Health Tips : आजकल बच्चों और युवा पीढ़ी में जंक फूड खाने का क्रेज कुछ ज्यादा ही बढ़ रहा है और उन की रोज जंक फूड खाने की आदत एक लत का रूप ले रही है. वे चाह कर भी इस से दूरी नहीं बना पा रहे हैं जिस की वजह से वे मोटापे का शिकार हो रहे हैं और कम उम्र में ही बीमारियों से घिर रहे हैं. ऐसे में यदि आप जंक फूड खाने की आदत से दूरी बनाना चाहते हैं तो यह जानकारी आप के बड़े काम आएगी.

हम सभी अकसर एकदूसरे से यह कहते रहते हैं या एकदूसरे के मुंह से सुनते रहते हैं क्या करूं यार यह आदत तो छूटती ही नहीं. चूंकि आदत को छोड़ना है इसलिए हम अकसर आदतों को नकारात्मक रूप में ही लेते हैं पर वस्तुत: ऐसा नहीं है. किसी व्यक्ति की दिनचर्या कैसी होगी, यह उस व्यक्ति की आदतें ही तय करती हैं.

हम सभी अपने रोजमर्रा के बहुत सारे काम अपनी आदतों के अनुसार ही करते हैं. फिर चाहे वह हमारा सुबह उठने या रात का सोने का समय हो, हम क्या खाते हैं, कैसा व्यवहार करते हैं यह सब हमारी आदतें ही तय कराती हैं. इसीलिए आदतें अच्छी भी हो सकती हैं और बुरी भी. यदि आदत अच्छी हो तो उस का सकारात्मक प्रभाव हमारे साथसाथ हमारे परिवार और समाज सभी पर पड़ता है, वहीं दूसरी ओर यदि आदतें बुरी हों जिन्हें हम छोड़ना चाहते हैं, नकारात्मक होती हैं तो उन्हें छोड़ना मुश्किल होता है.

जैसे किसी को सुबह उठते ही चाय या कौफी चाहिए, रोज कितना ही अच्छा खाना खा लें, भरपेट खा लें लेकिन जब तक कुछ जंक न खा लें जैसे समोसा, कचौड़ी, बर्गर, मीठा आदि मन ही नहीं भरता. यदि यह नहीं मिला तो उन्हें मजा ही नहीं आता.

बुरी आदतें थोड़ी मुश्किल से ही छूटती हैं. तब अकसर हम यह कहते हैं कि कोशिश तो कर रहा/रही हूं लेकिन यह आदत तो छूटती ही नहीं. इस के पीछे क्या कारण है? आखिर कैसे पड़ती हैं अच्छी या बुरी आदतें? क्यों हम आदतों के अनुसार करते हैं अपनी दिनचर्या? क्यों हम चाह कर भी नहीं बदल या छोड़ पाते आदतें? किस तरह हमारी आदतें जीवन या लाइफ को प्रभावित करती हैं? क्यों हम आदतों को छोड़ने के बाद भी पुन: अपना लेते हैं?

क्या होती है आदत

आदत वास्तव में एक व्यवहार है. कोई भी नियमित रूप से दोहराया जाने वाला व्यवहार जिस के लिए अधिकांशतया कोई विचार की आवश्यकता नहीं होती है और जो जन्मजात होने के बजाय पुनरावृत्ति या बारबार दोहराने के माध्यम से विकसित होती है और फिर वह काम बिना सोचेविचारे अपनेआप या स्वत: ही होने लगता है. जैसे जो बच्चे रोज जंक फूड खाते हैं उन्हें इस की लत लग जाती है. फिर जंक फूड एक लत के तौर पर उन की एक जरूरत बन जाता है जिस का परिणाम यह होता है कि जब तक वे इसे खा नहीं लेते बेचैन रहते हैं और उन की यह बेचैनी गुस्सा और चिड़चिड़ाहट के रूप में बाहर आती है.

यह तो हम सभी जानते हैं कि आदत अच्छी भी होती है और बुरी भी लेकिन जब हम व्यवहार के कारण भविष्य में होने वाले दुष्परिणामों की जानकारी होने के बाद भी उस व्यवहार की पुनरावृत्ति करते हैं तो हम उसे बुरी आदत या व्यसन कहते हैं. तब उस लत/व्यसन के व्यवहार को दोहराना हमारी मजबूरी बन जाता है.

कोई भी आदत जन्म से नहीं आती. उसे हम धीरेधीरे ही सीखते हैं, साथ ही कोई भी चीज सीखने का सीधा संबंध हमारे दिमाग से होता है. जो भी हम सीखते हैं वह मस्तिष्क में स्टोर होता रहता है. सीखने के विभिन्न तरीकों में से एक प्रमुख चीज जोकि हमारी आदतों के लिए जिम्मेदार होती है वह है पुरस्कार या प्रतिफल आधारित पद्धति (रिवार्ड बेस्ड लर्निंग). मनोवैज्ञानिक एडवर्ट थोर्नडायिक के प्रभाव के नियम पर आधारित यह रिवार्ड बेस्ड लर्निंग हमारी आदतों के लिए जिम्मेदार होती है.

क्या है रिवार्ड बेस्ड लर्निंग

जिस अनुभव या कार्य से हमें संतोष या प्रसन्नता का अनुभव होता है हम उस अनुभव को पाने के लिए उस कार्य को बारबार करने के लिए प्रेरित होते हैं और तब हम उस काम को बारबार करते हैं. बस यहीं से आदत का जन्म होता है और इस पूरी आदत का हमारा मस्तिष्क एक न्यूरल नैटवर्क बना देता है और यह समय के साथ और मजबूत होता जाता है.

जंक फूड खाने की आदत

हम ने उसे पहली बार खाया या चखा. यदि हमें मजा आ गया तो उसे बारबार खाने की इच्छा होगी. तब ऐसा संभव है कि आप उसे रोज खाने लगें. तब वह धीरेधीरे बारबार दोहराने से आप की आदत बन जाएगा क्योंकि उसे लेने के बाद तात्कालिक या थोड़ी देर के लिए संतोष या प्रसन्नता का अनुभव होता है पर यह स्थाई नहीं होता. पुन: उसी अनुभव को पाने के लिए रोज जंक फूड सेवन करते हैं. तब मस्तिष्क में उस के न्यूरान्स नैटवर्क मजबूत होते जाते हैं और कब रोज जंक फूड का सेवन करना उन की आदत बन जाता है उन्हें पता ही नहीं चलता है और जब इस बुरी लत को छोड़ने की बारी आती है तब वह काफी मुश्किल भरा हो जाता है.

कैसे बनते हैं मस्तिष्क में न्यूरान्स नैटवर्क/पैटर्न? क्यों नहीं छूटती आदत? आखिर क्यों गुलाम हो जाते हैं हम बुरी आदतों के?

हमारा मस्तिष्क एक बेहद जटिल कार्यप्रणाली से सक्रिय रहता है और हमारा शरीर मस्तिष्क के आदेशों के अनुसार ही कार्य करता है. मस्तिष्क में 86 अरब न्यूरान्स होते हैं और हम जो कुछ भी अनुभव करते या देखते हैं अथवा सीखते हैं वह सब हमारा मस्तिष्क न्यूरान्स के नैटवर्क या पैटर्न बना कर स्टोर करता है और किसी कार्य की पुनरावृत्ति से उस कार्य का नैटवर्क हर पुनरावृत्ति के साथ और मजबूत होता जाता है.

न बनें आदतों के गुलाम

जैसे जब हम कार या स्कूटर चलाना सीखते हैं तब हमारा पूरा ध्यान उस के हैंडल पर होता है क्योंकि हमारे मस्तिष्क में उस की जानकारी का न्यूरान नैटवर्क नहीं बना होता है लेकिन जब हम रोज कार या स्कूटर चलने का अभ्यास करते हैं. तब हमारे मस्तिष्क में ड्राइविंग का एक न्यूरान्स पैटर्न बन जाता है जो ड्राइविंग की आवश्यक जानकारी एवं कौशल को स्टोर करता है. बारबार ड्राइविंग करने से यह नैटवर्क या न्यूरान का पैटर्न मजबूत होने लगता है और लगातार ड्राइविंग का अभ्यास करने से हमारे मस्तिष्क में यह पैटर्न मजबूत हो कर लगभग स्थाई हो जाता है.

ऐसी स्थिति में फिर वह काम अपनेआप बिना सोचेविचारे ही होने लगता है. तब हम ड्राइविंग करने में ऐफिसिएंट हो जाते हैं और हमारा मस्तिष्क औटो मोड में पहुंच जाता है.

ठीक ऐसा ही नैटवर्क हमारी जंक खाने की आदतों का भी बनता है जो एक बार मस्तिष्क में मजबूत हो जाने के बाद हमें औटो मोड पर रखता है जिस की वजह से हम जब भी खाना देखेंगे या खाएंगे तो सिर्फ जंक फूड ही खाने की इच्छा होगी या हमारा हाथ उस ओर कब बढ़ जाएगा, कब खा लेंगे पता भी नहीं चलेगा. तब हमारा मस्तिष्क आटो मोड में पहुंच जाता है.

जैसे आप के सामने एक तरफ जंक फूड, चाट पकोड़ी रखा है और दूसरी ओर हैल्दी खाना. तब हम यहां जंक फूड को ही चुनते हैं. ऐसा क्यों  होता है? आखिर क्यों हम बुरी आदतों के गुलाम हो जाते हैं?

कारण-1:  मिलता  है तात्कालिक आनंद (इंस्टैंट प्लैजर)

हमारा दिमाग विकासवादी तौर पर तात्कालिक आनंद या इंस्टैंट ग्रैटिफिकेशन (संतुष्टि)की ओर अधिक आकर्षित होता है. इस कारण इंस्टेंट लाभ के लिए हम लौंग टर्म यानी दीर्घकालिक फायदों या दुष्परिणामों को नजरअंदाज कर देते है, चूंकि जंक फूड का असर तुरंत होता है, खाने के बाद हमें बहुत अच्छा लगता है जोकि तात्कालिक आनंद या उत्तेजना के रूप में महसूस होता है लेकिन इसे रोज खाने से हम मोटापे, ब्लड प्रैशर, शुगर जैसी बीमारियों से पीडि़त हो सकते हैं. उस के बाद भी हम उसे खाना पसंद करते हैं. हम उस आदत के लौंग टर्म दुष्परिणामों को नजरअंदाज कर देते हैं.

इंस्टैंट प्लैजर का हमारे रोजमर्रा के जीवन में अकसर होने वाला एक उदाहरण बेहद आम है: आज रात आप ने निर्णय लिया कि कल सुबह मैं जल्दी उठूंगा या उठूंगी और सैर करने जाऊंगा या जाऊंगी. लेकिन सुबह होते ही आप ने अपना निर्णय बदल लिया. आज और देर तक सो लेता हूं कल से जल्दी उठूंगा या उठूंगी. यहां हम ने इंस्टैंट प्लैजर के लिए सुबह सैर के लौंग टर्म फायदे को नजरअंदाज कर दिया और इंस्टैंट प्लैजर के लिए देर तक सोने का आनंद लेना पसंद किया.

कारण-2: हारमोंस और कैमिकल का बनना

जब हम स्वाभाविक रूप से खुश होते हैं या प्रसन्नता व संतोष का अनुभव करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में कुछ विशेष हारमोंस और कैमिकल बनता है जिस के कारण हमें खुशी महसूस होती है ठीक ऐसा ही जंक फूड खाने के बाद होता है हम खुशी का अनुभव करते हैं और हैप्पी हारमोन निकलता है और यदि भूख लगने पर नहीं मिले तो बेचैनी हो जाती है.

इस बेचैनी से छुटकारा पाने के लिए इस न्यूरल नैटवर्क को दोहराना मजबूरी हो जाती है और इस तरह से जंक फूड खाने की आदत का एक  अंतहीन लूप बन कर रह जाती है. तो आखिर ऐसा अच्छी आदतों के साथ क्यों नहीं होता? वह इसलिए नहीं कि अच्छी आदतें कभी इंस्टैंट प्लैजर या तुरंत आनंद नहीं देतीं. वे सिर्फ लौंग टर्म फायदे ही देती हैं.

कारण-3: जब न हो समय या हों अकेले

आजकल के भागमभाग वाले लाइफस्टाइल में कई बार हमें खाना बनाने का वक्त ही नहीं मिलता या हम अकेले रहते हैं तो खाना बनाने का मन नहीं करता. सोचते हैं जो आसानी से और अच्छा मिल रहा है वहीं खा लेते हैं. यह नहीं सोचते कि यह फूड नुकसान करेगा या फायदा. तब हम मजबूरी में जंक फूड से दोस्ती कर लेते हैं. किंतु लंबे समय इस का सेवन सेहत के लिए नुकसानदायक होता है. तब हम जंक फूड खाने के दुष्परिणामों को नजरअंदाज कर देते हैं लेकिन यदि हम शरीर को लंबे समय तक स्वस्थ रखना चाहते हैं तो इस के लिए आप चाहें तो टिफिन सैंटर या अपने घर के आसपास किसी रैस्टोरैंट में जा कर सादा या हैल्दी फूड का मजा ले सकते हैं, साथ ही छुट्टी के दिन घर पर अपनी पसंद का हैल्दी खाना भी बना सकते हैं और उस का मजा ले सकते हैं.

प्रसिद्ध किताब ‘द पावर औफ हैबिट’ के लेखक चाल्स दुहीग्ग के अनुसार न सिर्फ बुरी आदत को बदलना मुश्किल होता है बल्कि नई अच्छी आदतें बनाना भी मुश्किल होता है क्योंकि अच्छी आदतों का नया व्यवहार पुरानी आदत में हस्तक्षेप करता है और आप के मस्तिष्क को आटो मोड में जाने से रोकने का प्रयास करता है पर मस्तिष्क में पूर्व से विद्यमान या स्टोर आदत का मजबूत नैटवर्क नए व्यवहार को अपने प्रयास में कामयाब नहीं होने देता है.

अपनी बुरी आदतों को इन तरीकों से बदला जा सकता है:

विल पावर के बल पर

किसी भी बुरी आदत को छोड़ने के लिए विल पावर पर ही जोर दिया जाता रहा है. यह विल पावर मांसपेशियों की तरह होती है. इसे लगातार अभ्यास से मजबूत बनाना होता है दूसरा अत्यधिक प्रयोग से जिस तरह मांसपेशियों में थकान आ जाती है और वे कार्य नहीं कर पातीं उसी प्रकार विल पाना भी एक पौइंट के बाद कमजोर हो जाती है. यही कारण है कि इच्छाशक्ति के दम पर छोड़ी गई आदत 90त्न से 95त्न मामलों में वापस आ जाती है. अत: इच्छाशक्ति से आदतें बदली तो जा सकती हैं पर पुनरावृत्ति की संभावना बनी रहती है.

रिवार्ड वैल्यू से

मशहूर एडिकशन ऐक्सपर्ट डा. जड़सन ब्रेवर ने अपनी किताब ‘अनवाइंडिंग ऐंग्जायटी’ में आदतों को ले कर एक महत्त्वपूर्ण तथ्य पेश किया. उन के अनुसार जब भी हम कोई अनुभव लेते हैं तो उस अनुभव से मिलने वाले आनंद एवं संतोष के आधार पर हमारा मस्तिष्क उस अनुभव की एक रिवार्ड वैल्यू अंकित करता है और बारबार के अनुभव के आधार पर यह वैल्यू और मजबूत होती जाती है. चूंकि सभी बुरी आदतें हमें इंस्टैंट या तात्कालिक संतोष या प्रसन्नता देती हैं.

अत: हमारा मस्तिष्क उन की रिवार्ड वैल्यू अधिक दर्ज करता है. यही कारण है कि हमें केक या ऐप्पल में से किसी एक को चुनना हो तो हम केक को चुनेंगे क्योंकि हम पहले भी कई बार केक और ऐप्पल खाने का अनुभव ले चुके हैं और उन अनुभवों के आधार पर हमारे मस्तिष्क में केक की रिवार्ड वैल्यू ऐप्पल के मुकाबले अधिक रिकौर्ड की गई है. चूंकि ऐप्पल के बैनिफिट हमें लौंगटर्म के बाद मिलने की संभावना रहती है तो उस की रिवार्ड वैल्यू केक से तुलनात्मक रूप से कम रहती है.

तो यदि हम विलपावर या इच्छाशक्ति के दम पर अपनी आदत को नहीं बदल पा रहे हैं तो हमें उस आदत की रिवार्ड वैल्यू को कम करना होगा या उस के किसी अल्टरनेटिव की रिवार्ड वैल्यू को बढ़ाना होगा, साथ ही इमोशंस को पहचानना होगा जो हमें जंक फूड खाने के लिए आदत की पुनरावृत्ति हेतु उकसा रहे हैं.

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