ट्रस्ट एक कोशिश: क्या हुआ आलोक के साथ

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ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 2- क्या हुआ आलोक के साथ

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

उफ, बाऊजी ने मुझे इतनी अच्छी परवरिश दी थी लेकिन लानत है मुझ पर जो आखिरी समय उन की सेवा न कर सकी. वह लाड़ करते  हुए मुझ से कहते थे कि किसी ने सच ही कहा है कि बेटी सारी जिंदगी बेटी ही रहती है. लेकिन मैं ने क्या फर्ज पूरे किए बेटी होने के?

आलोक ने मुझे बहुत समझाया कि इस सब में मेरी कोई गलती नहीं थी. हमें यदि समय पर खबर की जाती और तब भी न पहुंचते तब गलत था. उन की बातें ठीक थीं लेकिन दिल को कैसे समझाती.

बहुत गुस्सा था मन में भाइयों के लिए. बाऊजी की क्रिया थी. पगड़ी की रस्म के बाद आलोक किसी जरूरी काम से चले गए पर मैं वहीं रुकी थी. जब सब लोग चले गए तो मैं जा कर भाइयों के पास बैठ गई.

‘भैया, आप लोगों ने मुझे खबर क्यों नहीं की? बाऊजी आखिरी समय तक मेरी राह देखते रहे.’

‘नैना, जो बात करनी है, हम से करो,’ तीखा स्वर गूंजा तो मैं चौंक पड़ी. सामने दोनों भाभियां लाललाल आंखों से मुझे घूर रही थीं.

मैं थोड़ी सी अचकचा कर बोली, ‘भाभी, क्या बात हो गई. आप सब मुझ से नाराज क्यों हैं?’

‘पूछ रही हो नाराज क्यों हैं? पता नहीं तुम ने बाबूजी को क्या पट्टी पढ़ा दी कि उन्होंने हमारा हक ही छीन लिया,’ जवाब में छोटी भाभी बोलीं तो मैं तिलमिला गई.

बस, फिर क्या था, दोनों भाभियों ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाईं और उस का सार था कि बाऊजी ने मेरे बहकावे में आ कर मकान में मेरा भी हिस्सा रखा था. बाऊजी के इलाज पर खर्चा उन लोगों ने किया, सेवा उन लोगों ने की इसीलिए केवल उन लोगों का ही मकान पर हक बनता था.

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मैं ने भाइयों की ओर देखा तो बडे़ भाई विजय मुझ से नजरें चुरा रहे थे. इस का मतलब था कि मकान के गुस्से में आ कर इन लोगों ने मुझे बाऊजी के बीमार होने की खबर नहीं की थी.

मैं ने बाऊजी की तसवीर की ओर देखा, वह मुसकरा रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, छोटी भाभी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई. उन्होंने कड़वाहट से कहा, ‘पता नहीं बाबूजी को बाहर वालों पर इतना तरस क्यों आता था. न जात का पता न मांबाप का, बस, ले आए उठा कर.’

मुझ से और नहीं सुना गया. मैं उठ खड़ी हुई. मेरे दोनों बडे़ भाई एकदम से मेरे पास आ कर बोले, ‘नैना, दरअसल हम पर बहुत उधार है और मकान बेच कर हम यह उधार चुकाएंगे, इसलिए ये दोनों परेशान हैं. हम ने तो इन से कहा था कि नैना को हम अपनी परेशानी बताएंगे तो वह हमारे साथ रजिस्ट्रार आफिस जा कर ‘रिलीज डीड’ पर साइन कर देगी. ठीक कहा न?’

सच क्या था, मैं अच्छी तरह समझती थी. मैं मरी सी आवाज में केवल यही पूछ पाई कि कब चलना है, और अगले ही दिन हम रजिस्ट्रार आफिस में बैठे हुए थे.

मेरे आगे कई कागज रखे गए. मैं एकएक कर के सब कागजों पर अंगूठा लगाती गई और अपने हस्ताक्षर भी करती गईर्र्र्र्. हर हस्ताक्षर पर भाई का प्यारदुलार, मेरा रूठना उन का मनाना मेरी आंखों के आगे आता चला गया. वहीं बैठे एक आदमी ने जब मुझ से उन कागजों को पढ़ने के लिए कहा, तो मेरा मन भर आया था. क्या कहती उस से कि मेरा तो मायका ही सदा के लिए छिन गया. बाऊजी क्या गए सब ने मुंह ही फेर लिया. भाभियां तो फिर पराई थीं लेकिन भाइयों की क्या कहूं. वे भी पराए हो गए.

भाइयों को जो चाहिए था वह उन्हें मिल गया लेकिन मेरा सबकुछ छिन गया. मेरे बाऊजी, मेरा मायका, मेरा बचपन. लगा, जैसे अनाथ तो मैं आज हुई हूं.

शायद मैं यानी नैना, जिस पर बाऊजी कितना गर्व करते थे, उस रोज टूट गई थी. घर पहुंची तो आलोक कहीं फोन मिला रहे थे.

‘कहां चली गई थीं तुम? पता है कहांकहां फोन नहीं किए?’ वह चिल्ला पडे़ लेकिन मेरी हालत देख कर कुछ नरम पड़ते हुए पूछा, ‘नैना, कहां थीं तुम?’

क्या कहती उन्हें. वह मेरे पास आए और बोले, ‘तुम्हारे वर्मा चाचाजी ने यह पैकेट तुम्हारे लिए भिजवाया था.’

मैं चुपचाप बैठी रही.

वह आगे बोले, ‘लाओ, मैं खोल देता हूं.’

वह जब पैकिट खोल रहे थे तो मैं अंदर कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद वह भी मेरे पीछेपीछे कमरे में आ गए और बोले, ‘नैना, आखिर बात क्या हुई. कल से देख रहा हूं तुम हद से ज्यादा परेशान हो.’

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कब तक छिपाती उन से. वैसे छिपाने का फायदा क्या और बताने में नुकसान क्या. रिश्ता तो उन लोगों ने लगभग तोड़ ही दिया था. मैं ने आलोक को एकएक बात बता दी.

वह कुछ देर के लिए सन्न रह गए. कुछ देर बाद बोले, ‘नैना, कितना सहा तुम ने. तुम्हें क्या जरूरत थी उन लोगों के साथ अकेले रजिस्ट्रार आफिस जाने की. मुझे इस लायक भी नहीं समझा. कल रात से मैं तुम से पूछ रहा था लेकिन तुम ने कुछ नहीं बताया. वहां से इतना कुछ सुनना पड़ा फिर भी उन लोगों की हर बात मानती चली गईं. द फैक्ट इज, यू डोंट ट्रस्ट मीं. सचाई तो यह है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं है,’ कह कर वह दूसरे कमरे में चले गए.

जेहन में जैसे ही भरोसे की बात आई मुझे लगा जैसे किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया हो. मैं अतीत से निकल वर्तमान में आ गई.

‘‘आलोक, क्या कह रहे हैं आप. मैं आप पर भरोसा नहीं करती.’’

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आगे पढ़ें- आलोक और भी पता नहीं क्याक्या बताते चले गए. मेरी…

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 3- क्या हुआ आलोक के साथ

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

‘‘बिलकुल, तभी तो तुम ने मुझ से कल की सारी बातें छिपाईं,’’ उन के दुखी स्वर से मैं और दुखी थी.

‘‘मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थी. बस, इसलिए मैं ने आप को कुछ नहीं बताया,’’ मैं रो पड़ी.

‘‘नैना, मैं पराया नहीं हूं, तुम्हारा अपना…’’ वह आगे नहीं बोल पाए. मैं उन के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी थी.

कुछ ही दिन बाद…

‘‘नैना, तैयार रहना, आज कहीं खास जगह चलना है, ठीक 5 बजे,’’ कह कर आलोक ने फोन रख दिया. मैं ने घड़ी देखी तो 4 बज रहे थे.

मैं धीरेधीरे तैयार होने लगी. अपनी शक्ल शीशे में देखी तो चौंक गई. लग ही नहीं रहा था कि मेरा चेहरा है. गुलाबी रंगत गायब हो गई थी. आंखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गए थे. कितने ही दिनों से खुद को शीशे में देखा ही नहीं था. सारा दिन भाइयों की बातें ध्यान में आती रहतीं. भाइयों का तो दुख था ही उस पर बाऊजी से मिल न पाने का गम भीतर ही भीतर दीमक की तरह मुझे खोखला करता जा रहा था.

आलोक दुखी न हों इसलिए उन से कुछ न कह कर मैं अपना सारा दुख डायरी में लिखती जा रही थी. बचपन से ही मुझे डायरी लिखने का शौक था. पता नहीं अब शादी से पहले की डायरी किस कोने में पड़ी मेरी तरह जारजार आंसू बहाती होगी. शादी के बाद वह डायरी बाऊजी के पास ही रह गई थी.

‘‘आलोक, हम कहां जा रहे हैं?’’ मैं आलोक के साथ कार में बैठी हुई थी.

‘‘बस, नैना, कुछ देर और फिर सब पता चल जाएगा,’’ आलोक हंस कर बोले.

कार धीरेधीरे शहर से बाहर लेकिन एक खुली जगह पर जा रुकी. मैं हैरानपरेशान कार में बैठी रही. समझ नहीं पा रही थी कि आखिर आलोक चाहते क्या हैं. अभी इसी उधेड़बुन में थी कि सामने खड़ी कार से जिस व्यक्ति को उतरते देखा तो उन्हें देख कर मैं एकदम चौंक पड़ी. मुझ से रहा न गया और मैं भी कार से बाहर आ गई.

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‘‘आओ, नैना बिटिया,’’ वर्मा चाचाजी बोले.

‘‘नमस्ते, चाचाजी, आप यहां?’’

‘‘हां, बेटी, अब तो यहां आना लगा ही रहेगा.’’

‘‘आलोक, प्लीज, क्या छिपा रहे हैं आप लोग मुझ से?’’

‘‘नैना, क्या छिपाने का हक सिर्फ तुम्हें ही है, मुझे नहीं.’’

‘‘आलोक, मैं ने आप से क्या छिपाया है?’’ मैं हैरान थी.

‘‘अपना दुख, अपने जज्बात, छिपाए या नहीं वह तो अलमारी में रखी तुम्हारी डायरी पढ़ ली वरना तुम्हारा चेहरा तो वैसे ही सारा हाल बता रहा है. तुम ने क्या सोचा, मुझे कुछ खबर नहीं है?’’

नजरें नीची किए मैं किसी अपराधी की तरह खड़ी रही लेकिन यह समझ अभी भी नहीं आया था कि यहां क्या यही सब कहने के लिए लाए हैं.

‘‘आलोक, बेटा, अब नैना को और परेशान मत करो और सचाई बता ही डालो.’’

‘‘नैना, यह जमीन का टुकड़ा, जहां हम खडे़ हैं, अब से तुम्हारा है.’’

‘‘लेकिन, आलोक, हमारे पास तो अच्छाखासा मकान है, फिर यह सब?’’

‘‘नैना, यह जमीन तुम्हारे बाऊजी ने दी है,’’ चाचाजी भावुक हो कर बोले और फिर बताते चले गए, ‘‘हरिश्चंद्र (बाऊजी) को तुम्हारे विवाह से बहुत पहले ही यह आभास होने लगा था कि बहुओं ने तुम्हें दिल से कभी स्वीकार नहीं किया. उन्होंने कई साल पहले यह प्लाट बुक किया था जिस की भनक उन्होंने किसी को भी नहीं लगने दी. उन्होंने अपने प्लाट और फिक्स्ड डिपोजिट की नामिनी तुम्हें बनाया था. जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने मुझे सब कागजात दे दिए और तुम्हें देने के लिए कहा. क्या पता था कि वह अचानक हमें यों छोड़ जाएंगे. मैं ने आलोक को वे सब कागजात, एक डायरी और तसवीरें, जो तुम्हारे बाऊजी ने तुम्हें देने को बोला था, क्रिया के बाद भिजवा दीं. आगे आलोक तुम्हें बताएगा.’’

मैं ने प्रश्नसूचक नजरों से आलोक को देखा, ‘‘नैना, याद है जब तुम रजिस्ट्रार आफिस से लौटी थीं तो मैं ने एक पैकेट की बात की थी. लेकिन तुम ने ध्यान नहीं दिया तो उत्सुकतावश मैं ने खोल लिया था, जानती हो उस में क्या था, प्लाट के कागजात के अलावा… तुम्हारी शादी से पहले की डायरी…

‘‘मैं नहीं जानता था कि तुम बचपन से ही इतनी भावुक थीं. उस मेें तुम ने एक सपने का जिक्र किया था. बस, वही सपना पूरा करने का मैं ने एक छोटा सा प्रयास किया है.’’

आलोक और भी पता नहीं क्याक्या बताते चले गए. मेरी आंखों से आंसू बह निकले. लेकिन आज आंसू खुशी के थे, इस एहसास से भरे हुए थे कि मेरा वह सपना जो मैं ने बाऊजी की लिखी हुई एक कहानी ‘ट्रस्ट : एक छोटा सा प्रयास’ से संजोया था, सच बन कर, एक हकीकत बन कर मेरे सामने खड़ा हुआ है.

उन की उस कहानी का नायक अपना सारा जीवन समाजसेवा में लगा देता है. वह एक ऐसे ट्रस्ट का निर्माण करता है जिस का उद्देश्य अपंग और अपनों से ठुकराए, बेबस, लाचार, बेसहारा लोगों की मदद करना होता है. लेकिन मदद के नाम पर केवल रोटी, कपड़ा या आश्रय देना ही उस का उद्देश्य नहीं होता, वह उन में स्वाभिमान भी जागृत करना चाहता है.

बाऊजी से मुझे क्या नहीं मिला. अच्छी परवरिश, अच्छी शिक्षा, संस्कार, प्यार, आत्मविश्वास और अब एक अच्छे जीवनसाथी का साथ.

चाचाजी ने बताया कि आलोक ने अपनी तरफ से भी बहुत बड़ी रकम ट्रस्ट के लिए दी है. वह चाहते तो प्लाट या बैंक के पैसे अपने इस्तेमाल में ले लेते लेकिन मेरा दुख देख उन्होंने इस कार्य को अंजाम दिया.

‘‘आलोक, आप एक अच्छे जीवनसाथी हैं यह तो मैं जानती थी लेकिन इतने अच्छे इनसान भी हैं, यह आज पता चला.’’

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‘‘अब यह तुम्हारा नहीं हमारा सपना है,’’ आलोक ने कहा, ‘‘हम अपने चेरिटेबल ट्रस्ट का नाम ‘प्रयास’ रखेंगे. कैसा लगा?’’

‘‘बहुत अच्छा और सटीक लगा यह नाम,’’ नैना बोली, ‘‘सच ही तो है, जरूरतमंदों की मदद के लिए जितना भी प्रयास किया जाए कम होता है.’’

ट्रस्ट का एक मतलब जहां विश्वास होता है तो दूसरा मतलब अब हमारी जिंदगी का उद्देश्य बन चुका था. यानी कि मानव सेवा. जैसेजैसे हम इस उद्देश्य के निकट पहुंचते गए वैसेवैसे ही मेरे भीतर के दुख दूर होते गए.

आज भी मां और बाऊजी की तसवीरें ‘प्रयास’ के आफिस में हमें आशीर्वाद देती प्रतीत होती हैं. उन दोनों ने मुझे अपनाया और एक पहचान दी. वे दोनों ही मेरे परिवार और मेरी नजरों में अमर हैं. वे हमारे दिलोें में सदा जीवित रहेंगे. मैं, आलोक और मेरी दोनों बेटियां, आन्या और पाखी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं हर दिन, हर पल लेकिन फूलों से नहीं बल्कि ट्रस्ट  ‘प्रयास’ के रूप में.

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 1- क्या हुआ आलोक के साथ

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

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मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मैं कुछ देर के लिए सकते में अवश्य आ गई थी लेकिन बाऊजी के प्यार व उन की शिक्षा का ऐसा असर था कि मैं बहुत जल्द सामान्य हो गई थी.

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खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

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