संतुलन- भाग 2: क्यों कर्तव्य निभाने के लिए राजी हुए दीपकजी

पड़ोसिनों की प्रशंसा से पुलकित, दीपकजी तब दोगुने उत्साह से पड़ोसियों के काम करते. प्रभा उन के ऐसे व्यवहार से कुढ़ती थी, यह बात नहीं. बस, उस का यही कहना था कि यह घोर सामाजिक व्यक्ति कभी तो पारिवारिक दायित्वों को समझे. यह क्या बात हुई कि लोगों के जिन कामों को दीपकजी तत्परता से निबटा आते थे, उन्हीं कामों के लिए प्रभा लाइन में धक्के खाती थी. कभी कुछ कह बैठती तो दीपकजी से स्वार्थी की उपाधि पाती. प्रभा को इस उपाधि से एतराज था भी नहीं. वह कहती, ‘ऐसे परमार्थ से तो स्वार्थ ही भला.’

‘आजकल महिलाएं भी पुरुषों के  कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही  हैं. उन्हें भी बाहर के सारे कामों का  ज्ञान होना अति आवश्यक है,’ दीपकजी  उसे समझते. ‘ये उपदेश अपनी भाभियों को क्यों नहीं देते?’ प्रभा तैश में आ जाती. ‘उन्हें उन के पति देंगे, मैं कौन होता हूं,’ दीपकजी कहते.

‘बोझ ढोने वाले?’ प्रभाजी मन ही मन कहतीं और मुसकरा पड़तीं. अवकाशप्राप्ति के बाद तो दीपकजी के पास समय ही समय था. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी की तकलीफें दूर करने को वे हाजिर रहते. बाकी बचे समय में बच्चों के साथ टीवी देखते या ताश खेलते. कभीकभी दुनियाभर के समाचार सुन कर घंटों आपस में उन्हीं विषयों पर लंबा वार्त्तालाप करते, वादविवाद करते, चिंतित होते और सो जाते.

चिंता नहीं थी तो बस, इस बात की कि विकास ने अपने विकास के सारे रास्ते खुद ही क्यों अवरुद्ध कर रखे हैं? तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर के भी उसे बेकार घूमना क्यों पसंद है? 12वीं की परीक्षा का तनाव जब बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता पर भी हावी रहता हो तब विभा और उस के पिता इस से अछूते क्यों हैं?

बच्चों का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार प्रभा के मन में आग लगा जाता, पर जब पिता ही उन का दुश्मन बन बैठा हो तो वह बेचारी क्या करती. एक दिन दीपकजी किसी परिचित की बेटी का फौर्म कालेज में जमा  कर के लौट रहे थे कि दुर्घटना हो गई. उन के स्कूटर को पीछे से आती हुई कार की ठोकर लगी और वे स्कूटर से गिर पड़े. किसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने के बाद घर पर प्रभा को सूचना दी.

सूचना पाते ही प्रभा के तो हाथपांव फूल गए. विकास को तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था. विभा बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी. पड़ोसियों ने दोनों को संभाला, प्रभा को अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल का बरामदा उन के मित्रों, परिचितों से ठसाठस भरा हुआ था. ऐसा लगता था मानो कोई लोकप्रिय नेता भरती हो. प्रभा को ढाढ़स बंधाने वाले भी कई थे. कोई उसे नीबूपानी पिला रहा था तो कोई उस के घर खाना पहुंचा रहा था. किसी ने दीपकजी के पास रात को रुकने की योजना बनाई थी तो कोई घर पर बच्चों के पास सोने जा रहा था.

प्रभा ने देखा कि विकास और विभा का व्यवहार ऐसी कठिन परिस्थिति में भी धीरज और हिम्मतभरा नहीं था. मां को सहारा देना तो दूर, वे दोनों मानो अपने ही होशोहवास खो बैठे थे. किशोर से युवा हो चुके बच्चों के इस व्यवहार को प्रभा ने काफी नजदीक से महसूस किया.

दीपकजी के पैर की हड्डी टूटी थी. 15 दिन बेहद आपाधापी में गुजरे, लेकिन प्रभा को कोई परेशानी नहीं हुई. एक तरह से सभी ने उन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी थी. सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने तक, कोई न कोई सारा इंतजाम कर देता, वह भी अत्यंत विनम्रतापूर्वक, एहसान जताते हुए नहीं. सब का इतना मानसम्मान, प्यारदुलार पा कर प्रभा सचमुच अभिभूत थी.

बड़ी मुश्किल से जब एकांत मिला तब दीपकजी के सामने उस ने अपनी भावना जताई तो दीपकजी गद्गद हो गए. उन्होंने खुशी में प्रभा का हाथ थाम लिया. बच्चे भी कहने लगे, ‘‘मां, देखा, तुम ने पिताजी की समाजसेवा की हमेशा निंदा की है, लेकिन आज वे ही लोग हमारे कितना काम आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं ने मान तो लिया कि मैं गलत थी,’’ प्रभा तृप्तभाव से बोली. 15 दिनों बाद दीपकजी को अस्पताल से छुट्टी मिली तो घर पर आनेजाने वालों का तांता लग गया, लेकिन अभी 2-3 महीनों तक प्लास्टर लगना था. जैसेजैसे दिन बीतते गए, भीड़ छंटती गई. सभी अपनेअपने कामों में व्यस्त हो गए थे तो वे भी अपनी जगह पर गलत नहीं थे. आखिर कोई किसी के परिवार का कब तक बीड़ा उठाता.

प्रभा पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी. घर की व्यवस्था, बाहर का काम. इस के अलावा दीपकजी की परिचर्या. उस के पैरों में जैसे घिर्री लग गई.दीपकजी को अब एहसास होने लगा कि उन के बच्चे मां के काम में जरा भी हाथ नहीं बंटाते. दिनभर टीवी के सामने डटे रहेंगे या बाहर घूमते रहेंगे. दिनभर काम में लगी हुई प्रभा को देख कर उन के मन का रिक्त कोना भीगने लगा. पलंग पर पड़ेपड़े मूकदर्शक बने वे प्रभा की परेशानियों को जैसे नए सिरे से देखने लगे.

एक दिन जब प्रभा सब्जी लेने गई थी, दीपकजी ने बच्चों को आवाज दी और बड़े प्यार से कहा, ‘‘बेटा, घड़ी दो घड़ी पिताजी के पास भी तो बैठा करो,’’ फिर विभा से बोले, ‘‘आज खाना तुम बना लो, तुम्हारी मां सब्जी लेने गई है.’’उन की बात सुन कर विभा की आंखें फैल गईं. ‘‘खाना…मैं बनाऊंगी?’’

‘‘इस में अचरज की क्या बात है. क्या तुम्हारी उम्र की और लड़कियां खाना नहीं बनातीं?’’ दीपकजी बोले.

‘‘लेकिन वे अपने पिता की लाड़ली थोड़े ही हैं,’’ विभा ने अपनी बांहें दीपकजी के गले में डाल कर लडि़याते हुए कहा, ‘‘मुझे कहां आता है खाना बनाना.’’

‘‘विकास, तुम सब्जी ले आया करो. बाहर के कामों में मां का हाथ बंटाया करो,’’ दीपकजी ने बेटे से कहा.

यह सुन कर विकास आश्चर्य से उन्हें देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘पिताजी, अब तक तो ये सारे काम मां ही देखती आई हैं.’’

दीपकजी चुप हो गए. उन्हें महसूस हुआ कि कहीं कुछ गलत, बहुत गलत हो रहा है. बच्चों में घर के हालात समझ कर जिम्मेदारीपूर्वक कुछ करने की भावना ही नहीं है. लाड़प्यार और सिर्फ लाड़प्यार में पले ये बच्चे इस स्नेह का प्रतिदान करना ही नहीं जानते. वे तो सिर्फ एकतरफा पाना जानते हैं.

उन्हें याद आया कि 5 वर्ष की नन्ही सी उम्र में ही वे अपनी मां का दर्द समझते थे. उन का सिर दबाने की चेष्टा करते. उन का कोई काम कर के धन्यता का अनुभव करते, लेकिन मां उन्हें 7-8 बरस का छोड़ कर चल बसीं. उन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा. संयुक्त परिवार में ताईजी, चाचीजी का कृपाभाजन बनने के लिए बहुत जद्दोजेहद करनी पड़ती. उन के कई काम करने के बाद ही दो मीठे बोल नसीब होते. इस तरह छोटी सी उम्र में ही उन्हें दूसरों के काम करने से होने वाले लाभ का पता चला.

धीरेधीरे दायरा बढ़ा. दूसरों को उपकृत कर के अजीब सी संतुष्टि मिलती. बदले में अनेक तारीफें मिलतीं, ढेरों आशीर्वचन मिलते. मातृहीन मन को इस से बड़ा दिलासा मिलता. तब घर का काम करने में आनंद नहीं मिलता. घर वाले उन के कामों को कर्तव्य की श्रेणी में रखते थे. ‘कर्तव्य’ शब्द की शुष्कता और रसहीनता उन के गले नहीं उतरती थी. बाहर वालों के नर्ममुलायम, मीठे प्रशंसा आख्यानों की चाशनी में उन का मन डूब जाता.

उन की शादी हुई, तब भी यह आदत यथावत बनी रही. गृहस्वामी बन कर भी वे जनताजनार्दन के सेवक ही बने रहे.

बुद्धू- भाग 1: अनिल को क्या पता चला था

दफ्तर से घर लौटते समय रास्ते में भाभीजी मिल गईं. वे बहुत उदास थीं. पूछने पर उन्होंने बताया, ‘‘मुंबई से रोमित का मैसेज आया है कि निवेदिता अब इस दुनिया में नहीं रही है.’’

सुन कर मैं स्तब्ध रह गया. घर तक कैसे आया, पता नहीं. आते ही एक बौक्स से निवेदिता का फोटो निकाल कर बैठ गया. तभी श्रद्धा ने आ कर पूछा, ‘‘इतने ध्यान से किस का चित्र देखा जा रहा है?’’

‘‘तुम नहीं जानतीं, श्रद्धा, यह निवेदिता है. महज 32 साल की उम्र में अपने पति और 2 बच्चों को कोविड से पैदा हुए किसी कौंप्लिकेशन की वजह से बिलखता छोड़ कर हमेशा के लिए दुनिया से चली गई है.’’

‘‘उफ, बड़े दुख की बात है. लेकिन तुम निवेदिता को कैसे जानते हो? निवेदिता का फोटो तुम्हारे पास कैसे आया?’’

‘‘तुम गोविंदपुरी वाली भाभीजी को तो जानती ही हो.’’

 

‘‘हां, अपने हनीमून से लौटते वक्त कुछ समय के लिए हम उन्हीं के घर तो रुके थे.’’

‘‘ठीक पहचाना तुम ने. निवेदिता उन्हीं की भतीजी थी.’’

‘‘मगर पहले तो तुम ने निवेदिता का कभी जिक्र नहीं किया?’’

‘‘ऐसी कितनी ही बातें मैं ने तुम्हें अभी तक नहीं बताई होंगी.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम से कोई बात छिपा कर नहीं रखी?’’

‘‘यह क्या तुक हुआ?’’

‘‘अच्छा, तो कोई तुक नहीं हुआ? तुम मर्द लोग पता नहीं कैसे होते हो. अब तो तुम्हारी ही बात से यह स्पष्ट हो गया कि तुम्हारे जीवन में न जाने ऐसी कितनी निवेदिताएं आ चुकी हैं.’’

‘‘तुम फिर गलती कर रही हो.’’

‘‘सही बात सभी को कड़वी लगती है, पति महाशय. भाभी की भतीजी और परेशान तुम हो और फिर भी कहना यह कि उस से कोई रिश्ता नहीं.’’

‘‘पर मैं तुम्हें कैसे समझऊं कि निवेदिता के साथ मैं ने कभी ढंग से बात भी नहीं की थी.’’

‘‘कोई दूसरा कहता तो शायद इस बात का विश्वास भी कर लेती.’’

‘‘मेरी बात का भी तुम्हें विश्वास कर लेना चाहिए क्योंकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हारा पति इतना बुद्धू है कि जरूरत पड़ने पर भी झठ नहीं बोल सकता.’’

‘‘बनो मत, मैं जानती हूं कि अंटशंट बकना तुम्हारी आदत है. इसीलिए जिंदगी में कोई उन्नति नहीं कर सके. तुम किसी भी व्हाट्सऐप गु्रप में भी ढंग से ज्यादा दिन नहीं रह पाते.’’

‘‘तुम ने ठीक फरमाया. अपने को धन्य समझे कि तुम्हें मेरे जैसा पति मिला है. मैं शादीशुद पुरुष हो कर भी घिसेपिटे ढंग से जी रहा हूं, इसीलिए आज तक उन्नति नहीं कर सका.’’

‘‘शायद निवेदिता को न पाने के पश्चात्ताप में अब तक तुम घुलते रहे हो.’’

‘‘मुझ पर नहीं तो उस बेचारी लड़की पर तो तरस खाओ. और फिर अब तो वह मर भी गई है.’’

‘‘वाह, क्या कहने तुम्हारी दार्शनिकता के. फिर भी यह तो बताओ कि तुम्हारी उस से जानपहचान कैसे हुई?’’

‘‘तुम जानना ही चाहती हो तो सुनो. बात उन दिनों की है जब एमएससी करने के बाद मुझे दिल्ली  में नौकरी मिल गई थी. गांव छोड़ते समय पिताजी ने मुझे दूर के एक भाई साहब को फोन कर कहा था कि बेटे, ये तुम्हारे दूर के रिश्ते के एक भाई का पता है. दिल्ली में अपनी जानपहचान का इन के अलावा और कोई नहीं है. बड़ा शहर है, वक्तजरूरत इन के पास चले जाया करना.

‘‘दिल्ली पहुंचने के तीसरे दिन ही मैं भाई साहब के घर गया. पहली भेंट में ही मुझे भैया और भाभी के व्यवहार ने मोह लिया. फिर मैं अकसर उन के घर जाने लगा. भाभीजी से मेरी खूब पटने लगी.’’

‘‘चलोजी, बहुत भूमिका हो ली. अब तुरंत नायिका को मंच पर पेश करो.’’

‘‘फिर मैं एक दिन शाम को भाभीजी के घर गया. ड्राइंगरूम में घुसते ही मैं ठिठक

गया. सामने सोफे पर एक लड़की बैठी कशीदा काढ़ रही थी. उस के खुले, काले, घने, लंबे बाल पीठ पर लटक रहे थे. ड्राइंगरूम की खिड़की से ढलते सूरज की धूप उस पर सुनहरे फीते की तरह पड़ रही थी.

‘‘उस लड़की को भाभीजी के घर में मैं ने पहली बार ही देखा था. आहट पा कर कढ़ाई से आंख हटते ही वह सकपका सी गई. उसे उसी हालत में छोड़ कर मैं घर के भीतर चला गया.

‘‘भाभीजी रसोईघर में कुछ बना रही थीं. मुझे देख कर एकदम खिल गईं और बोलीं कि बड़े अच्छे वक्त पर आए हो, अनिल, छोलेभठूरे बनाते हुए तुम्हारी बहुत याद आ रही थी. तुम्हें बहुत अच्छे लगते हैं न.

‘‘भाभीजी के दुलार से मैं बहुत खिल गया और बोला कि भाभीजी, मुझे एक स्टूल दे दो.

‘‘इस पर वे बोलीं कि तुम इस गरमी में यहां बैठोगे.

‘‘मैं ने कहा कि वाह, भाभीजी, आप ऐसी गरमी में छोलेभठूरे बना सकती हैं तो क्या हम यहां बैठ कर उन्हें खा भी नहीं सकते.

‘‘भाभीजी मुसकरा कर आंचल से माथा पोंछने लगीं तो अचानक मैं ने पूछा कि ड्राइंगरूम में जो देवीजी बैठी हैं वे कौन हैं?

‘‘भाभीजी ने बताया कि वह उन की भतीजी है. उस का नाम निवेदिता है. चूंकि उन के भैया का देहांत हो गया है और घर में कोई और सहारा नहीं है, इसलिए उन्होंने अपनी भाभी और भतीजी को अपने पास बुला लिया है.

‘‘थोड़ी देर बाद वह लड़की आ कर रसोई के दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

‘‘मैं ने महसूस किया कि वह मुझे भाभीजी से इस तरह घुलमिल कर बातें करते देख कर हैरान है. लेकिन उस ने ऐसा प्रदर्शित किया जैसे उन से मुझे देखा ही न हो. भाभी ने परिचय कराया कि निवेदिता, यह हमारा देवर अनिल है.

‘‘निवेदिता ने नजरें उठा कर मुझे देखा और तुरंत पलट कर ड्राइंगरूम की ओर चली गई.

‘‘इस के बाद उस ने मुझे भाभीजी के घर के एक सदस्य के रूप में ही देखा. वह गांव से इंटर पास कर के आई थी. दिल्ली में आने पर उस का पढ़नालिखना भी अच्छी तरह से हो सकेगा और दूसरे यहां उस के लिए अच्छा घरवर भी आसानी से ढूंढ़ा जा सकता है, कुछ इस प्रकार की इच्छाएं भाभीजी और निवेदिता की मां के मन में थीं, यह मुझे तभी पता लग गया.’’

‘‘वाह, कहानी तो खूब अच्छी गढ़ रखी है तुम ने. खैर, फिर निवेदता से दूर हो कर तुम मरे पास कैसे आ गए? तुम दोनों में प्यार कहां तक हुआ, यह भी तो बताओ?’’

‘‘देखो, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि उन दिनों दिल्ली में उठनेबैठने का मेरा एकमात्र स्थान भाभीजी का घर ही था. उस उम्र में भी मुझे आवारागर्दी पसंद नहीं थी. शेष खाली वक्त में मैं अपने कमरे में बैठ कर बड़ेबड़े लेखकों की किताबें पढ़ा करता था और जब थक जाता था तो भाभी के आंचल की स्निग्धता मुझे उन के पास खींच ले जाती थी. वे मुझ से अकसर मजाक में कहतीं कि अनिल, तुम शाद कर के अपनी बीवी के ऐसे गुलाम बन जाओगे कि बेचारी की जान मुसीबत में पड़ जाएगी. यह तो तुम मानोगी ही कि उन की यह बात कितनी सही थी.’’

‘‘रहने भी दो अपनी बड़ाई, बीवी के गुलाम मर्द भी कहीं अच्छे होते हैं?.’’

‘‘यह तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि पुरुषों की सी कठोरता मुझ में है ही नहीं. मैं कभी गुस्सा नहीं कर सकता. नौकर मुझ से डरते नहीं. किसी के दिल से नहीं खेल सकता. इसलिए एक सुंदर लड़की को बिलकुल नजदीक पा कर भी मैं उस से प्रेम न कर सका.’’

‘‘क्या निवेदिता सुंदर थी? फोटो से तो ऐसा नहीं लगता.’’

‘‘यह फोटो बिलकुल सादी पोशाक में खींचा गया है और फोटो में वह चाहे जैसी भी प्रतीत हो रही है, पर उस का गेहुआं रंग, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और मासूम चेहरा मुझे बहुत भला लगता था.’’

‘‘अरे, इतनी जल्दी क्यों रुक गए. थोड़ी सी कविता और कर डालो.’’

‘‘उपहास न करो, श्रद्धा, यह एक सचाई है.’’

‘‘बाप रे, मेरे बुद्धूराम, जरा सा मजाक भी सहन नहीं तुम को. मामला कुछ गंभीर नजर आता है, सुनाओ भई, आगे सुनाओ.’’

टूटा गरूर- भाग 1: छोटी बहन ने कैसे की पल्लवी की मदद

पल्लवी ने कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा. सुबह के 9 बजे थे. ट्रेन आने में अभी 1 घंटा था. अगर वह 10 बजे भी स्टेशन के लिए निकली तब भी टे्रन के वक्त पर पहुंच जाएगी. स्टेशन 5-7 मिनट की दूरी पर ही तो था.

पल्लवी एक बार किचन गई. महाराज नाश्ते की लगभग सभी चीजें बना चुके थे. 10 बजे तक नाश्ता टेबल पर तैयार रखने का आदेश दे कर वह वापस ड्राइंगरूम में आ गई और सरसरी तौर पर सजावट की मुआयना करने लगी. ड्राइंगरूम की 1-1 चीज उस की धनाढ्यता का परिचय दे रही थी.

पारुल तो दंग रह जाएगी यह सब देख कर. पल्लवी की संपन्नता देख कर शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो. पश्चात्ताप हो.

पारुल पल्लवी की छोटी बहन थी. आज वह पल्लवी के यहां 4-5 दिनों के लिए आ रही है. ऐसा नहीं है कि पारुल ने पल्लवी का घर नहीं देखा है. लेकिन वह यहां 5 वर्ष पहले आई थी. पिछले 5 वर्षों में तो पल्लवी के पति प्रशांत ने व्यवसाय में कई गुना प्रगति कर ली है और उन की गिनती शहर के सब से धनी लोगों में होने लगी है. 5 साल पहले जब पारुल यहां आई थी तो पल्लवी 5 हजार वर्गफुट की जगह में बने बंगले में रहती थी. लेकिन आज वह शहर के सब से पौश इलाके में अति धनाढ्य लोगों की कालोनी में 25 हजार वर्गफुट में बने एक हाईफाई बंगले में रहती है. अपनी संपन्नता के बारे में सोच कर पल्लवी की गरदन गर्व से तन गई.

पल्लवी का मायका भी बहुत संपन्न है. पल्लवी से 6 साल छोटी है पारुल. पढ़ने में पल्लवी का कभी मन नहीं लगा. वह सारा दिन बस अपने उच्चवर्गीय शौक पूरे करने में बिता देती थी. इसीलिए 20 वर्ष की होने से पहले ही उस के पिता ने प्रशांत के साथ उस का विवाह कर दिया.

प्रशांत से विवाह कर के पल्लवी बहुत खुश थी. रुपयापैसा, ऐशोआराम, बस और क्या चाहिए जीवन में. हर काम के लिए नौकर. पल्लवी जैसी सुखसुविधाएं चाहती थी वैसी उसे मिली थीं.

पिताजी पारुल का भी विवाह जल्द ही कर देना चाहते थे, लेकिन वह तो सब से अलग सांचे में ढली हुई थी. जब देखो तब किताबों में घुसी रहती. पढ़ाई के अलावा भी न जाने और कौनकौन सी किताबें पढ़ती रहती. उसे एक अलग ही तरह के लोग और परिवेश पसंद था. स्कूलकालेज में भी वह बस पढ़ाई में तेज और बुद्धिमान लड़कियों से ही दोस्ती करती थी. उसे रुपए की चकाचौंध में जरा भी रुचि नहीं थी. तभी एक से एक धनी व्यवसायी घरानों के रिश्ते ठुकराते हुए 4 साल पहले उस ने अचानक कालेज के एक असिस्टैंट प्रोफैसर से विवाह कर के सब को सकते में डाल दिया.

घर वालों को यह सहन न हुआ. तभी से मातापिता ने पारुल से रिश्ता तोड़ लिया था. लेकिन एक ही शहर में होने के बाद मातापिता आखिर कब तक बेटी से नाराज रहते. इधर 6 महीने से उन लोगों ने पारुल और पति पीयूष को घर बुलाना और उन के यहां आनाजाना शुरू कर दिया. तब पल्लवी ने भी पारुल से फोन पर बात करना और उसे अपने घर आने का आग्रह करना शुरू कर दिया.

ऐसा नहीं है कि पल्लवी को पारुल से बहुत लगाव है और वह बस स्नेहवश उस से मिलने को आतुर है, बल्कि पल्लवी तो अपनी संपन्नता के प्रदर्शन से पारुल को चकाचौंध कर के उसे यह एहसास दिलाना चाह रही थी कि देखो तुम ने मामूली आदमी से ब्याह कर के क्या कुछ खो दिया है जिंदगी में.

पल्लवी और उस के परिवार ने जीवन में हमेशा पैसे को महत्त्व दिया था. चाहे उस के पिता हों या पति, दोनों ही पैसे से ही आदमी को छोटाबड़ा समझते थे.

पौने 10 बज गए तो पल्लवी ने अपने विचारों को समेटा और ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहा. चमचमाती कार में बैठ कर वह स्टेशन पहुंची. समय पर ट्रेन आ गई.

स्लीपर क्लास से उतरती पारुल पर नजर पड़ते ही पल्लवी का जी कसैला हो उठा कि अगर संपन्न घर में शादी करती तो इस समय प्लेन से उतरती.

‘‘ओ दीदी कैसी हो? कितने साल हो गए तुम्हें देखे हुए,’’ पारुल ने लपक कर पल्लवी को गले लगा लिया और जोर से बांहों में भींच लिया.

क्षण भर को पल्लवी के मन में भी बहन से मिलने की ललक पैदा हुई पर तभी अपनी प्योर सिल्क की साड़ी पर उस का ध्यान चला गया कि उफ, गंदे कपड़ों में ही छू लिया पारुल ने. पता नहीं ट्रेन में कैसेकैसे लोग होंगे. अब तो घर जा कर तुरंत इसे बदल कर ड्राईक्लीन के लिए देना होगा.

घर पहुंच कर पल्लवी ने पारुल को बैठने भी नहीं दिया, सीधे पहले नहाने भेज दिया. ट्रेन के सफर के कारण पारुल के शरीर से गंध सी आ रही थी. पल्लवी स्वयं भी कपड़े बदलने चली गई.

डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगवा कर पल्लवी ने पारुल को आवाज लगाई. मोबाइल पर बात करते हुए पारुल आ कर कुरसी पर बैठ गई. बात खत्म कर के उस ने मुसकरा कर पल्लवी को देखा.

‘‘बाप रे दीदी… यह इतना सारा क्याक्या बनवा दिया है तुम ने,’’ पारुल आश्चर्य से नाश्ते की ढेर सारी चीजों को देख कर बोली.

‘‘कुछ भी तो नहीं. जब तक यहां है अच्छी तरह खापी ले… वहां तो पता नहीं…’’ पल्लवी ने अपनेआप को एकदम से रोक लिया वरना वह कहना चाह रही थी कि एक मामूली सी तनख्वाह में वह दालरोटी से अधिक क्या खा पाती होगी भला. पर यह कहने से अपनेआप को रोक नहीं पाई कि यहां तो रोज ही यह बनता है… तेरे जीजाजी तो ड्राईफ्रूट हलवे के सिवा और कोई नाश्ता ही नहीं करते.

‘‘अरे हां, जीजाजी क्या औफिस चले गए?’’ पारुल ने उत्साह से पूछा.

‘‘नहीं, वे तो काम से मुंबई गए हैं. वही से फिर बैंगलुरु और फिर हैदराबाद जाएंगे. व्यवसाय बढ़ गया है. महीने में 20 दिन तो वे बाहर ही रहते हैं,’’ पल्लवी ने अपने स्वर में भरसक गर्व का पुट भरते हुए कहा.

‘‘और तुम ने भी दोनों बच्चों को क्यों होस्टल में डाल दिया? बच्चे घर में होते हैं, तो रौनक रहती है,’’ पारुल ने एक कौर मुंह में डालते हुए कहा.

‘‘अरे, इन का स्कूल माना हुआ है, इन की इच्छा तो फौरेन भेजने की थी पर मैं ने कहा अभी बहुत छोटे हैं. हायर ऐजुकेशन के लिए भेज देना विदेश, अभी तो देहरादून ही ठीक है. यों भी जब पैसे की कोई कमी नहीं है तो बच्चों को क्यों न बैस्ट ऐजुकेशन दिलाई जाए. हां, जिन के पास पैसा न हो उन की मजबूरी है…’’ कहते हुए पल्लवी ने एक चुभती हुए गर्वीली दृष्टि पारुल पर डाली. लेकिन तब तक पारुल के मोबाइल पर बीप की आवाज आई और वह मैसेज पढ़ने में व्यस्त हो गई.

ब्लैंक चेक- भाग 1: क्या सुमित्रा के बेटे का मोह खत्म हुआ

72 वर्षीय श्रीकांत हाथ में लिफाफा लिए हुए घर में घुसे. पत्नी सुमित्रा लिफाफा देखते ही खुश हो गई थीं. वे बोलीं, ‘‘क्या अर्णव की चिट्ठी आई है? वह कब आ रहा है?’’ परंतु उन के उदास चेहरे पर निगाह पड़ते ही वे चिंतित हो उठी थीं. ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? आप का चेहरा क्यों इतना उतरा हुआ है?’’

पत्नी के सारे प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए श्रीकांत सोफे पर निराशभाव से धंस कर बैठ गए थे. उन का चेहरा झुका हुआ था, दोनों हाथ उन के सिर पर थे.

पति का गमगीन चेहरा देख, बुरी खबर की आशंका से सुमित्रा एक गिलास में पानी ले कर आई. फिर पूछा, ‘‘कांत, क्या बात है? कुछ तो बोलिए?’’

श्रीकांत रोंआसे हो कर बोले, ‘‘बैंक से मकान की नीलामी का नोटिस आया है. तुम्हारा लाड़ला राजकुमार इस मकान के ऊपर बैंक से लोन ले कर अमेरिका गया है. लोन की एक भी किस्त नहीं भेजी है. नालायक कहीं का. तुम्हारे लाड़ले ने अपने बूढ़े बाप को हथकड़ी पहना कर जेल भेजने का पक्का प्रबंध कर दिया है.’’

‘‘बड़े घमंड और शान से ब्लैंक चैक कहा करती थीं न.’’‘‘देख लो, अपने ब्लैंक चैक को. मांबाप को मुसीबत में डाल दिया है.’’ ‘‘हमारा मकान नीलाम होगा…’’ सुमित्रा घबरा कर बोलीं, ‘‘किसी तरह कोशिश कर के इस नीलामी को रोकिए. इस बुढ़ापे में हम लोग कहां जाएंगे. जो कहना है, अपने राजदुलारे से कहो.’’

‘‘उस का तो कुछ अतापता ही नहीं है.’’ श्रीकांत बोले, ‘‘उस की राह देखतेदेखते तो आंखों की रोशनी भी चली गई. अब तो आंखों के आंसू भी सूख चुके हैं.’’

‘‘आप मुझे बताइए, मैं उस अफसर के पैर पकड़ लूंगी, भीख मांगूंगी कि मुझे मोहलत दे दो. इस बुढ़ापे में बताओ भला मैं कहां भटकूंगी.’’

‘‘चुप हो जाओ. सब तुम्हारा ही कियाधरा है. तुम्हारी बातों में आ कर आज यह दिन देखना पड़ रहा है.’’ श्रीकांत बोले. फिर वे मन ही मन बुदबुदाए थे, ‘‘झूठे राजेश के झांसे में पड़ कर सबकुछ बरबाद हो गया. वह पैसा खाता रहा, कहता था कि सर, आप निश्ंिचत रहिए, मैं ने आप की फाइल नीचे दबा दी है. अब किसी अफसर की निगाह ही उस पर नहीं पड़ सकती. मैं ने आप की जिंदगीभर का इंतजाम कर दिया है. झूठा, मक्कार एक लाख रुपया भी खा गया और न कुछ करा न धरा.’’

पत्नी को रोते देख वे खिसिया कर बोले, ‘‘सुमित्रा, शांत हो जाओ. अब सबकुछ औनलाइन हो गया है, इसलिए कोई कुछ कर भी नहीं सकता.’’ सुमित्रा चुपचाप बैठी रही थीं. उन्हें अपने चारों ओर अंधकार दिखाई पड़ रहा था. अंधेरे में तीर मारते हुए उन्होंने अपने दोचार परिचितों को फोन मिलाया परंतु किसी से अपनी समस्या कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं.

उन के जेहन में बारबार बेटीतुल्य ननद शची का चेहरा याद आ रहा था. अपने बेटे के मोह में वे अंधी हो गई थीं. बेटे के घमंड में वे शची को जाने क्याक्या कह बैठी थीं. कांत ने उन्हें समझाने की कोशिश की थी तो वे उन से भी उलझ बैठी थीं.

शची की कही बात सौ प्रतिशत सही निकली. उस की कही हुई बात उन के दिल पर हथौड़े सी हमेशा चोट करती रहती है. ‘भाभी, अब समय बदल गया है. बेटेबेटी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है. ब्लैंक चैक की रातदिन आप माला जपती रहती हैं जबकि उस के लक्षण से तो लगता है कि वह ब्लैंक ही न रह जाए.’

एक दिन वह आई थी केवल उन्हें आगाह करने के लिए. ‘भाभी, आप का बेटा बिगड़ रहा है. अपनी आंखों के ऊपर से पट्टी खोलिए, जब उस की असलियत खुलेगी तब आप को मेरी कही बात याद आएगी.’

‘‘कांत, मैं शची से बात करूं. अब तो वही एक सहारा दिखाई पड़ रही है.’’ ‘‘किस मुंह से उस से मदद मांगोगी. तुम ने उसे कितना जलील किया था. मेरा तो राखी का रिश्ता भी तुड़वा दिया और आज जब तुम्हें जरूरत है, तो उस की याद आ रही है.’’

‘‘एक बात समझ लो, पैसा बड़ी बुरी चीज है. मदद मांगते ही अपने भी पराए हो जाते हैं. उसे तो तुम दुश्मन ही समझती थीं.’’ सुमित्रा अपने आंसू पोंछ कर बोलीं,  ‘‘कांत, हम लोग शची से अपना लोन चुकता करने को कहेंगे. फिर यह घर उसी के नाम कर देंगे और हम लोग किराएदार की तरह उसे हर महीने किराया दे दिया करेंगे.’’

‘‘तुम्हारा प्लान तो अच्छा है लेकिन उस ने मना कर दिया तो…’’‘‘नहीं, वह मना नहीं करेगी. इस समय उस के लिए 10 लाख रुपए कोई बड़ी रकम नहीं है. इस से हम लोगों की इज्जत सरेआम नीलाम होने से बच जाएगी और घर की चीज घर में ही रह जाएगी.’’‘‘मैं उस दिन उधर से निकल रही थी तो अंजू ने उस की कोठी दिखाई थी. आजकल शची के बंगले की चर्चा पूरे महल्ले में हो रही है.’’

‘‘सुमित्रा, प्लीज इस समय चुप हो जाओ.’’वे चुप हो कर मन ही मन सोचने को विवश हो गईं कि आज की स्थिति के लिए काफी हद तक क्या वे खुद जिम्मेदार नहीं हैं.

श्रीकांत चिंतित मुद्रा में शून्य में निहार रहे थे. उन के उदास और मुरझाए हुए चेहरे को देख सुमित्रा घबरा उठी थीं. यदि कांत इस सदमे को न झेल पाए और इन्हें कुछ हो गया, तो उन का क्या होगा?

वे चुपचाप वहां से उठ कर अंदर कमरे में चली गई थीं. काफी देर तक वहीं पर बैठेबैठे सोचती रहीं. जब किसी तरह कोई समाधान नहीं सूझा तो उन्होंने अपना मोबाइल उठाया और शची से माफी मांगते हुए अपनी सारी समस्या खुल कर कह डाली थी.

शची के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थीं. फिर पति का ध्यान आते ही वे गिलास में दूध ले कर आईं. कांत ने दूध की ओर निगाह उठा कर देखा भी नहीं. फिर भला वे क्या खातीपीतीं.

पतिपत्नी दोनों ही भविष्य के अंधकार की कालिमा की चिंता के कारण एकदूसरे की ओर पीठ कर के लेट गए. थके हुए कांत कुछ देर में खर्राटे भरने लगे थे. परंतु निराशा की गर्त में डूबी सुमित्रा अतीत के पन्नों को पलटने में उलझ गई थीं.

शची उन की छोटी और प्यारी सी ननद है जिस की शादी करने में श्रीकांत ने अपना सबकुछ लुटा दिया था. परंतु लालची पति के अत्याचार से परेशान हो कर शची 5 वर्ष की बेटी आन्या को ले कर उन के पास लौट कर आ गई थी. श्रीकांत अपनी बहन शची को पितातुल्य स्नेह देते थे. उन्होंने सब से पहले उसे अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी.

भाईबहन की मेहनत रंग लाई थी. शची ने पहली बार में ही बैंक की परीक्षा पास कर ली थी. शची की तनख्वाह और प्यारी सी आन्या के आ जाने से उन की खुशियों में चारचांद लग गए. ननदभाभी के बीच प्यारा सा रिश्ता था. नन्ही सी आन्या के ऊपर वे अपना प्यार लुटा कर बहुत खुश थीं. वह स्कूल से आती तो वह स्वयं उसे अपने हाथों से खाना खिलातीं, उस के साथ खेलतीं. सबकुछ सुचारु रूप से चलने लगा था. शची अपनी तनख्वाह सुमित्रा के हाथ में ही रखती थी.

संतुलन- भाग 3: क्यों कर्तव्य निभाने के लिए राजी हुए दीपकजी

इधर कुछ दिनों से वे महसूस कर रहे थे कि प्रभा ने उन की मदद के बगैर कैसे परिवार की जिम्मेदारी अकेले अपने कंधों पर उठा रखी थी. उन का बचपन अपने ही घर में आश्रित की तरह रह कर गुजरा. सो, अपने बच्चों को उन्होंने हद से बढ़ कर लाड़प्यार दिया. बच्चों के कारण पत्नी से भी कड़क व्यवहार किया. उस की उपेक्षा ही कर दी. उसे अधिकार ही नहीं दिया कि वह बच्चों में उचित संस्कार डाल पाए.

प्रभा सब्जी ले कर आ रही थी. आंचल से पसीना पोंछते हुए वह घर में दाखिल हुई. उसे देख कर उन के हृदय में बहुत ही दया आई.

‘‘आओ, घड़ी दो घड़ी सुस्ता लो,’’ वे स्नेह से बोले.

लेकिन प्रभा उन के मन में उठ रहे बवंडर से अनजान थी.

‘‘फुरसत कहां है, अब खाना बनाने में जुटना पड़ेगा,’’ प्रभा बोली.

‘‘खाना विभा बना देगी,’’ दीपकजी ने कहा.

यह सुन कर प्रभा हैरत से उन्हें देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? विभा को खाना बनाना कहां आता है?’’

‘‘नहीं आता तो सीख लेगी,’’ उन्होंने तरल स्वर में कहा, ‘‘प्रभा, दिनरात खटतेखटते तुम कितना थक जाती होगी, मु?ो महसूस हो रहा है कि बच्चों को मेरे अत्यधिक लाड़प्यार ने बिगाड़ कर रख दिया है. वे मांबाप का दुखदर्द जरा भी नहीं समझते.’’

‘‘मांबाप का न सही, दूसरों का तो खूब समझते हैं, जानते हैं, विकास अपने पड़ोसियों के कितने काम आता है? विभा भी सहेलियों के लिए प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार रहती है.’’

सुन कर दीपक कुछ क्षण चुप रहे. वे प्रभा का व्यंग्य भलीभांति समझ रहे थे. फिर एकाएक दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘प्रभा, माना कि बच्चों को बड़ा करने में मुझ से बड़ी भूल हुई. उन के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता घर से हो कर ही बाहर की ओर जाता है, यह बात मैं खुद नहीं समझ पाया तो उन्हें क्या समझता, लेकिन अभी भी समय हाथ से नहीं निकला है. उन्हें सुधारने की कोशिश तो की ही जा सकती है न.’’

प्रभा को तो जैसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह, बस, उन्हें अपलक देखे जा रही थी. इतने सालों बाद पति द्वारा उस के काम की कद्र हुई थी, बच्चों के प्रति चिंता प्रकट की गई थी. यह सच था या सपना, लेकिन भावातिरेक में दीपकजी के होंठों से निकले पश्चात्ताप के शब्द झठे कैसे हो सकते हैं.

दीपकजी के कंधों पर अब नई जिम्मेदारी आ पड़ी. उन्होंने बच्चों को आवाज दे कर उन्हें उन के काम बांट दिए और खुद भी बिस्तर पर पड़ेपड़े उन से जो बनता, करते.

बच्चे उन के इस रुख से नाराज थे, लेकिन स्नेह से उन्होंने बच्चों को समझया. उन्होंने सच्चे हृदय से अपनी गलती भी स्वीकार की.

विकास को वे अपने एक मित्र के कारखाने में काम सीखने हेतु भेजने लगे. काम सीख लेने के बाद नौकरी देने का वादा भी मित्र ने उन से किया. विभा को पढ़ाने के लिए शिक्षक नियुक्त कर दिया. टीवी देखने का समय भी उन्होंने निश्चित कर दिया.

इस नए अनुशासित वातावरण के बच्चे बिलकुल अभ्यस्त नहीं थे. अनिच्छा से वे अपनेआप को इस नियमित दिनचर्या के अनुकूल ढाल रहे थे. इतनी बड़ी उम्र में ऐसे संस्कार डालना कठिन काम तो था ही परंतु गनीमत यही थी कि बच्चे उन की अवज्ञा नहीं करते थे.

रात को हंसीखेल में वे बच्चों को कितनी ही बातें समझया करते. प्रभा को तो जैसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर यह सच था. पारस्परिक संवाद कायम होने से पति के पत्नी से और बच्चों के अपने मातापिता से नए आत्मीय संबंध स्थापित हो रहे थे.

अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, प्रभा कभी बच्चों के भविष्य के बारे में चिंता प्रकट करती तो दीपकजी बिगड़ जाते, ‘खेलनेखाने की उम्र है बच्चों की. उन्हें टोका मत करो. कोल्हू का बैल बनने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है.’

‘जी हां, अपनीअपनी मरजी की बात है. चाहो तो इस उम्र में परिश्रम कर के उम्रभर चैन की बांसुरी बजाई जा सकती है, न चाहो तो अभी खेलकूद कर उम्रभर मेहनतमजदूरी कर लो,’ प्रभा कहती.

‘ठीक है, कर लेंगे मेहनतमजदूरी. तुम बेवक्त की बेसुरी तान तो बंद करो,’ दीपकजी कहते.

प्रभा को आश्चर्य होता. सेवानिवृत्ति के बाद भी दीपकजी में इतनी लापरवाही कैसे? न तो कोई जमीनजायदाद का आसरा है न कोई और जरिया. पैंशन और भविष्य निधि का रुपया पर्याप्त था और मकान अपना था, पर इतनी सी जमापूंजी पर बच्चों के भविष्य के प्रति आंखें मूंद लेना क्या ठीक था?

इस उम्र में जिन हाथों को कमा कर लाना चाहिए उन्हें ताश फेंटते देख प्रभा को बेहद नागवार गुजरता, पर दीपकजी को सब मंजूर था.

इस दुर्घटना ने उन्हें अपने घर को गृहस्वामी के नजरिए से देखने को मजबूर कर दिया. बरसों यह घर, जिसे वे ताईजी के घर की तरह मुसाफिरखाना समझते रहे, आज अपनाअपना सा लगने लगा. कुछ दिनों के एकांतवास ने ही उन्हें गहन आत्मचिंतन दिया, एक नया दृष्टिकोण दिया और भूल सुधार करने की शक्ति भी दी.

दुर्घटना को हुए अब 4 माह से अधिक समय हो चुका था. दीपकजी अब पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे. विकास का काम में मन लग गया था और 6 माह बाद उसे पक्की नौकरी का आश्वासन मिल चुका था. विभा के पेपर अच्छे हुए थे और उसे द्वितीय श्रेणी पाने की पूरी उम्मीद थी. घर में सुखशांति का वातावरण था.

एक रात प्रभा अपना काम निबटा कर सोने के कमरे में आई और दीपकजी से बोली, ‘‘लोग दुर्घटना को अभिशाप मानते हैं, पर मेरे लिए तो यह दुर्घटना जैसे वरदान बन गई है.’’

प्रभाजी की आंखें अपार प्रेम बरसा रही थीं. चेहरे पर परमतृप्ति के भाव थे. दीपकजी को महसूस हुआ कि परिवार वालों की प्रशंसा उन के मनोभावों में छिपी होती है, उन के चेहरे पर लिखी होती है, उन की प्रगति में दिखाई देती है.

अभी वे लोग सोने ही जा रहे थे कि दरवाजे की घंटी बजी. कौन है? पूछने पर पड़ोस के सुशीलजी की घबराई सी आवाज आई,‘‘दीपकजी, जल्दी दरवाजा खोलिए.’’

दरवाजा खोलते ही वे जैसे एक सांस में बोल गए, ‘‘पिताजी की छाती में भयंकर दर्द है. कहीं हार्टअटैक न हो. इतनी रात को आप के सिवा किसे जगाता, उन्हें अकेले अस्पताल ले जाने में भी जी घबरा रहा है.’’

‘‘घबराएं नहीं, मैं हूं न,’’ दीपकजी ने फौरन कमीज चढ़ाई और पीछे देखे बगैर उन के साथ हो लिए.

पूरी रात प्रभा चिंतित रही. सुबह 7 बजे दीपकजी का फोन आया, ‘‘समय पर पहुंच जाने से बाबूजी बच गए हैं. चिंता मत करना. भाभीजी को भी यह समाचार दे देना. मैं एकाध घंटे बाद आऊंगा. विभा से कहना कि आ कर मैं उसी के हाथ का बना हुआ नाश्ता करूंगा. विकास चला गया न देवेशजी के यहां? आज उसे सुबह वाली शिफ्ट में जाना था.’’

‘‘हां, चला गया. सब ठीक है,’’ प्रभाजी ने रुंधे कंठ से कहा.

सचमुच, सबकुछ ठीक था. सहज और संतुलित. यदि घर और बाहर का यह संतुलन ठीक हो तो डगमगा कर गिरने की आशंका ही कहां रहती है.

संतुलन- भाग 1: क्यों कर्तव्य निभाने के लिए राजी हुए दीपकजी

‘‘दीपकजी एक महान हस्ती हैं. उन की प्रशंसा करना सूरज को दीया दिखाना है. ऐसे महान व्यक्ति दुनिया में विरले ही होते हैं. औफिस के हरेक कर्मचारी की उन्होंने किसी न किसी रूप में मदद की है. हम सब उन के ऋ णी हैं. हम उन की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हैं,’’ स्टाफ के सदस्य अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे थे. इस दौरान सदस्यों के बीच बैठी प्रभा की ओर दीपकजी ने कनखियों से देखा. ऐसे समय भी उस के चेहरे का भावहीन होना दीपकजी को बेहद खला, पर उन्होंने उसे नजर अंदाज कर दिया.

स्वयं दीपकजी गद्गद थे. उन के मातहतों ने उन को नमन किया और वरिष्ठ अफसरों ने उन्हें गले से लगा लिया. दिखावे से दूर अश्रुपूरित वह विदाई समारोह सचमुच अद्वितीय था, परंतु प्रभा के हृदय को कहीं से भी छू न सका.

‘‘क्यों, कैसा लगा?’’ लौटते समय दीपकजी ने आखिर प्रभा से पूछ ही लिया. ‘‘बुरा लगने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ प्रभा ने सपाट स्वर में उत्तर दिया. ‘‘सीधी तरह नहीं कह सकतीं कि अच्छा लगा. हुंह, घर की मुरगी दाल बराबर,’’ दीपकजी के यह कहने पर प्रभा मौन रही.

अपनी खीझ मिटाने के लिए घर आ कर दीपकजी फौरन बच्चों के कमरे में गए. चीखते हुए टीवी की आवाज पहले धीमी की, फिर बच्चों को सिलसिलेवार विदाई समारोह के बारे में बताने लगे, ‘‘अपनी मां से पूछो, कितना शानदार विदाई समारोह था. अपनी पूरी नौकरी में मैं ने इतना सम्मान किसी के लिए नहीं देखा.’’

‘‘पापाजी, आप महान हैं,’’ कहते हुए बेटे ने नाटकीय मुद्रा में झक कर पिता का अभिवादन किया. ‘‘दुनिया कहती है, ऐसा पिता सब को मिले, पर मैं कहती हूं ऐसा पिता किसी को न मिले. हां,  इस मामले में मैं पक्की स्वार्थी हूं,’’ बेटी ने पापा  के गले में बांहें डालते  हुए कहा.

तीनों सफलता के मद में ?म रहे थे. एक प्रभा ही थी, उदास, गुमसुम. उन तीनों के सामने आने वाले कल के लिए कोई प्रश्न नहीं था. प्रभा के पास अनगिनत सवाल थे. उन सवालों की ओर से दीपकजी का बेफिक्र होना उसे बेहद अखरता था. दीपकजी की अलमस्त तबीयत के कारण प्रभा की सहेलियां उन्हें साधुमहात्माओं की श्रेणी में रखती थीं, जबकि प्रभा उन्हें गैरजिम्मेदार मानती थी.

सच था, ऐसे व्यक्ति को साधु ही बने रहना था. परिवार बसाने का उन के लिए कोई मतलब ही नहीं था. अपने बच्चों के भविष्य से उन का दूरदूर तक कोई वास्ता न था.बच्चे देर से हुए, उस पर पढ़ाईलिखाई से जैसे उन्हें बैर था. विभा हाईस्कूल परीक्षा की 3 डंडियों का सगर्व बखान करती थी. विकास हायर सैकंडरी की सीढि़यां 2 बार लुढ़क कर बड़ी मुश्किल से तीसरी बार चढ़ पाया. महल्ले के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का इनाम पा कर उस की ख्वाहिशें पंख लगा कर उड़ने लगी थीं. एक तरह से जिद कर के ही प्रभा ने उसे आईटीआई करने हेतु भेजा कि पहले पढ़ लो, फिर जो जी चाहे करना.

पढ़ने के बाद भी उस के विचार नहीं बदले. वह दिनभर न जाने कौनकौन से नाटकों की रूपरेखा तैयार करता रहता. अपने बालों को वह नितनए प्रचलित हीरो की स्टाइल में कटवाता. बेढंगी, दुबलीपतली काया पर न फबने वाले कपड़े सिलवाता और दिनभर मटरगश्ती करता. उस में एक अच्छी बात जरूर थी कि घर की या पड़ोस की कोई भी चीज बिगड़ जाए, फौरन उसे ठीक कर के ही दम लेता. चाहे वह साइकिल हो या टीवी, शुरू से ही उसे बिगड़ी चीजें सुधारने में दिलचस्पी थी. उस की यही रुचि देख कर ही तो प्रभा ने उसे तकनीकी प्रशिक्षण दिलवाया था.

‘खबरदार, जो मेरे बच्चों पर कभी हाथ उठाया,’ उन्होंने कड़क कर कहा था.विभा उन की गोद में सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी थी. दोनों ने मिल कर प्रभा को ही अपराधी के कठघरे में खड़ा कर दिया.

प्रभा ने सिलाई में डिप्लोमा लिया था. सो सिलाई की क्लास घर पर चलाने लगी. पासपड़ोस की औरतें, लड़कियां सीखने आतीं. कितना चाहा कि विभा भी उस के पास बैठ कर सीखे परंतु उसे सिवा टीवी और सस्ते, घटिया किस्म के उपन्यासों के और कुछ नहीं सूझता था. पिता के अंधे प्यार ने बच्चों को सिवा दिशाहीनता के और कुछ नहीं दिया था.

ऐसे व्यक्ति को आज वक्ता लोग महामानव, महामना न जाने क्याक्या कह गए.प्रभा की बहनें और सहेलियां उसे देख कर प्रभा की सराहना करतीं. मातापिता तो ऐसा दामाद पा कर पूरी तरह संतुष्ट थे. प्रभा यदि कोई शिकायत करने लगती तो मां उसे फौरन टोक देतीं, ‘रहने दे, रहने दे, उन के तो मुंह में मानो जबान ही नहीं है, तब भी उन में नुक्स निकाल रही है. तेरे पिताजी, याद है, तुम लोगों के बचपन में क्या हुआ करते थे? उन के गुस्से से तुम बच्चे तो क्या, मैं तक थरथर कांपने लगती थी. घर में उन के आते ही सन्नाटा छा जाता. कोई भी मांग उन के तेवर देख कर ही उन के सामने से हट जाती. तू तो बहुत सुखी है. दामादजी ने तु?ो पूरी स्वतंत्रता दे रखी है. बाजार से सामान लाना, घर का हिसाबकिताब, सब तेरे जिम्मे है. बच्चों को तो वे कितना प्यार करते हैं, बच्चे पिता से दोस्त की तरह बातें करते हैं. और क्या चाहिए भला?’

प्रभा चुप हो जाती. कहना चाहती कि मैं पिताजी के गुस्से का थोड़ा सा हिस्सा उन के व्यक्तित्व में भी देखना चाहती हूं जिस से ये ताड़ सरीखे बड़े होते बच्चे अपनी जिम्मेदारी समझ पाएं, लेकिन यह सब मां की दृष्टि में व्यर्थ की बातें थीं.

पति के कोमल हृदय का परिचय वह तभी पा चुकी थी जब उन का पूर्ण परिचय होना अभी बाकी था. शादी हुए अभी 15 दिन ही हुए थे कि प्रभा को तेज बुखार हो गया. दीपकजी उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रख रहे थे, तभी उन की पड़ोसिन के पेट में दर्द उठने लगा. उस की सास दौड़ीदौड़ी आई.

यह जान कर कि पड़ोसी उस समय औफिस के काम से दौरे पर गए हुए हैं, दीपकजी एक क्षण भी गंवाए बिना फौरन सासबहू को अस्पताल ले गए. प्रभा की तरफ उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा. घर का दरवाजा भी बंद करने का उन्हें ध्यान न रहा. कराहती प्रभा ने उठ कर स्वयं ही दरवाजा बंद किया और समय देख कर दवा निगलती रही. ऐसी हालत में उस ने किस तरह अपनी तीमारदारी स्वयं ही की, उसे आज तक याद है.

उधर, दीपकजी भागभाग कर पड़ोसिन के लिए दवाइयां ला रहे थे. समय से पूर्व हुए प्रसव के इस जटिल केस को सफलतापूर्वक निबटा कर बेटा पैदा होने के बाद डाक्टर साहब उन्हें ही पिता बनने की बधाई देने लगे. घर आ कर जब हंसतेहंसते दीपकजी उसे यह प्रसंग सुना रहे थे, प्रभा की आंखों में स्वयं की अवहेलना के आंसू थे.

प्रभा के प्रथम प्रसव के समय जनाब नदारद थे, अपने बीमार दोस्त के सिरहाने बैठे उसे फलों का रस पिला रहे थे. दीपकजी पड़ोस की भाभियों में खासे लोकप्रिय थे, ‘भाईसाहब, आज घर में सब्जी नहीं आ पाई.’ ‘अरे, तो क्या हुआ, हमारे फ्रिज से मनचाही सब्जी ले जाइए. न हो तो प्रभा बना देगी. पकीपकाई ही ले जाइए.’

‘भाईसाहब, यह बिजली का बिल…’ कोई दूसरी कह देती. ‘बन्नू के स्कूल की फीस…’ ‘गैस खत्म हो गई है…’ ‘पिताजी की पैंशन का रुका हुआ काम…’ पचासों सवालों का एक ही जवाब था, ‘दीपकजी.’ ‘‘कितने फुर्तीले हैं दीपकजी, हमारे पति तो इतने आलसी हैं, दिनभर पलंग तोड़ते रहेंगे. कोई काम उन से नहीं होता. छुट्टी के दिन ताश की मंडली जमा लेंगे, लेकिन भाईसाहब की बात ही अलग है.’’

बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 4: क्या यश को अपना पाई मानसी

तुम बहुत अच्छे और सच्चे इंसान हो… अपना यह फैसला बदलने का दुख मुझे हमेशा रहेगा. बिट्टू नहीं जानता, सुधांशु की बातों में आ कर उस ने किस इंसान को खो दिया है. आई एम सौरी, यश.’’ मानसी धीरे से बोली.

यश ने एक ठंडी सांस ली. वह सिर झकाए बैठा था, ‘‘बिट्टू से मैं ने बहुत प्यार किया था. मुझे उस में अपना बचपन नजर आता था. फिर तुम से मिला. तुम मेरे लिए बहुत खास हो. इतनी खास कि मैं सारा जीवन तुम्हारा इंतजार कर सकता हूं और करूंगा भी क्योंकि मैं अपने दिल से मजबूर हूं. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद यही करता.’’

मानसी के लिए अब वहां रुकना मुश्किल हो रहा था. दोनों की आंखों के कोने नम होने लगे थे और बिछड़ने का पल तो यों भी कष्ट देने वाला होता ही है और बिछड़ना भी वह कि जिस में फिर मिलने की कोई उम्मीद ही न हो.

यह फैसला मानसी के लिए आसान तो नहीं था. कहीं दिल कराहा था, यादों ने हलचल मचाई थी, आंखें रातदिन रोई थीं तब कहीं जा कर यह फैसला हुआ था.

मानसी घर पहुंची तो बिट्टू ने उस की लाल आंखों और उतरे चेहरे को बड़े ध्यान से देखा, लेकिन वह तेजी से अपने कमरे में चली गई.

1 हफ्ते बाद मानसी के पापा ने बताया कि यश अपना सारा बिजनैस बेच कर हमेशा के लिए कनाडा चला गया. वह आज उन से मिलने आया था. मानसी ने नोट किया बिट्टू यह सुन कर काफी रिलैक्स हो गया था.

फिर मानसी का जीवन बहुत सूना हो गया. वह अपने काम में व्यस्त रहती. बिट्टू का व्यवहार बदल गया था. अब वह उस से हंसनेबोलने की कोशिश करता. लेकिन मानसी का दिल जैसे मर गया था. पतझड़ तो बहुत चुपके से उस के जीवन में आ गया था. दिन बेहद उदास बीतने लगे. वह बहुत अकेलेपन की शिकार थी. उसे लगता यश उसे बहुत याद करता होगा. फोन की हर घंटी उसे चौंका देती.

एक दिन जब बिट्टू ने कहा कि वह अपनी छुट्टियां अपने पापा के साथ अमेरिका में बिताना चाहता है तो उस ने अपने जवान होते बेटे को जाने से नहीं रोका. 2 महीने की जगह वह इस बार 1 महीने में ही वापस लौट गया, लेकिन इस बार उस का मूड अपने पापा की वजह से बहुत खराब था. उस के पापा ने एक अमीर विधवा अंगरेज औरत से तीसरी शादी कर ली थी. इस बार सुधांशु ने बिट्टू को भी खास लिफ्ट नहीं दी थी. अब की बार वह बहुत डिस्टर्ब था. अब वह धीरेधीरे अपनी नजरों से चीजों को देखने और समझने लगा था. काफी समय बीत गया. मानसी के मम्मीपापा भी नहीं रहे थे. घर में दोनों मांबेटा ही रहते थे.

एक दिन सुधांशु का फोन आया तो मानसी ने बिट्टू को फोन पर चिल्लाते हुए सुना, ‘‘मैं आप को अच्छी तरह जान गया हूं. आप के लिए पैसे से बढ़ कर कुछ नहीं है. अब आप मुझे गलत गाइड नहीं कर सकते. आज के बाद मुझे फोन मत करना,’’ कह कर उस ने गुस्से से रिसीवर

रख दिया.

मानसी ने यह सब सुना तो उस का दिल बहुत दिनों बाद कुछ हलका हुआ.

बिट्टू एकदम से बड़ा हो गया था. नानानानी की मृत्यु के बाद वह काफी अपसैट सा रहता. अपना खाली समय वह मानसी के साथ बिताता. उसे अब मानसी की चिंता रहने लगी थी.

एक दिन वह चुपचाप मां की गोद में सिर रख कर लेट गया, बोला, ‘‘मम्मी, आप ने मेरे लिए बहुत त्याग किया है पता नहीं मैं कभी इस त्याग के बदले में कुछ कर पाऊंगा भी या नहीं.’’

मानसी को उस पर प्यार आ गया. उस के जख्म भी हरे होने लगे, ‘‘बेकार की बातें मत मत सोचो, चलो, सो जाओ.’’

मानसी अपने कमरे में आ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. कई बार दिल जिद्दी बच्चे की तरह एडि़यां रगड़रगड़ कर रोने लगता तो ऐसे समय में उसे कौन चुप कराए?

कुछ दिनों बाद मानसी औफिस से लौटी तो बिट्टू ने उसे देखते ही कहा, ‘‘मम्मी, कल मेरा एक दोस्त लंच पर आ रहा है. आप बहुत अच्छी तरह तैयार होना. सुंदर सी साड़ी पहनना,’’ और फिर उस के गले में बांहें डाल कर प्यार करने लगा तो मानसी को हंसी आ गई.

अगले दिन रविवार था. उस के दोस्त को 1 बजे जाना था. अचानक बिट्टू को कुछ चीजें लाना याद आया तो वह अभी आया कह कर बाजार चला गया. दरवाजे की घंटी बजी तो मानसी बिट्टू के दोस्त को देख कर खड़ी की खड़ी रह गई. कई सालों का लंबा समय उन दोनों के बीच आ गया था. मानसी अपलक यश को निहार रही थी और यश मानसी को.

मानसी के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

यश ने उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर बैठाया और बड़े प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘मेरे दोस्त ने फोन कर के मुझे बुलाया या तो मुझे तो आना ही था. मैं ने जिसे अपना बिजनैस दिया था उसी से बिट्टू ने मेरा फोन नंबर ले कर मुझे फोन किया. वह कल मुझे लेने एयरपोर्ट आया था. मेरे गले लग कर बहुत रोया. बहुत बदल गया है. बारबार माफी मांग रहा था.’’

तभी बिट्टू आ गया. उस के चेहरे पर बच्चों जैसा भोलापन और खुशी थी. यश

बोला, ‘‘देखो मानी, मेरे दोस्त का कद अब मेरे जितना हो गया है.’’

बिट्टू आगे बढ़ा और मानसी के घुटनों पर हाथ रखता हुआ नीचे बैठ गया और बोला, ‘‘मम्मी, कई दिनों से अंकल की याद आ रही

थी. अंकल के साथ जो समय बिताया था सब याद आ रहा था. एक फैसला आज से 5 साल पहले आप ने मेरे कारण किया था तो एक

फैसला क्या मैं आप के बारे में नहीं कर सकता? मम्मी, यश अंकल सचमुच मेरे बैस्ट फ्रैंड हैं. देखो, मेरे एक फोन करने पर आ गए. मैं ने अंकल से फोन पर इतना ही कहा था कि

अंकल, लौट आइए, मुझे आप की जरूरत है. हैं न, मम्मी अंकल अच्छे?’’ और अचानक बिट्टू ने मानसी का हाथ पकड़ कर उठा दिया और यश को भी पास लाते हुए बोला, ‘‘मम्मी, हम तीनों साथसाथ कितने अच्छे लग रहे हैं’’ और फिर तीनों हंस दिए. तीनों को लग रहा था अब खुशियों ने दस्तक दे दी है.

ड्राय स्किन के लिए अच्छा फेस मिस्ट कौनसा है?

सवाल-

मेरी उम्र 20 वर्ष है. मैं ने एक फेस मिस्ट के बारे में बहुत सुना है. मेरी स्किन ड्राई है. मेरे लिए कौन सा फेस मिस्ट अच्छा रहेगा? क्या मैं फेस मिस्ट घर में भी बना सकती हूं?

जवाब-

फेस मिस्ट स्किन को मौइस्चराइज करता है. मार्केट में बहुत तरह के फेस मिस्ट मिलते हैं. फेस मिस्ट को फेस पर स्प्रे करने से आप हमेशा फ्रैश फील करती हैं. आप चाहें तो घर में भी हर स्किन के लिए फेस मिस्ट बना सकती हैं. आप की स्किन ड्राई है तो आप को स्पैशली गरमियों के लिए रोज और जैस्मिन को मिला कर फेस मिस्ट बनाना चाहिए.

आप कुछ गुलाब की पत्तियां और कुछ जैस्मिन के फूल ले लें. इन दोनों को रात में भिगो दें. सुबह उबालें. जब पानी यह एकचौथाई रह जाए तो आप का फेस मिस्ट तैयार है. इस को छान लें और किसी स्प्रे बोतल में भर दे. इस को आप फ्रिज में रख दें. जब भी आप को फ्रैश होने की जरूरत लगे आप इस फेस मिस्ट को फेस पर स्प्रे करें और सूखने दें. आप को ठंडक महसूस होगी. फ्रैशनैस भी आएगी.

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गरमी के मौसम में आप अपनी स्किन को कूल व रिफ्रैश फील देने की कोशिश करती हैं क्योंकि चिलचिलाती गरमी के कारण स्किन की रंगत फीकी पड़ जाती है, स्किन ड्राईनैस की समस्या का भी सामना करना पड़ता है. ऐसे में फेस मिस्ट स्किन को हाइड्रेट, कूल व फ्रैश रखती है.

तो आइए जानते हैं कि आप किस तरह से फेस मिस्ट का चयन करें ताकि आप की स्किन को उस का फायदा मिले:

फेस मिस्ट है क्या

असल में फेस मिस्ट एक तरह का स्प्रे होता है जो ऐंटीऔक्सीडैंट्स, विटामिंस, एक्सट्रैक्ट्स व ऐसैंशियल औयल्स में रिच होने के कारण स्किन को ढेरों फायदे पहुंचाने का काम करता है. यह स्किन को पूरा दिन हाइड्रेट रख कर आप को फील गुड करवाता है. लेकिन इस का पूरा लाभ लेने के लिए फेस मिस्ट को हमेशा क्लीनिंग और मौइस्चराइजिंग स्टैप के बीच में इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि साबुन, फेसवाश ऐल्कलाइन होते हैं. ऐसे में फेस मिस्ट स्किन के पीएच लैवल को रीबैलेंस करने में मदद करता है.

फेस मिस्ट मिनटों में लाएं चेहरे पर ग्लो

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छोड़ दें ये 5 आदतें अगर चाहती हैं ज्यादा सैलरी

ये बात सच है कि सैलरी चाहे जितनी भी क्यों न मिले, हमेशा कम ही लगती है. लेकिन अगर आपको यह वाकई लगता है कि आपकी प्रोडक्ट‍िविटी कम होने के कारण आपकी सैलरी नहीं बढ़ पा रही है तो हम यहां आपको बता रहे हैं कि किस तरह आप अपनी कुछ आदतों से तौबा कर अपनी प्रोडक्ट‍िविटी बढ़ा सकती हैं और अच्छा सैलरी पैकेज पा सकती हैं…

इनसे खत्म होती है ‘क्रीएटिविटी’

बुरी आदतों पर ‘सेल्फ कंट्रोल’ होना बहुत ज़रूरी है वरना वो आपकी ‘क्रीएटिविटी’ को खत्म कर देती हैं और साथ ही आपके परफॉर्मेंस को दबा देती हैं. मिनेसोटा की एक यूनिवर्सिटी में हुए एक शोध के दौरान ये पाया कि जिन लोगों में सेल्फ-कंट्रोल होता है वो उन लोगों के मुकाबले ज्यादा खुश रहते हैं जिनमें नहीं होता. इसलिए सेल्फ कंट्रोल बढ़ाएं और इन आदतों छोड़ दें…

छोड़ दीजिए ये 5 बुरी आदतें..

1. बेड पर फोन, टैबलेट या लैपटॉप इस्तेमाल करना

रात में सोते समय बेड पर फोन या लैपटॉप का इस्तेमाल करना आपके लिए बहुत हानिकारक साबित हो सकता है. फोन या लैपटॉप से निकलने वाले ‘वेवलेंग्थ ब्लुलाईट’ नींद, मूड, और एनर्जी को काफी नुकसान पहुचाते हैं, जो आपकी उत्पादकता को सीधे-सीधे प्रभावित करती हैं.

2. हमेशा इंटरनेट सर्फिंग

किसी भी काम में एकाग्रता बनाने के लिए हमें लगभग 15 मिनट लगते हैं. लेकिन जब आप ये एकाग्रता बना लेती हैं तो आपका दिमाग ‘फोकस’ करने कि क्षमता को हासिल कर लेता है. लेकिन लगातार ‘नेट-सर्फिंग’ हमारे इस एकाग्रता को अस्तव्यस्त करता है और दिमाग को अशांत कर देता है.

3. मुश्किल कामों को टालना

जब आप सुबह उठती हैं तो आपका दिमाग फ्रेश रहता है. उस वक्त आपको दिन का सबसे कठिन काम कर लेना चाहिए. क्योंकि सुबह आप एनर्जी से भरी होती हैं. अगर आप उस काम को शाम तक के लिए टालती रहेंगी तो आप उसे अच्छी तरह नहीं कर पाएंगी, क्योंकि तब तक आप थक चुकी होंगी.

4. अलार्म को ‘स्नूज’ न करें

जब आप रात में अलार्म लगा कर सोती हैं, तो कहीं न कहीं आपका दिमाग खुद को पहले से ही तैयार लेता है कि आपको सुबह कितने बजे उठना है. इसलिए आप कभी-कभी अलार्म बजने के ठीक पहले उठ जाती हैं. लेकिन जब आप ‘स्नूज’ बटन दबा के दोबारा सो जाती हैं और देर से थके और मदहोश से उठती हैं, तब तक आपके दिमाग की सजगता खो जाती है.

5.मल्टीटास्किंग’ होना हानिकारक

‘मल्टीटास्किंग’ होना आपकी प्रोडक्टिविटी को पूरी तरह से खत्म कर देता है. स्टैंनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के मुताबिक जो लोग ‘मल्टीटास्किंग’ होते हैं वो कम ‘प्रोडक्टिव’ होते हैं. एक समय पर एक ही काम करने वाले लोग ज्यादा प्रोडक्ट‍िव होते हैं. इसलिए एक समय में एक ही काम करें. काम का बोझ ज्यादा हो या कम, एक-एक कर पूरा करें.

जाहिर है आप प्रोडक्ट‍िव होंगी तो आपकी सैलरी पर भी इसका असर दिखना शुरू हो जाएगा.

डिलिवरी के बाद वजन घटाएं ऐसे

बच्चे को जन्म देने के बाद महिला के लिए सब से बड़ी चुनौती होती है अपना वजन कम करना. गर्भावस्था में पेट और कूल्हों का साइज बढ़ जाता है. डिलिवरी के बाद पहले वाली शेप में आने के लिए महिला को बहुत मेहनत करनी पड़ती है.

डिलिवरी के 3 से 6 महीने बाद महिला व्यायाम कर सकती है, लेकिन जब तक वह बच्चे को दूध पिला रही हो तब तक उसे वेट लिफ्टिंग और पुशअप्स नहीं करने चाहिए. उसे किसी भी तरह की डाइटिंग या व्यायाम शुरू करने से पहले डाक्टर से जरूर सलाह लेनी चाहिए.

स्तनपान:

बच्चे को दूध पिलाने से वजन आसानी से कम होता है, क्योंकि शरीर में दूध बनने के दौरान कैलोरीज बर्न हो जाती हैं. यही कारण है कि वे महिलाएं जो बच्चे को दूध पिलाती हैं, उन का वजन जल्दी कम होता है.

पर्याप्त मात्रा में पानी पीना:

अगर आप अपनी पतली कमर फिर से वापस देखना चाहती हैं तो रोजाना कम से कम 3 लिटर पानी पीएं. पानी पीने से शरीर के टौक्सिस बाहर निकल जाते हैं और शरीर में फ्लूइड बैलेंस बना रहता है. इस के अलावा पानी पीने से शरीर का अतिरिक्त फैट भी निकल जाता है.

कुनकुने पानी में नीबू का रस और शहद मिला कर लें:

रोज सुबह खाली पेट इसे पीएं. इस से शरीर के टौक्सिंस निकल जाते हैं और फैट भी बर्न होता है. हर बार खाना खाने से पहले भी इस का सेवन कर सकती हैं. ऐसा करने से पाचन ठीक रहेगा और फैट जल्दी बर्न होगा.

ग्रीन टी पीएं:

ग्रीन टी में ऐसे बहुत सारे अवयव होते हैं जो फैट बर्निंग की प्रक्रिया को तेज करते हैं. इस में मौजूद मुख्य तत्व ऐंटीऔक्सीडैंट होता है, जो मैटाबोलिज्म को तेज करता है. इसलिए दूध और चीनी वाली चाय के बजाय ग्रीन टी बेहतर विकल्प है. यह न केवल सेहतमंद है, बल्कि वजन पर नियंत्रण रखने में भी मदद करती है.

सेहतमंद खाद्य पदार्थ चुनें:

प्रोसैस्ड फूड से बचें. ज्यादा कैलोरी वाले खा-पदार्थों का सेवन भी न करें जैसे कैंडी, चौकलेट व बेक की गई चीजें जैसे कुकीज, केक, फास्ट फूड तथा तला हुआ भोजन जैसे फ्राइज और चिकन नगेट्स. प्रोसैस्ड फूड में सब से ज्यादा कैलोरीज और चीनी होती है, जो वजन बढ़ाती है. ऐसे भोजन में उचित पोषक पदार्थों की कमी होती है. इन के बजाय सेहतमंद विकल्प चुनें जैसे मौसमी फल, सलाद, घर में बना सूप और फलों का रस आदि.

इन घरेलू उपायों के अलावा भरपूर मात्रा में सब्जियों और फलों का सेवन करने से पेट की चरबी कम होती है. अगर आप बच्चे को दूध पिला रही हैं, तो आप को रोजाना 1800 से 2,200 कैलोरीज का सेवन करना चाहिए ताकि आप के बच्चे को उचित पोषण मिले.

अगर आप स्तनपान नहीं करा रही हैं तो आप को कम से कम 1200 कैलोरीज का सेवन करना चाहिए. रोजाना 3 बार कम कैलोरी युक्त खा-पदार्थों का सेवन करें. इस के लिए आप को प्रोसैस्ड फूड के बजाय प्राकृतिक खा-पदार्थ चुनने चाहिए.

नैचुरल ब्रेकफास्ट चुनें जैसे ओट्स, दलिया या अंडों के सफेद हिस्से से बना आमलेट. दोपहर के भोजन में साबूत अनाज की चपाती, बेक्ड चिकन या कौटेज चीज, हरा सलाद और फल खाएं. रात के भोजन की बात करें तो आप की आधी प्लेट फलों और सब्ज्यों से भरी होनी चाहिए. एक चौथाई प्लेट में प्रोटीन और एकचौथाई प्लेट में साबूत अनाज होना चाहिए.

सेहतमंद आहार के साथसाथ नियमित व्यायाम करना भी बहुत जरूरी है.

भोजन के बाद तेज चलें:

खाना खाने के बाद 15 से 20 मिनट तेज चलें. इस से पेट की चरबी कम होगी. ऐसा जरूरत से ज्यादा न करें. बच्चे को स्ट्रौलर में लिटा कर सैर कर सकती हैं. यह व्यायाम शुरू करने का सब से अच्छा तरीका है.

ऐब्स क्रंच:

पेट की चरबी कम करने का सब से अच्छा तरीका है ऐब्स क्रंच. इस से पेट की पेशियों में मौजूद कैलोरीज बर्न होंगी और पेट की चरबी कम होने लगेगी.

लोअर एब्डौमिनल स्लाइड:

यह व्यायाम बच्चे के जन्म के बाद नई मां के लिए अच्छा है. खासतौर पर अगर बच्चे का जन्म सीसैक्शन से हुआ हो, क्योंकि सर्जरी के बाद पेट के निचले हिस्से की पेशियों पर असर पड़ता है. यह व्यायाम उन्हीं पेशियों पर काम करता है.

पीठ के बल लेट जाएं, पैर जमीन पर फैला दें, बाजुएं साइड में सीधी रखें और हथेलियां नीचे की ओर हों. अपनी पेट की पेशियों को सिकोड़ते हुए दाईं टांग को बाहर की ओर स्लाइड करें. फिर सीधा कर यही प्रक्रिया बाईं टांग से दोहराएं. दोनों टांगों से इसे 5 बार दोहराएं.

पैल्विक टिल्ट:

अपनी पेट की पेशियों को सिकोड़ें. इन का इस्तेमाल करते हुए अपने कूल्हों को आगे की ओर मोड़ें. ऐसा आप लेट कर, बैठ कर या खड़े हो कर कर सकती हैं. इसे रोजाना जितनी बार हो सके करें.

नौकासन:

नौकासान के कई फायदे हैं. इस से पेट की पेशियां टोन हो जाती हैं, पाचन में सुधार आता है तथा रीढ़ की हड्डी और कूल्हे भी मजबूत होते हैं.

टांगों को उठाएं:

अपनी टांगों को 30 डिग्री, 45 डिग्री और 60 डिग्री पर उठाएं. हर अवस्था में 5 सैकंड्स के लिए रुकें. इस से पेट की पेशियां मजबूत होती हैं.

उस्थासन:

उस्थासन के कई फायदे हैं. इस से कूल्हों की चरबी कम होती है, कूल्हों और कंधों में खिंचाव आता है.

मौडीफाइड कोबरा:

अपनी हथेलियों को फर्श पर टिकाएं. कंधे और कुहनियां अपनी पसलियों के साथ टिके हों. अपने सिर और गर्दन को ऊपर उठाएं, इतना भी नहीं कि पीठ पर खिंचाव पड़ने लगे. अब ऐब्स को अंदर की ओर ऐसे खींचें जैसे आप अपने पेल्विस को फर्श से उठाने की कोशिश कर रही हों.

अन्य तरीके

पोस्टपार्टम सपोर्ट बैल्ट:

यह बैल्ट पेट की पेशियों को टाइट करती है. इस से आप का पोस्चर ठीक रहता है, साथ ही पीठ के दर्द में भी आराम मिलता है.

बैली रैप इस्तेमाल करें:

बैली रैप या मैटरनिटी बैल्ट आप की ऐब्स को टक कर देती है, जिस से आप के यूट्रस और पेट का हिस्सा अपनी सामान्य शेप में आने लगता है. यह पेट की चरबी कम करने का सब से पुराना तरीका है. इस से पीठ के दर्द में भी आराम मिलता है.

फुल बौडी मसाज करवाएं:

मसाज शरीर के लिए बेहद फायदेमंद होती है. इस से आप बिना जिम गए बिना पसीना बहाए वजन कम कर सकती हैं. इस तरह से मसाज करवाएं कि आप के पेट की चरबी पर असर हो. इस से फैट शरीर में बराबर फैल जाएगा, मैटाबोलिज्म में सुधार होगा और आप को चरबी से छुटकारा मिलेगा.

-डा. रीनू जैन

कंसलटैंट ओब्स्टेट्रिक्स ऐंड गाइनेकोलौजी, जेपी हौस्पिटल, नोएडा

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