झुमकी: किसने की राधा और सुरेंद्र की मदद

‘‘बाजार से खाने के लिए कुछ ले आती हूं,’’  झुमकी पलंग पर लेटे बिछुआ को देख कर बोली और बाहर निकल गई.  बटुए से पैसे निकाल कर गिनते हुए  झुमकी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंची हुई थीं. उत्तर प्रदेश के कमालपुर गांव से वह अपने बीमार पति बिछुआ का इलाज कराने दिल्ली आई थी. उसे यहां आए हुए 2 हफ्ते हो चुके थे. कोई जानपहचान वाला तो था नहीं, सो अस्पताल के पास ही एक कमरा किराए पर ले कर रह रही थी.

कई दिनों से चल रही जांच के बाद ही पता लग पाया कि बिछुआ के पेट की छोटी आंत में एक गांठ थी. आपरेशन जल्द कराने को कह रहे थे अस्पताल वाले, लेकिन  झुमकी यह सोच कर परेशान थी कि पैसों का जुगाड़ कैसे होगा? सरकारी अस्पताल है तो क्या हुआ… कुछ खर्चा तो होगा ही आपरेशन का. फिर इस कमरे का किराया, खानापीना और बिछुआ की दवाएं… पैसे के बिना तो कुछ मुमकिन था ही नहीं. क्या बिछुआ का इलाज कराए बिना ही वापस लौट जाना पड़ेगा?

सड़क पर चलते हुए अचानक ही  झुमकी को किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी. पास जा कर देखा तो एक 35-40 साल की औरत जमीन पर गिरी हुई थी. उठने की भरपूर कोशिश करने के बावजूद वह उठ नहीं पा रही थी.  झुमकी ने सहारा दे कर उसे उठाया और पास ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर बैठा दिया.

झुमकी को उस औरत ने बताया कि वह आराम से चलती हुई जा रही थी कि अचानक एक लड़का तेजी से साइकिल चलाता हुआ पीछे से आया और धक्का मार दिया. उस के धक्के से वह इतनी जोर से गिरी कि एक पैर बुरी तरह मुड़ गया और कुहनियां भी छिल गईं.

कुछ देर वहीं बैठने के बाद उस औरत ने  झुमकी से एक रिकशा रोक लेने को कहा. रिकशा रुकते ही वह औरत  झुमकी की मदद  से चढ़ तो गई, लेकिन  हाथों में दर्द के चलते रिकशे को पकड़ नहीं पा रही थी.

झुमकी भी तब रिकशे में बैठ गई और अपने हाथ का घेरा उस घायल औरत की कमर पर बना कर सहारा दे दिया. रिकशा उस औरत के घर की ओर रवाना हो गया.

रास्ते में उन दोनों की बातचीत हुई. उस औरत ने  झुमकी को बताया कि  उस का नाम राधा है. नजदीक के ही  एक महल्ले में वह अपने पति सुरेंद्र  के साथ रहती है. सुरेंद्र की पास के बाजार में किराने की दुकान है.

शादी को 10 साल बीत चुके थे, लेकिन राधा के कोई बच्चा नहीं था, इसलिए घर पर अकेली ऊब जाती थी. अपना समय बिताने और पति की मदद करने के मकसद से वह कुछ देर के लिए दुकान पर चली जाती है. आज भी वह दुकान से वापस लौट रही थी, तब यह घटना घटी.

अपने बारे में बता कर राधा ने  झुमकी से उस का परिचय पूछा, तो  झुमकी ने अपने बारे में सब बता दिया.

झुमकी की बात पूरी होतेहोते ही राधा का घर आ गया.  झुमकी ने चाबी राधा के हाथ से ले कर ताला खोल दिया और उसे सहारा देते हुए कमरे के भीतर ले

आई. जब तक राधा ने सुरेंद्र को फोन किया, तब तक  झुमकी वहां खड़ी रही.

राधा की सुरेंद्र से बात पूरी होते ही  झुमकी  बोली, ‘‘मैडमजी, मैं अब चलती हूं. बिछुआ मेरी बाट देखते होंगे.’’

राधा ने उसे रुकने को कहा. धीरेधीरे चलते हुए उस ने रसोई से ला कर कुछ नमकीन के पैकेट  झुमकी को थमा दिए.

रात को  झुमकी और बिछुआ राधा की दी हुई नमकीन खा कर सो गए. अगले दिन सुबहसुबह  झुमकी के कमरे का दरवाजा खड़का तो दरवाजा खोलने पर वह सामने सुरेंद्र को देख चौंक उठी.

सुरेंद्र ने उसे बताया कि राधा के पैर में पलस्तर चढ़ गया है. वह एक जरूरी बात करने के लिए  झुमकी को घर बुला रही है.

झुमकी बिछुआ को बता कर सुरेंद्र के साथ राधा से मिलने आ गई.

राधा  झुमकी को देख कर बहुत खुश हुई और तुरंत अपनी बात सामने रखते हुए बोली, ‘‘ झुमकी, मैं कल से तुम्हारे बारे में ही सोच रही थी. तुम्हारी परेशानी को ले कर मैं ने सुरेंद्र से भी बात की  है. मेरा एक सु झाव है, तुम्हें जंचे तो ही हां करना.’’

‘‘जी, कहिए…’’  झुमकी बोली.

‘‘मैं ने अपने घर का कुछ हिस्सा पिछले महीने ही बनवाया है. पहले आगे वाले 2 कमरे ही थे. कई दिनों बाद रंगरोगन हुआ तो पीछे की ओर एक कमरा भी बनवा लिया. उसे हम दुकान के गोदाम के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं.

‘‘अभी वह कमरा खाली है. बस, मकान बनवाने के बाद का कुछ बचाखुचा सामान जैसे रंगरोगन के खाली डब्बे रखे हैं. तुम चाहो तो बिछुआ के इलाज तक उस कमरे में रह सकती हो.

‘‘तुम मेरे घर का काम कर दिया करना, क्योंकि चोट की वजह से मु झ से काम हो नहीं पाएगा. तुम हम दोनों का खाना बनाओगी तो साथसाथ अपना खाना भी बना लिया करना. काम के बदले पैसे तो दूंगी ही मैं तुम्हें.’’

झुमकी को मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. खुशीखुशी यह प्रस्ताव स्वीकार कर उसी दिन बिछुआ को ले कर वह राधा के घर चली आई.

राधा ने अपने घर पर रखे सामान में से बिस्तर और कुछ पुराने कपड़े  झुमकी के कमरे में रखवा दिए. अस्पताल के खर्च के लिए उस को कुछ रुपए भी दे दिए.

बिछुआ के पेट में खून रिसने के चलते जल्द ही आपरेशन कर दिया गया. आपरेशन कामयाब रहा और 4 दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई. तकरीबन एक महीने के लिए उसे आराम करने की सलाह दी गई. साथ ही, यह भी कहा कि दर्द ज्यादा हो तो तुरंत अस्पताल आना है, वरना एक महीने बाद जांच कराने ही आना होगा.

झुमकी ने पहले दिन से ही खाना बनाने के साथसाथ घर के बाकी काम पूरी जिम्मेदारी से करने शुरू कर दिए. वह सोच रही थी कि राधा के घर पर अगर आसरा न मिला होता तो जाने क्या होता? इधर राधा को भी  झुमकी के रूप में बड़ा सहारा मिल गया था.

एक दिन सफाई करते समय कमरे  में मकान बनने के बाद का बचा हुआ सामान और एक अलमारी में रखे रद्दी अखबार देख  झुमकी कुछ सोच कर मुसकरा उठी. शादी से पहले अपने  पिता से उस ने कुट्टी नाम की कला सीखी थी.

कुट्टी का मतलब होता है कागज को कूट कर उस से सुंदरसुंदर चीजें बनाना. पहले बेकार पड़े कागजों को कुछ दिन पानी में भिगो कर कूटा जाता है. इस लुगदी में मुलतानी मिट्टी और गोंद डाल कर गूंद लिया जाता है और किसी भी आकृति में ढाल कर सुखा लिया जाता है. बाद में उस आकृति पर रंग कर देते हैं.

‘इस काम के लिए मु झे जो भी सामान चाहिए, उस में से मुलतानी मिट्टी को छोड़ कर यहां सबकुछ  है, लेकिन उस की जगह एक थैली में  जो सफेद सीमेंट रखा है, उस से काम चल जाएगा.

‘मैडमजी तो यह सारा सामान फेंकने को कह रही थीं. इस का मतलब उन  को इस में से कुछ चाहिए भी नहीं, तो  मैं ही इस्तेमाल कर लेती हूं इसे,’  झुमकी ने सोचा.

डिस्टैंपर के खाली डब्बे में पानी भर कर  झुमकी ने वहां रखे रद्दी अखबार उस में भिगो दिए. 2-3 दिन बीतने पर भीगे कागजों को कूट कर लुगदी बना ली और बाकी सामान मिला कर एक सुंदर बड़ा सा फूलदान बना दिया. सूखने पर वहां रखे पेंट और ब्रश ले कर उसे सुंदर रंगों से रंग दिया.

जब  झुमकी फूलदान ले कर राधा के पास पहुंची, तो पीले, संतरी और सुनहरी रंगों से चमकते फूलदान को देख कर राधा हैरान रह गई. जब उसे पता लगा कि वह  झुमकी ने बचे सामान से बनाया है, तो हैरानी के साथसाथ उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

‘‘ झुमकी तुम मु झे सिखाओगी यह कला?’’ राधा ने चहकते हुए पूछा.

‘‘क्यों नहीं मैडमजी, मु झे तो बहुत अच्छा लगेगा,’’  झुमकी को बहुत दिनों बाद एक अजीब सी खुशी महसूस हो रही थी.

अगले दिन से ही  झुमकी ने राधा को कुट्टी कला की बारीकियां बतानी शुरू कर दीं.  झुमकी ने बताया कि उस के पिता ज्यादा सामान बनाते थे, तो तकरीबन 15 दिन भिगोते थे कागजों को. ऐसे में 2-3 दिनों के बाद पानी बदल लेते थे. पुराना पानी वे पेड़पौधों में दे  देते थे.

पानी में कागजों को कुछ दिन भिगो कर जब कलाकृतियां बनाने का समय आया, तो  झुमकी राधा को सहारा देते हुए आंगन में ले आई और एक कुरसी पर बिठा दिया.

झुमकी को छोटेछोटे खिलौने बनाते देख राधा का मन भी खिलौने बनाने को करने लगा.  झुमकी एक टीचर की तरह राधा को सब सिखा रही थी और कुरसी पर बैठेबैठे ही राधा भी  झुमकी को देख कर खिलौने बना रही थी.

झुमकी ने उसे मूर्तियां, कटोरे और प्लेट जैसी और चीजें बनानी भी सिखाईं. सूखने पर रंग करने का आसान तरीका भी  झुमकी ने राधा को सिखा दिया. कुछ रंगों को मिला कर नए सुंदर रंग बनाना और उन का सही ढंग से इस्तेमाल करना भी राधा ने  झुमकी से सीख लिया.

इधर बिछुआ ठीक हुआ, उधर राधा के पैर का पलस्तर भी कट गया.  झुमकी और बिछुआ के गांव वापस जाने का समय आ गया था. जाने से पहले एक बार अस्पताल में जांच कराने के बाद  झुमकी और बिछुआ राधा और सुरेंद्र का अहसान मानते हुए भरे मन से विदा ले कर गांव चले गए.

कुछ दिनों तक राधा को घर सूनासूना लगता रहा, फिर धीरेधीरे सब सामान्य हो गया. वह पहले की तरह ही घर संभालने लगी और सुरेंद्र की मदद को दुकान भी पर जाने लगी थी.

अचानक उन की जिंदगी में एक मुसीबत आ गई. सुरेंद्र को दुकान के मालिक ने एक दिन आ कर बताया कि उस की और आसपास की कई दुकानों को गैरकानूनी होने के चलते जल्दी ही गिरा दिया जाएगा.

सभी दुकानदार आपस में सलाह कर इस नोटिस के खिलाफ कोई कदम उठाते, इस से पहले ही अचानक दुकानों को तोड़ने का काम शुरू हो गया.

सुरेंद्र ने बाकी सब की तरह ही अफरातफरी के बीच जल्दीजल्दी अपना सामान बाहर निकाला. उस का काफी सामान इधरउधर बिखर कर खराब हो गया. बाकी बचे सामान को किसी तरह वह घर ले कर आया.

अड़ोसपड़ोस में जा कर उन दोनों ने गुजारिश की कि पड़ोसी रोजमर्रा का कुछ सामान उन से खरीद लें, लेकिन बहुत कम लोगों ने ही सामान खरीदने के लिए उन के घर तक आने की जहमत उठाई. बचे सामान में से कुछ खराब हो गया और बाकी राधा ने घर पर इस्तेमाल कर लिया.

उन की असली चिंता तो अभी भी सामने थी, रोजीरोटी की. वे जान गए थे कि घर पर दुकान खोलने की बात सोचना बेकार है, क्योंकि ग्राहक तो आएंगे नहीं वहां चल कर. कुछ सालों से बचत कर के जो पैसे जोड़े थे, वे अब खत्म होने को आए थे.

एक दिन सुरेंद्र का दोस्त अनवर उस से मिलने घर आया हुआ था. चाय पीते हुए उस का ध्यान  झुमकी के बनाए फूलदान पर चला गया. उस ने बताया कि उस के दफ्तर के पास इस तरह का सामान बेचने वाला बैठता है, जिस की खूब बिक्री होती है. वहां विदेश से घूमने आए सैलानी भी आते हैं. वे लोग इसे ‘पेपर मैशे’ से बना सामान कहते हैं.

अनवर की बात सुन कर राधा की आंखें चमक उठीं. वह सुरेंद्र से बोली, ‘‘क्यों न हम सजावट का सामान बना कर उसे ही बेचने की कोशिश करें?  झुमकी ने कितने आसान तरीके से इतनी सुंदर चीजें बनानी सिखाई थीं हमें. शायद यही हो हमारी समस्या का हल.’’

सुरेंद्र की परेशानी अनवर सम झता था, लेकिन दूर करने का उपाय नहीं मिल पा रहा था. उसे भी यह बात जंच गई. वह बोला, ‘‘आप लोग ऐसा कर सकते हैं, तो मैं आप की बात दफ्तर के पास दुकान लगाने वाले से करवा दूंगा. महेश नाम है उस का.’’

सुरेंद्र ने तुरंत हामी भर दी.

अनवर ने जल्दी ही महेश से सुरेंद्र को मिलवा दिया. महेश  झुमकी के हाथों से बना फूलदान देख कर बहुत प्रभावित हुआ. उस ने कहा कि अगर सुरेंद्र ऐसा ही सामान बना लेगा, तो वह सारा सामान उस से खरीद लेगा. वैसे भी उसे खरीदारी के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है. इस से किराए पर बहुत खर्च होता है और सामान टूटने पर नुकसान भी हो जाता है.

महेश की शर्त यही थी कि नया बनने वाला सामान भी फूलदान की टक्कर का हो. बेचने की जिम्मेदारी उस पर होगी. इस में दोनों का फायदा ही होगा.

अगले दिन से ही राधा ने  झुमकी द्वारा सिखाई गई एकएक बात को याद करते हुए काम करना शुरू कर दिया. सुरेंद्र भी उस की मदद कर रहा था. उन्होंने कागज भिगो कर रख दिए. राधा को याद आया कि  झुमकी ने उसे कुट्टी कला के एक और रूप के बारे में भी बताया था, जिस में गुब्बारा फुला कर उस पर कागज की कतरनें गोंद से चिपकाते हुए तकरीबन 7 परतें बना दी जाती हैं. सूखने पर गुब्बारे को फोड़ कर उस ढांचे को बराबर 2 भागों में काट कर दीवार पर सजाने वाले मुखौटे बनाए जाते हैं.

राधा ने सुरेंद्र से कई बड़ेबड़े गुब्बारे बाजार से मंगवा लिए और उन को फुला कर एकएक कर कागज की परतें  चिपका दीं.

कागज की मोटी परतें सूख गईं, तो मुलतानी मिट्टी गूंद कर ढांचे पर आंख, नाक व होंठ बना दिए और उन्हें फिर सुखाने के लिए रख दिया. सूखने पर  पेंट के डब्बों से रंग ले कर उन को रंग दिया गया.

सुरेंद्र ने अपना दिमाग लगाते हुए बोरी के रेशों से मुखौटों की भौंहें व बाल बनाए और बेकार पड़े बिजली के तारों से कानों में कुंडल पहना दिए. अपने बनाए मुखौटे देख कर उन की खुशी का ठिकाना न रहा.

कुछ दिनों बाद पानी में भीगे कागज जब गल गए तो  झुमकी के बताए तरीके से उन दोनों ने मिल कर छोटेछोटे पक्षी, जानवर, फोटो फ्रेम, फूलदान, गिफ्ट बौक्स और सजावट की अनेक चीजें बना कर तैयार कर लीं.

उन चीजों के सूख जाने पर राधा ने पुराना और बेकार सामान जैसे आईना, चूडि़यां, बिंदी व बटन वगैरह ले कर उन को सजा दिया

महेश ने जब उन सब चीजों को देखा, तो बहुत खुश हुआ. उस ने सामान ले जा कर जब अपनी दुकान में रखा तो पाया कि बाकी सामान के मुकाबले सुरेंद्र से खरीदे गए सामान की ओर लोग ज्यादा खिंच रहे हैं. जल्द ही उस ने यह बात सुरेंद्र को बता कर और चीजें बनाने का और्डर दे दिया.

राधा और सुरेंद्र मन ही मन  झुमकी का धन्यवाद करना नहीं भूले. राधा जानती थी कि  झुमकी के पिता कुट्टी कला में माहिर थे. उन के साथ बचपन से काम करती आ रही  झुमकी का हाथ इतना सधा हुआ था कि उस से सीखने के बाद ही आज राधा बेजोड़ सामान तैयार कर पाई है.

इस बार राधा ने मूर्तियां, खिलौने, कटोरे, प्लेट और सजावट की अनेक चीजें बनाईं. इस बार रंगने का काम सुरेंद्र ने किया. उस ने पेंट करने के लिए ब्रश के अलावा पेड़ के पत्तों, भिंडी के कटे भाग व फूलों की पंखुडि़यों का इस्तेमाल भी किया.

महेश के सामान को देख कर दूसरे कारोबारियों ने भी सुरेंद्र से सामान खरीदना शुरू कर दिया. धीरेधीरे धंधा खूब चमकने लगा. घर का नया कमरा, जो उन्होंने दुकान का सामान रखने के लिए बनाया था, उस में अब कुट्टी कला की मदद से सामान बनने लगा था.

झुमकी का अहसान वे न तो भूले थे और न ही भूलना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने इस नए कारोबार को ‘ झुमकी कला निकेतन’ नाम दिया.

श्रीमतीजी: राशिफल की भविष्यवाणियां

हम अखबार में सब से पहले राशिफल पढ़ते हैं, फिर मौसम का हाल देखते हैं. उस के बाद ही घर से निकलते हैं.

उस दिन राशिफल में लिखा था, ‘दिन खराब गुजरेगा, बच कर रहें. और मौसम के बारे में बताया गया था कि आज गरजचमक के साथ बौछारें पड़ेंगी.’

मगर सुबह से शाम हो गई, लेकिन गरजचमक के साथ बौछारों का कोई अतापता न था. लेकिन शाम को घर में कदम रखते ही श्रीमतीजी गरजचमक के साथ जरूर बरसीं, ‘‘तुम्हें तो कौड़ी भर भी अक्ल नहीं है. तुम से ज्यादा अक्लमंद तो रमाबाई है.’’

रमाबाई मेमसाहब के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर खुशी से फूल कर कुप्पा हो रही थी और हमें शरारत भरी निगाहों से देख रही थी. हम कुछ सम  झ पाते उस से पहले ही रमाबाई ने इठलाते हुए कहा, ‘‘साहब, कल जो साड़ी आप लाए थे आज मेमसाहब उसे पहन कर अपनी सहेलियों से मिलने गई थीं. मेमसाहब ने जब उन्हें बताया कि यह क्व2,500 की है तो मिसेज शर्मा तुरंत बोलीं यह तो सड़कछाप सेल में क्व350 में मिल रही थी. फिर मिसेज शर्मा ने आप को खरीदते भी देखा था. अब मेमसाहब की तो फजीहत हो गई…’’

हम सोच रहे थे कि इतने बड़ेबड़े घोटाले हो रहे हैं, जनता चिल्ला रही है, लेकिन घोटालेबाजों की श्रीमतियां हमेशा कहती हैं कि उन के पति निर्दोष हैं, लेकिन हमारी श्रीमती तो …बाप रे बाप, पूरी छिलवा हैं, छिलवा. 1-1 कर जब तक सभी परतें नहीं निकाल लें, तब तक उन्हें चैन ही नहीं मिलता है.

अगले दिन के अखबार में मौसम के बारे में लिखा था कि आसमान साफ रहेगा और राशिफल में भविष्यवाणी थी कि जेब हलकी रहेगी. हम सोच रहे थे कि चलो आज का दिन अच्छा बीतेगा, सब कुछ साफ और हलका रहेगा. लेकिन औफिस जाते समय पैंट की जेबें टटोलीं तो मालूम हुआ कि वे तो पहले से ही हलकी कर दी गई हैं.

हम ने जब यह बात श्रीमतीजी को बताई तो वे बोलीं, ‘‘अरे, जेबें ही तो हलकी हुई हैं, गला तो सलामत है न? आजकल कब क्या साफ हो जाए, क्या हलका हो जाए, कुछ नहीं कह सकते. गले से चेन साफ हो जाती है, औफिसों से फाइलें हलकी हो जाती हैं. चलो, कोई बात नहीं, अब तुम औफिस में चाय मत पीना और औफिस पैदल जाना, सब ठीक हो जाएगा.’’

हम ने अपनी परेशानी कम करने के लिए एक दिन टीवी चै?नल पर बाबाजी को फोन लगाया और कहा, ‘‘बाबाजी, हर भविष्यवाणी हमारे खिलाफ रहती है मगर श्रीमतीजी के पक्ष में… हम तो हर बात पर चोट खाखा कर परेशान हो गए. कोई उपाय बताएं.’’

बाबाजी ने फौरन अपना कंप्यूटर खोला, हमारा नाम, जन्मतिथि पूछी और फिर पिटारा खोलते हुए कहा, ‘‘आप की शादी के लिए जब लड़की तलाशी जा रही थी उस समय राहु की सीधी दृष्टि आप के ऊपर थी. जब शादी की रस्में चल रही थीं, उस समय केतु की दृष्टि और शादी के बाद से शनि की दशा चल रही है. इसलिए आप की श्रीमतीजी उच्च स्थान पर हैं और आप निम्न स्थान पर. खैर, आप परेशान न होइए. बस थोड़े से उपाय करने होंगे. सुबहसुबह अपने हाथ से 4 रोटियां बना कर काली गाय को खिलाएं. इस के अलावा आप को ‘श्रीमतीजी रक्षा लौकेट’ पहनना होगा और उसे खरीदने के लिए नीचे दिए नंबर पर काल करें. इस की कीमत है क्व5,000, लेकिन यदि आप अभी काल करेंगे तो आप को यह सिर्फ क्व4,500 में मिल जाएगा टिंग टांग…’’

हम ने सोचा कि जिंदगी सलामत रहे तो बहुत कमा लेंगे और बाबाजी ने हमें इतना डरा दिया था कि अब हमें हमेशा सुंदर, सुमुखी लगने वाली श्रीमतीजी से डर लगने लगा था. इसलिए ‘श्रीमतीजी रक्षा लौकेट’ का तुरंत और्डर दे दिया. अब बात रही रोटियां बना कर काली गाय को खिलाने की, तो हम ने जिंदगी में अभी तक कभी रोटियां नहीं बनाई थीं. श्रीमतीजी की जलीकटी रोटियां और बातें खा कर जिंदगी काट रहे थे.

अगली सुबह हम जल्दी उठे. नहा कर किचन में जा कर रोटियां बनाने के लिए आटा गूंधने लगे. जब आटे में पानी मिलाया तो वह ज्यादा गीला हो गया. फिर जब हम ने उस में फिर से आटा मिलाया तो वह कड़ा हो गया. इसी चक्कर में थाली आटे से भर गई.

इसी बीच श्रीमतीजी जाग गईं और बोलीं, ‘‘मैं इतने दिनों से कह रही थी कि जरा घर के काम सीख लो तो मु  झ से मना करते रहे और मेरे से छिपा कर अपने हाथों से रोटियां बना कर औफिस ले जाते हो… कौन है वह सौतन?’’

हम ने कहा कि भागवान ऐसी कोई बात नहीं है. लेकिन वे कहां मानने वाली थीं. वे तो कोप भवन में पहुंच चुकी थीं और हम से संभाले नहीं संभल रही थीं.

खैर, काली गाय को रोटियां तो खिलानी ही थीं, इसलिए औफिस जाते समय रखी गई रोटियों में से 1 रोटी हम ने निकाल ली और रास्ते में काली गाय को तलाशने के चक्कर में एक गड्ढे में पैर पड़ने से उस में मोच आ गई.

शाम को हम लंगड़ाते हुए घर पहुंचे तब श्रीमतीजी ने फिर चुटकी ली, ‘‘तो उस नाशपीटी ने सींग मार ही दिए…’’

हम फिर परेशान हो गए. अगले दिन फिर बाबाजी को फोन लगाया और उन्हें अपनी दास्तां सुनाई.

बाबाजी ने कहा, ‘‘बेटा, मंगल पर शनि की दृष्टि पड़ने से ‘पत्नी प्रलय योग’ शुरू हो गया है, इसलिए रक्षा लौकेट के साथसाथ ‘श्रीमतीजी प्रलय नाशक लौकेट’ भी पहनना जरूरी है. इस के क्व10 हजार और भेज दो.’’

रमाबाई छिपछिप कर हमारी और बाबाजी की बातें सुन रही थी. उस ने श्रीमतीजी को सब बता दिया.

एक दिन हम ने बाबाजी को बताया, ‘‘हम जैसेजैसे इलाज कर रहे हैं, वैसेवैसे बीमारी और बढ़ती जा रही है.’’

इस बार हम ने महसूस किया कि बाबाजी भी कुछ परेशान लग रहे हैं. वे बोले, ‘‘बेटा, तुम तो श्रीमतीजी के योग से परेशान हो, परंतु हमारे पीछे श्रीमतीजी महायोग लग गया है.’’

हम ने कहा, ‘‘बाबाजी, मैं कुछ सम  झा नहीं?’’

तभी हमारी श्रीमतीजी आ गईं और बोलीं, ‘‘बाबा तुम हमारे सीधेसाधे पति को भड़का रहे हो. कहने को तो महिलाएं अंधविश्वासी होती हैं, परंतु ऐसा लग रहा है कि पुरुष हम से ज्यादा अंधविश्वासी हैं…’’ ‘श्रीमतीजी रक्षा लौकेट’ की हमारे पति को नहीं तुम्हें ज्यादा जरूरत है, जरा पीछे मुड़ कर तो देखो.’’

बाबाजी ने पीछे मुड़ कर देखा, तो स्टूडियो में बाबाजी के पीछे उन की श्रीमतीजी बेलन लिए खड़ी थीं. अब तो बाबाजी का चेहरा देखते ही बनता था.

डर: क्या हुआ था निशा के साथ

निशा की नीद ,आधी रात को अचानक खुल गयी. सीने में भारीपन महसूस हो रहा था .दोपहर को अख़बार में पढ़ी खबर ,फिर से दिमाग में कौंध उठी .’अस्पताल ने  महिला को मृत घोषित किया , घर पहुंचकर जिन्दा हो गयी, दुबारा एम्बुलेंस बुलाने में हुई देरी ,फिर मृत ‘ .

कही कुछ दिन पूर्व ही उसकी ,  मृत घोषित हुई माँ, जीवित तो नहीं थी ,क्या उसे भी किसी दूसरे अस्पताल से जांच करवा लेनी थी ?कही  माँ कोमा में तो नहीं चली गयी थी और हम लोगो ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया हो ? वो बैचेनी से , कमरे के चक्कर काटने लगी .

कुछ दिन पूर्व ही निशा और उसका पति सर्दी जुखाम बुखार से पीड़ित हो गये थे उसी दौरान , आधे किलोमीटर की दूरी पर, रहने वाली उसकी माँ , मिलने आई थी .उस समय तक वे दोनों वायरल फीवर ही समझ रहे थे, कोरोना  रिपोर्ट पॉजिटिव आते ही वे, खोल में सिमट गए . वे दोनों तो ठीक हो गए मगर माँ अनंत यात्रा को चली गयी .निशा अपने को दोषी मान, सदमे से उबर नहीं पायी हैं.दिनभर तो बैचेन रहती हैं, रात को भी कई बार नीद टूट जाती हैं .

तभी उसके पति संकल्प की, नीद टूट गयी  .वो निशा को यूँ चहलकदमी करते देख बौखला गया .

“साला दिन भर काम करो ,मगर फिर भी रात को दो घड़ी चैन की नीद नहीं ले सकता ” गुस्से से अपनी तकिया उठाकर, ड्राइंग रूम में सोने चला गया .

निशा  फफक कर रो पड़ी . निशा के आँसू लगातार, उसके गालों को झुलसाते हुए बहे जा रहे हैं .उसके दिमाग में उथल पुथल मच उठी .संकल्प , कंधे में हाथ रख कर, सहानुभूति के दो शब्द कहने की जगह , उल्टा और भी ज्यादा चीख पुकार मचाने लगा  हैं . उसे अपने सास ,ससुर के अंतिम संस्कार के दिन याद आने लगे . पूरे बारह दिनों तक, एक समय का भोजन बनाना,खाना  और जमीन में सोना .तेरहवी के दिन ,सुबह नौ बजे तक ,पूरी सब्जी से लेकर मीठे तक सभी व्यंजन बनाकर ,पंडित को जिमाना .मित्रों ,सम्बन्धियों ,पड़ोसियों के लिए  तो हलवाई गा था ,मगर फिर  भी ,दिन भर कभी कोई बर्तन, तो कभी अनाज ,सब्जी की उपलब्धता बनाये रखना, उसी के जिम्मे था ,साथ ही  आने जाने वाले रिश्तेदारों, की विदाई भी देखनी थी . साल भर लहसुन, प्याज का परहेज भी  किया गया  .

ये सारे कर्तव्य निभाकर उसे क्या मिला ? इस कोरोना काल में ,जब भोज और भीड़ दोनों ही नहीं हैं. सब ऑनलाइन कार्यकम किये जा रहे हैं .क्या उसका हक नहीं बनता हैं कि वो अपने मायके में बैठकर, दो आँसू बहा सके . मगर नहीं संकल्प ने फरमान सुना दिया जब ऑनलाइन तेरहवी हैं तो तुम भी, घर से जुड़ जाओं, वहां जाकर क्या करोगी ?  .क्या करूंगी ? क्या करूंगी ? अरे भाई बहन, एक दूसरे के कंधे में सिर रख कर, रो लेंगे ,एक दूसरे की पीठ सहला कर, सांत्वना दे देंगे और क्या करूंगी ? जाने वाला तो चला गया मगर उसकी औलादों को आपस में, मिलकर रोने का ,हक भी नहीं हैं. जो दूर हैं, वे नहीं आ सकते मगर वो तो इतनी पास में है ,फिर भी नहीं जा सकती ?

उसे आज भी याद हैं ,जब बाईस घंटे की रोड यात्रा कर,भूखी प्यासी वो, अपनी सास के अंतिम संस्कार में ससुराल पहुँची थी तो  कार से उतरते ही लगा था कि चक्कर खा  कर गिर जायेगी .मगर फिर भी ,अपने को , सम्भाल कर जुट गई थी सारे रस्मों रिवाज को निभाने के लिए .

संकल्प तो दमाद हैं ,उसके हिस्से कोई कारज नहीं हैं ,न ही एक समय खाने की, बाध्यता हैं ,फिर भी वो इतना क्यों चिल्लाता हैं ? निशा समझ नहीं पाती .उसे सूजी हुई आँखों से खाना बनाते देखकर,  भी नाराज हो उठता हैं .

“ खाना बनाने का मन न हो तो रहने दो . एहसान करने कि जरूरत नहीं ,मैं खुद बना लूँगा ”

निशा सोचती रह जाती कि संकल्प के  माता ,पिता के अंतिम संस्कार के नाम पे, वो  बारह दिनों तक, एक समय का सादा भोजन  बनाती,खाती  रही और उसकी माँ के अंतिम संस्कार के समय , संकल्प को ,तीनों समय भोजन ही नहीं बल्कि सुस्वादु भोजन चाहिए . उसका मन उचाट हो उठा .

तेरहवी के दिन भाई का फोन आया “ क्या तुम आज आओगी ?या आज भी अपने घर से,ऑनलाइन  शामिल होगी ?”

“पूछ कर बताती हूँ ” निशा ने फोन काट दिया .उसका दिल भर आया खुद को जेल में बंद कैदी से भी, बद्तर महसूस होने लगा .कैदी  को भी अंतिम संस्कार में शामिल,होने  को ,पैरोल पे छूट दी जाती  हैं .

तभी उसका फोन बज उठा .कनाडा  में बसे,मनोचिकित्सक  बेटे मिहिर  का विडिओ कॉल  था .

“ माँ प्रणाम ,आज जब मामा के घर जाओगी तो डबल मास्क लगा लेना .एक जोड़ी कपड़े ले जाना .वहां पहुँच कर स्नान कर  लेना .वापस लौट कर घर आओ तो फिर से स्नान कर लेना ”

“ पता नहीं ,नहीं  जाऊँगी शायद  ” उसकी आँखे भर आई .

“ क्यों ? लोग ऑफिस तो जा रहे हैं न ? फेस शील्ड भी लगा लेना ”

“ नहीं जाऊँगी ,कभी नहीं  जाऊँगी ,जब माँ ही नहीं रही तो कैसा मायका ,मायका भी खत्म ” वो फफक पड़ी .

“ क्या हुआ माँ ? नहीं जाओगी तो आपके मन का बोझ बना रहेगा .जाओं मिल आओ .मामा मामी से मिलकर ,आमने सामने बैठकर, अपने बचपन के किस्से ताज़ा करों.तभी आपका मन हल्का होगा  ”

“ नहीं मैं ,अब कभी नहीं जाऊँगी ” निशा अपने को काबू न कर सकी, फोन एक तरफ रखकर, जोर जोर से रोने लगी .

“ माँ प्लीज सुनो, फोन मत काटना, प्लीज सुनो न माँ sss ” उसकी आवाज लगातार ,कमरे में गूंजती रही .

निशा ने ,अपने आँसू पोछकर,  फोन उठा लिया .

“ पापा कहाँ हैं ?फोन नहीं उठा रहे हैं ?” उसने पूछा .

“ बाथरूम में हैं. फोन चार्ज हो रहा हैं ”

“ पापा ऑफिस जा रहे हैं ?”

“हाँ ”

“ आपने खाना बना लिया ? पापा ने आज छुट्टी नहीं ली ”

“  हाँ बना दिया ,दोपहर का टिफ़िन भी बना दिया हैं. कोई छुट्टी नहीं ली ,तेरे पापा ने  ” वो आक्रोशित हो उठी .

“ पापा ने कुछ कहा हैं क्या आपसे ?”

“हाँ बहुत कुछ कहा हैं .क्या बताऊँ और क्या न बताऊँ ” उसके आँसू बह चले .

“ क्या कहा ? मुझे सब बताओं ” मिहिर साधिकार बोला .

“ अपनी मम्मी  की बीमारी का, सुनकर जब मैं वहां गयी तो मुझे, मम्मी  ने अपने पास रोक लिया था, फिर दो दिन बाद वो चल बसी .उसके बाद दो चार दिन तो मुझे होश ही नहीं था .एक हफ्ते बाद जब घर लौटी तो तेरे पापा बहुत चिल्लाये. कहने लगे जब इतने दिन वहां रुकी हो तो वही  जाकर रहो, अब साल भर शोक मनाकर, बरसी कर के ही आना ” निशा अपना चेहरा ढाप के रोने लगी.

“अच्छा और क्या कह रहे थे ?”

“ मेरे घर से जाओं ,मुझे अकेला रहने दो ,मुझे तुम्हारा चेहरा नहीं देखना  .सुबह शाम लड़ने का ,बहाना ढूंढते रहते हैं ”

“ ऐसा कब से कर रहे हैं? आपने पहले क्यों नहीं बताया ?”

“लगभग दो महिने से ,मैने सोचा ऑफिस का स्ट्रेस हैं, मगर अब मुझसे बर्दास्त नहीं हो रहा हैं .मेरे रोने से भी इनको आफत होने लगी हैं .क्या मै अपनी माँ की मौत पर, रोने का हक भी नहीं रखती ? क्या मैं रोबोट हूँ ?जो इनके मनोरंजन के हिसाब से चलूँगी ” निशा गुस्से से तमतमा उठी.

“ मम्मी, पापा को ऑफिस जाने दो फिर आप मामा के पास चली जाना और पापा के ऑफिस से आने से पहले लौट आना .पापा को अकेला मत छोड़ना ,मुझे लगता हैं पापा को कोरोना संक्रमण के बाद  आईसीयू साइकोसिस या डेलिरियम ने अपनी चपेट में ले लिया हैं ”मिहिर गंभीरता से बोला .

“ ये क्या होता हैं ? ” निशा हैरानी से बोली .

“ जब किसी बीमारी के होने पर, जान जाने का जोखिम दिखाई दे तो दिमाग बेहोशी की हालत में चला जाता हैं .ऐसे मनोरोगी अटपटे जवाब ,खाना या दवा के नाम पर झगड़ा करते हैं अक्सर अपना नाम ,स्वजन के नाम तक भी भूल जाते हैं .पापा के ऑफिस के कई सदस्य , उनके बचपन के  मित्र व् रिश्तेदारों में , अभी साल भर में कई मौते हुई हैं और अब नानी भी .अपने माता पिता के बाद ,वे नानी को बहुत मानते थे .ऐसे में , अचानक नानी के भी चले जाने से, उन्हें भी सदमा लगा हैं मगर वे अपने को एक्स्प्रेस नहीं कर पा रहे हैं .वे मनोरोग का शिकार बन रहे हैं ”.

“ क्या करूं ? मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा ” निशा अपना सर पकड़ कर बैठ गई .

“ आप शांत रहें ,उन्हें हल्ला करने दे .अब से रोज ,मैं उनकी काउंसिलिंग करूँगा  पता लगाता हूँ कि वे अवसाद या एंग्जायटी के शिकार तो नहीं बन गये .यदि फायदा न दिखा  तो आपको दवा बता दूँगा . वैसे मुझे लगता हैं, दवा की जरूरत नहीं पड़ेगी और अगर देनी पड़ी तो भी , आप घबराइयेगा नहीं .एक दो महीने में पापा  ,अपने पुराने मूड में लौट आयेगें ”.

“तेरी बातें मुझे समझ नहीं आ रही ,मगर मैं अब इन्हें और इनके व्यंग बाणों को और बर्दास्त नहीं कर सकती” निशा दुखी होकर बोली .

“आपको पता हैं पोस्ट कोविड  पेशेंट की, रिसर्च में ये देखने में आया हैं कि कई देशों में ,डाइवोर्स रेट बढ़ गया हैं   ” अभी मिहिर की  बात, पूरी भी नहीं हुई थी कि संकल्प बाथरूम से बाहर आ गया और निशा को फोन करते हुए देख भड़क उठा .

“ अभी तक अपने भाई से ,फोन पर बात कर रही हो ? जब मैं बाथरूम गया था तब उसका फोन आया था . अभी तक तुम्हारी पंचायत खत्म नहीं हुई .आज मुझे खाना मिलेगा या मैं खुद बनाऊं ?”

“लो मिहिर का फ़ोन हैं ,आप को पूछ रहा हैं .मैं किचिन सम्भालती हूँ “

“और सुनाओं कनाडा के क्या हाल हैं ”

“ पहले ही मनोरोगी कम नहीं थे, अब तो इनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही हैं

“अरे अपने प्रोफेशन की , बातें छोड़ ,कोई लड़की पसंद की  हो ,तो वो बता ”

“ पापा पहले महामारी से तो बचे, फिर धूमधाम से इंडिया आकर शादी करूँगा .अरे हाँ ,आज आप मम्मी को ऑफिस जाते समय ,नानी के घर छोड़ देना .लॉक डाउन हैं उन्हें कोई सवारी भी न मिलेगी ”

“ मेरी चुगली कर रही होगी कि मैं मायके जाने नहीं देता ,हैं न  ” संकल्प का  चेहरा तनाव से तन गया .

“ ऐसा कुछ नहीं है .मैंने ही जाने को बोला हैं .उन्हें आप छोड़ आना, ऑफिस से आते समय ले आना .उनका दिल बहल जाएगा ”

“ पर वहां तो सब ऑनलाइन रिश्तेदार जुड़ रहे  है.  हमने कितनी धूमधाम से तेरे दादा दादी की , तेरहवी की थी .मैंने कहा  कि चाहे एक पंडित ही घर बुला कर कार्यकम सम्पन्न कर लो मगर नहीं .मेरी कौन सुनता हैं ?”

“ आप को क्या करना पापा ?वैसे भी अभी भीड़ करने की जरूरत नहीं हैं.रिश्तेदार भी सब समझते हैं .मम्मी ही पास में हैं उन्हें आप पहुंचा देना .ठीक हैं पापा मैं अब सोऊंगा ,कल सुबह फिर  बात करेंगे.प्रणाम पापा ”

रसोई में भोजन परोसती निशा के दिमाग में, पिछले दो महीनों की ढेर सारी झड़पे कौंध गयी .अब उसे याद आया कि ये सब झड़पे कोरोना पॉजिटिव होने के बाद से शुरू हुई थी .जो धीरे धीरे बढकर विकराल रूप में सामने आ चुकी हैं .अब वो क्या करे? क्या संकल्प मनोरोगी बनता जा रहा हैं और  वो भी अवसाद का शिकार बनती जा रही हैं ? उसकी आँखे बहने को बेताब होने लगी .

नहीं वो कमजोर नहीं पड़ेगी.इस महामारी के खौफ़  से उसे बाहर निकलना ही होगा .अपने डर को काबू  में ,करना ही होगा   .उसने अपने आँसूं पोछे और उसके हाथ तेजी से सलाद काटने लगे .

चालाक भी: होशियार निकली लड़की

मेरे होंठों पर तो केवल एक हलकी सी मुसकान आई, पर पत्नी के चेहरे पर तब आश्चर्य था जब हमारे मित्र ने उसे बताया कि इस समय अर्थात रात के लगभग 1 बजे आने वाला आगंतुक एक महिला होगी. पर जब वह आई तो उस में ऐसा कुछ असाधारण नहीं दिखा. एक साधारण नारी की तरह उस के पास भी 2 ही भुजाएं थीं. उन 2 भुजाओं में भी उस ने कोई अस्त्रशस्त्र नहीं थाम रखा था. उस के हाथ तो टिके हुए थे अपनी नीली छत वाली उस वातानुकूलित टैक्सी के स्टेयरिंग पर.

उन हाथों की पकड़ को मैं ने ध्यान से देख कर उन में घबराहट या आत्मविश्वास की कमी का कोई लक्षण तलाशने की कोशिश तो की पर नाकामयाब रहा. उस की बातों से ही नहीं, उस के हाथों से भी आत्मविश्वास झोलक रहा था. पर वह बड़बोली नहीं थी. आत्मविश्वास ने नम्रता को स्थानापन्न नहीं किया था. वह अपनी सवारी से बातें करते हुए एक साधारण घरेलू महिला जैसी ही लग रही थी. पर शायद यहां मैं गलती कर रहा हूं. कोई घरेलू महिला रात के 2 बजे मुंबई महानगर की किसी सड़क पर एक नितांत अपरिचित के साथ बातें करती हुई इतनी सहज नहीं लग सकती थी जितनी मुंबई की वह महिला टैक्सीचालक लग रही थी.

टैक्सीचालिका कहना उस के नारीत्व का असम्मान होगा, इसलिए टैक्सीचालक कह कर ही उस की बात कर रहा हूं. उस की बातचीत में नारीसुलभ मिठास थी. किसी भी प्रकार का दंभ उस की बातों में नहीं था कि वह कोई असाधारण काम करती है. टैक्सी ड्राइव करने में उस का कौशल किसी पुरुष से कम नहीं था. अत: चालक और चालिका शब्दों का भेदभाव इस प्रसंग में बेमानी होगा और आत्मसम्मान के साथ जीविकोपार्जन करने के उस के चुने काम के प्रति बेईमानी भी. तो मैं उसे टैक्सी चालक ही कहूंगा.

कुछ समय अपने बेटेबहू के साथ बिताने के लिए मैं सपत्नीक दिल्ली से मुंबई आया हुआ था. एक पुराने मित्र का बहुत दिनों से आग्रह था कि मुंबई आने पर एक शाम उन के नाम करें. हम ने उस निमंत्रण को भुनाते हुए एक बहुत मजेदार शाम उन के साथ बिताई. 2-3 दशक पहले हम ने वायुसेना में साथसाथ काम किया था और हमारी पत्नियों की भी प्रगाढ़ दोस्ती थी. अत: उन बीते दिनों की याद करते हुए. गप्पें लगाते और खातेपीते कब 1 बज गया, पता ही नहीं चला. वैसे भी कोलाबा से जहां हम बेटे के पास ठहरे थे पोवाई के हीरानंदानी कौंप्लैक्स जहां मेरा मित्र रहता था, पहुंचने में बहुत देर हो गई थी. हम रात के 10 बजे के लगभग पोवाई पहुंचे थे तो फिर वापस आतेआते रात का 1 बज जाना मामूली बात थी. मित्र ने आग्रह कर के इतनी देर तक बैठाए रखा था. साथ ही आश्वस्त भी कर दिया था कि इस महानगर में रात के किसी भी प्रहर में टैक्सी आसानी से मिल जाएगी.

पर जब उस ने हमारी टैक्सी बुलाने के लिए फोन किया तो उस ने मेरी पत्नी से हंसते हुए कहा कि आप मेरे दोस्त के साथ हैं, इसलिए आज महिला ड्राइवर वाली टैक्सी बुलाता हूं. मेरे चेहरे पर तो केवल विस्मय के ही भाव थे पर मेरी पत्नी के चेहरे पर आश्चर्य के साथसाथ घबराहट भी थी. लेडी टैक्सी ड्राइवर? इतनी रात में? उसे डर नहीं लगेगा? क्या उस के साथ कोई सुरक्षागार्ड भी चलता है? उस ने एकसाथ इतने सारे प्रश्न पूछ डाले थे कि विस्मय से अधिक घबराहट और परेशानी उस के प्रश्नों में साफ झोलक रही थी.

मेरे दोस्त ने हंस कर ही जवाब दिया कि वह पहुंचने ही वाली है, सारे सवाल उसी से पूछ लेना.

महिला टैक्सी ड्राइवर का जिक्र आने से पहले हम चारों ने इतनी देर तक गप्पें मारते हुए न मालूम कितने अतीत के पृष्ठ पलट डाले थे. पर चूंकि हम दिल्ली से आए थे इसलिए अतीत से वर्तमान में पहुंचते ही बातें निर्भया के साथ हुए उस जघन्य बलात्कार और अमानवीय यंत्रणाओं तक पहुंच गईं जिन का प्रसंग आने पर रोंगटे खड़े हो जाते थे और देश की राजधानी के माथे पर लगे कलंक से हर दिल्लीवासी का चेहरा शर्म से झोक जाता था.

तब तक शक्ति मिल्स वाला मुंबई का घिनौना कांड नहीं हुआ था, इसलिए मेरे मित्र का कहना था कि मुंबई महिलाओं के लिए दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है.

बहरहाल, इतनी देर तक महिलाओं की सुरक्षा को ले कर उठी बातचीत के कारण उस महिला टैक्सीचालक के आने पर जब हम उस की गाड़ी में बैठ कर विदा हुए तब तक हमारे मन में प्रश्नों का अंबार खड़ा हो गया था.

अभी टैक्सी उस कौंप्लैक्स से बाहर ही आई थी कि मेरी पत्नी ने पहला सवाल दाग दिया, ‘‘कोलाबा बहुत दूर है. तुम्हें इतनी दूर जाने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?’’

तब उस ने सहज मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘नहीं बाबा, जितना दूर का पैसेंजर मिले उतना ही अच्छा. अब इस टाइम कोई 2 किलोमीटर जाने के लिए बुलाए तब दिक्कत होगी मैडम.’’

उस की हिंदी भाषा और उच्चारण आम मुंबैया हिंदी से अधिक साफ था. स्पष्ट था कि अधिकांश मुंबैया टैक्सीचालकों की तरह वह ‘भैया’ नहीं थी. मु?ो पहले कुतूहल हुआ, फिर हंसी आ गई कि यदि वह भी बिहार या यूपी की होती तो उसे ‘भाभी’ कहते या ‘बहना’.

पत्नी ने बात जारी रखी, ‘‘हिंदी तो तुम्हारी मातृभाषा नहीं होगी?’’

‘‘नहीं मैडम, मैं आंध्रा की हूं. पर बचपन में ही इधर आ गई थी, इसलिए मराठी, हिंदी दोनों भाषाएं ठीक बोल लेती हूं. तेलुगु तो आती ही है, गुजराती भी मैनेज कर लेती हूं.’’

‘‘इस मैनेज शब्द से तो लगता है तुम अंगरेजी भी अच्छी तरह मैनेज कर लेती हो,’’ मैं ने भी बातचीत में घुसते हुए कहा.

वह खुश हो गई. गर्व से बोली, ‘‘हां सर, एअरपोर्ट से अकसर फौरनर मिल जाते हैं. उन से बात करने के लिए अंगरेजी जानना भी जरूरी हो जाता है.’’

‘‘अच्छा, एअरपोर्ट पर तो प्राय: रात कीही उड़ानें होती हैं. क्या तुम हमेशा रात में ही चलाती हो?’’

‘‘नहीं, शुरू में तो रात में नहीं चलाती थी. पर तब मुंबई के रास्ते ठीक से नहीं जानती थी. पर अब सब रास्ते अच्छी तरह पहचान गई हूं… फिर रात की शिफ्ट में ज्यादा पैसे…’’

मेरी पत्नी ने बीच में ही बात काटते हुए पूछा, ‘‘पर रात को टैक्सी चलाने में तुम्हें डर नहीं लगता? टैक्सी में हर तरह के लोग बैठते होंगे?’’

उस ने एक नि:श्वास लेते हुए उत्तर दिया, ‘‘अब मैडम, अगर कोई गुंडा, मवाली यात्री मिल जाए तो क्या दिन और क्या रात… सभी गड़बड़ है… दिन में भी अगर कोई शहर से बाहर कहीं दूर जाने को कहे तो उसे मना तो नहीं कर सकते हैं. पर अब तो काफी दिन हो गए हैं मु?ो गाड़ी चलाते. एकाध बार ही ऐसी सवारी थी जिस से मुझो थोड़ा डर लगा था.’’

‘‘क्या कोई हथियार भी साथ रखती हो तुम?’’ पत्नी ने पूछा तो वह हंस पड़ी, ‘‘अरे, मेरे को कौन पिस्तौल, रिवौल्वर खरीद कर देगा मैडम और फिर कोई दे भी दे तो उस का लाइसैंस मिलने में कम लफड़ा है क्या?’’ पर पत्नी संतुष्ट नहीं थीं. बात जारी रखने के लिए पूछा, ‘‘फिर?’’

हम शायद बातचीत में ही उल?ो रहते पर तभी अचानक मु?ो लगा कि हम एक ऐसी सड़क पर आ गए हैं जिस से कुछ मिनट पहले ही गुजरे थे. अत: मैं ने उसे बताया तो वह थोड़ी असामान्य दिखी. फिर बोली, ‘‘हां सर, मु?ो भी ऐसा ही लग रहा है. मैं इधर से कोलाबा एक ही बार गई थी. थोड़ा रास्ते का कन्फ्यूजन हो रहा है.’’

फिर उस ने मोबाइल निकाल कर मिलाया. शायद उस के टैक्सी स्टैंड का था. रास्ते के बारे में अपनी दिक्कत बताई और आवश्यक निर्देश लिए. फिर हम से मुखातिब होते हुए बोली, ‘‘सौरी सर, सौरी मैडम, लगता है, मैं ने एक गलत टर्न ले लिया था, पर फिक्र न करें. अभी ठीक हो जाएगी गलती,’’ और फिर गाड़ी यू टर्न लेते हुए मोड़ ली.

एक चौराहे पर मंत्रालय की ओर इंगित करता हुआ बोर्ड दिखा कर क्षमायाचना करती हुई बोली, ‘‘आप लोगों को मैं ने गलत रास्ते पर ले जा कर करीब 10 किलोमीटर ऐक्स्ट्रा घुमा दिया है. आप चार्ट देख कर 10 किलोमीटर का पैसा काट कर बाकी पेमैंट करना.’’

हमारे लिए यह उतना ही अभूतपूर्व अनुभव था जितना रात में ढाई बजे एक 27-28 वर्षीय नवयुवती द्वारा चलाई टैक्सी में बैठ कर पोवाई से कोलाबा तक की लंबी दूरी मुंबई की रात की गहराइयों में डूबते हुए तय करने का. मैं ने उसे धन्यवाद दिया और उस की ईमानदारी की प्रशंसा की. जिसे सुन कर उस के गालों पर आई सलज्ज मुसकान ने एक बार फिर उस की नारीसुलभ कोमलता की पुष्टि की. वह कोमलता जिसे उस ने पुरुषों द्वारा कब्जा किए हुए काम में आ कर भी गंवाया नहीं था. कोलाबा अब नजदीक आ गया था. फिर भी आधा घंटा तो कम से कम और लगता ही. तभी उस का मोबाइल बजा. कान से लगा कर उस ने 2-3 बार यस मैडम, यस मैडम कहा. फिर बोली, ‘‘बस मैडम, मैं अभी 10 मिनट में आती हूं.’’

मुझो आश्चर्य हुआ. अभी तो कोलाबा पहुंचने में ही कम से कम 20 मिनट और लगने हैं. वह 10 मिनट में कहां पहुंच सकती है? अत: मैं चुप नहीं रह पाया और उस से अपनी शंका का समाधान करने को कहा.

‘‘अरे सर, आप को भी तो 10 मिनट में ही आने का बोला था, पर 20 मिनट लगाए थे न. अब आधी रात में वह मैडम लेडी ड्राइवर खोज रही है. कहां से कोई दूसरी लेडी ड्राइवर आसानी से पाएगी. फिर धंधे में थोड़ा झोठ तो बोलना ही पड़ता है न?’’

 

मैं और मेरी पत्नी दोनों हंस पड़े. समझो गए कि वह चालक भी है और चालाक भी. जो भी हो, मेरा मन उस के दोनों रूपों के सामने नतमस्तक हो गया.

चांद किस का होगा

22 साल की नव्या लेयर्स में कटे अपने लंबे हलके ब्राउन रंग के बालों को झटकते हुए तौलिए से पोंछ रही थी और बालकनी में खड़ी अपार्टमैंट के नीचे मेन गेट से एक आकर्षक स्त्री को दरबान से कुछ पूछते देख रही थी. नहाधो कर अपने धुले हुए कपड़ों को बालकनी में रखे क्लोथ स्टैंड में सुखाते और गीले बालों को धूप दिखाते हुए वह सुबह 9 बजे अपार्टमैंट के नीचे का नजारा भी अकसर ले लेती है. बस, इस के बाद वर्क फ्रौम होम की हड़बड़ी. ओट्स, नूडल, ब्रैड कुछ भी नाश्ते में और लैपटौप खोल कर बैठ जाना.

लखनऊ के इंदिरा नगर के जिस अपार्टमैंट के एक फ्लैट में नव्या रहती है वह चौथे माले पर है. उस में 3 कमरे हैं, तीनों में अटैच लैट, बाथ और बालकनी है. हर कमरे में एसीपंखा, डबल बैड, छोटा सोफा, साइड टेबल, अलमीरा और दीवार में वार्डरोब है यानी संपूर्ण निवास की व्यवस्था है इस फ्लैट में. हौल में बड़ा सोफा, बड़ा टीवी और सैंटर टेबल अपनी निश्चित जगह पर सजी है. कौमन ओपन रसोई की बगल में थ्री सीटर डाइनिंग का भी इंतजाम है, जिस का फिलहाल यहां रहने वाले प्रयोग नहीं करते.

गैस कनैक्शन फ्लैट की ओनर लेडी का है और किराएदार सिलिंडर का पैसा चुकाते हैं.

इस फ्लैट में रहने वाले हर किराएदार को 7 हजार महीने के देने पड़ते हैं. इस के अलावा मेड का पैसा यही लोग साझा करते हैं.

नव्या अपने कमरे में पलंग पर औफिस का सामान सजा कर काम करने बैठ चुकी थी. दोपहर 12 बजे वह लंच बनाने के लिए उठेगी और तब शमा से उस की मुलाकात होगी.

कुछ गपशप और साथ रसोई में लंच तैयार करना फिर काम पर बैठ जाना. शमा जिसे नव्या शमा मैम कहती है, नव्या की कंपनी में ही उस से तीन 3 सीनियर टीम मैनेजर है.

नव्या है शोख, चंचल, नाजुक जिसे आजकल गर्ली कहा जाता है, जबकि शमा नव्या से बिलकुल अलग है. 26 साल की सांवलीसलोनी शमा 5 फुट 6 इंच की हाइट के साथ स्ट्रौंग पर्सनैलिटी की धनी है. उसे न तो नव्या की तरह 10 बार सैल्फी ले कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने की आदत है, न ही इंस्टा पर अपने फौलोअर्स बढ़ाने को ले कर कोई धुन. वह बिंदास अपने काम और नौकरी में मशरूफ रहती है, कभी मन किया तो घूमनाफिरना या फिर अपनी कोई पसंदीदा मूवी देख लेना. क्लीयर विजन, साफ सोच और तनाव से दूरी. शमा अपनी जिंदगी अपने बूते जीने की दम रखती है.

कोई उस की आलोचना करे, उस के रंग पर टिप्पणी करे, उसे खास फर्क नहीं पड़ता.

नव्या का कमरा हौल के बीच में था, एक ओर शमा का कमरा था, दूसरी ओर का कमरा अभी खाली था.

नव्या औफिस के काम में व्यस्त थी कि मुख्य दरवाजे की घंटी बजी. शमा नव्या की सीनियर थी, प्राइवेट कंपनी के सीनियरजूनियर कल्चर को निभाते हुए दरवाजा अकसर नव्या ही खोला करती थी. दरवाजा खोलते ही मकानमालकिन बिना कुछ कहे उस महिला को अंदर ले आई जिसे अभी कुछ देर पहले नव्या ने नीचे देखा था.

नव्या को मकानमालकिन से बस इतनी जानकारी मिली कि यह अश्विनाजी हैं, नजदीक के सरकारी कालेज में लैक्चरर बन कर आई हैं. अश्विनाजी तीसरे कमरे में किराएदार बन कर आ रही हैं.

नव्या कमरे में चली गई वह कुछ हद तक बो?िल महसूस करने लगी. शमा मैम के साथ उस की लगभग पटरी तो बैठी ही थी, भले गहरी न भी छने लेकिन यह अश्विनाजी पता नहीं कैसी होगी. कहीं ज्यादा रोकटोक, साजसंभाल पर न उतर आए. किशोरी से जुम्माजुम्मा 4-5 साल ही तो हुए थे उसे जवानी की दहलीज पर कदम रखे. आजादी के माने उस के लिए अपनी मरजी से पैर पसार कर जीना था. खैर, जो होगा देखा जाएगा.

दूसरे दिन दोपहर तक अश्विना आ गई. एक चौवन इंच के सूटकेस और दो हैंड बैग के साथ वह कमरे में आई और कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गई.

नव्या ने ही दरवाजा खोला था और छोटी सी मुसकराहट के सिवा इन दोनों के बीच कोई और बात नहीं हुई.

लंच के वक्त शमा ने नव्या को भेजा कि लंच के बारे में पूछ ले पर नव्या को अश्विना ने मना कर दिया. दोनों रोज की तरह अपनीअपनी प्लेट ले कर अपनेअपने कमरे में बंद हो गईं.

शाम 6 बजे नहाधो कर गुलाबी और सफेद जोड़ी का ए लाइन सूट पहन अश्विना ने 3 कप कौफी ट्रे में सजा कर शमा और नव्या के कमरे के बंद दरवाजे पर आवाज लगाई.

दोनों अपने कमरे से बाहर आईं तो अश्विना ने कहा, ‘‘मैं अश्विना, मेरी उम्र 32 साल है, आप लोग मु?ो दीदी कह सकतीं, मुझे अच्छा लगेगा. आओ कौफी पीती हैं. लंच के वक्त मेरी सफाई पूरी नहीं हुई थी…’’

‘‘अरे हम समझ गई थीं, कोई बात नहीं, चलिए आइए मेरे कमरे में, मेरा अभी कंप्यूटर से हटना मुश्किल है,’’ शमा ने कहा.

शमा और नव्या ने अपनी कौफी ले ली. दोनों शमा के साथ उस के कमरे में आ गईं.

शमा ने दोनों को पास अपने पलंग पर ही बैठा लिया. इन की शाम 8 बजे छुट्टी होती थी. अपनी इच्छा से वे 15 मिनट का टी ब्रेक ले सकती थीं और अभी उसी सुविधा के तहत नव्या अपने काम से कुछ देर के लिए उठ कर यहां आई थी.

तीनों एकदूसरे से घनिष्ठ होते हुए कौफी का आनंद ले रही थीं कि शमा की नजर अश्विना के पेट पर गई. उसे थोड़ा अजीब सा लगा. पेट सामान्य से बड़ा है न या शमा ही गलत देख रही है. देखने से तो अश्विना अविवाहित लग रही थी. शादीशुदा लड़की अकेली इस तरह भला क्यों रहने आएगी? शमा अपनी सोच को विराम दे कर फिर से काम पर लग गई.

अश्विना ने कहा, ‘‘मैं तुम ही कहूंगी तुम दोनों को, ठीक है न?’’

दोनों ने मुसकरा कर सहमति दी तो अश्विना ने कहा, ‘‘मेरा चयन यहां के सरकारी कालेज में बतौर लैक्चरर हुआ है, फिलहाल घर पर ही हूं. जब तक कालेज शुरू नहीं होता, लंच मैं ही बना लूंगी. हम सब अब से थोड़ी देर डिनर टेबल पर ही साथ डिनर करेंगे, लंच भले ही तुम लोग औफिस के काम के साथ ही कर लेना. क्यों यह ठीक होगा न?’’

‘‘अरे नहीं, हम अपना बना लेंगे,’’ नव्या ने कहा तो अश्विना ने कहा, ‘‘यह तो हो गई न पराएपन की बात. मैं आई हूं न तुम दोनों की दीदी. फिर तुम दोनों अपने औफिस का काम करो न. लंच तैयार कर के मैं बुला लूंगी न तुम दोनों को. अकेले नहीं खा पाऊंगी.’’

तीनों हंस पड़ीं, फिर नव्या उठ कर गई तो शमा ने कहा, ‘‘दी, आप को एतराज न हो तो हमें अपने बारे में बताएं?’’

‘‘मेरी कहानी में पेच है, इसलिए खुलतेखुलते ही खुलेगी. तुम बताओ तुम कहां की हो?’’ अश्विना इतनी जल्दी शायद खुद को खोलना नहीं चाहती थी.

‘‘मैं लखनऊ के गोमतीनगर की बेटी हूं. वहां मेरा पूरा परिवार है, संयुक्त परिवार. पापामां, मेरी 1 छोटी बहन, चाचाचाची और उन की 2 बेटियां और 1 बेटा.’’

‘‘फिर तुम यहां किराए के फ्लैट में?’’

शमा ने कंप्यूटर बंद कर दिया. शायद उस की आज की ड्यूटी खत्म हो गई थी. उस ने कहा, ‘‘दरअसल, मेरी जिंदगी अजीबोगरीब पड़ाव पर आ कर रुक गई थी. अगर मैं यहां आ कर अपनी नई जिंदगी की शुरुआत नहीं करती और परिवार और समाज की तथाकथित लाज और इज्जत की खातिर खुद को मिटा देती तो मेरी जिंदगी मेरी उन सहेलियों और पहचान की लड़कियों की तरह हो जाती जिन्होंने शिद्दत से अपनी जिंदगी बनाई, मेहनत की, डिगरी ली और अब एक साड़ी के रंग के लिए पति की निर्णय के अधीन हैं, जिन का प्रोफैशन बस सोशल मीडिया में खुद की सैल्फी पोस्ट कर के खुश रहना है. मैं ऐसे नहीं जी सकती थी इसलिए आज मैं यहां हूं.’’

‘‘तुम तो शानदार हो. तुम घर भी नहीं जाती?’’

‘‘उन्हें बताया भी नहीं कहां हूं, मां से कभी बात कर लेती हूं, दरअसल, मां की मौन सहमति तो है मेरे निर्णय पर लेकिन परिवार के डर से कभी जताती नहीं.’’

आज डिनर टेबल को अश्विना ने अच्छी तरह साफ कर लिया था. तीनों ने बनाई थी गोभीमटर की सब्जी, रोटी और अश्विना की खास दाल फ्राई.

साथ खाते हुए अश्विना ने नव्या से पूछा, ‘‘छुटकी तुम कहां की हो?’’

‘‘मैं गया बिहार की हूं दीदी.’’

‘‘बहुत दिन हो गए होंगे घर गए? अश्विना ने उस पर नेह जताया.

‘‘मेरे लिए क्या देर क्या सबेर. मैं ने तो प्रण कर घर छोड़ा है कि लौट कर दोबारा नहीं जाऊंगी.’’

अश्विना अवाक थी. संवेदना जताते पूछा, ‘‘हुआ क्या आखिर? ’’

‘‘मेरे पापा सही नहीं हैं, मां से मारपीट करते हैं, नशा भी करते हैं और फिर वही लड़ाई?ागड़ा, भाई तो दिनभर बाहर रह कर वक्त निकाल लेता है, लेकिन मेरी जो हालत होती मैं ही जानती थी. पढ़ाई पूरी करते ही मैं ने नौकरी की कोशिश की और जानबू?ा कर शहर से इतनी दूर चली आई.’’

‘‘मां के बारे में नहीं सोचा, बेचारी अकेली पिसने के लिए रह गई?’’ अश्विना कुछ दुखी दिख रही थी.

नव्या ने कहा, ‘‘अब यह तो उस की मरजी. चाहती तो पापा को छोड़ देती. वहां जाऊंगी तो पापा जबरदस्ती मेरी शादी करवा देंगे और वह भी अपने जैसे किसी लड़के से. मेरी मां कुछ भी नहीं कर पाएगी. अभी कम से कम अपना खर्चा मैं खुद उठा रही हूं, भाई को खर्चा भेज देती हूं कभीकभी… मुझे वहां याद ही कौन करता है… मैं यहां खुश हूं और घर कभी नहीं जाने वाली.’’

अश्विना ने अपना सिर झुका लिया. शमा समझ गई थी कि अश्विना को नव्या की अपनी मां के प्रति बेरुखी पसंद नहीं आई.

नव्या ने उत्सुक हो कर पूछा, ‘‘दी, आप बताइए न आप क्या लखनऊ की हैं?’’

अश्विना चुपचाप खाती रही तो शमा ने ही टोक दिया, ‘‘कहिए तो दीदी, हम साथ हैं, कुछ तो एकदूसरे से परिचित होना जरूरी है.’’

अश्विना ने अपना फोन उठाया और गैलरी में कुछ टटोलती दिखी.

कहा, ‘‘मैं लखनऊ की नहीं हूं, मैं मेरठ की हूं. 25 साल की थी, तब प्राइवेट स्कूल में बतौर टीचर पढ़ाने लगी. हम राजपूत हैं, हमारी बिरादरी में लड़कियों को समाज के सिर पर पगड़ी समझ जाता है. हमारी इंसानी रूह पगड़ी बनेबने ही एक दिन खत्म हो जाती है. लेकिन मैं ने ठान रखा था, रस्मरिवाज पर खुद की बलि मैं नहीं चढ़ाऊंगी. मेरी नौकरी लगते ही घर वाले मेरी शादी को उतावले हो गए. इधर मेरी जिंदगी में कुछ नया होना लिखा था. जिस प्राइवेट स्कूल में मैं टीचर थी, वहां के डाइरैक्टर शादाब सर टीचर्स डे पर अपने घर पर टीचरों के लिए पार्टी रखा करते थे.

‘‘शादाब सर की उम्र कोई 45 के पास की होगी, बहुत नेकदिल और मिलनसार थे. इस बार उन के यहां मेरी पहली पार्टी थी. मैं ने गुजराती ऐंब्रौयडरी में आसमानी रंग का पूरी बांह का केडिया टौप और आसमानी रंग का सफेद नीले सितारे जड़ा लहंगा पहन रखा था. मैं अपनी एक टीचर के साथ बात कर रही थी कि शादाब साहब अपने साले साहब को ले कर आए.

‘‘जरा छेड़छाड़ की अदा में मु?ा से मुखातिब हुए और कहा. मैं ने दीया ले कर बहुत ढूंढ़ा लेकिन हमारे साले साहब की बराबरी में आप से बढ़ कर कोई दिखी नहीं. ये हमारे इकलौते साले साहब महताब शेख हैं. नामी बिजनैस मैन और महताब ये हैं हमारे स्कूल की नई कैमिस्ट्री टीचर अश्विनाजी. चलो मैं जरा दावतखाने का देख आऊं, आप लोग मिलो एकदूसरे से.

‘‘शादाब सर के चले जाने के कुछ पल तक हम बेबाक से एकदूसरे के पास खड़े रहे. महताब हलके पीले फूल वाली शर्ट और नेवी डैनिम जींस में गजब के स्मार्ट लग रहे थे. मेरी हाइट 5 फुट 4 इंच की है, वे 5 फुट 10 इंच के हैं. मुझ से गोरे, चेहरे पर घनी काली दाढ़ी उन्हे मजबूत शख्स बना रही थी.

‘‘पार्टी शादाब सर के बंगले से लगे फूलों के गार्डन में चल रही थी. खूबसूरत रोशनी, संगीत, लजीज खाना और ड्रिंक्स माहौल था, जोश था, चाहतें थीं, सपने थे. महताब ने बात शुरू की, ‘‘आप आसमानी ख्वाब की हूर हो. मुझे अपना पता बता दो.’’

‘‘मैं अंदर ही अंदर चौंक गई. यह व्यक्ति पहली ही मुलाकात में शायरी कर गया, कहीं सही तो होगा न. लेकिन कैमिस्ट्री के सूखे रसायन में झरने की कलकल ध्वनि सुनाई दे गई मुझे और मैं उसी झरने की खोज में चल निकली.

‘‘मुझे भी बोलना आ गया. मैं ने कहा, ‘‘मैं कोई हूर नहीं, आप की नजरों में नूर हूं वरना मुझ जैसी साधारण…’’

‘‘अरे बस, इतना भी मत पिघलो कि मैं थाम न पाऊं, शरारत से जरा सा मुसकराए तो मैं ने पहली बार किसी पुरुष को देख शर्म से नजरें नीची कीं.

‘‘हमारा परिचय यों होतेहोते वक्त से वक्त चुरा कर मिलतेमिलाते हम इतने करीब आ गए कि हमें अब साथ रहने के कदम उठाने थे. महताब टाइल्स और होम डैकोर के बड़े बिजनैसमैन थे. मेरठ के अलावा कई और शहरों में उन का बिजनैस फैला था, जिन में एक लखनऊ भी था.

अश्विना ने उन दोनों को महताब और उस की साथ वाली तसवीर दिखाई. शमा की आंखों में तारीफ थी, लेकिन नव्या चहक उठी, ‘‘वाह आप मिनी स्कर्ट में? जीजू तो गजब के स्मार्ट लग रहे हैं. कितनी उम्र रही होगी उन की तब?’’ नव्या ने तसवीर अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘यह तसवीर हमारे परिचय के बाद छह महीने के अंदर की है. उन की तब उम्र 32 थी और मैं 26 की.

‘‘नव्या तसवीर से नजर हटा नहीं पा रही थी यह बात दोनों ने गौर की खासकर शमा ने देखा वह महताब को एकटक देख रही थी. शमा की अश्विना में दिलचस्पी बढ़ गई. उस ने पूछा, ‘‘फिर आप इधर कैसे आ गईं?’’

‘‘अश्विना खुलने लगी. मेरठ में जब हमारी मुलाकात हुई थी उस के सालभर पहले महताब का उस की पत्नी से तलाक हुआ था, दोनों को कोई बच्चा नहीं था, 5 साल की शादी के बाद तलाक की वजह बच्चा न होना बताया था मुझे महताब ने. खैर, हमारी शादी को मेरे घर वाले तो कतई तैयार नहीं होते, बड़े कट्टर हैं वे. इधर महताब भी एक शादी से निकलने के बाद तुरंत दूसरी शादी को तैयार नहीं थे, मजबूरन मैं ने तय किया कि उसी की शर्तों पर उस के साथ रहूं यानी लिव इन में. महताब भी इस के लिए तैयार थे. हमें न समाज की सहमति की जरूरत थी, न कानून और धर्म की. हम बड़ी बेसब्री से एकदूसरे को चाहते थे. बीच में कई सारे बिचौलिए थे, जाति, धर्म, समाज और इस के रिवाज. हम किसकिस की खुशामद करते और क्यों करते. हम आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे और किसी भी सूरत में किसी का नुकसान नहीं कर रहे थे. लिव इन में अगर रिश्ते में कोई परेशानी आती है तो क्या वह शादी में नहीं आती? महताब की शादी ही तो टूटी थी. मैं ने सोचा रिश्ते में आपसी प्यार और भरोसा एकदूसरे को बांधे रखता है. कौन सा कानून हुआ है जो 2 लोगों को प्यार की डोर में बांधे रखता हो. महताब का लखनऊ में अच्छा व्यवसाय था, एक फ्लैट भी था जहां वे ठहरते थे. मैं ने घर वालों से बगावत कर के और शादाब सर की मदद से लखनऊ महताब के साथ बस गई. अब तक अच्छा ही चल रहा था या कह सकती हूं. मैं अच्छा चल रही थी क्योंकि अब मैं रुक गई तो सब रुक गया.

‘‘आज इतने सालों बाद जब हमारा बच्चा आ रहा है, महताब अब भी शादी को तैयार नहीं. कहते हैं शादी के लिए धर्म परिवर्तन करना पड़ सकता है जो उन्हें पसंद नहीं. मैं तैयार हूं उस के लिए भी, क्या फर्क पड़ता है, हम दोनों ही धर्म और कर्मकांड के बिन रोजाना जी रहे हैं, फिर हिंदू कहो या मुसलिम. मेरे लिए महताब का स्थाई साथ महत्त्व रखता है.

‘‘मगर महताब राजी नहीं. कहते हैं बच्चा आ रहा है तो उस के लिए मैं अपने जीने का तरीका नहीं बदल सकता. उसे भी इस सच के साथ जीने दो. लेकिन एक मां के लिए यह लज्जा की बात है कि वह अबोध बालक या बालिका को समाज और कानून की कैफियत के सामने खड़ा कर दे.

‘‘6 महीने और गुजर गए. अश्विना को बेटा हुआ था. नव्या कभीकभी बच्चे के साथ खेल कर चली जाती. शमा अपने काम से समय निकाल कर अश्विना के बच्चे की देखभाल में हाथ बंटाती.

‘‘अश्विना ने कालेज से 6 महीने की छुट्टी ली हुई थी. शमा बेटे का दूध बना कर लाई तो देखा अश्विना की आंखों से विकलता की यमुना बह रही है. शमा ने पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ फिराते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ दी, आप इतनी लाचार और टूटी दिख रही हैं? कुछ और नया हुआ क्या?’’

‘‘मैं ने बेटे की तसवीर उसे कल रात को भेजी थी. यह बेटे की पहली तसवीर उस के 1 महीना पूरा होने पर भेजी. महताब ने देख कर रख दिया, लेकिन कहा कुछ नहीं.’’

‘‘दी मैं आप को दिलासा नहीं दूंगी कि व्यस्त होंगे या बाद में कहेंगे. मैं आप से पूछती हूं आप ने कमजोर पड़ने के लिए स्वतंत्रता का निर्णय लिया है? किसी उम्मीद पर घर छोड़ा है कि वे बाद में पसीज जाएंगे. आप ने तसवीर के साथ कुछ लिखा भी था?’’

‘‘लिखा कुछ नहीं, पता भेजा था,’’ अश्विना ने अपने सीने में अपना चेहरा छिपा लिया. शमा समझ रही थी उस के दर्द को.

‘‘दी आप को तो महताबजी याद आने लगे. आप रोक लो खुद को. अभी भी आप सम?ा नहीं. महताबजी की दिलचस्पी आप में रही नहीं. हो सकता है वे किसी और से…’’

‘‘अश्विना ने अपना सिर ऊपर किया, वह उठ कर बैठ गई. शायद शमा के मजबूत इरादे उसे हिम्मत देने लगे थे. उस ने कहा, ‘‘मैं ने आने से पहले पूछा कि क्या हमेशा मेरे साथ रहने की तुम्हारी मंशा नहीं? तुम अपनेआप में व्यस्त रहते हो, मैं कभी कुछ कहती नहीं, कई रातें वापस नहीं लौटते, बताने की जरूरत भी नहीं सम?ाते कि कहां थे, पूछती तो बिना जवाब दिए चले जाते जैसेकि मैं बीवी बनने की कोशिश न करूं. क्या मैं जबरदस्ती रुकी हूं? तुम मु?ो जाने को कहना चाहते हो? बच्चे के आने की खबर पर तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं. बच्चे के लिए क्या हमें अब शादी नहीं करनी चाहिए?’’

उस ने कहा, ‘‘तुम्हें जैसा ठीक लगे करो, बच्चे के नाम पर शादी नहीं करूंगा. तुम अपनी मरजी से आई थी, अपनी मरजी से जाओगी, मैं ने कोई जबरदस्ती नहीं की,’’ वह साफ मुझे  जाने को कह रहा था और मै निकल आई.

अश्विना के हाथों को अपने हाथ में ले शमा ने कहा, ‘‘दी, आप पीछे की छूटी हुई दुनिया को भूल जाइए, आगे हम सब हैं न साथ, मुन्ना है.’’

‘‘शाम की चाय ये तीनों साथ ले रहे थे कि दरवाजे की घंटी बजी. पता नहीं अश्विना को क्या हुआ वह दौड़ कर दरवाजे पर गई और एक झटके से दरवाजा खोल दिया.

‘‘महताब खड़े थे सामने. एक बुके और बच्चे के लिए खिलौने और कुछ कपड़ों के सैट ले कर. लड़कियां अश्विना के पास आ गईं. शमा ने महताब के हाथ से सामान लिया और सभी को सोफे तक ले आई. अश्विना की आंखों में मोतियों की लड़ें सज चुकी थीं कि अब टूट पड़ेगी कि तब. शमा ने उन्हें इशारा किया और अश्विना ने अपने आंसुओं को जज्ब कर लिया.

‘‘नव्या की चहलपहल देखते ही बनती थी. वह तो हर कायदे को धता बता कर महताब के करीब हो जाने का बहाना ढूंढ़ रही थी. आश्चर्य कि नव्या ने उन के बेटे को महताब की गोद में दिया और उस ने उसे किसी और के बच्चे की तरह कुछ देर प्यार कर के नव्या को ही वापस थमा दिया. अश्विना से बहुत सामान्य बातचीत की जैसे उस की तबीयत कैसी है, कब कालेज जाएगी या बेटे का नाम क्या रखेगी? शमा ने देखा अश्विना बारबार कुछ और बातों की उम्मीद कर रही थी, बारबार टूटी हुई उम्मीद पर आसूं पी रही थी. डिनर महताब ने बाहर से मंगाया और सभी से घुलमिल कर बातें कीं. इस औपचारिकता के बाद अश्विना को महताब से कोई संपर्क नहीं हो पाया. इधर शमा गौर कर रही थी नव्या पर. जैसे उस की जिंदगी में पहले से कुछ अलग हो रहा था. जैसे पपीहे ने नया गीत गाया था, जैसे एक बंद पड़े बगीचे में वसंत आया था. कभी दरवाजे खोलती और कहीं से कोई आया गिफ्ट ले कर, वह उसे लिए अंदर चली जाती, कभी साथ बैठी हो और किसी के एक फोन पर उठ कर अपने कमरे में चली जाए और अंदर से कमरा बंद कर ले.

‘‘शमा वैसे तो अपने सोशल मीडिया अकाउंट से खास लगाव नहीं रखती थी लेकिन नव्या की गतिविधि ने उसे उकसाया कि वह नव्या के साथ जुड़े हुए अकाउंट खोल कर नव्या को चैक करे. हां बस जिस का अंदेशा था शमा को, नव्या ने एक बौडी ऐक्सपोज्ड ड्रैस में अपनी तसवीर के साथ महताब की तसवीर दे कर लिखा था, ‘‘मेरे महबूब का अनमोल तोहफा.’’

‘‘शमा को अश्विना के लिए बहुत बुरा महसूस हो रहा था. महताब देखने में जितना खूबसूरत है, अंदर से उतना ही हृदयहीन. शायद उसे नई लड़कियों से संबंध गढ़ने का चसका था. साथ में रहते हुए कभी तो अश्विना को यह बात पता चलेगी और यह उस के लिए बेहद बड़ा सदमा होगा. पर शमा नव्या को सम?ाएगी कैसे? वह अपने आगे किसी का दर्द नहीं सम?ाती? एक बात क्यों न करे वह. अगले दिन उसने अश्विना को किसी तरह राजी कर लिया कि वे दोनों मेरठ चलें अश्विना के घर. सोचा अश्विना अगर एक महीना भी अपने घर रह ले, शमा नव्या को महताब से हटा लेगी और अश्विना को इस अजाब से गुजरना नहीं पड़ेगा. दोनों अश्विना के घर पहुंचे और घर वालों के सर्द व्यवहार के बावजूद मां ने उन दोनों के लिए अतिथिकक्ष साफ करवा दिया.

‘‘शमा सोच रही थी कि किसी तरह बात चले तो वह इन की सोच की कुछ मरम्मत कर सके. यह मौका मिल ही गया. डाइनिंग पर अश्विना के पापा ने कहा, ‘‘तुम ने हमें त्याग कर एक मुसलिम से शादी रचाई, हम चुप्पी साध गए, मगर अब तुम बच्चे के साथ वापस आ गई हो तो अब तुम्हें हमारे कहे अनुसार चलना होगा.’’

शमा का पारा चढ़ने लगा. यह बड़ी कमाल की बात होती है, ‘‘हमारे अनुसार चलना होगा,’’ अश्विना और शमा दोनों तन गई. शमा ने कहा, ‘‘माफ करें, आप सही नहीं हो तब भी आप के अनुसार चलना होगा?’’

‘‘बिलकुल. यह सरासर लव जेहाद का मामला है, बेटी को बरगला कर मुसलिम धर्म में ले गए और बाद में छोड़ दिया.’’

‘‘अश्विना से अब चुप न रहा गया. वह लगभग चीख ही पड़ी,

‘‘किसी मुसलिम और हिंदू ने शादी की नहीं कि लव जेहाद का मामला बना दिया. बहुत आसान हो गया है न प्यार का कानूनी आड़ में कत्ल कर देना. हम दोनों ने प्रेम किया था, धर्म और जाति देख कर सौदा नहीं किया था. यह और बात है कि लिव इन में किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से रहा नहीं गया. पर न हमारी शादी हुई न तो पति ने तलाक दिया. मैं ने खुद उस का घर छोड़ा.

‘‘चाची ने बीच में बेसुरा राग छेड़ा, ‘‘वाह क्या खूब काम किया, बिन ब्याही मां बन गई.’’

‘‘शमा से अब चुप न बैठा गया. उस ने तुरंत कहा, ‘‘अरे किस गली में भटक रही हैं चाची. मुख्य सड़क पर आइए. जब इन्होंने प्यार किया, 6 साल साथ रह कर सुखदुख सा?ा किया, तो बच्चा होना कौन सा बड़ा गुनाह है. इस से महताबजी की बेरुखी सहन नहीं हुई और इस ने उस के साथ रहने को इनकार किया. खुद्दारी देखिए जरा. शादी के बाद औरतें क्या करती हैं? पति अनदेखी करे तो परमेश्वर, गाली दे तो परमेश्वर, अपना स्वार्थ साध कर फेंक दे, दूसरी औरतों पर नजर सेंके, परमेश्वर. शादी के बाद तो पति का पत्नी पर जिंदगीभर अत्याचार करने की वसीयत बन जाती है न. और बच्चा शादी के बाद होता है तो कौन सा हमेशा प्यार का फसल होता है? अकसर तो वह पति के पत्नी पर बलात्कार का ही नतीजा होता है. यह बच्चा तो कम से कम प्यार का परिणाम है.’’

चाचा ने अब अपना लौजिक पेश किया, ‘‘खुद मुसलिम है इसलिए मुसलिम की तरफदारी कर रही है.’’

‘‘शमा इन के तर्क शास्त्र की कारीगरी पर सिर पीट रही थी, कहा, ‘‘चाचाजी, आप फिर दिशाहीन बातें कर रहे हैं. मेरी बातें आप को धार्मिक रूप से कट्टर लगीं? आज फिर सुन ही लीजिए, यह बात अश्विना दी को भी मैं बताते हुए रह गई थी. मेरे घर वालों ने मेरा नाम स्वर्णा रखा था. धर्म की आंख से देखिए तो वे हिंदू हैं. मेरी शादी भी हुई जमींदारी ठाकुर घराने में, पति को पुश्तैनी संपत्ति का बड़ा गुरूर था, कामधाम करना नहीं था, बस बापदादाओं की जमींदारी पर मौज और रौब. मेरे घर में पापा और चाचा की बेटियां हुईं 4. हमारा खानदान भी अच्छाभला खातापीता है और परिवार वालों को बेटी से ज्यादा खानदानी हैसियत की पड़ी रहती थी. शादी के वक्त मैं नौकरी कर रही थी और बता दिया था कि नौकरी नही छोड़ूंगी. शादी के बाद ही पति के रंगढंग से तो परेशान हो ही गई, महाशय अपने अहंकार की परवरिश के लिए मुझे नौकरी छोड़ने पर मजबूर करने लगे. मैं समझ गई चाहे अपनी जिंदगी भी दे दूं, इस के साथ मैं एक दिन भी खुश नहीं रह सकती. लेकिन खानदान की पहचान का ऐसा हौआ था कि मैं कहीं निकलने की सोच भी नहीं पा रही थी. एक दिन धोखे से मुझे वह मायके ले आया और हंगामा जो बरपाया कि सारे लोग मुझे ही कोसने लगे. आखिर उन्हें क्या समझती कि मै नौकरी मजे करने और पैसे लुटाने को नहीं कर रही थी. यह मेरे स्वतंत्र निर्णय और पहचान से जुड़ा मसला था.

‘‘पति मुझे इस धमकी पर छोड़ गया कि नौकरी छोड़ दूं तभी वह मुझे वापस ले जाएगा. वह कोई काम करता नहीं था, मातापिता थे नहीं उस के, अब नौकरी करने से मेरी आर्थिक स्थिति इतनी थी कि मैं उस की मुहताज नहीं थी और यह बात उसे बेहद खटकती थी. घर वालों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया कि मैं अपने पति के घर जाने के लिए नौकरी छोड़ दूं. एक दिन मैं ने सख्ती से खुद को समझाया और अपने लिए आसरा ढूंढ़ने निकली. अपना नाम भी बदला. और मैं शमा हो गई.

‘‘शमा क्यों? हिंदू हो कर मुसलिम नाम?’’ अश्विना के पापा ने हैरत से पूछा, ‘‘जी क्योंकि नाम खुद ही एक पहचान है. उस की पहचान हिंदूमुसलिम की नहीं होती. यह दीवार इंसानी दिमाग की पैदा की हुई है, दूसरों को नीचा दिखाने और अपने को सब से अलग करने के लिए. नाम तो भाषा और लिपि का एक शब्द है, जिसे कोई भी इस्तेमाल या उपयोग कर सकता है. उर्दू बड़ी मीठी भाषा है और मुझे यह नाम बचपन से पसंद था, इसलिए मैं ने इसे अपने लिए चुना. मैं अपनी स्वतंत्र पहचान चाहती थी और पति और जबरदस्ती करने वालों से अपनी पहचान छिपाना चाहती थी, शमा का अर्थ रोशनी है और…’’

‘‘और मेरी जिंदगी में शमा आई है,’’ अश्विना ने दिल पर हाथ रख कहा.

‘‘शमा लखनऊ लौट आई थी और नव्या के हालचाल उसे ठीक नहीं लगे थे. मगर शमा सम?ा रही थी कि नव्या को रोकना मुमकिन नहीं. अश्विना के घर वालों पर कुछ तो असर हुआ था, अश्विना शमा को फोन पर बताती थी. शमा ने अश्विना से अभी एकाध महीने मायके में ही रुकने का अनुरोध किया था.

‘‘ऐसा क्या था महताब में जो लड़कियां खुद उस के पीछे चलने लगतीं. शमा

जानना चाहती थी. कुछ सोच कर शमा ने नव्या के इंस्टा से महताब को फौलो किया और उसे डीएम कर के यानी डाइरैक्ट मैसेज भेज कर सूचित किया.

‘‘तुरंत ही महताब ने शमा को फौलो कर लिया और संदेश दे कर प्यार और आभार कहा. अपना व्हाट्सऐप नंबर भी खुद ही महताब ने शमा को दे दिया. थोड़ेथोड़े हंसीमजाक के साथ शमा महताब के साथ घुलतीमिलती रही. एक दिन महताब ने उसे संदेश भेजा कि वह शमा से मिल कर अपनी दिल की बात उसे बताना चाहता है, वह शमा को अपनी जिंदगी में चाहता है.

‘‘शमा ने कहा, ‘‘यह तो मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है जो महताब मुझे चाहता है वरना मुझ में है क्या?’’

‘‘क्या बात करती हो, तुम्हारे चेहरे का यूनीक फीचर, यह सलोना कृष्णचूड़ा सा रंग, यह गजब की स्टनिंग फिगर और सब से बड़ी खूबी…’’

‘‘रुकोरुको. सब से बड़ी खूबी आप मुझे मेरे सामने आ कर सुनाओ.’’

‘‘तय हुई कि अगले सप्ताह रविवार को महताब शमा के फ्लैट में आए, उस दिन वह अकेली होगी. अगले रविवार को महताब आए और फ्लैट के दोनों कमरों में किसी को न पा कर निश्चिंत हुए. शमा अपने कमरे में थी, महताब को भी वहीं ले गई. महताब उस के पलंग पर पसर कर बैठ गए. लगभग 39 साल के महताब अब सपना देख रहे थे 26 साल की शमा का.

शमा बोली, ‘‘तो आप बता रहे थे मेरी सब से बड़ी खूबी?

‘‘हां बता तो रहा था लेकिन उस से पहले यह हीरे की अंगूठी तुम्हारे लिए. अपना बायां हाथ दो.’’

‘‘यह तो बाद में, पहले कुछ बातें हो जाएं, मुलाकातें हो जाएं. कहिए न क्या खूबी है मुझ में जो आप ने अश्विना, नव्या को छोड़ मुझे चुना वह भी शादी के प्रस्ताव के साथ, कोई और भी था तो वह भी बता दीजिएगा. मैं इन सब बातों का बुरा नहीं मानती.’’

‘‘यही तो गजब की खूबी है तुम में. तुम और लड़कियों की तरह मेल पार्टनर पर दवाब नही बनाती कि एक ही से जिंदगीभर रिश्ता रखे. तुम में गजब का आत्मविश्वास है, इसलिए तुम्हें बुरा नहीं लगता अपने पार्टनर का दूसरी लड़की के साथ भी रिश्ता रखना.’’

‘‘आप को अच्छा लगेगा यदि आप की फीमेल पार्टनर आप के सिवा दूसरे के साथ वही रिश्ता रखे जो उस का आप के साथ है? आप को ठेस तो न पहुंचेगी?’’

महताब उसे एकटक देखता रहा, फिर बोला, ‘‘पहुंच सकती है. मेल इसे अपनी इज्जत पर लेते हैं.’’

‘‘इसलिए क्योंकि वे लड़की को अपनी जागीर समझते हैं, हैं न? जबकि अपनी पार्टनर को बगल में रख दूसरी, तीसरी को भी लिए चलते हैं क्योंकि फीमेल पार्टनर के प्रति पुरुष का नजरिया बराबरी का नहीं होता.’’

‘‘तुम तो नव्या के रहते मेरी जिंदगी में आई,’’ महताब शमा को सम?ाने की कोशिश कर रहे थे. उधर शमा अपने तरीके से आगे बढ़ रही थी. बोली, ‘‘आप अश्विना के साथ रिश्ते में रहते, कितने और रिश्ते में रहे? आप अपने बारे में बताइए तभी मैं आगे बढ़ सकूंगी.’’

‘‘पिछले 2 सालों से अश्विना के अलावा मेरे और 2 संबंध थे, जो टूट गए. नव्या से मेरा रिश्ता हंसीखेल का था.

‘‘आप खेल रहे थे उस के साथ? वह अभी बच्ची ही है आप लगभग 40 साल के.’’

‘‘मैं इस में क्या करूं? उस की मु?ा में रुचि थी, मैं उसे जो भी कहता वह तुरंत करने को तैयार रहती. अब अगर वह खुद ही बिछ रही है तो मैं क्यों पीछे रहूं?’’

‘‘और अश्विना के सच्चे प्यार की आप ने कद्र नहीं की? वह क्यों?’’

‘‘अश्विना की बात ही बेकार है. वह चाहती थी, उसी की तरह मैं भी उस का ही नाम जपता रहूं. वह खुद घर छोड़ कर मेरे साथ लिव इन में रही, उसे याद रखना चाहिए था, मैं शादी के ?ां?ाट में नहीं पड़ा ताकि हमारे बीच आजादी बनी रहे. 2 साल से मैं ने उस के साथ रहते दो और लड़कियों से रिश्ते रखे.’’

‘‘उसे भनक पड़ी?’’

‘‘नहीं क्योंकि मैं इस काबिल हूं कि सब को ले कर चल सकूं.’’

‘‘वाह क्या बात है महताबजी. आप ने तो प्यार, इज्जत, समर्पण, भरोसा हर

चीज का कौन्सैप्ट ही बदल दिया ताकि आप का सैक्सुअल डिसऔर्डर (डिजायर नहीं) संतुष्ट होता रहे.’’

‘‘अश्विना दी और नव्या आप लोग अब मेरे बाथरूम से निकल आओ. आप को महताबजी के बारे में अब तक पूरी जानकारी हो गई होगी,’’ शमा नव्या और अश्विना को अपने बाथरूम से बाहर आ जाने को आवाज दे रही थी. दोनों पूर्व साथियों को कमरे में देख महताब भौचक रह गए. शमा से कहा, ‘‘मैं ने सोचा था तुम मेरे धर्म की हो, अब घर ही बसा लूंगा.’’

‘‘महताबजी, जब धर्म को तवज्जो न दे कर आप सही सोच रखते हैं, तो धर्म के अनुरूप शादी क्यों? ऐसे भी मैं स्वर्णा हूं, जिस ने खुद को प्यार से शमा बुलाया है.’’

महताब जल्दी से जल्दी वहां से निकल गए. अश्विना ने कहा, ‘‘महताब यानी चांद, चांद किसी का न हुआ.’’

‘‘हम अपनेअपने दाग के साथ खुद ही चांद हैं अश्विना दी. फिर अपना चंद्रिम है न. हम 3 का दुलारा आप का बेटा,’’ शमा ने अश्विना और नव्या को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था.

नव्या ने कहा, ‘‘अश्विना दी, आप के बेटे का नामकरण कर दिया शमा मैम ने.’’

अश्विना ने कहा, ‘‘मां के पास बेटे को छोड़ कर आ रही थी तो मां ने उस का नाम सोचने को कहा था. अभी बता देती हूं उस का नाम. शमा का दिया नाम चंद्रिम होगा. कल ही मेरठ जा कर बेटे चंद्रिम को शमा मौसी के पास ले आती हूं.’’

‘‘सांझ के अंधेरे आकाश में उगा चांद उन की खिड़की से झांकता हुआ मुसकराने लगा था.’’

हैवान: कैसे हुआ प्रतीक को गलती का एहसास

कहानी- प्रकाश सक्सेना

‘‘माली, यह तुम ने क्या किया? छाया में कहीं आलू होता है? इस से तो हलदी बो दी जाती तो कुछ हो भी जाती.’’

‘‘साहब का यही हुक्म था.’’

‘‘तुम्हारे साहब ठहरे शहरी आदमी. वह यह सब क्या जानें?’’

‘‘हम छोटे लोगों का बड़े लोगों के मुंह लगने से क्या फायदा, साहब? कहीं नौकरी पर ही बन आए तो…’’

‘‘फिर भी सही बात तो बतानी ही चाहिए थी.’’

‘‘आप ने साहब का गुस्सा नहीं देखा. बंगला क्या सारा जिला थर्राता है.’’

मैं ने सुबह बंगले के पीछे काम करते माली को टहलते हुए टोक दिया था. प्रतीक तो नाश्ते के बाद दफ्तर के कमरे में अपने मुलाकातियों से निबट रहा था.

मैं और प्रतीक बचपन के सहपाठी रहे थे. पढ़ाई के बाद वह प्रशासनिक सेवा में चला गया था. उस के गुस्से के आतंक की बात सुन कर मुझे कुछ अजीब सा लगा क्योंकि स्कूलकालिज के दिनों में उस की गणना बहुत शांत स्वभाव के लड़कों में की जाती थी.

कालिज की पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही मुझे असम के एक चायबागान में नौकरी मिल गई थी और उस के बाद से प्रतीक से मेरा संपर्क लगभग टूट सा गया था. 9 साल बाद मैं इस नौकरी से त्यागपत्र दे कर वापस आ गया और अपने गांव में ही खेती के अलावा कृषि से संबंधित व्यवसाय करने लगा.

जब मुझे प्रतीक का पता लगा तो मैं उसे पत्र लिखने से अपने को न रोक सका. उत्तर में उस ने पुरानी घनिष्ठता की भावना से याद करते हुए आग्रह किया कि मैं कुछ दिनों के लिए उस के पास आ कर अवश्य रहूं, लेकिन प्रतीक के पास आ कर तो मैं फंस सा गया हूं. आया था यह सोच कर कि मिल कर 2 दिन में लौट जाऊंगा. लेकिन आजकल करते- करते एक हफ्ते से अधिक हो चुका है. जब भी लौटने की चर्चा चलाता हूं तो प्रतीक कह उठता है, ‘‘अरे, अभी तो पूरी बातें भी नहीं हो पाई हैं तुझ से. तू तो देखता है कि काम के मारे दम मारने की

भी फुरसत नहीं मिलती. फिर तेरी कौन सी नौकरी है जो छुट्टी खत्म होने की तलवार लटक रही हो सिर पर. अभी कुछ ठहर. यहां तुझे क्या तकलीफ है?’’

तकलीफ तो मुझे वास्तव में यहां कोई नहीं है. हर प्रकार का आराम ही है. बड़ा बंगला है. बंगले में दफ्तर के कमरे से सटे एक अलग मेहमान वाले कमरे में मुझे टिकाया गया है. प्रतीक की पत्नी ललिता भी बड़ी शालीन स्वभाव की है. प्रतीक के आग्रह पर वह भी यदाकदा इसी बात पर जोर देती है, ‘‘भाई साहब, इन के साथ तो आप बचपन से रहे हैं लेकिन मैं ने तो आप को अभी देखा है. कुछ मेरा अधिकार भी तो बनता है. इस छोटी जगह में कौन आता है हमारे यहां रहने? जब आप आए हैं तो इतनी जल्दी जाने की बात मत कीजिए. आप की वजह से कुछ ढर्रा बदला है वरना रोज ही वही क्रम चलता रहता है.’’

रोज का एक जैसा क्रम तो मैं एक सप्ताह से बराबर देख रहा हूं. प्रात: 8 बजने से पहले नाश्ता. फिर घर पर आए मुलाकातियों से जूझना, तब कचहरी की दौड़. दोपहर 2 बजे भागादौड़ी में खाना, फिर कोई न कोई बैठक, जो शाम ढले ही निबटती है. फिर किसी समारोह में भाग लेने के लिए निकल जाना या किसी मिलने वाले का आ टपकना. रात को अवश्य आराम से बैठ कर भोजन किया जाता है. दूसरे दिन पुन: यही सिलसिला शुरू हो जाता है.

बंगले का स्तब्ध वातावरण भी किसी फौजी कैंप जैसा लगता है. हर वस्तु अपने स्थान पर व्यवस्थित. ‘जीहजूर’ या ‘जी सरकार’ की उबाऊ गूंज ही निरंतर कान छेदती रहती है. सारे चेहरे या तो कसे हुए हैं या सहमे हुए. यहां तक कि ललिता को भी मैं ने प्रतीक का मूड देख कर ही बात करते पाया. एक दिन मैं ने उस से कहा भी, ‘‘भाभीजी, आप अपनेआप को प्रतीक का अमला क्यों समझने लगी हैं?’’

‘‘क्या करूं, भाई साहब, इन का मूड देख कर ही बात करनी पड़ती है. भय लगा रहता है कि कहीं नौकरचाकरों या बच्चों के सामने ही लोई न उतार बैठें. इन का भी कुसूर नहीं है. हर वक्त ही तो कोई न कोई चिंता या जंजाल सिर पर सवार रहता है.’’

‘‘लेकिन यह तो अच्छी बात नहीं. आप का अपना अलग स्थान है. एकदम निजी और निराला.’’

‘‘आप नहीं समझेंगे, भाई साहब. दिन भर के थकेमांदे जब रात को ये बिस्तर पर गिरते हैं और पलक झपकते ही सो जाते हैं तो सचमुच ही बड़ी करुणा आती है मुझे. उस समय अपनी किसी परेशानी का रोना छेड़ना एक सोते बच्चे को जगाने जैसा अत्याचार लगता है.’’

करुणा तो मुझे मन ही मन इस महिला पर आ रही थी. लेकिन ललिता पुन: बोल पड़ी, ‘‘संसार में मुफ्त कुछ नहीं मिलता, भाई साहब. उच्च पद के लिए भी शायद कीमत चुकानी पड़ती है. कहीं न कहीं त्याग करना होता है.’’

‘‘क्षमा करें, लेकिन यह सब कर के आप प्रतीक की आदतें बिगाड़ रही हैं,’’ मुझे कहना ही पड़ा.

‘‘नहीं भाई साहब, मुझे बजाय संघर्ष के सामंजस्य का मार्ग सिखाया गया है. मेरी समझ में यही उपयुक्त है.’’

इस पूर्णविराम का मैं क्या उत्तर देता?

सुबह के नाश्ते के बाद मैं अपने कमरे में आ कर समाचारपत्र या कोई पुस्तक पढ़ने लगता और प्रतीक की मुलाकातें चालू हो जातीं. दोनों कमरों के बीच केवल एक परदे का अंतर होने के कारण मुझे अधिकांश बातचीत सुनने में कोई बाधा नहीं होती. विविध प्रकार की समस्याएं सुनने को मिलतीं. एक दिन शायद प्रतीक के दफ्तर का नाजिर कुछ रंगों के नमूने ले कर आया और उन्हें प्रतीक को दिखाते हुए बोला, ‘‘मेरी समझ में तो आप के कमरे के लिए हलका नीला रंग ही सब से अच्छा रहेगा.’’

‘‘तुम्हारी भी क्या गंवारू पसंद है. रिटायरिंग रूम में नीला रंग कितना वाहियात लगेगा. हलका पीला ठीक रहेगा.’’

‘‘जी, जो हुक्म. पीला तो और भी जंचेगा,’’ नाजिर हां में हां मिला कर चला गया.

इसी प्रकार एक दिन किसी गांव से आए मुलाकाती ने अपनी समस्या प्रस्तुत की, ‘‘साहब, लड़की का ब्याह है. चीनी मिल जाती तो कुछ मदद हो जाती.’’

‘‘जिला आपूर्ति अधिकारी के पास क्यों नहीं गए?’’

‘‘गया था, हुजूर. वह बोले कि 40 किलो से ज्यादा का परमिट वह नहीं दे सकते. लड़की की शादी में इतने से क्या होगा? उन्होंने बताया है कि ज्यादा का परमिट आप ही दे सकते हैं.’’

‘‘तब कितनी चाहिए?’’

‘‘एक बोरा भी मिल जाती तो कुछ काम चल जाता.’’

‘‘नहीं, एक बोरा तो नहीं, मैं 80 किलो लिख देता हूं. परमिट उसी दफ्तर से बनवा लेना.’’

‘‘जैसी सरकार की मर्जी,’’ अंतिम आदेश की आंच से अपनी मांग को सेंकता वह बिना कान खटकाए चला गया.

एक अन्य दिन कार्यालय के बड़े बाबू ने आ कर बताया, ‘‘साहब, कल रात त्रिलोकी बाबू गुजर गए.’’

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ. आज जब मैं दफ्तर पहुंचूं तो एक शोक सभा कर लेना और आधे दिन को दफ्तर बंद करने की घोषणा भी उसी वक्त कर दी जाएगी.’’

‘‘ठीक है, हुजूर,’’ और बड़े बाबू सलाम झुकाते चले गए.

शायद उस शाम प्रतीक को कहीं जाना भी नहीं था. रात को भोजन के समय मैं ने उसे कुरेदा, ‘‘आज सुबह तुम से कोई कह रहा था कि रात तुम्हारे दफ्तर के किसी बाबू की मृत्यु हो गई. मैं तो सोच रहा था कि शाम को तुम उस के घर संवेदना प्रकट करने जाओगे.’’

‘‘ऐसे मैं किसकिस के घर जाता फिरूंगा?’’ प्रतीक ने लापरवाही से उत्तर दिया.

‘‘खुशी के मौके पर एक बार न भी जाओ तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन शोक के अवसर पर जाने से तुम्हारी सहृदयता की छाप ही पड़ती. लोगों में तुम्हारे प्रति सुभावना ही उत्पन्न होती.’’

‘‘मैं इस सब की चिंता नहीं करता. दिन भर वैसे ही क्या कम झंझट रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो लगता है कि तुम एक मशीनी मानव बनते जा रहे हो. हर व्यक्ति इनसान से इनसानियत की आशा करता है. संवेदना प्रकट करना उसी का तो एक रूप है.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे मैं हर किसी को देखते ही दबोच कर कच्चा चबा जाता हूं.’’

‘‘चबाओ चाहे नहीं, लेकिन अपने मिलने वालों से व्यवहार तो तुम्हारा एकदम रूखा होता है, यह तो इतने दिनों से तुम्हारे मुलाकाती लोगों से हुई बातचीत को सुन कर मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं. तुम्हारे माली तक की इतनी हिम्मत नहीं कि तुम्हें बता सके कि छाया में आलू पैदा नहीं होता.’’

मैं ने गौर किया कि इस बीच ललिता 2 बार अपनी प्लेट से सिर उठा कर हम लोगों की ओर सशंकित दृष्टि उठा चुकी थी. प्रतीक अपना मोर्चा संभाले ही रहा, ‘‘हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो लेकिन मैं अपने को बदल नहीं सकता.’’

‘‘यह कैसी जिद हुई? अगर तुम्हें लगता है कि कोई आदत सही नहीं है तो उसे छोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है.’’

कुछ देर सभी चुपचाप खाना खाते रहे और केवल प्लेटों पर चम्मचों के टकराने की ध्वनि ही होती रही.

मैं ने ही उसे पुन: छेड़ा, ‘‘अच्छा यह बता कि तुम लोग सिनेमा देखने कितने दिनों से नहीं गए?’’

‘‘याद नहीं कितने दिन हो गए. ललिता, तुम बताओ कब गए थे?’’

ललिता का जैसे साहस जाग्रत हो गया था. फौरन बोली, ‘‘आप दिनों की बात करते हो? यहां तो महीनों हो गए,’’ फिर वह मेरी ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘एक तो इस छोटे शहर में लेदे कर कुल जमा 2 सिनेमाघर हैं और उन में भी एकदम पुरानी और सड़ी फिल्में आती हैं. लेकिन कभी जाने की सोचो तो भी प्रोग्राम तो बन जाएगा, टिकट भी आ जाएंगे. सिनेमा के मैनेजर का फोन भी आ जाएगा कि जल्दी आ जाइए फिल्म शुरू होने वाली है. लेकिन तभी इन का कोई जरूरी काम आ टपकेगा. कभी जरूरी मीटिंग होने वाली होगी, तो कभी मंत्रीजी आ टपकेंगे. बस, सिनेमा जाना मुल्तवी. हार कर मुझे ही मैनेजर से कहना पड़ता है कि नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘आप बच्चों को ले कर अकेली क्यों नहीं चली जातीं?’’ मैं ने ललिता से कहा.

‘‘यह मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर, भाई साहब, यह छोटी जगह है. लोग कई तरह की बातें करने लगेंगे. व्यर्थ में बदनामी मोल लेने से क्या फायदा?’’

‘‘अच्छा, भाभीजी, तो इस बात पर आप कल ही सिनेमा चलने का प्रोग्राम बनाइए. मैं भी चलूंगा. क्यों, प्रतीक, फिर रहा पक्का?’’

‘‘भाई, कल शाम तो क्लब की मीटिंग है. उस में जाना ही पड़ेगा वरना लोग कहेंगे कि मीटिंग छोड़ कर मौज उड़ाने सिनेमा चल दिए.’’

‘‘सुन, क्लब की मीटिंग तो तेरे बिना भी हो सकती है, फिर उस में गप्पें मारने और खानेपीने के सिवा और होता ही क्या है? अव्वल तो कोई तुम से पूछेगा नहीं और अगर पूछे भी तो कह देना कि एक जबरदस्त दोस्त जबरन सिनेमा घसीट ले गया.’’

अगले दिन वाकई सब लोग सिनेमा देख ही आए. कोई खास अच्छी फिल्म नहीं थी. लेकिन मैं ने देखा कि ललिता से ले कर बच्चों तक के चेहरों में नई चमक थी. और उस की हलकी परछाईं प्रतीक पर भी थी.

इसी के बाद दीवाली का त्योहार पड़ा. उस दिन ललिता ने रात के भोजन के लिए कई विशेष व्यंजन बनाए. नित्य की भांति हम सभी साथसाथ बैठे भोजन कर रहे थे. मुझे 1-2 वस्तुएं विशेष स्वादिष्ठ लगीं और मैं बोल पड़ा, ‘‘दही की पकौडि़यां बहुत बढि़या बनी हैं. बहुत ही मुलायम हैं. प्रतीक, तुझे अच्छी नहीं लगीं?’’

‘‘नहीं, बनी तो अच्छी हैं,’’ प्रतीक का उत्तर था.

‘‘तो फिर अभी तक तेरे मुंह से कुछ फूटा क्यों नहीं? क्या तेरे स्वादतंतु भी सूख गए हैं?’’

‘‘ललिता के हाथ की बनी हर चीज जायकेदार होती है. किसकिस चीज की तारीफ करता फिरूं?’’

‘‘लेकिन इस में तेरी गांठ का क्या निकल जाएगा, जो इतनी कंजूसी दिखाता है?’’

‘‘भाई, घर में यह चोंचलेबाजी मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘वाह, क्या अच्छी चीज को अच्छा कहने पर भी कर्फ्यू लगा रखा है?’’

दोनों छोटे बच्चे मुसकराने लगे और ललिता भी कुछ सकुचा गई.

तभी चपरासी ने एक तार ला कर प्रतीक को देते हुए कहा, ‘‘हुजूर, सरकारी नहीं है. साहब के नाम से है.’’

प्रतीक ने बिना खोले ही लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘देख तो क्या है?’’

तार पढ़ने के बाद उसे प्रतीक को थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुरंत चल दूं. आपरेशन से पहले तो हर हालत में पहुंचना ही होगा.’’

सभी शंकित दृष्टि से मेरे मुख की ओर देखने लगे और भोजन कुछ ही क्षणों में समाप्त हो गया.

प्रतीक मुझे स्टेशन छोड़ने आया. गाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर टहलते हुए वह मुझ से बोला, ‘‘उस रात तुम ने जो कहा था वह बराबर मेरे दिमाग में घुमड़ रहा है. मुझे तो ऐसा लगता है कि निरंतर ‘जीहुजूर’ और ‘जी सरकार’ के चापलूसी माहौल से घिरा मैं सचमुच ही इनसान से हैवान बनता जा रहा हूं. किसी कोने से भी तो इनकार की आवाज नहीं सुनता. सच, तेरा आना ऐसा लगा जैसे किसी ताजा हवा का झोंका जी को लहरा गया हो. सुन, वहां पहुंचते ही पिताजी की हालत के बारे में मुझे लिखना.’’

हम लोगों ने एकदूसरे के हाथ थाम लिए थे और 10 वर्ष पूर्व की स्नेहसिक्त भावनाओं से सराबोर हो रहे थे.

रूदन: क्या हुआ था नताशा के साथ

नतालिया इग्नातोवा या संक्षेप में नताशा मास्को विश्वविद्यालय में हिंदी की रीडर थी. उस के पति वहीं भारत विद्या विभाग के अध्यक्ष थे. पतिपत्नी दोनों मिलनसार, मेहनती और खुशमिजाज थे.

नताशा से अकसर फोन पर मेरी बात हो जाती थी. कभीकभी हमारी मुलाकात भी होती थी. वह हमेशा हिंदी की कोई न कोई दूभर समस्या मेरे पास ले कर आती जो विदेशी होने के कारण उसे पहाड़ जैसी लगती और मेरी मातृभाषा होने के कारण मुझे स्वाभाविक सी बात लगती. जैसे एक दिन उस ने पूछा कि रेलवे स्टेशन पर मैं उस से मिला या उस को मिला, क्या ठीक है और क्यों? आप बताइए जरा.

उस ने मुझे अपने संस्थान में 2-3 बार अतिथि प्रवक्ता के रूप में भी बुलाया था. मैं गया, उस के विद्यार्थियों से बात की. उसे अच्छा लगा और मुझे भी. मैं भी दूतावास के हिंदी से संबंधित कार्यक्रमों में उसे बुला लेता था.

नताशा मुझे दूतावास की दावतों में भी मिल जाती थी. जब भी दूतावास हिंदी से संबंधित कोई कार्यक्रम रखता, तो समय होने पर वह जरूर आती. कार्यक्रम के बाद जलपान की भी व्यवस्था रहती, जिस में वह भारतीय पकवानों का भरपूर आनंद लेती.

2-3 बार भारत हो आई नताशा को हिंदी से भी ज्यादा पंजाबी का ज्ञान था और वह बहुत फर्राटे से पंजाबी बोलती थी. दरअसल, शुरू में वह पंजाबी की ही प्रवक्ता थी, लेकिन बाद में जब विश्व- विद्यालय ने पंजाबी का पाठ्यक्रम बंद कर दिया तो वह हिंदी में चली आई.

रूस में अध्ययन व्यवस्था की यह एक खास विशेषता है कि व्यक्ति को कम से कम 2 कामों में प्रशिक्षण दिया जाता है. यदि एक काम में असफल हो गए तो दूसरा सही. इसलिए वहां आप को ऐसे डाक्टर मिल जाएंगे जो लेखापाल के कार्य में भी निपुण हैं.

हम दोनों की मित्रता हो गई थी. वह फोन पर घंटों बातें करती रहती. एक दिन फोन आया, तो वह बहुत उदास थी. बोली, ‘‘हमें अपना घर खाली करना होगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने पूछा, ‘‘क्या बेच दिया?’’

‘‘नहीं, किसी ने खरीद लिया,’’ उस ने बताया.

‘‘क्या मतलब? क्या दोनों ही अलगअलग बातें हैं?’’ मैं ने अपने मन की शंका जाहिर की.

‘‘हां,’’ उस ने हंस कर कहा, ‘‘वरना भाषा 2 अलगअलग अभि- व्यक्तियां क्यों रखती?’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ. वस्तुस्थिति को साफसाफ बताओ,’’ मैं ने नताशा से कहा था.

‘‘पहले यह बताइए कि पहेलियां कैसे बुझाई जाती हैं?’’ उस ने प्रश्न जड़ दिया, ‘‘मुझे आज तक समझ नहीं आया कि पहेलियां क्या जलती हैं जो बुझाई जाती हैं.’’

‘‘यहां बुझाने का मतलब मिटाना, खत्म करना नहीं है बल्कि हल करना, सुलझाना है,’’ मैं ने जल्दी से उस की शंका का समाधान किया और जिज्ञासा जाहिर की, ‘‘अब आप बताइए कि मकान का क्या चक्कर है?’’

‘‘यह बड़े दुख का विषय है,’’ उस ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तो आप को पहले ही बताया था कि मेरा मकान बहुत अच्छे इलाके में है और यहां मकानों के दाम बहुत ज्यादा हैं.’’

‘‘जी हां, मुझे याद है,’’ मैं ने कहा, ‘‘वही तो पूछ रहा हूं कि क्या अच्छे दाम ले कर बेच दिया.’’

‘‘नहीं, असल में एक आदमी ने मेरे मकान के बहुत कम दाम भिजवाए हैं और कहा है कि आप का मकान मैं ने खरीद लिया है,’’ उस ने रहस्य का परदाफाश किया.

‘‘अरे, क्या कोई जबरदस्ती है,’’ मैं ने उत्तेजित होते हुए कहा, ‘‘आप कह दीजिए कि मुझे मकान नहीं बेचना है.’’

‘‘बेचने का प्रश्न कहां है,’’ नताशा बुझे हुए स्वर में बोली, ‘‘यहां तो मकान जबरन खरीदा गया है.’’

‘‘लेकिन आप मकान खाली ही मत कीजिए,’’ मैं ने राह सुझाई.

‘‘आप तो दूतावास में हैं, इसलिए आप को यहां के माफिया से वास्ता नहीं पड़ता,’’ उस ने दर्द भरे स्वर में बताया, ‘‘हम आनाकानी करेंगे तो वे गुंडे भिजवा देंगे, मुझे या मेरे पति को तंग करेंगे. हमारा आनाजाना मुहाल कर देंगे, हमें पीट भी सकते हैं. मतलब यह कि या तो हम अपनी छीछालेदर करवा कर मकान छोड़ें या दिल पर पत्थर रख कर शांति से चले जाएं.’’

‘‘और अगर आप पुलिस में रिपोर्ट कर दें तो,’’ मुझे भय लगने लगा था, ‘‘क्या पुलिस मदद के लिए नहीं आएगी?’’

‘‘मकान का दाम पुलिस वाला ही ले कर आया था,’’ उस ने राज खोला, ‘‘बहुत मुश्किल है, प्रकाशजी, माफिया ने यहां पूरी जड़ें जमा रखी हैं. यह सरकार माफिया के लोगों की ही तो है. मास्को का जो मेयर है, वह भी तो माफिया डौन है. आप क्या समझते हैं कि रूस तरक्की क्यों नहीं करता? सरकार के पास पैसे पहुंचते ही नहीं. जनता और सरकार के बीच माफिया का समानांतर शासन चल रहा है. ऐसे में देश तरक्की करे, तो कैसे करे.’’

‘‘यह न केवल दुख का विषय है बल्कि बहुत डरावना भी है,’’ मुझे झुरझुरी सी हो आई.

‘‘देखिए, हम कितने बहादुर हैं जो इस वातावरण में भी जी रहे हैं,’’ नताशा ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा था.

मैं 1997 में जब मास्को पहुंचा था, तो एक डालर के बदले करीब 500 रूबल मिलते थे. साल भर बाद अचानक उन की मुद्रा तेजी से गिरने लगी. 7, 8, 11, 22 हजार तक यह 4-5 दिनों में पहुंच गई थी. देश भर में हायतौबा मच गई. दुकानों पर लोगों के हुजूम उमड़ पड़े, क्योंकि दामों में मुद्रा हृस के मुताबिक बढ़ोतरी नहीं हो पाई थी. सारे स्टोर खाली हो गए और आम रूसी का क्या हाल हुआ, वह तब पता चला जब नताशा से मुलाकात हुई.

नताशा ने मुझे बताया था कि अपने मकान से मिली राशि और अपनी जमापूंजी से वह एक मकान खरीद लेगी जो बहुत अच्छी जगह तो नहीं होगा पर सिर छिपाने के लिए जगह तो हो

ही जाएगी.

‘‘क्यों नया मकान खरीदा?’’ उस के दोबारा मिलने पर मैं ने पूछा.

मेरा सवाल सुन कर नताशा विद्रूप हंसी हंसने लगी. फिर अचानक रुक कर बोली, ‘‘जानते हैं यह मेरी जो हंसी है वह असल में मेरा रोना है. आप के सामने रो नहीं सकती, इसलिए हंस रही हूं. वरना जी तो चाहता है कि जोरजोर से बुक्का फाड़ कर रोऊं,’’ वह रुकी और ठंडी आह भर कर फिर बोली, ‘‘और रोए भी कोई कितना. अब तो आंसू भी सूख चुके हैं.’’

मैं समझ गया कि मामला कुछ रूबल की घटती कीमत से ही जुड़ा होगा. मकानों के दाम बढ़ गए होंगे और नताशा के पैसे कम पड़ गए होंगे. मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था, चुप रहा.

‘‘आप जानते हैं, राज्य का क्या मतलब होता है? हमें बताया जाता है कि राज्य लोगों की मदद के लिए है, समाज में व्यवस्था के लिए है, समाज के कल्याण के लिए है. यह हमारा, हमारे लिए, हमारे द्वारा बनाया गया राज्य है. लेकिन अगर आप ने इतिहास पढ़ा हो तो आप को पता चलेगा कि राज्य व्यवस्था का निर्माण दरअसल, लोगों के शोषण और उन पर शासन के लिए हुआ था? इसलिए हम जो यह खुशीखुशी वोट देने चल देते हैं, उस का मतलब सिर्फ इतना भर है कि हम अपनी इच्छा से अपना शोषण चुन रहे हैं.’’

नताशा बोलती रही, मैं ने उसे बोलने दिया क्योंकि मेरे टोकने का कोई औचित्य नहीं था और मुझे लगा कि बोल लेने से संभवत: उस का दुख कम होगा.

‘‘आप शायद नहीं जानते कि कल तक हमारे पास 80 हजार रूबल थे, जो हम ने अतिरिक्त काम कर के पेट काटकाट कर, पैदल चल कर, खुद सामान ढो कर और इसी तरह कष्ट उठा कर जमा किए थे. सोचा था कि एक कार खरीदेंगे पर जब उन हरामजादों ने हमारा मकान छीन लिया, तो सोचा कि चलो अभी मकान ही खरीदा जाए,’’ नताशा बातचीत के दौरान निस्संकोच गालियां देती थी जो उस के मुंह से अच्छी भी लगती थीं और उस के दुख की गहराई को भी जाहिर करती थीं, ‘‘पर हमें 2 दिन की देर हो गई और अब पता चला कि देर नहीं हुई, बल्कि देर की गई. हम तो सब पैसा तैयार कर चुके थे. लेकिन मकानमालिक को वह सब पता था, जो हमारे लिए आश्चर्य बन कर आया, इसलिए उस ने पैसा नहीं लिया.’’

नताशा ने रुक कर लंबी सांस ली और आगे कहा, ‘‘आप जानते हैं, यह मुद्रा हृस कब हुआ? यह अचानक नहीं हुआ, उन कुत्तों ने अपने सब रूबल डालर में बदल लिए या संपत्ति खरीद ली और फिर करवा दिया मुद्रा हृस. भुगतें लोग. रोएं अपनी किस्मत को,’’ इतना कह कर वह सचमुच रोने को हो आई, फिर अचानक हंसने लगी. बोली, ‘‘जाने क्यों, मैं, आप को यह सब सुना कर दुखी कर रही हूं,’’ उस ने फिर कहा, ‘‘शायद सहकर्मी होने का फायदा उठा रही हूं. जानते हैं न कि जिन रूबलों से मकान लिया जा सकता था वे अब एक महीने के किराए के लिए भी काफी नहीं हैं.’’

उस ने फीकी हंसी हंस कर फिर कहा, ‘‘और व्यवस्था पूरी थी. बैंक बंद कर दिए गए. लोग बैंकों के सामने लंबी कतारों में घंटों खड़े रहे. किसी को थोड़े रूबल दे दिए गए और फिर बैंकों को दिवालिया घोषित कर दिया गया. लोग सड़कों पर ही बाल नोचते, कपड़े फाड़ते देखे गए. लेकिन किसी का नुकसान ही तो दूसरे का फायदा होगा. यह दुनिया का नियम है.’’

ऐसा तो नहीं सोचा था

‘‘फोन की घंटी बज रही है, उठो,’’ सुबह का समय है, सर्दियों के दिन हैं. इस समय गरमगरम रजाई से निकल कर फोन उठाना एक आफत का काम है. मोबाइल में सिगनल नदारद रहता है तब पुराना लैंडलाइन फोन ही काम आता है. पति को सोता देख कर झल्ला कर ममता को ही उठ कर फोन उठाना पड़ा. हालांकि ममता को मालूम था, आज रविवार सुबह बच्चों का ही फोन होगा. अब किस का होगा, यह तो फोन उठाने पर ही मालूम होगा.

ममता ने फोन उठाया और बातों में मशगूल हो गई. आज उस की बेटी सुकन्या का फोन था. उस से ढेरों बातें होने लगीं. बृजमोहन भी उठ कर आ गए, फिर बेटी और दामाद से उन की भी बातें हुईं. आखिर घूमफिर कर वही बातें होती हैं, क्या हाल है? बच्चे कैसे हैं? छुट्टी में इंडिया आओगे? आज कौन सी दालसब्जी बनी है या बनेगी? मौसम का क्या हाल है?

पड़ोसियों की शिकायत, सब यही कुछ. सुकन्या को भी पड़ोसियों की बातें सुनने में

मजा आता था. ममता भी वही बातें दोहराती,

सारी पड़ोसिनें जलती हैं. पूरा 1 घंटा ममता और बृजमोहन का व्यतीत हो गया. सुबह 6 से 7 बज गए.

ममता और बृजमोहन के 3 बच्चे, सब से बड़ी लड़की सुकन्या फिर छोटे लड़का गौरव और फिर सौरभ. सभी अमेरिका में सैटल हैं. सभी शादीशुदा अपने बच्चों के साथ अमेरिका के विभिन्न शहरों में बसे हुए हैं.

सुकन्या खूबसूरत थी. एक पारिवारिक विवाह में दूर के रिश्ते में अमेरिका में बसे लड़के को पहली नजर में भा गई और फिर विवाह के बाद अमेरिका चली गई. कुछ समय बाद दोनों लड़के भी अमेरिका सैटल हो गए.

अब ममता और बृजमोहन दिल्ली में अकेले एक तिमंजिला मकान में रह रहे हैं. आर्थिक रूप से संपन्न बृजमोहन की कपड़े की दुकान थी जिसे वे आज भी चला रहे हैं. कभीकभी बच्चे मिलने आ जाते हैं और कभी वे बच्चों के पास मिलने चले जाते हैं.

अब बिना किसी बंधन के अकेले रहने का सुख भी बहुत है. ममता कुछ नखरैल अधिक हो गई. जब आर्थिक संपन्नता हो तब चिंता किस बात की.

बृजमोहन का हर सुबह कालोनी के मंदिर जाने की दिनचर्या है. अकेले समय भी काटना है, मंदिर में चंदा दे दिया और धार्मिक कार्यों में मुख्य अतिथि का तमगा मिल जाता.

‘‘पंडित रामराम,’’ मंदिर में घुसते ही बृजमोहन ने आवाज दी.

‘‘रामराम सेठजी,’’ पंडित भी आरती के बीच में बोल पड़ा. मंदिर में उपस्थित श्रद्धालुओं में कुछ मुसकरा दिए और कुछ की भृकुटियां तन गईं. यह क्या? सेठ होगा अपने घर में. मंदिर में भगवान के आगे सब बराबर हैं. चंदा ज्यादा देता है, इस का यह मतलब तो नहीं आरती में विघ्न डालेगा. आरती के बाद बात नहीं कर सकता है. पंडित को चंदा चाहिए, प्रभु की प्रतिमा से चंदा मिलेगा नहीं, देना सेठ ने है, अब उन की कुछ तो जीहुजूरी बनती है.

‘जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी,’ सेठ जी नवरात्रि आ रही हैं, पूरे मंदिर को लाइट्स से रोशन करना है.

‘‘सम?ा हो गया पंडित. लाइट्स मेरी तरफ से. अभी ताजेताजे डौलर आए हैं. डौलर भी महंगा है,’’ बृजमोहन सब को यह जताना चाहते हैं, लड़के ने कल ही डालरों की एक खेप भेजी है. उन के लड़के कितना खयाल रखते हैं.

‘‘‘मांग सिंदूर विराजत टीको मृदमद को,’ सेठजी भंडारा भी हर रोज होगा.’’

‘‘पंडित, मेरी जेब काट ले, सबकुछ मेरे से करवाएगा? भंडारे का नहीं दूंगा. लाइट्स लगवा रहा हूं वह क्या कम है?’’ बृजमोहन ने दो टूक मना कर दिया. पैसों के बड़े पक्का इंसान थे. पाईपाई का हिसाब रखते थे.

‘‘‘चंड मुंड संहारे शोणित बीज हरे,’ सेठजी हर शाम मंदिर में कीर्तन भी होगा.’’

‘‘पंडित कर कीर्तन, तेरा काम है. मैं तो कीर्तन करूंगा नहीं?’’ बृजमोहन ने आरती में सुर लगाया.

‘‘‘तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता,’ सेठजी माता रानी से डरो, तुम ही भरता हो, कीर्तन के बाद प्रसाद भी बांटना है,’’ पंडित उन की जेब ढीली करवाने पर तुला था.

‘‘‘कहत शिवानंद स्वामी, सुख संपत्ति पावे,’ सेठजी और डौलर आएंगे, प्रसाद का प्रबंध तो आप के जिम्मे है,’’ पंडित भी कौन से कम होते हैं, उन को भी हजार तरीके आते हैं.

‘‘पंडित अष्ठमी वाले कीर्तन का प्रसाद दे दूंगा. तू भी क्या याद करेगा पंडित, किसी रईस से पाला पड़ा है.’’

आरती समाप्ति के बाद पंडित ने मुंह ही मुंह में कहा, ‘‘इन की जेब से पैसे निकलवाने का मतलब ऐवरैस्ट की चोटी पर चढ़ने के बराबर है.

मंदिर में पंडित और अन्य श्रद्धालुओं के साथ कुछ बातचीत, कुछ गपशप लगाने के बाद बृजमोहन घर वापस आए और नाश्ता करने के बाद कालोनी के पार्क में चक्कर लगाने चले गए. शाम के समय 1-1 कर के बेटों का फोन आया. ममता ने नवरात्रि पर पूजाअर्चना की विशेष हिदायत दी.

‘‘चलो कोटपैंट पहन लो, रविवार छुट्टी के दिन घर पर डिनर नहीं करना है,’’ ममता ने और्डर दे दिया.

हर रविवार शाम को मौल घूम कर रैस्टोरैंट में डिनर करना उन की आदत थी. सिर्फ 2 जने. उम्र 70 के करीब, खुद कार चला कर मौल जाते हैं. लौटते समय कार ट्रैफिक सिगनल पर बंद हो गई. ग्रीन लाइट हुई, तब स्टार्ट करने में दिक्कत हुई. पीछे खड़े वाहनों ने बारबार हौर्न बजाने चालू कर दिए.

‘‘देखो इस खटारा को बदल दो. एक बार बंद हो जाए तब स्टार्ट ही नहीं होती है. हमारी लाइन में सब के पास चमचमाती नई कारें हैं,

बड़ी वाली और हम खटारा ले कर घूम रहे हैं. मैं पड़ोस में और हंसी नहीं उड़वा सकती हूं. देखो अगले हफ्ते से नवरात्रि आरंभ हो रहे हैं.

नई कार घर में आनी चाहिए और वह भी बड़ी वाली.’’ बृजमोहन दुनिया के आगे अपनी जेब सिल कर रखते थे, परंतु परमप्रिय ममता के आगे सदा खुली रहती थी. बिलकुल चूंचपड़ नहीं करते थे.

जब 4-5 सैल्फ मारने पर कार स्टार्ट हुई, बृजमोहन ने पक्का वाला प्रौमिस कर दिया, ‘‘बिलकुल ममता, इस बार बड़ी वाली कार खरीदते हैं.’’

पिछले 15 वर्ष से बच्चों से अलग रह रहे ममता और बृजमोहन को अकेले रहना रस आने लगा था.

न बच्चों की चिकचिक न कोई बंधन, जो दिल में हो, करो. संपूर्ण आजादी में रह रहे दंपती को किसी का दखल पसंद नहीं था.

बृजमोहन और ममता बेफिक्र आजादी के संग अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. आराम से सुबह उठना, पार्क में सुबह की सैर करना उन की दिनचर्या थी. ममता अपनी किट्टी पार्टी में मस्त रहती. बृजमोहन आराम से 11 बजे दुकान जाने के लिए निकलते थे. उन के बच्चे उन को डौलर भेजते थे फिर भी अपनी दुकान बंद नहीं की. आरामपरस्त होने के कारण उन की दुकानदारी कम हो गई थी, किंतु उन को इस की कोई चिंता नहीं थी. एक पुराना विश्वासपात्र नौकर था. वही दुकान संभालता था. पड़ोस के दुकानदार उस से कहते कि असली मालिक तो तू ही है. देख लेना, मरने पर दुकान तेरे नाम लिख कर जाएंगे.

नौकर भी हंस देता. मजाक करने का कोई टैक्स नहीं लगता है. एक बात पक्की है, बृजमोहन दुकान को अपने साथ बांध कर ले जाएंगे. नौकर अपने मालिक की हर रग से वाकिफ था.

हर जगह सुपर मार्केट और स्टोर खुलने से महल्ले की छोटी परचून की दुकानों का कामधंधा गिरने लगा. आज की युवा पीढ़ी हर छोटे से बड़ा सामान औनलाइन खरीदती है. ऊपर से इन सुपर स्टोर्स ने छोटी दुकानों का धंधा लगभग चौपट ही कर दिया. इसी कारण बृजमोहन के मकान के करीब एक परचून की दुकान बंद हो गई.

एक शाम बृजमोहन अपनी दुकान से लौटे तो उस परचून के मालिक ने बृजमोहन को लपक कर पकड़ लिया, ‘‘सेठजी, रामराम.’’

‘‘रामराम तो ठीक है, तूने दुकान बंद क्यों कर रखी है? पहले तो रात के 10 बजे तक दुकान खोलता था?’’

‘‘अब क्या बताऊं सेठजी, इन औनलाइन और सुपर स्टोर्स की वजह से धंधा चौपट हो गया. दुकान बंद कर दी है. सारा स्टाक खरीद रेट पर बेच रहा हूं. खरीद लो, आप का फायदा ही सोच रहा हूं.’’

बृजमोहन ने सस्ते में 2 महीने का राशन खरीद लिया.

ममता राशन समेटने में लग गई, ‘‘किस ने कहा था, उस की दुकान खरीद लो. 2 महीने का राशन जमा हो गया है. हम 2 जने हैं, हमारे से अधिक तो चूहे खा जाएंगे. असली मौज तो उन की लगेगी,’’ ममता ने तुनक कर कहा.

‘‘भाग्यवान, आधे दाम पर सारा सामान खरीदा है, थोड़ा चूहे खा भी जाएंगे तब भी शुद्ध लाभ ही होगा. खाने दो चूहों को, अब क्या करें, ऐसा सौदा हर रोज नहीं मिलता.’’

‘‘हम दो जने हैं, कितना खाएंगे? चूहों की मौज रहेगी.’’

ममता बृजमोहन की कंजूसी पर परेशान रहती थी. जब बच्चे डालर भेजते हैं तब आराम

से बुढ़ापे में ऐश से रहें. इसी कारण ममता टोकाटाकी करती थी, जिस से बृजमोहन परेशान हो जाते थे.

सस्ता राशन खरीद कर बृजमोहन अपनी ताल खुद ठोंक रहे थे. ममता इस बात पर परेशान थी, कामवाली बाई 2 दिन से नहीं आ रही है. सारा राशन कौन संभालेगा. किसी नए नौकर को घर में कैसे घुसा लें? खैर, कामवाली बाई 2 दिन छुट्टी की बोल गई, 1 हफ्ते बाद आई. 1 सप्ताह ममता का भेजा एकदम फ्राई ही रहा.

बृजमोहन को इस का यह लाभ मिला कि ममता नई कार खरीदना भूल गई. ममता का भेजा बच्चों से फोन पर बात कर के खुश हो गया. वे कुशलमंगल हैं और अपनी कामवाली का नहीं आना भी भूल सी गई.

दोनों का जीवन सरलता से बीत रहा था. दिन बीतते गए लेकिन उम्र ंका तकाजा था जो कभी नहीं सोचा था, वही हो गया.

एक रात नींद में बृजमोहन को बेचैनी महसूस हुई और इससे पहले वे पास लेटी ममता को हाथ लगाता या फिर आवाज दे कर पुकारता, उस की जीवनलीला समाप्त हो गई. थोड़ी नींद खुली, थोड़ी तड़पन हुई और फिर जीवनसाथी को छोड़ दूसरे लोक की सैर को निकल पड़े.

ममता ने यह कभी नहीं सोचा था. अभी तो वह नींद में थी. उस का जीवनसाथी अब उस का नहीं रहा, इस का इल्म उस को नहीं था. 70 की उम्र में रात को 2-3 बार नींद खुलती है, करवट बदल कर देखा, बृजमोहन सो रहा है, बस इतना पूछा, ‘‘सो रहे हो?’’ बिना कोई उत्तर सुने फिर आंखें बंद कर लेती, यही हर रात की कहानी थी.

ममता सुबह उठी, नित्यक्रिया से निबट कर चाय बनाई और बृजमोहन को आवाज दी, ‘‘उठो.’’

बृजमोहन नहीं उठा. ममता ने हाथ लगाया, बृजमोहन का मुंह खुला था, कोई सांस नहीं, उस का कलेजा धक से थम गया.

‘‘बृज क्या हुआ? बृज,’’ लेकिन बृज का शरीर अकड़ गया था. बदहवास ममता घर से बाहर आई और पड़ोस का दरवाजा खटखटाया.

बदहवास ममता को देख पड़ोसी रमन घबरा गया ‘‘क्या हुआ भाभी जी?’’

‘‘भाई साहब इन को देखो, मालूम नहीं क्या हुआ है, बोल ही नहीं रहे हैं.’’

रमन तुरंत ममता के संग हो लिए. बृज को देखते ही उन्होंने तुरंत अस्पताल फोन कर के ऐंबुलैंस बुलाई. अस्पताल जाना मात्र औपचारिकता ही थीं. तुरंत ईसीजी कर के आईसीयू में डाल दिया.

अस्पताल के वेटिंगरूम में अकेली बैठी ममता आंसुओं में डूबी सोच रही थी. ऐसा नहीं सोचा था, बृज की यह हालत होगी और मैं अकेली कुछ करने में भी असमर्थ हूं. कोई साथ नहीं है. 3 बच्चे हैं, 2 बहुएं, 1 दामाद, 6 पोते, पोतियां, दोतेदोतियां, इस दुख की घड़ी में कोई साथ नहीं है. अकेली किस को पुकारे. बच्चे बाहर विदेश में सैटल हैं, खुश थी, बूढ़ाबूढ़ी पिछले 15 वर्षों से बिना रोकटोक के आनंद से जी रहे थे.

बृज को हार्ट अटैक हुआ था और चुपचाप चल बसा. अस्पताल ने पूरा एक दिन रोक लिया और रात को उस की मृत्यु घोषित की. पड़ोसी रमन ने अस्पताल में 2 चक्कर लगा कर चाय खाना ममता को दिया.

2 पड़ोसी और भी ममता से हालचाल पूछने आ गए. नहीं था तो कोई अपना. जिस आजादी को वह अपनी जीत सम?ाती थी, वह आज पराजय थी. ममता ने बच्चों को सूचना दी. बच्चे 7 समंदर पार से सिर्फ सांत्वना ही दे सकते थे. कोई इस संकट की घड़ी में उस की मदद के लिए 7 समंदर पार से उड़ कर आ नहीं सकता था. पड़ोसी अवश्य उन के संग खड़े थे. पड़ोसियों संग रोतीबिलखती ममता घर आ गई.

ममता ने बच्चों को फोन किया. बड़े लड़के गौरव ने आने का तुरंत कार्यक्रम बनाया. किसी भी हालात में वह 2 दिन से पहले नहीं आ सकता था. ममता और बृजमोहन, दोनों की बहनें शहर में रहती थीं, वे ममता के पास पहुंचीं और सांत्वना दी.

रात के अंधेरे में ममता अपने बिस्तर पर लेटे रोती जा रही थी. ऐसा तो नहीं सोचा था. ऐसा समय अचानक से आ जाएगा और कोई अपना साथ नहीं होगा. बहनें भी सिर्फ दिखावे के आंसू बहा रही थीं. ममता चिल्लाए जा रही थी, ‘‘इतना बड़ा परिवार है, बच्चे पास नहीं. भाई, बहन, कोई सगा नहीं. क्या जमाना आ गया है? मुसीबत की घड़ी में सिर्फ नाममात्र का दिखावा. हिम्मत देने वाला कोई बच्चा भी नहीं है. ऐसा तो नहीं सोचा था. आगे का जीवन कैसे कटेगा?’’

रात के सन्नाटे में ममता की आवाज बहनों के कानों में पड़ रही थी, लेकिन वे मन ही मन मुसकरा रही थीं, यहां अकेले रह कर खूब मजे लिए. हम पर रोब झड़ती थी कि बच्चे डौलर भेज रहे हैं. डौलर के साथ रहो. कितनी बार कहा था, बच्चों के साथ अमेरिका रहों लेकिन आजाद जीवन प्यारा था. हम क्या करें? हमारा नाता तो केवल श्मशान तक का है. उस के बाद इस नखरैल के साथ कौन रहेगा? बुढ़ापे में भी पूरी आजादी चाहिए. बच्चों संग नहीं रहना. हर किसी पर रोब झड़ना है.

तीसरे दिन उस का लड़का गौरव अमेरिका से आया. उस की बहू और परिवार का अन्य सदस्य नहीं आया. सीधे एअरपोर्ट से अस्पताल. मृत देह का श्मशान ले जा कर अंतिम संस्कार किया. घर

पहुंच कर ममता से कहा, ‘‘चलो मां, मेरे साथ चलो. मैं टिकट ले कर आया हूं. तुम्हारा वीजा अभी 1 महीने तक वैध है. वहां बढ़ जाएगा.’’

‘‘क्रिया यहां कर ले, फिर चलती हूं,’’ ममता की आंखों से गंगाजमुना बह रही थी कि वह बस यही बुदबुदा रही थी. ऐसा तो नहीं सोचा था. आजादी चली जाएगी. अकेली रह जाऊंगी. मालूम नहीं अमेरिका में बच्चे कैसा व्यवहार करेंगे.

खुशामद का कलाकंद: क्या आप में है ये हुनर

जीवन जीना अपनेआप में एक कला है. जिसे यह कलाकारी नहीं आती वह बेचारा कुछ इस तरह से जीता है कि उसे देख कर कोई भी कह सकता है, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू.’ सफलतापूर्वक जीवन जीने वाले नंबर एक के कलाकार होते हैं. उन के सामने हर बड़े से बड़ा कलाकार पानी भरता नजर आता है. चमचागीरी या खुशामद करना शाश्वत कला है और जिस ने इस कला में स्वर्ण पदक प्राप्त कर लिया या फिर जिसे ‘पासिंग मार्क’ भी मिल गया, तो उस की जिंदगी आराम से गुजर जाती है. खुशामद इस वक्त राष्ट्र की मुख्य धारा में है. इस धारा में बहने वाले के हिस्से की सुखसुविधाएं खुदबखुद दौड़ी चली आती हैं. हमारे मित्र छदामीजी कहां से कहां पहुंच गए. साइकिल पर चलते थे, आज कार में चलते हैं. यह खुशामद का ही चमत्कार है. खुशामद की कला के विशेषज्ञ हर कहीं पाए जाते हैं. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक खुशामद करने वालों की भरमार है.

दरअसल, जीवन की हर सांस खुशामद की कर्जदार है. खुशामद और चमचागीरी में बड़ा बारीक सा अंतर है. चमचागीरी बदनामशुदा शब्द है, खुशामद अभी उतना बदनाम नहीं हुआ है, इसलिए लोग चमचागीरी तो करते हैं, लेकिन सफाई देते हैं कि भई थोड़ी सी खुशामद कर दी तो क्या बिगड़ गया. खुशामद कामधेनु गाय है, जिस की पूंछ पकड़ क र जाने कितने गधे घोड़े बन कर दौड़ रहे हैं. पद, पैसा या सुख आदि पाने की ललक में लोग खुशामद जैसे सात्विक हथियार का सहारा लेते हैं. खुशामद एक तरह का अहिंसक हथियार है. सोचता हूं कि खुशामद की कला का इस्तेमाल कर के अगर कोई कुछ प्राप्त कर ले तो क्या बुराई है? यह तो जीवन जीने की कला है. इस के बिना आप जहां हैं, वहीं पड़े रह जाएंगे. जो लोग सड़ना नहीं चाहते हैं, वे कुछ करने के लिए खुशामद का सहारा ले कर आगे बढ़ते हैं. इस के लिए पावरफुल लोगों का सम्मान करो, अकारण दाएंबाएं होते रहो, अभिनंदन करो और ऐश करो.  पिछले दिनों ऐसे ही एक सज्जन के बारे में पता चला. जब देखो वह आयोजनों में भिड़े रहते थे. मुझे लगा, बड़े महान प्राणी हैं. बड़े बिजी रहते हैं. देश और समाज की चिंता में निरंतर मोटे भी होते जा रहे हैं. यह देख कर मैं उन के नागरिक अभिनंदन के ‘मूड’ में आ गया. मैं उन से टाइम लेने जा रहा था कि रास्ते में एक महोदय मिल गए. पूछा, ‘‘कहां चल दिए?’’

मैं ने कहा, ‘‘फलानेजी का सम्मान करना चाहता हूं.’’ मेरी बात को सुन कर महोदय हंस पड़े तो मैं चौंका. मैं ने कहा, ‘‘हंसने की क्या बात है? फलानेजी समाजसेवी हैं. चौबीसों घंटे कुछ न कुछ करते रहते हैं. ऐसे लोगों का अभिनंदन तो होना ही चाहिए.’’ महोदय बोले, ‘‘चलिए, मैं सज्जन की पोल खोलता हूं, तब भी आप को लगे कि उन का अभिनंदन होना चाहिए तो ठीक है.’’ मेरे कान खड़े हो गए. महोदय बताने लगे कि इन्होंने पिछले साल मजदूरों का एक सम्मेलन करवाया था. खूब चंदा एकत्र किया. एक मंत्री को बुलवा कर भाषण भी करवा दिया. सम्मेलन के बाद उन्हें 2 फायदे हुए, मंत्रीजी ने उन्हें एक समिति का सदस्य बनवा दिया और उन के घर पर दूसरी मंजिल भी तन गई. यह सज्जन हर दूसरे दिन किसी मंत्री का, किसी विधायक का या किसी अफसर का अभिनंदन करते रहते हैं. ऐसा करने से लोगों में धाक जमती चली जाती है. पावरफुल आत्माओं से निकटता बढ़ती है तो सुविधाओं की गंगा अपनेआप बहने लगती है. देखते ही देखते कंगाल भी मालामाल हो जाता है. महोदय की बातें सुन कर मेरा माथा घूम गया और मैं ने अभिनंदन वाला आइडिया ड्राप कर दिया. अब यह और बात है कि सज्जन अपना अभिनंदन कराने के लिए मेरी खुशामद पर आमादा हैं तो भाई साहब, खुशामद के एक से एक रूप हैं, जुआ की तरह.

हम और आप कर रहे होते हैं और हमें पता नहीं चलता कि खुशामद कर रहे हैं, इसलिए कदम फूंकफूंक कर रखिए, वरना कब खुशामद की कीचड़ आप के मुंह पर लग जाए, कहना कठिन है. खुशामद की कला को अब तो सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई है. इसे क्या कहें जो खुशामद के जरिए घरपरिवार को खुश रखता है. उस की आमद भी सब को खुश कर देती है, लेकिन जो खुशामद से दूर रहता है, उस की आमद घर वालों को नागवार गुजरने लगती है. हर कोई मुंह बनाते हुए बड़बड़ाता है, ‘आ गया आदर्शवादी, हुंह.’ तो साहबान, खुशामद ही जीवन का सार है. घरबाहर अगर इज्जत चाहिए तो खुशामदखोरों की बिरादारी में शामिल हो जाइए. खुशामद की कला में माहिर आदमी का बी.ए. पास होना भी जरूरी नहीं. आप खुशामद पास हैं तो कहीं भी टिक सकते हैं.  समाजवाद, पूंजीवाद, अध्यात्मवाद और बाजारवाद, न जाने कितने तो वाद हैं. सब का अपनाअपना महत्त्व है, लेकिन आजकल के जमाने में ‘खुशामदवाद’ तो वादों का वाद है. सारे वाद बारबार खुशामदवाद एक बार. एक बार जो खुशामद की सुरंग में घुसा, वह मालामाल हो कर ही लौटा. यह और बात है कि आत्मा पर थोड़ी कालिख पुत जाती है, लेकिन उस को क्या देखना? जिस ने की शरम, उस के फूटे करम. आत्मा के चक्कर में न जाने कितने महात्माओं ने आत्महत्याएं कर लीं, इसलिए आत्मा को घर के पिछवाड़े में कहीं दफन कर के खुशामदवाद का सहारा लो. इस दिशा में जिस ने भी कदम बढ़ाए हैं, वह जीवन भर सुखी रहा है, इसीलिए तो धीरेधीरे खुशामद लोकप्रिय कला बनती जा रही है और जब कला बन रही है या बन चुकी है तो इस का पाठ्यक्रम भी तैयार कर दिया जाना चाहिए. किसी की प्रशस्ति में गीत, कविता लिखना, चालीसा लिखना, क्या है? मतलब यह कि साहित्य में खुशामद कला ने घुसपैठ कर ली है. आजकल विश्वविद्यालयों में नएनए पाठ्यक्रमों की पढ़ाई शुरू हो रही है. फलाना मैनेजमेंट, ढिकाना मैनेजमेंट तो खुशामद मैनेजमेंट का नया कोर्स भी शुरू हो जाए. इस का बाकायदा ‘पाठ्यक्रम’ तैयार हो. सुव्यवस्थित तरीके से यह कोर्स लांच हो. इस के पढ़ाने वाले सैकड़ों इस शहर में मिल जाएंगे. ऐसे लोगों की तलाश की जाए जो ‘खुशामद वाचस्पति’ हों, ‘खुशामदश्री’ खुशामद कला में पीएच.डी. की उपाधि भी दी जा सकती है और यह मानद भी हो सकती है. आप के शहर में ऐसी प्रतिभाओं की कमी नहीं होगी. इधर तो खुशामद की प्रतिभा से लबालब लोगों की ऐसी नस्लें लहलहा रही हैं कि मत पूछिए. इसलिए समय के साथ दौड़ने वालों को इस सुझाव पर विचार करना चाहिए, क्योंकि यह सदी खुशामद को कला बनाने पर उतारू होने की सदी है, जो कोई खुशामद के विरोध में खड़ा हो, वह धकिया दिया जाएगा. वक्त के साथ चलो, खुशामद के साथ चलो.

छदामीजी हर दूसरे दिन अभिनंदन करते हैं. अभिनंदन प्रतिभाशाली लोगों का हो तो कोई बात नहीं, लेकिन अब ऐसे लोगों का अभिनंदन करता ही कौन है? अभिनंदन होता है मंत्री, नेता या अफसरों का या फिर ऐसे व्यक्ति का जिस के सहारे सुविधाओं के टुकड़े प्राप्त हो जाएं.  अभिनंदन करना भी खुशामद का ही एक तरीका है. कुछ लोग जीवन भर इसी को पवित्र काम मान कर दिनरात भिड़े रहते हैं. अभिनंदन करना और अभिनंदन कराना ऐसा शौक है कि मत पूछिए. जिसे इस का चस्का लगा, वह गया काम से. अभिनंदन के बगैर वह ठीक उसी तरह तड़पता है, जिस तरह मछली पानी के बगैर. खुशामद करना और खुशामदपसंद होना सब के बस की बात भी तो नहीं है. खुशामदपसंद आदमी की चमड़ी मोटी होनी चाहिए और जेब भी हर वक्त ‘भरी’ रहे. जब तक जेब भरी रहेगी, अभिनंदन या सम्मान की झड़ी रहेगी. खुशामद करने वाला कंगाल हो तो चलेगा, लेकिन खुशामदपसंद का मालामाल होना जरूरी है. ऐसी जब 2 आत्माएं मिलती हैं, तब यही गीत बजना चाहिए, ‘दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात.’ सोचिए, खुशामद कितनी बड़ी चीज है कि इस नाचीज को इस पर कागज काले करने पड़ रहे हैं, लेकिन हालत यह है कि मर्ज बढ़ता गया ज्योंज्यों दवा की. खुशामद को ले कर आप लाख नाराजगी जाहिर करें, यह खत्म होने से रही. यह तो द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती जा रही है, और क्यों न बढ़े साहब? जब हर दूसरातीसरा शख्स इस कला में हाथ आजमा रहा है, तब आप क्या कर लेंगे? आप को इस कला से प्रेम नहीं है तो न सही, और दूसरे लोग तो हैं, जिन की गाड़ी खुशामद के भरोसे ही चलती है. सत्ता के गलियारों में जा कर देखिए, खुशामद करने वाले कीड़ेमकोड़े की तरह बिलबिलाते हुए मिल जाएंगे. वक्त की मार केवल मूर्तियों या स्मारकों पर ही नहीं पड़ती, शब्दों पर भी पड़ती है. ‘खुशआमद’ ऐसा बदनाम हो गया है कि शब्द का प्रयोग करते हुए डर लगता है. किसी को ‘नेताजी’ कह दो, ‘गुरु’ कह दो तो लगता है, व्यंग्य किया जा रहा है. खुशामद शब्द का यही हाल है लेकिन हाल है तो है. अब तो इसे लोग कला बनाने पर तुले हुए हैं.

वक्तवक्त की बात है, इसलिए साहेबान, मेहरबान, कद्रदान, वक्त की धड़कन को सुनो और इस नई कला को गुनो. सफल होना है तो खुशामद ही अंतिम चारा है. बिना खुशामद के हर कोई बेचारा है. यह और बात है कि जो इस जीवन को संघर्षों के बीच ही जीने के आदी हैं, जिन को मुसीबत झेलने में ही मजा आता है, जो सूखी रोटी खा कर, ठंडा पानी पी कर भी खुश रहते हैं, उन के लिए खुशामद कला विषकन्या के समान त्याज्य है, लेकिन जिन को ऐसेवैसे कैसे भी चाहिए सुविधा सम्मान और पैसे, वे खुशामद के बिना एक कदम नहीं चल सकते. ऐसे लोग ही प्रचारित कर रहे हैं कि खुशामद एक कला है. इस की मार्केटिंग कर रहे हैं, नएनए आकर्षक रैपरों में. हर सीधासादा आदमी खुशामद के चक्कर में फंस जाता है, लेकिन खुशामद एक ऐसा भंवर है, जिस में कोई एक बार फंसा तो निकलना मुश्किल हो जाता है.  इस कला में बला का स्वाद है. जिस ने एक बार भी इस का स्वाद चख लिया, वह दीवाना हो गया. नैतिकता से बेगाना हो गया. पता नहीं, आप ने खुशामद की कला का आनंद लिया है या नहीं, न लिया हो तो कोई बात नहीं, अगर इच्छा हो तो अपने ही शहर के किसी नेतानुमा प्राणी से मिल लीजिएगा या फिर ऐसे शख्स से, जिसे लोग ‘मिठलबरा’ (ऐसा व्यक्ति जो बड़ी ही मधुरता के साथ झूठा व्यवहार करता है) के नाम से जानते हों. ये लोग आप को बताएंगे कि खुशामद रूपी कलाकंद खाने का आनंद कैसे मनाएं?

बहरहाल, खुशामद को अगर कला का दर्जा मिल जाए तो कोई बुराई नहीं. कुछ लोग तो जेब काटने तक को कला मानते हैं. कला हमेशा भला काम ही कराए जरूरी नहीं. क्या कहा, आप खुशामद को कला नहीं, बला मानते हैं? तो भई, आप जैसे लोगों के कारण ही गलतसलत परंपराएं अपना स्थान नहीं बना पातीं. आज कदमकदम पर खुशामदखोर मिल जाएंगे, चलतेपुर्जे, अपना काम निकालने में माहिर. आप अगर अब तक हम लोगों से कुछ नहीं सीख पाए हैं तो ठीक है, पड़े रहिए अपनी जगह. सारे लोग आप से आगे निकल जाएंगे तो फिर मत कहिएगा कि हम पीछे रह गए. आगे बढ़ना है तो शर्म छोडि़ए और खुशामदखोरी में भिड़ जाइए. शरमाइए मत, उलटे कहिए, ‘खुश-आमद-दीन’.

गणपति का जन्म: क्या थी फूलचंद और सुरना की कहानी

फूलचंद ने फटा हुआ कंबल खींचखींच कर एकदूसरे के साथ सट कर सो रहे तीनों बच्चों को ठीक से ओढ़ाया और खुद राख के ढेर में तब्दील हो चुके अलाव को कुरेद कर गरमी पाने की नाकाम कोशिश करने लगा.

जाड़े की रात थी. ऊपर से 3 तरफ से खुला हुआ बरामदा. सांयसांय करती हवा हड्डियों को काटती चली जाती थी. गनीमत यही थी कि सिर पर छत थी.

अंदर कमरे में फूलचंद की बीवी सुरना प्रसव वेदना से तड़प रही थी. रहरह कर उस की चीखें रात के सन्नाटे को चीरती चली जाती थीं. पड़ोसी रामचरन की घरवाली और सुखिया दाई उसे ढाढ़स बंधा रही थीं.

मगर फूलचंद का ध्यान न तो सुरना की पीड़ा की ओर था, न ही उस के मन में आने वाले मेहमान के प्रति कोई उल्लास था. सच तो यह था कि अनचाहे बोझ को ले कर वह चिंतित ही था.

परिवार की माली हालत पहले से ही खस्ता थी. जब तक मिल चलती रही तब तक तो गनीमत थी. मगर पिछले 8 महीने से मिल में तालाबंदी चल रही थी और अब वह मजदूरी कर के किसी तरह परिवार का पेट पाल रहा था.

लेकिन रोज काम मिलने की कोई गारंटी न थी. कई बार फाकों की नौबत आ चुकी थी. कर्ज था कि बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में वह चौथा बच्चा फूलचंद को किसी नई मुसीबत से कम नजर नहीं आ रहा था. लेकिन समय के चक्र के आगे बड़ेबड़ों की नहीं चलती, फिर फूलचंद की तो क्या बिसात थी.

तभी सुरना की हृदय विदारक चीख उभरी और धीरेधीरे एक पस्त कराह में ढलती चली गई. फूलचंद ने भीतर की आवाजों पर कान लगाए. अंदर कुछ हलचल तो हो रही थी. मगर नवजात शिशु का रुदन सुनाई नहीं पड़ रहा था.

अब फूलचंद को खटका हुआ, ‘क्या बात हो सकती है?’ कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? मगर पूछूं भी तो किस से? अंदर जा नहीं सकता.

फूलचंद मन मार कर बैठा रहा. अब तो दोनों औरतों में से ही कोई बाहर आती, तभी कुछ पता चल पाता. हां, सुरना की कराहें उसे कहीं न कहीं आश्वस्त जरूर कर रही थीं.

प्रतीक्षा की वे घडि़यां जैसे युगों लंबी होती चली गईं. काफी देर बाद सुखिया दाई बाहर निकली. फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, लड़का हुआ है,’’ सुखिया ने निराश स्वर में बताया, ‘‘मगर…’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ फूलचंद व्यग्र हो उठा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. तुम खुद ही जा कर देख लो.’’

इस के बाद सुखिया तो चली गई, लेकिन फूलचंद की उलझन और बढ़ गई, ‘ऐसी क्या बात है, जो सुखिया से नहीं बताई गई? कहीं बच्चा मरा हुआ तो नहीं? मगर यह बात तो सुखिया बता सकती थी.’

कुछ देर बाद रामचरन की घरवाली भी यह कह कर चली गई, ‘‘कोई दिक्कत आए तो बुला लेना.’’

अब फूलचंद के अंदर जाने में कोई रुकावट नहीं थी. वह धड़कते दिल से अंदर घुसा. सुरना अधमरी सी चारपाई पर पड़ी थी. बगल में शिशु भी लेटा था.

सुरना ने आंखें खोल कर देखा. मगर फूलचंद की कुछ पूछने की हिम्मत न हुई. हां, उस की आंखों में कौंधती जिज्ञासा सुरना से छिपी न रह सकी. उस ने शिशु के मुंह पर से कपड़ा हटा दिया और खुद आंखें मूंद लीं.

आंखें तो फूलचंद की भी एकबारगी खुद ब खुद मुंद गईं. सामने दृश्य ही ऐसा था. नवजात शिशु का चेहरा सामान्य शिशुओं जैसा न था. माथा अत्यंत संकरा और लगभग तिकोना था. आंखें छोटीछोटी और कनपटियों तक फटी हुई थीं. कान भी असामान्य रूप से लंबे थे. सब से विचित्र बात यह थी कि शिशु का ऊपरी होंठ था ही नहीं. हां, नाक अत्यधिक लंबी हो कर ऊपरी तालू से जा लगी थी.

फूलचंद जड़ सा खड़ा था, ‘यह कैसी माया है? हुआ ही था तो अच्छाभला होता. नहीं तो जन्म लेने की क्या जरूरत थी. मुझ पर हालात की मार पहले ही क्या कम थी, जो यह नई मुसीबत मेरे सिर आ पड़ी. क्या होगा इस बच्चे का? अपना यह कुरूप ले कर इस दुनिया में यह कैसे जिएगा? क्या होगा इस का भविष्य?’

फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘इस की आवाज?’’

‘‘पता नहीं,’’ सुरना ने कमजोर आवाज में बताया, ‘‘रोया तक नहीं.’’

‘हैं,’ फूलचंद ने सोचा, ‘क्या यह गूंगा भी होगा?’

सुरना पहले ही काफी दुखी प्रतीत हो रही थी. इसलिए फूलचंद ने और कोई सवाल न किया. बस, अपनेआप को कोसता रहा और बाहर सोए तीनों बच्चों को ला ला कर अंदर लिटाता रहा. फिर खुद भी उन्हीं के साथ सिकुड़ कर लेटा रहा.

मगर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. रहरह कर नवजात शिशु का चेहरा आंखों के आगे नाचने लगता था. तरहतरह की आशंकाएं मन में उठ रही थीं. फूलचंद ने सुना था कि उस तरह के बच्चे कुछ दिनों के ही मेहमान होते हैं. मगर वह बच्चा अगर जी गया तो…?

इसी तरह की उलझनों में पड़े हुए फूलचंद ने बाकी रात आंखों में ही काट दी.

सुबह होतेहोते रामचरन की घरवाली के माध्यम से यह बात महल्ले भर में जंगल की आग की तरह फैल गई कि फूलचंद के यहां विचित्र बालक का जन्म हुआ है.

बस, फिर क्या था. तमाशबीन औरतों के झुंड के झुंड आने शुरू हो गए. उन का तांता टूटने का नाम ही नहीं लेता था. वह एक ऐसी मुसीबत थी जिस की फूलचंद ने कल्पना तक नहीं की थी. मगर चुप्पी साधे रहने के सिवा कोई दूसरा चारा भी नहीं था.

तभी तमाशबीन औरतों के एक झुंड के साथ भगवानदीन की मां राधा आई. उस ने सारा वातावरण ही बदल कर रख दिया.

राधा ने बच्चे को देखते ही हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. फिर जमीन पर बैठ कर माथा झुकाया और साथ आई औरतों को फटकार लगाई, ‘‘अरी, ऐसे दीदे फाड़फाड़ कर क्या देख रही हो? प्रणाम करो. यह तो साक्षात गणेशजी ने कृपा की है सुरना पर. इस की तो कोख धन्य हो गई.’’

साथ आई औरतें अभी तक तो राधा के क्रियाकलाप अचरज से देख रही थीं. किंतु उस की बात सुनते ही जैसे उन की भी आंखें खुलीं. सब ने शिशु को प्रणाम किया. सुरना की कोख को सराहा और हाथ में जो भी सिक्का था, वही चारपाई के सामने अर्पित करने के बाद जमीन पर माथा टेक दिया.

अब राधा बाहर फूलचंद के पास दौड़ी आई. वह थकान और चिंता के कारण बाहर चबूतरे पर घुटनों में सिर डाले बैठा था. राधा ने उसे झिंझोड़ कर उठाया, ‘‘अरे, क्या रोनी सूरत बनाए बैठा है यहां. तुझे तो खुश होना चाहिए, भैया. सुरना की कोख पर साक्षात ‘गणेशजी’ ने कृपा की है. तेरे तो दिन फिर गए. और देख, वह तो माया दिखाने आए हैं अपनी. वह रुकेंगे थोड़ा ही. जब तक हैं, खुशीखुशी उन की सेवा कर. हजारों वर्षों में किसीकिसी को ही ऐसा अवसर मिलता है.’’

फूलचंद चमत्कृत हो उठा, ‘‘यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी, काकी.’’

‘‘अरे, तुम लोग ठहरे उम्र व अक्ल के कच्चे,’’ राधा ने बड़प्पन झाड़ा, ‘‘तुम्हें ये सब बातें कहां से सूझें. और हां, लोग दर्शन को आएंगे तो किसी को मना न करना, बेटा. उन पर कोई अकेले तेरा ही हक थोड़ा है. वह तो साक्षात ‘परमात्मा’ हैं, वह सब के हैं, समझा?’’

फूलचंद ने नादान बालक की तरह हामी भरी और लपक कर अंदर पहुंचा. दरअसल, अब वह शिशु को एक नई नजर से देखना चाहता था. मगर चारपाई के पास पड़े पैसों को देख कर वह एक बार फिर चक्कर खा गया. सुरना से पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘वही लोग चढ़ा गए हैं,’’ सुरना ने बताया, ‘‘काकी कहती थीं, गणेशजी…’’

‘‘और नहीं तो क्या,’’ फूलचंद में जैसे नई जान पड़ने लगी थी, ‘‘न तो तेरी मति में यह बात आई, न ही मेरी. मगर हैं ये साक्षात गणेशजी ही.’’

‘‘हम लोग उन की माया क्या जान सकें. अपनी माया वही जानें.’’

फूलचंद को एकाएक शिशु की चिंता सताने लगी, ‘‘यह तो हिलताडुलता भी नहीं. देख सांस तो चलती है न?’’

सुरना ने कपड़ा हटा कर देखा. सांसें चल रही थीं.

फूलचंद को अब दूसरी चिंता हुई, ‘‘भला एकआध बार दूधवूध चटाया या नहीं?’’

सुरना ने तनिक दुखी स्वर में कहा, ‘‘दूध तो मुंह में दाब ही नहीं पाता.’’

‘‘ओह,’’ फूलचंद झल्लाया, ‘‘क्या इसे भूखा मारोगी? देखो, मैं रुई का फाहा बना कर देता हूं. तुम उसी से दूध इस के मुंह में टपका देना. गला सूखता होगा.’’

शिशु का गला सींचने का यह उपक्रम चल ही रहा था कि कुछ और लोग कथित गणेशजी के दर्शनार्थ आ पहुंचे. इस बार औरतों के अलावा मर्द भी आए थे. दूसरी खास बात यह थी कि कुछ लोगों के हाथों में फूल और फल भी थे.

फूलचंद ने लपक कर प्रसन्न मन से सब का स्वागत किया, ‘‘आइएआइए, आप लोग भी दर्शन कीजिए.’’

दोपहर ढलतेढलते कथित गणेशजी के जन्म की खबर पासपड़ोस के महल्लों तक फैल गई. श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी. मिठाई, फल, मेवा, फूल आदि जो बन पाता, लिए चले आ रहे थे. उस के अलावा नकदी का चढ़ावा भी कम न था.

शाम को किसी पड़ोसी ने सलाह दी, ‘‘कुछ परचे छपवा कर बांट दिए जाएं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को खबर हो जाए और वे दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकें.’’

फूलचंद को वह सलाह जंची. पता नहीं, कब उस की भी यह दिली इच्छा हो आई थी कि जितने ज्यादा लोग दर्शन का लाभ उठा लें, उतना ही अच्छा.

आननफानन मजमून बनाया गया और एक पड़ोसी ने खुद आगे बढ़

कर परचे छपवा कर अगले ही दिन मुहैया कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

रात करीब 10 बजे दर्शनार्थियों का तांता टूटा. तब फूलचंद ने दर्शन बंद होने की घोषणा की. उस रात फूलचंद के परिवार ने बहुत दिनों बाद तृप्ति भर सुस्वाद भोजन का आनंद उठाया था.

दूसरे दिन परचे बंटे और एक स्थानीय अखबार के प्रतिनिधि आ कर बच्चे की तसवीर खींच ले गए. अखबार में बच्चे की तसवीर और विचित्र बालक के जन्म की खबर छपते ही, शहर में जैसे आग सी लग गई. दूरदराज के महल्लों से भी लोग दर्शन के लिए टूट पड़े.

फूलचंद के घर के सामने मेला सा लग गया. पता नहीं, कहां से फूल आदि ले कर एक माली बैठ गया. उस के अलावा महल्ले के हलवाई को दम मारने की फुरसत न थी. उस भीड़ को व्यवस्थित ढंग से दर्शन कराने के लिए फूलचंद को अपने कमरे का दूसरा दरवाजा (जो अभी तक बंद रखा जा रहा था) खोलना पड़ा. अब लोग कतार बांधे एक दरवाजे से अंदर आते थे और दर्शन कर के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाते थे.

फूलचंद और उस के बच्चे सुबहसुबह ही नहाधो कर साफसुथरे कपड़े पहन लेते और दर्शन की व्यवस्था में जुट जाते. घर में अब न तो पहले जैसा तनाव था, न ही कुढ़न. सभी जैसे उल्लास की लहरों में तैरते रहते थे.

फूलचंद थोड़ीथोड़ी देर बाद सुरना के पास आ कर उस के कान में शिशु को रुई के फाहे से दूध चटाते रहने की हिदायत देता रहता था. इस बहाने वह अपनेआप को आश्वस्त भी कर लेता था कि शिशु अभी जीवित है.

रात को भी वह कई बार शिशु को देखता और उस की सांसें चलती देख कर चैन से सो जाता.

सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था. कहीं कोई समस्या न थी. हां, एक समस्या यह जरूर पैदा हो गई थी कि चढ़ावे में चढ़ी मिठाई का क्या किया जाए. उसे उपभोग के लिए ज्यादा दिन बचाए रखना संभव न था. यों फूलचंद ने महल्ले में अत्यंत उदारतापूर्वक प्रसाद बांटा था. फिर भी मिठाई चुकने में न आती थी.

लेकिन उस समस्या का हल भी निकल आया. रात में मिठाई फूलचंद के यहां से उठा कर हलवाई के हाथों बेच दी जाती, फिर सुबह श्रद्धालुओं के हाथों में होती हुई दोबारा फूलचंद के यहां चढ़ा दी जाती.

छठे दिन भोर में ही सुरना ने फूलचंद को जगाया और घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘देखो, इस को क्या हो गया?’’

फूलचंद ने हड़बड़ा कर शिशु को उघाड़ दिया. झुक कर गौर से देखा. उस की सांसें बंद हो चुकी थीं. हताश हो कर सुरना की ओर देखा, ‘‘खेल खत्म हो गया.’’

सुरना की रुलाई खुद व खुद फूट पड़ी. मगर फूलचंद ने उसे रोका, ‘‘नहीं, रोनाधोना बंद करो. इस को ऐसे ही लेटा रहने दो. देखो, किसी से जिक्र न करना. थोड़ी देर में लोग दर्शन के लिए आने लगेंगे.’’

सुरना ने रोतेरोते ही कहा, ‘‘मगर यह तो…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ फूलचंद ने कहा, ‘‘यह तो वैसे भी न तो रोता था, न ही हिलताडुलता था. लोगों को क्या पता चलेगा? हां, शाम को कह देंगे कि भगवान ने माया समेट ली.’’

और फिर जैसे सुरना को समझाने के बहाने फूलचंद अपनेआप को भी समझाने लगा, ‘कोई हम ने तो भगवान से यह स्वरूप मांगा न था. यह तो उन्हीं की कृपा थी. शायद हमारी गरीबी ही दूर करने आए थे. आज दिन भर लोग और दर्शन कर लेंगे तो कुछ बुरा तो नहीं हो जाएगा.’

सुरना घुटनों पर माथा टेके सिसकती रही.

फूलचंद ने फिर समझाया, ‘‘देखो, अब ज्यादा दुख न करो. ज्यादा दिन तो इसे वैसे भी नहीं जीना था. और जी जाता तो क्या होता इस का. उठो, तैयार हो कर रोज की तरह बैठ जाओ. लोग आने ही वाले हैं.’’

सुरना बिना कुछ बोले तैयार होने के लिए उठ गई.

थोड़ी देर बाद ही वहां दर्शनार्थियों का तांता लगना शुरू हो गया और भेंट व प्रसाद के रूप में फूलों, मिठाइयों एवं सिक्कों के ढेर लगने लगे.

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