Fiction : लिव इन की चोट

Fiction :  आज राहुल के दोस्त विनय के बेटे का नामकरण था, इसलिए वह औफिस से सीधे उस के घर चला गया था.

वैसे, राहुल को ऐसे उत्सव पसंद नहीं आते थे, पर विनय के आग्रह पर उसे वहां जाना ही पड़ा, क्योंकि विनय उस का जिगरी दोस्त जो था.

‘‘यार, अब तू भी सैटल हो ही जा, आखिर कब तक यों ही भटकता रहेगा,’’ फंक्शन खत्म होने के बाद नुक्कड़ वाली पान की दुकान पर पान खाते हुए विनय ने राहुल से कहा. ‘‘नहीं यार,’’ राहुल पान चबाता हुआ बोला, ‘‘तुझे तो पता है न कि मुझे इन सब झमेलों से कितनी कोफ्त होती है?

‘‘भई, मैं तो अपनी पूरी जिंदगी पति नाम का पालतू जीव बन कर नहीं गुजार सकता. मैं सच कहूं तो मुझे शादी के नाम से ही चिढ़ है और बच्चा… न भई न.’’

‘‘अच्छा यार, जैसी तेरी मरजी,’’ इतना कह कर विनय खड़ा हुआ, ‘‘पर हां, एक बात तेरी जानकारी के लिए बता दूं कि मेरी पत्नी राशि की मुंहबोली बहन करिश्मा फिदा है तुझ पर. उस बेचारी ने जब से तुझे मेरी शादी में देखा है तब से वह तेरे नाम की रट लगाए बैठी है. उस ने जो मुझ से कहा वह मैं ने तुझे बता दिया, अब आगे तेरी मरजी.’’

उस के बाद काफी समय तक दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई, क्योंकि अपने घर वालों के तानों से तंग आ कर अब राहुल ज्यादातर टूर पर ही रहता था.

‘‘न जाने क्या है हमारे बेटे के मन में, लगता है पोते का मुंह देखे बिना ही मैं इस दुनिया से चली जाऊंगी,’’ जबजब राहुल की मां उस से यह कहतीं, तबतब राहुल की बेचैनी बहुत बढ़ जाती.

वैसे उस के पापा इस बारे में उस से कुछ नहीं कहते थे. पर उन का चेहरा देख राहुल भी परेशान हो जाता था.

राहुल अच्छा कमाता था और उस का व्यक्तित्व भी आकर्षक था. पर शादी के नाम से उसे चिढ़ थी. इसलिए तो वह अब तक अपने लिए आया हर शादी का रिश्ता ठुकराता रहा था.

लेकिन फिर धीरेधीरे उस के मम्मीपापा ने उसे इस बारे में टोकना छोड़ दिया था, क्योंकि वे जानते थे कि शादी का रिश्ता जबरदस्ती से नहीं कायम किया जा सकता.

मातापिता के इस बदलाव से राहुल बेहद खुश था, क्योंकि यह सब उस के लिए किसी सुकून से कम नहीं था.

एक बार राहुल ट्रेन से सफर कर रहा था, तब उस की मुलाकात शिल्पा से हुई जो मौडल बनने की चाह लिए दिल्ली आईर् थी.

शिल्पा उसी की तरह खुले विचारों वाली युवती थी, जिसे बंधन में बंध कर जीना बिलकुल पसंद नहीं था.

‘‘सच, तुम्हारे व मेरे विचार कितने मिलतेजुलते हैं. सफर खत्म होने से पहले ही राहुल ने यह शिल्पा से कह डाला था. ’’

‘‘वह तो है पर…’’

‘‘हांहां, बोलो न,’’ राहुल बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाता हुआ कह रहा था.

‘‘अगर तुम चाहो तो हम दोनों एक राह के मुसाफिर बन कर रह सकते हैं,’’ शिल्पा अपनी जुल्फों पर उंगलियां फेरते हुए बोली.

‘‘सच, तुम ने तो मेरे मन की बात कह डाली,’’ यह कहतेकहते ही राहुल की आंखों में एक अजीब सी चमक कौंध उठी थी.

‘‘तो फिर क्या कहते हो?’’ शिल्पा राहुल की आंखों में गहराई से देखते हुए उस से पूछने लगी थी, ‘‘मेरी फ्रैंड का फ्लैट है यहां दिल्ली में. किराया कुछ ज्यादा है, तो क्या हम फ्लैट शेयर कर लें और बाकी खर्चे भी आधेआधे हो जाएंगे, कैसा रहेगा?’’

‘‘हांहां, नेकी और पूछपूछ,’’ राहुल हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, मैं खुद एक ऐसे फ्रैंड की तलाश में था, जिस के साथ मैं बिना किसी रोकटोक के सुकून से रह सकूं और रही बात खर्चे शेयर करने की, तो उस में मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

इस तरह दोनों के बीच लिवइन में रहने की डील तय हुई और फिर दोनों जल्दी ही उस फ्लैट में शिफ्ट हो गए.

सच, क्या आजाद जिंदगी थी दोनों की? न किसी की टोकाटाकी न किसी के प्रति कोई जवाबदेही. आकाश में उन्मुक्त पंछियों की तरह दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी मजे से जी रहे थे.

हर सुबह राहुल औफिस के लिए निकल जाता तो शिल्पा काम ढूंढ़ने के लिए ऐड एजेंसियों के चक्कर काटती.

शाम होने पर तकरीबन दोनों ही लौट आते और अगर कोई देर से भी लौटता तो दूसरे को परेशान होने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि उन के फ्लैट की 2 चाबियां थीं.

पर हां, साथसाथ डिनर करना, बाहर से पिज्जा या चाइनीज फूड और्डर करना, यहां तक तो दोनों को मंजूर था पर रात गहराते ही दोनों अपनेअपने बैडरूम में चले जाते ताकि दोनों के बीच कुछ भी ऐसावैसा न हो, जिस की वजह से उन्हें किसी मुसीबत का सामना करना पड़े.

एक बार जब शिल्पा को कई दिनों की दौड़धूप के बाद एक नामी ऐड एजेंसी से मौडलिंग का औफर मिला तब वह मानो खुशी से झूम उठी.

‘‘यार, आज तो वाकई में सैलिब्रेशन बनता है,’’ राहुल ने कहा.

‘‘हां, बोलो, क्या चाहते हो, मैं ने कब इनकार किया है?’’ शिल्पा आंख से आंख मिलाते हुए राहुल के एकदम पास जा कर बोली.

‘‘तो हो जाए, आज फिर धूमधड़ाका, कुछ मौजमस्ती,’’ राहुल शरारत से एक आंख दबाते हुए बोला तो शिल्पा खुद को रोक न सकी और तुरंत उस के सीने से चिपक गई.

फिर उन दोनों के बीच जो कुछ हुआ वह किसी फन से, मौजमस्ती से कम न था. उस रात दोनों ने एक नए अनुभव से खुद को रोमांचित किया. सच, क्या उन्माद छाया था दोनों पर. फिर तो उन की पूरी रात आंखों ही आंखों में कट गई.

अगली सुबह दोनों ही अलसाए से अपनेअपने काम पर चले गए. अब जब दोनों ने ही अपने ऊपर लगा बंधन तोड़ दिया  तो ऐसे में अब तकरीबन हर रोज ही दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनने लगे थे.

‘‘उफ, राहुल, क्या मादकता है तुम्हारे स्पर्श में, मेरा रोमरोम मानो पिघल जाता है,’’ शिल्पा राहुल में समाते हुए कह उठी.

‘‘मैडम, तुम भी तो कम कहर नहीं ढातीं मुझ पर. सच, तुम्हारा यह रूप, यह यौवन मुझे तड़पने को मजबूर कर देता है,’’ प्रत्युत्तर में राहुल उसे चूमते हुए कहता.

फिर दोनों एकदूसरे में खो जाते और घंटों प्रेमालाप में मग्न रहते. एक दिन जब शिल्पा कुछ बुझीबुझी सी घर पहुंची तब राहुल से रुका न गया. वह शिल्पा का मूड ठीक करने के लिए तुरंत बढि़या कौफी बना कर लाया और उसे कौफी का मग थमाते हुए उस से पूछने लगा, ‘‘क्या हुआ शूटिंग कैंसिल हो गई क्या?’’

‘‘नहीं, अभीअभी ऐबौर्शन करवा कर आई हूं,’’ शिल्पा ठंडे स्वर में बोली.

‘‘क्या? ऐबौर्शन… कम से कम एक बार मुझ से पूछ तो लेतीं. वह बच्चा मेरा भी तो था?’’ राहुल भरेमन से बोला.

‘‘ओ मिस्टर, ज्यादा इमोशनल होने की जरूरत नहीं है,’’ शिल्पा कड़क स्वर में चीखते हुए बोली, ‘‘तुम मेरे हसबैंड नहीं हो, जो मैं तुम्हारी राय पूछती. अरे, मौजमस्ती के परिणाम को पैरों की बेडि़यां नहीं बनाया जाता बल्कि समय रहते काट कर फेंक दिया जाता है ताकि आगे चल कर कोई परेशानी न हो.’’

‘‘सौरी मैम, मैं तो भूल ही गया था कि आप उच्च प्रगतिशील सोच की मालकिन हैं…’’ इतना कहतेकहते राहुल की आंखें भर आईं, ‘‘वैसे हम शादी भी तो कर सकते थे.’’

‘‘ओह राहुल,’’ शिल्पा उस के नजदीक जाते हुए बोली, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ और आज नए तरीके से मुझे सैक्स के मजे दिलवाओ. पता है, करुण मुझे ड्रिंक पर ले जाना चाहता था पर मैं ने मना कर दिया, क्योंकि अब मुझे सिर्फ तुम्हारा साथ भाता है.’’

‘‘पर मैडम, मैं इतने बड़े दिल वाला नहीं जो अपने बच्चे को खोने का जश्न मनाऊं,’’ राहुल खुद को शिल्पा की गिरफ्त से छुड़ाते हुआ बोला.

‘‘ये क्या, तुम ने मेरे बच्चे, मेरे बच्चे की रट लगा रखी है? अरे, वह बच्चा सिर्फ मेरा था, इसलिए उस का क्या करना था, इस का हक भी सिर्फ मुझे ही था.

‘‘और वैसे भी, यह शादी, यह बच्चे जैसी फुजूल की बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है. आज सफलता की जिस सीढ़ी की तरफ मैं बढ़ रही हूं वहां मेरे लिए शादी और बच्चे का बोझ ले कर चढ़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है.’’

‘‘तो ठीक है, मैडम,’’ राहुल गुस्से से चीखते हुए बोला, ‘‘तो तुम अब अपनी सफलता के साथ रहो और मुझे अकेला छोड़ दो.’’

वह गुस्से में पैर पटकता हुआ तेजी से बाहर निकल आया और शिल्पा बदहवास बुत सी बनी बैठी रह गई.

बहुत देर तक खाली विरान सड़कों की खाक छानने के बाद राहुल अचानक विनय के पास पहुंच गया. इस समय वह अपने घर जा कर अपने मातापिता को परेशान नहीं करना चाहता था.

‘‘अरे वाह, आज चांद कहां से निकल आया, भई,’’ विनय मुसकराते हुए उस से पूछने लगा. जवाब में वह फीकी सी हंसी हंस दिया था.

‘‘यार, इस समय तेरे घर आ कर मैं ने तुझे भी परेशान कर कर दिया,’’ राहुल कतर स्वर में विनय से बोला.

‘‘तू भी न, कमाल करता है यार. अगर तू बाहर से ही वापस चला जाता तो राशि भला मुझे बख्शती,’’ इतना कहते ही उस ने राशि को बाहर आने के लिए आवाज लगाई.

‘‘अरे भैया, इतने दिन बाद,’’ राशि मुसकराते हुए उस का स्वागत करने लगी. राशि का ऐसा खुशमिजाज व्यवहार देख कर राहुल उस की तुलना शिल्पा से करने लगा जो उस के दोस्तों को देखते ही बुरा सा मुंह बना लेती है और तब राहुल चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता, क्योंकि वह और शिल्पा लिवइन में जो रह रहे थे.

‘‘अरे भैया, कहां खो गए आप…’’ राशि मुन्ने को विनय के हवाले करते हुए बोली, ‘‘आप जरा मुन्ने को संभालिए, मैं झटपट खाना तैयार कर देती हूं. सब्जी और रायता तो तैयार ही है, बस, फुलके सेंकने बाकी हैं.’’

वह फुरती से किचन की तरफ बढ़ गई. इस बीच, राहुल ने मुन्ने को विनय से ले लिया और खुद उस के साथ खेलने लगा.

जब मुन्ने की कोमलकोमल उंगलियों ने राहुल के हाथों का स्पर्श किया तो उस स्पर्शमात्र से ही राहुल का दिल भर आया और वह मन ही मन अपने उस अजन्मे शिशु को याद कर के रो पड़ा, जिसे शिल्पा की  प्रगतिवादी सोच ने असमय अपनी कोख में ही लील लिया था.

थोड़ी देर बाद सभी डाइनिंग टेबल पर थे. सच में राशि के हाथ का खाना खा कर उसे अपनी मां की याद आ गई जो बिलकुल ऐसा ही खाना बना कर उसे खिलाती थीं.

पर जब से वह शिल्पा के साथ लिवइन में था, तब से उस ने घर के खाने का स्वाद चखा ही नहीं था. शुरुशुरु में जब एक बार राहुल ने शिल्पा से डिनर घर पर बनाने की बात कही, तब वह मानो गुस्से में उस पर फट पड़ी थी और लगभग चीखते हुए बोली, ‘मैं कोई दासी नहीं हूं जो किचन में खड़ी हो कर घंटों पसीना बहाऊं. जो खाना है, बाहर से और्डर कर लो और हां, मेरी चिंता मत करना, क्योंकि मैं डाइटिंग पर हूं.’

‘‘किस सोच में पड़ गए भैया? खाना अच्छा नहीं लगा क्या?’’ राशि के टोकने पर मानो राहुल की तंद्रा भंग हुई और वह अतीत से वर्तमान में आते हुए बोला, ‘‘नहीं भाभी, खाना तो वाकई बहुत बढि़या बना है बल्कि मैं ने तो इतने समय बाद…’’ बाकी बात राहुल ने अपने भीतर ही रोक ली ताकि उसे राशि व विनय के सामने शर्मिंदा न होना पड़े.

‘‘भैया, एक बात कहू,’’करिश्मा का औफर अभी ओपन है आप के लिए, क्योंकि वह आप को अपना क्रश जो मानती है. वैसे, अब उस पर शादी का दबाव बहुत बढ़ रहा है. पर अगर आप चाहें तो मैं सारा मामला तुरंत निबटा सकती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि अभी भी आप को ही प्राथमिकता दी जाएगी,’’ राशि झूठे बरतन समेटते हुए बोली.

‘‘तुम भी न राशि,’’ विनय उसी की बात काटते हुए बोला, ‘‘भई, राहुल को तो शादी के नाम से ही चिढ़ है और तुम…’’

‘‘मैं तैयार हूं.’’

राहुल विनय की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ा.

राहुल के मुंह से यह सुन कर विनय का दिल भर आया और तब भावातिरेक में उस ने राहुल को अपने गले से लगा लिया.

‘‘यह हुई न बात, अब भैया आप ने हां कर दी है, तो देखिएगा कि मैं और विनय मिल कर कैसे आप का मामला फिट करते हैं,’’ राशि भी उत्साहित हो उठी थी.

‘‘हांहां, बिलकुल, अब तो चटमंगनी पट ब्याह होगा,’’ विनय के मुंह से यह अचानक निकला और फिर तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

Short Stories : अनजाना बोझ

 Short Stories : ‘‘देखिए, सब से पहले आवश्यक है आप का अपने ऊपर विश्वास का होना. स्वयं को अबला नहीं, बल्कि दुनिया का सब से सशक्त इंसान समझने का वक्त है. यदि आप मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत हैं तो विश्वास कीजिए कि कोई आप को हाथ तक नहीं लगा सकता. मैं शिक्षकों से भी कहना चाहूंगा कि वे बालिकाओं को मानसिक रूप से इतना मजबूत बनाएं कि अपने साथ होने वाले हर अनुचित व्यवहार का वे दृढ़ता से मुकाबला कर सकें. यदि कभी कोई आप के साथ किसी प्रकार की हरकत करता है तो आप उसे मुंहतोड़ जवाब दें. यदि फिर भी मसला न सुल झे, तो हमारे पास आइए, हम आप की मदद करेंगे.’’

‘‘पर सर, यदि कभी हमारे शिक्षक ही हमारे साथ कुछ ऐसावैसा करें तो? क्योंकि न्यूजपेपर में तो अकसर ऐसा ही कुछ पढ़ने में आता है.’’

‘‘तो…तो…उसे भी छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. शिक्षक है तो क्या हुआ, आप उस के सौ खून माफ कर देंगी? ऐसे व्यक्ति को शिक्षक बनने का अधिकार नहीं है.’’ सिटी एसपी अमित ने कुछ उत्तेजना से 12वीं में पढ़ने वाली बच्ची के प्रश्न का जवाब तो दे दिया परंतु इस प्रश्न ने उन्हें अंदर तक  झक झोर भी दिया. उन के हाथपांवों में कंपन महसूस होने लगा और भरी सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं. स्कूल स्टाफ के सामने बड़ी मुश्किल से वे स्वयं को संयत कर पाए और तय समय से आधे घंटे पूर्व ही अपना लैक्चर समाप्त कर के फुरती से गाड़ी में आ कर बैठ गए. खिड़की से बाहर की ओर वे गंभीर मुद्रा में देखने लगे.

हमेशा जोशखरोश से भरे रहने वाले और खुशमिजाज एसपी साहब को यों शांत और गंभीर देख कर ड्राइवर रमेश कुछ डरेसहमे से स्वर में बोला, ‘‘सर, कहां चलना है?’’

‘‘घर चलो,’’ एसपी अमित ने कहा.

जैसे ही उन के बंगले के सामने गाड़ी रुकी, वे तेजी से चलते हुए अपने बैडरूम में पहुंचे और दरवाजा बंद कर के अपने बैड पर निढाल से पड़ गए. यह तो अच्छा था कि पत्नी सृष्टि अभी घर पर नहीं थी, वरना उन का यह हाल देख कर परेशान हो जाती. आज उन के विवाह को 3 वर्ष और नौकरी को 5 वर्ष हो गए थे. वे 2 साल की बेटी के पिता भी थे. पत्नी सृष्टि एक सरकारी कालेज में प्रोफैसर और बहुत ही सुल झी हुई महिला थी. वह घरबाहर और नातेरिश्तेदारों की जिम्मेदारियां भलीभांति निभा रही थी. कुल मिला कर बड़ा ही खुशगवार जीवन जी रहे थे वे.

कुछ समय पूर्व ही उज्जैन जिले में तबादला हो कर वे आए थे. एक सरकारी स्कूल में आयोजित बालिका सुरक्षा सप्ताह के दौरान उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. वे बहुत खुशीखुशी आए थे. परंतु एक बालिका के प्रश्न ने उन के भूले साल सामने ला खड़े किए थे.

उस समय एमएससी करने के बाद वे अपने गांव से दूर छोटी बहन के साथ भोपाल में ही रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे. घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. सो, अपने खर्चे के लिए कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा दिया करते थे. एक दिन उन की एक सहपाठी का फोन आया, ‘अमित, मेरी आंटी की बेटी 11वीं में है जिसे मैथ्स पढ़ना है. अगर तेरे पास टाइम हो तो देख ले.’

‘हांहां, ठीक है, मैं पढ़ा दूंगा. मेरे पास अभी एक भी ट्यूशन नहीं है.’

सहपाठी ने अपनी आंटी का पता और मोबाइल नंबर उन्हें भेज दिया. उन से बातचीत होने के बाद अगले दिन से उन्होंने बड़ी लगन से उस बच्ची को पढ़ाना प्रारंभ भी कर दिया. बच्ची होनहार थी. मातापिता भी शिक्षित थे. कुल मिला कर अच्छा संस्कारी परिवार था. आंटीअंकल दोनों ही उन से बहुत स्नेह रखते थे. उन की लगन और बच्ची की मेहनत ने असर दिखाया और बच्ची धीरेधीरे अपनी कक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने लगी थी, जिस से आंटीअंकल दोनों ही उन से बहुत खुश थे.

आंटी अकसर उन से प्रतियोगी परीक्षा की तैयारियों के बारे में बातचीत करती रहती थीं. उन से बात कर के उन्हें भी बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि उन की सकारात्मक बातें सुन कर वे स्वयं उत्साह से भर उठते थे. एक वर्ष में ही उन्होंने अपना विश्वास सब पर भलीभांति जमा लिया था.

बच्ची की अब वार्षिक परीक्षाएं आने वाली थीं, सो, कोर्स पूरा करवा कर रिवीजन वर्क चल रहा था. इन दिनों पढ़ाने को तो कुछ खास नहीं होता था, वे बैठेबैठे पेपर या पत्रिकाएं पलटते रहते. बीचबीच में बच्ची के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दे देते. कई बार उन का युवा मन बच्ची की ओर आकर्षित भी होने लगता. परंतु अगले ही पल अपनी बहकी भावनाओं पर वे काबू पा लेते. पर शायद बेरोजगारी व्यक्ति की विचारधारा, मानसिकता और सोचनेसम झने की शक्ति सभी का हरण कर लेती है, वे 2 वर्ष से बेरोजगार थे.

उस दिन उन की भावनाओं पर से उन का नियंत्रण ही मानो समाप्त हो गया. उस दिन आंटी अर्थात बच्ची की मां की तबीयत खराब थी और डाक्टर ने 6 बजे का टाइम दिया था. सो, वे अंकल के साथ चली गईं. उन के जाते ही उन की अभी तक सुसुप्त भावनाएं मानो कुलांचें भरने लगीं. उन्हें याद ही नहीं कि उन्होंने कब और कैसे बच्ची का हाथ जोर से पकड़ कर अपने सीने से लगा लिया और आंखें बंद कर लीं.

उन की चेतना कानों में पड़ी बच्ची की आवाज से लौटी, ‘सर, व्हाट आर यू डूइंग?’ बच्ची इस अप्रत्याशित सी घटना से सहम गई थी.  झटके से अपना हाथ छुड़ा कर वह कोने में जा कर खड़ी हो गई. बच्ची की आवाज सुन कर वे मानो सोते से जाग गए और सौरी कह कर एक गिलास पानी पी कर अपना सिर नीचा कर के वापस घर की ओर चल दिए.

क्षणिक आवेग ने उन का चरित्र, संस्कार और आत्मनियंत्रण सब तारतार कर दिया. आत्मग्लानि से मन स्वयं के प्रति ही वितृष्णा से भर उठा. पूरे रास्ते वे सिर  झुका कर चलते रहे, मानो सड़क पर चलने वाले हर शख्स की नजरें उन्हें ही घूर रही हों. जैसे ही वे घर में घुसे, उन के चेहरे का उड़ा रंग देख कर छोटी बहन बोली, ‘क्या हुआ भैया, इतने घबराए हुए क्यों हो?’

‘नहीं, कुछ नहीं. तुम अपना काम करो. मैं छत पर हूं,’ कह कर वे छत पर आ गए थे.

छत पर खुली हवा में आ कर लंबी सांस ली. मानसिक अंतर्द्वंद्व चरम पर था. ‘कैसे अपना आपा खो दिया मैं ने. यदि उन लोगों ने एफआईआर लिखा दी तो कहीं का नहीं रहूंगा. आजकल तो घूरने तक पर कड़ी सजा का प्रावधान है. मेरी तो जिंदगी ही बरबाद हो जाएगी.’ यह सब सोचतेसोचते वे बेचैन हो उठे.

हालात जानने के लिए बच्ची की मां को फोन लगा दिया और बड़ी ही मासूमियत से बोले, ‘आंटी, शुक्रवार को कितने बजे आना है?’

‘रोज के समय पर ही आ जाना बेटे.’ आंटी को उतने ही प्यार से बात करते देख वे आश्वस्त हो गए कि बच्ची ने आंटी को कुछ नहीं बताया है क्योंकि चलते समय उन्होंने बच्ची से सौरी बोल कर मां को कुछ न बताने की विनती की थी.

2 दिनों तक जब उधर से कोई फोन नहीं आया तो वे आश्वस्त हो गए कि मामला शांत हो गया है. तीसरे दिन सुबहसुबह जब वे नाश्ता कर के उठे ही थे कि मोबाइल बज उठा. मोबाइल स्क्रीन पर आंटी का नाम देखते ही उन के हाथ कांप उठे. किसी तरह साहस कर के उन्होंने ‘हैलो’ बोला. उधर से कड़कती आवाज आई, ‘तुम्हारे मातापिता ने संस्कार नाम की चीज से परिचित कराया है या नहीं. तुम्हें ऐसी हरकत करते हुए खुद पर शर्म नहीं आई?’

सामने छोटी बहन बैठी थी. सो, वे एकदम हड़बड़ा गए और कड़क स्वर में बोले, ‘क्या, क्या किया क्या है मैं ने. अपने शब्दों को लगाम दीजिए.’

‘यह भी मु झे ही बताना पड़ेगा कि तुम ने किया क्या है. बेशर्मी की भी हद होती है.’

‘नहींनहीं आंटी, वह मेरी बहन थी सामने, इसलिए. अब मैं छत पर आ गया हूं. सौरी आंटी, गलती हो गई. मैं हाथ जोड़ कर माफी मांगता हूं.’

‘क्यों, अपनी बहन की इतनी चिंता हो रही है. अपनी सगी बहन के अलावा दूसरी हर लड़की तुम लड़कों को अपनी इच्छापूर्ति का साधन लगती है और तुम उन्हें छेड़ना शुरू कर देते हो. कितनी गंदी मानसिकता है तुम्हारी. तुम्हारे जैसे आवारा कुछ नहीं कर सकते अपनी जिंदगी में. मैं अभी थाने जा रही हूं तुम्हारी रिपोर्ट करने. तुम्हें तो मैं कहीं का नहीं छोड़ूंगी.’

आंटी के क्रोध से वे बुरी तरह घबरा गए. और जब वे कुछ शांत हुईं तो धीरे से अपना बचाव करते हुए वे बोले, ‘आंटी, मैं आप के हाथ जोड़ता हूं, आप जो चाहे सजा दे लें. आप ही बताइए 2 वर्षों से मैं उसे पढ़ा रहा हूं, कभी ऐसा नहीं हुआ. दरअसल, आज उस ने कुछ अलग, अजीब से कपड़े पहने थे, सो, मैं डिस्ट्रैक्ट हो गया था.’

‘क्या कहा? कपड़े ऐसे पहने थे? तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? अब क्या लड़कियां अपनी मरजी के कपड़े भी नहीं पहन सकतीं, क्योंकि उन्हें देख कर लड़के अपनेआप पर काबू नहीं रख पाते. खुद को काबू नहीं कर सकते तो सड़क पर नजरें नीचे कर के चला करो या घर में बैठो. पर मेरी बेटी वही पहनेगी जो उस का दिल करेगा. क्या तुम्हारी बहन तुम से पूछ कर कपड़े पहनती है? क्या अपनी बेटी को भविष्य में तुम ऊपर से नीचे तक तन ढकने वाले कपड़े पहनाओगे?’

आंटी की तर्कयुक्त बातों के आगे उन की तो बोलती ही बंद हो गई. वे दबी आवाज में बोले, ‘नहीं आंटी, ऐसी बात नहीं है. मैं अपनी गलती मानता हूं. मैं बहक गया था. पर मेरा यकीन मानिए मैं ने ऐसावैसा कुछ नहीं किया.’

इतना सुनते ही आंटी फिर भड़क गईं और दहाड़ते हुए बोलीं, ‘और क्या करना चाहते थे मेरी बेटी के साथ? मन तो कर रहा है तुम्हें अभी ही पुलिस के हवाले कर दूं. जेल की सलाखों के पीछे सड़ोगे, तभी सम झ आएगा. मु झे शर्म आती है तुम्हारे मातापिता के संस्कारों पर. यदि उन्हें पता चल जाए तो अपनी परवरिश पर ही शर्म आने लगेगी उन्हें. तुम जानते हो तुम्हारे जैसे सैकड़ों, हजारों युवक बेरोजगार सड़कों पर क्यों घूम रहे हैं, क्योंकि उन के अंदर आत्मबल, आत्मविश्वास और आत्मनियंत्रण ही नहीं है. जिस दिन इन पर विजय पा लोगे, जिंदगी में कुछ बन जाओगे.’ यह कह कर आंटी ने फोन काट दिया.

वे बदहवास से मोबाइल को ही घूरने लगे. उन्हें काटो तो खून नहीं. आंटी ने कुछ ही मिनटों में उन्हें जमीन पर ला पटका था. सच पूछो तो वे घबरा कर रोने लगे थे. ‘क्या करूं, क्या जवाब दूंगा मातापिता को. मु झे क्या हो गया. मेरी एक बेवकूफी ने आज मेरे चरित्र को ही बरबाद कर दिया. यह मैं ने क्या कर दिया,’ सब सोचतेसोचते उन का सिर दर्द करने लगा. तभी बहन ने आवाज लगाई और वे नीचे आ गए.

बहन ने उन के सामने भोजन की थाली लगा दी थी. उन के हलक में तो थूक तक निगलने की गुंजाइश नहीं थी तो खाना कहां नीचे उतरता. सो, ‘भूख नहीं है बाद में खा लूंगा’ कह कर बहन से थाली उठाने को कह दिया. उसी समय उन के फोन की घंटी फिर बजी. फोन आंटी का ही था.

‘तुम्हारी बदतमीजी का फल तुम्हें खुद मिलेगा. मैं क्यों तुम्हारा वह जीवन खराब करूं जिस की अभी शुरुआत ही नहीं हुई है. जाओ, मैं ने तुम्हें अभयदान दिया. पर ध्यान रखना, अपने जीवन में सभी लड़कियों और महिलाओं की उतनी ही इज्जत करना जितनी अपनी मांबहन की करते हो. जीवन में यदि कुछ बन सकोगे तो समाज में इज्जत की दो रोटी खा पाओगे. वरना ऐसे ही सड़क पर चप्पलें चटकाते और लड़कियों को छेड़ते रहोगे,’ यह कह कर आंटी ने फोन काट दिया था.

उस के बाद की कई रातों तक ठीक से सो ही नहीं पाए वे. बारबार आंटी की बातें कानों में गूंजतीं. पर वह घटना उन के जीवन की टर्निंग पौइंट बन गई. उस के बाद के 2 साल तक उन्होंने जम कर मेहनत की. उसी मेहनत के परिणामस्वरूप अपने पहले ही प्रयास में उन्होंने आईपीएस की परीक्षा पास की और एसपी बने. 8 वर्ष पुरानी उस घटना को सोचतेसोचते उन का सिर दर्द से फटने लगा. मन एक बार फिर आत्मग्लानि से भर उठा.

तभी अचानक सृष्टि की आवाज उन के कानों में गूंज उठी.

‘‘क्या हुआ एसपी साहब, आज बड़ी जल्दी घर आ गए. तबीयत तो ठीक है न,’’ कह कर सृष्टि ने उन के माथे पर हाथ रख दिया और घबरा कर बोली, ‘‘अरे, तुम्हें तो तेज बुखार है. क्या हुआ, सुबह तो एकदम ठीक थे. अभी मैं डाक्टर को बुलाती हूं.’’ कह कर वह मोबाइल में नंबर खोजने लगी तो अमित ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘कोई जरूरत नहीं है. चाय पिला कर, बस दवाई दे दो, ठीक हो जाऊंगा.’’

सृष्टि चाय बनाने किचन में चली गई, तो वे फिर बेचैन हो उठे. तभी सृष्टि ने हाथ में चायनाश्ते की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया. चाय का कप हाथ में पकड़ाते हुए वह उन के चेहरे की तरफ देखते हुए बोली, ‘‘क्या बात है, कुछ बेचैन और परेशान से लग रहे हो. औफिस की कोई परेशानी है क्या. मु झे बताओ, शायद मैं कोई हल निकाल सकूं.’’

‘‘नहींनहीं, कुछ नहीं. बस, ऐसे ही मन कुछ उदास था. गोलू सो गई क्या? लाओ, उसे मेरे पास सुला दो.’’ कह कर अमित ने बात के रुख को बदलना चाहा. कुछ ही देर में सृष्टि गोलू को अमित की बगल में सुला कर चली गई. जैसे ही उन्होंने बगल में लेटी गोलू की तरफ देखा, तो सोचने लगे, ‘यदि कोई लड़का कभी मेरी गोलू के साथ ऐसी हरकत करेगा तो…तो मैं उसे जान से मार दूंगा. तो क्या मु झे भी उसी समय जान से मार दिया जाना चाहिए था?’ सोचतेसोचते कब आंख लग गई उन्हें भी नहीं पता.

सुबह जब सृष्टि ने उन्हें  झक झोरा, तो उन की आंख खुली. चाय पीतेपीते सृष्टि बोली, ‘‘अमित, तुम कल से कुछ परेशान हो, बताओ तो हुआ क्या है? रात में भी तुम बड़बड़ा रहे थे. ‘नहीं, मु झे माफ कर दो. मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं. आंटी, मु झे माफ कर दो.’ प्लीज, मु झे बताओ इस तरह अकेले मत घुटो, हुआ क्या है. मैं साइकोलौजी की प्रोफैसर हूं, अवश्य तुम्हारी कुछ मदद कर पाऊंगी.’’

अमित की आंखें भर आईं और वे दुखी स्वर में बोले, ‘‘सृष्टि मेरे जीवन की एक घटना है जिस ने मेरा जीवन तो बना दिया परंतु वह मेरे अब तक के सफल जीवन का एक काला धब्बा भी है. कल कुछ ऐसा हुआ कि मैं स्वयं की ही नजरों में गिरता जा रहा हूं. पहले तुम मु झ से वादा करो कि तुम मु झे गलत नहीं सम झोगी और मु झे इस  झं झावात से निकलने का कोई उपाय बताओगी.’’

‘‘हां भई, पक्का वादा. अब 3 साल में तुम मु झ पर इतना भरोसा तो कर ही सकते हो न,’’ सृष्टि ने अमित का हाथ अपने हाथ में ले कर उस की आंखों में  झांकते हुए कहा.

सृष्टि की आंखों में अपने लिए विश्वास देख कर अमित ने रुंधे गले से 8 वर्ष पूर्व का पूरा घटनाक्रम जस का तस सृष्टि को सुना दिया. ‘‘इस दौरान मैं उस घटना को भूल सा गया था पर आज स्कूल में उस बच्ची के एक प्रश्न ने मु झे फिर मेरी ही नजरों के कठघरे में ला खड़ा किया है,’’ कहते हुए अमित शांत हो कर सृष्टि के चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास करने लगे.

‘‘अमित, तुम्हें पता है हमारे समाज में हो रहे अपराधों का सब से बड़ा कारण आज के युवा की बेरोजगारी है. घर और मातापिता की जिम्मेदारियों के बीच में जब एक युवाओं अथक प्रयास के बाद भी नौकरी प्राप्त नहीं कर पाता या आर्थिक जिम्मेदारियों को उठाने के लायक नहीं हो जाता, तो वह स्वयं को असहाय सा महसूस करने लगता है. और जब यह काफी समय तक होता है तो वह युवा अवसाद से घिरने लग जाता है और उस की यह फ्रस्टे्रशन ही उसे गलत दिशा में मोड़ देती है.

‘‘मैं तुम्हारे इस व्यवहार को सही तो नहीं कह सकती क्योंकि आप कितने ही परेशान क्यों न हो, गलत मार्ग को अपना कर स्वयं पर से नियंत्रण खो देना तो सरासर गलत ही है. पर हां, अपनी गलती की स्वीकारोक्ति ही व्यक्ति की सब से बड़ी सजा होती है. वह तुम्हारा सैल्फरियलाइजेशन ही था जिस के परिणामस्वरूप तुम आज एक आला दर्जे के अधिकारी बन पाए हो. हां, तुम्हें जो आत्मग्लानि है उस से निकलने का एकमात्र रास्ता है कि तुम जा कर उन आंटी से मिल कर माफी मांग लो और उन्हें बताओ कि उस दिन उन के द्वारा तुम्हें दिया गया अभयदान बेकार नहीं गया.’’

‘‘हां, तुम सही कह रही हो. मैं जब तक उन से मिलूंगा नहीं, चैन से सो नहीं पाऊंगा,’’ कह कर अमित अपनी पुरानी डायरी में आंटी का मोबाइल ढूंढ़ने लगे. उज्जैन से भोपाल की दूरी ही कितनी थी, सो, रविवार के दिन वे भोपाल की अरेरा कालोनी में थे.

‘न जाने वे मु झे माफ करेंगी भी, या नहीं. क्या प्रतिक्रिया होगी उन की मु झे देख कर? पता नहीं उन्हें मैं याद भी होऊंगा या नहीं. परंतु जब तक मैं उन से मिल कर अपने दिल का हाल कह कर माफी नहीं मांग लेता, मेरा प्रायश्चित्त ही नहीं हो पाएगा और मैं ताउम्र तिलतिल कर मरता रहूंगा. एक बार मिलना तो होगा ही. शायद वे मु झे माफ कर सकें,’ सोचतेसोचते वे कब अरेरा कालोनी के ई 7 के कामायनी परिसर में एक एचआईजी मकान के सामने आ कर खड़े हो गए, उन्हें पता ही न चला.

उन्होंने धड़कते दिल से घंटी बजाई. दरवाजा आंटी ने ही खोला. अमित ने  झुक कर उन के पैर छू लिए. वे बोलीं, ‘‘अरे, कौन हो भाई? मैं पहचान नहीं पा रही हूं.’’

‘‘आंटी, मैं, अमित.’’

‘‘ओहो अमित, कुछ बन पाए या आज भी…’’ आंटी अपनी याददाश्त पर कुछ जोर डालते हुए बोलीं.

‘‘आंटी, मैं आईपीएस हो गया हूं. पर यकीन मानिए कि आज मैं जो कुछ भी हूं आप के कारण हूं. पर 8 वर्ष पुरानी उस घटना के लिए मैं आज भी क्षमाप्रार्थी हूं. आप ने उस दिन क्रोध में मु झे मेरी असलियत, कर्तव्य और जीवन के मूल्य सम झाए थे. पर आज आप प्यारभरा आशीष मु झे दीजिए तो मैं सम झूंगा कि आप ने सच्चे मानो में मु झे माफ कर दिया है.’’

‘‘वैल डन, वैल डन. उस दिन तुम्हारी आत्मग्लानि देख कर मु झे सम झ आ गया था कि तुम बहक गए हो. तुम्हें माफ कर के मैं ने तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दिया था कि यदि तुम्हें अपने ऊपर वास्तव में पछतावा होगा तो अवश्य जीवन में कुछ बन सकोगे. दरअसल, कभीकभी सजा से अधिक माफ करना आवश्यक होता है क्योंकि हर अपराधी को सजा से नहीं सुधारा जा सकता और न ही हरेक को माफी से. उस समय मैं ने वही किया जो मु झे ठीक लगा.

‘‘मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है. खूब उन्नति करो. पर महिलाओं का सम्मान करना कभी मत छोड़ना,’’ कह कर आंटी ने खुश हो कर उन के ऊपर अपना वरदहस्त रख दिया.

आंटी का प्यारभरा आशीष पा कर अपनी आंखों की कोरों में आए आंसुओं को सिटी एसपी अमित ने धीरे से पोंछ लिया और एक अनजाने बो झ से मुक्त हो कर खुशीखुशी अपने कर्तव्यस्थल की ओर चल दिए.

Motivational Story : कैसी जिंदगी

Motivational Story : मीता अपने  घर से निकली. पूरे रास्ते वह बेचैन  ही रही. दरअसल, वह अपने बचपन की सखी तनु से हमेशा की तरह मिलने व उस का हालचाल पूछने जा रही थी.  हालांकि, मीता बखूबी जानती थी कि वह तनु से मिलने जा तो रही है पर बातें तो  वही होनी हैं जो पिछले हफ्ते हुई थीं  और उस से पहले भी हुई थीं. मीता का  चेहरा देखते ही तनु एक सैकंड भी बरबाद नहीं करेगी और पूरे समय, बस,  इसी बात का ही रोना रोती रहेगी कि, ‘हाय रे, यह कैसी जिंदगी? आग लगे इस जिंदगी को, मैं ने सब के लिए यह किया वह किया, मैं ने इस को आगे बढ़ने की  सीढ़ी दी, पर  आज कोई मदद करने वाला नहीं. गिनती रहेगी कि यह नहीं वह नहीं…’

मीता जानती थी कि जबरदस्ती की पीड़ा तनु ने पालपोस कर  अमरबेल जैसी बना ली है. काश, तनु अपनी आशा व उमंग को खादपानी देती, तो आज जीवन का  हर कष्ट, बस, कोई हलकी समस्या ही  रह जाता और एक प्रयोग की  तरह तनु उस के दर्द से भी  पार हो जाती. मगर, तनु ने तो अपनी सोच को इतना सडा़ दिया था कि  समय, शरीर और ताकत सब मंद पड़ रहे थे.

सहेली थी, इसलिए मीता की  मजबूरी हो जाती कि उस की इन बेसिरपैर की  बातों को चुपचाप सुनती रहे. आज भी वही सब दुखदर्द, उफ…

मीता ने यह सब सोच कर ठंडी आह भरी और उस को तुरंत  2 दशक पहले वाली तनु याद आ गई. तब तनु 30 बरस की  थी.  कैसा संयोग था कि तनु का  हर काम आसानी से हो जाता था. अगर  उस को लाख रुपए की  जरूरत भी होती तो परिचित व दोस्त तुरंत मदद कर देते थे. मीता को याद था कि कैसे तनु रोब से कहती फिरती कि, ‘मीता, सुन,  मैं समय की बलवान हूं, कुछ तो है मेरे व्यक्तित्व में कि हर काम बन जाता है और जिंदगी टनाटन  चल रही है.’ मगर  मीता सब जानती थी कि यह पूरा सच नहीं था.

असलियत यह थी कि तनु आला दर्जे की  चंट  और धूर्त हो गई थी. उस ने 5 सालों में ऐसे अमीर, बिगडै़ल व इकलौते वारिस संतानों को खूब दोस्त बना कर ऐसा लपेटा था कि वे लोग तनु के  घर को खुशी और सुकून का  अड्डा मान कर चलने लगे. मीता सब जानती थी कि  कैसे प्रपंच कर के  तनु ने लगभग ऐसे ही धनकुबेर दसबारह दोस्तों से बहुत रुपए उधार ले लिए थे और वह सीना ठोक कर कहती थी कि जिन से पैसा उधार लिया है वे सब अब देखना, कैसे जीवनभर मेरे इर्दगिर्द चक्कर काटते रहेंगे. मीता जब आश्चर्य  करती तो वह कहती कि मीता, तुम तो नादान हो, देखती नहीं कि यह सब किस तरह अकेलेपन के मारे हैं बेचारे. लेदे कर इन को मेरे ही घर पर आराम मिलता है.

मगर मीता तनु की ये सब दलीलें सुन कर बहुत टोकती  भी थी कि, बस, घूमनेफिरने और महंगे शौक पूरे करने का  दिखावा बंद करो, तनु. आखिर दोस्त भी कब तक मदद करते रहेंगे?

पर तनु जोरजोर से हंस देती थी और कंधे झटक  कर कहती कि मीता, मेरी दोस्ती तो ये लोग तोड़ ही नहीं सकते. देखो, मैं कौन हूं, मैं यहां नगरनिगम की  कर्मचारी हूं. मेयर तक पहुंच है मेरी. मैं सब के बहुत  काम की  हूं वगैरहवगैरह. यह सुन कर मीता खामोश हो जाती थी. पर वह कहावत है न कि, परिवर्तन समय का  एक नियम है. इसलिए  समय ने रंग दिखा ही दिया. तनु का अपने  पति  से अलगाव हो गया और उस की  इकलौती बेटी गहरे  अवसाद में आ कर बहुत बीमार रही. कहांकहां नहीं गई तनु, किसकिस अस्पताल के  चक्कर नहीं लगाए. पर कोई लाभ नहीं हुआ. एक दिन बेटी कोमा मे चली गई. मगर अभी और परीक्षा बाकी थी. एक दिन  तनु का  नगर निगम में ऐसा विवाद व कानूनी लफड़ा हुआ कि वह विवाद महीनों तक लंबा खिंच गया. और  उस महज पचास की  उम्र में नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा. यही उपाय था, वरना,  उस को सब के सामने धक्के मार मार कर कार्यस्थल से  निकाला जाता. आज वह बीमार बेटी को संभाल रही थी. पर कोई पुराना मित्र या परिचित ऐसा नहीं था जो, उस से मिलना तो बहुत दूर की  बात, उस को मोबाइल पर संदेश तक भी गलती से नहीं भेजता था.

यह सब सोचतीसोचती  मीता अब तनु के घर पर पहुंच चुकी थी और वह बाहर गमलों को पानी देती हुई मिल गई.  मीता के  मुंह से निकल पड़ा, “आहा,  खूबसूरत फूलों की  संगत में वाहवाह.”

यह सुना  तो तनु फट कर  बोल पड़ी, “हां, जानपहचान वालों ने तो  मुझ को, बस,  कैक्टस और कांटे ही दिए. फिर भी कुछ फूल कहीं मिल ही गए.”  और फिर  पाइप से बहते पानी से अधिक आंसू उस की आंख से बहने लगे  और वह  बेचारी व कमजोर इंसान बन कर  हर परिचित को धाराप्रवाह बुराभला कहने लगी.

तब मीता ने कोई पल गंवाए बगैर कहा, “तनु, सुनो, यह जो दुख है न, हमारी उस याददाश्त की देन है जो खराब बातें ही याद दिलाती है. तुम को यह वर्तमान नहीं, बल्कि अतीत है जो रुला कर समय से पहले इतना जर्जर किए दे रहा है. बारबार लोगों को याद कर के लानतें  मत दो.  अच्छे लोगों  की कीमत तब तक कोई नहीं जानता, जब तक वे हमारे व्यवहार से आहत हो कर दूर  जाने न लगें. हमारे जीवन में  कुछ सुकून की जो सांस चल रही होती  है, वह इन सदगुणी लोगों के  कारण ही होती है. तनु, गौर से सुनो और   तुम एक बार याद तो  करो कि तुम को कितने सहयोगी दोस्त एक के  बाद एक मिलते रहे.”

तनु कुछ बोली नहीं. बस, चुपचाप सुनती रही. मीता बोलती गई, “तनु, कई लोग तो दशकों बिता देते हैं और संयोग से मिल रहे हितैषियों से भरपूर लाभ भी लेते रहते हैं पर वे लोग लापरवाह हो जाते हैं.   वे अपनी उस ख़ुशी या उन मित्रों की  अहमियत पर कभी ध्यान नहीं देते हैं जिन की वजह से उन की खुशी और आनंद आज  अस्तित्व में हैं. और सच कहा जाए तो वह ही  उन का सबकुछ है. कैसी विडंबना है कि आदमी इतना संकीर्ण हो जाता है कि  वह सब से पहले उसी अनमोल खजाने को बिसरा देता है.”

“मैं ने सब के लिए कितना किया,” तनु गुस्से व नाराजगी से बोली, “रमा को हर हफ्ते मेयर की  पार्टी में ले जाती थी. सुधा को तो सरकारी ठेके दिलवाए.  उस उमा को तो नगर निगम  के विज्ञापन दिला कर उस की वह हलकीफुलकी पत्रिका निकलवा  दी. सब का काम किया था मैं ने. पर आज कोई यहां झांकता तक नहीं.”

“नहीं तनु, यह निहायत ही  एकतरफा सोच है तुम्हारी. यह संकुचित सोच भी किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि ऐसे नकारात्मक सोचने वाला अपने दिमाग को सचाई से बिलकुल अलग कर लेता है.”

तनु यह सुन कर तमतमाता हुआ चेहरा कर के मुंह बनाने  लगी पर मीता निडर हो कर आगे बोली, “तुम पूरी बात याद करो, तुम कह रही हो कि  रमा को तुम दावतों  में ले जाती थीं. पर उस के एवज में रमा की  एक कार हमेशा तुम्हारे पास ही रही. और तुम ने रमा की  नर्सरी से लाखों के  कीमती पौधे मुफ्त में लिए, याद करो.”

तनु को वह सब याद आ गया और वह अपने होंठ काटती हुई कुछकुछ विनम्र हो गई. अब मीता ने कहा, “सुधा को तुम ने जुगाड़ कर के ठेका दिलवाया. हां बिलकुल,  पर तुम्हारे घर पर कोई भी आयोजन होता था तो सुधा की  तरफ से मुफ्त कैटरिंग  होती थी. बोलो, सच है या नहीं?” “ओह, हां, हां,” कह कर तनु चुप हो गई.

मगर अब  मीता बिलकुल चुप नहीं रही, बोली, “उमा  की  पत्रिका में तुम्हारी बेटी की  कविता छपना  जरूरी था. इतना ही नहीं, तुम ने उमा की  पत्रिका को  अपने ही  एक प्रिय पार्षद का  प्रचार साधन भी बनाया. याद आया कि नहीं, जरा ठीक से  याद करो.”

“हां,”  कह कर तनु कुछ उदास हो गई थी.  मीता को लगा कि उसे कहीं पार्क या किसी खुली जगह में चलने को कहना चाहिए.

आखिर मीता भी इंसान थी और तनु को उदास देख कर उस का मन भी खुश नहीं रह सकता था. मीता ने उस के जीवन का  हर रंग देख लिया था. तनु और  उस ने कितना समय साथ गुजारा था. मीता ने उस से कहा कि तनु, सुनो, अभी तो सहायिका  काम कर रही हैं, वे बिटिया को भी देखती रहेंगी. चलो, हम पास वाले पार्क तक चहलकदमी  कर आते हैं. तनु के लिए मीता सबकुछ थी- बहन, दोस्त, हितैषी सबकुछ. वह चट मान गई और उस के साथ चल दी.

घर की  चारदीवारी से पार होते ही तनु को कुछ अच्छा सा लग रहा था. वह आसपास की  चीजों को गौर से देखती जा रही थी. पार्क पहुंच कर दोनों आराम से एक बैंच  पर बैठ गईं.

तनु वहां पर उड़ रही तितली को यहांवहां देखने लगी. मीता को अब लगा कि आज तनु को सब याद दिलाना ही चाहिए, ताकि यह अपनी सोच को सही व  संतुलित कर के सकारात्मक ढंग से विचार कर सके और खुद भी  किसी पागलपन जैसी बीमारी का  शिकार न हो जाए. तनु को उम्र के  इस मोड़ पर मानसिकरूप से सेहतमंद  होना बहुत अनिवार्य था. मीता यह सोच ही रही थी कि तनु  अचानक अपने पति पुष्प  का जिक्र करते हए पुष्प  को बुराभला कहने लगी. उन की पुरानी गलतियां बता कर शिकायतें करने लगी.

पर मीता ने उस को बीच में ही फिर टोक दिया और जरा जोर दे कर कहा, “तनु, अगर तुम्हारे पति प्राइवेट स्कूल में शिक्षक न हो कर कोई बढ़िया नौकरी कर रहे होते तो तुम इतना रोब दिखातीं उन को, जरा ईमानदारी से याद करो,  तनु. सुनो तनु, तुम उन की सारी तनख्वाह को जब्त कर लेती थीं और अपने ढंग से कहीं प्लौट खरीद लेतीं और लोन की  किस्तें पुष्पजी के वेतन से चुकाई  जातीं. वे कुछ कहते, तो तुम अपना रोबदाब दिखाने लगती थीं. तुम ने एक सरल व सच्चे इंसान को हौलेहौले मंदबुद्धि बना दिया, तनु. वे तुम्हारे चलते यह शहर ही छोड़ कर चले गए. पर आज वे आनंद से हैं, अकेले हैं, पर समाज की  सेवा में बहुत खुश हैं.”

तनु यह सब चुपचाप सुनती रही. उस से कोई जवाब देते ही नहीं बन रहा था. मीता आगे बोली, “तनु, याद है एक बार तुम उन को अपने मेयर साहब से  सिफारिश कर के नगर निगम का कोई सम्मान दिलवा लाई थीं, जबकि पुष्पजी तो चाहते ही नहीं थे कि उन को कोई मानपत्र दिया जाए. पर तुम ने कितना भौंडा प्रदर्शन किया. मुझे तो पुष्पजी का  चेहरा याद आता है कि वे तुम्हारे इस दिखावे के  शोरशराबे और आत्मप्रदर्शन से कितने आहत हो गए थे.

“वे यही सोचते कि एक सरल जीवन जिया जा सकता है. पर तुम तो न जाने किस लत में पड़ गई थीं कि यहां की  गोटी वहां फिट कर दो, इस को आगे करो, उस को पीछे करो, इस से इतना रुपया ऐंठ लो और भी न जाने क्या सनक थी तुम को.  तुम ऐसा क्यों करती थीं. तनु, कितनी ही बार पुष्पजी कोशिश करतेकरते हार गए  कि तुम्हारा यह दंभ और अहंकार  और झूठे पाखंड किसी तरह कम हो जाएं, पर एक बूंद के  बरसने  से ज्वालामुखी कहां शांत होता है.

“तुम तो पूरी महफिल में सरेआम  न जाने क्या से क्या बोल जातीं. तुम हमेशा पुष्पजी के  ड्रैसिंग सैंस का  मजाक उड़ाया करतीं और उन के पहने हुए लिबास को बदलवा  कर दोबारा तैयार होने को कहतीं थीं. वे कितना दुखी हो जाते पर तुम को तो, बस, दिखावा ही चाहिए था. तुम उन के अच्छे कपड़ों पर कैसे टिप्पणी कर देती थीं कि यह देखो, मैं खरीद कर लाई हूं, यह मेरी पसंद की  जींस है. इस पर वे बेचारे कितना झेंप जाते थे. पर तुम को कुछ समझ नहीं आता था.

“पुष्पजी तुम्हारे साथ बहुत असहज होने लगे थे. वे कई बार ऐसे लगते जैसे किसी कैदखाने में  घुट रहे हैं. बस, एक दिन उन्होंने फैसला कर लिया होगा कि चाहे किसी जंगल में खुशीखुशी  रह लेंगे, पर तुम्हारी इस झूठ से भरी हुई  नौटंकीशाला  में कतई नहीं.

“और तनु, तुम्हारी आंखों में तो कितने परदे पड़े थे. सावन के  अंधे को सब हरा ही हरा दिखता है. तुम को अपनी जोड़जुगाड़ वाली कूटनीति के  चश्मे से यही दिखता था कि पुष्पजी से ले कर सब परिचित, बस, इक तुम्हारी ही छत्रछाया में सुकून से हैं.”

तनु यह सब ऐसे सुन रही थी मानो उस के खिलाफ कोई झूठा मुकदमा चलाया जा रहा हो.

मीता धाराप्रवाह बोलती गई, “तनु,  पता है, तुम जब तक उन के सामने नहीं होती थीं वे जिंदगी का  आनंद लेते पर तुम दफ्तर से आतीं तो वे सकपका से जाते. तुम जैसे कोई तबाही बन गई थीं उन के लिए. हम लोग कितना संकेत करते, पर तुम इतनी जोरदार व भारी आवाज में हमारी हर बात काट दिया करती थीं.”

यह सब कहतेकहते जब मीता जरा देर के लिए चुप हो गई तो तनु बोल पड़ी, “हुंह,  मीता, तुम तो आज मुझे दोस्त लग ही नहीं रही हो. हद करती हो तुम, पुष्प के  परिवार को गोवा तक घुमाने ले गई वह भी सरकारी खर्च पर. ऐसा शाहीभ्रमण उन के वश की  बात ही नहीं है, मीता.”

“नहीं तनु, तुम फिर एकतरफा सोच रही हो. वह परिवार बहुत सादगीपसंद है. तुम्हारी चालें, तुम्हारे दांवपेंच  वे नहीं जान सका कभी. तुम अपनी ननद और ननदोई को जिद कर के उन की मरजी के  विरूद्ध गोवा ले गईं और उस से पहले ही तुम ने इस बात का  हर जगह भोंपू बजा कर इतना प्रचार कर दिया था कि सुनसुन कर  पुष्पजी शर्मिंदा हो जाते थे मानो वे कोई नितांत फकीर हैं और तुम ने उन को व उन के गरीब परिवार को शाहीजीवन उपहार में दिया है. पर तुम को यह सब कभी समझ नहीं आया.

“तुम को याद भी नहीं. पर तुम्हारे ननद और ननदोई गोवा जा कर बहुत परेशान हो गए थे. तुम से कहना चाहते थे पर तुम तो अपने प्रभाव व अपने रोब के खोल में बंद रहती थीं. तुम ने एक बार पलभर को भी उन दोनों का  मन नहीं जाना. पर यह बात तुम्हारी ननद ने अपने भाई यानी पुष्पजी से कही कि वहां इतने ओछे और छिछोरे लोगों के  साथ तुम ने उन को पलपल कितना विचलित किया. वे दूसरे दिन लौट जाना चाहते थे पर तुम ने उन को दबाव में ले कर पूरा सप्ताह जैसे उन का मानसिक शोषण किया था.

“तनु, वे बहुत ही सरल लोग हैं. इतना छलकपट, इतना दिखावा उन के वश की  बात नहीं है. पर तुम तो गोवा से लौट कर भी अपनी उदारता का  बखान करती रहीं कि ननदननदोई को घुमा लाईं वगैरहवगैरह.”

“पर आज देखो, तुम्हारे ननद और ननदोई सिर्फ अपने खूनपसीने की  मेहनत के  बल पर  कितने सफल उद्योग चला रहे हैं. कितनों  को रोटी दे रहे हैं. और तुम उन पर ऐसे अपना सिक्का जमाने की  कोशिश करती थीं. तनु, पुष्पजी हों या उन के बहनबहनोई, वे सब मुझ से बहुत प्रेम रखते हैं. मगर मैं आज भी, बस, तुम से ही लगाव रखती हूं, बस, तुम से स्नेह रखती हूं. क्योंकि, एक जमाने में तुम्हारे पापा ने मेरी एक साल की  स्कूल फीस जमा कराई थी. तनु, मेरे पास सब की खबर है, पर मेरा मन हमेशा तुम से ही जुडा रहेगा. मैं सदैव तुम्हारी ही भलाई चाहती हूं.” यह सब कह कर मीता चुप हो गई.

तनु यह सुन कर एकदम खामोश हो गई. थोड़ी देर बाद बोली, “मीता, एकएक बात  सच कह रही हो. मैं जल्दी मालदार बनना चाहती थी और अमीरों की  कमजोरी भांप कर उन का काम करवा कर रुपया मांग लेती थी. पर आज यह लगता है कि शायद मेरी यह फितरत सब भांप गए और मुझ से दूर होने लगे. सच मीता, अगर मैं यह प्रपंच वगैरह न करती तो कम पैसा होता पर कितनी खुशी होती और कितने अपने मेरे साथ होते. आज, बस, तुम ही हो जो मेरा साथ निभा रही हो. अब तुम देखना, मैं संकल्प करती हूं कि  अपनी सोच बदल दूंगी. मैं, बस, प्रकृति की  सेवा करूंगी और बेटी जल्द सही हो, इस की कोशिश. कोई मदद मांगने आए, तो गुप्तदान करूंगी,” कहते हुए तनु का  गला भर आया और वह किसी तरह अपने आंसू रोकने लगी.

“हां तनु, यह ही सही मार्ग है. आखिर तनु,  ऐसी समुचित मानसिक स्थिति होगी तो फिर किसी भी हाल  में तुम्हारा  बुरा  कैसे संभव है? अब तुम इसी पल से अपने को बदल कर रख दो. वह मन सुधार लो जो  अपना काम निकालने को परिचय की  जोड़तोड़ करता रहे. बोलो  तनु, कुदरत  का भी अपना एक अटल कानून है. वह अच्छे लोगों से मिलवाती  रहती है. मगर जब हम उन सहयोगी जनों को बारबार नजरअंदाज करते हैं तो  वे अंतिमरूप से चले जाते हैं और उस के बाद  तो फिर संसार की कोई भी ताकत उन को वापस नहीं बुला सकती है. इस के साथ ही किसी की भी सिफारिश काम नहीं आती है. इस में किसी भी रिश्वत का आदानप्रदान नहीं होता है. इस अच्छे संबंध को तो  आप बाजार से नहीं खरीद सकते हैं. और चाहकर भी इसे आप किसी को नहीं दे सकते हैं और किसी से छीनझपट कर भी  ले नहीं सकते हैं.

“अब  यह पूरी तरह से  हम सब के  ऊपर ही तो  निर्भर करता है कि हम जैसा चाहें, इस अच्छी संगति  को अंत दे सकते हैं.” “हां मीता, सच कहा, इस जीवन को खुशियों से  संपन्न करने के लिए मुझ को ही  यह जिदंगी सफल करनी पड़ेगी. इस जीवन के अंदर समझदारी की स्थापना करनी पड़ेगी.”

“हांहां तनु, हां,”  कहते हुए मीता की  आंखों में तनु की आंखों से टकराती  इंद्रधनुषी आभा प्रतिबिंबित होने लगी.

Hindi Story : किसे स्वीकारे स्मिता

Hindi Story : ‘‘मैम, रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित है और इस में कुछ भी गलत नहीं है.’’ ‘‘क्या तुम्हें अधिकारियों के आदेश का पता नहीं कि हमें शतप्रतिशत बच्चों को साक्षर दिखाना है,’’ सुपरवाइजर ने मेज पर रखी रिपोर्ट को स्मिता की तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘इसे ठीक करो.’’

‘मैम, फिर सर्वे की जरूरत ही क्यों?’ स्मिता ने कहना चाहा किंतु सर्वे के दौरान होने वाले अनुभवों की कड़वाहट मुंह में घुल गई.

चिलचिलाती धूप, उस पर कहर बरपाते लू के थपेडे़, हाथ में एक रजिस्टर लिए स्मिता बालगणना के राष्ट्रीय कार्य में जुटी थी. शारीरिक पीड़ा के साथ ही उस का चित्त भी अशांत था. मन का मंथन जारी था, ‘बालगणना करूं या स्कूल की ड्यूटी दूं. घर का काम करूं या 139 बच्चों का रिजल्ट बनाऊं?’ अधिकारी तो सिर्फ निर्देश देना जानते हैं, कभी यह नहीं सोचते कि कर्मचारी के लिए इतना सबकुछ कर पाना संभव भी है या नहीं.

स्कूटर की आवाज से स्मिता की तंद्रा भंग हुई. सड़क के किनारे बहते नल से उस ने चुल्लू में पानी ले कर गले को तर किया. उस के मुरझाए होंठों पर ताजगी लौटने लगी. नल को बंद किया तो खराब टोंटी से निकली पानी की बूंदें उस के चेहरे और कपड़ों पर जा पड़ीं. उस ने कलाई पर बंधी घड़ी पर अपनी नजरें घुमा दीं.

‘एक बज गया,’ वह बुदबुदाती हुई एक मकान की ओर बढ़ गई. घंटी बजाने पर दरवाजा खुलने में देर नहीं लगी थी.

एक सांवली सी औरत गरजी, ‘‘तुम्हारी अजीब दादागिरी है. अरे, जब मैं ने कह दिया कि मेरे बच्चे पोलियो की दवा नहीं पिएंगे, तो क्यों बारबार आ जाती हो? जाइए यहां से.’’

स्मिता को लगा जैसे किसी ने उस के मुंह पर जोर का तमाचा मारा हो. उस ने विनम्र स्वर में कहा, ‘‘बहनजी, एक मिनट सुनिए तो, लगता है आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं पोलियो के लिए नहीं, बालगणना के लिए यहां आई हूं.’

‘‘फिर आइएगा, अभी मुझे बहुत काम है,’’ उस ने दरवाजा बंद कर लिया.

वह हताशा में यह सोचती हुई पलटी कि इस तरह तो कोई जानवर को भी नहीं भगाता.

स्मिता को लगा कि कई जोड़ी आंखें उस के शरीर का भौगोलिक परिमाप कर रही हैं मगर वह उन लोगों से नजरें चुराती हुई झोपड़ी की तरफ चली गई. वहां नीम के पेड़ की घनी छाया थी. एक औरत दरवाजे पर बैठी अपने बच्चे को दूध पिला रही थी. दाईं ओर 3 अधनंगे बच्चे बैठे थाली में सत्तू खा रहे थे. सामने की दीवार चींटियों की कतारों से भरी थी.

स्मिता उस औरत के करीब जा कर बोली, ‘‘हम बालगणना कर रहे हैं। कृपया बताइए कि आप के यहां कितने बच्चे हैं और उन में कितने पढ़ते हैं?’’

‘‘बहनजी, मेरी 6 लड़कियां और 3 लड़के हैं लेकिन पढ़ता कोई नहीं है.’’

‘‘9 बच्चे,’’ वह चौंकी और सोचने लगी कि यहां तो एक बच्चा संभालना भी मुश्किल हो रहा है लेकिन यह कैसे 9 बच्चों को संभालती होगी?

‘‘अम्मां, कलुवा सत्तू नहीं दे रहा है.’’

‘‘कलुवा, सीधी तरह से इसे सत्तू देता है या नहीं कि उठाऊं डंडा,’’ औरत चीख कर बोली.

‘‘ले खा,’’ और इस के साथ लड़के के मुंह से एक भद्दी सी गाली निकली.

‘‘नहीं बेटा, गाली देना गंदी बात है,’’ कहती हुई स्मिता उस औरत से मुखातिब हुई, ‘‘आप ने अभी तक अपने बच्चों का नाम स्कूल में क्यों नहीं लिखवाया?’’

‘‘अरे, बहनजी, चौकी वाले स्कूल में गई थी मगर मास्टर ने यह कह कर मुझे भगा दिया कि यहां दूसरे महल्ले के बच्चों का नाम नहीं लिखा जाता है. अब आप ही बताइए, जब मास्टर नाम नहीं लिखेेंगे तो हमारे बच्चे कहां पढ़ेंगे? रही बात इस महल्ले की तो यहां सरकारी स्कूल है नहीं, और जो स्कूल है भी वह हमारी चादर से बाहर है.’’

एकएक कर के कई वृद्ध, लड़के, लड़कियां और औरतें वहां जमा हो गए. कुछ औरतें अपनेअपने घर की खिड़कियों से झांक रही थीं. स्मिता ने रजिस्टर बंद करते हुए कहा, ‘‘कल आप फिर स्कूल जाइए, अगर तब भी वह नाम लिखने से मना करें तो उन से कहिए कि कारण लिख कर दें.’’

‘‘ठीक है.’’

एकाएक धूल का तेज झोंका स्मिता से टकराया तो उस ने अपनेआप को संभाला. फिर एकएक कर के सभी बच्चों का नाम, जाति, उम्र, पिता का नाम, स्कूल आदि अपने रजिस्टर में लिख लिया.

बगल के खंडहरनुमा मकान में उसे जो औरत मिली वह उम्र में 35-40 के बीच की थी. चेहरा एनेमिक था. स्मिता ने उस से सवाल किया, ‘‘आप के कितने बच्चे हैं?’’

अपने आंचल को मुंह में दबाए औरत 11 बोल कर हंस पड़ी.

स्मिता ने मन ही मन सोचा, बाप रे, 11 बच्चे, वह भी इस महंगाई के जमाने में. क्या होगा इस देश का? पर प्रत्यक्ष में फिर पूछा, ‘‘पढ़ते कितने हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, क्या करेंगे पढ़ कर? आखिर करनी तो इन्हें मजदूरी ही है.’’

‘‘बहनजी, आप ऐसा क्यों सोचती हैं? पढ़ाई भी उतनी ही जरूरी है जितना कि कामधंधा. आखिर बच्चों को स्कूल भेजने में आप को नुकसान ही क्या है? उलटे बच्चों को स्कूल भेजेंगी तो हर महीने उन्हें खाने को चावल और साल में 300 रुपए भी मिलेंगे.’’

चेचक के दाग वाली एक अन्य औरत तमतमाए स्वर में बोली, ‘‘यह सब कहने की बात है कि हर महीने चावल मिलेगा. अरे, मेरे लड़के को न तो कभी चावल मिला और न ही 300 रुपए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? आप का लड़का पढ़ता किस स्कूल में है?’’

‘‘अरी, ओ रिहाना… कहां मर गई रे?’’

‘‘आई, अम्मी.’’

‘‘बता, उस पीपल वाले स्कूल का क्या नाम है?’’

वह सोचती हुई बोली, ‘‘कन्या माध्यमिक विद्यालय.’’

स्मिता ने अपने रजिस्टर में कुछ लिखते हुए पूछा, ‘‘आप ने कभी उस स्कूल के प्रिंसिपल से शिकायत की?’’

‘‘तुम पूछती हो शिकायत की. अरे, एक बार नहीं, मैं ने कई बार की, फिर भी कोई सुनवाई नहीं हुई. इसीलिए मैं ने उस की पढ़ाई ही बंद करवा दी.’’

‘‘इस से क्या होगा, बहनजी.’’

स्मिता के इस प्रश्न पर उस ने उसे हिकारत भरी नजरों से देखा और बोली, ‘‘कुछ भी हो अब मुझे पढ़ाई करानी ही नहीं, वैसे भी पढ़ाई में रखा ही क्या है? आज मेरे लड़के को देखो, 20 रुपए रोज कमाता है.’’

स्मिता उन की बातों को रजिस्टर में उतार कर आगे बढ़ गई. अचानक तीखी बदबू उस की नाक में उतर आई. चेहरे पर कई रेखाएं उभर आई थीं. एक अधनंगा लड़का मरे हुए कुत्ते को रस्सी के सहारे खींचे लिए जा रहा था और पीछेपीछे कुछ अधनंगे बच्चे शोर मचाते हुए चले जा रहे थे. उस ने मुंह को रूमाल से ढंक लिया.

मकान का दरवाजा खुला था. चारपाई पर एक दुबलपतला वृद्ध लेटा था. सिरहाने ही एक वृद्धा बैठी पंखा झल रही थी. स्मिता ने दरवाजे के पास जा कर पूछा, ‘‘मांजी, आप के यहां परिवार में कितने लोग हैं.’’

‘‘इस घर में हम दोनों के अलावा कोई नहीं है,’’ उस वृद्धा का स्वर नम था.

‘‘क्यों, आप के लड़के वगैरह?’’

‘‘वह अब यहां नहीं रहते और क्या करेंगे रह कर भी, न तो अब हमारे पास कोई दौलत है न ही पहले जैसी शक्ति.’’

‘‘मांजी, बाबा का नाम क्या है?’’

उस वृद्धा ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया. स्मिता की निगाहें उस गुदे हुए नाम पर जा टिकीं, ‘‘कृष्ण चंदर वर्मा,’’ उस के मुंह से शब्द निकले तो वृद्धा ने अपना सिर हिला दिया.

‘‘अच्छा, मांजी,’’ कहती हुई स्मिता सामने की गली की ओर मुड़ गई. वह बारबार अपने चेहरे पर फैली पसीने की बूंदों को रूमाल से पोंछती. शरीर पसीने से तरबतर था. उस की चेतना में एकसाथ कई सवाल उठे कि क्या हो गया है आज के इनसान को, जो अपने ही मांबाप को बोझ समझने लगा है, जबकि मांबाप कभी भी अपने बच्चों को बोझ नहीं समझते?’’

स्मिता सोचती हुई चली जा रही थी. कुछ आवाजें उस के कानों में खनकने लगीं, ‘अरे, सुना, चुरचुर की अम्मां, खिलावन बंगाल से कोई औरत लाया है और उसे 7 हजार रुपए में बेच रहा है.’

आवाज धीमी होती जा रही थी. क्योंकि कड़ी धूप की वजह से उस के कदम तेज थे. वह अपनी रफ्तार बनाए हुए थी, ‘आज औरत सिर्फ सामान बन कर रह गई है, जो चाहे मूल्य चुकाए और ले जाए,’  वह बुदबुदाती हुई सामने के दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

तभी पीछे से एक आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आप को किस से मिलना है. मम्मी तो घर पर नहीं हैं?’’

‘‘आप तो हैं. क्या नाम है आप का और किस क्लास में पढ़ते हैं?’’

‘‘मेरा नाम उदय सोनी है और मैं कक्षा 4 में पढ़ता था.’’

‘‘क्या मतलब, अब आप पढ़ते नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, मम्मीपापा में झगड़ा होता था  और एक दिन मम्मी घर छोड़ कर यहां चली आईं,’’ उस बच्चे ने रुंधे स्वर में बताया.

‘कैसे मांबाप हैं जो यह भी नहीं सोचते कि उन के झगड़े का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’ स्मिता ने सोचा फिर पूछा, ‘‘पर सुनो बेटा, आप के पापा का क्या नाम है?’’

उस बच्चे का स्वर ऊंचा था, ‘‘पापा का नहीं, आप मम्मी का नाम लिखिए, बीना लता,’’ इतना बता कर वह चला गया.

स्मिता के आगे अब एक नया दृश्य था. कूड़े के एक बड़े से ढेर पर 6-7 साल के कुछ लड़के झुके हुए उंगलियों से कबाड़ खोज रहे थे. दुर्गंध पूरे वातावरण में फैल रही थी. वहीं दाईं ओर की दीवार पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘यह है फील गुड.’ स्मिता के मस्तिष्क में कई प्रश्न उठे, ‘जिन बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं उन के हाथों में उन के मांबाप ने कबाड़ का थैला थमा दिया. कैसे मांबाप हैं? सिर्फ पैदा करना जानते है.’ किंतु वह केवल सोच सकती थी इन परिस्थितियों को सुधारने की जिन के पास शक्ति व सामर्थ्य है वह तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहते.

हवा अब भी आग बरसा रही थी. स्मिता को रहरह कर अपने बच्चे की ंिचंता सता रही थी. मगर नौकरी के आगे वह बेबस थी. सामने से एक जनाजा आता नजर आया. वह किनारे हो गई. जनाजा भीड़ को खींचे लिए जा रहा था.

कुछ लोग सियापे कर रहे थे. नाटे कद की स्त्री कह रही थी, ‘बेचारी, आदमी का इंतजार करतेकरते मर गई, बेहतर होता कि वह विधवा ही होती.’

‘तुम ठीक बोलती हो, भूरे की अम्मां. जो आदमी महीनों अपने बीवी- बच्चों की कोई खोजखबर न ले वह कोई इनसान है? यह भी नहीं सोचता कि औरत जिंदा भी है या मर गई.’

‘अरी बूआ, तुम भी किस ऐयाश की बात करती हो. वह तो सिर्फ औरत को भोगना जानता था. 9 बच्चे क्या कम थे? अरे, औरत न हुई कुतिया हो गई. मुझे तो बेचारे इन मासूमों की चिंता हो रही है.’

‘किसी ने उस के पति को खबर की?’ एक दाढ़ी वाले ने आ कर पूछा.

‘अरे भाई, उस का कोई एक अड््डा हो तो खबर की जाए.’

एकएक कर सभी की बातें स्मिता के कानों में उतरती रहीं. वह सोचने पर मजबूर हो गई कि औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. वह तो सिर्फ मर्दों के हाथों की कठपुतली है जिस ने जब जहां चाहा खेला, जब जहां चाहा ठुकरा दिया.

प्यास के कारण स्मिता का गला सूख रहा था. उस ने सोचा कि वह अगले दरवाजे पर पानी का गिलास अवश्य मांग लेगी. उस के कदम तेजी से बढ़े जा रहे थे.

धूप दैत्य के समान उस के जिस्म को जकड़े हुए थी. उस ने एक बार फिर अपने चेहरे को रूमाल से पोंछा. उत्तर की ओर 1 वृद्धा, 2 लड़के बैठे बीड़ी का कश ले रहे थे.

‘‘अम्मां, यही आंटी मुझे पढ़ाती हैं,’’ दरवाजे से लड़के का स्वर गूंजा.

इस से पहले कि स्मिता कुछ बोलती, एक भारी शरीर की औरत नकाब ओढ़ती हुई बाहर निकली और तमतमा कर बोली, ‘‘एक तो तुम लोग पढ़ाती नहीं हो, ऊपर से मेरे लड़के को फेल करती हो?’’

उस औरत के शब्दबाणों ने स्मिता की प्यास को शून्य कर दिया.

‘‘बहनजी, जब आप का लड़का महीने में 4 दिन स्कूल जाएगा तो आप ही बताइए वह कैसे पास होगा?’’

‘‘मास्टराइन हो कर झूठ बोलती हो. अरे, मैं खुद उसे रोज स्कूल तक छोड़ कर आती थी.’’

‘‘बहनजी, आप का कहना सही है, मगर मेरे रजिस्टर पर वह गैरहाजिर है.’’

‘‘तो, गैरहाजिर होने से क्या होता है,’’ इतना कहती हुई वह बाहर चली गई.

खिन्न स्मिता के मुंह से स्वत: ही फूट पड़ा कि स्कूल भेजने का यह अर्थ तो नहीं कि सारी की सारी जिम्मेदारी अध्यापक की हो गई, मांबाप का भी तो कुछ फर्ज बनता है.

स्मिता प्यास से व्याकुल हो रही थी. उस ने चारों ओर निगाहें दौड़ाईं, तभी उस की नजर एक दोमंजिले मकान पर जा टिकी. वह उस मकान के चबूतरे पर जा चढ़ी. स्मिता ने घंटी दबा दी. कुछ पल बाद दरवाजा खुला और एक वृद्ध चश्मा चढ़ाते हुए बाहर निकले. शरीर पर बनियान और पायजामा था.

वृद्ध ने पूछा, ‘‘आप को किस से मिलना है?’’

‘‘बाबा, मैं बालगणना के लिए आई हूं. क्या मुझे एक गिलास पानी मिलेगा?’ स्मिता ने संकोचवश पूछा.

‘‘क्यों नहीं, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आप अंदर चली आइए.’’

स्मिता अंदर आ गई. उस की निगाहें कमरे में दौड़ने लगीं. वहां एक कीमती सोफा पड़ा था. उस के सामने रखे टीवी और टेपरिकार्डर मूक थे. कमरे की दीवारें मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, ओशो, रवींद्रनाथ टैगोर की तसवीरों से चमक रही थीं. दाईं तरफ की मेज पर कुछ साहित्यिक पुस्तकों के साथ हिंदी, उर्दू और अंगरेजी के अखबार बिखरे थे.

स्मिता ने खडे़खडे़ सोचा कि लगता है बाबा को पढ़ने का बहुत शौक है.

‘‘तुम खड़ी क्यों हो बेटी, बैठो न,’’ कह कर वृद्ध ने दरवाजे की ओर बढ़ कर उसे बंद किया और बोले, ‘‘दरअसल, यहां कुत्ते बहुत हैं, घुस आते हैं. तुम बैठो, मैं अभी पानी ले कर आता हूं. घर में और कोई है नहीं, मुझे ही लाना पड़ेगा. तुम संकोच मत करो बेटी, मैं अभी आया,’ कहते हुए वृद्ध ने स्मिता को अजब नजरों से देखा और अंदर चले गए.

उन के अंदर जाते ही टीवी चल पड़ा. स्मिता ने देखा टीवी स्क्रीन पर एक युवा जोड़ा निर्वस्त्र आलिंगनबद्ध था. स्मिता के शरीर में एक बिजली सी दौड़ गई. उस की प्यास गायब हो गई. घबरा कर उठी और दरवाजे को खोल कर बाहर की ओर भागी. वह बुरी तरह हांफ रही थी और उस का दिल तेजी से धड़क रहा था. जैसे अभी किधर से भी आ कर वह बूढ़ा उसे अपने चंगुल में दबोच लेगा और वह कहीं भाग न सकेगी.

‘‘सोच क्या रही हो? जाओ, और जा कर इस रिपोर्ट को ठीक कर के लाओ. मुझे तथ्यों पर आधारित नहीं, शासन की नीतियों पर आधारित रिपोर्र्ट चाहिए.’’

स्मिता चौंकी, ‘‘जी मैम, मैं समझ गई,’’ वह चली तो उस के कदम बोझिल थे और मन अशांत.

पतियों को है रेप की आजादी, Marital Rape को सरकार क्यों नहीं मानती है अपराध

Marital Rape : इसराईल की एक महिला शीरा इसकोवा पर सितंबर, 2020 में उस के पति ने 20 बार धारदार चाकू से जानलेवा हमला किया. उस के बाद उसे अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों का कहना था कि महिला का बचना मुश्किल है, लेकिन अपनी हिम्मत के बल पर शीरा मौत को मात दे कर जी उठी.

घटना के 14 महीने बाद कोर्ट ने घरेलू हिंसा के मामले में कोई मजबूत कानून नहीं होने की वजह से उस के आरोपी पति को निर्दोष बता दिया. कोर्ट की इस जजमैंट को ले कर पीडि़त महिला ने कहा था, ‘‘मुझे शरीर में 20 चाकू धंसने पर भी उतना दर्द नहीं हुआ, जितना कोर्ट के इस फैसले को सुनने पर हुआ.’’

इसराईल जैसे संपन्न देश में भी ऐसे कानून हैं जहां एक महिला पर पति द्वारा 20 चाकू घोंपे जाने के बावजूद उसे निर्दोष साबित कर दिया गया. लेकिन सिर्फ इसराईल ही एक अकेला ऐसा देश नहीं है. भारत समेत कई बड़े देशों में महिला विरोधी कानून आज भी लागू हैं.

भारत के पतियों को रेप की आजादी

मैरिटल रेप का सवाल लगातार किसी न किसी रूप में चर्चा का केंद्र बना हुआ है. विवाहित महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की घटनाएं आज भी हो रहे हैं. भारत में वैवाहिक बलात्कार कानून की नजर में अपराध नहीं है यानी अगर पति अपनी पत्नी के की मरजी के बगैर उस से जबरन शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे अपराध नहीं माना जाता.

एक पीडि़त महिला ने कोर्ट में जब यह कहते हुए गुहार लगाई कि उस का पति उस के साथ अप्राकृतिक कृत्य करता है, तो कोर्ट ने यह कहते हुए पति को बलात्कार के मामले में अपराधमुक्त कर दिया कि अगर पत्नी कानूनी तौर पर विवाहित है और उस की उम्र 18 साल से अधिक है, तो पत्नी के साथ बलपूर्वक या उस की इच्छा के विरुद्ध अप्राकृतिक यौन संबंध या यौन क्रिया अपराध या बलात्कार नहीं है.

हमारे भारतीय समाज में तो शादी को एक पवित्र बंधन माना गया है. यहां एक पति का अपनी पत्नी के साथ मार कर जबरन रेप को अपराध क्यों नहीं माना जाता? क्या पत्नी की देह पर उस का अपना कोई अधिकार नहीं है? क्या 21वीं सदी में भी शादी के बाद महिला की स्थिति सिर्फ पति की दासी जैसी है और उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है? क्या शादी के बाद भारतीय पतियों को कानूनी तौर पर पत्नी का बलात्कार करने का लाइसैंस मिल जाता है?

अगर कोई पति अपनी पत्नी के साथ मार कर जबरन सैक्स करता है, तो भारत का बलात्कार का कानून पति पर लागू नहीं होता और उस का नतीजा यह है कि महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार बन रही हैं.

मैरिटल रेप से जूझ रही महिलाओं की कहानी

लता, बदला हुआ नाम, कहती है कि उस का पति रोज शराब के नशे में चूर उस के साथ जानवरों जैसा सलूक करता है और वह जिंदा लाश की तरह बस पड़ी रहती है. तब उस का पति और हिंसक हो जाता है. हर रात वह उस के लिए एक खिलौने की तरह है, जिसे वह अलगअलग तरह से इस्तेमाल करता है.

पत्नी से लड़ाई के दौरान वह अपनी खुन्नस पत्नी का बलात्कार कर के निकालता है. तबीयत खराब होने पर कभी वह न कह दे तो पति सहन नहीं कर पाता है. अब वह इन संबंधों से ऊबने लगी है. उस का मन करता है कहीं भाग जाए, पर 2-2 बच्चों को पालना है, इसलिए सहने को मजबूर है.

एक महिला का कहना है कि एक रोज उस के पति ने उसे मारापीटा और घसीट कर कमरे में ले गया. उस ने अपनी पूरी ताकत से खुद को पति से अलग करना चाहा, लेकिन वह नहीं रुका. और तो और उस ने उस के प्राइवेट पार्ट में टौर्च घुसा दी जिस से वह बेहोश हो गई. लेकिन पति दरवाजा बंद कर बाहर निकल गया. उस के बाद ससुराल वालों ने उसे अस्पताल पहुंचाया. वह कहती हैं कि उस के बाद वह कभी अपनी ससुराल नहीं गई.

सैक्स के लिए परेशान करता था

कुछ साल पहले एक पत्नी द्वारा सैक्स के लिए मना करने पर पति ने उस का गला दबा कर मारने की कोशिश की थी. 34 वर्ष की महिला संगम विहार में अपने पति और 2 बच्चों के साथ रहती थी. दोनों की शादी को 17 साल हो गए थे. दोनों के बीच सैक्स को ले कर अकसर झगड़ा होता था.

पत्नी का आरोप था कि करीब 1 महीने पहले उस ने फैमिली प्लानिंग का औपरेशन करवाया था, इसलिए डाक्टर ने 3 महीने तक उसे शारीरिक संबंध बनाने से मना किया था. लेकिन पति अकसर उसे सैक्स के लिए परेशान करता था. एक रोज वह यह कहते हुए पत्नी का गला दबाने लगा कि अगर तू मेरे साथ सैक्स नहीं करेगी तो मैं तुझे जान से मार दूंगा. फिर तंग आ कर पत्नी को पुलिस को फोन करना पड़ा.

यहां सब से बड़ा सवाल यह है कि हमारे समाज में शादी चलाने और पति को खुश रखने की जिम्मेदारी औरतों के जिम्मे ही क्यों है? क्या औरत के शरीर और मरजी कोई माने नहीं है?

कोर्ट का तर्क

कोर्ट के अनुसार यह कैसे साबित होगा कि घर की चारदीवारी में क्या हुआ? कैसे पता चलेगा कि पत्नी की रजामंदी नहीं थी? रेप के कई झठे मामले अदालतों में पहुंचे और इस से कई जिंदगियां बरबाद हुईं. बैडरूम को अदालतों तक ले जाने की यह कोशिश बहुत खतरनाक साबित हो सकती है. इसलिए मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में रखा जाना उचित नहीं क्योंकि इस से विवाह संस्था चरमरा सकती है.

मगर यदि एक ऐसी संस्था की नींव बलात्कार जैसे अपराध पर टिकी हो तो उस संस्था का चरमरा जाना ही बेहतर रास्ता है. मैरिटल रेप कोई घर की बात नहीं है, बल्कि एक अपराध है. यह अपराध चाहे कोई भी करे इस से उस का चरित्र या उस की परिभाषा बदल नहीं जाती.

मैरिटल बलात्कार का मामला कई बार सांसद में भी उठा, लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट भी पत्नी की सहमति के बगैर उस से यौन संबंध स्थापित करने के कृत्य को अपराध घोषित करने से इनकार कर चुका है.

‘यूनिवर्सिटी औफ वौरविक’ और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफैसर रहे उपेंद्र बख्शी कहते हैं कि मेरे विचार से इस कानून को खत्म कर देना चाहिए. पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा और यौन हिंसा से जुड़े कानूनों में कुछ प्रगति जरूर हुई है, लेकिन वैवाहिक बलात्कार को रोकने के किए कोई कदम नहीं उठाया गया है.

1980 में प्रोफैसर बख्शी जानेमाने वकीलों में शामिल थे और उन्होंने अपनी बात सांसदों की समिति को भारत में बलात्कार से जड़े कानूनों में संसोधन को ले कर कई सुझव भी भेजे थे. समिति ने उन के सारे सुझवों को स्वीकार कर लिया सिवा मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के सुझव को. सरकार ने तर्क दिया कि वैवाहिक कानून का अपराधिकरण विवाह संस्था को अस्थिर कर सकता है और महिलाएं इसका इस्तेमाल पुरुषों को परेशान करने के लिए कर सकती हैं.

2013 में संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने भारत के इस रवैए पर चिंता जताते हुए सिफारिश की थी कि भारत सरकार वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करे. निर्भया मामले में प्रदर्शन के बाद गठित जेएस वर्मा समिति ने भी इस की सिफारिश की थी. कई समितियां बनी. लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है.

1947 में भारत का आधा हिस्सा ही आजाद हुआ था, बाकी आधा अभी भी गुलाम है. महिलाएं पितृसत्तात्मक सोच के नीचे घुट रही हैं. भारत आधुनिकता का सिर्फ मुखौटा ओढ़े हुए है.  अगर सतह को खंरोच कर देखें, तो असली चेहरा साफसाफ नजर आएगा.

पत्नी की शरीर संपत्ति नहीं

भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में आज भी पत्नी के शरीर पर पति का हक माना जाता है. इस कथित हक के हिसाब से लोग अकसर मान लेते हैं कि उन्हें पत्नी के साथ उस की मरजी के खिलाफ भी सैक्स करने का अधिकार है क्योंकि शादी के बाद पत्नी उस की संपत्ति की तरह है जिसे वह जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है.

ऐसे में वैवाहिक बलात्कार जैसे मुद्दे पुरुषों के लिए बेतुके लगते हैं. लेकिन क्या शादी का मतलब पत्नी से जबरदस्ती करने की आजादी है? क्या कानून का सहारा ले कर औरतों के खिलाफ हो रहे अत्याचार को सही ठहराया जा सकता है?

भारत में आज भी घरेलू हिंसा के खिलाफ सख्त कानूनों की कमी है. पत्नी के बलात्कार के खिलाफ भारत में कोई कानून है ही नहीं. फिर भी अदालतें यही कहती हैं कि अकसर औरतें कानूनों का दुरुपयोग करती हैं. लेकिन वही कानून एक बलात्कारी को पीडि़ता से शादी करने का औफर देता है ताकि उस की सजा माफ हो सके.

जस्टिस बोबडे ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के आरोपी व्यक्ति से पूछा था कि क्या वह उस से शादी करने के लिए तैयार है? सीजेआई ने वैवाहिक बलात्कार के एक अलग मामले में दूसरा भयानक सवाल यह किया था कि जब 2 लोग पति और पत्नी के तौर पर साथ रह रहे हैं, पति चाहे कितना भी क्रूर हो, क्या उन के बीच यौन संबंध को बलात्कार कहा जा सकता है?

क्या इस तरह के सवाल घरेलू हिंसा को और बढ़ावा नहीं देते हैं? क्या एक इंसान होने के नाते औरत को ‘न’ कहने का कोई हक नहीं है? फिर चाहे वह व्यक्ति उस का पति ही क्यों न हो. शादीशुदा होने से रेप का अपराध क्या कम गंभीर हो जाता है यानी पत्नी अगर 8 साल से ऊपर की है तो पति को वैवाहिक बलात्कार के लिए ‘हाल पास’ मिल जाता है. पति बिना किसी डर के अपनी पत्नी के साथ जो चाहे, जैसे चाहे कर सकती है, उस पर कोई कानूनी शिकंजा नहीं कसेगा.

पति का हक

आज  भी कुछ लोग ऐसे हैं जो पत्नी के बलात्कार के खिलाफ कानून बनाने के हक में नहीं हैं. ‘आंसर्स डौट कौम’ ने इस मुद्दे पर हो रही चर्चा पर लिखा था कि पति का अपनी पत्नी के जिस्म पर पूरा हक है. किसी सैक्स वर्कर के पास जाने से अच्छा है पत्नी के साथ ही जबरदस्ती करो. एक और व्यक्ति ने लिखा था कि पत्नी का बलात्कार इतना संजीदा मुद्दा नहीं है जितना किसी लड़की से बलात्कार करना. पत्नी को अपने पति की जरूरतों का खयाल रखना चाहिए.

नाक कटने का डर

अधिकतर मामलों में महिलाएं अपने घर में ही पति के हाथों बलात्कार की शिकार होती हैं. लेकिन वे अपनी शिकायत ले कर सामने नहीं आ पातीं क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करने से समाज में उन की नाक कट जाएगी और अगर कोई अपने हक के लिए बोलना भी चाहती है तो उस की आवाज दबा दी जाती है.

अफसोस की बात है कि हमारी न्याय प्रणाली भी दोषी का साथ देती है. छोटे से ले कर बड़ा अधिकारी पैसे दे कर खरीद लिया जाता है. लेकिन वहीं पश्चिमी देशों में महिलाओं के हितों में नए कानून ही नहीं बनते, बल्कि उन का पालन भी होता है. लेकिन हमारे यहां अगर कोई कानून बन भी जाए तो उस का पालन नहीं होता, केवल दुरुपयोग होता है.

100 से भी अधिक देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन भारत लगभग 32 देशों की चमकदार लीग पर खड़ा है, जहां वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता है. ब्रितानी औपनिवेशिक दौर का यह कानून भारत में 1860 से लागू है, जिस में जिक्र था कि अगर पति अपनी पत्नी के साथ जबरन सैक्स करे और पत्नी की उम्र 18 साल से कम की न हो तो उसे रेप नहीं माना जाएगा.

इस प्रावधान के पीछे यह मान्यता है कि शादी में सैक्स की सहमति छिपी हुई होती है और पत्नी इस सहमति को बाद में वापस नहीं ले सकती है. लेकिन खुद ब्रिटेन ने भी 1991 में वैवाहिक बलात्कार को यह कहते हुए अपराध की श्रेणी में रख दिया कि छिपी हुई सहमति को अब गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है. लेकिन महान भारतीय पितृसत्तात्मक मानसिकता ने लंबे समय तक एक विडंबना को पाले रखा, जो आज तक चली आ रही है.

मैरिटल रेप का अपवाद हमारे कानून और समाज में पितृसत्तात्मक सोच को प्रदर्शित करता है. औपनिवेशिक कानून लागू होने के बाद जब पहली बार अपवाद को जोड़ा गया तो नीति निर्माताओं ने चर्चा की थी कि क्या कानून को रेप करने वाले पति को बचाना चाहिए या शादी में रेप को बरदाश्त करने की पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति को यह अपवाद वैधता देता है?

वैवाहिक बलात्कार का ही परिणाम है कि आज कई महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होने को मजबूर हैं. आंकड़े बताते हैं कि देश में शादी करने वाली 15 से 49 साल के बीच की हर 3 में से 1 महिला पति के हाथों हिंसा का शिकार होने की बात कहती है. एक सर्वे के अनुसार 31 फीसदी विवाहित महिलाओं से उन के पति शारीरिक, यौन और मानसिक उत्पीड़न करते हैं.

महिलाओं पर वैवाहिक बलात्कार के प्रभाव

पतियों द्वारा वैवाहिक बलात्कार और अन्य गलत दुर्व्यवहार महिलाओं में तनाव, अवसाद, भावनात्मक संकट और आत्महत्या के विचारों जैसे मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव उत्पन्न करता है. वैवाहिक बलात्कार हिंसक आचरण बच्चों के स्वास्थ्य और सेहत को भी प्रभावित करता है.

एक ओर पारिवारिक हिंसक माहौल, तो दूसरी ओर ये घटनाएं स्वयं और बच्चों की उपयुक्त देखरेख कर सकने की महिलाओं की क्षमता को कमजोर कर सकती हैं. अपरिचित या परिचित व्यक्ति द्वारा बलात्कार की शिकार पीडि़ताओं की तुलना में वैवाहिक  बलात्कार की शिकार पीडि़ताओं के बारबार बलात्कार की घटनाओं का शिकार होने की अधिक संभावना रखती है.

यह चौंकाता है. लेकिन यह सच है कि हम एक ऐसे देश में हैं जो ज्यादातर यही मानता है कि एक भारतीय महिला शादी के बाद कई चीजों के साथ अपने पति के लिए कभी खत्म नहीं होने देने वाली, बदली न जा सकने वाली और हमेशा के लिए सहमति सौंपने वाली होती है, जिसे केवल मौत ही खत्म कर सकती है.

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर कानूनों के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा, लेकिन भारतीय आपराधिक कानून महिलाओं खासकर के उन महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिन का पतियों द्वारा बलात्कार किया जाता है. हालांकि संविधान सभी को समानता की गारंटी देता है.

आधुनिक समाज में जब हर स्तर पर स्त्रियों की भागीदारी व बराबरी की कोशिश हो रही है और इन कोशिशों का श्रेय पुरुष बढ़चढ़ कर लेते रहे हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित किया जाए. इस के दायरे में उन सभी महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटना को शामिल किया जा सकता है जो कभी भी विवाहित रही हों अर्थात विवाहित, तलाकशुदा, पति से अलग हो कर रह रही महिला और लिविंग पार्टनर के साथ उन की इच्छा के विरुद्ध पति या जीवनसाथी द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने या फिर यौन हिंसा का प्रावधान होना चाहिए.

सरकार को महिलाओं के सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए पत्नी से बलपूर्वक यौनाचार को बलात्कार की श्रेणी में शामिल करने की दिशा में सकारात्मक कदम उठाने ही पड़ेंगे वरना थकहार कर महिलाओं को उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में घुट कर जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में न रखा जाना पितृसत्तात्मक को और मजबूत करता है.

IVF Child : अंश हमारा है

IVF Child : विपिन और सीमा बेसब्री से घर में आने वाले नए मेहमान के स्वागत की तैयारी में व्यस्त थे. शादी के 7 साल बाद भी जब उन के आंगन में बच्चे की किलकारियां नहीं सुनाई दीं तो उन्होंने आईवीएफ का सहारा लिया. स्पर्म और एग दे कर लैब में फर्टिलाइजेशन करवा लिया.

दोनों के परिवार वाले काफी संकीर्ण विचारों के थे. आईवीएफ का आइडिया किसी को भी बताया ही नहीं गया था पर विपिन और सीमा ने जब एक बार फैसला ले लिया तो फिर किसी की चिंता नहीं की. सीमा की मां निर्मला बच्चे के घर आने के हिसाब से उन के पास मुंबई आ गई थीं.

विपिन और सीमा को डाक्टर कीर्ति मेनन ने एक प्यारा सा बच्चा उन की गोद में दिया तो दोनों भावुक हो गए, सीमा ने खुशी से रोते हुए बच्चे को चूमचूम कर जैसे वहां उपस्थित सभी लोगों को भावुक कर दिया. निर्मला देवी ने बच्चे को अपनी बांहों में लेते हुए सब को थैंक यू कहा. साथ लाई मिठाई डाक्टर और स्टाफ को देने का इशारा करती नजरों से सीमा से कहा, ‘‘पहले सब का अपने हाथों से मुंह मीठा कराओ.’’

‘‘घर वापसी में विपिन के बराबर में बैठी सीमा बच्चे को ही निहारती रही. विपिन कार चलाते हुए बोला, ‘‘सीमा, हम ने सोचा था बेटा होगा तो नाम अंश रखेंगे, ठीक है न नाम मां?’’

‘‘पंडितजी से निकलवाएंगे, जैसा वे कहें,’’ जवाब सीमा ने दिया, ‘‘मां नहीं, हम खुद रखेंगे बच्चे का नाम, आप के पंडितजी ने कभी यह बताया था कि मैं मां कब बन पाऊंगी?’’

निर्मला चुप हो गईं. बोलीं, ‘‘खुशी का समय है, गुस्सा मत हो जैसा तुम्हें ठीक लगे, वैसा कर लो बेटा.’’

घर तक सिर्फ अंश की ही बातें होती रहीं. विपिन और सीमा का फ्लैट मीरा रोड पर था. घर में काम करने वाली मेड अंजू को अब पूरे दिन के लिए रख लिया गया था. अंश के साथ जैसे सब का जीवन पूरी तरह बदल गया. सब की बातों का केंद्र वही रहता.

सीमा विपिन से हंस कर कहने लगी, ‘‘विपिन, तुम ने देखा हम तो जैसे हर बात भूल गए अपनी, बस ये ही अब लाइमलाइट ले लेता है.’’

विपिन हंसा, ‘‘हां, बहुत दिन तुम्हारे आगेपीछे घूम लिया, अब अंश का नंबर है.’’

सीमा ने छेड़ा, ‘‘मतलब तुम्हें किसी न किसी के आगेपीछे घूमना ही है.’’

‘‘हां यार बड़ी मुश्किल से लाइफ में यह दिन आया है कि तुम्हारे सिवा भी किसी और के आगेपीछे घूमने का मन करता है.’’

यों ही हंसीखुशी 1 महीना बीत गया. प्रोग्राम बना कि अब दोस्तों को, परिवार वालों को बुला कर एक पार्टी भी दे ही दी जाए. विपिन ने अपने मातापिता सीता और गौतम और सीमा के पिता महेश को भी अंश को देखने आने के लिए कहा. तय हुआ कि अगले महीने एक छोटी सी पार्टी कर ली जाएगी. विपिन और सीमा अपनेअपने पेरैंट्स की एकमात्र संतान थे, भाईबहन कोई था नहीं. अंश रातभर रोता, दिनभर सोता.

कुछ दिनों बाद विपिन औफिस जाने लगा. अब तक उस ने अंश के साथ रहने के लिए छुट्टियां ली हुई थीं. सीमा अंश की देखरेख में मगन रहती.

एक दिन निर्मला अंश को ध्यान से देखते हुए कहने लगीं, ‘‘सीमा, इस की शकल तुम लोगों से मिलनी चाहिए न?’’

‘‘हां. पर क्या हुआ अचानक?’’

‘‘यह तुम लोगों से क्यों नहीं मिलता जबकि इस में तुम लोगों की झलक तो दिखनी चाहिए?’’

सीमा को मां का यह कहना अच्छा नहीं लगा. वह चुप रही तो निर्मला को अंदाजा हुआ शायद उन की बात बेटी को बुरी लग गई है. वे फिर टौपिक चेंज कर के कुछ और बातें करने लगीं. पर सीमा को मन में कुछ अटक गया था. वह पूरा दिन बेचैन सी रही.

रात को जब विपिन आया तो सीमा का चेहरा कुछ उतरा सा था. उस ने निर्मला से पूछा तो उन्होंने, ‘पता नहीं’ में सर हिला कर इशारा कर दिया जबकि वे यह जान रही थीं कि सुबह उन की बात के बाद से उन की बेटी उखड़ीउखड़ी सी है.

विपिन फ्रैश हो कर अंश को गोद में उठा कर उस के साथ खेलता रहा. सोते हुए उस ने पूछा, ‘‘सीमा क्या अंश ने आज ज्यादा परेशान किया?’’

सीमा उस के पूछते ही रुंधे गले से बोली, ‘‘विपिन, क्या अंश की शकल हम दोनों से नहीं मिलती?’’

‘‘मिले या न मिले, क्या करना है, यह हमारा बेटा है, बस, बात खत्म,’’ कह कर उस ने सीमा के गले में बांहें डाल उसे बहला दिया पर सीमा का मूड फिर भी ठीक नहीं हुआ. वह बहुत देर तक अंश की शक्ल देखती रही. हां, शायद इस की शक्ल हम लोगों से नहीं मिलती, इस के बाल कितने घुंघराले हैं, हमारे जैसे तो नहीं हैं. अंश के रोने पर उस की तंद्रा भंग हुई. वह उस का नैपी बदलने लगी. विपिन सो चुका था.

अगले दिन से सीमा अंश के लिए होने वाली पार्टी की तैयारियों में व्यस्त हो गई तो यह बात उस के दिमाग से निकल गई. वह फिर से उल्लास से भरी दिखी तो निर्मला को कुछ चैन आया, नहीं तो वे एक अपराधबोध से भर उठी थीं कि इतने दिनों बाद बेटी अंश के साथ खुश थी तो उन्होंने यह बात कर दी. अब उन्हें अच्छा लगा. महेश, सीता और गौतम साथसाथ ही मुंबई पहुंचे. घर में जैसे एक उत्सव का माहौल था. अंश सब के हाथ में जैसे एक खिलौने की तरह घूमता रहा. तीनों उस के लिए बहुत कुछ लाए थे. सीता अंश को ध्यान से देख रही थीं तो विपिन ने पूछ लिया, ‘‘क्या देख रही हो मां?’’

सीता ने कहा, ‘‘यह तुम दोनों का ही बच्चा है न?’’

‘‘क्यों मां?’’

‘‘घर में तो इस की शकल किसी से नहीं मिल रही है? हौस्पिटल में कुछ गड़बड़ तो नहीं हुई न?’’

‘‘मां, अभी यह कितना छोटा है, अभी कैसे इस की शकल समझ आ सकती है? आप ही तो कहती थीं कि बच्चा पता नहीं कितनी शक्लें बदलता है. क्या बेकार के शक वाली बातें हैं ये.’’

सीमा ने यह वार्त्तालाप सुना तो उस का दिल बैठ गया. कहीं हौस्पिटल में तो कुछ गलती नहीं हो गई. खैर, वह फिर इस विषय पर चुप ही रही. उस की नजरें अपनी मां से मिलीं तो जैसे उन्होंने भी यही कहा कि देखो, मैं ने सच ही कहा था न.

सोसाइटी के क्लब हाउस में ही अंश की पार्टी थी. दोनों के करीब सौ परिचित आए थे. पार्टी सब ने बहुत ऐंजौय की. गोलमटोल अंश सब की नजरों का केंद्र बना रहा. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब खातेपीते रहे.

सीमा की बैस्ट फ्रैंड आरती ने उसे एक किनारे ले जा कर पूछा, ‘‘सीमा, तू बीचबीच में इतनी चुप सी क्यों दिख रही है मुझे कुछ उलझ सी है?’’

सीमा और आरती पुरानी सहेलियां थीं. सीमा दिल का शक उस से बांटने लगी, ‘‘यार,सब कह रहे है कि हौस्पिटल में कहीं गड़बड़ तो नहीं हुई. अंश हमारी तरह बिलकुल नहीं दिखता, क्या करूं, मन में शक सा बैठ गया है. चल, कल जा कर डाक्टर कीर्ति से बात करती हैं? चलेगी? किसी को बिना बताए चलते हैं कल.’’

‘‘ठीक है, फोन करना आ जाऊंगी.’’

सब से घर का कुछ सामान लेने जाने का बहाना कर आरती के साथ सीमा डाक्टर कीर्ति से मिलने गई. उन्होंने सारी बात सुन कर सीमा को बहुत समझाया कि हमारे यहां कोई गड़बड़ नहीं हुई. ऐसा अकसर हो जाता है. अभी तो अंश बहुत छोटा है. अभी से यह शक नहीं करना चाहिए कि अंश उन का बेटा नहीं.’’

डाक्टर जितनी अच्छी तरह समझ सकती थी, उन्होंने समझाया पर सीमा को तसल्ली नहीं हुई तो आरती ने कहा, ‘‘कुछ दिन और सोच ले परेशान मत हो.’’

कुछ दिन और बीते दोनों के पेरैंट्स कुछ दिन रह कर चले गए पर उन के मन में शक का एक बीज डाल ही गए थे. अंश को आईवीएफ से प्राप्त किया था. अंश सालभर का हो गया. वह बहुत सुंदर, बहुत गोरे रंग का स्वस्थ बच्चा था जबकि विपिन और सीमा उतने गोरे नहीं थे.

आसपास के लोग कभीकभी कह उठते, ‘‘अरे, यह किस पर है? ’’

और दोनों इस बात को दिल से लगा लेते. एक दिन आरती ने कहा, ‘‘मेरी भाभी एक बाबा को बहुत मानती हैं, तू चाहे तो उन से मिल ले. वे सब की शंकाओं का समाधान करते हैं. वाशी में उन का एक बड़ा आश्रम है और बहुत बड़ेबड़े लोग उन के यहां आते हैं.’’

सीमा ने विपिन से इस बारे में कोई बात नहीं की. वह अंश को ले कर इतनी उलझन और शक में थी कि कभी किसी बाबा के चक्कर में न पड़ने वाली सीमा एक दिन अंश को ले कर टैक्सी से वाशी जा पहुंची. बाबा ओंकार नाथ भक्तों से घिरे बैठे थे. वह एक कोने में जा कर खड़ी हो गई. एक युवा, सुंदर लड़की उस के पास आ कर बोली, ‘‘कहिए, क्या काम है?’’

‘‘बाबा से मिलना है.’’

‘‘पहली बार आई हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्या परेशानी है?’’

‘‘उन्हें ही बताऊंगी.’’

‘‘एक फौर्म भर दो.’’

सीमा हैरान तो हुई पर फौर्म भर दिया, नाम, फोन नंबर ही लिखना था.

उस लड़की ने जा कर बाबा के कान में कुछ कहा और बाकी भीड़ को हटाया तो सीमा ने बाबा को ध्यान से देखा, याद आया उन के प्रवचन के पोस्टर उस ने कई जगह देखे हुए थे. न्यूज पेपर में भी उन के साथ किसी न किसी नेता का फोटो दिखाई दे जाता था, करीब 50-55 साल के ओंकार नाथ ने उस लड़की से कुछ कहा और फिर वे एक रूम में चले गए. लड़की उसे उस रूम में ले जाते हुए कहने लगी कि लग रहा है तुम किसी परेशानी में हो, बाबा आराम से तुम से बात करना चाहते हैं.’’

भव्य, सारी सुविधाओं से संपन्न कमरे में बाबा एक इजी चेयर पर बैठे हुए थे. लड़की ने सीमा को पास रखी चेयर पर बैठने का इशारा किया और रूम से चली गई. एक बार तो सीमा मन ही मन डर गई, यह क्या किया उस ने, किसी को बिना बताए यहां आ गई, कैसी बेवकूफी कर दी. अंश उस की गोद में गहरी नींद सोया था.

बाबा ने अपनी गहरी सी आवाज में कहा, ‘‘कहो, क्या परेशानी है?’’

बाबा की आवाज में कुछ सम्मोहन सा था. सीमा कुछ सहज हो गई. उस ने अपने मन की बात बता कर कहा, ‘‘बस मुझे ऐसे ही चैन नहीं आ रहा है. यही सोचती रहती हूं कि सचमुच कहीं अंश हमारा बेटा न हो, कैसे मेरे दिल को चैन आए कि यह हमारा ही बेटा है.’’

ओंकार नाथ कुछ देर सोचते रहे, फिर ध्यान से अंश को देखते हुए अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर थोड़ी देर बाद कहा, ‘‘तुम 2 दिन बाद फिर आओ, तुम्हारी शंका का समाधान हो जाएगा.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘बाहर वही लड़की खड़ी है जो तुम्हें आगे का काम समझा देगी.’’

सीमा अनमनी सी उस रूम से बाहर निकल आई. वह लड़की उसे एक कोने में रखी चेयर के पास ले गई. बोली, ‘‘आराम से बैठो. सुनो, आज की फीस 2 हजार है, पहले वह जमा करवा दो.’’

सीमा हैरान हुई, ‘‘फीस कैसी?’’

‘‘बाबाजी ने अपना टाइम नहीं दिया? तुम से बात नहीं की?’’

‘‘मैं नहीं दूंगी, अभी मेरे पास हैं भी नहीं.’’

‘‘शायद तुम बाबाजी को अच्छी तरह जानती नहीं.’’

‘‘मैं फिर आऊंगी तो ले आऊंगी,’’ सीमा ने इतना कहा ही था कि अंश उठ गया और उस की गोद से छूटने के लिए हाथपैर मारने लगा.

सीमा ने कहा, ‘‘अभी मुझे घर जाना है, फिर आऊंगी तो पैसे ले आऊंगी.’’

सीमा अंश को ले कर वहां से निकल आई. उस की जान में जान आई. उस ने सोचा नहीं वह यहां नहीं आएगी. घर आ कर भी सीमा ने विपिन से कुछ नहीं बताया, 2 दिन बीते कि सीमा के फोन पर किसी ने फोन किया. एक लड़की की आवाज थी, ‘‘आप बाबाजी से मिलने नहीं आईं?’’

सीमा को झटका सा लगा, उस ने रूखे स्वर में कहा, ‘‘हां, टाइम नहीं मिला.’’

फिर फोन किसी पुरुष ने ले लिया, कहा, ‘‘बाबाजी तुम से मिलना चाहते हैं.’’

‘‘मैं फिलहाल नहीं आ रही हूं.’’

‘‘ठीक है, अगले हफ्ते आ जाना,’’ कह कर फोन रख दिया गया तो सीमा हैरान सी बैठी रही कि यह क्या जबरदस्ती है.

10 दिन और बीते तो सीमा ने सोचा कि अब बाबा का किस्सा खतम हुआ पर ऐसा नहीं था. फोन आ गया.

इस बार किसी पुरुष ने कहा, ‘‘आप उस दिन बाबाजी से पूछ रही थीं कि आपका बेटा आप का ही है या नहीं, जानने के लिए आओगी नहीं?’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं जानना है.’’

‘‘फिर सारी दुनिया क्या जान जाएगी, पता है?’’ कह कर वह पुरुष बड़ी बेशर्मी से हंसा, फिर बोला, ‘‘बाबाजी के कमरे में क्या करने गई थी?’’

सीमा को गुस्सा आ गया. डपटते हुए कहा, ‘‘क्या बकवास है?’’

‘‘सब तक यह खबर पहुंच जाएगी कि वह बच्चा तुम्हारा नहीं है, देख लेना और अगर चाहती हो कि अब यह बात न खुले तो 25 हजार ले कर चुपचाप आश्रम आओ नहीं तो तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि क्याक्या होगा. तुम्हें पता भी है कि तुम्हारे कितने पड़ोसी और रिश्तेदार स्वामीजी के भक्त हैं. उन सब तक यह बात पहुंचाना हमारे लिए कोई मुश्किल बात नहीं है. देखना कैसीकैसी बातें होगीं फिर. तब समझ आएगा कि हमारे कहे अनुसार न चल कर कितनी गलती की तुम ने समझा?’’

सीमा का दिमाग भन्ना गया, यह कहां फंस गई वह. बाबा है या कोई चोर, सिरदर्द से फटने लगा.

विपिन आया तो उस की शकल देख कर हैरान हो गया, उड़ी सी, डरी हुई. सीमा उसे देखते ही उस से लिपट कर रोने लगी, ‘‘मुझ से बड़ी गलती हो गई विपिन, सौरी.’’

वह रोई तो अंश भी उसे देख कर घबरा कर रोने लगा, विपिन ने एक हाथ से अंश को गोद में लिया, दूसरे हाथ से सीमा का हाथ पकड़ कर सोफे पर बैठाया, ‘‘क्या हुआ सीमा इतनी परेशान क्यों हो?’’

रोते हुए सीमा ने विपिन को पूरी बात बता दी. विपिन ने अपना सिर पकड़ लिया, ‘‘यह क्या किया, सीमा, तुम ऐसी कब से हो गई? क्यों बेकार के शक में पड़ी हो. यह देखो, तुम्हें रोते देख अंश भी रोने लगा, आज से ही बेकार के शक हम दोनों ही अपने दिमाग से निकाल देगें, डाक्टर ने कहा था न कि ऐसी कोई गलती नहीं हुई है, कितने ही बच्चे परिवार में बिलकुल अलग दिखते हैं, हम पढ़ेलिखे लोग भी बाबाओं के चक्कर में पड़ ही जाते हैं.

‘‘खैर अब छोड़ो, चिंता मत करो, यह बेकार का शक है, बस, अंश हमारा ही बेटा है, यह मेरा दिल कहता है, तुम तो इस की मां हो, तुम क्यों भटक रही हो? सोचो, अंश को वे लोग कोई नुकसान पहुंचा देते तो?’’

विपिन की बातों से सीमा के दिल को कुछ तसल्ली हुई. उस ने कहा, ‘‘ठीक कहते हो, मैं ही बेवकूफी कर आई. पता नहीं क्यों लोगों की इस बात पर इतना ध्यान दे दिया. पर अब किसी का फिर फोन आ गया तो?’’

‘‘थोड़े दिन लैंड लाइन से काम चलाओ, फोन औफ रखना, जरूरी काम हो तभी औन करना.’’

सीमा थोड़े तैश से बोली, ‘‘इन लोगों की पुलिस कंप्लेंट नहीं करनी चाहिए? परदाफाश नहीं होना चाहिए ऐसे बाबाओं का? एक बार क्या चली गई परेशान कर दिया.’’

‘‘नहीं, बाबाओं के हाथ बहुत लंबे होते हैं, उन से बच निकलना ही काफी है, ये लोग अपने विरोधियों को मरवा तक देते हैं. अभी हम इन चक्करों में नहीं पड़ सकते, हमें अंश को बड़ा करना है,’’ विपिन ने बहुत शांत स्वर में सीमा को समझाया.

‘‘ठीक कहते हो, ऐसा लग रहा है बालबाल बचे. 1-2 बार और चली जाती तो बहुत बुरी फंसती.’’

‘‘चलो, अब चिंता छोड़ो, अंश हमारा अंश है, बस,’’ कहतेकहते विपिन ने अंश के गाल चूम लिए, अंश उस से लिपट गया. सीमा ने प्यार से दोनों के गले में बांहें डाल दीं.

जोर का झटका: जब मजे के लिए अस्पताल पहुंचे वामनमूर्ति

भारत अस्पताल के पार्किंग एरिया में अपनी कार रोक कर वामनमूर्ति नीचे उतरे. ब्रीफकेस खोल कर नैशनल इंश्योरैंस द्वारा दी गई हैल्थ पौलिसी के कार्ड को अपनी जेब में रखा और शान से अस्पताल में प्रवेश किया.

भारत अस्पताल का शहर में कौरपोरेट अस्पताल के रूप में अच्छा नाम है. 20 एकड़ क्षेत्र में ऊंचे पहाड़ों पर फूलों के बगीचे के बीच बना भारत अस्पताल आधुनिकता दर्शाता एक फाइव स्टार होटल सा दिखाई पड़ता है.

वामनमूर्ति अस्पताल में प्रवेश करते ही कुछ देर तो आश्चर्यचकित हो कर अस्पताल को देखते रह गए. फिर अपने इंश्योरैंस कार्ड को देखते हुए, खुशी से रिसैप्शन रूम में दाखिल हुए और दीवार पर टंगे बोर्ड पर स्पैशलिस्ट डाक्टरों के नाम और उन की शैक्षणिक योग्यताओं को देख कर खुशी से झमते हुए वे मन ही मन बुदबुदाए, ‘वाऊ, क्या अस्पताल है.’

रिसैप्शन पर एक खूबसूरत युवती कंप्यूटर पर काम कर रही थी. उन्हें देख कर वह बोली, ‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘वामनमूर्ति,’’ हौले से मुसकराते हुए उन्होंने कहा.

‘‘अच्छा नाम है.’’

‘क्या है इस में अच्छा होने के लिए,’ वे मन ही मन बुदबुदाए.

युवती बोली, ‘‘उम्र?’’

वामनमूर्ति बोले, ‘‘45 वर्ष.’’

‘‘प्रोफैशन.’’

‘‘कालेज लैक्चरर.’’

‘‘इंश्योरैंस है क्या?’’

‘‘हांहां है,’’ वामनमूर्ति खुशी से बोले.

‘‘क्या हैल्थ प्रौब्लम है?’’

‘‘हां सिर चकरा रहा है.’’

‘सिर चकराने से ही यहां आते हैं?’ वे फिर से बुदबुदाते हुए मन ही मन गुस्सा जाहिर करने लगे.

युवती बोली, ‘‘आप जनरल फिजीशियन, डायबिटीज स्पैशलिस्ट, हृदय रोग विशेषज्ञ किस से मिलेंगे?’’

‘‘जनरल फिजीशियन से,’’ वामनमूर्ति बोले.

‘‘ठीक है.’’

‘‘दाहिनी तरफ के कौरिडोर में दूसरा कमरा है डाक्टर नित्यानंद का, आप वहां जाइए.’’

वामनमूर्ति 500 रुपए फाइल के दे कर डाक्टर नित्यानंद से मिलने पहुंचे. वहां आधा घंटा इंतजार करने के बाद उन की डाक्टर नित्यानंद से मुलाकात हुई. डा. नित्यानंद की उम्र लगभग 50 वर्ष थी और सिर गंजा था. उन के पास स्पैशलाइजेशन की 4-5 मैडिकल डिग्रियां भी थीं.

डाक्टर नित्यानंद ने वामनमूर्ति को देखते हुए पूछा, ‘‘प्रौब्लम क्या है?’’

वामनमूर्ति बोले, ‘‘डाक्टर, 2-3 बार सिर चकराया है. ब्लडप्रैशर की समस्या भी है. इस के साथसाथ जनरल चैकअप भी करवाना चाहता हूं. यह देखिए, इंश्योरैंस कार्ड भी है.’’

‘‘इस के लिए आप को ऐडमिट होना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है, मैं ऐडमिट हो जाऊंगा. मैं ने 2 दिन की छुट्टी ले ली है. आप टैस्ट लिखें,’’ वामनमूर्ति बोले.

फिर कुछ सोचते हुए डाक्टर ने कहा, ‘‘अस्पताल में रहने के लिए सीरियस प्रौब्लम बतानी पड़ती है. आप कितनी बार टौयलेट जाते हैं?’’

‘‘हर रोज 2-3 बार.’’

‘‘ठीक है, मैं ‘क्रौनिक लूज बोल सिंड्रोम’ लिखूंगा. आप के बाकी टैस्ट गैस्ट्रोलौजिस्ट और हृदय रोग विशेषज्ञ करेंगे. सभी टैस्ट को पूरा करने के लिए और औब्जर्वेशन में रखने के लिए कितने दिन ऐडमिट रहने के लिए लिखूं, 2 या 3 दिन अस्पताल में रहोगे?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘2 दिन रुक सकता हूं, उस से ज्यादा छुट्टी नहीं है.’’

‘‘ठीक है. आप ऐडमिट हो जाइए.’’

एडमिशन काउंटर पर अपना इंश्योरैंस कार्ड दे कर वामनमूर्ति फाइव स्टार होटल जैसे अस्पताल के कमरे में पेशैंट के रूप में भरती हुए. नर्स के बाहर जाते ही वामनमूर्ति ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए मन ही मन कहा, कितना अच्छा कमरा है. गैस्ट बैड, सीलिंग लाइट्स, टौयलेट आदि. कुछ सोचते हुए वह बुदबुदाए, कौन्फ्रैंस के समय में मैं शेयरिंग बेसिस पर ऐसे ही कमरे में रहता हूं. इंश्योरैंस करवाना कितना अच्छा साबित हुआ.

फिर उन्होंने पत्नी को फोन किया ओर कहा, ‘‘मैं अस्पताल में भरती हो गया हूं, तुम बच्ची को ले कर अस्पताल आ जाओ. हम 2 दिन यहां रुकेंगे.’’

इतने में चैकअप करने के लिए गैस्ट्रोलौजिस्ट आए और केस शीट देखते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘आज कितनी बार टौयलेट हो कर आए हो?’’

‘‘2 बार,’’ वामनमूर्ति झूठ का सहारा लेते हुए बोले, जबकि उस दिन वे टौयलेट गए ही नहीं थे.

‘‘ऐसा कब से हो रहा है?’’

‘‘6 महीने से. मुझे एक परेशानी और है डाक्टर, मेरा सिर चकराता है.’’

‘‘कब? शौच जाने की इच्छा होने पर या उस के बाद में?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘शौच के आरंभ से ले कर बाद में भी. काम करते हुए भी सिर चकराता है.’’

‘‘मुझे ऐसा लगता है आप को कोई न्यूरोलौजिकल समस्या है. मैं आप को न्यूरोलौजिस्ट के पास रेफर करता हूं.’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘ठीक है डाक्टर, लेकिन कल शाम तक पूरी चिकित्सा हो जानी चाहिए, क्योंकि मेरे पास और छुट्टी नहीं है.’’

‘‘ठीक है, आप के रैक्टम में गांठ हो सकती है, इस के लिए टैस्ट लिखता हूं. 1-2 घंटे कुछ मत खाइएगा. 4 घंटे बाद यह

टैस्ट होगा,’’ यह कहते हुए डाक्टर चले गए.

तभी एक नर्स ने अंदर आ कर वामनमूर्ति से कहा, ‘‘रक्त चाहिए, 6 घंटे में एक बार टैस्ट करना होगा.’’

‘‘अरे बाप रे, यह कौन सा टैस्ट है?’’ वामनमूर्ति ने सहमते हुए पूछा.

नर्स बोली, ‘‘यह टैस्ट आप के रक्त में बेसिक साल्ट की बदलती स्थिति को देखने के लिए है. इस से यह पता चलेगा कि लूजमोशन हो रहा है या नहीं. हमें इसे 24 घंटे तक देखना है.’’

नर्स ने बाहर जाते हुए वामनमूर्ति से कहा, ‘‘रात को

8 बजे ही भोजन करें, कल सुबह फास्टिंग, ब्लड सैंपल लेना है.

12 घंटे पहले कुछ भी नहीं खाना.’’

वामनमूर्ति बोले, ‘‘मुझे ऐसिडिटी है. रात के 3 बजे ही जाग जाता हूं. 2 बिस्कुट खा कर 1 कप दूध पीने पर भी नींद नहीं आती.’’

‘‘ऐसा होने पर कुछ भी नहीं खाना चाहिए,’’ नर्स ने कहा.

तभी हृदय रोग विशेषज्ञ आ गए. उन्होंने वामनमूर्ति का टैस्ट कर के कहा, ‘‘आप का बीपी व पल्स रेट नौर्मल ही है. आप का सिर चकराना बीपी के कारण से नहीं, फिर भी ईसीजी, इको टैस्ट करने के लिए लिख रह हूं. चैकअप करने से लाभ ही होगा.’’

‘‘हां ठीक है, मुझे वही चाहिए,’’ वामनमूर्ति बोले.

‘‘कल सुबह सभी टैस्ट करने होंगे, आप तैयार रहें.’’ यह कहते हुए डाक्टर चले गए.

डाक्टर के जाते ही वामनमूर्ति टीवी औन कर के पैर हिलाते हुए टीवी देखने लगे. ब्लड निकलने के कारण उन के बाएं हाथ में दर्द हो रहा था. हर आधे घंटे में एक बार हंस की चाल चलती हुई युवतियां कौफी, टी, टिफिन सभी पेशैंट को दे रही थीं.

तभी सिल्क साड़ी पहने एक सुंदर युवती ने वामनमूर्ति से पूछा, ‘‘आप की देखभाल ठीक से हो रही है या नहीं?’’

वामनमूर्ति ने ‘हां’ में जवाब दिया.

तभी न्यूरोलौजिस्ट ने कहा, ‘‘आप को न्यूरोलौजिकल डिसऔर्डर है या नहीं, यह जानने के लिए न्यूरोग्राफ निकालना पड़ेगा. ओ.के.?’’

‘‘उस टैस्ट में दर्द होता है क्या?’’ वामनमूर्ति डरते हुए बोले.

‘‘नोनो, एकदम नहीं,’’ न्यूरोलौजिस्ट बोला.

‘‘अगर दर्द नहीं होता तो ठीक है,’’ वामनमूर्ति ने राहत की सांस ली.

शाम के समय वामनमूर्ति की पत्नी बेटी के साथ अस्पताल पहुंची. अस्पताल आने से पहले पड़ोस में रहने वाली मीनाक्षी ने उन से पूछा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘मेरे पति भारत अस्पताल में भरती हैं. उन्हीं के पास जा रही हूं. पता नहीं किस हाल में होंगे बेचारे.’’

पत्नी के अस्पताल पहुंचते ही वामनमूर्ति अपना बड़प्पन जाहिर करते हुए बोले, ‘‘देखा, हम कितने बड़े अस्पताल में मुफ्त में रह रहे हैं.’’ उस दिन सभी टैस्ट पूरे हुए. वामनमूर्ति ने अपना समय टीवी देखते हुए, कुछ खाते हुए और बातें करते हुए गुजारा. दूसरे दिन सुबह सभी टैस्ट होने के बाद दोपहर तक रिपोर्ट आ गई.

पूरी रिपोर्ट सही थी. डाक्टर नित्यानंद ने आ कर डिस्चार्ज शीट लिखी.

उन्होंने वामनमूर्ति से कहा, ‘‘आप को कोई भी डिसऔर्डर नहीं है. जब कभी आप मानसिक रूप से अपसेट होते हैं, तभी लूजमोशंस और सिर चकराने की समस्या होती है.’’

‘‘इस के लिए मैं क्या करूं?’’ वामनमूर्ति ने पूछा.

‘‘आप काम में तल्लीन हो जाइए. ऐसा करने से सभी उतारचढ़ाव अपनेआप कम हो जाएंगे,’’ डाक्टर ने कहा.

फिर डाक्टर वामनमूर्ति की पत्नी से बोले, ‘‘आप बिल सैक्शन में जा कर रसीद ले लीजिए.’’

कुछ देर बाद वामनमूर्ति की पत्नी बिलिंग सैक्शन से वापस आईं. अस्पताल वालों ने इंश्योरैंस वालों से बात की तो उन्होंने कहा कि पहले पेशैंट बिल भर दे, हम बाद में चैक भेजेंगे. आप चाहें तो इस फोन नंबर पर बात कर सकते हैं.

वामनमूर्ति ने बिल देखा… 50 हजार रुपए. ‘‘इतना ज्यादा बिल,’’ कहते हुए वामनमूर्ति ने फिर से बिल को देखा. स्पैशलिस्ट डाक्टर्स ने 5-5 हजार रुपए लिए, स्पैशल रूम व भोजन का खर्च 20 हजार रुपए. टैस्ट के लिए खर्च का विवरण भी उस में है. अब पैसों का भुगतान कैसे करें, कल तक यहीं ठहर कर पत्नी को बैंक भेजना सही नहीं होगा.

हड़बड़ाते हुए वामनमूर्ति ने ब्रीफकेस से एटीएम कार्ड निकाले और पत्नी से कुल 60 हजार रुपए एटीएम से लाने के लिए कहा.

‘‘हमें पैसे अदा करने की क्या जरूरत है, इंश्योरैंस है न?’’ फिर भी पति की जल्दबाजी को देख कर वे 1 घंटे में 60 हजार रुपए ले कर आ गईं. तब तक वामनमूर्ति पसीने से तरबतर हो रहे थे.

काउंटर पर बिल अदा कर के ‘जान है तो जहान है’ कहते हुए वह पत्नी के साथ अस्पताल से बाहर आए और कार में बैठते हुए अस्पताल की ओर देखा. भारत अस्पताल बोर्ड के नीचे यह वाक्य लिखा हुआ था- मानव सेवा ही हमारा कर्तव्य है.

दूसरे दिन वामनमूर्ति ने अस्पताल का बिल इंश्योरैंस कंपनी को भेजा. एक हफ्ते बाद इंश्योरैंस कंपनी द्वारा एक लिफाफा प्राप्त हुआ. लिफाफा खोलते समय वामनमूर्ति की खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन यह क्या, लिफाफे में चैक न हो कर एक जवाबी चिट्ठी थी. उस में लिखा था, ‘आप को टैस्ट के लिए हो या चिकित्सा के लिए अस्पताल में कम से कम 3 दिन रहना चाहिए था, लेकिन आप अस्पताल में सिर्फ 2 दिन ही रहे. इसलिए हम आप के क्लेम को वापस भेज रहे थे.’

वामनमूर्ति ने हड़बड़ाते हुए इंश्योरैंस डाक्यूमैंट देखा. उस के अंत में एक जगह छोटे अक्षरों में लिखा था- ‘अस्पताल में कम से कम 3 दिन रहना जरूरी है.’ यह पढ़ते ही उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उनका सिर अब सही में चक्कर खाने लगा.

‘टैस्ट, चिकित्सा के नाम पर उन के 50 हजार रुपए व्यर्थ चले गए.’ वे हताश हो कर बैठ गए. भविष्य में अस्पताल में मौज मनाने के नाम से वामन मूर्ति ने तोबा कर ली.

बच्चे की चाह में : क्या अपनी इज्जत बचा पाई राजो?

लेखक- प्रदीप कुमार शर्मा

भौंरा की शादी हुए 5 साल हो गए थे. उस की पत्नी राजो सेहतमंद और खूबसूरत देह की मालकिन थी, लेकिन अब तक उन्हें कोई औलाद नहीं हुई थी. भौंरा अपने बड़े भाई के साथ खेतीबारी करता था. दिनभर काम कर के शाम को जब घर लौटता, सूनासूना सा घर काटने को दौड़ता. भौंरा के बगल में ही उस का बड़ा भाई रहता था. उस की पत्नी रूपा के 3-3 बच्चे दिनभर घर में गदर मचाए रखते थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजो रूपा के बच्चों को बुला लेती और उन के साथ खुद भी बच्चा बन कर खेलने लगती. वह उन्हीं से अपना मन बहला लेती थी.

एक दिन राजो बच्चों को बुला कर उन के साथ खेल रही थी कि रूपा ने न जाने क्यों बच्चों को तुरंत वापस बुला लिया और उन्हें मारनेपीटने लगी. उस की आवाज जोरजोर से आ रही थी, ‘‘तुम बारबार वहां मत जाया करो. वहां भूतप्रेत रहते हैं. उन्होंने उस की कोख उजाड़ दी है. वह बांझ है. तुम अपने घर में ही खेला करो.’’

राजो यह बात सुन कर उदास हो गई. कौन सी मनौती नहीं मानी थी… तमाम मंदिरों और पीरफकीरों के यहां माथा रगड़ आई, बीकमपुर वाली काली माई मंदिर की पुजारिन ने उस से कई टिन सरसों के तेल के दीए में मंदिर में जलवा दिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. बीकमपुर वाला फकीर जबजब मंत्र फुंके हुए पानी में राख और पता नहीं कागज पर कुछ लिखा हुआ टुकड़ा घोल कर पीने को देता. बदले में उस से 100-100 के कई नोट ले लेता था. इतना सब करने के बाद भी उस की गोद सूनी ही रही… अब वह क्या करे?

राजो का जी चाहा कि वह खूब जोरजोर से रोए. उस में क्या कमी है जो उस की गोद खाली है? उस ने किसी का क्या बिगाड़ा है? रूपा जो कह रही थी, क्या सचमुच उस के घर में भूतप्रेत रहते हैं? लेकिन उस के साथ तो कभी ऐसी कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, तो फिर कैसे वह यकीन करे? राजो फिर से सोच में डूब गई, ‘लेकिन रूपा तो कह रही थी कि भूतप्रेत ही मेरी गोद नहीं भरने दे रहे हैं. हो सकता है कि रूपा सच कह रही हो. इस घर में कोई ऊपरी साया है, जो मुझे फलनेफूलने नहीं दे रहा है. नहीं तो रूपा की शादी मेरे साथ हुई थी. अब तक उस के 3-3 बच्चे हो गए हैं और मेरा एक भी नहीं. कुछ तो वजह है.’

भौंरा जब खेत से लौटा तो राजो ने उसे अपने मन की बात बताई. सुन कर भौंरा ने उसे गोद में उठा लिया और मुसकराते हुए कहा, ‘‘राजो, ये सब वाहियात बातें हैं. भूतप्रेत कुछ नहीं होता. रूपा भाभी अनपढ़गंवार हैं. वे आंख मूंद कर ऐसी बातों पर यकीन कर लेती हैं. तुम चिंता मत करो. हम कल ही अस्पताल चल कर तुम्हारा और अपना भी चैकअप करा लेते हैं.’’

भौंरा भी बच्चा नहीं होने से परेशान था. दूसरे दिन अस्पताल जाने के लिए भाई के घर गाड़ी मांगने गया. भौंरा के बड़े भाई ने जब सुना कि भौंरा राजो को अस्पताल ले जा रहा है तो उस ने भौंरा को खूब डांटा. वह कहने लगा, ‘‘अब यही बचा है. तुम्हारी औरत के शरीर से डाक्टर हाथ लगाएगा. उसे शर्म नहीं आएगी पराए मर्द से शरीर छुआने में. तुम भी बेशर्म हो गए हो.’’ ‘‘अरे भैया, वहां लेडी डाक्टर भी होती हैं, जो केवल बच्चा जनने वाली औरतों को ही देखती हैं,’’ भौंरा ने समझाया.

‘‘चुप रहो. जैसा मैं कहता हूं वैसा करो. गांव के ओझा से झाड़फूंक कराओ. सब ठीक हो जाएगा.’’ भौंरा चुपचाप खड़ा रहा.

‘‘आज ही मैं ओझा से बात करता हूं. वह दोपहर तक आ जाएगा. गांव की ढेरों औरतों को उस ने झाड़ा है. वे ठीक हो गईं और उन के बच्चे भी हुए.’’ ‘‘भैया, ओझा भूतप्रेत के नाम पर लोगों को ठगता है. झाड़फूंक से बच्चा नहीं होता. जिस्मानी कमजोरी के चलते भी बच्चा नहीं होता है. इसे केवल डाक्टर ही ठीक कर सकता है,’’ भौंरा ने फिर समझाया.

बड़ा भाई नहीं माना. दोपहर के समय ओझा आया. भौंरा का बड़ा भाई भी साथ था. भौंरा उस समय खेत पर गया था. राजो अकेली थी. वह राजो को ऊपर से नीचे तक घूरघूर कर देखने लगा. राजो को ओझा मदारी की तरह लग रहा था. उस की आंखों में शैतानी चमक देख कर वह थोड़ी देर के लिए घबरा सी गई. साथ में बड़े भैया थे, इसलिए उस का डर कुछ कम हुआ.

ओझा ने ‘हुं..अ..अ’ की एक आवाज अपने मुंह से निकाली और बड़े भैया की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘इस के ऊपर चुड़ैल का साया है. यह कभी बंसवारी में गई थी? पूछो इस से.‘‘ ‘‘हां बहू, तुम वहां गई थीं क्या?’’ बड़े भैया ने पूछा.

‘‘शाम के समय गई थी मैं,’’ राजो ने कहा.

‘‘वहीं इस ने एक लाल कपडे़ को लांघ दिया था. वह चुड़ैल का रूमाल था. वह चुड़ैल किसी जवान औरत को अपनी चेली बना कर चुड़ैल विद्या सिखाना चाहती है. इस ने लांघा है. अब वह इसे डायन विद्या सिखाना चाहती है. तभी से वह इस के पीछे पड़ी है. वह इस का बच्चा नहीं होने देगी.’’ राजो यह सुन कर थरथर कांपने लगी.

‘‘क्या करना होगा?’’ बड़े भैया ने हाथ जोड़ कर पूछा. ‘‘पैसा खर्च करना होगा. मंत्रजाप से चुड़ैल को भगाना होगा,’’ ओझा ने कहा.

मंत्रजाप के लिए ओझा ने दारू, मुरगा व हवन का सामान मंगवा लिया. दूसरे दिन से ही ओझा वहां आने लगा. जब वह राजो को झाड़ने के लिए आता, रूपा भी राजो के पास आ जाती.

एक दिन रूपा को कोई काम याद आ गया. वह आ न सकी. घर में राजो को अकेला देख ओझा ने पूछा, ‘‘रूपा नहीं आई?’’ राजो ने ‘न’ में गरदन हिला दी.

ओझा ने अपना काम शुरू कर दिया. राजो ओझा के सामने बैठी थी. ओझा मुंह में कुछ बुदबुदाता हुआ राजो के पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक हाथ से छू रहा था. ऐसा उस ने कई बार दोहराया, फिर वह उस के कोमल अंगों को बारबार दबाने की कोशिश करने लगा.

राजो को समझते देर नहीं लगी कि ओझा उस के बदन से खेल रहा है. उस ने आव देखा न ताव एक झटके से खड़ी हो गई. यह देख कर ओझा सकपका गया. वह कुछ बोलता, इस से पहले राजो ने दबी आवाज में उसे धमकाया, ‘‘तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ रही हूं. तुम्हारी भलाई अब इसी में है कि चुपचाप यहां से दफा हो जाओ, नहीं ंतो सचमुच मेरे ऊपर चुड़ैल सवार हो रही है.’’

ओझा ने चुपचाप अपना सामान उठाया और उलटे पैर भागा. उसी समय रूपा आ गई. उस ने सुन लिया कि राजो ने अभीअभी अपने ऊपर चुड़ैल सवार होने की बात कही है. वह नहीं चाहती थी कि राजो को बच्चा हो. रूपा के दिमाग में चल रहा था कि राजो और भौंरा के बच्चे नहीं होंगे तो सारी जमीनजायदाद के मालिक उस के बच्चे हो जाएंगे.

भौंरा के बड़े भाई के मन में खोट नहीं था. वह चाहता था कि भौंरा और राजो के बच्चे हों. राजो को चुड़ैल अपनी चेली बनाना चाहती है, यह बात गांव वालों से छिपा कर रखी थी लेकिन रूपा जानती थी. उस की जबान बहुत चलती थी. उस ने राज की यह बात गांव की औरतों के बीच खोल दी. धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैलने लगी कि राजो बच्चा होने के लिए रात के अंधेरे में चुड़ैल के पास जाती है. अब तो गांव की औरतें राजो से कतराने लगीं. उस के सामने आने से बचने लगीं. राजो उन से कुछ पूछती भी तो वे उस से

सीधे मुंह बात न कर के कन्नी काट कर निकल जातीं. पूरा गांव उसे शक की नजर से देखने लगा. राजो के बुलाने पर भी रूपा अपने बच्चों को उस के पास नहीं भेजती थी.

2-3 दिन से भौंरा का पड़ोसी रामदा का बेटा बीमार था. रामदा की पत्नी जानती थी कि राजो डायन विद्या सीख रही है. वह बेटे को गोद में उठा लाई और तेज आवाज में चिल्लाते हुए भौंरा के घर में घुसने लगी, ‘‘कहां है रे राजो डायन, तू डायन विद्या सीख रही है न… ले, मेरा बेटा बीमार हो गया है. इसे तू ने ही निशाना बनाया है. अगर अभी तू ने इसे ठीक नहीं किया तो मैं पूरे गांव में नंगा कर के नचाऊंगी.’’ शोर सुन कर लोगों की भीड़ जमा

हो गई. एक पड़ोसन फूलकली कह रही थी, ‘‘राजो ने ही बच्चे पर कुछ किया है, नहीं तो कल तक वह भलाचंगा खापी रहा था. यह सब इसी का कियाधरा है.’’

दूसरी पड़ोसन सुखिया कह रही थी, ‘‘राजो को सबक नहीं सिखाया गया तो वह गांव के सारे बच्चों को इसी तरह मार कर खा जाएगी.’’ राजो घर में अकेली थी. औरतों की बात सुन कर वह डर से रोने लगी. वह अपनेआप को कोसने लगी, ‘क्यों नहीं उन की बात मान कर अस्पताल चली गई. जेठजी के कहने में आ कर ओझा से इलाज कराना चाहा, मगर वह तो एक नंबर का घटिया इनसान था. अगर मैं उस की चाल में फंस गई होती तो भौंरा को मुंह दिखाने के लायक भी न रहती.’’

बाहर औरतें उसे घर से निकालने के लिए दरवाजा पीट रही थीं. तब तक भौंरा खेत से आ गया. अपने घर के बाहर जमा भीड़ देख कर वह डर गया, फिर हिम्मत कर के भौंरा ने पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, राजो को क्या हुआ है?’’ ‘‘तुम्हारी औरत डायन विद्या सीख रही है. ये देखो, किशुना को क्या हाल कर दिया है. 4 दिनों से कुछ खायापीया भी नहीं है इस ने,’’ रामधनी काकी

ने कहा. गुस्से से पागल भौंरा ने गांव वालों को ललकारा, ‘‘खबरदार, किसी ने राजो पर इलजाम लगाया तो… वह मेरी जीवनसंगिनी है. उसे बदनाम मत करो. मैं एकएक को सचमुच में मार डालूंगा. किसी में हिम्मत है तो राजो पर हाथ उठा करदेख ले,’’ इतना कह कर वह रूपा भाभी का हाथ पकड़ कर खींच लाया.

‘‘यह सब इसी का कियाधरा है. बोलो भाभी, तुम ने ही गांव की औरतों को यह सब बताया है… झूठ मत बोलना. सरोजन चाची ने मुझे सबकुछ बता दिया है.’’

सरोजन चाची भी वहां सामने ही खड़ी थीं. रूपा उन्हें देख कर अंदर तक कांप गई. उस ने अपनी गलती मान ली. भौंरा ओझा को भी पकड़ लाया, ‘‘मक्कार कहीं का, तुम्हारी सजा जेल में होगी.’’

दूर खड़े बड़े भैया की नजरें झुकी हुई थीं. वे अपनी भूल पर पछतावा कर रहे थे.

संयुक्त खाता: किसने की कमला आंटी की मदद

दोपहर का समय था. मैं औफिस में खाना खत्म कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में ही फोन की घंटी बजी.

‘‘उफ्फ… अब यह किस का फोन आ गया?‘‘ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘हां आंटी, बताइए कैसी हैं आप?‘‘

‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं, पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग पिछले 10 दिन से अस्पताल में ही हैं,‘‘ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?‘‘

‘‘सीरियस ही है बेटा. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब… अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,‘‘ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,‘‘ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते थे. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और भाटिया अंकल की तरफ ही लगा रहा.

मीटिंग समाप्त होतेहोते शाम हो गई. मैं ने सोचा, घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूं. वहां जा कर देखा, तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डाक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था. अस्पताल से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘आंटी, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइए.‘‘

कमला आंटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं, पर फिर बोलीं, ‘‘बेटा, एक हफ्ते से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुम से क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज में खर्च हो गया है. इन के अकाउंट में तो पैसा है, परंतु निकालें कैसे? यह तो चेक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन भी बस इन्हें ही पता है. इन का खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इन की पासबुक और चेकबुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?‘‘ कहते हुए आंटी ने पासबुक और चेकबुक दोनों मेरे हाथ में रख दी. आंटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूं.

‘‘आंटी, आप का भी अंकल के साथ जौइंट अकाउंट तो होगा ना? आप चेक साइन कर दीजिए, मैं कल बैंक खुलते ही आप के पास पैसे भिजवा दूंगी.‘‘

‘‘नहीं बेटा, नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हें तो पता ही है, मैं तो इन के कामों में कभी दखल नहीं देती. इन्होंने कभी कहा नहीं और न ही मुझे कभी जरूरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो अंकल खुद ही करते थे. पर पैसे तो इन के इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह पैसा बैंक से निकलवा दोगी ना?‘‘ आंटी ने इतनी मासूमियत भरी उम्मीद से मेरी ओर देखा, तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या करूं. बस चेक ले कर सोचती हुई घर आ गई.

घर जा कर चेक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, ‘‘कोई बात नहीं. मैं भाटिया साहब को अच्छी तरह जानता हूं. उन के सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद भाटिया साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उन के दस्तखत करवा कर पैसे उन के पास भिजवा दूंगा. आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए.‘‘

बैंक के निर्देशों के अनुसार यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उस का अंगूठा लगवा कर उस के खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है. वह मैनेजर इन निर्देशों से भलीभांति अवगत था, और भाटिया अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गई.

सुबह दफ्तर जाने की जगह मैं ने कार अस्पताल की ओर मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई, जब 9 बजते ही बैंक का मैनेजर भी वहां पहुंच गया. उस के हाथ में विड्राल फार्म था, जामुनी स्याही वाला इंकपैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उस ने भाटिया अंकल से खूब गर्मजोशी से नमस्ते की, तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे. फिर मैनेजर ने कहा, ‘‘भाटिया साहब, आप के अकाउंट से 25,000 रुपए निकाल कर आप की मैडम को दे दूं?‘‘

जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया, तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गए.

उस ने फिर कहा, ‘‘भाटिया साहब, आप के इलाज के लिए आप की मैडम को पैसा चाहिए. आप के अकाउंट से पैसे निकाल कर दे दूं?‘‘ जवाब फिर नकारात्मक था.

बेचारे मैनेजर ने 3-4 बार प्रयास किया, पर हर बार भाटिया अंकल ने सिर हिला कर साफ मना कर दिया. उस ने हार न मानी और फिर कहा, ‘‘भाटिया साहब, आप को पता है कि यह पैसा आप के इलाज के लिए ही चाहिए?‘‘

भाटिया अंकल ने अब सकारात्मक सिर हिलाया, परंतु पैसे देने के नाम पर जवाब में फिर ना ही मिला.

हालांकि यह अकाउंट भाटिया अंकल के अपने अकेले के नाम में ही था, उन्होंने उस पर कोई नौमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आखिरी कोशिश की, ‘‘भाटिया साहब, आप की मैडम को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूं?‘‘ जवाब अब भी नकारात्मक था.

‘‘आप का अकाउंट कमलाजी के साथ जौइंट कर दूं?‘‘ जवाब में फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह कि भाटिया अंकल, जो कल तक न कुछ बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सिर हिला कर साफ जवाब दे रहे थे.

मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गए. खाते से पैसे निकालने में मैनेजर ने अपनी मजबूरी जाहिर कर दी, ‘‘मैडम, अच्छा हुआ, आप यहां आ गईं, नहीं तो शायद आप मेरा भी विश्वास नहीं करतीं. आप ने खुद अपनी आंखों से देखा है. भाटिया साहब तो साफ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उन के अकाउंट से पैसे निकालने की अनुमति कैसे दे सकता है?‘‘

मैनेजर की बात तो सोलह आने खरी थी. बैंक मैनेजर तो वापस बैंक चला गया और मैं अंदर जा कर कमला आंटी को उस की लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी.

अस्पताल से लौटते समय मैं उन्हें अपने पास से 10,000 रुपए दे आई. साथ ही, आश्वासन भी कि जितने रुपए चाहिए, आप मुझे बता दीजिएगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है.

शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आंटी के पास फिर गई. वे अभी भी दुखी थीं. मैं ने भी उन से पूछ ही लिया, ‘‘आंटी, आप ने कभी अंकल को अकाउंट जौइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?‘‘

‘‘कहा था बेटा. कई बार कहा था, पर वह मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूं? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पेंशन अकाउंट है, जौइंट नहीं हो सकता है.‘‘

‘‘नहींनहीं आंटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अभी तो पेंशन अकाउंट भी जौइंट हो सकता है. चलो, अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उन का और आप का अकाउंट जौइंट करवा देंगे और नौमिनेशन भी करवा देंगे,‘‘ कह कर मैं घर आ गई.

रास्तेभर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि भाटिया अंकल वैसे तो आंटी का इतना खयाल रखते हैं, पर इतनी महत्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?

कुछ दिन और निकल गए. भाटिया अंकल की तबीयत और बिगड़ती गई. आखिरकार, लगभग 10 दिन बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आंटी को रोताबिलखता छोड़ परलोक सिधार गए.

पति के जाने के अकथनीय दुख के साथसाथ आंटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उन का अंतिम संस्कार होने तक आंटी के ऊपर कर्जा काफी बढ़ गया था.

घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज ही उन के पास जा रही थी और मैं ने जो पहला काम किया, वह यह कि भाटिया अंकल के सभी खाते बंद करवा के उन्हें कमला आंटी के नाम करवाया. इन कामों में बहुत से फार्म पूरे करने पड़ते हैं, पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब की जानकारी थी. आंटी को सिर्फ इन्डेमिनिटी बांड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे, जो मुझ में पूरा भरोसा होने के कारण वे करती चली गईं और रिकौर्ड टाइम में मैं ने भाटिया अंकल के सभी खाते आंटी के नाम में करवा दिए. आंटी ने चैन की सांस ली और सारे कर्जों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नौमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड्स आदि का भी यही हाल था.

सब को ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा, पर मुझे यह सब काम पूरा कर के बहुत ही संतोष मिला.

भाटिया अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आंटी की फैमिली पेंशन भी आनी शुरू हो गई थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चेक जमा करना और पासबुक में एंट्री कराना भी सीख लिया था. सार यह कि उन का जीवन एक ढर्रे पर चल निकला था.

इस बात को कई महीने निकल गए, पर एक बात मेरे दिल को बारबार कचोटती रही. ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिए. फिर एक बार मौका निकाल कर मैं ने आंटी से पूछ ही लिया.

यह सुन कर आंटी सकपका कर चुपचाप जमीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था, पर कुछ क्षण पश्चात आंटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटा, क्या बताऊं? पैसा चीज ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.‘‘

मैं चुपचाप आंटी की ओर देखती रही. मेरी उत्सुकता और अधिक जानने के लिए बढ़ गई थी.

आंटी आगे बोलीं, ‘‘जब तुम्हारे अंकल मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उन के पिता यानी मेरे ससुरजी बहुत बीमार थे. पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी. इसलिए उन्होंने अपनी चेकबुक ब्लैंक साइन कर के रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वो चेकबुक पड़ गई और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. ना ससुरजी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इन की पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसेपैसे के लिए मोहताज हो गईं. फिर अपने अपने जेवर बेच कर उन्होंने इन की मैडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास नहीं करना, अपनी बीवी पर भी नहीं.

“तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी जिंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी मां की सीख को भी. इसीलिए वह अपने पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उन के अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा.“

अब सबकुछ शीशे की तरह साफ था, पर आंटी तनाव में लग रही थीं. मैं ने बात बदली, ‘‘चलिए छोड़िए आंटी, मैं आप को चाय बना कर पिलाती हूं.‘‘

समय बीतता गया, कमला आंटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गई थी और अपने काम संभालने से उन में एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आंटी पढ़ीलिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी, परंतु पिछले 40 सालों में केवल घरबार में ही विलीन रहने से उन का जो आत्मविश्वास खो सा गया था, धीरेधीरे वापस आने लगा था.

मैं जब भी उन से मिलने जाती, मुझे यही खयाल बारबार सताता था कि हरेक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोडो, जिंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रियजनों की आर्थिक सुरक्षा के बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटीछोटी चीजें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जौइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड आदि में नौमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही, अपनी वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण काम है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं? अब कमला आंटी को ही ले लीजिए. उन बिचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फैमिली पेंशन की हकदार हैं, अंकल के पीपीओ वगैरह की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग जिंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना खयाल रखते हैं, परंतु कभी यह नहीं सोचते कि मेरे मरने के बाद उन का क्या होगा?

धीरेधीरे समय निकलता गया और कमला आंटी के जीवन में सबकुछ सामान्य सा हो गया. उन के घर मेरा आनाजाना भी कम हो गया, पर अचानक एक दिन आंटी का फोन आया, ‘‘बेटा, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?‘‘

‘‘हां… हां, जरूर आंटी. कोई खास बात है क्या?‘‘

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं, पर शाम को आना जरूर,‘‘ आवाज से आंटी खुश लग रही थीं.

शाम को जब मैं उन के घर पहुंची, तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुसकान थी.

‘‘लड्डू किस खुशी में आंटी?‘‘ मैं ने कौतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुसकान उन के चेहरे पर फैल गई.

‘‘पहले लड्डू खाओ बेटा,‘‘ बहुत दिन बाद कमला आंटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा.

लड्डू बहुत स्वादिष्ठ थे. एक के बाद मैं ने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आंटी अंदर के कमरे में गईं और लौट कर सरिता मैगजीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.

‘‘यह देखो, तुम्हारी आंटी अब लेखिका बन गई है. मेरी पहली कहानी इस में छपी है.‘‘

‘‘आप की कहानी…? वाह आंटी, वाह. बधाई हो.‘‘

‘‘हां, कहानी क्या, आपबीती ही समझ लो. मैं ने सोचा कि क्यों न सब लोगों को बताऊं कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है? और संयुक्त खाता न खोलने से उस को कितनी परेशानी हो सकती है. वैसे ही कोरोना वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किस का नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती, तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, ऐसा किसी के साथ न हो,‘‘ कहतेकहते कमला आंटी की आंखें नम हो चली थीं और साथ में मेरी भी.

बेरी का झाड़: सुकुमार के साथ क्या हुआ था

सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा.

बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’

‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.

‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’

‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’

‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’

‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.

‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’

‘‘यार, इतने कागज ले गया, उस का कोई प्रभाव नहीं, वह तो उसी फाइल को ले कर अटक गया. मैं ने देखा, उस ने मेरे नाम का फोल्डर खोल रखा था. वहां पर मेरा नाम लिखा था. लाल लाइन भी आ गई थी. यार, ये नए लोग क्याक्या सीख कर आए हैं?’’

‘‘हूं,’’ पीए बोला, ‘‘मुझे बुलाते नहीं हैं. चपरासी एक डिक्टाफोन ले आया था, उस में मैसेज होता है. मैं टाइप कर के सीधा यहीं से मेल कर देता हूं, वे वहां से करैक्ट कर के, मुझे रिंग कर देते हैं. मैं कौपी निकाल कर भिजवा देता हूं. बातचीत बहुत ही कम हो गई है.’’

सुकुमार, आईआईटी कर के  प्रशासन में आ गया था. जब यहां आया तो पाया कि उस का काम करना क्यों लोगों को पसंद आएगा? दफ्तर के आगे एक तख्ती लगी हुई थी, उस पर लिखा था, ‘मिलने का समय 3 से 4 बजे तक…’ वह देख कर हंसा था. उस ने पीए को बुलाया, ‘‘यहां दिनभर कितने लोग मिलने आते हैं?’’

पीए चौंका था, ‘‘यही कोई 30-40, कभी 50, कभी ज्यादा भी.’’

‘‘तब बताओ, कोई 1 घंटे में सब से कैसे मिल पाएगा?’’

‘‘सर, मीटिंग भी यहां बहुत होती हैं. आप को टाइम सब जगह देना होता है.’’

‘‘हूं, यह तख्ती हटा दो और जब भी कोई आए, उस की स्लिप तुम कंप्यूटर पर चढ़ा दो. जब भी मुझे समय होगा, मैं बुला लूंगा. हो सकता है, वह तुरंत मिल पाए, या कुछ समय इंतजार कर ले, पास वाला कमरा खाली करवा दो, लोग उस में बैठ जाएंगे.’’

सब से अधिक नाराज नानू हुआ था. वह दफ्तरी था. बाहर का चपरासी. वह मिलाई के ही पैसे लेता था. ‘साहब बहुत बिजी हैं. आज नहीं मिल पाएंगे. आप की स्लिप अंदर दे आता हूं,’ कह कर स्लिप अपनी जेब में रख लेता था. लोग घंटों इंतजार करते, बड़े साहब से कैसे मिला जाए? कभी किसी नेता को या बिचौलिए को लाते, दस्तूर यही था. पर सुकुमार ने रेत का महल गिरा दिया था.सुकुमार को अगर किसी को दोबारा बुलाना होता तो वह उस की स्लिप पर ही अगली तारीख लिख देता, जिसे पीए अपने कंप्यूटर पर चढ़ा देता. भीड़ कम हो गई थी. बरामदा खाली रहता.

उस दिन मनीष का फोन था. वे विधायक थे, नाराज हो रहे थे, ‘‘यह आप ने क्या कर दिया? आप ने तो हमारा काम भी करना शुरू कर दिया.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंका, ‘‘सर, मैं आप की बात समझ नहीं पाया.’’

‘‘अरे भई, जब आप ही सारे कामकाज निबटा देंगे तो फिर हमारी क्या जरूरत रहेगी?’’

सुकुमार का चेहरा, जो मुसकराहट भूल गया था, खिल गया.

‘‘भई, पहले तो फाइलें हमारे कहने से ही खिकसती थीं, चलती थीं, दौड़ती थीं. हम जनता से कहते हैं कि उन का काम हम नहीं करवाएंगे तो फिर हम क्या करेंगे? ठीक है, आप ने प्रशासन को चुस्त कर दिया है. आप की बहुत तारीफ हो रही है, पर हमारे तो आप ने पर ही काट दिए हैं. शाहबाद वाली फाइल को तो अभी आप रोक लें. मैं आप से आ कर बात कर लूंगा. तब मैं मुख्यमंत्री से भी मिला था.’’

सुकुमार चौंक गया, ‘हूं, तभी पीयूष बाबू वह फाइल ले कर नहीं आया था.’

उस दिन पीए बता रहा था, ‘चूड़ावतजी के किसी रिश्तेदार का बड़ा घपला है. यह फाइल बरसों सीएम सैक्रेटेरियट में पड़ी रही है. अब लौटी है. सुना है, आदिवासियों की ग्रांट का मामला था. कभी उन की सहकारी समिति बना कर जमीनें एलौट की गई थीं, बाद में धीरेधीरे ये जमीनें चूड़ावतजी के रिश्तेदार हड़पते चले गए. हजारों बीघा जमीन, जिस पर चावल पैदा होता है, उन के ही रिश्तेदारों के पास है. उन का ही कब्जा है.

‘कभी बीच में किसी पढ़ेलिखे आदिवासी ने यह मामला उठाया था. आंदोलन भी हुए. तब सरकार ने जांच कमेटी बनाई थी और इस सोसाइटी को भंग कर दिया था. फिर धीरेधीरे मामला दबता गया. उस आदिवासी नेता का अब पता भी नहीं है कि वह कहां है. जो अधिकारी जांच कर रहे थे, उन के तबादले हो गए. जमीनें अभी भी चूड़ावतजी के रिश्तेदारों के पास ही हैं.’

‘हूं,’ अचानक उसे राजधानी ऐक्सप्रैस में बैठा वह युवक याद आ गया जो उस के साथ ही गोहाटी से दिल्ली आ रहा था. वह बेहद चुप था. बस, किताबें पढ़ रहा था, कभीकभी अपने लैपटौप पर मैसेज चैक कर लेता था.

हां, शायद बनारस ही था, जब उस ने पूछा था, ‘क्या वह भी दिल्ली जा रहा है?’

‘हां,’ सुकुमार ने कहा था.

‘आप?’

‘मैं भी…’

‘आप?’

‘मैं प्रशासनिक सेवा में हूं,’ सुकुमार ने कहा.

‘बहुत अच्छे,’ वह मुसकराया था. उस के हाथ में अंगरेजी का कोई उपन्यास था, ‘आप लोगों से ही उम्मीद है,’ वह बोला, ‘मैं किताब पढ़ रहा हूं. इस में झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश के आदिवासियों के शोषण की कहानी है. हम पढ़ सकते हैं, यही बहुत है, पर अगर हालात नहीं सुधरे तो…’

सुकुमार चुप रहा. ट्रेनिंग के दौरान एक बार वह भी इन पिछड़े इलाकों में रहा था.  वह सोच में डूब गया, ‘यह हमारा भारत है, जो पहले भारत से बिलकुल अलग है.’

‘आप कर सकें तो करें, इन के लिए सोचें. इन लोगों ने जमीन, जंगल, खान, औरत, जो संपत्ति है, सब को बेच सा दिया है. जो मालिक हैं, उन के पास कुछ भी नहीं है. अभी वे मरेंगे, सच है, पर कल वे मारेंगे. आप लोग जो कर सकते हैं, वह सोचें. आप पर अभी हमारा विश्वास है.’सुकुमार ने ज्यादा उस से नहीं पूछा, उसे भी नींद आने लग गई थी, वह सो गया था.पर अचानक चूड़ावत के फोन से मानो वह नींद से जाग गया हो. उसे उस यात्री का चेहरा याद आ गया, वह तो उस से भी अधिक शांत व मौन यात्री था.

सुनंदा कह रही थी, ‘‘बहन के यहां शादी है, जाना है. तुम्हारे पास तो टाइम नहीं है, गाड़ी भेज दो.’’

‘‘गाड़ी अपनी ले जाओ.’’

‘‘पर मैं गाड़ी चला कर बाजार नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मैं ड्राइवर भेज दूंगा. आज मैं टूर पर नहीं हूं.’’

‘‘तुम अफसर हो या…’’

‘‘खच्चर,’’ वह अपनेआप पर हंसा, ‘‘मैं नहीं चाहता कल कोई मुझ पर उंगली उठाए. सरकारी गाड़ी को बाजार में देख कर लोग चौंकते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हें मेरे साथ नहीं जाना है, मुझे पता है.’’

‘‘यह बात नहीं, यह काम तुम कर सकती हो, तुम्हारा ही है, तुम चली जाओ. एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है, रास्ते में एटीएम मशीन से रुपए निकाल लेना.’’

सुनंदा फीकी हंसी हंस कर बोली, ‘‘मुझे क्या पता था कि तुम…?’’

‘‘क्या?’’ वह बोला.

‘‘बेरी के झाड़ हो.’’‘‘तभी तो जो दरवाजे पर लगा है, काटने नहीं देता. उस दिन पंडितजी आए थे. उन की टोपी बेरी की डाल में अटक गई. उन्हें पता ही नहीं चला कि टोपी कहां है. वे नंगे सिर जब यहां आए तो लोग उन्हें देख कर हंसने लगे.

‘‘उस दिन मिसेज गुप्ता आई थीं. उन की साड़ी डाल में उलझ गई. बोलीं, ‘इसे कटवा क्यों नहीं देते, यह भी कोई ऐंटिक है क्या?’’’

‘‘तुम्हारा यह झाड़ क्या बिगाड़ता है?’’ वह बोला. जवाब नदारद.

‘‘देखो, जब मैं बाहर जाता हूं तो देखता हूं, पास की झोपड़ी वालों की बकरियां इस के पास खड़ी हो कर इस की पत्तियां खाती हैं, वह उन का भोजन है. इस पर बेर भी मीठे आते हैं, यहां के गरीब अपने घर ले जाते हैं. यह गरीबों का फल है, उन का पेड़ है. यह सागवान या चंदन का होता तो लोग कभी का इसे काट कर ले गए होते.’’

सुनंदा चुप रह जाती. बेर का पेड़, गरीबों का पेड़ बन जाता, वह फालतू के तर्क में नहीं जाना चाहती. पर सुकुमार का दफ्तर भी तंदूर की तरह सिंकने लग गया था, पता नहीं क्या हो गया, पीए भी बुदबुदाता रहता, न दफ्तरी खुश था, न ड्राइवर, नीचे के अफसर भी दबेदबे चुप रहते, पीयूषजी से जब से शाहबाद की फाइल पर डांट लगी थी, वे आंदोलन की राह पर चलने की सोच रहे थे. वे कर्मचारी संघ की बैठक करा चुके थे, पर कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं था. सुकुमार बोलता भी धीरे से था, पर जो कहता वह होता. वह कह देता, फाइल पर नोट चला आता. नोट होता या चार्जशीट, दूसरा पढ़ कर घबरा जाता.

पर उस दिन सुनंदा ने दफ्तर में ही उसे फोन पर याद दिलाया था, ‘‘आज विमलजी के यहां पार्टी है, उन की मैरिज सैरेमनी है, शाम को डिनर वहीं है, याद है?’’

‘‘हांहां,’’ वह बोला, ‘‘मैं शाम को जल्दी पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘विमलजी सिंचाई विभाग में एडिशनल चीफ इंजीनियर हैं. एडिशनल कमिश्नर बता रहे थे कि उन के पास बहुत पैसा है. धूमधाम से पार्टी कर रहे हैं. सिंचाई भवन सजा दिया गया है.’’

वह यह सब सुन कर चुप रहा. सुनंदा का फोन उसे भीतर तक हिला रहा था. उस की भी मैरिज सैरेमनी अगले महीने है. वह शायद आज से ही विचार कर रही है. हम उन के यहां गए हैं, तुम भी औरों को बुलाओ.

शाम होते ही वह आज जल्दी ही दफ्तर से बाहर आ गया. गाड़ी पोर्च में लग चुकी थी. हमेशा की तरह चपरासी ने फाइलें ला कर गाड़ी में रख दी थीं.

दफ्तर से बाहर निकलते ही पाया कि चौराहे पर भारी भीड़ है. बहुत से लोग दफ्तर के ही थे.

‘‘क्या हुआ?’’ वह गाड़ी को रोक कर नीचे उतरा.

ड्राइवर भी तुरंत बाहर आ कर भीड़ के पास जा चुका था. वह तेजी से वापस लौटा, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पीयूषजी के स्कूटर को कोई कार टक्कर मार कर निकल गई.’’

सुकुमार तेजी से आगे बढ़ा, उसे देख कर लोग चौंके.

उस ने देखा, पीयूषजी का शरीर खून से नहाया हुआ था. उन के दोनों पांवों में चोट थी. सिर पर रखे हैलमेट ने उसे बचा तो लिया था पर वे बेहोश हो चुके थे.

‘‘उठाओ इन्हें,’’ उस ने ड्राइवर से कहा, और अपनी‘‘सर, गाड़ी…?’’ ड्राइवर बोला.

‘‘धुल जाएगी.’’

उस के पीछेपीछे दफ्तर के और लोग भी अस्पताल आगए थे. तुरंत पीयूषजी को भरती करा कर उन के घर फोन कर दिया गया था. पीए, दफ्तरी, और सारे बाबू अवाक् थे, ‘सर तो पार्टी में जा रहे थे, वे यहां?’

तभी सुकुमार का मोबाइल बजा. देखा, सुनंदा का फोन था.

‘‘तुम वहां चली जाओ, मुझे आने में देर हो जाएगी.’’

‘‘तुम?’’

‘‘एक जरूरी काम आ गया है, उसे पूरा कर के आ जाऊंगा.’’

‘बेरी का झाड़,’ सुनंदा बड़बड़ाई. बच्चे तो घंटाभर पहले ही तैयार हो गए थे. फोन बंद हो गया था.

‘‘क्या हुआ? मां, पापा नहीं आ रहे?’’

‘‘आएंगे, जरूरी काम आ गया है, वे सीधे वहीं आ जाएंगे. हम लोग चलते हैं,’’ सुनंदा बोली.

वह वहां पहुंचा ही था कि तभी चिकित्सक भी आ गए थे, आईसीयू में पीयूषजी को ले जाया गया था. उन्हें होश आ गया था. उन्होंने देखा, वे अस्पताल के बैड पर लेटे हैं, पर पास में सुकुमार खड़े हैं.

‘‘सर, आप?’’

‘‘अब आप ठीक हैं. आप की मिसेज आ गई हैं. मैं चलता हूं. यहां अब कोई तकलीफ नहीं होगी. सुबह मैं आप को देख जाऊंगा,’’ वह चलते हुए बोला.

उस का चेहरा शांत था, और वह चुप था. तभी उस ने देखा, अचानक बाबुओं की भीड़, जो बाहर जमा थी, वह उसे धन्यवाद देने को आतुर थी. मानो सागर तट पर तेज लहरें चली आई हों, ‘‘यह क्या, नहींनहीं, आप रहने दें. यह अच्छा नहीं है,’’ कहता हुआ सुकुमार उसी तरह अपनी उसी चाल से बाहर चला गया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें