लेखिका- सुधा थपलियाल
औफिस वालों का बहुत सहयोग प्राची को मिल रहा था. शहर से बाहर की मीटिंग में प्राची को वे नहीं भेजते. घर, औफिस और पीहू को अकेले संभालना आसान नहीं था. प्राची शारीरिक रूप से कम मानसिक रूप से ज्यादा थक गई थी. सचाई यह थी कि वह पीहू के साथ नितांत अकेली थी. ऐसा नहीं कि उस को मनीष की कमी नहीं खलती थी. कई बार एक अजीब सा अकेलापन उस को डसने लग जाता. रात को जरा सी आहट से डर और घबराहट से आंख खुल जाती थी. थकाहारा शरीर पुरूष के स्नेहसिक्त स्पर्श और मजबूत बांहों के लिए तरस रहा था जिस के सुरक्षित घेरे में वह एक निश्चिंतताभरी नींद सो सके.
‘मम्मी, मेरे बर्थडे पर पापा आएंगे न?’ प्राची को गैस्ट की लिस्ट बनाते देख पीहू ने उत्सुकता से पूछा.
‘नहीं.’
‘क्यों?’ मायूस सी पीहू ने कहा.
‘मर गए तेरे पापा,’ प्राची के अंदर दबा आक्रोश उमड़ पड़ा.
लेकिन, अब यह मनीष का नशे में धुत, उस के घर का दरवाजा पीटना…पीहू की पापा से मिलने की बेताबी, प्राची की परेशानियों को और बढ़ा रहा था. एक दिन औफिस में व्यस्त प्राची को समय का पता ही नहीं चला. फोन की घंटी बजी, देखा अनिता का फोन था, “क्या बात है अनिता?” लैपटौप पर उंगलियां चलाती हुई प्राची बोली.
‘मैडम, बेबी की तबीयत ठीक नहीं लग रही,’ चिंतित सा अनिता का स्वर गूंजा.
‘क्या हुआ?’ घबराई सी प्राची बोली.
‘शाम तक तो ठीक थी, लेकिन अब…आप जल्दी आ जाओ,’ कह अनिता ने फोन रख दिया.
बदहवास सी प्राची कार चलाती हुई घर पहुंची. देखा, पीहू अचेत सी बिस्तर पर पड़ी हुई थी.
‘पीहू, पीहू.’
‘यह सब कैसे हुआ?’ घबराई सी प्राची ने अनिता से पूछा.
‘पता नहीं मैडम. दिन तक तो ठीक थी,’ फिर अचानक कुछ याद करते हुए बोली, ‘हां, बेबी के स्कूल से फोन आया था कि बेबी गिर गई थी और थोड़े समय के लिए बेहोश हो गई थी. स्कूल वाले आप को भी फोन लगा रहे थे. आप का फोन बंद आ रहा था. लेकिन बेबी जब घर आई तो बिलकुल ठीक थी. खाना भी ठीक से खाया था. लेकिन शाम को दूध पीते ही उलटी कर दी और बेहोश हो गई.’
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‘क्या?’ मीटिंग में होने के कारण, मोबाइल को साइलैंट मोड में रखने के अपराधबोध से प्राची भर गई.
उस समय जिस एक व्यक्ति का ध्यान आया प्राची को वह कोई और नहीं, मनीष था, पीहू का पिता. बेटी की ममता उस के प्रतिशोध पर भारी पड़ गई.
‘मनीष, मनीष…पीहू को…मैं आ रही हूं नर्सिंग होम,’ घबराहट में शब्द भी प्राची के गले में अटक गए.
‘क्या हुआ पीहू को?’ बेचैनी से मनीष ने पूछा, लेकिन तब तक प्राची फोन रख चुकी थी.
कैसे वह कार चला पाई, उसे स्वयं ही पता न था. बारबार पीहू को आवाज दे रही थी. पीहू अचेत सी अनिता की गोदी में पड़ी हुई थी. कार पार्किंग में खड़ी कर पीहू को गोदी में उठा बदहवास सी भागी जा रही थी. अचानक एक हाथ उस के कंधे पर किसी ने रखा. प्राची ने मुड़ कर देखा, मनीष सामने खड़ा था. उस की गोदी में पीहू को देती रोती हुई प्राची बोली, ‘मनीष, बचा लो मेरी बेटी को.’
मनीष ने आश्वासनभरा हाथ प्राची के कंधे पर रखा और चिंतित सा पीहू को तुरंत इमरजैंसी में ले गया. एकदम से उपचार शुरू हो गया. दूसरे डाक्टरों से भी सलाह ली जा रही थी. ड्रिप द्वारा दवाई पीहू के शरीर में जाने लगी. प्राची के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. एकएक पल भारी लग रहा था.
2 घंटे बाद जैसे ही पीहू ने हलकी बेहोशी में ‘मम्मा’ बोला, प्राची पागलों की तरह उस को चूमने लगी.
मनीष ने रोका क्योंकि ड्रिप अभी लगी हुई थी.
पापा मनीष को देख कर पीहू की निस्तेज आंखों में चमक सी आ गई. ‘पापा’ बोल कर पीहू फिर से अचेत हो गई.
पीहू के सिर पर प्यार से हाथ फेरतेफेरते मनीष की आंखें नम हो आईं.
‘चिंता मत करो. दवाइयों का असर है,’ प्राची को तसल्ली देते मनीष बोला. कमरे से बाहर निकलते मनीष ने कहा, ‘चूंकि यह गिरी है, इसलिए सारे टेस्ट होंगे. एकदो दिन पीहू को नर्सिंग होम में हमारी निगरानी में रहना होगा. मैं सारी औपचारिकता पूरी कर के आता हूं.’
प्राची को एक राहत सी मिली जब सारे टेस्ट में कुछ नहीं निकला. 2 दिनों बाद पीहू के डिस्चार्ज होने के बाद मनीष स्वयं छोड़ने आया. मनीष जब जाने लगा तो पीहू ने पापा को कस कर पकड़ लिया. बहुत समय के बाद उस को पापा का साथ मिला था. वह अपने पापा को बिलकुल नहीं छोड़ रही थी. मनीष ने एक बार प्राची की ओर देखा.
‘प्लीज, रुक जाओ,’ उस ने पीहू के लिए कहा या स्वयं के लिए, प्राची को खुद ही पता न था.
पहले की तरह पीहू उन दोनों के बीच में इतमीनान से सो गई. अंतर सिर्फ यह था कि पहले जहां पीहू मम्मी का हाथ पकड़ कर सोती थी, आज पापा का हाथ कस के पकड़ कर सो रही थी. पीहू के सोने बाद जैसे ही मनीष के हाथ प्राची की ओर बढ़े, प्राची की सांसों का स्पंदन तेज हो गया. उन पलों में वह मनीष द्वारा दिए गए सारे घावों को भूल, अपने ऊपर से नियंत्रण खो, एक प्यासी नदी के समान मनीष की आगोश में समा गई. इतने दिनों बाद एक पुरूष का स्पर्श उस के तनमन को भिगो रहा था और वह उस में डूबती जा रही थी.
फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा. अपने जीवन में आए अकेलेपन से त्रस्त प्राची यह भी भूल गई कि अब वह मनीष की पत्नी नहीं है.
‘यह मैं क्या सुन रही हूं?’ एक दिन नाराजगी से स्नेहा बोली.
‘थक गई हूं मैं अकेले सब देखतेदेखते,’ बेबसी से प्राची बोली.
‘क्या यह ठीक है?’ स्नेहा की नाराजगी शब्दों में झलक ही आई.
‘पीहू की चमक लौट आई है. मैं, उस को पिता के प्यार से वंचित नहीं कर सकती.’
‘कहां गया तुम्हारा स्वाभिमान? तुम एक सशक्त महिला हो. मनीष ने तुम्हारे साथ सिर्फ बेवफाई ही नहीं की, उस ने तलाक लेने के लिए पलभर भी कुछ नहीं सोचा.’
‘अकेलापन जीवन की सब से बड़ी त्रासदी है. यह सारी नैतिकता, सिद्धांतों, अभिमान, स्वाभिमान सब को तोड़ कर रख देता है,’ कौफी के कप को एकटक देखती हुई, भरे हुए स्वर में प्राची बोली.
‘इस का परिणाम सही नहीं होगा,’ चेतावनी देती स्नेहा उठ खड़ी हुई.
फिर वही हुआ. एक रात रीना ने आ कर तमाशा कर दिया.
‘आप? यहां क्या कर रहे हो इतनी रात में?’ मनीष पर चिल्लाती हुई रीना बोली.
‘मैं…’ मनीष घिघियाया सा बोला.
‘शर्म नहीं आती तुम्हें, दूसरे के पति के साथ रात बिताती हो,’ गुर्राती हुई रीना अब प्राची से बोली.
‘तुम दोनों ने मेरे साथ धोखा किया. ये मेरे पति थे,’ प्राची अपने दिल की भड़ास को निकालती हुई बोली.
‘थे… अब ये मेरे पति हैं, यह मत भूलना,’ फिर मनीष को आदेश देती हुई रीना बोली, ‘चलो, आप को तो मैं घर में देख लूंगी.’
कुछ दिनों बाद मनीष फिर आ जाता, प्राची फिर उस के सामने कमजोर पड़ जाती. फिर रीना का धमकीभरा फोन आता. 7 साल की पीहू भी अब कुछकुछ समझने लगी थी. एक अजीब चक्रव्यूह में प्राची ने अपने को फंसा लिया था. औफिस के लोग और परिजन भी अब प्राची से नाराज रहने लगे. स्नेहा तो सिर्फ काम की बात करती.
अब तो मनीष खुल कर, बेशर्म हो, दबंगता से दोनों को बेबकूफ बना रहा था. उस ने प्राची की कमजोरी पकड़ ली थी.
‘मनीष, क्या तुम उसे छोड़ नहीं सकते?’ बैड पर मनीष की बांहों में समाई प्राची पूछ बैठी.
‘कैसी बात करती हो? वह मेरी पत्नी है और मेरे बेटे की मां,’ मनीष ने प्राची को अपनी बांहों के घेरे में कसते हुए कहा.
‘और मैं?’ मनीष की बांहों की गिरफ्त से निकल, प्राची ने तिलमिलाते हुए कहा.
‘तुम मेरी पत्नी थीं,’ मनीष बोला.
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मनीष की बातों ने प्राची का कलेजा चीर कर रख दिया. वह हतप्रभ सी उस को देखती रह गई. उस रात को दोनों के बीच जो झगड़ा हुआ, उसे देख कर पीहू सहम गई. मम्मी को विक्षिप्तों की भांति रोते, चिल्लाते, चीजों को पटकते देख पीहू बोली, ‘जाओ पापा यहां से.’
मनीष के जाते ही प्राची बेचैनी से कमरे में इधर से उधर चलने लगी. आखिर रहा नहीं गया और स्नेहा को फोन लगा दिया.
‘हैलो,’ नींद में स्नेहा बोली. फिर प्राची का रोता स्वर सुन कर स्नेहा चौंक कर एकदम से पलंग पर बैठ गई. प्राची रोती हुई कह रही थी, ‘तुम ठीक कहती हो स्नेहा, मेरी जिंदगी एक तमाशा बन कर रह गई है.’
पूरी बातें सुनने के बाद स्नेहा बोली, ‘प्राची, नया अध्याय तभी खुलता है जब हम पिछला अध्याय बंद करते हैं.’
‘क्या मतलब?’ सुबकती हुई प्राची बोली.
‘मनीष तुम्हारे जीवन का एक बुरा अध्याय है, तुम ने उसे अभी तक बंद ही नहीं किया. बंद करो उसे.’
सुबह कमरे की लगातार बजती घंटी से प्राची की नींद टूट गई. दरवाजा खोला तो देखा, दीदी, जीजाजी, रिया और राहुल सामने खड़े थे. प्राची कस कर दीदी के गले लग गई. पीहू भी खुशी से उछल गई रिया और राहुल को देख कर. तीनों बच्चे धमाचौकड़ी मचाने लगे.
“अपना सामान उठाओ और चलो,” दीदी ने सामान को समेटते हुए कहा.
“बहुत अच्छा किया तुम ने जो अपना ट्रांसफर हैदराबाद से यहां बेंगलुरु करवा लिया,” जीजाजी ने गंभीरता से कहा.
प्राची ने कुछ नहीं कहा, बस, हलके से मुसकरा दी. कानूनी रूप से अलग हुए रिश्ते को अब दिल, दिमाग, शरीर से अलग कर एक सुकून सा महसूस कर रही थी वह.
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