वक्त की साजिश: क्या अभिषेक को मिला सच्चा प्यार

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वक्त की साजिश- भाग 1: क्या अभिषेक को मिला सच्चा प्यार

आज भी वह नौकरी न मिलने की हताशा के साथ घर लौटा. कल ही गांव से खत आया कि आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है. पिताजी से अब काम नहीं होता. वहां कुछ जल्दी करो वरना यहीं आ जाओ. जो 3-4 बीघा जमीन बची है उसी पर खेती करो, उसी को संभालो. आखिर बिट्टी की शादी भी तो करनी है. अब जल्दी कुछ भी करो.

उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. 3-4 बीघा जमीन में क्या होगा? कितनी हसरतों से इधरउधर से कर्ज ले कर उस के पिता ने उसे शहर भेजा था कि बेटा पढ़लिख जाएगा तो कोई नौकरी कर लेगा और फिर बिट्टी की शादी खूब धूमधाम से करेंगे…पर सोचा हुआ कभी पूरा होता है क्या?

‘आखिर मेरी भी कुछ अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियां हैं. मैं उन से मुंह तो नहीं मोड़ सकता न. और कब तक यहां नौकरी की तलाश में भटकता रहूंगा. कुछ करना ही पडे़गा.’ वह सोचने लगा, ‘मैं कल ही घर चला जाऊंगा.’

‘पर रंजना?’ खयालों में यह नाम आते ही वह कांप सा गया, ‘क्या कहूंगा रंजना से? क्या मैं उस से अलग रह पाऊंगा?’

‘अलग रहने की जरूरत क्या है, वह भी मेरे साथ चलेगी,’ मन ने सहज उत्तर दिया.

‘साथ चलेगी?’ जैसे उस के मन ने प्रतिप्रश्न पूछा, ‘तुम उसे क्या दे पाओगे. एक उदास, बोझिल सी जिंदगी.’

‘तो क्या उसे छोड़ दूं?’ यह सवाल मन में आते ही वह सिहर सा गया, पर यह तो करना ही पड़ेगा. आखिर मेरे पास है ही क्या जो मैं उसे दे सकता हूं. उसे अपने से अलग करना ही पडे़गा.’

‘पर कैसे?’

वह कुछ समझ नहीं पा रहा था.

इन्हीं खयालों में डूबतेउतराते उसे अपनी छाया से डर लगने लगा था.

कितनी अजीब बात थी कि वह अपनेआप से ही भयभीत था. उसे ऐसा लगने लगा था कि खोना ही उस की नियति है. जो इच्छा उस के मन में पिछले 7 सालों से कायम थी, आज उसी से वह डर रहा था.

कोई नदी अविरल कितना बह सकती है, अगर उस की धारा को समुद्र स्वीकार न करे तो? हर चीज की एक सीमा होती है.

उसे लगा कि वह कमरे में नहीं बल्कि रेत के मैदान पर चल रहा हो. दिमाग में रेगिस्तान याद आते ही उसे वह कहानी याद आ गई.

एक मुसाफिर रास्ता भटक कर रेगिस्तान में फंस गया. उस का गला प्यास से सूखा जा रहा था. वह यों ही बेदम थके कदमों से अपने को घसीटता हुआ चला जा रहा था. वह प्यास से बेहाल हो कर गिरने ही वाला था कि उसे लगा कोई सोता बह रहा है. उस के कदम पुन: शक्ति के साथ उठे दूर कहीं पानी था वह तेजी से उस तरफ बढ़ चला. पास जाने पर पता चला कि वह तो मरीचिका थी.

निराश, थकाहारा वह तपती रेत पर घुटनों के बल बैठ गया. तभी दूर उसे एक झोंपड़ी दिखाई दी. उस ने सोचा शायद उस की प्यास वहां बुझ जाए. वह झोंपड़ी तक पहुंचतेपहुंचते गिरने ही वाला था कि तभी किसी के कोमल हाथ उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर तक ले आए और पूछा, ‘ऐ अजनबी, तू क्यों भटक रहा है? और तुझे किस की चाह है?’

उस के मुंह से केवल 2 शब्द निकले,  ‘पानी, प्यासा.’ इन्हीं शब्दों के साथ वह गिर पड़ा.

उस कोमल हाथ वाले व्यक्ति ने अपनी अंजलि में जल भर कर उसे पिलाया. पानी की चंद बूंदों से उसे होश आ गया पर उस की प्यास अभी बुझी नहीं थी. वह अभी और पानी पीना चाहता था. तभी एक वहशी आवाज उस के कानों में गूंज उठी :

‘कौन है, और यहां क्या कर रहा है? तू किसे पानी पिला रही है? क्या तुझे पता नहीं है कि यह पानी कितनी मुश्किल से यहां तक आता है?’ इतना कह कर उस वहशी आवाज के मालिक ने उस अजनबी को झोपड़ी से बाहर धकेल दिया, और वह फिर उसी रेगिस्तान में भटकने लगा. कहते हैं मरते वक्त उस भटके युवक के होंठों पर यही बात थी कि ऐ अजनबी, जब तुझे प्यासा ही मारना था तो फिर दो घूंट भी क्यों पिलाया?

इस कहानी की तरह ही उसे अपना हाल भी लगा. कहीं वही तो उस कहानी के 2 पात्र नहीं हैं? और वे कोमल हाथ रंजना ही के तो नहीं जो दो घूंट पी कर फिर प्यासा मरेगा इस जन्म में.

उस का मन उस के वश में नहीं हो पा रहा था. वह अपने मन को शांत करने के लिए रैक से कोई पुस्तक तलाशने लगा. एक पुस्तक निकाल कर वह बिस्तर पर लेट गया और किताब के पन्नों को पलटने लगा. तभी पुस्तक से एक सूखा फूल उस की छाती पर गिरा, वह जैसे अपनेआप से ही चीख उठा, ‘यार, यादें भी मधुमक्खियों की तरह होती हैं जो पीछा ही नहीं छोड़तीं.’

अतीत की एक घटना आंखों में साकार हो उठी.

रंजना का हाथ उस की तरफ बढ़ा और उस ने मुसकरा कर उसे सफेद गुलाब यह कहते हुए पकड़ा दिया, ‘मिस्टर अभिषेक, आप के जन्मदिन का तोहफा.’

उस ने हंसते हुए रंजना से फूल ले लिया.

‘जानते हो अभि, मैं ने तुम्हें सफेद गुलाब क्यों दिया? क्योंकि इट इज ए सिंबल आफ प्योर स्प्रिचुअल लव.’

उस ने मुड़ कर बिस्तर पर देखा तो वही फूल पड़ा था. पर अब सफेद नहीं, सूख कर काला हो चुका था.

‘इस ने भी रंग बदल दिया,’ यह सोच कर वह हंसा, ‘प्योरिटी चेंज्ड वोन कलर. काला रंग अस्तित्वविहीनता का प्रतीक है. प्रेम के अस्तित्व को शून्य करने के लिए…जाने क्यों रातें काली ही होती हैं, जाने क्यों उजाले का अपना कोई रंग नहीं होता और कितनी अजीब बात है कि उजाले में ही सारे रंग दिखाई देते हैं. मुझे भी तो रंजना की आंखों में अपने सारे रंग दिखाई देते हैं, क्योंकि वह सुबह के उजाले की तरह है. और मैं…काली रात की कालिमा की तरह हूं.’

‘मिस्टर अभिषेक, यू आर एलोन विद योर ग्रेट माइंड’ जैसे शब्दों के सहारे उस ने खुद अपनी ही पीठ थपथपाई पर हर जगह दिमाग काम नहीं आता. बहुत कुछ होता है प्योर हार्टिली. मैं क्यों नहीं कर पाता ऐसा.

मैं क्यों समझ रहा हूं स्थितियों को. क्यों नहीं बन पाता एक अबोध शिशु, जो चांद को भी खिलौना समझ कर लेने की जिद कर बैठता है.

‘मेरा घर आने वाला है, कब तक साथ चलते रहोगे?’ रंजना ने पूछा.

‘तुम्हारे साथ चलना कितना अच्छा लगता है.’

‘हां, अभी तक तो.’

‘क्या कहा, अभी तक, इस का क्या मतलब?’

‘कुछ नहीं ऐसे ही,’ वह हंसी.

‘मैं तुम्हारे साथ सदियों तक बिना रुके चल सकता हूं, समझी.’

‘कौन जाने,’ रंजना ने माथे पर बल डाल कर कहा.

वह यह सोच कर कांप सा गया, क्या रंजना अपने भविष्य को जानती थी?

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वक्त की साजिश- भाग 3: क्या अभिषेक को मिला सच्चा प्यार

अभी वह सोच ही रहा था कि दरवाजे पर हलकी सी दस्तक हुई जिस से उस की तंद्रा भंग हुई. कौन हो सकता है इस समय? उस ने जल्दी से स्टूल किनारे किया और शर्ट पहन कर दरवाजा खोला तो एकदम जड़ सा हो गया.

‘‘तुम…रंजना…तुम यहां,’’ बस, आगे के शब्द जैसे पिघल कर बह गए.

‘‘क्यों? क्या मैं नहीं आ सकती यहां?’’ रंजना हंसती हुई बोली.

‘‘नहीं, मैं ने ऐसा तो नहीं कहा, पर तुम…’’ वह कहना कुछ और ही चाह रहा था, पर जबान ने उस का साथ न दिया.

‘‘अंदर आ जाऊं कि यहीं खड़ी रहूं,’’ रंजना बोली.

वह एकदम से शर्मिंदा हो कर दरवाजे से हट गया.

रंजना कमरे के अंदर आई और दीवार से लगी फोल्ंिडग कुरसी खोल कर बैठ गई.

‘‘अब तुम भी बैठोगे कि वहीं खड़े रहोगे. यह आज तुम्हें क्या हो रहा है. अरे, तुम्हारे चेहरे पर तो हवाइयां उड़ रही हैं. क्या कहीं भागने की योजना बना रहे थे और मैं पहुंच गई?’’ रंजना ने अपनी स्वाभाविक हंसी के साथ यह प्रश्न उछाल दिया.

अभिषेक  के माथे पर यह सोच कर पसीना आ गया कि रंजना कैसे जान लेती है उस की हर बात. पर अपने को संयत रखने की भरपूर कोशिश करते हुए वह बोला, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं बिलकुल ठीक हूं. अच्छा, छोड़ो ये सब बातें, यह बताओ, तुम यहां कैसे?’’

‘‘अब कैसे क्या मतलब, जनाब से कल से मुलाकात नहीं हुई थी सो बंदी खुद हाजिर हो गई,’’ रंजना शरारत भरे अंदाज में बोली, ‘‘क्या बात है…कल मिलने क्यों नहीं आए?’’

‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही, मूड ही नहीं बना,’’ अभिषेक बोला.

‘‘अच्छा, अब मुझ से मिलने के लिए मूड की जरूरत पड़ती है,’’ रंजना उसी अंदाज में बोली.

अभिषेक खामोश हो गया. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करे.

‘‘क्या बात है, मुझे बताओ?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं, बात क्या हो सकती है, कुछ तो नहीं हुआ…पर…’’ आगे अभिषेक बोलताबोलता रुक गया.

‘‘पर क्या?’’ रंजना एकदम पास आ कर बोली, ‘‘मुझे बताओ तो सही.’’

‘‘पता नहीं क्यों मुझे कल से कैसाकैसा लग रहा है. घर से खत आया है. बस, उसी को पढ़ कर जाने क्याक्या मैं सोचने लगा.’’

‘‘क्या लिखा है पत्र में?’’ रंजना ने पूछा.

‘‘तुम खुद ही पढ़ लो. वहां दराज में रखा है.’’

रंजना पत्र पढ़ कर बोली, ‘‘ऐसा क्या लिखा है इस में. सही तो है. वास्तव में अभि, अब तुम्हें कुछ न कुछ करना चाहिए.’’

‘‘मैं क्या करूं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा. तुम तो देख ही रही हो कि कोई भी नौकरी नहीं मिल रही है.’’

‘‘अभी तक नहीं मिली है तो आगे मिल जाएगी, तुम इतने काबिल और समझदार हो,’’ रंजना उस का साहस बढ़ाती हुई बोली.

‘‘नहीं, रंजना. कुछ भी नहीं होने वाला. मैं सोचता हूं कि घर चला जाऊं, और वहीं खेतीबाड़ी शुरू करूं. कुछ घर में अपना सहयोग दूं. आखिर मेरी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं. हां, एक बात और…’’ इतना कहतेकहते उस के होंठ थरथरा उठे.

‘‘क्यों, रुक क्यों गए. कहो न और अब…क्या?’’ रंजना उस की आंखों में झांकती हुई बोली.

‘‘नहीं, कुछ नहीं.’’

‘‘नहीं, कुछ तो जरूर है?’’ रंजना उसी तरह आंखों में झांकती हुई बोली.

‘‘तुम तो बेकार में पीछे ही पड़ जाती हो,’’ अभिषेक थोड़ा परेशान हो कर बोला.

‘‘पहले कभी तुम इस तरह मुझ से व्यवहार नहीं करते थे, अभिषेक. आखिर क्या बात है, कुछ मैं ने गलती की है? कुछ पता तो चले,’’ रंजना एक सांस में बोलती चली गई.

‘‘देखो रंजना, मैं…अब तुम्हें कैसे समझाऊं कि इसी में तुम्हारी बेहतरी है.’’

‘‘अरे, किस में मेरी बेहतरी है?’’ रंजना लगभग चीखती हुई बोली.

‘‘तुम और मैं अब न ही मिलें तो अच्छा है.’’

रंजना आश्चर्यमिश्रित गुस्से के स्वर में बोली, ‘‘मेरी बेहतरी इस में है कि मैं अब तुम से न मिलूं. तुम से…’’

‘‘हां, रंजना,’’ अभिषेक उसे समझाते हुए बोला, ‘‘मैं अब तुम्हें क्या दे सकता हूं. मेरे पास कुछ नहीं है. रंजना, मैं तुम से बेहद प्यार करता हूं और कभी तुम्हें उदास या परेशान नहीं देख सकता और मेरे पास कुछ भी नहीं है जिस से मैं तुम्हें सुख दे पाऊं.’’

‘‘वाह…क्या बात है…तुम मुझ से बेहद प्यार करते हो इसलिए मुझे छोड़ने की बात कह रहे हो. यह बात कुछ समझ में नहीं आई और रही बात यह कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, तो सुनो, तुम्हारे पास तुम खुद हो और तुम से बढ़ कर खुशी देने वाली चीज कोई दूसरी नहीं हो सकती मेरे लिए,’’ आखिरी शब्द बोलतेबोलते रंजना की आंखें भर आईं और गला रुंध गया.

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं दे सकता तुम्हें. तुम मुझ से न ही मिलो तो अच्छा है. तुम्हारे पापा किसी अच्छे घर में तुम्हारी शादी कर देंगे, जहां तुम्हें देने को ऐशोआराम की सारी चीजें होंगी. खुद सोचो, भविष्य के लिए ये सब बेहतर है कि मैं…सोच कर देखो,’’ अभिषेक एक प्रवाह में बोलता चला गया.

‘‘तुम जानते हो कि तुम क्या कह रहे हो?’’

‘‘हां, मैं जानता हूं कि मैं क्या कह रहा हूं.’’

‘‘नहीं, तुम नहीं जानते कि तुम क्या कह रहे हो. तुम मुझ से मर जाने को कह रहे हो,’’ रंजना रुंधे स्वर में बोली.

‘‘यह कैसी बात कह रही हो, मैं और तुम्हें…’’

‘‘हां, तुम अच्छी तरह जानते हो अभि,’’ वह जैसे फूट पड़ी, ‘‘मैं तुम्हारे बिना कुछ सोच भी नहीं सकती कि तुम इतने कमजोर भी हो सकते हो. पर इतना सुन लो, अगर तुम समझते हो कि मैं तुम से इस तरह अलग हो सकती हूं तो तुम गलत सोचते हो. मैं तुम्हारी तरह कमजोर नहीं हूं. मैं उम्र भर इंतजार कर सकती हूं. तुम्हें ही प्यार करती रहूंगी उम्र भर…और सुनो, तुम्हारी जगह कोई दूसरा मेरी जिंदगी में नहीं आ सकता…’’ यह कह कर रंजना उठ खड़ी हुई.

‘‘प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश करो. जिंदगी उतनी आसान नहीं है जितनी दिखाई पड़ती है. तुम्हें क्या हासिल होगा मुझ से. मेरी परेशानियों में घुट जाओगी और फिर  तुम्हें उदास देख कर क्या मैं भी खुश रह पाऊंगा, बोलो?’’ अभिषेक उस का हाथ पकड़ते हुए विवशता के स्वर में बोला.

‘‘तुम्हारे साथ अगर मुझे घुटघुट कर भी जीना पड़ा तो विश्वास मानो मैं इस के लिए कभी उफ तक नहीं करूंगी. अच्छा, एक बात का जवाब दो,’’ रंजना फैसले के स्वर में बोली, ‘‘क्या तुम मुझे खुद अपनेआप को दे पाओगे? सोच कर बताना,’’ इतना कह कर वह चली गई.

उसे लगा कि वह सवाल ही नहीं छोड़ गई बल्कि उस के षड्यंत्रकारी दिमाग की पीठ पर कोड़े बरसा कर चली गई. उस ने कान को छू कर देखा, मिट्टी नहीं लगी हुई थी. उस ने जैसे खुद अपनेआप को ही झटका दिया और वह सारा बोझ उतार दिया जो समय उस पर धीरेधीरे रखता चला गया था.

उस ने अपने हाथ को छू कर देखा, वे ठंडे नहीं थे. उस ने अपनी बांह उठाई और अपनी उलझनों के जाले को साफ करने लगा. उस के पैर जीवंत हो उठे और तेज कदमों से कमरे के बाहर निकल कर उस ने एक ठंडी भरपूर सांस भरी और चल पड़ा वह लड़ाई लड़ने जो उसे जीतनी ही थी. तभी दिमाग में आया, ‘अभि, आखिर कब तक तू हारता रहेगा?’

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वक्त की साजिश- भाग 2: क्या अभिषेक को मिला सच्चा प्यार

कुछ लोगों को भविष्य के बारे में स्वप्न आते हैं तो कुछ चेहरे के भावों को देख कर सामने वाले का भविष्य बता देते हैं. रंजना ने भी मुझे पढ़ कर बता दिया था. पर अब मैं क्या कर सकता हूं. उस ने सोचा, मैं अपने हाथों से अपने ही सपनों को आग लगाऊंगा. फिर उसे लगा कि नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता हूं लेकिन ऐसा करना ही पड़ेगा. और कोई चारा भी तो नहीं है.

दीवार पर लटकी घड़ी में घंटे की आवाज से वह घबरा सा गया. उसे हाथों में गीलापन सा महसूस हुआ. जैसे उस ने अभीअभी रंजना का हाथ छोड़ा हो और रंजना की हथेली की गरमाहट से उस के हाथ में पसीना आ गया है.

उस ने जल्दी से तौलिया उठाया और उंगलियों के एकएक पोर को रंगड़रगड़ कर पोंछने लगा. फिर भी वह संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. उसे बराबर अपना हाथ गीला महसूस होता रहा. गीले हाथों से ही तो कच्ची मिट्टी के बरतनों को संवारा जाता है. उस ने अपने गीले हाथों से उस समय की मिट्टी को सजासंवार तो लिया था पर सहेज कर रखने के लिए पका नहीं पाया.

‘मैं क्यों नहीं कर पाया ऐसा? क्यों मैं एक ऐसी सड़क का मुसाफिर बन गया जो कहीं से चल कर कहीं नहीं जाती.’

उस ने किताब को अपने से परे किया और बिस्तर पर पड़ी चादर से खुद को सिर से ले कर पांव तक ढंक लिया. उसे याद आया कि लाश को भी तो इसी तरह पूरापूरा ढंकते हैं. वह अपने पर हंसा. उसे अपना दम घुटता सा लगा. मुझे यह क्यों नहीं याद रहा कि मैं अभी तक जिंदा हूं. उसे अपने हाथ ठंडे से लगे. वह अपने हाथों के ठंडेपन से परेशान हो उठा. नहीं, मेरा हाथ ठंडा नहीं है, इसे ठंडा नहीं होना चाहिए. इसे गरम होना ही चाहिए.

‘ठंडे हाथ वाले बेवफा होते हैं,’ रंजना की आवाज उस के कानों में पड़ी.

‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता?’

‘मैं ने एक किताब में पढ़ा था,’ रंजना बोली.

‘क्या किताबों में लिखी सारी बातें सच ही होती हैं?’

‘पर सब गलत भी तो नहीं होती हैं,’ रंजना जैसे उस के अंदर से ही बोली.

‘नहीं, मेरे हाथ ठंडे कहां हैं,’ उस ने फिर छू कर देखा और उठ कर बैठ गया. चादर को उस ने अपने दोनों हाथों पर कस कर लपेट लिया. पर उसे लगा जैसे उस ने अपने दोनों हाथ किसी बर्फ की सिल्ली में डाल दिए हैं. उस ने घबरा कर चादर उतार दी, ‘क्या मेरे हाथ वाकई ठंडे हैं? पर न भी होते तो क्या,’ उस ने सोचा, ‘मेरे माथे पर जो ठप्पा लगने वाला था, उस से कैसे बच सकता हूं.’

‘यह मुझे क्या हो रहा है?’ उस ने सोचा, ‘मैं पागल होता जा रहा हूं क्या?’ उस की आवाज गहरे कु एं से निकल कर आई.

‘तुम तो बिलकुल पागल हो,’ रंजना हंसी.

‘क्यों?’

‘अरे, यह तक नहीं जानते कि रूठे को कै से मनाया जाता है,’ रंजना बोली.

‘मैं क्या जानूं. यू नो, इट इज माई फर्स्ट लव.’

फिर इसी बात पर वे कितनी देर तक हंसते रहे.

हंसना तो जैसे वह भूल ही गया. उसे ठीक से याद नहीं आ रहा था कि वह आखिरी बार कब खुल कर हंसा था. वह उठा और खिड़की खोल दी. खिड़की के पल्ले चरमरा कर खुल गए.

‘काश, मैं इसी तरह जिंदगी में खुशी की खिड़की खोल पाता.’

उस ने कहा, कितनी बातें जीवन में ऐसी होती हैं जिन्हें शब्दों में नहीं ढाला जा सकता. वे बातें तो मन के किसी कोने में अपने होने का एहसास दिलाती रहती हैं बस. ठीक उसी खिड़की के नीचे कुछ गमले रखे हुए थे. हर बार बरसात में उन गमलों में फूलों के आसपास अपनेआप कुछ उग आता जो समय के साथ अपनेआप सूख भी जाता.

वह जल्दी से बाहर निकला और गमलों के पास पहुंच कर बेतरतीब उग आए घासफूस के झुंड को जल्दीजल्दी फूलों के चारों ओर से हटाने लगा. गमलों के फूल जैसे मुसकरा उठे. उस ने हलकी सी जुंबिश ली और तन कर खड़ा हो गया. कितने सुंदर होते हैं फूल. कितने सुंदर होते हैं सपने. पर मुरझा कर बिखर जाना ही उन की नियति है. उस के सपने भी फूल की तरह एक दिन मुरझा कर गिर जाएंगे.

‘टुकड़ोंटुकड़ों में मरना भी एक कला है,’ वह हंसा, ‘चलो, जब रंजना नहीं रहेगी तो कुछ तो मेरे पास रहेगा. मैं धीरेधीरे अपनेआप को मारूंगा. पहले कौन सा हिस्सा मरेगा… सब से पहले मैं अपने हाथों को मारूंगा. ये हमेशा ठंडे रहते हैं और घोषणा करते रहते हैं. इन्हें सब से पहले मरना चाहिए. फिर दिमाग को, क्योंकि यह भी हमेशा रोका करता है कि यह सही   है, यह गलत है. तुम पर ये जिम्मेदारियां हैं. ये न करो वो न करो. सब बकवास. फिर मुंह को, फिर आंख को और सब से बाद में कान को.’

‘तुम्हारे कान कितने प्यारे हैं,’ रंजना उस के कान से खेलती हुई बोली.

‘अच्छा, पर क्या तुम्हें मुझ में सिर्फ कान ही अच्छे लगते हैं और कुछ नहीं?’

‘नहीं, ऐसी बात नहीं है पर इन्हीं कानों से तो मैं अपने होेंठों की बात सुनती हूं,’ रंजना की उंगलियां बड़ी देर तक उस के कान से खेलती रहीं.

रंजना जैसे उस के कानों में खिलखिलाई हो. उस ने अपना कान छू कर देखा, कुछ मिट्टी सी लगी हुई थी. शायद गमले से घासफू स साफ करते हुए उस का हाथ कान तक गया हो और मिट्टी लग गई हो, पर उसे लगा जैसे घासफूस वहां भी उग आई हो. वक्त की साजिश की खरपतवार.

इन्हें हटाना आसान भी तो नहीं होता, पौराणिक कथाओं में आए रक्तबीज राक्षस की तरह. उस का प्रेम का कोमल सा पौधा इन खरपतवारों में फंस कर दम तोड़ देगा.

‘उफ, कितना विवश हो रहा हूं मैं,’ उस ने सोचा, ‘नहीं कर सकता कुछ चाह कर भी, पर मैं चाहता क्या हूं?’ उस ने जैसे अपनेआप से ही पूछा. इस का कोई उत्तर उस को खुद ही समझ में नहीं आया.

वह निढाल सा बिस्तर पर बैठ गया और छत की तरफ देखने लगा. हलकी सी भिनभिनाहट की आवाज उस के कानों में पड़ी. उस ने देखा, छत के एक कोने में एक कीड़ा जाले में फंस गया था और वह उस से निकलने का जितना प्रयास करता उतना ही और उलझता जा रहा था. ठीक इसी तरह वह जितना उलझनों से निकलने के बारे में सोचता, उतना ही उलझनों में घिरता चला जाता.

वह उठा और उस के मुंह से निकला, ‘मैं शायद अपनी उलझनों को न सुलझा पाऊं, पर तुम्हें तो निकाल ही दूंगा,’ उस ने झाड़ ू उठाई और स्टूल पर चढ़ कर जाले को साफ कर दिया. काश, कोई ऐसी झाड़ ू होती जिस से वह अपनी उलझनों के जाले को साफ कर पाता.

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