घर का न घाट का: भाग 3- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

रात के 12 बज रहे थे. रास्ता ठीक तरह मालूम नहीं था, फिर भी वह झील की तरफ चली जा रही थी. तभी एक टैक्सी पास से निकली और आगे जा कर रुक गई. सुदेश के प्राण सूख गए. आकाश से गिरी, खजूर में अटकी. जाने अब क्या हो. कौन हो? कहीं सुरेश ही तो नहीं? सुरेश नहीं था. पर जो अजनबी था वह बहुत अपना सा लग रहा था. चेहरा दाढ़ीमूंछ में छिपा था, पर ईमानदारी, भोलापन, सच्चरित्रता आंखों से छलकी पड़ रही थी. वह सरदार सतवंत सिंह टैक्सी ड्राइवर था. सुदेश ने परदेश में पहली बार किसी सरदार को देखा था. उसे लगा जैसे वह पंजाब में कहीं अपने गांव में खड़ी है. भारतीय स्त्री को देख कर सतवंत सिंह भी चौंका. वह उसे बेहद डरी हुई दिख रही थी.

सतवंत ने अनुमान लगाया कि वह झील में डूब कर आत्महत्या करने जा रही है. उस ने अधिक पूछताछ न कर के टैक्सी का पीछे का द्वार खोल कर एक प्रकार से जबरन सुदेश को भीतर ढकेल दिया. अपने डेरे पर पहुंच कर सुदेश को सब तरह से तसल्ली दे कर उस की आपबीती सुनी. सुदेश ने जब कहना बंद किया तो सतवंत सिंह की आंखें नम हो चुकी थीं. 3 साल पहले उस की अपनी सगी बहन सुरेंद्र कौर को भी कोई डाक्टर इसी प्रकार ब्याह कर ले आया था. बहुत दिनों बाद बहन ने जैसेतैसे किसी प्रकार फोन किया थी. पर जब तक सतवंत यहां तक पहुंचने का जुगाड़ कर पाया, वह जीवन से तंग आ कर आत्महत्या कर चुकी थी. उस ने ऐसे कितने ही किस्से सुनाए कि किस प्रकार प्रवासी भारतीय छुट्टियों में देश जाने पर विवाहित होते हुए भी दूसरी शादी कर लेते हैं. कोईकोई तो मोटा दहेज भी समेट लेते हैं. उस लड़की को फिर रखैल की तरह रख लेते हैं. पतिव्रता भारतीय स्त्री पति को सबकुछ मानने वाली, रोधो कर जिंदगी से समझौता कर लेती है. जिस हाल में पति रखे, उसी में खुश रहने की कोशिश करती है. कुछ तो इतने नीच होते हैं कि अपनी पत्नी को बेच तक डालते हैं.

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अकसर ऐसी शादियां चटपट हो जाती हैं. लड़के की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का स्वदेश में किसी को पता नहीं रहता. जैसा कह दिया वैसा मान लिया. लड़कियों को भी विदेश घूमने का चाव रहता है. इस से अभिभावक का बोझ सहज ही हलका हो जाता है. कन्या के साथ क्या बीत रही है, कौन देखने आता है, किस को खबर मिलती है? सतवंत ने सुदेश के आंसू पोंछे. वह सतवंत से भारत पहुंचा दिए जाने की जल्दी कर रही थी, पर सतवंत ने कहा कि अपराधी को भी तो कुछ दंड मिलना चाहिए. उस ने अपने जानपहचान के एक वकील से सलाह की. तदानुसार उस ने सुदेश के घर फोन कर शादी पर छपे निमंत्रणपत्र की तथा शादी में खिंचे सभी फोटोग्राफों की प्रतियां मंगाईं. वकील के माध्यम से ये सब चीजें सूजेन के पिता को दिखाई गईं. वह करोड़पति एकदम भड़क गया.

सुरेश से बात करने से पहले उस ने सुरेश और सुदेश के कुछ युगल चित्र सूजेन को दिखाए. शादी के फोटो सूजेन गंभीरता से देखती रही. शायद वह उसे कोई धार्मिक रीतिरिवाज समझ रही थी. वरवधू के वेश में सुरेश व सुदेश ठीक से पहचाने भी नहीं जा रहे थे. पर नैनीताल के फोटो देख कर तो सूजेन एकदम बिदक गई. कहीं झील में नाव पर, कहीं पहाड़ी की चोटी पर, कहीं जुल्फें संवारते हुए, कहीं शरारत से मुसकराते हुए, चित्रों से दिलों की धड़कनें साफ सुनाई पड़ रही थीं. इन चित्रों में सुदेश को सूजेन ने पहचान लिया. घर पहुंचते ही उस ने सुरेश की खबर ली, ‘‘तुम तो उसे नौकरानी बताते थे. क्या तुम ने उस से शादी नहीं की है? तुम ने ऐसा क्यों किया? आखिर मुझ में क्या कमी थी? क्या मैं सुंदर नहीं थी? क्या मुझे सलीका नहीं आता था? क्या मैं कम पढ़ीलिखी थी? क्या नहीं था मुझ में? तुम्हें नौकरी दिलाई. फ्लैट का मालिक बनवाया. गाड़ी दिलाई. क्या नहीं दिया? लेकिन तुम…तुम…’’ और उस ने गुस्से में गालियां बकनी आरंभ कर दीं.

सुरेश ने समझाने की बहुत कोशिश की, पर उस रात सूजेन ने शयनकक्ष के दरवाजे नहीं खोले. स्टोर में जहां सुदेश रात काटती थी, वहीं उसे भी करवटें बदलनी पड़ीं. वह बहुत परेशान था. सुदेश गायब हो चुकी थी. वह अब कहां है, उसे इस बारे में कोई पता नहीं. हवाईअड्डे पर उस ने हुलिया लिखा दिया. यह तो वह जान चुका था कि अभी वह वहीं अमेरिका में है. वैसे उस का जाना भी मुश्किल था. उस के पास किराए के पैसे कहां थे. न ही वह कुछ तौरतरीका जानती है. पर आखिर सूजेन को किस ने भड़का दिया? वह कुछ तालमेल नहीं बैठा पा रहा था. सुदेश के गायब हो जाने की उसे इतनी चिंता नहीं थी जितनी सूजेन के ऐंठ जाने की. सोने का अंडा देने वाली मुरगी यदि किनारा कर गई तो? सुदेश के बारे में उसे लगता था कि वह रेल या ट्रक से कहीं मरकट गई होगी या उस ने किसी प्रकार से आत्महत्या कर ली होगी. उसे तो सूजेन की चिंता थी. अगले दिन कंपनी के डायरैक्टर और सूजेन के पिता ने उसे अपने कक्ष में बुलाया और स्पष्टीकरण देने के लिए कहा. सुरेश के चिंतित चेहरे को देख कर कोई भी सचाई का सहज अनुमान लगा सकता था. उस ने अपनी सफाई देते हुए कहा कि इस सारे कांड के पीछे कोई ऐसा आदमी है जो डराधमका कर अपना काम निकालना चाहता है. व्यवहारकुशल डायरैक्टर ने सुरेश को एक सप्ताह का समय दिया.

सुदेश का मन अमेरिका में बिलकुल नहीं लग रहा था. पर प्रश्न यह था कि वह घर जाने का साधन कैसे जुटाए. किस के साथ जाए? सहमतेसहमते उस ने सतवंत से अपना मंतव्य प्रकट किया. सतवंत को कोई आपत्ति नहीं थी. यहां का काम तो उस का वकील संभाल लेगा. उस की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं थी. केवल ठीक से पलीता लगाने की बात थी. वह काम हो ही चुका था. अब तो विस्फोट की प्रतीक्षा थी. पर सवाल यह था कि वह स्वदेश लौटे तो कैसे. सतवंत भी कोई धन्ना सेठ नहीं था. 3 साल में टैक्सी चला कर यहां जो कमाया था उस से टैक्सी खरीद ली थी. फक्कड़ आदमी था, मस्त रहता था. सुदेश ने जब अपने जेवर उस के सामने रखे तो वह उस की समझदारी का कायल हो गया, बोला, ‘‘देशी, तू ने तो पढ़ेलिखों के भी कान काट दिए.’’ वह सुदेश को ‘देशी’ कह कर पुकारता था. उसी प्रकार जैसे सूजेन सुरेश को ‘रेशी’ कह कर पुकारती थी. वहां ऐसी ही प्रथा थी. अधिक लाड़ में किसी को संबोधित करना होता था तो अंतिम 2 शब्दों पर ‘ई’ की मात्रा लगा दी जाती थी. सतवंत ने भी वतन लौटने का प्रोग्राम बना लिया. न्यूयौर्क में उस के कुछ जानकार लोग थे. टैक्सी और जेवर का ठीकठाक सौदा हो गया.

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बिना पूर्वसूचना के एक शाम सुदेश सतवंत के साथ सात समंदर पार कर अंबाला में अपने घर के द्वार पर खड़ी थी. घर वाले हैरान थे. उस से भी बड़ी हैरानी की बात थी सतवंत का साथ होना. सुदेश के छोटे भाईबहन खुसुरफुसुर कर रहे थे, ‘‘शादी पर तो जीजाजी की दाढ़ीमूछ नहीं थी?’’ सब से छोटी बेबी बोली, ‘‘मैं बताऊं, नकली होगी.’’ बच्चों के सो जाने के बाद सुदेश ने अपनी करुण कहानी घर वालों को सुनाई. पीठ उघाड़ कर मार के निशान दिखाए. उन्हें बताया कि घर से भागते समय उसे यह आशा नहीं थी कि अब वह कभी मातापिता से मिल भी सकेगी. सतवंत का वह लाखलाख शुक्रिया कर रही थी. वह नहीं मिलता तो पता नहीं आज वह कहां होती.

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घर का न घाट का: भाग 2- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

लौन पार कर के दरवाजे पर सुरेश ने घंटी दबा दी. सुदेश की समझ में नहीं आया कि जब वह यहां था नहीं, तो घर में कौन होगा. जरा देर में दरवाजा खुला. भूरे बालों और नीली आंखों वाली एक युवती दरवाजे पर खड़ी थी. सुरेश को देखते ही उस की आंखों में समुद्र हिलोरें लेने लगा. वह तपाक से बोली, ‘‘ओह, रेशी,’’ और उस ने आगे बढ़ कर सुरेश का मुंह चूम लिया. फिर बोली, ‘‘फोन क्यों नहीं किया?’’

सुदेश मन के कोर तक कांप गई.

सुरेश बोला, ‘‘तुम्हें आश्चर्य में डालने के लिए.’’

तभी उस युवती की निगाह सुदेश पर पड़ी, ‘‘यह कौन है?’’ वह विस्मित होती हुई बोली.

सुरेश एक क्षण रुक कर बोला, ‘‘एक और आश्चर्य.’’

तीनों ने भीतर प्रवेश किया. आंतरिक ताप व्यवस्था के कारण भीतर कमरा गरम था. सुरेश टाई की गांठ ढीली करने लगा. सुदेश सोफे में धंस गई. युवती कौफी बनाने रसोई में चली गई. सुरेश ने अर्थपूर्ण दृष्टि से सुदेश की ओर देखा. सुदेश के मुख पर सैकड़ों प्रश्न उभर रहे थे. सुरेश सीटी बजाता हुआ रसोई में चला गया. थोड़ी देर में वह 3 प्याले कौफी ले कर लौटा. पीछेपीछे वह युवती भी थी. कांपते हाथों से सुदेश ने प्याला पकड़ लिया. युवती और सुरेश सामने सोफे पर अगलबगल बैठ गए. वे अंगरेजी में बात कर रहे थे. सुदेश के पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. पर बातचीत करने में जिस बेतकल्लुफी से वह युवती सुरेश पर झुकी पड़ रही थी, उस से सुदेश के कलेजे की कोमल रग में टीस उठने लगी. वह सोफे पर ही एक ओर लुढ़क गई. सुरेश उठा. सुदेश की नब्ज देखी. पैर उठा कर सोफे पर फैला दिया. फिर उस ने एक गिलास में थोड़ी ब्रांडी डाली, पानी मिलाया, सुदेश का सिर, हाथ नीचे डाल कर ऊपर उठाया और गिलास मुंह से लगा दिया. अधखुली आंखों से सुदेश ने सुरेश को देखा. वह बोला, ‘‘थक गई हो. दवा है, फायदा करेगी.’’

दवा पी कर सुदेश निढाल हो कर लेट गई. सुरेश ने एक मोटा कंबल ला कर उसे ओढ़ा दिया. सुबह सुदेश की आंख काफी देर से खुली. उस ने इधरउधर देखा. वह रात को सोफे पर ही सोती रही थी. सुरेश का कहीं पता नहीं था. न ही कमरे में कोई अन्य बिस्तर था. वह रात की बात सोचने लगी. तभी सुरेश उस के लिए चाय ले कर आया. चाय की चुस्की ले कर सुदेश बोली, ‘‘वह लड़की कौन थी?’’

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सुरेश बोला, ‘‘सूजेन.’’

सुदेश ने पूछा, ‘‘कहां गई?’’

सुरेश ने सहज ही उत्तर दे दिया, ‘‘काम पर.’’

सुदेश ने पूछा, ‘‘यहीं रहती है, तुम्हारे साथ?’’

सुरेश ने स्वीकारात्मक सिर हिला दिया.

सुदेश बोली, ‘‘कब से?’’

सुरेश कुछ सोच कर बोला, ‘‘पिछले 6 साल से.’’

सुदेश ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘क्यों?’’

सुरेश बोला, ‘‘हम दोनों ने शादी कर ली थी.’’

सुदेश के हाथ से चाय का प्याला छूट गया. आश्चर्यचकित स्वर में मानो अपने कानों को झुठलाते हुए वह निराशा के पहाड़ को पलभर के लिए एक ओर सरका कर सारी जीवनशक्ति संचित कर के बोली, ‘‘शादी?’’ पत्थर बने सुरेश ने फिर स्वीकृति में सिर हिला दिया. सुदेश पर जैसे गाज गिर पड़ी हो. सपनों का ताजमहल टुकड़ेटुकड़े हो गया था. हंसती, गाती, नाचती हुई परी के जैसे किसी ने पंख काट दिए हों और वह पाताल की किसी कठोर चट्टान पर पड़ी छटपटा रही हो. षणभर ठगी सी रह जाने के बाद उस ने माथा पीट लिया. वह रोती जा रही थी और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए शून्य में सवाल फेंके जा रही थी, ‘‘फिर तुम ने मुझ से शादी क्यों की? मेरे घर वालों को क्यों धोखा दिया? मेरी जिंदगी क्यों खराब की? मुझे यहां क्यों लाए? मुझे रंगीन सपने क्यों दिखाए? मैं तुम्हें क्या समझती थी पर तुम तो कुछ और ही निकले, झूठे, बेईमान.’’

उस की मुद्रा से लग रहा था कि वह सुरेश का मुंह नोच डालेगी. सुरेश उस के पास आ कर अपनी मजबूरी बताने लगा, ‘‘सूजेन के कारण ही मुझे अच्छी नौकरी मिली है. उस का बाप इस कंपनी का मालिक है. सूजेन उस की इकलौती बेटी है. वह सुंदर है, पढ़ीलिखी है. स्वयं भी उसी कंपनी में काम करती है. उसे तो मेरे जैसे कितने ही मिल जाते. परदेश में कौन किसे पूछता है?’’

सुदेश ने अपने पास आते हाथों को एक ओर झटक दिया और फुफकारती हुई बोली, ‘‘फिर दूसरा ब्याह रचने की क्या जरूरत थी? बीवी के बिना पलभर भी नहीं रहा जाता था तो इसे साथ ही देश ले जाते. वहां यह सब नाटक रचने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेश ने समझाने की कोशिश की, ‘‘मैं ने इस शादी की किसी को खबर नहीं दी थी. घर वाले न जाने क्या सोचते? फिर वहां छोटे भाईबहनों के रिश्ते होने में दिक्कत आती. मांबाप की, खानदान की शान में बट्टा लगता. सूजेन को वहां कौन स्वीकार करता?’’ सुदेश भभक उठी, ‘‘अपने खानदान की इज्जत के लिए दूसरे की इज्जत पर डाका डालना कहां की भलमनसाहत है? छिपाए रखना था तो वहां कह देते कि मुझे शादी नहीं करनी. कोई जबरदस्ती तो तुम्हारे गले में अपनी लड़की बांध नहीं देता? तब तो अखबार में छपवाया था, दुनियाभर के सब्जबाग दिखाए थे…’’

सुरेश बोला, ‘‘मांबाप का दिल भी तो नहीं तोड़ा जा सकता था. वे हर मेल में एक ही रट लगाए रहते थे. इसीलिए मैं ने अधिक पढ़ीलिखी या ऊंचे परिवार की लड़की नहीं देखी.’’ सुदेश रोते हुए बोली, ‘‘पढ़ीलिखी होती तो कोर्टकचहरी जा कर ऐसीतैसी कर देती. अलग रह कर कमाखा तो सकती थी. ऊंचे खानदान की होती तो घर वाले जरा सी भनक पड़ते ही नाक में नकेल डाल देते. भोलेभाले गरीब लोगों को जाल में फंसा लिया.’’ सुरेश अपनी सफलता पर मंदमंद मुसकरा रहा था.

सुदेश फिर भड़की, ‘‘मेरी मां का माथा तो बारबार ठनकता था कि  इतने पढ़ेलिखे और कमाऊ लड़के को और कोई लड़की क्यों नहीं जंची. मां ने तो पिताजी से अमेरिका में किसी अपने के जरिए से तुम्हारी जांचपड़ताल कराने को भी कहा था. पर वे मामूली आदमी कहां से पता लगाते? कोई बड़ा आदमी होता तो घर बैठे सारी असलियत मालूम कर लेता.’’ सुरेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जो हो गया सो हो गया. अब गुस्सा छोड़ो. जब देश चला करेंगे तब तुम मेरे साथ पत्नी के रूप में चला करोगी. यहां सूजेन मेरी पत्नी रहेगी.’’ सुदेश ने बौखला कर कहा, ‘‘फिर मुझे यहां किस लिए लाए हो? सचाई पता नहीं चलती तो मैं वहीं तुम्हारे नाम की माला जपती रहती. यहां तो पलपल तड़पती रहूंगी और करूंगी भी क्या?’’

सुरेश आपे से बाहर होता हुआ बोला, ‘‘तुम मकान की सफाई करोगी, खाना पकाओगी, बरतन धोओगी, कपड़े साफ करोगी, प्रैस करोगी. सभी काम करोगी.’’

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सुदेश बोली, ‘‘तब तो देश से एक नौकरानी ले आते. तुम ने मेरे साथ शादी का ढोंग क्यों रचा?’’

सुरेश कड़वा सा मुंह बना कर बोला, ‘‘वास्तव में नौकर की ही जरूरत थी. यहां नौकर मिलते नहीं. मिलते हैं तो बहुत महंगे. फिर भरोसे के भी नहीं होते. हम दोनों काम करते हैं, घर की देखभाल कौन करे?’’ सुदेश फफकफफक कर रोने लगी, ‘‘मुझे मेरे घर वापस पहुंचा दो. मेरा टिकट कटा दो. मैं यहां नहीं रहूंगी.’’

सुरेश मुसकराता हुआ बोला, ‘‘अब तुम कभी नहीं लौट पाओगी. टिकट कटाना इतना आसान नहीं. हजारों रुपया किराया लगता है. कम पढ़ीलिखी, साधारण पर स्वस्थ लड़की मैं ने इसीलिए तो छांटी थी. फिर तुम्हें तकलीफ क्या है? अच्छा खाओ, अच्छा पिओ. सूजेन की अनुपस्थिति में तो तुम ही मेरी बीवी रहोगी.’’ सुदेश स्वयं को बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. झल्ला कर बोली, ‘‘तुम सूजेन को छोड़ नहीं सकते? उसे तलाक दे दो.’’

सुरेश बोला, ‘‘अपनी औकात में रहो. सूजेन को छोड़ कर यहां क्या घास खोदूंगा. उसी के बूते पर तो सब ठाटबाट हैं.’’

सुदेश सिर थाम कर बैठ गई. अगले दिन से उसे घर के कामधंधे में जुटना पड़ा. सुरेश और सूजेन सुबह 8 बजे काम पर निकल जाते. सुदेश को घर में ताले में बंद कर जाते. शाम को लौटते. सुरेश ने सूजेन को सुदेश के संबंध में बताया था कि कामकाज के लिए नौकरानी लाया हूं. वह उसी लहजे में सुदेश से बात करती. बातबात पर गाली दे कर डांटती. रात को वे दोनों शयनकक्ष में रंगरेलियां मनाते और सुदेश रसोई के बराबर वाले स्टोर में सिकुड़ी, सिमटी आंसू बहाती हुई पड़ी रहती. एक बार उस ने घर से निकल भागने की कोशिश की, पर पकड़ी गई. सुरेश ने मारतेमारते अधमरा कर दिया. मुक्ति की कोई राह नहीं दिखती थी. किसी तरह घर से निकल भी पड़े तो जाए कहां? वैसे वह हरदम तैयार रहती थी. गरम कपड़ों के नीचे अपने सारे जेवर हर समय पहने रहती थी. अंत में एक दिन अवसर हाथ आ ही गया. सुरेश और सूजेन के विवाह की वर्षगांठ थी. 10 दंपती आमंत्रित थे. काफी रात तक खानापीना, नाचगाना, शोरशराबा चलता रहा. ऐसे में सुदेश का किस को ध्यान रहता. खिलानेपिलाने का काम निबटा कर वह चुपचाप निकल पड़ी.

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घर का न घाट का: भाग 1- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

सुरेश क्लीवलैंड की एक एयरकंडीशनिंग फर्म में इंजीनियर था. अमेरिका में रहते उसे करीब 7 साल हो गए थे. वेतन अच्छा था. जल्दी ही उस ने जीवन की सभी सुविधाएं जुटा लीं. घर वालों को पैसे भी भेजने लगा. आनेजाने वालों के साथ घर वालों के लिए अनेक उपहार जबतब भेजता रहता.

लेकिन न वह स्वदेश आ कर घर वालों से मिलने का नाम लेता और न ही शादी के लिए हामी भरता. उस के पिता अकसर हर ईमेल में किसी न किसी कन्या के संबंध में लिखते, उस की राय मांगते, पर वह टाल जाता. बहुत पूछे जाने पर उस ने साफ लिख दिया कि मुझे अभी शादी नहीं करनी. 8वें साल जब उस के पिता ने बारबार लिखा कि उस की मां बीमार रहती है और वह कुछ दिन की छुट्टी ले कर घर आ जाए तो वह 6 माह की छुट्टी ले कर स्वदेश की ओर चल पड़ा.

घर वालों की खुशी का ठिकाना न रहा. कई रिश्तेदार हवाईअड्डे पर उसे लेने पहुंचे. मातापिता की आंखें खुशी से चमक उठीं. सुरेश लंबा तो पहले ही था, अब उस का बदन भी भर गया था और रंग निखर आया था. घर वालों व रिश्तेदारों के लिए वह बहुत से उपहार लाया था. सब ने उसे सिरआंखों पर बिठाया. सुरेश की मां की बहुत इच्छा थी कि इस अवधि में उस की शादी कर दे. सुरेश ने तरहतरह से टाला, ‘‘बीवी को तो मैं अपने साथ ले जाऊंगा. फिर तुझे क्या सुख मिलेगा? क्लीवलैंड में मकान बहुत महंगे मिलते हैं. मैं तो सुबह 8 बजे का घर से निकला रात 10 बजे काम से लौट पाता हूं. वह बैठीबैठी मक्खियां मारेगी.’’ पर मां ने उस की एक नहीं सुनी. छोटे भाईबहन भी थे. आगे का मलबा हटे तो उन के लिए रास्ता साफ हो.

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सुंदर कमाऊ लड़का देख कर कुंआरी कन्याओं के पिता ने पहले ही चक्कर काटने आरंभ कर दिए थे. जगहजगह से रिश्तेदारों की सिफारिशें आने लगीं. दबाव बढ़ने लगा, खाने की मेज पर शादी के लिए आए प्रस्तावों पर विचारविमर्श होता रहता. सुरेश को न कोई लड़की पसंद आती थी, न कोई रिश्ता. हार कर उस के पिता ने समाचारपत्र में विज्ञापन और इंटरनैट में एक मैट्रीमोनियल साइट पर सुरेश का प्रोफाइल डाल दिया. चट मंगनी, पट ब्याह वाली बात थी. दूसरे ही दिन ढेर सारे फोन और ईमेल आने लगे. उन बहुत सारे ईमेल और फोन में सुरेश ने 3 ईमेल को शौर्टलिस्ट किया. इन तीनों लड़कियों के पास शिक्षा की कोई डिगरी नहीं थी. वे बहुत अधिक संपन्न घराने की भी नहीं थीं. इन के परिवार निम्नमध्यवर्ग से थे.

घर वाले हैरान थे कि इतना पढ़ालिखा, काबिल लड़का और इस ने बिना पढ़ीलिखी लड़कियां पसंद कीं. फिर कोई ख्यातिप्राप्त परिवार भी नहीं कि दहेज अच्छा मिले या वे लोग आगे कुछ काम आ सकें. पर क्या करते? मजबूरी थी, शादी तो सुरेश की होनी थी. तीनों लड़कियों को देखने का प्रोग्राम बनाया गया. एक लड़की बहुत सुंदर थी, पर छरहरे बदन की थी. दूसरी लड़की का रंग सांवला था, पर नैननक्श बहुत अच्छे थे. स्वास्थ्य सामान्य था, तीसरी लड़की का रंगरूप और स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा था.

सुरेश ने तीसरी लड़की को ही पसंद किया. घर वालों को उस की पसंद पर बड़ा आश्चर्य हुआ. शिक्षादीक्षा के संबंध में सुरेश ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘मुझे बीवी से नौकरी तो करानी नहीं. मैं स्वयं ही बहुत कमा लेता हूं.’’ रंगरूप के संबंध में उस की दलील थी, ‘‘मुझे फैशनपरस्त, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली गुडि़या नहीं चाहिए. मुझे तो गृहस्थी चलाने के लिए औरत चाहिए.’’ सुनने वालों की आंखें फैल गईं. कितना सुंदर, पढ़ालिखा, ऊंचा वेतन पाने वाला लड़का और कैसा सादा मिजाज. दोचार हमजोलियों ने मजाक में अवश्य कहा कि यह तो चावल में उड़द या गिलट में हीरा जड़ने वाली बात हुई. पर जिसे पिया चाहे  ही सुहागिन.

लड़की वालों की तो जैसे लौटरी खुल गई थी. घर बैठे कल्पना से परे दामाद जो मिल गया था. वरना कहां सुदेश जैसी मिडिल पास, साधारण लड़की और कहां सुरेश जैसा सुंदर व सुसंपन्न वर. शादी धूमधाम से हुई. सुरेश और सुदेश हनीमून के लिए नैनीताल गए. एक होटल में जब पहली रात आमोदप्रमोद के बाद सुरेश सो गया तो सुदेश कितनी ही देर तक खिड़की के किनारे बैठी कभी झील में उठती लहरों की ओर, कभी आसमान के तारों को निहारती रही. उस के हृदय में खुशी की लहरें उठ रही थीं और उसे लग रहा था कि जैसे आसमान के सारे सितारे किसी ने उस के आंचल में भर दिए हैं. फिर वह लिहाफ उठा कर सुरेश के पैरों की तरफ लेट गई. सुरेश के पैरों को छाती से लगा कर वह सो गई.

15दिन जैसे पलक झपकते बीत गए. सुबह नाश्ता कर के हाथ में हाथ डाले नवदंपती घूमने निकल जाते. शाम को वे अकसर नौकाविहार करने या पिक्चर देखने चले जाते. सोने के दिन थे और चांदी की रातें. सुदेश को कभीकभी लगता कि यह सब एक सुंदर सपना है. वह आंखें फाड़फाड़ कर सुरेश को घूरने लगती. उस की यह दृष्टि सुरेश के मर्मस्थल को बेध देती. वह गुदगुदी कर के या चिकोटी काट कर उसे वर्तमान में ले आता. सुदेश उस की गोद में लेट जाती. सुरेश की गरदन में दोनों बांहें डाल कर दबे स्वर में पूछती, ‘‘जिंदगीभर मुझे ऐसे ही प्यार करते रहोगे न?’’ और सुरेश अपने अधर झुका कर उस का मुंह बंद कर देता, ‘‘धत पगली,’’ कह कर उस के आंसू पोंछ देता.

नैनीताल से लौटी तो सुदेश के चेहरे पर नूर बरस रहा था. तृप्ति का भी अपना अनोखा सुख होता है. सुरेश की छुट्टियां खत्म होने वाली थीं. सुदेश को वह अपने साथ विदेश ले जाना चाहता था. उस की मां ने दबी जबान से कहा, ‘‘बहू को साल 2 साल यहीं रहने दे. सालभर तक रस्मरिवाज चलते हैं. फिर हम को भी कुछ लगेगा कि हां, सुरेश की बहू आ गई,’’ पर सुरेश ने एक न मानी. उस का कहना था कि क्लीवलैंड में भारतीय खाना तो किसी होटल में मिलता नहीं. घर पर बनाने का उस के पास समय नहीं. पहले वह डबलरोटी, अंडे आदि से किसी प्रकार काम चला लेता था. पर जब सुदेश को अमेरिका में ही रहना है तो बाद में जाने से क्या फायदा? वहां के माहौल में वह जितनी जल्दी घुलमिल जाए उतना ही अच्छा.

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वह सुदेश को साथ ले कर अमेरिका रवाना हो गया. जहाज जब बादलों में विचरने लगा तो सुदेश भी खयालों की दुनिया में खो गई. शादी के बाद वह जिस दुनिया में रह रही थी उस की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस ने तो कभी जहाज में बैठने की भी कल्पना नहीं की थी. उस के परिवार में भी शायद ही कोई कभी जहाज में बैठा हो. नैनीताल का भी उस ने नाम ही सुना था. पहाड़ों को काट कर बनाए गए प्रकृति के उस नीरभरे कटोरे को उस ने आंखभर देखने के बारे में भी नहीं सोचा था. पर वहां उस ने जीवन छक कर जिया. वहां बिताए दिनों को क्या वह जीवनभर भूल पाएगी. पूरी यात्रा में वह तरहतरह की कल्पनाओं में खोई रही. वह स्वयं को धरती से ऊपर उठता हुआ महसूस कर रही थी.

सुरेश इस पूरी यात्रा में गंभीर बना रहा. सुदेश का मन करता कि वह उस का हाथ अपने हाथ में ले कर प्रेम प्रदर्शित करे, पर तमाम लोगों की उपस्थिति में उसे लाज लगती थी. यह नैनीताल के होटल का कमरा तो था नहीं. पर थोड़ी देर बाद ही उस का जी घबराने लगता था. उसे सुरेश अजनबी सा लगने लगता था. जहाज के बाद टैक्सी की यात्रा कर के अगली संध्या जब वे गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो सुदेश का मन कर रहा था क वह सुरेश के कंधे पर सिर टेक दे और वह उसे बांहों का सहारा दे कर धीरेधीरे फ्लैट में ले चले. कड़ाके की सर्दी थी. सुदेश को कंपकंपी महसूस हो रही थी. पर सुरेश विचारों में खोया गुमसुम, सूटकेस लिए आगेआगे चला जा रहा था.

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10 साल: भाग 3- नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

लेखिका- लीला रूपायन

दादी बनने का हक हम ने पूरी तरह निभाया. न तो हम ने अपने कपड़ों का ध्यान रखा, न ही चश्मे का. गीता हम इसलिए नहीं पढ़ते थे कि असली गीतापाठ तो यही है, सारा परिवार हमारे कर्मों से खुश रहे. हम पूरी तरह बच्चों को संभालने में रम गए. बहुओं को यह कह कर छुट्टी दे दी, ‘‘अभी तुम लोगों के खानेपीने के दिन हैं, मौज करो, बालगोपाल को हम संभाल लेंगे.’’ हम ने इस बात का बहुत खयाल रखा कि हम बच्चों को इतना प्यार भी न दें कि वे बिगड़ जाएं और हमारे बेटों को सुनना पड़े, ‘तुम्हारी मां ने तुम लोगों को तो इंसान बना दिया था, पर हमारे बच्चों को क्यों जानवर बना डाला?’ बच्चे बड़े हुए तो बहुत डर लगा, अब तक तो सब ठीक था. अब हुआ हमारे बुढ़ापे का कबाड़ा, न चश्मा मिलेगा, न कोई किताब, न ही चप्पलें. मसलन, हमें दिनभर अपने सामान की चिंता करनी पड़ेगी. अब सास की बड़ी याद आई, जिस ने हमारे बच्चों से परेशान हो कर हमें कहा था, ‘जब तुम सास बनो तो तुम्हारी भी ऐसी ही दुर्गति हो.’

हम ने सास के अनुभव को याद कर के बड़ा फायदा उठाया. सास बच्चों को ले कर हमें कोसती थी. लेकिन मैं ने सोचा, ‘मैं बहुओं को नहीं कोसूंगी. उन से प्यार करूंगी. वे स्वयं अपने बालगोपाल को संभाल लेंगी.’ मेरा नुस्खा कारगर साबित हुआ. मैं कहीं भी चीज रख कर भूल जाती तो बच्चों से उन की मां कहती, ‘‘देखें, दादी मां को चीज ढूंढ़ कर कौन देता है.’’ असर यह हुआ कि वे हमारी चीज बिना गुमे ही ढूंढ़ने लगते. तुतला कर पूछते, ‘‘दादी मां, तुच्छ दुमा तो नहीं. धूंध लाऊं.’’ मुझे खानेपीने में देर हो जाती तो वे हम से रूठ जाते. हमारे मुंह में बिस्कुट डाल कर कहते, ‘‘पहले हमाला बिचकत था लो, नहीं तो हम तुत्ती कल देंगे.’’ और अपना हिस्सा खुशीखुशी हमारे पोपले मुंह में डाल देते. मैं खुश हो कर सोचती, ‘अब यह वृद्धावस्था बनी ही रहे तो अच्छा है. कहीं जल्दी चली न जाए.’ अब तो विजयश्री पूरी तरह मेरे हाथ थी. छोटे से ले कर बड़े तक हमारे गुण गाते नहीं थकते थे. आतेजाते के सामने हमारी प्रशंसा होती. पतिदेव की खुशी का ठिकाना नहीं था. हमेशा याद दिलाते, ‘‘तुम्हारी बुद्धिमत्ता से अपनी वृद्धावस्था बड़े मजे में कट रही है.’’ हम ने भी बच्चों को खुश रखने का गुण सीख लिया है. रात को सोने से पहले उन्हें कहानी जरूर सुनाता हूं.

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अब घर में कुछ भी आता, हमारा हिस्सा जरूर होता. सब के कपड़ों के साथ हमारे कपड़े भी बनते, जिसे हम खुशी से बहुओं में ही बांट देते. हमारे बालगोपाल तो हमारा इतना ध्यान रखते कि हमें अकेला छोड़ कर वे अपने मांबाप के साथ भी कहीं जाने को तैयार नहीं होते थे.

हम नन्हेमुन्नों को कहानियां ही ऐसी सुनाते थे कि फलां परी का पोता, अपनी दादी से इतना प्यार करता था, उस का इतना खयाल रखता था कि सब उस की तारीफ करते थे. सभी उस बच्चे को बहुत प्यार करते थे. अब बच्चों में होड़ लग जाती कि कौन हमारा सब से अधिक खयाल रखता है ताकि आनेजाने वालों के सामने उस की प्रशंसा की जाए और उसे शाबाशी मिले. दूसरा काम मैं ने यह किया कि बच्चों को यह सिखा दिया कि अपने मम्मीडैडी का सब से पहले कहना मानना चाहिए. हमें डर था कि कहीं बच्चे सिर्फ हमारा ही कहना मानते रहे तो हो सकता है, हमारे खिलाफ बगावत हो जाए और हम मोरचा हार जाएं. गजब तो उस दिन हुआ, जब इतना ज्यादा प्यार हमारे दिल को सदमा दे गया. हुआ यह कि हमारे नन्हेमुन्नों की मां एक बहुत सुंदर साड़ी लाई थी. वह हमें भी दिखाई गई. उस समय नन्हा भी मौजूद था. यह तो मैं बताना भूल ही गई कि घर में जो कुछ भी आता था, सब से पहले हमें दिखाया जाता था, क्योंकि हम ने अपनी बहुओं को बातोंबातों में कई बार जता दिया था कि हम तो अपनी सासजी को दिखाए बगैर कुछ पहनते ही नहीं थे. जब वे देख लेतीं तब हम उस वस्तु को अपनी अलमारी में शरण देते थे. सो, बहुओं की भी यह आदत बन गई थी. हमें पता था, हमारी सास तो जिंदा है नहीं, जो वे उस से वास्तविकता पूछने जाएंगी.

मैं बता रही थी न कि हमें साड़ी बहुत पसंद आई थी. नन्हा बोला, ‘‘दादी मां, यह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, बहुत अच्छी है,’’ हम ने प्यार करते हुए कहा.

‘‘तो यह तुम ले लो,’’ वह हमारे गले में बांहें डालता हुआ बोला.

‘‘मेरे तो बाल सफेद हो गए, बेटा. मैं इसे अब क्या पहनूंगी,’’ मैं ने मायूसी से कहा.

‘‘तो ऐसा करते हैं, दादी मां, इसे हम तुम्हारे लिए रख लेते हैं,’’ प्यार से बोला वह.

‘‘मेरे लिए क्यों रख लोगे?’’ मैं ने विस्मय से पूछा.

‘‘हम तुम्हारे ऊपर कफन डालेंगे,’’ वह भोलेपन से बोला था.

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‘‘क्या बकवास कर रहा है, जानता है कफन क्या होता है?’’ मम्मी ने उसे डांटा.

‘‘हांहां, जानता हूं, सोमू की दादी मरी थी तो तुम ने डैडी से नहीं कहा था, ‘बहूबेटे ने अपनी मां पर बहुत अच्छा कफन डाला था.’ नन्हा झिड़की खा कर रोंआसा हो गया था. बस, इसी बात का सदमा मेरे मन में बैठ गया है. मैं सोचती हूं इतना प्यार भी किस काम का, जो मरने से पहले कफन भी संजो कर रखवा दे. मुन्ने ने जब से अपनी मां से साड़ी का कफन बनाने के लिए कहा था, वह साड़ी रख दी गई थी, शायद मुन्ने की मां के मन में कफन का नाम सुन कर वहम आ गया था. शायद इसीलिए उस ने उसे नहीं पहना. मेरी परेशानी का अंत नहीं है. मैं अब किस से कहूं, किस नीति का सहारा लूं? कहने से भी डरती हूं. परिवार वाले तो अलग, अपने पति से भी नहीं कह सकती कि मेरा कफन आ गया है. सोचती हूं, क्या कहेंगे, ‘कहां वृद्धावस्था आने से पहले ही मरना चाहती थी. अब जीवन से इतना मोह हो गया है कि मरना ही नहीं चाहती.’  अब तो मुन्ने पर गुस्सा कर के मन ही मन यही कहती हूं. ‘तेरा इतना प्यार भी किस काम का. काश, तू 10 साल बाद पैदा होता ताकि इतनी जल्दी मेरे कफन की व्यवस्था तो न होती.’

10 साल: भाग 2- नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

लेखिका- लीला रूपायन

यह वृद्धावस्था सचमुच ही बड़ी बुरी है. मालूम नहीं लोगों की उम्र इतनी लंबी क्यों होती है? अगर उम्र लंबी ही होनी हो तो उन में कम से कम सामंजस्य स्थापित करने की तो बुद्धि होनी चाहिए? ‘अगर मेरी भी उम्र लंबी हुई तो क्या मैं भी अपने घरवालों के लिए सनकी हो जाऊंगी? क्या मैं अपनी मिट्टी स्वयं ही पलीद करूंगी?’ हमेशा यही सोचसोच कर मैं अपनी सुंदर जवानी को भी घुन लगा बैठी थी. बारबार यही खयाल आता, ‘जवानी तो थोड़े दिन ही अपना साथ देती है और हम जवानी में सब को खुश रखने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन यह कमबख्त वृद्धावस्था आती है तो मरने तक पीछा नहीं छोड़ती. फिर अकेली भी तो नहीं आती, अपने साथ पचीसों बीमारियां ले कर आती है. सब से बड़ी बीमारी तो यही है कि वह आदमी को झक्की बना देती है.’

इसी तरह अपने सामने कितने ही लोगों को वृद्धावस्था में पांव रखते देखा था. सभी तो झक्की नहीं थे, उन में से कुछ संतोषी भी तो थे. पर कितने? बस, गिनेचुने ही. कुछ बच्चों की तरह जिद्दी देखे तो कुछ सठियाए हुए भी.देखदेख कर यही निष्कर्ष निकाला था कि कुछ वृद्ध कैसे भी हों, अपने को तो समय से पहले ही सावधान होना पड़ेगा. बाकी वृद्धों के जीवन से अनुभव ले कर अपनेआप को बदलने में ही भलाई है. कहीं ऐसा न हो कि अपने बेटे ही कह बैठें, ‘वाह  मां, और लोगों के साथ तो व्यवहार में हमेशा ममतामयी बनी रही. हमारे परिवार वाले ही क्या ऐसे बुरे हैं जो मुंह फुलाए रहती हो?’ लीजिए साहब, जिस बात का डर था, वही हो गई, वह तो बिना दस्तक दिए ही आ गई. हम ने शीशे में झांका तो वह हमारे सिर में झांक रही थी. दिल धड़क उठा. हम ने बिना किसी को बताए उसे रंग डाला. मैं ने तो अभी पूरी तरह उस के स्वागत की तैयारी ही नहीं की थी. स्वभाव से तो हम चुस्त थे ही, इसीलिए हमारे पास उस के आने का किसी को पता ही नहीं चला. लेकिन कई रातों तक नींद नहीं आई. दिल रहरह कर कांप उठता था.

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अब हम ने सब पर अपनी चुस्ती का रोब जमाने के लिए अपने काम की मात्रा बढ़ा दी. जो काम नौकर करता था, उसे मैं स्वयं करने लगी. डर था न, कोई यह न कह दे, ‘‘क्या वृद्धों की तरह सुस्त होती जा रही हो?’’ज्यादा काम करने से थकावट महसूस होने लगी. सोचा, कहीं ऐसा न हो, अच्छेखासे व्यक्तित्व का ही भुरता बन कर रह जाए. फिर तो व्यक्तित्व का जो थोड़ाबहुत रोब है, वह भी छूमंतर हो जाएगा. क्यों न कोई और तरकीब सोची जाए. कम से कम व्यक् तित्व तो ऐसा होना चाहिए कि किसी के बाप की भी हिम्मत न हो कभी हमें वृद्धा कहने की. अब मैं ने व्यायाम की कई किताबें मंगवा कर पढ़नी शुरू कर दीं. एक किताब में लिखा था, कसरत करने से वृद्धावस्था जल्दी नहीं आती और काम करने की शक्ति बढ़ जाती है. गुस्सा भी अधिक नहीं करना चाहिए. बस, मैं ने कसरत करनी शुरू कर दी. गुस्सा भी पहले से बहुत कम कर दिया.पूरा गुस्सा इसलिए नहीं छोड़ा ताकि सास वाली परंपरा भी न टूटे. हो सकता है कभी इस से काम ही पड़ जाए. ऐसा न हो, छोड़ दिया और कभी जरूरत पड़ी तो बुलाने पर भी न आए. फिर क्या होगा? परंपरा है न, अपनी सास से झिड़की खाओ और ज ब सास बनो तो अपनी बहू को बीस बातें सुना कर अपना बदला पूरा कर लो. फिर मैं ने तो कुछ ज्यादा ही झिड़कियां खाई थीं, क्योंकि हमें दोनों लड़कों को डांटने की आदत नहीं थी. यही खयाल आता था, ‘अपने कौन से 10-20 बच्चे हैं. लेदे कर 2 ही तो लड़के हैं. अब इन पर भी गुस्सा करें तो क्या अच्छा लगेगा? फिर नौकर तो हैं ही. उन पर कसर तो पूरी हो ही जाती है.’

मेरे बच्चे अपनी दादी से जरा अधिक ही हिलमिल जाते थे. यही हमारी सास को पसंद नहीं था. एक उन का चश्मा छिपा देता तो दूसरा उन की चप्पल. यह सारा दोष मुझ पर ही थोपा जाता, ‘‘बच्चों को जरा भी तमीज नहीं सिखाई कि कैसे बड़ों की इज्जत करनी चाहिए. देखो तो सही, कैसे बाज की तरह झपटते हैं. न दिन को चैन है न रात को नींद. कमबख्त खाना भी हराम कर देते हैं,’’ और जो कुछ वे बच्चों को सुनाती थीं, वह इशारा भी मेरी ओर होता था, ‘‘कैसी फूहड़ है तुम्हारी मां, जो तुम्हें इस तरह ‘खुला छोड़ देती है.’’ मेरी समझ में यह कभी नहीं आया, न ही पूछने की हिम्मत हुई कि ‘खुला छोड़ने से’ आप का क्या मतलब है, क्योंकि इंसान का बच्चा तो पैदाइश से ले कर वृद्धावस्था तक खुला ही रहता है. हां, गायभैंस के बच्चे की अलग बात है.

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तो साहब, मुसीबत आ ही गई. इधर परिवार बढ़ा, उधर वृद्धावस्था बढ़ी. हम ने अपनेआप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया. सोचा, जो कुछ किसी को करना है, करने दो. अच्छा लगेगा तो हंस देंगे, बुरा लगेगा तो चुप बैठ जाएंगे. हमारी इस दरियादिली से पति समेत सारा परिवार बहुत खुश था. बेटेबहुएं कुछ भी करें, हम और उत्साह बढ़ाते. हुआ यह कि सब हमारे आगेपीछे घूमने लगे. हमारे बिना किसी के गले के नीचे निवाला ही नहीं उतरता था. हम घर में न हों तो किसी का मन ही नहीं लगता था. हम ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और पति के साथ घूमने की, पति को खुश करने की पूरी आजादी उन्हें दे दी थी. नौकरों से सब काम वक्त पर करवाती और सब की पसंद का खयाल रखती. हमारा खयाल था, यही तरीका है जिस से हम, सब को पसंद आएंगे. प्रभाव अच्छा ही पड़ा. हमारी पूछ बढ़ गई. हम ने सोचा, लोग यों ही वृद्धावस्था को बदनाम करते हैं. उन्हें वृद्ध बन कर रहना ही नहीं आता. कोई हमें देखे, हम कितने सुखी हैं. सोचती हूं, वृद्धावस्था में कितना प्यार मिलता है. कमबख्त 10 साल पहले क्यों नहीं आ गया.

हमारे व्यवहार और नीति से हमारे बेटे बेहद खुश थे. वे बाहर जाते तो अपनी बीवियों को कह कर जाते, ‘‘अजी सुनती हो, मां को अब आराम करने दो. थक जाएंगी तो तबीयत बिगड़ जाएगी. मां को फलों का रस जरूर पिला देना.’’ और हमारी बहुएं सारा दिन हमारी वह देखभाल करतीं कि हमारा मन गदगद हो जाता. ‘सोचती, ‘हमारी सास भी अपनी आंखों से देख लेतीं कि फूहड़ बहू सास बन कर कितनी सुघड़ हो गई है.’ हमारा परिवार बढ़ने लगा. हम ने सोचा, अब फिर समय है मोरचा जीतने का. अपनी बढ़ती वृद्धावस्था को बालाए ताक रख कर हम ने फिर से अपनी मोरचाबंदी संभाल ली. बहू से कहती, ‘‘मेहनत कम करो, अपना खयाल अधिक रखो.’’ थोड़ा नौकरों को डांटती, थोड़ा बेटे को समझाती, ‘‘इस समय जच्चा को सेवा और ताकत की जरूरत है. अभी से लापरवाही होगी तो सारी जिंदगी की गाड़ी कैसे खिंचेगी?’’ और हम ने बेटे के हाथ में एक लंबी सूची थमा दी. मोरचा फिर हमारे हाथ रहा. बेटे ने सोचा, मां बहू का कितना खयाल रखती हैं.

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10 साल: भाग 1- नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

लेखिका- लीला रूपायन

जब से होश संभाला था, वृद्धों को झकझक करते ही देखा था. क्या घर क्या बाहर, सब जगह यही सुनने को मिलता था, ‘ये वृद्ध तो सचमुच धरती का बोझ हैं, न जाने इन्हें मौत जल्दी क्यों नहीं आती.’ ‘हम ने इन्हें पालपोस कर इतना बड़ा किया, अपनी जान की परवा तक नहीं की. आज ये कमाने लायक हुए हैं तो हमें बोझ समझने लगे हैं,’ यह वृद्धों की शिकायत होती. मेरी समझ में कुछ न आता कि दोष किस का है, वृद्धों का या जवानों का. लेकिन डर बड़ा लगता. मैं वृद्धा हो जाऊंगी तो क्या होगा? हमारे रिश्ते में एक दादी थीं. वृद्धा तो नहीं थीं, लेकिन वृद्धा बनने का ढोंग रचती थीं, इसलिए कि पूरा परिवार उन की ओर ध्यान दे. उन्हें खानेपीने का बहुत शौक था. कभी जलेबी मांगतीं, कभी कचौरी, कभी पकौड़े तो कभी हलवा. अगर बहू या बेटा खाने को दे देते तो खा कर बीमार पड़ जातीं. डाक्टर को बुलाने की नौबत आ जाती और यदि घर वाले न देते तो सौसौ गालियां देतीं.

घर वाले बेचारे बड़े परेशान रहते. करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत. अगर बच्चों को कुछ खाते देख लेतीं तो उन्हें इशारों से अपने पास बुलातीं. बच्चे न आते तो जो भी पास पड़ा होता, उठा कर उन की तरफ फेंक देतीं. बच्चे खीखी कर के हंस देते और दादी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, जहां से वे चाची के मरे हुए सभी रिश्तेदारों को एकएक कर के पृथ्वी पर घसीट लातीं और गालियां देदे कर उन का तर्पण करतीं. मुझे बड़ा बुरा लगता. हाय रे, दादी का बुढ़ापा. मैं सोचती, ‘दादी ने सारी उम्र तो खाया है, अब क्यों खानेपीने के लिए सब से झगड़ती हैं? क्यों छोटेछोटे बच्चों के मन में अपने प्रति कांटे बो रही हैं? वे क्यों नहीं अपने बच्चों का कहना मानतीं? क्या बुढ़ापा सचमुच इतना बुरा होता है?’ मैं कांप उठती, ‘अगर वृद्धावस्था ऐसा ही होती है तो मैं कभी वृद्धा नहीं होऊंगी.’

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मेरी नानी को नई सनक सवार हुई थी. उन्हें अच्छेअच्छे कपड़े पहनने का शौक चर्राया था. जब वे देखतीं कि बहू लकदक करती घूम रही है, तो सोचतीं कि वे भी क्यों न सफेद और उजले कपड़े पहनें. वे सारा दिन चारपाई पर बैठी रहतीं. आतेजाते को कोई न कोई काम कहती ही रहतीं. जब भी मेरी मामी बाहर जाने को होतीं तो नानी को न जाने क्यों कलेजे में दर्द होने लगता. नतीजा यह होता कि मामी को रुकना पड़ जाता. मामी अगर भूल से कभी यह कह देतीं, ‘आप उठ कर थोड़ा घूमाफिरा भी करो, भाजी ही काट दिया करो या बच्चों को दूधनाश्ता दे दिया करो. इस तरह थोड़ाबहुत चलने और काम करने से आप के हाथपांव अकड़ने नहीं पाएंगे,’ तो घर में कयामत आ जाती.

‘हांहां, मेरी हड्डियों को भी मत छोड़ना. काम हो सकता तो तेरी मुहताज क्यों होती? मुझे क्या शौक है कि तुम से चार बातें सुनूं? तेरी मां थोड़े हूं, जो तुझे मुझ से लगाव होता.’ मामी बेचारी चुप रह जातीं. नौकरानी जब गरम पानी में कपड़े भिगोने लगती तो कराहती हुई नानी के शरीर में न जाने कहां से ताकत आ जाती. वे भाग कर वहां जा पहुंचतीं और सब से पहले अपने कपड़े धुलवातीं. यदि कोई बच्चा उन्हें प्यार करने जाता तो उसे दूर से ही दुत्कार देतीं, ‘चल हट, मुझे नहीं अच्छा लगता यह लाड़. सिर पर ही चढ़ा जा रहा है. जा, अपनी मां से लाड़ कर.’ मामी को यह सुन कर बुरा लगता. मामी और नानी दोनों में चखचख हो जाती. नानी का बेटा समझाने आता तो वे तपाक से कहतीं, ‘बड़ा आया है समझाने वाला. अभी तो मेरा आदमी जिंदा है, अगर कहीं तेरे सहारे होती तो तू बीवी का कहना मान कर मुझे दो कौड़ी का भी न रहने देता.’

मेरी नानी से सभी बहुत परेशान थे. मैं तो डर के मारे कभी नानी के पास जाती ही नहीं थी. मुझे देखते ही उन के मुंह से जो स्वर निकलते, वे मैं तो क्या, मेरी मां भी नहीं सुन सकती थीं. कहतीं, ‘बेटी को जरा संभाल कर रख. कमबख्त, न छाती ढकती है न दुपट्टा लेती है. क्या खजूर की तरह बढ़ती जा रही है. बड़ी जवानी चढ़ी है, न शर्म न हया.’ बस, इसी तरह वृद्धों को देखदेख कर मेरे कोमल मन में वृद्धावस्था के प्रति भय समा गया था. वृद्धों को प्यार करो तो चैन नहीं, उन से न बोलो तो भी चैन नहीं. बीमार पड़ने पर उन्हें पूछने जाओ तो सुनने को मिलता, ‘देखने आए हो, अभी जिंदा हूं या मर गया.’ उन्हें किसी भी तरह संतोष नहीं.हमारे पड़ोस वाले बाबाजी का तो और भी बुरा हाल था. वे 12 बजे से पहले कुछ नहीं खाते थे. बेचारी बहू उन के पास जा कर पूछती, ‘बाबा, खाना ले आऊं?’

‘यशवंत खा गया क्या?’ वे पूछते.

‘नहीं, 1 बजे आएंगे,’ बहू उत्तर देती.

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‘अरे, तो मैं क्या उस से पहले खा लूं? मैं क्या भुक्खड़ हूं? तुम लोग सोचते हो मैं ने शायद जिंदगी में कभी खाना नहीं खाया. बडे़ आए हैं मुझे खाना खिलाने वाले. मेरे यहां दसियों नौकर पलते थे. तुम मुझे क्या खाना खिलाओगे.’ बहू बेचारी मुंह लटकाए, आंसू पोंछती हुई चली आती. कुछ दिन ठीक निकल जाते. बेटे के साथ बाबा खाना खाते. फिर न जाने क्या होता, चिल्ला उठते, ‘खाना बना कि नहीं?’

‘बस, ला रहा हूं, बाबा. मैं अभी तो आया हूं,’ बेटा प्यार से कहता. ‘हांहां, अभी आया है. मैं सब समझता हूं. तुम मुझे भूखा मार डालोगे. अरे, मैं ने तुम लोगों के लिए न दिन देखा न रात, सबकुछ तुम्हारे लिए जुटाता रहा. आज तुम्हें मेरी दो रोटियां भारी पड़ रही हैं. मेरे किएकराए को तुम लोगों ने भुला दिया है. बीवियों के गुलाम हो गए हो.’ फिर तो चुनचुन कर उन्हें ऐसी गालियां सुनाते कि सुनने वाले भी कानों में उंगली लगा लेते. बहूबेटे क्या, वे तो अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ते थे. उन के पांव दबातेदबाते बेचारी कभी ऊंघ जाती तो कयामत ही आ जाती. बच्चे कभी घर का सौदा लाने को पैसे देते तो अपने लिए सिगरेट की डब्बियां ही खरीद लाते. न जाने फिर मौका मिले कि नहीं. सिगरेट उन के लिए जहर थी. बच्चे मना करते तो तूफान आ जाता.

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ताईजी: भाग 3- क्या रिचा की परवरिश गलत थी

लेखिका- सरला अग्रवाल

विभा ने जब रिचा से इस विषय पर बात की तो पहले तो वह सकपका गई, फिर बोली, ‘‘रोज ही कोई न कोई समस्या घेरे रहती है, समझ में नहीं आता, कब क्या करूं. पर 6 महीने वाली बात गलत है, मुश्किल से महीनाभर पहले ही तो कपड़ा आया है.’’

‘‘तुम अपने कार्यों को व्यवस्थित कर के किया करो. गृहिणी दफ्तर नहीं जाती, किंतु उस का कार्यक्षेत्र तो सब से अधिक विस्तृत होता है. इस में कहीं अधिक योजना की आवश्यकता होती है, ताकि हर कार्य समय से कुछ पूर्व ही हो जाए और घर के सदस्यों को किसी प्रकार की परेशानी या तनाव गृहिणी के प्रति न रहे.’’विभा ने यह भी देखा था कि हर रोज सुबह नहाने के बाद अलमारी में से कपड़े निकालते समय भी मां और बेटे में अकसर तकरार होती है. उस ने रिचा से इस समस्या को सुलझाने की भी हिदायत दी.एक दिन दोपहर को जब विक्की खेलने की जिद करने लगा तो विभा ने उसे 2 घंटे का गणित का पेपर सैट कर के दे दिया. जब 2 घंटे बाद उस ने विक्की की कौपी जांची तो यह देख कर बहुत प्रसन्न हुई कि विक्की ने 50 में से 50 अंक प्राप्त किए हैं. वह बोली, ‘‘बहुत बढि़या, शाबाश विक्की, पढ़ाई में तो तुम अच्छे हो, तो परीक्षा में इतने कम नंबर क्यों आए?’’

विक्की हंसता हुआ ताईजी से लिपट गया और उन की पप्पी लेता हुआ बोला, ‘‘मुझे अपने साथ ले चलिए, प्लीज ताईजी.’’ विभा उस की मानसिकता देख कर सोच में पड़ गई थी, ‘यह बच्चा अपने मातापिता से दूर क्यों जाना चाहता है? और अपने साथ ले जाना ही क्या इस समस्या का सही निदान है?’

दिन के 12 बजे का समय था. विक्की रिचा के पास जा कर चिल्लाया, ‘‘बड़ी जोर की भूख लगी है. खाना कब दोगी?’’

‘‘क्या खाएगा? मुझे खा ले तू तो, सारा दिन बस ‘भूखभूख’ चिल्लाता रहता है. अभी सुबह तो पेट भर कर नाश्ता किया है, कुछ देर पहले ही फ्रिज में से मिठाई के 3 टुकड़े निकाल कर खा चुका है. मैं सब देख रही थी बच्चू, अब फिर भूखभूख. मुझे भी तो नहानाधोना होता है. चल जा कर पढ़ कुछ देर,’’ रिचा विक्की पर झल्ला पड़ी.

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‘‘हमेशा डांटती रहती हो, अब भूख लगी है तो क्या करूं? पैसे दे दो, बाजार से समोसे खा कर आऊंगा.’’

‘‘यह कह न, कि समोसे खाने का मन है,’’ रिचा चिल्लाई, ‘‘देखिए न दीदी, कितना चटोरा हो गया है. पिछली बार जब मां के पास गई थी तो वहां पर छोटी बहन अपने घर से समोसे बना कर लाती थी. यह अकेला ही खाली कर देता था. देखो न, कितना मोटा होता जा रहा है, खाखा कर सांड हो रहा है.’’

‘‘रिचा, अपनी जबान पर लगाम दो. बच्चे के लिए कैसेकैसे शब्द मुंह से निकालती हो. यह यही सब सीखेगा. जो सुनेगा, वही बोलेगा. जो देखेगा, वही करेगा. पढ़ाई की जो बात तुम ने इस से कही है, वह सजा के रूप में कही है. इसे स्वयं ले कर बैठो, रोचक ढंग से पढ़ाई करवाओ. कैसे नहीं पढ़ेगा? दिमाग तो इस का अच्छा है,’’ विभा दबे स्वर में बोली ताकि विक्की उस की बात सुन न सके. पर इतनी देर में विक्की अपने लिए मिक्सी में मीठी लस्सी बना चुका था. वह खुशी से बोला, ‘‘ताईजी, लस्सी पिएंगी?’’ वह गिलास हाथ में लिए खड़ा था.

‘‘नहीं बेटे, मुझे नहीं पीनी है, तुम पी लो.’’

‘‘ले लीजिए न, मैं अपने लिए और बना लूंगा, दही बहुत सारा है अभी.’’

‘‘नहीं विक्की, मेरा मन नहीं है,’’ विभा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘दीदी, मेरी बहनों के बच्चों के साथ रह कर इसे भी बाजार के छोलेभटूरे, आलू की टिकिया, चाट, समोसे वगैरा खाने की आदत पड़ गई है. उन के बच्चे हर समय ही वीडियो गेम खेलते हैं, अनापशनाप खर्च करते हैं, पर हम तो इतना खर्च नहीं कर सकते. इतना समझाती हूं, पर यह माने तब न. इसी कारण तो अब मैं दिल्ली जाना ही नहीं चाहती.’’ ‘‘बस, शांत हो जाओ. विक्की को चैन से लस्सी पीने दो. उसे समझाने का तुम्हारा तरीका ही गलत है,’’ विभा चिढ़ कर बोली.

‘‘अब आप भी मेरे ही पीछे लग गईं?’’ रिचा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मेरा बच्चा ही जब मेरा नहीं रहा तो मैं औरों से क्या आशा करूं?’’ विभा ने सोचा, ‘इसी प्रकार तो नासमझ माताएं अपने बच्चों से हाथ धो बैठती हैं. बच्चों का मनोविज्ञान, उन की इच्छाअनिच्छा, उन के आत्मसम्मान व स्वाभिमान के विषय में तो कुछ समझती ही नहीं हैं. बस, अपनी ही हांकती रहती हैं. सोचती यही हैं कि उन के बच्चे को घर के और लोग ही बिगाड़ रहे हैं, जबकि इस कार्य में उन का स्वयं का हाथ भी कुछ कम नहीं होता.’ ‘‘बढ़ता बच्चा है, छुट्टियों के दिनों में कुछ तो खाने का मन करता ही है. कुछ नाश्ते का सामान, जैसे लड्डू, मठरी, चिड़वा वगैरा बना कर रख लो,’’ विभा ने अगले दिन कहा.

‘‘तो क्या मैं उसे खाने को नहीं देती? जब कहता है, तुरंत ताजी चीज बना कर खिलाती हूं.’’

‘‘वह तो ठीक है रिचा, पर हर समय तो गृहिणी का हाथ खाली नहीं होता न, फिर बनाने में भी कुछ देर तो लग ही जाती है. नाश्ता घर में बना रखा हो तो वह स्वयं ही निकाल कर ले सकता है. मैं आज मठरियां बनाए देती हूं.’’

‘‘अभी गैस खाली है नहीं, खाना भी तो बनाना है,’’ रिचा ने बेरुखी से कहा.

‘‘ठीक है, जब कहोगी तभी बना दूंगी,’’ विभा रसोई से खिसक ली. व्यर्थ की बहसबाजी में पड़ना उस ने उचित न समझा. वैसे भी अगले दिन तो उसे अपने घर जाना ही था. कौन कब तक किसी की समस्याओं से जूझ सकता है? पर जब कोई व्यक्ति हठधर्मी पर ही उतर आए और अपनी ही बात पर अड़ा रहे तो उस का क्या किया जा सकता है?

‘बच्चे तो ताजी मिट्टी के बने खिलौने होते हैं, उन पर जैसे नाकनक्शे एक बार बना दो, हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं. संस्कार डालने का कार्य तो केवल मां ही करती है. चंचल प्रकृति के बच्चों को कैसे वश में रखा जा सकता है, यह भी केवल मां ही अधिक समझ सकती है,’ विभा ने सोचा. ‘‘ताईजी, मुझे पत्र लिखोगी न?’’ विक्की ने प्यार से विभा के गले में बांहें डालते हुए पूछा.

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‘‘हां, अवश्य,’’ विभा हंस पड़ी.

‘‘वादा?’’ प्रश्नवाचक निगाहों से विक्की ने उन की ओर देखा.

‘‘वादा. पर तुम अब खूब मन लगा कर पढ़ोगे, पहले यह वादा करो.’’

‘‘वादा, ताईजी, आप बहुत अच्छी हैं. अब मैं मन लगा कर पढ़ूंगा.’’

‘‘खूब मन लगा कर पढ़ना, अच्छे नंबर लाना, मां का कहना मानना और अगली छुट्टियों में हमारे घर जरूर आना.’’

‘‘ठीक,’’ विक्की ने आगे बढ़ कर ताईजी की पप्पी ली. आने वाले निकट भविष्य के सुखद, सुनहरे सपनों की दृढ़ता व आत्मविश्वास  उस के नेत्रों में झलकने लगा था. ‘‘मेरे बच्चे, खूब खुश रहो,’’ विभा ने विक्की को गले से लगा लिया. तभी रेलगाड़ी ने सीटी दी. विक्की के पिताजी ने उसे ट्रेन से नीचे उतर आने के लिए आवाज दी.

‘‘ताईजी, आप मत जाइए, प्लीज,’’ विक्की रो पड़ा.

‘‘बाय विक्की,’’ विभा ने हाथ हिलाते हुए कहा. गाड़ी स्टेशन से खिसकने लगी थी. विक्की प्लेटफौर्म पर खड़ा दोनों हाथ ऊपर कर हिला रहा था, ‘‘बाय, ताईजी,  बाय.’’ उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.

‘‘विक्की, अपना वादा याद रखना,’’ ताईजी ने जोर से कहा.

‘‘वादा ताईजी,’’ उस ने प्रत्युत्तर दिया. गाड़ी की गति तेज हो गई थी. विभा अपने रूमाल से आंसुओं को पोंछने लगी.

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ताईजी: भाग 1- क्या रिचा की परवरिश गलत थी

लेखिका- सरला अग्रवाल

‘‘मां, मेरा टेपरिकौर्डर दे दो न, कब से मांग रहा हूं, देती ही नहीं हो,’’ विक्की ने मचलते हुए कहा.

‘‘मैं ने कह दिया न, टेपरिकौर्डर तुझे हरगिज नहीं दूंगी, बारबार मेरी जान मत खा,’’ रिचा ने लगभग चीखते हुए कहा.

‘‘कैसे नहीं दोगी, वह मेरा है. मैं ले कर ही रहूंगा.’’

‘‘बड़ा आया लेने वाला. देखूंगी, कैसे लेता है,’’ रिचा फिर चिल्लाई.

रिचा का चीखना सुन कर विक्की अपने हाथपैर पटकते हुए जोरजोर से रोने लगा, ‘‘देखो ताईजी, मां मेरा टेपरिकौर्डर नहीं दे रही हैं. आप कुछ बोलो न?’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोला.

‘‘रिचा, क्या बात है, क्यों बच्चे को रुला रही हो, टेपरिकौर्डर देती क्यों नहीं?’’

‘‘दीदी, आप बीच में न बोलिए. यह बेहद बिगड़ गया है. जिस चीज की इसे धुन लग जाती है उसे ले कर ही छोड़ता है. देखिए तो, कैसे बात कर रहा है. तमीज तो इसे छू नहीं गई.’’

‘‘पर रिचा, तुम ने बच्चे से वादा किया था तो उसे पूरा करो,’’ जेठानी ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘मत रो बच्चे, मैं तुझे टेपरिकौर्डर दिला दूंगी. चुप हो जा अब.’’

‘‘दीदी, अब तो मैं इसे बिलकुल भी देने वाली नहीं हूं. कैसे बदतमीजी से पेश आ रहा है. सच कह रही हूं, आप बीच में न पडि़ए,’’ रिचा बोली.

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रिचा की बात सुन कर विभा तत्काल कमरे से बाहर चली गई. विक्की उसी प्रकार रोता, चीखता रहा. दोपहर के खाने से निबट कर देवरानी, जेठानी शयनकक्ष में जा कर लेट गईं. बातोंबातों में विक्की का जिक्र आया तो रिचा कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं तो इस लड़के से परेशान हो गई हूं. न किसी का कहना मानता है, न पढ़ता है, हर समय तंग करता रहता है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, रिचा. तुम्हारा एक ही बेटा है, वह भी इतना प्यारा, इतना सुदर्शन, इतना कुशाग्र बुद्धि वाला, तिस पर भी तुम खुश नहीं हो. अब उसे तुम कैसा बनाती हो, कैसे संस्कार प्रदान करती हो, यह तो तुम्हारे ही हाथ में है,’’ विभा ने समझाया.

‘‘क्या मेरे हाथ में है? क्या यहां मैं अकेली ही बसती हूं?’’ रिचा तैश में आ गई, ‘‘मैं जो उसे समझाती हूं, दूसरे उस की काट करते हैं. ऐसे में बच्चा भी उलझ जाता है, क्या करे, क्या न करे. अभी परसों की ही बात है, इन के बौस के बच्चे आए थे. ये उन के लिए रसगुल्ले व नमकीन वगैरा ले कर आए थे. सब को मैं ने प्लेटें लगा कर 2-2 रसगुल्ले व नमकीन और बिस्कुट रख कर दिए. इसे भी उसी तरह प्लेट लगा कर दे दी. मैं रसोईघर में उन के लिए मैंगोशेक बना रही थी कि यह आ कर कहने लगा, ‘मां, मैं रसगुल्ले और खाऊंगा.’

‘‘मैं ने कहा, ‘खा लेना, पर उन के जाने के बाद. अब इतने रसगुल्ले नहीं बचे हैं कि सब को 1-1 और मिल सकें.’ तब विक्की तो मान सा रहा था पर मांजी तुरंत मेरी बात काटते हुए बोलीं, ‘अरी, क्या है? एक ही तो बच्चा है, खाने दो न इसे.’

‘‘अब बोलिए दीदी. यह कोई बात हुई? जब मैं बच्चे को समझा रही हूं सभ्यता की बात, तो वे उसे गलत काम करने के लिए शह दे रही हैं. मैं भी मना तो नहीं कर रही थी न, बस यही तो कह रही थी कि अतिथियों के जाने के बाद और रसगुल्ले खा लेना. बस, इसी तरह कोई न कोई बात हो जाती है. जब मैं इसे ले कर पढ़ाने बैठती हूं, तब भी वे टोकती रहती हैं. बस, दादी की तरफ देखता हुआ वह झट से उठ कर भाग लेता है. लीजिए हो गई पढ़ाई. अब तो पढ़ाई से इतना कतराने लगा है कि क्या बताऊं, किसी समय भी पढ़ना नहीं चाहता.’’

‘‘स्कूल की परीक्षाओं में कैसे नंबर ला रहा है? वहां की प्रोग्रैस रिपोर्ट कैसी है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘अरे, बस पूछो मत कि क्या हाल है. अब तो झूठ भी इतना बोलने लगा है कि क्या बताऊं.’’

‘‘जैसे?’’ विभा ने हैरानी दर्शाई.

‘‘पिछली बार कई दिनों तक पूछती रही, ‘बेटे, तुम्हारे यूनिट टैस्ट की कौपियां मिल गई होंगी, दिखाओ तो सही.’ तब बोला, ‘अभी कौपियां नहीं मिली हैं. जब मिलेंगी तो मैं खुद ही आप को दिखा दूंगा.’ जब 15 दिन इसी प्रकार बीत गए तो हार कर एक दिन मैं इस की कक्षा के एक लड़के संजय के घर पहुंची तो पता चला कि कौपियां तो कब की मिल चुकी थीं.

‘‘‘क्यों, विकास ने अपनी कौपियां दिखाई नहीं क्या?’ संजय ने हैरानी से पूछा.

‘‘‘नहीं तो, वह तो कह रहा था कि मैडम ने अभी कौपियां दी ही नहीं हैं,’ मैं ने उसे बताया तो वह जोरजोर से हंसने लगा, ‘विक्की तो इस बार कई विषयों में फेल हो गया है, इसी कारण उस ने आप को कौपियां नहीं दिखाई होंगी.’

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‘‘मुझे बहुत क्रोध आया, खुद को अपमानित भी महसूस किया. उस की मां के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी देख कर मैं फौरन घर आ गई. ‘‘जब इसे खूब पीटा, तब जा कर इस ने स्वीकार किया कि झूठ बोल रहा था. अब बताइए, मैं क्या कर सकती हूं? यही नहीं, रिपोर्टकार्ड तक इस ने छिपा कर रख दिया था. कई हफ्तों के बाद वाश्ंिग मशीन के नीचे पड़ा मिला. अरे, क्याक्या खुराफातें हैं इस की, आप को क्याक्या बताऊं, यह तो अपनी मासिक रिपोर्टबुक पर अपने पिता के नकली हस्ताक्षर कर के लौटा आता है. अब बोलिए, क्या करेंगी आप ऐसे लड़के के साथ?’’ रिचा गुस्से में बोलती जा रही थी.

‘‘पिछले वर्ष तक तो इस के काफी अच्छे नंबर आ रहे थे, अब अचानक क्या हो गया?’’ विभा ने पूछा.

‘‘इस के पिता तो इस से कभी पढ़ने को कहते नहीं हैं, न ही कभी खुद पढ़ाने के लिए ले कर बैठते हैं. केवल मैं ही कहती हूं तो इसे अब फूटी आंखों नहीं सुहाती. क्या मां हो कर भी इस का भविष्य बिगाड़ दूं, बताओ, दीदी?’’

‘‘पर रिचा, बच्चों को केवल प्यार से ही वश में किया जा सकता है, मार या डांट से नहीं. तुम जितना अधिक उसे मारोगी, डांटोगी, वह उतना ही तुम से दूर होता जाएगा. पढ़ाई से भी इसीलिए दिल चुराता है, तुम पढ़ाती कम हो और डांटती अधिक हो. कल तुम कह रही थीं, ‘अरे, यह तो निकम्मा लड़का है, यह जीवन में कुछ नहीं कर सकता. यह तो जूते पौलिश करेगा सड़क पर बैठ कर…’ ‘‘कहीं ऐसे शब्द भी कहे जाते हैं? तुम ने तो साधारण तौर पर कह दिया, पर बच्चे का कोमल हृदय तो टूट गया न,  बोलो?’’ विभा ने कहा.

‘‘ताईजी, ताईजी, शतरंज खेलेंगी मेरे साथ?’’ अचानक विक्की ने विभा का हाथ पकड़ते हुए पूछा. संभवतया वह इस लज्जाजनक प्रसंग को अब बंद करवाना चाहता था.

‘‘बेटा, मुझे तो शतरंज खेलना नहीं… तुम अपने ताऊजी के साथ खेलते तो हो न?’’

‘‘पर अभी तो वे कहीं गए हैं, आप खेलो न.’’

‘‘पर जब आता ही नहीं तो कैसे खेलूंगी?’’

‘‘अच्छा, तो ताश खेलते हैं.’’

‘‘ले आओ, कुछ देर खेल लेती हूं,’’ विभा ने हंसते हुए विक्की को गुदगुदाया तो वह दौड़ कर ताश की गड्डी ले आया.

‘‘कौन सा खेल खेलोगे, विक्की?’’ विभा ने पूछा.

‘‘रमी खेलें, ताईजी?’’

‘‘ठीक है, पर बांटोगे हर बार तुम ही, मैं नहीं बाटूंगी, मंजूर?’’ विभा ने शर्त रखी. उस की तबीयत ठीक नहीं थी, वह लेटेलेटे ही खेलना चाहती थी.

‘‘मंजूर, आप तकिए के सहारे लेट जाइए,’’ विक्की ने पत्ते बांटे. ताईजी के साथ खेलने में उसे इतना अधिक आनंद आ रहा था कि बस पूछो मत.

‘‘ताश के अलावा तुम और कौनकौन से खेल खेलते हो?’’ विभा ने पूछा.

‘‘बहुत सारे खेल हैं, ताईजी,’’ विक्की खुश होता हुआ बोला, ‘‘लूडो, सांपसीढ़ी, शतरंज, ट्रबल, व्यापार, स्क्रैबल, स्कौटलैंड यार्ड, मकैनो, कार रेस…’’

‘‘अरे, बसबस, इतने सारे खेल हैं तुम्हारे पास? बाप रे, किस के साथ खेलते हो?’’

‘‘किसी के भी नहीं.’’

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‘‘अरे, यह क्या बात हुई, फिर खरीदे क्यों हैं?’’

‘‘कुछ मौसी लाई थीं, कुछ बड़ी ताईजी लाई थीं, कुछ जन्मदिन पर आए तो कुछ पिताजी दौरे पर गए थे, तब ले कर आए थे. ताईजी, पड़ोस के रवींद्र के घर खेलने जाता हूं तो मां कहती हैं कि अपने इतने महंगे खेल वहां मत ले जाया करो. जब उन्हें मैं अपने घर पर खेलने के लिए बुलाता हूं तो मां कहती हैं कि कितना हल्ला मचा रखा है, बंद करो खेलवेल, हर समय खेल ही खेल, कभी पढ़ भी लिया करो.’’

‘‘और घर में कौनकौन खेलता है तुम्हारे साथ? मातापिता खेलते हैं कभी?’’ विभा ने पूछा तो वह कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा, फिर ताश बंद कर के उठ कर चला गया.

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ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 1- क्या हुआ आलोक के साथ

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

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मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मैं कुछ देर के लिए सकते में अवश्य आ गई थी लेकिन बाऊजी के प्यार व उन की शिक्षा का ऐसा असर था कि मैं बहुत जल्द सामान्य हो गई थी.

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खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

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हवाई जहाज दुर्घटना: भाग 1- क्या हुआ था आकृति के साथ

लेखक-डा. भारत खुशालानी,

आकृति अपने टीवी सेट से गढ़ी हुई थी. खबर थी, लाहौर से कराची जाने वाला विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया.

उसी की खबर को हर चैनल पर दिखाया जा रहा था.

अलविदा जुम्मा… ईद से पहले का जुम्मा… उस पर ऐसा कहर बरपा था कुदरत ने… जैसे वायरस का प्रकोप कम पड़ गया हो प्रकृति को कहर ढाने के लिए.

कराची हवाईअड्डे के पास ही में एक कालोनी पर दुर्घटनाग्रस्त हो कर विमान गिर गया था. काले धुएं का भयंकर गुबार उठ रहा था. कोरोना वायरस के कारण लौकडाउन होने के बावजूद लोग ईद मनाने के लिए अपने रिश्तेदारों के घर आजा रहे थे.

हवाईअड्डे के पास की छोटी तंग गलियों के इलाके में मकानों के ऊपर यह हवाईजहाज गिर गया था. एंबुलेंस वहां आ रही थीं. अग्निशामक दस्ते पानी के बड़े फव्वारों को टूटे हुए विमान के जलते हुए टुकड़ों पर डाल कर ठंडा कर रहे थे.

वहां लोगों की भारी भीड़ खडी हो कर अविश्वसनीय आंखों से यह दृश्य देख रही थी. बहुत से लोग मलबे से लाशों को निकालने में जुटे हुए थे.

एक चैनल पर विमान चालक के साधारण से शब्द सुनाए जा रहे थे, “मे डे, मे डे, मे डे … पकिस्तान 8303.” इस का मतलब था कि पाकिस्तान की हवाई उड़ान पी-आई-ए संख्या 8303 इतनी खतरे में पहुंच गई थी कि उस का बच पाना लगभग नामुमकिन था.

हवाईजहाज के दोनों इंजनों में आग लग गई थी. 3 बार रनवे का चक्कर काटने के बावजूद हवाईजहाज रनवे पर उतर ही नहीं सका, जबकि टावर से उस के विमान तल पर उतरने के लिए दोनों रनवे खाली करवा दिए गए थे.

2 यात्री घायल हो गए, मगर उन की जान बच गई. विमान में मौजूद बाकी सारे यात्री, विमान के स्टाफ समेत सभी मौत की नींद सो गए.

आकृति बेहद विचलित थी. पिछले महीने ही उस ने गर्भपात कराया था, अपने कैरियर को ध्यान में रखते हुए. पहले से ही वह तनावपूर्ण अवस्था में थी. उस पर यह विमान दुर्घटना.

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आकृति ने अपने माथे को जोर से पकड़ लिया. सोमवार 25 मई, 2020 को उड़ान भरने वाले चालकों की सूची में उस का भी नाम था. 2 महीने लौकडाउन में रहने के बाद घरेलू उड़ानें उड़ने के लिए तैयार हो रही थीं. दिल्ली से नागपुर जाने वाली उड़ान में उस का नाम चालिका के रूप में था. उस की सहचालिका इंदरजीत कौर थी.

आकृति बेहद तनाव में आ गई. रातभर उसे नींद नहीं आई. हर बार आंख लगने पर उसी दुर्घटनाग्रस्त विमान का उन 10 बिल्डिंगों पर गिर कर उन को नष्ट कर देने की तसवीरें. मलबे में दबे हुए लोगों की निकाली जा रही लाशें. रिश्तेदारों के रोनेबिलखने की तसवीरें. हवाईजहाज की धीमी उतराव की तसवीरें और उस के बाद सब खत्म.

कुछ लोगों का यह मानना है कि हमारी सोच ही हमारा निर्माण करती है. हमारे व्यक्तित्व का तो वो निर्माण करती ही है, लेकिन हमारे आसपास की परिस्थितियों का भी वो निर्माण करती है. हमारी सोच ही हमारे आसपास ऐसी परिस्थितियां बना देती है, जो हमारी सोच के अनुकूल हो. जरूरी नहीं कि हमारी सोच सकारात्मक हो. नकारात्मक सोच नकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण करने में सक्षम होती है. ऐसी धारणा है.

पता नहीं, यह कहां तक सच है. अगर किसी के मन में किसी बीमारी को ले कर डर बना हुआ है और वो लगातार इस बीमारी के बारे में सोचता जा रहा है, जो मनोविज्ञान के जटिल सिद्धांतों के अनुसार, उस व्यक्ति के इसी बीमारी से रोगी होने के पूरेपूरे आसार हैं.

कराची विमान दुर्घटना ने भी ऐसी ही बीमारी का रूप आकृति के मन में धर लिया. वैसे तो हादसे हजारों होते हैं. विमान से संबंधित हादसे भी कई होते हैं, लेकिन मन में डर तब बैठ जाता है, जब मन में चोर छिपा हो.

नियम के अनुसार, आकृति को अपने गर्भपात के बारे में विमान कंपनी को बता देना चाहिए था. लेकिन इतना समय यों ही घर में बैठे रहने या वापस अपने काम पर जाने की चाह से, आकृति ने किसी को कुछ भी बताना उचित नहीं समझा. कंपनी नियम के इस उल्लंघन ने उस के मन में चोर की भावना पैदा कर दी.

जाहिर है, गर्भपात के बाद कंपनी आकृति को 2-3 महीने और घर में बिठा कर रखती, और आकृति किसी भी दृष्टि से अपनेआप को हवाईजहाज उड़ाने में नाकाबिल नहीं समझ रही थी. गर्भपात कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी. लेकिन कंपनी वालों के लिए यह मनोवैज्ञानिक असंतुलन की बात थी. हवाई यात्रियों की सुरक्षा, कंपनी वालों की हर सूची में सब से ऊपर थी.

उड़ान के दिन, मास्क और ग्लब्स पहने हुए यात्रियों के जनसमुदाय ने दिल्ली से नागपुर जाने वाले आकृति के विमान में अपनीअपनी जगहें लीं. निश्चित समय पर विमान अपने गंतव्य स्थान की ओर उड़ चला.

उड़ान के दौरान आकृति की नजरों के आगे दुर्घटनाग्रस्त विमान के हजारों टुकड़े रहरह कर आ रहे थे.

एक बात से आकृति और भी ज्यादा व्यथित हो गई थी. उस का विमान भी एयरबस 320 था. ठीक वही विमान, जो कराची में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था.

वैसे तो एयरबस 320 का खुद का सुरक्षा रिकार्ड बहुत ही उम्दा था, लेकिन मस्तिष्क पर भय के हौवे के आगे बड़ी से बड़ी सुरक्षा में भी भेद ढूंढ़ पाना आसान था.

आकृति के दिमाग में रहरह कर यही बात आ रही थी कि 2 दिन पहले की दुर्घटना में हवाईजहाज में मौजूद सभी स्टाफ की मौत हो गई थी. चालक, सहचालक और कर्मी दल मिला कर 8 स्टाफ के लोग थे. आठों की मृत्यु हो गई थी. और उस से भी बड़ा इत्तिफाक यह था कि दुर्घटनाग्रस्त विमान भी लाहौर से एक बजे निकल कर कराची ढाई बजे पहुंचने वाला था, और आकृति की उड़ान भी दिल्ली से एक बजे निकल कर पौने 3 बजे नागपुर पहुंचने वाली थी. इतने बड़े संयोग एकसाथ हो रहे थे. इन्हीं के चलते आकृति के दिल की धडकनें तेज हो गई थीं.

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पता नहीं, वह कैसा संयोग था या आकृति के मस्तिष्क की किरणों से उत्पन्न नकारात्मक परिस्थिति कि जब आकृति अपने विमान को नागपुर के बाबासाहेब अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे के एकदम पास ले कर आ गई तो विमान के बाईं ओर के इंजन में आग लग गई.

विमान 7,000 फुट की ऊंचाई पर उड़ रहा था, दौड़पथ बिलकुल सामने था, शहर की इमारतें कुछ दूरी पर टिमटिमा रही थीं. कुछ ही सैकंडों में वायुयान के चालक स्थान में घंटियां बजने लगीं.

ये घंटियां विमान की अलगअलग प्रणालियों की विफलताओं की चेतावनी दे रही थीं. चालक स्थान लाल बत्तियों से चमक उठा था. हर लाल बत्ती किसी न किसी प्रणाली के खराब होने का संकेत था.

दुर्भाग्यवश, जिस समय विमान के इंजन को आग लगी और विमान को तेज झटका लगा, ठीक उसी समय विमान में आकृति की सहचालिका इंदरजीत कौर अपनी सहचालक की सीट से उठी, शायद टायलेट जाने के लिए. जैसे ही वह उठी, विमान को जोर का झटका लगा. इंदरजीत अपना संतुलन खो बैठी और अपनी ऊंचाई की वजह से उस का सिर कौकपिट की एकदम कम ऊंचाई वाली छत से टकरा गया. उस के सिर पर चोट आ गई और इंदरजीत वहीं बेहोश हो गई.

 

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