उपहार: स्वार्थी विभव क्यों कर रहा था शीली का इंतजार

शीली के लिए विभव से मिलना अचानक ही था. हां, वह जरूर उस के आने की राह तकता पार्क के किनारे खड़ा इंतजार कर रहा था. भूल गए अतीत को इस तरह इंतजार करता देख शीली को कितनी तकलीफ हुई थी.

स्कूटर रोक लेने का इशारा करता विभव उस के नजदीक ही चला आया. लुटेपिटे व्यक्तित्व और खंडित मनोशक्ति वाला विभव दीनहीन याचक बना खड़ा था. उस ने इस पुरुष से तो प्रेम नहीं किया था. विभव के कहे कुछ शब्दों को सुन कर ही उसे मचली आने लगी. नजरें नीची कर स्कूटर स्टार्ट कर वह चुपचाप घर चली आई. विभव पुकारता ही रह गया…

घर पहुंच कर शीली को लगा कि अब खुल कर सांस आई है. मुंहहाथ धो कर ताजादम हुई.

चाय का घूंट भरते ही दिन भर की थकान पल भर में गायब हो गई. थोड़ा सहज होते ही फिर उस के मन में उलझाने वाले सवाल उठने लगे कि विभव अब क्यों आया? क्यों पहले की तरह वह पार्क के किनारे खड़ा उस का इंतजार कर रहा था. क्या वह उसे अपने से कमतर आंक रहा था? उस ने क्या सोचा कि वह 8 वर्ष के अतीत को भूल कर उसे फिर अपना लेगी… दोस्ती कर लेगी…पर क्यों? माना कि तब मेरे मन के सारे कोमल भाव उसी के इर्दगिर्द उमड़घुमड़ कर स्नेह की वर्षा करते थे तो क्या अब भी विभव उसे उसी मोड़ पर खड़े देखना चाहता है जहां उसे छोड़ गया था… कैसा दोटूक जवाब दिया था जब शीली ने स्नेह में भर, उस से विवाह का प्रस्ताव रखा था. एक लिजलिजा सा कारण दे कर सारे संबंध तोड़ गया था.

‘तुम से शादी कैसे कर लूं, शीली… तुम तो मेरी प्रेरणा हो, मेरा स्नेह हो, मेरे जीवन का संबल हो. क्या घरेलू औरत बन कर खो नहीं जाओगी? सच शीली, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि जब मैं आफिस से थकाहारा लौटूं तो तुम मसालों से गंधाती और बच्चों की चिल्लपों से घिरी दिखाई दो. छि:…शीली, यह काम तो कोई साधारण औरत ही कर देगी, इसी से तो नंदी से विवाह कर रहा हूं…तुम तो बस, मेरी प्रेरणा बनी रहो.’

शीली अवाक् विभव का मुंह ताकती रह गई, क्योंकि वह तो यही जानती थी कि वर्षों से चले आ रहे स्नेहबंधन की परिणति विवाह ही होती है. खुद के गढ़े गए तर्कों में छिपी विभव की सोच उसे घृणित लगी. विवाह एक से और स्नेह दूसरी से…ऐसा संबंध समाज की किस परिभाषा के अंतर्गत आता है. प्रेमिका…रखैल…

ये शब्द शीली के दिमाग में आते ही उस का पूरा बदन सिहर गया, रोएं खड़े हो गए.

उस दिन के बाद कितनी ही बार उस ने विभव को वहीं पार्क के किनारे खड़ा देखा. हर बार उस के मुंह से अनायास ही दगाबाज या धोखेबाज शब्द निकलता और वह स्कूटर मोड़ कर दूसरे रास्ते से चली जाती.

एक बार शीली ने विभव से दूर रहने का फैसला किया तो स्नेह के झूठे बिरवे को नोंचनोंच कर फेंक दिया. चूंकि मातापिता बेटी की दशा से परिचित थे इसलिए उन्होंने शीली को उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली भेज दिया. दिल्ली में शीली की मौसी का घर था और उस की हमउम्र मौसेरी बहन भी थी. शीली के लिए अब दिन बिताना सहज होने लगा. मौसाजी ने एम.एससी. में शीली का एडमिशन करा दिया. विषय की गंभीरता और कैरियर बनाने की चाह ने शीली के अतीत पर पानी सा डाल दिया. कठिन मेहनत और लगन से उस का व्यक्तित्व बदलने लगा. अब वह अदम्य साहस और कर्मठता जैसे गुणों से लबरेज हो गई थी.

शीली की मेहनत ने परिणाम भी बहुत अच्छा दिया. एम.एससी. में फर्स्ट डिवीजन पा कर वह खुद भी चकित थी. मौसेरी बहन ने सुझाया कि पीएच.डी. भी कर लो. मातापिता से पूछने पर उन्होंने भी सहमति दे दी.

प्रो. प्रशांत के निर्देशन में शीली को पीएच.डी. करने की इजाजत मिल गई. शीली के अंदर कुछ करने की ललक से प्रो. प्रशांत बहुत प्रभावित थे. उन्होंने बहुत धीरज से शीली को काम का विषय समझाया. यही नहीं अपनी गाइडेंस में प्रशांत जैसाजैसा बताते गए शीली एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वैसावैसा करती गई. इस तरह 4 साल की लंबी और कठिन मेहनत से शीली की पीएच.डी. पूरी हो गई.

प्रो. प्रशांत खुश थे. कहां मिलते थे ऐसे छात्र. अधिकतर तो घोड़े पर सवार… खुद से कुछ करते न बनता. न ही करने की इच्छा रखते…बस, हर समय यही चाहत कि सारी विषयवस्तु तैयार मिल जाए और वे अपने नाम के साथ इस उपाधि को जोड़ते. कुछ तो इतना करना भी गवारा न करते, 4 साल यों ही गुजार देते और पीएच.डी. को अधूरा छोड़ देते.

शोध शिक्षकों के बारे में शीली ने भी बहुत कुछ सुन रखा था लेकिन

प्रो. प्रशांत ऐसे न थे. 4 सालों में शीली ने कुछ कहने भर को भी हलकापन नहीं पाया उन के व्यक्तित्व में. साथी छात्र भी खुशमिजाज और सहयोग करने में कभी पीछे न रहने वाले थे.

शोध पूरा होने के बाद शीली अपने मातापिता के पास लौट आई और काम की तलाश करने लगी. उसे इस बात की खुशी है कि उस ने अपनी मेहनत के बल पर इस संस्थान में नौकरी पाई है. इस संस्थान में काम करने का मन उस ने इसीलिए बनाया कि यहां तनख्वाह ठीक थी और काम की शर्तें भी अनुकूल थीं.

शीली ने धीरेधीरे संस्थान के वातावरण में खुद को ढालना शुरू किया. वैसे कितनी ही बार स्त्री होने के नाते उस के काम करने की क्षमता पर उंगली उठाई गई जो उसे पसंद न आई थी फिर भी यहां का अपना काम उसे पसंद आ रहा था.

बीतते समय के साथ शीली के व्यक्तित्व से निरीहता गायब हो गई और आत्मविश्वास से भरी कर्मठता ने उसे ऊंचा, और ऊंचा उठने के हौसले दिए. तीखी धार सा निखरता उस का व्यक्तित्व आसपास की परिस्थितियों को छीलता और अपने लिए जगह बना लेता. वह संस्थान के सम्माननीय पद पर काम कर रही थी.

शीली को लगा कि आज विभव का मिलना उस के शांत जीवन में पत्थर मारने जैसा है. उसे फिर से विभव की बातें याद आने लगीं. कैसे बिना उस की इच्छा जाने वह कहे जा रहा था:

‘कितनी गलती पर था मैं? अपनी मूर्खता से तुम्हारा अपना दोनों का सर्वनाश कर दिया…नंदी को क्या कहूं…जेवर, कपड़ा, ईर्ष्या और अपशब्दों का पर्याय है वह. मन इन्हीं उलझावों में भटक कर रह गया है. तुम…तुम मेरी प्रेरणा बनी रहो, मैं बाकी जीवन जी लूंगा.’

हर बार विभव ने अपने ही जीने की रट लगाई है. उस के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं. आखिर वह कैसे जी रही है? नहीं…नहीं, अब नहीं याद करना…न विभव को न उस की बातों को. उस की बातों में अब भी वही पुरानी कुटिल मानसिकता छिपी पड़ी है. उस ने जीवन में पहले एक प्रयोग किया और वह असफल रहा और अब इतने लंबे अरसे बाद एक और प्रयोग…नारी को क्या बेजान गुडि़या मान लिया जो ललक कर उस के नजदीक रहना चाहेगी. कापुरुष…

नंदिनी से शादी इसलिए की, क्योंकि वह उस की तुलना में अमीर थी और अब फिर वैसे ही ओछे प्रयास…क्योंकि अब वह नंदिनी की तुलना में अधिक पढ़ीलिखी, अधिक दक्ष और अधिक कमाती है…उसे पहले भी जीवनसाथी नहीं चाहिए था और न ही अब…

शीली ने आज की घटना की उधेड़बुन से थके दिमाग को आंखें बंद कर दिलासा दी और करवट बदल कर सोने का यत्न करने लगी और कब उसे नींद आ गई पता ही न चला.

अगले दिन संस्थान जाते समय शीली सोच रही थी कि आज फिर विभव पार्क के किनारे खड़ा मिलेगा. उसे कुछ न कुछ उपाय जरूर सोच लेना है. यह रुटीन यों ही नहीं चल सकता. विभव का भरोसा नहीं, चोट खाया वह कहीं छिछोरेपन पर उतर आया तो? कुछ तो सोचना और करना ही होगा कि विभव वापस अपनी दुनिया में लौट जाए और वह चैन से जी सके.

काफी सोचविचार के बाद एक आइडिया उस के दिमाग में आया. वह लंच के समय सीट से उठी और बाजार चली गई. क्राफ्ट बनाने के सामान वाली दुकान पर दुकानदार को बहुत कुछ समझा कर अपना आर्डर दिया और वापस आ गई. शाम को घर लौटते समय अपना आर्डर लिया, उसे आकर्षक पैकिंग से पैक कराया और घर की तरफ चल दी.

शीली का अनुमान बिलकुल सही निकला. उस ने दूर से ही पार्क के किनारे खड़े विभव को देख लिया. एक घृणा की लहर उठी और उस के पूरे शरीर में फैल गई. अपने पर काबू कर उस ने अपना स्कूटर विभव के सामने रोका. उसे देख कर विभव की आंखों में चमक आ गई. शीली ने मन ही मन विभव को कोसा फिर झुक कर स्कूटर की डिक्की से पैकेट उठाया और विभव को थमा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ कामयाबी की मुसकान के साथ विभव ने पूछा.

‘‘तुम्हारे और मेरे संबंधों को एक नाम,’’ शीली का उत्तर भावहीन था.

विभव ने खुशीखुशी पैकेट को खोला तो देखता ही रह गया. कांपते हाथों से बाहर निकाला तो वह तिनकों से बना छोटा सा ‘बिजूका’ था. सिर पर नन्ही सी रंगबिरंगी हांडी धरे, रंगीन परिधान पहने, लाललाल होंठों से हंसता…कालीकाली आंखें चमकाता…

विभव के चेहरे पर प्रश्नचिह्न का भाव उभरा तो वह तटस्थ हो गई. उस के चेहरे पर कोई भाव न था, न गम न खुशी.

‘‘विभव, यह बिजूका है, तिनकों से बना, मिट्टी का सिर, रंगीन कपड़ों से सजा…यह उस इनसान का प्रतीक है जो लालच में सबकुछ पा लेने की लालसा में सबकुछ गंवा देता है. भावनाओं की सचाई से अछूता…दिखावे की रंगीनी ओढ़े. अब क्या बचा है इस के जीवन में… जीवन भर मरुस्थल में खड़े रहने की सजा…निपट सूनेपन में अपने अरमानों के पक्षियों को इधरउधर बच कर भागते हुए देखते रहने के सिवा…’’

विभव ने धीरे से बिजूका पैकेट में रख दिया. पता नहीं वह उस में छिपे संदेश को कितना समझ पाया…न समझे, पर शीली के प्रशस्त मार्ग पर कांटा बन कर चुभे तो नहीं…

शीली कुछ न कह कर मुड़ गई. स्कूटर स्टार्ट किया और घर की ओर चल दी. उसे उम्मीद थी कि अब विभव पार्क के किनारे खड़ा कभी नहीं मिलेगा.

उपहार: आनंद ने कैसे बदला फैसला?

Serial Story: उपहार– भाग 1

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

‘‘तुम कहां थी. मेरा मन कितना घबरा रहा था. घड़ी देखो इरा, 8 बज चुके हैं. तुम से हजार बार कह चुकी हूं कि अंधेरा होने के बाद मुझे तुम्हारा घर से बाहर रहना पसंद नहीं है…’’ ‘‘सौरी,’’ यह कह कर मैं अपने कमरे में जा कर गुस्से में लेट गई. ‘कौन सा मैं घूमने गई थी. नोट्स ही तो बना रही थी शुभ्रा के घर. थोड़ी सी देर हो जाए तो हंगामा शुरू. हम अकेले रहते हैं तो क्या, मैं ने कहा था अकेले रहने के लिए’, मन ही मन मैं बड़बड़ाए जा रही थी कि मां ने आवाज लगाई, ‘‘इरा, खाना लग चुका है, आ जाओ.’’

इच्छा न होते हुए भी मैं किचन की ओर बढ़ गई. खाना खाते हुए मैं ने मां से पूछा, ‘‘मम्मा, कल हमारी क्लास पिकनिक पर जा रही है, मैं भी…’’

‘‘नहीं इरा, यह संभव नहीं है और प्लीज नो डिस्कशन.’’

‘‘तो ठीक है, मैं कल से घर पर ही रहूंगी, कालिज जाना बंद. वैसे भी घर से सुरक्षित जगह और कोई नहीं हो सकती. शहर भर में गुंडे मुझे ही तो ढूंढ़ रहे हैं…’’

मैं इस से आगे कुछ कहती कि मां ने मुझे गुस्से से देखा और मैं खाना छोड़ कर अपने कमरे में चली गई.

अगर मां जिद्दी हैं तो मैं भी उन की बेटी हूं, कल से कालिज नहीं जाऊंगी और यह निश्चय कर के मैं सो गई. सुबह जब आंख खुली तो 9 बज चुके थे. आज मेरी खैर नहीं. मां ने आज गुस्से में मुझे उठाया नहीं, लगता है… यह सोच ही रही थी कि मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘इरा, मैं आफिस जा रही हूं, तुम्हारा नाश्ता मेज पर रखा है.’’

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मैं ने उठ कर दरवाजा बंद किया और मां के कमरे की ओर मुड़ गई. देखा तो मां जल्दी में अलमारी की चाबी भूल गईं थीं. न जाने क्यों मैं ने मां की अलमारी खोल ली, देखा तो सामने लाल रंग की डायरी रखी थी. उत्सुकतावश मैं ने उसे उठाया और डायरी ले कर बाहर बालकनी में आ कर बैठ गई. मैं ने हिचकते हुए उसे पढ़ना शुरू किया.

‘शेखर, तुम्हें इस दुनिया से गए आज पूरे 2 महीने बीत गए हैं. तुम्हारे बगैर जीने की कतई इच्छा नहीं है पर तुम मुझे जीने की वजह दे गए हो. मेरी कोख में तुम्हारी निशानी है. घर का माहौल तनावग्रस्त रहता है. अम्मांबाबूजी को एक ओर तो तुम्हारे जाने का गम है, दूसरी ओर मेरे पापामम्मी का बढ़ता हुआ दबाव. पापा चाहते हैं कि मैं अपनी कोख को खत्म कर दूं जिस से वह मेरी दोबारा शादी कर सकें.

‘मैं जानती हूं इस संसार में सब से बड़ा दुख संतान का होता है. उन की बेटी छोटी सी उम्र में विधवा हो गई, यह दुख पहाड़ से भी बड़ा है और यही वजह है वह मेरी शादी करना चाहते हैं, पर मैं ऐसा नहीं चाहती. मैं भी तो मां बनने जा रही हूं. कैसे अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने बच्चे को…मैं ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकती. तुम ने जो मुझे प्यार दिया है मैं उस के सहारे अपना सारा जीवन निकाल लूंगी.’

10 जनवरी, 1984.

‘अम्मांबाबूजी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं. उन की आंखें हर पल, तुम्हारे  रूप में अपने पोते का इंतजार कर रही हैं पर डर लगता है कि अगर उन की यह इच्छा पूरी नहीं हुई तो क्या होगा?’

15 अप्रैल, 1984.

‘जिस का डर था वही हुआ. अम्मांबाबूजी की उम्मीद टूट गई. मैं अपनी गोद में इरा को पा कर बहुत खुश हूं. तुम भी तो यही चाहते थे. शेखर, इरा चांद का टुकड़ा है पर चांद की तरह उस पर भी दाग है. दुर्भाग्य का दाग. इस संसार में वह बच्चा दुर्भाग्यशाली ही तो कहलाएगा जिस के पास पिता की छांव न हो. शेखर, मुझे अम्मांबाबूजी का व्यवहार पीड़ा पहुंचाता है. इरा को वह गोदी में लेना पसंद नहीं करते. उन की नजरों में वह मनहूस है जो इस दुनिया में आने से पहले अपने पिता को खा गई.’

10 अगस्त, 1984.

‘शेखर, आज मैं ने बाबूजी का घर छोड़ दिया क्योंकि मुझ से पलपल अपनी बेटी का अपमान बरदाश्त नहीं होता. इरा अभी तो छोटी है पर जिस पल उसे खुद के लिए अम्मांबाबूजी की नफरत समझ में आएगी वह टूट जाएगी. अम्मां ने कल रात को उसे अपने कमरे से यह कह कर भगा दिया कि वह मनहूस है. मैं नहीं चाहती कि मेरी बच्ची इतनी नफरत के बीच में पले.’

25 जुलाई, 1986.

मां के लिखे एकएक शब्द मेरे अस्तित्व को झकझोर रहे थे. मैं ने डायरी का अगला पन्ना पलटा.

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‘शेखर, मैं बहुत थकने लगी हूं. पिता और मां दोनों की जिम्मेदारियों का निर्वाह करतेकरते मैं खुद क्या हूं भूल जाती हूं. इरा, अपने दादादादी के बारे में पूछती है. उस की खुशी के लिए मैं ने एक दिन घर फोन कर के आने के लिए पूछा था पर बाबूजी ने कहा कि हम दोनों उन के लिए मर चुके हैं.

‘रिश्तों की भीड़ में हम अकेले हैं. मम्मीपापा के पास चाह कर भी नहीं जा सकती, क्योंकि वहां भाभी की शंकित निगाहें मुझे भीतर तक टटोल लेना चाहती हैं कि कहीं मैं उन के घर पर कब्जा जमाने तो नहीं आ गई. मम्मीपापा बेबसी से मुझे देखते हैं. वह स्वयं भैयाभाभी पर निर्भर हैं. अब इरा ही मेरा संसार है.’

30 अगस्त, 1990.

‘आज पहली बार मैं ने इरा पर हाथ उठाया है. मुझे इस का बहुत दुख है. क्या करूं, उस के परीक्षा में नंबर कम आए हैं. अगले साल बोर्ड है, अगर ऐसा ही रहा तो मैं क्या करूंगी? हर तरफ सिर्फ एक ही बात होगी कि बिन बाप की बच्ची है इसलिए ऐसा हुआ. मैं हर पल सूली पर खड़ी होती हूं, जहां मेरा चरित्र, मेरे गुणअवगुण, मेरा सबकुछ मेरे अकेले होने से मापा जाता है, यहां तक कि मेरा मातृत्व भी हमेशा प्रश्नों के कटघरे में खड़ा रहता है.’

30 अप्रैल, 1999.

‘आज इरा का कालिज का पहला दिन है. शेखर, तुम्हारी बिटिया बड़ी हो गई है और मैं कमजोर. अभी तक तो मैं ने उसे अपने आंचल में छिपा कर रखा था पर क्या अब मैं उसे समाज की गंदगी से दूर रख पाऊंगी. वह भी तो दूसरी लड़कियों की तरह जीना चाहेगी, क्या मैं उसे यह आजादी दे पाऊंगी. आज बहुत डर लग रहा है. इरा अगर भटक गई… नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता…मैं यह क्या सोच रही हूं.’

1 जुलाई, 2001.

‘आज का दिन मेरे लिए बहुत बुरा था. आज आफिस में मिसेज भटनागर कह रही थीं कि मुझे इरा पर कड़ी निगाह रखनी चाहिए, बिन बाप की बच्ची कहीं भटक…मैं इस से आगे कुछ कह नहीं पाई. क्या मुझ से भूल हो गई है? क्या मुझे पापामम्मी की बात मान लेनी चाहिए थी? मैं ने खुद के लिए कभी न खत्म होने वाला अकेलापन चुना जिस से मेरी बच्ची सुरक्षित रहे, पर क्या मेरी सुरक्षा की परिभाषा गलत थी? क्या मेरे साथसाथ मेरी बच्ची को भी हरपल अग्नि परीक्षा देनी होगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी, पर कैसे?’

9 नवंबर, 2001.

‘इरा 22 साल की हो गई है. मुझे उस के भविष्य की चिंता हो रही है. कुछ ही सालों में वह अपने घर चली जाएगी. कैसे उस के लिए एक अच्छा जीवनसाथी खोजूं. काश, तुम मेरे पास होते. इरा के जाने के बाद मैं क्या करूंगी. कितना अकेलापन होगा, सोच कर भी डर लगता है.’

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15 अगस्त, 2006.

यह आखिरी पन्ना था. नजरें उठा कर देखा तो 4 बजने को थे. मेरा मन ग्लानि से भरा हुआ था. क्यों नहीं समझ पाई मैं अपनी मां की तकलीफ? मां के प्रति अपने किए गए हर बुरे बरताव पर मुझे शर्मिंदगी हो रही थी.

आगे पढें- अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि…

Serial Story: उपहार– भाग 2

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

अब ऐसा नहीं होगा. मां, मैं आप का सहारा बनूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मन में यह संकल्प कर मैं ने मां की डायरी यथावत अलमारी में रख दी. हमेशा से बिलकुल अलग मैं मां का हर बोझ कम करना चाहती थी. इसलिए छत पर सूखे हुए कपड़े उतारने गई तो ट्रक की आवाज सुन कर मैं चौंकी. पर देखा तो पड़ोस के घर में सामान उतर रहा था. होगा कोई, यह सोच कर कपड़े ले कर मैं नीचे आ गई.

अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि कालबेल बजी. साढे़ 5 बज गए, मां ही होंगी यह सोच कर दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला तो सामने मां की उम्र के व्यक्ति खड़े थे.

‘‘नमस्ते बेटा, मैं डा. सिद्धांत हूं. मैं ने आप का पड़ोस वाला घर खरीदा है. क्या आप के पास 5 सौ रुपए के खुले होंगे,’’ उन के इस प्रश्न पर मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और थोड़ी देर में उन्हें 100-100 के 5 नोट ला कर दे दिए. इस पहले परिचय के बाद अब डा. सिद्धांत से हर सुबह मेरी मुलाकात कालिज जाते हुए होती. मैं उन्हें नमस्ते करती और वह मुसकरा कर कहते, ‘‘खुश रहो बेटा.’’

मैं अब पहले वाली इरा नहीं रही थी. मेरी मां, मेरे जीवन का केंद्रबिंदु बन गई थीं. उन के आफिस से लौटने से पहले मैं हर हालत में कालिज से लौट आती और मां के आते ही चाय बना कर लाती. जब वह खाना बनातीं तो उन के साथ किचन में उन का हाथ बंटाती. मेरा यह व्यवहार शुरू में मां को अटपटा जरूर लगा और उन्होंने 1-2 बार पूछा भी, ‘‘इरा, क्या बात है, कालिज से जल्दी आ जाती हो, किसी दोस्त से झगड़ा हो गया है क्या?’’ मां के इस सवाल पर मैं सिर्फ मुसकरा कर रह जाती.

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एक दिन जब मैं कालिज से लौट कर आई तो देखा, मां घर पर हैं. अभी तो सिर्फ 3 ही बजे हैं और मां घर पर, सब ठीक तो है? यह सोच कर मैं सीधे मां के कमरे की ओर गई. देखा, मां बिस्तर पर सो रही थीं. मैं ने जैसे ही उन्हें उठाने के लिए हाथ लगाया तो पाया कि उन्हें तेज बुखार है.

‘‘मम्मा, आप को तो बुखार है,’’ मेरे स्पर्श से मां जाग गई थीं.

‘‘हां बेटा, पर मैं जल्दी ठीक हो जाऊंगी. मैं ने दवा ले ली है.’’

रात को मां ने जैसे मुझे समझाया वैसे मैं ने उन के लिए दलिया भी बनाया.

‘‘पहली बार तुम ने कुछ बनाया है. मेरी बिटिया अब बड़ी हो गई है,’’ यह कह कर मां ने मेरे माथे को चूम लिया था. मैं रात को मां के पास ही सो गई. थोड़ी देर बाद मां के कराहने की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. मैं ने लाइट जलाई और घड़ी की ओर देखा तो रात के 1 बज रहे थे. मां को छू कर देखा तो उन का बदन भट्ठी की तरह तप रहा था. समझ में नहीं आया कि क्या करूं. दौड़ कर डा. सिद्धांत के घर गई.

‘‘इतनी रात को, सब ठीक तो है बेटा?’’ उन्होंने मुझे देखते ही पूछा.

‘‘अंकल, मम्मा को बहुत तेज बुखार है. प्लीज, आप घर…’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं…’’ यह कह कर वह अंदर गए और अपना बैग ले कर मेरे साथ घर आ गए. मां की हालत देख कर बोले, ‘‘अच्छा किया बेटा जो तुम ने मुझे बुला लिया. थोड़ी देर में इन का बुखार उतर जाएगा. मैं ने इंजेक्शन लगा दिया है.’’

‘‘अंकल, सौरी, मैं ने आप को इतनी रात गए…’’

‘‘अंकल कहती हो तो सौरी कहने की जरूरत नहीं,’’ उन की मुसकराहट में अपनत्व का वही एहसास था जिसे मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी.

रात भर डा. सिद्धांत, मां के पास बैठे रहे और जब मैं ने उन से उन के घर जाने को कहा तो उन्होंने कहा कि जब मां का बुखार पूरी तरह उतर जाएगा तभी वह जाएंगे.

सुबह तक मां का बुखार उतर गया. तब जा कर सिद्धांत अंकल अपने घर जाने के लिए उठे पर जातेजाते वह मां को आफिस न जाने की हिदायत दे गए.

दिन में मां को दोबारा बुखार चढ़ गया. शाम को जब डा. सिद्धांत मां को देखने आए तो बोले, ‘‘बेटा, अच्छा होगा कि हम आप की मम्मा का ब्लड टेस्ट करवा लें.’’

मां का ब्लड टेस्ट हो गया और रिपोर्ट से पता चला कि उन को टाइफायड हो गया है. डा. सिद्धांत मां को देखने सुबहशाम आते. मां धीरेधीरे ठीक होने लगीं.

‘‘इरा बेटा, आप की मम्मी की तबीयत में काफी सुधार है पर मेरा तो नुकसान होने वाला है,’’ उस दिन

डा. सिद्धांत हंसते हुए बोले थे.

‘‘वो कैसे अंकल?’’ मेरे इस सवाल पर वह मुसकरा कर बोले, ‘‘भई, जब रुद्राजी पूरी तरह ठीक हो जाएंगी तो शाम को चाय मुझे खुद बना कर अकेले पीनी पड़ेगी.’’

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‘‘नहीं डा. सिद्धांत, ऐसा नहीं होगा. आप को हर शाम हास्पिटल से सीधे हमारे घर आना होगा,’’ मां की इस बात को सुन कर मैं चौंकी, क्योंकि आज पहली बार उन्होंने किसी व्यक्ति से साधिकार बात की थी.

मां पूरी तरह ठीक हो गईं. डा. सिद्धांत रोज शाम को हमारे घर आते. इस तरह महीना बीत गया. मां और डा. सिद्धांत को मैं ने कभी ज्यादा बात करते नहीं देखा. डा. सिद्धांत अपने हास्पिटल के किस्से सुनाते और मां मुसकराती रहतीं. मां ने कभी डा. सिद्धांत से उन के परिवार के बारे में नहीं पूछा और न ही डा. सिद्धांत ने अपने बारे में कुछ बताया.

एक दिन शाम को मां का फोन आया कि उन्हें आफिस से आने में देर हो जाएगी. अभी मैं ने फोन रखा ही था कि कालबेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सिद्धांत अंकल खड़े थे.

‘‘रुद्राजी नहीं आईं?’’

‘‘नहीं अंकल, आज मम्मा को आफिस में कुछ काम है थोड़ी देर से आएंगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, मम्मा को आ जाने दो, तभी चाय पीएंगे, तब तक मैं अपनी बिटिया के साथ बैठ कर ढेर सारी बातें करूंगा,’’ और यह कह कर डा. सिद्धांत ने मुझे भी सोफे पर बैठने का इशारा किया.

‘‘अंकल, क्या मैं आप से कुछ पूछ सकती हूं?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, बहुत कुछ पूछ सकती हो,’’ और यह कह कर डा. सिद्धांत खिलखिला कर हंस दिए.

‘‘अंकल, आंटी…’’ मैं आगे कुछ कहती इस से पहले वह बोले, ‘‘वह इस दुनिया में नहीं हैं. जब विभोर 4 साल का था तभी एक सड़क दुर्घटना…’’

‘‘आई एम सौरी अंकल, विभोर आप का बेटा है, पर वह कहां है?’’

मेरे इस सवाल को सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘वह अमेरिका में अपनी वाइफ के साथ है.’’

‘‘आप नहीं गए उस के पास?’’

‘‘नहीं बेटा, जीवन की सांझ मैं अपने देश में ही रह कर निकाल देना चाहता हूं.’’

‘‘अंकल, मैं बहुत छोटी हूं पर फिर भी आप से पूछना चाहती हूं कि आप ने आंटी के जाने के बाद दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’ यह सवाल मैं ने अपनी सारी हिम्मत जुटा कर पूछा था. डा. सिद्धांत ने बड़ी ही सहजता से कहा, ‘‘विभोर की खातिर. मैं डरता था कि कहीं सौतेली मां उस के साथ बुरा व्यवहार न करे.’’

‘‘अंकल, मैं आप की बात से असहमत नहीं हूं, फिर भी मुझे लगता है मां तो मां होती है, सौतेली तो उसे समाज बना देता है. जिस बच्चे को मां अपनी कोख से जन्म नहीं देती यदि उस बच्चे की भलाई के लिए या किसी गलती के लिए उसे डांट देती है तो हम सब उस के पीछे का कारण उस का सौतेला होना ढूंढ़ते हैं.’’ इस के आगे डा. सिद्धांत कुछ कहते कि कालबेल बजी, ‘लगता है मम्मा आ गईं,’ यह कहते हुए मैं दरवाजे की ओर बढ़ी.

‘‘रुद्राजी, आज आप को बहुत देर हो गई. रात को अकेले आना ठीक नहीं है,’’ यह बात सुन कर मैं जोर से हंस दी. अभी तक जो बात मैं अपने लिए मां से सुनती आई थी, आज मां को वही बात सुनने के लिए मिल रही थी.

आगे पढें- मेरी बात को सुन कर मां बोलीं…

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Serial Story: उपहार– भाग 3

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

दूसरे दिन जब मैं कालिज गई तो शालिनी मुझ से 6 से 9 वाले शो की मूवी देखने को बोली. मैं ने हां कर दी. पर फिर सोचने लगी कि कैसे मम्मा को मनाऊंगी. कालिज से मैं सीधे डा. सिद्धांत के घर गई. मेरी परेशानी सुन कर उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वह मम्मा को मना लेंगे. थोड़ी देर में जब वह घर आए तो मैं ने जानबूझ कर उन्हीं के सामने मूवी देखने जाने की बात की.

मेरी बात को सुन कर मां बोलीं, ‘‘इरा, तुम जानती हो यह संभव नहीं है उस पर रात का शो तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘रुद्राजी, जाने दीजिए, मेरी बेटी बड़ी हो गई है. आप रात की चिंता मत कीजिए. मैं इरा को लेने चला जाऊंगा.’’

डा. सिद्धांत की बात को सुन कर मां ने मौन स्वीकृति दे दी. मुझे पहली बार एहसास हो रहा था कि पिता रूपी सुरक्षा कवच क्या होता है.

मुझे डा. सिद्धांत के साथ बिताया हर पल बहुत खुशी देता. क्या मां को भी

डा. सिद्धांत का साथ सुकून देता है, यह सवाल बारबार मुझे परेशान करता. मां अपने मन की हर बात अपनी डायरी में लिखती हैं यह सोच कर मां के आफिस जाने के बाद मैं ने चुपचाप अलमारी से मां की डायरी निकाली और पढ़नी शुरू की.

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‘इरा, आज पहली बार अपनी सहेलियों के साथ इतनी रात गए बाहर गई है पर आज मुझे डर नहीं लगा. क्या इस का कारण डा. सिद्धांत हैं? उन्होंने मुझे आफिस से देर से आने पर टोका. मुझे उन का टोकना बुरा क्यों नहीं लगा? बरसों बाद लगा कि मैं भी जीतीजागती इनसान हूं, जिस की किसी को परवा है. यह एहसास एक अजीब सा सुकून दे रहा है. कहीं मैं गलत तो नहीं? शेखर, क्या मैं तुम्हारी यादों के साथ अन्याय कर रही हूं? यह सब क्या है, कुछ समझ नहीं आ रहा.’

1 मई, 2007.

मैं ने डायरी बंद कर के रख दी. शाम को डा. सिद्धांत जब घर आए तो मां उन से बोलीं, ‘‘डा. सिद्धांत, इरा बड़ी हो गई है, अगर आप की नजर में कोई अच्छा लड़का हो तो…’’

‘‘मुझे शादी नहीं करनी,’’ मैं ने मां की बात काटते हुए कहा.

‘‘क्यों बेटी?’’

डा. सिद्धांत के इस सवाल पर मैं बोली, ‘‘मैं ने शादी कर ली तो मां बिलकुल अकेली हो जाएंगी.’’

‘‘ओह, तो यह बात है. तुम चिंता मत करो, मैं हूं ना,’’ डा. सिद्धांत यह कह कर एकदम से सकपका गए और उन्होंने तुरंत मां की ओर देखा. मां को तो जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘मैं चलता हूं,’’ यह कह कर

डा. सिद्धांत उठ कर चले गए, मां भी अपने कमरे में चली गईं. रात को खाना खाते हुए मां और मेरे बीच बिलकुल बात नहीं हुई. मैं रात भर सो नहीं सकी. कभी मेरी नजरों के सामने डा. सिद्धांत आते और कभी मां.

अगले दिन मैं सुबहसुबह

डा. सिद्धांत के घर पहुंच गई और बोली, ‘‘अंकल, इस मदर्स डे पर मैं मम्मा को ऐसा तोहफा देना चाहती हूं जो आज तक किसी बेटी ने अपनी मां को नहीं दिया हो. अब आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं.’’

‘‘इरा बेटा, तुम्हें मुझ से जैसी सहायता चाहिए, बोलो, मैं अपनी बेटी के लिए सबकुछ कर सकता हूं.’’

‘‘क्या आप मेरे पापा बनेंगे?’’ मैं ने डा. सिद्धांत की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘‘हां बेटा,’’ और यह कह कर उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखों से अविरल आंसू बहने लगे. ऐसा लग रहा था कि मेरे चारों ओर एक बेहद मजबूत सुरक्षा कवच बन गया है.

‘‘इरा, क्या रुद्राजी मानेंगी?’’

‘‘उन्हें मैं मनाऊंगी अंकल.’’

मुझे हिम्मत जुटाने में कुछ समय लगा था. रविवार होने की वजह से मां उस दिन देर से उठीं. ‘‘गुडमार्निंग मम्मा,’’ मैं चाय ले कर सुबह जब उन के कमरे में पहुंची तो मां ने हैरानगी से मुझे देखा.

‘‘क्या बात है इरा, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां, मां, मुझे आज आप से कुछ चाहिए. पर मैं मांगूंगी तभी जब आप यह विश्वास दिला दें कि मना नहीं करेंगी.’’

मां ने मुझे हां में भरोसा दिया तो मैं तपाक से बोली, ‘‘मां, मुझे पापा चाहिए.’’

‘‘तुम्हें होश भी है कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘होश में हूं मां, मैं चाहती हूं कि सिद्धांत अंकल मेरे पापा बन जाएं.’’

‘‘बेटा, ऐसे हर कोई पिता नहीं बन जाता.’’

‘‘आप सही कह रही हैं मम्मा, हर कोई पिता नहीं बन सकता पर सिद्धांत अंकल हर कोई नहीं हैं. अगर हालात ने मेरे जन्मदाता को मुझ से छीन लिया तो मैं जीवन भर पिता की छांव से क्यों वंचित रहूं. मम्मा, पापा वह होते हैं जो अपने बच्चे को जीवन की हर परेशानी में थाम लें. आज सिद्धांत अंकल ने मुझे वह सुरक्षा और प्यार दिया है. एक बच्चे के लिए अगर मां ममता की छांव होती है तो पिता सुरक्षा कवच,’’ मैं ने मां को समझाते हुए कहा.

‘‘बेटा, इस का मतलब मैं तुम्हारा पापा नहीं बन पाई,’’ यह कहतेकहते मां के चेहरे पर उदासी छा गई.

‘‘नहीं, मम्मा, ऐसा नहीं है, मैं सिर्फ आप को यह बताना चाहती हूं कि आप ने अपना सारा जीवन मेरे लिए समर्पित कर दिया पर अब मैं चाहती हूं कि आप अकेले न रहें.’’

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‘‘इरा, तुम सचमुच बड़ी हो गई हो. बेटा, मेरा सारा जीवन तो निकल चुका है और बाकी का जीवन…’’

‘‘ऐसा क्यों मां,’’ मैं ने मां की बात को बीच में काट कर कहा, ‘‘क्या आप सिर्फ मेरे व पापा के लिए जीना चाहती हैं. मम्मा, यही उम्र होती है जब सच्चे मानों में जीवनसाथी की जरूरत होती है. जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने जीवन में मशगूल हो जाते हैं तब पतिपत्नी ही एक दूसरे का सहारा बनते हैं. मां, यादों के सहारे जीवन नहीं निकलता. जीवन जीने के लिए जीतेजागते इनसान की जरूरत होती है. आप समझ रही हैं न.’’

‘‘हां बेटा, मैं समझ रही हूं. मुझे कुछ वक्त चाहिए.’’

अगले दिन सुबह जब मैं ने अपनी आंखें खोली तो मां मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘हैप्पी मदर्स डे मां,’’ यह कह कर मैं मां के गले लग गई. ‘‘मां, मैं आप को क्या तोहफा दूं?’’ मैं ने मां की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘तुम तो मुझे कल ही तोहफा दे चुकी हो. किसी मां के लिए इस से बड़ा उपहार क्या हो सकता है कि उस की बेटी छोटी सी उम्र में जीवन का सार जान ले.’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं तो अब गिफ्ट लेने की मेरी बारी है,’’ मैं चहक कर बोली.

‘‘बिलकुल,’’ मां के चेहरे की मुसकान ने जैसे सबकुछ कह दिया और मैं सिद्धांत अंकल…नहींनहीं अपने पापा के पास दौड़ पड़ा.

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