भाई की चिट्ठी हाथ में लिए ऋतु उधेड़बुन में खड़ी थी. बड़ी  प्यारी सी चिट्ठी थी और आग्रह भी इतना मधुर, ‘इस बार रक्षाबंधन इकट्ठे हो कर मनाएंगे, तुम अवश्य पहुंच जाना...’

उस की शादी के 20 वर्षों  आज तक उस के 3 भाइयों में से किसी ने भी कभी उस से ऐसा आग्रह नहीं किया था और वह तरसतरस कर रह गई थी.  उस की ससुराल में लड़कियों के यहां आनाजाना, तीजत्योहारों का लेनादेना अभी तक कायम था. वह भी अपनी इकलौती ननद को बुलाया करती थी. उस की ननद तो थी ही इतनी प्यारी और उस की सास कितनी स्नेहशील.  जब भी ऋतु ने मायके में अपनी ससुराल की तारीफ की तो उस की मंझली भाभी उषा, जो मानसिक रूप से अस्वस्थ रहती थीं, कहने लगीं, ‘‘जीजी, ससुराल में आप की इसलिए निभ गई क्योंकि आप की सासननद अच्छी हैं, हमारी तो सासननदें बहुत ही तेज हैं.’’

उषा भाभी को यह भी ज्ञान नहीं था कि वह किस से क्या कह रही थीं और छोटी बहू अलका मुंह में साड़ी दबा कर हंस रही थी.

ऋतु अंगरेजी साहित्य से एमए कर के पीएचडी कर रही थी कि उस का विवाह अशोक से हो गया था. अशोक एक निजी कंपनी में इंजीनियर था. उसे अच्छा वेतन मिलता था. पिता भी मुख्य इंजीनियर पद से जल्दी ही सेवानिवृत्त हुए थे. ऋतु देखने में सुंदर, सुसंस्कृत व परिष्कृत विचारों की लड़की थी. उस से चार बातें करते ही उस के भावी ससुर ने ऋतु के पिता से उसे मांग लिया था, ‘‘मेजर साहब, हमें आप की लड़की बहुत पसंद है...’’

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