Hindi Story: आखिर कौन था वह आदमी जिस की खातिर निशा बेचैन हो उठती थी? उस की बेचैनी उस दिन और बढ़ गई जब उस ने एक शाम छत से किसी बेजान शरीर को श्मशान की तरफ ले जाते देखा…
‘‘अभी तक तो जीवन में गति ही नहीं थी, फिर अब यह जीवन इतनी तेजी से क्यों भाग रहा है? सालों बाद ऐसा क्यों महसूस हो रहा है?’’ आधी रात बीत चुकी थी और घड़ी की टिक… टिक… टिक… करती आवाज.
चारों तरफ कमरे में अंधेरा था, मगर लैंप की रोशनी में घड़ी को निहारती निशा की आंखें थकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. ये आंखें शायद कह रही थीं कि अगर यह घड़ी रुक जाए तो शायद समय भी ठहर जाए, फिर तो जिंदगी अपनेआप ठहर जाएगी. इसी इंतजार में निशा अभी तक के जीवन का तोलमोल करती न जाने कब तक बैठी सोचती रही कि कभी इतना एकाकीपन न था मगर आज?
औफिस के छोटे से उस कैबिन में 7 लोग बैठते थे. उंगलियां कंप्यूटर पर काम करती थीं, मगर हर समय हंसीमजाक और ठहाके. निशा भी उन में से एक थी, मगर क्या मजाल जो चेहरे पर कभी मुसकराहट की एक छोटी सी भी लकीर दिखाई दे जाए. उधर से कमैंट मिलते, ‘‘हंसने में भी टैक्स लगता है क्या?’’
निशा जैसी थी वैसी ही थी. कोई परिवर्तन नहीं, सालों से एक ही जीवन, एक ही रूटीन, एक ही व्यवहार, कहीं कोई बदलाव नहीं. न कोई इच्छा, न आकांक्षा, न जीवन के प्रति कोई चाहत. जीवन यों ही दौड़ता चला जा रहा था, मगर रोकने का कोई प्रयास भी नहीं, सिर्फ चलते रहो, गतिहीन जीवन का एहसास लिए. न पीछे मुड़ने की चाहत, न सामने देखने की इच्छा…यही थी निशा.
उन 7 लोगों में 3 महिलाएं और 3 पुरुष थे. 7वीं निशा थी, जिस के बारे में यह कहा जा सकता था रक्तमांस से बना एक पुतला जिसमें जान डाल दी गई थी. इसलिए उसे स्त्री या पुरुष न कह कर इंसान कहा जाए तो बेहतर होगा.
निशा की बगल वाली कुरसी पर नेहा बैठती थी. हर समय हंसीमजाक. निशा उस में शामिल नहीं होती, मगर विरोध भी नहीं करती. सभी की बातें सुनती जवाब भी देती, लेकिन अपनी उसी धीरगंभीर मुद्रा में.
नेहा हमेशा निशा को टोकती, ‘‘निशा, तुम शादी क्यों नहीं करती?’’
निशा अपनी उसी चिरपरिचित मुद्रा में जवाब देती. ‘‘कोई मिले तब तो करूं.’’
तब नेहा गुस्से में कहती. ‘‘क्यों इतनी बड़ी दुनिया में पुरुषों की कमी है क्या? कहो तो मैं बात करूं?’’
‘‘मगर मेरे लायक तो इस दुनिया में कोई है ही नहीं. मेरे खयाल से अभी उस ने जन्म ही नहीं लिया है.’’
‘‘इतना घमंड,’’ नेहा ऊंचे स्वर में बोलती.
‘‘इस में घमंड की क्या बात है, जो सही है वही कहा है मैं ने,’’ निशा सहज भाव से कहती.
‘‘इस धरती पर तो तुम्हारा कोई है ही नहीं. कहो तो दूसरे ग्रह से किसी एलियन को पकड़ कर लाती हूं, उसी से कर लेना,’’ नेहा मुंह बना कर कहती.
‘‘अगर मेरे लायक होगा तो उसी से कर लूंगी,’’ निशा सहज हो कर कहती.
एमबीए करने के बाद निशा को इस मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते हुए 10 वर्ष गुजर गए थे. उस के साथ काम करने वाले कितने लोग आए और कंपनी छोड़ कर चले गए. मगर निशा ने इस कंपनी को नहीं छोड़ा. इस बडी सी दुनिया में निशा के जीवन के 2 ही आधार थे- एक उस की यह कंपनी और दूसरा वह घर जहां वह पेइंगगैस्ट थी या यों कहें तो जीवन जीने का बहाना.
गोपाल मजाक में कभी निशा को कहते, ‘‘निशाजी आप की खूबसूरती पर तरस आता है.’’
‘‘क्यों?’’ निशा मौनिटर की तरफ देखती हुई पूछती.
‘‘इस खूबसूरती को छूने वाली आंखें कहां हैं?’’ गोपाल हंसते हुए कहते.
‘‘क्यों? घर से ले कर चौराहों, सड़कों और औफिस तक कितनी आंखें पीछा करती हैं. आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?’’ निशा मुंह बनाते हुए कहती.
‘‘ये सारी आंखें तो सिर्फ आप के बाहरी सौंदर्य को छूती हैं, मगर इस सौंदर्य के पीछे छिपी आत्मा को छूने वाला कहां है?’’ गोपाल पूछते.
‘‘वह इस दुनिया में नहीं आया है,’’ निशा सहज भाव से कहती.
जीवन की शुरुआत होती है, फिर मंथर गति से चलती हुई अंत तक पहुंचती है. शुरुआत फिर अंत. मगर अब तक किस ने जाना था कि निशा के जीवन की शुरुआत कब हुई और कब अंत हो गया.
निशा के जीवन के बारे में सभी कहते, ‘‘निशा तुम ने अपना जीवन समाप्त कर लिया.’’
कठोर धरातल पर चलती निशा का हृदय भी उसी एहसास के तले दब चुका था. संवेदनाओं से ऊपर उठ चुकी निशा बड़ी सहज हो कर बोल उठती. ‘‘मगर मेरे जीवन की तो अभी शुरुआत ही नहीं हुई है.’’
समय और जीवन दोनों में होड़ लगी थी, जीत किस की होगी, यह न समय को पता था ना जीवन को. समय को एहसास था वह आगे निकल चुका है, जीवन पीछे है. जीवन को भी यही लगता कि वह आगे है, समय पीछे है. मगर वास्तविकता यह थी कि दोनों साथसाथ चल रहे थे. निशा की जिंदगी इसी एहसास के साथ चल रही थी. हर रोज वह घर से निकलती गलियों को पार करती सड़क पर आती और सड़क पर खड़ी उन इमारतों को देखती जो सालों से यों ही खड़ी थीं. उन के पास से कितने लोग आए और गुजर गए. आनेजाने का सिलसिला सालों से चलता आ रहा था. मगर इमारते वहीं की वहीं थीं.
कभीकभी निशा सिहर उठती उन को देख कर. वे बोलती प्रतीत होतीं. निशा सुनने का प्रयास करती और एक दिन उस ने सुना.
‘‘कुछ पल ठहर जाओ,’’ घबराई हुई निशा के कदम और तेज हो गए.
आज सुबह जैसे ही निशा ने अपने कैबिन में प्रवेश किया, उसे ठहाकों की आवाज मिली. देखा, गोपाल हंस रहे थे, साथ में सारे सहयोगी भी.
‘‘आइए निशाजी आप का स्वागत है,’’ गोपाल ने कहा.
‘‘क्या बात है मेरी प्रमोशन हो गई क्या?’’ निशा ने भी उसी अंदाज में कहा.
‘‘प्रमोशन तो नहीं, मगर आप की बगल वाली कुरसी का पड़ोसी बदल गया है, अब इस कमरे में हम 7 की जगह 8 हो गए हैं,’’ गोपाल ने कहा.
‘‘कौन है वह?’’ निशा ने पूछा.
‘‘धैर्य रखिए, जल्द ही आप का पड़ोसी आएगा,’’ रमेश ने मुंह बनाते हुए कहा.
गोपाल चुप थे. निशा ने तिरछी नजरों से मिस्टर रमेश की तरफ देखा और व्यंग्य से मुसकराती हुई बोली, ‘‘रमेश मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, मगर देख रही हूं, आप जरूर अनमने से हो गए हैं.’’
समय मुसकरा रहा था.
‘‘घमंड मत करो निशा, प्रारब्ध को कैसे टालोगी?’’ आज वही सवेरा था,
वही औफिस, वही लोग, मगर निशा अनमनी हो चुकी थी. उस की बगल वाली कुरसी पर बैठा वह विचित्र मानव कुछ इस तरह का था कि न बैठने का शऊर, न बात करने की तमीज देख कर लगता मानो किसी सर्कस से भागा जोकर हो. जोरजोर से बोलना, जोरजोर से हंसना, हर किसी से जबरदस्ती बात करना. उस का बेढंगा व्यक्तित्व निशा को अनमना कर चुका था. पूरे औफिस में वह हंसी का पात्र था.
निशा उसे देख कर क्रोधित हो उठती, ‘‘इस के साथ मैं काम कैसे कर पाऊंगी?’’
निशा गंभीर थी. उस के दिमाग में एक बार इस्तीफे का भी खयाल आया. मगर फिर निशा ने अपनेआप को समझे लिया कि मुझे इस से क्या? यह जिस तरह का है, अधिक दिन टिकेगा नहीं.
उस के बेढंगेपन ने सभी को परेशान कर दिया था, जिन में निशा कुछ अधिक ही थी. उस की अजीब आदतें थीं, न किसी की बात मानता था, न किसी का कहा हुआ करता था. अच्छा या बुरा अपनी मरजी का मालिक था. सभी उस से बातें करते, सिर्फ निशा को छोड़ कर.
वक्त बितता रहा, जीवन चलता रहा. सभी थे वह भी था. मगर एक बात किसी ने महसूस नहीं की कि हर क्षण थोड़ाथोड़ा माहौल बदल रहा है. मगर यह कैसा बदलाव था? समय भी असमंजस में था. वह सभी से कुछ भी बोल जाता, मगर एक निशा ही थी, जिस के पास आते ही उस का व्यक्तित्व बदल जाता था.
महसूस निशा ने भी किया था, मगर उस की चेतना ने उसे नकार दिया था. उस की बातें सभी को खिजाती थीं, मगर आज हंसाने लगी थीं. वह ‘एक’ कहीं हावी तो नहीं हो रहा था, मगर किस कारण से?
आज सुबह ही औफिस में उस की किसी से कहासुनी हो गई, माहौल गरम था. सभी की प्रतिक्रिया उस के प्रति नकारात्मक थी. जो सीनियर थे उन्होंने उसे डांटा, जो जूनियर थे वे पीठ पीछे कानाफूसी कर रहे थे और जो साथ वाले थे उस के सामने उस की आलोचना कर रहे थे. उस माहौल में निशा अनमनी हो चुकी थी. उस से रहा नहीं गया क्योंकि सभी का कार्य इस से प्रभावित हो रहा था. वह उठी और पहली बार जोर से चिल्लाई, ‘‘विशाल तुम इधर आओ.’’
वह करीब आया., ‘‘यह क्या तमाशा हो
रहा है?’’
वह और करीब आया. बहुत करीब. निशा ने उस की आंखें देखी और चौंक पड़ी.
गुस्सा, उत्तेजना कहां थे सब? समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. निशा विशाल को समझती रही. विशाल खामोश अपलक देखता, सुनता रहा. आज निशा अपनी उम्र से कहीं अधिक बड़ी थी और विशाल उम्र से बहुत छोटा, एक मासूम बच्चा.
रात्रि का दूसरा पहर बीत चुका था, मगर निशा की आंखों में नींद नहीं थी. ‘वे आंखें’ और जिंदगी मानो घुलमिल गई थी. क्या था उन आंखों में? क्षोभ, विक्षोभ, ग्लानि या उस से अलग कुछ और? भविष्य का कोई संकेत? ‘वे आंखें’ और निशा का हृदय…तपते रेत पर जल की बूंदें थीं या बंजर जमीन को जल ने भिगोने की कोशिश की थी? चौंक पडी निशा, झटके से बिस्तर से उठ खड़ी हुई, ‘‘नहीं,’’ और फिर आईने के पास खड़ी हो गई, ‘‘नहीं,’’ फिर से वही आवाज.
‘यह मैं नहीं हूं. यह निशा नहीं है यह हो ही नहीं सकती,’ कब तक वह बड़बड़ाती रही, उसे स्वयं याद नहीं था. पल गुजर गए. अब निशा बिलकुल शांत थी. द्वंद्व निद्रा से छोटा पड़ गया था. औफिस का वही माहौल था जो पहले था. ऐसा नहीं कहा जा सकता था क्योंकि आज तो वह था मगर, निशा. वह तो निश्चल, स्थिर थी. उस दिन निशा की उंगलियां कीबोर्ड पर और आंखें स्क्रीन पर थीं. तभी आवाज आई, ‘‘मैम, जरा यह पेपर डिस्कस करना है.’’
ठहरे हुए जल में मानो किसी ने पत्थर फेंका हो. निशा ने नजरें उठाईं. करीब खड़ा वह पूछ रहा था. निशा ने कुछ नहीं कहा सिर्फ सहमति में सिर हिलाया. वह बोलता रहा, वह सुनती रही. वह जा चुका था, मगर वह किसी के हृदय को विकल कर चुका था.
आईने के सामने खड़ी निशा स्तब्ध थी, ‘‘यह मैं नहीं कोई और है,’’ अपने चांदी से चमकते बालों को वह बड़े जतन से काले बालों के भीतर छिपा रही थी. ‘‘यह क्या देख रही हूं मैं? जो देख रही हूं, महसूस कर रही हूं क्या वह सच है? विचित्र एहसास है यह. आज स्वयं में स्फुरण महसूस कर रही हूं. एक अजीब शक्ति, उत्साह, नयापन… यह जिंदगी के प्रति मेरा नजरिया क्यों बदल रहा है? क्या कारण हो सकता है.’’
निशा ने स्वयं को ढूंढ़ना चाहा तो सकपका गई. सामने वही आंखें थीं, वही मासूम सा चेहरा. ‘‘नहीं’’ रोमरोम चीत्कार कर उठा था. वह झटके से उठ खडी हुई.
विशाल की खिलखिलाहट पूरे औफिस में गूंज रही थी. वही बेसिरपैर की बातें जिन का निशा कभी विरोध किया करती थी, किंतु आज वह मुसकान में बदल चुकी थी. निशा विशाल से खुल चुकी थी. अब केंचुल के भीतर छटपटाती जिंदगी बाहर निकल चुकी थी. वह हंसती, उस से बातें करती, उस से लड़ती झगड़ती और जब कभी विशाल उस के बहुत करीब आता तो चाह कर भी दूरी नहीं बना पाती. उस के बाहरी व्यक्तित्व से अलग हट कर उस के भीतर कुछ पढ़ने का प्रयास निशा के व्यक्तित्व को बदल रहा था.
हर पल, हर क्षण उस की आंखें उसे देखतीं, कुछ ढूंढ़तीं, खोजतीं, उस के हृदय को टटोलतीं और जब वह आंखें बंद करती तो स्तब्ध रह जाती, ‘‘कितना स्वच्छ, कितना निर्मल, कितना पवित्र. फिर बाहरी आवरण ऐसा क्यों है?’’ लंच का समय होता और विशाल की व्यक्तिगत बातें शुरू हो जातीं, फिर तो ठहाकों से पूरा माहौल गूंज उठता.
विशाल मुंह बनाते हुए बोल रहा था, ‘‘यह कंप्यूटर की मगजमारी मुझे रास नहीं आती, वे भी क्या दिन थे जब मैं नानी के यहां गांव में कभी नहर के किनारे, कभी आम के पेड़ पर तो कभी खेतों में होता था और मजा तो तब आता जब दूसरे के बगीचे से आम चुराता था.’’
गोपाल ने पूछा, ‘‘आम चुराते हुए कभी आप पकड़ में आए या नहीं?’’
कई बार विशाल ने कहा, ‘‘एक बार मैं आम चुरा कर भाग रहा था कि खेत वाले ने मुझे देख लिया. फिर क्या था, डंडा ले कर जो वह मेरे पीछे दौड़ा मैं आगेआगे और वह पीछेपीछे. फिर तो नहर, खेत, बगीचा, पोखर पार करता हुआ घर पहुंचा तो नानी वहां पहले से ही डंडा ले कर बैठी हुई थीं.’’
विशाल का इस प्रकार लगातार बोलना और लोगों का सुनना, औफिस की दिनचर्या बन चुकी थी. कहीं हंसनेहंसाने का दौर चल रहा था तो कहीं भीतर द्वंद्व चल रहा था. निशा हर पल एक युद्ध लड़ रही थी.
‘‘आखिर उस में क्या है? क्यों मैं खिंची चली जा रही हूं. नहीं. मुझे उस से दूरी बनानी होगी,’’ उस की यह दृढ़ता विशाल के आते ही न जाने कहां चली जाती.
उस दिन निशा अनमनी हो कर अपनी कुरसी पर बैठी कंप्यूटर पर काम कर रही थी. तभी विशाल तूफान की तरह आया, ‘‘क्या निशाजी जब देखो तब काम, छोडि़ए भी आइए थोड़ा गप्प की जाए.’’
निशा झल्ला गई, ‘‘मुझे परेशान मत करो, बहुत से काम करने हैं.’’
‘‘मैं करने दूंगा तभी तो करेंगी,’’ और फिर विशाल ने निशा के हाथ से फाइल ले ली और उस के दोनों हाथों को पकड़ कर खींचते हुए उसे टैरेस तक ले गया, ‘‘देखिए, इस खुली हवा में आप की तबीयत खुश हो जाएगी.’’
निशा सिहर उठी थी और अनजाने में उस के मुंह से निकल पड़ा. ‘‘मगर मेरी खुशी से तुम्हें क्या मतलब?’’
‘‘मतलब है तभी तो यहां लाया हूं,’’ विशाल ने कहा.
‘‘क्या?’’ चौंक उठी निशा.
‘‘पहले आप मेरे करीब आइए,’’ विशाल ने बडे सहज भाव से कहा.
निशा की आंखें फैल गईं.
‘‘मैं ने कहा न आप पहले मेरे करीब आइए,’’ कह कर विशाल स्वयं ही निशा के बहुत करीब आ गया.
सांसें बुरी तरह निशा को स्पर्श करने लगी थीं. निशा ने अपनी आंखें बंद कर लीं. जिंदगी को इतने करीब से उस ने कहां देखा था. निशा का रोमरोम झंकृत हो चला था. सांसें तेज चल रही थीं. अभी तक उस का हाथ विशाल के हाथों में ही था. विशाल उस के और करीब आया. उस के होंठ निशा के गालों को स्पर्श कर रहे थे. यथार्थ को भूल चुकी थी निशा. मदहोशी छाने लगी थी. आज उस के पांव तले जमीन नहीं थी. अपने अस्तित्व को भूल चुकी थी वह. स्वयं से बाहर निकलना चाहती थी, मगर वर्षों से अपने आसपास उस ने जो बेडियां कस ली थीं. उन्हें तोड़ना आसान नहीं था. आज आत्मा में छटपटाहट थी. शरीर भी आत्मा का साथ दे रहा था.
कांप रही थी निशा. जीवन… सिर्फ जीवन… इतना खूबसूरत? इतनी गहराई? इतनी संवेदनशीलता?
इस अनुभूति का तो उसे ज्ञान ही नहीं था. आपा खो बैठी निशा और विशाल को अपनी बांहों में ले लिया. उस की पूरी दुनिया उस की बांहों के इर्दगिर्द समा चुकी थी. निशा की बांहें कसती जा रही थीं मानो आज उस की आत्मा और पूरा शरीर विशाल में समा जाना चाहता था.
संवेदना के इस सागर में गहरी उतरती गई निशा. न डूबने का भय, न इस सागर से ऊपर निकलने की लालसा. डूबती गई निशा. आज वह सागर की गहराई से भी आगे निकलना चाहती थी कि अचानक निशा के कानों में विशाल की आवाज गूंजी मानो बहुत दूर से आ रही हो, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो निशा जी.’’
और फिर पीछे से औफिस की पूरी मंडली आ पहुंची. निशा की तंद्रा भंग हो गई, ‘‘यह क्या? कहां थी वह?’’ उसे संभलने में समय लगा मगर विशाल ने उसे संभाल लिया. सभी खिलाखिला रहे थे.
निशा असहज हो उठी. तभी गोपाल बोल उठे, ‘‘निशाजी,’’ जो हम लोग आज तक नहीं कर पाए वह विशाल ने कर दिखाया. आप की फाइल में से आप के जन्मदिन के बारे में पता किया गया. आप ने तो कभी नहीं बताया था.’’
निशा की आंखें बंद थीं. रात काफी बीत चुकी थी. बाहर सन्नाटा था, मगर भीतर तूफान था, ‘‘यह क्या किया मैं ने? वह मैं तो नहीं थी? निशा नहीं थी, वह तो कोई और ही थी?’’
अचानक उसे महसूस हुआ पास ही कोई खड़ा है. उस ने आंखें खोलीं, ‘‘अरे सामने तो निशा खड़ी है. फिर मैं कौन हूं?’’ सामने वाली निशा हंसी.
‘‘केंचुल से बाहर निकलो निशा. कब तक उस रूखे से बेजान, जीवनहीन केंचुल में बंद रहोगी? उतारो उसे. देखो उस साधारण से व्यक्तित्व को जिस ने तुम्हें जीवन जीने पर मजबूर कर दिया है. एक झटके में उठ बैठी निशा.
‘‘इस दुनिया में किसी की ताकत नहीं है जो निशा को बदल दे. यह तुम नहीं तुम्हारा वह बेजान सा केंचुल बोल रहा है जिस में तुम कैद हो. उधर से आवाज आई. तुम उस पल के बारे में बोल रही हो न. मैं लज्जित उस पल से,’’ निशा ने नजरें झकाते हुए कहा.
‘‘लज्जित क्यों हो? तुम्हारा अपने व्यक्तित्व पर जो गुरूर था वह
टूट गया या फिर एक साधारण से व्यक्ति ने तुम्हारी आत्मा को झकझर कर रख दिया है या फिर डरती हो उस दुनिया में जाने से जहां जाने में तुम्हें देर हो चुकी है या फिर इसी बेजान से जीवन जीने में तुम्हें आनंद आने लगा है या फिर आदत हो गई है?’’ उधर से सवाल पूछे गए.
‘‘इतने सवाल?’’ निशा की आंखें फैल गईं.
‘‘अपनेआप को ढूंढ़ो निशा. अपने भीतर झंको.’’
‘‘जीवन के इस मोड़ पर?’’
‘‘जीवन जीने के लिए किसी मोड़ को नहीं देखते हैं. कुछ लमहे जीने के लिए, उन लमहों को अंजाम देने की मत सोचो, पल को जीना सीखो.’’
निशा बदल चुकी थी, लेकिन पूरी तरह नहीं. केंचुल अब भी था. प्रत्येक क्षण वह उस में से झंकने की कोशिश अवश्य कर रही थी. परंतु इस बदलाव को किसी ने देखा नहीं. उम्र के इस मोड़ पर जिंदगी बदल रही थी. क्षणक्षण जीने की कोशिश हो रही थी. किंतु बेडि़यां तो अब भी थीं. कहीं द्वंद्व था तो कहीं दायरे सीमित थे. इन सब के बीच झलता निशा का अहं.
निशा जब भी विशाल को देखती एक अजीब कशिश महसूस करती. विचित्र कशमकश थी. एक तरफ उस की जुदाई बरदाश्त नहीं कर पाती, दूसरी तरफ उस की नजदीकियों को भी स्वीकार नहीं कर पाती थी. आंखें बंद करती तो आह निकलती. यह कैसी दुविधा है? कैसा द्वंद्व? यह जिंदगी तो मेरी नहीं, फिर मैं इसे कैसे ढो रही हूं? किंतु मैं इसे ढो कहां रही हूं? मैं तो इस में जी रही हूं, एक अद्भुत एहसास के साथ जिस में असीम गहराई है, जहां डूबने का न डर है, न किनारे आने की ख्वाहिश. आज खामोशियों में शोर है, अकेलेपन में भीड़ का एहसास है. यह कहां आ गई मैं जीवन के इस मोड़ पर?’’ और घबरा कर उस ने आंखें खोल दीं.
विचित्र क्षण था वह, दूरिया भी थीं, सन्नाटा भी था, मन में हलचल
थी, आवेग था मगर, ऊपर से सबकुछ शांत और रूखा था. क्षण बीत रहे थे कि अचानक आशा की एक किरण दिखाई पड़ी. दूर से एक औटो आता दिखा. निशा आगे बढ़ी, औटो को रोका और उस में बैठने ही वाली थी कि अचानक अचेतन ने पुकारा, ‘‘पीछे मुड़ कर देखो निशा,’’ और निशा पलटी. औटो की रोशनी में उस ने विशाल को देखा और स्तब्ध रह गई.
‘‘वही आंखें,’’ उस के पांव स्वत: ही पीछे लौट पड़े. औटो आगे बढ़ गया. वह विशाल के पास गई और कहा, ‘‘बहुत जिद्दी हो तुम, चलो घर छोड़ दो.’’
घर पहुंच कर निशा ने कहा, ‘‘घर के अंदर नहीं चलोगे तुम?’’
‘‘नहीं मैम बहुत देर हो चुकी है.’’
‘‘क्यों सड़क पर तुम्हें देर नहीं हो रही थी? आओ मेरे साथ.’’
विशाल कुछ नहीं बोला. आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुपचाप उस के पीछे चल पड़ा. दरवाजे पर पहुंच कर निशा ठिठक गई, फिर हंस पड़ी और बोली, ‘‘जानते हो मेरे भीतर की इस दुनिया में पहली बार किसी को प्रवेश मिला है.’’
चौंक गया विशाल, ‘‘क्यों मैडम?’’
‘‘मैं ने वह अधिकार किसी को नहीं दिया है.’’
‘‘क्यों?’’ विशाल ने पूछा.
‘‘कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी,’’ निशा ने सहज होते हुए कहा.
‘‘तो क्या आज आवश्यकता है?’’ विशाल ने सवाल किया.
निशा ने पलट कर देखा, विशाल मुसकरा रहा था. वह कुछ नहीं बोली. वह भी चुप रहा. फिर खामोशी.
दीवारें दोनों को आंखें फाड़े देख रही थीं. कहीं द्वंद्व था, कहीं उफान था, अंतआर्त्मा की पुकार थी, पलपल उत्तेजना थी, जिंदगी जीवन चाहती थी मगर बाहरी आवरण इतना सख्त था कि बड़ी बेरहमी से इस ने सभी को कुचल डाला.
‘‘यहां घुटन हो रही है. चलो विशाल टैरेस की खुली हवा में चलते हैं,’’ और झटके से उठ खड़ी हुई निशा.
विशाल पीछेपीछे चल पड़ा. टैरेस पर आते ही निशा सहज हो गई.
विशाल ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मैम, आप की दुनिया में प्रवेश के लिए क्षमा चाहता हूं, आप अपने बारे में कुछ बताएंगी?’’
‘‘मेरे होश में आने से पहले मेरे मातापिता का देहांत हो चुका था. चाचाचाची के यहां पलीबढ़ी, परंतु जिस दिन अपने पैरों पर खड़ी हुई उन्होंने भी दुनिया छोड़ दी.’’
झटके भर में निशा ने अपनी दुनिया में विशाल को प्रवेश दे दिया था, किंतु
एक झटके में उस ने इस द्वार को बंद भी कर दिया.
‘‘विशाल, तुम अपने घर से इतना दूर रहते हो, घर की याद नहीं आती है?’’
‘‘आदत हो गई है मैम,’’ उस ने दो टूक जवाब दिया.
‘‘छुट्टियों में जा रहे हो?’’ नहीं वह बोला.
‘‘क्यों?’’ निशा चौंकी.
‘‘क्योंकि वहां किसी को मेरी जरूरत नहीं.’’
‘‘क्यों?’’ उस ने फिर पूछा.
‘‘मुझे कोई पसंद नहीं करता मैम.’’ ‘‘तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? दुनिया का कोई मांबाप ऐसा नहीं होता,’’ निशा ने कहा.
‘‘पता नहीं. मैं तो घर का अर्थ जानता ही नहीं. बचपन से होस्टल में रहा हूं. छुट्टियों में कभी घर जाता तो खुश होने के बदले हजार नसीहतें मिलतीं. मेरी आदतें खराब हैं या मेरा व्यवहार बुरा है.’’
‘‘तुम ने कारण ढूंढ़ने की कोशिश की है?’’ निशा ने पूछा.
‘‘हां, वह इसलिए कि मुझ में कभी स्थिरता नहीं रही, बचपन में मैं बहुत शरारती था. मेरी शरारतें जब सीमाएं पार करने लगीं तो मुझे होस्टल में डाल दिया गया. मेरे शरारती होने का कारण मेरा संयुक्त परिवार था. मेरे मातापिता परिवार में ही उलझे रह गए और मैं अपनी मरजी का मालिक बनता गया,’’ कह कर विशाल चुप हो गया.
‘‘नौकरी तो अब तुम करने लगे हो,’’ मेरे खयाल से अब तो तुम्हारे
परिवार वाले तुम से संतुष्ट होंगे?’’ निशा ने पूछा.
‘‘नहीं, अब भी मैं स्थिर नहीं हूं. अभी तक मैं ने कई नौकरियां छोड़ी हैं. जो मिलता है उस से संतुष्ट नहीं हो पाता. किस चीज की तलाश है यह भी नहीं जान पाया. आज न मैं अपनेआप से संतुष्ट हूं, न दूसरे मुझ से,’’ कह कर विशाल चुप हो गया.
फिर एक लंबी चुप्पी. निशा ने फिर चुप्पी तोड़ी, ‘‘हमेशा अपनी कमियों को दूसरों के सामने क्यों उछालते हो, फिर हंसी के पात्र बनते हो.’’
‘‘बनने दीजिए, इस से कहीं न कहीं मुझे संतोष मिलता है,’’ विशाल ने कहा.
‘‘एक बात कहूं विशाल, तुम में हजारों गुण हैं, फिर भी जो तुम में मैं ने देखा, महसूस किया वह आज तक मैं ने कहीं नहीं पाया. जानते हो वह क्या है? तुम्हारा पारदर्शी व्यक्तित्व. अपने अवगुणों को इतनी आसानी से स्वीकार कर लेना, इगो तुम्हारे पास है ही नहीं, जो भीतर से वह बाहर से भी, बिलकुल स्वच्छ. तुम्हारी यही बातें मेरे हृदय को स्पर्श करती हैं,’’ निशा ने कहा.
विशाल ने निशा की तरफ देखा और कहा, ‘‘आप मेरे बारे में इतना सोचती हैं मैम?’’
‘‘क्या करूं तुम ने मजबूर जो कर दिया है,’’ निशा हंसी.
‘‘नहीं मैम, मजबूर तो आप ने मुझे कर दिया है. आप ने मुझे बदलने पर मजबूर कर दिया है. मुझे यह एहसास दिलाया है कि कोई है जो मेरी भावनाओं को समझता है. ऐसा मेरे जीवन में पहली बार हुआ है. मेरी सारी जिद आप के सामने खत्म हो जाती है. स्वयं को पहचानने लगा हूं आप के कारण.’’
निशा ने विशाल की तरफ देखा, मगर कहा कुछ नहीं. आज आंखें बोल रही थी.
‘‘आज तुम स्वयं को पहचान रहे हो विशाल, मगर यहां तो किसी जिंदगी को पूरे जीवन का एहसास मिल गया है. आज मेरे वश में होता तो इस पूरे पल को रोक लेती,’’ निशा ने आंखें बंद कर लीं.
विशाल उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं जा रहा हूं मैम.’’
अनायास निशा के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘नहीं, ऐसा मत कहो. इस एहसास से मुझे बाहर मत निकालो. ठहर जाओ. इस पल को समेट तो लूं. पता नहीं कब बिखर जाए.’’
विशाल चौंका, ‘‘निशाजी…’’
‘‘मत कहो निशाजी, भूल जाओ इस निशा को, मैं कैद हूं इस निशा के भीतर, मुझे बाहर आने दो. मेरी मदद करो विशाल. मेरी मदद करो,’’ और निशा विशाल के कदमों के पास बैठ गई. नियति आंखें फाड़े देख रही कि यह क्या. क्या है यह.
जीवनदान के लिए विनती की जा रही है या प्रेम की भीख मांगी जा रही है? कहां गया वह पूरा व्यक्तित्व, अस्तित्व? आज वनदेवी पौधों के सामने गुहार लगा रही थी या सृष्टि के रचयिता सृष्टि के सामने रो रहे थे? या फिर प्रकृति मानव के सामने सिर झकाए खड़ी थी?
समय स्तब्ध था और केंचुल दूर कहीं निढाल पड़ा था. मगर केंचुल के भीतर का जीवन अब बिलकुल शांत था. न कोई छटपटाहट, न कोई तडप. वह कैद से जो बाहर निकल पड़ा था.
समय बीत रहा था. एक जीव स्तब्ध था, दूसरा बिलकुल शांत और फिर निशा
के जीवन का वह क्षण आया. विशाल झका और निशा को ऊपर उठाया, पल बीता और निशा विशाल की बांहों में थी. इस अभूतपूर्व एहसास के बीच डूबतीउतरती निशा आज निशा से ऊपर निकल चुकी थी.
‘‘प्रेम करते हो मुझ से?’’ केंचुल के बाहर के जीव ने सवाल किया.
‘‘सम्मान करता हूं,’’ विशाल की आवाज थी.
फिर तो सवालजवाब का सिलसिला चल पड़ा.
‘‘मेरी भावनाओं को समझते हो?’’
‘‘मैं उन भावनाओं की कद्र करता हूं.’’
‘‘तुम ने मुझे प्रेम का एहसास दिलाया है विशाल.’’
‘‘नहीं, मैं सिर्फ जीवन को आप के करीब लाया है.’’
‘‘तुम ने मेरे व्यक्तित्व को बदल कर रख दिया है.’’
‘‘कहां. मैं ने तो सिर्फ आवरण उतारा है.’’
‘‘तुम्हारे कारण मैं अपनेआप को पहचान पाई हूं.’’
‘‘यह तो मेरे साथ हुआ है मैम. आप ने मुझे मेरी पहचान दिलाई है, कद्र करता हूं मैं आपकी.’’
‘‘सचमुच मेरी तरफ तुम्हारा यह झकाव है या मेरा भ्रम है ?’’
‘‘यह झकाव नहीं है मैम. मेरी अटूट श्रद्धा है आप के लिए.’’
‘‘तुम ने मुझ में क्या देखा विशाल?’’
‘‘वही जो मुझे अपने मातापिता, अपने परिवार से न मिला.’’
‘‘तुम्हारे कारण मेरे जीवन की शुरुआत हुई.’’
‘‘आप के कारण मेरे जीवन की तलाश
खत्म हुई.’’
कुदरत निशा को मुंह फाड़े देख रही थी. यह निशा को क्या हो गया है? यह अपने द्वारा किए गए सिर्फ सवालों को ही सुन रही है या फिर विशाल के उत्तरों को भी सुन रही है? स्वयं में मदहोश निशा को न समय का ज्ञान था, न सामने वाला क्या कह रहा है उस का. वह तो स्वयं को कह रही थी और स्वयं को ही सुन रही थी. बांहों के घेरे अभी उस के इर्दगिर्द थे. चेतनाशून्य हो चुकी निशा कब तक उन घेरों में जीवन का एहसास लेती रही वह स्वयं न जान पाई.
रात्रि का दूसरा पहर… विशाल अब जा चुका था, मगर एहसास अब भी थे. जीवन भी
विचित्र खेल खेलता है. कब किस को किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दे, पता नहीं चलता. इतनी कू्ररता क्यों? वह यह क्यों नहीं देखता कि इस मोड़ पर भीड़ है या सुनसान है, पांव थके हैं या चलने को आतुर, अकेला चल पाएगा या किसी हमकदम की जरूरत है? निशा ने बिना सोचेसमझे जिस जीवन को जीना शुरू किया था, उस जीवन की राह कहां तक जाती है उसे क्या पता था.
आज निशा यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि काश यह समय ठहर जाए, इस की गति थम जाए, मैं इसे करीब से देख तो लूं, इस की गहराइयों में जी तो लूं. पता नहीं फिर मिले न मिले.
आज तो ऐसा प्रतीत होता था मानो जीवन की गति इतनी तेज हो गई है कि उस के साथ चलने में उसके पांव थकने लगे थे, मगर भीतर ऊर्जा थी, स्फूर्ति थी.
अचानक निशा की तंद्रा टूटी, घड़ी के सामने बैठी वह बहुत देर से अपने अब तक के जीवन के पन्नों को पलट रही थी.
‘‘3 जीवन तो मैं ने जी लिए. परिवार के साथ, स्वयं के साथ और अब विशाल. चौथा जीवन कैसा होगा.?’’ झट से उठ पड़ी निशा.
दिन की शुरुआत विशाल की खिलखिलाहट से हुई, हंसतेहंसते उस ने जोरजोर से गाना शुरू किया.
निशा चिल्लाई, ‘‘तुम्हारी बेसिरपैर की हरकतें फिर शुरू हो गईं.’’
‘‘मैम, सामने देखिए न क्या नजारा है.’’
निशा ने कैबिन की खिड़की से झंका, ‘‘सामने तो लड़की बैठी है.’’
‘‘वही तो.’’ विशाल उछल रहा था.
‘‘यों बंदर की तरह क्या उछल रहे हो? कभी लड़की नहीं देखी क्या?’’
‘‘देखी है, मगर यह तो चीज ही कुछ और है.’’
‘‘चीज का क्या मतलब?’’ निशा फिर चिल्लाई, ‘‘तुम जानते हो इस तरह की भाषा मुझे पसंद नहीं. शर्म नहीं आती है तुम्हें?’’
‘‘सौरी मैम,’’ विशाल ने नजरें झका लीं. नजरें तो झक गईं, मगर समय की आंखें फैल गई.
अप्रतिम सौंदर्य की मूर्ति चित्रा को जो भी देखता, उस की नजरें थम सी जाती. चित्रा अब इस नए परिवार की सदस्य थी. उस ने औफिस जौइन कर लिया था. गौरवर्ण की चित्रा मनमोहिनी थी. मीठे रस घोलती अपनी बातों से सब का मन मोह लिया था उस ने. सभी उस से बातें करने, उस के संपर्क में रहने को आतुर रहते. विचित्र बात तो यह थी कि विशाल उन में सब से आगे था.
समय एक बार फिर करवट बदल रहा था. चित्रा ने बहुत कम समय में ही पूरे माहौल को बदल कर रख दिया. विशाल और चित्रा की खिलखिलाहट पूरे औफिस में गूंजती. लंच के समय में 2 ही केंद्रबिंदु होते चित्रा और विशाल. दोनों में लगातार नोकझंक चलती, कोई कम नहीं था. शुरू में तो सिर्फ मजाक था, मगर यह मजाक गंभीर बनता जा रहा था.
‘‘मैम देखिए चित्रा की आदतें मुझे अच्छी नहीं लगती,’’ विशाल हर पल कोई न कोई शिकायत ले कर निशा के पास आता रहता. वह उसे समझती तो चुप हो जाता.
यह दिनचर्या बन चुकी थी. विशाल के दिन की शुरुआत ही चित्रा से होती. भले ही वह शिकायत, लड़ाई या नोकझंक से शुरू होती. निशा के पास भी बैठता तो उसी की बातें करता. माहौल इतना जल्दी बदल जाएगा, यह किसी ने सोचा भी न था.
उस दिन सुबहसुबह निशा झल्लाई, ‘‘काम की बातें किया करो विशाल, जब देखो तब
चित्रा की बातें ले कर बैठ जाते हो.’’
‘‘मैं क्या करूं मैम, वह मुझ से उलझती रहती है.’’
‘‘तुम उलझने देते हो तभी तो उलझती है और सबों के साथ ऐसा क्यों नहीं करती?’’
‘‘मुझे क्या पता वह ऐसा क्यों करती है?’’ विशाल ने कहा.
‘‘अपनेआप में झंक कर देखो विशाल, जीवन तुम्हारे लिए मजाक है, लेकिन यह मजाक कहीं तुम्हारे लिए गंभीरता का विषय न बन जाए,’’ एक झटके में निशा ने कह तो दिया, मगर उस की बातें कहीं और अंकित हो चुकी थीं.
मोड फिर बदले थे, निशा जिंदगी को छू रही थी, मगर जिंदगी तो उसे स्पर्श करती हुई कहीं और निकल रही थी. एहसास सभी को हो रहे थे, लेकिन निशा अभी तक अनभिज्ञ थी. स्वयं में खोई हुई वह समय से अनजान, उस मंजिल की चाहत में चल पड़ी थी, जिस के पास जाने के रास्ते हैं भी या नहीं यह उसे पता नहीं था या फिर वह जानना ही नहीं चाहती थी?
2 दिन हो गए थे चित्रा नहीं आई थी. अपनेअपने काम में सभी मग्न थे किंतु विशाल… निशा ने उसे सुबह से ही नहीं देखा था. शाम हो चुकी थी, वह उसे ढूंढ़ती हुई बगल वाले कैबिन में गई. देखा कि विशाल शांति से अपना काम कर रहा था. निशा उस के पीछे खड़ी थी, मगर इस सब से अनजान विशाल का मनमस्तिष्क तो कहीं और था.
‘‘क्या बात है विशाल? बड़े गंभीर हो?’’
‘‘कुछ नहीं मैम,’’ बिना पीछे मुड़े ही उस
ने कहा.
निशा वहीं बैठ गई. केंचुल से कोई बाहर निकल रहा था. वह चुहलबाजी के मूड में आ गई. उस ने विशाल को छू कर कहा, ‘‘यह विशाल नहीं है,’’ वह और करीब आई. उस ने विशाल की आंखों को स्पर्श किया, ‘‘ये विशाल की आंखें नहीं है?’’ वह कभी उस की आंखों को स्पर्श करती, कभी होठों को तो कभी उस के बालों को और खिलखिला कर हंसती जाती. यह कौन आ गया? यह मेरा विशाल तो नहीं है?’’
अचानक विशाल पीछे मुड़ा, ‘‘मैम, यह आप को क्या हो गया है?’’
‘‘मुझे कुछ भी नहीं हुआ है, लेकिन तुम्हें जरूर कुछ हो गया है,’’ निशा ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘चलो उठो बहुत देर हो गई है,’’ कहते हुए वह उसे बाहर तक ले आई.
वह कुछ नहीं बोला, सिर झकाए उस के साथ चलता रहा.
‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, तुम मेरे घर चलो.’’
विशाल कुछ नहीं बोला, उस के साथ चल दिया. घर पहुंच कर निशा उसे सहज बनाने की कोशिश में लग गई. मगर वह ज्यों का त्यों बना रहा.
निशा उस के करीब बैठ गई, ‘‘क्या बात है मुझ से नहीं कहोगे?’’
कई बार पूछने के बाद भी विशाल कुछ नहीं बोला तो निशा उठने लगी. अचानक विशाल बच्चों की तरह निशा की गोद में सिर रख कर बिलख पड़ा.
निशा स्तब्ध रह गई, ‘‘यह क्या?’’
‘‘मैम, उस ने मेरे जीवन को बदल कर रख दिया है. मेरी सीधी सी जिंदगी में उथलपुथल मचा दी.’’
‘‘मगर किस ने? कुछ बताओगे?’’ निशा ने चौंकते हुए पूछा.
विशाल फिर चुप हो गया. निशा ने उस के चेहरे को अपनी हाथों में लिया और ऊपर उठाते हुए उस की आंखों में देखा. उस के हाथ कांप रहे थे, आंखों में सैलाब उतर आया था, हृदय में तूफान था, मगर इन सबसे ऊपर स्वयं को सहज बनाते हुए, आवाज में एक अजीव उत्कंठा लिए हुए निशा ने क्षीण स्वर में पूछा, ‘‘किस ने.’’
‘‘चित्रा ने,’’ विशाल उत्तेजित होते हुए बोला.
निशा की आंखें फैल गई.
‘‘उस ने मेरी आत्मा को झकझर दिया है, वह मेरी जिंदगी में तूफान बन कर आई है. मैं उस के बिना नहीं जी सकता, नहीं रह सकता.’’
एकबारगी निशा का पूरा शरीर कांप उठा. विशाल अब बिलकुल शांत था. भीतर की पीड़ा उस ने किसी अपने के सामने जो रख दी थी.
विशाल जा चुका था. अधलेटी निशा आंखें खोले निहार रही थी, परंतु किसे? समय को या फिर स्वयं को? आज जीवन फिर स्तब्ध था, मौन था. आज उसे भी समय का ज्ञान न था. दूर पड़ा केंचुल निशा को बुला रहा था. और निशा… भीतर कुछ टूटा था. उस ने भी महसूस किया था. पर साथसाथ कुछ और महसूस किया था निशा ने. उस टूटन को और फिर उस टूटन के बाद हुए एहसास को. निशा ने करवट बदली.
विचित्र एहसास है, ‘‘इतनी पीड़ा…’’
सुबह हो चुकी थी वही दिनचर्या, किंतु एक खालीपन का एहसास लिए. अब पुरानी दिनचर्या में कुछ और शामिल हो चुका था. शाम को जल्दी घर लौटना, टैरेस में बैठ कर सामने बेजान से पर्वत को देखना और उसी के करीब डूबते सूर्य की लालिमा को निहारना.
शाम ढल चुकी थी, औफिस से 2 पांव बाहर निकले. ये पांव उसी इंसान के थे जहां
शरीर तो था, मगर आत्मा बेजान थी. वही रास्ते, वही मोड़. कुछ भी तो नहीं बदला था, सबकुछ पूर्ववत. पांव ठिठके सामने चौराहा था. आंखें सामने टिकीं. एक रास्ता श्मशान तक जाता था. आंखें पीछे की ओर मुड़ीं और उस ने सोचा, ‘मुझे तो पीछे की ओर लौटना है.’
‘‘अचानक शोर…यह शोर कैसा?’’
‘‘क्या खामोश श्मशान ने शोर किया है?’’ उस ने सामने देखा. श्मशान तो खामोश था. उस ने फिर पीछे देखा. रास्ते भी खामोश थे. फिर यह शोर कहां से. अचानक बाईं ओर उस ने देखा और होठ मुसकुरा दिए. कुदरत ने भी उस मुसकराहट को देखा. उस ने भी मुसकुराना चाहा किंतु.
‘‘यह क्या?’’ उस की तो आंखें नम थीं. इस निशारूपी इंसान की मुसकुराहट बढ़ती गई और यह हंसी में तबदील तब हुई जब वह बरात ठीक श्मशान के रास्ते के सामने से निकल गई.
टैरेस में बैठी निशा बिलकुल सहज थी और बातें कर रही थी मगर किस से. वहां तो कोई भी नहीं था. परंतु उस की बातों को सुना हवाओं ने, डूबते सूर्य ने, बेजान पहाड़ों ने. निशा कह रही थी. उस दिन जीवन कुछ यों लगा:
सूरज की मुसकुराहट तो थी मगर,
चांद की विरह की वेदना लिए हुए.
ओस की बूंदें तो थीं मगर,
क्षणभंगुरता के भय से सिमटी हुईं.
सुबह की हंसती लालिमा तो थी मगर,
शाम की उदास लालिमा का एहसास लिए हुए.
आकाश मुट्ठी में करने को आतुर,
पक्षी उत्साहित तो थे मगर,
धरती पर फिर से लौटने का गम लिए हुए.
मंदिर में घंटियों का शोर तो था मगर,
पत्थर की मूर्तियों की खामोशी लिए हुए.
बरात तो निकली थी मगर,
श्मशान की गलियों से गुजरते हुए.
जीवन सफर के आनंद से विभोर तो था मगर,
मंजिल न मिलने का दर्द लिए हुए.