Hindi Kahaniyan : क्या यही प्यार है – क्यों दीपाली की खुशहाल गृहस्थी हुई बर्बाद?

Hindi Kahaniyan : दीपाली की शादी में कोई अड़चन नहीं हो सकती थी, क्योंकि वह बहुत सुंदर थी. किंतु उस के मातापिता को न जाने क्यों कोई लड़का जाति, समाज में जंचता नहीं था. खूबसूरत दीपाली की शादी की उम्र निकलती जा रही थी. पिता कालेज में प्रिंसिपल थे. किसी भी रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे थे. अंतत: हार कर दीपाली ने एक गुजराती युवक अरुण के साथ अपने प्रेम की पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं. दीपाली और अरुण का प्रेम 3-4 साल चला. मृत्युशैया पर पड़े प्रिंसिपल साहब ने मजबूरन अपनी सुंदर बेटी को प्रेम विवाह की इजाजत दे दी.

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दीपाली के विवाह बाद उस के पिता की मौत हो गई. उधर अरुण एक सच्चे प्रेमी की तरह दीपाली को पत्नी का सम्मान देते हुए अपने परिवार में अपनी मां के पास ले गया. घर का व्यवसाय था. आर्थिक स्थिति मजबूत थी. अरुण दीपाली को जीजान से चाहता था. किंतु दीपाली को अरुण की मां कांतिबेन का स्वभाव नहीं सुहाता था.  कांतिबेन अपनी पारिवारिक परंपराओं का पालन करती थीं जैसे सिर पर पल्लू डालना आदि. वे दीपाली को जबतब टोक देतीं कि वह हाथपांव ढक कर रखे, सिर पर आंचल डाले आदि. यह सब गुजराती परिवार में बहू का सामान्य आचरण था. किंतु दीपाली को यह कतई पसंद नहीं था.

इसी वजह से इस अंतर्जातीय विवाह में दरार पड़ने लगी. शुरू में अरुण ने दीपाली को समझाबुझा कर शांत रखने की मनुहार की. किंतु अरुण की मानमनौअल तब बेकार हो गई जब दीपाली इस टोकाटाकी से बेहद चिढ़ गई और अरुण के बहुत समझाने पर भी मायके चली गई. दीपाली मायके गई तो उस की मां माया ने उसे समझाने के बदले अपनी दूसरी बेटियों संग भड़काना शुरू कर दिया.

दीपाली की बहन राजश्री ने तो आग में घी डालने का काम कर दिया. वैसे भी राजश्री की आदत सब के घर मीनमेख निकाल कर कलह कराने की थी. दीपाली के विवाह को भी उस ने नहीं छोड़ा. सभी बहनों को वह सास के प्रति कठोरता बरतने की शिक्षा देने लगी.  मां और बहन के बहकावे में आ कर दीपाली ने अपने पति अरुण के प्यार से मुख मोड़ लिया. बेचारा अरुण कितनी बार आता, रूठी पत्नी को मनाता पर न तो दीपाली टस से मस हुई, न उस की मां माया. मायके में भाभी सारा काम कर लेती, दीपाली मां के साथ घूमतीफिरती रहती. रात को खापी कर सो जाती.

घरेलू कामकाज न होने तथा खाने और बेफिक्री से सोने से दीपाली का शरीर  काफी भर गया. अब वह सुकोमल की जगह मोटी सी बन गई. हालांकि आकर्षक वह अब भी थी. पर पति के प्रेम को ठुकराने से उस के सौंदर्य में वह मासूमियत नहीं छलकती.  दीपाली अपने मायके में खानेसोने में दिन गुजारने में मस्त थी तो दूसरी तरफ अरुण अपनी पत्नी के लिए हमेशा उदास रहता. कांतिबेन भी चाहती थीं कि उन की बहू घर लौट आए तो बेटे का परिवार आगे बढ़े और वे भी बच्चों को खेलाएं.  मगर फिर दीपाली अपनी ससुराल नहीं गई. अरुण उस से पहले मिलने आता रहा, पर बाद में फोन तक ही शादी सिमट गई. अकेले रहते हुए भी अरुण ने न कहीं चक्कर चलाया और न ही दीपाली ने उसे तलाक दिया. वह अरुण की जिंदगी को अधर में लटकाए रही.

अरुण मनातेमनाते थक गया. दिल में दीपाली के लिए सच्ची चाहत थी. जिंदगी ऐसे ही खाली व अकेले कटने लगी. वह नहीं सोच सका कि दीपाली से अलग भी दुनिया हो सकती है. पत्नी से दूर रह कर वह खोयाखोया सा रहता था. एक दिन न जाने बाइक चलाते किन खयालों में गुम था कि एक ट्रक से टकरा गया. माथे पर गहरी चोट लगी.  कांतिबेन व उस के पति ने दीपाली को खबर भेजी. मगर न दीपाली ने और न ही उसकी मां ने अस्पताल जा कर अरुण को देखना उचित समझा. उलटे इस नाजुक मौके पर दीपाली की मां ने अरुण के पिता से सौदेबाजी शुरू कर दी.  उधर अरुण अस्पताल में इलाज करा रहा था, इधर दीपाली की मां ने कहला भेजा कि दीपाली अब उस की सास के संग हरगिज नहीं रहेगी. उसे एक नई जगह, नए क्वार्टर में बसाया जाए.

अपने घायल बेटे के सुख के लिए उस के पिता नारायण ने यह शर्त भी कबूल कर ली. किंतु जख्मी बेटे की तीमारदारी में वे ऐसे व्यस्त रहे कि अलग से घरगृहस्थी से मुक्त सजासजाया कमरा बेटे के लिए अरेंज नहीं कर सके.  इसी तरह कुछ दिन और निकल गए, पर अपने कमजोर हो चुके जख्मी पति को देखने दीपाली अस्पताल नहीं आई. वह बस नए कमरे की मांग पर अड़ी रही. मानो उसे अपने पति से ज्यादा परवाह अपने लिए अलग कमरे की थी.  अरुण को अस्पताल से डिस्चार्ज करा कर उस के पिता घर ले आए. फिर बेटे की नई गृहस्थी बसाने के लिए नए कमरे की व्यवस्था में जुट गए.  किंतु घायल अरुण के दिल पर दीपाली की इस स्वार्थी शर्त का और बुरा प्रभाव पड़ा. वह अब और ज्यादा गुमसुम रहने लगा. पहले की भांति वह रूठी पत्नी को मनाने के लिए अब फोन भी नहीं करता. न ही दीपाली अपनी अकड़ छोड़ कर पति से बात करती.

इसी निराशा ने अरुण को भीतर से तोड़ दिया. वह जैसे समझ गया कि जिसे उस ने इतना जीजान से चाहा, वह गर ब्याहता हो कर भी उसे जख्मी हालत में देखने नहीं आई, तो उस के संग आगे की जिंदगी व्यतीत करने की क्या अपेक्षा करनी. अरुण के सारे स्वप्न झुलस गए. जो प्रेम का भाव उसे जीवन जीने की ऊर्जा देता था, वह अब लुप्त हो गया था. वह खाली सा महसूस करता.  इसी हालत में एक रात अरुण उठा. सिर पर अभी भी पट्टी बंधी थी. मां दूसरे कमरे में सोई थीं. पत्नी से फोन पर बात होती नहीं थी. दीपाली से अब उसे प्रेम की आशा नहीं थी. उस ने देख लिया था कि जिसे वह अभी तक चाह रहा था, वह तो पत्थर की एक मूर्त भर थी.  बेखयाली में, बेचैनी में अरुण उठा और जीने की तरफ बढ़ा और फिर चंद सैकंडों में सीढि़यां लुढ़कता चला गया. सीढि़यों के नीचे पहुंचने तक उस के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. जिस जख्मी पति को दीपाली देखने नहीं आई थी, वही पति की मौत पर उस के मांबाप से पति का हिस्सा मांगने अपनी मां, बहन, भाई व जीजा को ले कर आ गई.

जिस ने भी दीपाली को देखा वह समझ गया कि इस मतलबपरस्त लड़की ने एक विजातीय लड़के को झूठे प्रेमजाल में फंसा उस का जीवन बरबाद कर उसे मरने को मजबूर कर दिया. वही अब सासससुर से अपने पति का हिस्सा मांग रही है. तो क्या यही है प्यार? क्या यही विवाह का हश्र है?

Hindi Moral Tales : सिर्फ अफसोस – सीरत की जगह सूरत देखने वाले शैलेश का क्या हुआ अंजाम?

Hindi Moral Tales : शैलेश यही कुछ 4 दिन के लिए मसूरी में अपनी कंपनी के काम के लिए आया था. काम 3 दिन में ही निबट गया तो सोचा कि क्यों न आखिरी दिन मसूरी की हसीन वादियों को आंखों में समेट लिया जाए और निकल पड़ा अपने होटल से. होटल से निकल कर उस ने फोन से औनलाइन ही कैब बुक कर दी और निकल गया मसूरी की सुंदरता को निहारने. कैब का ड्राइवर मसूरी का ही निवासी था, ऐसा उस की भाषा से लग रहा था. शायद इसीलिए उसे शैलेश को मसूरी घुमाने में किसी भी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ रहा था.

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वह उन रास्तों से अच्छी तरह परिचित था जो उस की यात्रा को तीव्र और आरामदायक बनाएंगे. कैब का ड्राइवर पहाड़ों में रहने वाला सीधासाधा पहाड़ी व्यक्ति था. वह बिना अपना फायदा या नुकसान देखे खुद भी शैलेश के साथ निकल पड़ा और शैलेश को हर जगह की जानकारी पूरे विस्तार से देने लगा था. अब शैलेश भी ड्राइवर के साथ खुल चुका था. शैलेश ने पूछा, ‘‘भाईसाहब, आप का नाम क्या है?’’

‘‘मेरा नाम महिंदर,’’ ड्राइवर ने बताया.

अब दोनों मानो अच्छे मित्र बन गए हों. महिंदर ने शैलेश को सारी जानीमानी जगहों पर घुमाया. समय कम था, इसीलिए शैलेश हर जगह नहीं घूम सका. मौसम काफी खुशनुमा था पर शैलेश को नहीं पता था कि मसूरी में मौसम को करवट बदलते देर नहीं लगती. देखते ही देखते  झमा झम बारिश होने लगी. महिंदर को इन सब की आदत थी, उस ने शैलेश से कहा, ’’घबराइए मत साहब, यहां आइए इस होटल में.’’

शैलेश ने देखा कि महिंदर जिस को होटल बोल रहा था वह असल में एक ढाबा था. शैलेश को महिंदर के इस भोलेपन पर थोड़ी हंसी आई पर उस ने अपनी हंसी को होंठों पर नहीं आने दिया क्योंकि वह ढाबा भी प्रकृति की गोद में इतना सुंदर लग रहा था कि पूछो मत.

शैलेश ने महिंदर से कहा, ’’सच में भाईसाहब, इस के आगे तो हमारी दिल्ली के बड़ेबड़े पांचसितारा वाले होटल भी फीके हैं.’’

ठंडा मौसम था. शैलेश थोड़ा सिकुड़ सा रहा था. महिंदर सम झ गया था कि शैलेश को इस ठंड की आदत नहीं है. उस ने अपने और शैलेश के लिए 2 गरमागरम कौफी का आर्डर दे दिया.

महिंदर ने अब शैलेश की चुटकी लेना शुरू कर दिया, ‘‘और भाईसाहब, शादीवादी हुई कि नहीं अभी तक?’’

‘‘क्या लगता है?’’ शैलेश ने प्रश्न के बदले प्रश्न किया.

‘‘लगते तो धोखा खाए आशिक हो.’’

शैलेश ने महिंदर की बात का बुरा नहीं माना, बल्कि धीरे से हंस दिया.

शैलेश के चेहरे पर हंसी देख महिंदर तपाक से उस की तरफ उंगली दिखाता हुआ बोला, ‘‘है ना? सही बोला ना साब?’’

ढाबे के कर्मचारी ने उन के सामने उन की कौफियों के कप रख दिए और चलता बना.

महिंदर ने फिर उसी बात को छेड़ते हुए पूछा, ‘‘बताओ न साब, क्या किस्सा था वह.’’

शैलेश पहले तो थोड़ा  िझ झका, फिर अपना किस्सा सुनाने को तैयार हो गया.

शैलेश ने बताना शुरू किया, ‘‘उस वक्त मैं 11वीं जमात में दाखिल हुआ था. मैट्रिक पास करने के बाद 11वीं जमात में वह मेरा पहला दिन था. उस दिन कई न्यूकमर्स भी पहली बार स्कूल आए थे. उन्हीं में से एक थी रबीना. रबीना को पहली बार देख कर मेरे दिल में उस के लिए किसी प्रकार की कोई भावना तो नहीं उमड़ी पर धीरेधीरे हम दोनों में दोस्ती होनी शुरू हो गई और वह मु झे अपने बाकी दोस्तों से ज्यादा प्यारी भी हो गई. रबीना का बदन काफी गोरा था जो धूप में जाने से और गुलाबी हो उठता. उस के हाथों पर छोटेछोटे भूरे रंग के रोएं, बाल भी कहींकहीं से भूरे, भराकसा जिस्म, ऊपर से सजसंवर के उस का स्कूल में आना मु झे बड़ा आकर्षित करता था. रबीना के प्रति मेरी नजदीकियां बढ़ती चली जा रही थीं पर एक लड़की थी जो अकसर मेरे और रबीना के बीच आ जाती, वह थी संजना.’’

‘‘संजना कौन हैं साब?’’ जिज्ञासु महिंदर ने शैलेश से पूछा.

‘‘संजना तो वह थी जिस की बात मैं ने मानी होती तो आज पछताना नहीं पड़ता.’’

महिंदर अब और सतर्क हो कर किस्सा सुनने लगा.

‘‘रबीना तो अभी कुछ ही दिनों पहले मेरी जिंदगी में आई थी पर संजना तो बचपन से ही मेरे दिल में बसती थी. संजना और मैं ने जब से पढ़ना शुरू किया तब से हम साथ ही थे. हमारे घर वाले भी एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते थे. संजना मेरा पहला प्यार थी और मैं उस का. पर जब से रबीना मेरी जिंदगी में आई, मैं हर दिन रबीना के थोड़ा और पास आता गया और संजना से दूर होता गया. मु झे रबीना के नजदीक देख कक्षा के तमाम छात्र जलते थे. लड़कियों को रबीना से जलन होती और लड़कों को मु झ से. पर सब से ज्यादा कोई जलता था तो वह थी मेरी संजना. उस का जलना मु झे जब फुजूल का लगता था पर अब वाजिब लगता है. भला आप जिसे चाहते हों अगर वह आप के सामने ही किसी और का होने लगे तो इंसान का खून तो वैसे ही जल जाए. संजना मु झ से हमेशा कहती थी.’’

शैलेश की नजर बाहर गई, बारिश थम चुकी थी पर उस का किस्सा और उन की कौफी अभी आधी बची थी.

महिंदर ने पूछा, ‘‘क्या कहती थी?’’

शैलेश ने किस्सा चालू रखा, ‘‘संजना जब भी मु झ से ज्यादा चिढ़ जाती तो बोलती, ‘तुम भूलो मत वह एक मुसलमान है. तुम्हारा आगे एकसाथ कोई भविष्य नहीं है, काम तो मैं ही आऊंगी, इसीलिए संभल जाओ वरना बाद में बहुत पछताना पड़ेगा.’ पर रबीना के इश्क में मैं ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी, कुछ और दिखता ही नहीं था. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. मैं ने और रबीना ने एक ही कालेज में दाखिला लेने की पूरी तैयारी भी कर ली. पर 12वीं जमात के बाद संजना आगे क्या करेगी, न तो मैं ने कभी जानने की कोशिश की और न उस ने कभी बताने की.

देखते ही देखते समय बीतता गया. संजना का नंबर भी अब उस की यादों की तरह मेरे फोन से मिट गया. अब मेरी फोन की कौल हिस्ट्री में सिर्फ रबीना के नाम की ही एक लंबी लिस्ट होती और उस से घंटों बात करने का रिकौर्ड. हमारे इश्क के चर्चे पूरे कालेज में होने लगे और रबीना भी मु झे उतना ही पसंद करती थी जितना मैं उसे.

‘‘न तो मैं ने कभी सोचा कि वह पराए धर्म की है और न उस ने. स्कूल के समय में तो मैं रबीना के जिस्म की तरफ आकर्षित था. उस की खूबसूरती के लिए उसे चाहता था पर अब मैं उसे दिल से चाहने लगा था. मैं ने कालेज में होस्टल में रहने के बावजूद कभी रबीना से जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाना चाहा. अब मु झे पता चला दिल से प्यार करना किसे कहते हैं. मु झे अब रबीना कैसे भी स्वीकार थी. चाहे वह पराए धर्म की हो या कभी उस की सुंदरता चली भी जाए तो भी मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता था.’’

शैलेश किस्सा बीच में रोक बाहर देखने लगा. मौसम फिर करवट बदल रहा था. हलकीहलकी बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई.

शैलेश फिर अपने अधूरे किस्से पर वापस आया और महिंदर से पूछा, ‘‘हां, तो मैं कहां पर था.’’

‘‘आप रबीना को दिल से चाहने लगे थे,’’ महिंदर ने याद दिलाया.

‘‘हां, अब हम एकदूसरे को अपना जीवनसाथी बनाना चाहते थे, पर अब एक सब से बड़ी अड़चन थी जिसे हम हमेशा से नजरअंदाज करते रहे थे. वह थी हमारी अलगअलग कौमें. चलो और कोई बिरादरी या जात होती तो चलता पर एक हिंदू और मुसलिम की जात को हमारा समाज हमेशा से एकदूसरे का दुश्मन सम झता है. हमें अच्छी तरह से मालूम था कि न तो मेरे घर वाले इस शादी के लिए मानेंगे और न ही रबीना के. मैं ने रबीना से कहा था कि ‘तुम हिंदू हो जाओ न.’

‘‘तब उस ने मु झ से धीरे से कहा, ‘तुम मुसलमान हो जाओ. मैं अपने अम्मीअब्बा की इकलौती हूं. मैं हिंदू हो गई तो उन का क्या होगा.’

‘‘मैं ने कहा, ‘ऐसे तो मैं भी इकलौता हूं अपने मांबाप का और तुम सम झती क्यों नहीं, हिंदू धर्म एक शुद्ध और सात्विक धर्म है और तुम एक बार हिंदू बन गई तो मैं अपने मांबाप को मना ही लूंगा.’

‘‘‘और मेरे अम्मीअब्बा का क्या? अरे, इकलौती बेटी के लिए कितने सपने देखते हैं. उस के वालिद पता है? एक वालिद उस के लिए अच्छा शौहर ढूंढ़ने के सपने देखते हैं, उस के निकाह के सपने देखते हैं, उस के लिए अपनी सारी जमापूंजी लगा देते हैं और बदले में सिर्फ समाज के सामने इज्जत से उठी नाक चाहते हैं जो मेरे हिंदू बनने पर शर्म से कट जाएगी,’ रबीना ने भी अपना पक्ष साफसाफ मेरे सामने रख दिया.

‘‘‘और अगर मैं मुसलमान बन गया तो मेरे मांबाप का तो सिर गर्व से उठ जाएगा न?’ मैं ने भी गरम दिमाग में बोल दिया पर अगले ही पल लगा कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए था.

‘‘वह उठ कर चली गई. मु झे लगा कि अभी गुस्सा है, जब शांत हो जाएगी, फिर आ जाएगी मेरे पास. पर मु झे क्या पता था कि वह मु झ से वास्ता ही छोड़ देगी और इतनी आसानी से मु झे भुला देगी. स्कूल के समय में जिस तरह रबीना के पीछे मरने वालों की कोई कमी नहीं थी उसी प्रकार कालेज में भी लड़के रबीना के प्रति आकर्षित रहते. मु झ से मनमुटाव होने के बाद उस ने अपना नया साथी ढूंढ़ लिया जो उसी की कौम का था और हमारे ही कालेज का था. कालेज भी अब खत्म हो चुका था और हमारा एकदूसरे से वास्ता भी. मैं ने कई महीनों तक उस को सोशल मीडिया पर मैसेज करने की कोशिश की पर हर जगह से खुद को ब्लौक पाया. मेरा नंबर उस ने ब्लैक लिस्ट में डाल दिया. अब मेरे कानों में संजना की उस दिन वाली बात गूंजने लगी, ‘काम तो मैं ही आऊंगी.’ कुछ दिन उदास रहा और खुद को यही तसल्ली देता रहा कि वह तो वैसे भी मुसलिम थी, चली गई तो क्या हुआ, पर मैं ने अपने मांबाप को तो नहीं छोड़ा न.

‘‘मु झे आज सम झ में आया कि जिसे तुम चाहो अगर वह तुम्हारे सामने ही किसी और की हो जाए तो कैसा लगता है, और कुछ ऐसा ही लगता होगा मेरी संजना को उस वक्त. मैं ने तय किया कि फिर संजना का हाथ पकड़ं ूगा. पर मन में ही विचार किया कि किस मुहं से जाऊंगा उस के पास? क्या कहूंगा उस से कि क्या हुआ मेरे साथ और मान लो कह भी दिया तो क्या वह फिर से स्वीकार करेगी मु झे?

‘‘मैं ने अपना स्वाभिमान छोड़ कर सोच लिया कि जो कुछ हुआ सब बता दूंगा उसे, उसे ही जीत जाने दूंगा. अगर अपनेआप को गलत साबित कर के मैं फिर उस का हो जाऊं तो क्या बुराई है? पर उसे ढूंढ़ने पर पता चला कि अब वह दिल्ली में नहीं रहती. सारे सोशल मीडिया को छान मारा पर वह वहां पर भी कहीं नहीं मिली. फिर हताश हो कर अपनी जिंदगी को रुकने नहीं दिया बल्कि एक कंपनी में जौब कर लिया. और संजना का मिलना न मिलना प्रकृति के ऊपर छोड़ दिया.’’

‘‘फिर क्या हुआ साब?’’ महिंदर सुनना चाहता था कि आगे क्या हुआ.

‘‘फिर क्या होगा? जिंदगी चल ही रही है. आज नहीं तो कल वह मिल जाएगी, अगर न भी मिली तो भी सम झ लूंगा कि मेरी ही गलती की सजा है जो उस वक्त उस की कद्र नहीं कर पाया.’’

शैलेश ने बाहर देखा, मौसम की मार और जोर से पड़ने लगी और जिस तरह से वह और महिंदर मौसम की मार से बचने के लिए ढाबे में घुसे थे उसी तरह और पर्यटक भी ढाबे के अंदर पनाह लेने लगे. ढाबे का कर्मचारी फटाफट अपनी सारी टेबलों पर कपड़ा मारने लगा और उन से बैठने को कहने लगा.

तभी शैलेश की नजर एक नौजवान औरत पर पड़ी जो उसी बरसात से बचते हुए ढाबे में आई थी. उस औरत को देख शैलेश की आंखें उस पर गड़ी की गड़़ी रह गईं. मानो दिमाग पर जोर दे कर कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो.

शैलेश को पराई औरत को ऐसे घूरते देख महिंदर बोला, ‘‘अरे साब, ऐसे मत देखो वरना बिना बात में दोनों को खुराक मिल जाएगी अभी.’’

‘‘क्यों?’’ शैलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘दिखता नहीं क्या, नईनई शादी हुई है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘अरे साब, आधे हाथ चूडि़यों से भरे हैं और माथे पे सिंदूर नहीं दिखता क्या?’’ महिंदर भोलेपन में फिर से बोला, ‘‘कोई बात नहीं साब, आप को कैसे पता होगा, पर मु झे सब पता है नईनई शादी के बाद लड़कियां ऐसे ही फैशन करती हैं. मेरी वाली भी करती थी न,’’ कह कर महिंदर शरमा गया.

शैलेश अनबना सा रह गया मानो महिंदर की बात वह मानना नहीं चाहता था.

‘‘अरे क्या हुआ साब? जानते हो क्या इसे?’’ महिंदर ने पूछा.

‘‘अरे यही तो मेरी संजना है. पर यह शादी और मसूरी का क्या चक्कर?’’ संजना अब पहले से ज्यादा खूबसूरत दिखने लगी थी. उस का जिस्म भी भर गया था, चेहरे पर ऐसी चमक मानो जिंदगी में कोई चिंता ही न हो. पर संजना के माथे का सिंदूर और कलाइयों पर चूडि़यां शैलेश को अंदर से खाए जा रही थीं. कुछ सम झ में भी नहीं आ रहा था कि वह यहां कैसे.

शैलेश अपनी टेबल से उठ खड़ा हुआ और जा कर संजना के सामने अचानक से प्रकट हो गया. दोनों एकदूसरे को मसूरी में देख चौंक गए. उन्होंने ऐसा इत्तफाक सिर्फ कहानियों और फिल्मों में ही देखा था.

संजना ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तुम? और यहां?’’

‘‘मैं तो काम से आया था कल निकल जाऊंगा, लेकिन तुम यहां कैसे?’’ शैलेश ने पूछा.

‘‘मेरी कुछ दिनों पहले ही शादी हुई है,’’ संजना ने एक नौजवान की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘इन्होंने ही प्लान बनाया था हमारा हनीमून मसूरी में ही मनेगा.’’

संजना ने आगे बड़े ही मजाकिया लहजे में पूछा मानो उसे सब पता हो, ‘‘और अपना सुनाओ कैसी चल रही है तुम्हारी और रबीना की जिंदगी, शादीवादी हुई?’’ यह कह कर संजना मुसकरा गई.

बरसात फिर से थम गई. शैलेश इस से पहले कुछ बोलता, संजना के पति ने उसे इशारा कर जल्दी से चलने को कहा. संजना ने भी जवाब सुने बिना ही शैलेश को अलविदा कर दिया और आगे बढ़ गई. संजना ने पीछे मुड़ कर शैलेश को देखा और बड़ी ही बेरहमी से कहा, ‘‘क्यों, आना पड़ा न मेरे ही पास.’’

भोले महिंदर ने शैलेश को दिलासा दिलाते हुए उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘चलो साब, वरना फिर बारिश शुरू हो जाएगी, वापस भी तो जाना है न.’’

शैलेश दूर जाती संजना को देख रहा था. वक्त उस के हाथ से निकल चुका था. अब कभी वापस नहीं आएगा.

Latest Hindi Stories : अपने घर में – सास-बहू की जोड़ी

Latest Hindi Stories : लंच के समय स्कूल के गैस्टरूम में बैठा सागर बेसब्री से अपनी दोनों बेटियों का इंतजार कर रहा था. आज वह उन्हें अपनी होने वाली पत्नी श्वेता से मिलवाना चाहता था. कल वह श्वेता से शादी करने वाला था.

वह श्वेता की तरफ प्यारभरी नजरों से देखने लगा. उसे श्वेता बहुत ही सुलझी हुई और खूबसूरत लगती थी. श्वेता के लंबे स्ट्रेट बाल, आंखों में शरारत, दूध सा गोरा रंग और चालढाल तथा बातव्यवहार में झलकता आत्मविश्वास. श्वेता के आगे नीरजा उसे बहुत साधारण लगती थी. वह एक घरेलू महिला थी.

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नीरजा से सागर की अर्रेंज मैरिज हुई थी. शुरूशुरू में सागर नीरजा से भी प्यार करता था. पर सागर की महत्त्वाकांक्षाएं काफी ऊंची थीं. उस ने अपने कैरियर में तेजी से छलांग मारी. वह आगे बढ़ता गया और नीरजा पीछे छूटती गई.

सागर ने शहर बदला, नौकरी बदली और इस के साथ ही उस की पसंद भी बदल गई. नई कंपनी में उसे श्वेता का साथ मिला. तब उसे समझ आया कि उसे तो एक बला की खूबसूरत लड़की अपना जीवनसाथी बनाने को आतुर है और कहां वह गंवार( उस की नजरों में) नीरजा के साथ बंधा पड़ा है. बस, यहीं से उस का रवैया नीरजा के प्रति बदल गया था और एक साल के अंदर ही उस ने खुद को नीरजा से आजाद कर लिया था. पर वह अपनी दोनों बेटियों के मोह से आजाद नहीं हो सका था. दोनों बेटियों में अभी भी उस की जान बसती थी.

उस ने श्वेता को अपने बारे में सबकुछ बता दिया था और अब दोनों कोर्ट मैरिज कर हमेशा के लिए एकदूसरे के होने वाले थे. पर इस से पहले श्वेता ने ही इच्छा जताई थी कि वह उस की बेटियों से मिलना चाहती है. इसलिए आज दोनों बच्चियों से मिलने उन के स्कूल आए थे. सागर अकसर स्कूल में ही अपनी बेटियों से मिला करता था.

तभी 4 नन्हीनन्ही आंखों ने दरवाजे से अंदर झांका, तो सागर दौड़ कर उन के पास पहुंचा और उन्हें सीने से लगा लिया. 10 साल की मिनी थोड़ी समझदार हो चुकी थी. जब कि 6 साल की गुड़िया अभी नादान थी. सागर ने उन दोनों को श्वेता से मिलवाते हुए कहा, “देखो बच्चो, आज मैं आप को किन से मिलवाने वाला हूं?”

“ये कौन हैं, इन के बाल कितने सुंदर है?” गुड़िया ने पूछा तो सागर ने गर्व से श्वेता की तरफ देखा और बोला, “बेटी, ये आप की मम्मी हैं. कल से यर आप की नई मम्मी कहलाएंगी. कल ये आप के पापा की पत्नी बन जाएंगी.”

श्वेता ने प्यार से बच्चों की तरफ हाथ बढ़ाया, तो थोड़ा पीछे हटती हुई गुड़िया ने पूछा, “पर पापा, हमारी मम्मी तो हमारे पास ही हैं. फिर नई मम्मी की क्या जरूरत?”

“पर बेटा, ये मम्मी ज्यादा अच्छी हैं. है न?”

“नो, नैवर. पापा, हमें नई मम्मी की कोई जरूरत नहीं. हमारी मम्मी बहुत अच्छी हैं. एंड यू नो पापा…” मिनी ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

“क्या बेटी, बताओ…”

“यू नो, आई हेट यू. आई हेट यू फौर दिस.” यह कह कर रोती हुई मिनी ने गुड़िया का हाथ थामा और तेजी से कमरे से बाहर निकल गई.

श्वेता ने जल्दी से अपने बढ़े हुए हाथों को पीछे कर लिया. अपमान और क्षोभ से उस का चेहरा लाल हो उठा था. सागर की आंखें भी पलभर में उदास हो गईं. उसे लगा जैसे उस के दिल का एक बड़ा टुकड़ा आज टूट गया है. उस ने श्वेता की तरफ देखा और फिर आ कर निढाल सा कुरसी पर बैठ गया. उस ने सोचा भी नहीं था कि उस की अपनी बेटी उस से नफरत करने लगेगी.

श्वेता ने रूखी आवाज में कहा, “चलो सागर, यहां रुक कर कोई फायदा नहीं. तुम्हारी बेटियां मुझे नहीं अपनाएंगी. लगता है तुम्हारी पत्नी ने पहले से ही उन के मन में मेरे खिलाफ जहर भर दिया है.”

सागर ने कुछ भी नहीं कहा. दोनों चुपचाप वापस चले गए.

इधर, नीरजा ने जब सुना कि उस का सागर दूसरी शादी करने वाला है तो वह और भी टूट गई. उस ने तुरंत अपनी सास कमला देवी को फोन लगाया, “मम्मी, कल आप का बेटा नई बहू ले कर आ रहा है. मुबारक हो, आप की जिंदगी में एक बार फिर बहू का सुख वापस आने वाला है.”

“चुप कर नीरजा, तेरे सिवा मेरी न कोई बहू है और न कभी होगी. मैं शरीर से भले ही यहां हूं पर मेरा दिल अब भी तेरे और तेरी दोनों बच्चियों के पास ही है. तू मेरी बेटी से बढ़ कर है. तेरी जगह कोई नहीं ले सकता, समझी पगली. और जानती है, तू मेरी बेटी कब बनी थी?”

“कब मम्मी?”

“उस रात जब मुझे तेज बुखार था. सागर ने मेरी तरफ देखा भी नहीं. पर तूने रातभर जाग कर मुझे ठंडी पट्टियां लगाई थीं. मेरी सेवा की थी. उसी रात मैं ने तुझे अपनी बेटी मान लिया था.”

“मम्मी, आप की जैसी मां पा कर मैं धन्य हो गई. आज मेरी मां जिंदा होतीं तो वे भी आप का प्यार देख कर…,” कहतेकहते वह रोने लगी तो सास ने टोका, “देख बेटी, मुझे मां कहा है न, फिर रोनेधोने की क्या जरूरत? हमेशा मुसकराती रह मेरी बच्ची. अपने बेटे पर तो मेरा काबू नहीं पर दुनिया की और किसी भी मुसीबत को तेरे पास भी नहीं फटकने दूंगी. जानती है यह बात?”

“जी मम्मी?”

“जब मेरे पति ने मुझे तलाक दिया था तब मेरे पास कोई नहीं था. मैं उन से कोई सवाल भी नहीं कर सकी थी. तेरे गम को मैं समझ सकती हूं. तलाक के बाद औरत मन से बिलकुल अकेली रह जाती है. पर तू जरा भी चिंता न कर. तेरे साथ हमेशा तेरी यह मां रहेगी तेरा मानसिक संबल बन कर.”

सास की बातें सुन रोतेरोते भी नीरजा के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. सास की बातों से उसे बहुत सुकून मिला. आज वह अकेली नहीं, बल्कि सास का सपोर्ट उस के साथ था.

नीरजा के अपने मांबाप पहले ही गुजर चुके थे. एक भाई था जो मुंबई में सैटल था. 3 बहने थीं जिन का घर इसी शहर में था. पर चारों भाईबहनों ने उस से कन्नी काट ली थी. ऐसे में तलाक के बाद उस का और उस की दोनों बच्चियों का संबल उस की सास ही थी और यह उस के लिए बहुत बड़ा सहारा था. जब भी वह परेशान होती या अकेला महसूस करती तो सास से बात कर लेती.

नीरजा ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली थी. सैटरडे, संडे उस की छुट्टी होती थी. उस दिन कमला देवी जरूर आतीं. उस के और अपनी पोतियों के साथ समय बितातीं. उन की हर समस्या का हल निकालतीं और फिर शाम तक अपने घर लौट जातीं.

इधर, दूसरी शादी के बाद जब भी सागर ने मिनी और गुड़िया से मिलना चाहा, तो मिनी ने साफ इनकार कर दिया. अब उसे अपने पापा से बात करना भी पसंद नहीं था. उस ने पापा के बिना जीना सीख लिया था और गुड़िया को भी सिखा दिया था. वह उस पापा को कभी माफ नहीं कर पाई जिस ने उस की सीधीसादी मां को छोड़ कर किसी और के साथ शादी कर ली थी.

वक्त इसी तरह निकलता गया. नई शादी से सागर को कोई संतान नहीं हुई थी. दिनोंदिन श्वेता के नखरे बढ़ते जा रहे थे. सागर का जीना मुहाल हो गया था. दोनों के बीच अकसर झगड़े होने लगे थे. श्वेता अकसर घर से बाहर निकल जाती. सागर भी देररात शराब पी कर घर लौटता.

कमला देवी यह सब देखसमझ रही थीं. पर वह अपने बेटे के स्वार्थी रवैये से भी अच्छी तरह परिचित थीं, इसलिए उन्हें बेटे पर तरस नहीं बल्कि गुस्सा आता था. कमला देवी को अकसर वह समय याद आता जब पति से तलाक के बाद उन की जिंदगी का एक ही मकसद था और वह था सागर को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना. इस के लिए उन्होंने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी. स्कूलटीचर की नौकरी करते हुए बेटे को ऊंची शिक्षा दिलाई, काबिल बनाया. मगर अब एहसास होने लगा था कि कितना भी काबिल बना लिया, वह रहा तो अपने बाप का बेटा ही जो बाप की तरह ही शराबी, स्वार्थी और बददिमाग निकला.

इधर कमला द्वारा नीरजा को अपनाने और हर जगह उस की तारीफ किए जाने की वजह से नातेरिश्तेदारों का व्यवहार भी नीरजा के प्रति काफी अच्छा बना रहा. सागर के चचेरेममेरे भाईबहनों के घर कोई भी आयोजन होता तो नीरजा और उस की बेटियों को परिवार के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य की तरह आमंत्रित किया जाता और उन की पूरी आवभगत की जाती. यही नहीं, सागर के विवाहित दोस्त भी नीरजा को अवश्य बुलाते. यह सब देख कर सागर और श्वेता भुनभुनाते हुए घर लौटते.

श्वेता चिढ़ कर कहती, “देख लो तुम्हारी रिश्तेदारी में हर जगह अभी भी मुझ से ज्यादा नीरजा की पूछ होती है. लगता है जैसे मैं जबर्दस्ती पहुंच गई हूं. तुम्हारी मां भी जब देखो, नीरजा और उस की बेटियों से ही चिपकी रहती हैं.”

सागर समझाने के लिहाज से कहता, “बुरा तो मुझे भी लगता है पर क्या करूं श्वेता? नीरजा के साथ मेरी बेटियां भी हैं न. बस, इसीलिए चुप रह जाता हूं.”

एक दिन तो हद ही हो गई. सागर के एक दोस्त के बेटे की बर्थडे पार्टी थी. आयोजन बहुत शानदार रखा गया था. सागर के सभी दोस्त वहां मौजूद थे. सागर ने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. उसे नीरजा कहीं भी नजर नहीं आई. सागर ने चैन की सांस लेते हुए श्वेता को कुहनी मारी और बोला, “शुक्र है, आज नीरजा नहीं है.”

श्वेता मुसकरा कर बच्चे को गिफ्ट देने लगी. तभी दरवाजे से नीरजा और उस की दोनों बेटियों ने प्रवेश किया. नीरजा ने खूबसूरत सी बनारसी साड़ी पहन रखी थी और बाल खुले छोड़े थे. उस के आकर्षक व्यक्तित्व ने सब का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया. श्वेता जलभुन गई और सागर पर अपना गुस्सा निकालने लगी.

कुछ देर बाद जब पार्टी उफान पर थी तो सागर किनारे खड़े अपने दोस्तों के ग्रुप को जौन करता हुआ बोला, ‘यार, यह थोड़ा अजीब लगता है कि तुम लोग अब तक हर आयोजन में नीरजा को जरूर बुला लेते हो. तुम लोग जानते हो न, कि मैं नीरजा से अलग हो चुका हूं. अब उसे बुलाने की क्या जरूरत?”

एक दोस्त गुस्से में बोला, “क्या बात कह दी यार, तू अलग हुआ है भाभी से. पर हम तो अलग नहीं हुए न. उन से हमारा जो रिश्ता था वह तो रहेगा ही न.”

“पर क्यों रहेगा? जब वह मेरी पत्नी ही नहीं, तो तुम लोगों की भाभी कैसे हो गई?” सागर ने गुस्से में कहा तो एक दोस्त हंसता हुआ बोला, “ठीक है यार, भाभी नहीं तो दोस्त ही सही. यही मान ले कि अब एक दोस्त की हैसियत से हम सब उन्हें बुलाएंगे. रही बात तेरी, तो ठीक है. तेरी वर्तमान बीवी यानी श्वेता को भी हम न्योता भेज दिया करेंगे, मगर नीरजा को नहीं छोड़ेंगे. समझा?”

इस बात पर काफी देर तक उन के बीच तूतू मैंमैं होती रही. श्वेता पास खड़ी सबकुछ सुन रही थी. अंदर ही अंदर उसे नीरजा पर गुस्सा आ रहा था. उसे महसूस हो रहा था जैसे नीरजा उस की खुशियों के आगे आ कर खड़ी हो जाती है. सागर और उस के बीच कहीं न कहीं नीरजा अब भी मौजूद है. घर लौटते समय भी पूरे रास्ते श्वेता हमेशा की तरह सागर से लड़तीझगड़ती रही.

एक दिन शनिवार को जब कमला देवी बहू और पोती के साथ थीं, तो दोपहर में उछलतीकूदती मिनी घर में घुसी. आते ही उस ने मां और दादी के पैर छुए. नीरजा ने खुशी की वजह पूछी, तो मिनी खुशी से चिल्लाई, “मम्मा मैडिकल एंट्रेंस टैस्ट में मेरे बहुत अच्छे नंबर आए हैं और मुझे यहां के सब से बेहतरीन मैडिकल कालेज में दाखिला मिल रहा है.”

“सच बेटी?” दादी ने खुशी से पोती को गले लगा लिया.

मगर नीरजा थोड़ी उदास स्वर में बोली, “बेटा, यहां दाखिले में और उस के बाद पढ़ाई में कुल खर्च लगभग कितना आएगा?”

अब मिनी भी सीरियस हो गई थी. सोचते हुए उस ने कहा, “मम्मा, मेरे खयाल से लगभग दोढाई लाख रुपए तो लग ही जाएंगे. इस से ज्यादा भी लग सकते हैं.”

“पर बेटा, इतने रुपए मैं कहां से लाऊंगी?”

“मम्मा, मेरी शादी वाली जो एफडी आप ने रखी है न, बस, उसे तोड़ दो.”

“पागल है क्या? नहीं नीरजा, तू वैसा कुछ नहीं करेगी. पढ़ाई का खर्च मैं उठाऊंगी मिनी, ” कमला देवी ने कहा.

“पर कैसे मम्मी? आप के पास इतने रुपए कहां से आएंगे?”

“बेटा, मैं ने अपनी नौकरी के दौरान कुछ रुपए बचा कर अलग रखे थे. वे रुपए मैं ने कभी सागर को भी नहीं दिए. अब उन्हें अपनी मिनी के मैडिकल की पढ़ाई के लिए खर्च करूंगी. इस का अलग ही सुख होगा.”

“नहीं मम्मी, उन्हें आप न निकालें. वैसे भी, इस उम्र में आप को पैसे अपने पास रखने चाहिए. कल को सागर ने कुछ गलत व्यवहार किया या बिजनैस डुबो दिया तो आप…?”

“अरे नहीं बेटा. जिस के पास तेरे जैसी बेटी और इतनी प्यारी पोतियां हैं उसे क्या चिंता? और फिर मेरी पोती डाक्टर बनेगी. इस से ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है?

अगले दिन ही कमला देवी ने पोती की पढ़ाई के लिए रुपयों का इंतजाम कर दिया.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. सागर के जीवन में अब कुछ नहीं बचा था. श्वेता कई सालों से औफिस के किसी कलीग के साथ अफेयर चला रही थी. इधर सागर अब और भी ज्यादा शराब में डूबा रहने लगा था. छोटीछोटी बात पर वह मां पर भी बरस जाता. कमला देवी का दिल कई दफा करता कि सबकुछ छोड़ कर चली जाए. पर बेटे का मोह कहीं न कहीं आड़े आ जाता. जितनी देर श्वेता और सागर घर में रहते, झगड़े होते रहते. कमला देवी का घर में दम घुटता. उन की उम्र भी अब काफी हो चुकी थी. वे करीब 80 साल की थीं. उन से अब ज्यादा दौड़भाग नहीं हो पाती. नीरजा के पास भी वे कईकई दिन बाद जा पातीं.

एक दिन उन्हें अपने पेट में दर्द महसूस हुआ. यह दर्द बारबार होने लगा. एक दिन कमला देवी ने बेटे से इस का जिक्र किया तो बेटे ने उपेक्षा से कहा, “अरे मां, तुम ने कुछ उलटासीधा खा लिया होगा. वैसे भी, इस उम्र में खाना मुश्किल से ही पचता है.”

“पर बेटा, यह दर्द कई दिनों से हो रहा है.”

“कुछ नहीं मां, बस, गैस का दर्द होगा. तू अजवायन फांक ले,” कह कर सागर औफिस के लिए निकल गया.

अगले दिन भी दर्द की वजह से कमला देवी ने खाना नहीं खाया. पर सागर को कोई परवा न थी. दोतीन दिनों बाद जब कमला देवी से रहा नहीं गया तो उन्होंने फोन पर बहू नीरजा को यह बात बताई. नीरजा एकदम से घबरा गई. वह उस समय औफिस में थी, तुरंत बोली, “मम्मी, मैं अभी औफिस से छुट्टी ले कर आती हूं. आप को डाक्टर को दिखा दूंगी.”

“अरे बेटा, औफिस छोड़ कर क्यों आ रही है? कल दिखा देना.”

“नहीं मम्मी, कल शनिवार है और वे डाक्टर शनिवार को नहीं बैठते. मैं अभी आ रही हूं.”

एक घंटे के अंदर नीरजा आई और उन्हें हौस्पिटल ले कर गई. बेटे और बहू के व्यवहार में अंतर देख कर उन का दिल भर आया. डाक्टर ने ऊपरी जांच के बाद कुछ और टैस्ट कराने को लिख दिए. नीरजा ने फटाफट सारे टैस्ट कराए और जो बात निकल कर सामने आई वह किसी ने सोचा भी नहीं था. कमला देवी को पेट का कैंसर था. डाक्टर ने साफसाफ बताया कि कैंसर अभी ज्यादा फैला नहीं है. पर इस उम्र में औपरेशन कराना ठीक नहीं रहेगा. कीमोथेरैपी और रेडिएशन से इलाज किया जा सकता है.

नीरजा ने तुरंत अपने औफिस में 15 दिनों की छुट्टी की अरजी डाल दी और सास की तीमारदारी में जुट गई. मिनी ने भी अपने संपर्कों के द्वारा दादी का बेहतर इलाज कराना शुरू किया. कीमोथेरैपी लंबी चलनी थी, सो, नीरजा ने औफिस जौइन कर लिया. मगर उस ने कभी सास को अकेला नहीं छोड़ा. उस की दोनों बेटियों ने भी पूरा सहयोग दिया.

सागर एक दोबार मां से मिलने आया, पर कुछ मदद की इच्छा भी नहीं जताई. नीरजा सास को कुछ दिनों के लिए अपने घर ले आई और दिल से सेवासुश्रुषा करती रही. अब कमला देवी की तबीयत में काफी सुधार था.

एक दिन उन्होंने नीरजा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटी, मैं चाहती हूं कि तू उस घर में वापस चले.”

नीरजा ने हैरानी से सास की ओर देखते हुए कहा, “आप यह क्या कह रही हैं मम्मी? आप जानती हो न, अब मैं सागर के साथ कभी नहीं रह सकती. कुछ भी हो जाए, मैं उसे माफ नहीं कर सकती.”

“पर बेटा, मैं ने कब कहा कि तुझे सागर के साथ रहना होगा. मैं तो बस यही चाहती हूं कि तू अपने उस घर में वापस चले.”

“पर वह घर मेरा कहां है मम्मी? वह तो सागर और श्वेता का घर है. मैं उन के साथ… यह संभव नहीं मम्मी.”

“बेटा, वह घर सागर का नहीं. तू भूल रही है. वह घर तेरे ददिया ससुर ने मेरे नाम किया था. उस दोमंजिले, खूबसूरत, बड़े से घर को बहुत प्यार से बनवाया था उन्होंने और अब उस घर को मैं तेरे नाम करना चाहती हूं.”

“नहीं मम्मी, इस की कोई जरूरत नहीं है. सागर को रहने दो उस घर में. मैं अपने किराए के घर में ही खुश हूं.”

“तू खुश है, पर मैं खुश नहीं, बेटा. मुझे अपने घर में रहने की इच्छा हो रही है. पर अपने बेटे के साथ नहीं बल्कि तेरे साथ. मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे उस घर में ले चल. वहीँ, मेरी सेवा करना. उसी घर में मेरी पोतियों की बरात आएगी. मेरा यह सपना सच हो जाने दे, बेटा.”

नीरजा की आंखें भीग गईं. वह सास के गले लग कर रोने लगी. सास ने उसे चुप कराया और सागर को फोन लगाया, “बेटा, तू अपना कोई और ठिकाना ढूंढ ले. मेरा घर खाली कर दे.”

“यह तू क्या कह रही है मां? घर खाली कर दूं? पर क्यों?”

“क्योंकि अब उस में मैं, नीरजा और अपनी पोतियों के साथ रहूंगी.”

“अच्छा, तो नीरजा ने कान भरे हैं. भड़काया है तुम्हें.”

“नहीं सागर, नीरजा ने कुछ नहीं कहा. यह तो मेरा कहना है. सालों तुझे उस घर में रखा, अब नीरजा को रखना चाहती हूं. तुझे बुरा क्यों लग रहा है? यह तो होना ही था. इंसान जैसा करता है वैसा ही भरता है न बेटे. तुम दोनों पतिपत्नी तब तक अपने लिए कोई किराए का घर ढूंढ लो. और हां, थोड़ा जल्दी करना. इस रविवार मुझे नीरजा और पोतियों के साथ अपने घर में शिफ्ट होना है बेटे. ”

अपना फैसला सुना कर कमला देवी ने फोन काट दिया और नीरजा की तरफ देख कर मुसकरा पड़ीं.

Inspirational Hindi Stories : हीरो – क्या समय रहते खतरे की सीमारेखा से बाहर निकल पाई वह?

Inspirational Hindi Stories :  बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ही मूसलाधार बारिश शुरू हो गई थी. अपने घर की बालकनी में बैठी चाय की चुसकियों के साथ बारिश की बौछारों का मैं आनंद लेने लगी. आंखें अनायास ही सड़क पर तितरबितर होते भीड़ के रैले में किसी को तलाशने लगीं लेकिन उसे वहां न पा कर उदास हो गईं. आज ये फुहारें कितनी सुहानी लग रही हैं, जबकि यही गड़गड़ाहट, आसमान में चमकती बिजली की आंखमिचौली उस दिन कितना कहर बरपाती प्रतीत हो रही थी. समय और स्थान परिवर्तन के साथसाथ एक ही परिदृश्य के माने कितने बदल जाते हैं.

2 बरस पूर्व की यादें अभी भी जेहन में आते ही शरीर में झुरझुरी सी होने लगती है और इस के साथ ही आंखों के सामने उभर आता है एक रेखाचित्र, ‘हीरो’ का, जिस की मधुर स्मृति अनायास ही चेहरे पर मुसकान ला देती है.

उस दिन औफिस से निकलने में मुझे कुछ ज्यादा ही देर हो गई थी. काफी अंधेरा घिर आया था. स्ट्रीट लाइट्स जल चुकी थीं. मैं ने घड़ी देखी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 10 तो बज ही जाएंगे. मां चिंता करेंगी, सोच कर लिफ्ट से उतरते ही मैं ने मां को फोन लगा दिया.

‘हां, कहां तक पहुंची? आज तो बहुत तेज बारिश हो रही है. संभल कर आना,’ मां की चिंता उन की आवाज से साफ जाहिर हो रही थी.

‘बस, निकल गई हूं. अभी कैब पकड़ कर सीधे घर पहुंचती हूं और फिर मुंबई की बारिश से क्या घबराना, मां? हर साल ऐसे ही तो होती है. मेहमान और मुंबई की बारिश का कोई ठिकाना नहीं. कब, कहां टपक जाए कोई नहीं बता सकता,’ मैं बड़ी बेफिक्री से बोली.

‘अरे, आज साधारण बारिश नहीं है. पिछले 10 घंटे से लगातार हो रही मूसलाधार बारिश थमने या धीमे होने का नाम नहीं ले रही है. हैलो…हैलो…’ मां बोलती रह गईं.

मैं भी देर तक हैलो… हैलो… करती बिल्डिंग से बाहर आ गई थी. सिगनल जो उस वक्त आने बंद हुए तो फिर जुड़ ही नहीं पाए थे. बाहर का नजारा देख मैं अवाक रह गई थी. सड़कें स्विमिंग पूल में तबदील हो चुकी थीं. दूरदूर तक कैब क्या किसी भी चलती गाड़ी का नामोनिशान तक न था. घुटनों तक पानी में डूबे लोग अफरातफरी में इधरउधर जाते नजर आ रहे थे. महानगरीय जिंदगी में एक तो वैसे ही किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं होता और उस पर ऐसा तूफानी मंजर… हर किसी को बस घर पहुंचने की जल्दी मची थी.

अपने औफिस की पूर्णतया वातानुकूलित इमारत जिस पर हमेशा से मुझे गर्व रहा है, पहली बार रोष उमड़ पड़ा. ऐसी भी क्या वातानुकूलित इमारत जो बाकी दीनदुनिया से आप का संपर्क ही काट दे. अंदर हमेशा एक सा मौसम, बाहर भले ही पतझड़ गुजर कर बसंत छा जाए. खैर, अपनी दार्शनिकता को ठेंगा दिखाते हुए मैं तेज कदमों से सड़क पर आ गई और इधरउधर टैक्सी के लिए नजरें दौड़ाने लगी. लेकिन वहां पानी के अति बहाव के कारण वाहनों का रेला ही थम गया था. वहां टैक्सी की खोज करना बेहद मूर्खतापूर्ण लग रहा था. कुछ अधडूबी कारें मंजर को और भी भयावह बना रही थीं. मैं ने भैया से संपर्क साधने के लिए एक बार और मोबाइल फोन का सहारा लेना चाहा, लेकिन सिगनल के अभाव में वह मात्र एक खिलौना रह गया था. शायद आगे पानी इतना गहरा न हो, यह सोच कर मैं ने बैग गले से कमर में टांगा और पानी में उतर पड़ी. कुछ कदम चलने पर ही मुझे सैंडल असुविधाजनक लगने लगे. उन्हें उतार कर मैं ने बैग में डाला.

आगे चलते लोगों का अनुसरण करते हुए मैं सहमसहम कर कदम बढ़ाने लगी. कहीं किसी गड्ढे या नाले में पांव न पड़ जाए, मैं न जाने कितनी देर चलती रही और कहां पहुंच गई, मुझे कुछ होश नहीं था. लोकल ट्रेन में आनेजाने के कारण मैं सड़क मार्गों से नितांत अपरिचित थी. आगे चलने वाले राहगीर भी जाने कब इधरउधर हो गए थे मुझे कुछ मालूम नहीं. मुझे चक्कर आने लगे थे. सारे कपड़े पूरी तरह भीग कर शरीर से चिपक गए थे. ठंड भी लग रही थी. अर्धबेहोशी की सी हालत में मैं कहीं बैठने की जगह तलाश करने लगी तभी जोर से बिजली कड़की और आसपास की बत्तियां गुल हो गईं. मेरी दबी सी चीख निकल गई.

फुटपाथ पर बने एक इलैक्ट्रिक पोल के स्टैंड पर मैं सहारा ले कर बैठ गई. आंखें स्वत: ही मुंद गईं. किसी ने झटके से मुझे खींचा तो मैं चीख मार कर उठ खड़ी हुई. ‘छोड़ो मुझे, छोड़ो,’ दहशत के मारे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. अंधेरे में आंखें चौड़ी कर देखने का प्रयास करने पर मैं ने पाया कि एक युवक ने मेरी बांह पकड़ रखी थी. ‘करेंट खा कर मरना है क्या?’  कहते हुए उस ने मेरी बांह छोड़ दी. वस्तुस्थिति समझ कर मेरे चेहरे पर शर्मिंदगी उभर आई. फिर तुरंत ही अपनी असहाय अवस्था का बोझ मुझ पर हावी हो गया. ‘प्लीज, मुझे मेरे घर पहुंचा दीजिए. मैं पिछले 3 घंटे से भटक रही हूं.’

‘और मैं 5 घंटे से,’ उस ने बिना किसी सहानुभूति के सपाट सा उत्तर दिया.

‘ओह, फिर अब क्या होगा? मुझ से तो एक कदम भी नहीं चला जा रहा. मैं यहीं बैठ कर किसी मदद के आने का इंतजार करती हूं,’ मैं खंभे से थोड़ा हट कर

बैठ गई.

‘मदद आती नहीं, तलाश की जाती है.’

‘पर आगे कहीं बैठने की जगह भी न मिली तो?’ मैं किसी भी हाल में उठने को तैयार न थी.

‘ऐसी सोच के साथ तो सारी जिंदगी यहीं बैठी रह जाओगी.’

मेरी आंखें डबडबा आई थीं. शायद इतनी देर बाद किसी को अपने साथ पा कर दिल हमदर्दी पाने को मचल उठा था. पर वह शख्स तो किसी और ही मिट्टी का बना था.

‘आप को क्या लगता है कि मैं किसी फिल्मी हीरो की तरह आप को गोद में उठा कर इस पानी में से निकाल ले जाऊंगा? पिछले 5 घंटे से बरसते पानी में पैदल चलचल कर मेरी अपनी सांस फूल चुकी है. चलना है तो आगे चलो, वरना मरो यहीं पर.’

उस के सख्त रवैए से मैं सहम गई थी. डरतेडरते उस के पीछे फिर से चलने लगी. तभी मेरा पांव लड़खड़ाया. मैं गिरने ही वाली थी कि उस ने अपनी मजबूत बांहों से मुझे थाम लिया.

‘तुम आगे चलो. पीछे गिरगिरा कर बह गई तो मुझे पता भी नहीं चलेगा,’ आवाज की सख्ती थोड़ी कम हो गई थी और अनजाने ही वह आप से तुम पर आ गया था, पर मुझे अच्छा लगा. अपने साथ किसी को पा कर मेरी हिम्मत लौट आई थी. मैं दूने उत्साह से आगे बढ़ने लगी. तभी बिजली लौट आई. मेरे दिमाग में बिजली कौंधी, ‘आप के पास मोबाइल होगा न?’

‘हां, है.’

‘तो मुझे दीजिए प्लीज, मैं घर फोन कर के भैया को बुला लेती हूं.’

‘मैडम, आप को शायद स्थिति की गंभीरता का अंदाजा नहीं है. इस क्षेत्र की संचारव्यवस्था ठप हो गईर् है. सिगनल नहीं आ रहे हैं. पूरे इलाके में पानी भर जाने के कारण वाहनों का आवागमन भी रोक दिया गया है. हमारे परिजन चाह कर भी यहां तक नहीं आ सकते और न हम से संपर्क साध सकते हैं. स्थिति बदतर हो इस से पूर्व हमें ही किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचना होगा.’

‘लेकिन कैसे?’ मुझे एक बार फिर चारों ओर से निराशा ने घेर लिया था. बचने की कोईर् उम्मीद नजर नहीं आ रही थी. लग रहा था आज यहीं हमारी जलसमाधि बन जाएगी. मुझे अपने हाथपांव शिथिल होते महसूस होने लगे. याद आया लंच के बाद से मैं ने कुछ खाया भी नहीं है. ‘मुझे तो बहुत जोर की भूख भी लग रही है. लंच के बाद से ही कुछ नहीं खाया है,’ बोलतेबोलते मेरा स्वर रोंआसा हो गया था.

‘अच्छा, मैं तो बराबर कुछ न कुछ उड़ा रहा हूं. कभी पावभाजी, कभी भेलपुरी, कभी बटाटाबड़ा… मुझे समझ नहीं आता तुम लड़कियां बारबार खुद को इतना निरीह साबित करने पर क्यों आमादा हो जाती हो? तुम्हें क्या लगता है मैं अभी सुपरहीरो की तरह उड़ कर जाऊंगा और पलक झपकते तुम्हारे लिए गरमागरम बटाटाबड़ा ले कर हाजिर हो जाऊंगा. फिर हम यहां पानी के बीच गरमागरम बड़े खाते हुए पिकनिक का लुत्फ उठाएंगे.’

‘जी नहीं, मैं ऐसी किसी काल्पनिकता में नहीं जी रही हूं. बटाटाबड़ा तो क्या, मुझे आप से सूखी रोटी की भी उम्मीद नहीं है.’ गुस्से में हाथपांव मारती मैं और भी तेजतेज चलने लगी. काफी आगे निकल जाने पर ही मेरी गति थोड़ी धीमी हुई. मैं चुपके से टोह लेने लगी, वह मेरे पीछे आ भी रहा है या नहीं?

‘मैं पीछे ही हूं. तुम चुपचाप चलती रहो और कृपया इसी गति से कदम बढ़ाती रहो.’

उस के व्यंग्य से मेरा गुस्सा और बढ़ गया. अब तो चाहे यहीं पानी में समाधि बन जाए, पर इस से किसी मदद की अपेक्षा नहीं रखूंगी. मेरी धीमी हुई गति ने फिर से रफ्तार पकड़ ली थी. अपनी सामर्थ्य पर खुद मुझे आश्चर्य हो रहा था. औफिस से आ कर सीधे बिस्तर पर ढेर हो जाने वाली मैं कैसे पिछले 7-8 घंटे से बिना कुछ खाएपीए चलती जा रही हूं, वह भी घुटनों से ऊपर चढ़ चुके पानी में. शरीर से चिपकते पौलीथीन, कचरा और खाली बोतलें मन में लिजलिजा सा एहसास उत्पन्न कर रहे थे. आज वाकई पर्यावरण को साफ रखने की आवश्यकता महसूस हो रही थी. यदि पौलीथीन से नाले न भर जाते तो सड़कों पर इस तरह पानी नहीं भरता. पानी भरने की सोच के साथ मुझे एहसास हुआ कि सड़क पर पानी का स्तर काफी कम हो गया है.

‘वाह,’ मेरे मुंह से खुशी की चीख निकल गई. वाकई यहां पानी का स्तर घुटनों से भी नीचा था. तभी एक बड़े से पत्थर से मेरा पांव टकरा गया. ‘ओह,’ मैं जोर से चिल्ला कर लड़खड़ाई. पीछे आ रहे युवक ने आगे आ कर एक बार फिर मुझे संभाल लिया. अब वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे चलाने लगा क्योंकि मेरे पांव से खून बहने लगा था और मैं लंगड़ा रही थी. पानी में बहती खून की धार देख कर मैं दहशत के मारे बेहोश सी होने लगी थी कि उस युवक के उत्साहित स्वर से मेरी चेतना लौटी, ‘वह देखो, सामने बरिस्ता होटल. वहां काफी चहलपहल है. उधर इतना पानी भी नहीं है.

हम वहां से जरूर फोन कर सकेंगे. हमारे घर वाले आ कर तुरंत हमें ले जाएंगे. देखो, मंजिल के इतने करीब पहुंच कर हिम्मत नहीं हारते. आंखें खोलो, देखो, मुझे तो गरमागरम बड़ापाव की खुशबू भी आ रही है.’

मैं ने जबरदस्ती आंखें खोलने का प्रयास किया. बस, इतना ही देख सकी कि वह साथी युवक मुझे लगभग घसीटता हुआ उस चहलपहल की ओर ले चला था. कुछ लोग उस की सहायतार्थ दौड़ पड़े थे. इस के बाद मुझे कुछ याद नहीं रहा. चक्कर और थकान के मारे मैं बेहोश हो गई थी. होश आया तो देखा एक आदमी चम्मच से मेरे मुंह में कुनकुनी चाय डाल रहा था और मेरा साथी युवक फोन पर जोरजोर से किसी को अपनी लोकेशन बता रहा था. मैं उठ कर बैठ गई. चाय का गिलास मैं ने हाथों में थाम लिया और धीरेधीरे पीने लगी. किसी ने मुझे 2 बिस्कुट भी पकड़ा दिए थे, जिन्हें खा कर मेरी जान में जान आई.

‘तुम भी घर वालों से बात कर लो.’

मैं ने भैया को फोन लगाया तो पता चला वे जीजाजी के संग वहीं कहीं आसपास ही मुझे खोज रहे थे. तुरंत वे मुझे लेने निकल पड़े. रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, लेकिन आसपास मौजूद भीड़ की आंखों में नींद का नामोनिशान न था. हर किसी की जबान पर प्रकृति के इस अनोखे तांडव की ही चर्चा थी.

‘मेरा साला मुझे लेने आ रहा है. तुम्हें कहां छोड़ना है बता दो… लो, वे आ गए.’अपनी गर्भवती पत्नी को भी गाड़ी से उतरते देख वह हैरत में पड़ गया, ‘अरे, तुम ऐसे में बाहर क्यों निकली? वह भी ऐसे मौसम में?’ बिना कोईर् जवाब दिए उस की पत्नी उस से बुरी तरह लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. वह उसे धीरज बंधाने लगा. मेरी भी आंखें भर आईं. पत्नी को अलग कर वह मुझ से मुखातिब हुआ, ‘पहली बार कोई हैल्प औफर कर रहा हूं. चलो, हम छोड़ देंगे.’

‘नहीं, थैंक्स, भैया और जीजाजी बस आ ही रहे हैं. लो, वे भी आ गए.’

‘अच्छा बाय,’ वह चला गया.

हम ने न एकदूसरे का नाम पूछा, न पता. उस की स्मृतियों को सुरक्षित रखने के लिए मैं ने उसे एक नाम दे दिया है, ‘हीरो’  वास्तविक हीरो की तरह बिना कोई हैरतअंगेज करतब दिखाए यदि कोई मुझे उस दिन मौत के दरिया से बाहर ला सकता था तो वही एक हीरो. उस समय तो मुझे उस पर गुस्सा आया ही था कि कैसा रफ आदमी है, लेकिन आज मैं आसानी से समझ सकती हूं उस का मुझे खिझाना, आक्रोशित करना, एक सोचीसमझी चालाकी के तहत था ताकि मैं उत्तेजित हो कर तेजतेज कदम बढ़ाऊं और समय रहते खतरे की सीमारेखा से बाहर निकल जाऊं. सड़क पर रेंगते अनजान चेहरों के काफिले में आज भी मेरी नजरें उसी ‘हीरो’ को तलाश रही हैं.

Short Stories in Hindi : वक्त का दोहराव

Short Stories in Hindi :  शशांक दबे पांव छत पर पहुंचा. पूरे महल्ले में निस्तब्धता छाई हुई थी. कहीं आग से झुलसे मकान, टूटी दुकानें, सड़कों पर टूटी लाठियां, ईंटपत्थर और कहींकहीं तो खून के धब्बे भी नजर आ रहे थे. कितना खौफनाक मंजर था. हिंदू-मुसलिम दंगे ने नफरत की ऐसी आग लगाई है कि इंसान सभ्यता की सभी हदों को लांघ कर दरिंदगी पर उतर आता है.

राजनीतिबाज न जाने कब बाज आएंगे अपनी रोटियां सेंकने से. शशांक के अंतर में अपने दादाजी के कहे वो शब्द याद आ रहे थे कि नेता लोग राजनीति खेल जाते हैं और कितने ही लोग अपनी जान से खेल जाते हैं…

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. मानो एक हंसतेखेलते परिवार का दोफाड़ कर दिया गया. कौन अपना, कौन पराया. हिंदू-मुसलमानों के मन में ऐसा जहर घोला कि देखते ही देखते कल तक एक ही थाली में साथसाथ खाते दोस्त एकदूसरे की जान के दुश्मन बन बैठे. अपने पिताजी के मुंह से सुनी थी उस ने उस वक्त की दास्तान. आज वही कहानी फिर से उस की आंखों के सामने पसरने लगी थी…

हवेलीनुमा दोमंजिला घर और बहुत बड़ा चौक, चौक को पार कर के एक बहुत बड़ा दरवाजा, दरवाजा क्या था, पूरा किले का दरवाजा था, बड़ीबड़ी सांकल, सेफ पोल, बड़ेबड़े ताले उस दरवाजे को खोलना व बंद करना हर एक के बस की बात नहीं थी. मास्टर जीवन लाल ही उसे अपने मुलाजिमों के साथ मिल कर खोलते व बंद करते थे.

लेकिन आज यह क्या, वही दरवाजा, ऐसे लगता था कि बस अब गिरा तब गिरा. लगता भी क्यों न, आज एक बहुत बड़ा झुंड उस दरवाजे को धकेल रहा था, पीट रहा था, यह कैसा झुंड था?

मास्टर जीवनलाल जिन का इस पूरे शहर में नाम था, इज्जत थी, रुतबा था, आज वही मास्टरजी अपने पूरे परिवार के साथ इस हवेली में सांस रोके बैठे हैं.

परिवार में पत्नी, 3 बेटे, 3 बेटियां, बहू, सालभर का एक पोता सभी तो हैं, हंसता खेलता परिवार है.

कुछ समय से चल रही हिंदू मुसलमानों की आपस की दूरियां दिख तो रही थीं पर हालात ऐसे हो जाएंगे, किसी ने सोचा भी न था.

मुसलमान और हिंदू एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे, आपस में इतनी नफरत होगी, कभी किसी ने सोचा भी न था. यह क्या हो गया भाइयो, जन्मजन्म से एकदूसरे के साथ रहते आए परिवार एकदूसरे से इतनी नफरत क्यों करने लगे.

हालात ऐसे हो गए थे कि जवान लड़कियों को उठा कर ले जाया जा रहा था.  बूढ़ों को मार दिया जा रहा था. मास्टर जीवन लाल अपनी तीनों जवान लड़कियों और बहू को हवेली की ऊपर वाली मंजिल पर पलंग के नीचे छिपाए हुए थे और दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देख रहे थे. कभी भी दरवाजा टूट सकता था.

मास्टर जीवन लाल का बड़ा बेटा, कटार लिए खड़ा था कि दरवाजा खुलते ही वह अपनी तीनों बहनों व पत्नी को इसलिए मार डालेगा कि कोई उन्हें उठा कर नहीं ले जा पाए. बहनें व पत्नी सामने मौत खड़ी देख ऐसे कांप रही थीं जैसे आंधी में डाल पर लगा पत्ता फड़फड़ा रहा हो.

पर यह क्या, दरवाजे के पीटने और धकेलते रहने के बीच एक आवाज उभरी. वह आवाज थी मास्टर जीवन लाल के किसी विद्यार्थी की. वह कह रहा था कि अरे, क्या कर रहे हो. यह तो मेरे मास्टरजी का घर है. इस घर को छोड़ दो. आगे चलो, और देखते ही देखते बाहर कुछ शांति हो गई.

रात का यह तूफान जब गुजर गया तो मास्टर जीवन लाल ने सोचा कि यहां से अपने पूरे परिवार को सहीसलामत कैसे बाहर निकाला जाए. इस सोच में वे दरवाजा खोल कर बाहर निकले तो बाहर का भयानक दृश्य देख कर रो पड़े. लाशें पड़ी हैं, कोई तड़प रहा है, कोई पानी मांग रहा है. जिस गली में वे और उन का परिवार बड़ी शान से होली, दीवाली, ईद मनाते थे, पड़ोसियों के साथ हंसीमजाक, मौजमस्ती होती थी, वही गली आज खून से नहाई हुई है. सभी आज कितने बेबस व लाचार हैं, किस को पानी पिलाएं, किस को अस्पताल पहुंचाएं. रात आए तूफान से घबराए, आगे आने वाले तूफान से अपने परिवार को बचाने के लिए वे क्या करें. अपनी तीनों जवान बेटियों को आगे आने वाले तूफान से बचाने की गरज से सबकुछ अनदेखा कर के वे आगे बढ़ गए.

मास्टर जीवन लाल जब बाहर का जायजा लेने निकले तो उन्हें पता चला कि हिंदुओं से यह जगह खाली कराई जा रही है. हिंदुओं को किसी तरह लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है और वहां से आगे.

मास्टर जीवन लाल ने यह सुना तो वे जल्दी ही अपने परिवार की हिफाजत के लिए वापस मुड़े और घर पहुंच कर उन्होंने बीवी व बच्चों से कहा कि घर खाली करने की तैयारी करो. अब यहां से सबकुछ छोड़छाड़ कर जाना होगा.

इतना सुनते ही पूरा परिवार शोक में डूब गया. ऐसा होना लाजिमी भी है. सालों से यहां रह रहे थे. यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, यहीं पढ़े और फिर उन से कहा जाए कि यहां तुम्हारा कुछ नहीं है, तुम यहां से जाओ, कैसा लगेगा. खैर, मास्टर जीवन लाल ने हिम्मत दिखाते हुए सब को तैयार किया और जरूरी कागजात व कुछ पैसे लिए. फिर उस आलीशान हवेली को हमेशा के लिए आंसुओं से अलविदा किया.

पैर हवेली के बाहर निकले तो इतने भारी थे कि उठ ही नहीं रहे थे. दिल हाहाकार कर रहा था. परंतु फिर भी उन्होंने अपने परिवार को देखा हिम्मत की और चल पड़े.

अब मास्टर जीवन लाल बिना छत, बेसहारा अपने परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे खड़े थे. अब उन के पास कुछ न था. हाय समय का फेर देखो, कुछ समय पहले तो खुशियों की लहरें उठ रही थीं और अब यह क्या हो गया. यह कैसा तूफान था. इस तूफानी बवंडर में कैसे फंस गए. कब बाहर निकलेंगे इस तूफान से, पता नहीं.

अब मास्टर जीवन लाल के पास एक ही मकसद था कि अपने परिवार को सहीसलामत हिंदुस्तान पहुंचाया जाए. मास्टर जीवन लाल को पता चला कि ट्रक भर कर लोगों को लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है. बहुत कोशिश के बाद मास्टर जीवन लाल की बहू व पत्नी को एक ट्रक में जगह मिल गई. और पीछे रह गईं मास्टरजी की बेटियां व बेटे.

उफ्फ अब क्या करें अब जो रह गए उन्हें किस के सहारे छोड़ें और जो चले गए उन्हें आगे का कुछ पता नहीं. मास्टरजी इस कशमकश में खड़े थे कि फिर लोगों का जनून उभरा. मार डालो, काट डालो की आवाजें. मास्टरजी फिर से परेशान हो गए. अब वे बेटियों को कहां छिपाएं. मास्टरजी की आंखों से आंसू बह निकले.

इतने में मास्टरजी को एक फरिश्ते की आवाज सुनाई दी. सलाम अलैकम, भाईजान. मास्टरजी ने जब उस ओर देखा तो मास्टरजी के सामने चलचित्र की तरह पुरानी घटनाएं याद आ गईं. दो जिस्म एक जान हुआ करते थे. दोनों परिवार एकसाथ सारे तीजत्योहार एकसाथ मनाते थे. फिर अचानक सलीम भाई को विदेश जाना पड़ गया. और अब मिले तो इस हाल में. न हवेली अपनी थी, न ही देश अपना रह गया था. सबकुछ खत्म हो चुका था. मास्टरजी लुटेपिटे खड़े थे.

सलीम भाई ने मास्टरजी को गले लगा लिया. मास्टरजी का हाल देख कर सलीम भाई भी रो पड़े. सलीम भाई ने मास्टरजी को एक बहुत बड़ी तसल्ली दी, कहा कि भाईजान, आप की बेटियां मेरी बेटियां. अब तुम इन की फिक्र छोड़ो और लाहौर जा कर भाभीजी और बहू को खोजो. मास्टरजी के पास अब कोई चारा भी नहीं था. सलीम भाई का विश्वास ही था, और वे आगे बढ़ गए.

कितना सहा होगा उस वक्त लोगों ने जब अपनी जड़ों से उखड़ कर रिफ्यूजी बन गए होंगे. धर्म क्या यही सिखाता है हमें, तोड़ दो रिश्तों को, मानवीय संवेदनाओं का खून कर दो.

बरसों पुरानी हिंदू, मुसलमान की वह नफरत आज भी बरकरार है तो इन नेताओं की वजह से, धर्म के ठेकेदारों की वजह से, अंधविश्वास की गठरी उठाए लोगों की अंधभक्ति की वजह से.

काश, जल्दी ही हमें समझ में आ जाए कि धर्म तो दिलों को मिलाता है, चोट पर मरहम लगाता है. खून की नदियां नहीं बहाता, बच्चों को रुलाता नहीं, औरतों की इज्जत नहीं उतारता, बसेबसाए घरों को उजाड़ता नहीं. काश, यह बात आने वाली हमारी पीढ़ी जल्दी ही समझ जाए.

Women’s Day 2025 : मुखरता – रिचा की गलती बनी उसकी घुटनभरी जिंदगी कारण

Women’s Day 2025 : रिचा बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. वह क्लास में आखिरी बैंच पर बैठती थी और एकदम बुझीबुझी सी रहती थी. कुछ पूछने पर वह या तो चुप हो जाती या फिर बहुत कम सवालों का जवाब देती. वैसे रिचा पढ़ने में होशियार और मेहनती थी, लेकिन हरदम अकेली, खुद में खोई रहती. कोई न कोई बात तो थी जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि वह लड़कों की मौजूदगी में सामान्य नहीं रहती थी. अगर गलती से कोई लड़का उसे छू लेता या कंधे पर हाथ रख देता, तो वह क्रोधित हो जाती. उस के मातापिता भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे. वे अगर उस से कुछ पूछते, तो वह एक गहरी चुप्पी साध लेती. उस की बचपन की सहेली मीरा जब भी मिलती, रिचा से चुप रहने की वजह पूछती पर उसे कोई जवाब नहीं मिलता. लेकिन मनोविज्ञान की स्टूडैंट होने के कारण वह रिचा की मानसिक अवस्था समझ रही थी. उसे किसी अनहोनी का डर खाए जा रहा था.

एक दिन मीरा ने उस से बात करने का निश्चय किया. शुरू में तो रिचा ने सवालों से बचना चाहा, शायद वह थोड़ी भयभीत भी थी, पर मीरा के साथ रोज वार्त्तालाप करने से उस का हौसला बढ़ने लगा.

एक दिन उस के दुखों का बांध ढह गया और उस की भावनाओं ने उथलपुथल की और वह रोने लगी. फिर धीरेधीरे उस ने अपनी बीती सारी बातें बताईं. उस ने बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मैं इतिहास पढ़ रही थी. वैसे भी इतिहास का विषय सब के लिए नींद की गोली जैसा होता है, पर मेरे लिए यह एक रोमांचक था. अनजाने में ही मेरे अंकल जल्दी घर वापस आ गए. वे हमेशा से ही मेरे कपड़ों, पढ़ाई व मेरे दोस्तों में रुचि रखते थे. ‘‘मैं उन से प्रेरित थी. वे मुझे मेरे पिता से ज्यादा निर्देशित करते थे. कई चीजों के बारे में चर्चा करतेकरते अंकल ने मुझे अपने पास आ कर बैठने को कहा. मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा और मैं उन के पास जा कर बैठ गई. बात करतेकरते वे अचानक मेरे गुप्तांगों को बेहूदे तरीके से छूने लगे. यह देख कर मैं पीछे हट गई. मुझे उन की इस हरकत से असुविधा महसूस होने लगी. मैं सही समय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाई. संयोग से मेरी मां हौल में आ गईं. मैं मौके का फायदा उठा कर अपने कमरे में भाग गई. मेरे साथ हौल में जो कुछ हुआ वह समझने में मुझे थोड़ा वक्त लगा. वह एक ऐसी अनहोनी थी जिस ने मेरी जिंदगी अस्तव्यस्त कर दी थी.

‘‘मैं ने खुद से घृणा के भाव से पूछा, ‘मेरे साथ क्यों?’ मैं अपनी मां को यह बात नहीं बता पा रही थी, क्योंकि मुझे शर्मिंदगी और घबराहट महसूस हो रही थी. ‘‘अगले दिन अंकल ने मुझे फिर पीछे से पकड़ा और शैतानों वाली हंसी हंसते हुए पूछा कि मुझे कैसा लग रहा है.

‘‘मेरे कुछ जवाब न देने और घूर कर देखने पर उन्होंने मुझे धमकाया. मैं डर के साथसाथ क्रोधित भी हो गई थी. मैं उन्हें थप्पड़ मारना चाहती थी पर उन की पकड़ से छूट ही नहीं पा रही थी. ‘‘मेरी चुप्पी उन की इस हरकत को बढ़ावा दे रही थी. धीरेधीरे मैं अंकल से दूरी बना कर रहने लगी. मैं ऐसी किसी जगह नहीं जाती थी जहां वे मौजूद हों. अब उन्हें देखते ही मुझे घृणा महसूस होने लगती थी. मेरा सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा न लेना मेरे मातापिता को अनुचित लगता था. वे मेरे इस व्यवहार का कारण पूछते थे. मैं इस उलझन में थी कि यह सब सुनने के बाद इस बारे में उन की क्या राय होगी? डर से मैं ने यह बात उन्हें न बताना ही सही समझा.

‘‘मैं अब खुद को असहाय सा महसूस करने लगी हूं और सालों से सबकुछ चुपचाप सह रही हूं. लंबे समय से वे बातें मेरे दिमाग में चलचित्र की तरह ताजी हैं. मैं अपनी मां से इस बारे में बात करना चाहती हूं पर नहीं कर पाती. ‘‘जीवन में आगे चल कर मैं मर्दों के साथ रिश्ता नहीं निभा पाऊंगी. मुझे अपने दोस्तों (किसी लड़के) का साधारण तरीके से छूना भी पसंद नहीं आता. मैं अपने बिगड़ते रिश्तों का कारण नहीं जान पा रही हूं. मैं खुद का आदर नहीं कर पाती और खुद से ही नाराज रहती हूं.’’ यह सब कहते हुए वह रोने लगी.

यह सब सुन कर मीरा को बहुत दुख हुआ. मीरा ने उस से कहा,’’ अच्छा, बुरा मत मानना, अन्याय सहना भी बहुत बड़ा अपराध है. आज अपनी इस दशा की जिम्मेदार तुम खुद हो. अगर तुम खुल कर अपनी मम्मी से इस यौनशोषण के बारे में बतातीं, तो शायद आज यह स्थिति न आती. ‘‘तुम क्यों हिचकिचाती रही? क्यों तुम ने शर्मिंदगी महसूस की. जीवन में बलि का बकरा बनने से अच्छा है कि हम खुद के लिए आवाज उठाएं. तुम आज ही अपनी मां से इस बारे में बात करो. तुम ने कोई अपराध नहीं किया है, जो तुम डरो. अगर तुम डर कर अपराधी को सजा नहीं दोगी, तो तुम उसे अपराध करने के लिए प्रेरित करोगी. कल को कुछ भी हो सकता है.

‘‘मुखरता, सहनशीलता और आक्रामकता का सही बैलेंस है. मुखर होना मतलब खुद के या दूसरों के अधिकार के लिए आराम से और सकारात्मक भाव से अपनी बात रखना होता है, न कि आक्रामक या सहनशील हो कर खड़ा होना. मुखरता खुद में ही एक पुरस्कार की तरह है, क्योंकि यह देख कर अच्छा लगता है कि लोग आप की बातें ध्यान से सुनते हैं और परिस्थितियां भी अकसर अपने अनुसार ही चलती हैं. ‘‘मुखरता हमें अपने सोचविचार को खुल कर सामने लाने का आत्मविश्वास और ताकत देती है. यह हम से किसी को भी गलत फायदा उठाने नहीं देती है. मुखरता एक तरह का व्यावहारिक उपचार है जो लोगों को खुद की मदद करने में सक्षम बनाता है.’’

मीरा की बातें सुन कर रिचा शायद अपनी भूल समझ गई थी. उस ने उसी दिन अपनी मां को सारी बातें बता दीं. रिचा की मां कु्रद्ध हो गईं और उस की इस दुर्दशा को न जान पाने के लिए शर्मिंदगी महसूस करने लगी. अब रिचा को एहसास हुआ कि जिस बात को सब के सामने आने के डर से वह हिचकिचाती थी और शर्मिंदगी महसूस करती थी, अगर चुप नहीं रहती, तो उसे इतने समय तक सबकुछ नहीं सहना पड़ता.

रिचा अपने अंकल से ही नहीं, बल्कि अपनी बात समाज के सामने रखने से भी नहीं डरती. मीरा ने उसे एक नया जीवन दिया. परिचय कराया उस का मुखरता से. उसे एक सकारात्मक आत्मछवि और जीने का विश्वास दिया. रिचा अब चुपचाप कुछ भी नहीं सहती है.

Latest Hindi Stories : फैमिली कोर्ट – अल्हड़ी के माता पिता को जब हुआ गलती का एहसास

Latest Hindi Stories : ‘‘नमस्कार जज अंकल,’’ मैं ट्रेन में सीट पर सामान रख कर बैठा ही था कि सामने बैठी एक खूबसूरत व संभ्रांत घर की लगने वाली युवती ने मुझे प्यार व अपनत्व वाली आवाज में अभिवादन किया. मुझे आश्चर्य हुआ कि यह युवती कौन है और यह कैसे जानती है कि मैं जज हूं? और साथ में अंकल का भी संबोधन? हो सकता है कि यह मेरे किसी भूतपूर्व कलीग जज की बेटी हो या फिर उस की नजदीकी रिश्तेदार हो. मैं यह सब सोच ही रहा था कि उस ने मुझे प्रश्नवाचक मुद्रा में देख कर मुसकरा कर कहा, ‘‘जज अंकल, आप मुझे नहीं पहचानेंगे. मैं जब आप के कोर्ट में आई थी तब मैं सिर्फ 10 वर्ष की थी. उस समय आप सूर्यपुर में जिला फैमिली कोर्ट में जज थे.’’ अरे यह तो बहुत वर्षों पुरानी बात है और मुझे रिटायर हुए भी 5 साल हो गए. किसी को भी इतनी पुरानी बातें कहां से याद आएंगी? और मेरी कोर्ट में तो दिन में सैकड़ों लोग आते थे.

सब के बारे में कैसे कोई याद रख पाएगा? सोचते हुए मैं उसे अभी तक प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहा था और वह शायद समझ गई थी कि मैं उसे अभी तक पहचान नहीं पाया हूं. ‘‘अंकल मैं अल्हड़ी, उस समय आप के कोर्ट में मेरे मम्मीपापा के तलाक का केस चल रहा था और उस केस की कार्यवाही के दौरान आप ने एक दिन मुझ से पूछा था कि बेटा, तुम्हें किस के साथ रहना है? उस ने मुझे याद कराया.वह आगे कुछ बोलती कि मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘‘अरे अल्हड़ी.’’ इस लड़की व इस के मम्मीपापा केस को मैं कैसे भूल सकता हूं? रोज के झगड़े निबटातेनिबटाते मुझे कई बार उकताहट भी होती थी.

पर मेरी फैमिली कोर्ट में ड्यूटी के दौरान एक केस ऐसा भी आया था जिस के परिणाम से मैं बहुत खुश था. इस केस का अंत आश्चर्यजनक व सुखद था. मैं तो क्या इस केस से संबंधित जो भी था, वह इस छोटी लड़की को कैसे भूल सकता है? ‘‘अरे बेटा अल्हड़ी तुम कैसी हो? तुम्हारे मम्मीपापा कैसे हैं?’’ मुझे सच में उस से मिल कर खुशी हुई. और ज्यादा खुशी तो उसे खुश देख कर हुई. मैं सच में जानना चाहता था कि क्या उस के मम्मीपापा अभी भी साथ रह रहे हैं? ‘‘अंकल, मैं आप के कारण बहुत खुश हूं. मेरे मम्मीपापा तो एकदूसरे के बिना रह ही नहीं पाते. मैं इस साल सिविल सर्विस में चयनित हुई हूं और प्रशिक्षण के लिए शिमला जा रही हूं. आप उस दिन व्यक्तिगत रुचि नहीं लेते तो शायद मैं भी सिंगल पेरैंट की प्रौब्लमैटिक चाइल्ड होती,’’ उस ने मुझ से भावुक हो कर कहा.‘‘नहीं बेटा, अगर उस दिन तुम कोर्ट में समझदार बच्ची की तरह नहीं बोलतीं, तो शायद तुम्हारे मातापिता जिंदगी की सचाई समझ नहीं पाते और अपने व्यक्तिगत अहम से जिंदगी भर का नुकसान कर लेते. बेटा, तुम सच में बहुत समझदार लड़की हो,’’ मैं ने अपनत्व से कहा.

मैं उस समय सूर्यपुर की फैमिली कोर्ट में जज था और उस दिन अल्हड़ी के मातापिता के तलाक का केस था. पतिपत्नी को मैं ने उन की बच्ची सहित बुलाया था.दोनों ने आते ही शुरू से ही तलाक की मांग जोरदार तरीके से की. पर यह एक जिंदगी भर का फैसला था जिस से कई सारी जिंदगियां जुड़ी  हुई थीं, इसलिए मैं ने उन्हें 1 महीने का विचारने का समय दिया था. पर वे लोग तलाक पर अडिग थे. अब प्रश्न केवल यह था कि बच्ची किस के साथ रहेगी. मैं हमेशा यह प्रश्न बच्चों पर ही छोड़ता था. अल्हड़ी 10 साल की बच्ची थी. देखने में सुंदर और साथ में बहुत ही मासूम. उस का चेहरा बता रहा था कि वह कोर्ट में आने से पहले बहुत रोई होगी. वह गवाह के कठघरे में आई तो मैं ने हमेशा की तरह उस से भी पूछा कि बेटा किस के साथ रहना चाहती हो? सामान्यतया बच्चा जिस के करीब होता है उस के साथ रहने को कहता है, क्योंकि बच्चे को यह पता नहीं होता है कि क्या हो रहा है.उस ने कुछ देर बाद बोलना शुरू किया, ‘‘मेरा जन्म इन्हीं से हो क्या यह मेरा फैसला था? यदि मेरे जन्म का फैसला मेरे हाथ में होता तो मैं शायद ही इन के द्वारा जन्म लेती. मेरे जन्म के लिए ये लोग साथ रह सकते थे, तो पालने के समय ये लोग किस अधिकार से अलग हो सकते हैं? जब मेरे जन्म का फैसला मेरे हाथ में नहीं था, तो पलने का फैसला मैं कैसे कर सकती हूं? जज अंकल, आप जो भी फैसला करें वह मुझे मंजूर है,’’ उस ने अपने आंसू रोकते हुए बेबसी से कहा.

एक छोटी सी बच्ची के मुंह से इतनी गंभीर बात सुन कर पूरे कोर्टरूम में सन्नाटा छा गया. शायद मुझे जिंदगी में पहली बार पिनड्रौप साइलैंस का मतलब समझ में आ रहा था.

अचानक कोर्टरूम में जोरजोर से हिचकहिचक कर रोने की आवाज सुनाई दी. अल्हड़ी के मातापिता दोनों जोरजोर से रो रहे थे. ‘‘मुझे तलाक नहीं चाहिए जज साहब. मेरा पति भले ही दारू पिए, मुझे मारे या फिर बाहर गुलछर्रे उड़ाए, मैं उस के साथ रहने चली जाऊंगी. मेरे जीवन या मेरी भावनाओं से ज्यादा मेरी बेटी की जिंदगी जरूरी है. उसे अपने मां और पिता दोनों की छत्रछाया की जरूरत है,’’ तलाक लेने पर अड़ने वाली उस की मां यामिनी बोली.‘‘मुझे माफ कर दो यामिनी, मैं बच्ची की कसम खा कर कहता हूं अब मैं कभी दारू नहीं पिऊंगा,’’ हाथ जोड़ कर अपनी पत्नी से माफी मांगते हुए उस का पिता बोला. हद से ज्यादा कू्रर दिखने वाला व्यक्ति आज जैसे दया का पात्र लग रहा था. ‘‘जज साहब, हम अपनी तलाक की अर्जी वापस लेते हैं,’’ दोनों ने हाथ जोड़ कर मुझ से कहा. ‘‘बहुत अच्छी बात है. बच्ची का सुखद भविष्य इसी में है. कोर्ट आशा रखती है कि आप लोग हमेशा साथ रहेंगे और एक दूसरे से अच्छा बरताव करेेंगे. किसी ने सच ही कहा है कि बच्चे रेल की पटरियों को जोड़ने वाले स्लीपर की तरह होते हैं,’’ मैं ने खुशी जताते हुए मुकदमे के अंत पर मुहर लगाई. सच बताऊं मेरी जिंदगी में इतना दिलचस्प केस कोई और नहीं था. उस दिन सच में मेरी कोर्ट फैमिली कोर्ट लग रही थी, जहां एक फैमिली का मिलन हुआ था.

Short Stories in Hindi : दिल मांगे मोर

Short Stories in Hindi :  दिसंबर आने में कुछ ही दिन बाक़ी थे, दिल्ली में सर्दी ने दस्तक दे दी थी. रात में 10 बज रहे थे. तेज हवा के झोंके से खिड़की का परदा कुछ ऊपर सरका और खिड़की की झिर्रियों से ठंडी हवा का झोंका मुझे कंपकंपा गया. मैं क्विल्ट की आग़ोश में समा गई.

मन तो मेरा पति श्रेयांश के सान्निध्य में जा उन के स्पर्श की ऊष्णता में सिमट जाने का था पर वे हमेशा की तरह अपने लैपटौप में व्यस्त थे, साथ में, सामने लगे टीवी की स्क्रीन पर सैंसेक्स के उतारचढ़ाव भी देख रहे थे. बीचबीच में उन की बग़ल में रखे फ़ोन पर मेल्स की बिप्स भी बजबज कर अपनी मौजूदगी का एहसास करवा रही थीं.

कुल मिला कर मैं निसंकोच कहती हूं कि उन्हें सैक्स से ज़्यादा सैंसेक्स में और बीवी से ज़्यादा टीवी में दिलचस्पी है. मैं हर बार मन मसोस कर रह जाती.

मैं उन से कहना चाहती थी, ‘देखो, अभी भी मैं कितनी हसीन हूं और मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता है.’ ऐसा मैं ही नहीं, मेरे संपर्क में आने वाला हर शख़्स कहता है. बस, उन्हें ही दिखाई नहीं देता. फिर मैं भी रूठ, करवट बदल, दूसरी तरफ़ मुंह कर सो ज़ाया करती थी. पर उस निर्मोही को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. उसे लगता है, मैं थक कर सो गई हूं.

ऐसी ही एक रात मेरे मोबाइल में फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट आई. मैं ने लपक कर फ़ोन उठाया. सैंडर का प्रोफ़ाइल बहुत ही आकर्षित था. मैं ने फ़ोटो को ज़ूम कर के देखा, लाल गालों वाला गोराचिट्टा, कसे डोलेशोले बनाए हुए बाजुओं वाला आकर्षक युवक. मेरा दिल बल्लियों नाचने लगा और मन स्नेहमय निमंत्रण पा कर गदगद हो गया. अगले दिन सब काम निबटा कर मैं मोबाइल ले कर बैठी ही थी कि फिर मेरी नज़र उस रिक्वैस्ट पर गई. मैं ने बिना पल गंवाए उस की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर ली.

ऐक्सैप्ट करते ही मैसेंजर पर मैसेज की बौछार हुई-

‘हे क्यूट.’

‘हाऊ यू कैन दिस मच फ़िट?’

इन शब्दों की ठंडी बौछार से मैं ऐसी खिल उठी मानो किसी बंजर ज़मीन पर अरसे बाद एक गुलाब खिल आया हो महकता, खिलता, मुसकराता, लुभाता… याद नहीं आख़िरी बार श्रेयांश ने मुझे कब इन शब्दों से संबोधित किया था. मुझ में कुछ आत्मविश्वास जागा था और मैं ने इठलाते हुए रिप्लाई भेजा-

‘इट सीम्ज़ योर कैचफ़्रेज़ फौर एवरी फ़ीमेल फ्रैंड’.

‘इफ़ वी बिकम अ बेस्टी देन इट्स लास्ट,’ उस ने तुरंत जवाब भेजा.

‘कान्ट मेक यू बेस्टी. आई हैव औलरेडी थ्री बेस्टीज़ – माई हबी एंड टू किड्स,’ मेरा जोश दोगुना हो गया था.

‘यू कैन ऐड मी, इफ़ यू वांट,’ उस का मैसेज आया.

कई दिनों तक इस तरह के प्रणय निवेदनों से पिघल मैं ने उस का फ़ेसबुक अकाउंट खोल कर देखा. वह दिल्ली के एविएशन स्कूल से पाइलट की ट्रेनिंग ले रहा था. उस का नाम था सौरभ बहल. प्रभावित हो कर मैं ने भी एक मैसेज कर दिया-

‘हाय डूड, लव्ड योर प्रोफ़ाइल.’

बस, फिर क्या था, मैं एक ऐसी अनजानी राह पर चल पड़ी थी जिस पर कोमल पंखुड़ियां बिखरी थीं और जिन की खूशबू मुझे मदहोश कर रही थी. एक नई ज़िंदगी की आहट अपनी दोनों बांहें पसारे मुझे बुला रही थी. इस राह पर चलने के लिए मुझे हौसले की ज़रूरत थी जो हौसला मैं अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं जुटा पाई थी. पर, अब वह हौसला जाने कहां से मुझ में आ गया था.

उस से बात कर के मैं अपनेआप को बहुत स्पैशल महसूस कर रही थी . एक अलग ही दुनिया जहां मैं मां और पत्नी नहीं, बल्कि 18 साल की नवयौवना थी.

शुरू-शुरू में चैट करते समय मैं स्वयं अचंभित थी कि वह आख़िर चाहता क्या है. उसे पूरी दुनिया में मैं ही मिली, पूरे 10 साल बड़ी और वह भी मैरीड.

मेरे संकोच को देख कर उस ने ही कहा था, ‘विश्वास रखो, कोई ग़लत इरादे से आप से बात नहीं करता हूं. मैं भी साहित्य में रुचि रखता हूं. एफ़बी पर पोस्ट की हुई आप की रचनाएं बहुत अपनी सी लगीं और आप से एक भावनात्मक जुड़ाव

सा हो गया.’

कभी भी उस की बातों में, उस के प्रणय निवेदन में मुझे छिछोरेपन की बू नहीं आई थी. कोई अदृश्य शक्ति मुझे उस की तरफ़ धकेले जा रही थी. मुझे अकसर एक किताब की यह पंक्ति याद आ जाती – कुछ रिश्ते आत्मिक होते हैं और हर जन्म में हम से किसी न किसी रूप में जुड़ ही जाते हैं.- शायद यह पिछले जन्म में बिछड़ा ऐसा ही कोई रिश्ता हो, मैं ने अनुमान लगाया.

‘यू आर लाइक अ डायमंड इन माय लाइफ़,’ यह वह अकसर कहता.

वह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि मैं एक बच्चे की मां हूं . वह चुपके से मेरी आदतों में शामिल सा हो गया था. दोपहर के 2 बजते ही मन आतुर हो फ़ेसबुक की तरफ़ खिंचता. वह अपने फ़्लाइंग क्लब की क्लासेज़ ख़त्म कर के 2 बजे

लौटता और आते ही मुझ से चैट करता.

मैसेंजर पर लहराते 3 डॉट्स उभरते ही मेरा मन हिलोरे खाने लगता. मैं चाहती, वह यों ही लिखता रहे, मैं पढ़ती रहूं. उस से चैट कर के मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. उस की इंग्लिश में एक शोख़ी, एक नशा, एक बेफ़िक्री थी नए जमाने की

पुरशोख़ अदा के साथ, जो मेरे तो आसपास भी नहीं फटक सकती थी.

मैं उस से कदम से कदम मिला कर चलना चाहती थी. थैंक्स टू गूगल. मैं चैट की एकएक लाइन का हिंदी से इंग्लिश में अनुवाद करती, फिर उसे मैसेंजर पर टाइप करती. मैं उस के प्यार को, उस के एकएक लफ़्ज़ को बहुत ही आहिस्ता से संभाल कर अपने मन के एक कोने में रखती जा रही थी क्योंकि मैं जानती थी, यह क्षणभंगुर है.

मेरे साथ पहली बार ऐसा हो रहा था. ऐसी आकुलता, ऐसी सिहरन कि रोमरोम पुलकित हो जाता. स्क्रीन पर उभरा एकएक अक्षर मेरी आंखों के रास्ते सीधा दिल में उतर जाता. मैं गुनगुनाने लगी थी, चहकने लगी थी, फुदकने लगी थी. मैं ने उस का नाम अपने फ़ोन में सौरभ नहीं, खूशबू नाम से सेव किया था, जिस से कि भी श्रेयांश को शक न हो सके.

मुद्दतों बाद मेरे इतने रोमैंटिक दिन गुज़र रहे थे. मुझे रहरह कर उस की एकएक बात याद आती और मैं अंदर तक गुदगुदा जाती. मैं सपनों की इस सतरंगी दुनिया से कितनी बार खुद को बुलाती थी जब मैं मायरा को देखती थी. पर वह इतना ज़िद्दी हो गया था कि लौट कर आना ही नहीं चाह रहा था. मैं लाख कोशिश कर खुद को सचाई के धरातल पर लैंड करने की कोशिश कर रही थी. मेरा किसी भी काम में मन नहीं लगता था. मेरी दोनों जिंदगियां आपस में क्लैश हो रही थीं मेरी सचाई और स्वप्निल लोक. पर स्वप्निल ज़िंदगी का पलड़ा भारी हो रहा था.

‘ज़िंदगी ऐसी ही है. मैं दोनों सुख एकसाथ क्यों नहीं पा सकती जहां पति व मायरा भी हो और मेरा स्वप्निल लोक भी. पर नहीं, मुझे एक को चुनना ही पड़ेगा. एक सुख को पाने के लिए दूसरे सुख को दफ़न करना ही पड़ेगा.’ मैं विचारों में डूबी हुई थी, इतने में मेरे फ़ोन की घंटी बजी.

फ़ोन मेरी बेटी के स्कूल से था, ‘मैम, आप मायरा को स्कूल से ले जाइए, उसे तेज बुख़ार है.’ यह सुनते से ही मेरा समूचा बदन कांपने लगा.

मैं कैसे भूल गई? उसे कल भी बुख़ार था. मुझे आज उसे स्कूल न भेज कर डाक्टर को दिखाने ले कर जाना था. मैं डाक्टर का अपौइंटमैंट लेना तक भूल गई. मैं ने अपनी गाड़ी निकाली और स्कूल की तरफ़ बढ़ा ली.

मैं स्वयं को अपराधिनी महसूस करने लगी. मैं बुरी मां नहीं हूं, मायरा से बहुत प्रेम करती हूं. यह मेरा स्वप्न एक छद्म था, फिर भी मैं उस के पीछे बेतहाशा भागे जा रही थी.

मैं ने उस को डाक्टर को दिखा, दवाई दे, सुला दिया. पूरा दिन ऐसे ही भागदौड़ में निकल गया.

रात को थकान से चूर हो मैं ने अपनी गरम क्विल्ट की पनाह ली. और फ़ोन स्क्रोल करने लगी. मोबाइल देखने का समय न मिलने के चलते सौरभ के बहुत सारे मैसेजेज़ इकट्ठे हो गए थे जिन्हें देख कर मेरे चेहरे पर मुसकराहट लौट आई. मैं फिर से अपनी स्वप्निल दुनिया में खो गई और मुझे अपने आसपास का भी होश न रहा.

इतने में श्रेयांश ने मेरे हाथ से फ़ोन छीन लिया और मैसेजेज़ पढ़ने लगे. वे बहुत ही सहज और सुलझे हुए व्यक्तित्व वाले इंसान है. सबकुछ जान लेने के बाद भी वे संयमित ही रहे.

उस दिन श्रेयांश के सामने मेरे सब्र का बांध टूट गया. “आई एम सौरी श्रेयांश, मैं बहुत अकेला महसूस करती थी. आप के टूर्स, औफ़िस के चलते आप को मेरे लिए समय नहीं मिलता था. आप देर से घर लौटते, तो भी फ़ोन पर बात करते हुए और फिर खाना खाते हुए भी लैपटौप आप के चेहरे के सामने होता था. आप के लिए अपनी फ़ीमेल को नहीं, क्लाइन्ट्स को उन की मेल का रिप्लाई देना ज़्यादा ज़रूरी लगता था. काम के दबाव में आप की झल्लाहट और ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था.

“मैं अपनेआप को बहुत उपेक्षित महसूस करती थी. प्यारव्यार, रोमांस आप को बहुत बचकाना और फ़ैंटेसी लगते थे. मैं आप के प्यार के लिए, वक़्त के लिए तरस गई थी. सौरभ ठीक ऐसे वक़्त मेरी ज़िंदगी में आया जब मैं अकेलेपन के कारण अवसाद के गर्त में धंसती जा रही थी.” और यह कहते हुए मैं श्रेयांश से लिपट कर रोने लगी.

मैं ने स्वयं को संयत करते हुए आगे कहना शुरू किया, “मैं रोने के लिए एक मजबूत कंधा चाहती थी. पर मेरे हिस्से में हमेशा तकिया ही आया. मेरे आंसू, प्रेम की संवेदनाओं के रेशे, मैं आप तक पहुंचाना चाहती थी. पर वो सब हमेशा आप के सामने रहने वाली स्क्रीन पर ही उलझ कर रह जाते. मैं आप से कहना चाहती थी कि मुझे आप की ज़रूरत है, मैं आप के साथ थोड़ा वक़्त बिताना चाहती हूं.

“हम शादी करते हैं इसलिए कि हमें एक साथी की ज़रूरत होती है. पर समय के साथ यह उद्देश्य कहीं पीछे छूट जाता है. मैं जानती हूं आप मुझ से बहुत प्यार करते हैं, पर प्यार जताना भी उतना ही ज़रूरी है जितना प्यार करना. यह दिल मांगे मोर, स्वीटहार्ट.

“मैं कुछ पलों के लिए सिर्फ़ आप की प्रेमिका बन कर रहना चाहती थी. शादी के चंद सालों में ही मैं, बस, मम्मा और आप पापा बन कर रह गए.”

“मैं तुम्हारे साथ ही हूं न. और मैं रातदिन इतनी मेहनत तुम्हारे और मायरा के लिए ही कर रहा हूं न, जिस से तुम दोनों को सारे जहान की ख़ुशियां दे सकूं,” श्रेयांश ने मेरे आंसू पोंछते हुए कहा.

“अकसर ऐसा ही होता है, हम भौतिक सुखों की चाह में जीवन की सच्ची ख़ुशियों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं. और शादी का असली उद्देश्य यानी एकदूसरे अच्छे मित्र बन, भावनात्मक सहयोग देना कहीं छूट जाता है,” मैं कहती जा रही थी और श्रेयांश मुझे पहली बार इतनी ध्यान से सुन रहे थे.

मुझे महसूस हुआ, आंसुओं से मेरी पलकों में 2 महीनों से बसे हुए सारे सपने धुल रहे थे.

अगले दिन शाम को मैं अपने बैड की क्विल्ट तैयार कर रही थी. माहिरा को कितना भी टोकूं, वह सारा बैड अस्तव्यस्त कर ही देती है. और श्रेयांश को अस्तव्यस्तता बिलकुल पसंद नहीं. चद्दर पर पड़ी सलवटों को देख कर उन के माथे पर भी सलवटें उभर आएंगी. इतने में श्रेयांश ने पीछे से आ कर मुझे अपनी बांहों में भर लिया.

मैं ने चौंक कर खिड़की से बाहर की तरफ़ देखा और उस के बाद घड़ी की तरफ़, जो 5:30 बजा रही थी. यानी, श्रेयांश भी नवंबर की चुलबुली ठंडकभरी शाम की तरह औफ़िस से कुछ जल्दी लौट आए थे, शायद, इन 10 सालों में पहली बार. कोई और दिन होता, तो श्रेयांश औफ़िस से आते ही कुशन को अपनी बांहों में ले, सोफ़े पर उलटे लेटे टीवी देखने लग जाते पर उस दिन उन की बांहों में तकिए की जगह मैं थी.

“मैं ने औफ़िस में लीव ऐप्लिकेशन दे दी है. अगले हफ़्ते हमारी ऐनिवर्सरी है. मैं ने कल की डलहौज़ी जाने के लिए टैक्सी और 5 दिनों के लिए होटल में रूम बुक करवा दिया है. माहिरा को तुम मम्मी के पास छोड़ देना. इट विल बी ओन्ली यू एंड मी टाइम.

“अच्छा बताओ, हमारी 10वीं ऐनिवर्सरी पर तुम्हें क्या गिफ़्ट चाहिए?”

“गुडमौर्निंग और गुड़नाइट के साथ एक प्यारी सी हग और आप मुझे शोना कह कर बुलाएं. बस, इतना सा ख़्वाब है,” मैं ने नज़रें झुकाते हुए यह कह दिया. ख़ुशी के मारे मेरी आंखों से कुछ आंसू पलकों से सरक गालों पर लुढ़क आए.

श्रेयांश ने मेरे सिर पर चुंबन देते हुए कहा, “इस एपिसोड से मैं शादीशुदा ज़िंदगी में प्यार और रोमांस की अहमियत को अच्छे से समझ गया हूं. मैं तुम से वादा करता हूं कि आगे से तुम्हें कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगा.”

हमारी बातों में कब संध्या को हलके से समेट रात की आग़ोश में तारे सरक आए, मुझे पता ही न चला. उस रात मैं बहुत सालों बाद इतनी सुकून की नींद सोई थी…एक मुसकराती हुई, मीठी सी नई सुबह के इंतज़ार में.

लेखिका- मेहा गुप्ता

Hindi Fiction Stories : दूसरा पत्र – क्या था पत्र में खास?

Hindi Fiction Stories : विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में, दिन का अंतिम पीरियड प्रारंभ होने ही वाला था कि अचानक माहौल में तनाव छा गया. स्पीड पोस्ट से डाकिया सभी 58 छात्रछात्राओं व प्रोफैसरों के नाम एक पत्र ले कर आया था. तनाव की वजह पत्र का मजमून था. कुछ छात्रों ने वह लिफाफा खोल कर अभी पढ़ा ही था कि प्रोफैसर मजूमदार ने धड़धड़ाते हुए कक्षा में प्रवेश किया. उन के हाथ में भी उसी प्रकार का एक लिफाफा था. आते ही उन्होंने घोषणा की, ‘‘प्लीज, डोंट ओपन द ऐनवलप.’’

अफरातफरी में उन्होंने छात्रछात्राओं से वे लिफाफे लगभग छीनने की मुद्रा में लेने शुरू कर दिए, ‘‘प्लीज, रिटर्न मी दिस नौनसैंस.’’ वे अत्यधिक तनाव में नजर आ रहे थे, लेकिन तब तक 8-10 छात्र उस  पत्र को पढ़ चुके थे.

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अत्यंत परिष्कृत अंगरेजी में लिखे गए उस पत्र में बेहद घृणात्मक टिप्पणियां छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर की गई थीं और कुछ छात्राओं के विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज प्रसाद, कुलपति डाक्टर माधवविष्णु प्रभाकर और प्रोफैसर मजूमदार से सीधेसीधे जोड़ कर उन के अवैध संबंधों का दावा किया गया था. पत्र लेखक ने अपनी कल्पनाओं के सहारे कुछ सुनीसुनाई अफवाहों के आधार पर सभी के चरित्र पर कीचड़ उछालने की भरपूर कोशिश की थी. हिंदी साहित्य की स्नातकोत्तर कक्षा में इस समय 50 छात्रछात्राओं के साथ कुल 6 प्राध्यापकों सहित विभागाध्यक्ष व कुलपति को सम्मिलित करते हुए 58 पत्र बांटे गए थे. 7 छात्र व 5 छात्राएं आज अनुपस्थित थे जिन के नाम के पत्र उन के साथियों के पास थे.

सभी पत्र ले कर प्रोफैसर मजूमदार कुलपति के कक्ष में चले गए जहां अन्य सभी प्रोफैसर्स पहले से ही उपस्थित थे. इधर छात्रछात्राओं में अटकलबाजी का दौर चल रहा था. प्रोफैसर मजूमदार के जाते ही परिमल ने एक लिफाफा हवा में लहराया, ‘‘कम औन बौयज ऐंड गर्ल्स, आई गौट इट,’’ उस ने अनुपस्थित छात्रों के नाम आए पत्रों में से एक लिफाफा छिपा लिया था. सभी छात्रछात्राएं उस के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए. वह छात्र यूनियन का अध्यक्ष था, अत: भाषण देने वाली शैली में उस ने पत्र पढ़ना शुरू किया, ‘‘विश्वविद्यालय में इन दिनों इश्क की पढ़ाई भी चल रही है…’’ इतना पढ़ कर वह चुप हो गया क्योंकि आगे की भाषा अत्यंत अशोभनीय थी.

एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचता हुआ वह पत्र सभी ने पढ़ा. कुछ छात्राओं के नाम कुलपति, विभागाध्यक्ष और प्राध्यापकों से जोड़े गए थे. तो कुछ छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर भद्दी भाषा में छींटाकशी की गई थी. इन में से कुछ छात्रछात्राएं ऐसे थे जिन के बारे में पहले से ही अफवाहें गरम थीं जबकि कुछ ऐसे जोड़े बनाए गए थे जिन पर सहज विश्वास नहीं होता था, लेकिन पत्र में उन के अवैध संबंधों का सिलसिलेवार ब्यौरा था.

पत्र ऐसी अंगरेजी में लिखा गया था जिसे पूर्णत: समझना हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए मुश्किल था परंतु पत्र का मुख्य मुद्दा सभी समझ चुके थे. कुछ छात्रछात्राएं, जिन के नाम इस पत्र में छींटाकशी में शामिल नहीं थे, वे प्रसन्न हो कर इस के मजे ले रहे थे तो कुछ छात्राएं अपना नाम जोड़े जाने को ले कर बेहद नाराज थीं. जिन छात्रों के साथ उन के नाम अवैध संबंधों को ले कर उछाले गए थे वे भी उत्तेजित थे क्योंकि पत्र के लेखक ने उन की भावी संभावनाओं को खत्म कर दिया था. सभी एकदूसरे को शक की नजरों से देखने लगे थे.

कुछ छात्राएं जिन्होंने पिछले माह हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया था उन का नाम विभागाध्यक्ष अमिजोत प्रसाद के साथ जोड़ा गया था क्योंकि उन के कैबिन

में ही उस कार्यक्रम के संबंध में जरूरी बैठकें होती थीं और वे सीधे तौर पर कार्यक्रम के आयोजन से जुड़े थे. यह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा था और उन छात्राओं ने साफसाफ उन लोगों पर इस दुष्प्रचार का आरोप लगाया जिन्हें इस कार्यक्रम के आयोजन से दूर रखा गया था.

छात्र राजनीति करने वाले परिमल और नवीन पर ऐसा पत्र लिखने के सीधे आरोप लगाए गए. इस से माहौल में अत्यंत तनाव फैल गया. परिमल और नवीन का तर्क था कि यदि यह पत्र उन्होंने लिखा होता तो उन का नाम इस पत्र में शामिल नहीं होता, जबकि उन छात्राओं का कहना था कि ऐसा एक साजिश के तहत किया गया है ताकि उन पर इस का शक नहीं किया जा सके. एकदूसरे पर छींटाकशी, आरोप और प्रत्यारोप का दौर इस से पहले कि झगड़े का रूप लेता यह तय किया गया कि कुलपति और विभागाध्यक्ष से अपील की जाए कि मामले की जांच पुलिस से करवाई जाए. पुलिस जब अपने हथकंडों का इस्तेमाल करेगी तो सचाई खुद ही सामने आ जाएगी.

कुलपति के कमरे का माहौल पहले ही तनावपूर्ण था. उन का और विभागाध्यक्ष का नाम भी छात्राओं के यौन शोषण में शामिल किया गया था. पत्र लिखने वाले ने दावा किया था कि पत्र की प्रतिलिपि राज्यपाल और यूजीसी के सभी सदस्यों को भेजी गई है. सब से शर्मनाक था कुलपति डाक्टर  माधवविष्णु पर छात्राओं से अवैध संबंधों का आरोप. वे राज्य के ही नहीं, देश के भी एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, सम्मानित साहित्यकार और समाजसेवी थे. उन की उपलब्धियों पर पूरे विश्वविद्यालय को गर्व था.

जिन छात्राओं के साथ उन का नाम जोड़ा गया था वे उम्र में उन की अपनी बेटियों जैसी थीं. आरोप इतने गंभीर और चरित्रहनन वाले थे कि उन्हें महज किसी का घटिया मजाक समझ कर ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता था. छात्राएं इतनी उत्तेजित थीं कि यदि पत्र लिखने वाले का पता चल जाता तो संभवत: उस का बचना मुश्किल था.

आरोपप्रत्यारोप का यह दौर कुलपति के कमरे में भी जारी रहा. विरोधी गुट के छात्र नेता परिमल पर प्रत्यक्ष आरोप लगा रहे थे कि वे सीधे तौर पर यदि इस में शामिल नहीं है तो कम से कम यह हुआ उसे के इशारे पर है. सब से ज्यादा गुस्से में संध्या थी. वह छात्र राजनीति में विरोधी गुट के मदन की समर्थक थी और उस का नाम दूसरी बार इस तरह के अवैध संबंधों की सूची में शामिल किया गया था.

दरअसल, एक माह पहले भी एक पत्र कुलपति के कार्यालय में प्राप्त हुआ था, जिस में संध्या का नाम विभागाध्यक्ष अमितोज के साथ जोड़ा गया था. तब कुलपति ने पत्र लिखने वाले का पता न चलने पर इसे एक घटिया आरोप मान कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था. और अब यह दूसरा पत्र था. इस बार पत्र लेखक ने कई और नामों को भी इस में शामिल कर लिया था.

स्पष्ट था कि पहले पत्र में उस ने जो आरोप लगाए थे उन्हें पूरा प्रचार न मिल पाने से वह असंतुष्ट था और इस बार ज्यादा छात्रछात्राओं के नामों को सम्मिलित करने के पीछे उस का उद्देश्य यही था कि मामले को दबाया न जा सके और इसे भरपूर प्रचार मिले.

वह अपने उद्देश्य में इस बार पूरी तरह सफल रहा था क्योंकि हिंदी विभाग से उस पत्र की प्रतिलिपियां अन्य विभागों में भी जल्दी ही पहुंच गईं. शरारती छात्रों ने सूचनापट्ट पर भी उस की एक प्रतिलिपि लगवा दी.

कुलपति महोदय ने बड़ी मुश्किल से दोनों पक्षों को चुप कराया और आश्वासन दिया कि वे दोषी को ढूंढ़ने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. यदि पता चल गया तो उस का मुंह काला कर उसे पूरे शहर में घुमाएंगे. सभी छात्राओं ने तैश में कहा, ‘‘आप पुलिस को या सीबीआई को यह मामला क्यों नहीं सौंप देते, वे खुद पता कर लेंगे.’’

संध्या को डर था कि कहीं यह पत्र भी पहले पत्र की तरह ठंडे बस्ते में ही न डाल दिया जाए. विभागाध्यक्ष व कुलपति इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे. कुलपति महोदय ने ही कहा, ‘‘हम ने इस बात पर भी विचार किया है, लेकिन इस से एक तो यह बात मीडिया में फैल जाएगी और विश्वविद्यालय की बदनामी होगी. दूसरा पुलिस छात्राओं को पूछताछ के बहाने परेशान करेगी और यह बात उन के घर वालों तक भी पहुंच जाएगी जो कि उचित नहीं होगा.’’

‘‘फिर पता कैसे चलेगा कि यह गंदी हरकत की किस ने है?’’ मदन ने तैश में आ कर कहा, ‘‘पहले भी एक पत्र आया था, जिस में 2 छात्राओं का नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ा गया था. तब भी आप ने यही कहा था कि हम पता लगाएंगे, लेकिन आज तक कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘उसे रोका नहीं गया तो अगली बार हो सकता है वह इस से भी आगे बढ़ जाए,’’ सोनाली ने लगभग चीखते हुए कहा. उस का अगले माह विवाह तय था और उस का नाम आनंद से जोड़ते हुए लिखा गया था कि अकसर वह शहर के पिकनिक स्पौटों पर उस के साथ देखी गई है.

डाक्टर अमितोज ने उसे मुश्किल से शांत कराया तो वह फफकफफक कर रो पड़ी, ‘‘आनंद के साथ कभी मैं यूनिवर्सिटी के बाहर भी नहीं गई.’’

‘‘तो इस में रोने की क्या बात है, अब चली जा. अभी तो 1 महीना पड़ा है शादी में,’’ कमल जिस का नाम इस पत्र में शामिल नहीं था, मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘चुप रह, मरवाएगा क्या’’ उस ने एक चपत उस के सिर पर जमा दी,‘‘ अगर झूठा शक भी पड़ गया न तो अभी तेरी हड्डीपसली एक हो जाएगी, बेवकूफ.’’

‘‘गुरु, कितनी बेइज्ज्ती की बात है, मेरा नाम किसी के साथ नहीं जोड़ा गया. कम से कम उस काली कांता के साथ ही जोड़ देते.’’

‘‘अबे, जिस का नाम उस के साथ जुड़ा था उस ने भी उस की खूबसूरती से तंग आ कर तलाक ले लिया.

‘‘शुक्र है, आत्महत्या नहीं की,’’ और फिर ठहाका मार कर दोनों देर तक उस का मजाक उड़ाते रहे.

कांता एक 25 वर्षीय युवा तलाकशुदा छात्रा थी जो उन्हीं के साथ हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. सभी के लिए उस की पहचान सिर्फ काली कांता थी. अपनी शक्लसूरत को ले कर उस में काफी हीनभावना थी. इसलिए वह सब से कटीकटी रहती थी. किसी ने न तो इस मुद्दे पर उस की सलाह ली और न ही वह बाकी लड़कियों की तरह खुद इस में शरीक हुई. अगर होती तो ऐसे ही व्यंग्यबाणों की शिकार बनती रहती.

‘‘इस बार ऐसा नहीं होगा,‘‘ डाक्टर अमितोज ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘पुलिस और सीबीआई की सहायता के बिना भी दोषी का पता लगाया जा सकता है. आप लोग कुछ वक्त दीजिए हमें. बजाय आपस में लड़नेझगड़ने के आप भी अपनी आंखें और कान खुले रखिए. दोषी आप लोगों के बीच में ही है.’’

‘‘हां, जिस तरह से उस ने नाम जोड़े हैं उस से पता चलता है कि वह काफी कुछ जानता है,’’ अभी तक चुपचाप बैठे साहिल  ने कहा तो कुछ उस की तरफ गुस्से में देखने लगे और कुछ बरबस होठों पर आ गई हंसी को रोकने की चेष्टा करने लगे.

‘‘मेरा मतलब था वह हम सभी लोगों से पूरी तरह परिचित है,’’ साहिल ने अपनी सफाई दी. उस का नाम इस सूची में तो शामिल नहीं था परंतु सभी जानते थे कि वह हर किसी लड़की से दोस्ती करने को हमेशा लालायित रहता था.

‘‘कहीं, यही तो नहीं है?’’ कमल फिर मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘अबे, यह ढंग से हिंदी नहीं लिख पाता, ऐसी अंगरेजी कहां से लिखेगा,’’ मदन बोला.

‘‘गुरु, अंगरेजी तो किसी से भी लिखवाई जा सकती है और मुझे तो लगता है इंटरनैट की किसी गौसिप वैबसाइट से चुराई गई है यह भाषा,’’ कमल ने सफाई दी.

‘‘अबे, उसे माउस पकड़ना भी नहीं आता अभी तक और इंटरनैट देखना तो दूर की बात है,’’ मदन ने उसे चुप रहने का इशारा किया, ‘‘पर गुरु…’’  कमल के पास अभी और भी तर्क थे साहिल को दोषी साबित करने के.

‘‘अच्छा आप लोग अपनी कक्षाओं में चलिए,’’ कुलपति महोदय ने आदेश दिया तो सभी बाहर निकल आए.

बाहर आ कर भी तनाव खत्म नहीं हुआ. सभी छात्रों ने कैंटीन में अपनी एक हंगामी मीटिंग की. सभी का मत था कि दोषी हमारे बीच का ही कोई छात्र है, लेकिन है कौन? इस बारे में एकएक कर सभी नामों पर विचार हुआ लेकिन नतीजा कुछ न निकला. अंत में तय हुआ कि कल से सभी कक्षाओं का तब तक बहिष्कार किया जाए जब तक कि दोषी को पकड़ा नहीं जाता. दूसरे विभाग के छात्रछात्राएं भी अब इस खोज में शामिल हो गए थे.

उन में से कुछ को वाकई में छात्राओं से सहानुभूति थी तो कुछ यों ही मजे ले रहे थे, लेकिन इतना स्पष्ट था कि यह मामला अब जल्दी शांत होने वाला नहीं था. सब से पहले यह तय हुआ कि मुख्य डाकघर से पता किया जाए कि वे पत्र किस ने स्पीड पोस्ट कराए हैं. परिमल, कमल व मदन ने यह जिम्मेदारी ली कि वे मुख्य डाकघर जा कर यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि दोषी कौन है.

अगले दिन जब वे मुख्य डाकघर पहुंचे तो पता चला कि इस बाबत पूछने के लिए दो लड़कियां पहले ही आ चुकी हैं.

‘‘वही होगी संध्या,’’ मदन फुसफुसाया.

‘‘अबे, उसी की तो सारी शरारत है, सबकुछ उस की जानकारी में ही हुआ है.’’

‘‘वह कैसे हो सकती है?’’ परिमल  बोला, ‘‘वह जो इतना तैश खा रही थी न… वह सब दिखावा था.’’

‘‘लेकिन गुरु, उस का तो नाम खुद ही सूची में है,’’ मदन बोला.

‘‘यही तो तरीके होते हैं डबल क्रौस करने के,’’ परिमल बोला, ‘‘एक तरफ अपना नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ कर अपनी दबीढकी भावनाएं जाहिर कर दीं, दूसरी तरफ दूसरों को बदनाम भी कर दिया.’’

डाकघर की काउंटर क्लर्क ने जब यह बताया कि उन दोनों लड़कियों में से एक ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था और दूसरी के बाल कटे हुए थे तो तीनों को अति प्रसन्नता हुई, क्योंकि संध्या के न तो बाल कटे हुए थे और न ही वह नजर का चश्मा लगाती थी.

‘‘देखा मैं ने कहा था न कि संध्या नहीं हो सकती, वह क्यों पूछने आएगी. वे जरूर सोनाली और दीपिका होंगी क्योंकि वे दोनों ही इस में सब से ज्यादा इनोसैंट हैं. दीपिका तो बेचारी किताबों के अलावा किसी को देखती तक नहीं और सोनाली की अगले माह ही शादी है.’’

‘‘हां, मुझे अच्छी तरह उन लड़कों के चेहरे याद हैं,’’ काउंटर क्लर्क बोली, ‘‘चूंकि वे सभी लिफाफे महाविद्यालय में एक ही पते पर जाने थे अत: मैं ने ही उन्हें सलाह दी थी कि इन सभी को अलगअलग लिफाफों में पोस्ट करने के बजाय इस का सिर्फ एक लिफाफा बनाने से डाक व्यय कम लगेगा. इस पर उन में से एक लड़का जो थोड़ा सांवले रंग का था, भड़क उठा. कहने लगा, ‘‘आप को पता है ये कितने गोपनीय पत्र हैं, हम पैसे चुका रहे हैं इसलिए आप अपनी सलाह अपने पास रखिए.’’

मुझे उस का बोलने का लहजा बहुत अखरा, मैं उस की मां की उम्र की हूं परंतु वह बहुत ही बदतमीज किस्म का लड़का था, जबकि उस के साथ आया गोरा लड़का जिस ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था बहुत शालीन था. उस ने मुझ से माफी मांगते हुए जल्दी काम करने की प्रार्थना की. गुस्से में वह सांवला लड़का बाहर दरवाजे पर चला गया जहां उन का तीसरा साथी खड़ा था. उस का चेहरा मैं देख नहीं सकी क्योंकि काउंटर की तरफ उस की पीठ थी, लेकिन मैं इतना विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वे 3 थे, जिन में से 2 को मैं अब भी पहचान सकती हूं.’’

यह जानकारी एक बहुत बड़ी सफलता थी क्योंकि इस से जांच का दायरा मात्र उन छात्रों तक सीमित हो गया जो नजर का चश्मा लगाते थे और सांवले रंग के थे. परिमल स्वयं नजर का चश्मा लगाता था लेकिन वह नहीं हो सकता था क्योंकि डाकखाने की क्लर्क से उस ने खुद बात की थी. विपक्ष का नेता मदन भी सांवले रंग का था, लेकिन वह भी साथ था. महाविद्यालय

के हिंदी विभाग में 50 छात्रछात्राओं में से 32 छात्र और 18 छात्राएं थीं और मात्र 12 छात्र नजर का चश्मा लगाते थे. परिमल को अगर छोड़ दिया जाए तो मात्र 11 छात्र बचते थे.

जब यह जानकारी हिंदी विभाग  में पहुंची तो नजर का चश्मा लगाने वाले सभी छात्र संदेहास्पद हो गए. आरोपप्रत्यारोप का माहौल फिर गरम हो गया. नजर का चश्मा लगाने वालों की पहचान परेड उस क्लर्क के सामने कराई जाए. संध्या और सभी छात्राएं इस सूची को लिए फिर विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज के कमरे में विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंच गईं, ‘‘सर, अब यह साफ हो चुका है कि इन 11 में से ही कोई है जिस ने यह गंदी हरकत की है. आप इन सभी को निर्देश दें कि वे पहचान परेड में शामिल हों.’’

डाक्टर अमिजोत ने मुश्किल से उन्हें शांत कराया और आश्वासन दिया कि वे इन सभी को ऐसा करने के लिए कहेंगे हालांकि उन्होंने साथसाथ यह मत भी जाहिर कर दिया कि यह सारा काम किसी शातिर दिमाग की उपज है और वे खुद इन पत्रों को डाकखाने जा कर पोस्ट करने की बेवकूफी नहीं कर सकता.

आनंद, जिस का नाम सोनाली से जोड़ा गया था और जो नजर का चश्मा लगाता था, ने इस पहचान परेड में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘मैं कोई अपराधी हूं जो इस तरह पहचान परेड कराऊं.’’

उस के इस इनकार ने फिर माहौल गरमा दिया. संध्या इस बात पर उस से उलझ पड़ी और तूतड़ाक से नौबत हाथापाई तक आ गई. आनंद ने सीधेसीधे संध्या पर आरोप जड़ दिया, ‘‘सारा तेरा किया धरा है. डाक्टर अमितोज के साथ तेरे जो संबंध हैं न, उन्हें कौन नहीं जानता. उसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए तू ने औरों को भी बदनाम किया है ताकि वे लोग तुझ पर छींटाकशी न कर सकें. तू सोनाली की हितैषी नहीं है बल्कि उसे भी अपनी श्रेणी में ला कर अपने मुद्दे से सभी का ध्यान हटाना चाहती है.’’

परिमल ने उस समय तो बीचबचाव कर मामला सुलझा दिया, परंतु सरेआम की गई इस टिप्पणी ने संध्या को अंदर तक आहत कर दिया. कुछ छात्रों का मानना था कि आनंद के आरोप में सचाई भी हो सकती है.

‘‘यार, तेरी बात में दम है. सब जानते हैं कि जब से यह पत्र आया है सब से ज्यादा यही फुदक रही है,’’ संध्या के जाते ही परिमल ने आनंद को गले लगा लिया और कहने लगा कि पहला पत्र जिस में केवल संध्या और डाक्टर अमितोज का नाम था वह किसी और ने लिखा था. उस से इस की जो बदनामी हुई उसी से ध्यान बंटाने के लिए इस ने इस पत्र में औरों को घसीटा है ताकि लगे कि हमाम में सभी नंगे हैं. परिमल ने संध्या को बदनाम करने के लिए इस जलते अलाव या की वजह से उस के छात्राओं के काफी वोट जो कट जाते थे.

जो छात्र पहचान परेड कराने के लिए तैयार थे वे जब डाकखाने पहुंचे तो डाकखाने का स्टाफ इस समूह को देख कर आशंकित हो गया. उन्होंने उस महिलाकर्मी को इस पहचान परेड के लिए मना कर दिया. वह महिलाकर्मी खुद भी बहुत डरीसहमी थी, उसे नहीं पता था कि मुद्दा क्या है. उस ने तो अपनी तरफ से साधारण सी बात समझ कर जानकारी दी थी.

काफी देर तक डाकखाने के कर्मियों और छात्रों में बहस होती रही. उन का तर्क था कि वे इस झगड़े में क्यों पड़ें. वह महिलाकर्मी यदि किसी की पहचान कर लेती है तो वह छात्र उसे नुकसान भी तो पहुंचा सकता है. छात्रों ने जब दबाव बनाया तो उस ने सहकर्मियों की सलाह मान कर सरसरी निगाह छात्रों पर डालते हुए सभी को क्लीन चिट दे दी. स्पष्ट था वह इस झगड़े में नहीं पड़ना चाहती थी. वह सच बोल रही है या झूठ इस का फैसला नहीं किया जा सकता था.

बात जहां से शुरू हुई थी फिर से वहीं पहुंच गई थी. अटकलों का बाजार पुन: गरम हो चुका था. यह मांग फिर उठने लगी थी कि इस मामले में कुलपति हस्तक्षेप करें और मामला पुलिस या सीबीआई को दे दिया जाए. सभी जानते थे कि हर अपराध के पीछे एक मोटिव होता है.

हिंदी विभाग से बाहर का कोई छात्र ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि एक तो इतने सारे छात्रछात्राओं को बदनाम करने के पीछे उस का कोई उद्देश्य नहीं हो सकता था. दूसरे जो जोड़े बनाए गए थे वे बहुत ही गोपनीय जानकारी पर आधारित थे और कइयों के बारे में ऊपरी सतह पर कुछ भी दिखाई नहीं देता था, लेकिन उन में से अधिकांश के तल में कुछ न कुछ सुगबुगाहट चल रही थी.

अब तो अन्य विभागों के छात्रछात्राएं भी इस में रुचि लेने लगे थे, लेकिन यह निश्चित था कि ‘मास्टर माइंड’ इन्हीं 50 छात्रछात्राओं में से कोई एक था. 6 प्रोफैसर्स में से भी कोई हो सकता था परंतु इस की संभावना कम ही थी क्योंकि सभी प्रोफैसर्स अपनीअपनी फेवरेट छात्राओं के साथ अपने गुरुशिष्या के संबंधों पर परम संतुष्ट थे.

अचानक एक तीसरा पत्र डाक्टर अमितोज के नाम साधारण डाक से प्राप्त हुआ. यह पत्र भी अंगरेजी में था और इस में सारे घटनाक्रम पर क्षमा मांगते हुए इस का पटाक्षेप करने की प्रार्थना की गई थी. पत्र कंप्यूटर पर टाइप किया हुआ था और उस में फौंट, स्याही और कागज वही इस्तेमाल हुए थे जो दूसरे पत्र के लिए हुए थे.

डाक्टर अमितोज ने ध्यान से वह पत्र कई बार पढ़ा. अचानक उन के मस्तिष्क में एक विचार तीव्रता से कौंधा. वे तेजी से हिंदी विभाग के कार्यालय में पहुंचे और सभी छात्रछात्राओं के आवेदनपत्र की फाइल लिपिक से कह कर अपने कार्यालय में मंगवा ली. तेजी से उन की निगाहें उन आवेदनपत्रों में पूर्व शैक्षणिक योग्यता के कौलम में कुछ खोज करती दौड़ने लगीं. अचानक उन्हें वह मिल गया जिस की उन्हें तलाश थी. उन्होंने पता देखा तो वह हौस्टल का था.

तीसरा पत्र उन के हाथ में था जब उन्होंने हौस्टल के उस कमरे का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा खुलते ही उन की निगाह सामने रखे पीसी पर पड़ी. वे समझ गए कि उन की तलाश पूरी हो चुकी है. वह कमरा युवा तलाकशुदा छात्रा कांता का था जो पूर्व में अंगरेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थी, उस की बदसूरती और गहरे काले रंग को ले कर सभी छात्रछात्राएं मजाक उड़ाया करते थे.

उन के सामने अब इस अपराध का मोटिव स्पष्ट था और इस पर किसी तर्क की गुंजाइश नहीं थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस अपराध के लिए वे उस पर नाराज हों या तरस खाएं.

‘‘मैं नहीं पूछूंगा कि दूसरे पत्र को पोस्ट करवाने में जिन तीन लड़कों का तुम ने सहयोग लिया वे कौन थे क्योंकि उन्हें पता भी नहीं होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं. लेकिन तुम्हारा गुरु होने के नाते एक सीख तुम्हें जरूर दूंगा. जो कमी तुम्हें अपने में नजर आती है और जिस में तुम्हारा अपना कोई दोष नहीं है उस के लिए स्वयं पर शर्मिंदा हो कर दूसरों से उस का बदला लेना अपनेआप में एक अपराध है, जो तुम ने किया है.

तुम ने इस अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की है. एक शर्त पर मैं तुम्हें क्षमा कर सकता हूं यदि तुम यह वादा करो कि कभी अपने रंगरूप पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करोगी. अपनेआप से प्यार करना सीखो, तभी दूसरे भी तुम्हें प्यार करेंगे.’’ उन्होंने वह पत्र फाड़ा और आंसू बहाती कांता के सिर को सहला कर चुपचाप वहां से बाहर निकल आए.

लेखिका- मनजीत शर्मा ‘मीरा’

Hindi Story Collection : ई-ग्रुप : शादी की सालगिरह पर रजनी को तो अपने पति के साथ होना था

Hindi Story Collection : ‘‘वाह, इसे कहते हैं कि आग लेने गए थे और पैगंबरी मिल गई,’’ रवि और पूनम के लौन में अन्य दोस्तों को बैठा देख कर विकास बोला, ‘‘हम लोग तो तुम्हें दावत देने आए थे, पर अब खुद ही खा कर जाएंगे.’’

‘‘दावत तो शौक से खाइए पर हमें जो दावत देने आए थे वह कहीं हजम मत कर जाइएगा,’’ पूनम की इस बात पर सब ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘नहीं, ऐसी गलती हम कभी नहीं कर सकते. वह दावत तो हम अपनी जिंदगी का सब से अहम दिन मनाने की खुशी में कर रहे हैं यानी वह दिन जिस रोज मैं और रजनी दो से एक हुए थे,’’ विकास बोला.

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‘‘ओह, तुम्हारी शादी की सालगिरह है. मुबारक हो,’’ पूनम ने रजनी का हाथ दबा कर कहा.

‘‘मुबारकबाद आज नहीं, शुक्रवार को हमारे घर आ कर देना,’’ रजनी अब अन्य लोगों की ओर मुखातिब हुईं, ‘‘वैसे, निमंत्रण देने हम आप के घर…’’

‘‘अरे, छोडि़ए भी, रजनीजी, इतनी तकलीफ और औपचारिकता की क्या जरूरत है. आप बस इतना बताइए कि कब आना है. हम सब स्वयं ही पहुंच जाएंगे,’’ रतन ने बीच में ही टोका.

‘‘शुक्रवार को शाम में 7 बजे के बाद कभी भी.’’

‘‘शुक्रवार को पार्टी देने की क्या तुक हुई? एक रोज बाद शनिवार को क्यों नहीं रखते?’’ राजन ने पूछा.

‘‘जब शादी की सालगिरह शुक्रवार की है तब दावत भी तो शुक्रवार को ही होगी,’’ विकास बोला.

‘‘सालगिरह शुक्रवार को होने दो, पार्टी शनिवार को करो,’’ रवि ने सुझाव दिया.

‘‘नहीं, यार. यह ईद पीछे टर्र अपने यहां नहीं चलता. जिस रोज सालगिरह है उसी रोज दावत होगी और आप सब को आना पड़ेगा,’’ विकास ने शब्दों पर जोर देते हुए कहा.

‘‘हां, भई, जरूर आएंगे. हम तो वैसे ही कोई पार्टी नहीं छोड़ते, यह तो तुम्हारी शादी की सालगिरह की

दावत है. भला कैसे छोड़ सकते हैं,’’ राजन बोला.

‘‘पर तुम यह पार्टी किस खुशी में दे रहे हो, रवि?’’ विकास ने पूछा.

‘‘वैसे ही, बहुत रोज से राजन, रतन वगैरा से मुलाकात नहीं हुई थी, सो आज बुला लिया.’’

रजनी और विकास बहुत रोकने के बाद भी ज्यादा देर नहीं ठहरे. उन्हें और भी कई जगह निमंत्रण देने जाना था. पूनम ने बहुत रोका, ‘‘दूसरी जगह कल चले जाना.’’

‘‘नहीं, पूनम, कल, परसों दोनों दिन ही जाना पड़ेगा.’’

‘‘बहुत लोगों को बुला रहे हैं क्या?’’

‘‘हां, शादी की 10वीं सालगिरह है, सो धूमधाम से मनाएंगे,’’ विकास ने जातेजाते बताया.

‘‘जिंदादिल लोग हैं,’’ उन के जाने के बाद राजन बोला.

‘‘जिंदादिल तो हम सभी हैं. ये दोनों इस के साथ नुमाइशी भी हैं,’’ रवि हंसा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘शादी की सालगिरह इतने हल्लेगुल्ले के साथ मनाना मेरे खयाल में तो अपने प्यार की नुमाइश करना ही है. दोस्तों को बुलाने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती.’’

‘‘तो आप के विचार में शादी की सालगिरह नहीं मनानी चाहिए?’’ शोभा ने पूछा.

‘‘जरूर मनानी चाहिए, लेकिन अकेले में, एकदूसरे के साथ,’’ रवि पूनम की ओर आंख मार कर मुसकराया, ‘‘पार्टी के हंगामे में नहीं.’’

‘‘तभी आज तक तुम्हारी शादी की सालगिरह की दावत नहीं मिली. वैसे, तुम्हारी शादी की सालगिरह होती कब है, रवि?’’ रतन ने पूछा.

‘‘यह बिलकुल खुफिया बात है,’’ राजन हंसा, ‘‘रवि ने बता दिया तो तुम उस रोज मियांबीवी को परेशान करने आ पहुंचोगे.’’

‘‘लेकिन, यार, इंसान शादी करता ही बीवी के साथ रहने को है और हमेशा रहता भी उस के साथ ही है. फिर अगर खुशी के ऐसे चंद मौके दोस्तों के साथ मना लिए जाएं तो हर्ज ही क्या है? खुशी में चारचांद ही लग जाते हैं,’’ रतन ने कहा.

‘‘यही तो मैं कहती हूं,’’ अब तक चुप बैठी पूनम बोली.

‘‘तुम तो कहोगी ही, क्योंकि तुम भी उसी ‘ई ग्रुप’ की जो हो,’’ रवि ने व्यंग्य से कहा.

‘‘ई ग्रुप? वह क्या होता है, रवि भाई?’’ शोभा ने पूछा.

‘‘ई ग्रुप यानी एग्जिबिशन ग्रुप, अपने प्यार की नुमाइश करने वालों का जत्था. मियांबीवी को शादी की सालगिरह मना कर अपने लगाव या मुहब्बत का दिखावा करने की क्या जरूरत है? रही बात दोस्तों के साथ जश्न मनाने की, तो इस के लिए साल के तीन सौ चौंसठ दिन और हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि शादी की सालगिरह बैडरूम में अपने पलंग पर ही मनानी चाहिए,’’ राजन ने ठहाका लगा कर फब्ती कसी.

‘‘जरूरी नहीं है कि अपने घर का ही बैडरूम हो,’’ रवि ने ठहाकों की परवा किए बगैर कहा.

‘‘किसी हिल स्टेशन के शानदार होटल का बढि़या कमरा हो सकता है, किसी पहाड़ी पर पेड़ों का झुंड हो सकता है या समुद्रतट का एकांत कोना.’’

‘‘केवल हो ही सकता है या कभी हुआ भी है, क्यों, पूनम भाभी?’’ रतन ने पूछा.

‘‘कई बार या कहिए हर साल.’’

‘‘तब तो आप लोग छिपे रुस्तम निकले,’’ राजन ने ठहाका लगाते हुए कहा.

शोभा भी सब के साथ हंसी तो सही, लेकिन रवि का सख्त पड़ता चेहरा और खिसियाई हंसी उस की नजर से न बच सकी. इस से पहले कि वातावरण में तनाव आता, वह जल्दी से बोली, ‘‘भई, जब हर किसी को जीने का अंदाज जुदा होता है तो फिर शादी की सालगिरह मनाने का तरीका भी अलग ही होगा. उस के लिए बहस में क्यों पड़ा जाए. छोडि़ए इस किस्से को. और हां, राजन भैया, विकास और रजनी के आने से पहले जो आप लतीफा सुना रहे थे, वह पूरा करिए न.’’

विषय बदल गया और वातावरण से तनाव भी हट गया, लेकिन पूनम में पहले वाला उत्साह नहीं था.

कोठी के बाहर खड़ी गाडि़यों की कतारें और कोठी की सजधज देख कर यह भ्रम होता था कि वहां पर जैसे शादी की सालगिरह न हो कर असल शादी हो रही हो. उपहारों और फूलों के गुलदस्ते संभालती हुई रजनी लोगों के मुबारकबाद कहने या छेड़खानी करने पर कई बार नईनवेली दुलहन सी शरमा जाती थी.

कहकहों और ठहाकों के इस गुलजार माहौल की तुलना पूनम अपनी सालगिरह के रूमानी मगर खामोश माहौल से कर रही थी. उस रोज रवि अपनी सुहागरात को पलदरपल जीता है, ‘हां, तो ठीक इसी समय मैं ने पहली बार तुम्हें बांहों में भरा था, और तुम…तुम एक अधखिले गुलाब की तरह सिमट गई थीं और… और पूनम, फिर तुम्हारी गुलाबी साड़ी और तुम्हारे गुलाबी रंग में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. तुम्हें याद है न, मैं ने क्या कहा था…अगर तुम यों ही गुलाबी हो जाओगी तो तुम्हारी साड़ी उतारने के बाद भी मैं इसी धोखे में…ओह, तुम तो फिर बिलकुल उसी तरह शरमा गईं, बिलकुल वैसी ही छुईमुई की तरह छोटी सी…’ और उस उन्माद में रवि भी उसी रात का मतवाला, मदहोश, उन्मत्त प्रेमी लगने लगता.

‘‘पूनम, सुन, जरा मदद करवा,’’ रजनी उस के पास आ कर बोली, ‘‘मैं अकेली किसेकिसे देखूं.’’

‘‘हां, हां, जरूर.’’ पूनम उठ खड़ी हुई और रजनी के साथ चली गई.

मेहमानों में डाक्टर शंकर को देख कर वह चौंक पड़ी. रवि डाक्टर शंकर के चहेते विद्यार्थियों में से था और इस शहर में आने के बाद वह कई बार डाक्टर शंकर को बुला चुका है, पर हमेशा ही वह उस समय किसी विशेष कार्य में व्यस्त होने का बहाना बना, फिर कभी आने का आश्वासन दे, कर रवि को टाल देते थे. पर आज विकास के यहां कैसे आ गए? विकास से तो उन के संबंध भी औपचारिक ही थे और तभी जैसे उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया.

‘‘क्यों, डाक्टर, हम से क्या नाराजगी है? हमारा निमंत्रण तो हमेशा इस बेदर्दी से ठुकराते हो कि दिल टूट कर रह जाता है. यह बताओ, विकास किस जोर पर तुम्हें खींच लाया?’’ एक गंजा आदमी डाक्टर शंकर से पूछ रहा था.

‘‘क्या बताऊं, गणपतिजी, व्यस्त तो आज भी बहुत था, लेकिन इन लोगों की शादी की सालगिरह थी. अब ऐसे खास मौके पर न आना भी तो बुरा लगता है.’’

‘‘यह बात तो है. मेरी पत्नी का भी इन लड़केलड़कियों के जमघट में आने को दिल नहीं था पर रजनी की द थी कि शादी की 10वीं सालगिरह पर उसे हमारा आशीर्वाद जरूर चाहिए, सो, आना पड़ा वरना मुझे भी रोटरी मीटिंग में जाना था.’’

पूनम को मेहमानों की आवभगत करते देख कर रवि उस के पास आया, ‘‘पूनम, जरा डाक्टर शंकर को आने के लिए कहो न कभी घर पर.’’

‘‘वे मेरे कहने से नहीं आने वाले.’’ पूनम अवहेलना से मुसकराई.

‘‘फिर कैसे आएंगे?’’

‘‘मेरे साथ आओ, बताती हूं.’’ पूनम ने रवि को अपने पीछेपीछे पैंट्री में आने का इशारा किया और वहां जा कर डाक्टर शंकर और गणपतिजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

‘‘तो इस का मतलब है कि वे लोग मजबूरन आए हैं. किसी को जबरदस्ती बुलाना और वह भी अपने प्यार की नुमाइश कर के, हम से नहीं होगा भई, यह सब.’’

‘‘मेरे खयाल में तो बगैर मतलब के पार्टी देने को ही आजकल लोग पैसे की नुमाइश समझते हैं,’’ पूनम कुछ तलखी से बोली.

‘‘तो आज जो कुछ हो रहा है उस में पैसे की नुमाइश नहीं है क्या? तुम्हारे पास पैसा होगा, तभी तो तुम दावत दोगी. लेकिन किसी निहायत व्यक्तिगत बात को सार्वजनिक रूप देना और फिर व्यस्त लोगों को जबरदस्ती खींच कर लाना मेरी नजर में तो ई ग्रुप की ओर से की जाने वाली अपनी प्रतिष्ठा की नुमाइश ही है. जहां तक मेरा खयाल है, विकास और रजनी में प्यार कभी रहा ही नहीं है. वे इकट्ठे महज इसीलिए रह रहे हैं कि हर साल धूमधाम से एकदूसरे की शादी की सालगिरह मना सकें,’’ कह कर रवि बाहर चला गया.

तभी रजनी अंदर आई, ‘‘कर्नल प्रसाद कोई भी तली हुई चीज नहीं खा रहे और अपने पास तकरीबन सब ही तली हुई चीजें हैं.’’

‘‘डबलरोटी है क्या?’’ पूनम ने पूछा, ‘‘अपने पास 3-4 किस्में की चटनियां हैं, पनीर है, उन के लिए 4-5 किस्मों के सैंडविच बना देते हैं.’’

‘‘डबलरोटी तो है लेकिन तेरी साड़ी गंदी हो जाएगी, पूनम. ऐसा कर, मेरा हाउसकोट पहन ले,’’ रजनी बोली, ‘‘उधर बाथरूम में टंगा होगा.’’ कह कर रजनी फिर बाहर चली गई. पूनम ने बाथरूम और बैडरूम दोनों देख लिए पर उसे हाउसकोट कहीं नजर नहीं आया. वह रजनी को ढूंढ़ते हुए बाहर आई.

‘‘भई, यह जश्न तो कुछ भी नहीं है, असली समारोह यानी सुहागरात तो मेहमानों के जाने के बाद शुरू होगी,’’ लोग रजनी और विकास को छेड़ रहे थे.

‘‘वह तो रोज की बात है, साहब,’’ विकास रजनी की कमर में हाथ डालता हुआ बोला, ‘‘अभी तो अपना हर दिन ईद और हर रात शबेरात है.’’

‘‘हमेशा ऐसा ही रहे,’’ हम तो यही चाहते हैं मिर्जा हसन अली बोले.

‘‘रजनी जैसे मिर्जा साहब की शुभकामनाओं से वह भावविह्वल हो उठी हो. पूनम उस से बगैर बोले वापस रसोईघर में लौट आई और सैंडविच बनाने लगी.

‘‘तू ने हाउसकोट नहीं पहना न?’’ रजनी कुछ देर बाद आ कर बोली.

‘‘मिला ही नहीं.’’

‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है. मेरे साथ चल, मैं देती हूं.’’

रजनी को अतिथिकक्ष की ओर मुड़ती देख कर पूनम बोली, ‘‘मैं ने तुम लोगों के कमरे में ढूंढ़ा था.’’

‘‘लेकिन मैं आजकल इस कमरे में सोती हूं, तो यही बाथरूम इस्तेमाल करती हूं.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘विकास आजकल आधी रात तक उपन्यास पढ़ता है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती.’’

‘‘लेकिन आज तो तू अपने ही बैडरूम में सोएगी,’’ पूनम शरारत से बोली, ‘‘आज तो विकास उपन्यास नहीं पढ़ने वाला.’’

‘‘न पढ़े, मैं तो इतनी थक गई हूं कि मेहमानों के जाते ही टूट कर गिर पड़ूंगी.’’

‘‘विकास की बांहों में गिरना, सब थकान दूर हो जाएगी.’’

‘‘क्यों मजाक करती है, पूनम.

यह सब 10 साल पहले होता था. अब तो उलझन होती है इन सब चोचलों से.’’

पूनम ने हैरानी से रजनी की ओर देखा, ‘‘क्या बक रही है तू? कहीं तू एकदम ठंडी तो नहीं हो गई?’’

‘‘यही समझ ले. जब से विकास के उस प्रेमप्रसंग के बारे में सुना था…’’

‘‘वह तो एक मामूली बात थी, रजनी. लोगों ने बेकार में बात का बतंगड़ बना दिया था.’’

‘‘कुछ भी हो. उस के बाद विकास के नजदीक जाने की तबीयत ही नहीं होती. और अब, पूनम, करना भी क्या है यह सब खेल खेल कर? 2 बच्चे हो गए, अब इस सब की जरूरत ही क्या है?’’

पूनम रजनी की ओर फटीफटी आंखों से देखती हुई सोच रही थी कि रवि की ई ग्रुप की परिभाषा कितनी सही है.

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