एक हफ्ते बाद भी उन का दर्द ठीक नहीं हुआ है. तुम बच्चों क मांपिताजी के पास छोड़ कर कुछ दिनों के लिए आ जाओ.’’
लतिका ने चिढ़ कर कहा, ‘‘जो इंसान मेरी बात नहीं मानता, मैं उस की चिंता क्यों करूं, तुम ही बताओ? क्या मैं गलत कहती हूं? क्या हमारा हिस्सा नहीं है पिताजी के मकान में?’’
‘‘लेकिन जीजाजी ऐसी बातें करने वाले इंसान नहीं हैं दीदी, अपने परिवार से प्यार करना बुरी बात तो नहीं.’’
‘‘वन्या, तुम छोटी हो, मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर लतिका ने फोन रख दिया. 10-15 दिन बाद भी शेखर के दर्द में कमी नहीं आईर्. प्रणव फिर उन्हें डाक्टर के पास ले कर गए. शेखर तो लगातार छुट्टी पर ही थे. कुछ और टैस्ट हुए. अब की बार रिपोर्ट्स आईं तो सब का दिल दहल गया. शेखर को स्पाइन का कैंसर था जो कमर के निचले हिस्से से सिर के पीछे के हिस्से तक फैल चुका था, और रीढ़ की हड्डी को 65 प्रतिशत नुकसान पहुंचा चुका था. सब एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. स्वभाव से शांत और नरम शेखर ने अपनी स्थिति को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया. औफिस के और लोग भी थे. वे सब से सामान्य रूप से बातचीत करते रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो उन्हें. उन्हें इतना सामान्य देख कर सब के दिलों में उन के लिए इज्जत और भी बढ़ गई. कमर में दर्द तो उन्हें कई बार होता था लेकिन वे इसे अपने काम का टूरिंग जौब और बढ़ती उम्र का प्रैशर समझ लेते थे. अब और दवाएं तुरंत शुरू हो गईं और कीमोथेरैपी शुरू होेने वाली थी. उन्होंने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली थी. उन के बौस आनंद कपूर भी उन का बहुत साथ दे रहे थे. उन्होंने कह दिया था, ‘‘बस, तुम आराम करो, अपना इलाज करवाओ और अब अपनी फैमिली को बुला लो तो ठीक रहेगा, तुम्हें आराम मिलेगा.’’
बहुत सोचसमझ कर शेखर ने तन्वी को फोन किया, ‘‘बेटा, अगर हो सके तो 3-4 दिन की छुट्टी ले कर मुंबई आ जाओ.’’
तन्वी घबरा गई, ‘‘पापा, आप ठीक तो हैं न?’’
‘‘हां ठीक हूं, बस तुम लोगों को देखने का मन कर रहा है. तीनों आ जाओ.’’
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तन्वी को पिता के स्वर की उदासी कुछ खटकी. उस ने लतिका से कहा, ‘‘मम्मी, पापा की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हम तीनों मुंबई चलते हैं.’’
‘‘नहीं, मुझे नहीं जाना.’’
तन्वी हैरानी से बोली, ‘‘आप कैसी बात कर रही हैं, आप को पापा की चिंता नहीं हो रही है?’’
‘‘जो भी समझो, तुम दोनों को जाना हो तो चले जाओ, मुझे नहीं जाना.’’ तन्वी गुस्से में फिर कुछ नहीं बोली और छुट्टी ले कर सौरभ के साथ मुंबई पहुंच गई. शेखर की हालत देख कर दोनों बच्चे उन के सीने से लग कर फफक पड़े. संध्या वहीं काम कर रही थी. उसे शेखर की बीमारी के बारे में पता था. उस की भी आंखें भर आईं. शेखर से न लेटा जा रहा था, न बैठा. वे बस सोफे पर तकिया रख कर अधलेटे से बैठे रहते थे. रात को भी उसी स्थिति में सोते थे. पिता की हालत देख कर दोनों बच्चे बहुत दुखी हुए. शेखर ने बच्चों को अपने पास बिठा कर अपनी बीमारी के बारे में बताते हुए कहा, ‘‘मैं तुम लोगों को दुखी नहीं देख पाऊंगा. इलाज शुरू हो ही चुका है. आजकल तो हर बीमारी का इलाज है,’’ यह कहते हुए शेखर हलके से मुसकरा दिए. बच्चों ने हौसला रखते हुए खुद को संभाला, सौरभ ने कहा, ‘‘हां पापा, आप जरूर ठीक हो जाएंगे. अब हम यहीं रहेंगे, आप के पास.’’
शेखर ने कहा, ‘‘नहीं, तुम दोनों अपने काम का नुकसान नहीं करोगे.’’
तन्वी ने कहा, ‘‘पापा, आप का ध्यान रखने से बढ़ कर हमारे लिए और कोई काम जरूरी नहीं है. आप की देखरेख इस समय हमारा सब से पहला काम है.’’
शेखर ने कहा, ‘‘बस मां, पिताजी और चाचू को कुछ मत बताना.’’
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‘‘ठीक है, पापा, मैं फिर मां को आने के लिए कहती हूं.’’
शेखर ने ‘हां’ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘कह दो.’’ शेखर के दिल में एक आस थी कि शायद उन की बीमारी की बात सुन कर लतिका अपनी जिद, अहं, लालच छोड़ कर फौरन चली आएगी. लतिका ने सारी बात सुन कर तन्वी से कहा, ‘‘उन्हें मेरी जरूरत नहीं है. अगर होती तो इतने दिनों में भी क्या मेरी बात पर ध्यान नहीं देते. अपने परिवार के लिए हमेशा मेरी बात अनसुनी की है. अब उन सब को ही बुलाएं, मुझे क्यों बुला रहे हैं.’’ लतिका ने क्या कहा होगा, तन्वी का चेहरा देख कर ही शेखर जान गए. फिर वे बहुत देर तक कुछ नहीं बोले.
तन्वी ने कहा, ‘‘सौरभ, हम दोनों में से कोई एक यहां पापा के पास रहेगा, अभी मैं ने अपने बौस को फोन पर सब बताया है. उन्होंने मुझे घर से ही काम करने की परमिशन दे दी है. अभी तो मैं यहां रहूंगी. तुम चले जाओ. कालेज की छुट्टी होते ही तुम आ जाना. फिर मैं चली जाऊंगी. हम सब मैनेज कर लेंगे.’’ शेखर को अपने बच्चों पर बहुत प्यार आया. तन्वी ने फोन पर वन्या को सब बताया तो वह आकाश के साथ फौरन आ गई. आ कर शेखर के पास बैठ कर रोने लगी, ‘‘दीदी के व्यवहार पर शर्मिंदा हूं मैं जीजाजी, हैरान हूं उन के स्वभाव पर. इस समय भी इतनी जिद और गुस्सा.’’
शेखर ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने बहुत कोशिश की पर उस की सोच को बदल नहीं पाया. अगर मैं अपने मातापिता, भाई और उस के परिवार को अपने से अलग नहीं देख सकता तो क्या मेरी गलती है यह? मेरा भाई जिस की नईनई नौकरी है, जो अभी आर्थिक रूप से बहुत मजबूत नहीं है उस पर मैं घर के बंटवारे का दबाव कैसे डालूं. मैं यह सब नहीं कर सकता. और लतिका को मैं ने कभी कोई कमी कहां होने दी पर उस का लालच समय के साथ बढ़ता ही चला गया. और अब मुझे नहीं पता मैं कितने दिन जिऊंगा. तो क्या मैं अब अपने मातापिता को दुखी करूंगा, हिस्से की बात छेड़ कर. यह तो मुझ से कभी नहीं हो पाएगा,’’ शेखर का स्वर भरा र् गया. वहां बैठा हर व्यक्ति दुखी हो गया. शेखर की कीमोथैरेपी का पहला दिन था. प्रणव की कार से ही शेखर, वन्या और तन्वी हौस्पिटल पहुंचे. सौरभ को तन्वी ने भेज दिया था. डाक्टर से बात कर के प्रणव ने कीमो का दिन शनिवार का रखवाया था ताकि वह शेखर के साथ रह सके. उन्हें हौस्पिटल आनेजाने में परेशानी न हो. प्राइवेट रूम बुक कर लिया गया था. नर्स ने शेखर के कपड़े बदलवा कर इंजैक्शन देने की तैयारी शुरू कर दी थी. अपने मन की घबराहट पर काबू पाने के लिए तन्वी ने बाहर पड़ी बैंच पर बैठ कर अपना लैपटौप खोल लिया था. शेखर बैड पर लेट चुके थे. नर्स डाक्टर के आने का इंतजार कर रही थी. शेखर बिलकुल चुप थे. प्रणव बाहर रखी एक दूसरी बैंच पर बैठा तो वन्या वहीं बैठती हुई बोली, ‘‘आप लोगों का बड़ा सहारा है जीजाजी को.’’
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