अभिनेता प्रतीक गांधी ने अभिनय में सफलता पाने का राज क्या बताया, पढ़ें पूरी इंटरव्यू

गुजराती नाटक और फिल्मों से चर्चा में आये अभिनेता प्रतीक गांधी की इच्छा बचपन से डॉक्टर बनने की रही, लेकिन उन्हे अभिनय भी पसंद था, इसलिए स्कूल, कॉलेज में उन्होंने कई नाटकों में भी भाग लिया. शिक्षा को महत्व देते हुए इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और साथ में थिएटर भी करते रहे. पढ़ाई पूरी करने के बाद में उन्होंने नेशनल प्रोडक्टिविटी काउंसिल सतारा में नौकरी की. प्रतीक गांधी के माता और पिता दोनों ही टीचर है. उन दोनों ने हमेशा उनके काम के साथ सहयोग दिया है. प्रतीक को बचपन से कला का माहौल मिल है, उनके पिता एक भरतनाट्यम डान्सर और तबला वादक है, उन्होंने कई स्कूल के शोज को कोरियोग्राफ किया है. प्रतीक खुद भी तबला बजाना जानते है.

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किये संघर्ष

प्रतीक को यहाँ तक पहुँचने में बहुत संघर्ष करना पड़ा. कई बार उन्हे स्किन कलर की वजह से रिजेक्शन का सामना करना पड़ा, टीवी इंडस्ट्री ने भी उन्हे स्वीकार नहीं किया, इतना ही नहीं उन्हें कहा गया कि उनका चेहरा रिच नहीं लगता, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं माना. स्किल, ऐक्टिंग पर फोकस किया, थिएटर करते रहे और खुद को मोटिवेट करते रहे, जिसका परिणाम उन्हे आगे चलकर मिला और उनकी वेब सीरीज ‘स्कैम 1992’ कि देश में ही नहीं विदेश में भी दर्शकों ने पसंद किया. अभी उनकी कॉमेडी फिल्म ‘दो और दो प्यार’ रिलीज हो चुकी है, जिसमें उनके काम को आलोचकों ने काफी पसंद किया है.

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चुनौती है पसंद

प्रतीक को वेबसीरिज ‘स्कैम 1992’ के लिए पहचाना जाता है. इस वेब सीरिज में उन्होंने हर्षद मेहता का किरदार निभाया था. यह वेब सीरिज जबरदस्त हिट हुई और इसमें प्रतीक गांधी के अभिनय को लोगों ने जमकर सराहा. इस वेबसीरिज से प्रतीक गांधी को एक नई पहचान मिली. प्रतीक को हर तरह की अलग – अलग फिल्मों में अलग – अलग चुनौतीपूर्ण भूमिका निभाना पसंद है. वे कहते है कि जब तक हर किरदार में दर्शक मुझे पसंद न करने लगे, मैँ संतुष्ट नहीं हो सकता.

मिला सहयोग

प्रतीक की पत्नी भामिनी ओझा भी ऐक्टिंग फील्ड से है, काम के दौरान दोनों का प्यार हुआ और शादी की, दोनों की एक बेटी मिराया है. दोनों एक ही क्षेत्र में होने की वजह से परिवार के साथ काम का सामंजस्य बैठाने में उन दोनों को कभी समस्या नहीं आई. वे कहते है कि हम हर काम को शेयर कर लेते है, साथ थिएटर करते है, एक दूसरे के आलोचक है साथ ही एक दूसरे को डायरेक्ट भी कर लेते है. इससे हम दोनों मे दोस्ती अच्छी हो चुकी है, किसी प्रकार की असुरक्षा हम दोनों में नहीं रहती, क्योंकि कोई एक दूसरे की भूमिका नहीं निभा सकता. सफलता की बात करें, तो मैंने जॉब के साथ थिएटर, फिल्म सब करता रहा. जब मुझे पत्नी के साथ समय बिताने की जरूरत थी, तब मैंने थिएटर में काम किया करता था, क्योंकि वही मेरे लिए खाली समय था.

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मेरी पत्नी ने कभी मुझपर इस बात से आरोप नहीं लगाया. देखा जाय, तो उसके सहयोग के बिना यहाँ तक पहुंचना मेरे लिए संभव नहीं था. इसके अलावा हम दोनों एक दूसरे को बराबर समझते है, फिर चाहे वह घर का काम हो या बाहर का काम या पेरेंटिंग का काम हो, दोनों आपस में बाँट लेते है. बेटी के होने के बाद मैंने पेरेटिंग में हमेशा साथ दिया है, मेरी कोशिश यह रहती है कि हम दोनों एक दूसरे को पति – पत्नी न समझकर दो व्यक्ति समझे, जो साथ रहते है.

थिएटर में काम करना जरूरी

ऐक्टिंग के क्षेत्र में आने के लिए थिएटर में काम करना सबसे जरूरी माना जाता है, आपने थिएटर भी बहुत किये है, इससे आपको कितना फायदा ऐक्टिंग में मिला पूछने पर वे बताते है कि किसी भी ऐक्टर के लिए प्रैक्टिस एरिया थिएटर होता है, जहां ऐक्टिंग के ईमोशन्स को बार – बार अलग – अलग तरीके से दिखाने का मौका मिलता है. साथ ही थिएटर में लोगों की प्रतिक्रियाँ तुरंत पता जाता है, जिससे खुद को इम्प्रूव करने का मौका मिलता है, जबकि फिल्मों में अभिनय सम्हल कर करना पड़ता है, क्योंकि इसमें दर्शकों की रुझान बाद में पता लगता है.

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आगे वे कहते है कि फिल्म में किसी कलाकार को कुछ समय तक काम करने का मौका मिलता है. फिल्म के सेट पर वार फील्ड जैसी हालात होती है, जहां हर मोमेंट के लिए पैसे लगे होते है, हर चीज को बहुत ही बारीकी से उस समय शूट कर लिया जाता है और अगर किसी ने उसे ठीक तरीके से नहीं किया, तो अगला प्रोजेक्ट मिलना कठिन हो जाता है, क्योंकि ये बड़ी प्रोजेक्ट होती है, मौका भी बहुत मुश्किल से ही मिलता है. ऐसे में सही ऐक्टिंग की सभी बारीकियों को थिएटर सिखाती है, यही वजह है कि सारे बड़े कलाकार फिल्म के साथ थिएटर करना भी पसंद करते है. मैँ जब छोटे – छोटे शहरों में अपने ग्रुप के साथ जाता हूँ, तो देखता हूँ कि इन शहरों में भी बहुत सारे प्रतिभावान कलाकार है, पर उन्हे एक मौका नहीं मिलता. बदलती है सफलता का अर्थ प्रतीक को सफलता काफी मेहनत के बाद ‘स्कैम 1992’ से मिली, इस सफलता को अपने कैरियर का सबसे अच्छा समय मानते है. उनका कहना है कि मैंने 16 से 17 साल तक ऐक्टिंग के लिए मेहनत की है, उस दौरान मैंने थिएटर और रीजनल फिल्मों में काम करता रहा. उसके बाद मेरा समय बदला तो वह मेरे लिए अच्छी बात रही, इस वेब सीरीज को केवल देश में ही नहीं विदेश में
भी काफी सराहना मिली. असल में सफलता का अर्थ हर समय बदलता है जब मैँ सूरत में थिएटर कर रहा था, तब लगता था कि मुंबई से शो आने पर दर्शकों की भीड़ सूरत में इतनी कैसे हो जाती है, वे क्या अलग कर लेते है, लेकिन जब मुंबई आया तो पता लगा कि मुंबई में ऐक्टिंग के अलावा शो भी ग्लैमरस होता है. हिन्दी फिल्मों मे काम करने का भी मेरा अनुभव ऐसा ही है और मैँ अपनी सफलता को दूसरों की आँखों में देखता हूँ. एक हिन्दी फिल्म मिल जाना सफलता नहीं है, जब दर्शक मुझे अलग – अलग भूमिका में पसंद करने लगेंगे तब मैँ खुद को कुछ हद तक सफल मान सकता हूँ. इसके अलावा सफलता का अर्थ हर व्यक्ति के लिए अलग होता है. मेहनताना पाने को लेकर सफलता का आकलन करना ठीक नहीं. अगर किसी कहानी को करते हुए निर्माता, निर्देशक मेरे बारें में सोचने लगेंगे, तो मैँ सफल कलाकार हूँ. कलाकार सफल होने पर मेहनताना भी अच्छा ही मिल जाता है, ऐसा मुझे गुजराती थिएटर्स और जॉब करते हुए महसूस हुआ है.

मैं फिर से प्यार की तलाश में हूं: दूसरी शादी को लेकर एक्ट्रेस मनीषा कोईराला

संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ रिलीज हो गई है और दर्शक इसे खूब पसंद कर रहे हैं.
सीरीज में लीड एक्ट्रेस मनीषा कोइराला ने जूम टीवी के साथ दिए गए इंटरव्यू में कहा है कि वह 52 साल की उम्र में फिर से प्यार की तलाश कर रही हैं.

उन्होंने कहा कि ‘’ अगर मेरे जीवन में कोई पुरुष है तो वो मुझे जरूर मिलेगा. लेकिन मैं उस पर अपना टाइम वेस्ट नहीं करूंगी. अगर मेरी किस्मत में लिखा है तो मुझे मिलेगा और अगर नहीं तो भी ठीक है. मैं अपनी ज़िदगी जी रही हूं.”

 

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मनीषा ने आगे कहा, “ मेरा परिवार मेरे साथ है. मेरे पास बहुत अच्छे भाई-भाभी और माता पिता हैं. मेरा काम भी अच्छा चल रहा है. मुझे घूमने का बहुत शौक है और भगवान की दया से पैसे की कमी भी नहीं है. मैं भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ हूं. मैं अधूरी नहीं हूं. लेकिन इसके बाद भी अगर मेरी जिंदगी में कोई आता है तो मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं है.”

आपको बता दें कि मनीषा की शादी नेपाली बिजनेसमैन सम्राट दहल से साल 2010 में हुई थी. शादी के 2 सालों के बाद 2012 में दोनों का तलाक हो गया. इसी साल मनीषा को ओवरी कैंसर डायगनोस किया गया था. तलाक और कैंसर के बाद मनीषा ने खुद को बहुत स्ट्रौंग बनाया. मनीषा ने फिल्म से जुड़ी बहुत सारी तस्वीरें सोशल मीडिया प्लैटफौर्म इंस्टाग्राम पर शेयर की हैं.

 

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मनीषा ने इस सीरीज में मल्लिका जान का किरदाकर निभाया है. इस रोल में दर्शक उन्हें पसंद कर रहे हैं. मनीषा के अलावा फिल्म में फरदीन खान, शेखर सुमन उनके बेटे अध्यन सुमन, संजीदा शेख, सोनाक्षी सिन्हा, अदिती राव हैदरी, रिचा चड्ढा और शर्मिन सेहगल मुख्य रोल कर रहे हैं.

एज्यूकेशन सिस्टम के घोटाले का पर्दाफाश करेगी वेब सीरीज ‘‘शिक्षा मंडल’’

‘आश्रम’, ‘ मत्स्य कांड’ और ‘कैंपस डायरीज’ जैसी हार्ड हीटिंग कहानियों से युक्त सफलतम वेब सीरीज प्रसारित करने के बाद ओटीटी प्लेटफार्म अब ‘‘शिक्षा मंडल’’ नामक वेब सीरीज लेकर आ रहा है.  जिसकी हार्ड-हीटिंग कहानी भारत में एजुकेशन सिस्टम में हो रहे घोटाले की सत्य कथा पर आधारित है.

सईद अहमद अफजल निर्देशित वेब सीरीज ‘शिक्षा मंडल’ में पैसे की ताकत के साथ शिक्षा केंद्र में हो रही मक्कारी.  घोटाला.  धोखा और आपराधिक षडयंत्र को उजागर करेगी.  जिसकी चपेट में आज के युवा विद्यार्थी और उनके अनजान मां-बाप आ रहे हैं. ‘एम एक्स प्लेआर’ पर स्ट्रीम होने वाली इस वेब सीरीज में गौहर खान.  गुलशन देवैया और पवन मल्होत्रा अहम किरदरों में नजर आने वाले हैं.

शिक्षा मंडल’’ में गौहर खान  एक कठोर पुलिस अफसर के किरदार में नजर आएंगी.  जबकि गुलशन देवैया एक मेहनती युवा का किरदार निभा रहे हैं.  जो अपने परिवार की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक कोचिंग सेंटर चलाता है. वहीं पवन मल्होत्रा खलनायक है. वही सारी काली करतूतों और गैरकानूनी हलचल के पीछे के मास्टर माइंड है.

एम एक्स प्लेअर के मुख्य कंटेंट अधिकारी गौतम तलवार ने कहा-“हमें अपनी आगामी सामाजिक थ्रिलर ‘ शिक्षा मंडल’ को स्ट्ीम करने में खुशी होगी. हम भारत की सबसे प्रामाणिक कहानियों को बताने और अपने दर्शकों के लिए भरोसेमंद.   और वास्तविक कहानी लाने का प्रयास करते हैं और ‘शिक्षा मंडल’ भी एक ऐसी वेब सीरीज है.  जो इन सभी दायरे में न्याय करती है. ”

Web Series Review: जानें कैसी है शेफाली शाह और कीर्ति कुल्हारी की Human

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः सनशाइन पिक्चर्स

निर्देशकःमोजेज सिंह

कलाकारः‘शेफाली शाह, कीर्ति कुल्हारी, सीमा विश्वास,विशाल जेठवा, राम कपूर,इंद्रनील सेन गुप्ता, आदित्य श्रीवास्तव,दामिनी सिन्हा, अतुल कुमार मित्तल,मोहन अगाशे,संदप कुलकर्णी, गौरव द्विवेदी व अन्य

अवधिः लगभग पैंतालिस मिनट के दस एपीसोडः साढ़े सात घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉटस्टार डिज्नी

कोरोना महामारी के दौरान जब  लोगों की जिंदगी की अहमियत लोगों की समझ में आयी और दवा फार्मा कंपनियों ने रिसर्च कर वैक्सीन का निर्माण व परीक्षण किया,उसी दौर में विपुल अमृत लाल शाह,मोजेज सिंह व उनकी टीम दस एपीसोड की वेब सीरीज ‘‘ ह्यूमन’’ लेकर आयी है. जिसमें अस्पताल के अंदर चल रहे अनैतिक करोबार व दवा के अवैध परीक्षण के स्याह पक्ष के साथ इंसानी महत्वाकांक्षा का चित्रण है.  एक समासायिक व अत्यावश्यक विषय केा जरुर उठाया गया है,मगर यथार्थ को पेश करते हुए इसमें भोपाल गैस कांड,समलैगिकता व समलैंगिक प्यार ,आपसी जलन व प्रतिस्पधा,राजनीति, सेक्स,ड्ग्स सहित बहुत कुछ ठॅूंस कर मूल मुद्दे को ही गौण कर दिया गया. पूरी सीरीज को जिस तरह से पेश किया गया है,उसके चलते यह सीरीज बोर करती है. पहले एपीसोड से ही दर्शक का सीरीज से मन उचट जाता है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में प्रतिष्ठित भोपाल न्यूरोसर्जन डॉ गौरी नाथ (शेफाली शाह) हैं,जो कि शहर के बहुत बड़े मल्टीफैशिलिटी अस्पताल की मालिक भी है. वह अपने पति   (राम कपूर) के पूर्ण समर्थन के साथ महत्वाकांक्षी विस्तार योजना शुरू करने पर काम कर रही हैं.  कहानी शुरू होती है ‘मंथन’में नई कार्डियो सर्जन डॉ सायरा सबरवाल (कृति कुल्हारी) की नियुक्ति से.  डॉ. सायरा की शादी हो चुकी है और उसके पति व फोटो-पत्रकार (इंद्रनील सेनगुप्ता) दूसरे देश में युद्ध के मैदान में कार्यरत हैं.  डॉ.  सायरा, डॉ.  गौरी के असली खेल से अनजान  उनकी योजना की सहभागी बन जाती है. डॉ.  गौरी का अपना अतीत है. उसके माता पिता भोपाल गैस त्रासदी मंे मारे गए थे,तब डॉ.  युधिष्ठिर ने उसे अपनी बेटी बनाया था. मगर घर मे उसे गरीब समझकर हमेशा नौकरों के कमरे में ही रखा गया. वहीं पर रोमा भी है,जिन्हे गौरी, ‘रोमा मां’(सीमा बिस्वास) कहती हैं.  फिर गौरी व रोमा ने मिलकर साजिश रचते हुए डॉ. युधिष्ठिर के परिवार से बदला लेने की भावना के साथ ही ‘मंथन’ का जन्म हुआ था.

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आज भी डॉ.  गौरी के गलत काम को आगे बढ़ाने में रोमा मां पूरा हाथ बंटा रही है. डॉ.  सायरा यौन संबंधों का एक ऐसा अतीत है,जिससे वह आज तक लड़ रही है. महज दस वर्ष की उम्र से ही वह समलैंगिक संबंध बनाती आ रही है. इसी के साथ अवैध दवा परीक्षण का कारोबार है,जिसकी मुखिया डॉ.  गौरी नाथ ही हैं.  वायु फार्मा कंपनी हृदय रोगियों के लिए ‘एस 93 आर’ दवा बना रही है. इस दवा में खामियां हैं. वह अपनी इस नई दवा का अवैध परीक्षण डॉ.  गौरी की ही कंपनी के मार्फत गरीबांे को फंसाकर कर रही है.  जिन पर भी परीक्षण किया जा रहा है,वह सभी मौत के मुॅह में जा रहे हैं. रोमा मां ने कुछ लड़कियों को बहला फुसलाकर अपने साथ सारी सुविधाएं देते हुए रखा है,उन्हे नर्स बना दिया है. इन पर ‘न्यूरो’ संबंधी एक दवा का अवैध परीक्षण हो रहा है.  ,जिन्हे हर दिन ऐसी दवा दी जा रही है,जो कि उनके अंदर खास तरह का बदलाव ला रही है. यह लड़कियां ही नर्स बनकर गरीबों पर अवैध दवा का परीक्षण करने के लिए इंजेक्शन लगाने से लेकर दवाएं आदि देती हैं.

बहरहाल,कहानी तब मोड़ लेती है जब इस दवा के ट्ायल@परीक्षण के चलते गरीब तुकाराम और गरीब युवक मंगू (विशाल जेठवा) की मां पर इस दवा का रिएक्शन होता है.  यह दानों तड़प-तड़प कर मर जाते हैं.  मंगू जैसे और भी लोग हैं, जिनके परिवारों ने ट्रायल के खराब नतीजे भुगते.  जब सवाल उठने लगते है तो डॉ.  गौरी खुद को बचाने के लिए डॉ. विवेक सहित दूसरों को मरवाने गलती है. तभी एक एनजीओ ‘आरोग्य’ इन पीड़ितों को मुआवजा और न्याय दिलानें के लिए आगे आता है. उधर राजनीतिक चालें चली जाती हैं. महत्वाकांक्षी प्रताप भी अपनी पत्नी का साथ देने की बजाय उसे ही बलि का बकरा बना देता है.

समीक्षाः       

फिल्मकार ने अहम विषय उठाया, मगर सीरीज देखकर अहसास होता है कि इस विषय व फार्मा कंपनियों  की उन्हें खास जानकारी ही नही है. संभावित रूप से घातक ड्रग परीक्षणों में बेहद गरीब लोगों को लुभाना सदियों पुरानी वैश्विक प्रथा है,जिसे दर्शक सैकड़ों फिल्मों मे देख व आपराधिक उपन्यासों में पढ़ता रहा है. इंसान लालच व स्वार्थपूर्ति में अंधा होकर किस हद तक जा सकता है,यह सब भी बहुत पुराना मसाला है. कारपोरेट अस्पतालों में किस तरह से मरीज को लूटा जाता है,यह भी किसी से छिपा नही है. इतना ही नही सीरीज का अंत जिस तरह से खत्म किया गया है,वह अति फिल्मी हो गया है. क्लायमेक्स अति घटिया है. पटकथा लेखन में काफी कमियंा हैं. इंद्रनील सेन गुप्ता के किरदार नील को विकसित ही नही किया गया. यह तो जबरन ठॅूंसा हुआ लगता है.

अवैध दवा परीक्षण,हमेशा आर्थिक रूप से कमजोर मनुष्यों का शिकार करने वाली एक सत्य व बड़ी समस्या है. इस पर बेहतरीन रोमांचक सीरीज बन सकती थी,मगर फिल्मकार ने महज कल्पना के घोड़े दौड़ाने के अलावा सेक्स,ड्ग्स,समलैंगिक प्यार,अवैध यौन संबंधो व राजनीतिक प्रतिद्वंदिता पर ही ज्यादा ध्यान दिया. इसमें जिस तरह से भोपाल गैस त्रासदी का मुद्दा उठाया गया,वह भी मजाक के अलावा कुछ नही रहा. वहीं एनजीओ की कार्यशैली को भी बहुत सतही स्तर पर ही पेश किया गया. इस सीरीज में गालियां कम नही है. डॉ.  गौरी के अतीत में गरीबी और चैंकाने वाली गालियां शामिल हैं.

अवैध दवा परीक्षण के दुश्परिणाम व मानवता की सेवा के नाम पर क्रूरता का सही अंदाज में चित्रण करने में लेखक व निर्देशक बुरी तरह से विफल रहे हैं. निजी दवा कंपनियां मुनाफे की खातिर लोगों की जान से खेलती है और कई बार इस खेल में बड़े अस्पताल और सम्मानित डॉक्टर तक हिस्सेदार होते हैं,वह डॉक्टर जिन्हें लोग भगवान का दर्जा देते हैं. इसे बहुत सतही स्तर पर ही पेश किया गया है. दवाओं के ट्रायल में हिस्सा लेने वाले इंसान कंपनियों और डॉक्टरों के लिए नोट छापने की मशीन में बदल जाते हैं,इसे भी ठीक से चित्रित नही किया गया.

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संसार में ब्लैक और व्हाइट दोेनो तरह के किरदार होते हैं. हर ंइंसाान में अच्छाई व बुराई होती है. मगर इस सीरीज का हर किरदार समस्याग्रस्त है. सभी के परिवार विखरे हुए हैं. ख्ुाशनुमा पल किसी की जिंदगीमें नहीं है. हर किरदार की किरदार अलग-अलग महत्वाकांक्षाएं है,जिनके ेचलते वह तनवाग्रस्त नजर आते हैं. यहां प्यार नही है. वैसे भी अंततः एक जगह डॉं.  गौरी नाथ कहती हैं-‘‘ प्यार जताने के लिए होना भी तो चाहिए. ’’जबकि रोमा मां बार बार  डॉ गोरी को आगाह करते हुए कहती हैं-‘‘प्यार हमेशा दर्द देता है,यह बात हमें कभी भूलनी नहीं चाहिए. ’’

इस सीरीज को देख कर दर्शक की समझ में यह बात जरुर आती है कि मानव-सेवा की आड़ में कैसे पैसे, भ्रष्टाचार और राजनीति का बोलबाला है.  यह एक मकड़जाल है,जिसमें ज्यादातर कीड़े-मकोड़े की जिंदगी जीने वाले गरीब और अभाव ग्रस्त लोग फंसते हैं. यह सीरीज डाक्टरों के अमानवीय व असंवेदनशील चेहरे को ही सामने लाती है. मगर अफसोस की बात यह है कि लेखक व निर्देशक ने मूल विषय को पेश करने की इमानदार कोशिश नही की.

अभिनयः

डॉ. गौरी के किरदार में शेफाली शाह ने बेहतरीन अभिनय किया है. कुटिलता उनके चहरे से साफ तौर पर उभरती है. उनके हाव भाव व चेहरे के भावों से यह स्पष्ट नजर आता है कि वह अपनी महत्वाकांक्षा के रास्ते मंे आने वाले को हटाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं.  कई दृश्यों में उनकी खामोशी और उनकी आॅंखे बहुत कुछ कह जाती हैं. डॉ. सायरा के किरदार में कीर्ति कुल्हारी ने बढ़िया काम किया है. किरदार के अंदर का अंतद्र्वंद भी उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता है. इमोशनल दृश्यों में उनका अभिनय उभरकर आता है.  गरीब युवक मंगू के किरदार में विशाल जेठवा अपनी एपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहते हैं. राम कपूर और इंद्रनील सेन गुप्ता की प्रतिभा को जाया किया गया है. सीमा विश्वास अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं.

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फिल्म निर्माता, निर्देशक की किस प्रौब्लम का जिक्र कर रहे है एक्टर Manoj Bajpayee

फिल्म ‘बेंडिटक्वीन’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी को फिल्म ‘सत्या’ से प्रसिद्धी मिली. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. उन्होंने धीरज धरा और हर तरह की फिल्में की और कई पुरस्कार भी जीते है.बचपन से कवितायें पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी है. उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी  में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.ओटीटी पुरस्कार की प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित मनोज बाजपेयी कहते है कि ओटीटी ने फिल्म इंडस्ट्री को एक नई दिशा दी है, पेंड़ेमिक और लॉकडाउन में अगर इसकी सुविधा नहीं होती, तो लोगों को घर में समय बिताना बहुत मुश्किल होता,वे और अधिक तनाव में होते. हालांकि अभी भी लोग थिएटर हॉल जाने से डर रहे है, क्योंकि ओमिक्रोन वायरस एकबार फिर सबको डरा रहा है.

करनी पड़ेगी मेहनत

आज आम जनता की आदत घरों में आराम से बैठकर फ़िल्में अपनी समय के अनुसार देखने की है,ऐसे में फिल्म निर्माता, निर्देशक, लेखक और कलाकार के लिए थिएटर हॉल तक दर्शकों को लाना कितनी चुनौती होगी ?पूछे जाने पर मनोज कहते है कि सेटेलाइट टीवी, थिएटर, ओटीटी आदि ये सारे मीडियम रहने वाले है. लॉकडाउन के बाद थिएटर हॉल में दर्शकों की संख्या कम रही, पर सूर्यवंशी फिल्म अच्छी चली है. दर्शकों को समय नहीं मिल रहा है कि वे कुछ सोच पाए और हॉल में बैठकर फिल्म का आनंद उठाएं. कोविड वायरस उन्हें समय नहीं दे रहा है. असल में सभी की आदत बदलने की वजह पेंडेमिक है,जो पिछले दो सालों में हुआ है, इसे कम करना वाकई मुश्किल है.इसके अलावा इसे आर्थिक और सहूलियत से भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि अब दर्शक घरों में या गाड़ी में बैठकर अपनी पसंद के अनुसार कंटेंट देख सकते है, इसमें उन्हें थोड़े पैसे में सब्सक्रिप्शन और इन्टरनेट की सुविधा मिल जाती है और वे एक से एक अच्छी फिल्में देख सकते है, इसमें पैसे और समय दोनों की बचत होती है. फिल्म निर्माता, निर्देशक, कहानीकार, कलाकार आदि सभी के लिए ये एक चुनौती अवश्य है, क्योंकि फिर से लार्जर देन लाइफ’ और अच्छी कंटेंट वाली फिल्में देखने ही दर्शक हॉल तक जायेंगे और इंडस्ट्री के सभी को मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन मैं इतना मानता हूँ कि कोविड सालों तक रहने वाली नहीं है, उम्मीद है वैज्ञानिक जल्द ही इस बीमारी की दवा अवश्य खोज लेंगे और तब सुबह एक टेबलेट लेने से शाम तक व्यक्ति बिल्कुल इस कोविड फीवर से स्वस्थ हो जाएगा. तब दर्शक बिना डरे फिर से थिएटर हॉल में आयेंगे. इसके अलावा ओटीटी की वजह से नए और प्रतिभाशाली कलाकारों को देखने का मौका मिला है, जो बिग स्टार वर्ल्ड लॉबी से दूर अपनी उपस्थिती को दर्ज कराने में सफल हो रहे है, जिसमें नए निर्देशक, लेखक, कलाकार, एडिटर, कैमरामैन आदि सभी को काम मिल रहा है.

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आहत होती है क्रिएटिविटी

कई बार ओटीटी फिल्मों में कुछ अन्तरंग दृश्य या अपशब्द होते है, ऐसे में कई बार फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को धमकी मिलती है कि वे ऐसी फिल्में न बनाये और न ही एक्टिंग करें, क्योंकि ये समाज के लिए घातक साबित हो सकती है.फिल्म बनाने वाले पर ऐसे लोग अपना गुस्सा भी उतारते है. इसके अलावा कुछ लोग इन फिल्मों पर सेंसर बोर्ड की सर्टिफिकेशन करने पर जोर देते आ रहे है. इस बारें में मनोज बाजपेयी कहते हैकि डर के साये में क्रिएटिविटी पनप नहीं सकती. सुरक्षा के लिए कठिन कानून होनी चाहिए, क्योंकि क्रिएटिव माइंड पर किसी की दखलअंदाजी से क्रिएटिव माइंड मर जाती है. किसी भी फिल्म को बनाने में सालों की मेहनत होती है, अगर उसमें कोई दूसरा आकर कुछ बदलाव करने को कहे, तो उस फिल्म को दिखाने का कोई अर्थ नहीं होता. समाज के आईने को उसी रूप में दिखाने के उद्देश्य से ऐसी फिल्में बनती है. दर्शकके पास सही फिल्म चुनने का अधिकार होता है.वे ही तय करते है कि फिल्म या वेब सीरीज उनके या उनके बच्चे देखने के लायक है या नहीं. सेंसर बोर्ड किसी फिल्म को पूरा करने में निर्माता, निर्देशक के साथ नहीं होता, इसलिए वे सालों की मेहनत को नहीं समझते, लेकिन वे सर्टिफाइड करते है, इससे फिल्म की कंटेंट का अस्तित्व समाप्त हो जाता है.

एक्टर बनने की थी चाहत

मनोज बाजपेयी पिछले 25 साल से काम कर रहे है और उन्होंने हर चरित्र को अपनी इच्छा के अनुसार ही चुना है. बचपन की दिनों को याद करते हुए मनोज कहते है कि मुझे छोटी उम्र से फिल्में देखने का शौक था और मेरे पिता मुझे कभी-कभी शहर ले जाकर फिल्में दिखाते थे, तब उस छोटे से पंखे वाली हॉल में देखना भी अच्छा लगता था. थिएटर से मैं फिल्मों में आया और मुझे हमेशा अनुभवी कलाकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला है. सभी ने मुझे सहयोग दिया, इसलिए आज मैं भी जरूरतमंद को सहयोग करता हूँ.

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तब्बरः परिवार के अस्तित्व को बचाने के लिए आप किस हद तक जा सकते हैं…

रेटिंगः चार स्टार

निर्माताः जार पिक्चर्स

निर्देशकः अजीत पाल सिंह

कलाकारः पवन मल्होत्रा, सुप्रिया पाठक, गगन अरोड़ा, रणवीर शोरी,  साहिल मेहता, परमवीर सिंह चीमा,  अली मुगल, बाबला कोचर , कंवलजीत सिंह, नुपुर नागपाल,  आकाशदीप साहिर,  तरन बजाज,  निशांत सिंह, लवली सिंह,  मेहताब विर्क, रोहित खुराना, रचित बहल व अन्य

अवधिः पांच घंटे 15 मिनटः 30 से 47 मिनट के आठ एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

हर इंसान के लिए सबसे पहले अपना परिवार होता है. इंसान अपने परिवार के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए किस हद तक जा सकता है, इसी को चित्रित करते हुए कई अंतरराष्ट्ीय पुरस्कार हासिल कर चुके फिल्मकार अजीत पाल सिंह क्राइम थ्रिलर वेब सीरीज ‘‘ टब्बर’’ लेकर आए हैं, जो कि 15 अक्टूबर से ओटीटी प्लेटफार्म सोनी लिव पर स्ट्रीम हो रही है. पंजाबी में परिवर को टब्बर कहते हैं. इसी के साथ अजीत पाल सिंह ने इस सीरीज में एक ऐसे द्वंद का चित्रण किया है, जो अक्सर घर व हर इंसान के अंदर चलता रहता है. इस सीरीज में पत्नी सरगुन भगवान यानी कि रब पर पूरा भरोसा करती है. मगर पति ओंकार भगवान यानी कि ईश्वर यानी कि रब से नाराज है. ओंकार तय करता है कि परिवार पर आयी आफत को वह ख्ुाद ही ठीक करेगा. वह तय करता है कि मैं खुद ही अपने परिवार को बचाउंगा. मैं खुद ही तय करुॅंगा कि मेरे व मेरे परिवार के साथ क्या हो. रब कुछ नही करने वाला है.

कहानीः

कहानी का केंद्र बिंदु जालंधर,  पंजाब में रह रहा ओंकार(पवन मल्होत्रा) और उसका परिवार है. ओंकार के परिवार में उसकी पत्नी सरगुन(सुप्रिया पाठक), बड़ा बेटा हरप्रीत सिंह उर्फ हैप्पी(गगन अरोड़ा) व छोटा बेटा तेगी(साहिल मेहता) है. 12 वर्ष तक पुलिस की नौकरी करने के बाद एक हादसे के चलते पुलिस की नौकरी छोड़कर ओंकार ने अपनी किराने की दुकान खोल ली थी. अपने दोनों बेटों को बेहतर इंसान बनाने व उच्च शिक्षा देने में वह अपना सब कुछ न्योछावर करते रहते हैं. मगर तकदीर अपना खेल ख्ेालती रहती है. ओंकार ने अपने बड़े बेटे हैपी को आई पीएस अफसर बनाने के लिए उसे कोचिंग में पढ़ने के लिए दिल्ली भेजता है. जहां घर का बड़ा बेटा होने की जिम्मेदारी का अहसास कर हैप्प्ी दो माह बादकोचिंग छेाड़कर एक इंसान से कुछ कर्ज लेकर अपना व्यापार श्ुारू करता है. पर घाटा होता है और कर्ज तले दब जाता है , तब वह जालंधर वापस आता है. रास्ते में कर्ज के बोझ से छुटकारा पाने के लिए वह महीप सोढ़ी(रचित बहल ) के बैग से अपना बैग बदल लेता है. क्योंकि उसे पता चल जाता है कि महीप के बैग में पीला ड्ग्स है. मगर हैप्पी के पीछे पीछे महीप अपना बैग लेेने हैप्पी के घर आ जाता है. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि हैप्पी के हाथों महीप का कत्ल हो जाता है. महीप का भाई अजीत सोढ़ी (रणवीर शोरी ) बहुत बड़ा उद्योगपति है, जो कि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. अब अपने बेटे हैप्पी व परिवार को सुरक्षित रखने का निर्णय लेते हुए ओंकार ऐसा निर्णय लेते हैं कि कहानी कई मोड़ों से होकर गुजरती है.

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लेखन व निर्देशनः

‘कर बहियां बल आपनी, छांड़ बिरानी आस. . . ’’ का संदेश देने वाली वेब सीरीज है- ‘‘टब्बर’’. जिसमें ‘‘रम्मत गम्मत’’ और ‘‘फायर  इन द माउंटेंस’’ के लिए कई अंतरराष्ट्ीय पुरस्कार हासिल कर चुके  निर्देशक अजीत पाल सिंह ने अपनी संवेदन शीलता को एक बार फिर उजागर किया है. फिल्मकारों के लिए अब तक पंजाब यानी कि ‘सरसों के खेत’’ही रहा है, मगर अजीत पाल सिंह ने इस वेब सीरीज में न सिर्फ   पंजाब के परिवार बल्कि पंजाब के सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य को भी यथार्थ परक तरीके से उकेरा है. इतना ही नही फिल्मकार ने बड़ी खूबसूरती से यह संदेश भी दे दिया है कि इंसान ‘रब’ की बजाय ख्ुाद पर भरोसा कर हर मुसीबत का मुकाबला ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकता है. निर्देशक ने सारे दृश्य इस तरह से गढ़े है कि वह कहानी व लेखक के लिखे शब्दों को बल देता है. अजीत पाल सिंह का उत्कृष्ट संवेदनशील निर्देशन इस सीरियल को उत्कृष्टता की उंचाई प्रदान करता है. यॅॅंू तो यह क्राइम थ्रिलर है, मगर फिल्मकार व लेखक ने इसमें पंजाब की जमीनी सच्चाई को पूरी इमानदारी के साथ पेश किया है. इसमें पारिवारिक रिश्ते, प्यार,  दोस्ती, तनाव,  ड्ग्स,  ड्ग्स के चलते बर्बाद होती होनहार युवा पीढ़ी, गलत समझे जाने वाला पॉप कल्चर, पूरे संसार को जीतने की ललक के साथ ही राजनीति की बिसातों का भी चित्रण है. वेब सीरीज का अंत यानी कि आठवंे एपीसोड का अंतिम अति मार्मिक दृश्य दर्शकांे की आॅंखांे से आंसू छलका देता है. इसके बावजूद लेखक व निर्देशक ने किसी भी किरदार को सही या गलत नही ठहराया है, बल्कि दिखाया है कि आप चाहे जितना मासूम हो, पर गलती हुई है, तो उसकी सजा मिलनी ही है.

लेखक हरमन वडाला ने इसमें परिवार के अंदर भावनात्मक संघर्ष, आथर््िाक हालात के साथ प्यार को साधने के संघर्ष,  का भी बाखूबी चित्रण किया है. सीमावर्ती प्रदेश पंजाब की भौगोलिक स्थिति को कहानी के एक किरदार के रूप में उकेरा है, तो वहीं कौवा और कौवे की आवाज का भी संुदर उपयोग किया गया है, जिससे कहानी समृद्ध हो जाती है.

लेकिन शुरूआत के दो एपीसोड काफी ढीले ढाले हैं. इसके अलावा कुछ दृश्य तार्किक नही लगते. इतना ही नही पलक व हैप्पी की प्रेम कहानी को अंत में लेखक व निर्देशक भूल गए.

अभिनयः

एक पिता, परिवार का मुखिया और अपने दो मासूम बेटो को हर तूफान से सुरक्षित रखने के लिए बिना ‘रब’@‘भगवान’ पर भरोसा किए अकेले ही सबसे लड़ने व नई पई योजना बनाने वाले ओंकार के अति जटिल किरदार को जीवंतता प्रदान कर अभिनेता पवन मल्होत्रा ने अपने कुशल व उत्कृष्ट अभिनय का एक बार फिर लोहा मनवाया है. पूरी वेब सीरीज को पवन मल्होत्रा अकेले अपने कंधे पर लेकर चलते हैं. पति का साथ देने व भावनात्मक स्वाद बढ़ाते हुए सरगुन के किरदार में एक बार फिर सुप्रिया पाठक ने खुद को एक बार फिर मंजी हुई अदाकारा  के रूप में पेश किया है. बड़े बटेे हैप्पी के संजीदा किरदार में अभिनेता गगन अरोड़ा अपने अभिनय के चलते न सिर्फ लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हैं, बल्कि साबित करते है कि उनके अंदर लंबी रेस का घोड़ा बनने की क्षमता है.

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खुद को साबित करने के जुनून में जल रहे पुलिस वाले मासूम लक्की के किरदार में अभिनेता परमवीर सिंह चीमा भी प्रशंसा बटोर लेते हैं. कंवलजीत की प्रतिभा को जाया किया गया है. कंवलजीत ने इसमें क्यों अभिनय किया, यह समझ से परे है. तेगी के किरदार में नवोदित अभिनेता साहिल मेहता ने काफी उम्मीदें जगाई हैं.

अजीत सोढ़ी के किरदार में   रणवीर शोरी ने भी अच्छा अभिनय किया है, वैसे उनके किरदार को उतनी अहमियत नही मिल पायी, जितनी मिलनी चाहिए थी. हैप्पी की प्रेमिका पलक के किरदार में नुपुर नागपाल ने भी ठीक ठाक अभिनय किया है.

REVIEW: गुदगुदाती है वेब सीरीज मेट्रो पार्क 2

रेटिंगः ढाई स्टार

 निर्देशकः अबी वर्गीज और अजयन वेणुगोपालन

लेखनः अजय वेणुगोपालन

कलाकारः रणवीर शोरी, पूर्बी जोशी, पितोबाश, ओमी वैद्य, वेगा तमोटिया,  सरिता जोशी, मिलिंद सोमन और गोपाल दत्त

अवधिः 12 एपीसोड, हर एपसोड बीस से बाइस मिनट की अवधि का, कुल समय लगभग चार घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः ईरोज नाउ पर 29 जनवरी से

अमरीका के न्यू जर्सी में बसे एक गुजराती भारतीय परिवार से जुड़े हास्यप्रद घटनाक्रमों और हास्यमय परिस्थितियों से लोगों को हॅंसा चुकी वेब सीरीज‘‘मेट्रो पार्क’’का दूसरा सीजन ‘‘मेट्रो पार्क 2 ’’लेकर आ रहे हैं अबी वर्गीज और अजयन वेणुगोपालन.

कहानीः

यह कहानी अमेरिका के न्यू जर्सी में बसे एक देसी भारतीय गुजराती परिवार की विलक्षणताओं और विचित्रताओं के इर्द गिर्द घूमती है. जो अमरीका जैसे देश में आधुनिक परिवेश में रहते हुए भारतीयता से जुडे हुए हैं. इस परिवार के मुखिया कल्पेश(रणवीर शोरी) हैं, उनके परिवार में उनकी पत्नी पायल(पूर्वी जोशी ), बेटा पंकज(आरव जोशी) व बेटी मुन्नी है. कल्पेश की स्थानीय नगर पालिका व पुलिस विभाग में अच्छी पहचान है. पायल की बहन किंजल(वेगा तमोटिया)भी न्यू जर्सी में ही रहती है. किंजल के दक्षिण भारतीय पति कानन(ओमी वैद्य) हैं, जो एक कारपोरेट कंपनी में कार्यरत हैं. कल्पेश का एक ‘पे एंड रन’नामक रिटेल दुकान है,  जिसमें बिट्टू (पितोबाश)काम करता है. पायल का अपना ब्यूटी पार्लर है, जहां पर शीला(माया जोशी) भी काम करती हैं. पहले एपीसोड की शुरूआत होती है किंजल की नवजात बेटी के नामकरण समारोह से. पायल व किंजल को तकलीफ है कि ऐसे मौके पर उनकी मॉं (सरिता जोशी) वहां मौजूद नहीं है, वैसे कल्पेश ने पायल की मां को भारत से अमरीका बुलाने के लिए वीजा के लिए आवेदन दिया है. मगर रात में जब कल्पेश और पायल अपने घर पहुंचते हैं, तो पता चलता है कि वीजा का आवेदन खारिज हो गया है. पता चलता है कि फार्म भरने में कल्पेश ने कुछ गलती कर दी थी. इसके चलते कल्पेश व पायल में मीठी नोंकझोक होती है.

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तीसरे एपीसोड में रिटेल शॉप में बढ़ती चोरी के चलते कल्पेश, लाल भाई(गोपाल दत्त) को सिक्यूरिटी के रूप में दरवाजे पर तैनात कर देते हैं. पायल व किंजल की मां (सरिता जोशी)अमरीका नही आ पाती,  मगर किंजल के पति घर में रोबोट लेकर आ जाते हैं. परिणामतः पायल और किंजल की माँ (सरिता जोशी) हर जगह एक रोबोट के रूप में मौजूद हैं, जहाँ कोई भी स्क्रीन पर या उसके माध्यम से उसे देख और सुन सकता है. फिर पायल का खुद को यूट्यूब सनसनी दिखाने का जुनून सवार होता है, जिसके चलते कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं. इसी तरह हर एपीसोड में कुछ परिस्थिति जन्य घटनाक्रम के साथ पारिवारिक नोकझोक भी चलती रहती है. दो एपीसोड में पायल के पूर्व सहपाठी और दॉतों के डाक्टर अर्पित(मिलिंद सोमण) की वजह से कुछ नए घटनाक्रम समने आते हैं. और कल्पेश के अंदर एक भारतीय पुरूष जागृत होता है.

लेखन व निर्देशनः

‘मेट्रो पार्क’सीजन वन की आपेक्षा सीजन दो ज्यादा बेहतर बना है. यह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बसे भारतीय समाजों का प्रतिबिंब है. पारिवारिक ड्रामा के साथ हास्य के ऐसे क्षण पिरोए गए हैं, जो कि दर्शकों का मनोरंजन करते हैं. सीजन एक के मुकाबले सीजन दो में निर्देशन बेहतर है. फिर भी ‘मेट्रो पार्क सीजन 2’एक साधारण वेब सीरीज ही है. भारतीय राजनीति व बौलीवुड को लेकर गढ़े गए जोक्स बहुत ही सतही हैं. शुरूआत में रोबोट(सरिता जोशी) के चलते पैदा हुए हास्य क्षण गुदगुदाते हैं, मगर फिर वह दोहराव नजर आने लगते हैं. यह लेखक व निदेशक दोनों की कमजोरी है.

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अभिनयः

पटेल परिवार के रूप में रणवीर शोरी और पूर्वी जोशी के बीच की केमिस्ट्री कमाल की है. तो वहीं रणवीर शोरी और पितोबाश के बीच की ट्यूनिंग भी इस वेब सीरीज को दर्शनीय बनाती है. ‘थ्री इडिएट्स’के बाद इसमें ओमी वैद्य ने कमाल का अभिनय किया है. उनकी कॉमिक टाइमिंग कमाल की है. वेगा तमोटिया ने ठीक ठाक अभिनय किया है. मगर ओमी वैद्य के साथ वेगा तमोटिया की जोड़ी जमती नही है. वेगा तमोटिया इस वेब सीरीज की कमजोर कड़ी हैं. पितोबाश का अभिनय फनी है और वह लोगों को हंसाते हैं. सरिता जोशी व मिलिंद सोमण की छोटी मौजूदगी हास्य के क्षण पैदा करने में कामयाब रही है.

इंटिमेट सीन्स करना आसान नहीं होता – अंशुल चौहान

बचपन से अभिनय की इच्छा रखने वाली अभिनेत्री अंशुल चौहान ने फिल्म ‘शुभ मंगल सावधान’ में सपोर्टिंग रोल से हिंदी सिनेमा जगत में कदम रखा. फिल्मों के अलावा उन्होंने मॉडलिंग और वेब सीरीज में भी काम किया है. स्वभाव से विनम्र और हंसमुख अंशुल के परिवार उत्तर प्रदेश के नॉएडा में रहती हैं. उनके पिता विरेंदर चौहान व्यवसायी और मां गृहणी है. अंशुल के यहां तक पहुंचने में उसके माता-पिता का काफी सहयोग रहा है. ऑल्ट बालाजी की वेब शो ‘बिच्छू का खेल’ जी5 पर रिलीज हो चुकी है, जिसमें अंशुल ने मुख्य भूमिका निभाई है. उनके काम को काफी सराहना मिल रही है. आइये जाने क्या कहती हैं, अंशुल अपने बारें में.

सवाल-इस वेब शो को करने की खास वजह क्या रही?

इसे करने की वजह यह है कि अभी तक मैंने सस्पेंस और थ्रिलर वाली फिल्म नहीं की थी. इसमें फुल ड्रामा और मनोरंजन है. साथ ही मेरी भूमिका भी बहुत चैलेंजिंग रही. 

सवाल-किसी भाग को करने में मुश्किलें आई?

इस शो का हर भाग बहुत कठिन था, क्योंकि ये चरित्र बहुत स्ट्रोंग और अपफ्रंट तरीके का है और मुझे जीवन में चुनौतीपूर्ण काम करना पसंद है. तभी आप ग्रो कर सकते है. निर्देशक आशीष राज शुक्ला ने मुझे अभिनय में बहुत हेल्प किया. 

सवाल-इस चरित्र ने आप खुद को कितना जोड़ पाती है?

बिल्कुल भी नहीं जोड़ पाती, क्योंकि रश्मि चौबे इस शो में जिस तरह से जोश में अपना काम कर लेती है, रियल लाइफ में अंशुल ऐसा किसी काम को वायलेंट तरीके से नहीं कर सकती. आराम से और किसी का नुकसान किये बिना मैं अपना काम निकाल लेती हूं. 

सवाल-एक्टिंग में आने की प्रेरणा किससे मिली? पहला ब्रेक कब मिला?

मैंने शुरुआत दिल्ली के एक कॉलेज के थिएटर से किया. पढाई और थिएटर दोनों करते-करते मुझे अहसास हुआ कि मुझे क्रिएटिव चीजे आकर्षित करती है और मैं सहजता से कर सकती हूं. फिर मैंने अभिनय के क्षेत्र में जाने की योजना बनाई और मैं मुंबई पहुंची और पहला ब्रेक मुझे टीवी कमर्शियल से मिला, इसके बाद शुभ मंगल सावधान में काम करने का मौका मिला. साथ ही वेब सीरीज में काम मिलता गया और मैं यहाँ स्टाब्लिश हो गई.

मुंबई आने पर पहला काम मिलने में समय लगा, क्योंकि मैं इस शहर को जानती नहीं थी. इसके अलावा थिएटर के कुछ लोगों से परिचय हुआ और उन्होंने ऑडिशन की बात बताई. फिर ऐड मिले, ऐसे ही काम से काम मिलता गया.

सवाल-आउटसाइडर होने के नाते काम मिलने में परेशानी आई?

कई बार समस्या आई, क्योंकि मैं इस क्षेत्र से अनजान थी. मेरे परिवार में कोई भी इंडस्ट्री से नहीं है, जो मुझे कुछ गाइड कर सकें. अभिनय का मौका मिलता है , अगर आप प्रतिभावान है. काम मिलने में समय लगता है,क्योंकि इंडस्ट्री के बारें में पता करने में भी समय लग जाता है.

सवाल-पहली बार पेरेंट्स को अभिनय की इच्छा के बारें में कहने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?

पहले तो उन्होंने मना किया, क्योंकि मेरा परिवार कंजरवेटिव है. आज तक किसी ने इस क्षेत्र में काम नहीं किया है. मुझे दिल्ली की बेस्ट कॉलेज में दाखिला ऑडिशन के द्वारा एक्स्ट्रा करिकुलर के कोटे में मिला था. इससे पैरेंट्स को अच्छा लगा, क्योंकि एक्टिंग के बल पर मुझे कॉलेज मिली.इससे वे सहज होते गए. धीरे-धीरे उन्होंने मुझे मुंबई के लिए भी एक साल का समय दिया. इस दौरान काम मिलते गए और वे भी खुश होते गए.

सवाल-क्या आपने टीवी पर काम करने की कोशिश नहीं की?

मैंने कभी कोशिश नहीं की, क्योंकि मुझे लगता है कि टीवी पर एक चरित्र को काफी समय तक करना पड़ता है, जबकि फिल्म और वेब शो में अलग-अलग चरित्र को जीते है.

सवाल-रिजेक्शन का सामना कैसे करती है?

एक बार मुझे एक बड़ी फिल्म में लीड मिलने वाली थी. मैं बहुत खुश थी, मेरी नींदे उड़ गई थी, लेकिन कुछ कारणों से वह नहीं मिली. मैं स्ट्रेस ईटर हूं, मैंने बहुत खाना खाया. फिर मैं घर चली गई थी. एक महीने में मैं उस स्ट्रेस से निकली. इससे मुझे सीख भी मिली, क्योंकि यहाँ कुछ भी हो सकता है. इसलिए अधिक आशावादी होना ठीक नहीं. काम करते रहना चाहिए. 

सवाल-फिल्मों और वेब शो में इंटिमेट सीन्स बहुत होते है, उसे करने में आप कितनी सहज होती है?

ये स्क्रिप्ट्स पर निर्भर करता है. सब ओटीटी पर ऐसी सीन्स का होना जरुरी नहीं. इंटिमेट सीन्स करना आसान नहीं होता. अभी तक मैंने किया नहीं है. आगे बता नहीं सकती. 

सवाल-किस तरीके की फिल्मों में आगे काम करने की इच्छा रखती है?

मुझे फेंटासी और बहुत सारी एक्शन वाली फिल्म करना पसंद है. टॉम क्रूज़ सभी एक्शन को खुद करते है, जो बहुत ही अच्छे स्तर का होता है. मैं पिछले फिल्म से अगला बेहतर करने की कोशिश करती हूं. 

सवाल-किस शो ने आपकी जिंदगी बदली?

एक फेस बुक एड मैंने किया था. उससे मेरी जिंदगी काफी बदली है. इसे देखकर इंडस्ट्री के लोगों ने बहुत तारीफे की, जो बहुत अच्छा लगा. 

सवाल-मुंबई की कौन सी बात आपको पसंद है?

मुंबई की हर बात अच्छी है, लेकिन सबसे बड़ी चीज है, मुंबई में रहकर खुद को एमपावर्ड महसूस करना. यहाँ डरने की कोई बात नहीं होती, जबकि नार्थ इण्डिया में ये डर हमेशा बना रहता है. कपडे कुछ भी पहने कोई आपको कुछ नहीं कहता. 

सवाल-आप कितनी फैशनेबल है?कितनी फूडी है?

मुझे फैशन खूब पसंद है, जिसमें मुझे स्ट्रीट साइड फैशन अधिक अच्छा लगता है.

मुझे खाने में मीठा बहुत पसंद है. अभी आलू की कोई भी डिश मुझे पसंद आ रही है. लॉक डाउन में मैंने गुलाब जामुन, केक, बर्गर, गोलगप्पे आदि कई चीजे बनाई है. 

सवाल-आउटसाइडर नए कलाकारों को क्या कहना चाहती है?

सबकी जर्नी अलग होती है. अपनी लाइफ को एन्जॉय करें, लेकिन थोड़ी दूरदर्शिता भी रखें. अनुशाषित और योजनाबद्ध तरीके से रहने पर काम मिलने में आसानी होती है.

सवाल-क्या कोई मेसेज देना चाहती है? 

आज के लोग धीरज खोते जा रहे है, जो ठीक नहीं.  सबको प्यार देने की कोशिश करने की जरुरत है, ताकि गुस्से का प्रभाव कम हो. इसके अलावा घर पर रहकर खुद को कोरोना संक्रमण से बचाए.

 

Web Series Review: जानें कैसी है कुणाल खेमू की साइकोलॉजिकल क्राइम सीरीज अभय सीजन 2

रेटिंग: साढ़े तीन स्टार

निर्माता: बी पी सिंह

कंसेप्ट: बी पी सिंह

निर्देशक: केन घोष

कलाकार: कुणाल खेमू, बिदिता बाग, राम कपूर, मोहन कपूर, करण मेहात, निधि सिंह, राघव जुयाल आशा नेगी व अन्य

अवधि: हर एपिसोड 40 से 45 मिनट के बीच

ओटीटी प्लेटफॉर्म: जी 5

आपराधिक घटनाओं की जांच कर अपराधी को पकड़कर सजा दिलाने के काम में लगी पुलिस से प्राप्त सत्य घटना क्रमो को नाटकीयता के साथ टीवी के पर्दे पर सीरियल के रूप में लाने का ख्याल सबसे पहले बी पी सिंह के दिमाग में आया था, जिन्होंने आज से 32 साल पहले सोनी टीवी के लिए बतौर निर्माता निर्देशक व लेखक टीवी सीरियल “सीआईडी ‘ की शुरुआत की थी . उसके बाद उन्होंने एक नए अंदाज में इसी तरह का एक दूसरे सीरियल “आहत” की शुरुआत की थी.”सीआईडी” अभी भी प्रसारित हो रहा है. इनके एपिसोड 40 से 45 मिनट के हुआ करते थे. बी पी सिंह इन दिनों पुणे फिल्म संस्थान के चेयरमैन भी हैं.और अब वही बी पी सिंह अपराध कथाओ को वेब सीरीज “अभय दो” में लेकर आए हैं, जिसका प्रसारण 14 अगस्त 2020 से शुरू हुआ है. मगर “जी फाइप” ने अभी इस वेब सीरीज के सिर्फ 3 एपिसोड ही ऑन एयर किए हैं. बाकी के एपिसोड 4 सितंबर को किए जाएंगे. वैसे 4 एपिसोड फोन एयर किया जाना चाहिए था.पहले और दूसरे एपिसोड की कहानी अपने अंतिम मुकाम पर पहुंच जाती है, मगर तीसरे एपिसोड की कहानी का अंत चौथे एपिसोड में होगा. यह जी 5 की कमजोरी कही जाएगी.

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कहानी:

इसमें रोमांचक अपराध कहानियों का समावेश है.स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) लखनऊ के साथ इंस्पेक्टर अभय प्रताप सिंह (कुणाल केमू) जुड़ते हैं,उनके सामने पहली चुनौती शहर में लगातार हो रही स्टूडेंट्स की हत्याओं की जांच पर अपराधी को पकड़ना. एक सीरियल किलर है ने बीते दो साल में ऐसे नौ लड़कों की हत्या करने के बाद उन्हें जला कर उनकी राख व अस्थि पंजर को पॉलीथिन में पैक करके शहर के हाईवे से लगे जंगल में गाड़ दिया था, जो कि पढ़ाई में टॉपर होते हैं.यह लड़के किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे.अभय प्रताप सिंह अपनी टीम के साथ इसकी जांच कर हत्यारे को पकड़ने में कामयाब होते हैं . वहीं दूसरी कहानी में ऐसी लाशें मिलती हैं, जिनका एक पैर टखने से कटा होता है और उसके कुछ दांत उखाड़ने गए होते हैं. अंततः हत्यारे का सच सामने आ जाता है. तीसरे एपिसोड की कहानी में एक व्यक्ति (राम कपूर)द्वारा स्कूल बस को अगुवा कर लिया गया है और एक टीवी एंकर की हत्या कर दी गई है. नन्हें बच्चों से भरी बस अगुवा करने वाला यह हत्यारा (राम कपूर) खुद ही नाटकीय ढंग से अपने आप को पुलिस को सौंप देता है. मगर थर्ड डिग्री टॉर्चर के बाद भी एक शब्द नहीं बोलता. उसे सिर्फ अभय प्रताप सिंह से मिलना है.वह अभय के साथ एक खतरनाक खेल खेलना चाहता है. अब यह खेल क्या है और हत्यारे का मकसद क्या है? इसका फैसला तो 4 सितंबर को होगा, जब चौथा एपिसोड प्रसारित होगा.

लेखन व निर्देशन:

एक बेहतरीन पटकथा वाली वेब सीरीज में कहीं भी कोई फिजूल की बकवास नहीं की गई है .अपराध हुआ है, पुलिस डांस करती हैं और अपराधी पकड़ा जाता है .इसमें कहीं कोई नाटकीय दृश्य या संवाद नहीं रखे गए हैं .सब कुछ पॉइंट टू पॉइंट है. हर एपिसोड की कथा दर्शकों को अपने साथ बांध कर रखती है.
केन घोष अपनी निर्देशकीय क्षमता का लोहा पहले भी मनवा चुके हैं. अब वेब सीरीज “अभय दो” मैं उन्होंने साबित कर दिखाया कि साइको लॉजिकल थिलर बनाने में भी उन्हें महारत हासिल है.

अभिनय:

“अभय सीजन 2” के पहले एपिसोड को अपने कंधे पर धोते हुए अपनी जबरदस्त अभिनय क्षमता का परिचय दिया है अभिनेता चंकी पांडे ने.संपर्क मुस्कुराते और हंसते हुए तथा प्यार से बात करते-करते हर्ष जिस तरह से क्रूर हत्याएं करता है ,वह देख किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाएं. ऐसा हर्ष के किरदार को निभाने वाले अभिनेता चंकी पांडे की अभिनय क्षमता से संभव हो पाया है.फिल्म “हाउसफुल” में पास्ता के किरदार में चंकी पांडे को देख चुके लोग “अभय सीजन 2” में उन्हें हर्ष के नेगेटिव किरदार में देखकर ना सिर्फ आश्चर्यचकित होंगे, बल्कि यह सोचने पर मजबूर होंगे कि उनकी अभिनय क्षमता का अब तक सही उपयोग क्यों नहीं हुआ?

दूसरे एपिसोड को लोग पूरी तरह से बिंदिया बाग के उत्कृष्ट अभिनय के कारण याद रखेंगे. जबकि तीसरे एपिसोड में राम कपूर ने कमाल का शानदार अभिनय किया है. पुलिस अफसर के किरदार में कुणाल खेमू ने काफी सधा हुआ अभिनय किया है. आशा नेगी व निधि सिंह ने भी ठीक अभिनय किया है.

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अब सीजन 2 देखने के बाद दर्शकों को एहसास होता है कि बिदिता बाग, राम कपूर और चंकी पांडे की अभिनय क्षमता का अब तक फिल्मकार सही ढंग से उपयोग करने में असफल रहे हैं.

Mafia Web Series Review: अपराध कथा में ड्रग्स, शराब और सेक्स का तड़का

रेटिंग: ढाई स्टार 

निर्माताः इस्काइ मूवीज
सृजनकर्ताः रोहण घोष और अरित्र सेन
निर्देशक: बिरसा दास गुप्ता
कलाकारः नमित दास, तन्मय धनानिया, ईशा एम साहा, आनंदिता बोस, मधुरिमा रॉय व अन्य
अवधि: 8 एपिसोड 4 घंटे 13 मिनट
ओटीटी प्लेटफार्मः जी 5मोबाइल गेम खेलने वालों की कमजोर नस को पकड़कर फिल्मकार ने ‘‘माफिया’’नामक एक गेम के माध्यम से इस बात पर रोशनी डालने का प्रयास किया है कि चेहरे से भोला भाला दिखने वाला  इंसान कितना बेरहम हो होता है. रहस्य,अपराध व रोमांच प्रधान कहानी में दोस्ती,प्यार, सेक्स, हिंसा, ड्रग्स ,शराब,नीची जाति,ऊंची जाति, आदिवासी सहित हर मसाला चरम पर परोसा गया है.इसे हिंदी के अलावा बांग्ला तमिल और तेलुगू भाषाओं में भी रिलीज किया गया है.हत्या,डर ,नफरत,लालच,विश्वासघात की भावनाओं के साथ खुद को बचाने की जद्दोजेहद भी कहानी का हिस्सा है.

कहानीः

यूं तो उपरी सतह पर कहानी में नयापन नही है,मगर घटनाकम्र नए जरुर हैं. इसके अलावा यह किसी गैंगस्टर की नहीं,बल्कि यह कहानी है कॉलेज के छह दोस्तों ( 3 लड़के व तीन लड़कियों) की.यह छह  दोस्त हैं- नेहा ( आनंदिता बोस),  अनन्या ( इशा एम साहा ) , तान्या (मधुरिमा राय), रिषी ( तन्मय धनानिया ) रितिक और सैम,जो कि कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने पर अपने-अपने घर जाने की बजाय झारखंड में मधुपुर थाना के अंतर्गत मधुवन के जंगल के बीच बने एक बंगले पर पहुंचते हैं.यह रिषि के पिता रौय का बंगला है और मंगल केअरटेकर है.बंगले पर पहुंचने से पहले सड़क पर इनकी मुलाकात एक विधवा आदिवासी औरत बिधुआ से होती है. रिषी उसे बंगले पर काम करने के लिए बुला लाता है. विधुआ अपनी छोटी बेटी कुमली के साथ बंगले पर आ जाती है. रिषी, मंगल को एक सप्ताह की छुट्टी पर उनके गांव भेज देता है. एक सप्ताह के अंदर बंगले के अंदर बहुत कुछ घटित होता है,जिसका असर इन सभी छह लोगों पर पड़ता है.

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छह वर्ष का समय गुजरने के साथ ही इन छह दोस्तो के बीच के रिष्ते बदल चुके हैं,पहले जो प्रेमी व प्रेमिका थे,वह अब किसी अन्य के प्रेमी व प्रेमिका बन चुके हैं.रितिक ने प्रियंका से शादी कर ली है.अब छह वर्ष बाद कभी रितिक की प्रेमिका रही तान्या अमरीका से मास्टर की पढ़ाई करके वापस लौटने के बाद कुणाल से सगाई करने जा रही है. इसीलिए पत्रकार बन चुकी नेहा ने इस अवसर पर सभी छह दोस्तों का पुनः रीयूनियन करने का फैसला कर सभी को इकट्ठा कर उसी मधुवन में रौय के बंगले पर सभी पहुंचते हैं. रितिक की पत्नी प्रियंका भी साथ मे आयी है.अनन्या अब सैम को चाहने लगी है.सैम अब फोटोग्राफर बन चुका है.यह सभी छह दोस्त शराब,ड्रग्स व सेक्स में ही डूबे रहना पसंद करते हैं.अमीर बाप का बेटा रिषी अभी भी बददिमाग और एरोगेंट है.अनन्या का इलाज साइकैट्रिक से चल रहा है. रिशि व रितिक बचपन के दोस्त हैं, मगर अब रिषि के पैसों पर पलने वाला सैम ही रिषि का करीबी दोस्त है.बंगले पर इन सभी के पहुंचते ही ड्रग्स और शराब की बोटलें खुल जाती हैं.सेक्स का नंगा खेल शुरू हो जाता है. रिषि,मंगल काका से विधुआ के बारे में पूछता है. मंगल काका कह देते हैं कि अब छह साल से वह नहीं आयी. छह साल पहले की ही तरह इस बार भी इन दोस्तों के बीच ‘माफिया‘ गेम खेला जाता है. माफिया गेम के चलते अतीत के कई राज धीरे-धीरे सामने आते जाते हैं.

तीसरे एपीसोड में नीची जाति के मगर इमानदार मधुपुर थाना के पुलिस सब इंस्पेक्टर नितिन कुमार (नमित दास)व्यापारी बनकर रात में इस बंगले पर पहुंचते हैं.वह छह साल पहले हुई एक आदिवासी औरत की हत्या की जांच कर रहे हैं,बाद में पता चलता है कि वह औरत विधुआ थी.चैथे एपीसोड में तान्या के प्रेमी कुणाल भी आ जाते हैं. कहानी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती जाती है,त्यों त्यों तान्या सहित सभी छह लोगों का सेक्स व ड्ग्स से रंगा हुआ  अतीत  कुणाल,प्रियंका व पुलिस सब इंस्पेक्टर नितिन कुमार के सामने आता जाता है.कहानी बार-बार वर्तमान से अतीत में जाती रहती है. जिससे यह सभी एक दूसरे के प्रति नफरत ,डर ,विश्वासघात की भावनाओं से ओतप्रोत होते रहते हैं.पांचवे एपीसोड में रिषि गायब हो जाता है.नितिन कुमार पर लगता है.नितिन अलग-अलग हालात में एक-एक को अपनी असली पहचान बताते रहते हैं.तमाम रोमांचक घटनाक्रमों के बाद जो कुछ सामने आता है,वह कम चैकाने वाला नहीं है.
लेखनः

युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर लिखी गयी पटकथा में नयापन कुछ नही है.इसके चार लेखक हैं औश्र सभी लेखको का पूरा दिमाग इर्सिफ इस बार पर रहा कि किस तरह कितना सेक्स,ड्ग्स,हिंसा व षराब को भर दिया जाए.इसके लिए लेखकों ने गाॅंव वाले,पुलिस और माफिया के बीच के इस ‘माफिया’गेम के साथ रहस्य व रोमांच की परतें बुनी हैं, मगर दर्शक की नजरो के सामने सिर्फ सेक्स व ड्ग्स ही रह जता है.वैसे लेखक ने बहुत ही सतही स्तर पर कुछ सामाजिक व राष्ट्रीय मुद्दे भी उठाए हैं. मसलन आदिवासी व नीची जाति की लड़कियों के साथ ऊंची जाति के लोगों का व्यवहार? आदिवासी लड़कियों के गायब होने या उनकी हत्या के मामले को दबाने में पुलिस विभाग व सरकार का रवैया. छोटे व बड़े शहर के लोगों की सोच वह दोस्ती के मायने के अंतर पर भी बात की गयी है.पर यह सब बहुत ही सतही और उथला उथला है. यदि पटकथा लिखते समय इन पर और हर इसके लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि कहानी व किरदारों के चरित्र चित्रण पर काम करने की बजाय सारा ध्यान शराब, ड्ग्स व सेक्स को हर दृष्य मंे कैसे रखा जाए,इसी पर लगाया.इसके सभी किरदार उच्च शिक्षित और परिपक्व हैं.मगर लेखक ने जिस तरह से इन चरित्रों को गढ़ा है,उससे इनके अंदर परिपक्वता नजर नहीं आती.आज की युवा पीढ़ी इस वेब सीरीज के किरदारों जैसी अपरिपक्व, ड्रग्स शराब व सेक्स में डूबा हुई युवा पीढ़ी नहीं है, इसलिए वह इससे रिलेट नही कर पाएगी.
एक बेहतरीन कथा में ड्रग्स शराब और सेक्स को इतना भर दिया गया है,जिसमें 14 से 18 साल की बीच की उम्र के बच्चे भले खो जाएं,मगर इस वेब सीरीज को 18 व र्ष से कम उम्र के बच्चों के द्वारा देखा ही नहीं जाना चाहिए.लेखक व निर्देशक ने अश्लीलता की सारी हदें पार कर दी हैं.इसमें अप्राकृतिक मैथुन व संभोग दृश्यों को परोसते हुए कामसूत्र के कई आसन खुलेआम परोसने में झिझक नहीं दिखाई है.गंदी गालियों का भी अंबार है.अच्छा है कि यह वेब सीरीज है,अन्यथा यह सिनेमाघरों में रिलीज ना हो पाती.किरदार के चरित्र चित्रण पर मेहनत की गयी होती,तथा सेक्स व ड्ग्स की भरमार कम की गयी  होती,तो षायद यह एक बेहतरीन क्लासिकक वेब सीरीज बन सकती थी.
इसमें कुछ संवाद बेहतर बन पड़े हैं.मसलन-‘इंसान कभी नहीं बदलते..’ दूसरा ‘पूरा सिस्टम ऊंची जाति के लंगोट में कैद है.’यह संवाद अपने आप में देश की सामाजिक व्यवस्था के साथ कानून व्यवस्था पर कुठाराघात करते हैं.
 छह वर्ष बीत जाने के बावजूद किसी भी किरदार की शारीरिक बनावट या लुक में कोई फर्क नजर नहीं आता,यह लेखक व निर्देशक दोनों की कमजोरी को इंगित करता है.
निर्देशनः
बतौर निर्देशक बिरसा दास गुप्ता पहली बार निर्देशन के क्षेत्र में उतरे हैं.उन्हे अपने निर्देशकीय कौशल को उभारने के लिए काफी कुछ सीखने व मेहनत करने की जरुरत है. इसके कई दृश्य आधे अधूरे हैं.कई जगह दो दृश्यों के बीच कोई तालमेल नजर नही आता.यह एडीटिंग की भी कमी है. वर्तमान कहानी के बीच बार बार अतीत को इस तरह जोड़ा गया है कि दर्शक कन्फ्यूज्ड होता रहता है.इसका क्लायमेक्स भी आकर्षित ही करता. एडीटर के साथ साथ कैमरामैने की भी गलतियां है.कई जगह कैमरा एंगल गलत नजर आता है.
अभिनयः
इसमें नमित दास को छोड़कर सभी नवोदित कलाकार हैं. सभी ने बेहतरीन अभिनय का परिचय दिया है.पुलिस सब इंस्पेक्टर नितिन कुमार के किरदार को निभाते हुए अभिनेता नमित दास के पास खेलने और अपनी अभिनय प्रतिभा को दिखाने के काफी अवसर थे,मगर वह कुछ दृश्यों में मात खा गए.जबकि कुछ दृश्यों में कमाल का अभिनय भी किया है.अमीर व एरोगेंट रिषि के किरदार में तन्मय धनानिया लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं. डिप्रेशन का शिकार भोली भाली अनन्या के किरदार में ईशा एम साहा  ने भी अच्छा अभिनय किया है.बाकी कलाकार ठीक ठाक ही रहे.

 

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