मेरा शहर मेरा इतिहास

”मेरा शहर मेरा इतिहास” कार्यक्रम का आयोजन इतिहास संस्था द्वारा उत्तर प्रदेश पर्यटन के सहयोग से किया गया. इस कार्यक्रम का उद्घाटन श्री मुकेश कुमार मेश्राम, प्रमुख सचिव, पर्यटन एवं संस्कृति, उत्तर प्रदेश तथा श्री अश्विनी कुमार पाण्डेय, विशेष सचिव, पर्यटन, उत्तर प्रदेश की उपस्थिति में रेजीडेन्सी परिसर, लखनऊ में किया गया.

इस कार्यक्रम में लखनऊ के 10 प्रमुख विद्यालयों के छात्रों द्वारा प्रतिभाग किया गया. इस कार्यक्रम का आयोजन वाराणसी और गोरखपुर में भी किया जाएगा, जिससे उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहरों एवं विरासतों के बारे में आज की युवा पीढ़ी को जागरूक किया जा सकेंगे तथा ऐसे धरोहरों के रख-रखाव हेतु  प्रशिक्षित एवं प्रोत्साहित किए जा सकेंगे .

उत्तर प्रदेश पर्यटन के प्रमुख सचिव श्री मुकेश कुमार मेश्राम ने छात्रों को संबोधित करते हुए विभिन्न प्रकार के पर्यटनों के बारे में उनको जानकारी दी. उन्होंने विद्यार्थियों को प्रदेश के विरासत स्थलों का भ्रमण करने एवं उनसे जुड़ी ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में जानने तथा उनसे सीख लेने का आग्रह किया. यह कार्यक्रम युवाओं मे रुचि बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया और युवा पर्यटन को प्रोत्साहित करेगा.

इतिहास, एक शैक्षिक संस्था है, जो कि देश की विरासतों के बारे में विद्यार्थियो एवं आम जनमानस को जागरूक करने का कार्य करते है. इसी क्रम में उत्तर प्रदेश पर्यटन के सहयोग से लखनऊ में रेजीडेंसी परिसर में “मेरा शहर मेरा इतिहास” कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया.

इतिहास की संस्थापक-निदेशक सुश्री स्मिता वत्स ने “मेरा शहर मेरा इतिहास” कार्यक्रम के उद्देश्य के बारे में बताते हुए कहा कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य छात्रों में अपने शहर के संबंध में गर्व की भावना पैदा करना था. इसके साथ ही साथ धरोहरों से जुड़ेंगे, इतिहास तथा वास्तुकला के माध्यम से गणित जैसे विषयों को सीखने का था.

यह कार्यक्रम विद्यार्थियों को ऐसे स्मारकों और ऐतिहासिक रत्नों को देखने और उनकी सराहना करने के लिए तैयार किया गया है, जो उन शहरों में विराजमान है. लखनऊ शहर के 10% से भी कम छात्रों ने बताया कि रेजीडेंसी की यह उनकी पहली यात्रा थी.

लखनऊ में 15 दिवसीय कार्यक्रम की संरचना विद्यालय में एक ओरियन्टेशन सत्र के साथ शुरू हुई, जिसके बाद बच्चों ने “एक नारा” लेखन प्रतियोगिता में भाग लिया, जो उनके शहर और स्थायी पर्यटन पर केंद्रित था. यह एक अनुभवात्मक शिक्षण मॉड्यूल के साथ समाप्त होता है. इस क्रम में 3 अगस्त को रेजीडेंसी और 4 अगस्त को जरनैल कोठी का भ्रमण करेगें, जहां बच्चे इन स्मारकों के महत्व के बारे में सीखेगें.

दिल वर्सेस दौलत- भाग 3: क्या पूरा हुआ लाली और अबीर का प्यार

मां का यह विकट क्रोध देख लाली सम झ गई थी कि अब अगर कुदरत भी साक्षात आ जाए तो उन्हें इस रिश्ते के लिए मनाना टेढ़ी खीर होगा. मां के इस हठ से वह बेहद परेशान हो उठी. उस का अंतर्मन कह रहा था कि उसे अबीर जैसा सुल झा हुआ, सम झदार लड़का इस जिंदगी में दोबारा मिलना असंभव होगा. आज के समय में उस जैसे सैंसिबल, डीसैंट लड़के बिरले ही मिलते हैं. अबीर जैसे लड़के को खोना उस की जिंदगी की सब से बड़ी भूल होगी.

लेकिन मां का क्या करे वह? वे एक बार जो ठान लेती हैं वह उसे कर के ही रहती हैं. वह बचपन से देखती आई है, उन की जिद के सामने आज तक कोई नहीं जीत पाया. तो ऐसी हालत में वह क्या करे? पिछली मुलाकात में ही तो अबीर के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं उस ने. दोनों ने एकदूसरे के प्रति अपनी प्रेमिल भावनाएं व्यक्त की थीं.

पिछली बार अबीर के उस के कहे गए प्रेमसिक्त स्वर उस के कानों में गूंजने लगे, ‘लाली माय लव, तुम ने मेरी आधीअधूरी जिंदगी को कंप्लीट कर दिया. दुलहन बन जल्दी से मेरे घर आ जाओ. अब तुम्हारे बिना रहना शीयर टौर्चर लग रहा है.’

क्या करूं क्या न करूं, यह सोचतेसोचते अतीव तनाव से उस के स्नायु तन आए और आंखें सावनभादों के बादलों जैसे बरसने लगीं. अनायास वह अपने मोबाइल स्क्रीन पर अबीर की फोटो देखने लगी और उसे चूम कर अपने सीने से लगा उस ने अपनी आंखें मूंद लीं.

तभी मम्मा उस का दरवाजा पीटने लगीं… ‘‘लाली, दरवाजा खोल बेटा.’’

उस ने दरवाजा खोला. मम्मा कमरे में धड़धड़ाती हुई आईं और उस से बोलीं, ‘‘मैं ने अबीर के पापा को इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. सारा टंटा ही खत्म. हां, अब अबीर का फोनवोन आए, तो उस से तु झे कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं. वह कुछ कहे, तो उसे रिश्ते के लिए साफ इनकार कर देना और कुछ ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं. ले देख, यह एक और लड़के का बायोडाटा आया है तेरे लिए. लड़का खूब हैंडसम है. नामी एमएनसी में सीनियर कंसल्टैंट है. 40 लाख रुपए से ऊपर का ऐनुअल पैकेज है लड़के का. मेरी बिट्टो राज करेगी राज. लड़के वालों की दिल्ली में कई प्रौपर्टीज हैं. रुतबे, दौलत, स्टेटस में हमारी टक्कर का परिवार है. बता, इस लड़के से फोन पर कब बात करेगी?’’

‘‘मम्मा, फिलहाल मेरे सामने किसी लड़के का नाम भी मत लेना. अगर आप ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं दीदी के यहां लंदन चली जाऊंगी. याद रखिएगा, मैं भी आप की बेटी हूं.’’ यह कहते हुए लाली ने मां के कमरे से निकलते ही दरवाजा धड़ाक से बंद कर लिया.

मन में विचारों की उठापटक चल रही थी. अबीर उसे आसमान का चांद लग रहा था जो अब उस की पहुंच से बेहद दूर जा चुका था. क्या करे क्या न करे, कुछ सम झ नहीं आ रहा था.

सारा दिन उस ने खुद से जू झते हुए बेपनाह मायूसी के गहरे कुएं में बिताया. सां झ का धुंधलका होने को आया. वह मन ही मन मना रही थी, काश, कुछ चमत्कार हो जाए और मां किसी तरह इस रिश्ते के लिए मान जाएं. तभी व्हाट्सऐप पर अबीर का मैसेज आया, ‘‘तुम से मिलना चाहता हूं. कब आऊं?’’

उस ने जवाब में लिखा, ‘जल्दी’ और एक आंसू बहाती इमोजी भी मैसेज के साथ उसे पोस्ट कर दी. अबीर का अगला मैसेज एक लाल धड़कते दिल के साथ आया, ‘‘कल सुबह पहुंच रहा हूं. एयरपोर्ट पर मिलना.’’

लाली की वह रात आंखों ही आंखों में कटी. अगली सुबह वह मां को एक बहाना बना एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई.

क्यूपिड के तीर से बंधे दोनों प्रेमी एकदूसरे को देख खुद पर काबू न रख पाए और दोनों की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ ही क्षणों में दोनों संयत हो गए और लाली ने उन दोनों के रिश्ते को ले कर मां के औब्जेक्शंस को विस्तार से अबीर को बताया.

अबीर और लाली दोनों ने इस मुद्दे को ले कर तसल्ली से, संजीदगी से विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब जो कुछ करना है उन दोनों को ही करना होगा.

‘‘लाली, इन परिस्थितियों में अब तुम बताओ कि क्या करना है? तुम्हारी मां हमारी शादी के खिलाफ मोरचाबंदी कर के बैठी हैं. उन्होंने साफसाफ लफ्जों में इस के लिए मेरे पापा से इनकार कर दिया है. तो इस स्थिति में अब मैं किस मुंह से उन से अपनी शादी के लिए कहूं?’’ अबीर ने कहा.

‘‘हां, यह तो तुम सही कह रहे हो. चलो, मैं अपने पापा से इस बारे में बात करती हूं. फिर मैं तुम्हें बताती हूं.’’

‘‘ठीक है, ओके, चलता हूं. बस, यह याद रखना मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं. शायद खुद से भी ज्यादा. अब तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं.’’

लाली ने अपनी पनीली हो आई आंखों से अबीर की तरफ एक फ्लाइंग किस उछाल दिया और फुसफुसाई, ‘हैप्पी एंड सेफ जर्नी माय लव, टेक केयर.’’

लाली एयरपोर्ट से सीधे अपने पापा के औफिस जा पहुंची और उस ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस की बातें सुन पापा ने कहा, ‘‘अगर तुम और अबीर इस विषय में निर्णय ले ही चुके हो तो मैं तुम दोनों के साथ हूं. मैं कल ही अबीर के घर जा कर तुम्हारी मां के इनकार के लिए उन से माफी मांगता हूं और तुम दोनों की शादी की बात पक्की कर देता हूं. इस के बाद ही मैं तुम्हारी मां को अपने ढंग से सम झा लूंगा. निश्चिंत रहो लाली, इस बार तुम्हारी मां को तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी.’’

लाली के पिता ने लाली से किए वादे को पूरा किया. अबीर के घर जा कर उन्होंने अपनी पत्नी के इनकार के लिए उन से हाथ जोड़ कर बच्चों की खुशी का हवाला देते हुए काफी मिन्नतें कर माफी मांगी और उन दोनों की शादी पक्की करने के लिए मिन्नतें कीं.

इस पर अबीर के पिता ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, अबीर के ही मुंह से सुना कि आप लोगों को हमारे इस 2 बैडरूम के फ्लैट को ले कर कुछ उल झन है कि शादी के बाद आप की बेटी इस में कहां रहेगी? आप की परेशानी जायज है, भाईसाहब. तो, मेरा खयाल है कि शादी के बाद दोनों एक अलग फ्लैट में रहें. आखिर बच्चों को भी प्राइवेसी चाहिए होगी. यही उन के लिए सब से अच्छा और व्यावहारिक रहेगा. क्या कहते हैं आप?’’

‘‘बिलकुल ठीक है, जैसा आप उचित सम झें.’’

‘‘तो फिर, दोनों की बात पक्की?’’

‘‘जी बिलकुल,’’ अबीर के पिता ने लाली के पिता को मिठाई खिलाते हुए कहा.

बेटी की शादी उस की इच्छा के अनुरूप तय कर, घर आ कर लाली के पिता ने पत्नी को लाली और अबीर की खुशी के लिए उन की शादी के लिए मान जाने के लिए कहा. लाली ने तो साफसाफ लफ्जों में उन से कह दिया, ‘‘इस बार अगर आप हम दोनों की शादी के लिए नहीं माने तो मैं और अबीर कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’’ और लाली की यह धमकी इस बार काम कर गई. विवश लाली की मां को बेटी और पति के सामने घुटने टेकने पड़े.

आखिरकार, दिल वर्सेस दौलत की जंग में दिल जीत गया और दौलत को मुंह की खानी पड़ी.

अब मैं समझ गई हूं- भाग 1: क्या रिमू के परिवार को समझा पाया अमन

आज हमारे विवाह की 5वीं वर्षगांठ थी. वैवाहिक जीवन के ये 10 वर्ष मेरे लिए किसी चुनौती से कम न थे क्योंकि इन सालों में अपने वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए मैं ने कसर नहीं छोड़ी थी. खुशी इस बात की भी थी कि मैं अपनी पत्नी को भी अपने रंग में ढालने में सफल हो गया था.

इन चंद वर्षों में मैं यह भी समझ गया था कि बचपन में बच्चों को दिए गए संस्कारों को बदलना कितना मुशकिल होता है. आप को बता दूं कि रिमू यानी मेरी पत्नी रीमा मेरी बचपन की मित्र थी. उस से विवाह होना मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी की बात थी. जिस से आप प्यार करते हो उसी को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है.

रीमा मेरा पहला प्यार थी. जब हम एकदूसरे को टूट कर चाहने लगे थे तब हमें स्वयं ही पता नहीं था कि हमारे प्यार का भविष्य क्या होगा परंतु फिर भी चांदनी रात के दूधिया उजाले में एकदूसरे का हाथ थामे हम दोनों घंटों बैठे रहते थे. रीमा की कोयल स्वरूप मधुर वाणी से झरते हुए शब्दरूपी फूलों जैसी उस की बातें मेरा मन मोह  लेती थीं.

तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था, जब रीमा का परिवार हमारे पड़ोस में रहने आया था. उस का घर मेरे घर से 10 कदम की दूरी पर ही था. उस दिन मैं जब कालेज से लौटा तो अपने घर से कुछ दूरी पर सामान से लदा ट्रक खड़ा देख कर चौंक गया था. तेज कदमों से अंदर जा कर मां से पूछा, ‘‘मां, यह सामान किस का है? कौन आया है रहने?’’

‘‘मुझे क्या पता किस का है? तू भी फालतू की बातों में अपना दिमाग खराब मत कर, खाना तैयार है चुपचाप खा ले.’’

कह कर मां अपने काम में व्यस्त हो गई. पर मेरा मन तो न जाने क्यों उस ट्रक में ही उलझ था. सो, मैं अपने कमरे की खिड़की से झंकने लगा. तभी वहां एक कार आ कर रुकी और उस में से पतिपत्नी और 2 बेटियां उतरी थीं. बड़ी बेटी लगभग 20 और छोटी 15 वर्ष की रही होगी.

गोरीचिट्टी, लंबी उस कमसिन नवयुवती को देख कर मैं ने मन ही मन कहा, ‘लगता है कुदरत ने इसे बड़ी ही फुरसत में बनाया है. क्या बला की खूबसूरती पाई है.’

उस के बारे में सोच कर ही मेरा मन सौसौ फुट ऊपर की छलांग लगाने लगा था. उस के बाद तो मेरा युवामन न पढ़ने में लगता और न ही अन्य किसी काम में. खैर, जिंदगी तो जीनी ही थी. अब मैं अकसर अपने कमरे की उस खिड़की पर बैठने लगा था, बस, उस की एक झलक पाने के लिए. कभी तो झलक मिल जाती थी पर कभी पूरे दिन में एक बार भी नहीं.

लगभग एक माह बाद जब मैं अपने कालेज की लाइब्रेरी से बाहर आ रहा था तो अचानक लाइब्रेरी के अंदर आते उसे देखा.  बस, लगा मानो जीवन सफल हो गया. सहसा अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. एक बार फिर उसे घूर कर देखा और आश्वस्त होते ही मैं ने वापस अपने कदम लाइब्रेरी की ओर मोड़ दिए थे. अंदर जा कर उस की बगल की सीट पर बैठ गया था. कुछ देर तक अगलबगल झंकने के बाद मैं ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘हैलो, माईसैल्फ अमन जैन, स्टूडैंट औफ बीएससी थर्ड ईयर.’’

‘‘हैलो, आई एम रीमा गुप्ता, स्टूडैंट औफ बीएस फर्स्ट ईयर. अभी कल ही मेरा एडमिशन हुआ है.’’

उस ने मुझे अपना परिचय देते सकुचाते हुए कहा था, ‘‘पापा के ट्रांसफर के कारण मेरा एडमिशन कुछ लेट हुआ है. क्या आप नोट्स वगैरह बनाने में मेरी कुछ मदद कर देंगे?’’

‘‘व्हाई नौट, एनीटाइम. वैसे मेरा घर तुम्हारे घर के नजदीक ही है,’’ मैं ने दो कदम आगे रह कर कहा था और इस तरह हमारी प्रथम मुलाकात हुई थी.

नोट्स के आदानप्रदान के साथ ही हम कब एकदूसरे को दिल दे बैठे थे, हमें ही पता नहीं चला था. ग्रेजुएशन के बाद मैं राज्य प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा था और वह पोस्ट ग्रेजुएशन की. उस से मिलना तपती धूप में एसी की ठंडी हवा का एहसास कराता था.

2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद मेरा चयन जिला खाद्य अधिकारी के पद के लिए हो गया था. जिस दिन मुझे अपने चयन की सूचना मिली, मैं बहुत खुश था और शाम का इंतजार था क्योंकि हम दोनों पास के पार्क में लगभग रोज ही मिलते थे.

उस दिन भी मैं नियत समय पर पहुंच गया था. पर आज मेरी रिमू नहीं आई थी. लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद मैं मायूस हो उठा और वापस जाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक सामने से मुझे वह आती दिखाई दी.

‘‘अरे आज इतनी लेट क्यों? और यह मेरा गुलाब मुरझया हुआ क्यों है?’’ मेरे इतना कहते ही वह मुझ से लिपट गई थी.

‘‘अमन, हम अब इतने आगे आ गए हैं कि अब तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. मेरे घर वाले शादी की बातें कर रहे हैं. क्या तुम मुझे अपनाओगे?’’ रिमू ने बिना किसी लागलपेट के मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था और मैं हतप्रभ सा उसे देखता ही रह गया था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, मैं कब तुम्हारे बिना रह पाऊंगा,’’ कह कर मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया था.

उस के बाद मेरा सर्विस जौइन करना और रिमू के पापा का ट्रांसफर पास के ही शहर में होना, सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि कुछ सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिला. मैं और रिमू फोन के माध्यम से एकदूसरे से टच में अवश्य थे. मैं ने भी अपनी पत्नी के रूप में सिर्फ रिमू की ही कल्पना की थी.

नौकरी जौइन करने के बाद जब पहली बार मैं घर आया तो मां ने मेरे विवाह की बात की. मैं अपनी मां से प्रारंभ से ही प्रत्येक बात शेयर करता रहा था, सो मां से अपने दिल की बात कह डाली.

‘‘मां, मैं और किसी से विवाह नहीं कर पाऊंगा और जो भी करूंगा आप की अनुमति से ही करूंगा.’’

‘‘कौन लोग हैं वे और क्या करते हैं. किस जाति और धर्म के हैं?’’ मां ने कुछ अनमने से स्वर में पूछा था.

जब मैं ने उन्हें अपने पड़ोसी की याद दिलाई तो वे बोलीं, ‘‘अच्छा, वह गुप्ता परिवार की बात कर रहे हो. तुम उन की बड़ी बेटी को… मैं ने देखा है क्या… उस के परिवार वाले तैयार हैं?’’

‘‘अपने परिवार वालों को रिमू स्वयं संभालेगी मां. आप तो अपनी बात कीजिए.’’

‘‘तुम्हें तो पता है कि तुम्हारे पापा और मेरे लिए केवल तुम्हारी पसंद ही माने रखती है. इस के अलावा और कुछ नहीं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम्हारा चयन गलत नहीं होगा?’’ मां की बातें सुन कर मैं प्यार से अभिभूत हो उन के गले लग गया था.

छितराया प्रतिबिंब- भाग 4: क्या हुआ था मलय के साथ

मगर फिर भी इतने दिन होने को आए, मैं कहां हूं, उसे यह भी नहीं पता. 10 दिन पर मां को पता चला तो हो सकता है कि अब उसे पता चला हो लेकिन ये 10 दिन क्या उसे मेरी जरा भी परवा नहीं, बस खर्चे को पैसे उपलब्ध हो गए तो मेरी जरूरत ही नहीं? यही हैं उस के शादी के आदर्श?

भोर के 3 बजे अचानक एक एसएमएस की आवाज से हलकी सी तंद्रा उचट गई. औफिस से 15 दिन की छुट्टी ले कर आया था और बता कर भी कि मैं कहां जा रहा हूं लेकिन इतनी रात गए मुझे मेरे छुट्टी समाप्त होने की सूचना देंगे और जबकि अब भी 2 दिन बाकी हैं. एक क्षण को लगा कि मेरे किसी दोस्त ने अपनी नींद छोड़ कर कोई नौनवेज जोक मारा हो.

अनिच्छा के बावजूद मैं ने एसएमएस चैक किया. मुझ से लेटे हुए यह पढ़ा नहीं गया, मैं उठ बैठा. अपने चारों ओर रजाई को खींच कर ऐसे बैठा जैसे प्रतीति की बांहें मुझे अपने आगोश में बहुत दिनों बाद खींच रही हों.

‘‘प्रिय, और कितनी परीक्षा लोगे? अपनी तकलीफ सहने की शक्ति मैं ने जितनी बढ़ा ली है तुम में भी तकलीफ देने की क्षमता उतनी ही बढ़ती गई है. एक तुम्हारे भरोसे मैं अपनी पिछली सारी दुनिया त्याग कर तुम्हारे पास आ गई और तुम पता नहीं कौन से मन की भूलभुलैया में गुम हो कर मुझे और कुक्कू को छोड़ कर ही चल दिए. तुम कैसे कर सके ये सबकुछ? कुक्कू और मैं तुम्हारे हैं, मगर तुम तो बस खुद के ही हो कर रह गए. मैं जानती हूं कि तुम्हारी जिंदगी का पिछला इतिहास तुम्हें विचलित करता है लेकिन यह नहीं समझते कि इतिहास वर्तमान में हमेशा नहीं आता.’’

एसएमएस समाप्त नहीं हुआ था लेकिन प्रतीति के फोन से आया था. मैं इन बातों का गहराई से मंथन करता कि दूसरा एसएमएस आया. सोचा न जाने किस का हो, लेकिन मन यह सोच कर व्याकुल होने लगा कि न जाने प्रतीति आगे क्या कहना चाह रही होगी.

मैं ने मोबाइल अपनी आंखों के सामने रखा, प्रतीति ने आगे लिखा था, ‘‘तुम ने पुरानी प्रतिच्छवियों का रंग वर्तमान के जीते इंसानों के जीवन में इस तरह घोल दिया है कि सारी छवियां मिलजुल कर एकसार हो गई हैं और सब की पहचान ही विकृत हो गई है. तुम्हारे मन का पुराना संताप और विद्रोह मुझ से अपना प्रतिशोध ढूंढ़ने की कोशिश करता है, क्योंकि तुम्हारे आसपास मैं ही एक ऐसी हूं जो तुम्हारी होते हुए भी तुम्हारा अंश नहीं हूं जिस पर तुम अपना हक जता कर अपना गुस्सा मिटा सको. आज कुछ कड़वा सच बोल लेने दो, मलय, और सहा नहीं जाता.

‘‘तुम्हारे मातापिता ने, जैसा कि तुम चिढ़तेकुढ़ते वक्त कहा करते थे, जो भी जीवन जिया उसे इतिहास में दफन करो. उस असामंजस्य का प्रतिकार तुम मेरे साथ प्रतिशोध ले कर क्यों करना चाहते हो? तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम को विद्रोह की घुटन में क्यों बदलने पर तुले हुए हो? प्रकृति के नियम से कुछ बातें मां और पत्नी होने के नाते हर स्त्री में समान होती हैं लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि किसी और का कर्मफल कोई और भुगते. प्रिय होने के कारण जो कदम तुम अपनी मां के लिए नहीं उठा पाए, पराए घर से आई होने के कारण वह प्रतिशोध तुम ने मुझ से लेने की ठानी. तब तुम टूटे हुए से घर में जुड़ेजुडे़ से थे और अब जुड़े हुए घर को तोड़ने पर आमादा हो.

‘‘समय की इच्छा थी कि हम एक हों और अब यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम आगे भी एक रहें. तुम्हें बेहद चाह कर टूट जाने के कगार पर खड़ी हूं. तुम्हारी बेटी को अपने पापा की, तुम्हारी बीवी को अपने पति की जरूरत है और तुम्हें कोई हक नहीं बनता कि तुम उस का सहारा और प्यार छीन लो.’’

टैक्स्ट पढ़तेपढ़ते मेरी आंखें बोझिल हो गई थीं, आंक रहा था मैं प्रतीति ज्यादा समझदार थी या मैं ज्यादा नासमझ. शायद अहंकार की वजह से मैं ने उसे कभी भाव नहीं देना चाहा. लेकिन आज जब मैं अपने अंतर्मन के साथ बिलकुल अकेला हूं, आसपास के वातावरण में स्वयं को सिद्ध करने की कोई जल्दबाजी नहीं है तो लगता है प्रतीति को मेरी नहीं बल्कि मुझे प्रतीति की जरूरत है. मेरे ठिगने अहंकार, आक्रोश और भावनात्मक प्रतिशोध की सुलगी हुई ज्वाला में प्रतीति के बरसते छींटों की जरूरत है.

मैं ने तत्काल फ्लाइट पकड़ी, एअरपोर्ट से घर पहुंचतेपहुंचते सुबह के 8 बज गए थे. मैं खुली खिड़की से घर के अंदर सब देख सकता था. कुक्कू स्कूल के लिए तैयार हो रही थी, दोनों बेहद बुझीबुझी सी अपना काम कर रही थीं. तैयार हो कर कुक्कू निकलने वाली थी, प्रतीति ने मेरी उपस्थिति से अनजान मुख्यद्वार खोला. मैं अचरज में था. मुझे देख कर उस के मुख पर जरा भी अचरज नहीं आया. जैसे कि उसे अपनी पैरवी पर बेहद यकीन हो.

उस ने मेरे हाथ से बैग लिया और भटक गए बच्चे के घर वापस आ जाने पर सब से पहले उसे सुरक्षित घर के अंदर ले जाने के एहसास से भरी हुई मुझे वह अंदर ले गई.

कुक्कू के शिकायती लहजे को भांप कर प्रतीति ने उस से कहा, ‘‘बेटी, आज खुशीखुशी स्कूल जाओ, वापस आ कर बातें करना, पापा को आराम करने दो.’’

कुक्कू के जाने के बाद घर में सन्नाटा छाने लगा. मैं जो हमेशा डराने में विश्वास करता था, आज खुद डर रहा था.

प्रतीति ने बैग उठा कर अंदर किया और बाथरूम की बालटी में पानी भरने लगी. मैं कुरसी पर चुप बैठा था, डरा वैसा ही जैसा कभी प्रतीति को मैं डरा देखता था. जाने कब मैं क्या बोल पड़ूं. क्या इलजाम लगा कर बच्ची के सामने उसे अपमानित करूं. मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई वह, मेरे सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘बाल रूखे लग रहे हैं, तेल लगा देती हूं.’’

मैं चुपचाप बैठा रहा.

प्रतीति ने बालों में तेल लगाते हुए कहा, ‘‘आज औफिस जाओगे? छुट्टियां तो कल खत्म होंगी.’’

मैं अवाक्, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘क्यों न पता हो? मेरा पति कहीं चला जाए और मैं दफ्तर में खबर भी न लूं.’’

‘‘फिर तुम…’’

‘‘कुछ न कहो. तुम ने अपने हिसाब से सब को चलाने की कोशिश कर के देख ली. यह स्वाभाविक था कि मैं तुम्हारी खोजपरख करती. आगे की सोचो, मलय, पीछे का पीछा छोड़ो.’’

‘‘मैं थक चुका हूं.’’

‘‘तुम क्यों इतना चिंतित हो? सारी चिंता मुझ पर छोड़ो और तुम निश्ंिचत हो जाओ. जैसे कुक्कू मेरी जान है वैसे ही तुम मेरे सबकुछ हो. किस से खफा, किस की गलती? जो तुम हो वही तो हम हैं. तुम से अलग तो कुछ भी नहीं. अगर तुम्हें मेरी कुछ आदतें बुरी लगती हैं तो सरल उपाय है कि उन की लिस्ट बना कर मुझे दे दो, मैं ईमानदारी से उन्हें छोड़ने की पहल करूंगी. मगर स्थितियों को इतना गंभीर न बनाओ.’’

जरा चुहल करने का मन हुआ, कहा, ‘‘ईमानदारी से मुझे तो न छोड़ दोगी?’’

‘तुम्हें तो नहीं, हां तुम्हारी एक आदत छुड़ा कर ही दम लूंगी.’

‘‘तुम्हारी नकारात्मक सोच, और मनमुताबिक न होने को शत्रु भाव से ग्रहण करना, जिस की जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि. बुरा सोचोगे तो हर इंसान बुरा ही नजर आएगा. सब कुछ स्वीकार कर लो तो जीवन प्रेममय बन जाता है वरना कुक्कू के साथ भी वही इतिहास दोहराया जाएगा.’’

‘‘प्रतीति…’’ कह कर मैं ने उसे बाहुपाश में भर लिया.

सचाई को महसूस कराती गहरी गरम सांसें एकदूसरे में विलीन हो रही थीं. मैं ने प्रतीति को सीने से लगा कर उस का माथा चूम लिया. जिस खुशी की खोज में वादियों में भटक आया वह खुशी मेरे लिए मेरे घर में बैठी मेरा इंतजार कर रही थी.

जीवन की मुसकान- भाग 2: क्या थी रश्मि की कहानी

उसे सुंदरम का कहा याद आने लगा, ‘रश्मि, मैं तुम्हारी हर खुशी का खयाल रखूंगा. लेकिन मेरी प्यारी रश्मि, कर्तव्य के आगे मैं तुम्हें भी भूल जाऊंगा.’

उसे अपने स्वर भी सुनाई दिए, ‘सुंदरम, क्या दुनिया में तुम्हीं अकेले डाक्टर हो? हर समय तुम मरीज को नहीं देखने जाओगे तो दूसरा डाक्टर ही उसे देख लेगा.’

‘रश्मि, अगर ऐसे ही हर डाक्टर सोचने लगे तो फिर मरीज को कौन देखेगा?’

‘मैं कुछ नहीं जानती, सुंदरम. क्या तुम्हें मरीज मेरी जिंदगी से भी प्यारे हैं? क्या मरीजों में ही जान है, मुझ में नहीं? इस तरह तो तुम मुझे भी मरीज बना दोगे, सुंदरम. क्या तुम्हें मेरी बिलकुल परवा नहीं है?’

अजीब कशमकश में पड़ा सुंदरम उस की आंखों के आगे फिर तैर आया, ‘मुझे रुलाओ नहीं, रश्मि. क्या तुम समझती हो, मुझे तुम्हारी परवा नहीं रहती? सच पूछो तो रश्मि, मुझे हरदम तुम्हारा ही खयाल रहता है. कई बार इच्छा होती है कि सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास ही आ कर बैठ जाऊं, चाहे दुनिया में कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘लेकिन क्या करूं, रश्मि. जब भी किसी मरीज के बारे में सुनता या उसे देखता हूं तो मेरी आंखों के आगे मां का तड़पता शरीर तैर जाता है और मैं रह नहीं पाता. मुझे लगता है, 14 साल पहले की स्थिति उपस्थित होने जा रही है. उस समय किसी डाक्टर की गलती ने मेरी मां के प्राण लिए थे और आज मैं मरीज को न देखने जा कर उस के प्राण ले रहा हूं. और उस के घर वाले उसी तरह मरीज की असमय मृत्यु से पागल हुए जा रहे हैं, मुझ को कोस रहे हैं, जिस तरह मैं ने व मेरे घर वालों ने डाक्टर को समय पर न आने से मां की असमय मृत्यु हो जाने पर कोसा था.’

‘रश्मि, मैं जितना भी बन सकता है, तुम्हारे पास ही रहने की कोशिश करता हूं. 24 घंटों में काफी समय तब भी निकल आता है, तुम्हारे पास बैठने का, तुम्हारे साथ रहने का. मेरे अलग होने पर तुम अविनाश से ही खेल लिया करो या टेप ही चला लिया करो. तुम टेप सुन कर भी अपने नजदीक मेरे होने की कल्पना कर सकती हो.’

‘ऊंह, केवल इन्हीं बातों के सहारे जिंदगी नहीं बिताई जा सकती, सुंदरम. नहीं, बिलकुल नहीं.’

‘रश्मि, मुझे समझने की कोशिश करो. मेरे दिल की गहराई में डूब कर मुझे पहचानने की कोशिश करो. मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत है, रश्मि. मुझे तुम्हारे प्यार की जरूरत है, रश्मि. उस प्यार की, उस सहारे की जो कर्तव्य पथ पर बढ़ते मेरे कदमों को सही दिशा प्रदान करे. तुम क्या जानो, रश्मि, तुम जब प्रसन्न हो, जब तुम्हारा चेहरा मुसकराता है तो मेरे मन में कैसे अपूर्व उत्साह की रेखा खिंच जाती है.

‘और जब तुम उदास होती हो, तुम नहीं जानतीं, रश्मि, मेरा मन कैसीकैसी दशाओं में घूम उठता है. मरीज को देखते वक्त, कैसी मजबूती से, दिल को पत्थर बना कर तुम्हें भूलने की कोशिश करता हूं. और मरीज को देखने के तुरंत बाद तुम्हारी छवि फिर सामने आ जाती है और उस समय मैं तुरंत वापस दौड़ पड़ता हूं, तुम्हारे पास आने के लिए, तुम्हारे सामीप्य के लिए…

‘रश्मि, जीवन में मुझे दो ही चीजें तो प्रिय हैं-कर्तव्य और तुम. तुम्हारी हर खुशी मैं अपनी खुशी समझता हूं, रश्मि. और मेरी खुशी को यदि तुम अपनी खुशी समझने लगो तो…तो शायद कोई समस्या न रहे. रश्मि, मुझे समझो, मुझे पहचानो. मैं हमेशा तुम्हारा मुसकराता चेहरा देखना चाहता हूं. रश्मि, मेरे कदमों के साथ अपने कदम मिलाने की कोशिश तो करो. मुझे अपने कंधों का सहारा दो, रश्मि.’

और रश्मि के आगे घूम गया सुंदरम का तेजी से हावभाव बदलता चेहरा. चलचित्र की भांति उस के आगे कई चित्र खिंच गए. मां की असमय मृत्यु की करुणापूर्ण याद समेटे, आज का बलिष्ठ, प्यारा सुंदर, जो मां को याद आते ही बच्चा बन जाता है, पत्नी के आगे बिलख उठता है. रो उठता है. वह सुंदरम, जो कर्तव्य पथ पर अपने कदम जमाने के लिए पत्नी का सहारा चाहता है, उस की मुसकराहट देख कर मरीज को देखने जाना चाहता है और लौटने पर उस की वही मुसकराहट देख कर आनंदलोक में विचरण करना चाहता है लेकिन वह करे तो क्या करे? वह नहीं समझ पाती कि सुंदरम सही है या वह. इस बात की गहराई में वह नहीं डूब पाती. उस का मन इस समस्या का ऐसा कोई हल नहीं खोज पाता, जो दोनों को आत्मसंतोष प्रदान करे. सुंदरम की मां डाक्टर की असावधानी के कारण ही असमय मृत्यु की गोद से समा गई थीं और उसी समय सुंदरम का किया गया प्रण ही कि ‘मैं डाक्टर बन कर किसी को भी असमय मरने नहीं दूंगा,’ उसे डाक्टर बना सका था. इस बात को वह जानती थी.

किंतु वह नहीं चाहती कि इसी कारण सुंदरम उस की बिलकुल ही उपेक्षा कर बैठे. कुछ खास अवसरों पर तो उसे उस का खयाल रखना ही चाहिए. उस समय वह किसी अपने दोस्त डाक्टर को ही फोन कर के मरीज के पास क्यों न भेज दे?

रश्मि ने एक गहरी सांस ली. खयालों में घूमती उस की पलकें एकदम फिर पूरी खुल गईं और फिर उसे लगा, वही अंधेरा दूरदूर तक फैला हुआ है. वह समझ नहीं पा रही थी कि इस अंधेरे के बीच से कौन सी राह निकाले?

अंधेरे की चादर में लिपटी उस की आंखें दूरदूर तक अंधेरे को भेदने का प्रयास करती हुई खयालों में घूमती चली गईं. उसे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, उसे खुद पता न चला. अगले दिन कौलबैल एक बार फिर घनघनाई. और इस बार न केवल बजी ही, बल्कि बजती ही चली गई. इस के साथ ही दरवाजे पर भी जोरों की थाप पड़ने लगी. और यह थाप ऐसी थी जो रश्मि को पांव से ले कर सिर तक झकझोर गई. उस के चेहरे की भावभंगिमा भयंकर हो गई और शरीर कांपने सा लगा. माथे की सलवटें जरूरत से ज्यादा गहरी हो गईं और दांत आपस में ही पिसने लगे. पति का मधुर सामीप्य उसे फिर दूर होता प्रतीत हुआ और भावावेश में उस की मुट्ठियां भिंचने लगीं. उस का एकएक अंग हरकत करने लगा और वह अपने को बहुत व्यथित तथा क्रोधित महसूस करने लगी.

वह चोट खाई नागिन की तरह उठी. आज तो वह कुछ कर के ही रहेगी. मरीज को सुना कर ही रहेगी और इस तरह सुनाएगी कि कम से कम यह मरीज तो फिर आने का नाम ही नहीं लेगा. अपना ही राज समझ रखा है. ‘उफ, कैसे दरवाजा पीट रहा है, जैसे अपने घर का हो? क्या इस तरह तंग करना उचित है? वह भी आधी रात को? खुद तो परेशान है ही, दूसरों को बेमतलब तंग करना कहां की शराफत है?’ वह बुदबुदाई और मरीज के व्यवहार पर अंदर ही अंदर तिलमिला गई.

‘‘मैं देखती हूं,’’ दरवाजे की ओर बढ़ते हुए सुंदरम को रोकते हुए रश्मि बोली.

‘‘ठीक है,’’ सुंदरम ने कहा, ‘‘देखो, तब तक मैं कपड़े पहन लेता हूं.’’

रश्मि दरवाजा खोलते हुए जोर से बोली, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं हूं, दीदी,’’ बाहर से उस के भाई सूरज की घबराई हुई सी आवाज आई.

ओटीटी के आने से काम बढ़ा है- रूपाली सूरी

थिएटर से अभिनय की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री रूपाली सूरी ने इंटरनैशनल फीचर फिल्म ‘डैड होल्ड माई हैंड’ से की थी.  इस फिल्म में उन्हें रत्ना पाठक शाह के साथ काम करने का मौका मिला. निर्देशन के साथसाथ विक्रम गोखले ने खुद ही इस फिल्म को एडिट और कंपोज भी किया है. इस में उन्होंने बड़ी खूबसूरती से लौकडाउन की कहानी को शूट किया है. रूपाली अभी कुछ वैब सीरीज और फिल्मों में काम कर रही है. व्यस्त समय के बीच उन्होंने गृहशोभा के लिए खास बात की. आइए, जानें उन की कहानी.

अभिनय की प्रेरणा कहां से मिली?

मेरे परिवार में कोई भी इस इंडस्ट्री से नहीं है, लेकिन छोटी उम्र में मेरी फीचर मौडल की तरह होने की वजह से कई फैशन शोज में भाग लिया. इस के अलावा उस दौरान घर में कुछ तंगी होने की वजह से मां ने मुझे आए हुए प्रोजैक्ट को करने के लिए कहा. उस प्रोजैक्ट के पूरा होते ही दूसरा प्रोजैक्ट आ गया. इस तरह से काम छूटा नहीं. काम करने के बाद कालेज के बाद ही मैं ने निश्चय कर लिया कि मुझे ऐक्टिंग ही करनी है क्योंकि तब तक मैं काम सीख चुकी थी.

मौडलिंग का काम मैं ने दूसरी कक्षा से शुरू कर दिया था. स्कूल में काम कम था, लेकिन कालेज में इस की रफ्तार तेज हुई. मौडलिंग के अलावा मैं ने कई सीरियल्स में भी काम किया. फिर धीरेधीरे वैब सीरीज, फिल्में आदि मिलती गईं क्योंकि अभिनय को सम?ाने के लिए इफ्टा जौइन किया. उन के साथ कई शोज किए. मेरा वह शुरुआती दौर था, जिस में कला, अभिनय के साथ बहुत सारी बातों को सीखना था.

मुझे यह सम?ाना जरूरी था कि मैं खुद क्या और कितना काम कर सकती हूं. इसलिए मैं ने थिएटर के मंच पर कई ऐक्सपैरिमैंटल शोज किए. वहां तालियों की गड़गड़ाहट, दर्शकों का तुरंत रिएक्शन मिलता था. अभी भी मैं स्टेज की दुनिया को मिस करती हूं. मुझे कई बार ऐसा लगता है कि इंडस्ट्री ने मुझे चुन लिया है, मैं ने नहीं चुना है.

कितना संघर्ष रहा?

संघर्ष का स्तर हमेशा अलग होता है. पहले संघर्ष में मैं ने आर्थिक तंगी के कारण काम शुरू किया था, दूसरे स्तर के संघर्ष में मेरे पास बस, टैक्सी, औटो के पैसे नहीं थे. कैसे मैं आगे बढ़ी हूं, यह मैं ही जानती हूं. तीसरा संघर्ष फैशन शो में जाने के लिए मेरे पास जूते खरीदने के पैसे नहीं थे.

आज पीछे मुड़ कर देखने पर मुझे महसूस होता है कि इतनी स्ट्रगल के बाद ही मु?ा में आत्मविश्वास आ पाया और मैं ने जो अपनी छोटी एक सफल दुनिया बनाई है वह इसी के बल पर बनी है. मेरी बड़ी बहन भी अभिनय से जुड़ी हैं. दोनों का रास्ते एक है, लेकिन अप्रोच अलगअलग है.

क्या आप को बड़ी बहन का सहयोग मिला?

सहयोग से अधिक मैं उन से प्रेरित हुई हूं. उन्होंने अपने जीवन में मेहनत कर एक जगह बनाई है. उन के सही कदम और गलतियों से मैं ने बहुत कुछ सीखा है. वे मेरे लिए ‘लाइव लैसन’ हैं. मैं साधारण परिवार से हूं, मेरे पिता गारमेंट के व्यवसाय में थे. अब रिटायर्ड हैं और मां गुजर चुकी हैं. मेरी मां बहुत कम उम्र में बिछड़ गईं. इस वजह से हम दोनों बहनें बहुत ही हंबल बैकग्राउंड से हैं.

इंडस्ट्री में गौडफादर न होने पर काम मिलना मुश्किल होता है. क्या आप को भी काम मिलने में परेशानी हुई?

यह तो होता ही रहता है क्योंकि पेरैंट्स के काम से उन के बच्चों को लाभ मिलता है. यह केवल इस इंडस्ट्री में ही नहीं हर जगह लागू होता है. पहला मौका उन्हें जल्दी मिलता है, लेकिन काम के जरीए उन्हें भी प्रूव करना पड़ता है कि वे इस इंडस्ट्री के लिए सही हैं.

कई बार काम होतेहोते कलाकार रिजैक्ट हो जाते हैं, क्या आप को रिजैक्शन का सामना करना पड़ा?

बहुत बार मुझे इन चीजों का सामना करना पड़ा. कई बार मैं रात 10 बजे मैनेजर को जगा कर पूछती थी कि मैं ने क्या गलत किया. कई बार तो साइनिंग अमाउंट मिलने के बाद भी रिजैक्ट हुई. कई बार सैट पर पहुंचने के बाद मुझे अगले दिन नहीं बुलाया गया. इस की वजह सम?ाना मुश्किल होता है. कभी कोई कहता है कि इस रोल के लिए मैं ठीक नहीं, तो दूसरा कोई और बहाना बनाता है. सामने कोई कुछ अधिक नहीं कहता. एक बार मैं निर्देशक अनीस बज्मी की फिल्म में कास्ट हुई, लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि नए कलाकार के साथ वे काम नहीं करते, उन्हें एक अनुभवी कलाकार चाहिए.

स्ट्रैस होने पर रिलीज कैसे करती हैं?

मैं आधी रात को मैनेजर से घंटों बात करती हूं और वे मुझे सम?ाती हैं. अगर वे उपलब्ध न हों तो मैं कथक डांस कर सारा स्ट्रैस निकाल लेती हूं. मैं एक कलाकार हूं और हर इमोशन को फील करती हूं, लेकिन एक बार उस से निकलने पर वापस मैं उस में नहीं घुसती और आगे बड़ जाती हूं.

किस शो ने आप की जिंदगी बदली?

टीवी ने मुझे बहुत सहयोग दिया है. उस के शोज से मुझे आज भी लोग याद करते हैं. मेरी वैब सीरीज, फिल्मों की अलग और टीवी की एक अलग पहचान है. शो ‘शाका लाका बूमबूम’ में मेरे चरित्र, विज्ञापनों आदि को लोग आज भी याद रखते हैं. इस तरह बहुत सारे ऐसे टीवी शोज हैं, जिन से मैं सब के घरों तक पहुंच पाई.

ओटीटी आज बहुत अधिक दर्शकों के बीच में पौपुलर है, इस का फायदा नए कलाकारों को कितना मिल पाता है?

ओटीटी आने से इंडस्ट्री में लोगों का काम और वेतन काफी बढ़ गया है. जिस तरह टीवी ने आज से कुछ साल पहले कलाकारों को अभिनय करने का एक बड़ा मौका दिया था, वैसे ही ओटीटी के आने से काम बहुत बढ़ा है. काम और पैसे का बढ़ना ही इंडस्ट्री के लोगों के लिए निश्चित रूप से एक प्रोग्रैस है. इस से यह भी कलाकारों को पता चला है कि केवल फिल्म ही नहीं, आप ओटीटी पर अभिनय कर के भी संतुष्ट हो सकते है. यह एक प्रोग्रैसिव दौर है.

परिवार का सहयोग कितना रहा?

परिवार के सहयोग के बिना आप कुछ भी नहीं कर सकते. पहले दिन से ही मुझे यह आजादी मिली है, मुझे कभी रोका या टोका नहीं गया है. एक ट्रस्ट और कौन्फिडेंट दिया गया है, जो मेरे लिए जरूरी था.

आप के ड्रीम क्या हैं?

मेरे ड्रीम्स बहुत छोटेछोटे हैं. मैं छोटी चीजों को पा कर खुश हो जाती हूं. ये छोटी चीजें मिल कर एक दिन बड़ी हो जाती हैं. मैं हमेशा प्रेजैंट में रहती हूं. डांस मेरा पैशन है, लेकिन कब यह जरूरत बन गई पता नहीं चला. मैं अपनी सुविधा के लिए शो करती हूं, रियाज करती हूं, ये मुझे संतुलित रखते हैं. मेरे कथक गुरु राजेंद्र चतुर्वेदी हैं.

आप के जीवन जीने का अंदाज क्या है?

आसपास वालों को खुश रखना और वर्तमान में जीना.

क्या आप ऐनिमल लवर हैं?

मुझे जानवरों से बहुत प्यार है. मेरे निर्देशक भरतदाभोलकर भी ऐनिमल लवर हैं. मेरा उन से जुड़ाव भी जानवरों की वजह से हुआ है, मेरी डौगी डौन सूरी 15 साल साथ रहने के बाद मर गई. मुझे उस की बहुत याद आती है.

रिजैक्शन को लेकर क्या कहती हैं ‘दिया और बाती हम’ एक्ट्रेस दीपिका सिंह

दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी दीपिका सिंह को घर के आर्थिक हालात के चलते बीच में पढ़ाई छोड़ कर मातापिता की मदद के लिए नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई पूरी करनी पड़ी. उन्होंने एक तरफ एमबीए की पढ़ाई पूरी की, तो दूसरी तरफ इवेंट का काम व थिएटर वगैरह करती रहीं. अंतत: उन्हें 2011 में टीवी सीरियल ‘दिया और बाती हम’ में अभिनय करने का अवसर मिला. पूरे 5 वर्ष तक यह सीरियल प्रसारित होता रहा. इस की शूटिंग के दौरान ही इसी सीरियल के निर्देशक रोहित राज गोयल से 2 मई, 2014 को विवाह रचा लिया.

शादी के बाद भी दीपिका सिंह अपने मातापिता की मदद करने के लिए तैयार रहती हैं. उस के बाद मई, 2017 में वे एक बेटे की मां भी बन गईं. 2018 में उन्होंने एक वैब सीरीज ‘द रीयल सोलमेट’ की. फिर 2019 में सीरियल ‘कवच’ में अभिनय किया और अब वह अपने पति रोहित राज गोयल के ही निर्देशन में एक संदेश देने वाली फिल्म ‘टीटू अंबानी’ में मौसमी का किरदार निभाया है, जिस की सोच यह है कि शादी के बाद भी लड़की को अपने मातापिता की मदद करनी चाहिए. यह फिल्म 8 जुलाई को सिनेमाघरों में पहुंच चुकी है. प्रस्तुत हैं, दीपिका सिंह से हुई बातचीत के अंश:

जब आप अभिनय में कैरियर बनाना चाहती थीं, तो फिर एमबीए करने की क्यों जरूरत महसूस की?

वास्तव में मैं एक इवेंट कंपनी में काम कर रही थी. इसी वजह से एक फैशन शो में हम गए थे, जहां एक लड़की के न आने से मुझे उस का हिस्सा बनना पड़ा और मैं विजेता भी बन गई. उस के बाद कुछ न कुछ काम मिलता गया और मैं करती रही. मैं ने दिल्ली में ही रहते हुए थिएटर भी किया और फिर सीरियल ‘दीया और बाती हम’ में अभिनय करने का अवसर मिला.

तो यह माना जाए कि आप को बिना संघर्ष किए ही सीरियल ‘दीया और बाती हम’ का हिस्सा बनने का अवसर मिल गया था?

इस संसार में बिना संघर्ष किए कुछ नहीं मिलता पर औडिशन देने के बाद 1 माह के अंदर ही मेरा चयन संध्या राठी के किरदार के लिए हो गया. मैं इसे अपनी डैस्टिनी मानती हूं पर पहले मैं ने दिल्ली में इस सीरियल के लिए औडिशन दिया था. फिर मुंबई आ कर 1 माह तक औडिशन व लुक टैस्ट वगैरह होते रहे.

‘दिया और बाती हम’ के समय औडिशन की जो प्रक्रिया थी और अब औडिशन की जैसी प्रक्रिया है उस में कितना अंतर आ गया है?

कोई बदलाव नहीं आया. बाद में मैं ने ‘कवच’ के लिए भी औडिशन दिया था. पहले लोग जानते नहीं थे, अब लोग जानते हैं, इसलिए फर्क आ गया है क्योंकि किरदार के अनुरूप चेहरा होने पर ही चयन होता है.

अब लोग जानते हैं तो जब किरदार के अनुरूप मैं नजर आती हूं, तभी बुलाते हैं. पहले हम लाइन में लग कर हर औडिशन देते थे. अब लोग मेरे चेहरे व मेरी प्रतिभा से वाकिफ हैं, तो उपयुक्त किरदार के लिए ही बुलावा आता है. अब लाइन में लग कर औडिशन देने की जरूरत नहीं पड़ती. तब मुझे लोगों को बताना पड़ता था कि मैं अभिनय कर सकती हूं. पहले भी मेरे अंदर टैलेंट था, मगर तब आत्मविश्वास की कमी थी. अब आत्मविश्वास भी बढ़ चुका है. फिर भी औडिशन हमेशा टफ होते हैं.

औडिशन में रिजैक्शन को किस तरह से लेती रहीं?

मजे से. जिंदगी में स्वीकार्यता कम मिलती है, रिजैक्शन ज्यादा मिलते हैं. इसलिए मैं कभी निराश नहीं होती. मैं हमेशा मान लेती थी कि औडिशन अच्छा नहीं हुआ होगा, इसलिए रिजैक्शन आया.

सीरियल ‘दिया और बाती हम’ व इस के संध्या राठी के किरदार को जबरदस्त सफलता मिली. आप को स्टारडम मिला. पर फिर इसे आप भुना नहीं पाईं? कहां गड़बड़ी हुई?

गड़बड़ी कहीं नहीं हुई. मैं ने बहुत मेहनत की थी, तब जा कर वह स्टारडम मिला. देखिए, डैस्टिनी आप को एक दरवाजे पर ला कर खड़ा कर देती है. उस के बाद आप की कठिन मेहनत, आप का इंटैशन, आप की विलिंग पावर ही काम आती है. इसी आधार पर आप खुद को टिकाए रख पाते हैं. पर मुझे जो स्टारडम मिला, उसे मैं सिर्फ डैस्टिनी नहीं कहूंगी बल्कि मेरी कठिन मेहनत व लगन से मिला.

2016 के बाद कोई बड़ा सीरियल नहीं किया?

जी हां, मैं अपनी निजी जिंदगी में आगे बढ़ रही थी. मैं ने विवाह रचाया. मेरा परिवार बना. पारिवारिक जीवन को ऐंजौय कर रही थी. मेरे परिवार का हर सदस्य बहुत ही ज्यादा सहयोगी है. इसलिए वहां से मुझे मेरे काम पर रुकावट डालने के बजाय हमेशा बढ़ावा ही मिला. पर मैं खुद को अपने दर्शकों के प्रति जिम्मेदार मानती हूं. ‘दीया और बाती हम’ के बाद मुझे बेहतरीन व चुनौतीपूर्ण पटकथा नहीं मिली. जब भी अच्छी पटकथा मिली, मैं ने की.

फिल्म ‘टीटू अंबानी’ में क्या खास बात पसंद आई कि आप ने इसे करना चाहा?

इस की कई वजहें रहीं. इस में कई बड़ेबड़े कलाकार हैं. इस की पटकथा व कहानी जबरदस्त है. इस के संवाद हर किसी को मोह लेने वाले हैं. गीत भी अच्छे हैं. जब मैं ने पटकथा पढ़ी, तो जिस तरह से इस कहानी में एक अच्छा संदेश पिरोया गया है, उस ने मुझे फिल्म को करने के लिए उकसाया. यह फिल्म हंसते व गुदगुदाते हुए अपनी बात कह जाती है. इस में मैं ही एकमात्र टीवी की कलाकार है, बाकी सभी तो फिल्मों से जुड़े कलाकार हैं.

मुझे तो मौसमी का किरदार जीवंत करना था. फिल्म के निर्देशक रोहित को बहुत कुछ पता था. सभी सह कलाकार काफी सपोर्टिब रहे. बीच में कोविड के बढ़ने से हमें शूटिंग में जरूर कुछ तकलीफें हुईं. यह फिल्म महज नारीप्रधान फिल्म नहीं है. इस में एक लड़के यानी टीटू का अपना संघर्ष है. टीटू के भी अपने सपने व महत्त्वाकांक्षाएं हैं तो मौसमी के भी अपने सपने व महत्त्वाकांक्षाएं हैं.

अपने मौसमी के किरदार को ले कर क्या कहेंगी?

मौसमी बहुत ही ज्यादा जिम्मेदार लड़की है. वह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से निभाती है. मौसमी अपने मातापिता की इकलौटी बेटी है, तो वह उन के प्रति अपने कर्तव्य व जिम्मेदारी का पूरी तरह से निर्वाह करती है. उस की सोच यह है कि जिस तरह लड़के से उस की शादी के बाद नहीं पूछा जाता कि वह अपने मातापिता की सेवा क्यों कर रहा है, उसी तरह उस से यानी लड़की से भी न पूछा जाए. मौसमी चाहती है कि वह अपने मातापिता की मदद करे और उन के मातापिता को डिग्नीफाइड रूप में देखा जाए. इस में टीटू किस तरह से मौसमी की मदद करता है या नहीं करता है, यह तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.

समाज काफी बदला है. नारी स्वतंत्रता व नारी उत्थान को ले कर पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ कहा गया. इस का समाज में क्या असर पड़ा और यह मुद्दा आप की फिल्म ‘टीटू अंबानी’ में किस तरह से है?

समाज में काफी बदलाव हुआ है. अभी भी मेरी राय में मानवीय रिश्तों में भी समानता होनी चाहिए. अब लगभग हर दूसरे परिवार में नारी कामकाजी है. पहले ऐसा नहीं था. पहले औरत की जिम्मेदारी घर में खाना पकाना, बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना ही होती थी. जब बच्चे 8-10 साल की उम्र के हो जाएं, तब उन्हें अपने शौक को पूरा करने या काम करने की छूट मिलती थी. लेकिन उस उम्र में कामकाजी महिला के लिए पुन: वापसी करना मुश्किल हो जाता था. अब औरतें बराबरी पर चल रही हैं.

जब आप ने ‘दिया और बाती हम’ से कैरियर शुरू किया था, उस वक्त टीवी के कलाकारों को फिल्मों में काम नहीं मिल पाता था. पर अब ऐसा नही है. ऐसे में आप खुद को कहां पाती हैं?

मुझे प्राइम टाइम 9 बजे के सीरियल में अभिनय करने का मौका मिल गया था. वह भी लीड किरदार मिला था, जिस की मैं ने उम्मीद भी नहीं की थी. मैं तो सोचती थी कि मुझे बहन वगैरह के किरदार मिलेंगे पर लीड किरदार मिला. मैं ने इस सीरियल में अपने बालों में सफेदी पोत कर भी किरदार निभाया. मेरे लिए अभिनय करना अमेजिंग होता है. मैं अभिनेत्री इसीलिए बनी कि एक ही जिंदगी में कई अलगअलग जिंदगियां जीने का अवसर मिलेगा. मुझे अभिनय से प्यार है. जब तक सीरियल का प्रसारण शुरू नहीं हुआ, तब तक तो मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं लीड किरदार निभा रही हूं. तो मेरा सोचने का नजरिया अलग है.

लेकिन तब से अब तक टीवी व फिल्म इंडस्ट्री में काफी बड़ा बदलाव आ चुका है. इस बदलाव में अहम भूमिका ओटीटी ने निभाई है. आज यह बंदिश नहीं रही कि टीवी कर रहे हैं, तो फिल्म या वैब सीरीज नहीं कर पाएंगे. अब तो दिग्गज सुपर स्टार भी ओटीटी व टीवी पर आ रहे हैं. अब सिर्फ नाम का फर्क रह गया अन्यथा टीवी, ओटीटी व फिल्म सब एक ही हैं. मैं भी फिल्म का हिस्सा बन चुकी हूं. अब कलाकार को टाइप कास्ट नहीं किया जाता. दर्शक के लिए कलाकार सिर्फ कलाकार है.

दीपिका सिंह के कई रूप हैं. आप औरत, मां, पत्नी, बहू और अभिनेत्री हैं. किसे कितना समय देती हैं?

जिस वक्त जिसे जरूरत होती है, उसे उतना समय देने का प्रयास करती हूं. अपनी तरफ से पूरा तालमेल बैठाने का प्रयास करती हूं. सब से ज्यादा समय मैं खुद को देती हूं. मेरी ससुराल में सभी कोऔपरेटिव हैं, इसलिए सबकुछ आसानी से मैनेज हो जाता है.

GHKKPM: सेट पर बेबी बंप में ‘पाखी’ का ये क्यूट वीडियो हुआ वायरल

सीरियल गुम हैं किसी के प्यार में (Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin) की कहानी दर्शकों को परेशान कर रही है. जहां एक तरफ शो में कुछ महीनों का लीप दिखने वाला है तो वहीं पाखी की डिलीवरी के चलते मेकर्स सीरियल में नए ट्विस्ट लाने वाले हैं. इसी सीरियल माहौल के बीच पाखी यानी एक्ट्रेस ऐश्वर्या शर्मा (Aishwarya Sharma) सेट पर मस्ती करते हुए नजर आईं. वहीं अपने बेबी बंप (Pakhi Baby Bump) को फ्लौंट करती दिखीं. आइए आपको दिखाते हैं क्यूट वीडियो…

बेबी बंप के साथ ऐसे की मस्ती

 

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हाल ही में पाखी यानी एक्ट्रेस ऐश्वर्या शर्मा ने अपना एक वीडियो फैंस के साथ शेयर किया है, जिसमें वह बेबी बंप में सीरियल के सेट पर मस्ती करती हुई नजर आ रही हैं. फैंस को एक्ट्रेस का ये क्यूट वीडियो बेहद पसंद आ रहा है और वह जमकर वीडियो पर कमेंट करते दिख रही हैं. इसके अलावा एक्ट्रेस ने बेबी बंप को फ्लौंट करते हुए भी फोटोज शेयर की हैं.

 

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पति को किया बर्थडे विश

 

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सीरियल के सेट पर मस्ती की वीडियो और फोटोज शेयर करने के साथ-साथ एक्ट्रेस ऐश्वर्या शर्मा ने विराट यानी अपने पति और एक्टर नील भट्ट को बर्थडे विश किया है, जिसके साथ एक प्यारा कैप्शन लिखते हुए पति को बर्थडे की बधाई दी है. वहीं नील भट्ट ने इस फोटो पर कमेंट करते हुए पत्नी को शुक्रिया अदा किया है. फैंस को कपल का ये क्यूट अंदाज काफी पसंद आ रहा है.

 

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सीरियल में आएगा नया ट्विस्ट

 

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सीरियल की बात करें तो  गुम हैं किसी के प्यार में की कहानी में कुछ महीनों का लीप देखने को मिला है, जिसके चलते सीरियल में पाखी की गोदभराई होती हुई दिख रही है. वहीं इस गोदभराई में सई और विराट को खुश होते देख पाखी जलती हुई दिख रही हैं. इसी के चलते वह सई के सामने खुलासा करेगी कि वह डिलीवरी के बाद उसे बच्चा नहीं देगी और यह भी कहेगी कि विराट खुद उसे बच्चा देगा, जिसे सुनकर सई के पैरों तले जमीन खिसक जाएगी. वहीं खबरों की मानें तो सीरियल में नए शख्स की एंट्री होने वाली है, जो पाखी की चैन की नींद को बर्बाद कर देगा.

अच्छा इंटीरियर मुनाफे का सौदा

मिठाई की दुकान से ले कर परचून की दुकान तक का इंटीरियर अब पहले से काफी बेहतर होने लगा है. जिन दुकानों में पहले इंटीरियर पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता था वहां भी अब मौडर्न स्टाइल का इंटीरियर होने लगा है. कपड़ों की शौप्स पहले से बदल गई हैं. फर्श हो या छत अब हर जगह का इंटीरियर अलग दिखने लगा है. सैलून के नाम पर पहले केवल महिलाओं के ब्यूटीपार्लर ही सजेधजे नजर आते थे पर अब पुरुषों के सैलूनों में भी इंटीरियर डिजाइन होने लगा है. सोशल मीडिया के जमाने में लोग जहां जाते है वहां के फोटो अपडेट करने की कोशिश करते हैं. अच्छा इंटीरियर मुफ्त में प्रचार का भी काम करता है.

इस बदलाव के क्या कारण हैं? यह जानने के लिए हम ने लखनऊ की रहने वाली मशहूर इंटीरियर डिजाइनर और और्किटैक्ट अनीता श्रीवास्तव से बात की:

शौप्स का मैनेजमैंट अच्छा हो जाता है

अनीता श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘सुंदर और सुव्यवस्थित माहौल हर किसी को पसंद आता है. ऐसा माहौल मन पर सुंदर छाप छोड़ता है. पहले शौप्स में सामान इधरउधर फैला होता था, जिस की वजह से गंदगी दिखती थी, सफाई करना मुश्किल हो जाता था. चूहे और कीडे़मकोडे़ सामान को नुकसान पहुंचाते थे. लाइटिंग की सही व्यवस्था नहीं होती थी. बिजली के उल?ो तारों से दुकानों में दुर्घटना हो जाती थी.

शौर्ट सर्किट से आग लग जाती थी. काम करने वालों को सही तरह से बैठने या खडे़ होने की जगह नहीं मिलती थी. हवा और रोशनी नहीं मिलती थी. अब इंटीरियर डिजाइनर शौप्स की जरूरत और वहां आने वाले कस्टमर की सुविधा को देखते हुए शौप्स को अच्छे से डिजाइन करते हैं. इस से काम करने वाले को सुविधा और कस्टमर को देखने में अच्छा लगता है.’’

बिजली का डिजाइनर सामान

इंटीरियर डिजाइनिंग में पहले बिजली का प्रयोग जरूरत के लिए होता था. आज के दौर में बिजली का ऐसा सामान आ गया है जो जरूरत के साथसाथ सुंदर भी लगता है. जहां जिस तरह की हवा और रोशनी की जरूरत होती है वहां उस का उपयोग किया जाने लगा है. बिजली के ऐसे उपकरण आ गए हैं जो कम वोल्टेज पर चलते हैं. इस से बिजली की बचत होने लगी है. हवा के लिए पंखे के साथसाथ एसी का प्रयोग होने लगा है. पीने का साफ पानी भी बिजली के प्रयोग से मिलता है.

इस का उपाय भी सही जगह होने लगा है. कम और ज्यादा रोशनी का प्रयोग जरूरत के हिसाब से हो इंटीरियर डिजाइन करते समय इस बात का खयाल रखा जाता है. बिजली चली जाए तो इनवर्टर, सोलर ऐनर्जी या जनरेटर का प्रयोग कैसे कमज्यादा हो इस का प्रबंध भी पहले से किया जाने लगा है.

अर्श से फर्श तक सब बदल गया

अनीता श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘आज इंटीरियर के लिए बहुत अच्छाअच्छा मैटीरियल मिलने लगा है, जो सस्ता भी है और अच्छी तरह तैयार हो जाता है, साथ ही हलका भी होता है. भले ही यह लकड़ी जैसा मजबूत और टिकाऊ न हो पर आज इंजीनियरवुड और प्लाई का उपयोग इंटीरियर में होने लगा है. सस्ता होने के कारण इसे जल्दी बदला जा सकता है.

‘‘कैमिकल का प्रयोग होने से दीमक नहीं लगती है. इंटीरियर में पेपर कार्डबोर्ड का प्रयोग होने लगा है. महंगी टाइल्स की जगह आकर्षक फ्लोरिंग मिलने लगी है. यह मैचिंग और मनचाहे रंग व डिजाइन की होने लगी है. फर्श से ले कर छत तक को नए रंगरूप में बदला जा सकता है.’’

बजट इंटीरियर

इंटीरियर डिजाइनर पहले डिजाइन तैयार कर लेता है उस के बाद वह बजट के अनुसार मैटीरियल चुनता है. डिजाइन का अब थ्रीडी फौर्मेट बन जाता है, जिस से पूरा इंटीरियर कैसा लगेगा यह पहले ही पता चल जाता है. जो अच्छा नहीं लगता उस को बदला जा सकता है. इंटीरियर में कुछ ऐसा शामिल किया जाता है जो पूरे इंटीरियर को हाईलाइट करता है. जैसे म्यूरल आर्ट का प्रयोग बढ़ गया है. ग्रीन माहौल दिखाने का प्रयास रहता है. स्पेस रहता है तो माहौल बेहतर होता है. लोग कंफर्टेबल फील करते हैं.

कार्यक्षमता को बढ़ाता है

इंटीरियर की उपयोगिता इसलिए बढ़ रही क्योंकि यह देखने वाले का आकर्षित करती है. कस्टमर यहां आने में कंफर्टेबल फील करता है. यहां काम करने वालों को जब साफ हवा, पानी, खुशनुमा माहौल मिलता है तो उन की कार्यक्षमता बढ़ती है.

पत्नियों की सफलता पर विवाद

वैवाहिक विवादों में पति क्याक्या आर्गूमैंट पत्नी का कैरेक्टर खराब दिखाने के लिए ले सकते हैं इस का एक उदाहरण अहमदाबाद में किया. 2008 में जोड़े का विवाह हुआ पर 2010 में पत्नी अपने मायके चली गई. बाद में पति दुबई में जा कर काम करने लगा. पत्नी ने जब डोमेस्टिक वौयलैंस और मैंनटेनैंस का मुकदमा किया तो और बहुत सी बातों में पति ने यह चार्ज भी लगाया कि उस की अब रूठी पत्नी के पौलिटिशयनों से संबंध है और वह लूज कैरेक्टर की है. सुबूत के तौर पर उस ने फेसबुक पर पत्नी और भाजपा के एक विधायक के फोटो दर्शाए.

कोर्ट ने पति की औब्जैक्शन को नकार दिया और 10000 मासिक का खर्च देने का आदेश दिया पर यह मामला दिखाता है कि कैसे पुरुष छोड़ी पत्नी पर भी अंकुश रखना चाहते हैं और उस के किसी जाने चले जाने के साथ फोटो को उस का लूज कैरेक्टर बना सकते हैं.

पत्नियों की सफलता किसी भी फील्ड में हो, पतियों को बहुत जलाती है क्योंकि सदियों से उन के दिमाग में ठूंसठूंस कर भरा हुआ है कि पत्नी तो पैर की जूती है. कितनी ही पत्नियां आज भी कमा कर भी लाती हैं और पति से पिटती भी हैं. ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो यह सोच कर कि पत्नी आखिर जाएगी कहां, उस से गुलामों का सा व्यवहार करते हैं. जो पत्नी काम करने की इजाजत दे देते हैं, उन में से अधिकांश पत्नी का लाया पैसा अपने कब्जे में कर लेते हैं.

यह ठीक है कि आज के अमीर घरों की पत्नियों के पास खर्चने को बड़ा पैसा है, वे नईनई ड्रेसें, साडिय़ां, जेवर खरीदती हैं, किट्टी पाॢटयों में पैसा उड़ाती हैं पर यह सब पति बहलाने के लिए करने देते हैं ताकि पत्नी पूरी तरह उन की गुलाम रहे. ऐशो आराम की हैविट पड़ जाए तो पति की लाख जबरदस्ती सुननी पड़ती है.

गनीमत बस यही है कि आजकल लड़कियों के मातापिता जब तक संभव होता है, शादी के बाद भी बेटी पर नजर रखते हैं, उसे सपोर्ट करते हैं, पैसा देते हैं, पति की अति से बचाते है. यहां पिता ज्याद जिम्मेदार होते हैं मां के मुकाबले. मांएं साधारण या अमीर घरों में गई बेटियों को एडजस्ट करने और सहने की ही सलाह देती है.

पति को आमतौर पर कोई हक नहीं चाहिए कि वह अपनी पत्नी के कैरेक्टर पर उंगली भी उठाए, खासतौर पर जब पत्नी घर छोड़ चुकी हो और पति देश. पति ने अगर 10000 रुपए मासिक की मामूली रकम दे दी तो कोई महान काम नहीं किया.

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