Serial Story: नया अध्याय (भाग-3)

लेखिका- सुधा थपलियाल

औफिस वालों का बहुत सहयोग प्राची को मिल रहा था. शहर से बाहर की मीटिंग में प्राची को वे नहीं भेजते. घर, औफिस और पीहू को अकेले संभालना आसान नहीं था. प्राची शारीरिक रूप से कम मानसिक रूप से ज्यादा थक गई थी. सचाई यह थी कि वह पीहू के साथ नितांत अकेली थी. ऐसा नहीं कि उस को मनीष की कमी नहीं खलती थी. कई बार एक अजीब सा अकेलापन उस को डसने लग जाता. रात को जरा सी आहट से डर और घबराहट से आंख खुल जाती थी. थकाहारा शरीर पुरूष के स्नेहसिक्त स्पर्श और मजबूत बांहों के लिए तरस रहा था जिस के सुरक्षित घेरे में वह एक निश्चिंतताभरी नींद सो सके.

‘मम्मी, मेरे बर्थडे पर पापा आएंगे न?’ प्राची को गैस्ट की लिस्ट बनाते देख पीहू ने उत्सुकता से पूछा.

‘नहीं.’

‘क्यों?’ मायूस सी पीहू ने कहा.

‘मर गए तेरे पापा,’ प्राची के अंदर दबा आक्रोश उमड़ पड़ा.

लेकिन, अब यह मनीष का नशे में धुत, उस के घर का दरवाजा पीटना…पीहू की पापा से मिलने की बेताबी, प्राची की परेशानियों को और बढ़ा रहा था. एक दिन औफिस में व्यस्त प्राची को समय का पता ही नहीं चला. फोन की घंटी बजी, देखा अनिता का फोन था, “क्या बात है अनिता?” लैपटौप पर उंगलियां चलाती हुई प्राची बोली.

‘मैडम, बेबी की तबीयत ठीक नहीं लग रही,’ चिंतित सा अनिता का स्वर गूंजा.

‘क्या हुआ?’ घबराई सी प्राची बोली.

‘शाम तक तो ठीक थी, लेकिन अब…आप जल्दी आ जाओ,’ कह अनिता ने फोन रख दिया.

बदहवास सी प्राची कार चलाती हुई घर पहुंची. देखा, पीहू अचेत सी बिस्तर पर पड़ी हुई थी.

‘पीहू, पीहू.’

‘यह सब कैसे हुआ?’ घबराई सी प्राची ने अनिता से पूछा.

‘पता नहीं मैडम. दिन तक तो ठीक थी,’ फिर अचानक कुछ याद करते हुए बोली, ‘हां, बेबी के स्कूल से फोन आया था कि बेबी गिर गई थी और थोड़े समय के लिए बेहोश हो गई थी. स्कूल वाले आप को भी फोन लगा रहे थे. आप का फोन बंद आ रहा था. लेकिन बेबी जब घर आई तो बिलकुल ठीक थी. खाना भी ठीक से खाया था. लेकिन शाम को दूध पीते ही उलटी कर दी और बेहोश हो गई.’

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‘क्या?’ मीटिंग में होने के कारण, मोबाइल को साइलैंट मोड में रखने के अपराधबोध से प्राची भर गई.

उस समय जिस एक व्यक्ति का ध्यान आया प्राची को वह कोई और नहीं, मनीष था, पीहू का पिता. बेटी की ममता उस के प्रतिशोध पर भारी पड़ गई.

‘मनीष, मनीष…पीहू को…मैं आ रही हूं नर्सिंग होम,’ घबराहट में शब्द भी प्राची के गले में अटक गए.

‘क्या हुआ पीहू को?’ बेचैनी से मनीष ने पूछा, लेकिन तब तक प्राची फोन रख चुकी थी.

कैसे वह कार चला पाई, उसे स्वयं ही पता न था. बारबार पीहू को आवाज दे रही थी. पीहू अचेत सी अनिता की गोदी में पड़ी हुई थी. कार पार्किंग में खड़ी कर पीहू को गोदी में उठा बदहवास सी भागी जा रही थी. अचानक एक हाथ उस के कंधे पर किसी ने रखा. प्राची ने मुड़ कर देखा, मनीष सामने खड़ा था. उस की गोदी में पीहू को देती रोती हुई प्राची बोली, ‘मनीष, बचा लो मेरी बेटी को.’

मनीष ने आश्वासनभरा हाथ प्राची के कंधे पर रखा और चिंतित सा पीहू को तुरंत इमरजैंसी में ले गया. एकदम से उपचार शुरू हो गया. दूसरे डाक्टरों से भी सलाह ली जा रही थी. ड्रिप द्वारा दवाई पीहू के शरीर में जाने लगी. प्राची के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. एकएक पल भारी लग रहा था.

2 घंटे बाद जैसे ही पीहू ने हलकी बेहोशी में ‘मम्मा’ बोला, प्राची पागलों की तरह उस को चूमने लगी.

मनीष ने रोका क्योंकि ड्रिप अभी लगी हुई थी.

पापा मनीष को देख कर पीहू की निस्तेज आंखों में चमक सी आ गई. ‘पापा’ बोल कर पीहू फिर से अचेत हो गई.

पीहू के सिर पर प्यार से हाथ फेरतेफेरते मनीष की आंखें नम हो आईं.

‘चिंता मत करो. दवाइयों का असर है,’ प्राची को तसल्ली देते मनीष बोला. कमरे से बाहर निकलते मनीष ने कहा, ‘चूंकि यह गिरी है, इसलिए सारे टेस्ट होंगे. एकदो दिन पीहू को नर्सिंग होम में हमारी निगरानी में रहना होगा. मैं सारी औपचारिकता पूरी कर के आता हूं.’

प्राची को एक राहत सी मिली जब सारे टेस्ट में कुछ नहीं निकला. 2 दिनों बाद पीहू के डिस्चार्ज होने के बाद मनीष स्वयं छोड़ने आया. मनीष जब जाने लगा तो पीहू ने पापा को कस कर पकड़ लिया. बहुत समय के बाद उस को पापा का साथ मिला था. वह अपने पापा को बिलकुल नहीं छोड़ रही थी. मनीष ने एक बार प्राची की ओर देखा.

‘प्लीज, रुक जाओ,’ उस ने पीहू के लिए कहा या स्वयं के लिए, प्राची को खुद ही पता न था.

पहले की तरह पीहू उन दोनों के बीच में इतमीनान से सो गई. अंतर सिर्फ यह था कि पहले जहां पीहू मम्मी का हाथ पकड़ कर सोती थी, आज पापा का हाथ कस के पकड़ कर सो रही थी. पीहू के सोने बाद जैसे ही मनीष के हाथ प्राची की ओर बढ़े, प्राची की सांसों का स्पंदन तेज हो गया. उन पलों में वह मनीष द्वारा दिए गए सारे घावों को भूल, अपने ऊपर से नियंत्रण खो, एक प्यासी नदी के समान मनीष की आगोश में समा गई. इतने दिनों बाद एक पुरूष का स्पर्श उस के तनमन को भिगो रहा था और वह उस में डूबती जा रही थी.

फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा. अपने जीवन में आए अकेलेपन से त्रस्त प्राची यह भी भूल गई कि अब वह मनीष की पत्नी नहीं है.

‘यह मैं क्या सुन रही हूं?’ एक दिन नाराजगी से स्नेहा बोली.

‘थक गई हूं मैं अकेले सब देखतेदेखते,’ बेबसी से प्राची बोली.

‘क्या यह ठीक है?’ स्नेहा की नाराजगी शब्दों में झलक ही आई.

‘पीहू की चमक लौट आई है. मैं, उस को पिता के प्यार से वंचित नहीं कर सकती.’

‘कहां गया तुम्हारा स्वाभिमान? तुम एक सशक्त महिला हो. मनीष ने तुम्हारे साथ सिर्फ बेवफाई ही नहीं की, उस ने तलाक लेने के लिए पलभर भी कुछ नहीं सोचा.’

‘अकेलापन जीवन की सब से बड़ी त्रासदी है. यह सारी नैतिकता, सिद्धांतों, अभिमान, स्वाभिमान सब को तोड़ कर रख देता है,’ कौफी के कप को एकटक देखती हुई, भरे हुए स्वर में प्राची बोली.

‘इस का परिणाम सही नहीं होगा,’ चेतावनी देती स्नेहा उठ खड़ी हुई.

फिर वही हुआ. एक रात रीना ने आ कर तमाशा कर दिया.

‘आप? यहां क्या कर रहे हो इतनी रात में?’ मनीष पर चिल्लाती हुई रीना बोली.

‘मैं…’ मनीष घिघियाया सा बोला.

‘शर्म नहीं आती तुम्हें, दूसरे के पति के साथ रात बिताती हो,’ गुर्राती हुई रीना अब प्राची से बोली.

‘तुम दोनों ने मेरे साथ धोखा किया. ये मेरे पति थे,’ प्राची अपने दिल की भड़ास को निकालती हुई बोली.

‘थे… अब ये मेरे पति हैं, यह मत भूलना,’ फिर मनीष को आदेश देती हुई रीना बोली, ‘चलो, आप को तो मैं घर में देख लूंगी.’

कुछ दिनों बाद मनीष फिर आ जाता, प्राची फिर उस के सामने कमजोर पड़ जाती. फिर रीना का धमकीभरा फोन आता. 7 साल की पीहू भी अब कुछकुछ समझने लगी थी. एक अजीब चक्रव्यूह में प्राची ने अपने को फंसा लिया था. औफिस के लोग और परिजन भी अब प्राची से नाराज रहने लगे. स्नेहा तो सिर्फ काम की बात करती.

अब तो मनीष खुल कर, बेशर्म हो, दबंगता से दोनों को बेबकूफ बना रहा था. उस ने प्राची की कमजोरी पकड़ ली थी.

‘मनीष, क्या तुम उसे छोड़ नहीं सकते?’ बैड पर मनीष की बांहों में समाई प्राची पूछ बैठी.

‘कैसी बात करती हो? वह मेरी पत्नी है और मेरे बेटे की मां,’ मनीष ने प्राची को अपनी बांहों के घेरे में कसते हुए कहा.

‘और मैं?’ मनीष की बांहों की गिरफ्त से निकल, प्राची ने तिलमिलाते हुए कहा.

‘तुम मेरी पत्नी थीं,’ मनीष बोला.

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मनीष की बातों ने प्राची का कलेजा चीर कर रख दिया. वह हतप्रभ सी उस को देखती रह गई. उस रात को दोनों के बीच जो झगड़ा हुआ, उसे देख कर पीहू सहम गई. मम्मी को विक्षिप्तों की भांति रोते, चिल्लाते, चीजों को पटकते देख पीहू बोली, ‘जाओ पापा यहां से.’

मनीष के जाते ही प्राची बेचैनी से कमरे में इधर से उधर चलने लगी. आखिर रहा नहीं गया और स्नेहा को फोन लगा दिया.

‘हैलो,’ नींद में स्नेहा बोली. फिर प्राची का रोता स्वर सुन कर स्नेहा चौंक कर एकदम से पलंग पर बैठ गई. प्राची रोती हुई कह रही थी, ‘तुम ठीक कहती हो स्नेहा, मेरी जिंदगी एक तमाशा बन कर रह गई है.’

पूरी बातें सुनने के बाद स्नेहा बोली, ‘प्राची, नया अध्याय तभी खुलता है जब हम पिछला अध्याय बंद करते हैं.’

‘क्या मतलब?’ सुबकती हुई प्राची बोली.

‘मनीष तुम्हारे जीवन का एक बुरा अध्याय है, तुम ने उसे अभी तक बंद ही नहीं किया. बंद करो उसे.’

सुबह कमरे की लगातार बजती घंटी से प्राची की नींद टूट गई. दरवाजा खोला तो देखा, दीदी, जीजाजी, रिया और राहुल सामने खड़े थे. प्राची कस कर दीदी के गले लग गई. पीहू भी खुशी से उछल गई रिया और राहुल को देख कर. तीनों बच्चे धमाचौकड़ी मचाने लगे.

“अपना सामान उठाओ और चलो,” दीदी ने सामान को समेटते हुए कहा.

“बहुत अच्छा किया तुम ने जो अपना ट्रांसफर हैदराबाद से यहां बेंगलुरु करवा लिया,” जीजाजी ने गंभीरता से कहा.

प्राची ने कुछ नहीं कहा, बस, हलके से मुसकरा दी. कानूनी रूप से अलग हुए रिश्ते को अब दिल, दिमाग, शरीर से अलग कर एक सुकून सा महसूस कर रही थी वह.

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Serial Story: नया अध्याय (भाग-2)

लेखिका- सुधा थपलियाल

थोड़ी देर में एक दरवाजा खुलने की आवाज आई. एक लंबी, गौरवर्ण, सुंदर सी लड़की अस्तव्यस्त सी गाउन को पहने हुए बाहर निकली.

‘मम्मी, यह कैसा शोर हो रहा है? मैम, आप?’ प्राची को देखते ही उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

नफरत की निगाहों से रीना को घूरती हुई प्राची उस कमरे की ओर जाने लगी जहां से रीना निकली थी. घबराई सी रीना ने उसे रोकने की असफल कोशिश की. प्राची ने एक ओर उसे धक्का दे कर कमरे में घुस गई. मनीष बिस्तर पर आराम से निर्वस्त्र बेखबर सो रहा था. चादर एक ओर सरकी हुई थी.

‘मनीष,’ पूरी ताकत से प्राची चिल्लाई.

आंखें मलता हुआ मनीष उठा. प्राची को देख कर वह निहायत ही आश्चर्य से भर गया. सकपकाते हुए अपने को ढकने की कोशिश करने लगा.

‘नंगे तो तुम हो ही चुके हो, ढकने के लिए बचा ही क्या है?’ शर्ट उस की तरफ फेंकती हुई हिकारत से प्राची बोली और कमरे से बाहर आ गई.

रीना सिटपिटाई सी खड़ी हुई थी. थोड़ी देर में मनीष भी कपड़े पहन कर बाहर आ कर प्राची का हाथ पकड़ कर बाहर जाने के लिए मुड़ा. प्राची ने गुस्से से अपना हाथ झटक दिया. जातेजाते रीना की मां से प्राची बोली, ‘शर्म नहीं आती तुम्हें, तुम्हारे ही सामने, तुम्हारी बेटी किसी पराए आदमी के साथ सो रही है.’

‘हमारे बारे में क्या बक रही है, अपने आदमी से पूछ,’ बेशर्मी से उस औरत ने जवाब दिया.

‘तो… यह है तुम्हारा स्तर,’ मनीष की ओर देखती व्यंग्य से प्राची कह एक झटके में बाहर निकल गई.

‘प्राची, प्राची,’ मनीष बोलता ही रह गया.

रात की निस्तब्धता और कालिमा कैब में बैठी प्राची के अंतर्मन को भेद कर उस को तारतार कर रही थी. एक आंधी सी उस के अंदर उठ रही थी. जिस में उड़ा चला जा रहा था उस का मानसम्मान, प्रेम और विश्वास. दर्द घनीभूत हो सैलाब बन कर उस की आंखों से बह निकला.

‘मैम,’ ड्राइवर ने कहा.

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‘ओह,’ भारी आवाज में प्राची ने कहा और पेमेंट कर थके कदमों से घर में प्रवेश किया. आज अपना ही घर कितना पराया सा लग रहा था. थोड़ी देर में मनीष भी पहुंच गया. उस की हिम्मत नहीं हुई प्राची से कुछ बोलने की. वह सीधे बैडरूम में चला गया. प्राची वहीं सोफे पर ढह गई. मस्तिष्क में उठा बवंडर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. मन कर रहा था कि अभी जा कर मनीष को झकझोर कर पूछे ‘क्यों किया मेरे साथ ऐसा’. फिर अनिता का खयाल आते ही खामोश हो गई. आहत मन सोने नहीं दे रहा था. समय बहुत भारी लग रहा था. घड़ी में देखा सुबह के 5 बज रहे थे. दिल, दिमाग से टूटे शरीर को कब नींद ने अपनी आगोश में ले लिया, पता ही न चला.

‘मम्मा,’ पीहू अपने नन्हेंनन्हें हाथों से उसे उठा रही थी. प्राची एकदम से उठी. घड़ी सुबह के 10 बजा रही थी. समय देख कर प्राची हड़बड़ा गई. मनीष नर्सिंग होम जा चुका था. रात की बात याद कर एक बार लगा शायद कोई बुरा सपना देखा. अगले ही पल सचाई का एहसास होते ही पीहू को गोदी में उठा कर अपनी आगोश में भर कर जोरजोर से रोने लगी. किचन में पीहू के लिए कुछ बना रही अनिता एकदम से घबरा गई. पीहू भी ‘मम्मा…मम्मा’ कहते रोने लगी.

‘क्या हुआ मैडम,’ असमंजस से भरी अनिता बोली.

‘कुछ नही,’ आंसूओं को पोंछ्ती हुई प्राची बोली.

अचानक याद आया प्राची को कि 12 बजे औफिस में मीटिंग थी. तुरंत फोन पर सूचित किया कि वह औफिस नहीं आ पाएगी. पीहू को ले कर वह बैडरूम में चली गई. जिस घर में वह औफिस से आने के लिए बेचैन रहती थी, आज वही घर उस को काटने को आ रहा था. मन कर रहा था कि पीहू को ले कर भाग जाए यहां से. मनीष के प्रति मन घृणा से भर गया. मन कर रहा था कि कभी उस की शक्ल न देखे. किस को बताए, मां को… वह तो हार्ट की पेशेंट है. अपने सासससुर को, हां, यह ठीक रहेगा. रोतेरोते प्राची ने उन्हें सारी बातें बता दीं. सासससुर दोनों सन्न रह गए. अपने बेटे को धिक्कारते हुए और स्वयं अपने बेटे के इस कुकृत्य के लिए प्राची से माफी मांगने लगे.

शाम को मनीष जब नर्सिंग होम से वापस आया तो प्राची से माफी मांगने लगा.

‘क्यों किया तुम ने मेरे साथ विश्वासघात?’ मनीष का हाथ पकड़ कर प्राची चीख उठी.

‘तुम तो अपने जौब में इतनी व्यस्त रहती थीं, मेरे लिए तुम्हारे पास समय ही नहीं था,’ बेशर्मी से मनीष बोला.

‘किस के लिए व्यस्त रहती थी, अपने परिवार के लिए. तुम्हारा ही तो सपना था नर्सिंग होम का,’ मनीष के तर्कों से हैरान हो प्राची बोली.

मनीष अपने बचाव में जितना गिरता जा रहा था, प्राची उतना ही आहत होती जा रही थी. दोनों को लड़ते देख पीहू जोरजोर से रोने लगी. फिर तपाक से मनीष उठा और इंसानियत, प्यार, विश्वास सब का गला घोंट कर भड़ाक से दरवाजा खोल कर बाहर चला गया.

उस के बाद तो कुछ भी सामान्य नहीं रहा. अभी वह सोच ही रही थी कि क्या करे कि पता चला कि रीना मां बनने वाली है.

‘निकलो यहां से, मुझे तुम से कोई रिश्ता नहीं रखना,’ प्राची अपना आपा खो चुकी थी.

‘यह मेरा भी घर है,’ मनीष ने भी ऊंची आवाज में कहा.

‘मत भूलना यह गाड़ी और फ्लैट मेरे नाम हैं, और मैं, इन की किस्तें भर रही हूं,’ क्रोध से कांपती हुई प्राची बोली.

मनीष ने बिना वक्त गंवाए अपना सामान पैक किया और बाहर निकल गया. उस के बाद तो मनीष जैसे घर को भूल ही गया. मनीष की बातों से आहत, आक्रोशित प्राची एक घुटन सी महसूस कर रही थी, जो उस को अंदर ही अंदर से तोड़ रही थी. आखिर, उस ने अपनी मां, सासससुर, दीदीजीजा सब को बुला कर अपना निर्णय सुना दिया तलाक लेने का. सब ने बोलना शुरू कर दिया…इतना आसान नहीं यह सब. कैसे रहेगी अकेले. पीहू का क्या होगा? हम समझाएंगे मनीष को…

लेकिन रीना के मोहजाल में फंसा मनीष तो जैसे तलाक लेने के लिए पहले से ही तैयार बैठा था. किसी के समझाने का उस पर कोई असर न प‌ड़ा. आपसी सहमति से तलाक मिलने में ज्यादा समय न लगा. सारे परिजन बेबसी से दर्शक बने खड़े रह गए. वह दिन अच्छे से याद है प्राची को जब कोर्ट ने उन के तलाक पर मुहर लगाई थी. उस दिन रीना भी मौजूद थी. उस के चेहरे पर खिंची विद्रूप विजयी मुसकान आज भी प्राची के दिल को छलनी कर देती है. मनीष उस के पास आया और पीहू को गोदी में उठाने की कोशिश की. प्राची ने एकदम से पीहू को अपनी बांहों में जकड़ कर कठोर शब्दों में बोली, ‘मेरी बेटी को छूने की भी हिम्मत मत करना.’ और तेज कदमों से पीहू को ले कर चली गई. मनीष देखता ही रह गया.

एकएक कर के सब घर वाले प्राची को तसल्ली दे कर चले गए मां को छोड़ कर. मां भी कब तक रहती, एक दिन वह भी चली गई. फिर एक दिन मनीष आया, अपना बाकी सामान, कपड़े बगैरह लेने. प्राची ने अपने को और पीहू को गैस्टरूम में बंद कर लिया. मनीष ‘पीहूपीहू’ बोलता ही रह गया. प्राची को मनीष का पीहू के लिए तड़पना सुकून सा दे रहा था. मनीष ने जो उस के साथ विश्वासघात किया था, बिना उस की किसी गलती के उस को जो वेदना दी थी, उस की यह सजा तो उस को मिलनी ही चाहिए.

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मैं स्वार्थी हो गई थी: बसंती के स्वार्थी मन को पक्की सहेली वसुंधरा ने क्यों धिक्कारा?

Serial Story: मैं स्वार्थी हो गई थी (भाग-2)

लेखिका- रत्ना पांडे

“कहां मर गई थी, यहां वह अकेली पड़ीपड़ी मर जाएगी, किसी को फ़िक्र ही नहीं है, सब को अपनीअपनी पड़ी है”, कहते हुए बसंती ने गुस्से से लाल हुई आंखों से सरोज को देखा.

“जाओ, जल्दी से पड़ोसियों को बुलाओ, ताला तोड़ना पड़ेगा, उसे घर में कैद कर दिया है,” बसंती चिल्ला कर बोली.

“नहींनहीं, बसंती ताई, मेरे पास चाबी है. मैं अभी दरवाज़ा खोलती हूं. मुझे ही थोड़ी देरी हो गई,” कहते हुए सरोज ने दरवाज़ा खोला.

दोनों वसुंधरा की हालत देख कर हैरान रह गईं. तब तक पड़ोस से भी कुछ लोग आ गए. सरोज ने अंजलि को फोन लगाया.

“अंजलि मैडम, जल्दी आइए माईं की तबीयत बहुत खराब है. वे नीचे गिरी हुई हैं. हम क्या करें, समझ नहीं आ रहा.”

अंजलि घबरा गई और तुरंत उस ने अनिल को फोन कर के कहा, “जल्दी घर पहुंचो, मां की तबीयत बिगड़ गई है.”

अनिल अपनी कार से तुरंत निकल गया और अंजलि भी अपनी कार तेजी से चलाती हुई घर पहुंची, साथ ही उस ने डाक्टर को भी फोन कर के बुला लिया था.

डाक्टर के पहुंचते ही अंजलि और अनिल भी पहुंच गए. तब तक वसुंधरा को सब ने मिल कर नीचे से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया था.

डाक्टर ने वसुंधरा को देख कर तुरंत एंबुलैंस से अस्पताल ले जाने का आदेश दिया. एंबुलैंस आते ही वसुंधरा के साथ ही अंजलि और अनिल भी उस में बैठ गए. एक बार अंजलि की निगाह बसंती से मिली, तो वह उसे घूर रही थी मानो अंजलि बहुत बड़ी गुनाहगार हो. अंजलि ने अपनी आंखों को दूसरी और घुमाते हुए अपनी आंखों के आंसुओं को नीचे गिरने से रोका.

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हिम्मत दिखाती हुई वह वसुंधरा से बोली, “मां, सब ठीक हो जाएगा. आप बिलकुल चिंता नहीं करो, अनिल तुम भी हिम्मत रखो, मां बिलकुल ठीक हो जाएंगी.”

अस्पताल पहुंचते ही वसुंधरा का इलाज शुरू हो गया. पहले उसे आईसीयू में रखा गया. डाक्टर ने उसे देखने के बाद अनिल और अंजलि को सांत्वना दी, “वसुंधरा जल्दी ठीक हो जाएगी, ब्लडप्रैशर बहुत कम होने की वजह से ही उसे चक्कर आ गया था.”

24 घंटे आईसीयू में रखने के बाद उसे प्राइवेट कमरे में शिफ्ट कर दिया गया.

अब वसुंधरा होश में थी, अंजलि और अनिल उस के आसपास ही बैठे थे. गरिमा और वरुण, उस की पोती और पोता भी उस के पास ही खड़े थे. वसुंधरा सब को देख कर बहुत ख़ुश हो रही थी. तभी बसंती और कामिनी भी वसुंधरा को देखने अस्पताल आ गए. अंजलि और अनिल ने खड़े हो कर उन्हें बैठने की जगह दी. अंजलि ने झुक कर बसंती के पैर छुए, किंतु बसंती ने उस की तरफ देखा तक नहीं. कामिनी को बसंती का ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं लगा. लेकिन वह कुछ कह न सकी. सब बैठ कर बातें कर ही रहे थे, तभी डाक्टर ने आ कर वसुंधरा को घर ले जाने की अनुमति दे दी.

अंजलि और अनिल ने सारी कार्यवाही पूरी कर दी. सभी लोग अनिल की कार में बैठ कर घर के लिए रवाना हुए. सिर्फ़ कामिनी, अंजलि के साथ उस की कार में बैठी.

कामिनी ने कार में बैठते ही अंजलि से कहा, “मुझे घर छोड़ दोगी, प्लीज. शाम हो रही है, खाना भी पकाना है.”

अंजलि ने कहा, “बिलकुल, पहले तुम्हें छोड़ देती हूं, फिर मैं मां की कुछ दवाइयां लेती हुई घर जाऊंगी, तब तक अनिल और मां भी घर पहुंच जाएंगे.”

रास्ते में अंजलि और कामिनी आपस में बात करने लगीं. तभी कामिनी ने कहा, “अंजलि, मैं मन ही मन घुटती रहती हूं, मुझे भी नौकरी करने का मन होता है, घर तो मैं फिर भी संभाल ही लूंगी. लेकिन मम्मी हमेशा मना कर देती हैं. उन्हें लगता है कि वसुंधरा आंटी हमेशा दुखी रहती हैं, अकेली रहती हैं. मम्मी की वजह से सचिन भी मुझे नौकरी के लिए मना कर देते हैं. दूसरी कोई समस्या नहीं है, मम्मी स्वाभाव से अच्छी हैं, बस, नौकरी को ले कर गलत धारणा बना कर बैठी हैं.

“अंजलि, तुम ही सोचो इस महंगाई के जमाने में एक की कमाई से सारे सुखसुविधा तो हासिल हो ही नहीं सकते न. यदि हम दोनों कमाएं तो बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दें. अंजलि, बहुत दुख होता है जब बच्चे कुछ मांगते हैं तो उन्हें मना करने में. अब तुम ही कोई उपाय बताओ, मम्मी की गलत धारणा को बदलना ही होगा.”

“हां कामिनी, मैं समझ सकती हूं, पर, बसंती आंटी को समझाना बहुत मुश्किल है. इस मामले में तो वे मां की भी नहीं सुनतीं, फ़िर भी यदि कोई उन की मानसिकता बदल सकता है तो वह केवल मां ही हैं.”

इतनी बात करतेकरते कामिनी का घर आ गया. कार से उतर कर अंजलि से बाय कह कर वह चली गई.

अंजलि भी दवाइयां ले कर जल्दी ही अपने घर पहुंच गई. तब तक अनिल भी घर पहुंच चुका था. वसुंधरा को बिस्तर पर लिटा कर सभी उस के पास बैठ गए. अंजलि ने वसुंधरा को दवाइयां दीं और सभी के लिए चाय बना कर लाई. सब ने चाय ले ली किंतु बसंती ने अंजलि की तरफ देख कर मुंह फेर लिया और चाय लेने से इनकार कर दिया. कुछ देर रुकने के बाद बसंती अपने घर चली गई.

धीरेधीरे एक सप्ताह बीत गया. बसंती हर रोज आती थी और वसुंधरा के पास बहुत देर तक बैठी रहती. वसुंधरा को भी उस का आना बहुत अच्छा लगता था.

धीरेधीरे वसुंधरा की तबीयत में काफी सुधार हो गया और फ़िर अंजलि ने औफ़िस जाना भी शुरू कर दिया.

आज जब वसुंधरा से मिलने बसंती आई तब घर में सिर्फ़ वसुंधरा और सरोज ही थे. आते ही बसंती का पहला प्रश्न था, “अरे वसु, अंजलि कहां है? बस, चली गई अपनी नौकरी पर, यहां सास बीमार है और उसे नौकरी की पड़ी है. देखा, मैं कहती थी न, बहू को नौकरी मत करने दे, पर तू ने कभी नहीं सुना, अब भुगत. अब वह कभी नौकरी नहीं छोड़ेगी और तू…”

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“बस कर बसंती, बहुत हो गया. मैं इतने दिनों से तेरा खराब व्यवहार देख रही हूं अंजलि के साथ, क्या तुझे ऐसा करना ठीक लगता है?”

वसुंधरा को इस तरह नाराज़ देख कर बसंती सन्न रह गई.

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Serial Story: मैं स्वार्थी हो गई थी (भाग-1)

लेखिका- रत्ना पांडे

वसुंधरा और बसंती बचपन की पक्की सहेलियां थीं. साथ खेलती, साथ पढ़ती, साथसाथ ही स्कूल जाती थीं. एकदूसरे की पड़ोसिन होने की वजह से काफी वक़्त साथ में गुजारती थीं. दोनों के विचार अलग होने के बावजूद भी दोनों में बेहद गहरी दोस्ती थी. साथ चलतेचलते पता ही नहीं चला, कब बड़ी हो गईं.

दोनों की दोस्ती पूरे महल्ले में मशहूर थी. सब लोगों ने बचपन से उन्हें साथ में देखा था. शायद, प्रकृति भी उन्हें अलग नहीं करना चाहती थी. वसुंधरा और बसंती की शादी एक ही शहर में तय हो गई, दोनों के घर भी कुछ ही दूरी पर थे.

शादी के बाद भी दोनों का मिलनाजुलना, कम ही सही, बंद नहीं हुआ. दोनों अपनेअपने परिवारों में खुश थीं और अपनी ज़िम्मेदारियां निभा रही थीं. वक़्त कभी कहां रुकता है, आगे बढ़ता ही जा रहा था. वसुंधरा और बसंती अब बुजुर्गों की श्रेणी में आ चुकी थीं.

वसुंधरा का एक बेटा था अनिल और बहू अंजलि. वसुंधरा की बहू अंजलि नौकरी करती थी. बेटेबहू के औफ़िस जाने के बाद वसुंधरा अकेली हो जाती थी क्योंकि उस के पति का निधन हो चुका था. उन की पोती गरिमा और पोता वरुण पंचगनी के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे. दोनों को शुरू से ही अच्छे स्कूल में पढ़ाई करने के लिए वहां भेज दिया गया था. वसुंधरा का स्वास्थ्य भी धीरेधीरे खराब हो रहा था.

बसंती का भी एक ही बेटा था सचिन और बहू कामिनी. बसंती ने कामिनी को कभी नौकरी नहीं करने दी. कई बार कामिनी ने उस से अनुमति मांगी, लेकिन बसंती का निर्णय अटल ही रहा.

कामिनी अधिकतर सचिन से कहती रहती थी, “सचिन यदि मैं भी नौकरी कर लूं तो हमारे बच्चे भी बड़े स्कूल में पढ़ सकते हैं. हम और अच्छी ज़िंदगी जी सकते हैं. बच्चों का भविष्य बेहतर बना सकते हैं.”

किंतु सचिन अपनी मां की वजह से हर बार कामिनी को न में जवाब देता था. इस वजह से कामिनी और सचिन में कई बार झगड़ा भी हो जाता था.

बसंती जब भी वसुंधरा से मिलने उस के घर आती, उसे अकेला देख कर दुखी हो जाती थी. वह हमेशा उस से कहती, ‘वसुंधरा, कितनी बार तुझे समझाया, अपनी बहू को नौकरी मत करने दे. नौकरी करेगी वह और घर का कामकाज, जवाबदारी सब तेरे ऊपर आ जाएगा. लेकिन तू है कि सुनती ही नहीं. हमारी उम्र हो रही है, कभी घुटने दुखते हैं, कभी कमर. कब तक तू अकेली पिसती रहेगी ऐसे ही.’

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‘बसंती, ऐसा नहीं है…’, वसुंधरा कुछ कहने की कोशिश करती, उस से पहले ही बसंती उसे चुप कर देती थी यह कह कर कि ‘मुझे तेरी कोई दलील नहीं सुननी है.

देख, मैं कैसे शान से रहती हूं, दिनभर बहू घर में रहती है. मुझे कोई जवाबदारी नहीं उठानी पड़ती. बच्चे भी स्कूल से वापस आ कर घर में रहते हैं. अभी छोटे हैं, दिनभर उन की हलचलमस्ती देख कर समय कैसे कट जाता है, पता ही नहीं चलता.’

वसुंधरा हमेशा बसंती की बातें एक कान से सुन दूसरे से निकाल दिया करती थी. जब कभी वह बसंती के सामने कुछ सफाई देने की कोशिश करती तो बसंती एक न सुनती थी. अंजलि के साथ बसंती का व्यवहार उखड़ाउखड़ा ही रहता था. अंजलि उस के इस स्वभाव को जानती थी और हमेशा उस के पांव छू कर ही उस से मिलती थी.

अंजलि और कामिनी भी अकसर मिल जाया करती थीं. वसुंधरा और बसंती की दोस्ती के कारण दोनों परिवारों के घनिष्ठ पारिवारिक संबंध थे. कामिनी के दिल की बात अंजलि जानती थी. वह जानती थी कि कामिनी ख़ुश नहीं है. वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती है, अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहती है. किंतु बसंती की ज़िद के आगे उस के सपने, सपने ही रह जाते हैं. अंजलि हमेशा उसे समझाती कि वक़्त जरूर बदलेगा तुम भी जीवन में आगे बढ़ पाओगी. किंतु कामिनी जानती थी, ये सब मन को समझाने की बातें हैं.

समय आगे बढ़ता रहा और वसुंधरा ज्यादा बीमार रहने लगी. अंजलि और अनिल ने अपनी मां की देखभाल करने के लिए एक युवती सरोज को रख लिया. वह हर रोज़ 10 बजे आती और शाम 7 बजे तक रुकती थी. अंजलि 10 बजे अपने औफ़िस के लिए निकलती थी जबकि अनिल 9 बजे ही चला जाता था. अंजलि के जाने के आधे घंटे के बाद सरोज आ जाती थी. इतनी देर ही वसुंधरा को अकेले रहना पड़ता था.

वसुंधरा के घुटने काफी खराब हो चुके थे. उसे चलनेफिरने में बहुत तकलीफ़ होती थी. साथ ही ब्लडप्रैशर भी बहुत कम हो जाता था. अंजलि उस की दवाइयों का हमेशा खयाल रखती थी और उसे ख़ुश रखने की कोशिश भी करती थी.

सोमवार का दिन था, अंजलि के जाने के बाद अचानक ही वसुंधरा की तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई और वह दर्द से अपने बिस्तर पर लेटेलेटे कराह रही थी. वह सरोज का रास्ता देख रही थी कि सरोज आ जाए तो अच्छा रहेगा. किंतु आज सरोज भी वक़्त पर ना आ पाई. वसुंधरा का पेटदर्द काफी बढ़ रहा था. तभी उस ने सोचा धीरेधीरे बाथरूम जा कर आती हूं, शायद तब दर्द से राहत मिले.

ऐसा सोच कर वह पलंग से उठने लगी, किंतु ब्लडप्रैशर कम हो जाने की वजह से उसे चक्कर आ गया और वह कराहते हुए गिर पड़ी. फिर वह वापस उठ न पाई. वह नीचे पड़ेपड़े कराह रही थी. उसी समय बसंती, वसुंधरा से मिलने आई और बाहर ताला लगा देख कर वह सोच में पड़ गई कि वसुंधरा कहां गई होगी. तभी उसे अंदर से कराहने की आवाज़ आई. बसंती ने पास जा कर सुना, बोल पड़ी, “अरे, यह तो वसुंधरा की आवाज़ है.”

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वह घबरा गई और जोर से बोली, “वसुंधरा, क्या हुआ, बाहर से ताला लगा कर तुम्हें अंदर क्यों बंद कर दिया गया है? तुम डरो नहीं, मैं कुछ करती हूं.”

बसंती को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, पड़ोसियों को बुलाती हूं, ऐसा सोच कर वह जैसे ही पलटी, उस ने देखा, सरोज तेजी से आ रही थी. सरोज को देखते ही बसंती का पारा सातवें आसमान पर था.

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Serial Story: मैं स्वार्थी हो गई थी (भाग-3)

लेखिका- रत्ना पांडे

वह कुछ बोले, उस से पहले वसुंधरा ने ही बोल दिया, “बिलकुल चुप रह बसंती, सालों से तेरी बकबक सुन रही हूं, आज तुझे मेरी पूरी बात सुननी होगी. तुझे क्या लगता है, मेरी बहू खराब है, वह मेरा खयाल नहीं रखती या औफ़िस में आराम करने जाती है. आज उसी की वजह से मैं ठीक हो पाई हूं. नौकरी के साथ ही वह अपने घर की पूरी जिम्मेदारियां उठाती है. मेरा इतना खयाल रखती है कि मुझे कभी बेटी की कमी महसूस ही नहीं होती. आज उस की वजह से बच्चे इतने बड़े स्कूल में पढ़ रहे हैं. घर में हर सुखसुविधा है, दोदो कारें हैं, कामवाली है. यहां तक कि मेरी देखभाल के लिए यह सरोज भी है, जो हर वक़्त मेरे पास रहती है जब तक अंजलि न आ जाए और हां, मुझे सिर्फ़ आधा घंटा ही अकेले रहना पड़ता है. अंजलि के जाने के आधे घंटे के अंदर ही सरोज आ जाती है.”

“सिर्फ़ उसी दिन गड़बड़ हो गई थी. अंजलि की ख़ास मीटिंग थी, इसलिए औफ़िस से वह फोन नहीं कर पाई, वरना जाते ही उस का फोन आ जाता है, मां, सरोज आ गई न. किंतु उस दिन सरोज की साइकिल पंचर हो गई, इसलिए उसे देर हो गई. मेरी भी तबीयत उसी दिन बिगड़ गई. उस दिन मैं ने ही अंजलि से कहा था कि बाहर से ताला लगा दे बेटा, मैं सो रही हूं, सरोज ताला खोल कर ख़ुद ही अंदर आ जाएगी.”

“बसंती, तुझे क्या लगता है, तू ठीक कर रही है कामिनी के साथ. इतनी पढ़ीलिखी, होशियार लड़की ले कर आई है, उसे घर में कैद कर रखा है. तू क्यों उसे उस की जिंदगी जीने नहीं देती? क्यों अपनी इच्छाओं को उस पर लाद रही है? उस के उज्ज्वल भविष्य को क्यों बरबाद कर रही है? तुझे क्या लगता है, कामिनी बहुत खुश है? मैं ने उस की आंखों में हमेशा दर्द देखा है, जो तुझे कभी दिखाई नहीं देता. तुझे हमेशा तू ही सही लगती है, कोई और लड़की होती तो तेरी एक न सुनती, अपनी मरजी से नौकरी ढूंढ कर चली जाती. अरे, आजकल की लड़कियां तो अपने साथ बेटे का तबादला तक करवा लेती है ताकि सासससुर के साथ रहना न पड़े.

“लेकिन, कामिनी वैसी लड़की नहीं है. तू तो समय की बलवान है जो तुझे कामिनी जैसी बहू मिली है. हमें यदि अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए कुछ देर अकेले रहना पड़े, थोड़ाबहुत त्याग करना पड़े, अपने ही घर की जवाबदारी में हाथ बंटाना पड़े, तो उस में गलत क्या है बसंती? बच्चे भी हमारे ही तो हैं, बहू भी हमारी बेटी ही तो है, फ़िर ऐसा भेदभाव क्यों? बसंती, तुझे सोचना होगा कि तू जो कर रही है, वह गलत है.

“एक बार सोच बसंती, हम अपनी ज़िंदगी में कुछ भी नहीं कर सके. हम भी पढ़ेलिखे थे. इस बात का दुख आज भी मन को शूल की तरह चुभता है. लेकिन वह और ज़माना था, आज का दौर कुछ और है. आज हम से कहीं ज्यादा पढ़ीलिखी लड़कियां हैं और समय भी तो बदल गया है न बसंती. आज और कल के फ़र्क को एक अकेले की कमाई से पूरा नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी दोनों को कंधे से कंधा मिला कर काम करना पड़ता है. हम अपने स्वार्थ के लिए उन का रास्ता नहीं रोक सकते.”

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वसुंधरा की बातें सुनतेसुनते बसंती की आंखों से आंसू की बूंदें टपटप कर के गिर रही थीं.

वसुंधरा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर प्यार से कहा, “बसंती, सोच, सही सोच, अभी भी ज़्यादा देर नहीं हुई है, इंसान चाहे तो बिगड़ी बात ज़रूर बन सकती है.”

बसंती ने चश्मा उतार कर अपने आंसू पोंछे और उठ कर खड़ी हो गई, “मैं जा रही हूं वसु, मुझे देर हो रही है,” इतना कह कर बसंती चली गई.

वसुंधरा सोच रही थी, ‘मैं ने कुछ ज़्यादा तो नहीं कह दिया, बसंती को बुरा तो नहीं लग गया होगा.’ इतने में अंजलि भी आ गई. तब वसुंधरा ने अंजलि को सारी बात बताई.

अंजलि ने कहा, “ठीक ही तो है मां, आप ने ठीक किया. बसंती ताई को समझाना बहुत ज़रूरी था. उन्हें समझना ही होगा, तभी कामिनी का जीवन सुखी होगा.”

बसंती घर पहुंचते ही सोफे पर जा कर बैठ गई. उसे देख कर कामिनी तुरंत ही उस के पास आ कर बैठ गई और पूछने लगी, “मम्मी, कैसी हैं वसु आंटी? इतना पूछतेपूछते ही कामिनी ने बसंती की रोई हुई आंखों को पहचान लिया. क्या हुआ मम्मी, आप की आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं? वसु आंटी ठीक हैं न?”

बसंती फफकफफक कर रो पड़ी और कामिनी को अपनी बांहों में भर लिया. वह बहुत देर तक रोती रही, कुछ बोल ही नहीं पा रही थी.

कुछ देर में जब वह सामान्य हुई, तब कामिनी से बोली, “बेटा, आज मेरी आंखें खुल गई हैं, सब से पहले तो मैं तुझ से माफ़ी मांगती हूं. मुझे माफ़ कर दे कामिनी बेटा. मैं ने तुम्हारे पांव में ज़ंजीर बांध रखी थी. मैं तुम्हारे भविष्य के आड़े आ गई थी. कुछ देर तो अवश्य ही हो गई है, पर बहुत देर नहीं हुई न कामिनी?”

“मम्मी, आप यह क्या बोल रही हैं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा और मुझ से माफी क्यों मांग रही हैं आप?”

“कामिनी बेटा, मैं चाहती हूं, तुम भी नौकरी करो, तुम भी अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक ही जियो. हमारे बच्चे भी हर सुख उठा सकें और सचिन को भी मदद मिल सके. हमारे घर के सामने भी एक कार खड़ी हो. कामिनी बेटा, मैं स्वार्थी हो गई थी, मैं अपने लिए ही सोचती रही. मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी है, लेकिन आज वसुंधरा ने मेरी आंखें खोल दीं. अब मैं वसु से तभी मिलूंगी जब मिठाई ले कर उस के घर जाऊंगी.”

इतना सुनते ही कामिनी को मानो दुनिया की सब से बड़ी ख़ुशी मिल गई. उस ने झुक कर बसंती के पांव छुए. उस की आंखें अश्कों से भीग गई थीं, किंतु वे दुख के नहीं, ख़ुशी के मोती बनकर टपक रहे थे. कामिनी को बसंती ने सीने से लगा लिया. बसंती के दिमाग से एक गलत धारणा के निकलने से पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई.

वसुंधरा रोज़ बसंती की रास्ता देखती रही. वह जानती थी बसंती ज़रूर वापस आएगी, किंतु खाली हाथ नहीं मिठाई और कामिनी की नौकरी की खबर ले कर.

कुछ ही सप्ताह में कामिनी को नौकरी मिल गई. बसंती, सचिन और कामिनी मिठाई ले कर सब से पहले वसुंधरा के घर आए. बसंती के हाथों में मिठाई का डब्बा और कामिनी के चेहरे की ख़ुशी देख कर वसुंधरा बिना सुने ही सबकुछ समझ गई. बसंती ने मिठाई का टुकड़ा निकाल कर अपने हाथों से वसुंधरा को खिलाया और उस के गले लग गई. वसुंधरा ने भी उसे प्यार से अपनी ओर खींच लिया. आज दोनों सहेलियों के इस पुनर्मिलन में न जाने कितनी ख़ुशियां, कितनी समझदारी, कितना त्याग, कितना प्यार और अपने परिवार का कितना हित छिपा हुआ था.

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उस दिन बसंती कुछ न कह पाई थी जब वसुंधरा उसे समझा रही थी. लेकिन आज कुछ ख़ुशी और कुछ बहते हुए आंसुओं के साथ बसंती के मुंह से जो पहला वाक्य निकला, वह था, “वसु, मैं स्वार्थी हो गई थी.”

Serial Story: अहिल्या (भाग-3)

अब तुहिना को वाकई इधरउधर डोलने के सिवा कोई काम नहीं था. सो, वह अब हर कमरे को खोलखोल कर देखने लगी. हवेली के पिछवाड़े में खलिहान था, जहां शायद फसल कटने पर रखी जाती थी. अनाज की कोठरियां थीं और बड़ा सा गौशाला भी, जहां कई मजदूर लोग थे, जो वहां मौजूद दसियों गायों की देखभाल करते थे.

तुहिना ने सब पता किया, दूध हर दिन विशेष गाड़ी से पटना स्थित एक डेरी फार्म में जाता था और अनाज की बोरियां भी ट्रकों में भर मंडियों मे बिकने जाती थीं. अब तक थैली में दूध खरीदने वाली आश्चर्य से अपनी मिल्कीयत देख रही थी.

एक बात उसे अजीब लगती कि उस की सास अपने पति यानी उस के ससुर से परदा करती थी, जबकि तुहिना को कुछ भी मनाही नहीं थी.

एक दिन तुहिना ने सुबहसुबह देखा था, आंगन में ससुरजी कुरसी पर बैठे थे और सास एक बहीनुमा खाते को खोल कर कुछ बता रही थीं. वह ऊपर तले की मुंडेर से नीचे झांक रही थी, पूरे वक्त उस की सास कुछ समझाने का प्रयास कर रही थीं.

उस ने यह भी देखा कि उन्होंने बहुत सारे रुपए एक पोटली में जो बंधे हुए थे, उन के हाथ में दिए. ससुरजी ने न उसे गिना या ठीक से देखा, उसे फिर से बांध सास के ही हाथ में थमा दिए. वे बिलकुल वैसे ही कर रहे थे, जैसे अंकुर से कुछ जबरदस्ती करवाओ तो करता है. वह हावभाव से समझ रही थी ऊपर से.

दीवाली का दिन था. अंकुर दोपहर में खाना खा कर फिर सो गया था. उस के ससुरजी नीचे पूजा वाले कमरे में थे और तुहिना रसोई के बगल वाले स्टोर रूम में घुस कर संदूकों और बक्सों को खोलखोल कर देख रही थी. बहुत पुरानेपुराने कपड़े थे, कई बक्सों में तो सिर्फ साड़ियां भरी हुई थीं. भारीभारी बनारसी साड़ियां थीं ज्यादातर.

एक लकड़ी की सुंदर सी अलमारी थी, उस में बहुत सारी ब्लैक ऐंड व्हाइट तसवीरें थीं. एक संदूक था, जिसे खोलना तुहिना को आ ही नहीं रहा था. वह दीवाल में लगा हुआ था और उस के दरवाजे पर अंदर घुसा कर खोलने वाले ताले थे.

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चर्रमर्र की आवाज से मम्मी भी वहां आ कर खड़ी हो गई थीं. पहले तो तुहिना को भान ही नहीं हुआ, फिर जब देखा कि वे उसे ही मूक हो देख रही हैं, तो तुहिना थोड़ी झेंप सी गई. क्या सोच रही होंगी वे कि कैसी लड़की है सबकुछ मानो देख ही लेगी. तुहिना झट से हाथ में पकड़ी तसवीर को अलमारी में रखने लगी.

“रुको बहू, मैं खुद तुम्हें इस कमरे में लाना चाह रही थी, पर तुम्हारे ससुरजी राजी नहीं हो रहे थे,“ सासू मां ने कहा, तो वह थम गई.

उस के बाद देर तक वे उसे अलमारी के फोटो दिखाती रहीं, बताती रहीं, सुनाती रहीं. संदूक खोल कर उसे दिखाया, जिस में सोनेचांदी, हीरेमोती के गहने भरे पड़े थे.

एक लाल बनारसी साड़ी उस में से निकाल कर उसे पहना दी और गहनों से लाद दिया ऊपर से नीचे तक.

तुहिना किंकर्तव्यविमूढ़ हो सब करती रही. शाम हो चली थी. उसे ले कर वे पूजाघर में पहुंचा आईं और खुद बाहर जा कर बैठ दीयाबाती की तैयारी करने लगीं.

अंकुर भी कुरतापाजामा में सजीला बन पूजाघर में आ बैठा, पापाजी तो थे ही. देर रात तक पूजा चली, फिर सब ने मां के हाथ के पकवानों को चाव से खाया, मम्मी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.

दूसरे दिन सुबह तीनों पटना के लिए निकल पड़े. अंकुर मां के गले लग कर रोने वाला इस बार अकेला नहीं था, तुहिना भी उसी व्यग्रता से रो रही थी.

पापाजी कार में पहले ही जा बैठे थे. लौटते वक्त रास्तेभर शायद ही किसी ने आपस में बातें की होंगी मानो सब गमगीन हों. पर तुहिना अब तक सुन रही थी, गुन रही थी, जो उस दोपहरी मम्मी ने उसे बताया था, “दुलहन ई सब संभाल लो, अब मुझ से नहीं होता है. न… न, ई फोटो को नहीं रखो अंदर. पहले इन्हें ध्यान से देखो, प्रणाम करो इन को. ये ही तुम्हारी सास हैं ‘राधा’, अंकुर को जन्म देने वाली. मैं तो राधा दीदी के मायके से आई अनाथ हूं, जो राधा के संग उस के ब्याह के साथ ही आई थी उस की देखभाल करने. क्या जानती थी कि ऐसा हो जाएगा कि सब चले जाएंगे और मैं ही रह जाऊंगी देखभाल करती हुई सबकुछ. सबकुछ है इस घर में, बस रहने वाले आदमी ही नहीं हैं. अंकुर के पिता भी अकेले थे, उस के दादा भी अकेली संतान ही थे.“

फिर उन्होंने तुहिना को वह बात बताई, जिस से अंकुर भी अनजान है, “अंकुर को जन्म देने के बाद से ही राधा दीदी बीमार रहने लगी थीं. अंकुर के 6 महीने का होतेहोते वे चल बसीं. अब इत्ते बड़े घर में रह गए अंकुर के पापा और दादाजी और नन्हा सा अंकुर. मैं कहां जाती. मैं बच्चे को सीने से लगा कर पालने लगी, जब तक अंकुर के दादाजी रहे, वे कोशिश करते रहे कि मेरी शादी हो जाए, पर न मेरी शादी हुई और न अंकुर के पापा ने दूसरी शादी की.

“हम अंकुर के मांबाप जरूर थे, पर पतिपत्नी नहीं. बचपन में अंकुर यहीं गांव के स्कूल में पढ़ता रहा, फिर कुछ बड़ा होने पर ठाकुर साहब पटना में बैंक की नौकरी करने लगे. कारण, यहां गांव में लोग तरहतरह की बातें करने लगे थे हम दोनों को ले कर.

“फिर अंकुर को आगे अच्छी तालीम भी तो देनी थी, इतना बड़ा आदमी अपना सबकुछ मुझ दाई के हाथों सौंप कर एक छोटी सी नौकरी करने लगा. अंकुर की मां बन मैं यहीं इस घर में रह गई, राधा की अमानत समझ संभालती रही. सुनती भी रही जमाने के जहरीले बोल, ठाकुर साहब तो मुझ से हिसाब भी न पूछते, पर मैं कैसे कुछ गलत करती. आखिर सब मेरे बेटे अंकुर का ही तो है. पर अब अकेलापन हावी होने लगा है, ये सब धनदौलत तुम लोगों का ही है, दुलहन अब संभालो अपनी अमानत.

“अंकुर मुझे मां समझता है, बस यही भरम मेरे जीने के लिए बहुत है. उम्मीद है दुलहन, तुम हमेशा उस की मां को जिंदा रखोगी कम से कम जब तक मैं जिंदा हूं. मत तोड़ना ये भरम,” मम्मी हाथ जोड़ कर कहने लगी थीं.

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कार पटना एयरपोर्ट पहुंचने को थी, तुहिना को अपना कहा याद आ रहा था, जिसे उसे जल्दी ही पूरा करना भी है, “मां, अब आप अकेली नहीं हैं. आप यहां जितना होता है समेट दें. बहुत काम कर लिया, अब आप अपने बेटेबहू के संग रहेंगी, बस अगले महीने मैं फिर आ कर आप को ले जाऊंगी.”

तुहिना सोच रही थी कि अचानक ध्यान आया कि मम्मी का नाम तो उस ने पूछा ही नहीं, अवश्य उन का नाम ‘अहिल्या’ ही होगा.

Serial Story: अहिल्या (भाग-2)

अंकुर बीचबीच में अपनी मां को बता रहा था कि वे लोग कहां तक पहुंचे या कितनी देर में पहुंच जाएंगे.

रास्ते में पहली बार तुहिना अपने ससुरजी से भी इतनी घुलमिल कर बातें करती जा रही थी. उस के ससुरजी काफी लंबे बलिष्ठ कदकाठी के व्यक्ति थे, जिन पर उम्र अपनी छाप नहीं लगा पाई थी अब तक.

जब कार लंबीचैड़ी बाउंड्री वाल को पार करती हुई एक दरवाजे के सामने जा कर रुकी तो तुहिना हैरान रह गई उस दरवाजे को देख कर.

अर्धगोलकार बड़े से उस नक्काशीदार लकड़ी के दरवाजे के ऊपर महीन काष्ठकारी की हुई थी, दरवाजा तो इतना बड़ा था मानो उस में से हाथी निकल जाए. अवश्य इन दरवाजों का प्रयोग हाथी घुसाने के लिए किया जाता होगा, वह अब तक मुंहबाएं दरवाजे को ही देख रही थी कि अंकुर ने कुहनी मारी. सामने उस की सासू मां खड़ी थीं, आरती का थाल ले कर.

गोल सा चेहरा, गेंहुआ रंगत, मझोला कदकाठी, उलटे पल्ले की गुलाबी रेशमी साड़ी पहनी उस की सासू मां ने उसे सिंदूर का टीका लगाया, बेटेबहू दोनों की आरती उतारी और लुटिया में भरे जल को 3 बार उन के ऊपर वार कर अक्षत के साथ ढेर सारे सिक्के हवा में उछाल दिए.

गांव की मुहानी से कार के पीछेपीछे दुलहन देखने को उत्सुक दौड़ते बच्चे झट उन्हें लूटने लगे. यह तो अच्छा हुआ था कि तुहिना ने आज सलवारकुरती और दुपट्टा पहना हुआ था, वरना बड़ी शर्म आती कि सासू मां सिर पर पल्लू लिए हुए हों और बहू जींसटौप में.

अंकुर ने कुछ भी नहीं बताया था, वह पूछती रह गई थी कि वह क्या पहने, कैसे कपड़े ले कर वह गांव चले.

उस की सासू मां उस से सब नई दुलहन वाले नेग करवा रही थी. जब उस ने अंदर प्रवेश किया तो वह चकित रह गई कि घर कितना बड़ा है. उसे घर नहीं हवेली, कोठी या महल ही कहना चाहिए.

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सारी जिंदगी फ्लैट में रहने वाली तुहिना ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ससुराल का घर इतना विशाल होगा. मुख्य दरवाजे को पार कर बड़ा सा दालान था, उस के बाद एक बहुत बड़ा सा आंगन था. आंगन बीचोंबीच था और उस के चारों तरफ कमरे दिखाई दे रहे थे. आंगन और फिर दालान पार कर दो कोनों पर सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं, वहीं तीसरे कोने में एक मंदिर था. एक तरफ जहां उसे सिर नवाने के लिए ले जाया गया, वहां उस ने देखा कि सासू मां बाहर ही रुक गईं और ससुर उन दोनों को देवताघर में ले गए.

घर के अंदर इतना सुंदर सा मंदिर, वहां एक पंडितजी भी बैठे हुए थे, जिन्होंने इन दोनों से कुछ पूजा, कुछ रस्म करवाई. फिर सासू मां तुहिना का हाथ पकड़ सीढ़ियों से ऊपर ले जाने लगीं, अंकुर को भी दुलारते हुए वे ले चलीं. तीसरे तले तक पहुंचतेपहुंचते तुहिना हांफ गई थी.

“दुलहन, ये तुम्हारा कमरा है. अब तुम आराम करो.“

कोई उस का सामान वहां पहले ही पहुंचा चुका था. वह कमरा कहने को था, था तो पूरा हाल. शायद महानगरों के बहुमंजिले इमारतों का एक ‘2 बेडरूम फ्लैट’ इस में समा जाए. कमरे से निकली बालकनी, जिस की रेलिंग पर बहुत सुंदर नक्काशीदार काम था. झरोखेनुमा खिड़कियां अलग मन मोह रही थीं.

तुहिना कमरे का मुआयना कर ही रही थी कि उस ने देखा अंकुर मां की गोदी में सिर रख लेट चुका था. मां उस का सिर सहलाते हुए कह रही थीं, “ये घर आज घर लग रहा है, वरना मैं अकेले एक कोने मे पड़ी रहती हूं. वर्षों से रंगरोगन नहीं हुआ था और न ही मरम्मत. जब शादी की खबर मिली, तो मैं ने झट मरम्मत का काम शुरू करवाया, पर इतना बड़ा घर, काम पूरा ही नहीं हुआ.

“मेरी इच्छा थी कि तेरी बहू को मैं साफसुथरे घर में ही उतारूंगी. उस भूतिया हो चुके घर में नहीं. अभी 2 दिन पहले ही तो मजदूरों ने अपने बांसबल्लियां यहां से हटाए हैं. बहू के आने से आज घर में मानो रौनक आ गई.”

“अच्छा तो ये राज है उस अचानक हनीमून पैकेज का,” तुहिना ने मुसकराते हुए सोचा.
फिर अंकुर की मां ने तुहिना को पास बुला कर चाबियों का गुच्छा थमाते हुए कहा, “लो संभालो अपनी जिम्मेदारी, अब मैं थक चुकी हूं. मैं ने वर्षों इंतजार किया कि कब अंकुर की बहू आएगी, जो ये सब घरगृहस्थी संभालेगी.“

उन के ऐसे बोलते ही तुहिना को मानो बिच्छू ने काट लिया. उस ने बेबसी से अंकुर की तरफ देखा. अंकुर ने उस के भाव समझते हुए कहा, “मां, ये बस आप ही संभाल सकती हैं. तुहिना नौकरी करती है, उसे छोड़ वह कहां इन सब झमेलों में रहने आएगी,” अंकुर ने मां को गुच्छा लौटाते हुए कहा.

“अच्छा, जब तक है तब तक तो संभाले, सबकुछ देखेसमझे,” कहती हुई वे चाबियां वहीं छोड़ कर चली गईं.

उस दिन तो थकान उतारने में ही बीत गया. अगले दिन तुहिना हवेली में घूमघूम कर देखने लगी सबकुछ. कौतूहलवश हर झरोखे से झांकती, हर खंबे के पास खड़ी हो सेल्फी लेती, तो कभी बंद दरवाजे की ही खूबसूरती को अपने मोबाइल कैमरे में कैद करती. चाबी के गुच्छे को भी वह हैरानी से देखती. वैसे तालाचाबी तो अब दिखते भी नहीं. कम से कम तुहिना ने तो नहीं ही देखा था. हर कमरे पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था. उस बड़े से ताले को देख उसे किसी लटके चेहरे वाले बूढ़े की याद आ रही थी. दीवाली में अभी 2 दिन और थे, पर घर तो उसी दिन से सजा हुआ था, जिस दिन से वे सब आए थे.

अंकुर देर तक सोता रहता और तुहिना को समझ आ रहा था कि अंकुर घर सिर्फ सोने और खाने ही आता है. शायद उसे भी सभी कमरों की कोई जानकारी नहीं थी.

“अंकुर उठो न… मैं बोर हो रही हूं, सुबह के 11 बजने को आए और तुम अभी भी उठ नहीं रहे,” तुहिना ने अंकुर को हिलाने का असफल प्रयास किया. हार कर वह चौके के दरवाजे को पकड़ कर खड़ी हो गई. वहां मम्मी खाना बनाने में बिजी थीं, सब की पसंद के पकवान बन रहे थे.

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“जब सब घर आते हैं तभी इस रसोई के भाग जागते हैं, वरना मैं उधर अपने कमरे में ही कुछ पका लेती हूं. अब सीढ़ियां भी तो चढ़ी नहीं जाती हैं. न… न बिटिया, तुम रहने दो, अपने घर पर तो करती ही होंगी, कुछ दिन यहां मेरे हाथ के खाने का स्वाद लो.

“जा बिटिया घूमोफिरो, अपने घर को देखोसमझो… अंकुर तो कभी देखता ही नहीं और न ही उस के बाबा. तुम संभाल लो तो मेरी जिम्मेदारी खतम हो,” तुहिना को हाथ बंटाने के लिए आते देख उन्होंने टोक दिया.

“बेटी, तुम किस्मत वाली हो, जो ऐसे सासससुर मिले तुम्हें,” तुहिना की मां फोन पर उसे बोलती.

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Serial Story: अहिल्या (भाग-1)

आज अरमानों के पूरे होने के दिन थे, स्वप्निल गुलाबी पंखड़ियों सा नरम, खूबसूरत और चमकीला भी, तुहिना और अंकुर की शादी का दिन.

ब्यूटीपार्लर में दुलहन बनती तुहिना बीते वक्त को यादों के गलियारों से गुजरती पार करने लगी.

वे दोनों इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में दोस्त बने थे, जब उन दोनों की एक ही कंपनी में नौकरी लगी थी कैंपस प्लेसमैंट में. फिर बातें होनी शुरू हुईं, नई जगह जाना, घर खोजना और एक ही औफिस में जौइन करना. दोनों ने ही औफिस के पास ही पीजी खोजा और फिर जीवन की नई पारी शुरू की.

फिर हर दिन मिलना, औफिस की बातें करना, बौस की शिकायत करना वगैरह. कभीकभी शाम को साथ में नाश्ता करना या सड़क पर घूमना.

धीरेधीरे दोस्ती का स्वरूप बदलने लगा था. अब घरपरिवार की पर्सनल बातें भी शेयर होने लगी थीं. दोनों ही अपने परिवार में इकलौते बच्चे थे और दोनों के ही पिता नौकरीपेशा.

हां, तुहिना की मम्मी भी जहां एक कालेज में पढ़ाती थीं, वहीं अंकुर की मम्मी गांव की सीधी, सरल महिला थीं और वे गांव में ही रहती थीं. अंकुर के पिताजी शहर में अकेले ही रहते थे और अंकुर की छुट्टियां होने पर दोनों साथ ही गांव जाते थे. दोनों 4-5 दिनों के लिए ही जाते और फिर शहर लौट आते.

“तुम्हारी मम्मी साथ क्यों नहीं रहतीं?” तुहिना ने एक मासूम सा सवाल पूछा था.

“दरअसल, गांव में हमारी बहुत प्रोपर्टी है. सैकड़ों एकड़ खेत, खलिहान और गौशाला इत्यादि भी. फिर घर भी बहुत बड़ा है, जैसे पीजी में मैं अभी रह रहा हूं, वैसी तो हमारी गौशाला भी नहीं है. मां वहां रह कर सब की देखभाल करती हैं. सालभर तो एक न एक फसल काटने और रोपने की जिम्मेदारी रहती है. उन सब को कौन देखेगा, यदि मां शहर में आ जाएंगी. हमारे घर आने का तो वे बेसब्री से इंतजार करती हैं. आज भी वे छोटे बच्चे की ही तरह मुझे दुलारती हैं,“ अंकुर ने बताया था.

“अच्छा तो तुम खेतिहर बैक ग्राउंड से हो? मैं ने तो कभी गांव देखा नहीं. हां, मैं ने गांव फिल्मों में जरूर देखा है. दादादादी या नानानानी सब शहर में ही रहे हैं और मेरी अब तक की जिंदगी फ्लैट में ही कटी है,” तुहिना ने विस्फारित नयनों से कहा.

“अच्छा, शादी होने दो तो तुम भी गांव देख लेना, वो भी अपना वाला,” अंकुर ने हंसते हुए कहा, तो तुहिना चौंक गई, “शादी…? क्या तुम मुझे प्रपोज कर रहे हो? इस तरह भला कोई पूछता है?”

तुहिना ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से चीखते हुए पूछा.

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“अब मैं ठहरा गांव का गंवई आदमी, मुझे इन बातों की ज्यादा समझ नहीं. पर, मैं बाकी जिंदगी तुम्हारे साथ ही रहना चाहूंगा, क्या हम शादी कर लें?” अंकुर ने तुहिना की हथेली को अपने हाथों में लेते हुए कहा.

ब्यूटीपार्लर में बैठी तुहिना के दिमाग में रील की तरह ये सब घूम रहा था. कितनी आननफानन में फिर सारी बातें तय हो गईं. नौकरी के एक साल होतेहोते दोनों शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं, यह सोच कर तुहिना रोमांचित हो रही थी. दोनों के ही घर वालों को कोई आपत्ति नहीं हुई थी.

तुहिना के मम्मीपापा तो यह सुन कर खुश ही हुए थे कि अंकुर की पृष्ठभूमि इतनी मजबूत है. अंकुर के पिताजी जो पटना में एक बैंक में काम करते थे, तुहिना से मिलने बैंगलुरु चले गए और तुहिना के मातापिता भी उसी वक्त बैंगलुरु जा कर उन लोगों से मिल लिए.

ऐसा लगा मानो सबकुछ पहले से तय हो, बस औपचारिकता पूरी करनी रह गई थी. अब बरात दिल्ली, तुहिना के घर कब आएगी, ये सब तय होना था.

तुहिना के मम्मीपापा जहां डरे हुए थे कि न जाने अंकुर के पिता की क्या मांग हो, कितनी दहेज की इच्छा जाहिर करेंगे, पर हुआ इस के ठीक उलट ही. उन्होंने ऐसी कोई भी मांग या विशेष इच्छा जाहिर नहीं की, बल्कि दो महंगे सेट भारीभरकम जड़ाऊ वाले तुहिना को आशीर्वाद में दिए.

तुहिना का मेकअप अब समाप्तप्रायः ही था, तुहिना ने जल्दी से अपना मोबाइल निकाला और 4-5 सेल्फी ली. बरात में गिनेचुने लोग ही आए थे और शादी में अधिक मेहमान तो तुहिना की ही तरफ के थे. महिलाएं तो एक भी नहीं आई थीं, क्योंकि अंकुर के गांव में महिलाएं बरात में नहीं जाती हैं, ऐसा ही कुछ उस के पिताजी ने बताया था.

शादी खूब अच्छी तरह से संपन्न हुई. विदा हो कर तुहिना उसी होटल में गई, जहां अंकुर के पापा ठहरे हुए थे. मोबाइल पर वीडियो काल पर अंकुर ने अपनी मां से उसे मिलवाया. सचमुच बेहद स्नेहिल दिख रही थीं उस की मां, बारबार उन की आंखें छलक रही थीं.

“मां, अब बस… हम तुम्हारे पास ही तो आ रहे हैं, तुम रोओ मत,“ अंकुर ने उन्हें भावविभोर होते देख कर कहा, तभी उस के पापा आ गए और काल समाप्त हो गई.

अंकुर के पापा बेहद खुश दिख रहे थे. उन्होंने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और एक लिफाफा पकड़ाया.

“लो बच्चो, ये तुम दोनों को मेरी तरफ से शादी का गिफ्ट, यूरोप का 15 दिनों का हनीमून पैकेज. कल सुबह ही निकलना है यहीं दिल्ली से, सो तैयारी कर लो.”

तुहिना और अंकुर आश्चर्यचकित रह गए,

“पर पापा, फिर मां से मिलना कैसे होगा? हम घूमने बाद में भी तो जा सकते हैं,” अंकुर ने आनाकानी करते हुए कहा.

“घूम कर सीधे गांव ही आ जाना. अभी शादी एंजौय करो. गांव में तुम लोग बोर हो जाओगे,” अंकुर के पापा बोले.

इस तरह अंकुर और तुहिना फिर यूरोप टूर पर निकल गए. 15 दिन कैसे गुजर गए, दोनों को पता ही नहीं चला, सबकुछ एक स्वप्न की तरह मानो चल रहा हो. लौट कर दोनों सीधे बैंगलुरु ही चले गए. इस तरह तुहिना अपनी सासू मां से नहीं मिल पाई. तय हुआ कि 2 महीने बाद दीवाली के वक्त गांव चल जाएंगे दोनों.

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2 महीने बाद जब तुहिना पहली बार गांव जा रही थी तो उसे अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी. जाने कैसी होंगी अंकुर की मां, वहां लोग कैसे होंगे या फिर गांव का घर कैसा होगा. बैंगलुरु से वे लोग पटना पहुंचे और वहां से अंकुर के पापा के साथ वे लोग सड़क मार्ग से गांव की ओर चल दिए. कोई तीन साढ़े तीन घंटों में वे लोग गांव पहुंच गए. रास्ते की हरियाली उस का मन मोह रही थी, बरसात बीत चुकी थी. पेड़पौधे, खेत सब चमकदार हरे परिधान पहन नई दुलहन का मानो स्वागत कर रहे थे.

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Serial Story: पक्की सहेलियां (भाग-3)

इस तरह आपस में हायहैलो होते हुए भी एक अदृश्य सी दीवार खिंच गई थी दोनों में.

2 नारियां, पढ़ीलिखी, लगभग समान उम्र की पर बिलकुल विपरीत सोच और संस्कारों वाली. एक के लिए पति, बच्चा और घरगृहस्थी ही पूरी दुनिया थी तो दूसरी के लिए घर सिर्फ रहने और सोने का स्थान भर.

एक बार विनिता ने पंखुड़ी को पिछले 24 घंटों से कहीं आतेजाते नहीं देखा. पहले

सोचा कि उसे क्या, वह क्यों चिंता करे पंखुड़ी की? उस की चिंता करने वाले तो कई लोग होंगे या फिर आज कहीं जाने के मूड में नहीं होगी स्मार्ट मैडम. पर जब दिल नहीं माना तो बहाना कर के विहान को भेज दिया यह कह कर कि जाओ पंखुड़ी आंटी के साथ थोड़ी देर खेल आओ. मगर कुछ ही देर में विहान दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘मम्मी… मम्मी… मैं कैसे खेल सकता हूं आंटी के साथ, उन्हें तो बुखार है.’’

बुखार का नाम सुनते ही विनिता तुरंत पंखुड़ी के घर पहुंच गई. घंटी बजाई तो अंदर से धीमी आवाज आई, ‘‘दरवाजा खुला है. अंदर आ जाइए.’’

अंदर दाखिल होने पर विनिता ने देखा कि पंखुड़ी कंबल ओढ़े बिस्तर पर बेसुध पड़ी है. छू कर देखा तो तेज बुखार से बदन तप रहा था. चारों तरफ निगाहें दौड़ाईं, सारा घर अस्तव्यस्त दिख रहा था. एक भी सामान अपनी जगह नहीं. तुरंत भाग कर अपने घर आई, थर्मामीटर और ठंडे पानी से भरा कटोरा लिया और वापस पहुंची पंखुड़ी के पास. बुखार नापा, सिर पर ठंडे पानी की पट्टियां रखनी शुरू कीं. थोड़ी देर बाद बुखार कम हुआ और जब पंखुड़ी ने आंखें खोलीं तो विनिता ने पूछा, ‘‘दवाई ली है या नहीं?’’

पंखुड़ी ने न कहा और फिर इशारे से बताया कि दवा कहां रखी है? विनिता ने उसे बिस्कुट खिला दवा खिलाई और फिर देर तक उस का सिर दबाती रही. जब पंखुड़ी को थोड़ा आराम हुआ तो विनिता अपने घर लौट गई. आधे घंटे बाद वह ब्रैड और गरमगरम सूप ले कर पंखुड़ी के पास लौटी. उस के मना करने पर भी उसे बड़े प्यार से खिलाया. इस तरह पंखुड़ी के ठीक होने तक विनिता ने उस का हर तरह से खयाल रखा.

पंखुड़ी विनिता की नि:स्वार्थ सेवा देख शर्मिंदा थी. उसे अपनी इस सोच पर अफसोस हो रहा था कि विनिता जैसी हाउसवाइफ के पास कोई काम नहीं होता सिवा जासूसी करने और खाना पकाने के. अगर विनिता ने समय पर उस का हाल नहीं लिया होता तो पता नहीं उसे कितने दिनों तक बिस्तर पर रहना पड़ता.

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खैर, इस के बाद विनिता के प्रति पंखुड़ी का नजरिया बदल गया. अब जब भी विनिता के घर आती तो निशांत, विहान के साथसाथ विनिता से भी बातें करती. विनिता की संगति में रह कर अब उस ने अपने घर को भी सुव्यवस्थित रखना शुरू कर दिया था.

आजकल निशांत पहले से भी ज्यादा व्यस्त रहने लगा था. फिर एक दिन चहकता हुआ घर आया. चाय पीते हुए निशांत बता रहा था कि उस के काम से खुश हो कंपनी की तरफ से उसे फ्रांस भेजा जा रहा है प्रशिक्षण लेने के लिए. अगर वह अपने प्रशिक्षण में अच्छा करेगा तो अनुभव हासिल करने के लिए परिवार सहित 2 साल तक उसे फ्रांस में रहने का मौका भी मिल सकता है.

पति की इस उपलब्धि पर विनिता बहुत खुश हुई, लेकिन यह सुन कर कि प्रशिक्षण के दौरान निशांत को अकेले ही जाना है, उस का कोमल मन घबरा उठा. निशांत के बिना अकेले कैसे रह पाएगी वह विहान को ले कर? घर में भी कोई ऐसा फ्री नहीं है, जिसे 3 महीनों के लिए बुला सके. विनिता ने निशांत को बधाई दी फिर धीरे से कहा, ‘‘अगर फ्रांस जाना है तो हम दोनों को भी अपने साथ ले चलो वरना मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी, क्या तुम ने तनिक सोचा है कि तुम्हारे जाने के बाद यहां मैं अकेले विहान के साथ कैसे रह पाऊंगी 3 महीने?’’

भविष्य के सुनहरे ख्वाब देखने में डूबे निशांत को विनिता की यह बात जरा भी नहीं भाई. झल्लाते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारी समस्या है मेरी नहीं. कितनी बार कहा कि समय के साथ खुद को बदलो, नईनई जानकारी हासिल करो. बाहर का काम

निबटाना सीखो पर तुम ने तो इन कामों को भी औरतों और मर्दों के नाम पर बांट रखा है.

‘‘अब दिनरात मेहनत करने के बाद यह अवसर हाथ आया है तो क्या तुम्हारी इन बेवकूफियों के चक्कर में मैं इसे हाथ से गंवा दूं? हरगिज नहीं. अगर तुम अकेली नहीं रह सकती तो अभी चली जाओ विहान को ले कर अपनी मां या मेरी मां के घर. मेरी तो जिंदगी ही बरबाद हो गई ऐसी पिछड़ी मानसिकता वाली बीवी पा कर,’’ और फिर फ्रैश होने चला गया.

विनिता का दिल धक से रह गया. पति के इस कटु व्यवहार से उस की आंखों से आंसू बहने लगे. लगा उस की तो बसीबसाई गृहस्थी उजड़ जाएगी. साथ ही यह भी महसूस होने लगा कि निशांत भी क्या करे बेचारा, उस के कैरियर का सवाल है. दिल ने कहा इस स्थिति की जिम्मेदार भी काफी हद तक वह खुद ही है.

अब यह बात उस की समझ में आ चुकी थी कि वर्तमान समय में हाउसवाइफ को सिर्फ घर के अंदर वाले काम ही नहीं, बल्कि बाहर वाले जरूरी काम भी आने चाहिए. आज पढ़ीलिखी होने के बावजूद अपने को असफल, हीन और असहाय समझ रही थी. कारण घर के बाहर का कोई काम वह करने के लायक नहीं थी. इतनी बड़ी खुशी मिलने पर भी पतिपत्नी में तनाव उत्पन्न हो गया था.

अगले दिन चाय पीते समय पंखुड़ी भी वहां पहुंच गई. आते ही जोश के साथ निशांत को बधाई दी और पार्टी की मांग करने लगी.

निशांत का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था. उस ने कहा, ‘‘अरे कैसी बधाई और कैसी पार्टी पंखुड़ी? मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा इस जिंदगी में कभी.’’

पंखुड़ी को निशांत की बात कुछ समझ नहीं आई. विनिता ने बात छिपानी चाही कि इस बिंदास लड़की से बताने का क्या फायदा, उलटे कहीं इस ने जान लिया तो खूब हंसी उड़ाएगी मेरी, पर गुस्से में निशांत ने अपनी सारी परेशानी पंखुड़ी को सुना

डाली.

विनिता तो मानो शर्म के मारे धरती के अंदर धंसी जा रही थी. मगर सारी बात ध्यान से सुनने के बाद पंखुड़ी हंसने लगी और फिर हंसतेहंसते ही बोली, ‘‘डौंट वरी निशांत, यह भी कोई परेशानी है भला? इस का समाधान तो कुछ दिनों में ही हो जाएगा. आप अपनी पैकिंग और मेरी पार्टी की तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

निशांत हैरान सा पंखुड़ी का मुंह देखने लगा. विनिता की तरफ मुखातिब होते हुए पंखुड़ी ने कहा, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं विनिता. अगर कुछ सीखने का पक्का निर्णय कर लिया हो तो आज से ही मैं तुम्हें इंटरनैट का काम सिखाना शुरू कर सकती हूं और निशांत के जाने के पहले धीरेधीरे बाहर के सारे काम भी मैं सिखा दूंगी,’’ और फिर अपना लैपटौप लेने अपने घर चली गई.

विनिता सन्न थी अपनी संकीर्ण सोच पर. जिस पंखुड़ी को वह तेजतर्रार और दूसरों का घर तोड़ने वाली लड़की समझती थी, वह इतनी जिम्मेदार और उसे ले कर इतनी संवेदनशील होगी, इस की तो कल्पना भी विनिता ने नहीं की थी.

मिनटों में पंखुड़ी वापस आ गई. अपना लैपटौप औन करते हुए बोली, ‘‘विनिता मैं तुम्हारी गुरु तो बनूंगी, पर एक शर्त है तुम्हें भी गुरु बनना पड़ेगा मेरी.’’

विनिता के मुंह से निकला, ‘‘भला वह क्यो?’’

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पंखुड़ी ने कहा, ‘‘देखो, तुम्हें देख कर मैं ने भी अपना घर बसाने का फैसला कर लिया है, पर घरगृहस्थी के काम में मैं बिलकुल जीरो हूं. मैं ने महसूस किया है अगर आज के जमाने में हाउसवाइफ के लिए बाहर का काम सीखना जरूरी होता है तो उसी तरह सफल और शांतिपूर्ण घरगृहस्थी चलाने के लिए वर्किंग लेडी को भी घर और किचन का थोड़ाबहुत काम जरूर आना चाहिए. अगर तुम चाहो तो अब हम

दोनों एकदूसरे की टीचर और स्टूडैंट बन कर सीखनेसिखाने का काम कर सकती हैं. मैं तुम्हें बाहर का काम करना सिखाऊंगी और तुम मुझे किचन और घर संभालना.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. यह भी कोई पूछने की बात है?’’ खुश हो कर विनिता ने पंखुड़ी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘पर मेरी भी एक शर्त है कि यह सीखनेसिखाने का काम हम दोनों स्टूडैंटटीचर की तरह नहीं, बल्कि पक्की सहेलियां बन कर करेंगी.’’

‘‘मंजूर है,’’ पंखुड़ी बोली.

फिर एक जोरदार ठहाका लगा, जिस में इन दोनों के अलावा निशांत की आवाज भी शामिल थी. माहौल खुशनुमा बन चुका था.

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