Father’s day 2023: ले बाबुल घर आपनो- भाग 2

मीरा भी उन जैसा पति पा कर गर्व से फूल उठी थी और मन ही मन उस ने अपने मातापिता की बुद्धि को सराहा भी था. कुछ समय तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा था, लेकिन बाद में मीरा महसूस करने लगी थी जैसे पिताजी ने, दामाद नहीं, गुलाम खरीदा हो. शंभुजी सोए हों, या उस से प्रेमालाप कर रहे हों, बस पिताजी का एक बुलावा आया नहीं कि वे उठ कर चल देते. ऐसे में मीरा प्यार से उन्हें समझाती और कहती, ‘पिताजी से कह क्यों नहीं देते कि वक्तबेवक्त न बुलाया करें.’

‘अरे भई, काम होता है, तभी तो बुलाते हैं, और काम कोई वक्त देख कर तो नहीं आता,’ शंभूजी भी प्यार से जवाब देते.

‘पहले भी तो वे स्वयं काम संभालते थे, अब क्यों नहीं संभालते?’ मीरा उखड़ जाती.

‘इसी लिए तो उन्होंने तुम जैसी पत्नी का मुझे पति बना दिया है, ताकि मैं उन का बोझ हलका करूं,’ शंभुजी हंस कर टाल देते.

‘फिर उन्हें बेटी देने की क्या जरूरत थी. बोझ हलका करने के लिए तुम्हें रुपयों से खरीदा भी जा सकता था. तुम नहीं बोल सकते तो मैं पिताजी से कहूंगी कि आप साथसाथ काम करने के लिए कोई दूसरा नौकर रख लीजिए,’ मीरा नाराज हो जाती.

‘तुम तो बहुत भावुक हो, मीरा. जितनी मेहनत और ईमानदारी से अपने घर का आदमी काम कर सकता है, कोई दूसरा करेगा क्या?’ वे तर्क देते.

‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम बिक गए हो. तुम्हें पत्नी की नहीं, सिर्फ दौलत की जरूरत थी,’ और मीरा फफक कर रो पड़ी थी.

शंभुजी कितने ही प्यार से क्यों न समझाते लेकिन मीरा को यह कतई पसंद नहीं था कि वे घरदामाद बन कर रहें. वह हमेशा यही कहती थी, ‘घरदामाद तो पालतू कुत्ते की तरह होता है, जो टुकड़े खा कर दिनरात वफादारी करता है. तुम क्यों नहीं अलग मकान ले लेते. तुम जैसे भी रखोगे, मैं उसी तरह रहूंगी. तुम से कभी गिला नहीं करूंगी. मुझे यह तो एहसास रहेगा, मेरा अपना घर है, तुम मेरे हो. यहां तो हमेशा मुझे ऐसा लगता है जैसे हम पिताजी की दया पर पल रहे हैं और तुम भी सोचते होगे कि यदि मैं ने कहीं विद्रोह किया, तो पिताजी रोजी ही न छीन लें.’

‘न जाने तुम क्यों गलत ढंग से सोचने लगी हो? मैं ने तो कभी इस तरह सोचा भी नहीं. मीरा, तुम पहले भी तो इस घर में रहती थीं, तब तुम ऐसा क्यों नहीं सोचती थीं?’

‘तब मैं कुआंरी थी. कुआंरी लड़की हमेशा अपनी नई दुनिया बसाने के सपने देखती है. एक ऐसे पति का सपना, जो उसे घर देगा, उस के सुखदुख का भागीदार होगा, और वह उस के हर सुखदुख की चादर अपने ऊपर ओढ़ लेगी. बताओ, क्या दिया तुम ने मुझे अपनी ओर से? बाकी सब छोड़ भी दें तो प्यार और विश्वास भी तुम नहीं दे सके, जिस समय भी मेरे पास होते हो, तुम्हें यही खयाल रहता है कि पिताजी के कहे काम सब पूरे हो गए कि नहीं, कहीं वे यह न सोचें, शादी होते ही लापरवाह हो गया है.’

इसी तरह तकरार और प्यार में वर्ष छलांगें लगाते निकल रहे थे. मीरा की गोद में सीमा भी आ गई थी. सीमा को पा कर मीरा काफी हद तक सहज हो गई थी. उन्होंने सोचा था, ‘मीरा सीमा को पा कर तनाव से शायद मुक्त हो गई है.’ लेकिन यह उन की भूल थी.

सीमा जैसेजैसे बड़ी होती गई, मीरा की खामोशी बढ़ती गई. वह हमेशा देखती, सीमा की हर जरूरत पिताजी पूरी करते हैं, उस का भविष्य कैसे संवारना है, यह भी पिताजी सोचते हैं. बिलकुल उसी तरह, जिस तरह उन्होंने उस के लिए सोचा था.

शंभुजी ने तो एक दिन भी यह महसूस नहीं किया कि बाप का अपनी संतान के लिए क्या कर्तव्य होता है. मीरा की जरूरत पिताजी आ कर पूछते. शंभुजी को इस से कोई अंतर नहीं पड़ता था. बस, उन्हें यही संतोष था कि पिताजी के होते उन्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है, या पिताजी उन पर कितने प्रसन्न हैं, क्योंकि उन्होंने उन का व्यापार और बढ़ा दिया था. मीरा की हर बात चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह उन के ऊपर से फिसल जाती थी.

एक दिन बेहद गुस्से में मीरा ने कहा था, ‘इन सुखों की खातिर तुम ने अपनेआप को बेच दिया है. अपनी आजादी, अपने आदर्शों तक को दांव पर लगा दिया है.’

‘तुम सुखी रहो, इसी लिए तो यह सब किया है मैं ने, वरना मैं अकेला तो दो रोटी और दो कपड़ों में ही प्रसन्न था. यदि तुम्हारी खुशी के लिए स्वयं मुझे भी बिकना पड़ा तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा, मीरा,’ शंभुजी ने हंस कर बात टालनी चाही थी.

‘मेरा नाम ले कर झूठ मत बोलो. तुम जानते हो इस पैसे की दुनिया से मुझे कभी प्यार नहीं रहा जहां आदमी आजादी से अपनी कोई इच्छा ही पूरी न कर सके, जहां आगेपीछे नौकरों की फौज खड़ी हो. मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. प्लीज, मुझे अलग ले जाओ, ताकि मैं अपना छोटा सा संसार बना सकूं, और सोच सकूं, यह घर मेरा है, जहां सुकून हो, जहां तुम हो, हमारी बच्ची हो, और मैं होऊं,’ और मीरा रो पड़ी थी.

‘ठीक है, मीरा. मैं वचन देता हूं, हम उसी तरह रहेंगे जैसे तुम चाहती हो. मैं पिताजी से जरूर बात करूंगा,’ उन्होंने मीरा को प्यार से थपथपा दिया था.

जब मीरा ने देखा कि यह तकरार भी चिकने घड़े की बूंद बन गई है तो वह हमेशा के लिए चुप हो गई थी. शायद उस ने ‘जो है, सो ठीक है,’ समझ कर ही संतोष कर लिया था.

दूसरे बच्चे के समय मीरा की तबीयत बहुत बिगड़ गई थी. डाक्टरों की भीड़ भी उसे नहीं बचा सकी थी. तब यही शंभुजी सीमा को छाती से लगा कर फूटफूट कर रो पड़े थे. उन्होंने मन ही मन मीरा से कितनी बार माफी मांगी थी और वादा किया था, ‘तुम्हारी सीमा की मैं हर इच्छा पूरी करूंगा. मैं स्वयं उस का खयाल रखूंगा, उसे मां बन कर पालूंगा.’

कितना स्नेह और ममत्व उन्होंने बेटी को दिया था. उस के उठने से ले कर सोने तक, हर बात का ध्यान वे खुद रखते थे. बाहर जाना भी कितना कम कर दिया था. लेकिन कभीकभी जब सीमा उन्हें टकटकी लगाए देखने लगती थी तो न जाने वे क्यों सिहर उठते थे. उन्हें महसूस होता था, ये निगाहें सीमा की नहीं, मीरा की हैं, जो उन से कुछ कहना चाह रही हैं, तो वे घबरा कर यह पूछ बैठते, ‘कुछ कहना है, बेटी?’

‘कुछ नहीं, पापा,’ जब सीमा कहती तो उन की सांस की गति ठीक होती.

समय के साथ सीमा बड़ी हुई. मीरा के मातापिता का साथ छूटा. सारा कारोबार फिर एक बार शंभुजी पर आ पड़ा. यह वही जिम्मेदारी थी जो किसी को दी नहीं जा सकती थी और फिर धीरेधीरे वे पहले की तरह व्यस्तता के बीच खोने लगे थे.

एक दिन जब वे काफी रात गए घर लौटे थे, तो यह देख कर हैरान हो गए थे कि जल्दी सो जाने वाली सीमा, आज बालकनी में खड़ी उन का इंतजार कर रही है. वे हैरानी से बोले थे, ‘सोई क्यों नहीं?’

‘आप जल्दी क्यों नहीं आते? अकेले मेरा मन नहीं लगता,’ सीमा गुस्से में थी.

‘मेरा बहुत काम होता है, इसी लिए देर हो जाती है. आज कोई पहली बार तो मैं देर से नहीं आया?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘इतनी रात तक किसी का काम नहीं होता. आप झूठ बोलते हैं. आप पार्टियों में जाते हैं, शराब पीते हैं, इसी लिए आप को देर हो जाती है.’

‘सीमा,’ वे नाराज हो गए थे.

‘डांटिए मत, मैं कालेज से देर से आऊंगी, तब आप को अच्छा लगेगा?’ वह भी सख्ती से बोली थी, ‘मैं कहे देती हूं, अब आप देर से आएंगे तो मैं खाना नहीं खाऊंगी.’ और वह पैर पटकती हुई चली गई थी.

वे हैरान से खड़े देखते रह गए थे. मीरा और सीमा में कितना साम्य है. वह अगर हवा का तेज झोंका थी तो यह सबकुछ हिला देने वाली तेज आंधी.

Father’s day 2023: अकेले होने का दर्द- भाग 1

वातावरण में औपचारिक रुदन का स्वर गहरा रहा था. पापा सफेद कुरतेपजामे और शाल में खड़े थे. सफेद रंग शांति का प्रतीक माना जाता है पर मेरे मन में सदा से ही इस रंग से चिढ़ सी थी. उस औरत ने समाज का क्या बिगाड़ा है जिस के पति के न होने पर उसे सारी उम्र सफेद वस्त्रों में लिपटी रहने के लिए बाध्य किया जाता है. मेरे और पापा के साथ हमारे कई और रिश्तेदार कतारबद्ध खड़े थे. धीरेधीरे सभी लोग सिर झुकाए हमारे सामने से चले गए और पंडाल मरघट जैसे सन्नाटे में तबदील हो गया. हमारे दूरपास के रिश्तेनाते वाले भी वहां से चले गए. सभी के सहानुभूति भरे शब्द उन के साथ ही चले गए.

कुछ अतिनिकट परिचितों के साथ हम अपने घर आ गए. पापा मूक एवं निरीह प्राणी की तरह आए और अपने कमरे में चले गए. बाकी बचे परिजनों के साथ मैं ड्राइंगरूम में बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद मैं किचन से चाय बनवा कर ले आई. एक गिलास में चाय डाल कर मैं पापा के पास गई. वह बिस्तर पर लेटे हुए सामने दीवार पर टंगी मम्मी की तसवीर को देखे जा रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. ‘‘पापा, चाय,’’ मैं ने कहा. पापा ने मेरी तरफ देखा और पलकें झपका कर आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर के लिए मुझे अकेला छोड़ दो, मानसी.’’ उन की ऐसी हालत देख कर मेरे गले में रुकी हुई सिसकियां तेज हो गईं. मैं भी पापा को अपने मन की बात बता कर उन से अपना दुख बांटना चाहती थी, पर लगा था वह अपने ही दुख से उबर नहीं पा रहे हैं. किसे मालूम था कि मम्मी, पापा को यों अकेला छोड़ कर इस संसार से प्र्रस्थान कर जाएंगी. इस हादसे के बाद तो पापा एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. मैं ने अपनी छोटी बहन दीप्ति को अमेरिका में तत्काल समाचार दे दिया. पर समयाभाव के कारण मां के पार्थिव शरीर को वह कहां देख पाई थी. पापा इस दुख से उबरते भी कैसे. जिस के साथ उन्होंने जिंदगी के 40 वर्ष बिता दिए, मां का इस तरह बिना किसी बीमारी के मरना पापा कैसे भूल सकते थे. कई दिनों तक रोतेरोते क्रमश: रुदन तो समाप्त हो गया पर शोक शांत न हो सका. पापा की ऐसी हालत देख कर मैं ने धीरे से उन का दरवाजा बंद किया और वापस ड्राइंग- रूम में आ गई, जहां मेरे पति राहुल बैठे थे.

चाचाजी वहां बैठे हुए हलवाई, टैंट वाले, पंडितजी आदि का हिसाब करते जा रहे थे. मुझे देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘आजकल छोटे से छोटे कार्य में भी इतना खर्च हो जाता है कि बस…’’ यह कहतेकहते उन्होंने राहुल को सारे बिल पकड़ा दिए. मैं ने राहुल को इशारे से सब का हिसाब चुकता करने को कहा. पापा अपने गम में इतने डूबे हुए थे कि उन से कुछ भी इस समय कहने का साहस मुझ में न था. ‘‘अच्छा, मानसी बिटिया, अब मैं चलता हूं. कोई काम हो तो बताना,’’ कहते हुए चाचाजी ने मुझे इस अंदाज से देखा कि मैं कोई दूसरा काम न कह दूं और उन के साथ ही कालोनी की 3-4 महिलाएं भी चल दीं. मुझे इस बात से बेहद दुख हुआ कि मम्मी इतने वर्षों से सदा सब के सुखदुख में हमें भी नजरअंदाज कर उन का साथ देती थीं, लेकिन आज सभी ने उन के गुजरने के साथ ही अपने कर्तव्यों से भी इतिश्री मान ली थी. शाम को खाने की मेज पर मैं ने राहुल से पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या प्रोग्राम है अब?’’ ‘‘मैं तो रात को ही वापस जाना चाहता हूं. तुम साथ नहीं चल रही हो क्या?’’ राहुल ने पूछा. ‘‘पापा को ऐसी हालत में छोड़ कर कैसे चली जाऊं,’’ मैं ने रोंआसी हो कर कहा, ‘‘लगता है ऐसे ही समय के लिए लोग बेटे की कामना करते हैं.’’ ‘‘पापा को साथ क्यों नहीं ले चलतीं,’’ राहुल बोले, ‘‘थोड़ा उन के लिए भी चेंज हो जाएगा.’’ ‘‘नहीं बेटा,’’

तब तक पापा अपने कमरे से आ चुके थे, ‘‘तुम लोग चले जाओ, मैं यहीं ठीक हूं.’’ ‘‘पापा, आप को तो ठीक से खाना बनाना भी नहीं आता…मां होतीं तो…’’ और इतना कहतेकहते मैं रो पड़ी. ‘‘क्यों, महरी है न. तुम चिंता क्यों करती हो?’’ ‘‘पापा, वह तो 9 बजे आती है. आप की बेड टी, अखबार, दूध, नहाने के कपड़े, दवाइयां कुछ भी तो आप को नहीं मालूम…आज तक आप ने किया हो तो पता होता.’’ ‘‘उस ने मुझे इतना अपाहिज बना दिया था…पर अब क्या करूं? करना तो पडे़गा ही न…कुछ समझ में नहीं आएगा तो तुम से पूछ लूंगा,’’ कहतेकहते पापा ने मेरी तरफ देखा. उन का स्वर जरूरत से ज्यादा करुण था. ‘‘अब क्यों रुलाते हो, पापा,’’ कहते हुए मैं खाना छोड़ कर उन से लिपट गई. मेरे सिर पर स्नेहिल स्पर्श तक सीमित होते हुए पापा ने कहा, ‘‘उसी ने अभी तक सारे परिवार को एकसूत्र में बांध कर रखा था.

पंछी अपना नीड़ छोड़ कर उड़ चला और यह घोंसला भी एकदम वीराने सा हो गया…मैं क्या करूं,’’ कातरता झलक रही थी उन के स्वर में. ‘‘पापा, आप हिम्मत मत हारो, कुछ दिनों के लिए ही सही, हमारे साथ ही चलो न.’’ ‘‘नहीं बेटे, जब अकेले जी नहीं पाऊंगा तो कह दूंगा,’’ फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोले, ‘‘अभी तो यहां बहुत काम हैं, तुम्हारी मम्मी का इंश्योरेंस, बैंक अकाउंट, उन के फिक्स्ड डिपोजिट सभी को तो देखना पड़ेगा न.’’ ‘‘जैसी आप की इच्छा, पापा,’’ कह कर राहुल अपने कमरे में चले गए. अगले दिन महरी को सबकुछ सिलसिलेवार समझा कर मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई. 2 दिन बाद… मेरी सुबह की ट्रेन थी. जाने से एक रात पहले मैं पापा के पास जा कर बोली, ‘‘पापा, कल सुबह आप मुझे छोड़ने नहीं जाएंगे.

नहीं तो मैं जा नहीं पाऊंगी,’’ इतना कह मैं भरे कंठ से वहां से चली आई थी. सुबह जल्दीजल्दी उठी. तकिये के पास पापा के हाथ की लिखी चिट पड़ी थी, ‘जाने से पहले मुझे भी मत उठाना…मैं रह नहीं पाऊंगा. साथ ही 500 रुपए रखे हैं इन्हें स्वीकार कर लेना. वैसे भी यह सारे आडंबर तुम्हारी मां ही संभालती थी.’ मैं ही जानती हूं कि मैं ने वह घर कैसे छोड़ा था. मैं हर रोज पापा को फोन करती. उन का हाल जानती, फिर महरी को हिदायतें देती. मैं अपनी सीमाएं भी जानती थी और दायरे भी. राहुल को मेरी किसी बात का बुरा न लगे इसलिए पापा से आफिस से ही बात करती. कभीकभी वह छोटीछोटी चीजों को ले कर परेशान हो जाते थे. ऊपर से सामान्य बने रहने के बावजूद मैं भांप जाती कि वह दिल से इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. वह वहां रहने के लिए विवश थे. उन की दुनिया उन्हीं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई थी. एक दिन सुबह मैं ने पापा को उन के जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन किया.

जैसे को तैसा: क्या विवशता थी समीर की, जो सबकुछ जानते हुए खामोश था?

शाम दफ्तर से छूट कर समीर संध्या के साथ रेस्तरां में चाय पी रहा था. तभी उस का मोबाइल बजा. उस ने मुंह बिगाड़ कर फोन उठाया, ‘‘बोल क्या है? अभी दफ्तर में हूं. काम है. 1 घंटा और लगेगा,’’ उस ने अनमने भाव से बीवी जलपा को उत्तर दिया.

‘‘कौन पत्नी?’’ संध्या ने हंस कर पूछा.

‘‘ये आजकल की बीवियां होती ही ऐसी हैं. जरा सी देर क्या हुई फोन करने लगती हैं. तुम अच्छी हो जो शादी नहीं हुई वरना तुम्हारा

पति तुम्हें भी देरी होने पर फोन कर के डिस्टर्ब करता रहता.’’

‘‘हरगिज नहीं,’’ संध्या ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘मर्द ऐसे शक्की नहीं होते जितनी औरतें होती हैं.’’

‘‘बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ समीर ने सहमति जताई, ‘‘जलपा को देखो न. जरा सी देर क्या होती है, फोन करने लगती है और घर पहुंचने पर दफ्तर में क्याक्या किया, किस के साथ घूमे, क्या बात हुई वगैरहवगैरह सवालों की बौछार कर देती है.’’

‘‘क्या आप ने उसे मेरे बारे में बताया है?’’ संध्या ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम्हें क्या लगता है?’’ समीर ने हंस कर उलटा पूछा, ‘‘तुम्हारा जिक्र कर के उस के शक्कीपन को मुझे और बिलकुल नहीं बढ़ाना है.’’

‘‘आप मर्द हैं न इसलिए,’’ संध्या ने कुछ नाराजगी जताई, ‘‘सभी मर्द ऐसे ही होते हैं. खुद बीवी से छिपा कर अकेलेअकेले कुंआरी लड़कियों से मौजमस्ती करते हैं और बीवी अगर पूछताछ करे तो उसे शक्की कहते हैं.’’

‘‘तुम जलपा का पक्ष ले रही हो,’’ समीर हंस पड़ा, ‘‘लड़की जो ठहरी,’’ फिर उस ने पूछा, ‘‘तो क्या तुम्हें हमारी दोस्ती पसंद नहीं?’’

‘‘मैं तुम्हारी दोस्त जरूर हूं पर प्रेमिका नहीं,’’ संध्या ने भी व्यंग्य किया और फिर दोनों बेतहाशा हंस पड़े.

इसी दौरान समीर का फोन फिर से बजा. बोला, ‘‘अरे, पहुंचता हूं. बोला न. क्यों दिमाग खा रही हैं,’’ उस ने चिढ़ कर बोला.

कुछ देर वह संध्या के चेहरे की ओर देखता  या सोचता रहा कि संध्या उस के साथ रहे संबंधों को स्वीकृत कर रही थी या उन पर ऐतराज जता रही थी. खैर, अब तक तो उस के व्यवहार में सहमति ही दिखाई पड़ रही थी. कुछ भी हो, उसे संध्या के साथ घूमना अच्छा लगता था और संध्या भी उस के खुश और मजाकिए स्वभाव के कारण उस की ओर आकृष्ट हो चली थी.

घर पहुंचने पर समीर ने देखा दरवाजे पर ताला था. उस ने स्वयं के पास रखी चाबी से ताला खोला और बैठक में लगे सोफे पर लेट कर जलपा का इंतजार करने लगे. जब 1 घंटा बिताने पर भी जलपा नहीं आई तो उस ने फोन लगाया, ‘‘अरे कहां हो? मैं तो कब से घर पहुंच गया हूं. तुम कहां हो?’’ फिर कुछ देर जलपा की बातें सुन कर उस ने फोन रख दिया.

फिर जब जलपा लौटी तो उस ने गुस्से में पूछा, ‘‘कहां घूमने निकल जाया करती हो? वैसे थोड़ी देर होने पर मुझे फोन करती रहती हो.’’

‘‘सब्जी मंडी गई थी. आलू खत्म हो गए थे,’’ जलपा ने सफाई दी.

फिर न जाने क्यों जलपा को खुश करने के लिए समीर बोला, ‘‘आजकल ज्यादा ही बनठन कर बाजार जा रही हो. माजरा क्या है?’’

‘‘कहां बनठन कर जाती हूं,’’ जलपा ने मुंह बिगाड़ कर कहा, ‘‘हम औरतों का क्या. हम थोड़े ही तुम मर्दों की तरह शादी के बाद भी अफेयर करने लगते हैं.’’

‘‘तो तुम्हें लगता है मेरा अफेयर चल रहा है,’’ समीर के चेहरे पर गुस्सा उतर आया, ‘‘इसी कारण बारबार फोन करती रहती हो. हर पल यह जानने की कोशिश करती रहती हो कि मैं कहां हूं, किस के साथ हूं.’’

जलपा ने घूर कर उस की तरफ देखा, ‘‘बीवी हूं तुम्हारी. इतना तो हक बनाता ही है मेरा. आजकल की औरतें बड़ी चालाक होती हैं. दफ्तर में काम कम करती हैं, शादीशुदा मर्दों को फंसाने की तरकीब करती रहती हैं. फिर मर्दों के साथ अफेयर करना तो आजकल की कामकाजी औरतों के लिए एक फैशन बन गया है और तुम तो हो ही इश्कमिजाज.’’

समीर झोंप सा गया. लगा जलपा ने मानो उसे रंगे हाथ पकड़ लिया हो. क्या सचमुच उसे मेरे और संध्या के अफेयर के बारे में पता है या वह यों ही हवा में तीर फेंक रही है. वह सोचने लगा. क्या उसे सतर्क रहना चाहिए. न जाने क्यों उस दिन के बाद समीर संध्या के साथ घूमते हुए कुछकुछ डर सा महसूस करने लगा. पहले तो वह संध्या के साथ घूमते हुए  बेझिझक उस का हाथ थाम लेता था और बातोंबातों में मौका देखते ही उसे चूम भी लेता था. दोनों दफ्तर में भी समीर के अलग चैंबर में काम के बहाने घंटों अकेले बैठे रहते. दफ्तर के अन्य कर्मचारी भी उन के संबंधों के बारे में सबकुछ जानते थे मगर उन्हें इस की बिलकुल परवाह नहीं थी. संध्या भी समीर का साथ पा कर खुश थी. उस ने भी समीर के बरताव में हो रहे बदलाव को भांप लिया था.

‘‘लगता है तुम्हें पत्नी ने तुम्हें धमकी दे डाली है,’’ वह हंस कर बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ समीर ने अपना बचाव किया, मगर यह अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल हो रहा है कि उसे अपने संबंधों के बारे में पता चल गया है या नहीं,’’ समीर के चहेरे पर परेशानी उभर आई.

‘‘अगर उसे अपने संबंधों के बारे में पता चल गया तो?’’ संध्या ने पूछ लिया.

समीर कुछ देर गहरी सोच में पड़ गया. फिर बोला, ‘‘तब देखा जाएगा. आखिर वह मेरी बीवी है. क्या कर लेगी. तलाक थोड़े ही दे देगी,’’ समीर के चंहरे पर चालाकी से भरी कृत्रिम हंसी आ गई जिसे देख संध्या गंभीर हो गई.

उस रोज समीर को आश्चर्य हुआ जब जलपा का फोन नहीं आया. दफ्तर से छूटने के बाद संध्या के साथ बाजार में घूमते हुए उसे काफी देर हो चुकी थी. उस ने फोन लगाया, ‘‘क्या कर रही हो? फोन नहीं किया? मैं तो इंतजार कर रहा था,’’ उस ने मजाक किया.

फिर कुछ देर जलपा का प्रत्युत्तर सुन कर वह बोला, ‘‘कोई बात नहीं. मुझे देरी होगी. खाने के लिए मेरा इंतजार मत करना. करीब 10 बजे आऊंगा,’’ कह कर फिर एक झटके से फोन काट कर उस ने संध्या का हाथ थाम लिया और खुशी से बोला, ‘‘चलो आज आराम से घूमते हैं. अच्छे रेस्तरां में खाना खाते हैं. मल्टीप्लैक्स में पिक्चर देखेंगे और आराम से रात 12 बजे तक घूमेंगे.’’

दोनों ने फिर शहर के महंगे होटल ग्रांड भगवती में खाना खाया. पास में ही मौल था जहां वे शौपिंग के लिए चले गए. दोनों ने एकदूसरे की पसंद के कपड़े खरीदे. फिर मौल में ही एक रेस्तरां मे आइसक्रीम खाने लगे.

आइसक्रीम खातेखाते ही समीर का ध्यान अचानक मौल के पहली मंजिल पर गया जहां लोगों की भीड़ के बीच जलपा दिखाई दी. वह किसी मर्द के हाथों में हाथ डाले हुए घूम रही थी. उस को झटका सा लगा. आइसक्रीम का निवाला वह मुंह में डाल न सका.

‘‘संध्या, यह मैं क्या देख रहा हूं,’’ वह हक्काबक्का सा बोल पड़ा, ‘‘जलपा किसी

गैरमर्द के साथ यहां घूम रही है. वहां देख,’’ उस ने इशारा किया और संध्या ने पहले मंजिल पर निगाह डाली.

‘‘देख वह ज्वैलरी के शौप के सामने ब्लू सलवार पर सफेद दुपट्टा डाले हुए उस मर्द के साथ खड़ी है. मुझे यकीन नहीं हो रहा. वह यहां कैसे. फोन पर तो बोला था मैं घर पर ही हूं,’’ समीर बुरी तरह चौंक उठा. उस ने शीघ्र ही अपनी जेब से मोबाइल निकाला और दूर उस पर अपनी निगाह जमाते हुए फोन लगाया.

जलपा ने अपनेआप को साथ रहे मर्द की बांहों से छुड़ाते हुए अपने पर्स में से फोन निकाला और बात करती हुए नजर आई.

समीर ने पूछा, ‘‘कहां हो?’’

जलपा ने बोला, ‘‘मैं घर पर ही हूं’’

‘‘मुझे आने में देर होगी. तू ने खाना खा लिया,’’ समीर ने पूछा.

जलपा ने झठ बोलना जारी रखा. समीर को आघात लगा. उस के पेरों तले से जमीन खिसकने लगी. उस ने फोन रखते हुए चिंतित हो कर मन ही मन सोचा. यह कैसे हो सकता है. जलपा किसी गैरमर्द के साथ इतनी रात को बेखटके घूम रही है. क्या उस का किसी मर्द के साथ अफेयर चल रहा है और इस की उसे भनक तक नहीं पड़ी. वह भी कितनी चालाक है. छिपछिप कर अपने यार से मिल रही होगी और इस का उसे पता तक नहीं. फिर वह तो बारबार फोन कर के अपने पति को वह कहां है, किस के साथ है और घर आने में कितना वक्त लगेगा, क्यों देरी हो रही है ऐसे सवाल पूछ कर परेशान कर देती थी. उस की ऐसी हरकत से ही वह तंग आ चुका था और उसे शक्की दिमाग की समझने लगा था. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह उसे बारबार फोन कर के यह जानने की कोशिश करती रहती कि मैं कब घर लौट रहा हूं और तभी वह अपने यार से मिलने का वक्त निकाल लेती होगी. उसे याद आया एक रात वह घर पहुंचा तब वह घर पर नहीं थी और करीब आधे घंटे बाद लौटी थी. पूछने पर बताया था कि पड़ोस में ही दीपा के वहां बैठी थी. तब उसे शक जरूर हुआ था मगर उस ने ध्यान नहीं दिया था. उस का बारबार फोन करना क्या एक चाल थी. यह जानने के लिए वह कब घर लौट रहा है ताकि वह उस की गैरमैजदगी में अपने यार से मिल कर वापस आ जाए.

समीर का पूरा तन अब सिहर उठा. आंखों में गुस्सा उतर आया. इतना बड़ा झठ. इतनी गहरी चाल. सीधीसादी लग रही जलपा इतनी बदमाश. बेशरम. ऐसी घिनौनी हरकत करने की इतनी हिम्मत. एक पल तो उस के जी में आया उसी वक्त उठ कर जाए और जलपा को रंगे हाथ उस के यार के साथ रंगरलियां करते हुए पकड़ कर उस के मुंह पर एक तमाचा जड़ दे. मगर वह गुस्सा पी गया. क्या करता. वह स्वयं अपनी गर्लफ्रैंड संध्या के साथ घूम रहा था.

संध्या ने देखा अब समीर का मूड बिगड़ चुका था. अपनी बीवी को गैरमर्द के साथ घूमते देख कर वह बुरी तरह भीतर से आगबबूला हो चुका था. समीर के गुस्से को ठंडा करना जरूरी था. अत: वह हंस कर व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, ‘‘छोड़ो भी यार. उसे भी अपने प्रेमी के साथ घूमने दो. आखिर बीवी है तुम्हारी. कहते हैं पतिपत्नी साथ में रहते हैं तो एकदूसरे की आदतें अवश्य ग्रहण कर लेते हैं. आप इश्कियामिजाज के हैं तो स्वाभाविक है जलपा भी वही होगी.’’

यह सुनते ही समीर ने हलके से संध्या के गाल पर चपत मारते हुए चिढ़ कर कहा, ‘‘मेरे जले पर नमक छिड़क रही हो.’’

‘‘नमक नहीं छिड़क रही हूं. तुम्हें सचाई का आईना बता रही हूं,’’ संध्या ने उस की आंखों में आंखें डाल कर डांटते हुए कहा, ‘‘जैसे आप वैसी आप की जलपा. दोनों रोमांटिक. अब गुस्सा थूक कर चुपचाप उस के अफेयर को स्वीकृत कर लो. कहते हैं आदर्श पतिपत्नी एकदूसरे की बुराइयों को छिपाते हैं, उन का डंका नहीं बजाते.’’ न जाने क्यों संध्या की बात सुन कर समीर को भी हंसी आ गई. उस का गुस्सा गायब हो गया. संध्या ने ठीक ही तो कहा. जलपा भी बिलकुल वैसी ही थी जैसा वह. फिर झगड़ा कैसा.

सास बहू और टोटके सास के साथ आप के रिश्तों में सुधार आप के अच्छे व्यवहार से होगा. मगर पंडेपुजारियों और धर्म के तथाकथित पुजारियों ने यहां भी अंधविश्वास फैलाने की कोशिश में बहुत सारे तरीके बताते रहते हैं. जरा इन टोटकों पर गौर करें??:

यदि बहू रोज सुबह सूर्य भगवान को गुड़ मिला हुआ जल चढ़ाएं तो उन की सास उन से खुश रहेगी.

सास से अपने संबंध अच्छे करने के लिए मंगलवार को सूजी का हलवा बना कर उसे मंदिर के बाहर बैठे गरीबों में बांटें. अगर दोनों में लड़ाइयां ज्यादा हो रही हैं तो दोनों गले में चांदी की चेन पहनें.

वास्तु शास्त्र के नियम अनुसार दक्षिणपश्चिम कोण में सास को सोना चाहिए, उस के बाद बड़ी बहू को पश्चिम दिशा में और उस से छोटी बहु को पूर्व दिशा में शयन करना चाहिए. इस से घर की स्त्रियों में प्रेम बना रहेगा. सासससुर का कमरा सदैव दक्षिणपश्चिम दिशा में ही होना चाहिए और बेटेबहू का कमरा पश्चिमी या दक्षिण दिशा में. अगर बेटेबहू का रूम दक्षिणपश्चिम में होता है, तो उन का सासससुर से झगड़ा बना ही रहेगा, घर में आए दिन क्लेश रहेगा. परिवार पर अपना नियंत्रण रखने के लिए इस दिशा में घर के बड़ों को ही रहना चाहिए..

यदि सास और बहु में पटती नहीं है तो बहू सास को 12 लाल और 12 हरी कांच की चूडि़यां प्रसन्न मन से भेंट करें. इस उपाय से सास का मन बदल जाएगा और सास अपनी बहू की सहेली बन जाएगी.

अगर बहू को सास की तरफ से समस्या है तो बहू सास से मधुर संबंध बनाने के लिए एक भोजपत्र पर लाल चंदन की स्याही से सास का नाम लिख कर उसे शहद में डूबो कर उसे रविवार को छोड़ कर किसी भी दिन सूर्यास्त से पहले पीपल के पेड़ के नीचे गाड़ दें और पीपल देवता से अपनी सास से संबंध अच्छे हो जाने के लिए प्रार्थना करें.

इस परिस्थिति से बचने के लिए बृहस्पतिवार के दिन भोजपत्र पर गायत्री मंत्र चंदन से लिखें और उस के 2 ताबीज बना कर पीले कपड़े में एक अपनी माता के और एक पत्नी के दांईं कलाई पर बांध दें.

रोज एक तांबे के लोटे में जल भरें और पहले अपनी माता के हाथ से और बाद में पत्नी के हाथ से उसे स्पर्श करा कर तुलसी के पौधे में डाल दें. यह क्रिया रविवार के दिन नहीं करें.

रोज 1 रोटी में गुड़ और चने डाल कर शाम को अपनी माता व पत्नी से स्पर्श करा कर शाम को गाय को खिला दें.

रोज 2 तुलसी के पत्ते पानी से धो कर पूजा में रखें और 21 बार गायत्री मंत्र पढ़ कर एक पत्ता माता को व एक पत्नी को खिला दिया करें. रविवार को छोड़ कर.

अब बताइए क्या इस तरह के फुजूल के उपायों से सासबहू का रिश्ता सुधर सकता है? सामाजिक रिश्तों में ऐसे धर्म और टोटके का मकसद केवल धर्मभीरु और अंधविश्वासी लोगों से बहाने रुपए लूटना होता है. कभी दानधर्म के नाम पर और कभी दक्षिणा के नाम पर. कुछ लोग इतने नासमझ होते हैं कि घर की शांति की सही वजह समझने के बजाए इस के लिए अपनी जेबें ढीली करते रहते हैं.

Father’s day 2023: ले बाबुल घर आपनो- भाग 1

न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

‘‘मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं,’’ सीमा ने साफ शब्दों में अपनी बात कह दी.

शंभुजी कोलकाता से लौट कर आए तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. हमेशा दरवाजे पर स्वागत करने वाली सीमा आज कहीं भी नजर नहीं आ रही थी. मैसेज तो उन्होंने कोलकाता से चलने से पहले ही उस के मोबाइल पर भेज दिया था. क्या उस ने पढ़ा नहीं? लेकिन वे तो हमेशा ही ऐसा करते हैं. चलने से पहले मैसेज कर देते हैं और उन की लाड़ली बेटी सीमा दरवाजे पर मिलती है. उस का हंसता चेहरा देखते ही वे अपनी सारी थकान, सारा अकेलापन पलभर में भूल जाते हैं. शंभुजी का मन उदास हो गया. कहां गई होगी सीमा? मोबाइल भी घर पर छोड़ गई. किस से पूछें वे? और उन्होंने एकएक कर के सारे नौकरों को बुला लिया. पर किसी को पता नहीं था कि सीमा कहां है. सब का एक ही जवाब था, ‘‘सुबह घर पर थी, फिर पता नहीं बिटिया कहां गई.’’

शंभुजी ने सीमा का मोबाइल चैक किया. उन का मैसेज उस ने पढ़ लिया था. फिर भी सीमा घर में नहीं रही. क्या होता जा रहा है उसे? पिछले कई महीनों से वे देख रहे हैं, सीमा में कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं. न वह उन के साथ उतना लाड़ करती है, न उन्हें अपने मन की कोई बात ही बताती है और न ही अब उन से कुछ पूछती है. पिछली बार जब वे कोलकाता जा रहे थे, तो उन्होंने कितना पूछा था, ‘क्यों, बेटे, तुम्हें कुछ मंगवाना है वहां से?’ तो बस, केवल सिर हिला कर उस ने न कर दी थी और वहां से चली गई थी.

पहले जब वे कहीं जाते थे, तो कैसे उन के गले में बांहें डाल कर लटक जाती थी, और मचल कर कहती थी, ‘पापा, जल्दी आ जाइएगा, इतने बड़े सूने घर में हमारा मन नहीं लगता.’

उन का भी कहां इस घर में मन लगता है. यह तो सीमा ही है, जिस के पीछे उन्होंने इतने बरस हंसतेहंसते काट दिए हैं और अपनी पत्नी मीरा को भी भुला बैठे हैं. जबजब वे सीमा को देखते हैं, उन्हें हमेशा यही संदेह होता है, मीरा लौट आई है. और वे अपने अकेलेपन की खाई को सीमा की प्यारीप्यारी बातों से पाट देते हैं.

एक दिन सीमा भी तो पूछ बैठी थी, ‘पापा, मेरी मां बहुत सुंदर थीं?’

‘हां बेटा, बहुत सुंदर थी?’

‘बिलकुल मेरी तरह?’

‘हां, बिलकुल तेरी तरह.’

‘वे आप से रूठती भी थीं?’

‘हां बेटा.’

‘मेरी तरह?’

‘आज तुम्हें क्या हो गया है, सीमा? यह सब तुम्हें किस ने बताया है?’ वे नाराज हो गए थे.

‘15 नंबर कोठी वाली रेखा चाची हैं न, उन्होंने कहा था, मां बहुत अच्छी थीं. आप उन की बात नहीं मानते थे तो वे रूठ जाती थीं,’ सीमा बड़े भोलेपन से बोली थी.

‘तू वहां मत जाया कर, बेटी. अपने घर में क्यों नहीं खेलती? कितने खिलौने हैं तेरे पास?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘वहां शरद है न, वह मेरे साथ कैरम खेलता है, बैडमिंटन खेलता है, यहां मेरे साथ कौन खेलेगा? आप तो सारा दिन घर से बाहर रहते हैं,’ वह रोआंसी हो आई थी.

वे उस छोटी सी बेटी को कैसे बताते कि उस की मां उन से क्यों रूठ जाती थी. वे तो आज तक अपने को कोसते हैं कि मीरा की वे कोई भी इच्छा पूरी न कर सके. कितनी स्वाभिमानी थी वह? इतनी बड़ी जायदाद की भी उस की नजर में कोई कीमत न थी. हमेशा यही कहती थी कि वह सुख भी किस काम का जिस से हमेशा यह एहसास होता रहे, यह हमारा अपना नहीं, किसी का दिया हुआ है.

यह जो आज इतना बड़ा राजपाट है, यह सब उन्हें मीरा की बदौलत ही तो मिला था. लेकिन मीरा ने कभी इस राजपाट को प्यार नहीं किया. न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आ आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

बहुत बड़ा कारोबार था मीरा के पिताजी का. कितने ही लोग उन के दफ्तर में काम करते थे. शंभुजी भी वहीं काम करते थे. वे बहुत ही स्मार्ट, होनहार और ईमानदार व्यक्ति थे. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने मीरा के पिता का मन जीत लिया था. शंभुजी से उन की कोई बात छिपी नहीं थी, और शंभुजी भी उन की बात को अपनी बात समझ कर न जाने पेट के किस कोने में रख लेते थे, जिस से कोई जान तक नहीं पाता था. मीरा की मां ने ही एक दिन पति को सुझाव दिया था, ‘क्योंजी, तुम तो दिनरात शंभुजी की प्रशंसा करते हो. अगर हम अपनी मीरा की शादी उन से कर दें, तो कैसा रहेगा? गरीब घर का लड़का है, अपने घर रह जाएगा.’

‘मैं भी कितने दिनों से यही सोच रहा था. मुझे भी ऐसा लड़का चाहिए जो मेरा कारोबार भी संभाल ले, और हमारी बेटी भी हमारे पास रह जाए,’ मीरा के पिता ने बात का समर्थन किया था.

‘मेरी चिंता दूर हुई. लेदे कर एक ही तो औलाद है, वही आंखों से दूर हो जाए तो यह तामझाम किस काम का?’

‘लड़का हीरा है, हीरा. चरित्रवान, स्मार्ट, मेहनती, ईमानदार, यह समझ लो, चिराग ले कर ढूंढ़ने से भी ऐसा लड़का हमें नहीं मिलेगा.’

‘तो बात पक्की कर लो. यह जरूर जतला देना, घरजमाई बन कर रहना पड़ेगा. उसे मंजूर हो तो बस चट मंगनी पट ब्याह वाली बात कर ही डालो,’ मीरा की मां ने पुलकित हो कर कहा था.

बात पक्की हो गई थी. बड़ी धूमधाम से मीरा और शंभुजी की शादी हुई थी. शंभुजी के पांव धरती पर नहीं पड़ते थे. पहले तो दफ्तर में काम करने वाले सभी साथियों ने ईर्ष्या की थी, लेकिन धीरेधीरे वे सब के लिए छोटे मालिक हो गए थे. मीरा के पिता तो जैसे उन्हें पा कर पूरी तरह निश्ंिचत हो गए थे. धीरेधीरे सारा कारोबार ही उन्होंने शंभुजी को सौंप दिया था.

सूनी आंखें: जब महामारी ने कर दिया पति पत्नी को अलग

सुबह के समय अरुण ने पत्नी सीमा से कहा,”आज मुझे दफ्तर जरा जल्दी जाना है. मैं जब तक तैयार होता हूं तुम तब तक लंच बना दो ब्रेकफास्ट भी तैयार कर दो, खा कर जाऊंगा.”

बिस्तर छोड़ते हुए सीमा तुनक कर बोली,”आरर… आज ऐसा कौन सा काम है जो इतनी जल्दी मचा रहे हैं.”अरुण ने कहा,”आज सुबह 11 बजे  जरूरी मीटिंग है. सभी को समय पर बुलाया है.”

“ठीक है जी, तुम तैयार हो जाओ. मैं किचन देखती हूं,” सीमा मुस्कान बिखेरते हुए बोली.अरुण नहाधो कर तैयार हो गया और ब्रेकफास्ट मांगने लगा, क्योंकि उस के दफ्तर जाने का समय हो चुका था, इसलिए वह जल्दबाजी कर रहा था.

गैराज से कार निकाली और सड़क पर फर्राटा भर अरुण  समय पर दफ्तर पहुंच गया. दफ्तर के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से कुरसी पर बैठा था, तभी दफ्तर के दरवाजे पर एक अनजान औरत खड़ी अजीब नजरों से चारों ओर देख रही थी.

चपरासी दीपू के पूछने पर उस औरत ने बताया कि वह अरुण साहब से मिलना चाहती है. उस औरत को वहां रखे सोफे पर बिठा कर चपरासी दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.‘‘मैं नहीं जानता साहब,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.चपरासी दीपू उस औरत को अरुण के केबिन तक ले गया.केबिन खोलने के साथ ही उस अजनबी औरत ने अंदर आने की इजाजत मांगी.

अरुण के हां कहने पर वह औरत अरुण के सामने खड़ी हो गई. अरुण ने उस औरत को बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘बताइए, मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?”

“सर, मेरा नाम संगीता है. मेरे पति सुरेश आप के दफ्तर में काम करते हैं.” अरुण बोला,”जी, ऑफिस के बहुत से काम वे देखते हैं. उन के बिना कई काम रुके हुए हैं.”

अरुण ने चपरासी दीपू को बुला कर चाय लाने को कहा.चपरासी दीपू टेबल पर पानी रख गया और चाय लेने चला गया.कुछ देर बाद ही चपरासी दीपू चाय ले आया.

चाय की चुस्की लेते हुए अरुण पूछने लगा, ” कहो, कैसे आना हुआ?’’‘‘मैं बताने आई थी कि मेरे पति सुरेश की तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है, इसलिए वे कुछ दिनों के लिए दफ्तर नहीं आ सकेंगे.”

“क्या हुआ सुरेश को,” हैरान होते हुए अरुण बोला”डाक्टर उन्हें अजीब सी बीमारी बता रहे हैं. अस्पताल से उन्हें आने ही नहीं दे रहे,”संगीता रोने वाले अंदाज में बोली.

संगीता को रोता हुआ देख कर अरुण बोला, “रोइए नहीं. पूरी बात बताइए कि उन को यह बीमारी कैसे लगी?””कुछ दिनों से ये लगातार गले में दर्द बता रहे थे, फिर तेज बुखार आया. पहले तो पास के डाक्टर से इलाज कराया, पर जब कोई फायदा न हुआ तो सरकारी अस्पताल चले गए.

“सरकारी अस्पताल में डाक्टर को दिखाया तो देखते ही उन्हें भर्ती कर लिया गया. “ये तो समझ ही नहींपाए कि इन के साथ हो क्या गया है?””जब अस्पताल से इन का फोन आया तो मैं भी सुन कर हैरान रह गई,” संगीता ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा.

“अभी वे अस्पताल में ही हैं,” संगीता से अरुण ने पूछा.”जी,” संगीता ने जवाब दिया.अरुण यह सुन कर परेशान हो गया. सुरेश का काम किसी और को देने के लिए चपरासी दीपू से कहा.

अरुण ने सुरेश की पत्नी संगीता को समझाते हुए कहा कि तुम अब बिलकुल चिंता न करो. घर जाओ और बेफिक्र रहो, उन्हें कुछ नहीं होगा.संगीता अरुण से आश्वस्त हो कर घर आ गई और उसे भी घर आने के लिए कहा. अरुण ने भी जल्द समय निकाल कर घर आने के लिए कहा.

“सर, कुछ कहना चाहती हूं,” कुर्सी से उठते समय संगीता ने झिझकते हुए पूछा.”हां, हां, कहिए, क्या कहना चाहती हैं आप,” अरुण ने संगीता की ओर देखते हुए कहा.”जी, मुझे कुछ पैसों की जरूरत है. इन की तनख्वाह मिलने पर काट लेना,” संगीता ने सकुचाते हुए कहा.

“बताइए, कितने पैसे चाहिए?” अरुण ने पूछा.”जी, 20 हजार रुपए चाहिए थे…” संगीता संकोच करते हुए बोली.”अभी तो इतने पैसे नहीं है, आप कलपरसों में आ कर ले जाना,” अरुण ने कहा. “ठीक है,” यह सुन कर संगीता का   उदास चेहरा हो गया.

“आप जरा भी परेशान न होइए. मैं आप को पैसे दे दूंगा,” संगीता के उदास चेहरे को देख कर कहा.अरुण के दफ्तर से निकलने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता भी अपने घर लौट आई.

अगले दिन दफ्तर के काम जल्द निबटा कर अरुण कुछ सोच में डूबा था, तभी उस के मन में अचानक ही सुरेश की पत्नी संगीता की पैसों वाली बात याद आ गई.2 दिन बाद ही संगीता अरुण के दफ्तर पहुंची. चपरासी दीपू ने चायपानी ला कर दी.

अरुण ने सुरेश की तबीयत के बारे में जानना चाहा. संगीता आंखों में आंसू लाते हुए बोली,”वहां तो अभी वे ठीक नहीं हैं. मैं अस्पताल गई थी, पर वहां किसी को मिलने नहीं दे रहे.”

“क्या…” अरुण हैरानी से बोला.”अस्पताल वाले कहते हैं, जब वे ठीक हो जाएंगे तो खुद ही घर आ जाएंगे.”यह जान कर अरुण हैरान हो गया कि अस्पताल वाले किसी से मिलने नहीं दे रहे. वह आज शाम को उस से मिलने जाने वाला था.

अरुण ने संगीता को 20 हजार के बजाय 30 हजार रुपए दिए और कहा कि और भी पैसे की जरूरत हो तो बताना.संगीता पैसे ले कर घर लौट आई. 21 मार्च की शाम जब अरुण हाथपैर धो कर बिस्तर पर बैठा, तभी उस की पत्नी सीमा चाय ले आई और बताने लगी कि रात 8 बजे रास्ट्र के नाम संदेश आएगा.

अरुण टीवी खोल कर तय समय पर बैठ गया. मोदी का संदेश सुनने के बाद अरुण ने पत्नी सीमा को अगले दिन रविवार को जनता कर्फ्यू के बारे में बताया कि घर से किसी को बाहर नहीं निकलना है. साथ ही, यह भी बताया कि शाम 5 बजे अपनेअपने घरों से बाहर निकल कर थाली या बरतन, कुछ भी बजाएं.

उस दिन शाम को जब पड़ोसी ने घर से बाहर निकल थाली बजाई तो अरुण भी शोर सुन कर बाहर आया. पत्नी सीमा भी खुश होते हुए थाली हाथ में लिए बाहर जोरजोर से बजाने लगी. उसे देख अरुण भी खुश हुआ.

सोमवार 23 मार्च को अरुण किसी जरूरी काम के निकल आने की वजह से ऑफिस नहीं गया.उसी दिनशाम को फिर से रास्ट्र के नाम संदेश आया. 21 दिनों के लॉक डाउन की खबर से वह भी हैरत में पड़ गया.

अगले दिन किसी तरह अरुण ऑफिस गया और जल्दी से सारे काम निबटा कर घर आ गया.घर पर अरुण ने सीमा को ऑफिस में साथ काम करने वाले सुरेश के बारे में बताया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है.

अगले दिन सड़क पर सख्ती होने से अरुण दफ्तर न जा सका. लॉक डाउन होने की वजह से अरुण घर में रहने को विवश था.इधर जब सुरेश को कोरोना होने की तसदीक हो गई तो संगीता के घर को क्वारन्टीन कर दिया. अब वह घर से जरा भी बाहर नहीं निकल सकती थी.

उधर क्वारन्टीन होने के कुछ दिन बाद ही अस्पताल से सुरेश के मरने की खबर आई तो क्वारन्टीन होने की वजह से वह घर से निकल नहीं सकती थी.

संगीता को अस्पताल वालों ने फोन पर ही सुरेश की लाश न देने की वजह बताई. वजह यह कि ऐसे मरीजों को वही लोग जलाते हैं ताकि किसी और को यह बीमारी न लगे.

यह सुन कर संगीता घर में ही दहाड़े मारते हुए गश खा कर गिर पड़ी. ऑफिस में भी सुरेश के मरने की खबर भिजवाई गई, पर ऑफिस बंद होने से किसी ने फोन नहीं उठाया.जब लॉक डाउन हटा तो अरुण यों ही संगीता के दिए पते पर घर पहुंच गया.

अरुण ने सुरेश के घर का दरवाजा खटखटाया तो संगीता ने ही खोला.संगीता को देख अरुण मुस्कुराते हुए बोला, “कैसे हैं सुरेश? उस की तबीयत पूछने चला आया.”संगीता ने अंदर आने के लिए कहा, तो वह संगीता के पीछेपीछे चल दिया.

कमरे में अरुण को बिठा कर संगीता चाय बनाने किचन में चली गई. कमरे का नजारा देख अरुण  हैरत में पड़ गया क्योंकि सुरेश की तसवीर पर फूल चढ़े हुए थे, अरुण समझ गया कि सुरेश अब नहीं रहा.

संगीता जब चाय लाई तो अरुण ने हैरानी से संगीता से पूछा तो उस ने रोते हुए बताया कि ये तो 30 मार्च को ही चल बसे थे. अस्पताल से खबर आई थी. मुझे तो क्वारन्टीन कर दिया गया. फोन पर ही अस्पताल वालों ने लाश देने से मना कर दिया.

क्या करती,घर में फूटफूट कर रोने के सिवा.अरुण ने गौर किया कि सुरेश की फोटो के पास ही पैसे रखे थे, जो उस ने संगीता को दिए थे.संगीता ने उन पैसों की ओर देखा और अरुण ने संगीता की इन सूनी आंखों में  देखा. थके कदमों से अरुण वहां से लौट आया.इन सूनी आंखों में अरुण को जाते देख  संगीता की आंखों में आंसू आ गए.

पैंसठ पार का सफर: क्या कम हुआ सुरभि का डर

टेलीविजन का यह विज्ञापन उन्हें कहीं  बहुत गहरे सहला देता है, ‘झूठ बोलते हैं वे लोग जो कहते हैं कि उन्हें डर नहीं लगता. डर सब को लगता है, प्यास सब को लगती है.’ अगर वे इस विज्ञापन को लिखतीं तो इस में कुछ वाक्य और जोड़तीं, प्यास ही नहीं, भूख भी सब को लगती है… हर उम्र में…इनसान की देह की गंध भी सब को छूती है और चाहत की चाहत भी सब में होती है.

उम्र 65 की हो गई है. मौत का डर हर वक्त सताता है. यह जानते हुए भी कि मौत तो एक दिन सबको आती है. फिर उस से डर क्यों? नहीं, गीता की आत्मा वाली बात में उन की आस्था नहीं है कि आत्मा को न आग जला सकती है, न मौत मार सकती है, न पानी गला सकता है…सब झूठ लगता है उन्हें. शरीर में स्वतंत्र आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं लगता और शरीर को यह सब व्यापते हैं तो आत्मा को भी जरूर व्यापते होंगे. धर्मशास्त्र आदमी को हमेशा बरगलाया क्यों करते हैं? सच को सच क्यों नहीं मानते, कहते? वे अपनेआप से बतियाने लगती हैं, दार्शनिकों की तरह…

चौथी मंजिल के इस फ्लैट में सारे सुखसाधन मौजूद हैं. एक कमरे में एअरकंडीशनर, दूसरे में कूलर. काफी बड़ी लौबी. लौबी से जुडे़ दोनों कमरे, किचन, बाथरूम. बरामदे में जाने का सिर्फ एक रास्ता, बरामदे में 3 दूसरे फ्लैटों के अलावा चौथा लिफ्ट का दरवाजा है.

इस विशाल इमारत के चारों तरफ ऊंची चारदीवारी, पक्का फर्श, गेट पर सुरक्षा गार्ड. गार्ड रूम में फोन. गार्ड आगंतुक से पूछताछ करते हैं, दस्तखत कराते हैं. फोन से फ्लैट वाले से पूछा जाता है कि फलां साहब मिलने आना चाहते हैं, आने दें?

इस फ्लैट मेंऐसा क्या है जो पति उन्हें न दे कर गए हों? मौत से पहले उन्होंने उस के लिए सब जुटा दिया और एक दिन हंसीहंसी में कहा था उन्होंने, ‘आराम से रहोगी हमारे बिना भी.’

तब वह कु्रद्ध हो गई थीं, ‘ठीक है कि मुझे धर्मकर्म के ढोंग में विश्वास नहीं है पर मैं मरना सुहागिन ही चाहूंगी…मेरी अर्थी को आप का कंधा मिले, हर भारतीय नारी की तरह यह मेरी भी दिली आकांक्षा है.’ पर आकांक्षाएं और चाहतें पूरी कहां होती हैं?

उन के 2 बेटे हैं. एक ने आई.आई.टी. में उच्च शिक्षा पाई तो दूसरे ने आई.आई.एम. में. लड़की ने रुड़की से इलेक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग में शिक्षा पाई. तीनों में से कोई भी अपने देश में रुकने को तैयार नहीं हुआ. सब को आज की चकाचौंध ने चौंधिया रखा था. सब कैरियर बनाने विदेश चले गए और उन की चाहत धरी की धरी रह गई. पति से बोली भी थीं, ‘लड़की को शादी के बाद ही जाने दो बाहर…कोई गलत कदम उठ गया तो बदनामी होगी,’ पर लड़की का साफ कहना था, ‘वहीं कोई पसंद आ गया तो कर लूंगी शादी. अपने जैसा ही चाहिए मुझे, सुंदर, स्मार्ट, पढ़ालिखा, वैज्ञानिक दृष्टि वाला.’

लड़कों ने भी उन की नहीं सुनी. पहले कैरियर बाद में शादी, यह कह कर विदेश गए और बाद में शादी कर ली पर बाप से पूछना तक मुनासिब नहीं समझा.

इस फ्लैट में अकेले वे दोनों ही रह गए. उस रात अचानक पति के सीने में दर्द उठा. वह घबराईं, डाक्टर को फोन किया. अस्पताल से एंबुलेंस आए उस से पहले ही उन्होंने अंतिम सांस ले ली. बच्चों को फोन किया तो दोनों ने फ्लाइट्स न मिलने की बात कही और बताया कि आने  में एक सप्ताह लगेगा, सबकुछ खुद ही निबटवा लें किसी तरह. उन्होंने पूछा भी था कि कैसे और किस से कराएं दाहसंस्कार? पर कोई उत्तर नहीं मिला उन्हें.

बच्चे आए. बाकी के कर्मकांड जल्दी से निबटाए और फिर एक दिन बोले, ‘पापा लापरवाह आदमी थे. इस उम्र में तेल, घी छोड़ देना चाहिए था, पर वह तो हर वक्त यहां दीवान पर लेटेलेटे या तो किताबें, अखबार पढ़ते या फिर टीवी पर खबरें सुनते रहते. उन्होंने तो कहीं आनाजाना भी छोड़ दिया था. ऐसे लाइफ स्टाइल का यही हश्र होना था. वह तो सब्जीभाजी तक नौकरानी से मंगाते. इस्तेमाल की चीजें दुकानों से फोन कर के मंगवा लेते. कहीं इस तरह जीवन जिया जाता है?’

कहते तो ठीक थे बच्चे पर उन के अपने तर्क होते थे. वह कहते, ‘यह महानगर है, सुरभि. यहां बेमतलब कोई न किसी से मिलता है न मिलना पसंद करता है. किसे फुर्सत है जो ठलुओं से बतियाए?’

‘ठलुए’ शब्द उन्हें बहुत खलता. आखिर उन के अपने दफ्तर के भी तो लोग हैं. उन में  भी 2-3 रिटायर व्यक्ति हैं. उन्हीं के पास जा बैठें. अगर ये ठलुए हैं तो वे कौन सा पहाड़ खोद रहे होंगे?

कहा तो बोले, ‘सब ने कोई न कोई पार्ट टाइम जौब पकड़ लिया है. किसी को फुर्सत नहीं है.’

‘तो आप भी ऐसा कुछ करने लगिए,’ सुरभि ने कहा था.

‘नहीं करना. अपने पास अब सब है. पेंशन तुम्हें भी मिलती है, मुझे भी. बच्चे सब बड़े हो गए. विदेश जा बसे. उन्हें हमारे पैसे की जरूरत नहीं है. अपने पास कोई कमी नहीं है, फिर क्यों इस उम्र में अपने से काफी कम उम्र के लोगों की झिड़कियां सुनें?’

जबरन ही कभीकभी शाम को खाने के बाद सुरभि पति को अपने साथ लिवा जातीं. सड़क पार एक बड़ा पार्क था, उस में चहलकदमी करते. वहां बच्चों का हुल्लड़ उन्हें पसंद न आता. खासकर वे जिस तरह धौलधप्प करते, गेंद खेलते, भागदौड़ में गिरतेपड़ते. कभीकभी उन की गेंद उन तक आ जाती या उन्हें लग जाती तो झुंझला उठते, ‘यह पार्क ही रह गया है तुम लोगों को हुल्लड़ मचाने के लिए?’

वह पति की कोहनी दबा देतीं, ‘तो कहां जाएं बेचारे खेलने? सड़क पर वाहनों की रेलपेल, घरों में जगह नहीं, स्कूल दूर हैं. कहां खेलें फिर?’

‘भाड़ में,’ वह चीख से पड़ते. यह उन का तकिया कलाम था. जब भी, जिस पर भी वह गुस्सा होते, उन के मुंह से यही शब्द निकलता.

आखिर उन की बात सच निकली… बच्चे हम से बहुत दूर, विदेश के भाड़ में चले गए और स्वयं भी वह चिता के भाड़ में और जीतेजी वह भी इस फ्लैट में अकेली भाड़ में ही पड़ी हुई हैं.

शाम को जब बर्तन मांजने वाली बर्तन साफ कर जाती तो वह अकसर सामने के पार्क में चली जातीं…इस भाड़ से कुछ देर को तो बाहर निकलें.

घूमती टहलती जब थक जातीं तो सीमेंट की बेंच पर बैठ जातीं. एक दिन बैठीं तो एक और वृद्धा उन के निकट आ बैठी. इस उम्र की औरतों का एकसूत्री कार्यक्रम होता है, बेटेबहुओं की आलोचना करना और बेटियों के गुणगान, अपने दुखदर्द और बेचारगी का रोना और बीमारियों का बढ़ाचढ़ा कर बखान करना. यह भी कि बहू इस उम्र में उन्हें कैसा खाना देती है, उन से क्याक्या काम कराती है, इस का पूरा लेखाजोखा.

बहुत जल्दी ऊब जाती हैं वह इन बुढि़यों की एकरस बातों से. सुरभि उठने को ही थीं कि वह वृद्धा बोली, ‘आजकल मैं सुबह टेलीविजन पर योग और प्राणायाम देखती हूं. पहले सुबह यहां घूमने आती थी, पर जब से चैनल पर यह कार्यक्रम आने लगा, आ ही नहीं पाती. आप को भी जरूर देखना चाहिए. सारे रोगों की दवा बताते हैं. अब आसन तो इस उमर में हो नहीं पाते मुझ से, पर हाथपांव को चलाना, घुटनों को मोड़ना, प्राणायाम तो कर ही लेती हूं.’

‘फायदा हुआ कुछ इन सब से आप को?’ न चाहते हुए भी सुरभि पूछ बैठीं.

‘पहले हाथ ऊपर उठाने में बहुत तकलीफ होती थी. घुटने भी काम नहीं करते थे. यहां पार्क में ज्यादा चलफिर लेती तो टीस होने लगती थी पर अब ऐसा नहीं होता. टीस कम हो गई है, हाथ भी ऊपर उठने लगे हैं, जांघों का मांस भी कुछ कम हो गया है.’

‘सब प्रचार है बहनजी. दुकानदारी कहिए,’ वह मुसकराती हैं, ‘कुछ बातें ठीक हैं उन की, सुबह उठने की आदत, टहलना, घूमनाफिरना, स्वच्छसाफ हवा में अपने फेफड़ों में सांस खींचना…कुछ आसनों से जोड़ चलाए जाएंगे तो जाम होने से बचेंगे ही. पर हर रोग की दवा योग है, यह सही नहीं हो सकता.’

पास वाली बिल्डिंग के तीसरे माले पर एक बूढ़े दंपती रहते थे. उन्होंने 15-16 साल का एक नौकर रख रखा था. बच्चे विदेश से पैसा भेजते थे. नौकर ने एक दिन देख लिया कि पैसा कहां रखते हैं. अपने एक सहयोगी की सहायता से नौकर ने रात को दोनों का गला रेत दिया और मालमता बटोर कर भाग गए. पुलिस दिखावटी काररवाई करती रही. एक साल हो गया, न कोई पकड़ा गया, न कुछ पता चला.

सुरभि और उन के पति ने तब से नियम बना रखा था कि पैसा और जेवर कभी नौकरों के सामने न रखो, जरूरत भर का ही बैंक से वह पैसा लाते थे. खर्च होने पर फिर बैंक चले जाते थे. किसी को बड़ी रकम देनी होती तो हमेशा यह कह कर दूसरे दिन बुलाते थे कि बैंक से ला कर देंगे, घर में पैसा नहीं रहता.

मौत सचमुच बहुत डराती है उन्हें. पति के जाने के बाद जैसे सबकुछ खत्म हो गया. क्या आदमी जीवन में इतना महत्त्व रखता है? कई बार सोचती हैं वह और हमेशा इसी नतीजे पर पहुंचती हैं. हां, बहुत महत्त्वपूर्ण, खासकर इस उम्र में, इन परिस्थितियों में, ऐसे अकेलेपन में…कोई तो हो जिस से बात करें, लड़ेंझगड़ें, बहस करें, देश और दुनिया के हालात पर अफसोस करें.

इसी इमारत में एक अकेले सज्जन भाटिया साहब अपने फ्लैट में रहते हैं, बैंक के रिटायर अफसर. बेटाबहू आई.टी. इंजीनियर. बंगलौर में नौकरी. बूढ़े का स्वभाव जरा खरा था. देर रात तक बेटेबहू का बाहर क्लबों में रहना, सुबह देर से उठना, फिर सबकुछ जल्दीजल्दी निबटा, दफ्तर भागना…कुछ दिन तो भाटिया साहब ने बरदाश्त किया, फिर एक दिन बोले, ‘मैं अपने शहर जा कर रहूंगा. यहां अकेले नहीं रह सकता. कोई बच्चा भी नहीं है तुम लोगों का कि उस से बतियाता रहूं.’

‘बच्चे के लिए वक्त कहां है पापा हमारे पास? जब वक्त होगा, देखा जाएगा,’ लड़के ने लापरवाही से कहा था.

भाटिया साहब इसी बिल्ंिडग के अपने  फ्लैट में आ गए.

भाटिया साहब के फ्लैट का दरवाजा एकांत गैलरी में पड़ता था. किसी को पता नहीं चला. दूध वाला 3 दिन तक दूध की थैलियां रखता रहा. अखबार वाला भी रोज दूध की थैलियों के नीचे अखबार रखता रहा. चौथे दिन पड़ोसी से बोला, ‘भाटिया साहब क्या बाहर गए हैं? हम लोगों से कह कर भी नहीं गए. दूध और अखबार 3 दिन से यहीं पड़ा है.’

पड़ोसी ने आसपास के लोगों को जमा किया. दरवाजा खटखटाया. कोई जवाब नहीं. पुलिस बुलाई गई. दरवाजा तोड़ा गया. भाटिया साहब बिस्तर पर मृत पड़े थे और लाश से बदबू आ रही थी. पता नहीं किस दिन, किस वक्त प्राण निकल गए. अगर भाटिया साहब की पत्नी जीवित होतीं तो यों असहाय अवस्था में न मरते.

ऐसी मौतें सुरभि को भी बहुत डराती हैं. कलेजा धड़कने लगता है जब वह टीवी पर समाचारों में, अखबारों या पत्रिकाओं में अथवा अपने शहर या आसपास की इमारतों में किसी वृद्ध को ऐसे मरते या मारे जाते देखती हैं. उस रात उन्हें ठीक से नींद नहीं आती. लगता रहता है, वह भी ऐसे ही किसी दिन या तो मार दी जाएंगी या मर जाएंगी और उन की लाश भी ऐसे ही बिस्तर पर पड़ी सड़ती रहेगी. पुलिस ही दरवाजा तोड़ेगी, पोस्टमार्टम कराएगी, फिर अड़ोसीपड़ोसी ही दाहसंस्कार करेंगे. बेटेबहू या बेटीदामाद तो विदेश से आएंगे नहीं. इसी डर से उन्होंने अपने तीनों पड़ोसियों को बच्चों के पते और टेलीफोन नंबर तथा मोबाइल नंबर दे रखे हैं…घटनादुर्घटना का इस उम्र में क्या ठिकाना, कब हो जाए?

अखबार के महीन अक्षर पढ़ने में अब इस चश्मे से उन्हें दिक्कत होने लगी है. शायद चश्मा उतर गया है. बदलवाना पड़ेगा. पहले तो सोचा कि बाजार में चश्मे वाले स्वयं कंप्यूटर से आंख टेस्ट कर देते हैं, उन्हीं से करवा लें और अगर उतर गया तो लैंस बदलवा लें. पर फिर सोचा, नहीं, आंख है तो सबकुछ है. अगर अंधी हो गईं तो कैसे जिएंगी?

पिछली बार जिस डाक्टर से आंख टेस्ट कराई थी उसी से आंख चैक कराना ठीक रहेगा. खाने के बाद वह अपनी कार से उस डाक्टर के महल्ले में गईं. काफी भीड़ थी. यही तो मुसीबत है अच्छे डाक्टरों के यहां जाने में. लंबी लाइन लगती है, घंटों इंतजार करो. फिर आंख में दवा डाल कर एकांत में बैठा देते हैं. फिर बहुत लंबे समय तक धुंधला दिखाई देता है, चलने और गाड़ी चलाने में भी कठिनाई होती है.

वह लंबी बैंच थी जिस के कोने में थोड़ी जगह थी और वह किसी तरह ठुंसठुंसा कर बैठ सकती थीं. खड़ी कहां तक रहेंगी? शरीर का वजन बढ़ रहा है.

बैठीं तो उन का ध्यान गया, बगल में कोई वृद्ध सज्जन बैठे थे. उन की आंखों में शायद दवा डाली जा चुकी थी, इसलिए आंखें बंद थीं और चेहरे को सिर की कैप से ढक लिया.

खोखली रस्में

ओह…यह एक साल, लमहेलमहे की कसक ताजा हो उठती है. आसपड़ोस, घरखानदान कोई तो ऐसा नहीं रहा जिस ने मुझे बुराभला न कहा हो. मैं ने आधुनिकता के आवेश में अपनी बेटी का जीवन खतरे के गर्त में धकेल दिया था. रुपए का मुंह देख कर मैं ने अपनी बेटी की जिंदगी से खिलवाड़ किया था और गौने की परंपरा को तोड़ कर खानदान की मर्यादा तोड़ डाली थी. इस अपराधिनी की सब आलोचना कर रहे थे. परंतु अंधविश्वास की अंधेरी खाइयों को पाट कर आज मेरी बेटी जिंदा लौट रही है. अपराधिनी को सजा के बदले पुरस्कार मिला है- अपने नवासे के रूप में. खोखली रस्मों का अस्तित्व नगण्य बन कर रह गया.

कशमकश के वे क्षण मुझे अच्छी तरह याद हैं जब मैं ने प्रताड़नाओं के बावजूद खोखली रस्मों के दायरे को खंडित किया था. मैं रसोई में थी. ये पंडितजी का संदेश लाए थे. सुनते ही मेरे अंदर का क्रोध चेहरे पर छलक पड़ा था. दाल को बघार लगाते हुए तनिक घूम कर मैं बोली थी, ‘देखो जी, गौने आदि का झमेला मैं नहीं होने दूंगी. जोजो करना हो, शादी के समय ही कर डालिए. लड़की की विदाई शादी के समय ही होगी.’

‘अजीब बेवकूफी है,’ ये तमतमा उठे, ‘जो परंपरा वर्षों से चली आ रही है, तुम उसे क्यों नहीं मानोगी? हमारे यहां शादी में विदाई करना फलता नहीं है.’

‘सब फलेगा. कर के तो देखिए,’ मैं ने पतीली का पानी गैस पर रख दिया था और जल्दीजल्दी चावल निकाल रही थी. जरूर फलेगा, क्योंकि तुम्हारा कहा झूठ हो ही नहीं सकता.’

‘जी हां, इसीलिए,’ व्यंग्य का जवाब व्यंग्यात्मक लहजे में ही मैं ने दिया.

‘क्योंकि अब हमारी ऐसी औकात नहीं है कि गौने के पचअड़े में पड़ कर 80-90 हजार रुपए का खून करें. सीधे से ब्याह कीजिए और जो लेनादेना हो, एक ही बार लेदे कर छुट्टी कीजिए.’ मैं ने अपनी नजरें थाली पर टिका दीं और उंगलियां तेजी से चावल साफ करने लगीं, कुछ ऐसे ही जैसे मैं परंपरा के नाम पर कुरीतियों को साफ कर हटाने पर तुली हुई थी. एक ही विषय को ले कर सालभर तक हम दोनों में द्वंद्व युद्ध छिड़ा रहा. ये परंपरा और मर्यादा के नाम पर झूठी वाहवाही लूटना चाहते थे. विवाह के सालभर बाद गौने की रस्म होती है, और यह रस्म किसी बरात पर होने वाले खर्च से कम में अदा नहीं हो सकती. मैं इस थोथी रस्म को जड़ से काट डालने को दृढ़संकल्प थी. क्षणिक स्थिरता के बाद ये बेचारगी से बोले, ‘विमला की मां, तुम समझती क्यों नहीं हो?’

‘क्या समझूं मैं?’ बात काटते हुए मैं बिफर उठी, ‘कहां से लाओगे इतने पैसे? 1 लाख रुपए लोन ले लिए, कुछ पैसे जोड़जोड़ कर रखे थे, वे भी निकाल लिए, और अब गौने के लिए 80-90 हजार रुपए का लटका अलग से रहेगा.’

‘तो क्या करूं? इज्जत तो रखनी ही पड़ेगी. नहीं होगा तो एक बीघा खेत ही बेच डालूंगा.’

‘क्या कहा? खेत बेच डालोगे?’ लगा किसी ने मेरे सिर पर हथौड़े का प्रहार किया हो. क्षणभर को मैं इज्जत के ऐसे रखरखाव पर सिर धुनती रह गई. तीखे स्वर में बोली, ‘उस के बाद? सुधा और अंजना के ब्याह पर क्या करोगे? तुम्हारा और तुम्हारे लाड़लों के भविष्य का क्या होगा? तुम्हारे पिताजी तो तुम्हारे लिए 4 बीघा खेत छोड़ गए हैं जो तुम रस्मों के ढकोसले में हवन कर लोगे, लेकिन तुम्हारे बेटे किस का खेत बेच कर अपनी मर्यादा की रक्षा करेंगे?’ सत्य का नंगापन शायद इन्हें दूर तक झकझोर गया था. बुत बने ये ताकते रह गए. फिर तिक्त हंसी हंस पड़े, ‘तुम तो ऐसे कह रही हो, विमला की मां, मानो 4 ही बच्चे तुम्हारे अपने हों और विमला तुम्हारी सौत की बेटी हो.’

‘हांहां, क्यों नहीं, मैं सौतेली मां ही सही, लेकिन मैं गौना नहीं होने दूंगी. शादी करो तब पूरे खानदान  को न्योता दो, गौना करो तब फिर पूरे खानदान को बुलाओ. कपड़ा दो,  गहना दो, यह नेग करो वह जोग करो. सिर में जितने बाल नहीं हैं उन से ज्यादा कर्ज लादे रहो, लेकिन शान में कमी न होने पाए.’ इन के होंठों पर विवश मुसकान फैल गई. जब कभी मैं ज्यादा गुस्से में रहती हूं, इसी तरह मुसकरा देते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो. इन के होंठों की फड़कन कुछ कहने को बेताब थी, परंतु कह नहीं सके. उठ खड़े हुए और आंगन पार करते हुए कमरे की ओर चले गए. जब से विमला की शादी तय हुई, शादी संपन्न होने तक यही सिलसिला जारी रहा. ये कंजूसी से ब्याह कर के समाज में अपनी तौहीन करवाने को तैयार नहीं थे, और मैं रस्मों के खोखलेपन की खातिर चादर से पैर निकालने को तैयार नहीं थी. ‘गौने की रस्म अलग से करनी ही होगी. सदियों से यह हमारी परंपरा रही है,’ मैं इस थोथेपन में विश्वास करने को तैयार न थी.

छोटी ननद के ब्याह पर ही मैं ने यह निर्णय कर के गांठ बांधी थी. याद आता है तो दिल कट कर रह जाता है. ब्याह पर जो खर्च हुआ वह तो हुआ ही, सालभर घर बिठा कर उस का गौना किया गया तो 80 हजार रुपए उस में फूंक दिए गए. गौना करवाने आए वर पक्ष के लोगों की तथा खानदान वालों की आवभगत करतेकरते पैरों में छाले पड़ गए, तिस पर भी ‘मुरगी अपनी जान से गई, खाने वालों को मजा न आया’ वाली बात हुई. चारों ओर से बदनामी मिली कि यह नहीं दिया, वह नहीं दिया. ‘अरे, इस से अच्छी साड़ी तो मैं अपनी महरी को देती हूं… कंजूस, मक्खीचूस’ तथा इसी से मिलतीजुलती असंख्य उपाधियां मिली थीं.

मुझे विश्वास था कि मैं वर्तमान स्थिति और परिवेश में गौना करने में आने वाली कठिनाइयां बता कर इन्हें मना लूंगी. जल्दी ही मुझे इस में सफलता भी मिल गई. मेरी सलाह इन के निर्णय में परिवर्तित हो गई, किंतु ‘ये नहीं फलता है’ की आशंका से ये उबर नहीं पाए. विवाह संबंधी खरीदफरोख्त की कार्यवाहियां लगभग पूरी हो चुकी थीं. रिश्तेदारों और बरातियों का इंतजार ही शेष था. रिश्तेदारों में सब से पहले आईं इन की रोबदार और दबंग व्यक्तित्व वाली विधवा मौसी रमा, खानदानभर की सर्वेसर्वा और पूरे गांव की मौसी. दोपहर का समय था. विवाह हेतु खरीदे गए गहने, कपड़े एकएक कर मैं मौसीजी को दिखा रही थी. बातों ही बातों में मैं ने अपना फैसला कह सुनाया. सुनते ही मौसीजी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ीं. क्रोध से भरी वे बोलीं, ‘क्यों नहीं करोगी तुम गौना?’

‘दरअसल, मौसीजी, हमारी इतनी औकात नहीं कि हम अलग से गौने का खर्च बरदाश्त कर सकें,’ मैं ने गहनों का बौक्स बंद कर अलमारी में रख दिया और कपड़े समेटने लगी.

‘अरे वाह, क्यों नहीं है औकात?’ मौसीजी के आग्नेय नेत्र मेरे तन को सेंकने लगे, ‘क्या तुम जानतीं नहीं कि शादी के समय विदाई करना हमारे खानदान में अच्छा नहीं समझा जाता?’

‘लेकिन इस से होता क्या है?’

‘होगा क्या…वर या वधू दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाएगी. सालभर के अंदर ही जोड़ा बिछुड़ जाता है.’ मैं तनिक भी नहीं चौंकी. पालतू कुत्ते की तरह पाले गए अंधविश्वासों के प्रति खानदान वालों के इस मोह से मैं पूर्वपरिचित थी.

अलमारी बंद कर पायताने की ओर बैठती हुई मैं ने जिज्ञासा से फिर पूछा, ‘लेकिन मौसीजी, हमारे खानदान में शादी के समय विदाई करना अच्छा क्यों नहीं समझा जाता, इस का भी तो कोई कारण अवश्य होगा?’

‘हां, कारण भी है, तुम्हारे ससुर के चचेरे चाचा की सौतेली बहन हुआ करती थीं. विवाह के समय ही उन का गौना कर दिया गया था. बेचारी दोबारा मायके का मुंह नहीं देख पाईं. साल की कौन कहे, महीनेभर में ही मृत्यु हो गई.’’

अब क्या कहूं, सास का खयाल न होता तो ठठा कर हंस पड़ती. तर्कशास्त्र की अवैज्ञानिक परिभाषा याद हो आई. किसी घटना की पूर्ववर्ती घटना को उस कार्य का कारण कहते हैं. आज वैज्ञानिक धरातल पर भी यह परिभाषा किसी न किसी रूप में जिंदा है. परंतु मुंहजोरी से कौन छेड़े मधुमक्खियों के छत्ते को. मैं सहज स्वर में बोली, ‘लेकिन मौसीजी, उन से पहले जो विवाह के समय ही ससुराल जाती थीं क्या उन की भी मृत्यु हो जाया करती थी?’

‘अरे, नहीं,’ अपने दाहिने हाथ को हवा में लहराती हुई मौसीजी बोलीं, ‘उन के तो नातीपोते भी अब नानादादा बने हुए हैं.’ प्रसन्नता का उद्वेग मुझ से संभल न सका, ‘फिर तो कोई बात ही नहीं है, सब ठीक हो जाएगा.’

‘कैसे नहीं है कोई बात?’ मौसीजी गुर्राईं, ‘गांवभर में हमारे खानदान का नाम इसीलिए लिया जाता है…दूरदूर के लोग जानते हैं कि हमारे यहां शादी से भी बढ़चढ़ कर गौना होता है. देखने वाले दीदा फाड़े रह जाते हैं. तेरी फूफी सास के गौने में परिवार की हर लड़की को 2-2 तोले की सोने की जंजीर दी गई थी और ससुराल वाली लड़कियों को जरी की साड़ी पहना कर भेजा गया था.’ तब की बात कुछ और थी, मौसीजी. तब हमारी जमींदारी थी. आज तो 2 रोटियों के पीछे खूनपसीना एक हो जाता है. महीनेभर नौकरी से बैठ जाओ तो खाने के लाले पड़ जाएं. फिर गौना का खर्च हम कहां से जुटा पाएंगे?’

इसे अपना अपमान समझ कर मौसीजी तमतमा कर उठ खड़ी हुईं, ‘ठीक है, कर अपनी बेटी का ब्याह, न हो तो किसी ऐरेगैरे का हाथ पकड़ा कर विदा कर दे, सारा खर्च बच जाएगा. आने दे सुधीर को, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. जहां बहूबेटियों का कानून चले वहां ठहरना दूभर है.’ मौसीजी के नेत्रों से अंगार बरस रहे थे. वे बड़बड़ाती हुईं अपने कमरे की ओर बढ़ीं तो मैं एकबारगी सकते में आ गई. मैं लपक कर उन के कमरे में पहुंची. वे अपनी साड़ी तह कर रही थीं. साड़ी उन के हाथ से खींच कर याचनाभरे स्वर में मैं बोली, ‘मौसीजी, आप तो यों ही राई का पर्वत बनाने लगीं. मेरी क्या बिसात कि मैं कानून चलाऊं?’

‘अरे, तेरी क्या बिसात नहीं है? न सास है, न ननद है, खूब मौज कर, मैं कौन होती हूं रोकने वाली?’ उन की आवाज में दुनियाजहान की विवशता सिमट आई. उन की आंखों में आंसू आ गए थे. लगा किसी ने मेरा सारा खून निचोड़ लिया हो. मैं विनम्र स्वर में बोली, ‘मौसीजी, आज तक कभी हम लोगों ने आप की बात नहीं टाली है. मैं हमेशा आप को अपनी सास समझ कर आप से सलाहमशविरा करती आई हूं. फिर भी आप..

परंतु मौसीजी का गुस्सा शांत नहीं हुआ. मैं उन का हाथ पकड़ कर उन्हें आंगन में ले आई और उन्हें आश्वस्त करने का प्रयत्न करने लगी. ये शाम को आए. मौसीजी बैठी हुई थीं. दोपहर का सारा किस्सा मैं ने सुना डाला. मौसीजी का क्रोध सर्वविदित था. ये हारे हुए जुआरी के स्वर में बोले, ‘तब?’

‘तब क्या?’ मैं बोली, ‘50 हजार रुपए मौसीजी से बतौर कर्ज ले लीजिए. 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लेना. मिलाजुला कर किसी तरह कर दो गौना. मैं और क्या कहूं अब?’

‘बेटी मेरी है, उन्हें क्या पड़ी है?’

‘क्यों नहीं पड़ी है?’ मेरा रोष उमड़ आया, ‘जब बेटी के ब्याह की हर रस्म उन लोगों की इच्छानुसार होगी तो खर्च में भी सहयोग करना उन का फर्ज बनता है.’ संभवतया मेरे व्यंग्य को इन्होंने ताड़ लिया था. बिना उत्तर दिए तौलिया उठा कर बाथरूम में घुस गए. रात में भोजन करने के बाद ये और मौसीजी बैठक में चले गए. बच्चे अपने कमरे में जा चुके थे. पप्पू को सुलाने के बहाने मैं भी अपने कमरे में आ कर पड़ी रही. दिमाग की नसों में भीषण तनाव था. सहसा मैं चौंक पड़ी. मौसीजी का स्वर वातावरण में गूंजा, ‘अरे सुधीर, तेरी बहू कह रही थी कि गौना नहीं होगा. अब बता भला, जब विवाह में विदाई करना हमारे यहां फलता ही नहीं है तब भला गौना कैसे नहीं होगा?’

‘अब तुम से क्या छिपाना, मौसी?’ यह स्वर इन का था, ‘मैं सरकारी नौकर जरूर हूं, लेकिन खर्च इतना ज्यादा है कि पहले ही शादी में 1 लाख रुपए का कर्ज लेना पड़ गया. 2 और बेटियां ब्याहनी हैं सो अलग. 20-30 हजार रुपए से गौने में काम चलना नहीं है, और इतने पैसों का बंदोबस्त मैं कर नहीं पा रहा हूं.’ मौसीजी के मीठे स्वर में कड़वाहट घुल गई, ‘अरे, तो क्या बेटी को दफनाने पर ही तुले हो तुम दोनों? इस से तो अच्छा है उस का गला ही घोंट डालो. शादी का भी खर्च बच जाएगा.’

‘अरे नहीं, मौसीजी, तुम समझीं नहीं. गौना तो मैं करूंगा ही. देखो न, विवाह से पहले ही मैं ने गौने का मुहूर्त निकलवा लिया है. अगले साल बैसाख में दिन पड़ता है.’

‘सच?’ मौसीजी चहक पड़ीं.

‘और नहीं तो क्या? 50 हजार रुपए तुम दे दो, 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लूंगा. कुछ यारदोस्तों से मिल जाएगा, ठाठ से गौना हो जाएगा.’

‘क्या, 50 हजार रुपए मैं दे दूं?’ मौसीजी इस तरह उछलीं मानो चलतेचलते पैरों के नीचे सांप आ गया हो.

‘अरे, मौसी, खैरात थोड़े ही मांग रहा हूं. पाईपाई चुका दूंगा.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन इतने रुपए मैं लाऊंगी कहां से? मेरे पास रुपए धरे हैं क्या?’ मेरी आंखें उल्लास से चमकने लगीं. भला मौसी को क्या पता था कि परंपरा की दुहाई उन की भी परेशानी का कारण बनेगी? मैं दम साधे सुन रही थी. इन का स्वर था, ‘अरे, मौसी, दाई से कहीं पेट छिपा है? तुम हाथ झाड़ दो तो जमीन पर नोटों की बौछार हो जाए. हर कमरे में चांदी के रुपए गाड़ रखे हैं तुम ने, मुझे सब मालूम है.’ ‘अरे बेटा, मौत के कगार पर खड़ी हो कर मैं झूठ बोलूंगी? लोग पराई लड़कियों का विवाह करवाते हैं, और मैं अपनी ही पोती के ब्याह पर कंजूसी करूंगी? लौटाने की क्या बात है, जैसे मेरा श्याम है वैसे तू भी मेरा बेटा है.’ मेरी हंसी फूट पड़ी. लच्छेदार शब्दों के आवरण में मन की बात छिपाना कोई मौसीजी से सीखे. भला उन की कंजूसी से कौन नावाकिफ था.

क्षणिक निस्तब्धता के बाद इन की थकी सी आवाज फिर उभरी, ‘तब तो मौसी, अब इस परंपरा का गला घोंटना ही होगा. न मैं इतने रुपए का जुगाड़ कर पाऊंगा और न ही गौने का झंझट रखूंगा. बोलो, तुम्हारी क्या राय है?’ ‘जो तुम अच्छा समझो,’ जाने किस आघात से मौसीजी की आवाज को लकवा मार गया और वह गोष्ठी समाप्त हो गई. दूसरे दिन चाचाजी का भी सदलबल पदार्पण हुआ. परंपरा और रस्मों के खंडन की बात उन तक पहुंची तो वे भी आगबबूला हो उठे, ‘सुधीर, यह क्या सुन रहा हूं? मैं भी शहर में रहता हूं. मेरी सोसाइटी तुम से भी ऊंची है. लेकिन हम ने कभी अपने पूर्वजों की भावना को ठेस नहीं पहुंचाई. तुम लोग लड़की की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हो.’

‘चाचाजी, आप गलत समझ रहे हैं,’ ये बोले थे, ‘गौने के लिए तो मैं खूब परेशान हूं. लेकिन करूं क्या? आप लोगों की मदद से ही कुछ हो सकता है.’

चाचाजी के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लटक गया. उन की परेशानी पर मन ही मन आनंदित होते हुए ये बोले, ‘मैं चाहता था, यदि आप 80 हजार रुपए भी बतौर कर्ज दे देते तो शेष इंतजाम मैं खुद कर लेता और किसी तरह गौना कर ही देता. आप ही के भरोसे मैं बैठा था. मैं जानता हूं कि आप पूर्वजों की मर्यादा को खंडित नहीं होने देंगे.’ चाचाजी का तेजस्वी चेहरा सफेद पड़ गया. उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. थूक निगलते हुए बोले, ‘तुम तो जानते ही हो कि मैं रिटायर हो चुका हूं. फंड का जो रुपया मिला था उस से मकान बनवा लिया. मेरे पास अब कहां से रुपए आएंगे?’ सुनते ही ये अपना संतुलन खो बैठे. क्रोधावेश में इन की मुट्ठियां भिंच गईं. परंतु तत्काल अपने को संभालते हुए सहज स्वर में बोले, ‘चाचाजी, जब आप लोग एक कौड़ी की सहायता नहीं कर सकते, फिर सामाजिक मर्यादा और परंपरा के निर्वाह के लिए हमें परेशान क्यों करते हैं? यह कहां का न्याय है कि इन खोखली रस्मों के पीछे घर जला कर तमाशा दिखाया जाए? मुझ में गौना करने की सामर्थ्य ही नहीं है.’ इतना कह कर ये चुप हो गए. चाचाजी निरुत्तर खड़े रहे. उन के होंठों पर मानो ताला पड़ गया था. थोड़ी देर पहले तक जो विमला के परम शुभचिंतक बने हुए थे, अब अपनीअपनी बगले झांक रहे थे. अब कोई व्यक्ति मेरी बेटी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाला नहीं था. आज विमला भरीगोद लिए सहीसलामत अपने मायके लौट रही है. अंधविश्वास और खोखली रस्मों की निरर्थकता पाखंडप्रेमियों को मुंह चिढ़ा रही है. शायद वे भी कुछ ऐसा ही निर्णय लेने वाले हैं.

लेखिका- मंजुला

धन्यवाद: समीर के प्यार में जब वंदना ने पार की हदें

‘‘क्या बात है शालू सुस्त क्यों नजर आ रही हो?’’ औफिस से लौटते राजेश को मेरी उदासी पहचानने में 1 मिनट का समय भी नहीं लगा.

‘‘आज एक बुरी खबर सुनने को मिली है,’’ मेरी आंखों में आंसू भर आए.

‘‘कैसी बुरी खबर?’’ वे फौरन चिंता से भर उठे.

‘‘आप को मेरी सहेली वंदना याद है?’’

‘‘हां, याद है.’’

‘‘वह बहुत बीमार है. शायद ज्यादा दिन न जीए,’’ मैं ने उन्हें रुंधे गले से जानकारी दी.

‘‘वैरी सैड,’’ सिर्फ ये 2 शब्द बोल कर उन्होंने जब सतही सा अफसोस जताया और

जूतों के फीते खोलने में लग गए, तो मुझे गुस्सा आ गया.

‘‘आप इस बारे में और कुछ नहीं जानना चाहेंगे?’’ भावावेश के कारण मेरी आवाज कांप रही थी.

‘‘तुम बोलो मैं सुन रहा हूं.’’

‘‘लेकिन सुन कितने अजीब से ढंग से रहे हो. अरे, मैं उस वंदना की बात कर रही हूं जिस से आप शादी के बाद घंटों बतियाते थे, जो बिलकुल घर की सदस्य बन कर यहां सुबह से रात तक रहा करती थी. आज करीब 15 साल बाद मैं आप की उस लाडली साली की दुखभरी खबर सुना रही हूं और आप सिर्फ वेरी सैड कह रहे हो,’’ मैं गुस्से से फट पड़ी.

‘‘मैं और क्या कहूं शालू. जीनामरना तो इस दुनिया में चलता ही रहता है,’’ उन्होंने भावहीन से लहजे में जवाब दिया.

‘‘आप ऐसी दार्शनिकता किसी और मौके पर बघारना. मेरा मन वंदना से मिलने का कर रहा है. उस की इतने सालों से कोई खबर नहीं थी और आज मिली है तो कैसी बुरी खबर मिली है,’’ मेरा गला फिर से भर आया.

‘‘क्या करोगी उस से मिल कर?’’

‘‘यह आप कैसा अजीब सा सवाल पूछ रहे हो. अरे, वह मेरी सब से प्यारी सहेली है.’’

‘‘उस प्यारी सहेली ने पिछले 15 सालों में तुम्हें न कभी फोन किया, न चिट्ठी लिखी और न ही कभी मिलने आई.’’

‘‘इस कारण मेरे दिल में उस के लिए बसे प्यार और दोस्ती के भाव रत्तीभर कम नहीं हुए हैं.’’

‘‘मैं तो सिर्फ ये कहना चाह रहा हूं कि जो इंसान अब ज्यादा जीएगा ही नहीं, उस से मिल कर मन को दुखी करने का क्या फायदा है.’’

‘‘यह फायदेनुकसान की बात ही नहीं है. मेरा दिल उस से मिलना चाह रहा है और मैं जाऊंगी.’’

‘‘बच्चों के ऐग्जाम आने वाले…’’

‘‘ऐग्जाम अगले महीने हैं और आगामी सोम और मंगल को उन के स्कूल में छुट्टी है. हम शनिवार को निकलेंगे और मंगल तक लौट आएंगे.’’

‘‘लेकिन उन की देखभाल…’’

‘‘वे अपनी चाची के पास रहेंगे. मैं ने नीतू से मोबाइल पर बात कर ली है.’’

‘‘देखो, यों जिद…’’

‘‘प्लीज, राजेश मुझे वंदना से मिलना ही है.’’

मेरे आंसुओं के सामने उन्होंने हथियार डालते हुए कह दिया, ‘‘ओके. हम शनिवार की रात को निकलेंगे. मैं ट्रेन के टिकट बुक करा देता हूं,’’ कह वे मुझे ड्राइंगरूम में अकेला छोड़ कर कपड़े बदलने बैडरूम में चले गए.

मेरे दोनों बेटों का ट्यूशन से लौटने में अभी वक्त था. मैं थकीहारी सी आंखें मूंद कर वहीं बैठीबैठी वंदना की यादों में खो गई…

वरना मेरी बचपन की सहेली थी. हमारे घर आसपास ही थे इसलिए हम साथसाथ खेल और पढ़ कर बड़े हुए थे.

राजेश को मेरे लिए मेरे मम्मीपापा ने ढूंढ़ा था. मेरी सास बीमारी रहती थी और घर का सारा काम करने की जिम्मेदारी मुझे ही बड़ी जल्दी संभालनी पड़ी थी.

मैं ने बीएड में प्रवेश पाने के लिए परीक्षा शादी के पहले दे रखी थी. शादी के बाद मुझे परीक्षा में सफल हो जाने का समाचार मिला, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

वंदना ने मेरा साथ न दिया होता, तो मैं कभी बीएड न कर पाती. मुझे पूरे सालभर तक रोज कालेज जाने के अलावा घर लौट कर भी बहुत पढ़ना-लिखना पड़ता था.

वंदना रोज मेरे घर आ जाती. मेरा घर के कार्यों में ही नहीं बल्कि कालेज से मिले असाइनमैंट पूरे करने में भी हाथ बंटाती. मेरी सास उस की बहुत तारीफ करती. राजेश से वह जल्द ही खूब खुल गई थी और जीजासाली की नोक झोंक के चलते हमारे घर का माहौल बड़ा खुशनुमा रहता.

मेरा बीएड का रिजल्ट बड़ा अच्छा रहा. इस खुशी के मौके पर मैं ने वंदना को बड़ा सुंदर और कीमती सूट उपहार में दिया.

मैं ने बीएड के बाद एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. वंदना पहले की तरह रोज तो नहीं, पर सप्ताह में 2-3 बार तब भी हम से मिलने आ जाया करती थी. राजेश के साथ फोन पर किसी भी विजय पर लंबीलंबी चर्चा करती. वह तो शुक्र था कि इन दोनों के बीच फोन पर बातें मुफ्त में होती थीं क्योंकि राजेश ने एक खास स्कीम फोन कंपनी से ले रखी थी. वे ऐसा न करते, तो इन दोनों की गपशप का बिल हर महीने हजारों रुपए आता. उन दिनों मोबाइलों का रेट कुछ ज्यादा था. वह राजेश को लैंडलाइन पर नहीं, मोबाइल पर फोन करती थी.

मेरी शादी के करीब 2 साल बाद वंदना का रिश्ता उस की मम्मी ने तय किया. उस के पापा की हार्टअटैक से मौत हुए तब 6-7 साल का समय बीत चुका था.

लड़का अच्छा था, उस का घरबार भी ठीक था, पर उन दोनों की शादी तय करी गई तारीख से केवल 5 दिन पहले टूट गई.

वंदना और उस लड़के के बीच न जाने क्या घटा जो वह शादी नहीं हो सकी. दोनों तरफ के लोगों ने बहुत पूछा, पर शादी टूटने का सही कारण न वंदना ने किसी को बताया, न उस लड़के ने. वह इस विषय पर मेरे सामने भी चुप्पी साध लेती थी. लोगों को तरहतरह की अफवाहें उड़ाने का मौका मिल गया. तब वंदना ने अपनी ननिहाल के शहर मेरठ शिफ्ट करने का फैसला किया. अपनी शादी टूटने के करीब 3 महीने बाद वह अपनी मां के साथ मेरठ चली गई. फिर कानपुर शिफ्ट हो गई. तब से उस के और हमारे बीच संपर्क खत्म होता गया. शुरूशुरू में 2-4 बार टैलीफोन पर बातें हुईं, पर मुझे ऐेसे अवसरों पर साफ महसूस होता कि वह अनमनी हो कर ही मुझ से बातें करती.

‘‘वंदना बदल गई है. उस के दिल पर शादी टूट जाने से गहरा जख्म लगा है. बहुत कटीकटी सी बोलती है फोन पर,’’ मैं उन दिनों राजेश से अकसर ऐसी शिकायत दुखी मन से किया करती, पर ये मुझ पर ज्यादा ध्यान नहीं देते.

लगभग 15 साल बीत गए थे वंदना को दिल्ली छोड़े हुए. वह अब कानपुर में गंभीर रूप से बीमार पड़ कर जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रही थी. इतने लंबे समय में उस के जीवन में क्याक्या घटा है, इस की कोई जानकारी मेरे पास नहीं थी.

शनिवार को हम दोनों गाड़ी से चल दिए. सारे रास्ते में मैं ने वंदना को याद करते हुए कई बार आंसू बहाए. अपनी सीट पर बैठे हुए जिस अंदाज में राजेश बारबार करवट बदल रहे थे, उस से यह साफ जाहिर हो रहा था कि वे भी कुछ बेचैन हैं. स्टेशन से पहले ही उन्होंने किसी को मोबाइल से कहा, ‘‘5 मिनट में बाहर आते हैं.’’

कानपुर स्टेशन से बाहर आने के बाद जिस बात ने मुझे बड़ा हैरान किया, वह थी एक औटोरिकशेवाले का राजेश को सलाम करना और बिना हम से पूछे हमारा बैग उठा कर अपने रिकशा की तरफ बढ़ जाना.

‘‘यह औटो वाला आप को कैसे जानता है,’’ मैं ने अचंभित स्वर में पूछा, तो राजेश गंभीर अंदाज में मेरा चेहरा ध्यान से देखने लगे.

‘‘मेरे सवाल का जवाब दीजिए न?’’ उन्हें हिचकिचाते देख मैं ने उन पर दबाव डाला.

‘‘शालू, तुम वंदना से मिलना चाहती हो न,’’ उन्होंने संजीदा लहजे में मुझ से ये पूछा.

‘‘हम यहां इसीलिए तो आए हैं,’’ उन का सवाल सुन कर मेरे मन में अजीब सी उलझन के भाव उभरे.

‘‘हां, और अब तुम मेरी एक प्रार्थना पर ध्यान दो प्लीज. आगेआगे जो घटेगा, उसे लेकर तुम्हारे मन में कई तरह की भावनाएं और सवाल उभरेंगे. तुम कृपा कर के उन्हें अपने मन में ही रखना.’’

‘‘आप ऐसी अजीब सी बंदिश क्यों लगा रहे हैं मुझ पर?’’

‘‘क्योंकि कुछ सवालों के जवाब दिए नहीं जा सकते. शब्दों से मनोभावनाओं को व्यक्त करना हमेशा संभव नहीं होता है. उन्हें व्यक्त करने का प्रयास पीड़ादायक होता है और सुनने वाला कहीं अर्थ का अनर्थ लगा ले, तो स्थिति और बिगड़ जाती है, शालू.’’

‘‘मेरी समझ में तो आप की कोई बात नहीं आ रही है,’’ मैं परेशान हो उठी.

‘‘ध्यान रखना कि तुम्हें कोई सवाल नहीं पूछना है मुझ से,’’ उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और औटो की तरफ चल पड़े.

औटो वाले ने 20 मिनट बाद हमें खन्ना नर्सिंगहोम की ऊंची सी इमारत तक अपनेआप पहुंचा दिया. फिर गेट पर खड़े वाचमैन ने राजेश को परिचित अंदाज में सलाम किया. रिसैप्शनिस्ट भी उन्हें पहचानती थी. उस नर्सिंगहोम के मालिक डाक्टर सुभाष ने मुझे अपना परिचय राजेश के बचपन के दोस्त के रूप में दिया. वहां की सिस्टर और आयाओं की मुसकान साफ दर्शा रही थी कि वे सब राजेश को अच्छी तरह जानतेपहचानते हैं.

मेरी जानकारी में राजेश कभी कानपुर नहीं आए थे, लेकिन इन सब बातों से मेरे लिए यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं था कि यहां मुझ से छिपा कर वे आते रहे हैं. उन्हें अपनी कंपनी के काम से अकसर टूर पर जाना पड़ता है. मेरी जानकारी में आए बिना उन का यहां आना कोई मुश्किल काम न था.

‘‘मुझ से क्यों छिपाते रहे हो आप यहां अपना आना?’’ मैं राजेश से यह सवाल पूछना चाहती थी, पर उन्होंने तो पहले ही कोई सवाल पूछने पर बंदिश लगा दी थी.

मुझे डाक्टर सुभाष के पास छोड़ कर राजेश बिना कुछ कहे कक्ष से बाहर चले गए. डाक्टर साहब ने मेरे लिए चाय मंगवाई और फिर मुझ से बातें करने लगे.

‘‘राजेश को मैं सालों से जानता हूं, पर वे ऐसा हीरा इंसान हैं, इस का अंदाजा मुझे पिछले

1 साल में ही हुआ, भाभीजी,’’ उन की आंखों

में अपने दोस्त के लिए गहरे सम्मान के भाव मौजूद थे. मेरी समझ में नहीं आया कि वे क्यों राजेश को ‘हीरा’ कह रहे हैं, सो मैं खामोश रही. वैसे मैं सारे मामले को समझने के लिए बड़ी उत्सुकता से उन के आगे बोलने का इंतजार कर रही थी.

‘‘आजकल कौन किसी के काम आता है, भाभीजी. सचमुच अपना राजेश अनूठा इंसान है. जरूर आप ने ही उसे इतना ज्यादा बदल दिया है,’’ मेरी प्रशंसा कर वे हंस पड़े तो मुझे भी मुसकराना पड़ा.

‘‘राजेश वंदना के इलाज का सारा खर्चा उठा कर बड़ी इंसानियत का काम रह रहा है. मैं भी जितनी रियायत कर सकता हूं, कर रहा हूं, पर फिर भी दवाइयां महंगी होती हैं. आप की सहेली के इलाज पर डेढ़दो लाख का खर्चा तो जरूर हो चुका होगा आप लोगों का. यहां का हर कर्मचारी और डाक्टर राजेश को बड़ी इज्जत की नजरों से देखता है, भाभीजी.’’

यह दर्शाए बिना कि मैं इस सारी जानकारी से अनजान हूं, मैं ने वार्त्तालाप को आगे बढ़ाने के लिए पूछा, ‘‘अब वंदना की तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक नहीं है, भाभीजी. जो कुछ हो सकता है, हम कर रहे हैं, पर ज्यादा लंबी गाड़ी नहीं खिंचेगी उस की.’’

‘‘ऐसा मत कहिए, प्लीज,’’ मेरी आंखों से आंसू बह चले.

‘‘मैं आप को झूठी तसल्ली नहीं दूंगा. भाभीजी. अस्थमा ने उस के फेफड़ों को इतना कमजोर कर दिया है कि अब उस का हृदय भी फेल होने लगा है. उस ने बहुत कष्ट भोग लिया है. अब उसे छुटकारा मिल ही जाना चाहिए.’’

‘‘मुझे उस से मिलवा दीजिए, प्लीज.’’

डाक्टर सुभाष के आदेश पर एक वार्डबौय मुझे वंदना के कमरे तक छोड़ गया. मैं अंदर प्रवेश करती उस से पहले ही राजेश बाहर आए.

‘‘जाओ, मिल लो अपनी सहेली से,’’ उन्होंने थके से स्वर में मुझे से कहा और फिर मेरा माथा बड़े भावुक से अंदाज में चूम कर वहां से चले गए.

मैं ने वंदना को बड़ी मुश्किल से पहचाना. उस का चेहरा और बदन सूजा सा नजर आ रहा था. उस की सांसें तेज चल रही थीं और उसे तकलीफ पहुंचा रही थीं.

‘‘शालू, तू ने बड़ा अच्छा किया जो मुझसे मिलने आ गई. बड़ी याद आती थी तू कभीकभी. तुझ से बिना मिले मर जाती, तो मेरा मन बहुत तड़पता,’’ मेरा स्वागत यों तो उस ने मुसकरा कर किया, पर उस की आंखों से आंसू भी बहने लगे थे. मैं उस के पलंग पर ही बैठ गई. बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला, तो उस की छाती पर सिर रख कर एकाएक बिलखने लगी. ‘‘इतनी दूर से यहां क्या सिर्फ रोने आई है, पगली. अरे, कुछ अपनी सुना, कुछ मेरी सुन. ज्यादा वक्त नहीं है हमारे पास गपशप करने का,’’ मुझे शांत करने का यों प्रयास करतेकरते वह खुद भी आंसू बहाए जा रही थी.

‘‘तू कभी मिलने क्यों नहीं आई? अपना ठिकाना क्यों छिपा कर रखा? मैं तेरा दिल्ली में इलाज कराती, तो तू बड़ी जल्दी ठीक हो जाती, वंदना,’’ मैं ने रोतेरोते उसे अपनी शिकायतें सुना डालीं.

‘‘यह अस्थमा की बीमारी कभी जड़ नहीं छोड़ती है, शालू. तू मेरी छोड़ और अपनी सुना. मैं ने सुना है कि अब तू शांत किस्म की टीचर हो गई है. बच्चों की पिटाई और उन्हें जोर से डाटना बंद कर दिया है तूने,’’ उस ने वार्त्तालाप का विषय बदलने का प्रयास किया.

‘‘किस से सुना है ये सब तुम ने वंदना?’’ मैं ने अपने आंसू पोंछे और उस का हाथ अपने हाथों में ले कर प्यार से सहलाने लगी.

‘‘जीजाजी तुम्हारी और सोनूमोनू की ढेर सारी बातें मुझे हमेशा सुनाते रहते हैं,’’ जवाब देते हुए उस की आंखों में मैं ने बेचैनी के भाव बढ़ते हुए साफसाफ देखे.

‘‘वे यहां कई बार आ चुके हैं?’’

‘‘हां, कई बार. मेरा सारा इलाज वे ही…’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि उन्होंने मुझे अपने यहां आने की, तुम्हारी बीमारी और इलाज कराने की बातें कभी नहीं बताई हैं?’’

‘‘हां, मुझे पता है.’’

‘‘क्यों किया उन्होंने ऐसा? मैं क्या तुम्हारा इलाज कराने से उन्हें रोक देती? मुझे अंधेरे में क्यों रखा उन्होंने?’’ ये सवाल पूछते हुए मैं बड़ी पीड़ा महसूस कर रही थी.

‘‘तुम्हें कुछ न बताने का फैसला जीजाजी ने मेरी इच्छा के खिलाफ जा कर लिया था, शालू.’’

‘‘पर क्यों किया उन्होंने ऐसा फैसला?’’

‘‘उन का मत था कि तुम शायद उन के ऐक्शन को समझ नहीं पाओगी.’’

‘‘उन का विचार था कि तुम्हारे इलाज कराने के उन के कदम को क्या मैं नहीं समझ पाऊंगी?’’

‘‘हां, और मुझ से बारबार मिलने आने की बात को भी,’’ वंदना का स्वर बेहद धीमा और थका सा हो गया.

कुछ पलों तक सोचविचार करने के बाद मैं ने झटके से पूछा, ‘‘अच्छा, यह तो बताओ कि तुम जीजासाली कब से एकदूसरे से मिल रहे हो?’’

एक गहरी सांस छोड़ कर वंदना ने बताया, ‘‘करीब सालभर पहले वे टूर पर बनारस आए हुए थे. वहां से वे अपने एक सहयोगी के बेटे की शादी में बरात के साथ यहां कानपुर आए थे. यहीं अचानक इसी नर्सिंगहोम के बाहर हमारी मुलाकात हुई थी. वे अपने पुराने दोस्त डाक्टर सुभाष से मिलने आए थे.’’

‘‘और तब से लगातार यहां तुम से मिलने आते रहे हैं?’’

‘‘हां, वे सालभर में 8-10 चक्कर यहां के लगा ही चुके होंगे. उन का भेजा कोई न कोई आदमी तो मुझ से मिलने हर महीने जरूर आता है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यहां का बिल चुकाने, मुझे जरूरत के रुपए देने. मैं कोई जौब करने में असमर्थ हूं न. मुझ बीमार का बोझ जीजाजी ही उठा रहे हैं शालू.’’

अचानक मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और एक ही झटके में सारा माजरा मुझे समझ आ गया.

‘‘तुम्हारा और तुम्हारे जीजाजी का अफेयर चल रहा है न… मुझ से छिपा कर तुम से मिलने का. तुम्हारी बड़ी आर्थिक सहायता करने का और कोई कारण हो ही नहीं सकता है, वंदना,’’ मारे उत्तेजना के मेरा दिल जोर से धड़कने लगा. उस ने कोई जवाब नहीं दिया और आंसूभरी आंखों से बस मेरा चेहरा निहारती रही.

‘‘मेरा अंदाजा ठीक है न?’’ मेरी शिकायत से भरी आवाज ऊंची हो उठी. पलभर में मेरी आंखों पर वर्षों से पड़ा परदा उठ गया है. मेरी सब से अच्छी सहेली का मेरे पति के साथ अफेयर तो तब से ही शुरू हो गया होगा जब मैं बीएड करने में व्यस्त थी और तुम मेरे हक पर चुपचाप डाका डाल रही थी. तुम ने शादी क्यों तोड़ी, अब तो यह भी मैं आसानी से समझ सकती हूं. तब कितनी आसानी से तुम दोनों ने मेरी आंखों में धूल झोंकी.’’

‘‘न रो और न गुस्सा कर शालू. तेरे अंदाज ठीक है, पर तेरे हक पर मैं ने कभी डाका नहीं डाला. कभी वैसी भयंकर भूल मैं न कर बैठूं, इसीलिए मैं ने दिल्ली छोड़ दी थी. हमेशा के लिए तुम दोनों की जिंदगियों में से निकलने का फैसला कर लिया था. मुझे गलत मत समझ, प्लीज.

‘‘जीजाजी बड़े अच्छे इंसान हैं. हमारे बीच जीजासाली का हंसीमजाक से भरा रिश्ता पहले अच्छी दोस्ती में बदला और फिर प्रेम में.

‘‘हम दोनों के बीच दुनिया के हर विषय पर खूब बातें होतीं. हम दोनों एकदूसरे के सुखदुख के साथी बन गए थे. हमारे आपसी संबंधों की मिठास और गहराई ऐसी ही थी जैसी जीवनसाथियों के बीच होनी चाहिए.

‘‘फिर मेरा रिश्ता तय हुआ पर मैं ने अपने होने वाले पति की जीजाजी से तुलना करने की भूल कर दी. जीजाजी की तुलना में उस के व्यक्तित्व का आकर्षण कुछ भी न था.

‘‘मैं जीजाजी को दिल में बसा कर कैसे उस की जीवनसंगिनी बनने का ढोंग करती. अत: मैं ने शादी तोड़ना ही बेहतर समझ और तोड़ भी दी.

‘‘जीजाजी मुझे मिल नहीं सकते थे क्योंकि वे तो मेरी बड़ी

बहन के जीवनसाथी थे. तब मैं ने भावुक हो कर उन से खूबसूरत यादों के सहारे अकेले और तुम दोनों से दूर जीने का फैसला किया और दिल्ली छोड़ दी.’’

‘‘मैं तो कभी तुम दोनों से न मिलती पर कुदरत ने सालभर पहले मुझे जीजाजी से अचानक मिला दिया. तब तक अस्थमा ने मेरे स्वास्थ्य का नाश कर दिया था. मां के गुजर जाने के बाद मैं बिलकुल अकेली ही आर्थिक तंगी और जानलेवा बीमारी का सामना कर रही थी.

‘‘जीजाजी के साथ मैं ने उन के प्रेम में पड़ कर वर्षों पहले अपनी जिंदगी के सब से सुंदर 2 साल गुजारे थे. उन्हें भी वह खूबसूरत समय याद था. मुझे धन्यवाद देने के लिए उन्होंने सालभर से मेरी सारी जिम्मेदारी उठाने का बोझ अपने ऊपर ले रखा है. मैं बदले में उन्हें हंसीखुशी के बजाय सिर्फ चिंता और परेशानियां ही दे सकती हूं.

‘‘यह सच है कि 15 साल पहले तेरे हिस्से से चुराए समय को जीजाजी के साथ बिता कर मैं ने सारी दुनिया की खुशियां और सुख पाए थे. अब भी तेरे हिस्से का समय ही तो वे मुझे दे कर मेरी देखभाल कर रहे हैं. तेरे इस एहसान को मैं इस जिंदगी में तो कभी नहीं चुका पाऊंगी, शालू. अगर मेरे प्रति तेरे मन में गुस्सा या नफरत हो, तो मुझे माफ कर दे. तुझे पीड़ा दे कर मैं मरना नहीं चाहती हूं,’’ देर तक बोलने के साथसाथ रो भी पड़ने के कारण उस की सांसें बुरी तरह से उखड़ गई थीं.

मैं ने उसे छाती से लगाया और रो पड़ी. मेरे इन आंसुओं के साथ ही मेरे मन में राजेश और उसे ले कर पैदा हुए शिकायत, नाराजगी और गुस्से के भाव जड़ें जमाने से पहले ही बह गए.

मखमली पैबंद: एक अधूरी प्रेम कहानी

मेरी उंगलियां गिटार के तारों पर लगातार थिरक रही थीं और कंठ किसी मशहूर इंगलिश सिंगर के गानों की लय में डूबता चला जाता था. मेरे सामने एक छोटी सी बच्ची जिस की उम्र लगभग 5 वर्ष रही होगी उस इंगलिश गाने की धुन पर थिरक रही थी. उस के गोलमटोल चेहरे पर घुंघराले बालों का एक गुच्छा बारबार लटक आता था जिसे वह बड़ी ही बेपरवाही से पीछे की ओर झटक देती और बीचबीच में कभी अपनी मम्मी तो कभी पापा की उंगलियों को थाम अपने साथ डांस करने के लिए सामने की मेज से खींच लाती.

बच्ची के मातापिता की आंखों में अपनी बच्ची के इंगलिश गानों के प्रति प्रेम व लगाव से उत्पन्न गर्व उन की आंखों से साफ झलक रहा था. इन इंगलिश गानों का अर्थ वह बच्ची कितना समझ पा रही थी, यह तो नहीं पता, परंतु हां फाइवस्टार होटल के उस डाइनिंगहौल में उपस्थित सभी मेहमानों के लिए वह बच्ची आकर्षण का केंद्र अवश्य बनी हुई थी.

मैं इस समय नील आइलैंड के एक फाइवस्टार होटल के डाइनिंगहौल में गिटार थामे होटल के मेहमानों के लिए उन की फरमाइशी गीतों को गा रहा था. यह डाइनिंगहौल होटल के बीच में केंद्रित था और इस से करीब 20 गज की दूरी पर कौटेज हाउस बने हुए थे, जिन की संख्या लगभग 25 से 30 होगी. लोगों के लिए गाना गा कर उन का दिल बहलाना मेरा शौक नहीं, बल्कि मेरा पेशा  था. हां, संगीत का यह शौक कालेज के दिनों में मेरे लिए महज टाइम पास हुआ करता था.

संगीत के इसी शौक ने तो नायरा को मेरे करीब ला दिया था. वह मुझ से अकसर गानों की फरमाइश करती रहती थी और मैं तब दिल खोल कर बस उस के लिए ही गाता था. कालेज की कैंटीन में जब उस दिन भी मैं कालेज में होने वाले वार्षिक समारोह के लिए अपने दोस्तों के साथ किसी गाने की प्रैक्टिस कर रहा था. तभी तालियों की आवाज ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा. नायरा से कालेज की कैंटीन में मेरी वह पहली मुलाकात थी. कालेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद जहां मुझे  किसी कंपनी में फाइनैंस ऐग्जिक्यूटिव की जौब मिली, वहीं नायरा किसी मल्टीनैशनल कंपनी में एचआर मैनेजर के पद पर तैनात हुई. हम दोनों एक ही शहर मुंबई में ही 2 अलगअलग कंपनियों में कार्यरत थे. हम ने किराए का फ्लैट ले लिया था जिस में हम साथ रहते थे. हम लिव इन में 4 सालों से थे.

एक दिन अचानक मेरा तबादला कोलकाता हो गया. कोलकाता आने पर भी हमारा साथ पूर्ववत बना रहा. वीकैंड में कभी वह कोलकाता आ जाती तो कभी मैं मुंबई पहुंच जाता और साथ में अच्छा समय व्यतीत करने के बाद वापस अपनेअपने कार्यस्थल लौट जाते. लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि मेरी जौब चली गई और धीरेधीरे नायरा का साथ भी. जौब जाने के बाद से ही वह मुझ से कटीकटी सी रहने लगी थी. हमारे बीच की दूरियां लगातार बढ़ती जा रही थीं. हालांकि मेरी पूरी कोशिश रही कि हमारे बीच की दूरियां मिट जाएं.

खैर, आज मैं इस छोटे से आइलैंड के बड़े से होटल में गिटार बजा रहा हूं और मेरा शौक ही अब मेरा पेशा बन गया है.

‘‘ऐक्स्क्यूज मी’’ मैं ने पानी पी कर गिलास साइड की टेबल पर रखा ही था कि तभी एक महिला की आवाज सुनाई दी जिस ने मुसकराते हुए ‘कैन यू सिंग दिस सौंग’ बोल कर कागज का एक टुकड़ा जिस पर किसी हिंदी गाने की कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं. मेरी और बढ़ाते हुए कहा. उस की उम्र करीब 28 वर्ष की रही होगी.

उस ने अपने सवाल फिर से दोहराया, ‘‘क्या आप यह हिंदी गाना गा सकते हैं? यह उन की फरमाइश है,’’ यह कहते हुए उस महिला ने अपनी उंगली से एक ओर इशारा किया.

मेरी आंखों ने उस की उंगली का अनुकरण किया. मेरी नजर मेरे से कुछ दूरी पर मेरी दाईं तरफ की मेज पर बैठी उस महिला से जा टकराई. उस की आंखों में गजब का आकर्षण था. वह बड़े प्यार से मेरी ओर देखते हुए मुसकराई तो मैं ने हामी में सिर हिला दिया और फिर मेरी उंगलियों ने गिटार के तारों पर थिरकना शुरू कर दिया.

मैं ने उस महिला की फरमाइश के गीत को अभी खत्म ही किया था कि उस ने एक और हिंदी गाने की फरमाइश कर दी. इस बार वह महिला स्वयं मेरे सामने खड़ी थी. इस से पहले उस महिला की सहेली थी. गाने के बोल थे, ‘‘नीलेनीले अंबर पे…’’

धीरेधीरे रात बीतती जा रही थी और होटल का डाइनिंगहौल भी एकएक कर खाली होने लगा था, लेकिन वह महिला अब भी वहीं बैठी हुई थी.  मंत्रमुग्ध सी मेरी ओर देखे जा रही थी. उस का इस प्रकार मुझे एकटक देखना मेरे अंदर झिझक  पैदा कर रहा था. मैं ने अपने गिटार पैक किए और चलने की तैयारी की. उस महिला की बाकी सहेलियां भी जा चुकी थीं और शायद अब वह भी डाइनिंगहौल से बाहर निकलने ही वाली थी कि अचानक मौसम बेहद खराब हो चला. बाहर तेज गरज के साथ बारिश शुरू हो गई थी. आइलैंड पर अचानक साइक्लोन का आना और मौसम का इस तरह खराब होना सामान्य बात थी.

मुझे इस बात का पूर्व अंदेशा था फिर भी अपने किराए के कमरे से करीब 4 किलोमीटर की दूरी पर यहां आना मेरी मजबूरी थी. यह आइलैंड न तो  बहुत बड़ा है और न ही यहां की आबादी ही इतनी ज्यादा है. यहां की जितनी आबादी है उतनी तो मेरे शहर कोलकाता में किसी शादी में बरात में ही लोग आते होंगे. खैर, अमूमन यहां हरकोई एकदूसरे को पहचानता था. वैसे मेरी जानपहचान यहां के लोगों से उतनी अधिक अभी नहीं हुई थी क्योंकि यहां रहते हुए मुझे बामुश्किल 1 महीना हुआ होगा और दूसरा मैं अपनी शर्मीले  स्वभाव के कारण लोगों से कम ही घुलतामिलता हूं.

‘‘कृपया आप इस छाते के अंदर आ जाइए बाहर बारिश बहुत तेज है,’’ मैं जैसे ही डाइनिंगहौल से कांच के बने उस दरवाजे से बाहर निकला कि वह महिला उस बड़े से छाते का एक हिस्सा मेरी ओर करते हुए मु?ा से छाते के अंदर आने का आग्रह करने लगी.

‘‘जी धन्यवाद, मेरे पास खुद का रेनकोट है, आप बेकार में परेशान न हों,’’ मैं ने अपने बैग को टटोला, लेकिन यह क्या रेनकोट आज मैं घर पर ही भूल आया था. मुझे अपनी लापरवाही पर गुस्सा आया.

‘‘कोई बात नहीं आप इस छाते के अंदर आ सकते हैं. वैसे भी यह काफी बड़ा है. आप इतनी रात गए इस तूफान में वापस कैसे जाएंगे?’’ उस ने मेरे प्रति चिंता जाहिर करते हुए पूछा, ‘‘मेरे विचार से, आप जब तक मौसम ठीक नहीं हो जाता कुछ घंटे मेरे साथ मेरे कौटेज हाउस में रुक सकते हैं तूफान थमने के बाद वापस जा सकते हैं. वैसे आप के पास घर जाने का क्या कोई साधन है?’’

मैं ने खामोशी से इनकार में सिर हिलाया. संजोग से मेरी बाइक को भी आज ही खराब होना था.

‘‘इस वक्त आप को कोई औटोरिकशा भी शायद ही मिले,’’ उस की बातों में सचाई थी.  सच में ऐसे मौसम में बाहर किसी भी तरह की सवारी का मिल पाना मुश्किल था. चारों ओर  सन्नाटा पसरा था. मैं ने नोटिस किया डाइनिंगहौल खाली हो चुका था. मैं ने कलाई घड़ी पर नजर दौड़ाई. रात के 11:30 बज रहे थे. अब मैं बिना कोई सवाल किए उस के साथसाथ चल पड़ा. हम दोनों डाइनिंगहौल वाले एरिया से निकल कर थोड़ी दूर आ चुके थे.

 

सामने गार्डन में लगा पाम ट्री बड़ी तेजी के साथ हिल रहा था. हवा का तेज झोका मानो जैसे उस की मजबूती को बारंबार चुनौती दे रहा था. तेज तूफानी हवा जब उस के ऊपर से हो कर गुजरती तो वह एक ओर झक जाता और फिर वापस उसी मजबूती के साथ तन कर खड़ा हो जाता. मालूम नहीं, वह इस तूफान का मुकाबला कब तक कर पाएगा? तेज हवा का एक गीला झोंका हमारे ऊपर से हो कर निकला और छाते  को अपने साथ उड़ा ले गया.

‘‘मौसम तो बहुत ही ज्यादा खराब हो चला है,’’ कह वह महिला मेरे करीब आ गई थी.

मैं ने गौर से देखा बारिश की तेज बौछार के कारण वह महिला बिलकुल भीग चुकी थी. बिजली की तेज कौंध से उस का चेहरा चमक उठता था और उस के होंठ शायद सर्द हवाओं के कारण कांप रहे थे. मैं ने एक सभ्य और शालीन पुरुष की भूमिका अदा करते हुए अपना कोट उतार कर उस के कंधों पर टिका दिए जोकि लगभग गीले हो चुके थे.

मेरे द्वारा ऐसा करने पर वह महिला खिलखिला कर हंस पड़ी और मेरा कोट वापस मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘‘इस की कोई जरूरत नहीं.’’

इतने सन्नाटे में और ऐसी स्थिति में उस का इतने जोर से हंसना मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया. हालांकि तभी मुझे अपनी इस बेवकूफी

पर गुस्सा भी आया. मैं ने गंभीर होते हुए पूछा, ‘‘आप का कौटेज हाउस कौन सा है?’’ क्योंकि होटल के डाइनिंग एरिया से 20 गज की दूरी पर करीब 25 से 30 की संख्या में कौटेज हाउस बने हुए हैं, जिन में से हरेक कौटेज एकदूसरे से लगभग 50 कदम की दूरी पर स्थित है.

होटल समुद्र किनारे था. अत: लहरों का शोर उस सन्नाटे में सिहरन पैदा कर रहा था. स्ट्रीट लाइट के धुंधले से प्रकाश में हम दोनों एकदूसरे को सहारा देते हुए तेज कदमों के साथ चल रहे थे. थोड़ी ही देर में हम कौटेज के बाहर थे. उस ने दरवाजे का लौक खोला और कमरे के अंदर जाते हुए मुझे भी हाथ के संकेत से अंदर आने के लिए कहा. मैं संकोचवश दरवाजे पर ही खड़ा रहा.

‘‘आप अंदर आ जाइए,’’ उस ने जब फिर से मुझे अंदर आने के लिए कहा तो मैं थोड़ा सोचते हुए कमरे के अंदर आ गया.

‘‘आप की सहेलियां क्या आप के साथ नहीं ठहरी हैं?’’ मैं ने देखा कि इतने बड़े कौटेज हाउस में वह महिला अकेली ठहरी हुई थी.

‘‘हम सभी अलगअलग ठहरे हुए हैं. मैं यहां अकेली ही ठहरी हूं. हम सभी पोर्ट ब्लेयर से साथ आई थीं. हमारा किट्टी ग्रुप है, हर एज की महिलाएं हैं. कुछ तो अपने बच्चों को भी साथ लाई हैं, लेकिन मुझे जरा शांत और अकेले रहना पसंद है इसलिए मैं ने यहां कौटेज हाउस लिया है. आप चिंता न करें आप के यहां रुकने से मुझे कोई परेशानी नहीं है,’’ कहते हुए वह महिला बाथरूम में चली गई और मैं वहां लगे सोफे पर पसर गया, जोकि उस के बैडरूम के साथ ही लगा था. थोड़ी देर में जब वह चेंज कर के लौटी तब भी मैं उस सोफे पर था, न जानें किस गहरी सोच में डूबा हुआ. ‘‘आप ने अभी तक चेंज नहीं किया? आप के कपड़े तो बिलकुल गीले हो चुके हैं.’’ ‘‘नहीं, मैं अपने साथ…’’ मैं कहने ही वाला था कि मेरे पास ऐक्स्ट्रा कपड़े नहीं हैं.   उस ने अपना ट्रैक सूट मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘आप इसे तब तक पहन सकते हैं जब तक आप के कपड़े सूख नहीं जाते.’’ मैं मना नहीं कर सका क्योंकि मेरे पास इस के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. थोड़ी देर बाद मैं लेडीज ट्रैक सूट में था जोकि मेरी माप का बिलकुल नहीं था.

मैं ने अपनी पतलून और शर्ट वहीं चेयर पर पंखे के नीचे फैला दी.

‘‘आप के पति क्या काम करते हैं?’’ मैं ने उस के गले में लटकते मंगलसूत्र की ओर देखते हुए पूछा. हालांकि मुझे यह खुद भी पता नहीं था कि क्या मैं सच में इस सवाल का उत्तर जानना चाहता था, लेकिन शायद माहौल को सहज बनाने के लिए, बातचीत की पहल के लिए मैं ने यह सवाल किया.

इस का जवाब उस ने बड़े ही शांत भाव से दिया, ‘‘बिजनैस?’’ उत्तर काफी संक्षिप्त था. इस के बाद कुछ पल के लिए कमरे में खामोशी छाई रही.

मैं उस के बैड से कुछ ही दूरी पर लगे एक बड़े से सोफे पर पैर पसारे हुए सिर को सोफे की दूसरे छोर पर कुशन के सहारे टिकाए लेटा था, जहां से मैं उस के चेहरे की भावभंगिमाओं को अच्छी तरह से पढ़ पा रहा था. उस के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी नजर आ रही थी. न जाने क्यों मुझे उस की हंसी में एक खोखलापन नजर आ रहा था. उस की खुशी बनावटी प्रतीत हो रही थी. वह जब भी जोर से हंसती तो ऐसा महसूस होता कि जैसे वह अपने अंदर के किसी खालीपन को ढकने की कोशिश कर रही है, कोई दर्द जो उस ने अपने अंदर समेटा हुआ है. मालूम नहीं कैसे?

उस कमरे में उस के साथ कुछ घंटे व्यतीत करने के बाद ही मुझे उस की वास्तविक आंतरिक स्थिति का एहसास होने लगा था. उस की आंखों में छिपे दर्द को मैं महसूस करने लगा था. मैं अभी तक उस के नाम से वाकिफ नहीं था और न ही वह मेरे विषय में ज्यादा कुछ जानती थी, फिर भी हम दोनों कमरे में साथ थे.

‘‘आप किसी बात से परेशान हैं क्या…’’  मैं ने कमरे में छाई चुप्पी को तोड़ना चाहा.

‘‘मेरा नाम राधिका है,’’ उस ने मेरे अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए अपना परिचय दिया.

‘‘और आप समीर? मैं ने आप के आईडैंटटी कार्ड मैं आप का नाम देखा था,’’ और फिर से वह किसी गहरी सोच में डूब गई.

‘‘वैसे मुझे पूछने का हक तो नहीं, लेकिन माफ कीजिएगा मैं फिर भी पूछ रहा हूं. कुदरत ने तो आप के झाले में रुपएपैसे, सारे ऐशोआराम दिए हैं, फिर भी पिछले कुछ घंटों से मैं ने एक बात नोटिस की है कि आप के चेहरे की खुशी बनावटी है. आप की हंसी मालूम नहीं क्यों मुझे लगती है?’’

‘‘खुशी, ऐशोआराम, रुपएपैसे,’’ उस ने मेरे द्वारा कहे गए इन सारे शब्दों को दोहराते हुए एक गहरी सांस ली, ‘‘मैं तुम से एक सवाल पूछना चाहती हूं, धनदौलत, रुपएपैसे का तुम्हारी जिंदगी में क्या अहमियत है? चलो तुम्हें ये सब मैं दे दूं तो भी क्या तुम इन से सुखशांति खरीद लोगे?’’

‘‘बिलकुल, धनदौलत से सबकुछ हासिल किया जा सकता है. मेरी समझ से जिंदगी में अगर एक इंसान के पास धनदौलत है तो उस के पास सबकुछ है. नायरा ने इन्हीं वजहों से तो मुझे छोड़ा था, जब मेरी नौकरी चली गई थी, मैं आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. नायरा और हमारे बीच आई दूरियों की वजह तो यही रुपएपैसे थे.’’

‘‘मेरा मतलब प्रेम से था, सच्चे प्रेम से, क्या तुम रुपएपैसे की बदौलत सच्चे प्रेम को खरीद  सकते हो या ठीक इस के विपरीत कहूं तो यदि मैं तुम्हें रुपएपैसे, धनदौलत दे दूं, तो क्या बदले में तुम मुझे सच्चा प्रेम दे सकते हो? क्या दे सकोगे  मुझे सच्चा प्रेम? मेरे पास धन, दौलत, रुपएपैसे सबकुछ है परंतु नहीं है तो सच्चा प्रेम जो मेरी जिंदगी के खालीपन को भर सके.’’

‘‘क्यों? क्या आप के पति आप से प्रेम नहीं करते?’’ मैं ने अचानक सवाल पूछा.

‘‘उन का बहुत बड़ा कारोबार है, बहुत सारी संपत्ति है और नहीं है तो एक औलाद जो उन के बाद उन की संपत्ति का मालिक बन सके औलाद की चाहत में उन्होंने अपनी पहली पत्नी को तलाक दे दिया. पैसों के बल पर मुझे से 50 वर्ष की आयु में शादी कर ली, जबकि मेरी उम्र उस वक्त 22 साल थी. मेरे पिता जोकि उन के यहां एक साधारण सी नौकरी करते थे ने मेरी मां के इलाज के लिए काफी पैसे उधार ले लिए थे,’’ बोलतेबोलते वह अचानक चुप हो गई.

कुछ देर की खामोशी के बाद उस ने आगे बताना जारी रखा, ‘‘मेरी शादी के कुछ ही महीने बाद मेरी मां की मृत्यु हो गई और उन की मृत्यु के कुछ महीने बाद ही अपने पिता भी चल बसे. मेरे पास सबकुछ है और जो नहीं है वह है प्रेम, सच्चा प्रेम जिस के अभाव में जीवन निरर्थक लगता है. अपने पति के लिए मैं सिर्फ एक साधन हूं. एक ऐसा साधन जो उन के लिए संतान की प्राप्ति करा सकता है, उन की अपार संपत्ति का वारिस दिला सकता है. हमारी शादी के 5 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन संतान की प्राप्ति नहीं हुई. वे इस सब का जिम्मेदार मुझे ठहराते हैं, जबकि कमी उन के अंदर है. मैं आज अच्छीखासी संपत्ति की मालकिन हूं. फिर भी जिंदगी में एक खालीपन है, खोखलापन है.’’

वह बिलकुल मेरे नजदीक बैठी थी. मैं सोफे पर शांत बैठा हुआ उस की बातों को सुन रहा था. न जाने कब मेरा हाथ उस के हाथों में आ गया. मेरे हाथ पर पानी की बूंद सा कुछ टपका तो मैं ने देखा उस की आंखों में आंसू भरे थे.

मैं ने सोफे पर बैठेबैठे पीछे खिड़की पर से परदे को थोड़ा सरका कर कांच से बाहर झंकते हुए मौसम का मुआयना किया. बाहर अभी भी तेज हवा के साथ जोरदार बारिश हो रही थी.

‘‘मौसम अभी भी काफी खराब है,’’ मैं ने टौपिक चेंज करने की कोशिश की.

‘‘क्या तुम मेरे लिए कुछ गा सकते हो?’’

‘‘अभी इस वक्त?’’ मैं ने घड़ी देखी रात के 2 बज रहे थे.

‘‘क्या तुम मुझे कुछ पल की खुशी दे सकते हो? ऐसी खुशी जिसे मैं ताउम्र संजो कर रख सकूं? कुछ ऐसे लमहे जिन की मखमली यादों से मैं अपनी जिंदगी की इस रिक्तता को भर सकूं? मैं तुम्हें मुंहमांगे पैसे दे कर इन लमहों को तुम से खरीदना चाहती हूं.’’

अचानक उस ने अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया. मैं उस की तेज धड़कन को साफसाफ सुन पा रहा था, उस की गरम सांसों को महसूस कर रहा था. उस ने अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिए.

बाहर बिजली की कड़कड़ाहट के साथ एक तेज आवाज हुई. शायद पाम का वह वृक्ष जो अभी तक अपनी जड़ों पर मजबूती के साथ खड़ा था, उसे इस तूफान ने उखाड़ गिराया था. मैं ने जीवन में पहली बार नायरा से बेवफाई की. हम सारी रात एकदूसरे के आगोश में थे.

सुबह जब आंख खुली तो बारिश थम चुकी थी. मैं ने कांच की खिड़की से परदे को सरका कर बाहर देखा. बारिश थम चुकी थी. हवा के हलकेहलके झांके बाहर खूबसूरत फूलपत्तियों को सहला रहे थे. हवा के इस प्रेमस्पर्श से लौन में लगे पेड़ों की पत्तियां थिरकथिरक कर जैसे खुशी का इजहार कर रही थीं.

सामने दीवार पर लटकी उस मोटी तार पर बारिश के पानी की एक अकेली बूंद अपने अकेलेपन की बेचैनी को एक ओर झटकते हुए नीचे टपकने को आतुर था. सामने किसी वृक्ष के डाल पर एक छोटी सी चिडि़या कहीं से उड़ती आई और फुदकफुदक कर अपने गीले पंखों को फड़फड़ाते हुए सुखाने की चेष्टा करने लगी मानो जैसे खुले आसमान में वापस उड़ने की तैयारी कर रही हो.

‘‘आप चाय लेंगे या कौफी?’’

‘‘नहीं, मैं अब जाना चाहूंगा,’’ यह कहता  हुआ मैं उठ खड़ा हुआ और बाहर निकलने की तैयारी करने लगा तो उस ने मेरे हाथों में एक विजिटिंग कार्ड पकड़ा दिया और कहा, ‘‘यदि आप कोलकाता आएं तो इस पते पर अवश्य संपर्क करें.’’

मैं ने आश्चर्य से उस की ओर देखा.

‘‘मैं इस कंपनी की मालकिन हूं. दरअसल,  यह कंपनी मेरे ही नाम है. आप को आप की पसंद की पोस्ट मिल जाएगी और तनख्वाह आप जितना कहें क्योंकि मेरे पति के बहुत सारे बिजनैस हैं. अलगअलग शहरों में कई कंपनियां हैं, तो उन में से यह एक कंपनी मेरे नाम है. शादी के इतने सालों में मैं ने यही एक समझदारी का काम किया है कि मैं ने खुद को आर्थिक रूप से मजबूत बनाया वरना यह जालिम दुनिया,’’ और वह कुछ कहतेकहते अचानक चुप हो गई, फिर आगे बोली, ‘‘इस जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है. वैसे आप चाहें तो पोर्ट ब्लेयर में भी आप को काम मिल सकता है क्योंकि मैं पोर्ट ब्लेयर में भी एक बिजनैस जल्द ही शुरू करने वाली हूं. आप के लिए यहां भी मौका है.’’

मैं कुछ दिनों बाद कोलकाता वापस आ गया. वादे के मुताबिक मुझे नौकरी भी मिल गई और ऊंची तनख्वाह भी. धीरेधीरे वक्त अपनी गति से बीतता चला गया.

‘‘हैलो, मैं कोलकाता वापस आ रही हूं,’’ एक दिन अचानक नायरा ने मुझे फोन कर के अपने आने की सूचना दी और उस के अगली सुबह वह मेरे घर आ गई. मैं ने कोलकाता के पौश एरिया में एक बड़ा सा फ्लैट खरीद लिया था. एक नई गाड़ी भी खरीद ली थी. ऐशोआराम की सारी सुखसुविधा अब हमारे पास थी. अब नायरा मुझ से शादी करना चाहती थी. नायरा के  मांबाप भी जोकि पहले हमारी शादी के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वह अपनी बेटी की शादी किसी बेरोजगार से नहीं करा सकते थे और नायरा अपने मांबाप की मरजी के खिलाफ मुझ से शादी नहीं कर सकती थी. परंतु अब नायरा और उस के मांबाप जल्द से जल्द शादी के पक्ष में थे.

वैसे मुझे भी शादी से कोई ऐतराज नहीं था. जल्द ही शादी की तारीख भी तय हो गई और हमारी ऐंगजेमैंट भी हो गई. जिंदगी वापस पटरी पर दौड़ने लगी थी. ऐंगजेमैंट के बाद नायरा वापस मुंबई आ गई थी क्योंकि शादी में अभी कुछ दिन बाकी थे. मैं वीकैंड पर नायरा से मिलने मुंबई गया हुआ था. मैं और नायरा साथ में एक अच्छा टाइम स्पैंड कर रहे थे ताकि मैं किसी औफिस कौल में बिजी न हो जाऊं, नायरा ने मेरे फोन को साइलैंट मोड पर कर के फोन अपने पास ही रख लिया था.

मैं इस बात से बेखबर था कि उस दिन राधिका के 10 फोन आए थे. फोन नहीं उठा पाने के कारण राधिका ने वाट्सऐप मैसेज सैंड कर दिया, ‘‘मुबारक हो मैं ने बेटे को जन्म दिया है. मुझे इतनी बड़ी खुशी मिली है कि संभाले नहीं संभल रही है. इस खुशी का सारा श्रेय आप को जाता है. मेरे दामन को खुशियों से भरने के लिए आप का बहुतबहुत शुक्रिया. मुझे भनक तक नहीं लगी और यह मैसेज नायरा ने पढ़ लिया. उस दिन मेरे और नायरा के बीच काफी बहस हुई. बात वापस संबंधविच्छेद तक आ गई, लेकिन मैंने हार नहीं मानी.

मैं ने नायरा को समझना जारी रखा. मैं ने उसे बड़े शांतभाव और प्रेमपूर्वक समझाया, ‘‘नायरा, मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति जो प्रेम है वह सिर्फ तुम्हें ही समर्पित है. मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से प्यार करता हूं. तुम्हारे प्रति मेरा यह प्रेम कभी खत्म नहीं हुआ. हां, मैं ने उन में से कुछ लमहे किसी को सौंप कर तुम्हारे लिए जीवनभर की खुशियां ही तो खरीदी हैं. तुम्हारा जीवनभर का साथ ही तो चाहा है. अब तुम ही बताओ जब मेरे पास नौकरी नहीं थी, पैसे नहीं थे, सुखसुविधा नहीं थी तब तुम ने ही मेरा साथ छोड़ा था.’’

नायरा चुप थी क्योंकि उस के पास मेरे सवालों के जवाब नहीं थे.

मैं ने राधिका की सारी सचाई, सारी बातें नायरा के समक्ष रख दीं. सारी बातें जानने के बाद नायरा ने मुझे माफ कर दिया. अब मैं और नायरा शादी के बंधन में बंध कर एक खुशहाल जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं. बच्चे की पहली सालगिरह पर राधिका ने हमें भी आमंत्रित किया है और उन के पति कन्हैया भी इस सचाई से अब तक वाकिफ हो चुके हैं फिर भी वे अपनी खुशी का इजहार कर रहे हैं. हालांकि वे अपनी आंतरिक पीड़ा को लोगों के समक्ष प्रकट करने से  कतराते नजर आ रहे हैं. अपने चेहरे पर खुशी ओढ़े हुए वे मेहमानों की आवभगत में लगे हुए हैं. यह सचाई हालांकि कन्हैया के पुरुषरूपी अहंकार पर प्रहार तो अवश्य कर रही है, लेकिन दुनिया के समक्ष इन बातों से ऊपर उन के लिए एक पुत्र का पिता कहलाने का गौरव और उस की महत्ता अधिक हो गई थी.

नायरा और मैं बच्चे को प्यार और दुलार कर गिफ्ट पकड़ा कर केक, मिठाई और स्वादिष्ठ व्यंजनों की दावत उड़ा कर अपने घर लौट रहे थे. इस मौके पर राधिका बेहद खुश दिख रह थी. उस ने नायरा से खूब सारी बातें कीं और हमें गेट तक छोड़ने कन्हैया भी राधिका के साथ आए.

बदला नजरिया: क्या अच्छी बहू साबित हुई शिवानी

दवा की दुकान से बैंडएड खरीद कर शिवानी घर की तरफ चल पड़ी. मौसम बहुत सुहावना था. किसी भी समय बारिश शुरू हो सकती थी. ठंडी हवा के झोंकों ने उस के तनमन को तरोताजा कर दिया.

कोठी तक पहुंचने में उसे करीब 15 मिनट लगे. अंदर घुसते ही उस की सास सुमित्रा ने उसे आवाज दे कर अपने कमरे में बुला लिया.

‘‘शिवानी, तुम कहां चली गई थीं?’’ सुमित्रा नाराज और परेशान नजर आईं.

‘‘मम्मीजी, केमिस्ट से बैंडएड लाने गई थी,’’ शिवानी डरीसहमी बोली, ‘‘सेब काटते हुए चाकू से उंगली कट गई थी.’’

‘‘देखो, सेब काट कर देने का काम कमला का है. हमारी सेवा करने की वह पगार लेती है. उस का काम खुद करने की आदत तुम्हें छोड़नी चाहिए.’’

‘‘जी,’’ सास की कही बातों के समर्थन में शिवानी के मुंह से इतना ही निकला.

‘‘बैंडएड लाने इतनी दूर तुम पैदल क्यों गईं? क्या ड्राइवर रामसिंह ने कार से चलने की बात तुम से नहीं कही थी?’’

‘‘कही थी, पर दवा की दुकान है ही कितनी दूर, मैं ने सोचा कार से जाने की अपेक्षा पैदल जा कर जल्दी लौट आऊंगी,’’ शिवानी ने सफाई दी.

‘‘इस घर की बहू हो तुम, शिवानी.  किसी काम से बाहर निकलो तो कार से जाओ. वैसे खुद काम करने की आदत अब छोड़ दो.

‘‘जी,’’ शिवानी और कुछ न बोल सकी.

‘‘मैं समझती हूं कि तुम्हें मेरी इन बातों में खास वजन नजर नहीं आता क्योंकि तुम्हारे मायके में कोई इस तरह से व्यवहार नहीं करता. लेकिन अब तुम मेरे कहे अनुसार चलना सीखो. हर काम हमारे ऊंचे स्तर के अनुसार करने की आदत डालो, और सुनो, नेहा के साथ डा. गुप्ता के क्लीनिक पर जा कर अपनी उंगली दिखा लेना.’’

‘‘मम्मीजी, जख्म ज्यादा गहरा… ठीक है, मैं चली जाऊंगी,’’ अपनी सास की पैनी नजरों से घबरा कर शिवानी ने उन की हां में हां मिलाना ही ठीक समझा.

‘‘जाओ, नाश्ता कर लो और सारा काम कमला से ही कराना.’’

अपनी सास के कमरे से बाहर आ कर शिवानी कमला को सिर्फ चाय लाने का आदेश दे कर अपने शयनकक्ष में चली आई.

समीर की अनुपस्थिति उसे बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही थी. वह  सामने होता तो रोझगड़ कर अपने मन की बेचैनी जरूर कम कर लेती.

इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में वह अतीत की यादों में खो गई.

समीर के साथ उस का प्रेम विवाह करीब 3 महीने पहले हुआ था. एक साधारण से घर में पलीबढ़ी शिवानी एक बेहद अमीर परिवार की बहू बन कर आ गई.

समीर और शिवानी एम.बी.ए. की पढ़ाई के दौरान मिले थे. दोनों की दोस्ती कब प्रेम में बदल गई उन्हें पता भी न चला पर कालिज के वे दिन बेहद रोमांटिक और मौजमस्ती से भरे थे. शिवानी को समीर की अमीरी का एहसास था पर अमीर घर की बहू बन कर उसे इस तरह घुटन व अपमान का सामना करना पड़ेगा, इस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

शिवानी चाह कर भी ऐसे मौकों पर अपने मन की प्रतिक्रियाओं को नियंत्रण में न रख पाती. वह अजीब सी कुंठा का शिकार होती और बेवजह खुद की नजरों में अपने को गिरा समझती. ऐसा था नहीं पर उसे लगता कि सासससुर व ननद, तीनों ही मन ही मन उस का मजाक उड़ाते हैं. सच तो यह है कि उसे बहू के रूप में अपना कर भी उन्होंने नहीं अपनाया है.

हर 2-4 दिन बाद कोई न कोई ऐसी घटना जरूर हो जाती है जो शिवानी के मन का सुखचैन खंडित कर देती.

वह दहेज में जो साडि़यां लाई थी उन की खरीदारी उस ने बडे़ चाव से की थी. उस के मातापिता ने उन पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च किया था. पर यहां आ कर सिर्फ 2 साडि़यां पहनने की इजाजत उसे अपनी सास से मिली. बाकी सब को उन्होंने रिजेक्ट कर दिया.

‘बहू, साडि़यों में कोई बुराई नहीं है, पर इन की कम कीमत का अंदाजा मेरी परिचित हर औरत आसानी से लगा लेगी. तब मैं उन की मखौल उड़ाती नजरों व तानों का सामना नहीं कर सकूंगी. प्लीज, तुम इन्हें मत पहनना… या कभी मायके जाओ तो वहां जी भर कर पहन लेना.’

अपनी सास की सलाह सुन कर शिवानी मन ही मन बहुत दुखी हुई थी.

बाद में शिवानी ने गुस्से से भर कर समीर से पूछा था, ‘दूसरों की नजरों में ऊंचा बने रहने को क्या हमें अपनी खुशी व शौक दांव पर लगाने चाहिए?’

‘डार्लिंग, क्यों बेकार की टेंशन ले रही हो,’ समीर ने बड़े सहज भाव से उसे समझाया, ‘मां तुम्हें एक से एक बढि़या साडि़यां दिला रही हैं न? उन की खुशी की खातिर तुम ऐसी छोटीमोटी बातों को दिल से लगाना छोड़ दो.’

शादी के बाद समीर के प्रेम में जरा भी अंतर नहीं आया था. इसी बात का उसे सब से बड़ा सहारा था, वरना वह अपनी ससुराल वालों की अमीरी की दिखावट के कारण अपना बहुत ज्यादा खून फूंकती.

उस के ससुर रामनाथजी ने भी उस की इच्छाओं व भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया.

शिवानी समीर के बराबर की योग्यता रखती थी. दोनों ने एम.बी.ए. साथसाथ किया था. पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बनने की इच्छा सदा ही उस के मन में रही थी.

समीर ने अपने खानदानी व्यवसाय में हाथ बंटाना शुरू किया. शिवानी भी वैसा ही करना चाहती थी और समीर को इस पर कोई एतराज न था. पर उस के ससुर रामनाथजी ने उस की बिजनेस में सहयोग देने की इच्छा जान कर अपना एकतरफा निर्णय पल भर में सुना दिया.

‘अपनी भाभी या बड़ी बहन की तरह से काम पर जाने की उसे न तो जरूरत है और न ही ऐसा करने की इजाजत मैं उसे दूंगा. अब वह मेरे घर की बहू है और उसे सिर्फ ठाटबाट व रुतबे के साथ जीने की कला सीखने पर अपना ध्यान लगाना चाहिए.’

एक बार फिर समीर उसे प्यार से समझाबुझा कर निराशा व उदासी के कोहरे से बाहर निकाल लाया था. अपने पति की गैरमौजूदगी में ससुराल की आलीशान कोठी में शिवानी लगभग हर समय घुटन व बेचैनी अनुभव करती. यद्यपि कभी किसी ने उस के साथ बदसलूकी या उस का अनादर नहीं किया था, फिर भी शिवानी को हमेशा लगता कि वह शादी कर के सोने के पिंजरे में कैद हो गई है.

कमला ने चाय की टे्र ले कर कमरे में प्रवेश किया तो शिवानी अतीत की यादों से उबर आई. उस के आदेश पर कमला चाय की टे्र मेज पर रख कर बाहर चली गई.

खराब मूड के चलते शिवानी ने कमरे में रखे स्टील के गिलास में चाय बनाई क्योंकि ठंडे मौसम में स्टील के गिलास में चाय पीने का उस का शौक वर्षों पुराना था.

पहली दफा उस की सास ने उसे स्टील के गिलास में चाय पीते देख कर फौरन टोका था, ‘‘बहू, वैसे तो चाय गिलास में भी पी जा सकती है… अपने मायके में तुम ऐसा करती ही रही हो, पर यहां की बात और है. अच्छा रहेगा कि कमला चाय की टे्र सजा कर लाए और तुम हमेशा कपप्लेट में ही चाय पीने की आदत बना लो.’’

आज बैंडएड वाली घटना के कारण शिवानी के मन में विद्रोह के भाव थे. तभी उस ने चाय गिलास में तैयार की और ऐसा करते हुए उसे अजीब सी शांति महसूस हो रही थी.

समीर फैक्टरी के काम से 3 दिन के लिए मुंबई गया था. उस की गैरमौजूदगी में शिवानी की व्यस्तता बहुत कम हो गई. चाय पीने के बाद उस ने कुछ देर आराम किया. फिर उठने के बाद वह अपने भैया के घर जन्मदिन पार्टी में शामिल होने गाजियाबाद जाने की तैयारी में लग गई.

सुमित्रा को जब पता चला कि बहू गाजियाबाद जाने की तैयारी कर रही है तो यह सोच कर वह भी पति रामनाथ सहित बहू के साथ हो लीं कि रास्ते में अपनी बहन सीमा से मिल लेंगी. मम्मी, पापा और भाभी को जाता देख कर नेहा भी उन के साथ हो ली.

सुमित्रा की बड़ी बहन सीमा की कोठी ऐसे इलाके में थी जहां का विकास अभी अच्छी तरह से नहीं हुआ था. रास्ता काफी खराब था. सड़क पर प्रकाश की उचित व्यवस्था भी नहीं थी. ड्राइवर रामसिंह को कार चलाने में काफी कठिनाई हो रही थी.

सुमित्रा जब अपनी बहन के घर पहुंचीं तो पता चला कि उन का लगभग पूरा परिवार एक विवाह समारोह में भाग लेने मेरठ गया हुआ था. घर में सीमा की छोटी बेटी अंकिता और नौकर मोहन मौजूद थे.

अंकिता ने जिद कर के उन्हें चाय पीने को रोक लिया. उन्हें वहां पहुंचे अभी 10 मिनट भी नहीं बीते थे कि अचानक हवा बहुत तेजी से चलने लगी और बिजली चली गई.

‘‘मैं मोमबत्तियां लाती हूं,’’ कहते हुए अंकिता रसोई की तरफ चली गई.

‘‘लगता है बहुत जोर से बारिश आएगी,’’ रामनाथजी की आवाज चिंता से भर उठी.

मौसम का जायजा लेने के इरादे से रामनाथजी उठ कर बाहर बरामदे की दिशा में चले. कमरे में घुप अंधेरा था, सो वह टटोलतेटटोलते आगे बढे़.

तभी एक चुहिया उन के पैर के ऊपर से गुजरी. वह घबरा कर उछल पड़े. उन का पैर मेज के पाए से उलझा और अंधेरे कमरे में कई तरह की आवाजें एक साथ उभरीं. मेज पर रखा शीशे का गुलदान छनाक की आवाज के साथ फर्श पर गिर कर टूट गया. रामनाथजी का सिर सोफे के हत्थे से टकराया. चोट लगने की आवाज के  साथ उन की पीड़ा भरी हाय पूरे घर में गूंज गई.

‘‘क्या हुआ जी?’’ सुमित्रा की चीख में  नेहा और शिवानी की चिंतित आवाजें दब गईं.

रामनाथजी किसी सवाल का जवाब देने की स्थिति में ही नहीं रहे थे. उन की खामोशी ने सुमित्रा को बुरी तरह से घबरा दिया. वह किसी पागल की तरह चिल्ला कर अंकिता से जल्दी मोमबत्ती लाने को शोर मचाने लगीं.

अंकिता जलती मोमबत्ती ले भागती सी बैठक में आई. उस के प्रकाश में फर्श पर गिरे रामनाथजी को देख सुमित्रा और नेहा जोरजोर से रोने लगीं.

अपने ससुर के औंधे मुंह पड़े शरीर को शिवानी ने ताकत लगा कर सीधा किया. उन के सिर से बहते खून पर सब की नजर एकसाथ पड़ी.

‘‘पापा…पापा,’’ नेहा के हाथपांव की शक्ति जाती रही और वह सोफे पर निढाल सी पसर गई.

शिवानी के आदेश पर अंकिता ने मोमबत्ती सुमित्रा को पकड़ा दी.

मोहन भी घटनास्थल पर आ गया. शिवानी ने मोहन और अंकिता की सहायता से मूर्छित रामनाथजी को किसी तरह उठा कर सोफे पर लिटाया.

‘‘पापा को डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा,’’ शिवानी घाव की गहराई को देखते हुए बोली, ‘‘अंकिता, तुम बाहर खडे़ रामसिंह ड्राइवर को बुला लाओ.’’

सुमित्रा अपने पति को होश में लाने की कोशिश रोतेरोते कर रही थी और नेहा भयभीत हो अश्रुपूरित आंखों से अधलेटी सी पूरे दृश्य को देखे जा रही थी. अंकिता बाहर से आ कर बोली, ‘‘भाभी, आप का ड्राइवर रामसिंह गाड़ी के पास नहीं है. मैं ने तो आवाज भी लगाई, लेकिन उस का मुझे कोई जवाब नहीं मिला.’’

‘‘मैं देखती हूं. मम्मी, आप हथेली से घाव को दबा कर रखिए.’’

सुमित्रा की हथेली घाव पर रखवा कर शिवानी मेन गेट की तरफ बढ़ गई. अंकिता भी उस के पीछेपीछे हो ली.

‘‘पापा को डाक्टर के  पास ले जाना जरूरी है, अंकिता. यहां पड़ोस में कोई डाक्टर है?’’

‘‘नहीं भाभी,’’ अंकिता ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘नजदीकी अस्पताल कहां है?’’

‘‘बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर.’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर कहां मिलेगा?’’

‘‘मेन रोड पर.’’

‘‘चल मेरे साथ.’’

‘‘कहां, भाभी?’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर लाने. उसी में पापा को अस्पताल ले चलेंगे.’’

अंधेरे में डूबी गली में दोनों तेज चाल से मुख्य सड़क की तरफ चल पड़ीं. तभी बादल जोर से गरजे और तेज बारिश पड़ने लगी.

सड़क के गड्ढों से बचतीबचाती दोनों करीब 10 मिनट में मुख्य सड़क पर पहुंचीं. बारिश ने दोनों को बुरी तरह से भिगो दिया था.

एक तरफ उन्हें थ्री व्हीलर खड़े नजर  आए तो वे उस ओर चल दीं.

शिवानी ने थ्री व्हीलर के अंदर बैठते हुए ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, अंदर कालोनी में चलो. एक मरीज को अस्पताल तक ले जाना है.’’

‘‘कौन से अस्पताल?’’ ड्राइवर ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘किसी भी पास के सरकारी अस्पताल में ले चलना है. अब जरा जल्दी चलो.’’

‘‘अंदर सड़क बड़ी खराब है, मैडम.’’

‘‘स्कूटर निकल जाएगा.’’

‘‘किसी और को ले जाओ, मैडम. मौसम बेहद खराब है.’’

‘‘बहनजी, आप मेरे स्कूटर में बैठें,’’ एक सरदार ड्राइवर ने उन की बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए कहा.

‘‘धन्यवाद, भैया,’’ शिवानी ने अंकिता के साथ स्कूटर में बैठते हुए कहा.

सरदारजी सावधानी से स्कूटर चलाने के साथसाथ उन दोनों का हौसला भी अपनी बातों से बढ़ाते रहे. घर पहुंचने के बाद वह उन दोनों के पीछेपीछे बैठक में भी चले आए.

‘‘मम्मी, मैं थ्री व्हीलर ले आई हूं. पापा को अस्पताल ले चलते हैं,’’ शिवानी की आवाज में जरा भी कंपन नहीं था.

रामनाथजी होश में आ चुके थे पर अपने अंदर बैठने या बोलने की शक्ति महसूस नहीं कर रहे थे. चिंतित नजरों से सब की तरफ देखने के बाद उन की  आंखें भर आईं.

‘‘इन से चला नहीं जाएगा. पंजे में मोच आई है और दर्द बहुत तेज है,’’ घाव को दबा कर बैठी सुमित्रा ने रोंआसे स्वर में उसे जानकारी दी.

‘‘ड्राइवर भैया, आप पापाजी को बाहर तक ले चलने में हमारी मदद करेंगे,’’ शिवानी ने मदद मांगने वाली नजरों से सरदारजी की तरफ देखा.

‘‘जरूर बहनजी, फिक्र की कोई बात नहीं,’’ हट्टेकट्टे सरदारजी आगे बढ़े और उन्होंने अकेले ही रामनाथजी को अपनी गोद में उठा लिया.

थ्री व्हीलर में पहले सुमित्रा और  फिर शिवानी बैठीं. उन्होंने रामनाथजी को अपनी गोद में लिटा सा लिया.

सरदारजी ने अंकिता और नेहा को पास के सरकारी अस्पताल का रास्ता समझाया और रामसिंह के लौटने पर कार अस्पताल लाने की हिदायत दे कर स्कूटर अस्पताल की तरफ मोड़ दिया. बिजली की कौंध व बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज बारिश थमी नहीं थी.

मुख्य सड़क के किनारे बने छोटे से सरकारी अस्पताल में व्याप्त बदइंतजामी का सामना उन्हें पहुंचते ही करना पड़ा. वहां के कर्मचारियों ने खस्ताहाल स्ट्रेचर सरदारजी को मरीज लाने के लिए थमा दिया.

अंदर आपातकालीन कमरे में डाक्टर का काम 2 कंपाउंडर कर रहे थे. डाक्टर साहब अपने बंद कमरे में आराम फरमा रहे थे.

डाक्टर को बुलाने की शिवानी की  प्रार्थना का कंपाउंडरों पर कोई असर नहीं पड़ा तो वह एकदम से चिल्ला पड़ी.

‘‘डाक्टर यहां सोने आते हैं या मरीजों को देखने? मैं उठाती हूं उन्हें,’’ और इसी के साथ शिवानी डाक्टर के कमरे की तरफ चल पड़ी.

एक कंपाउंडर ने शिवानी का रास्ता रोकने की कोशिश की तो सरदारजी उस का हाथ पकड़ कर बोले, ‘‘बादशाहो, इन बहनजी से उलझे तो जेल की हवा खानी पड़ेगी. यह पुलिस कमिश्नर की रिश्तेदार हैं. इनसान की पर्सनैलिटी देख कर उन की हैसियत का अंदाजा लगाना सीखो और अपनी नौकरी को खतरे में डालने से बचाओ.’’

एक ने भाग कर शिवानी के पहुंचने से पहले ही डाक्टर के कमरे का दरवाजा खटखटाया. डाक्टर ने नाराजगी भरे अंदाज में दरवाजा खोला. कंपाउंडर ने उन्हें अंदर ले जा कर जो समझाया, उस के प्रभाव में आ कर डाक्टर की नींद हवा हो गई और वह रामनाथजी को देखने चुस्ती से कमरे से बाहर निकल आया.

डाक्टर को जख्म सिलने में आधे घंटे से ज्यादा का समय लगा. रामनाथजी  के पैर में एक कंपाउंडर ने कै्रप बैंडेज बड़ी कुशलता से बांध दिया. दूसरे ने दर्द कम करने का इंजेक्शन लगा दिया.

‘‘मुझे लगता नहीं कि हड्डी टूटी है पर कल इन के पैर का एक्स-रे करा लेना. दवाइयां मैं ने परचे पर लिख दी हैं, इन्हें 5 दिन तक खिला देना. अगर हड्डी टूटी निकली तो प्लास्टर चढे़गा. माथे के घाव की पट्टी 2 दिन बाद बदलवा लीजिएगा,’’ डाक्टर ने बड़े अदब के साथ सारी बात समझाई.

तभी रामसिंह, अंकिता और नेहा वहां आ पहुंचे. नेहा अपने पिता की छाती से लग कर रोने लगी.

रामसिंह ने सुमित्रा को सफाई दी, ‘‘साहब ने कहा था कि घंटे भर बाद चलेंगे. मैं सिगरेट लाने को दुकान ढूंढ़ने निकला तो जोर से बारिश आ गई. मुझ से गलती हुई. मुझे कार से दूर नहीं जाना चाहिए था.’’

स्टे्रचर पर लिटा कर दोनों कंपाउंडर रामनाथजी को कार तक लाए. शिवानी ने उन्हें इनाम के तौर पर 50 रुपए सुमित्रा से दिलवाए.

सरदारजी तो किराए के पैसे ले ही नहीं रहे थे.

‘‘अपनी इस छोटी बहन की तरफ से उस के भतीजेभतीजियों को मिठाई खिलवाना, भैया,’’ शिवानी के ऐसा कहने पर ही भावुक स्वभाव वाले सरदारजी ने बड़ी मुश्किल से 100 रुपए का नोट पकड़ा.

विदा लेने के समय तक सरदारजी ने शिवानी के हौसले व समझदारी की प्रशंसा करना जारी रखा.

इसी तरह का काम लौटते समय अंकिता भी करती रही. वह इस बात से बहुत प्रभावित थी कि अंधेरे और बारिश की चिंता न कर शिवानी भाभी निडर भाव से थ्री व्हीलर लाने निकल पड़ी थीं.

अंकिता को उस के घर छोड़ वह सब वापस लौट पड़े. सभी के कपड़े खराब हो चुके थे. रामनाथजी को आराम करने की जरूरत भी थी.

उस रात सोने जाने से पहले सुमित्रा और नेहा शिवानी से मिलने उस के कमरे में आईं, ‘‘बहू, आज तुम्हारी हिम्मत और समझबूझ ने बड़ा साथ दिया. हमारे तो उन की खराब हालत देख कर हाथपैर ही फूल गए थे. तुम न होतीं तो न जाने क्या होता?’’ शिवानी को छाती से लगा कर सुमित्रा ने एक तरह से उसे धन्यवाद दिया.

‘‘भाभी, मुझे भी अपनी जैसी साहसी बना दो. अपने ढीलेपन पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही है,’’ नेहा ने कहा.

‘‘बहू, तुम्हारे सीधेसादे व्यक्तित्व की खूबियां हमें आज देखने को मिलीं. मुसीबत के समय हम मांबेटी की सतही चमकदमक फीकी पड़ गई. हम बेकार तुम में कमियां निकालते थे. जीवन की चुनौतियों व संघर्षों का सामना करने का आत्मविश्वास तुम्हीं में ज्यादा है. तुम्हारा इस घर की बहू बनना हम सब के लिए सौभाग्य की बात है,’’ भावुक नजर आ रही सुमित्रा ने एक तरह से अपने अतीत के रूखे व्यवहार के लिए शिवानी से माफी मांगी.

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