फिल्म ‘क्वीन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेअर और राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने के बाद हाल ही में प्रदर्शित फिल्म ‘तनु वैड्स मनु रिटर्न्स’ से कंगना राणावत ने साबित कर दिखाया कि बौलीवुड की सही माने में वही क्वीन हैं. इस फिल्म को देखने के बाद चर्चा गरम है कि कंगना राणावत ने प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के लिए खतरे की घंटी बजा दी है.
पेश हैं, कंगना से हुई गुफ्तगू के अहम अंश:
फिल्म ‘तनु वैड्स मनु रिटर्न्स’ को जितनी सफलता मिल रही है, क्या उस की उम्मीद थी?
इस का एहसास मुझे ही नहीं, बल्कि इस फिल्म के साथ जुड़े हर इंसान को था. इस की मूल वजह फिल्म की कहानी, पटकथा के साथसाथ निर्देशक आनंद एल.राय जिस अंदाज में इस कहानी को सैल्यूलाइड कर परदे पर उतार रहे थे, उस से हम सभी को यह यकीन था.
फिल्म में तनुजा त्रिवेदी उर्फ तनु और कुसुम संगवान उर्फ दत्तो दो अलग किरदार निभाना क्या आसान रहा?
आसान नहीं काफी मुश्किल रहा. दोनों किरदार बहुत अलग हैं. दोनों का लुक, दोनों के बोलचाल का लहजा, दोनों की भाषा, दोनों की बौडी लैंग्वेज सब कुछ बहुत अलग है.
इस बार तनु का किरदार निभाते समय सिर्फ स्क्रिप्ट का सहारा लिया है या आसपास लड़ते पतिपत्नियों का?
देखिए, यह सीक्वल फिल्म है. पूरे 4 साल तक इस फिल्म से अलग रह कर ‘क्वीन’ और ‘रिवौल्वर रानी’ जैसी फिल्में कीं. उस के बाद फिर से इस फिल्म के साथ जुड़ी, तो पहला सहारा मेरे पास स्क्रिप्ट ही थी. इन दोनों फिल्मों के बीच कहानी में 4 साल का अंतराल है. इन 4 सालों में तनु और मनु के बीच क्याक्या बीता है, इस की झलक आप ने फिल्म के शुरू के एक सीन से पा ली होगी. इन 4 सालों में दोनों लंदन में साथ रहते हुए भी कभी एकसाथ नहीं रहे. हमेशा झगड़ते रहे और एक दिन अलगअलग राह चल पड़ते हैं. इस फिल्म में शादी के बाद सपनों के टूटने और फिर शादी टूटने का जो फ्रस्ट्रेशन है, वह नजर आया. इस बात को परदे पर निभाना मेरे लिए आसान नहीं था. पर मैं ने तमाम लोगों से इस तरह के घटनाक्रमों के बारे में सुना जरूर था.
अब फिल्म देखने के बाद मेरे पास बहुत मैसेज आ रहे हैं. कुछ दर्शकों का कहना है कि उन के साथ इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं, तो कुछ ने कहा कि उन्होंने अपने आसपास इस तरह की घटनाएं होते देखी हैं, यानी दर्शक इस फिल्म व मेरे किरदार के साथ रिलेट कर रहे हैं
क्या आप इस फिल्म के माध्यम से लोगों को यह बताना चाहती हैं कि शादी के बाद बदलना चाहिए?
देखिए, आप फिल्म देख चुके हैं, तो समझ में आया होगा कि प्यार हो या शादी आप को समझौतावादी रुख अपनाना पड़ता है. इस समय हमारे देश में जिस तरह से तलाक की घटनाएं बढ़ी हैं, उन पर यह फिल्म कमैंट करती है. हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव बहुत ज्यादा पड़ रहा है. पश्चिमी देशों में कोई रिश्ता माने नहीं रखता. वहां पतिपत्नी तो छोडि़ए उन के बच्चे भी उन के साथ नहीं रहते. जिस तरह से पश्चिमी संस्कृति व सभ्यता हम भारतीयों पर हावी हो रही है, उस से हम भारतीयों में ‘हम’ की जगह ‘मैं’ का भाव आ गया है. हर लड़की या लड़का सोचता है कि मैं ही सब कुछ हूं. यह फिल्म हमें पश्चिमी देशों की हर बात को आंख मूंद कर न मान लेने की सीख देती है.
जब आप मानती हैं कि भारतीय समाज में ईगो क्लैश, पलायनवादी प्रवृत्ति और त्याग की कमी के चलते तलाक की घटनाएं बढ़ रही हैं, तो इस का हल क्या है?
पहली बात तो अभी मेरी शादी नहीं हुई है. इसलिए अपने वैवाहिक जीवन को मैं किस तरह से सवारूंगी, उस पर कुछ कह नहीं सकती. मगर मेरी राय में हर इंसान के साथ एक ही नियम लागू नहीं किया जा सकता. हालात के अनुसार ही कदम उठाने पड़ेंगे. यदि कोई पुरुष या नारी सामने वाले का अपमान करता है या करती है तो अलग हो जाना ही सब से अच्छा रास्ता है. जहां मानसम्मान न हो, वहां कोई रिश्ता माने नहीं रखता. यदि किसी पति या पत्नी को लगता है कि उस का पति या उस की पत्नी सिर्फ उसे टौर्चर कर रही है, तो सहन नहीं करना चाहिए. अलग हो जाना ही बेहतर है. लेकिन अहंकार के चलते रिश्तों को टूटने की कगार तक ले जाना ठीक नहीं है.
क्या आप मानती हैं कि मुंबई या दिल्ली जैसे शहरों के लोेग छोटे शहरों की लड़कियों को कमतर आंकते हैं?
हां, जबकि यह गलत है. जब मैं अमेरिका जाती हूं, तो वहां के लोग हम भारतीयों को बहुत कमतर आंकते हैं. कुछ लोग सवाल करते हैं कि भारत में इंटरनैट है? मुंबई के लोग सोचते हैं कि गांव की लड़कियां बहुत अनपढ़ गंवार होती हैं. उन्हें उल्लू बनाया जा सकता है. जबकि ऐसा नहीं है. बड़े शहरों के मुकाबले छोटे शहरों, गांवों की लड़कियां ज्यादा पढ़ीलिखी, समझदार और तेजतर्रार होती हैं. तनुजा त्रिवेदी भी भारत के ही एक गांव की लड़की है. फिर अब पहले वाले गांव रहे भी नहीं. अब हम जब अपने गांव हिमालच प्रदेश जाते हैं, तो छोटेछोटे गांवों में हम कौफी डे व मैकडोनाल्ड देखते हैं. वहां के छोटेछोटे बच्चे इंटरनैट पर व्यस्त नजर आते हैं. मुझ से 5-6 साल के बच्चे पूछते हैं कि सलमान खान ट्वीटर पर हैं, आप क्यों नहीं हैं? पिछले 10 सालों में जितनी तरक्की हुई है, उतनी तरक्की पिछले 5 हजार सालों में नहीं हुई थी.
एक वक्त वह था जब आप स्क्रिप्ट व किरदार के आधार पर फिल्में चुनती थीं, पर अब आप को ध्यान में रख कर किरदार लिखे जा रहे हैं. इस बदलाव को कैसे देखती हैं?
मैं काम करते हुए ऐंजौय कर रही हूं. अब फिल्मकारों को मुझ पर व मेरी प्रतिभा पर यकीन हो चुका है. पहले जब मेरे लिए किरदार या स्क्रिप्ट नहीं लिखी जा रही थी, उस वक्त मेरी अहमियत भी नहीं थी. पर अब मेरी अहमियत बढ़ गई है. लोग मुझे महत्त्व देने लगे हैं. अब लोग मेरे लिए छोटेमोटे किरदार नहीं लिख रहे हैं, बल्कि खतरनाक किरदार लिख रहे हैं.
मेकअप और लुक किसी किरदार को निभाने में कितनी मदद करता है?
लुक तो नैचुरल प्रोसैस है. किरदार को सही तरीके से परदे पर पेश करने के लिए उस के बाकी सारे पहलुओं को भी देखना पड़ता है. मतलब उस की भाषा, बात करने का लहजा, बौडी लैंग्वेज आदि. हर इंसान की परवरिश अलग होती है. इंसान की परवरिश ही उसे औरों से अलग बनाती है. परवरिश से इंसान का लुक भी बदलता है.