आजकल विभू कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़ा हो गया है. सारा दिन रिरियाता रहता है. अकेला छोड़ो तो कुछ भी उठा कर मुंह में डाल लेता है. 2 दिन से तो लूज मोशन इतने ज्यादा हो गए कि ड्रिप चढ़वाने तक की नौबत आ गई. घबराई सी काव्या उसे पास के डाक्टर को दिखाने ले गई.
‘‘बच्चे के दांत निकल रहे हैं. ऐसे में मसूढ़ों में खुजली होने के कारण बच्चों की हर समय कुछ न कुछ चबाने की इच्छा होती है, इसलिए वे कुछ भी मुंह में डालते रहते हैं. इसी से पेट में इन्फैक्शन हो गया है. आप बच्चे को खिलौनों में उलझाए रखें. कोशिश करें कि बच्चा अकेला न रहे,’’ डाक्टर ने उसे कारण बता कर समझाया.
‘‘हर बार बस मैं ही बुरी कहलाती हूं. अब साथी कहां से लाऊं, बच्चे को अकेले रखने का फैसला भी तो मेरा अपना ही सोच था. काव्या रोआंसी ओ आई. आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी. लेकिन मनमरजी से जीने की ऐंठ अभी भी कम नहीं हुई थी.
8 महीने का विभू अब घुटनों के बल चलने लगा था. सो कर उठने के बाद चलना शुरू होता तो फिर चीटी की तरह रुकने का नाम ही नहीं लेता था. घर का वह हर सामान जो उस की पहुंच में आ जाता, बस उठाया और धम्म से नीचे… कभी ड्रैसिंगटेबल उस की जद में होती तो कभी रसोई के बरतन… कभीकभी अभय के जरूरी कागजात भी उस के हाथों जन्नत पा जाते. काव्या उस के पीछेपीछे भागती थक जाती, लेकिन विभू सामान गिराता नहीं थकता, क्या करे काव्या… किसी से शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं थी.
फिर एक दिन काव्या दोपहर में विभू के साथ लेटी थी. गृहस्थी के बोझ से उकताई हुई काव्या जल्द ही खर्राटे भरने लगी. विभू की नींद कब खुली उसे पता ही नहीं चला. पलंग से नीचे उतरने की कवायद में विभू औंधे मुंह गिर पड़ा. गिरने के साथ ही पलंग का कोना उस के माथे में लगा और खून निकलने लगा. बच्चे की चीख के साथ काव्या की नींद खुली. बच्चे को खून से लथपथ देख कर काव्या के हाथपांव फूल गए. तुरंत अभय को फोन लगाया और खुद विभू को ले कर डाक्टर के पास भागी.
‘‘सिर में गहरी चोट आई है… 4 टांके लगे हैं… मैं ने आप से पहले भी कहा था कि इस उम्र में बच्चे अधिक चंचल होते हैं, उन्हें हर समय निगरानी में रखना चाहिए… जरा सी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है,’’ डाक्टर के कहने के साथ ही काव्या की आंखों से आंसू बहने लगे.
‘‘तुम से नहीं पलेगा बच्चा… मां को फोन लगाओ,’’ अभय उस पर लगभग चिल्ला ही उठता पर हौस्पिटल के शिष्टाचार के नाते उसे अपनी जबान पर साइलैंसर लगाना पड़ा. बच्चे की इस हालत के लिए वह काव्या को ही कुसूरवार मान रहा था. काव्या ने मोबाइल निकाला और सास का नंबर डायल किया.
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‘‘यहां नैटवर्क नहीं आ रहा है, मैं बाहर जा कर ट्राई करती हूं,’’ काव्या को उस के ईगो ने बहाने बनाने खूब सिखा दिए थे.
‘‘सुन रिया… यार बहुत बड़ी प्रौब्लम हो गई… लगता है अब अभय अपने मांपापा को बुलाए बिना नहीं मानेगा… बता न क्या करूं? कैसे उन्हें आने से रोकूं?’’ काव्या ने रिया को फोन लगाया और आज के घटनाक्रम का ब्यौरा देने लगी.
‘‘अरे यार, मैं अपनी ससुराल आई हुई हूं… अभी बात नहीं कर सकते… तू नव्या से बात कर न…’’ रिया ने उसे बात पूरी करने से पहले ही टोक दिया.
‘‘तुम और ससुराल? तुम्हें तो सासससुर के साथ रहना कभी नहीं सुहाया… फिर अचानक तुम्हारा यह फैसला… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न…’’ अब चौंकने की बारी काव्या की थी.
‘‘हां यार, अब मैं भी तुम्हारी ही श्रेणी में आने वाली हूं न… तुम्हारी हालत देखदेख कर मुझे समझ में आ गया कि कुछ दिन का हनीमून पीरियड तो ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए परिवार से दूर रहने में कोई समझदारी नहीं है, खासकर तब जब निकट भविष्य में उन की जरूरत पड़ने वाली हो कहने के अंदाज से ही रिया का स्वार्थ टपक रहा था.
काव्या को लगा मानो जिस डाली का वह सहारा लिए बैठी थी उस पर किसी ने कुल्हाड़ी चला दी.
अब तक अभय अपने मांपापा को फोन कर चुका था. शाम होतेहोते दादादादी अपने पोते के पास थे. विभू को अभी तक सिर्फ अपने मांपापा के पास रहने का ही अभ्यास था. इसीलिए अजनबी चेहरों को देखते ही वह काव्या की गोद में दुबक गया. लेकिन खून आखिर अपनी तरफ खींचता ही है… थोड़ी ही देर में विभू दादादादी से घुलमिल गया. रात को भी उन्हीं के साथ सोया.
अगली सुबह काव्या के चेहरे की रौनक और अभय के चेहरे की संतुष्टि
बता रही थी कि महीनों बाद दोनों ने इतनी निश्चिंतता से नजदीकियां भोगी हैं.
पोते के आगेपीछे भागतेभागते दादादादी के घुटनों का दर्द न जाने कहां गायब हो गया. दूधब्रैड के सहारे दिन निकालने वाले घर की रसोई दोनों समय पकवानों की खुशबू से महकने लगी. दादी की कोशिशों से विभू ने फीडिंग बोतल छोड़ कर गिलास से दूध पीना सीख लिया. दादा की उंगली थाम कर डगमगडगमग पग भी भरने लगा था.
‘‘काव्या, इस तरह तो तुम हम सब को खिलाखिला कर तोंदू बना दोगी,’’ एक शाम अभय ने रीझ कर कहा तो काव्या निहाल हो गई.
‘तसवीर के इस दूसरे रुख से मैं अब तक अनजान ही रही… उफ, कितनी बड़ी नासमझ थी,’ सोच काव्या आत्मग्लानि से भर जाती.
‘‘बच्चों के साथ 10 दिन कैसे बीत गए पता पता ही नहीं चला. अब हमें लौटना चाहिए,’’ एक दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर ससुरजी ने कहा तो काव्या हैरत से अपनी सास की तरफ देखने लगी.
‘‘हां, विभू के साथ मेरा तो जैसे बचपन ही लौट आया था, लेकिन फिर भी… बच्चों को उन की जिंदगी उन के तरीके से जीने देनी चाहिए. ये उन के खेलनेखाने के दिन हैं. उम्र का यह दौर लौट कर थोड़े आता है…’’ सास ने चाय पी कर कप नीचे रखते हुए पति की हां में हां मिलाई.
‘‘लौटना तो है ही… लेकिन आप अकेले नहीं जाएंगे, हम सब साथ चलेंगे… मैं ने अपना ट्रांसफर फिर अपने होम टाउन करवाने के लिए ऐप्लिकेशन दे दी है. तब तक आप लोग यहीं रहेंगे… अपने परिवार के साथ…’’ अभय ने एक रहस्यमयी मुसकान उछाली तो काव्या ने भी उस का साथ दिया.
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‘‘बड़े, सयाने सही कहते हैं कि बिस्तर चाहे कितना भी आरामदायक क्यों न हो, पूरी रात एक करवट नहीं सोया जा सकता,’’ दादी पहले अपने मूल और फिर सूद की तरफ देख कर मुसकराईं.
‘‘हां, सुबह के उड़े हुए पंछी शाम को घर लौटते ही हैं… यह अलग बात है कि कभीकभी रात भी हो जाती है, लेकिन लौटते तो अंतत: घोंसले में ही है न.’’ दादा भी मुसकरा दिए.
विभू अपने पापा की उंगली थामे दादा की बगल में खड़ा था. सुबह, दोपहर और शाम तीनों मुसकरा रहे थे.
लुटे मुसाफिर की तरह तीनों गए. बच्चे के जन्म की खुशी फीकी पड़ गई. महीनाभर होने को आया. पतिपत्नी की बातचीत में ठंडापन आ गया. न चुहल… न मानमनौअल..न रूठनामनाना… न शिकवाशिकायत… सबकुछ मशीनी… मां अलग परेशान… अभय अलग परेशान… कहीं किसी मध्यमार्ग की गुंजाइश ही नजर नहीं आ रही थी.
अभय की ससुराल से बच्चे के नामकरण का न्योता आया… सब गए भी… लेकिन बुझेबुझे से… नाम रखा गया ‘विभू.’
‘‘बहू, अभय ने ट्रांसफर ले लिया है… बच्चे को ले कर अब तुम्हें वहीं उस के साथ जाना है…’’ रवानगी से पहले सास के मुंह से झरते अमृत वचनों पर सहसा काव्या विश्वास नहीं कर पाई. उस ने पति की तरफ देखा जो मुंह लटकाए खड़ा था.
अभी तो उदास हो रहे हो सैयांजी… जब खुली हवा में पंख पसारोगे तब पता चलेगा कि आसमान कितना विशाल है…’’ काव्या ने पति की तरफ भरोसा दिलाने की गरज से देखा.
3 महीने के विभू को ले कर काव्या ने अपने सपनों की दुनिया में पहला पांव रखा. नहींनहीं यह जमीन नहीं थी यह तो आसमान था… काव्या की ख्वाहिशों को पंख उग आए थे. ‘हम दो हमारा एक’ कल्पना करती काव्या खुशी से दोहरी हुई जा रही थी. उस ने पर्स एक तरफ पटका… विभू को पालने में लिटाया और पूरे घर में घूमघूम कर ‘स्वीट होम’ वाली फीलिंग लेने लगी.
‘‘एक तरह से देखा जाए तो यह मेरा गृहप्रवेश ही है… क्यों न आज कुछ खास बनाया जाए…’’ अपनी जीत की खुशी मनाते हुए काव्या ने रसोई का रुख किया. सामान खंगाला तो कुछ विशेष हाथ नहीं लगा.
‘‘छड़ों की रसोई ऐसी ही होती है,’’ काव्या मुसकरा दी. सूजी का हलवा बनाने के लिए कड़ाही चढ़ाई ही थी कि विभू रोने लगा. अभय बाथरूम में था. काव्या बच्चे को देखने की जल्दी में रसोई से बाहर लपकी तो गैस बंद करना भूल गई और जब वापस आई तो रसोई की हालत देख कर सिर पीट लिया. कड़ाही के घी ने आग पकड़ ली थी. वह तो अभय ने तुरंत सिलैंडर बंद कर के कड़ाही परे फेंक दी वरना कुछ भी अनर्थ हो सकता था. खैर, किसी तरह कच्चापक्का पका कर अभय को औफिस रवाना किया.
दोपहर के 2 बजने को आए, लेकिन अभी तक काव्या को नहाने तक का समय नहीं मिला. जैसे ही विभू की आंख लगती और काव्या बाथरूम की तरफ जाने को होती, पता नहीं कैसे शैतान को पता चल जाता और वह फिर कुनमुनाने लगता.
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‘‘वहां तो कोई न कोई होता इसे देखने के लिए…’’ काव्या के जेहन में सारा की छवि घूम गई.
‘गुलाब चाहिए तो कांटे भी स्वीकार करने होंगे काव्या रानी,’ काव्या ने अपने निर्णय को जस्टीफाई किया. इतनी जल्दी वह पराजय स्वीकार कैसे कर लेती. फिर उस ने एक जुगाड़ लगाया, विभू का पालना बाथरूम के दरवाजे से सटा कर रख दिया और आननफानन 2 कप शरीर पर डाल कर नहाने की औपचारिकता पूरी की. फटाफट गाउन पहना और 2-4 कौर निगले… तब तक विभू महाराज फिर से कुलबुलाने लगे… काव्या उसे ले कर बिस्तर पर लेट गई. दिन की पहली सीढ़ी ही पार हुई है… पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त…
शाम को अभय लौटा तो काव्या तुड़ेमुड़े गाउन में अलसाई सी बैठी थी. विभू अभी भी उस की गोद में था. बच्चे को अभय के हाथों में थमा कर चाय बना लाई और पीतेपीते दिनभर का दुखड़ा रो दिया. अभय ने उस में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई.
‘‘मम्मी का चमचा,’’ काव्या ने मुंह सिकोड़ा.
‘‘सुनो, आज खाना बनाने की हिम्मत नहीं है. चलो न कहीं बाहर चलते हैं… वैसे भी पिज्जा खाए बहुत दिन हो गए.’’ काव्या ने चिरोरी की तो अभय चलने के लिए तैयार हो गया.
‘हवा के साथसाथ… घटा के संगसंग… ओ साथी चल… तू मुझे ले कर साथ चल तू… यूं ही दिनरात चल तू…’ काव्या एक हाथ से अभय की कमर पकड़े और दूसरे हाथ से विभू को संभाले बाइक पर उड़ी जा रही थी… अभय के शरीर से उठती परफ्यूम और पसीने की मिलीजुली गंध ने उसे दीवाना बना दिया था. हालांकि अभय अभी भी चुप सा ही था. काव्या चाहती थी कि कुछ देर यों ही हवा से अठखेलियां होती रहें. लेकिन तभी अभय ने पीज्जाहट के सामने ले जा कर बाइक रोक दी.
महीनों बाद दिलबर के साथ आउटिंग थी… काव्या ने जीभर ‘ओनियन,
कैप्सिकम, टोमैटो पिज्जा विद डबल चीज’ खाए, साथ में फ्रैंचफ्राइज और गर्लिक ब्रैड भी… विभू थोड़ी देर तो खुश रहा, फिर परेशान करने लगा तो काव्या ने फीड करवा दिया. मां की छाती से लगते ही बच्चा सो गया. घर पहुंचते ही काव्या ने खुद को बिस्तर के हवाले कर दिया. दिनभर की थकीहारी तुरंत ही नींद के आगोश में चली गई. अभय इंतजार करता रह गया. अभी नींद आंखों में पूरी तरह से घुली भी नहीं थी कि विभू बाबू ने रंग बदलने शुरू कर दिए. आधेआधे घंटे के अंतराल पर 4 बार कपड़े गंदे कर दिए. पोतड़े बदलतेबदलते काव्या का रोना छूट गया. अभय ने उसे दवा दे दी, लेकिन दवा भी तो असर करतेकरते ही करती है. खैर, किसी तरह रात बीती तो विभू की आंख लगी. काव्या ने भी पलकें झपक लीं. आंख खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. अभय औफिस जाने के लिए लगभग तैयार था.
‘‘सुनो, तुम आज खाना बाहर से ही मंगवा लेना,’’ काव्या अपराधबोध से घिर गई.
‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या,’’ रात की घटना से बौखलाया अभय बुदबुदाया.
पति के औफिस जाते ही काव्या ने नव्या को फोन लगाया और रात का किस्सा कह सुनाया.
‘‘यह तो मजे की सजा है रानीजी… कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है…’’ बहन ने उसे छेड़ा तो काव्या कुढ़ कर रह गई.
‘‘हो सकता है कि कल तुम ने जो पिज्जा खाया वह बच्चे को हजम नहीं हुआ और वह रातभर परेशान रहा…’’ अब तक रिया भी कौन्फ्रैंसिंग के जरीए उन के साथ बातचीत में शामिल हो चुकी थी.
‘‘यह एक और नई मुसीबत कि मन का खाओ भी नहीं…’’ काव्या ने विभू की तरफ देखा.
‘‘तू एक काम कर न विभू को बोतल से दूध पिलाना शुरू कर दे,’’ नव्या ने फिर सलाह दे डाली.
‘‘लेकिन डाक्टर तो कहते हैं कि कम से कम 6 महीने तक बच्चे को स्तनपान करवाना चाहिए,’’ काव्या ने शंका जाहिर की.
‘‘अरे ओ ज्ञानी की औलाद, जिन बच्चों की मां उन के पैदा होते ही चल बसती हैं, वे भी तो किसी तरह से पलते होंगे न,’’
रिया का यह भद्दा मजाक काव्या को जरा भी रास नहीं आया लेकिन विभू को ऊपर का दूध पिलाने वाली बात जरूर उस के दिमाग में फिट बैठ गई. दूसरे दिन अभय के औफिस जाते ही काव्या फीडिंग बोतल खरीद लाई और ‘मिशन दूध पिलाओ’ में जुट गई.
काव्या ने जैसेतैसे कर के 2 घूंट बच्चे के गले में उड़ेले और सफलता पर अपनी पीठ थपथपाने लगी, लेकिन यह क्या थोड़ी ही देर में विभू ने उलटी कर दी. वह खुद तो उलटी में लिपटा ही, तकिया सहित बैड की चदर भी खराब कर दी. रोने लगा वह अलग मुसीबत.
‘फिर भूख लग आई लगता है,’ सोच कर काव्या ने फिर से बोतल उस के मुंह से लगा दी. बच्चे को दूध हजम नहीं हुआ और 2-3 घंटे बाद ही उस ने दस्त करने शुरू कर दिए.
‘‘लगता है मुसीबतों ने मेरे ही घर का रास्ता देख लिया है,’’ परेशान सी काव्या भुनभुना रही थी. लेकिन शाम होतेहोते फिर से सजधज कर अपनी आजादी का जश्न मनाने के लिए तैयार हो गई. विभू को भी हगीज पहना दिया. अभय के औफिस से आते ही तीनों फिर चल पड़े हवाखोरी करने.
विभू को बोतल का दूध अब भी कम ही हजम होता था, लेकिन काव्या ने हार
नहीं मानी… हिचकोले खाती गाड़ी चल रही थी… एक तरफ आजादी की खुली हवा थी तो दूसरी तरफ जिम्मेदारी की बेडि़यां भी थीं… कभी काव्या पंख पसार कर खुश होती तो अगले ही पल पंख सिकुड़ भी जाते. इसी तरह धूपछांव से दिन निकल रहे थे, लेकिन चैन के दिनों से कहीं लंबी बेचैनियों की रातें होने लगी थीं.
2 महीने हो गए सास ने एक बार भी आ कर पोते को नहीं संभाला. बस फोन पर ही हालचाल पूछ लेती थीं. जैसेजैसे विभू बडा हो रहा था, काव्या के लिए अकेले बच्चे को संभालना दूभर होने लगा. कभी वह रातभर रोता…कभी दूध नहीं पीता… कभी घड़ीघड़ी डाइपर खराब करता, तो कभी कुछ और परेशानी खड़ी कर देता.
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इन दिनों तो न कहीं आना न जाना… न रिया से फोन न नव्या से चैटिंग… न कोई सोशल मीडिया पर सक्रियता… ब्यूटीपार्लर की सीट पर बैठे महीनों हो गए… दिनभर विभू और उस के पोतड़े… उनींदी सी काव्या हर समय नींद के अवसर तलाशने लगी थी… अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी न होने से अभय भी उस से उखड़ाउखड़ा रहने लगा. खुले आसमान में उड़ने के सपने देखने वाली काव्या अपनी ही इच्छाओं के घेरे में कैद सी हो कर रह गई.
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‘‘मैं परेशान हो गई हूं इस रोजरोज की चिकचिक से… न मन का खा सकते और न ही पहन सकते… हर समय रोकटोक… आखिर कोई सहन करे भी तो कितना…’’ दोपहर के 2 बज रहे थे और आदत के अनुसार लंच कर के काव्या पलंग पर पसर गई. कमर सीधी करतेकरते ही बड़ी बहन नव्या को फोन लगाया और फिर दोनों बहनें शुरू हो गईं अपनाअपना ससुरालपुराण पढ़ने.
‘‘अरे, क्यों सहन करती है तू सास की ज्यादती? अभय से क्यों नहीं कहती? मैं तो तेरे जीजू से कोई बात नहीं छिपाती… हर रात सोने से पहले उन की मां का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देती हूं… जब तक वे मेरी हां में हां नहीं मिलाते, हाथ भी नहीं लगाने देती…’’ नव्या ने अपने अनुभव के सिक्के बांटे.
‘‘दीदी, अभय तो बिलकुल ममाज बौय हैं… अपनी मां के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनते. उलटे मुझे ही एडजस्ट करने की नसीहत देने लगते हैं… सच दीदी, ससुराल के मामले में तुत बहुत खुशहाल निकलीं… जीजाजी तुम्हारी उंगलियों पर नाचते हैं… पता नहीं मेरे अच्छे दिन कब आएंगे…’’ काव्या ने एक गहरी सांस भरी.
‘‘वह तो है… अच्छा चल रखती हूं… तेरे जीजू का 2 बार फोन आ चुका है… मेरे बिना चैन नहीं उन्हें भी,’’ नव्या इतराई.
‘‘चल ठीक है… थोड़ी देर में सास महारानीजी की चाय का समय हो जाएगा… मुझे तो दो घड़ी चैन की नींद भी नहीं मिलती…’’ अपने को कोसते हुए काव्या ने फोन काट दिया और फिर एसी की कूलिंग थोड़ी और बढ़ा कर चादर ओढ़ कर सो गई.
काव्या की अभय से शादी को मात्र 3 वर्ष हुए हैं. अभय एक प्राइवेट फर्म में मैनेजर है. सैलरी ठीकठाक है. मांपापा के साथ रहने से मकान का किराया, पानीबिजली, राशन आदि का कोई खर्चा उसे जेब से नहीं देना पड़ता… जो भी पैसा खर्च होता है वह स्वयं और काव्या के निजी शौकों और जरूरतों पर ही होता है. शादी से पहले काव्या ने सपनों सी जिंदगी का कल्पना की थी, जिस में सिर्फ पति के साथ मौजमस्ती ही थी. उस के सपनों की दुनिया में सासससुर नामक खलनायक नहीं थे…
‘एक बंगला बने न्यारा…’ वाले अरमानों के साथ काव्या ने ससुराल की देहरी लांघी थी, लेकिन जब पता चला कि जनाब अभय को अकेले रह कर शादीशुदा जिंदगी के मजे लेने का कोई शौक नहीं है तो वह बुझ सी गई. जबतब अपनी मां के सामने अपना दुखड़ा रो कर मन हलका करने की कोशिश करती, लेकिन मां ने कभी उस की बातों को सीरियसली नहीं लिया और न ही कभी अलग गृहस्थी बसाने के उस के सपने को पोषित किया.
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‘‘ससुराल गैंदे के फूल सा होता है… कोई पंखुड़ी छोटी तो कोई बड़ी… लेकिन जब सब मिल कर आपस में गुंध जाती हैं तो फूल की छवि देखने लायक होती है,’’ मां हमेशा उसे समझाती थीं. लेकिन काव्या के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी. इसीलिए वह आजकल मां से बस नपीतुली बात ही करती है. हां, लेकिन बड़ी बहन से बिना नागा बात करती है और उस से ससुराल से अलग घर ले कर रहने से संबंधित सलाह भी मांगती रहती है.
यहां तक तो फिर भी सब ठीक था, लेकिन आग में घी डालने का काम किया सामने वाले घर में किराए पर रहने आए दंपती ने. ये नवल और रिया थे. नवल भी अभय की तरह एक प्राइवेट फर्म में जौब करता है, लेकिन रिया का ठसका तो देखो. कभी जींस.. कभी कैपरी… कभी शौर्ट्स तो कभी कोई और दिल जलाने वाली वैस्टर्न पोशाक… काव्या देखती तो कलेजे पर सांप लोट जाता… ऊपर से स्टाइलिश हैयर कट और मेकअप से पुता चेहरा. काव्या के दिलोदिमाग में हलचल मचाए रहता.
‘क्या जिंदगी है… इसे कहते हैं जिंदगी के असली मजे लूटना… मैं ने पता नहीं कौन सो बुरे कर्म किए थे… तभी तो ये बेडि़यां मेरे पांवों में डल गईं…’ काव्या सोचसोच कर दुबली होने लगी. पेट में पचने वाली तो बात थी ही नहीं… बहन को नमकमिर्च लगा कर बताया.
‘‘अरे तो बावल कुआं तेरे पास है और तू है कि प्यासी घूम रही है… रिया से दोस्ती गांठ और ले ले शाही जिंदगी जीने के…’’ नव्या ने हाथोंहाथ सलाह दे डाली.
बस फिर क्या था. काव्या रिया से नजदीकियां बढ़ाने लगी. रिया तो खुद जैसे उसी की पहल का इंतजार कर रही थी. हायहैलो से शुरू हुई बातचीत धीरेधीरे अंतरंग होने लगी और जल्द ही दोनों घीखिचड़ी सी घुलमिल गईं. कभी रिया काव्या के पास तो कभी काव्या रिया के साथ…
‘‘देखो काव्या, पति नामक जीव को अपने इशारों पर नचाना हो तो लटकेझटके दिखाने ही होंगे… तुम सारा दिन सूटसाड़ी में लिपटी रहती हो… बेचारे अभय का भी मन करता होगा न तुम्हें मौडल सी सजीधजी देखने का… कभी कुछ बोल्ड पहनो… नया ट्राई करो… फिर देखो कैसे अभय तुम पर लट्टू हुआ जाता है…’’ रिया ने भी वही सलाह दे डाली जो नव्या दिया करती है.
‘‘क्या खाक बोल्ड पहनूं… अभय से पहले तो उस के मांपापा देखेंगे… फिर जो कुहराम मचेगा उस का पूरा महल्ला फ्री में मजा लेगा…’’ काव्या ने मुंह बनाया.
‘‘फिर तो बन्नो एक ही उपाय है… कोपभवन… जैसे कैकेयी ने दशरथ से अपनी शर्तें मनवाई थीं वैसे ही तुम भी कोई नाजुक सा मौका तलाश करो… पहले ढील दो और फिर खींच लो डोरी… पतंग न कटे तो मेरा नाम बदल देना…’’ रिया ने मंथरा की भूमिका निभाई.
काव्या मौका तलाशने लगी. समय शायद इस बार काव्या के पक्ष में ही चल
रहा था. अगले ही महीने काव्या ने खुशखबरी दी कि घर में तीसरी पीढ़ी का आगमन होने वाला है. सास ने बलाएं लीं… भारी काम करने से मना किया… ससुर हर समय चहकने लगे… और अभय के तो मिजाज ही निराले लग रहे थे… पत्नी पर बादलों सा उमड़घुमड़ कर प्यार आने लगा… दोस्तों में उठनाबैठना कम हो गया… खिलौने से कमरे में जगह कम पड़ने लगी. मनुहार करकर के खिलानेपिलाने लगा… काव्या के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे… इस हंसीखुशी के बीच कहीं न कहीं साजिशों के बीज भी अंकुरण की जगह तलाश रहे थे.
8 महीने पूरे हुए. काव्या की गोद भराई की रस्म के बाद अब कल उसे अपने मायके जाना है. पूरी रात अभय की हिदायतों का लैक्चर जारी था- यह करना, यह मत करना… ऐसे बैठना… ऐसे सोना… अभय बोले जा रहा था. काव्या सुनने का दिखावा करती लेटी थी. दिमाग में तो अलग ही खिचड़ी पक रही थी.
गर्भ का समय पूरा हुआ और काव्या ने एक नन्हे फरिश्ते को जन्म दिया. दोनों परिवारों में खुशी की लहर दौड़ गई. टोकरे भरभर कर मिठाई और बधाइयों का आदानप्रदान हो रहा था. पोते को देखने के लिए दादादादी सिर के बल चले आए. अभय के पांव भी कहां रुकने वाले थे. बिना किसी की परवाह किए सीधे काव्या के पास पहुंचा.
‘‘बेसब्रा कहीं का,’’ कह कर मां मुसकराईं, लेकिन देखा जाए तो खुद उन्हें भी कहां सब्र था. खैर, अभय ने जैसे ही अपने अंश को अंक में भरने की चेष्टा की, काव्या ने उसे अपने कलेजे से लगा लिया. अभय ने अपनी प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर गड़ा दी.
‘‘इतनी आसानी से नहीं सैयांजी… पहले एक वादा करना होगा…’’ काव्या इठलाई.
‘‘इस अनमोल रत्न के बदले जो चाहे मांग ले रानी…’’ अभय भी नौटंकी करने में कहां कम था.
‘‘झूठ बोले कौआ काटे… देखो, सच्चे मर्द हो तो झूठे वादे मत करना…’’ काव्या ने उस के पौरुष को ललकारा.
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‘‘प्राण जाए पर वचन न जाए…’’ अभय ने भी चुनौती स्वीकार कर ली और इस के साथ ही काव्या ने अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराते हुए नन्हा फरिश्ता पिता की गोद में डाल दिया.
अभय तो उसे छूते ही निहाल हो गया. कभी उस का गाल अपने गाल से सटाता… कभी उस की नन्हीनन्ही उंगलियों में अपनी उंगलियां फंसाता…
‘‘मोगंबो खुश हुआ… कहो क्या मांगती हो?’’ अभय ने बच्चे के चेहरे को निहारते हुए पूछा.
‘‘एक अलग दुनिया… जिस में सिर्फ हम 3 ही हों…’’ काव्या ने सपाट स्वर में कहा.
अभय के हाथपांव कांप गए. क्षणभर में
ही दशरथ और पुत्र बनवास का सा एहसास हो गया. बच्चे पर पकड़ ढीली पड़ने ही वाली थी कि मां ने आ कर संभाल लिया. शायद उन्होंने काव्या की बात सुन भी ली थी. अभय आंखें चुराता हुआ बाहर निकल गया.
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