गए.

रमेश ने फिर से कारोबार शुरू कर दिया. इस वादे के साथ कि पहले जैसी गलतियां नहीं दोहराएगा. रमेश ने सत्यनारायण के पैसे भी लौटा दिए. उस ने ब्याज देना चाहा, तो सत्यनारायण ने साफ मना कर दिया.

इन सब बातों को आज 10 साल से भी ज्यादा हो गए हैं. रमेश कारोबार के सिलसिले में अपने शहर जाता रहता है. किसी शादी या पार्टी में पृथ्वी से भी मुलाकात हो ही जाती है. पूरे समय वह अपने नए मकान या नई गाड़ी के बारे में ही बताता रहता है और रमेश सिर्फ मुसकराता रहता है.

रमेश का पूरा समय तो अब सिर्फ सत्यनारायण के साथ ही गुजरता है. वह जितने दिन वहां रहता है, उसी के घर में ही रहता है.

रमेश ने बहुत बुरा वक्त गुजारा. ये बुरे दिन हमें बहुतकुछ सिखा भी जाते हैं. हमारी आंखों पर जमी भरम की धुंध मिट जाती है और हम सबकुछ साफसाफ देखने लगते हैं.

लेखक- महेंद्र तिवारी

Hindi Kahaniyan : मैं झूठ नहीं बोलती – कितनी सही थी मां की सीख

Hindi Kahaniyan : जब से होश संभाला, यही शिक्षा मिली कि सदैव सच बोलो. हमारी बुद्धि में यह बात स्थायी रूप से बैठ जाए इसलिए मास्टरजी अकसर ही  उस बालक की कहानी सुनाते, जो हर रोज झूठमूठ का भेडि़या आया भेडि़या आया चिल्ला कर मजमा लगा लेता और एक दिन जब सचमुच भेडि़या आ गया तो अकेला खड़ा रह गया.

मां डराने के लिए ‘झूठ बोले कौआ काटे’ की लोकोक्ति का सहारा लेतीं और उपदेशक लोग हर उपदेश के अंत में नारा लगवाते ‘सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला.’ भेडि़ये से तो खैर मुझे भी बहुत डर लगता है बाकी दोनों स्थितियां भी अप्रिय और भयावह थीं. विकल्प एक ही बचा था कि झूठ बोला ही न जाए.

बचपन बीता. थोड़ी व्यावहारिकता आने लगी तो मां और मास्टरजी की नसीहतें धुंधलाने लगीं. दुनिया जहान का सामना करना पड़ा तो महसूस हुआ कि आज के युग में सत्य बोलना कितना कठिन काम है और समझदार बनने लगे हम. आप ही बताओ मेरी कोई सहकर्मी एकदम आधुनिक डे्रस पहन कर आफिस आ गई है, जो न तो उस के डीलडौल के अनुरूप है न ही व्यक्तित्व के. मन तो मेरा जोर मार रहा है यह कहने को कि ‘कितनी फूहड़ लग रही हो तुम.’ चुप भी नहीं रह सकती क्योंकि सामने खड़ी वह मुसकरा कर पूछे जा रही है, ‘‘कैसी लग रही हूं मैं?’’

‘अब कहो, सच बोल दूं क्या?’

विडंबना ही तो है कि सभ्यता के साथसाथ झूठ बोलने की जरूरत बढ़ती ही गई है. जब हम शिष्टाचार की बात करते हैं तो अनेक बार आवश्यक हो जाता है कि मन की बात छिपाई जाए. आप चाह कर भी सत्य नहीं बोलते. बोल ही नहीं पाते यही शिष्टता का तकाजा है.

आप किसी के घर आमंत्रित हैं. गृहिणी ने प्रेम से आप के लिए पकवान बनाए हैं. केक खा कर आप ने सोचा शायद मीठी रोटी बनाई है. बस, शेप फर्क कर दी है और लड्डू ऐसे कि हथौड़े की जरूरत. खाना मुश्किल लग रहा है पर आप खा रहे हैं और खाते हुए मुसकरा भी रहे हैं. जब गृहिणी मनुहार से दोबारा परोसना चाहती है तो आप सीधे ही झूठ पर उतर आते हैं.

‘‘बहुत स्वादिष्ठ बना है सबकुछ, पर पेट खराब होने के कारण अधिक नहीं खा पा रहे हैं.’’

मतलब यह कि वह झूठ भी सच मान लिया जाए, जो किसी का दिल तोड़ने से बचा ले.

‘शारीरिक भाषा झूठ नहीं बोलती,’ ऐसा हमारे मनोवैज्ञानिक कहते हैं. मुख से चाहे आप झूठ बोल भी रहे हों आप की आवाज, हावभाव सत्य उजागर कर ही देते हैं. समझाने के लिए वह यों उदाहरण देते हैं, ‘बच्चे जब झूठ बोलते हैं तो अपना एक हाथ मुख पर धर लेते हैं. बड़े होने पर पूरा हाथ नहीं तो एक उंगली मुख या नाक पर रखने लगते हैं अथवा अपना हाथ एक बार मुंह पर फिरा अवश्य लेते हैं,’ ऐसा सोचते हैं ये मनोवैज्ञानिक लोग. पर आखिर अभिनय भी तो कोई चीज है और हमारे फिल्मी कलाकार इसी अभिनय के बल पर न सिर्फ चिकनीचुपड़ी खाते हैं हजारों दिलों पर राज भी करते हैं.

वैसे एक अंदर की बात बताऊं तो यह बात भी झूठ ही है, क्योंकि अपनी जीरो फिगर बनाए रखने के चक्कर में प्राय: ही तो भूखे पेट रहते हैं बेचारे. बड़ा सत्य तो यह है कि सभ्य होने के साथसाथ हम सब थोड़ाबहुत अभिनय सीख ही गए हैं. कुछ लोग तो इस कला में माहिर होते हैं, वे इतनी कुशलता से झूठ बोल जाते हैं कि बड़ेबड़े धोखा खा जाएं. मतलब यह कि आप जितने कुशल अभिनेता होंगे, आप का झूठ चलने की उतनी अच्छी संभावना है और यदि आप को अभिनय करना नहीं आता तो एक सरल उपाय है. अगली बार जब झूठ बोलने की जरूरत पड़े तो अपने एक हाथ को गोदी में रख दूसरे हाथ से कस कर पकड़े रखिए आप का झूठ चल जाएगा.

हमारे राजनेता तो अभिनेताओं से भी अधिक पारंगत हैं झूठ बोलने का अभिनय करने में. जब वह किसी विपदाग्रस्त की हमदर्दी में घडि़याली आंसू बहा रहे होते हैं, सहायता का वचन दे रहे होते हैं तो दरअसल, वह मन ही मन यह हिसाब लगा रहे होते हैं कि इस में मेरा कितना मुनाफा होगा. वोटों की गिनती में और सहायता कोश में से भी. इन नेताओं से हम अदना जन तो क्या अपने को अभिनय सम्राट मानने वाले फिल्मी कलाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

विशेषज्ञों ने एक राज की बात और भी बताई है. वह कहते हैं कि सौंदर्य आकर्षित तो करता ही है, सुंदर लोगों का झूठ भी आसानी से चल जाता है. अर्थात सुंदर होने का यह अतिरिक्त लाभ है. मतलब यह भी हुआ कि यदि आप सुंदर हैं, अभिनय कुशल हैं तो धड़ल्ले से झूठ बोलते रहिए कोई नहीं पकड़ पाएगा. अफसोस सुंदर होना न होना अपने वश की बात नहीं.

गांधीजी के 3 बंदर याद हैं. गलत बोलना, सुनना और देखना नहीं है. अत: अपने हाथों से आंख, कान और मुंह ढके रहते थे पर समय के साथ इन के अर्थ बदल गए हैं. आज का दर्शन यह कहता है कि आप के आसपास कितना जुल्म होता रहे, बलात्कार हो रहा हो अथवा चोट खाया कोई मरने की अवस्था में सड़क पर पड़ा हो, आप अपने आंख, कान बंद रख मस्त रहिए और अपनी राह चलिए. किसी असहाय पर होते अत्याचार को देख आप को अपना मुंह खोलने की जरूरत नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि झूठ बोलने की अनिवार्यता सिर्फ हमें ही पड़ती हो. अमेरिका जैसे सुखीसंपन्न देश के लोगों को भी जीने के लिए कम झूठ नहीं बोलना पड़ता. रोजमर्रा की परेशानियों से बचे होने के कारण उन के पास हर फालतू विषय पर रिसर्च करने का समय और साधन हैं. जेम्स पैटरसन ने 2 हजार अमेरिकियों का सर्वे किया तो 91 प्रतिशत लोगों ने झूठ बोलना स्वीकार किया.

फील्डमैन की रिसर्च बताती है कि 62 प्रतिशत व्यक्ति 10 मिनट के भीतर 2 या 3 बार झूठ बोल जाते हैं. उन की खोज यह भी बताती है कि पुरुषों के बजाय स्त्रियां झूठ बोलने में अधिक माहिर होती हैं जबकि पुरुषों का छोटा सा झूठ भी जल्दी पकड़ा जाता है. स्त्रियां लंबाचौड़ा झूठ बहुत सफलता से बोल जाती हैं. हमारे नेता लोग गौर करें और अधिक से अधिक स्त्रियों को अपनी पार्टी में शामिल करें. इस में उन्हीं का लाभ है.

बिना किसी रिसर्च एवं सर्वे के हम जानते हैं कि झूठ 3 तरह का होता है. पहला झूठ वह जो किसी मजबूरीवश बोला जाए. आप की भतीजी का विवाह है और भाई बीमार रहते हैं. अत: सारा बंदोबस्त आप को ही करना है. आप को 15 दिन की छुट्टी तो चाहिए ही. पर जानते हैं कि आप का तंगदिल बौस हर्गिज इतनी छुट्टी नहीं देगा. चाह कर भी आप उसे सत्य नहीं बताते और कोई व्यथाकथा सुना कर छुट्टी मंजूर करवाते हैं.

दूसरा झूठ वह होता है, जो किसी लाभवश बोला जाए. बीच सड़क पर कोई आप को अपने बच्चे के बीमार होने और दवा के भी पैसे न होने की दर्दभरी पर एकदम झूठी दास्तान सुना कर पैसे ऐंठ ले जाता है. साधारण भिखारी को आप रुपयाअठन्नी दे कर चलता करते हैं पर ऐसे भिखारी को आप 100-100 के बड़े नोट पकड़ा देते हैं. यह और बात है कि आप के आगे बढ़ते ही वह दूसरे व्यक्ति को वही दास्तान सुनाने लगता है और शाम तक यों वह छोटामोटा खजाना जमा कर लेता है.

कुछ लोग आदतन भी झूठ बोलते हैं और यही होते हैं झूठ बोलने में माहिर तीसरे किस्म के लोग. इस में न कोई उन की मजबूरी होती है न लाभ. एक हमारी आंटी हैं, उन की बातों का हर वाक्य ‘रब झूठ न बुलवाए’ से शुरू होता है पर पिछले 40 साल में मैं ने तो उन्हें कभी सच बोलते नहीं सुना. सामान्य बच्चों को जैसे शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है शायद उन्हें घुट्टी में यही पिलाया गया था कि ‘बच्चे सच कभी मत बोलना.’  बाल सफेद होने को आए वह अभी तक अपने उसी उसूल पर टिकी हुई हैं. रब झूठ न बुलवाए, इस में उन की न तो कोई मजबूरी होती है न ही लाभ.

सदैव सत्य ही बोलूंगा जैसा प्रण ले कर धर्मसंकट में भी पड़ा जा सकता है. एक बार हुआ यों कि एक मशहूर अपराधी की मौत हो गई और परंपरा है कि मृतक की तारीफ में दो शब्द बोले जाएं. यह तो कह नहीं सकते कि चलो, अच्छा हुआ जान छूटी. यहां समस्या और भी घनी थी. उस गांव का ऐसा नियम था कि बिना यह परंपरा निभाए दाह संस्कार नहीं हो सकता. पर कोई आगे बढ़ कर मृतक की तारीफ में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. अंत में एक वृद्ध सज्जन ने स्थिति संभाली.

‘‘अपने भाई की तुलना में यह व्यक्ति देवता था,’’ उस ने कहा, ‘‘सच भी था. भाई के नाम तो कत्ल और बलात्कार के कई मुकदमे दर्ज थे. अपने भाई से कई गुना बढ़ कर. अब उस की मृत्यु पर क्या कहेंगे यह वृद्ध सज्जन. यह उन की समस्या है पर कभीकभी झूठ को सच की तरह पेश करने के लिए उसे कई घुमावदार गलियों से ले जाना पड़ता है यह हम ने उन से सीखा.

मुश्किल यह है कि हम ने अपने बच्चों को नैतिक पाठ तो पढ़ा दिए पर वैसा माहौल नहीं दे पाए. आज के घोर अनैतिक युग में यदि वे सत्य वचन की ही ठान लेंगे तो जीवन भर संघर्ष ही करते रह जाएंगे. फिल्म ‘सत्यकाम’ देखी थी आप ने? वह भी अब बीते कल की बात लगती है. हमारे नैतिक मूल्य तब से घटे ही हैं सुधरे नहीं. आज के झूठ और भ्रष्टाचार के युग में नैतिक उपदेशों की कितनी प्रासंगिकता है ऐसे में क्या हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना छोड़ दें. संस्कार सब दफन कर डालें? प्रश्न कड़वा जरूर है पर पूछना आवश्यक. बच्चों को वह शिक्षा दें, जो व्यावहारिक हो जिस का निर्वाह किया जा सके. उस से बड़ी शर्त यह कि जिस का हम स्वयं पालन करते हों.

सब से बड़ा झूठ तो यही कहना, सोचना है कि हम झूठ बोलते नहीं. कभी हम शिष्टाचारवश झूठ बोलते हैं तो कभी समाज में बने रहने के लिए. कभी मातहत से काम करवाने के लिए झूठ बोलते हैं तो कभी बौस से छुट्टी मांगने के लिए. सामने वाले का दिल न दुखे इस कारण झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सजा अथवा शर्मिंदगी से बचने के लिए. कभी टैक्स बचाने के लिए, कभी किरायाभाड़ा कम करने के लिए. चमचागीरी तो पूरी ही झूठ पर टिकी है. मतलब कभी हित साधन और कभी मजबूरी से. तो फिर हम सत्य कब बोलते हैं?

शीर्षक तो मैं ने रखा था कि ‘मैं झूठ नहीं बोलती’ पर लगता है गलत हो गया. इस लेख का शीर्षक तो होना चाहिए था,  ‘मैं कभी सत्य नहीं बोलती.’

क्या कहते हैं आप?

Top Hindi Kahaniyan : टौप 10 हिंदी कहानियां

Top  Hindi Kahaniyan : समाज से जुड़ी कुछ नीतियां और कुरीतियां सभी को माननी पड़ती हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो इन नियमों को मानने की बजाय अपना रास्ता खुद बनाने का प्रयास करते हैं. हालांकि इस रास्ते पर उनकी जिंदगी में कई मुश्किलें आती है. लेकिन वह बिना हार माने अपनी जीत हासिल करते हैं. तो इसलिए आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गृहशोभा की Top 10 Story in Hindi. समाज का एक पहलू दिखाती ये कहानियां आपकी लाइफ में गहरी छाप छोड़ेंगी. तो पढ़िए गृहशोभा की Top 10 Story in Hindi.

1. पीला गुलाब: क्यों कांपने लगे उसके हाथ

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एक महीना पहले ही हमारी शादी हुई थी, लेकिन लड़कियों के मामले में इन की ऐसी बातें मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीं. पर ये थे कि ऐसी बातों से बाज ही नहीं आते.

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2. सीलन-उमा बचपन की सहेली से क्यों अलग हो गई?

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उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी.

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3. उस रात का सच : क्या थी असलियत

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महेंद्र को यकीन था कि हरिद्वार थाने में वह ज्यादा दिनों तक थानेदार के पद पर नहीं रहेगा, इसीलिए नोएडा के थाने में तबादला होते ही उस ने अपना बोरियाबिस्तर बांधा और रेलवे स्टेशन चला आया.

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4. मजा या सजा : कैसे बदल गया बालकिशन

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वह उस रेल से पहली बार बिहार आ रहा था. इंदौर से पटना की यह रेल लाइन बिहार और मध्य प्रदेश को जोड़ती थी. वह मस्ती में दोपहर के 2 बजे चढ़ा. लेकिन 13-14 घंटे के सफर के बाद वह एक हादसे का शिकार हो गया. पूरी रेल को नुकसान पहुंचा था.

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5. जीने की इच्छा : कैसे अरुण ने दिखाया बड़प्पन

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अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे.

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6. चाल : फहीम ने सिखाया हैदर को सबक

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फहीम अपने होंठ काटने लगा. उसे मालूम था कि हैदर की इस धमकी का क्या मतलब है. फहीम हैदर को देख कर ही समझ गया था कि अब यह गड़े मुर्दे उखाड़ने बैठ जाएगा.

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7. नपुंसक : नौकरानी के जाल में कैसे फंस गए रंजीत

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बड़े बिजनैसमैन रंजीत मल्होत्रा सभ्य शरीफ और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, लेकिन उन की नौकरानी ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि वह बुरी तरह फंस गए. उस जाल में वह कैसे फंसे और कैसे निकले

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8. झूठ से सुकून: शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

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वैलफेयर सोसायटी के आदर्श नागरिक बनने के चक्कर में शशिकांतजी की जो किरकिरी हुई वह तो उन का ही दिल जानता था और इसी कारण उन्होंने जिंदगी का पहला झूठ बोला था.

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9. बदबू : कमली की अनोखी कहानी

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कमली अधनींदी सी लेटी हुई थी. आहट सुन कर वह उठ बैठी. देखा कि किसना ने कुछ नोट निकाले और उन्हें अलमारी में रखने लगा. कमली की आंखें खुशी से चमक उठीं.

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10. और सीता जीत गई

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वकील ने कहा, ‘मारपीट कर लेने के बाद वे जब कोर्ट में पेश करेंगे, तब गिरफ्तारी दिखाएंगे. जब तक वे थाने के बाहर कहीं रखेंगे. रात को ला कर मारपीट करने के बाद जांच पूरी करेंगे.

Interesting Hindi Stories : पुष्पा – कहां चली गई थी वह

Interesting Hindi Stories : उस बड़ी सी कालोनी के 10 घरों में पार्टटाइम काम कर रही थी. कब से, यह बात कम ही लोग जानते थे. कितने ही घरों में नए मालिक आ चुके थे, पर हर नए मालिक ने पुष्पा को अपना लिया था. 240 सी वाली यादव मेम साहब ने नई बहू को बताया था, ‘‘जब मैं ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था, तब पुष्पा ने ही सब से पहले मेरे लंबे घूंघट में अपना मुंह घुसा कर मेरी सास को कहा था, ‘अरे अम्मां, तुम बहू लाई हो या चांद का टुकड़ा… मैं वारी जाऊं, हाथ लगाते ही मैली हो जाएगी.’ 240 सी वाली मेम साहब एक बडे़ दफ्तर में काम करती थीं और उसी दिन से पुष्पा की चहेती बन गई थीं. पुष्पा यादव मेम साहब की सास को ‘अम्मां’ कह कर ही बुलाती थी. अम्मां ने उसे मां की तरह ही पाला था और उसे अपने बच्चों सा ही प्यार दिया था. किसी भी नए घर में रखने से पहले पूरी जानकारी अम्मां लेती थीं और फिर यह काम 240 सी वाली यादव मेम साहब ने करना शुरू कर दिया था. 20 सालों में पुष्पा 19 साल से 39 की हो गई,

पर अभी भी उस में फुरती भरी थी. पुष्पा का बाप अम्मां के ही गांव का चौकीदार था. पुष्पा के जन्म के फौरन बाद उस की मां चल बसी थी. लेकिन बाद में बाप ने कभी उसे मां की कमी महसूस नहीं होने दी थी. दिन बीतते देर नहीं लगती. एक के बाद एक 14 साल पार कर के बरसाती नदी सी अल्हड़ पुष्पा बचपन को पीछे छोड़ जवानी की चौखट पर आ पहुंची थी. उन्हीं दिनों बाप ने पढ़ाई छुड़वा कर 17 साल की उम्र में ब्याह करा दिया, लेकिन जिस शान से वह ससुराल पहुंची, उसी शान से 10 दिन में वापस भी आ गई. पति ने एक सौत जो बिठा रखी थी पड़ोस में. बाप के पास रह कर मजूरी करना पुष्पा को मंजूर था, लेकिन सौत की चाकरी करना उस के स्वभाव में नहीं था. उस घर में दूसरे दर्जे की पत्नी बन कर रहना उसे कतई पसंद न आया. चौकीदार बाप ने उसे इस कालोनी में नौकरी दिला दी थी.

पुष्पा ने भी खुशीखुशी सारे घरों को संभाल लिया था. सर्वैंट क्वार्टर में उस का पक्का ठिकाना हो गया था. दुख की हलकी सी छाया भी उस के चेहरे पर दिखाई न दी थी. 2 साल बाद पुष्पा का बाप भी चल बसा. फिर धीरेधीरे वह इस कालोनी के लोगों में ही शामिल होती चली गई. किसी ने भी उसे कभी कुछ कहा हो, याद नहीं. पुष्पा ने हर घर का काम मुस्तैदी से किया और शिकायत का सवाल ही नहीं था. 5-6 घरों की चाबियां उसी के पास रहती थीं. बच्चे कब स्कूल से आएंगे, कौन सी बस से आएंगे, खाने में क्या खाएंगे, उसे मालूम था. ऐसा लगता था कि वह कालोनी की कामकाजी औरतों की जान है. घर के भंडारे से ले कर बाहर तक के सारे कामकाज का जिम्मा पुष्पा के ही सिर पर था. शादीब्याह के मौकों पर रिश्ते की औरतें आतीं और कमरों का एकएक कोना थाम कर अपनाअपना सामान सजा कर बैठ जातीं. लेकिन सब को समय पर चाय मिलती और समय पर खाना. ऐसे में पुष्पा को जरा भी फुरसत नहीं मिलती थी.

हर मेमसाहब और मेहमानों के काम में हाथ बंटाती वह चकरघिन्नी की तरह घूमती हुई सारा घर संभालती थी. पुष्पा को इस कालोनी से न जाने कैसा मोह सा हो गया था कि वह कहीं और जाने को तैयार न होती. सब बच्चे उसी की गोद में पले थे. अकसर सभी की छोटीमोटी जरूरतें पुष्पा ही पूरी करती थी. न जाने कितनी बार उस ने बच्चों को अपनीअपनी मांओं से पिटने से भी बचाया था. यादव मेम साहब अकसर कहतीं, ‘‘तुम इन सब को सिर पर चढ़ा कर बिगाड़ ही दोगी पुष्पा.’’ ‘‘अरे नहीं मेम साहब, मैं क्या इन का भलाबुरा नहीं समझती,’’ कहते हुए वह बच्चों को अपनी बांहों में समेट लेती.

धीरेधीरे बच्चों के ब्याह होने लगे. घरों में नए लोग आने लगे. ऐसे में एक दिन 242 सी वाली मेम साहब ने पूछ ही लिया, ‘‘अरे पुष्पा, सब का ब्याह हुआ जा रहा है, तू कब ब्याह करेगी?’’ ‘‘मैं तो ब्याही हूं मेम साहब,’’ वह लजा गई. ‘‘अरे, वह भी कोई ब्याह था तेरा, न जाते देर, न आते देर. अब तक तो तुझे दूसरा ब्याह कर लेना चाहिए था,’’ 250 सी वाली ने भी उसे समझाते हुए कहा ही था कि पुष्पा अपने कान पकड़ते हुए बोली, ‘‘यह क्या कहती हो मेम साहब, एक मरद के रहते दूसरा कैसे कर लूं? अरे, उस ने तो मुझे भगाया नहीं, मैं खुद ही चली आई थी.’’ लेकिन एक दिन न जाने कहां से पता पूछतेपूछते पुष्पा का मर्द आ ही टपका. पुष्पा सोसाइटी की सीढि़यां धो रही थी. दरवाजा खुलने के साथ ही उस ने घूम कर देखा. दूसरे ही पल साफ पहचान गई अपने मर्द को. इतने सालों बाद भी उस में ज्यादा फर्क नहीं आया था. बालों में हलकी सफेदी जरूर आ गई थी, पर शरीर वैसा ही दुबलापतला था.

लेकिन वह पुष्पा को नहीं पहचान पाया. उस को एकटक अपनी ओर देखता पा कर उस ने थोड़ी हिम्मत से कहा, ‘‘मैं… दिनेश हूं. पुष्पा क्या यहीं…?’’ लेकिन दूसरे ही पल उसे लगा कि शायद यही तो पुष्पा है, ‘‘कहीं तुम ही तो…?’’ पुष्पा ने धीरे से सिर झुका लिया. उस की चुप्पी से उस का साहस बढ़ा, ‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं पुष्पा.’’ पुष्पा सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही. ‘‘मैं बिलकुल अकेला रह गया हूं. तुम्हारी बहुत याद आती?है. देखो, इनकार मत करना.’’ पुष्पा हैरानी से अपने मर्द को देखती रह गई. इतने सालों बाद आज किस हक से वह उसे लेने आया है. पुष्पा के चेहरे पर कई रंग आए और गए. उस ने कुछ सख्त लहजे में कहा, ‘‘क्यों…? तुम्हारी ‘वह’ कहां गई?’’ ‘‘कौन… लक्ष्मी…? वह तो बहुत समय पहले ही मुझे छोड़ कर चली गई थी. लालची थी न…

जब तक मेरे पास पैसे रहे, वह भी रही. पैसे खत्म हो गए, तो वह भी चली गई.’’ कुछ ठहर कर दिनेश ने फिर गिड़गिड़ा कर कहा, ‘‘मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. जो चाहे सजा दे लो, लेकिन तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा. देखो, इनकार मत करना,’’ उस की आंखों से आंसू बह चले थे. पुष्पा का दिल भर आया. औरत का दिल जो ठहरा. जरा सा किसी के आंसू देखे, झट पिघल गया. उस ने गौर से उसे देखा, ‘कैसा तो हो आया है इस का चेहरा. ब्याह के समय कैसी मजबूत और सुंदर देह थी इस की. बहुत कमजोर भी लग रहा है,’ आंसुओं को आंचल के कोर से पोंछ कर उस ने अपने पति दिनेश को बरामदे में रखे स्टूल पर बैठाया और खुद एक फ्लैट में चली गई. मेम साहब के पास जा कर वह धीरे से बोली, ‘‘मेम साहब, मेरा मर्द आया है.’’ ‘‘क्या…?’’ सुन कर वे चौंक गईं. पुष्पा पागल तो नहीं हो गई.

उन्होंने एक बार फिर पूछा, ‘‘कौन आया है?’’ ‘‘वह बाहर बैठा है. कह रहा है, मुझे लेने आया है,’’ पुष्पा धीरे से बाहर की ओर मुड़ गई. अब तो आगेआगे पुष्पा और पीछे से एकएक कर के सब फ्लैटों की मेम साहबें अपने सब काम छोड़ कर एक लाइन से बरामदे में आ कर खड़ी हो गईं. सब को देखते ही वह घबरा कर खड़ा हो गया. सब की घूरती निगाहों का सामना करने की हिम्मत शायद उस में नहीं थी. सिर झुका कर वह धीरे से बोला, ‘‘मैं दिनेश हूं. पुष्पा को लेने आया हूं.’’ ‘‘क्यों…?’’ अपने गुस्से को दबाते हुए एक मेम साहब बोलीं, ‘‘इतने बरस कहां था, जब पुष्पा…’’ तब तक पुष्पा ने आगे आ कर भरे गले से उन्हें वहीं रोक दिया, ‘‘कुछ न कहो मेम साहब इसे. यह अकेला है. इसे मेरी जरूरत है. देर से ही सही, मेरी सुध तो आई इसे.’’ अब इस के आगे कोई क्या बोलता. पुष्पा अंदर जा कर अपना सामान समेटने लगी. अचानक उस के हाथ रुक गए. इस कालोनी को छोड़ते हुए उसे जाने कैसा लग रहा था.

वह सोचने लगी, ‘कितनी मतलबी हूं मैं. अपने सुख के लिए आज इन लोगों का सारा स्नेह, सारा प्रेम मैं कैसे भूल गई. कितनी आसानी से मैं इन लोगों को छोड़ कर जाने को तैयार हो रही हूं,’ उस की आंखों से टपटप गिरते आंसू उस का आंचल भिगोने लगे. अभी वह कुछ सोच ही रही थी कि कई मालकिनें एकसाथ उस के कमरे में जा पहुंचीं. पुष्पा एक मेम साहब के गले लग कर जोर से रो पड़ी, ‘‘मुझे माफ करना, आज मैं सबकुछ भूल गई.’’ ‘‘नहीं पुष्पा, तुम ने उस के साथ जाने का इरादा कर के बहुत अच्छा किया है. अपना मर्द अपना ही होता है. चाहे कितना भी वह भटकता रहे, एक दिन उसे वापस लौटना ही होता?है. जब जागो तभी सवेरा समझो,’’ यादव मेम साहब ने पुष्पा की पीठ थपथपाते हुए कहा.

उस का सामान बाहर पहुंचा दिया गया था. आगे बढ़ कर उस कालोनी के सब लोगों को एकएक कर के नमस्ते करते हुए पुष्पा बोली, ‘‘आप सब खुश रहो.’’ अब तक 240 सी वाली अम्मां भी बाहर आ गई थीं, जो सब से ज्यादा बुजुर्ग थीं. पुष्पा ने सिर झुकाए आंसू भरी आंखों से उन्हें देखा, ‘‘अम्मां,’’ भरे गले से आगे कुछ न बोल सकी. उन्होंने उसे समझाया, ‘‘इतना दुखी क्यों हो रही हो पुष्पा…? तुम खुशीखुशी उस के साथ घर बसाओ, यही हम सब चाहते हैं. अरे, औरत का जीवन ही यही है. औरत मर्द के बिना और मर्द औरत के बिना अधूरा होता है. ‘‘तुम्हारे जाने का दुख हम सब को है, किंतु तुम्हारे इस फैसले से हमें बहुत खुशी हो रही है. हंसतीखेलती जाओ, मगर हमें भूल मत जाना.’’

इतने में सब ने उन दोनों को रुकने के लिए कहा. 15 मिनट में सारी मालकिनें अपनेअपने हाथों में थैले पकड़े आ गईं. हर कोई बढ़चढ़ कर पुष्पा के लिए अच्छी से अच्छी चीज लाया था. 240 सी वाली यादव मेम साहब ने अपने ड्राइवर को कहा, ‘‘गाड़ी की डिग्गी खोलो और सब सामान रखो. यह इन के साथ जाएगा.’’ 242 सी वाली मेम साहब ने 10,000 रुपए पकड़ाए और कहा, ‘‘मेरा नौकर तुम दोनों को ट्रेन में भी बैठा आएगा.’’ दिनेश ने आगे बढ़ कर पुष्पा का हाथ पकड़ा. धीरेधीरे वे दोनों सब की नजरों से दूर होते चले गए. पुष्पा का कमरा आज भी उस कालोनी में खाली है. सब ने वादा लिया?है बच्चों से कि पुष्पा कभी भी आए, कैसी भी हो, उसे कोई रहने से नहीं रोकेगा.

Latest Hindi Stories : सासुजी हों तो हमारी जैसी

Latest Hindi Stories :  पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आइ. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं. सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.

उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए. आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

Famous Hindi Stories : भंवरजाल – जब भाई बहन ने लांघी रिश्तों की मर्यादा

 Famous Hindi Stories : ‘‘कैसे भागभाग कर काम कर रहा है रिंटू.’’ ‘‘हां, तो क्यों नहीं करेगा, आखिर उस की बहन सोना की सगाई जो है,’’ दूसरे शहर से आए रिश्तेदार आपस में बतिया रहे थे और घर वाले काम निबटाने में व्यस्त थे. लेकिन क्यों बारबार भाई है, बहन है कह कर जताया जा रहा था? थे तो रिंटू ओर सोनालिका बुआममेरे भाईबहन, किंतु क्या कारण था कि रिश्तेदार उन के रिश्ते को यों रेखांकित कर रहे थे?

‘‘पता नहीं मामीजी को क्या हो गया है, अंधी हो गईं हैं बेटे के मोह में. और, क्या बूआजी भी नहीं देख पा रहीं कि सोना क्या गुल खिलाती फिर रही है?’’ बड़ी भाभी सुबह नाश्ता बनाते समय रसोई में बुदबुदा रही थीं. रसोई में काम के साथ चुगलियों का छौंक काम की सारी थकान मिटा देती है. साथ में सब्जी काटती छोटी मामी भी बोलीं ‘‘हां, कल रात देखा मैं ने, कैसे एक ही रजाई में रिंटू और सोना…सब के सामने. कोई उन्हें टोकता क्यों नहीं?’’

‘‘अरे मामी, जब उन दोनों को कोई आपत्ति नहीं, उन की माताओं को कुछ दिखता नहीं तो कौन अपना सिर ओखली में दे कर मूसली से कुटवाएगा?’’ बड़ी भाभी की बात में दम था. रिश्तेदार पीठ पीछे बात करते नहीं थकते परंतु सामने बोल कर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? जो हो रहा है, होने दो. मजा लो, बातें बनाओ और तमाशा देखो. जब से सोनालिका किशोरावस्था की पगडंडी पर उतरी, तभी से उस के ममेरे भाई उस से 12 वर्ष बड़े रिंटू ने उस का हाथ थाम लिया. हर पारिवारिक समारोह में उसे अपने साथ लिए फिरता. अपनी गर्लफ्रैंड्स की रोचक कहानियां सुना उसे गुदगुदाता. सोनालिका भी रिंटू भैया के आते ही और किसी की ओर नहीं देखती. उसे तो बस रिंटू भैया की रसीली बातें भातीं. बातें करते हुए रिंटू कभी सोनालिका का हाथ पकड़े रहता, कभी कमर में बांह डाल देता तो कभी उस की नर्म बांहें सहलाता, देखते ही देखते, 1-2 सालों में रिंटू और सोनालिका एकदूसरे से बहुत हिलमिल गए. सोनालिका उसे अलगअलग लड़कियों के नाम ले छेड़ती तो रिंटू उस के पीछे भागता, और इसी पकड़मपकड़ाई में रिंटू उस के बदन के भिन्न हिस्सों को अपनी बाहों में भींच लेता. कच्ची उम्र का तकाजा कहें या भावनाओं का ज्वार, रिंटू की उपस्थिति सोनालिका के कपोल लाल कर देती, उस के नयन कभी शरारत में डूबे रिंटू के साथ अठखेलियां करते तो कभी मारे हया के जमीन में गड़ जाते. हर समारोह में रिंटू उसे ले एक ही रजाई में घुस जाता. ऊपर से तो कुछ ज्यादा दिखाई नहीं देता किंतु सभी अनुभव करते कि रिंटू और सोनालिका के हाथ आपस में उलझे रहते, रजाई के नीचे कुछ शारीरिक छेड़खानी भी चलती रहती.

उस रात रिंटू अपनी नवीनतम गर्लफ्रैंड का किस्सा सुना रहा था और सोनालिका पूरे चाव से रस ले रही थी, ‘रिंटू भैया, आप ने उस का हाथ पकड़ा तो उस ने मना नहीं किया?’

‘अरे, सिर्फ हाथ नहीं पकड़ा, और भी कुछ किया…’ रिंटू ने कुछ इस तरह आंख मटकाई कि उस का किस्सा सुनने हेतु सोनालिका उस के और करीब सरक आई. ‘मैं ने उस का चेहरा अपने हाथों में यों लिया और…’ कहते हुए रिंटू ने सोनालिका का मुख अपने हाथों में ले लिया और फिर डैमो सा देते हुए अपनी जबान से झट उस के होंठ चूम लिए. अकस्मात हुई इस घटना से सोनालिका अचंभित तो हुई किंतु उस के अंदर की षोडशी ने नेत्र मूंद कर उस क्षण का आनंद कुछ इस तरह लिया कि रिंटू की हिम्मत चौगुनी हो गई. उस ने उसी पल एक चुंबन अंकित कर दिया सोनालिका के अधरों पर. उस रात जब अंताक्षरी का खेल खेला गया तो सारे रिश्तेदारों के जमावड़े के बीच सोनालिका ने गाया, ‘शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा, अब हमें आप के कदमों ही में रहना होगा…’ उस की आंखें उस के अधरों के साथ कुछ ऐसी सांठगांठ कर बैठीं कि रिंटू की तरफ उठती उस की नजर देख सभी को शक हो गया. जो लज्जा उस का मुख ढक रही थी, उसी ने सारी पोलपट्टी खोल दी.

‘अरे सोना, यह 1968 की फिल्म ‘पड़ोसन’ का गाना तुझे कैसे याद आ गया? आजकल के बच्चे तो नएनए गाने गाते हैं,’ ताईजी ने तो कह भी दिया. जब रिंटू और सोनालिका की माताएं गपशप में व्यस्त हो जातीं, अन्य औरतें उन दोनों की रंगरेलियां देख चटकारे लेतीं. रिंटू की उम्र सोनालिका से काफी अधिक थी. सो, उस की शादी पहले हुई. रिंटू की शादी में सोनालिका ने खूब धूम मचाए रखी. किंतु जहां अन्य सभी भाईबहन ‘भाभीभाभी’ कह नईनवेली दुलहन रत्ना को घेरे रहते, वहीं सोनालिका केवल रिंटू के आसपास नजर आती. सब रिश्तेदार भी हैरान थे कि यह कैसा रिश्ता था दोनों के समक्ष – क्या अपनी शारीरिक इच्छा व इश्कबाज स्वभाव के चलते दोनों अपना रिश्ता भी भुला बैठे थे? सामाजिक मर्यादा को ताक पर रख, दोनों बिना किसी झिझक वो करते जो चाहते, वहां करते, जहां चाहते. उन्हें किसी की दृष्टि नहीं चुभती थी, उन्हें किसी का भय नहीं था.

रिंटू की शादी के बाद भी हर पारिवारिक गोष्ठी में सोनालिका ही उस के निकट बनी रहती. एक बार रिंटू की पत्नी, रत्ना ने सोनालिका और रिंटू को हाथों में हाथ लिए बैठे देखा. उसे शंका इस कारण हुई कि उसे कक्ष में प्रवेश करते देख रिंटू ने अपना हाथ वापस खींच लिया. बाद में पूछने पर रिंटू ने जोर दे कर उत्तर दिया, ‘कम औन यार, मेरी बहन है यह.’ उस बात को करीब 4 वर्ष के अंतराल के बाद आज रत्ना लगभग भुला चुकी थी. अगले दिन सोनालिका की सगाई थी. लड़का मातापिता ने ढूंढ़ा था. शादी से जुड़े उस के सुनहरे स्वप्न सिर्फ प्यारमुहब्बत तक सिमटे थे. इस का अधिकतम श्रेय रिंटू को जाता था. सालों से सोनालिका को एक प्रेमावेशपूर्ण छवि दिखा, प्रेमालाप के किस्से सुना कर उस ने सोना के मानसपटल पर बेहद रूमानी कल्पनाओं के जो चित्र उकेरे थे, उन के परे देखना उस के लिए काफी कठिन था. सगाई हुई, और शादी भी हो गई. मगर अपने ससुराल पहुंच कर सोनालिका ने अपने पति का स्वभाव काफी शुष्क पाया. ऐसा नहीं कि उस ने अपने पति के साथ समायोजन की चेष्टा नहीं की. सालभर में बिटिया भी गोद में आ गई किंतु उन के रूखे व्यवहार के आगे सोनालिका भी मुरझाने लगी. डेढ़ साल बाद जब छोटी बहन की शादी में वो मायके आई तो रिंटू से मिल कर एक बार फिर खिल उठी थी. शादी में आई सारी औरतें सोनालिका और रिंटू को एक बार फिर समीप देख अचंभित थीं.

‘‘अब तो शादी भी हो गई, बच्ची भी हो गई, तब भी? हद है भाई सोना की,’’ बड़ी भाभी बुदबुदा रही थीं कि रत्ना रसोई में आ गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’ रत्ना के पूछने पर बड़ी भाभी ने मौके का फायदा उठा सरलता और बेबाकी से कह डाला, ‘‘कहना तो काफी दिनों से चाहती थी, रत्ना, पर आज बात उठी है तो बताए देती हूं – जरा ध्यान रखना रिंटू का. यह सोना है न, शुरू से ही रिंटू के पीछे लगी रहती है. अब कहने को तो भाईबहन हैं पर क्या चलता है दोनों के बीच, यह किसी से छिपा नहीं है. तुम रिंटू की पत्नी हो, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है अपनी गृहस्थी की रक्षा करना, सो बता रही हूं.’’ बड़ी भाभी की बात सुन रत्ना का चिंतित होना स्वाभाविक था. माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछती वह बाहर आई तो सोनालिका और रिंटू के स्वर सुन वो किवाड़ की ओट में हो ली.

‘‘कैसी चुप सी हो गई है सोना. क्या बात है? मेरी सोना तो हमेशा हंसतीखेलती रहती थी,’’ रिंटू कह रहा था और साथ ही सोनालिका के केशों में अपनी उंगलियां फिराता जा रहा था.

‘‘रिंटू, आप जैसा कोई मिल जाता तो बात ही क्या थी. क्या यार, हम भाईबहन क्यों हैं? क्या कुछ भी नहीं हो सकता?’’ कहते हुए सोनालिका रिंटू की छाती से लगी खड़ी थी कि रत्ना कमरे में प्रविष्ट हो गई. दोनों हतप्रभ हो गए और जल्दी स्वयं को व्यवस्थित करने लगे.

‘‘भाभी, आओ न. मैं रिंटू भैया से कह रही थी कि इतना सुहावना मौसम हो रहा है और ये हैं कि कमरे में घुसे हुए हैं. चलो न छत पर चल कर कुछ अच्छी सैल्फी लेते हैं,’’ कहते हुए सोनालिका, रिंटू का हाथ पकड़ खींचने लगी.

‘‘नहीं, अभी नहीं, मुझे कुछ काम है इन से,’’ रत्ना के रुखाई से बोलने के साथ ही बाहर से बूआजी का स्वर सुनाई पड़ा. ‘‘सोना, जल्दी आ, देख जमाई राजा आए हैं.’’ सोनालिका चुपचाप बाहर चली गई. उस शाम रत्ना और रिंटू का बहुत झगड़ा हुआ. बड़ी भाभी ने भले ही सारा ठीकरा सोनालिका के सिर फोड़ा था पर रत्ना की दृष्टि में उस का अपना पति भी उतना ही जिम्मेदार था. शायद कुछ अधिक क्योंकि वह सोनालिका से कई वर्ष बड़ा था. आज रिंटू का कोई भी बहाना रत्ना के गले नहीं उतर रहा था. पर अगली दोपहर फिर रत्ना ने पाया कि सोनालिका सैल्फी ले रही थी और इसी बहाने उस का व रिंटू का चेहरा एकदम चिपका हुआ था. ये कार्यकलाप भी सभी के बीच हो रहा था. सभी की आंखों में एक मखौल था लेकिन होंठों पर चुप्पी. रत्ना के अंदर कुछ चटक गया. रिंटू की ओर उस की वेदनाभरी दृष्टि भी जब बेकार हो गई तब वह अपने कमरे में आ कर निढाल हो बिस्तर पर लेट गई. पसीने से उस का पूरा बदन भीग चुका था. आंख मूंद कर कुछ क्षण यों ही पड़ी रही.

फिर अचानक ही उठ कर रिंटू की अलमारी में कुछ टटोलने लगी. और ऐसे अचानक ही उस के हाथ एक गुलाबी लिफाफा लग गया. जैसे इसे ही ढूंढ़ रही थी वह – फौरन खोल कर पढ़ने लगी : ‘रिंटू जी, (कम से कम यहां तो आप को ‘भैया’ कहने से मुक्ति मिली.)

‘मैं कैसे समझाऊं अपने मन को? यह है कि बारबार आप की ओर लपकता है. क्या करूं, भावनाएं हैं कि मेरी सुनती नहीं, और रिश्ता ऐसा है कि इन भावनाओं को अनैतिकता की श्रेणी में रख दिया है. यह कहां फंस गई मैं? जब से आप से लौ लगी है, अन्य कहीं रोशनी दिखती ही नहीं. आप ने तो पहले ही शादी कर ली, और अब मेरी होने जा रही है. कैसे स्वीकार पाऊंगी मैं किसी और को? कहीं अंतरंग पलों में आप का नाम मुख से निकल गया तो? सोच कर ही कांप उठती हूं. कुछ तो उपाय करो.

‘हर पल आप के प्रेम में सराबोर.

‘बस आप की, सोना.’

रत्ना के हाथ कांप गए, प्रेमपत्र हाथों से छूट गया. उस का सिर घूमने लगा – भाईबहन में ऐसा रिश्ता? सोचसोच कर रत्ना थक चुकी थी. लग रहा था उस का दिमाग फट जाएगा. हालांकि कमरे में सन्नाटा बिखरा था पर रत्ना के भीतर आंसुओं ने शोर मचाया हुआ था. इस मनमस्तिष्क की ऊहापोह में उस ने एक निर्णय ले लिया. वह उसी समय अपना सामान बांध मायके लौट गई. सारे घर में हलचल मच गई. सभी रिश्तेदार गुपचुप सोनालिका को इस का दोषी ठहरा रहे थे. लेकिन सोनालिका प्रसन्न थी. उस की राह का एक रोड़ा स्वयं ही हट गया था. इसी बीच शादी में शामिल होने पहुंचे सोनालिका के पति के कानों में भी सारी बातें पड़ गईं. ऐसी बातें कहां छिपती हैं भला? जब उन्होंने अपनी पत्नी सोनालिका से बात साफ करनी चाही तो उस ने उलटा उन्हें ही चार बातें सुना दीं, ‘‘आप की मुझे कुछ भी बोलने की हैसियत नहीं है. पहले रिंटू भैया जैसा बन कर दिखाइए, फिर उन पर उंगली उठाइएगा.’’ भन्नाती हुई सोनालिका कमरे से बाहर निकल गई. हैरानपरेशान से उस के पति भी बरामदे में जा रहे थे कि रत्ना के हाथों से उड़ा सोनालिका रिंटू का प्रेमपत्र उन के कदमों में आ गया. मानो सोनालिका की सारी परतें उन के समक्ष खुल कर रह गईं. उन्हें गहरी ठेस लगी. गृहस्थी की वह गाड़ी  आगे कैसे चले, जिस में पहले से ही पंचर हो. दिल कसमसा उठा, मन उचाट हो गया. किसी को पता भी नहीं चला कि वे कब घर छोड़ कर लौट चुके थे.

एक अवैध रिश्ते के कारण आज 2 घर उजड़ चुके थे. रिश्तेदारों द्वारा बात उठाने पर रिंटू ऐसी किसी भी बात से साफ मुकर गया, ‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप लोग? शर्म नहीं आती, सोना मेरी बहन है. लेकिन प्रेमपत्र हाथ लगने से सारी रिश्तेदारी में सोनालिका का नाम बदनाम हो चुका था. इस का भी उत्तर था रिंटू के पास, ‘‘सोना छोटी थी, उस का मन बहक गया होगा. उसे समझाइए. अब वह एक बच्ची की मां है, यह सब उसे शोभा नहीं देता.’’ पुरुषप्रधान समाज में एक आदमी ने जो कह दिया, रिश्तेनातेदार उसी को मान लेते हैं. गलती केवल औरत की निकाली जाती है. प्यार किया तो क्यों किया? उस की हिम्मत कैसे हुई कोई कदम उठाने की? और फिर यहां तो रिश्ता भी ऐसा है कि हर तरफ थूथू होने लगी.

सोनालिका एक कमरे में बंद, अपना चेहरा हाथों से ढांपे, सिर घुटनों में टिकाए जाने कब तक बैठी रही. रात कैसे बीती, पता नहीं. सुबह जब महरी साफसफाई करने गई तो देखा सोनालिका का कोई सामान घर में नहीं था. वह रात को 2 अटैचियों में सारा सामान, जेवर, पैसे ले कर चली गई थी, महीनों तक पता नहीं चला कि रिंटू और सोनालिका कहां हैं. दोनों घरों ने कोई पुलिस रिपोर्ट नहीं कराई क्योंकि दोनों घर जानते थे कि सचाई क्या है. फिर उड़तीउड़ती खबर आई कि मनाली के रिजौर्ट में दोनों ने नौकरी कर ली है और साथसाथ रह रहे हैं, पतिपत्नी की तरह या वैसे ही, कौन जानता है.

Hindi Storytelling : टूटे कांच की चमक

Hindi Storytelling : उस बिल्डिंग में वह हमारा पहला दिन था. थकान की वजह से सब का बुरा हाल था. हम लोग व्यवस्थित होने की कोशिश में थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक महिला खड़ी थीं.

अपना परिचय देते हुए वह बोलीं, ‘‘मेरा नाम नीलिमा है. आप के सामने वाले फ्लैट में रहती हूं्. आप नएनए आए हैं, यदि किसी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक कहिएगा.

मैं ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा. माथे पर लगी गोल बड़ी सी बिंदी, साड़ी का सीधा पल्ला, लंबा कद, भरा बदन उन के संभ्रांत होने का परिचय दे रहा था.

कुछ ही देर बाद उन की बाई आई और चाय की केतली के साथ नाश्ते की ट्रे भी रख गई. सचमुच उस समय मुझे बेहद राहत सी महसूस हुई थी.

‘‘आज रात का डिनर आप लोग हमारे साथ कीजिए.’’

मेरे मना करने पर भी नीलिमाजी आग्रहपूर्वक बोलीं, ‘‘देखिए, आप के लिए मैं कुछ विशेष तो बना नहीं रही हूं, जो दालरोटी हम खाते हैं वही आप को भी खिलाएंगे.’’

रात्रि भोज पर नीलिमाजी ने कई तरह के स्वादिष्ठ पकवानों से मेज सजा दी. राजमा, चावल, दहीबड़े, आलू, गोभी और न जाने क्याक्या.

‘‘तो इस भोजन को आप दालरोटी कहती हैं?’’ मैं ने मजाकिया स्वर में नीलिमा से पूछा तो वह हंस दी थीं.

जवाब उन के पति प्रो. रमाकांतजी ने दिया, ‘‘आप के बहाने आज मुझे भी अच्छा भोजन मिला वरना सच में, दालरोटी से ही गुजारा करना पड़ता है.’’

लौटते समय नीलिमाजी ने 2 फोल्ंिडग चारपाई और गद्दे भी भिजवा दिए. हम दोनों पतिपत्नी इस के लिए उन्हें मना ही करते रहे पर उन्होंने हमारी एक न चलने दी.

अगली सुबह, रवि दफ्तर जाते समय सोनल को भी साथ ले गए. स्कूल में दाखिले के साथ, नए गैस कनेक्शन, राशन कार्ड जैसे कई छोटेछोटे काम थे, जो वह एकसाथ निबटाना चाह रहे थे. ब्रीफकेस ले कर रवि जैसे ही बाहर निकले नीलिमाजी से भेंट हो गई. उन के हाथ में एक परची थी. रवि को हाथ में देते हुए बोलीं, ‘‘भाई साहब, कल रात मैं आप को अपना टेलीफोन नंबर देना भूल गई थी. जब तक आप को फोन कनेक्शन मिले, आप मेरा फोन इस्तेमाल कर सकते हैं.’’

नीलिमाजी ने 2 दिन में काम वाली बाई और अखबार वाले का इंतजाम भी कर दिया. जब घर सेट हो गया तब भी नीलिमा को जब भी समय मिलता आ कर बैठ जातीं. सड़क के आरपार के समाचारों का आदानप्रदान करते उन्हें देख मैं ने सहजता से अनुमान लगा लिया था कि उन्होंने महिलाओं से अच्छाखासा संपर्क बना रखा है.

उस समय मैं सामान का कार्टन खोल रही थी कि अचानक उंगली में पेचकस लगने से मेरे मुंह से चीख निकल गई तो नीलिमाजी मेरे पास सरक आई थीं. उंगली से खून निकलता देख कर वह अपने घर से कुछ दवाइयां और पट्टी ले आईं और मेरी चोट पर बांधते हुए बोलीं, ‘‘जो काम पुरुषों का है वह तुम क्यों करती हो. यह सोनल क्या करता रहता है पूरा दिन?’’

नीलिमा दीदी का तेज स्वर सुन कर सोनल कांप उठा. बेचारा, वैसे ही मेरी चोट को देख कर घबरा रहा था. जब तक मैं कुछ कहती, उन्होंने लगभग डांटते हुए सोनल को समझाया, ‘‘मां का हाथ बंटाया करो. ये कहां की अक्लमंदी है कि बच्चे आराम फरमाते रहें और मां काम करती रहे.’’

सोनल अपने आंसू दबाता हुआ घर के अंदर चला गया. मैं अपने बेटे की उदासी कैसे सहती. अत: बोली, ‘‘दीदी, सोनल मेरी बहुत मदद करता है पर आजकल इंटरव्यू की तैयारी में व्यस्त है.’’

‘‘इंटरव्यू, कैसा इंटरव्यू?’’

‘‘दरअसल, इसे दूसरे स्कूलों में ही दाखिला मिल रहा है. लेकिन हम चाहते हैं कि इसे ‘माउंट मेरी’ स्कूल में ही दाखिला मिले.’’

‘‘क्यों? माउंट मेरी स्कूल में कोई खास बात है क्या?’’ नीलिमा ने भौंहें उचका कर पूछा तो मुझे अच्छा नहीं लगा था. अपने घर किसी पड़ोसी का हस्तक्षेप उस समय मुझे बुरी तरह खल गया था.

बात को स्पष्ट करने के लिए मैं ने कहा, ‘‘यह स्कूल इस समय नंबर वन पर है. यहां आई.आई.टी. और मेडिकल की कोचिंग भी छात्रों को मिलती है.’’

‘‘अजी, स्कूल के नाम से कुछ नहीं होता,’’ नीलिमा बोलीं, ‘‘पढ़ने वाले बच्चे कहीं भी पढ़ लेते हैं.’’

‘‘यह तो है फिर भी स्कूल पर काफी कुछ निर्भर करता है. कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चों को अच्छी प्रतिस्पर्धा मिले तो वे सफलता के सोपान चढ़ते चले जाते हैं.’’

‘‘लेकिन इतना याद रखना सविता, इन्हीं स्कूलों के बच्चे ड्रग एडिक्ट भी होते हैं. कुछ तो असामाजिक गतिविधियों में भी भाग लेते देखे गए हैं,’’ इतना कहतेकहते नीलिमा हांफने लगी थीं.

खैर, जैसेतैसे मैं ने उन्हें विदा किया.

नीलिमा की जरूरत से ज्यादा आवाजाही और मेरे घरेलू मामले में दखलंदाजी अब मुझे खलने लगी थी. कई बार सुना था कि पड़ोसिनें दूसरे के घर में घुस कर पहले तो दोस्ती करती हैं, बातें कुरेदकुरेद कर पूछती हैं फिर उन्हें झगड़े में तबदील करते देर नहीं लगती.

एक दिन मैं और पड़ोसिन ममता एक साथ कमरे में बैठे थे. तभी नीलिमा आ गईं और बोलीं, ‘‘यह तुम्हारा पंखा बहुत आवाज करता है, कैसे सो पाती हो?’’

यह कह कर वह अपने घर गईं और टेबल फैन उठा कर ले आईं.

‘‘कल ही मिस्तरी को बुलवा कर पंखा ठीक करवा लो. तब तक इस टेबल फैन से काम चला लेना.’’

पड़ोसिन ममता के सामने उन की यह बेवजह की घुसपैठ मुझे अच्छी नहीं लगी थी. रवि दफ्तर के काम में बेहद व्यस्त थे इसलिए इन छोटेछोटे कामों के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे. सोनल भी ‘माउंट मेरी स्कूल’ के पाठ्यक्रम के  साथ खुद को स्थापित करने में कुछ परेशानियों का सामना कर रहा था, मिस्तरी कहां से बुलाता? मैं भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाई थी. मैं ने उन्हें धन्यवाद दिया और एक प्याली चाय बना कर ले आई.

चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने टटोलती सी नजर चारों ओर फेंक कर पूछा, ‘‘सोनल कहां है?’’

‘‘स्कूल में ही रुक गया है. कालिज की लाइब्रेरी में बैठ कर पढे़गा. आ जाएगा 4 बजे तक .’’

नीलिमा के चेहरे पर चिंता की आड़ीतिरछी रेखाएं उभर आईं. कभी घड़ी की तरफ  देखतीं तो कभी मेरी तरफ. लगभग सवा 4 बजे सोनल लौटा और किताबें अपने कमरे में रख कर बाथरूम में घुस गया. मैं ने तब तक दूध गरम कर के मेज पर रख दिया था.

नए कपड़ों में सोनल को देख कर नीलिमाजी ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘सोनल कहीं जा रहा है?’’

‘‘हां, इस के एक दोस्त का आज जन्मदिन है, उसी पार्टी में जा रहा है.’’

सोनल घर से बाहर निकला तो बुरा सा मुंह बना कर बोलीं, ‘‘सविता, जमाना बड़ा खराब है. लड़का कहां जाता है, क्या करता है, इस की संगत कैसी है आदि बातों का ध्यान रखा करो. अपना बच्चा चाहे बुरा न हो लेकिन दूसरे तो बिगाड़ने में देर नहीं करते.’’

नीलिमा की आएदिन की टीका- टिप्पणी के कारण सोनल अब उन से चिढ़ने लगा था. उन के आते ही उठ कर चला जाता. मुझे भी उन की जरूरत से ज्यादा घुसपैठ अच्छी नहीं लगती थी, किंतु उन के सहृदयी, स्नेही स्वभाव के कारण विवश हो जाती थी.

धीरेधीरे, मैं ने अपने घर का दरवाजा बंद रखना शुरू कर दिया. घर के  अंदर घंटी बंद करने का स्विच और लगवा लिया. अब जब भी दरवाजे पर घंटी बजती मैं ‘आईहोल’ में से झांकती. अगर नीलिमा होतीं तो मैं घंटी को कुछ देर के लिए अनसुनी कर देती और यह समझ कर कि घर के अंदर कोई नहीं है, वह लौट जातीं.

काफी राहत सी महसूस होने लगी थी मुझे. कई आधेअधूरे काम निबट गए. कुछ लिखनेपढ़ने का समय भी मिलने लगा. सोनल भी अब खुश रहता था. पढ़ने के बाद जो भी थोड़ाबहुत समय मिलता वह मेरे पास बैठ कर बिताता. शाम को जब रवि दफ्तर से लौटते, हम नीचे जा कर बैठ जाते. कुछ नए लोगों से जानपहचान बढ़ी, कुछ नए मित्र भी बने.

उन्हीं दिनों मैट्रो में एक नई फिल्म लगी थी. हम दोनों पतिपत्नी पिक्चर गए थे, बरसों बाद.

अचानक, रवि के मोबाइल की घंटी बजी. नीलिमाजी थीं. बदहवास, परेशान सी बोलीं, ‘‘भाई साहब, आप जहां भी हैं जल्दी घर आ जाइए. आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया गया है.’’

धक्क से रह गया दिल. पिक्चर आधे में ही छोड़ कर दौड़तीभागती मैं घर की सीढि़यां चढ़ गई थी. रवि गाड़ी पार्क कर रहे थे. दरवाजे पर ही रमाकांतजी मिल गए. बोले, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है, भाभीजी. हम ने चोर को पकड़ कर अपने घर में बंद कर रखा है. पुलिस के आते ही उस लड़के को हम उन के हवाले कर देंगे.’’

मैं ने बदहवासी में दरवाजा खोला. अलमारी खुली हुई थी. कैमरा, वाकमैन, घड़ी के साथ और भी कई छोटीछोटी चीजें थैले में डाल दी गई थीं. लाकर को भी चोर ने हथौड़े से तोड़ने का प्रयास किया था पर सफल नहीं हो पाया था. एक दिन पहले ही रवि के एक मित्र की शादी में पहनने के लिए मैं बैंक से सारे गहने निकलवा कर लाई थी. कुछ नगदी भी घर में पड़ी थी. अगर नीलिमा ने समय पर बचाव न किया होता तो आज अनर्थ ही हो जाता.

मैंऔर रवि कुछ क्षण बाद जब नीलिमा के घर पहुंचे तो वह उस चोर लड़के को बुरी तरह मार रही थीं. रमाकांतजी ने पत्नी के चंगुल से उस लड़के को छुड़ाया, फिर बोले, ‘‘जान से ही मार डालोगी क्या इसे?’’ तब नीलिमा गुस्से में बोली थीं, ‘‘कम्बख्त, पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया.’’

कुछ ही देर में पुलिस आ गई और उस लड़के को पकड़ कर अपने साथ ले गई. हम सब के चेहरे पर राहत के भाव उभर आए थे.

इस के बाद ही पसीने से लथपथ नीलिमा के सीने में तेज दर्द उठा तो सब उन्हें सिटी अस्पताल ले गए. डाक्टरों ने बताया कि हार्ट अटैक है. 3 दिन और 2 रातों के  बाद उन्हें होश आया. जिस दिन उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज होना था हम पतिपत्नी सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे. डाक्टरों ने हमें समझाया कि इन्हें हर प्रकार के टेंशन से दूर रहना होगा. जरा सा रक्तचाप बढ़ा तो दोबारा हार्टअटैक पड़ सकता है.

रमाकांतजी कुरसी पर बैठे एकटक पत्नी को देखे जा रहे थे. अचानक उन का गला भर आया. वे कांपते स्वर में बोले, ‘‘जिस के दिल में, ज्ंिदगी भर का नासूर पल रहा हो वह भला टेंशन से कैसे दूर रह सकता है. सविताजी, जिस लड़के ने आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया वह हमारा बेटा था.’’

विश्वास नहीं हुआ था अपने कानों पर. लोगों को शिक्षित करने वाले रमाकांतजी और पूरे महल्ले की हितैषी नीलिमा का बेटा चोर, जो खुद के स्नेह से सब को स्ंिचित करती रहती थीं उन का अपना बेटा अपराधी?

रमाकांतजी ने बताया, ‘‘दरअसल, नीलिमा ने आप लोगों को कार में बिल्ंिडग से बाहर जाते हुए देख लिया था. कोई आधा घंटा भी नहीं बीता होगा, जब दूध ले कर लौट रही थीं कि आप के घर का ताला नदारद था और दरवाजा अंदर से बंद था. पहले नीलिमा ने सोचा कि शायद आप लोग लौट आए हैं लेकिन जब खटखट का स्वर सुनाई दिया तो उन्हें शक हुआ. धीरे से उन्होंने दरवाजा बाहर से बंद किया और चौकीदार को बुला लाई. थोड़ी देर में चौकीदार की सहायता से चोर को अपने घर में बंद कर दिया और फोन कर पुलिस को सूचित भी कर दिया.’’

हतप्रभ से हम पतिपत्नी एकदूसरे का चेहरा देखते तो कभी रमाकांतजी के चेहरे पर उतरतेचढ़ते हावभावों को पढ़ने का प्रयास करते.

‘‘शहर के सब से अच्छे स्कूल ‘माउंट मेरी कानवेंट’ में हम ने अपने बेटे का दाखिला करवाया था,’’ टूटतेबिखरते स्वर में रमाकांत बताने लगे, ‘‘इकलौती संतान से हमें भी ढेरों उम्मीदें थीं. यही सोचते थे कि हमारा बेटा भी होनहार निकलेगा. पर वह बुरी संगत में फंस गया. हम दोनों पतिपत्नी समझते थे कि वह स्कूल गया है पर वह स्कूल नहीं, अपने दोस्तों के पास जाता था. स्कूल से शिकायतें आईं तो डांटफटकार शुरू की, मारपीट का सिलसिला चला पर सब बेकार गया. उसे तो चरस की ऐसी लत लगी कि पहले अपने घर से पैसे चुराता, फिर पड़ोसियों के घरों में चोरी करने लगा. लोग हम से शिकायतें करने लगे तो हम ने स्पष्ट शब्दों में सब से कह दिया कि ऐसी नालायक औलाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

सहसा मुझे याद आया वह दिन जब निर्मला ने स्कूल के मुद्दे को छेड़ कर मुझ से कितनी बहस की थी. मेरे सोनल में शायद वह अपने बेटे की छवि देखती होंगी. तभी तो समयअसमय आ कर सलाहमशविरा दे जाती थीं. यह सोचते ही मेरी आंखों की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े.

निर्मला की तांकनेझांकने की आदत से मैं कितना परेशान रहती थी. यही सोचती थी कि इन का अपने घर में मन नहीं लगता पर आज असलियत जान कर पता चला कि जब अपना ही खून अपने अस्तित्व को नकारते हुए बगावत का झंडा खड़ा कर बीच बाजार में इज्जत नीलाम कर दे तो कैसा महसूस होता होगा अभिभावकों को?

सच, व्यक्तित्व तो दर्पण की तरह होता है. जहां तक नजर देख पाती है उतना ही सत्य हम पहचानते हैं, शीशे के पीछे पारे की पालिश तक कौन देख सकता है? काश, नीलिमा की प्रतिछवि को पार कर कांच की चमक के पीछे दरकती गर्द की चुभन को मैं ने पहचाना होता पर अब भी देर नहीं हुई थी. वह मेरे लिए पड़ोसिन ही नहीं, आदरणीय बहन भी बन गई थीं.

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Famous Hindi Stories : एकाएक मुझे अपने शरीर में ढेरों कांच के पैने टुकड़ों की चुभन की पीड़ा महसूस हुई. लड़कों ने क्या पड़ोसी धर्म निभाया है. मेरे मुंह से हठात निकला, ‘‘लगता है क्रिकेटर लक्ष्मण बनने की शुरुआत ऐसे ही होती है.’’

तभी पड़ोसी ने सांत्वना दी, ‘‘अच्छा हुआ कि आप कार में नहीं बैठे थे. अब छोडि़ए, अड़ोसपड़ोस के बच्चे हैं. उन्हें हम लोग प्रोत्साहन नहीं देंगे तो कौन देगा और बच्चे खेलें भी तो कहां खेलें.’’

प्रोत्साहन? मैं खून का घूंट पी कर रह गया और सोचा, जब तक अपने पर नहीं बीतती, स्थिति की गंभीरता का अनुभव नहीं होता, दूसरे की चुभन का एहसास नहीं होता.

‘‘गाड़ी का दुर्घटना बीमा है न?’’

‘बीमा,’ यह शब्द सुनते ही मुझे अचानक डूबते को तिनके का सहारा जैसा एहसास हुआ.

‘‘हां है. 5 साल से है. अभी एक सप्ताह पहले ही पालिसी का नवीनीकरण कराया है.’’

‘‘फिर क्या चिंता है?’’

क्या चिंता है, सुन कर मैं चौंका. पैसा किसी का भी जाए, नुकसान तो नुकसान है और कोई भी नुकसान चिंता का विषय होना ही चाहिए.

देखते ही देखते अड़ोसपड़ोस के बच्चे मेरे आसपास जमा हो गए.

‘‘क्या हुआ अंकल?’’

‘‘ओह शिट.’’

बच्चे मेरे मुंह से निकले शब्दों की अनसुनी कर बोले, ‘‘आप एक किनारे हो जाइए अंकल, हम कांच साफ कर देते हैं. आप ऐसे में बैठेंगे कैसे?’’

आननफानन में बच्चों ने कांच के टुकड़े साफ कर दिए. शायद वे प्रायश्चित्त कर रहे थे या फिर अपने अच्छा नागरिक होने का परिचय दे रहे थे.

लगभग 10 बज रहा था. सोचा, बीमा कंपनी का आफिस खुल गया होगा, वहां चल कर दुर्घटना की सूचना दे दूं. उन्हें दुर्घटना हुई कार को देखने का अवसर भी मिल जाएगा. यदि बिना दिखाए ‘विंड स्क्रीन’ बदलवा लूंगा तो वह विश्वास नहीं करेंगे. फिर कुछ कागजी काररवाई भी करनी होगी.

आफिस खुल चुका था पर संबंधित अधिकारी नहीं आया था. वहां अधिकारी के इंतजार में मैं साढ़े 12 बजे तक बैठा रहा. वह आया, आते ही कुछ फाइलों में खो गया और 15-20 मिनट तक खोया ही रहा.

फिर मेरी ओर देख कर बोला, ‘‘कहिए, आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

मैंने अपनी समस्या उसे बताते हुए कहा, ‘‘मैं दुर्घटनाग्रस्त कार लाया हूं. आप देख लीजिए…’’

‘‘कार देखने का काम तो सर्वेयर करता है,’’ वह अधिकारी बोला, ‘‘वह अभीअभी कहीं सर्वे करने निकल गया है. वैसे मैं भी देख सकता हूं किंतु गाड़ी को सीधे देखने का नियम नहीं है. ऐसा कीजिए, किसी गैराज से खर्चे का एस्टीमेट (अनुमान) ले कर आइए. उस के बाद ही हम कार देखेंगे.’’

मेरी समझ में नहीं आया कि एस्टीमेट जब गैराज वाला देगा तो सर्वेयर क्या देखेगा? और एस्टीमेट से पहले कार देखने व उस का फोटो लेने में क्या हर्ज है.

‘‘देखिए, टूटे हुए विंड स्क्रीन के साथ गाड़ी चलाना खासा मुश्किल होता है ऐसे में आप कह रहे हैं कि पहले गाड़ी ले कर मैं गैराज जाऊं फिर वहां से एस्टीमेट ले कर आप के पास आऊं.’’ मैं ने उस अधिकारी को समझाने का प्रयास किया.

‘‘क्या किया जाए. नियमों से हम सब बंधे हैं. ‘क्लेम’ लेना है तो कष्ट तो उठाना ही होगा. घर बैठेबैठे तो क्लेम मिलने से रहा.’’

‘‘यह तो मैं भी देख रहा हूं कि आप के नियम दौड़ाने के नियम हैं. अगले को इतना दौड़ाया जाए, इतना दौड़ाया जाए कि वह ‘क्लेम’ के विचार से ही तौबा कर ले. जो हो आप रिपोर्ट तो लिख लीजिए.’’

‘‘जी हां. आप फार्म भर दीजिए.’’

फार्म भर कर मैं गैराज गया. फिर अगले दिन एस्टीमेट बना. चूंकि उस दिन शनिवार था इसलिए बीमा कंपनी का आफिस बंद था. बात सोमवार तक टल गई.

सोमवार का दिन आया. वह महाशय भी ड्यूटी पर आए थे किंतु कैमरा खराब हो गया. मंगल को कैमरा ठीक हुआ. कार का फोटोग्राफ खींचा गया किंतु आपत्ति के साथ.

‘‘आप ने टूटा हुआ कांच तो साफ कर दिया. फोटो में अब टूटा हुआ कांच कैसे आएगा?’’ अधिकारी ने कहा.

‘‘टूटे कांच के साथ कोई कार कैसे चला सकता है?’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘आप अपनी परेशानी बता रहे हैं पर मेरी परेशानी नहीं समझ रहे?’’ अधिकारी बोला, ‘‘फोटो में टूटा हुआ विंड स्क्रीन दिखना जरूरी है अन्यथा विंड स्क्रीन निकलवा कर कोई भी डैमेज क्लेम कर सकता है.’’

‘‘देखिए, अब आप हद से बाहर जा रहे हैं. पहले दिन जब मैं कार में आया था तो विंड स्क्रीन टूटा हुआ था किंतु तब आप ने विंड स्क्रीन देखा नहीं और अब…’’

मेरी बात को बीच में काट कर अधिकारी बोला, ‘‘मेरे देखने से कुछ नहीं होगा. टूटा हुआ विंड स्क्रीन कैमरे को दिखना चाहिए. इस के बिना आप का केस थोड़ा कमजोर पड़ जाएगा. खैर चलिए, आवश्यक फार्म भर दीजिए. कार को रिपेयर करा कर बिल आफिस में जमा कर दीजिए.’’

मैं आफिस से बाहर आया और गैराज में जा कर विंड स्क्रीन लगवाया. लगभग एक सप्ताह बाद कार चलाने लायक हुई थी अन्यथा बिना विंड स्क्रीन की कार लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. लोग समझ रहे थे कि मैं बिना ‘विंड स्क्रीन’ के कार चलाने का रेकार्ड बनाने की कोेशिश कर रहा हूं.

मैं किसकिस के आगे रोना रोता और किसकिस को समझाता कि जब तक बीमा कंपनी वाले फोटो नहीं खींच लेते तब तक नया विंड स्क्रीन लगवाना संभव नहीं है. यदि कोई रेकार्ड स्थापित कर रहा है तो वह है बीमा कंपनी. ‘क्लेम’ के भुगतान में अधिकतम रुकावट एवं देरी का रेकार्ड.

मैं ने समझा कि अब क्लेम मिल जाएगा. बीमा कंपनी की सभी शर्तें पूरी हो गई हैं किंतु मुझे यह पता नहीं था कि ये शर्तें तो द्रौपदी का न खत्म होने वाला चीर हैं.

‘‘एक समस्या है,’’ अधिकारी ने धीमे स्वर में कहा.

मैं चौंक गया कि अब क्या हुआ.

‘‘पालिसी के नवीनीकरण के एक सप्ताह के भीतर दुर्घटना हो गई है. पुरानी पालिसी के समाप्त होने एवं नई पालिसी जारी होने के बीच एक दिन का अंतर है.’’

‘‘किंतु आप का एजेंट तो मुझ से एक सप्ताह पहले ही चैक ले गया था. आप चैक की तारीख देख सकते हैं. फिर यह पालिसी 5 सालों से लगातार चल रही है.’’

‘‘मैं आप की बात समझ रहा हूं. यह इनसानी शरीर का मामला है. वह एजेंट बीमार पड़ गया. खैर, जो भी हो, यह भुगतान का सीधा सपाट मामला नहीं है. इस पर जांच होगी. आप को जो कुछ कहना है जांच अधिकारी से कहिएगा,’’ उस ने अपना रुख साफ किया.

झुंझलाहट का करेंट मेरे शरीर में ऊपर से नीचे तक दौड़ गया. बीमा कंपनी का यह चेहरा पालिसी देते समय के आत्मीय चेहरे से एकदम अलग था. इच्छा हो रही थी कि यह 3 हजार की धन राशि मैं इस करोड़पति बीमा कंपनी को दान में दे दूं.

मुझे लगा कि इस चेहरे को और झेल पाना मेरे लिए संभव नहीं. दोनों की भलाई इसी में है कि एकदूसरे की नजरों से दूर हो जाएं, अभी, इसी वक्त.

मैं तेजी से आफिस से बाहर आया.

सर्विस इंडस्ट्री, हुंह, नहीं चाहिए ऐसी सर्विस. सर्विस ‘फील गुड.’ एक दिन बीता, एक सप्ताह गुजरा, एक महीना बीता, 2 महीने बीते.

फोन की घंटी बजती है.

‘‘आप के क्लेम के मामले में मुझे बीमा कंपनी ने जांच अधिकारी नियुक्त किया है. मैं एडवोकेट त्रिपाठी हूं. सचाई की तह में जाना अपने जीवन का लक्ष्य है. ‘सत्यमेव जयते’ अपना धर्म है. आप मुझ से मिलें.’’

अगले दिन काले कोट में त्रिपाठीजी सामने थे.

‘‘आप जो घटना है सचसच बताएं और निसंकोच बताएं.’’

मैं ने फिर टेप रेकार्ड की तरह घटनाक्रम को दोहरा दिया.

‘‘इस में नया क्या है? यह तो आप ने रिपोर्ट में लिखा है. मुझे सचाई का पता लगाने के लिए तैनात किया गया है.’’

‘‘रिपोर्ट का एकएक शब्द सच है. आप अड़ोसपड़ोस से पूछ सकते हैं,’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘मैं ने सचाई का पता लगा लिया है. आप शायद सचाई मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं. हजरत, मेरी निगाहों में कोने वाले मकान के हैं, मुझ से बच के जाएंगे कहां ,’’ त्रिपाठीजी के स्वर में तीखा व्यंग्य था.

मैं ने त्रिपाठीजी का चेहरा ध्यान से देखा. वह एक वकील की भूमिका बखूबी निभा रहे थे. वह सच के सिवा और कुछ कहने वाले नहीं थे.

‘‘आप सच सुनना चाहते हैं न?’’ त्रिपाठीजी तल्ख शब्दों में बोले, ‘‘सच तो यह है कि आप कार चला ही नहीं रहे थे. कार आप का लड़का चला रहा था जिस का ड्राइविंग लाइसेंस तक नहीं है. ऊपर से वह शराब पीए था. उसे आगे जाता ट्रक नहीं दिखा जो लोहे की छड़ों को ले कर जा रहा था. छड़ें बाहर झूल रही थीं. गनीमत समझिए कि दुर्घटना विंड स्क्रीन तक सीमित रह गई अन्यथा लोहे की छड़ें सीने के पार हो जातीं. कार की किसे चिंता है, चिंता करने के लिए, माथा पकड़ने के लिए बीमा कंपनी तो है ही. लेकिन आखिरी सांस तक मैं बीमा कंपनी के साथ हूं.’’

मैं ठगा सा त्रिपाठीजी का सच सुन रहा था. उन की गंभीर छानबीन का नतीजा सुन रहा था. कहने को कुछ था भी नहीं. हां, जांच अधिकारी की यह भूमिका नए तर्ज की जरूर थी.

‘‘बोलती बंद हो गई न. अच्छाई इसी में है कि आप यह मामला वापस ले लें. नहीं तो मैं सचाई को अदालत में उजागर करूंगा और ट्रक के खलासी को गवाह के रूप में पेश करूंगा.’’

मैं ने अपने गुस्से को काबू में रखने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘त्रिपाठीजी यह मामला वापस नहीं होगा. अब परिणाम चाहे जो हो.’’

‘‘देखिए, मैं आप को फिर समझा रहा हूं. आप शायद कोर्ट में जाने का अर्थ नहीं समझ रहे. ढाई हजार तो आप को नहीं मिलेंगे ऊपर से 4-5 हजार खर्च हो जाएंगे. आगे आप समझदार हैं. समझदार को इशारा काफी होता है,’’ त्रिपाठीजी ने उठते हुए कहा.

पत्नी भी उन की बातें सुन कर घबरा गईं.

‘‘जाने भी दीजिए, झूठ ही सही. अदालत में लड़के का नाम आएगा, उस पर शराब पी कर गाड़ी चलाने का आरोप लगेगा. छी, जाने दीजिए. ऐसे ढाई हजार मुझे नहीं चाहिए.’’

किंतु यह सब मेरे लिए एक चुनौती थी. इस से पहले कि कंपनी अदालत में जाती मैं उपभोक्ता अदालत में चला गया और कंपनी के नाम नोटिस जारी हो गया. मैं ने संघर्ष करने का मन बना लिया था. खर्च जो हो, परिणाम जो हो.

नियत तारीख पर कंपनी अदालत में उपस्थित नहीं हुई. उस ने समय मांगा.

एक सप्ताह के भीतर कंपनी से फोन आया, ‘‘आप का चैक बन कर तैयार है, इसे ले लें. कुछ देर अवश्य हो गई है, कृपया अन्यथा न लें. आप नहीं आ सकते तो हम चैक आप के घर पर पहुंचा देंगे. जांच का परिणाम कुछ भी हो, कंपनी अपने ग्राहक को सही मानती है.’’

लेखक- सत्य स्वरूप दत्त

Hindi Fiction Stories : पीला गुलाब

Hindi Fiction Stories :  ‘यार, हौट लड़कियां देखते ही मुझे कुछ होने लगता है.’

मेरे पतिदेव थे. फोन पर शायद अपने किसी दोस्त से बातें कर रहे थे. जैसे ही उन्होंने फोन रखा, मैं ने अपनी नाराजगी जताई, ‘‘अब आप शादीशुदा हैं. कुछ तो शर्म कीजए.’’

‘‘यार, यह तो मर्द के ‘जिंस’ में होता है. तुम इस को कैसे बदल दोगी? फिर मैं तो केवल खूबसूरती की तारीफ ही करता हूं. पर डार्लिंग, प्यार तो मैं तुम्हीं से करता हूं,’’ यह कहते हुए उन्होंने मुझे चूम लिया और मैं कमजोर पड़ गई.

एक महीना पहले ही हमारी शादी हुई थी, लेकिन लड़कियों के मामले में इन की ऐसी बातें मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीं. पर ये थे कि ऐसी बातों से बाज ही नहीं आते. हर खूबसूरत लड़की के प्रति ये खिंच जाते हैं. इन की आंखों में जैसे वासना की भूख जाग जाती है.

यहां तक कि हर रोज सुबह के अखबार में छपी हीरोइनों की रंगीन, अधनंगी तसवीरों पर ये अपनी भूखी निगाहें टिका लेते और शुरू हो जाते, ‘क्या ‘हौट फिगर’ है?’, ‘क्या ‘ऐसैट्स’ हैं?’ यार, आजकल लड़कियां ऐसे बदनउघाड़ू कपड़े पहनती हैं, इतना ज्यादा ऐक्सपोज करती हैं कि आदमी बेकाबू हो जाए.’

कभी ये कहते, ‘मुझे तो हरी मिर्च जैसी लड़कियां पसंद हैं. काटो तो मुंह ‘सीसी’ करने लगे.’ कभीकभी ये बोलते, ‘जिस लड़की में सैक्स अपील नहीं, वह ‘बहनजी’ टाइप है. मुझे तो नमकीन लड़कियां पसंद हैं…’

राह चलती लड़कियां देख कर ये कहते, ‘क्या मस्त चीज है.’

कभी किसी लड़की को ‘पटाखा’ कहते, तो कभी किसी को फुलझड़ी. आंखों ही आंखों में लड़कियों को नापतेतोलते रहते. इन की इन्हीं हरकतों की वजह से मैं कई बार गुस्से से भर कर इन्हें झिड़क देती.

मैं यहां तक कह देती, ‘सुधर जाओ, नहीं तो तलाक दे दूंगी.’

इस पर इन का एक ही जवाब होता, ‘डार्लिंग, मैं तो मजाक कर रहा था. तुम भी कितना शक करती हो. थोड़ी तो मुझे खुली हवा में सांस लेने दो, नहीं तो दम घुट जाएगा मेरा.’

एक बार हम कार से डिफैंस कौलोनी के फ्लाईओवर के पास से गुजर रहे थे. वहां एक खूबसूरत लड़की को देख पतिदेव शुरू हो गए, ‘‘दिल्ली की सड़कों पर, जगहजगह मेरे मजार हैं. क्योंकि मैं जहां खूबसूरत लड़कियां देखता हूं, वहीं मर जाता हूं.’’

मेरी तनी भौंहें देखे बिना ही इन्होंने आगे कहा, ‘‘कई साल पहले भी मैं जब यहां से गुजर रहा था, तो एक कमाल की लड़की देखी थी. यह जगह इसीलिए आज तक याद है.’’

मैं ने नाराजगी जताई, तो ये कार का गियर बदल कर मुझ से प्यारमुहब्बत का इजहार करने लगे और मेरा गुस्सा एक बार फिर कमजोर पड़ गया.

लेकिन, हर लड़की पर फिदा हो जाने की इन की आदत से मुझे कोफ्त होने लगी थी. पर हद तो तब पार होने लगी, जब एक बार मैं ने इन्हें हमारी जवान पड़ोसन से फ्लर्ट करते देख लिया. जब मैं ने इन्हें डांटा, तो इन्होंने फिर वही मानमनौव्वल और प्यारमुहब्बत का इजहार कर के मुझे मनाना चाहा, पर मेरा मन इन के प्रति रोजाना खट्टा होता जा रहा था.

धीरेधीरे हालात मेरे लिए सहन नहीं हो रहे थे. हालांकि हमारी शादी को अभी डेढ़दो महीने ही हुए थे, लेकिन पिछले 10-15 दिनों से इन्होंने मेरी देह को छुआ भी नहीं था. पर मेरी शादीशुदा सहेलियां बतातीं कि शादी के शुरू के महीने तक तो मियांबीवी तकरीबन हर रोज ही… मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या थी. इन की अनदेखी मेरा दिल तोड़ रही थी. मैं तिलमिलाती रहती थी.

एक बार आधी रात में मेरी नींद टूट गई, तो इन्हें देख कर मुझे धक्का लगा. ये आईपैड पर पौर्न साइट्स खोल कर बैठे थे और…

‘‘जब मैं यहां मौजूद हूं, तो तुम यह सब क्यों कर रहे हो? क्या मुझ में कोई कमी है? क्या मैं ने तुम्हें कभी ‘न’ कहा है?’’ मैं ने दुखी हो कर पूछा.

‘‘सौरी डार्लिंग, ऐसी बात नहीं है. क्या है कि मैं तुम्हें नींद में डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था. एक टैलीविजन प्रोग्राम देख कर बेकाबू हो गया, तो भीतर से इच्छा होने लगी.’’

‘‘अगर मैं भी तुम्हारी तरह इंटरनैट पर पौर्न साइट्स देख कर यह सब करूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘अरे यार, तुम तो छोटी सी बात का बतंगड़ बना रही हो,’’ ये बोले.

‘‘लेकिन, क्या यह बात इतनी छोटी सी थी?’’

कभीकभी मैं आईने के सामने खड़ी हो कर अपनी देह को हर कोण से देखती. आखिर क्या कमी थी मुझ में कि ये इधरउधर मुंह मारते फिरते थे?

क्या मैं खूबसूरत नहीं थी? मैं अपने सोने से बदन को देखती. अपने हर कटाव और उभार को निहारती. ये तीखे नैननक्श. यह छरहरी काया. ये उठे हुए उभार. केले के नए पत्ते सी यह चिकनी पीठ. डांसरों जैसी यह पतली काया. भंवर जैसी नाभि. इन सब के बावजूद मेरी यह जिंदगी किसी सूखे फव्वारे सी क्यों होती जा रही थी. एक रविवार को मैं घर का सामान खरीदने बाजार गई. तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी, इसलिए मैं जरा जल्दी घर लौट आई. घर का बाहरी दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में घुसी तो सन्न रह गई. इन्होंने मेरी एक सहेली को अपनी गोद में बैठाया हुआ था.

मुझे देखते ही ये घबरा कर ‘सौरीसौरी’ करने लगे. मेरी आंखें गुस्से और बेइज्जती के आंसुओं से जलने लगीं. मैं चीखना चाहती थी, चिल्लाना चाहती थी. पति नाम के इस प्राणी का मुंह नोच लेना चाहती थी. इसे थप्पड़ मारना चाहती थी. मैं कड़कती बिजली बन कर इस पर गिर जाना चाहती थी. मैं गहराता समुद्र बन कर इसे डुबो देना चाहती थी. मैं धधकती आग बन कर इसे जला देना चाहती थी. मैं हिचकियां लेले कर रोना चाहती थी. मैं पति नाम के इस जीव से बदला लेना चाहती थी. मुझे याद आया, अमेरिका के राष्ट्रपति रह चुके बिल क्लिंटन भी अपनी पत्नी हिलेरी क्लिंटन को धोखा दे कर मोनिका लेविंस्की के साथ मौजमस्ती करते रहे थे, गुलछर्रे उड़ाते रहे थे. क्या सभी मर्द एकजैसे बेवफा होते हैं? क्या पत्नियां छले जाने के लिए ही बनी हैं. मैं सोचती.

रील से निकल आया उलझा धागा बन गई थी मेरी जिंदगी. पति की ओछी हरकतों ने मेरे मन को छलनी कर दिया था. हालांकि इन्होंने इस घटना के लिए माफी भी मांगी थी, फिर मेरे भीतर सब्र का बांध टूट चुका था. मैं इन से बदला लेना चाहती थी और ऐसे समय में राज मेरी जिंदगी में आया. राज पड़ोस में किराएदार था. 6 फुट का गोराचिट्टा नौजवान. जब वह अपनी बांहें मोड़ता था, तो उस के बाजू में मछलियां बनती थीं. नहा कर जब मैं छत पर बाल सुखाने जाती, तो वह मुझे ऐसी निगाहों से ताकता कि मेरे भीतर गुदगुदी होने लगती. धीरेधीरे हमारी बातचीत होने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि राज प्रोफैशनल फोटोग्राफर था.

‘‘आप का चेहरा बड़ा फोटोजैनिक है. मौडलिंग क्यों नहीं करती हैं आप?’’ राज मुझे देख कर मुसकराता हुआ कहता.

शुरूशुरू में तो मुझे यह सब अटपटा लगता था, लेकिन देखते ही देखते मैं ने खुद को इस नदी की धारा में बह जाने दिया. पति जब दफ्तर चले जाते, तो मैं राज के साथ उस के स्टूडियो चली जाती. वहां राज ने मेरा पोर्टफोलियो भी बनाया. उस ने बताया कि अच्छी मौडलिंग असाइनमैंट्स लेने के लिए अच्छा पोर्टफोलियो जरूरी था. लेकिन मेरी दिलचस्पी शायद कहीं और ही थी.

‘‘बहुत अच्छे आते हैं आप के फोटोग्राफ्स,’’ उस ने कहा था और मेरे कानों में यह प्यारा सा फिल्मी गीत बजने लगा था :

‘अभी मुझ में कहीं, बाकी थोड़ी सी है जिंदगी…’

मैं कब राज को चाहने लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मुझ में उस की बांहों में सो जाने की इच्छा जाग गई. जब मैं उस के करीब होती, तो उस की देहगंध मुझे मदहोश करने लगती. मेरा मन बेकाबू होने लगता. मेरे भीतर हसरतें मचलने लगी थीं. ऐसी हालत में जब उस ने मुझे न्यूड मौडलिंग का औफर दिया, तो मैं ने बिना झिझके हां कह दिया. उस दिन मैं नहाधो कर तैयार हुई. मैं ने खुशबूदार इत्र लगाया. फेसियल, मैनिक्योर, पैडिक्योर, ब्लीचिंग वगैरह मैं एक दिन पहले ही एक अच्छे ब्यूटीपार्लर से करवा चुकी थी. मैं ने अपने सब से सुंदर पर्ल ईयररिंग्स और डायमंड नैकलैस पहना. कलाई में महंगी घड़ी पहनी और सजधज कर मैं राज के स्टूडियो पहुंच गई.

उस दिन राज बला का हैंडसम लग रहा था. गुलाबी कमीज और काली पैंट में वह मानो कहर ढा रहा था.

‘‘हे, यू आर लुकिंग गे्रट,’’ मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर वह बोला. यह सुन कर मेरे भीतर मानो सैकड़ों सूरजमुखी खिल उठे.

फोटो सैशन अच्छा रहा. राज के सामने टौपलेस होने में मुझे कोई संकोच नहीं हुआ. मेरी देह को वह एक कलाकार सा निहार रहा था. किंतु मुझे तो कुछ और की ही चाहत थी. फोटो सैशन खत्म होते ही मैं उस की ओर ऐसी खिंची चली गई, जैसे लोहा चुंबक से चिपकता है. मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘नहीं नेहा, यह ठीक नहीं. मैं ने तुम्हें कभी उस निगाह से देखा ही नहीं. हमारा रिलेशन प्रोफैशनल है,’’ राज का एकएक शब्द मेरे तनमन पर चाबुक सा पड़ा.

‘…पर मुझे लगा, तुम भी मुझे चाहते हो…’ मैं बुदबुदाई.

‘‘नेहा, मुझे गलत मत समझो. तुम बहुत खूबसूरत हो. पर तुम्हारा मन भी उतना ही खूबसूरत है, लेकिन मेरे लिए तुम केवल एक खूबसूरत मौडल हो. मैं किसी और रिश्ते के लिए तैयार नहीं और फिर पहले से ही मेरी एक गर्लफ्रैंड है, जिस से मैं जल्दी ही शादी करने वाला हूं,’’ राज कह रहा था.

तो क्या वह सिर्फ एकतरफा खिंचाव था या पति से बदला लेने की इच्छा का नतीजा था?

कपड़े पहन कर मैं चलने लगी, तो राज ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोक लिया. उस ने स्टूडियो में रखे गुलदान में से एक पीला गुलाब निकाल लिया था. वह पीला गुलाब मेरे बालों में लगाते हुए बोला, ‘‘नेहा, पीला गुलाब दोस्ती का प्रतीक होता है. हम अच्छे दोस्त बन कर रह सकते हैं.’’

राज की यह बात सुन कर मैं सिहर उठी थी. वह पीला गुलाब बालों में लगाए मैं वापस लौट आई अपनी पुरानी दुनिया में…

उस रात कई महीनों के बाद जब पतिदेव ने मुझे प्यार से चूमा और सुधरने का वादा किया, तो मैं पिघल कर उन के आगोश में समा गई. खिड़की के बाहर रात का आकाश न जाने कैसेकैसे रंग बदल रहा था. ठंडी हवा के झोंके खिड़की में से भीतर कमरे में आ रहे थे. मेरी पूरी देह एक मीठे जोश से भरने लगी. पतिदेव प्यार से मेरा अंगअंग चूम रहे थे. मैं जैसे बहती हुई पहाड़ी नदी बन गई थी. एक मीठी गुदगुदी मुझ में सुख भर रही थी. फिर… केवल खुमारी थी. और उन की छाती के बालों में उंगलियां फेरते हुए मैं कह रही थी, ‘‘मुझे कभी धोखा मत देना.’’ कमरे के कोने में एक मकड़ी अपना टूटा हुआ जाला फिर से बुन रही थी.

इस घटना को बीते कई साल हो गए हैं. इस घटना के कुछ महीने बाद राज भी पड़ोस के किराए का मकान छोड़ कर कहीं और चला गया. मैं राज से उस दिन के बाद फिर कभी नहीं मिली. लेकिन अब भी मैं जब कहीं पीला गुलाब देखती हूं, तो सिहर उठती हूं. एक बार हिम्मत कर के पीला गुलाब अपने जूड़े में लगाना चाहा था, तो मेरे हाथ बुरी तरह कांपने लगे थे.

लेखक- सुशांत सुप्रिय

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