सरदार उधमः क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह के जीवन से जुड़े कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनः निर्माण

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः राइजिंग सन और कीनो वक्र्स

निर्देशकः शूजीत सरकार

कलाकारः विक्की कौशल, स्टीफन होगन,  शॉन स्कॉट,  कर्स्टी एवर्टन,  एंड्रयू हैविल,  बनिता संधू,  अमोल पाराशर व अन्य.

अवधिः दो घंटे 43 मिनट 50 सेकंड

ओटीटी प्लेटफार्मः अमैजान प्रइम वीडियो

13 अ्रपैल 1919 के दिन ब्रिटिश हुकूमत के समय पंजाब प्रांत के गर्वनर माइकल ओ डायर ने रोलिड एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण विरोध दर्ज करा रहे निहत्थे भारतीयों पर पंजाब के जलियां वाला बाग में जघन्य नरसंहार करवाया था, जिसमें बीस हजार से अधिक लोग मारे गए थे. इससे क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह का खून खौल उठा था, उसके बाद वह माइकल ओडायर की हत्या करने के मकसद से लंदन पहुॅचे और कई प्रयासों के बाद 13 मार्च 1940 को लंदन के कार्टन हाल में माइकल ओ डायर की हत्या कर जलियांवाला बाग कांड का बदला लिया था, जिसे सरदार उधम सिंह ने खुद ही अपना क्रांतिकारी फैसला बताया था और खुद को क्रांतिकारी होने की बात कही थी. जिसकी वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्हे फांसी पर लटका दिया था. पर आज तक ब्रिटेन ने इस दुष्कृत्य के लिए माफी नही मांगी है. भारत में राजनीतिक रस्साकशी के चलते हाशिए पर ढकेल दिए गए क्रांतिकारी उधम सिंह के जीवन को विस्तार से लोगों के सामने रखने के लिए फिल्मकार शूजीत सरकार ऐतिहासिक फिल्म ‘‘सरदार उधम’’ लेकर आए हैं, जो कि 16 अक्टूबर से अमैजान प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानीः

फिल्म की कहानी 1931 में पंजाब में जेल से शेर सिंह उर्फ उधम सिंह (विक्की कौशल) के जेल से रिहा होने से शुरु होती है, जो कि जेल से निकलकर खैबर गेस्ट हाउस पहुंचता है. जहां नंदा सिंह उन्हे सलाह देते है कि वह अफगानिस्तान पहुंचे जहां उन्हे पिस्तौल मिल जाएगी. फिर यूएसएसआर रूस होते हुए वह 1934 में लंदन पहुंचे. लंदन पहुंचकर उधम सिंह वहंा मौजूद कुछ ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ यानी कि ‘एच एस आर ए’ से जुड़े खोपकर सहित कई लोगों से मिलते हैं. एक ब्रिटिश महिला एलीन (कर्स्टी एवर्टन) से दोस्ती करते हैं. उधम सिंह लंदन में जनरल माइकल ओ ड्वायर (शॉन स्कॉट) की तलाश करते है. अंततः उधम सिंह इस सिरफिरे अंग्रेज को ढूंढ निकालते हंै और एक दिन सेल्समैन बनकर उन्हे मुफ्त में पेन का बैग देते हैं. फिर कुछ दिन जनरल माइकल ओड्वायर से के घर मे नौकरी करते हुए उनके जूते पॉलिश करते हैं. जनरल ओडायर के मन में जलियावाला बाग कंाड के लिए कोई अपराध बोध नही है, वह बार बार उधम सिंह से कहते हैं कि वह भारतीय जनता को सबक सिखाना चाहते थे.  फिर 13 मार्च 1940 को कॉर्टन हाल के जलसे में जनरल ड्वायर को उधम सिंह गोली मार देते हैं. पर भागते नहीं है और पुलिस को गिरफ्तारी देते हैं.  इसके बाद उधम पर अंग्रेज पुलिस के जुल्म और अदालती मुकदमा चलता है. पुलिस के पूछताछ के ही दौरान उधम सिंह के जीवन के कई घटनाक्रम फ्लैशबैक में आते हैं. तभी वह बताते है कि किशोर वय में उन्होने जलियंावाला बाग कांड देखा था, जिसकी वजह से उनके अंदर जनरल ओड्वायर की हत्य कर बदला लेने का गुस्सा पनपा था. उनके पास कई नाम के पासपोर्ट भी होते हैं. अंत में उधम बताते है कि जलियांवाला बाग कांड के कारण उन्होने जनरल ड्वायर को मारने का संकल्प लिया था. अदालत में उधम सिंह ‘हीर रांझा’ किताब पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाते हैं. फिर बिना ज्यादा बहस के अंग्रेज न्यायाधीश फांसी का फैसला लिख देता है.

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लेखन व निर्देशनः

दो घंटे 44 मिनट लंबी अवधि की अति धीमी गति से कम संवादो वाली इस फिल्म को देखने के लिए धैर्य की जरुरत है. फिल्म की कहानी धीरे धीरे आगे बढ़ती है, जिसमें संवाद कम हैं. फिल्मकार ने इसे दृश्यों के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास किया है.  वैसे फिल्मकार ने इस ऐतिहासिक फिल्म को पेश करते हुए फिल्म का नाम सरदार उधम सिंह की बजाय सिर्फ सरदार उधम ही रखा है और शुरूआत में ही डिस्क्लैमर देकर सारी मुसीबतों व विवादों से छुटकारा भी पाया है. डिस्क्लैमर काफी लंबा चैड़ा है. इसमें फिल्मकार ने घोषित किया है कि यह फिल्म सत्य एैतिहासिक घटनाक्रमांे प आधारित है, मगर ऐतिहासिक तथ्यों को इसमें न खोजा जाए. फिल्म सरदार उधम सिंह के जीवन पर जरुर आधारित है, मगर इसे सरदार उधम सिंह की बायोपिक फिल्म के तौर पर न देखा जाए. ‘रचनात्मक स्वतंत्रता और सिनेमाई अभिव्यक्ति के लिए घटनाओं को नाटकीय बनाने‘ के सामान्य अस्वीकरण के साथ फिल्मकार हमेशा अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास क्या करते हैं. यदि वह सच कहने से डारते हैं,  तो फिल्म ही नही बनानी  चाहिए. हम सभी जानते है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के कई शहीदों को अभी न्याय और सम्मान मिलना बाकी है. कई क्रातिकारी इतिहास के पन्नों में कुछ पंक्तियों में सिमट गए और वह भी जो राजनीतिक रस्साकशी में हाशिये पर ढकेल दिए गए.  इस लिहाज से सरदार उधम की कहानी विस्तार से बताने के लिए शुजित सरकार का यह एक बड़ा कदम माना जा सकता है. क्योंकि उन्होंने इसे सिर्फ फिल्म न रखते हुए किसी दस्तावेज की तरह पर्दे पर उतारा है.

फिल्मकार ने उधम सिंह के अफगानिस्तान व रूस होते हुए इंग्लैंड पहंॅुचने को बहुत विस्तार से चित्रित किया है. फिल्म के अंतिम चालिस मिनट में जब जलियांवाला बाग कांड आता है, तब अंग्रेजों के अत्याचार आदि की कहानी नजर आती है.

फिल्म में तमाम ऐसे घटनाक्रम हैं, जिनका इतिहास में कहीं जिक्र नही है. फिल्मकार का दावा है कि उधम सिंह से संबंधित तमाम तथ्य अभी तक सार्वजनिक नही किए गए हैं. फिल्मकार ने फिल्म में उस दौर में चल रही वैश्विक उथल-पुथल और आंदोलनों का भी चित्रण किया है. फिल्मकार ने इस बात पर रोशनी डालने का प्रयास किया है कि आजादी की लड़ाई कई अलग-अलग स्तरों पर चल रही थी. देश में आजादी के दीवाने सड़कों पर उतर कर जेल जा रहे थे तो कई विदेश में रह कर मदद कर रहे थे या फिर मदद हासिल करने के लिए प्रयासरत थे.

फिल्मकार एक जगह यह बताते हैं कि उधम सिंह को अंग्रेजी  भाषा का ज्ञान था, तो फिर पुलिस पूछताछ के दौरान अनुवादक रखने की जरुरत क्यों महसूस की गयी?क्या यह निर्देशक की कमजोर कड़ी का परिचायक नही है?

फिल्मकार ने उधम और प्यारी रेशमा (बनिता संधू) के बीच रोमांस को ठीक से चित्रित नही किया है, जबकि फ्लैशबैक में कई बार इसका संकेत देते हैं. पर फिल्मकार ने जलियांवाला बाग हत्याकांड का आदेश देने वाले पुरुषों की क्रूर क्रूरता, भीड़ पर लगातार गोलीबारी, अपने जीवन को बचाने की कोशिश कर रहे निहत्थे भारतीय,  मृतकों और मरने वालों की हृदय विदारक दृश्यों का यथार्थपरक चित्रण किया है. शूजित ने अपनी इस फिल्म में 1919 से 1941 के दौर में भारत और लंदन को जीवंतता प्रदान की है,  फिर चाहे रूस के बर्फीले जंगल व पहाड़ी हों या भारत व लंदन की  जगहें-इमारतें-सड़कें हों,  सभा भवन हों,  किरदारों के परिधान हों,  उस समय का माहौल हो या दृश्यों में नजर आने वाली तमाम प्रॉपर्टी.  जी हॉ!1933 से 1940 के लंदन का सेट,  विंटेज एम्बुलेंस,  डबल डेकर बस,  पुलिस वैन,  हाई हील्स के साथ दौड़ती महिलाएं,  सबकुछ प्रामाणिकता का एहसास कराती हैं.

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अभिनयः

जलियावाला बाग कांड के गवाह बने उधम सिंह की पीड़ा,  क्रांतिकारी बनने, बदला लेने के जोश आदि को विक्की कौशल ने परदे पर अपने उत्कृष्ट अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. 19 वर्षीय किशोर वय में जलियांवाला बाग के घायलों को अस्पताल पहुॅचाते वक्त चेहरे  पर आ रही पीड़ा व गुस्सा हो अथवा जासूस की तरह रहस्यमय इंसान की तरह लंदन की सड़कों पर चलना हो, माइकल ड्वायर पर गोली चलाने से लेकर पुलिस की यातना सहने तक के हर दृश्य में विक्की याद रह जरते हैं. विक्की कौशल का अभिनय व हावभाव काफी सधे हुए हैं. भगतसिंह के किरदार में अमोल पाराशर के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. उधम सिंह की प्रेमिका रेशमा के भोलेपन व मासूमियत को बनिता बंधू ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. वह बिना संवाद महज हाव-भाव से असर पैदा करने में कामयाब रहती हैं.  माइकल ओ डवायर के किरदार में शॉन स्कॉट का अभिनय काफी दमदार है.  उधम के वकील के रूप में स्टीफन होगन का अभिनय ठीक ठाक है.

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फिल्म ‘मसान’ में एक बनारसी लड़के की भूमिका निभा चुके अभिनेता विक्की कौशल को इस फिल्म के लिए इंटरनेशनलइंडियन फिल्म अकेडमी अवार्ड्स के तहत बेस्ट मेल डेब्यू का पुरस्कार मिला है.विक्की के पिता श्याम कौशल एक एक्शन एंड स्टंट डायरेक्टर है,उन्होंने क्रिश 2, बजरंगी भाईजान,स्लमडॉग मिलेनियर, 3 इडियट्स आदि कई फिल्मों में एक्शन दिया है. विक्की को हमेशा से अभिनय की इच्छा रही. मेकेनिकल इंजिनीयरिंग की पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने एक्टिंग की ट्रेनिंग ली और अभिनय के क्षेत्र में उतरे. इससे पहले उन्होंने फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में निर्देशक अनुराग कश्यप के साथ सहायक निर्देशक के रूप मेंकाम किया और कुछ फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिका निभाई, जिससे उन्हें अभिनय की बारीकियों को सीखने का मौका मिला. विक्की स्पष्टभाषी और हँसमुख स्वभाव के है. उनकी फिल्म ‘सरदार उधम’ अमेजन प्राइम विडियो पर रिलीज हो चुकी है, जो सरदार उधम सिंह के जीवनी पर बनी है, जिसमें विक्की के अभिनय की बहुत प्रसंशा की जा रही है. विक्की से ज़ूम कॉल पर बात हुई. आइये जाने विक्की से उनकी कुछ खास बातें.

सवाल-ये फिल्म आपके लिए बहुत खास है, क्या इसकी शूटिंग करते हुए कभी ऐसा एहसास हुआ?

हां, कई बार मेरे साथ हुआ है, क्योंकि जलियांवाला बाग़ को रिक्रिएट करना बहुत ही मुश्किल था. स्क्रिप्ट मुझे हिलाकर रख देता था और कई बार आँखे नम हो जाती थी. कहानी पता होती थी, लेकिन जब इसे रियल में शूट करना होता है, तो वही भाव मेरे अंदर आ जाता था. इसके अलावा निर्देशक शूजित सरकार का सेट हमेशा ही दृश्य के अनुसार रियल और गंभीर होता था. मेरा खून सूख जाता था. हर रात को मैं सोचता रहा कि आज से सौ साल पहले 20 हजार की भीड़ ने एक मैदान में इस दृश्य को देखा है, जहाँ से उन्हें भागने का कोई रास्ता नहीं था. सिर्फ एक रास्ता था, जिससे फौजी लगातार निहत्थे लोगों पर गोलियां चला रहे थे. उस भीड़ में बच्चे, बूढ़े, जवान सभी थे. इस दृश्य ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.

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सवाल-इस फिल्म को इरफ़ान खान करने वाले थे, लेकिन उनकी अचानक मृत्यु से ये फिल्म आपको मिली, क्या आपको लगता है कि इरफ़ान आपसे अच्छा अभिनय कर पाते?

अभिनेता इरफ़ान खान एक प्रतिभाशाली कलाकार थे और पूरे विश्व में प्रसिद्ध थे. उन्होंने कई सफल फिल्में की है और मुझसे अच्छा अभिनय अवश्य कर पाते. मैं अगर उनके जैसे एक प्रतिशत भी काम करने में सफल हुआ, तो ये मेरे लिए बड़ी बात होगी.यहाँ मेरा सौभाग्य के साथ-साथ दायित्व भी है कि मैं इस भूमिका को अच्छी तरह से निभाऊँ. ये फिल्म मेरी तरफ से उनके लिए एक छोटा सा ट्रिब्यूट है.

सवाल-निर्देशक शुजित सरकार के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

अनुभव बहुत ही अच्छा रहा, क्योंकि मैंने उनके साथ काम कर कई चीजे सीखी है. उनके साथ काम करने से पहले मुझे खुद को एक खाली कप की तरह पेश करना पड़ा, ताकि उनके निर्देश को मैं अपने अंदर पूरी तरह भर सकूँ. शुजित सरकार ने इस फिल्म की कल्पना आज से 20 साल पहले की थी और इसकी वजह से वे दिल्ली से मुंबई आये थे, लेकिन यहाँ भी उन्हें कोई प्रोड्युसर नहीं मिला था, क्योंकि तब वे नए थे और इस तरह की फिल्मों का चलन नहीं था. आज ये बायोपिक फिल्म बन दर्शकों तक पहुंची है और सबको पसंद आ रही है.

सवाल-इस फिल्म में आपने एक फ्रीडम फाइटर सरदार उधम सिंह की भूमिका निभाई है, कितना चुनौतीपूर्ण था और किस भाग को करना बहुत कठिन था?

इसमें मैंने शारीरिक रूप से खुद की तैयारी कर ली थी, क्योंकि इसमें एक बार 20 साल के सरदार उधम तो कही 40 वर्ष के सरदार उधम की भूमिका निभानी पड़ी, जो बहुत चुनौतीपूर्ण रही. दो दिन में मुझे 14 से 15 किलो घटाने थे, जो बहुत कठिन था. उस भाग को शूट करने के बाद दुबारा 25 दिनों में फिर से 14, 15 किलो बढ़ाने थे. इसके लिए मुझे कुछ फोटो सोशल मीडिया पर मिले तो कुछ पुरानी किताबों से पता चला है कि सरदार उधम सिंह बहुत ही बलशाली और मजबूत इंसान थे. इसलिए खुद को थोडा वजनी, चेहरे की भारीपन को लाना पड़ा. इसके अलावा उन्होंने अलग-अलग देशों में अलग लुक्स और नाम को बदलते थे. ऐसे में मुझे भी लुक्स के साथ जीना सीखना पड़ा. इसके लिए प्रोस्थेटिक का सहारा लिया गया, जिसके लिए रूस, सर्बिया और यहाँ की टीम ने मिलकर काम किया, क्योंकि टीम उस दौर की सभी चीजों को वास्तविक दिखाने की कोशिश की है, ताकि दर्शक को दृश्य रियल लगे. उस इन्सान का दर्द और दुःख जैसे मानसिक भाव को चेहरे पर लाने के लिए शुजित सरकार ने काफी मदद की है.

सवाल-इस तरह की गहन चरित्र निभाने के बाद क्या आप में कुछ परिवर्तन आया?

थोडा संयम और धीरज मेरे अंदर आया है, क्योंकि एक इंसान ने जलियांवाला बाग़ के दर्द को  21 साल तक अपने अंदर रखा और 21 साल बाद उसका बदला लंदन जाकर लिया था. इसमें धैर्य की बहुत जरुरत होती है और मुझमे भी धैर्य का कुछ भाव अवश्य आया होगा.

सवाल-क्या आप सरदार उधम सिंह की जीवनी से परिचित थे, क्योंकि स्कूल में बहुत कम सरदार उधम सिंह के बारें में लिखी गयी है,क्या आप मानते है कि इन स्वतंत्रता सेनानियों के बारें में और अधिक पढ़ी और सुनी जानी चाहिए?

मुझे सरदार उधम सिंह के बारें में पता है, क्योंकि पंजाब में मेरा गांव होशियारपुर से जलियांवालाबाग़ केवल 2 घंटे की दूरी पर है और इतिहास की किताब में इसका जिक्र होने पर मैं अपने पेरेंट्स से इसकी जानकारी लेता था, क्योंकि उस ज़माने में फ्रीडम और इक्वलिटी, बार-बार भेष बदलकर पूरे विश्व में घूमना आदि बातें फिल्म के दौरान पता चली.

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इन स्वतंत्रता सेनानियों के बारें में किताबो, फिल्मों और संगीत के माध्यम से याद किये जाने की आवशयकता है, क्योंकि ये डेमोक्रेसी जो हमें मिली है, वह ऐसे बहुतों के त्याग और बलिदान के फलस्वरूप मिली है. इसे बचाकर रखना बहुत जरुरी है, क्योंकि उस ज़माने में 200 साल तक राज कर रहे अंग्रेजों को हटाना आसान नहीं था. शुजित सरकार ने इसी वजह से इस फिल्म को बनाने के लिए 20 साल तक इन्तजार किया है.

सवाल-आप को किस बात से गुस्सा आता है और गुस्सा आने पर इसे मैनेज कैसे करते है?

जब मैं बहुत थका हुआ महसूस करता हूँ या तेज भूख लगी हो, तो मैं गुस्सा हो जाता हूँ. इसे मैं खुद को अकेला रखकर या खाना खाकर शांत कर लेता हूँ. किसी से बात नहीं करता, क्योंकि तब किसी के कुछ कहने पर मैं एकदम से फूट पड़ता हूँ.

मैं सफलता और असफलता को ठग मानता हूं – विकी कौशल

फिल्म ‘मसान’ से हिंदी फिल्मों में चर्चित होने वाले विकी कौशल (Vicky Kaushal), एक्शन डायरेक्टर श्याम कौशल के बेटे है. बचपन से ही फ़िल्मी माहौल में पले और बड़े हुए विकी ने इंजिनीयरिंग की पढ़ाई पूरी की, पर उसे उस क्षेत्र में काम करने की रूचि नहीं थी. उसने थिएटर और नमित किशोर की एक्टिंग क्लासेज में ज्वाइन किया और फिल्मों की और बढ़े. पहले उसने कई छोटी-छोटी भूमिकाएं निभाई. फिल्म मसान उनके जीवन की टर्निंग पॉइंट साबित हुई, जिसमें उनके अभिनय को प्रसंशकों ने काफी तारीफ की, पुरस्कार मिले. इसके बाद फिल्म उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक में भी उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. आज वे सफलता की सीढ़ी चढ़ रहे है और हर नयी प्रोजेक्ट में कुछ अलग ढूंढने की कोशिश कर रहे है. उनकी फिल्म भूत – हौंटेड शिप रिलीज पर है, उनसे मिलकर बात करना रोचक था, पेश है कुछ अंश.

सवाल-इस फिल्म को करने की खास वजह क्या है और भूत- प्रेत आदि पर कितना विश्वास रखते है?

जब मुझे इसकी स्क्रिप्ट सुनाई गयी थी तो मुझे लगा था कि ये कोई होरर रोमांटिक फिल्म होगी. मैं अधिकतर रात को कोई भी स्क्रिप्ट पढता हूं, मैंने इस स्क्रिप्ट को 3 घंटे तक पढ़ा और इतना डर गया था कि पानी लाने किचन तक नहीं गया. मैं किसी भी होरर फिल्म को अकेले नहीं, दोस्तों के साथ देखता हूं. इससे वह मजेदार हो जाती है. मैंने कुछ समय पहले एक भुतिया अंग्रेजी फिल्म ‘एनाबेल’ देखी थी, जो बहुत डरावनी थी. मैं पंजाब में अपने गाँव होशियारपुर जाने पर कई बार महसूस होता है कि भूत-प्रेत आसपास है, क्योंकि वहां लोग कई ऐसी कहानियां सुनाते है. इसके अलावा बचपन में ऐसा अनुभव होता था और डर भी लगता था. अब मैं विश्वास नहीं करता.

सवाल-आजकल आपकी फिल्में काफी सफल हो रही है, अलग-अलग फिल्मों में भी काम कर सफल हो रहे है, इसकी वजह क्या मानते है?

मेरी फिल्मों की सफलता को लोगों से सुनकर बहुत अच्छा लगता है. मेरा चरित्र ही सबको बहुत पसंद आता है. इससे मुझे और अच्छा करने की इच्छा होती है. असल में आज के दर्शक नयी चीजो को देखना पसंद करती है. उन्हें मेरा नया प्रयोग पसंद आता है और मेरे लिए ये जरुरी है. नए प्रयोग कर मुझे अपनी प्रतिभा को आगे बढ़ाना है.

सवाल-ऐसी फिल्मों को करने का अनुभव कैसा रहा?

सालों से होरर यहां कम बनती है, पर मुझे कुछ नया करने में पसंद आता है. मेरा कोई को- एक्टर इसमें नहीं है और शिप पर मैं अकेले ही चल रहा हूं, लेकिन एक भूत है जो मेरे साथ है. ऐसी फिल्मों के करने में एक सस्पेंस होता है, जिसमें रिएक्शन अंजान बने रहने की देना पड़ता है, जो मुश्किल होता है, इसलिए मैंने अपनी भूमिका को करने के बाद बार-बार परफोर्मेंस को देखा है.

सवाल-इंजीनियरिंग की पढाई के बाद फिल्मों में आना कैसे संभव हुआ?

मैं एक पढ़ाकू इंजीनियर हूं. काम मैं बहुत कुछ उस क्षेत्र में नहीं कर सकता था.  जॉब मिलने पर उसे नहीं किया, क्योंकि मुझे अभिनय करना था. स्टेज पर मैं एक्टर था. मैंने अपनी ख़ुशी को अपना प्रोफेशन बनाया.

सवाल-परिवार का सहयोग कितना रहा?

फ़िल्मी परिवार है, पर उनका कहना था कि मैं अपनी पढ़ाई पूरी करूं. मैंने ग्रेजुएशन पूरा किया और अभिनय की बात कहने पर पिता ने एक्टर बनने का कारण पूछा, क्योंकि यहां कलाकार की  हार्डवर्क, धैर्य और लगन सबकी परीक्षा ली जाती है. यहाँ बहुत लोग है जो इसी क्षेत्र में काम करना चाहते है. मुझे मेरे पिता के सहयोग से आगे नहीं आना था, क्योंकि मेरा बोझ मैं उनपर लादना नहीं चाहता था, इसलिए मैंने मेहनत की है और आज मैं अपने निर्णय से संतुष्ट हूं.

सवाल-स्टारडम को आप कितना एन्जॉय करते है?

मैं सफलता और असफलता को ठग मानता हूं. ये दर्शकों की देन है. इसे जितना आसानी से वह देती है उतना ही आसानी से उसे ले भी सकती है. ये काम पर निर्भर होता है. मैं अपनी जर्नी को सीरियसली लेता हूं. इससे ख़ुशी बहुत मिलती है. खुद से अधिक मैंने अपने माता-पिता की आँखों में ख़ुशी से आँखे नम होते हुए देखा है. मैंने अपने पिता को कहते हुए सुना है कि जब वे कामयाब हुए थे, तो उनके पिता उसे देखने के लिए जिन्दा नहीं थे, उन्होंने बेटे को संघर्ष करते हुए ही देखा था. मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मुझे सफलता जल्दी मिली और मेरे माता-पिता भी इसके भागिदार बने.

सवाल-सफलता मिलने के बाद अपने आपको ग्राउंडेड रखना कितना मुश्किल होता है?

सुबह टाइम से न उठने पर मुझे जगाने के लिए माँ की बुलंद आवाज मुझे ग्राउंडेड रखने के लिए काफी होता है. वह अभी भी वैसा ही है. यह जरुरी है कि आप के आसपास रहने वाले आपको सच्चाई से जोड़े रखे, जो परिवार और दोस्त होते है. आज भी मैं अपने पुराने दोस्तों के साथ मिलकर समय बिताना पसंद करता हूं. हर फिल्म की पहली स्क्रीनिंग पर मेरे 15 कॉलेज के दोस्त पहली लाइन में आज भी बैठते है. असल जिंदगी में आने के लिए मैं अपने परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताता हूं.

सवाल-आगे की योजनायें क्या है?

अभी उधम सिंह की शूटिंग ख़त्म हुई है. आगे और कई फिल्मों का काम चल रहा है. फिल्म तख़्त के बाद मानिक शॉ बनेगी. काम चलता रहता है.

सवाल-बायोपिक बनाना कितना मुश्किल होता है?

जिम्मेदारी बहुत होती है. जिसे लोग जानते है, उसके बारें में आप फ़िल्मी आज़ादी को नहीं ले  सकते. इसका दायरा लिमिट होता है. श्याम मानिक शॉ की बायोपिक बनाने की घोषणा करने के बाद लोगों की प्रतिक्रिया मुझे मिलने लगी. इससे ये साबित होता है कि हर कोई इसे ठीक से करने की सलाह देते है और यही सबसे बड़ी चुनौती होती है.

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