
महराज तो कोविड और लौकडाउन की वजह से आ नहीं रहे थे. निशा प्रैग्नैंट थी. वह कंप्लीट बैडरेस्ट पर थी और मम्मी जी को गठिया के कारण परेशानी थी.
सुबह के समय निशीथ निभा के कमरे में आ कर बोले, “भाभी, आप के हाथ के मूली के परांठे खाए बहुत दिन हो गए. आज बना दीजिए. निशा का बहुत मन हो रहा है.“
वह खुशीखुशी बनाने में जुट गई थी.
“वाह भाभी, यू आर ग्रेट.”
वह इन तारीफों के जाल में उलझ कर खुशीखुशी रोज नएनए पकवान बनाने में उलझती गई. मम्मी जी बोलीं, “निभा के खाना बनाने की वजह से सब को बढिया खाना मिल जाता है और उस का समय भी अच्छी तरह बीत जाता है.“
मम्मी जी निशा की सेवा में लगी रहतीं क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस खानदान का वारिस आने वाला है. उसे बैड से नीचे पैर न रखने देतीं, जबकि वह ‘डाक्टर के यहां जा रही हूं’ कह कर घंटों के लिए घर से बाहर रहा करती.
कोविड की लहर उतार पर थी. निशा के बेबी शावर की तैयारी धूमधाम से करने के लिए रोज बैठकें हो रही थीं, जिन में निभा का प्रवेश निषेध था क्योंकि वह विधवा थी. उस की बुरी नजर से कुछ अशगुन हो जाता तो… निशा के मायके वाले और मम्मी जी और निशीथ सब बैठ कर प्रोग्राम को शानदार व यादगार बनाने के लिए प्लानिंग करते रहते.
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तभी एक दिन निभा के मोबाइल की घंटी बजी. उधर उस के पुराने ज्वैलर थे, कह रहे थे कि, ”मैडम, जो आप ने डायमंड सैट का और्डर दिया था वह बन कर आ गया है. उस को आप के घर पर पहुंचा दें या फिर यहां आकर देखेंगी.”
अब तो उस का दिमाग चकरा उठा था. परदे के पीछे चल क्या रहा है?
उस के साथ मीठीमीठी बातें बना कर उसे खाना बनाने वाली बना कर रख छोड़ा है… निभा, तुम्हारे हाथ का खाना खा कर मन खुश हो जाता है, सब को स्वाद वाला बढिया खाना मिल जाया करता है…
पहले तो वह कुछ समझ नहीं पाई थी और घरेलू कामों में ही उलझती चली गई. वह अपने मन का दर्द कहे तो किस से कहे.
ज्वैलर के फोन से मानो उस की आंखें खुल गईं. उस को ऐसा लगा मानो निश्चल कह रहे हों, घरेलू कामों में उलझ कर क्यों नौकरानी की तरह काम करती रहती हो.
अगली सुबह जब वह तैयार हो कर घर से निकलने लगी तो मम्मी जी नाराजगीभरे स्वर में बोलीं, “हाय, कुछ तो शरम करो. अभी निश्चल को गए साल भी पूरा नहीं हुआ है और तुम सजधज कर निकल पड़ीं. हायहाय, मेरा तो समय ही फूटा है. बेटा तो चला ही गया और तुम घर की इज्जत सरेआम बाजार में नीलाम करने में लगी हो. लोग क्या कहेंगे. बिरादरी वालों को क्या जवाब देंगे.“ वे यह कह कर झूठमूठ रोने का नाटक करने लगीं.
असमंजस में उस के कदम क्षणभर के लिए ठिठक कर रुक गए थे. परंतु फिर उस ने अपने मन को पक्का किया और बोली, “मम्मी जी, रामदीन नहीं दिखाई पड़ रहे हैं?”
“निशीथ ने रामदीन को हटा दिया. आखिर कब तक उसे बैठेबैठे की तनख्वाह दी जाती,” वे रोतीबिसूरती हुई बोलीं, “निश्चल तो अब लौट कर आने वाला नहीं.” निभा को दिखाने के लिए वे अपने आंसू पोंछने का नाटक करने लगी थीं.
तभी उस का मोबाइल बज उठा था. निशीथ का फोन था, ”भाभी, मैं गाड़ी भेज रहा हूं, आप को कहां जाना है?”
“नहीं, निशीथ भैया, मैं ने ओला बुक कर ली है. वह आने ही वाली है.”
‘ओला’ शब्द सुनते ही सब के कान खड़े हो गए थे.
“ठहरो भाभी, मैं खुद ही आ रहा हूं.”
“नहीं भैया, मैं अपनी फ्रैंड से मिलने जा रही हूं.” तब तक मम्मी जी तेजी से दौड़ती हुई आईं, “निभा, तुम अकेले मत जाओ, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं.”
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वह अनसुना करती हुई टैक्सी में बैठ गई थी और सीधा ज्वैलर्स के शोरूम पर पहुंची तो वहां मालूम हुआ कि निशीथ और निशा ने इन दिनों में काफी सारी ज्वैलरी खरीदी है. डायमंड सैट देख कर उस की आंखें चुंधिया गई थीं.
अब वह सीधा औफिस पहुंची थी. निशीथ उस को औफिस में देखते ही घबरा उठा था.
निश्चल का केबिन और उस की कुरसी अब निशीथ की हो चुकी थी. हां, निश्चल की फोटो जरूर दीवार पर टंगी थी और उस पर माला देख उस की आंखें नम हो उठी थीं.
उस ने जाकर पति की फोटो को नमन किया और मन ही मन उन से मार्ग प्रशस्त करते रहने के लिए विनती की.
“भाभी, आप को औफिस आने की क्या जरूरत पड़ गई. आप तो जानती हैं कि भैया को तो आप का औफिस आना बिलकुल भी पसंद नहीं था. लोग यह कहेंगे कि मैं आप की सही से देखभाल नहीं कर रहा हूं.”
“ऐसा कुछ नहीं है. लोगों का तो काम ही है कुछ कहना. अब मैं रोज औफिस आया करूंगी और तुम्हारी मदद किया करूंगी. इस समय निशा को तुम्हारी जरूरत है और तुम सारा दिन औफिस के कामों में उलझे रहते हो.“
निशीथ के चेहरे के हावभाव से उस का आक्रोश साफ दिखाई पड़ रहा था. लेकिन समय की नाजुकता देख कर वह वहां सब के सामने बोला, “भाभी के लिए कौफी लाओ.“ और निभा को अपनी कुरसी पर बिठा दिया था.
मैडम निभा आज औफिस आईं हैं, यह खबर हवा की तरह पूरे औफिस में पहुंच गई थी और लोग मिलने के लिए आने लगे थे. निश्चल के प्रति उन लोगों का प्यार देख उस की आंखें छलक उठी थीं.
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निशीथ जल्दी ही उसे अपनी गाड़ी में बिठा कर घर ले आए थे. वह समझ रही थी कि निशीथ को उस का औफिस आना बिलकुल भी पसंद नहीं आएगा लेकिन अब वह घर से निकल कर निश्चल के अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश करेगी.
घर आते ही वह बोला, “आप को औफिस आने की क्या जरूरत पड़ गई? आखिर आप को क्या कमी है जो आप आज औफिस पहुंच गईं. सब को दिखाना चाहती हैं कि मैं आप की देखभाल सही से नहीं कर रहा हूं? और तो और, सीधा ज्वैलर्स के पास पहुंच गईं. आखिर आप चाहती क्या हैं, क्या मैं कंगाल हूं कि अपनी बीवी के लिए एक सैट नहीं खरीद कर दे सकता?” मम्मी जी और निशा वहां खड़ी हो कर जलती निगाहों से उसे घूर रहीं थीं और उस की हां में हां भी मिला रही थीं.
“क्या कंपनी में मेरे शेयर नहीं हैं? भैया का ‘सक्सेसर’ तो मैं ही हूं. आप को क्या पता कि कंपनी को कैसे चलाते हैं? कुछ समझ है क्या? चुपचाप घर में बैठिए जैसे इतने दिनों से रह रही थीं. ज्यादा हाथपैर मारने की जरूरत नहीं है.”
अपना गुस्सा निकालने के बाद अब वह आराम से बोला, “मुझे भूख लग रही है, कुछ खाने को दीजिए, ज्यादा पंख फड़फड़ाने की जरूरत नहीं है.”
वह डर कर चुप हो गई थी और फिर निशीथ और मम्मी जी के हाथ की कठपुतली बन कर रह गई थी. वह मन ही मन सोचा करती कि निश्चल उसे अपनी पलकों पर बिठा कर रखते थे, आज उस की स्थिति कोने में रखे कचरे की तरह हो गई है.
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निश्चल को इस दुनिया से विदा हुए एक वर्ष हो गया था. सब को दिखाने के लिए निशीथ ने एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया था. वहां पर निभा की मुलाकात अखिल भैया से हुई. उन्होंने और निश्चल ने मिल कर यह कंपनी बनाई थी. फिर उन की पत्नी कोरोना की शिकार हो गई थीं. वे उन्हें अकेला कर गई थीं. इन्हीं परेशानियों से घिरे रहने के कारण काफी दिनों से उन्हें ज्यादाकुछ मालूम नहीं था परंतु उन की अनुभवी आंखों ने एक नजर में सबकुछ समझ लिया था.
निशीथ और मम्मी जी ने होशियारी से सभी पुराने नौकरों को हटा कर नए रख लिए थे जो केवल निशा और निशीथ को ही मालिक समझते थे. मम्मी जी अपना स्वार्थ देख कर निशीथ और निशा का साथ दे रही थीं.
निभा साधारण परिवार से थी. मम्मी जी का सोचना था कि उस ने निश्चल को अपने प्रेमपाश में बांध कर उसे शादी करने के लिए मजबूर कर दिया जिस के कारण उसे लवमैरिज करनी पड़ी थी. सोने पर सुहागा था कि उस के जल्दीजल्दी 2 बेटियां भी हो गईं, जिस की वजह से वह उन की आंख की किरकिरी हमेशा से थी. लेकिन निश्चल के सामने उस की ओर उंगली उठाने की किसी की हिम्मत न होती थी. अब उस के जाते ही दोनों ने मिल कर उसे घर और कंपनी दोनों से किनारे करने की ठान ली थी.
एक दिन निशीथ फोन पर किसी से कह रहे थे कि ‘पावर औफ एटौर्नी’ तो मेरे पास है, वह भला क्या कर सकती है. इस एक वाक्य ने उस के ज्ञानचक्षु जागृत कर दिए थे. वह पावर औफ एटौर्नी कैंसिल करवाएगी और अपना हक हासिल करेगी.
उस ने गूगल पर सर्च किया और सोचने लगी कि शायद ये लोग नहीं जानते कि निभा किस मिट्टी की बनी है. उस ने जीवन की जंग जीती है तो यह कौन बड़ी बात है. उस ने प्यार से अपनी दोनों बेटियों को अपने गले से लगा कर उन के माथे पर प्यार किया और फिर, ओला बुक कर के वह रजिस्ट्रार औफिस में जा कर अपनी पावर औफ एटौर्नी कैंसिल करवाने के काम में जुट गई.
इस तरह के काम करने का उस का पहला अवसर था, इसलिए वह थोड़ी नर्वस थी लेकिन यदि इरादे बुलंद हों तो सबकुछ संभव है. वहां पर वह लोगों से पूछताछ कर रही थी, तभी वहां पर उस का पुराना क्लासफैलो चंदन वर्मा दिखाई पड़ा था.
वह रजिस्ट्रार औफिस में उसे अकेले उस के श्रंगारविहीन और कांतिहीन चेहरे को देख कर चौंक उठा, बोल पड़ा, “निभा कैसी हो?”
“बस, कोरोना की मार झेल रही हूं.”
“तुम ने तो निश्चल के साथ लवमैरिज की थी.”
“हां चंदन, निश्चल को कोरोना ने निगल लिया,” उस की आंखें बरस पड़ी थीं.
“रजिस्ट्रार औफिस में कैसे आना हुआ?”
“चंदन, तुम ने तो लौ किया था न.’’
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“हां, हां, लेकिन अभी भी बेकार सा घूम रहा हूं. छोटेमोटे कामों से बस किसी तरह गुजर हो पा रहा है.”
“तुम ने तो अपने बैच में टौप किया था न?”
“जिंदगी में तो कछुए की तरह रेंग रहा हूं.“
“मेरी कुछ हैल्प करोगे?”
“यह पूछने की बात है.”
“आओ सामने रैस्टोरैंट में कौफी पीते हैं, वहीं बैठ कर बातें होंगी.“
चंदन शुरू से क्लास में पढ़ने में बहुत होशियार था लेकिन वह गरीब और अनुसूचित जाति के कोटे से आता था, इसलिए क्लास में कोई उस को भाव नहीं देता था. वह अलगअलग सा रहता, डरासहमा सा रहता कि कब कोई उस का मजाक न बना दे. फिर वह लौ करने लगा और उस ने एमए किया तो लगभग मिलनाजुलना बंद सा हो गया.
उस ने लगभग सकुचाते हुए अपनी लिखी हुई एप्लिकेशन दिखाई, जो पावर औफ एटौर्नी कैंसिल करवाने के लिए थी. चंदन ने एप्लिकेशन में कुछ सुधार किया और बोला, “पावर औफ एटौर्नी तो मैं एक दिन में कैंसिल करवा दूंगा लेकिन यह समझ लो यदि तुम्हारे देवर की नीयत खराब है तो वह खुद ही कंपनी का मैनेजिंग डाइरैक्टर बन जाने की कोशिश कर रहा होगा या फिर वह तुम्हारी कंपनी को अपने नाम पर करवाने की कोशिश में लगा होगा. इसलिए “पावर औफ एटौर्ऩी कैंसिल करवाने के बाद यह पता लगाने की कोशिश करो कि कंपनी में निश्चल जी के कितने फीसदी शेयर थे. वे सब शेयर अपनेआप तुम्हारे नाम ट्रांसफर हो जाएंगे क्योंकि तुम निश्चल जी की पत्नी और उन की सक्सेसर हो.“
“लेकिन निश्चल ने तो मुझे कभी कुछ बताया ही नहीं,” वह रोंआसी हो उठी थी.
“कोई बात नहीं, निभा. तुम घबराओ मत. मैं तुम्हारा हक तुम्हें अवश्य दिलवाऊंगा. रो कर कमजोर मत बनो बल्कि हिम्मत रखो.”
“चंदन, यदि तुम मुझे मेरा हक दिलवा दोगे तो मैं तुम्हें मुंहमांगे 20 लाख रुपए या उस से कहीं ज्यादा रकम दूंगी. यदि तुम यह केस मुझे जिता दोगे तो तुम्हारा नाम हो जाएगा. और फिर तुम्हें बहुत सारे केस मिलने लगेंगे. लेकिन इस समय तो बस तुम्हें जरूरी खर्च वाले पैसे ही दे पाऊंगी.“
“निभा, तुम बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स में निश्चल के किसी विश्वासी मित्र को जानती हो… तो तुम्हारा काम आसान हो जाएगा.“
“हां, अखिल भैया और निश्चल ने मिल कर यह कंपनी बनाई थी.
“लेकिन मुझे लगता है कि अब निशीथ खुद डाइरैक्टर बनना चाहता होगा.“
वह भोलेपन से बोली थी, “फिर कौन बनेगा?”
“तुम बनोगी, अपने पति की सक्सेसर हो तुम.”
“मुझे तो कुछ समझ नहीं आता, कैसे हो पाएगा?“
“सब काम मैनेजर और टीम करती है. धीरेधीरे सब समझ में आने लगेगा. ठीक है निभा, तुम मेरे संपर्क में रहना. इस विषय पर दूसरे केसेज को स्टडी करूंगा. उन के फैसले और डीटेल्स समझूंगा. तब आगे क्या करना होगा, मैं तुम्हें बताऊंगा.”
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“एक बात ध्यान रखना, घर में इन बातों की किसी से भी चर्चा मत करना क्योंकि इस समय तुम्हारा देवर तुम्हारी कंपनी पर अपना कब्जा कर के तुम्हारे अधिकार को छीन कर, तुम्हें घर से बाहर कर देने की कोशिश में लगे होंगे. मुझे पक्का विश्वास है कि निशीथ ने कंपनी कोर्ट या लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी अपने नाम करने के लिए एप्लिकेशन डाल रखी होगी. हो सकता है कि वह तुम्हारा फोन ट्रैक कर रहा हो. इसलिए तुम्हें बहुत होशियार रहना होगा. यदि तुम्हारे फोन में अखिल का नंबर हो तो मुझे दे दो. मैं सबकुछ तुम्हारे हक में करवा कर ही चैन लूंगा.“
आगे पढ़ें- चंदन का अनुमान सही निकला था…
जो चंदन उस की नजरों में गंवार और ऐं वैं ही था, आज उस की बातों से अत्यंत सुलझा हुआ व समझदार दिखाई पड़ रहा था. उस के बात करने के ढंग और उस की मदद के लिए उठे हुए उस के हाथ को देख कर वह गदगद हो उठी थी. उस के व्यवहार ने उस के दिल को छू लिया था.
चंदन का अनुमान सही निकला था…निशीथ ने लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी का नाम बदल कर अपने नाम कर लेने की एप्लीकेशन लगा रखी थी और निश्चल के शेयर्स पर अपना कब्जा करने के लिए बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स को अपनी तरफ मिलाने के लिए उन को तरहतरह का प्रलोभन देने में लगा हुआ था.
पावर औफ एटौर्नी के कैंसिल होते ही निशीथ के कान खड़े हो गए थे और अब उस के सुर बदलने लगे. लेकिन वह अंदर ही अंदर बोर्ड मैंबर्स से मिल रहा था और अपने को निश्चल का सक्सेर बता रहा था. निश्चल की जगह वह खुद मैनेजिंग डाइरैक्टर बनने के लिए गुटबंदी की कोशिश में लगा हुआ था. लोगों के सामने निभा को अयोग्य बता कर समय बिताने के प्रयास में लगा हुआ वह चाह रहा था कि किसी तरह लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी उस के नाम रजिस्टर हो जाए. फिर एकएक को वह देख लेगा…
इधर, घर में निभा को अपनी तरफ मिलाने के लिए उस की चापलूसी करता रहता. अब भैया तो लौट कर आएंगें नहीं. अब सबकुछ उसे ही करना है.
वह सब से कहता फिर रहा था कि निभा भाभी तो एक घरेलू महिला हैं, वे भला कंपनी की एबीसीडी क्या जानें. इसीलिए तो उन्होंने पावर औफ एटौर्नी मुझे दे रखी है.
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‘…मैं तो भाभी का सेवक हूं. भैया की अमानत संभाल रहा हूं. रिनी और मिनी को तो विदेश में पढ़ने के लिए भेजूंगा. हर समय यही सोचता रहता हूं और यही चाहता हूं कि मेरी भाभी को भैया की कमी न महसूस होने पाए. अब वह उन दोनों के लिए कभी कुछ तो कभी कुछ खिलौना या कपड़ा ले कर आया करता. लेकिन निभा अब उस की नीयत को अच्छी तरह समझ चुकी थी, इसलिए उस के भुलावे में आने का सवाल ही न था.
अखिल दास ने बोर्ड मैंबर्स की मीटिंग बुला ली जिस में नए मैनेजिंग डाइरैक्टर को भी चुना जाना था. बड़ी गहमागहमी थी. चंदन और अखिल दास के सहयोग से वह अब कंपनी के कामकाज को अच्छी तरह समझ चुकी थी. लेकिन निशीथ आसानी से कंपनी अपने हाथ से जाने नहीं दे सकता था, इसलिए उस ने एक कागज पर निश्चल के दस्तखत के साथ बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स के सामने रखा, जिस के अनुसार, निश्चल के 51 फीसदी शेयर्स और कंपनी निशीथ की हो जाएगी और वे चाहते थे कि कंपनी के मैनेजिंग डाइरैक्टर निशीथ ही बने. विल के अनुसार, निश्चल के शेयर्स, जमीनजायदाद और कंपनी का मालिक निशीथ ही होगा. बैठक बहुत हंगामेदार हुई और केस लौ ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया.
बोर्ड मैंबर्स निभा को निश्चल की उत्तराधिकारी मानते हुए उसे ही डाइरैक्टर चुनना चाहते थे लेकिन कानूनी दांवपेच में उलझ कर मामला लौ ट्रिब्यूनल से कोर्ट में पहुंच गया और विल की सचाई सिद्ध करने के लिए सिविल कोर्ट पहुंच गया था. परंतु चंदन के अकाट्य तर्कों के आगे निशीथ के वकील कहीं नहीं टिक पाए थे और लगभग 3 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद निभा के हक में फैसला हुआ.
निभा ने खुशी के मारे अपनी गर्म हथेलियां चंदन के हाथों पर रख दीं, “चंदन, तुम्हें धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मैं आजीवन तुम्हारी एहसानमंद रहूंगी.”
“निभा, आज पहले दिन औफिस जा रही हो. लो, दहीशक्कर से मुंह मीठा कर के जाओ.“ वह आश्चर्य से भर उठी थी…ये रिश्ते भी कितने स्वार्थी होते हैं. वह औफिस आई तो गेट को फूलों से सजा हुआ देख, उसे अच्छा लगा था. उस के लिए रेड कार्पेट बिछाई गई थी. फूलों की वर्षा के साथ वैलकम सौंग गाया गया. केबिन के बाहर नेमप्लेट पर ‘निभा सिंह’ और नीचे मैनेजिंग डाइरैक्टर देख उस की आंखें नम हो गई थीं.
वह फाइल पर साइन करती जा रही थी परंतु उस का मन चंदन में ही उलझा हुआ था. उस ने ईमानदारी से चैक साइन कर के जब उसे दिया तो उस ने उस का हाथ पकड़ लिया था, ”निभा प्लीज, यह एक दोस्त की तरफ से भेंट समझ लो.”
वह उसे एकटक निहारती रह गई थी, “चंदन, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?”
“बस, दिल में कोई बसा है.”
“तो उस से अपने दिल की बात कह दो.”
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“हिम्मत नहीं जुटा पाता, यदि उस ने ना कर दी तो…”
चंदन का जादू उस के सिर पर चढ़ता जा रहा था. वह हर पल उस की आंखों में अपने लिए प्यार ढूंढा करती लेकिन उस की सूनी आंखों में सिवा उदासी और खालीपन के कुछ न दिखता.
वह रात में लेटी, तो उस का मन चंदन की बातों में उलझा था. चंदन…चंदन…चंदन. उसे क्या होता जा रहा है… वह मन ही मन मुसकरा उठी थी. उस ने चंदन को अपना हमसफर बनाने का निश्चय कर लिया था. उस ने चंदन को फोन किया, “कल शाम को डिनर पर आ सकते हो?”
“आप बुलाएं और हम न आएं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता.”
अगले दिन… “मैडम नहीं, केवल निभा कहो चंदन.”
“मैं तो कब से इस पल का इंतजार कर रहा था.”
चंदन ने सब के सामने उस की हथेलियों को हमेशा के लिए अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था.
लखनऊ के एक पौश इलाके गोमतीनगर में निश्चल कपूर ने अपनी मेहनत के बलबूते आलीशान तीनमंजिली कोठी बनवाई. और चंद वर्षों के अंदर ही उन्होंने समृद्ध और प्रतिष्ठित लोगों के बीच अपना स्थान बना लिया. लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कहर ने सबकुछ बदल दिया.
“निश्चल, प्लीज मास्क ठीक से लगाओ. तुम्हारी नाक खुली हुई है. मास्क ठुड्डी पर लटका कर किसे धोखा दे रहे हो?”
“माई डियर निभा, तुम मेरी फिक्र छोड़ अपनी फिक्र करो. मुझ जैसे हट्टेकट्टे तंदुरुस्त इंसान को देख कर कोरोना खुद ही डर कर भाग जाएगा,” जोर का ठहाका लगाते हुए पत्नी निभा की ओर फ्लाइंग किस उछालते हुए वे गाड़ी स्टार्ट कर औफिस चले गए थे.
निभा जब भी कोरोना नियमों की बात करती, निश्चल उसे हंस कर टाल देते. इधर एक हफ्ता भी नहीं बीता कि निश्चल को हलका बुखारखांसी हुई. निभा टैस्ट करवाने को कहती रही लेकिन निश्चल ने उस की एक न सुनी और गोलियां निगल कर औफिस जाते रहे. जब सांस लेने में दिक्कत होने लगी तो भी जबरदस्ती करने पर टैस्ट करवाया और पौजिटिव रिपोर्ट आते ही एंबुलैंस में निश्चल को हौस्पिटल जाते देख कर पूरा परिवार सदमे में आ गया. उन्हें यथार्थ सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल में एडमिट करवा दिया गया. चूंकि वे कोरोना पौजिटिव थे, इसलिए उन के छोटे भाई निशीथ दूसरी गाड़ी में अलग से गए और एडमिट करवा कर घर लौट आए थे.
यद्यपि सब लोग सदमे में थे परंतु फिर भी सब के मन में आशा की किरण थी कि निश्चल जल्दी ही स्वस्थ हो कर आ जाएंगे. लेकिन 3-4 दिन ही बीते थे कि निभा भी पौजिटिव हो गई और तब तक कोरोना अपना विकराल रूप धारण कर चुका था. पूरे दिन की जद्दोजेहद के बाद बहुत मुश्किलों में रात 11 बजे उन्हें बैड मिल पाया था. निश्चल के सीटी स्कैन में उन के लंग्स तक इन्फैक्शन पहुंच गया था, इसलिए वे आईसीयू में रखे गए थे.
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मोबाइल फोन ही ऐसा माध्यम था जिस के द्वारा किसी से संपर्क किया जा सकता था. 3-4 दिनों तक तो वह निश्चल और परिवार के संपर्क में रही, फिर वह अपनी बीमारी में उलझती चली गई. वह खुद ही अपना होश खोती चली गई. अपनी सांसों के लिए संघर्ष करते रहने में वह सबकुछ भूलती चली गई. आईसीयू में औक्सीजन मास्क लगाए हुए वह अकेलेपन से जूझती रही थी. उस के चारों तरफ उस का कोई अपना नहीं दिखाई पड़ता था. कभी उसे प्यास लगती, तो सिस्टर की ओर आसभरी नजरों से देखती- ‘सिस्टर, मुझे प्यास लग रही है.’ उस समय यह अनुभूति हुई कि पानी की एक बूंद भी कितनी मूल्यवान है क्योंकि सिस्टर के लिए तो बहुत सारे सीरियस मरीज होते थे जिन को देखना उन के लिए ज्यादा जरूरी होता था.
एक रात उसे बहुत ठंड लग रही थी. सिस्टर दूर कुरसी पर बैठी जम्हाई ले रही थी. उस ने डूबती हुई आवाज में सिस्टर को आवाज दी थी परंतु कमजोर तन से इतनी धीमी आवाज निकल रही थी कि कोई बिलकुल उस के करीब हो, तभी सुनसमझ सकता था. सिस्टर भी तो आखिर इंसान ही थी, वह सारी रात ठंड से ठिठुरती रही थी. मुंह में औक्सीजन मास्क लगा हुआ था. मास्क निकालते ही सांसें उखड़ने को बेताब हो उठती थीं. उन्हीं दिनों यह एहसास हुआ था कि एकएक सांस कितनी मूल्यवान है. उस मर्मांतक पीड़ा को याद कर वह आज भी कांप उठती है…
लगभग 2 महीने तक वह जीवन मौत के झूले में झूलती हुई कभी आईसीयू तो कभी बाहर एकएक सांस के लिए संघर्ष करती हुई, डाक्टर और नर्सों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप कोरोना से जंग जीतने में सफल हो गई और अपने घर आ गई. परंतु, पोस्टकोविड के कारण वह नित नई परेशानियों व तकलीफों से गुजर रही थी. न ही वह अपनी नन्ही परियों को ढंग से प्यार कर पा रही थी और न ही निश्चल की आवाज उसे सुनाई पड़ रही थी. जब भी वह निश्चल को फोन लगाती, तो निशीथ भैया उठाते. वे अकसर आते और किसी न किसी कागज पर उस के दस्तखत करवा कर ले जाया करते.
जब एक दिन वह फफक कर रो पड़ी कि निश्चल कहां हैं, वे क्यों नहीं दिखाई पड़ रहे? तो मम्मी जी ने बताया कि निश्चल तो कोविड से जंग में हार गए. अब पोंछ दो माथे का सिंदूर. तुम्हारा सुहाग उजड़ चुका है. सहसा वह विश्वास ही न कर पाई थी, लेकिन समझ में आते ही वह रोतेरोते बेहोश हो गई थी. उस का ब्लडप्रैशर 100 से नीचे चला गया था. डाक्टर आए. वह रोतीबिलखती रही थी. वह सोच ही नहीं पा रही थी कि निश्चल के बिना वह कैसे जीवित रह पाएगी. 2 नन्हीं मासूम बेटियां… वह क्या करेगी, कैसे जिएगी…. इस समय वह तन से तो टूटी थी ही, अब मन से भी टूट चुकी थी. उस को अपने जीवन के चारों ओर घना अंधकार पसरा दिखाई दे रहा था.
निश्चल ने बिजनैस से उस को बिलकुल अलगथलग रखा था. एक बार वह औफिस पहुंच गई थी तो उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था. वह उस पर बहुत नाराज भी हुए थे. औफिस से उसे बस इतना वास्ता था कि …इस कागज पर अपना साइन कर दो, तो कभी चैक पर साइन कर दो… वह भी अधिकतर ऐसा समय होता जब वे औफिस जाने के लिए जल्दी में होते. वह दस्तखत कर के उन्हें पकड़ा देती. कभी क्या लिखा है, यह जाननेसमझने की न ही इच्छा हुई और न ही जरूरत ही समझी थी उस ने.
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सास सुनैना उसे हिम्मत बंधाती रहतीं. उसे बेटी की तरह ही प्यार करतीं. समयसमय पर दवाई, फल, दूध, खाना आदि सब उस के कमरे में पहुंचा देतीं.
“निभा, निश्चल तो अब लौट कर नहीं आने वाला लेकिन वह जो अपने प्रतिरूप नन्हीं परियों की जिम्मेदारी तुम्हें सौंप कर गया है, उन्हें संभालो. अपनी घरगृहस्थी में अपना मन लगाओ.’ सास ने कहा तो वह सुनैना जी के गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी थी. उस की सिसकी नहीं रुक रही थी.
“निभा, तुम ठीक हो गईं, यह इन बेटियों के लिए अच्छा है. निश्चल तो तुझे मझधार में छोड़ कर चला ही गया.” बहुत ही कारुणिक दृश्य था. निशा भी फूटफूट कर रो पड़ी, बोली, “भाभी अपने को संभालो.”
थोड़े दिनों बाद एक दिन निशीथ औफिस से आ कर बोले, ”भाभी, भैया तो अब लौट कर आने वाले नहीं. रोजरोज आप से साइन करवाने के चक्कर में अकसर जरूरी काम अटक जाता है. आप ‘पावर औफ अटौर्नी’ मुझे दे दें तो फिर हर समय आप के पास दौड़ नहीं लगानी पड़ेगी और काम भी नहीं रुका करेगा.”
उस ने तुरंत कागज पर साइन कर के भैया को दे दिया था.
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उस की मां भी उस से मिलने के लिए आई थीं. उन्होंने उसे समझाया कि इस तरह से जिंदगी थोड़े ही कटेगी. अपनी मासूम बच्चियों में मन लगाओ, अपने भविष्य के बारे में सोचो. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है, मात्र 32 वर्ष. आजकल तो इतनी उम्र में लड़कियां शादी कर रही हैं. मां उसे अपने साथ कुछ दिनों के लिए ले जाना चाहती थीं लेकिन वह तो किसी के सामने ही नहीं जाना चाहती थी. वे रोती हुई लौट गई थीं.
आखिर कब तक वह अपने कमरे की छतों पर नजर गड़ाए शून्य में निहारती रहती. वह अपने कमरे से बाहर निकल कर ड्राइंगरूम में आई तो वहां का नया फर्नीचर और रेनोवेशन देख कर आश्चर्य से भर उठी. घर में इतना बड़ा हादसा हो चुका है, घर का मालिक इस दुनिया से विदा हो गया है और ऐसी हालत में ड्रांइगरूम का सौंदर्यीकरण… वह निशीथ से पूछ बैठी थी- “इस समय रिनोवेशन?” उस के पूछते ही निशीथ का चेहरा सफेद पड़ गया और वह सकपका कर बोला, “भाभी, यह सब तो भैया की ही प्लानिंग थी और उन्होंने ही सब और्डर कर रखा था. मैं ने सोचा कि उन की योजना का सम्मान किया जाना चाहिए.“ और वह उस से नजरें चुरा कर तेजी से अपने कमरे की ओर चला गया था.
निभा की आंखें छलछला उठी थीं. निश्चल ने तो इस बारे में उस से कभी कुछ नहीं बताया. अब उसे अपना घर ही बदला बदला सा दिखाई पड़ रहा था. सबकुछ अनजाना, अनपहचाना सा लग रहा था. बस, बदला नहीं था तो उस का अपना कमरा.
वह देख रही थी कि जब से उस ने निशीथ को ‘पॉवर औफ एटौर्नी’ दी थी, उस के प्रति सब की निगाहें बदल सी गई थीं.
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“मम्मी जी, मैं जब से हौस्पिटल से लौट कर आई हूं, सुदेश काका मुझे नहीं दिखाई पड़ रहे हैं?”
मम्मी ने बताया, “निश्चल ने उसे बहुत सिर चढ़ा रखा था. एक दिन निशीथ के साथ वे बहस करते चले जा रहे थे. बस, उस को गुस्सा आ गया. अपने देवर को तो जानती ही हो कि उस की नाक पर गुस्सा रक्खा रहता है, उस ने कह दिया, ‘निकल जाओ और अपना मनहूस चेहरा यहां फिर मत दिखाना.’ वे भी चिल्ला कर बोले थे, ‘मालिक, हम तो बड़े भैया की वजह से यहां पर बने हुए थे, वरना मेरा लड़का तो मुझे कब से बुला रहा है.“ और वे अपना सामान ले कर चले गए, फिर लौट कर न तो फोन किया, न ही आए.”
यह सब सुन कर निभा दुखी हो गई थी. काका उन लोगों के दाहिने हाथ की तरह से थे, वे हर समय किसी भी काम के लिए तैयार रहते थे.
वह किचेन में गई तो उस का भी रंगरूप बदल चुका था. अब उस ने मौन रहना ही ठीक समझा. जहां उस का राजपाट था, अब वहां की मालकिन निशा बन चुकी थी. वह बच्चों के लिए दूध बनाने लगी तो बोर्नविटा नहीं दिखाई दिया. ”निशा, बोर्नविटा नहीं दिखाई दे रहा, उस का डब्बा कहां रखा है?”
“भाभी, बोर्नविटा तो खत्म हो गया है, कोई जरूरी थोड़े ही है कि बोर्नविटा डाल कर ही दूध पिया जाए. सादा दूध दे दीजिए.“ उस के भीतर कुछ दरक सा गया था.
उस ने चुपचाप बच्चों को दूध दिया और अपने कमरे में जा कर निश्चल की फोटो के सामने फफक पड़ी थी. जब नन्हें हाथों से रिनी और मिनी ने उस के आंसू पोछे तो उस ने दोनों को बांहों में भर लिया था.
नया नौकर प्रकाश निशा और मम्मीजी को पहचानता था लेकिन निभा को नहीं. निभा ने आवाज दी, “प्रकाश, बाजार से बोर्नविटा और 2 किलो सेब ले आना.”
“जी मैडम, रुपए दे दीजिए.“
वह यहांवहां बगलें झांकने लगी थी, तभी निशा तेजी से आई और एक फाइल उसे पकड़ा कर बोली, “प्रकाश, सर को पहले औफिस में यह फाइल दे कर आओ.”
निभा विस्फरित नेत्रों से सब देखती रह गई थी. वह मन ही मन कहने लगी, ‘प्लीज निश्चल, कुछ रास्ता दिखाइए ऐसे जिंदगी कैसे कटेगी…’
अगली सुबह प्रकाश बोर्नविटा का डब्बा और सेब की थैली उस को देते हुए बोला, “मैडमजी बोलीं हैं कि जो सामान चाहिए, एक दिन पहले बता दिया करिए, तभी आ पाएगा.“
यदि निशा या मम्मी जी कहतीं तो शायद उसे इतना बुरा न लगता लेकिन प्रकाश के यह कहने पर वह व्यथित हो उठी थी.
उसे घर आए लगभग 6 महीने से ज्यादा बीत चुका था. वह अपने लिए चाय बना रही थी. तभी निशा उसे सुनाने के लिए कह रही थी, ‘मम्मी जी, भाभी को समझा देना, अब भाईसाहब नहीं हैं और कोविड के कारण काम पहले जैसा नहीं चल रहा है, इसलिए अपनी राजशाही न दिखाया करें, सोचसमझ कर सामान मंगाया करें.’
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उस के दिल पर आघात पर आघात लगता जा रहा था. बच्चों के लिए बोर्नविटा नहीं, फल नहीं…
वह अपने कमरे में उदास बैठी थी. तभी मम्मी जी ने आवाज दी, “निभा, आज बूआ जी आ रही हैं. कोई हलके रंग का सूट पहन लेना. वे पुराने खयालों की हैं. माथे पर बिंदी भी मत लगाना.” समझदार के लिए इशारा काफी होता है. उस दिन उस ने अपने वार्डरोब से सारी रंगबिरंगी साड़ियां और सूट हटा दिए. फिर वह रो पड़ी… निश्चल, जब इतनी जल्दी आप को जाना था तो मेरे जीवन में इतने सारे रंग क्यों भर दिए थे.
अब तो सिलसिला चल निकला था. कभी बूआ तो कभी ताई तो कभी चाची- मिलने के नाम पर उसे रुलाने को आया करती थीं. वह कुछ नौर्मल होने की कोशिश करती कि फिर कोई आ धमकता और फिर वही गमगीन माहौल…
मम्मी जी का भी रवैया बदल गया था, “निभा, अब तुम निश्चल की विधवा हो. थोड़ा समझदारी से पहनाओढा करो. अब तुम्हारे हाथों में रंगबिरंगी चूड़ियों को देख कर लोग क्या कहेंगे. विधवा हो विधवा की तरह रहा करो.”
वे व्यंग्यबाण चला उस के अंतर्मन को लहुलुहान कर बाहर निकल रही थीं तभी निश्चल की बड़ी मौसी आ गईं. वे मम्मी जी पर नाराज हो कर बोलीं, “कैसी बात करती हो सुनैना, फूल सी बच्ची को ऐसा बोलते तुम्हारा जी नहीं दुखता?“ उन्होंने मम्मी जी के सामने ही उस के माथे पर बिंदी लगा दी थी और कहा, ”बेटी, तुम जैसे पहले रहतीं थीं वैसे ही रहा करो. सुनैना को तो तेरे से ज्यादा दूसरों की फिक्र हो रही है.” निभा उन के गले लग कर घंटों सिसकती रही थी.
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