स्वयंसिद्धा: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

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स्वयंसिद्धा- भाग 3: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

जब उस ने कालेज में प्रिंसिपल को अपना त्यागपत्र सौंपा, तो उस को यात्रा की शुभकामनाएं देने के साथ ही वे यह कहे बिना न रह सके, ‘‘मिसेज राणा, आप जैसे टीचर्स की हमें सदैव जरूरत रहती है. यदि कभी भी वापस आएं तो आप का यहां स्वागत ही होगा.’’

अपनों व परिचितों की ढेरों शुभकामनाएं लिए व सुखद भविष्य की कामना करती स्मिता हिम्मत कर के पलक के साथ अमेरिका के लिए रवाना हो गई. दिल में कहीं पति से मिलने की उमंग थी, तो थोड़ा अबूझा सा डर भी. पर साथ ही स्वयं पर हर स्थिति से निबटने का विश्वास भी था. इसी के सहारे वह इस अनजाने सफर पर निकल पड़ी थी. अचानक उसे आया देख आशुतोष कितना चौंक उठेंगे… क्या प्रतिक्रिया होगी उन की? इन्हीं विचारों में उलझी स्मिता ने 16-17 घंटे का लंबा सफर तय कर जब अमेरिका की धरती पर कदम रखा, तो उस की हवाएं उसे बेहद अपनी सी लगीं क्योंकि आशुतोष भी तो वहीं था.

एक प्रीपेड टैक्सी ले कर, उसे पता बता, वह बेटी के साथ अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली. आधे घंटे के बाद एक छोटे सुंदर से घर के सामने जा कर टैक्सी रुक गई. स्मिता ने नेमप्लेट चैक की. वह सही पते पर पहुंची थी. उसे उतार कर टैक्सी लौट गई और स्मिता ने कालबैल का बटन दबाया, तो एक 15-16 वर्षीय लड़की दरवाजा खोल प्रश्नवाचक नजरों से उसे देखने लगी. पर स्मिता द्वारा अपना परिचय देने पर वह दरवाजा पूरा खोल, एक तरफ हट गई. पर उस की निगाहों में छिपा असमंजस स्मिता से छिप न सका था.

अंदर आते हुए स्मिता ने पूछा, ‘‘डा. राणा नहीं हैं घर पर?’’

‘‘वे और रिया मैडम 1 घंटे में आ जाएंगे,’’ उस का सामान अंदर रखती वह युवती बोली.

‘‘तुम्हारा क्या नाम है? सारा दिन यहीं रहती हो क्या?’’

‘‘जी चीना…’’ कुछ सकुचाते हुए वह बोली, ‘‘मैडम और साहब के आने पर चली जाती हूं. उन के आने तक घर की देखभाल व अन्य काम खत्म हो जाते हैं. मैडम, आप दोनों फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं कुछ नाश्ता वगैरह लाती हूं.’’ तत्परता से उस का सामान एक कमरे में रख वह चली गई.

स्मिता एक नजर साफसुथरे, सुसज्जित कमरे पर डाल कर अटैची खोलने लगी. कमरा गैस्टरूम ही लग रहा था, क्योंकि किसी पर्सनल यूज की कोई चीज वहां नजर नहीं आ रही थी. जब वे दोनों तैयार हो कर आईं तो चीना कौफी व नाश्ता ट्रौली पर सजा कर ड्राइंगरूम में ले आई. नाश्ता कर के स्मिता एक मैगजीन के पन्ने पलटने लगी. आशुतोष के आने में अभी 15-20 मिनट बाकी थे. पलक वहीं पास में खेल रही थी. काम खत्म कर के चीना अपना बैग उठा कर जाने लगी, तभी आशुतोष व रिया एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले बातें करते हुए अंदर आए. स्मिता को सामने बैठा देख आशुतोष बुरी तरह चौंक गया, उस के चेहरे का रंग उड़ गया. सकपका कर उस ने रिया का हाथ छोड़ दिया. रिया उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देख रही थी, तभी पलक दौड़ती हुई आ कर आशुतोष से, ‘पापा…पापा…’ कहती हुई लिपट गई. पापा…? रिया ने हैरानी से उसे देखा. फिर पूछा, ‘‘क्या यह तुम्हारी डौटर है?’’

‘‘ओह नो… ये मेरी रिलेटिव हैं और यह इन्हीं की बच्ची है. इस के पापा दुबई गए हुए हैं, इसलिए यह शुरू से मुझे ही पापा कह कर बुलाती है,’’ स्मिता की तरफ इशारा कर उस से नजरें चुराता आशुतोष साफ झूठ बोल गया.

सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि स्मिता को कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं मिला. एक क्षण में वह बिलकुल बेगानी बना दी गई. ऐसी परिस्थिति की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. अभी इस आघात से वह उबर भी न पाई थी कि रिया ने उसे अभिवादन किया और ‘यहां अपने घर जैसा फील करें,’ कह कर अंदर की तरफ बढ़ गई.

तभी उसे आशुतोष का स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे स्मिताजी, आप अचानक यहां? कम से कम खबर तो कर दी होती आने की…’’ कहतेकहते आवाज में नाराजगी स्पष्ट झलक उठी थी.

रिया के आंखों से ओझल होते ही वह रोष भरे स्वर में बोला, ‘‘तुम से मैं ने अभी आने को मना किया था न… इतनी जल्दी क्या थी… आने से पहले कम से कम एक फोन तो कर दिया होता.’’

‘‘कैसे करती फोन… न आप का मोबाइल मिलता था, न आप ने ही महीने भर से फोन किया. घर में सब कितने परेशान थे और यह क्या तमाशा है? अब मैं एक रिलेटिव हो गई हूं, बस? और पलक… पलक आप की बेटी नहीं है?’’ कहतेकहते अपमान व पीड़ा से स्मिता की आंखें भर आईं. विदेशी धरती पर वह कितनी अकेली हो गई थी.

एकाएक आशुतोष का स्वर कुछ नर्म पड़ा, ‘‘मेरा मोबाइल कुछ खराब हो गया था. और देखो स्मिता, विस्तार में मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा. आज की हकीकत यह है कि रिया से चर्च में मेरी शादी हो चुकी है. वह मुझे बैचलर समझती थी. मेरा प्लान था कि बाद में मैं उसे किसी तरह समझा कर मना लूंगा. वह मुझे बहुत चाहती है, मेरी खुशी के लिए वह मान भी जाती. तब मैं तुम दोनों को भी यहीं बुला लेता. पर तुम ने इस तरह आ कर मेरा सारा प्लान चौपट कर दिया.’’

‘‘और आप ने जो मेरी जिंदगी चौपट कर डाली है उस का क्या? ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई थी, जो आप ने यह सब किया? आप ने यह सोच भी कैसे लिया कि इस योजना में मैं भी सहभागी बनूंगी? मुझे इस तरह धोखा दे कर आप ने अच्छा नहीं किया. हम सब की छोड़ो, पलक तक का ध्यान नहीं आया आप को?’’ बेबसी में उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘देखो, मैं जानता हूं मैं गलत कर रहा हूं. पर रिया से संबंध बना कर यहां की हाई सोसाइटी में मेरी अच्छी पैठ हो गई है. इस के पिता काफी ऊंची पोस्ट पर हैं. उन्होंने मुझे कई तरह के बेहतर अवसर दिलाए हैं. आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में कितनों को ऐसे मौके मिलते हैं. तुम थोड़ा इंतजार करो बस, रिया को मैं जल्द ही मना लूंगा. फिर तुम दोनों भी यहीं आ जाना.’’

3 दिन बाद आशुतोष इंडिया जाने के लिए निकल पड़ा. एक लंबे अरसे के बाद अपने देश की मिट्टी की गंध महसूस कर उसे रोमांच हो आया. एक होटल में ठहरने का बंदोबस्त कर के वह एक टैक्सी कर रोनित से लिए पते पर जा पहुंचा.

थोड़ी देर पहले ही घर लौटी स्मिता कौफी का सिप लेती हुई ड्राइंगरूम में आ कर बैठी ही थी कि कालबैल बजी. स्मिता ने दरवाजा खोला तो सामने आगंतुक को देख चौंक उठी.

‘‘आप… आज अचानक यहां कैसे?’’

‘‘क्या अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?’’

‘‘ओह… आइए…,’’ हिचकिचाहटपूर्वक एक तरफ हटती स्मिता ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हम तो ठेठ भारतीय ही हैं, घर आए मेहमान को बैठने को तो कहते ही हैं. घर का पता कहां से मिला?’’

‘‘रोनित से. मैं आज सुबह ही यहां पहुंचा हूं और एक होटल में ठहरा हूं.’’

‘‘मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाने की वजह?’’ स्मिता ने उपेक्षा से पूछा. वह चाह कर भी पति के आने पर स्वयं को खुश नहीं पा रही थी. मन का आक्रोश उस के कहे वाक्यों में झलक ही उठा था.

‘‘स्मिता मैं जानता हूं मैं ने जो कुछ तुम सब के साथ किया, अक्षम्य है. पर मैं तुम से अपनी हर गलती की क्षमा मांगने आया हूं. मेरा अपराध माफी के लायक तो नहीं, पर क्या तुम मुझे माफ कर सकोगी…?’’

बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोली, ‘‘रिया नहीं आई आप के साथ?’’

‘‘नहीं, वह अब इस हालत में नहीं है कि सफर कर सके. मन तो उस का भी बहुत था, पर कैंसर की वजह से बहुत कमजोर हो गई है.’’

‘‘ओह… आई एम सौरी,’’ सपाट से स्वर में स्मिता की आवाज उभरी.

‘‘तुम्हारी तबीयत खराब होने की खबर सुन कर मैं स्वयं को रोक नहीं पाया. अब कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं… जिंदा हूं. आप को क्षमा देने वाले तो अब इस दुनिया में रहे नहीं. रही मेरी व पलक की बात, तो पलक की तो मैं नहीं जानती, हां, अपनी बता सकती हूं. आप के कारण विश्वास टूटने पर प्यार नफरत में बदल गया था. पर नफरत के साथ जी कर जिंदगी तो नहीं गुजारी जा सकती, इसलिए मैं ने आप से नफरत करनी भी छोड़ दी. तब मुझे अपनी बच्ची के साथ जीवनसंग्राम में जूझने का हौसला मिला. आज मैं आप के प्रति उतनी ही तटस्थ हो चुकी हूं, जितनी किसी भी अन्य अजनबी के लिए हो सकती हूं. अब आप हमें शांति से रहने दें और कृपया यहां दोबारा न आएं.’’

‘‘ऐसे न कहो स्मिता… मैं एक बार अपनी बेटी से मिलना चाहता हूं, वह क्या कर रही है आजकल?’’ आशुतोष बेहद भावुक हो उठा था.

‘‘पलक अपनी फ्रैंड के साथ बाहर गई हुई है. काफी देर बाद लौटेगी. आजकल वह इंटर्नशिप के साथ ही एमएस की तैयारी भी कर रही है.’’

‘‘और अभिजीत कैसा है? कौनकौन हैं परिवार में?’’ बात करने के लिए उसे और कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘अभिजीत के 2 बेटे हैं. बड़ा रोनित डाक्टर है, जो कनाडा में आप से मिला था और छोटा अभी इंटर में है,’’ कहते हुए स्मिता उठ कर खड़ी हो गई. परोक्ष रूप से जाने का संकेत पा कर आशुतोष भी उठ खड़ा हुआ.

उस के जाने के बाद स्मिता जीवन में अचानक आए इस मोड़ से थोड़ी विचलित हो उठी. क्या वास्तव में वह कभी उसे भूल पाई थी? कितनी ही रातें उस ने अकेले करवटें बदलते, रोते काटी थीं. क्या उन का कोई हिसाब था? उस का दर्द कौन जान सका था? पति की बेवफाई का जहर पी कर भी वह नीलकंठ सी मुसकराती रही, पलक की खुशी के लिए. पर कहीं अंदर से पति के प्रति उस की समस्त संवेदनाएं मरती चली गई थीं.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी और उस ने रिसीवर उठा लिया, ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘भाभी, मैं अभिजीत बोल रहा हूं, नमस्ते.’’

‘‘ओह अभि भैया, कहिए कैसे हैं आप सब? फोन कैसे किया?’’

‘‘भाभी, बेटी के डाक्टर बनने की मुबारकबाद देना चाहता हूं. सच कहूं तो यह आप की कड़ी तपस्या का ही फल है. बधाई हो.’’

‘‘आप सब को भी बधाई हो. आप सब के सहयोग के बिना तो मैं बिलकुल अकेली थी. इस दिन के लिए आप सब की भी तहे दिल से आभारी हूं. अब तो बस पलक को अच्छा घर और वर मिल जाए तो आखिरी जिम्मेदारी भी पूरी हो जाए.’’

‘‘इसीलिए तो आप को फोन किया है, भाभी… मेरे एक परिचित हैं, मिस्टर तनवीर. वे इनकम टैक्स औफिसर हैं. उन के घर के सब लोग बहुत ही मिलनसार व भले स्वभाव के हैं. उन का बेटा विवेक डाक्टरी पास कर के स्कौलरशिप पर रिसर्च करने कनाडा गया हुआ है. वहां वह रोनित का दोस्त है. रोनित ने विवेक को हर तरह से समझापरखा है. उस की बहुत तारीफ कर रहा था. विवेक अगले हफ्ते 10-15 दिनों के लिए भारत आ रहा है. आप कहें तो मैं पलक के लिए वहां बात चलाऊं?’’ अभिजीत ने कहा.

‘‘यदि आप ठीक समझते हैं, तो जरूर बात कर के देखिए, बल्कि मेरी तरफ से आप उन लोगों को यहां आने के लिए निमंत्रण दे दीजिए.’’

इस के बाद स्मिता ने आशुतोष के आने की जानकारी अभिजीत को फोन पर ही दे दी.

स्वयंसिद्धा- भाग 7: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

हर कक्षा अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण करती हुई पलक अब आकर्षक, बुद्धिमान एवं आधुनिक तरुणी बन चुकी थी. पारिवारिक संस्कार एवं आधुनिकता के अद्भुत संगम वाले व्यक्तित्व की स्वामिनी पलक आधुनिक पीढ़ी की सोच के अनुरूप ही हर बात तार्किक ढंग से सोचनेसमझने में विश्वास रखती थी.

प्रथम श्रेणी में इंटर करने के साथ ही उस का मैडिकल की हर प्रतियोगी परीक्षा में चयन होने से घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. एक लंबे अंतराल के पश्चात स्मिता ने सुख व चैन की सांस ली. बेटी के जीवन की एक दिशा तय होने के सुकून के साथ ही अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वाह कर पाने का संतोष भी था. मैडिकल कालेज में दाखिला होते ही पलक भी दूसरे शहर चली गई. उस के बाद के 5-6 वर्ष तो जैसे महीनों में बंट कर रह गए. हर वर्ष छुट्टियों में पलक के आने पर स्मिता के लिए तो घर में त्योहार जैसा माहौल हो जाता था. जितनी बेकरारी से वह बेटी के आने का इंतजार करती थी, उस के जाने के बाद उतनी ही बेचैन हो जाती. पर उस बेचैनी में भी कहीं गहरा आत्मसंतोष होता था. बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए सभी मांबाप कभी न कभी इस दौर से गुजरते ही हैं. आज बेटी को डाक्टर बन कर अपनी डिगरी प्राप्त करते देख उस के पूरे जीवन की तपस्या मानो सार्थक हो उठी थी.

पुरानी यादों में खोई स्मिता को समय बीतने का कुछ पता ही न चला था. उस ने घड़ी पर निगाह डाली. उसे आए घंटा भर से कुछ ज्यादा ही हो चुका था. पलक के आने का समय हो रहा था. आज पलक की पसंद का पूरा डिनर बनाने वह किचन की तरफ बढ़ गई.

आशुतोष ने स्मिता व पलक को आननफानन वापस तो लौटा दिया था पर रिया के सम्मुख भला बना रह कर भी वह अपनी नजरों में गिर गया था. जहां एक तरफ उसे अपना झूठ न पकड़े जाने का संतोष था, वहीं दिल के किसी कोने में उन दोनों के साथ किए गए अन्याय का अपराधबोध भी.

घर व परिजनों से दूर, बेइंतहा कमाई, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं, ऐसे में माहौल के खुलेपन व समय के खालीपन को भरता रिया जैसी अत्याधुनिक विचारों वाली युवती का संग. वह भूल ही गया कि उस की पत्नी दूर भारत में कहीं उस के आने का इंतजार कर रही है. छोटी सी बेटी बाट जोह रही है. रिया के डैडी के उच्च सामाजिक रुतबे व रिया द्वारा किए गए प्रेम निवेदन की पहल ने उसे अपने विगत को बिसरा एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए उकसाने में अहम भूमिका निभाई थी. जल्द से जल्द समाज में ऊंचा रुतबा हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में शामिल हो कर, अपना जमीर मार कर उस ने पैसा तो बहुत कमाया, परंतु दिल का एक कोना सदैव खाली रहा. पैसे से सुविधाएं ही तो खरीदी जा सकती हैं, संतोष नहीं. वह चाह कर भी कभी रिया को अपने अतीत के बारे में नहीं बता पाया.

विवाह के कुछ ही वर्षों बाद दोनों में अकसर छोटीछोटी बातों पर विवाद हो जाता. पश्चिमी संस्कृति में पलीबढ़ी रिया पति की हर बात तोलपरख कर मानती. रिया का शक्की एवं झगड़ालू स्वभाव अकसर उसे स्मिता की याद दिला जाता. तब पछताने के अलावा वह कुछ न कर पाता. उसे हैरानी भी होती थी कि रिया के स्वभाव का यह शक्कीपन वह पहले क्यों नहीं महसूस कर पाया? मातापिता के न रहने का दुखद समाचार पा कर भी, कुछ तो रिया की गिरती सेहत व कुछ अपने काम के बोझ तले दबा वह भारत जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया.

रिया के स्वास्थ्य संबंधी टैस्टों की रिपोर्ट देख कर तो उस के पैरों तले जमीन ही खिसक गई थी. कैंसर के बेरहम पंजों में दबी वह धीरेधीरे मौत के मुंह में जा रही थी. आशुतोष ने उस के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. महंगी से महंगी दवाओं तथा अत्याधुनिक तकनीकों के सहारे उसे जिंदगी के कुछ वर्ष और मिल गए. उन्हीं दिनों अचानक आशुतोष से मिलने एक आकर्षक नवयुवक उस के घर पहुंचा. अपने भतीजे को पहचानने में उसे अधिक देर नहीं लगी. उसे देखते ही आशुतोष ने उसे गले लगा लिया. बिलकुल उस के छोटे भाई का ही तो प्रतिरूप था रोनित, जिसे सामने देख न जाने कितनी भूलीबिसरी यादें ताजा हो आई थीं.

बचपन से अपने पिता के मुंह से उन के बड़े भाई की बातें गाहेबगाहे सुनते बड़ा हुआ रोनित कनाडा में स्कौलरशिप पर जब पढ़ने पहुंचा, तो बरसों से घर से बिछुड़े सदस्य से मिलने की तीव्र इच्छा दबा न सका और पिता से उन का पता ले कर ढूंढ़ता हुआ पहुंच ही गया. रिया ने भी उस का परिचय जान कर उस की मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बचपन से सब को रिया के खिलाफ बोलते सुनते आए रोनित के मन में रिया की बहुत ही खराब छवि बनी हुई थी पर यहां तो बिलकुल उलटा ही मिला था. देर तक अपना दुखसुख सुनाने के बाद जब आशुतोष को पता चला कि इधर स्मिता की तबीयत हाई ब्लडप्रैशर व कुछ अन्य कारणों से अकसर खराब रहती है तथा कुछ दिन पहले अपैंडिक्स का औपरेशन भी हो चुका है, तो उसे झटका सा लगा था. चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं. रिया के सामने स्मिता के जिक्र से आशुतोष थोड़ा सकपकाया पर रिया अचंभित हुए बिना चुपचाप उन की बातें सुनती रही. आशुतोष ने रोनित से सब के पते ले लिए थे.

रोनित के जाने के बाद आशुतोष व रिया के बीच एक बोझिल सा मौन पसर गया. आशुतोष को हैरानी हो रही थी कि रिया ने उस के अतीत की सचाई जानने के बाद भी उस से कोई प्रश्न क्यों नहीं किया? अनुत्तरित प्रश्नों के भंवर से घिरे आशुतोष ने आखिर इस सन्नाटे को तोड़ते हुए कुछ कहना शुरू किया ही था कि रिया ने अपने निर्बल हाथ से उस की कलाई पकड़ कर उसे रोकने का उपक्रम किया तो वह चौंक गया. उसे रिया की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आशु तुम हैरान होगे कि मैं ने तुम्हारे अतीत के बारे में जान कर भी तुम से कोई प्रश्न क्यों नहीं किया?’’

‘‘दरअसल, मैं खुद तुम्हें बताना चाहता था पर…’’

‘‘बस, अब कुछ नहीं बोलो मेरी सुनो. सच तो यह है कि शादी के कुछ वर्षों बाद ही मैं तुम्हारी पहली शादी के बारे में जान गई थी. जब स्मिताजी यहां आई थीं तब तो मैं उन्हें नहीं जानती थी. पर काफी दिन बाद हमारी मेड सर्वेंट चीना ने मुझे उन के बारे में बताया था. उस दिन उसी ने उन को अटैंड किया था अत: बातोंबातों में वह उन का परिचय जान गई थी. तुम्हें खो देने के डर से न चाहते हुए भी मैं तुम से कुछ पूछ नहीं पाई. सोचा, जैसे चल रहा है चलने दूं. उन का ध्यान आने पर कहीं तुम वापस न चले जाओ. पर तुम्हारे अतीत की जानकारी ने मुझे तुम्हारे प्रति शक्की बना दिया था. तुम्हें प्यार करते हुए भी, तुम पर मैं विश्वास न कर सकी. साथ ही, चाहते हुए भी स्मिता दीदी से कभी माफी न मांग पाई. तुम इंडिया जा कर मेरी तरफ से उन से क्षमा जरूर मांग लेना. अनजाने में ही सही, मैं उन की गुनहगार तो हूं ही.’’

आशुतोष केवल इतना ही कह सका, ‘‘तुम्हें मुझे बताना तो चाहिए था.’’

‘‘तो क्या तुम्हें नहीं बताना चाहिए था? उस समय शायद हम दोनों ही अपनेअपने स्वार्थ में अंधे हो गए थे. तुम्हें खो देने के डर से मेरे होंठ सिले रहे, पर आज जब जिंदगी मुझ से दामन छुड़ाने लगी है, मुझे एहसास हो रहा है कि हम ने स्मिता के साथ कितना बड़ा अन्याय किया है. हमारा रिश्ता ही दुरावछिपाव की बुनियाद पर रखा गया था, तो सुख कहां से मिलता? आज रोनित के मुंह से उन की अस्वस्थता का समाचार सुन कर तुम्हारी आंखों में उभर आई चिंता देख मुझे अपना अपराध और भी खल रहा है. पता नहीं क्यों, मैं तुम दोनों के बीच आ गई,’’ कहतेकहते रिया का स्वर भर्रा उठा.

‘‘मैं सोच रहा हूं एक बार इंडिया जाऊं, सब से मिलूं, पर तुम तो कमजोरी के कारण सफर कर नहीं पाओगी और यहां तुम्हें अकेला…’’

‘‘ओह, तुम मेरी चिंता न करो… मैं यहां मां को बुला लूंगी और नर्स तो 24 घंटे रहती ही है. मैं तो यों भी कुछ ही दिनों की मेहमान हूं, जाने से पहले तुम्हारे जीवन में सब ठीक से व्यवस्थित होता देख लूं तो चैन से मर सकूंगी. तुम जाओ मेरी तरफ से माफी जरूर मांगना,’’ कहतेकहते वह आशुतोष के सीने में मुंह छिपा कर फफक पड़ी. दिल पर रखा बोझ हटते ही आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा था.

स्वयंसिद्धा- भाग 6: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

स्मिता हलके से मुसकराई फिर बोली, ‘‘रुकिए… दूसरों से हम जितनी अपेक्षाएं रखते हैं, यदि उस की आधी भी दूसरों के प्रति पूरी करें तो शायद जिंदगी ज्यादा खुशहाल हो जाए. आज आप ने ईमानदारी से उत्तर दिया तो खुशी हुई कि आप को अपने किए का एहसास है. समस्याएं तो हम सब के जीवन में आती हैं. यह हम पर है कि हम उस समस्या को खींच कर बड़ा बना देते हैं या उस का समाधान ढूंढ़ कर उसे हल करते हैं. कोई भी समस्या इंसान से बड़ी नहीं होती. हम सब इंसान ही हैं, हम से गलतियां भी हो जाती हैं पर कहते हैं, प्रायश्चित्त के आंसू गुनाह धो देते हैं और माफ करने वाला छोटा नहीं हो जाता… ऐसा किसी ने मुझे समझाया है,’’ कहते हुए उस ने कविता की तरफ देखा जिस की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला उठे थे.

‘‘अपने परिवार की खुशी ही सदैव मेरी प्राथमिकता रही है… अगर सब यही चाहते हैं तो…’’ आगे कुछ कहते सहसा वह रुक गई.

उस की बातों का अर्थ समझते ही अभिजीत खुशी से भर उठा, ‘‘मुझे आप से यही उम्मीद थी भाभी…’’ और दौड़ कर आशुतोष को खींच कर स्मिता के बगल में खड़ा कर दिया. मौसी भी खुश हो कर दोनों को ढेरों शुभकामनाएं देने लगीं.

पलक तनिक हैरानी से मां को देखते फुसफुसा कर बोली, ‘‘मां आप के स्वाभिमान को यह गंवारा होगा?’’

‘‘बेटा… मेरा स्वाभिमान तो आज भी अपनी जगह है. पर पति हर स्त्री का अभिमान होता है, उसे कैसे वापस कर दूं?’’

पलक दौड़ कर अपनी मां के गले से लिपट गई. स्वयंसिद्धा के मान ने सब को जीवन की नई खुशियों से भर दिया था.

‘‘हरगिज नहीं… मैं रिया को अभी सब कुछ बता दूंगी. वह भले ही तैयार हो जाए पर मैं तैयार नहीं हूं ऐसी जिंदगी के लिए.’’

आशुतोष ने बिफरते हुए एकाएक स्मिता को चांटा मारने के लिए हाथ उठा लिया तो स्मिता चौंक गई. आशुतोष उसे धमकाते हुए बोला, ‘‘खबरदार जो इस विषय में तुम ने रिया से कोई बात की. तुम्हारे लिए अंजाम अच्छा न होगा, मैं कुछ भी कर सकता हूं.’’

उस का यह रूप देख कर स्मिता में न जाने कहां से हिम्मत आ गई. क्रोध से उस की आंखें लाल हो उठीं, ‘‘मारना चाहते हो? यह शौक भी पूरा कर लो. पैसे की हवस ने तुम्हें अंधा बना दिया है. मुझे यह सोच कर शर्म आती है कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं. बस आज के बाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

उसी क्षण स्मिता ने अपना सामान समेटा व सहमी हुई पलक का हाथ थामे वापस एअरपोर्ट की तरफ निकल गई. रिया तब तक बाहर नहीं आई थी. आशुतोष ने उसे रोकने की कोई चेष्टा नहीं की. चुपचाप उसे जाते देखता रहा.

आते समय स्मिता के मन में जितनी उमंग व उत्साह था, वापसी का सफर उतना ही कष्टप्रद था. सारी घटनाएं एक के बाद एक इतनी तेजी से घटती चली गईं कि कहीं कुछ सोचनेसमझने की गुंजाइश ही नहीं थी. पर अब अकेले सफर में उस के सामने भविष्य की अनेकानेक समस्याएं सिर उठाए खड़ी थीं. पूरा जीवन उसे इसी छले गए विश्वास के दंश के साथ ही बिताना था. नन्ही पलक का क्या गुनाह था जो उसे पिता के प्यार से वंचित रहना पड़ेगा? क्या उसे आशुतोष के साथ उन्हीं परिस्थितियों में समझौता कर के जिंदगी गुजारनी चाहिए थी? तुरंत उस के दिल से आवाज आई, ‘हरगिज नहीं. नारी सब कुछ बरदाश्त कर सकती है पर सौत नहीं.’

बेहद तनाव भरे अगले कुछ घंटे गुजारने के पश्चात घर वापस पहुंच कर स्मिता को कुछ राहत मिली. अप्रत्याशित रूप से तीसरे ही दिन बहू को वापस आया देख मां व बाबूजी हतप्रभ रह गए. पर सहमी, चुप खड़ी पलक एवं स्मिता की उदास व सूजी आंखों से उन्होंने घट चुकी अनहोनी का अंदाजा लगा लिया था. मां को सामने पा कर स्मिता स्वयं को रोक न सकी और उन के गले लग फूटफूट कर रो पड़ी. जब दिल का गुबार कुछ हलका हुआ, तो उस ने उन्हें वहां का पूरा हाल कह सुनाया. सारी बात सुन कर बेटे की नालायकी से मांबाप को गहरा आघात पहुंचा था, पर अपनी पीड़ा भूल कर उन्होंने स्मिता को सांत्वना देते हुए कहा कि वे सब ठीक करने की कोशिश करेंगे.

‘‘अब क्या ठीक होगा मां… बचा ही क्या है? मैं उन पर जबरन कोई रिश्ता थोपना नहीं चाहती. वे यदि इसी में खुश हैं तो यही सही,’’ कह कर स्मिता अंदर चली गई.

स्मिता के पहुंचने के अगले ही दिन आशुतोष का फोन आया. रिसीवर उस के पिता ने ही उठाया था. पिता द्वारा समझाए जाने पर जब उस ने खुद को सही ठहराने का प्रयास किया और सालडेढ़ साल बाद उन्हें अपने पास बुला लेने के लिए कहा, तो उन्होंने उसे कड़ी फटकार लगाते हुए यहां तक कह दिया कि आज से वे सोच लेंगे कि उन का एक ही बेटा है और स्मिता भी अब उन की बहू नहीं, बल्कि बेटी है. वे स्वयं उस की दूसरी शादी करवाएंगे.

पर स्मिता ने दृढ़ स्वर में इसे नकार दिया, ‘‘नहीं बाबूजी… मुझे नहीं करनी है दूसरी शादी. एक गलती उन्होंने की है, अब मैं दूसरी नहीं करना चाहती. बस आप लोगों की छत्रछाया बनी रहे. मेरी जिंदगी का लक्ष्य अब केवल मेरी बेटी का भविष्य होगा. मुझे और कुछ नहीं चाहिए.’’

जिंदगी फिर इतनी आसान नहीं रह गई थी. कालेज की लैक्चररशिप तो उस ने तुरंत ही जौइन कर ली थी. नौकरी अब उस के लिए शौक नहीं वरन एक जरूरत बन गई थी. मुश्किलों के इस दौर में भी उस ने हिम्मत नहीं हारी और वक्त के इम्तिहान में हर चुनौती का सामना पूरे आत्मविश्वास के साथ किया. उस के साथ घटी बात की जानकारी केवल उस के चंद मित्रों व परिवार तक ही सीमित थी. अंजलि ने इस कठिन वक्त में स्मिता को एक सच्चे दोस्त की तरह मानसिक संबल दिया.

कालेज में सब की अपेक्षाओं पर खरी उतरती स्मिता ने घर में भी सारी जिम्मेदारियां बिना कहे ही संभाल ली थीं. मांबाबूजी के मार्गदर्शन में अभिजीत का विवाह एक सुशिक्षित एवं सुशील युवती कविता से तय कर के, बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न कराया. मांबाबूजी दोनों बहुओं की तारीफ करते नहीं थकते थे.

कतराकतरा होती जिंदगी सप्रयत्न सहेज स्मिता सारा दिन स्वयं को अनेकानेक जिम्मेदारियों के निर्वाह में व्यस्त रखती, परंतु कभीकभी नन्ही पलक जब अपने पापा की याद में हुड़कती, तो उस पल को झेलना उसे सर्वाधिक दुष्कर लगता. ऐसे में उसे परिवार वालों का भरपूर सहयोग मिलता. कभी उस के चाचाचाची, जिन्हें पलक छोटे पापा व छोटी मां कहती थी, तो कभी उस के दादादादी, जिन्हें वह बड़े पापा व बड़ी मां कहती थी, अपनीअपनी तरह से उसे बहलाने का प्रयत्न करते थे. स्मिता भी अपनी तरफ से उसे मांबाप दोनों का प्यार देने का पूरा प्रयास करती थी. धीरेधीरे समय अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. अभिजीत का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. दिन महीनों में व महीने सालों में बदलते रहे. वसंत व पतझड़ एक के बाद एक आते रहे.

लंबी बीमारी के बाद ससुर का निधन होने पर घर में सब दुख से भर उठे. आशुतोष ने खबर पहुंचने के बाद भी मात्र संवेदना कार्ड भेज कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. बेटे की हृदयविदारक उपेक्षा का दुख मां को गहरा आघात दे गया था, जिसे वे साल भर से ज्यादा नहीं झेल पाईं और चल बसीं. स्मिता एक तरह से बिलकुल अकेली रह गई थी. नातेरिश्तेदार भी संवेदना व्यक्त कर के अपनेअपने घर जा चुके थे. किशोर होती बेटी व बढ़ती जिम्मेदारियां… कभीकभी वह बेहद थक जाती थी पर फिर नए सिरे से जीवन समर में जूझने के लिए स्वयं को तैयार कर, सजग प्रहरी सी उठ खड़ी होती. उम्र के हर पड़ाव पर पलक को स्मिता का पूरा मार्गदर्शन मिला.

स्वयंसिद्धा- भाग 5: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

अभिजीत ने पलक को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, ऐसे नहीं कहते… आखिर ये तुम्हारे पिता हैं.’’ पर पलक फिर वहां नहीं रुकी, उठ कर अंदर चली गई. अभिजीत के बहुत कहने पर आशुतोष अपना सामान लाने व वहीं रहने के लिए तैयार हो गया. बाजार से लौट कर स्मिता व कविता को सारी बातें पता चलीं. स्मिता

बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए अन्य कार्यों में लग गई. आशुतोष का इस तरह आ कर रहना उसे अच्छा तो नहीं लगा, परंतु उस ने कोई मुखर विरोध भी नहीं किया. हां, अभिजीत व कविता प्रयास करते रहे कि वह पुरानी कटु स्मृतियां भुला कर नए सिरे से अपना जीवन आशुतोष के साथ आरंभ करने के लिए राजी हो जाए.

एक दिन स्मिता का मूड अच्छा देख अभिजीत ने ही बात आरंभ की, ‘‘भाभी, पलक तो शादी के बाद अपने घर चली जाएगी. आप बिलकुल अकेली रह जाएंगी.’’

‘‘हां, सो तो है. पर पलक खुश तो मैं भी खुश. वैसे भी एक न एक दिन तो उसे जाना ही है.’’

‘‘भाभी आप का दिल तो बहुत बड़ा है. मैं सोच रहा था कि यदि बीती बातें भुला कर आप पुन: भैया के साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करें तो…’’

‘‘ओह, तो आप अपने भैया के हिमायती बन कर आए हैं?’’

‘‘नहीं भाभी, आप मुझे गलत न समझें. अपने भाई से पहले मैं आप का छोटा भाई हूं. पर भाभी मैं आप की जिंदगी में भी खुशी देखना चाहता हूं. भैया ने गलती तो की है पर उस का अपराधबोध सदा उन के मन पर हावी रहा. इसीलिए शर्मिंदगी के कारण वे बाद में चाहते हुए भी न आ पाए.’’

‘‘तो अब क्यों आए?’’

‘‘रोनित से आप की बीमारी व औपरेशन की बात सुन कर वे खुद को रोक न सके. उन की आंखों में मैं ने आप के लिए दर्द महसूस किया है.’’

एक क्षण के लिए स्मिता चुप हो गई. समझ वह भी रही थी लेकिन विश्वास करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. पर दिल में कहीं हलकी सी खुशी महसूस हुई.

कविता उसे मनाती हुई बोली, ‘‘भैया की बातों से जो पता चला है, उस से तो यही लगता है कि रिया के साथ उन का पारिवारिक जीवन ज्यादा सुखद नहीं रहा है… यहां आप परेशान रहीं तो आराम उन्हें भी नहीं मिला… न दांपत्य सुख न संतान सुख.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ स्मिता ने चौंक कर पूछा.

‘‘अभिजीत से भैया ने काफी बातें की थीं. उन्होंने ही मुझे बताया है. फिर कुछ गलती तो रिया की भी थी. शादी से पहले उसे भी तो भैया के बारे में पूरी जांचपड़ताल करनी चाहिए थी. बाद में जब उसे अपनी मेड सर्वेंट से हकीकत पता चल ही गई थी, तब भी उस ने इस बारे में कोई बात नहीं की. शायद अपनी गृहस्थी उजड़ने के डर से स्वार्थी हो गई थी. आखिर नारी ही नारी की दुश्मन बन गई न… काश, उस ने खुद को आप की जगह रख कर सोचा होता… वह भैया पर कभी विश्वास नहीं कर पाई और आए दिन उन के बीच टकराव होता रहा. उन का दांपत्य तो चलता रहा पर कागज के फूल की तरह, जिस में विश्वास व प्यार की खुशबू थी ही नहीं.’’

‘‘हां… यह बात तो ये भी कह रहे थे,’’ स्मिता कुछ सोचती सी कह उठी.

कविता स्मिता के पास सरक आई. उस का हाथ अपने हाथों में ले कर प्यार से सहलाते हुए बोली, ‘‘दीदी, हम सचमुच बस आप को खुश देखना चाहते हैं. जब से मैं इस घर में आई हूं, आप को सदा इस घरपरिवार और पलक की चिंता में होम होते देखा है. आज आप को अपने लिए सोचना है. अपनी जिंदगी की खुशियों के लिए सोचना है. मैं आप का दर्द समझती हूं. विश्वास टूटना बहुत तकलीफदेह होता है. पर हम सब इंसान हैं, गलती इंसानों से ही होती है और माफ करने वाला कभी छोटा नहीं होता.’’ कहतेकहते कविता की आवाज भर्रा गई.

प्रत्युत्तर में स्मिता हौले से उस का हाथ दबाते हुए विचारमग्न सी बोली, ‘‘मैं सोचूंगी कविता… पर पलक को समझाना बहुत मुश्किल है. उस बेचारी ने तो कभी पिता का प्यार जाना ही नहीं.’’

‘‘वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उसे समझाऊंगी,’’ कविता उत्साहित होते हुए बोली, ‘‘वह वैसे भी अपने जाने के बाद होने वाले आप के अकेलेपन को ले कर काफी चिंतित है. इसीलिए वह इंडिया छोड़ कर कहीं और जाने की सोचना ही नहीं चाहती.’’

विवाह के मात्र 2-3 दिन ही बचे थे. घर में मेहमान आने आरंभ हो गए थे. कातर स्वर व झुकी आंखों से अपनी गलती स्वीकारता आशुतोष सहज ही सब की सहानुभूति पा लेता था. परिणामस्वरूप, हर कोई स्मिता को ही समझाने लगता कि चलो देर से ही सही अब तो पति लौट आया है. उसे पुरानी बातें भुला कर संबंध सुधार लेने चाहिए.

स्मिता की बुजुर्ग मौसीसास उसे समझाती हुई बोलीं, ‘‘बहू, आशुतोष लौट आया है, इसी में सब्र कर लो. अरे मर्द है, अपनी गलती भी तो मान रहा है. अब आगे की सुध लो.’’

बारबार हर तरफ से दबाव पड़ने पर आखिर एक दिन उस ने पूरे परिवार के सामने आशुतोष से ही सीधे पूछा, ‘‘आप मर्द हैं इसलिए आप की 100 गलतियां माफ हो जानी चाहिए, यही बात सब लोग मुझे समझाना चाहते हैं. क्या मुझे अतीत की सब बातें भुला देनी चाहिए?’’

‘‘हां, यही तो मैं भी कहना चाह रहा हूं. मुझे अपने किए पर अफसोस है. उस वक्त केवल पैसा और उस से हासिल हो सकने वाली हर चीज प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति के साथ महत्त्वाकांक्षाओं की हैवानी भूख इतनी हावी थी कि और किसी के बारे में सोचने का कभी वक्त ही नहीं मिला. बस, मशीन बन कर पैसा ही कमाता रहा पर दिली खुशी कहीं नहीं पा सका. अब मुझ से और क्या चाहती हो बताओ, मैं सब करने को तैयार हूं.’’

‘‘सिर्फ मर्द होने से आप को यह अधिकार किस ने दे दिया कि जब जो चाहें करें?

घर में अजीब सी खामोशी थी. कुछ गलत तो नहीं कह रही थी स्मिता. एक क्षण रुक कर उस ने पुन: कहना शुरू किया, ‘‘अतीत के आप के गलत आचरण के कारण हमें, मां व बाबूजी को जो मानसिक पीड़ा भोगनी पड़ी, क्या उस की क्षतिपूर्ति संभव है? हमारी जिंदगी के वे सुनहरे साल, जो तरहतरह के अवरोधों से जूझने में ही बीत गए, बेटी का मासूम बचपन, जो इस निरपराध ने पिता का प्यार औरों में ढूंढ़ते हुए बिताया, क्या कुछ भी आप लौटा सकते हैं? पतिपत्नी का संबंध, जिसे मैं अटूट समझती थी, आप ने कितनी आसानी से तोड़ दिया था. जीवन के कठिन संघर्षों के दौर में भी मैं तो अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित नहीं हुई… क्या मेरे सामने कभी कोई लुभावना लालच नहीं आया होगा? अब आप के प्रायश्चित्त के 2 शब्द कह देने से जिंदगी के वे अनमोल वर्ष लौट तो नहीं आएंगे. स्त्री बहन, बेटी या मां के रूप में जितनी प्रिय होती है, पत्नी के रूप में उतनी ही पराई क्यों बना दी जाती है?’’

मन का आक्रोश शब्दों की राह बन चला था. वर्षों की पीड़ा आज स्मिता दबा न सकी थी.

स्मिता के आरोपों की मार झेलता आशुतोष चुपचाप सिर झुकाए खड़ा था. बीच में ही उसे शांत कराने की कोशिश करता वह बोल उठा, ‘‘मुझे अपनी गलतियों का एहसास है, स्मिता. मैं तुम सब का गुजरा वक्त तो नहीं लौटा सकता, हां यह विश्वास दिला सकता हूं कि मेरे कारण भविष्य में कभी तुम लोगों की आंखों में आंसू नहीं आएंगे…’’

‘‘पलक आप की भी बेटी है इस नाते उस का कन्यादान करने का आप को पूरा हक है. हां, स्वयं पहल कर के आप का आना मुझे अच्छा लगा पर आज आप से सिर्फ एक बात पूछूंगी. इस का उत्तर पूरी ईमानदारी से दीजिएगा.’’

सब सांस रोके स्मिता का मुंह देख रहे थे. आखिर वह क्या पूछना चाह रही थी.

तभी उस सन्नाटे को भेदती उस की आवाज उभरी, ‘‘जो कुछ आप ने मेरे साथ किया यदि वह कुछ मैं ने आप के साथ किया होता तो क्या आप मुझे माफ कर के अपना लेते?’’

स्मिता की बात समाप्त होतेहोते आशुतोष की नजरें झुक गईं. कुछ पल के बोझिल मौन के पश्चात वह धीरे से बोला, ‘‘नहीं… शायद नहीं… और अपने ही दर्पदंश से आहत थके कदमों से लौटने को मुड़ा.

स्वयंसिद्धा- भाग 2: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

धीरे-धीरे आशुतोष के आने का वक्त भी करीब आता जा रहा था, पर इधर उस के फोन काल्स हर हफ्ते 3-4 बार आने के बजाय 10-15 दिन में आने लगे थे. देर से फोन करने का उलाहना देने पर कभी वह बिजी होने की बात बता देता तो कभी झुंझला पड़ता. पर स्मिता इंतजार करने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी? इंतजार की घडि़यां जब समाप्ति के नजदीक होती हैं तो और लंबी लगने लगती हैं. घर में सब 2-4 दिन में ही आशुतोष के वापस आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर फोन से बात होने पर उस ने बताया कि उस ने सरकार से अपने लिए फिर 1 वर्ष का ऐक्सटैंशन मांगा है.

‘‘पर क्यों?’’ स्मिता किंचित रोष व उलझन भरे स्वर में पूछे बिना न रह सकी थी.

‘‘स्मिता, मैं तो आना चाहता हूं, पर यहां हर वह सुविधा उपलब्ध है, जो वहां इंडिया में मेरे डिपार्टमैंट में नहीं है. मैं कोशिश कर रहा हूं कि यहां कहीं अच्छी जौब भी ढूंढ़ लूं. इस बीच यदि मुझे ट्रेनिंग का 1 साल और मिल जाता है, तो अच्छा ही है. आगे का बाद में प्लान करेंगे. तुम वहां मांबाबूजी के पास हो ही… कोई चिंता की बात तो है नहीं.’’

इस के बाद थोड़ी देर पलक व घर के अन्य सदस्यों से बात कर के आशुतोष ने फोन काट दिया. स्मिता को लगा मानो उस की किश्ती किनारे आतेआते पुन: लहरों के थपेड़ों से दूसरे किनारे जा पहुंची है. 1 वर्ष और यानी पूरे 365 दिन. उसे समझ नहीं आ रहा था इतना लंबा समय वह कैसे काटेगी. पर हकीकत तो यही थी और उसे स्वीकारना उस की मजबूरी. अनमनी सी वह अपनेआप को कामों में व्यस्त रखने का उपक्रम करती रही.

जिंदगी एक बार फिर उसी पुरानी रफ्तार से चल पड़ी थी. ट्यूशन पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ती गई. एक दिन कालेज के प्रिंसिपल ने स्मिता को कुछ जरूरी बात करने के लिए फोन कर के बुलाया. विज्ञान के अध्यापक के अचानक चले जाने से वह पद रिक्त पड़ा था. वहां के विद्यार्थियों के अनुरोध पर ही उन्होंने स्मिता को कालेज में लैक्चररशिप के लिए प्रस्ताव दिया था. पति के आने में अभी तो पूरा साल पड़ा था. जब घर बैठे ही इतना अच्छा अवसर मिल रहा था, तो उसे गंवाने का कोई औचित्य भी नजर नहीं आता था. घर में बड़ों की अनुमति से उस ने वह औफर स्वीकार कर लिया. फिर जल्दी ही वह सब की प्रिय अध्यापिका बन गई. उस का पढ़ाने का तरीका ही ऐसा था कि किसी को अलग से ट्यूशन की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती थी.

स्मिता ने अपने कैरियर व घरेलू जिम्मेदारियों के बीच सही तालमेल बैठाते हुए पलक का भी प्रीनर्सरी में ऐडमिशन करा दिया था. उन्हीं दिनों अभिजीत का इंजीनियरिंग में चयन हो जाने से वह रुड़की चला गया. कालेज का खुशनुमा माहौल, व्यस्त दिनचर्या एवं एक सहअध्यापिका अंजलि से अच्छी जानपहचान हो जाने से स्मिता का वक्त अच्छा कटने लगा था. अंजलि के पति डा. सुनील बहल भी आशुतोष के साथ ही अमेरिका गए थे. वे अवधि पूरी होने पर लौट आए थे. अंजलि व स्मिता अकसर एकदूसरे से अपने दिल की बातें करती रहती थीं. जल्दी ही उन में गहरी दोस्ती हो गई.

एक दिन बातों ही बातों में अंजलि ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘स्मिता, एक बात पूछूं… बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘अरे पूछो न… भला तुम्हारी बात का क्यों बुरा मानूंगी.’’

‘‘सब लोग वापस आ गए हैं पर डा. राणा वहीं क्यों रुक गए?’’

‘‘दरअसल, वहां उन्हें कुछ और काम करना था. उन्होंने सरकार से 1 साल का ऐक्सटैंशन और मांगा है.’’

स्मिता के सहज ढंग से कहे गए उत्तर से अंजलि आश्वस्त नहीं हुई. स्मिता को लगा वह कुछ कहना चाह रही है, परंतु संकोचवश कह नहीं पा रही.

आखिर उस ने ही पूछा, ‘‘तुम कुछ परेशान लग रही हो? क्या बात है?’’

‘‘पता नहीं मुझे कहनी चाहिए या नहीं… पर तुम तो मेरी दोस्त हो इसलिए तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहती हूं,’’ अंजलि हर शब्द तोलतोल कर कह रही थी.

उस के बोलने की संजीदगी से स्मिता का हृदय आशंका से धड़कने लगा था. शंकाएं नागफनी की तरह सिर उठाने लगी थीं. वह धीरे से केवल यही पूछ सकी, ‘‘कुछ कहो तो…’’

‘‘वहां मेरे पति सुनील डा. राणा के रूममेट थे. वे कह रहे थे कि डा. राणा की उसी इंस्टिट्यूट की एक अमेरिकन रिसर्च स्कौलर से कोर्टशिप चल रही थी और शायद जल्दी ही…’’

बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोल उठी, ‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं हो सकता. जरूर डा. बहल को कोई गलतफहमी हुई होगी. आशु तो हम सब को बहुत प्यार करते हैं… भला वे ऐसा क्यों करेंगे?’’

‘‘हो सकता है तुम्हारी बात ही सच हो. पर तुम्हें आगाह करना मैं ने अपना फर्ज समझा… तुम बुरा न मानना,’’ उस ने पुन: क्षमायाचना करते हुए कहा.

उस दिन स्मिता मन ही मन बेहद चिंतित हो उठी थी. पति द्वारा किए जाने वाले फोन काल्स में बढ़ता समय अंतराल, संक्षिप्त होती जा रही बातचीत, बात करने का ढंग, सभी कुछ कहीं न कहीं अंजलि की बात का ही तो समर्थन करता प्रतीत हो रहा था. मांबाबूजी को वह क्या बताती? अभी तो वही उस बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. उस ने निश्चय कर लिया था कि रात में वह स्वयं आशुतोष से इस विषय पर बात करेगी. या तो वह पैसा कमाने की धुन छोड़ कर यहीं आ जाए या उसे व पलक को भी वहीं बुला ले. समस्याओं का कुछ हल सूझता दिखा तो मन कुछ शांत हुआ. डा. सुनील को जरूर कोई गलतफहमी हुई होगी. मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात नहीं हो सकता. व्यर्थ ही मैं मन में शक पाल रही हूं.

सारे काम निबटा कर उस ने कई बार फोन मिला कर बात करनी चाही पर आशंका से कांपती उंगलियों से डायल करना उस दिन उसे अत्यंत दुरूह लग रहा था. यदि अंजलि की बात सच निकली तो…? अजीब ऊहापोह की स्थिति हो रही थी. आखिर दिल कड़ा कर के उस ने आशुतोष का मोबाइल नंबर डायल कर ही दिया. उधर रिंग जा रही थी मगर फोन उठ नहीं रहा था. तभी उसे ध्यान आया यहां तो रात है मगर वहां तो अभी दिन होगा. हो सकता है कि आशुतोष काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे हों.

वह फोन काटने ही वाली थी कि तभी उधर से किसी स्त्री का अमेरिकन लहजे में स्वर उभरा, ‘‘येस… रिया फर्नांडिस हियर…’’

‘‘सौरी,’’ कह कर स्मिता ने तुरंत फोन काट दिया. शायद घबराहट में वह गलत नंबर डायल कर गई थी. पर चैक किया तो देखा नंबर तो सही डायल हुआ था. पर यह रिया फर्नांडिस कौन है? इतनी सुबह आशुतोष के पास क्या कर रही होगी? उस ने फिर फोन किया. इस बार उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा.

उधर से आशुतोष की आवाज आई, ‘‘हैलो… कौन स्मिता?’’

‘‘हां… मैं ने पहले भी मिलाया था. किसी रिया ने…’’

‘‘ओ हां, उसी के यहां तो मैं पेइंग गैस्ट की तरह रह रहा हूं. तुम्हें बताने ही वाला था आजकल में…’’

‘‘मगर बिजी होंगे… है न? 15-20 दिन हो गए हैं आप का फोन आए. क्या बात है? पुराना होस्टल क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘असल में मैं ने इंडियन गवर्नमैंट से जो

1 साल का ऐक्सटैंशन मांगा था वह उन्होंने मंजूर नहीं किया है. इसलिए मैं ने वह नौकरी छोड़ दी और यहां पार्ट टाइम जौब ढूंढ़ ली है. वह होस्टल छूटा तो अपने ही साथ रिसर्च कर रही एक दोस्त के यहां मैं बतौर पेइंग गैस्ट रहने लगा हूं.’’

‘‘तो मुझे व पलक को भी वहीं बुला लीजिए,’’ स्मिता से रहा न गया, अधीरतावश वह यह कह ही बैठी.

‘‘कम औन स्मिता… यहां मेरे रहने का ठिकाना नहीं है, तुम दोनों को कहां रखूंगा? थोड़ा सब्र करो… तुम दोनों को बाद में बुलाऊंगा,’’ उधर से झुंझलाया हुआ स्वर स्मिता के कानों से टकराया. पर वह भी आसानी से मानने वाली नहीं थी.

‘‘मैं भी वहां पार्ट टाइम जौब कर लूंगी फिर कोई दिक्कत नहीं होगी. हम लोग किस्तों पर कोई छोटा सा मकान ले लेंगे. आप अपना पता बता दें, मैं स्वयं आ जाऊंगी… या आप बुलाना ही नहीं चाहते?’’

‘‘कोई खेल है अमेरिका चले आना? वीजा बनवाना पड़ता है, पासपोर्ट बनता है… फिर पैसा चाहिए टिकट के लिए.’’

‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं ने सब चीजें अपटूडेट करा रखी हैं. टूरिस्ट वीजा भी बन जाएगा. आप के भेजे पैसों में से भी मैं ने काफी बचत की हुई है और मैं भी अब डिग्री कालेज में लैक्चरार हो गई हूं,’’ फिर उस ने संक्षेप में पूरी बात आशुतोष को बता दी, मगर उस से कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया न पा कर उसे आश्चर्य नहीं हुआ.

‘‘ठीक है, फिर तुम अपनी जौब में ध्यान लगाओ. मैं बाद में तुम्हें फोन करूंगा, अभी तो मुझे अस्पताल पहुंचने की जल्दी है,’’ कह कर बगैर प्रतीक्षा किए उस ने फोन काट दिया.

स्मिता चाह कर भी आशुतोष से कुछ नहीं पूछ सकी. रिश्तों की नजाकत उस के होंठ सिए थी पर मन था कि शक के थपेड़ों से लहूलुहान हुआ जा रहा था. मानव स्वभाव है कि अंत तक आशा का दमन नहीं छोड़ना चाहता. उस ने भी खुद को समझा कर शांत करने का प्रयास किया कि लोगों का क्या है, दूसरों को हंसताबोलता देख कर कुछ भी अनुमान लगा लेते हैं. आशुतोष एक अच्छे, पढ़ेलिखे व जिम्मेदार व्यक्ति हैं. वे ऐसा कोई अशोभनीय कदम नहीं उठाएंगे. उसे खुद पर मन ही मन कुछ ग्लानि भी हुई. वह तो फिर भी यहां पूरे परिवार के साथ है, वहां परदेश में उन का कौन है… यदि दोस्त से हंसबोल लेते हैं तो कौन सा गुनाह कर दिया? उसे मन में संदेह नहीं लाना चाहिए था. जरूर डा. सुनील गलत समझे हैं. यही सब सोचते, पलक को थपकियां दे कर सुलाते वह स्वयं भी निद्रा के आगोश में चली गई.

सुबह सो कर उठी तो मन फूल सा हलका लग रहा था. अंजलि की बातों से उपजी चिंता पति से बात करने पर काफी हद तक दूर हो गई थी. व्यर्थ के विचार मन से झटक वह स्वयं को अधिक तरोताजा महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि अंजलि को भी सब कुछ ठीक होने का विश्वास दिला देगी.

क्लास में लैक्चर देने के बाद वह स्टाफ रूम में जब थोड़ी फुरसत में अंजलि से मिली, तो उस के कुछ कहने से पहले ही अंजलि ने एक पता लिखा कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘स्मिता, यह पता उसी दोस्त का है, जहां डा. राणा अकसर होस्टल छोड़ कर रहने चले जाते थे. सुनील वहां से आते समय पता ले आए थे.’’

धड़कते दिल से स्मिता ने कागज ले लिया. पता रिया फर्नांडिस का ही था. उस ने कागज संभाल कर पर्स में रख लिया. आशुतोष तो अपना पता बताना टाल गया था पर आखिर स्मिता को वह कहीं न कहीं से मिल ही गया. उस ने पिछली रात पति से हुई बातचीत अंजलि को बताई कि उन्होंने रिया के घर शिफ्ट कर लेने की बात स्वयं फोन पर बताई थी. मन में चोर होता तो क्यों बताते? वह तरहतरह से अंजलि को विश्वास दिलाती रही कि वैसा कुछ नहीं होगा, जैसा कि वे लोग सोच रहे हैं. अगले वर्ष वे लौट ही आएंगे या उसे ही वहां बुला लेंगे. पर शायद अंजलि से ज्यादा वह स्वयं को सब कुछ सामान्य होने का विश्वास दिलाना चाह रही थी.

आशुतोष से बात हुए पूरा महीना निकल गया. स्मिता व घर वालों ने कई बार फोन मिलाया पर हर बार ‘मोबाइल का स्विच औफ है’ की कंप्यूटर टोन आती रही या फोन मिलते ही काट दिया जाता था. आशुतोष ने पलट कर कभी फोन नहीं किया, जिस से स्मिता के मन में पुन: शक की नागफनी उगने लगी. उस ने दबी जबान से अपनी सास को सारी बातें बता दीं. घर में मां व बाबूजी भी आशुतोष में आए परिवर्तन को महसूस कर रहे थे. आखिर इस विषय में विचारविमर्र्श कर के सर्वसम्मति से तय किया गया कि स्मिता व पलक के लिए टिकट व वीजा वगैरह का इंतजाम वे लोग करवा देंगे. पता मिल ही गया है, अत: अब अधिक देर न कर उन दोनों को वहां चले जाना चाहिए. फिर सब धीरेधीरे ठीक ही हो जाएगा. शायद बेटी का मुंह देख कर उन के बेटे के बहकते कदम ठीक राह पर आ जाएं. अभिजीत ने बाबूजी के साथ दौड़धूप कर के सारे पेपर्स पूरे करा टिकट स्मिता के हाथों में थमा दिया.

स्वयंसिद्धा- भाग 4: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

बड़े भाई के भारत लौट आने का समाचार सुन कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ, ‘‘चलिए अच्छा ही हुआ, जो वे वापस आ गए. आप से अनुरोध है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह सोचविचार कर लीजिएगा.’’

‘‘हां सोचूंगी… अभी कुछ नहीं कह सकती,’’ कह कर स्मिता ने थोड़ी देर कविता व रोहित से बात कर के फोन रख दिया.

पलक के लौटने पर स्मिता ने उसे अभिजीत के फोन के बारे में बताया तो डैक औन करती पलक बोली, ‘‘क्या मां… पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि बस शादी की जल्दी पड़ गई आप को.’’

प्यार से बेटी को देखती स्मिता उस का सिर सहलाते हुए बोली, ‘‘बेटा, पढ़ाई जितनी चाहे करो, पर बेटियां तो पराया धन होती हैं. एक न एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है. जब अच्छा रिश्ता मिल रहा है तो अभी करने में हरज भी क्या है?’’

‘‘घरजंवाई ढूंढ़ लो मां. मैं कहीं नहीं जा रही हूं आप को छोड़ कर…’’ लापरवाही से पलक बोली.

‘‘धत पगली… इतनी बड़ी हो गई है, पर बचपना नहीं गया,’’ मां ने मीठी झिड़की देते हुए कहा.

कुछ ही दिनों बाद अभिजीत ने फोन पर स्मिता को खुशखबरी दे दी कि उन लोगों को फोटो में पलक बेहद पसंद आई है. बस, 2 दिन बाद विवेक के आने का इंतजार है, ताकि वे दोनों भी एकदूसरे को देखसमझ लें तो रिश्ता पक्का कर दिया जाए. फिर उन के आने का दिन व समय बता कर उस ने फोन रख दिया.

स्मिता ने अतिथियों को सम्मानपूर्वक अंदर ला कर ड्राइंगरूम में बैठाया. आरंभ में औपचारिक वार्त्तालाप चलता रहा पर जल्द ही उन लोगों के सुलझे व्यक्तित्व के कारण वातावरण दोस्ताना हो गया.

आकर्षक एवं सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी विवेक को नापसंद करने का कोई प्रश्न ही नहीं था. स्मिता ने तो मन ही मन पलक के साथ उस की जोड़ी की कामना भी कर डाली.

स्मिता का परिवार सिंह दंपती के साथ बातों में व्यस्त था. पलक और विवेक बाहर लौन में टहल रहे थे. तभी बातों के बीच अचानक पलक ने विवेक से पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप हमेशा विदेश में ही रहना चाहेंगे?’’

‘‘डिपैंड करता है इस पर कि आगे क्या परिस्थितियां रहती हैं. वैसे, मैं सोचता हूं कि कुछ वर्षों बाद यहीं लौट आऊं. यहां कुछ सालों में पापा भी रिटायर हो जाएंगे. ये लोग शायद ही वहां जाना चाहें. आप किस तरह के परिवार में विश्वास रखती हैं, एकल या सम्मिलित?’’

‘‘मैं तो यही समझती हूं कि यदि पीढि़यों की शृंखला आपस में प्रतिबद्ध रहे तो परिवार में समृद्धि व खुशहाली स्वयं आ जाती है और अगर परिवार से किसी सदस्य को कभी दूर जाना भी पड़ता है, तो यही दूरी केवल स्थानों की होनी चाहिए, न कि दिलों की.’’

पलक के कथन से विवेक प्रभावित हुए बिना न रह सका, ‘‘बिलकुल सच कह रही हैं आप. आप को विदेश जाना पसंद नहीं, लेकिन अभी मुझे 2-3 साल तो वहां लगेंगे ही.’’

देखते ही देखते पूरा दिन कब कैसे निकल गया, किसी को पता ही नहीं चला. पलक व विवेक की परस्पर सहमति जान कर संबंध पक्का करने के लिए शगुन स्वरूप विवेक के मातापिता ने केवल 1 रुपया स्वीकार किया. विवेक के लौटने से पहले ही शादी की तिथि निकल आई थी, इसलिए दोनों पक्षों ने जोरशोर से विवाह की तैयारियां आरंभ कर दीं.

आशुतोष को इंडिया आए 1 हफ्ता होने को आ रहा था. फोन पर वह रिया का हालचाल भी लेता रहता था, साथ ही शहर के कुछ नर्सिंग होम्स में जौब के लिए भी प्रयासरत था.

स्मिता के बेरुखी से पेश आने के बाद वह पुन: घर जाने में हिचक रहा था और फोन पर जब भी उस ने बात करने का प्रयास किया, स्मिता ने फोन काट दिया. तब उस ने अभिजीत का नंबर मिलाया तो उसे पता चला कि वे लोग इस समय यहीं आए हुए हैं. सुन कर उसे कुछ ढाढ़स बंधा. आखिर अगले दिन वह फिर से घर पहुंचा. स्मिता उस दिन कविता के साथ शौपिंग के लिए बाजार गई हुई थी. घर पर केवल पलक व अभिजीत ही थे.

कालबैल बजने पर अभिजीत ने ही दरवाजा खोला. इतने वर्षों बाद अचानक भाई को सामने देख कर उसे सुखद एहसास हुआ.

‘‘भैया आप… आइए अंदर आइए…’’ वह बोला.

थोड़ी हिचक के बाद आशुतोष अंदर आ गया. नजरें पलक व स्मिता को ढूंढ़ रही थीं. उस का आशय भांप अभिजीत ने भाई को स्मिता व कविता के शौपिंग के लिए गए होने की बात बताने के साथ ही पलक की शादी तय होने की खुशखबरी भी सुना दी. इतने वर्षों बाद परिवार से मिलने की खुशी आशुतोष की आंखों से साफ झलक रही थी.

तभी उसे भाई का शिकायत भरा स्वर सुनाई दिया, ‘‘आप ने ऐसा क्यों किया भैया? भाभी ने मुझे फोन पर आप के आने की बाबत बताया था. आने में इतनी देर क्यों की?’’

‘‘तुम सब को नाराज होने का पूरा हक है. शायद मेरी मति ही मारी गई थी, जो अच्छेभले परिवार को छोड़ कर वहां की मृगमरीचिका में भटकता रहा. शुरू में जब गया था तब वक्त

की रिक्तता तो रिया के साथ से भर गई, परंतु दिल शांति से खाली होता गया. दिलोदिमाग पर सदैव कुछ गलत कर बैठने का अपराधबोध हावी रहा. पर रोनित से स्मिता की तबीयत के बारे में सुन कर मैं खुद को रोक नहीं सका. आना तो हम दोनों ही चाहते थे पर रिया आ नहीं सकती थी, इसलिए मैं और नहीं रुक पाया. अब मैं यहां आ कर अपने साथ उस की तरफ से भी क्षमा मांगना चाहता हूं. स्मिता का दर्द उस ने और मैं ने साथसाथ ही जिया है. कभीकभी कुछ लमहों की गलती की सजा हम पूरी उम्र भुगतते रहते हैं,’’ कहतेकहते आशुतोष का गला भर आया.

भाई को पश्चात्ताप की अग्नि में जलता देख अभिजीत द्रवित हो उठा. सांत्वनापूर्वक उस का हाथ अपने हाथों में ले कर ढाढ़स बंधाता हुआ बोला, ‘‘दिल छोटा न कीजिए भैया… मैं भाभी से बात करूंगा. पलक भी बहुत समझदार बच्ची है, मैं बुलाता हूं उसे.’’

तभी पलक स्वयं आ कर अपने छोटे पापा के पास बैठ गई. आगंतुक के प्रति अभिवादन की भी उपेक्षा दर्शा उस ने अपने पिता के प्रति दिल में भरी नफरत का स्पष्ट इजहार कर दिया था. परंतु आशुतोष की बेटी से मिलने की खुशी इस तिरस्कार से कहीं अधिक थी. कांपते वात्सल्यपूर्ण स्वर में आशुतोष बोल उठा, ‘‘यहां आओ बेटी… मेरे पास आ कर बैठो… अपने पापा को नहीं पहचाना? मैं तुम से भी क्षमा…’’

एक उपेक्षा भरी निगाह पिता पर डाल वह बीच में ही लापरवाही से बोली, ‘‘क्षमा… मैं कौन होती हूं क्षमा करने या दंड देने वाली? होश संभालने से ले कर अब तक मैं ने अपनों में आप को तो कहीं नहीं पाया और अपने परिवार से मुझे भरपूर प्यार मिला है. कभी आप की कमी महसूस नहीं हुई. मैं नहीं जानती आप कौन हैं और ये कहानियां यहां क्यों सुना रहे हैं?’’

‘‘कह लो बेटी… दिल में भरा सारा गुस्सा निकाल लो. मुझे बुरा नहीं लगेगा…’’ आशुतोष को बेटी की जलीकटी भी फूल झरने जैसी लग रही थी.

तभी अभिजीत को कुछ ध्यान आया, ‘‘भैया, आप ठहरे कहां हैं?’’

‘‘होटल में… क्यों?’’

‘‘आप अपना सामान यहीं ले आइए. अगले हफ्ते ही पलक की शादी है. आप समय से ही आए हैं. अब आप भी भाभी के साथ कन्यादान कर सकेंगे.’’

आशुतोष के कुछ कहने से पहले ही पलक झटके से उठ खड़ी हुई, ‘‘ऐक्स्क्यूजमी, छोटे पापा… मेरे लिए मेरी मां ही मातापिता दोनों हैं. हमें इन की कोई जरूरत नहीं है. हां, इन के लिए गैस्टरूम खुलवा दूंगी, चाहें तो वहां रुक सकते हैं.’’

स्वयंसिद्धा- भाग 1: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

यूनिवर्सिटी का बड़ा हौल गणमान्य व्यक्तियों से खचाखच भर चुका था. मैडिकल काउंसिल के उच्च पदाधिकारी मंच पर पहुंच अपनी सीटें ग्रहण कर चुके थे. अपने ओहदे के अनुसार अन्य मैंबर्स भी विराजमान हो चुके थे. एक तरफ छात्रछात्राओं के अभिभावकों के बैठने के लिए बनी दीर्घा लगभग पूरी भर चुकी थी, तो दूसरी तरफ छात्र अपनी वर्षों की पढ़ाई को डिगरी के रूप में प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षारत बैठे थे. मुख्य अतिथि के समापन भाषण के पश्चात अन्य पदाधिकारियों ने कुछ शब्द कहे, फिर मैरिट प्राप्त स्टूडैंट्स के नाम एक के बाद एक बुलाने प्रारंभ किए गए. स्मिता अभिभावकों वाली दीर्घा में बैठी उत्सुकता से अपनी बेटी पलक का नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा कर रही थी.

आज यह उस के जीवन का तीसरा अवसर था कनवोकेशन अटैंड करने का. पहला अवसर था अपनी एम.एससी. की डिगरी लेने का, दूसरा था अपने पति डा. आशुतोष राणा के एम.एस. की डिगरी लेने का समारोह और तीसरा आज, जिस में वह अपनी बेटी पलक को एम.बी.बी.एस. की डिगरी लेते देखेगी.

पति की याद आते ही उस का मुंह कसैला हो उठा था. लेकिन विगत की यादों को झटक कर वह वर्तमान में लौट आई. इस चिरप्रतीक्षित पल को वह भरपूर जीना चाहती थी. आखिर वह घड़ी भी आ ही गई. मंच पर अपनी बेटी पलक को गाउन पहने अपनी डिगरी ग्रहण करते देख स्मिता की आंखें खुशी से भर आईं. बेटी का सम्मान उसे अपना सम्मान लग रहा था. उस के जीवन की डाक्टर बनने की अधूरी इच्छा आज उस की बेटी के माध्यम से पूरी हो सकी थी. सच ही तो है, इंसान जो सपने अपने जीवन में पूरे न कर सका हो, उन्हें अपने बच्चों के माध्यम से साकार करने की चेष्टा करता है.

समारोह समाप्त होने के बाद हौल से बाहर आ कर पलक अपने जानने वालों के साथ कुछ आवश्यक बातचीत करने व कुछ अन्य कामों की वजह से रुक गई और स्मिता घर लौट आई.

घर आ कर भी स्मिता का मन वहीं भटकता रहा. आज इतने स्टूडैंट्स के बीच में स्वयं को पा कर उसे अपने कालेज के दिन याद आने लगे थे. एम.एससी. के इम्तिहान खत्म होने के पश्चात होस्टल से जाते समय सब लड़कियां एकदूसरे के पते ले कर व भविष्य में मिलने का वादा कर अपनेअपने घर लौट गई थीं. स्मिता भी आगे रसायनशास्त्र में डाक्टरेट करने का सपना संजोए घर लौट आई थी. उस ने पीएच.डी. के लिए रजिस्ट्रेशन कराने की कोशिश भी की किंतु किसी कारणवश बात नहीं बन सकी. उन्हीं दिनों शहर के एक डिगरी कालेज में जब उसे लैक्चररशिप मिल गई तो उसे कुछ संतोष मिला. पर साथ ही शोधकार्य करने के लिए भी वह प्रयासरत रही.

पर शायद वक्त को तो कुछ और ही मंजूर था. उस का विवाह डा. आशुतोष राणा के साथ कुछ ही दिनों बाद तय हो गया व शीघ्र ही विवाह भी हो गया. विवाह के पश्चात एक नया शहर, नया माहौल व नई चुनौतियां थीं. किसी भी निर्णय में अब केवल उस की इच्छा ही नहीं, पति की सहमति भी आवश्यक हो गई थी.

उस के नौकरी करने या शोधकार्य पूरा करने की इच्छा को उन्होंने तुरंत नकारा तो नहीं, परंतु अपनी सहमति इनकार के आवरण में ही लपेट कर देते हुए कहा, ‘‘तुम्हें जरूरत क्या है नौकरी करने की. मैं इतना तो कमा ही लेता हूं कि कोई अभाव न महसूस हो. केवल पैसे कमाने के लिए नौकरी करना किसी जरूरतमंद की जीविका पर कुठाराघात करना होगा. मेरी एम.एस. की पढ़ाई चल ही रही है. ऐसे में तुम भी अपनी पढ़ाई में लग गईं तो घर कौन संभालेगा? आगे तुम खुद समझदार हो, जैसा चाहो करो.’’

उस ने समझदारी दिखाते हुए इस विषय को फिर कभी नहीं उठाया. इतनी पढ़ाई कर के खाली बैठना उसे बेहद नागवार लगता था, लेकिन परिवार की खुशी उस के सपनों से कहीं बड़ी थी. शैक्षिक योग्यता का अर्थ केवल पढ़ाई कर के डिगरी प्राप्त करना ही नहीं वरन एक मानसिक स्तर का निर्माण भी होता है, जो जीवन को बेहतर ढंग से जीने व समझने का नजरिया देता है. वक्त का खालीपन तो इंसान अन्य विकल्पों से भी भर सकता है.

उसे अकसर अपनी दादी की कही बातें याद आ जातीं, ‘बिटिया, चाहे एम.एससी. करो या डाक्टरी… लड़की हो तो आगे घरगृहस्थी तुम्हीं को चलानी होगी. थोड़े घर के कामकाज भी सीखो.’

और वह उन्हें चिढ़ाती हंसती हुई कहती थी, ‘न दादी… मैं तो डाक्टर बनूंगी और नौकर रख लूंगी. सब काम हो जाया करेंगे.’

‘अरी, नौकरों से भी तो काम तभी कराएगी जब तुझे खुद कुछ आएगा. वरना जैसा कच्चापक्का खिला देगा, खाती रहना.’

अतीत की यादें कभीकभी कितनी सुखद लगती हैं. बड़ेबुजुर्गों की बातों में भी कितना गूढ़ जीवनसार होता है. जिंदगी फिर पति की पसंदनापसंद, चूल्हेचौके व घरगृहस्थी तक ही सिमट कर रह गई थी. डेढ़ साल में ही आशुतोष ने अपनी एम.एस. की पढ़ाई पूरी कर ली व स्मिता की गोद में पलक आ गई थी. फिर तो जैसे उस का वक्त पंख लगा कर उड़ने लगा. हर दिन एक नई खुशी ले कर आता. आज पलक ने मां बोला, आज घुटनों के बल चली, आज पहला कदम रखा. दिन, महीने, साल पलक की किलकारियों के साथ ही बढ़ते रहे. उन्हीं दिनों आशुतोष को सरकार की तरफ से विभागीय स्पैशल ट्रेनिंग लेने 5-6 डाक्टरों के एक ग्रुप के साथ, साल भर के लिए यूएसए जाने का अवसर मिला. परंतु वहां अपने साथ परिवार नहीं ले जा सकते थे, इसलिए पहले तो आशुतोष ने जाने से मना करना चाहा पर स्मिता द्वारा प्रोत्साहित करने पर जाने को सहमत हो गया. पत्नी व बेटी को अपने मातापिता के पास पहुंचा कर व अन्य जरूरी व्यवस्थाएं कर के वह अपने ग्रुप के साथ विदेश चला गया.

स्मिता की ससुराल में 2-3 वर्ष में रिटायर होने वाले बैंक में कार्यरत ससुर दीनानाथ व सास उमा देवी के अतिरिक्त किशोरवय का देवर अभिजीत भी था. अभी तक तो वह पति के साथ तीजत्योहार पर 2-4 दिन के लिए ही पहुंचती थी, अब सब के साथ रहने का अवसर मिलने पर उसे सब को करीब से जानने का मौका मिला था. परस्पर सौहार्दपूर्ण व अपनेपन भरे व्यवहार से शीघ्र ही सब लोग घनिष्ठ हो गए थे. पिता समान ससुर का मधुर व्यवहार, सरल स्वभाव की सास व विनोदप्रिय देवर के सान्निध्य में स्मिता अपनी हर चिंता से बेपरवाह नन्ही सी बेटी पलक के साथ आशुतोष का इंतजार करती आराम से रह रही थी.

कभी स्मिता आशुतोष की याद में उदास होती तो अभिजीत तुरंत भांप कर अपने चुटकुलों व हंसीमजाक से उसे हंसा देता.

मासूम पलक को तो सब हाथोंहाथ लिए रहते थे. स्मिता ने वहां आ कर घर का सारा काम स्वयं संभाल लिया था.

कभीकभी सास हंसती हुई कह भी देतीं, ‘‘बेटी स्मिता, तुम तो मेरी आदत ही खराब कर दोगी. कल को आशु आ जाएगा तो तुम चली जाओगी, तब कौन करेगा?’’

स्मिता हंसते हुए कहती, ‘‘मैं कहां जा रही हूं मां… मैं तो उन से भी कह दूंगी यहीं पर अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस शुरू करें, वह खूब चलेगी. नहीं तो आप सब को भी वहीं बुला लूंगी.’’

भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सका है? क्रूर वक्त की हंसी तब कहां सुन सकी थी वह.

कुछ ही दिनों बाद अभिजीत की वार्षिक परीक्षाएं आरंभ होने वाली थीं. स्मिता उस का पूरा ध्यान रखती थी. देर रात उठ कर उसे चाय या कौफी बना कर देती तो कभी कोई कठिन प्रश्न हल कराती. पढ़तेपढ़ते उस के सो जाने पर उस की किताब बंद कर के रखती. अभिजीत ने स्मिता को हर वक्त, हर रूप में अपना मददगार पाया. इन 10-15 दिनों में जितना वह अपनी भाभी को समझता गया, उस के मन में उन के प्रति इज्जत उतनी ही बढ़ती गई. सब से ज्यादा राहत उसे स्मिता के पढ़ाने से मिली. उस का पढ़ाया हुआ अभिजीत को तुरंत समझ में आ जाता था. अब यदाकदा उस के अन्य मित्र भी अपनी प्रौब्लम्स पूछने आने लगे थे.

इंटर का रिजल्ट निकला तो अभिजीत ने पूरे कालेज में टौप किया था. अपनी सफलता का पूरा श्रेय स्मिता को देते हुए उस ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आज आप के कारण ही मैं इतने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सका हूं. मुझे तो रसायनशास्त्र मुश्किल विषय लगता था, पर आप के बताए टिप्स व पढ़ाने के ढंग ने मुझे इसी में सब से ज्यादा नंबर दिलाए हैं.’’

इतना मानसम्मान पा कर स्मिता अभिभूत हो उठी थी, ‘‘मेहनत तो आप ने ही की है… हम तो बस आप के साथ ही खड़े थे. सब कुछ बड़ों के मार्गदर्शन से ही संभव हुआ है. अब आप मांबाबूजी से भी मिल आइए. कंपीटिशन में भी अब इसी तरह अव्वल आना है, तभी बात बनेगी.’’

‘‘बस, अभी आया भाभी. वैसे आप को तो कहीं टीचर होना चाहिए था. मेरे कालेज के कई स्टूडैंट्स आप से ट्यूशन लेना चाहते हैं,’’ बाहर जाता हुआ अभिजीत तो कह कर चला गया पर स्मिता की दुखती रग छेड़ गया.

स्मिता ने तो इस विषय में फिर कोई बात नहीं की पर अभिजीत चुप नहीं बैठा. उस ने घर में यह बात मांबाबूजी की उपस्थिति में फिर उठाई तो स्मिता को यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि कोई भी उस के नौकरी करने के विरुद्ध नहीं था. किंतु वह तो जानती थी कि आशुतोष को यह पसंद नहीं आएगा. उसे लौटने में अब 3-4 महीने ही शेष थे, फिर कौन सा उसे हमेशा यहीं रहना था. आखिर पति की पोस्टिंग की जगह ही तो उसे भी जाना होगा. फिर व्यर्थ में ऐसा कार्य क्यों करे, जिस से आगे विवाद की स्थिति उत्पन्न हो.

लेकिन सब के बहुत कहने पर, उस ने सोचविचार कर 2-3 स्टूडैंट्स को घर पर ही पढ़ाने के लिए बुलाना आरंभ कर दिया, जिस से उस का खाली समय तो अच्छी तरह कटता ही था, साथ ही अतिरिक्त आय से अधिक अपनी विद्या के सदुपयोग का दिली सुकून मिलता था. देखते ही देखते आने वाले विद्यार्थी 2-3 से बढ़तेबढ़ते 10-12 हो गए. उस ने कुछ ही महीनों में इतनी आय अर्जित कर ली कि अपनी सास के जन्मदिन पर उसी से एअरकंडीशनर खरीद कर उन्हें बतौर तोहफा दिया, तो सब की आंखों में उस के लिए प्रशंसा के भाव भर उठे थे.

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