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लुटे मुसाफिर की तरह तीनों गए. बच्चे के जन्म की खुशी फीकी पड़ गई. महीनाभर होने को आया. पतिपत्नी की बातचीत में ठंडापन आ गया. न चुहल... न मानमनौअल..न रूठनामनाना... न शिकवाशिकायत... सबकुछ मशीनी... मां अलग परेशान... अभय अलग परेशान... कहीं किसी मध्यमार्ग की गुंजाइश ही नजर नहीं आ रही थी.

अभय की ससुराल से बच्चे के नामकरण का न्योता आया... सब गए भी... लेकिन बुझेबुझे से... नाम रखा गया ‘विभू.’

‘‘बहू, अभय ने ट्रांसफर ले लिया है... बच्चे को ले कर अब तुम्हें वहीं उस के साथ जाना है...’’ रवानगी से पहले सास के मुंह से झरते अमृत वचनों पर सहसा काव्या विश्वास नहीं कर पाई. उस ने पति की तरफ देखा जो मुंह लटकाए खड़ा था.

अभी तो उदास हो रहे हो सैयांजी... जब खुली हवा में पंख पसारोगे तब पता चलेगा कि आसमान कितना विशाल है...’’ काव्या ने पति की तरफ भरोसा दिलाने की गरज से देखा.

3 महीने के विभू को ले कर काव्या ने अपने सपनों की दुनिया में पहला पांव रखा. नहींनहीं यह जमीन नहीं थी यह तो आसमान था... काव्या की ख्वाहिशों को पंख उग आए थे. ‘हम दो हमारा एक’ कल्पना करती काव्या खुशी से दोहरी हुई जा रही थी. उस ने पर्स एक तरफ पटका... विभू को पालने में लिटाया और पूरे घर में घूमघूम कर ‘स्वीट होम’ वाली फीलिंग लेने लगी.

‘‘एक तरह से देखा जाए तो यह मेरा गृहप्रवेश ही है... क्यों न आज कुछ खास बनाया जाए...’’ अपनी जीत की खुशी मनाते हुए काव्या ने रसोई का रुख किया. सामान खंगाला तो कुछ विशेष हाथ नहीं लगा.

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