सुहागन: पति की मौत के बाद किस ने भरे प्रिया की जिंदगी में रंग

क्षण भर में इतना बड़ा हादसा हो जाएगा प्रिया को पता न था. 2 घंटे पहले ही तो प्रवीण ने रात का खाना खाया था. फिर वह बिछावन पर ही पर्स और कागजकलम ले कर बैठ गया था. उस ने प्रिया से कहा था कि वह और पुनू सो जाएं. उसे कुछ हिसाब लिखना है, उस के बाद ही वह सोएगा.

प्रिया जब सवेरे सो कर उठी तो उस ने प्रवीण को जगाना चाहा पर यह क्या…उस का तो शरीर ठंडा पड़ चुका था. प्रवीण का लिखा हिसाब पर्स में अभी तक रखा हुआ था. कल ही तो वह अपनी तनख्वाह ले कर आया था. एक कागज में राशन का खर्च लिखा था और उस की रकम अलग रखी हुई थी. दूसरे कागज में पुनू की स्कूल फीस व अन्य खर्चे दर्ज थे और उन के लिए रुपए अलग कर दिए थे. प्रवीण आखिरी प्लान बना कर चला गया. उस ने अपने खर्चों का, अपनी गाड़ी के पैट्रोल का और जेबखर्च का कोई हिसाब नहीं लिखा था, शायद उसे मालूम हो कि अब इस की जरूरत नहीं.

प्रिया ने प्रवीण का सूटकेस खोला. उस में रखा सारा सामान ज्यों का त्यों पड़ा था. एकएक चीज को प्रवीण बड़े करीने से सजा कर रखता था. औफिस के कागजात रखने के लिए अलग ब्रीफकेस था. व्यक्तिगत चीजों का एक रजिस्टर था जिस में वह खुद के और प्रिया के नाम निवेश, शेयरों, डिबैंचरों, म्यूचुअल फंडों, जीवनबीमा पौलिसियों और बैंकों में सावधि जमा के खाते आदि दर्ज करता था.

दफ्तर से आते ही वह यह रजिस्टर ले कर बैठ जाता था. कई बार प्रिया उस के इस काम से ऊब कर फटकार भी दिया करती थी. प्रवीण बोलता, ‘ये सब तो भविष्य के लिए हैं…मेरे लिए, तेरे लिए और इस छोटी पुनू के लिए.’

प्रवीण को प्लान करने की आदत थी. बड़ी प्लानिंग, छोटी प्लानिंग और रोजमर्रा की प्लानिंग यानी प्लान करना ही उस की जिंदगी थी. वह कहा भी करता था, ‘प्रिया, बिना प्लानिंग के जिंदगी कुछ भी नहीं है. जितने दिन जियो अपने अनुसार जियो. यह जिंदगी बहुत छोटी होती है और कामों की शृंखला बहुत लंबी होती है. अपने सोचे हुए काम अगर पूरे नहीं हुए तो मन में मलाल रह जाता है. इसलिए कामों को चुनना है, जितने जरूरी लगें उतने ही पूरा करने की कोशिश करो. बाकी छोड़ो. वे तुम्हारे नहीं हैं. वे बस मोह हैं. इस मोह को त्यागना है.’

‘सचमुच तुम ने मोह त्याग दिया प्रवीण,’ अनायास प्रिया के मुख से निकला, ‘तुम ने प्लान किया मुझे अकेली छोड़ने का. ऐसा स्वार्थी तुम्हारा प्लान निकला. तुम ने सिर्फ अपना प्लान किया. मेरी जिंदगी की भी प्लानिंग कर के जाते.’

अपने पर्स को दफ्तर से आते ही प्रवीण इसी सूटकेस में रख दिया करता था. सूटकेस खोलते ही प्रिया को वह पर्स मिल गया. धीरे से प्रिया ने पर्स खोला. एक रंगीन पासपोर्ट साइज में प्रवीण का आइडैंटिटी कार्ड देखते ही उस की आंखों से आंसू छलक आए.

कहते हैं कि जीवनमरण प्रकृति के हाथ है. आदमी चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता. प्रिया सोचने लगी कि प्रकृति की यह कितनी बड़ी बेईमानी है. उस की शादी हुए मात्र 5 साल ही तो बीते हैं. एक स्वयंवरा की तरह उस ने प्रवीण के गले में वरमाला डाली थी. स्त्रीपुरुष का संबंध क्या इतना क्षणिक होता है? अभी उस ने जिंदगी देखी ही क्या है? क्यों प्रकृति ने उस का सुखचैन छीन लिया. उस का कुसूर ही क्या है?

इस जन्म में तो नहीं, तो क्या सचमुच कुछ जन्म और भी होते हैं? क्या किसी पूर्व जन्म का उस का किया कोई पाप है? लोग तो यही कहते हैं.

प्रिया के मम्मीपापा ने उसे समझाया, ‘बेटी, पाप, धर्म कुछ भी नहीं है. कौन कहता है कि तुम्हें किसी पाप का फल मिला है. बेटी, इस दुनिया में किसी को फूल मिलते हैं तो किसी को कांटे. जिस के हिस्से कांटे आते हैं वह संघर्षशील बन जाता है. जीवन तो एक संघर्ष है. इस को सहज रूप में लेना चाहिए. जो होना था वह हो गया. हिम्मत से काम लो. उठो, अपने को सहज बनाओ.’

कैसे सहज कर ले अपने को प्रिया? यह दुख क्या एक दिन का है जो सुबह होते ही दूर हो जाएगा अथवा किसी दवा द्वारा छुटकारा मिल जाएगा. क्या वैधव्य से भी बड़ा कोई दुख होता है एक स्त्री के लिए? एक विधवा का क्या स्थान होता है इस समाज में, वह खूब जानती है.

प्रिया को अच्छी तरह याद है, गांव में उस के दूर के एक रिश्ते की भाभी हुआ करती थीं जो बालविधवा थीं. लोगों ने उन का सिर मुंडवा दिया था. एक सादा धोती पहना करती थीं वे. अपने अंधेरे कमरे से गांव के मंदिर तक का ही था उन का संसार. शादीविवाह के शुभ अवसर पर उन की उपस्थिति की मनाही थी. उन की छाया तक से लोग दूर भागते थे.

प्रिया भी अब एक विधवा है. पति के दाहसंस्कार के दिन सास ने उस के हाथों की चूडि़यां तोड़ कर पानी में फेंक दी थीं. बिंदी और माथे का सिंदूर धुल गया. वह सुहागन नहीं रही. लोग उस से घृणा करेंगे. घर से और समाज से कट कर रह जाएगी वह. अब तो यही उस का हश्र है. क्या वह इस स्थिति को स्वीकार कर ले? नहीं, यह एक बुजदिली होगी. वह नए जमाने की लड़की है. वह दुनिया का सामना करेगी. वह गांव की निरीह भाभी नहीं बनेगी. जिंदगी में एक हादसा ही नहीं आता और भी आ सकते हैं, पहले से भी बड़े. तो क्या वह जिंदगी इसी तरह हारती रहेगी, नहीं, कदापि नहीं.

प्रिया ने पर्स को मोड़ कर ज्यों का त्यों रख दिया. अनायास उस का हाथ सूटकेस की पौकेट में चला गया.

इस पौकेट में प्रवीण द्वारा लाई लहठी (एक प्रकार की चूड़ी) रखी थीं जो कुछ दिनों पहले वह प्रिया के लिए लाया था. लेकिन अब वह इन लहठियों का क्या करेगी? किस के लिए पहनेगी अब? कौन देखने वाला है इन्हें? जो चाव से ले कर आया वही नहीं रहा. ये सब चीजें तो सुहागनों के लिए होती हैं न, वह तो अब सुहागन भी नहीं रही. उस की आंखों से फिर आंसू टपकने लगे.

कुछ देर के लिए वह निष्क्रिय हो गई. घर का सामान आदि जब भी कभी वह देखने लगती है तो ऐसा ही होता है. घर में उलटपुलट करने की आदत उस की पुरानी है. प्रवीण बारबार कहा करता था, ‘यह क्या तुम घर की चीजों की उठापटक में लगी रहती हो. क्या तुम्हें और कोई काम नहीं? क्यों नहीं तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करती हो? मैं इस बार पटना जा कर तुम्हारे नए कोर्स की सारी किताबें ला देता हूं.’

प्रवीण फिर पटना नहीं जा पाया और प्रिया की पढ़ाई अधूरी ही रह गई. वह एमए नहीं कर पाई. अब तो और भी कुछ करने का उस का मन नहीं करता. पुनू को स्कूल पहुंचाने का काम आया कर देती है. स्कूल का रिकशा दोपहर में पुनू को घर पहुंचा जाता. पुनू स्कूल से आती है तो कुछ देर के लिए उस के साथ उस का मन बहल जाता, लेकिन पुनू के बारबार पूछने पर कि उस के पापा कब तक आएंगे? वह कुछ भी जवाब नहीं दे पाती. प्रवीण के मृत शरीर को जब श्मशानघाट ले जाया जा रहा था तब पुनू सवाल कर बैठी थी, ‘क्यों पापा को इस तरह लिए जा रहे हैं?’ उत्तर में प्रिया बोली थी, ‘तुम्हारे पापा की तबीयत रात से ही खराब है न, उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा है. जल्द ही वे अच्छे हो कर वापस आ जाएंगे.’

एक महीना गुजर गया लेकिन प्रिया पुनू के सवाल का जवाब नहीं दे पाई. पिछली शाम जब वह पुनू के साथ छत पर बैठी थी तब पुनू ने वही सवाल फिर किया था. अचानक प्रिया के मुख से निकल गया, ‘वह देखो, सब से बड़ा तारा जो तुम्हें दिखाई दे रहा है वही तुम्हारे पापा हैं. जब तुम्हें पापा की याद आए तब तुम इसी तारे को देख कर उन्हें पुकारना. वे सपने में तुम से मिलने जरूर आएंगे.’

इस तरह कितने दिन प्रिया पुनू को ढाढ़स देती रहेगी? कभीकभी वह सोचती कि इस पहाड़ सी जिंदगी को कैसे जी सकेगी. अब इस जिंदगी में रखा ही क्या है? किस सुख के लिए वह जिएगी? क्यों न वह मर जाए? जहर खा कर अपनी जीवन लीला खत्म कर दे? यह 5 वर्ष की बेटी पुनू जो उस की नजरों के सामने आ जाती है, नहीं तो उसी दिन जिस दिन प्रवीण का हादसा हुआ, वह भी अपना अंत कर लेती. पुनू के लिए ही तो उस को जीना होगा, चाहे जैसे भी हो, दुख से या सुख से, ताने सह कर या फिर लांछन सह कर. वह औरत है, एक विधवा, जिसे समाज बारबार ठुकराएगा, दुतकारेगा.

‘चल बेटी, यहां से अब चल. क्या करेगी यहां रह कर अब अकेली. प्रवीण की बीमा और भविष्य निधि आदि का सैटलमैंट तो घर से भी किया जा सकता है. वह मुझ पर छोड़ दे. मैं पटना से ही ये सब काम कर लूंगा,’ पापा ने उसे साथ ले जाने की जिद की थी.

प्रिया ने उन की बातों का कोई जवाब नहीं दिया था. वह सोच रही थी कि कितने दिन मां और पापा अपने साथ उस को रख पाएंगे. 5 वर्ष, 10 वर्ष. फिर उस के बाद घर में 2 छोटे भाई हैं. माना, वे उस को बेहद प्यार करते हैं. भाइयों की शादियां होंगी. एक विधवा ननद को भाभियां क्या सहज रूप में स्वीकार कर लेंगी? उस को उन लोगों के भरोसे ही तो जीना पड़ेगा. गांव की विधवा भाभी की ही तरह वह भी जिएगी.

मां ने भी उस को बहुत समझाया था कि तुम्हारे पापा ठीक ही कहते हैं बेटी. उन की बातें मान ले और घर चल. हम समझेंगे कि हमारी बेटी कुंआरी ही है. हम अपनी दुलारी बेटी को पाल लेंगे.

मां कहने को तो कह गईं, लेकिन वे खुद इस बात को समझती हैं कि उन के कथन में जरा भी सचाई नहीं है. कोई भी मां अपनी बेटी को जिंदगी भर नहीं पाल सकती. उस की ममता, उस का प्यार उस की थोड़ी सी जिंदगी तक ही सीमित है.  अपना भार बेटों या बहुओं पर नहीं थोपा जा सकता.

प्रिया गांव वाली भाभी की तरह दूसरों की दया पर नहीं जीना चाहती थी. उस ने मां को दोटूक जवाब दिया था, ‘तुम पापा को समझा दो मां कि वे मेरे लिए अधिक चिंता न करें. वे खुद ही कितने कमजोर हैं. इतनी सोचफिक्र करने से उन की सेहत और भी खराब हो जाएगी. मैं अपना दुख सहन करना सीख लूंगी, मां.’

प्रिया का जवाब सुन कर मां की आंखें छलछला उठी थीं. फिर उन्होंने प्रिया से साथ चलने को नहीं कहा.

प्रिया ने बिंदियों के पैकेट से एक छोटी सी बिंदी निकाली और ड्रैसिंग टेबल के सामने खड़ी हो कर अपने माथे पर लगा ली. कुछ देर के लिए उसे लगा कि जैसे उस ने कोई गुनाह किया हो. फिर उस ने अपने मन को समझाया, वह गांव वाली भाभी की तरह कभी नहीं बनेगी. यह बिंदियां तो प्रवीण ने उस को बड़े प्यार से दी हैं. इन पर तो केवल उसी का अधिकार है. उस की याद में वह इन्हें हमेशा अपने साथ रखेगी, चाहे लोग उसे कुछ भी कहें. ये कड़वे सच की तरह हैं, जिन्हें वह प्रवीण के लिए जिंदगी भर संजो कर रखेगी. बिंदी वाले पैकेट को उस ने फिर वापस रख दिया. अचानक उस की नजर प्रवीण की कंपनी के प्रबंधनिदेशक द्वारा भेजे गए उस लिफाफे पर पड़ी जो एक दिन पहले ही उसे मिला था. लिफाफा खोल कर उस ने पत्र निकाला और पढ़ने लगी. प्रबंधनिदेशक ने लिखा था, ‘प्रवीण के असमय निधन से कंपनी के हम सभी लोग दुख से स्तब्ध रह गए हैं. आप पर क्या गुजरती होगी, इसे हम अच्छी तरह समझते हैं. हम आप से अनुरोध करते हैं कि प्रवीण की जगह ले कर आप कंपनी की सेवा में आ जाएं. आप का समय भी कट जाएगा और हमें खुशी होगी कि हम अपने पूर्व कर्मचारी के परिवार के लिए कुछ कर सके.’

प्रिया कुछ क्षण सोचती रही और फिर उस ने फैसला ले लिया कि वह नौकरी जरूर जौइन करेगी…बिना देर किए. उस ने सूटकेस से साड़ी निकाली और डै्रसिंग टेबल के सामने आ कर खड़ी हो गई. साउथ सिल्क की साड़ी में वह खूबसूरत दिख रही थी. जैसे ही उस ने माथे पर बिंदी लगाई, उसे लगा जैसे गहरे अंधेरे के बाद उजाला हो गया हो. प्रवीण का दफ्तर वाला बैग उस ने अपने हाथ में उठाया और मां को कहा, ‘मां, पापा से कह देना, मैं उन के साथ नहीं जा सकती, मैं ने अपना रास्ता चुन लिया है. मैं प्रवीण की कंपनी जौइन कर रही हूं.’

मां प्रिया को एकटक देखती रहीं. उस के माथे की बिंदी और चेहरे के तेज भाव को. प्रिया का वह एक दूसरा ही रूप था जिसे देख कर मां के मन में कुतूहल के साथ एक अज्ञात भय पैदा हो गया. पता नहीं, यह लड़की क्या करेगी? घरबाहर किस प्रकार रहना चाहिए इसे मालूम नहीं? कुदरत ने उस से शानोशौकत, खानपान, रहनसहन और सामान्य ढंग से जीने का हक छीन लिया है, क्या वह नहीं जानती, कुदरत ने ही उस के साथ खिलवाड़ किया है? तब सच को छिपाने से क्या फायदा? अपने धर्म और परिवार का खयाल रखना पड़ेगा. आने दो आज, समझाऊंगी मैं उसे, एक विधवा को कैसे रहना है और कैसे जीना है.

शाम को प्रिया जैसे ही अपने दफ्तर से लौट कर आई, मां ने उसे अपने पास बैठा लिया. प्रिया बहुत खुश थी. मां से उस ने कहा कि दफ्तर का माहौल उस के माकूल है. एमडी से ले कर जीएम, अन्य अधिकारी तथा स्टाफ के सभी सदस्यों से उस को आदर मिला. प्रवीण कंपनी में एजीएम के पद पर था.

वही जगह प्रिया को भी मिली. दफ्तर में एक एजीएम का एक और पद है जिस पर फिलहाल मुंबई से सतीश ने जौइन किया है. सतीश और प्रवीण ने एक ही दिन नागपुर में कंपनी में जौइन किया था. सतीश से नागपुर में ही प्रिया की मुलाकात हुई थी. एक बार प्रवीण ने अपने घर उसे खाने पर बुलाया था, फिर उस का ट्रांसफर मुंबई हो गया. आज दफ्तर में उस से भेंट होने पर पुरानी याद ताजा हो गई. उस ने प्रवीण की मृत्यु पर काफी अफसोस प्रकट करते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप इस दफ्तर में आ गईं, अच्छा हुआ.’’

‘‘यह सब तो ठीक है बेटी. कंपनी जौइन कर ली, मैं मना नहीं कर रही लेकिन तुम इस तरह मत रहो कि लोग तुम पर उंगली उठाएं. तुम्हें रंगीन कपड़े, बिंदी छोड़ कर सादे ढंग से जीना है,’’ मां ने जैसे अपना हुक्म जारी कर दिया.

‘‘मां, ऐसा न कहो, मैं एक विधवा की तरह नहीं जी सकती. मेरा दम घुट जाएगा. मेरी पुनू मर जाएगी. मुझे इन खोखले बंधनों से उबरने दो, मां. मैं अपनी जिंदगी को अपनी बेटी के साथ भरपूर जीना चाहती हूं. मुझे बल दो मां कि मैं इन बुरे रीतिरिवाजों का खुल कर सामना कर सकूं,’’ प्रिया ने अपना साहस दिखाया.

‘‘यह कैसे होगा बेटा, मैं मान भी जाऊं लेकिन तुम्हारे पापा, अपना धर्म, यह समाज हमें सुखचैन से नहीं रहने देगा.’’

‘‘उस की चिंता तुम मत करो मां. हमें ढंग से जीने का पूरा अधिकार है. जो धर्म हमें अपने पथ से डिगा दे उसे हम नहीं मानते और यह समाज जो खुद कुरीतियों के दलदल में फंसा हुआ है, उस की हम क्यों सुनेंगे. हम जैसा करेंगे समाज वैसा ही बनेगा.’’

मांने फिर कुछ जवाब नहीं दिया. शायद, प्रिया की बातों का उन पर अनुकूल असर हुआ. वे समझने लगीं कि जमाना अब बदल गया है. नए विचारों का साथ देने में ही अब भलाई है. वक्त के साथ पुराने पत्ते झड़ते गए और उस की जगह नए पत्ते मुसकराने लगे. प्रिया के भीतर भी नईनई कोंपलें उग आईं. दफ्तर में प्रिया का मन लगने लगा. वहां काम करने वाले सभी कर्मियों से उस की दोस्ती बढ़ती गई, खासकर सतीश से. एक दिन सतीश को उस ने अपने घर बुला कर मां से भी मिलाया. मां ने उत्सुकतावश उस से पूछ ही लिया कि वह कहां का रहने वाला है, उस के घर और कौनकौन हैं तथा वह किस बिरादरी का है? सतीश ने स्पष्ट शब्दों में मां को समझाया था कि वह रांची के आदिवासी परिवार से है. उस के घर में मातापिता और शादीशुदा 2 बहनें हैं. वैसे हम खांटी हिंदू हैं. लेकिन किसी दकियानूस धर्म या नीति से बंधे नहीं हैं. हमारा परिवार एक उन्मुक्त परिवार है. उस में दुनिया की सभी जातियां और धर्म समाहित हैं. इंसानियत ही हमारी जाति है और वही हमारा धर्म है.

‘‘बेटा, यह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन हमारा समाज और धर्म इस की इजाजत नहीं देते. हम इन से बंधे हैं. अपने मन से कुछ नहीं कर सकते.’’

‘‘मांजी, आप लोगों को कुछ नहीं करना. करने वाले तो हम लोग हैं ही. आप बुजुर्ग लोग बस स्वीकारते जाइए. समाज और धर्म में बदलाव अपनेआप आ जाएगा.’’

‘‘ठीक है बेटा.’’

‘‘मांजी, आप ने स्वीकार कर लिया, फिलहाल बस इतना ही काफी है,’’ सतीश बोल कर जैसे निश्ंिचत हो गया.

एक दिन आखिर सतीश ने प्रिया के सामने शादी का प्रस्ताव रख ही दिया. इस पर प्रिया ने कहा, ‘‘मेरे साथ मेरी 5 वर्ष की बेटी पुनू भी है सतीश, क्या तुम उसे स्वीकार करोगे?’’

‘‘ऐसा क्यों बोलती हो? पुनू तुम्हारी बेटी है तो वह मेरी बेटी भी है. हमारे लिए एक बच्चा काफी है अब और की हमें जरूरत नहीं.’’

‘‘मुझ जैसी एक बच्ची की मां और विधवा औरत से तुम शादी के लिए तैयार हो गए सतीश, यह तुम्हारा बड़प्पन है.’’

‘‘अरे, तुम्हारी तुलना में मेरा बड़प्पन कोई अर्थ नहीं रखता, प्रिया. तुम जैसी उच्च खानदान की लड़की एक आदिवासी से संबंध करने को तैयार हो गई, इस पर आज ही नहीं, आने वाली पीढ़ी भी नाज करेगी. धर्म, समाज और जातिवाद की कुरीतियों पर जो तुम ने कुठाराघात करने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है.’’

आखिर दोनों की सहमति मिल गई और एक दिन दफ्तर के सहकर्मियों के साथ दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली. मां ने जाना तो प्रिया से बस इतना ही कहा कि मैं तो मान गई लेकिन तुम्हारे पापा बर्दाश्त नहीं करेंगे और धर्मसमाज से तुम्हें जिंदगी भर लड़ना पड़ेगा.

प्रिया ने मां को साथ रहने के लिए मना लिया. सोचा, मां साथ रहेंगी तो पापा जरूर आएंगे और किसी भी तरह उन्हें वह मना ही लेगी. यह सोच कर ही प्रिया के भीतर एक खुशी की लहर दौड़ गई.

प्रिया ने अपने ऊपर लगने वाले विधवा के ठप्पे का अंत कर दिया. कोई अब उस को विधवा नहीं कह सकता. वह सदा सुहागन रहेगी. अब उस की ओर कोई उंगली नहीं उठा सकेगा.

लेखक- बिलास बिहारी

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