‘‘पापा, सुनो… सुनो न…’’ थोड़ी देर बाद तेज आवाज में चिंटू चिल्लाया, ‘‘पापा… पापा ऽऽऽ, मुझे दाल नहीं खानी, मेरे लिए पिज्जा और्डरकरो.’’ पिज्जा की जिद के चक्कर में चिंटू ने खाना फेंक दिया और कमरे में बंद हो जोरजोर से चिल्लाने लगा.उस की इस हरकत पर पापा को भी गुस्सा आ गया. उन्होंने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘तुम कितने बदतमीज हो गए हो,अब तुम्हें आगे से कुछ नहीं मिलेगा.’’ यह सुनते ही चिंटू ने रोना शुरू कर दिया. इकलौते बच्चे को रोते देख किस बाप का दिल नहीं पिघलेगा.

‘‘अलेअले, मेरा बेटा, अच्छा बाबा, कल तुम्हारे लिए पिज्जा मंगा देंगे.’’ इतना सुनना था कि चिंटू की बाछें खिल गईं, ‘‘ये…ये, हिपहिप हुर्रे. पापा, लव यू.’’

‘‘लव यू टू माय सन,’’ पापा ने प्रत्युत्तर में कहा. क्या आप और आप का बेटा/बेटी चिंटू की तरह ही रिऐक्ट करते हैं? अगर हां, तो आप का बच्चा न केवल जिद्दी है बल्कि उस की परवरिश में आप की तरफ से कमी है. बच्चे अकसर अपना गुस्सा मारपीट या रो कर निकालते हैं ताकि उन की मुंह से निकली ख्वाहिश पूरी हो सके. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे ऐसा व्यवहार अपने आसपास की घटनाओं से ही सीखते हैं.

यहां कुछ पेरैंट्स के साथ हुई घटनाओं के उदाहरण पेश किए जा रहे हैं :

उदाहरण-1

दिल्ली के मयूरविहार, फेज वन, इलाके में रहने वाले रोहन और साक्षी को एक फैमिली गैट टूगैदर में जाना था. वे अपने 8 वर्षीय बेटे सारांश को भी साथ ले कर गए. वैसे तो साक्षी कभी भी सारांश को अकेले नहीं भेजती थी क्योंकि वह बड़ा शैतान बच्चा था. पार्टी में पहुंच कर भी साक्षी ने सारांश का हाथ नहीं छोड़ा क्योंकि साक्षी जानती थी कि हाथ छोड़ते ही वह उछलकूद करने लगेगा. साक्षी को देख उस की फ्रैंड लीजा आ गई. उस ने कहा कि चल, वहां चल कर मजे करते हैं. अब अपनी पूंछ को छोड़ भी दे. उस के कहते ही साक्षी ने सारांश से बच्चों के ग्रुप में शामिल होने को कहा. थोड़ी देर बाद ही चीखनेचिल्लाने के साथ रोने की आवाजें आने लगीं. मुड़ कर देखा, तो सारांश ने एक बच्चे की धुनाई शुरू कर दी थी, जिस कारण वह खूब रो रहा था. साक्षी भाग कर वहां पहुंची और सारांश को समझा कर उसे सौरी बोलने को कहा. फिर साक्षी वहां से चली आई. दरअसल, सारांश जैसे बच्चे दूसरे बच्चों को ऐक्सैप्ट नहीं कर पाते और जब मिलते हैं तो लड़ाईझगड़ा शुरू कर देते हैं.

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उदाहरण-2

मैं ने एक दिन डिनर के लिए अपने एक रिश्तेदार दंपती को घर पर आमंत्रित किया. वे लोग तय समय पर अपनी 6 वर्षीय बेटी सना के साथ आ गए. बातों का दौर शुरू हुआ. बातें इतनी रुचिकर थीं कि काफी देर तक जारी रहीं. बीचबीच में उन की बेटी सना, जो स्वभाव से ऐंठू और कम बोलने वाली थी, ने तो बात करना व बैठना ही मुश्किल कर दिया. वह कुछ सैकंडों में बीचबीच में पापापापा आवाजें लगाए. ‘बसबस, बेटा शांत बैठो’ जैसे शब्द भाईसाहब भी कहते जा रहे थे. कुछ देर बाद सना भाईसाहब की गोद में चढ़ी और उन के गालों पर चांटे मारने लगी. भाईसाहब तो बेटी के लाड़ में इतने अंधे दिखे कि कहने लगे, ‘अरे, मेरा सोना बेटा…अच्छा बताओ, क्या कह रही थी.’ यह देख मैं और मेरे पति एकदूसरे का मुंह देखने लगे. बेटी की ऐसी हरकत के बावजूद भाईसाहब ने उसे कुछ नहीं कहा. बच्चों के प्रति मांबाप का प्यार स्वाभाविक है पर बच्चे को इतना लाड़ देना कि वह मारने लगे या बीच में बोलने लगे गलत है.

ऐसे करें पहचान

डेढ़ से 2 साल : इस उम्र के बच्चे अपनी जरूरत को सही से बता नहीं पाते. इसी उम्र में बच्चों की ओर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत पड़ती है. इस उम्र के बच्चे दांत काटना, हाथ चलाना, खिलौने पटकना, लात मारना या रोने जैसी हरकतें ज्यादा करते हैं. बच्चा अगर इस तरह का नैगेटिव व्यवहार करे तो उसे फौरन समझाएं क्योंकि इस उम्र में नहीं समझाएंगे तो वह बड़ा हो कर भी ऐसी हरकतें करता रहेगा. यह समझें कि वह कहना क्या चाह रहा है और यह सीख कहां से रहा है.

3-6 साल : अगर 2 साल तक उस का व्यवहार नहीं सुधरता तो इस उम्र में वही व्यवहार बच्चों की आदत बन जाती है और वे समझते हैं कि कौन सी चीज पाने के लिए उन्हें क्या करना है. मान लीजिए अगर कोई खिलौना या उन्हें कोई मनपसंद चीज खानी है तो वे मार्केट में बुरी तरह से फैल जाते हैं और चीजें देख कर रोने लगते हैं और तब तक रोते हैं जब तक कि उन्हें वह चीज न मिल जाए.

7-10 साल : इस उम्र के कई बच्चे शैतानी में पूरी तरह परिपक्व हो जाते हैं. ऐसे बच्चों को बातें खूब आती हैं और वे अपनेआप को नुकसान पहुंचा कर अपनी बातों को मनवाते हैं, जैसे चीखतेचिल्लाते हैं, झल्लाते हैं, मारते हैं, चुप हो जाते हैं, चिड़चिड़ करते हैं, बातें छिपाते हैं, झूठ बोलते हैं, बातें बनाते हैं. ऐसे बच्चे अपने आसपास नेगेटिव व्यवहार देखते हैं, उस का असर उन पर पड़ता है.

क्यों होता है ऐसा

सिंगल चाइल्ड : हम दो हमारा एक कौंसैप्ट यानी सिंगल चाइल्ड के चलते भी अब बच्चों में एकाधिकार की भावना आती है, जिस के चलते भी बच्चे दूसरे बच्चों को ऐक्सैप्ट नहीं कर पाते और उन्हें अपनी चीजें भी नहीं देते. वे जहां दूसरे बच्चों या भीड़भाड़ को देखते हैं तो असहज हो जाते हैं. ऐसे बच्चों के दोस्त भी कम होते हैं. ऐसे बच्चे पर पेरैंट्स हमेशा समाजीकरण का विशेष ध्यान दें.

खेल खेलें : इंडोर गेम्स में भी बच्चे सिर्फ वीडियो गेम्स ही खेलना पसंद करते हैं या फिर ज्यादा हुआ तो टीवी खोल कर कार्टून देखते हैं. अगर बच्चों में पेरैंट्स आउटडोर खेल खेलने के लिए प्रेरित करें तो इस से बच्चा बहुतकुछ सीखता है. आउटडोर गेम्स से चीजों की शेयरिंग तो होती ही है, इस से बच्चा अपनी पारी का इंतजार करना भी सीखता है. बच्चे को ऐसे में यह भी एहसास होगा कि हर जगह मनमानी नहीं चल सकती. अगर आप का बच्चा शर्मीला है तो उसे पार्क में ले जाएं ताकि बच्चा और बच्चों के समूह को देखे और खेलने के लिए उत्सुक भी हो.

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घर स्कूल से भी सीखते हैं बच्चे

देखा जाए तो ज्यादातर बच्चे नेगेटिव व्यवहार सब से पहले अपने घर से सीखते हैं. घर के आसपास का माहौल भी अच्छा होना चाहिए ताकि बच्चे पड़ोस से कुछ गलत न सीखें. कुछ बच्चे स्कूल से भी नेगेटिव व्यवहार सीखते हैं. घर में तो टीवी में हिंसा देखने से भी गलत सोच बनती है, जैसे एक कार्टून में अगर भीम ने किसी को मारा तो मारने वाली हिंसा को बच्चे जल्दी अपना लेते हैं. बच्चे कहा जाए तो हर एक गलत चीज जल्दी सीखते हैं और फिर वे प्रैक्टिकली करने की कोशिश भी करते हैं. पहले टीवी पर कोई ऐक्शन या ‘शक्तिमान’ सीरियल आता था तो शक्तिमान अपनी उन शक्तियों और ऐक्शन सीन को अंत में बच्चों को करने से मना करता था, ठीक वैसे ही अगर बच्चा मारधाड़ वाली चीजें देखे तो उसे प्यार से समझाएं.

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