एहसानमंद: क्या विवेक अपने मरीज की जान बचा पाया?

लेखक- ब्रजेंद्र सिंह

घड़ी के अलार्म की घंटी बजी और डाक्टर विवेक जागा. साथ में सोती हुई उस की पत्नी सुधा भी उठ रही थी.

‘‘शादी की सालगिरह बहुतबहुत मुबारक हो, डार्लिंग,’’ विवेक ने उस का आलिंगन किया.

‘‘आप को भी बहुतबहुत मुबारक हो,’’ सुधा ने उत्तर दिया.

नहाधो कर जब विवेक नाश्ता खाने बैठा तो सुधा ने उस के सामने उस के मनपंसद गरमागरम बेसन के चीले और पुदीने की चटनी रखी. विवेक बहुत खुश हुआ.

‘‘पत्नी हो तो तुम्हारे जैसी,’’ उस ने सुधा से कहा, ‘‘बोलो, आज तुम्हारे लिए क्या उपहार लाऊं? जो जी चाहे मांग लो.’’

‘‘मुझे कोई उपहार नहीं चाहिए, बस, एक अनुरोध है,’’ सुधा ने कहा.

‘‘अनुरोध क्यों, आदेश दीजिए, डार्लिंग,’’ विवेक ने उदारतापूर्ण स्वर  में कहा.

‘‘मैं सिर्फ इतना चाहती हूं कि कम से कम आज जल्दी घर आने की कोशिश कीजिएगा. आज हमारी शादी की दूसरी सालगिरह है. मैं आप के साथ कहीं बाहर, किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में खाना खाने जाना चाहती हूं.’’

‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगा,’’ विवेक ने उसे आश्वासन दिया, पर वह जानता था कि घर लौटने का समय उस के हाथ में नहीं था. और वह यह भी जानता था कि सुधा को भी इस बात का पूरी तरह पता था. आखिरकार, वह भी एक डाक्टर की बेटी थी और, पिछले 2 सालों से एक डाक्टर की पत्नी भी.

अस्पताल जाते हुए ट्रैफिक जाम में फंसा विवेक सोचने लगा कि डाक्टरों का जीवन भी कितना विचित्र होता है. अगर उन की जिम्मेदारी का कोई रोगी ठीक हो जाए तो वह और उस के संबंधी आमतौर से डाक्टर के एहसानमंद नहीं होते हैं.

वे सोचते हैं कि मेहनताना दे कर उन्होंने सारा कर्ज चुका दिया है. आखिरकार डाक्टर अपना काम ही तो कर रहा था. पर अगर किसी कारण से रोगी की हालत न सुधरे, उस का देहांत हो जाए, तो गलती हमेशा डाक्टर की ही होती है, चाहे कितनी ही बुरी हालत में रोगी को चिकित्सा के लिए लाया गया हो.

ऐसी स्थिति में मृतक के घर वाले और अन्य रिश्तेदार कई बार डाक्टर को दोष देते हुए मारामारी और तोड़फोड़ करना आरंभ कर देते हैं. और ऐसे हालात में कुछ लोग तो डाक्टर और अस्पताल पर रोगी की अवहेलना का मुकदमा भी ठोक देते हैं.

विवेक को उसी के अस्पताल में डेढ़ साल पहले हुए एक हादसे का खयाल आया. वह उस हादसे को भला कैसे भूल सकता था, जिस का बेहद गंभीर परिणाम निकला था.

एक अमीर घराने का नाबालिग लड़का अपनी 2 करोड़ रुपए की गाड़ी अंधाधुंध रफ्तार से चला रहा था. गाड़ी बेकाबू हो कर सड़क के बीच के डिवाइडर से टकराई. फिर पलट कर सड़क के दूसरी ओर जा गिरी.

उस तरफ एक युवक मोबाइल पर बात करते हुए अपने स्कूटर पर आ रहा था. कलाबाजी मारती हुई कार, उस के ऊपर गिरी. कार चलाने वाले लड़के की वहीं मौत हो गई. स्कूटर चालक बुरी तरह घायल था. जिस से वह बात कर रहा था, वह शायद कोई उस के घर वाला था, क्योंकि पुलिस के आने से पहले लड़के के रिश्तेदार उसे उठा कर विवेक के अस्पताल ले आए. इमरजैंसी वार्ड में विवेक उस समय ड्यूटी कर रहा था.

6-7 लोग घायल लड़के को ले कर अंदर घुस गए. कुछ विवेक को जल्दी करने को कह रहे थे, कुछ आपस में हादसे की बात कर रहे थे. विवेक ने लड़के की जांच की. वह मर चुका था. जब उस ने यह सच उस के रिश्तेदारों को बताना चाहा तो उन्होंने मानने से इनकार किया.

‘पर वह अभी तक तो जीवित था,’ एक ने बहस की, ‘वह एकदम मर कैसे सकता है, तुम उसे बचाने की कोशिश नहीं करना चाहते हो.’

बीच में एक और रिश्तेदार बोलने लगा, ‘आजकल के डाक्टर सब एकजैसे निकम्मे हैं. ये लोग भारी पगार चाहते हैं, पर पूरे कामचोर हैं.’ विवेक ने मुश्किल से अपने गुस्से को संभाला, ‘देखिए मिस्टर…’ तब तक एक नर्स उस के पास आई और बोली, ‘डाक्टर साहब, एक मरीज आया है, लगता है उसे दिल का दौरा पड़ा है. जरा जल्दी चलिए.’

विवेक उस के साथ जाने के लिए घूमा पर तभी लड़के के चाचा ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘पहले मेरे भतीजे की अच्छी तरह जांच करो, फिर तुम यहां से जा सकोगे. मुझे तो लगता है कि मेरा भतीजा अभी जिदा है.’

एक नर्सिंग अरदली ने विवेक का हाथ छुड़ाने की कोशिश की. एक और डाक्टर और कुछ रिश्तेदार बीच में घुसे. देखते ही देखते हाथापाई शुरू हो गई. कई लोगों को चोट लगी. अस्पताल का सामान भी तोड़ा गया. सिक्योरिटी गार्ड बुलाए गए और उन्होंने सब को शांत किया. विवेक के माथे पर, जहां किसी की अंगूठी से चोट लगी थी, 5 टांके लगाए गए.

इस घटना के बाद विवेक के अस्पताल ने एक सख्त नियम बनाया. किसी भी मरीज के साथ 2 से अधिक साथवाले, अस्पताल के अंदर नहीं आ सकते, चाहे वे जो हों. इस नियम को कुछ लोगों ने कानूनी चुनौती दी थी और मामला अब भी अदालत में था.

गाडि़यों के जाम के खुलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी. विवेक की विचारधारा वर्तमान में लौट आई. रहा डाक्टरों का निजी जीवन, वह भी काफी अनिश्चित होता है. कुछ पता नहीं कब किस रोगी की तबीयत अचानक बिगड़ जाए, या किसी हादसे में घायल हुए व्यक्ति को डाक्टर की जरूरत पड़े. ऐसी हालत में डाक्टर होने के नाते, उन्हें सबकुछ छोड़ कर, अपना कर्तव्य निभाने जाना पड़ता है, चाहे पत्नी के साथ सिनेमा देख रहे हों, या बच्चों के साथ उन का जन्मदिन मना रहे हों. डाक्टर बनने से पहले उन को ऐसा व्यवहार करने की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है.

जाम आखिर खुलने लगा और विवेक ने गाड़ी बढ़ाई. अस्पताल पहुंच कर विवेक ने डाक्टरों के लौकर में जा कर अपना सफेद कोट निकाल कर पहन लिया. फिर उस ने, हमेशा की तरह, उन 3 वार्डों के चक्कर लगाने लगा, जिन के मरीजों के रोगों के बारे में रिकौर्ड रखने के लिए वह जिम्मेदार था.

हर वार्ड में 10-12 मरीज थे. उन में हर एक की अपनी ही एक खास कहानी थी. पहले वार्ड में उस की मरीज राधा नामक एक विधवा थी. वह पीलियाग्रस्त थी. तकरीबन 1 महीने से वह अस्पताल में पड़ी हुई थी. उस के साथ उस की 5 साल की बेटी भी भरती कराई गई थी क्योंकि घर पर उस की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. लड़की का नाम मीनू था और वह डाक्टर विवेक की दोस्त बन गई थी.

मीनू रोज सुबह एक नर्स के साथ अस्पताल के बगीचे में घूमने जाती थी. और जब विवेक अपने राउंड पर आता, तो पहले मीनू उसे बताती थी कि उस ने बगीचे में क्या देखा, फिर उसे बाकी काम करने देती.

आज वह बहुत उत्तेजित लग रही थी, जैसे उस के पास कोई बड़ी खबर हो. विवेक को देखते ही वह बोलने लगी, ‘‘अंकल अंकल, आप कभी नहीं बता सकेंगे कि मैं ने आज क्या देखा. मैं ने तितली देखी. बड़ी सुंदर रंग वाली. वह इधरउधर उड़ रही थी जैसे कोई परी हो. मैं ने उस से बात करने की कोशिश की, पर वह चली गई. किसी दिन मैं एक तितली से दोस्ती करूंगी.’’

उस की मासूमियत देख कर विवेक ने सोचा, ‘काश, यह बच्ची जीवनभर ऐसी ही रह सकती. पर मतलबी दुनिया में यह संभव नहीं है.’

अगले वार्ड में, एक पलंग पर वृद्ध गेनू लेटा था. वह मौत के द्वार पर खड़ा था और वह यह जानता था कि वह अब केवल मशीनों के जरिए जी रहा है. उस के दोनों बेटे विदेश में बसे हुए थे. गेनू की पत्नी का देहांत कुछ साल पहले हो चुका था. 6 महीने पहले, गेनू को दिल का दौरा पड़ा.

उस का एक पड़ोसी उसे अस्पताल ले आया. जांच के बाद पता चला कि उस के दिल को भारी नुकसान पहुंचा है. उस की उम्र 70 वर्ष से ऊपर थी और वह बहुत कमजोर भी था. सो, डाक्टरों ने औपरेशन करना उचित नहीं समझा और उस के अधिक से अधिक एक साल और जीने की संभावना बताई. उस के बेटों को जब उस की हालत का पता चला और उस के अस्पताल में भरती होने का समाचार मिला, तो वे विदेश से भागेभागे आए. उन्हें यहां आ कर यह मालूम हुआ कि पिताजी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है और वे इस दुनिया में अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं.

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दोनों ने आपस में बात की होगी कि पिताजी की मृत्यु तक वे रुकना नहीं चाहते. चूंकि अस्पताल का खर्चा बीमा कंपनी दे रही थी, उन्होंने साथ मिल कर सोचा कि पिताजी को अब पैसों की जरूरत नहीं होगी. सो, पिताजी को दोनों बेटों ने बताया कि उस के घर में काफी लंबीचौड़ी मरम्मत करवा कर उस को बिलकुल नया बनाना चाहते हैं.

काम के लिए काफी पैसे लगेंगे. इस बहाने उन्होंने कोरे कागज और कोरे चैक पर पिताजी के हस्ताक्षर ले लिए. फिर क्या कहना. चंद दिनों में उन्होंने घर भी बेच दिया और पिताजी का खाता भी खाली कर दिया. और तो और, उस के बाद पिताजी को बताए बिना वे विदेश लौट गए. उन की धांधली के बारे में पिताजी को तब पता चला, जब उस के पड़ोस में रहने वाला दोस्त उस से मिलने आया था.

अगले वार्ड में एक शराबी, मीनक पड़ा था. 2 हफ्ते पहले वह नशे की हालत में सीढि़यों से नीचे गिर कर बुरी तरह घायल हो गया था. अस्पताल में भरती होने के बाद वह रोज शाम को ऊंची आवाज में शराब मांगता था और शराब न मिलने पर काफी शोर मचाता था. पूरा स्टाफ उस से दुखी था. इसलिए सब बहुत खुश थे कि अब वह ठीक हो गया था और आज उसे अस्पताल से छुट्टी मिल रही थी.

पिछली शाम, जब यह खबर उस की पत्नी को दी गई, तो वह खुश होने के बजाय, घबरा गई. वह भागीभागी विवेक के पास गई. उस के सामने वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘डाक्टर साहब, मुझ पर दया कीजिए. मेरे पति कुछ काम नहीं करते हैं. घर को चलाने का और 2 बच्चों को पढ़ाने का पूरा खर्चा मैं संभालती हूं. मेरी अच्छी नौकरी है पर फिर भी हमें पैसों की कमी हमेशा महसूस होती है. अभी महीने की शुरुआत है. मुझे हाल में वेतन मिला है. अगर आप कल मेरे पति को डिस्चार्ज कर देंगे, तो वह घर आ कर मुझे पीटपाट कर, सारे पैसे बैंक से निकलवाएगा. फिर सब पैसा शराब में उड़ा देगा.

‘‘अभी मुझे पिछले महीने का कर्ज भी चुकाना है. इस महीने का खर्च चलाना है. बच्चों की स्कूल की फीस भी देनी है. मैं कैसे काम चलाऊंगी. मैं आप से हाथ जोड़ कर विनती करती हूं, मेरे पति को कम से कम 4-5 दिन और अस्पताल में रख लीजिए.’’

‘‘माफ करना बहनजी,’’ विवेक ने जवाब दिया, ‘‘पर आप के पति को अस्पताल में रखना या न रखना मेरे हाथ में नहीं. वैसे भी, हम किसी रोगी को ठीक होने के बाद यहां रखना नहीं चाहते हैं क्योंकि बहुत और बीमार लोग हैं जो यहां बैड के खाली होने का इंतजार कर रहे हैं.’’ रोगियों की और रिश्तेदारों की कोई कमी नहीं थी. कहीं बेटी मां के बारे में चिंतित थी, कहीं चाचा भतीजे के बारे में. हर रोगी की रिपोर्ट जांचना और उस की आगे की चिकित्सा का आदेश देना आवश्यक था और ऊपर से उस को आश्वासन भी देना होता था कि डाक्टर पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह जल्द से जल्द पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएगा.

विवेक मैटरनिटी वार्ड के सामने से निकल रहा था कि वार्ड का दरवाजा अचानक खुला और वरिष्ठ डाक्टर प्रशांत बाहर आए. वे काफी चिंतित लग रहे थे पर विवेक को देख कर उन का चेहरा खिल उठा. ‘‘डाक्टर विवेक,’’ वे बोले, ‘‘अच्छा हुआ कि तुम मिल गए. हमारे वार्ड में इस समय कोईर् खाली नहीं है, और एक जरूरी संदेश वेटिंगरूम तक पहुंचाना था. कृपा कर के, क्या तुम यह काम कर दोगे?’’

‘‘कर दूंगा, सर’’ विवेक ने उत्तर दिया, ‘‘संदेश क्या है और किस को पहुंचाना है?’’

‘‘वेटिंगरूम में एक मिस्टर विनोद होंगे,’’ डाक्टर प्रशांत ने कहा, ‘‘उन को यह बताना है कि उन की पत्नी को एक प्रिमैच्योर यानी उचित समय से पहले बच्चा हुआ है और वह लड़का है. हम पूरी कोशिश कर रहे हैं पर उसे बचाना काफी कठिन लग रहा है. और उन को यह भी कहना कि इस समय वे अपनी पत्नी और बच्चे से नहीं मिल सकेंगे. पर शायद 3-4 घंटे के बाद यह संभव होगा.’’

वेटिंगरूम की ओर जाते हुए विवेक सोचने लगा कि यह क्यों होता है कि बुरा समाचार देने के लिए हमेशा जूनियर डाक्टर को ही जिम्मेदारी दी जाती है. डरतेडरते विवेक ने बच्चे के बाप को अपना परिचय दिया और फिर संदेश सुनाया. बाप कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि आप लोग बच्चे को बचाने के लिए जीजान लगाएंगे.’’

विवेक ने वापस जा कर बच्चे की मां की फाइल निकाली और पढ़ कर उस को पता लगा कि उस औरत को इस से पहले 2 मिसकैरिज यानी गर्भपात हुए थे, और दोनों वक्त बच्चा मृतक पैदा हुआ था. यह उस औरत का तीसरा गर्भ था. डाक्टरों ने बच्चे को बचाने की जितनी कोशिश कर सकते थे, उतनी की. बच्चा 5 दिन जीवित रहा. इस दौरान उस के बाप ने उस का नाम विजय रख दिया. चंद गिनेचुने रिश्तेदार भी उस से मिल सके. विवेक भी दिन में 2-3 बार जा कर बच्चे की हालत पता करता था.

पर 5वें दिन विजय का छोटा सा दिल हमेशाहमेशा के लिए शांत हो गया. विवेक भी उन डाक्टरों में था जिन्होंने अस्पताल के दरवाजे के पास खामोश खड़ेखड़े उस के पिता को विजय का नन्हा मृतक शरीर अपनी छाती से लगा कर बाहर जाते देखा.

कुछ दिनों बाद डाक्टर विवेक के नाम अस्पताल में एक पत्र आया. उस ने लिफाफा खोला और पढ़ा, ‘डाक्टर विवेक, मैं यह पत्र आप को भेज रहा हूं, क्योंकि मुझे सिर्फ आप का नाम याद था, पर यह उन सब डाक्टरों के लिए है जिन्होंने मेरे बेटे विजय की देखभाल की थी.

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‘आप लोगों ने उस को इतनी देर जीवित रखा ताकि हम उस को नाम दे सकें, उस को हम अपना प्यार दे सकें, उस के दादादादी और नानानानी उस से मिल सकें. दवाइयों ने उसे जिंदा नहीं रखा, बल्कि आप लोगों के प्यार ने उसे चंद दिनों की सांसें दीं. धन्यवाद डाक्टर साहब. मैं आप सब का एहसानमंद हूं.’ नीचे हस्ताक्षर की जगह लिखा था, ‘विजय का पिता.’ विवेक की आंखें भर आईं और उस के गाल गीले हो गए. पर उस ने अपने आंसुओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की.

पिया बावरी: कौनसी तरकीब निकाली थी आरती ने

अजयऔफिस के लिए निकला तो आरती भी उसे कार तक छोड़ने नीचे उस के साथ ही उतर आई. यह उस का रोज का नियम था. ऐसा दृश्य कहीं और देखने को नहीं मिलता था कि मुंबई की सुबह की भागदौड़ के बीच कोई पत्नी रोज अपने पति को छोड़ने कार तक आए. आरती का बनाया टिफिन और अपना लैपटौप बैग पीछे की सीट पर रख आरती को मुसकरा कर बाय बोलते हुए अजय कार के अंदर बैठ गए.

आरती ने हाथ हिला कर बाय किया और अपने रूटीन के अनुसार सैर के लिए निकलने लगी तो कुछ ही दूर उस की नैक्स्ट डोर पड़ोसिन अंजलि भी औफिस के लिए भागती सी चली जा रही थी. आरती पर नजर डाली और कुछ घमंड भरी आवाज में कहा, ‘‘हैलो आरती, भई सच कहो, सब को औफिस के लिए निकलते देख दिल में कुछ तो होता होगा कि सभी कुछ कर रहे हैं, काश मैं भी कोई जौब करती? मन तो करता होगा सुबह तैयार हो कर निकलने का. यहां तो लगभग सभी जौब करती हैं.’’

आरती खुल कर हंसी, ‘‘न बाबा, तुम लोगों को औफिस जाना मुबारक. अपन तो अभी सैर से आ कर न्यूज पेपर पढ़ेंगे, आराम करेंगे, फिर बच्चों को कालेज भेजने की तैयारी.’’

‘‘सच बताओ आरती, कभी दिल नहीं  करता कामकाजी स्त्री होने का?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं करता. कमाने के लिए पति है मेरे पास,’’ आरती हंस दी, फिर कहा, ‘‘तुम थकती नहीं इस सवाल से? कितनी बार पूछ चुकी हो?’’

‘‘फिर तुम किसलिए हो?’’ कुछ कड़वे से लहजे में अंजलि ने पूछा तो उस के साथ तेज चलती हुई आरती ने कहा, ‘‘अपने पति को प्यार करने के लिए… लो, तुम्हारी बस आ गई,’’ आरती उसे बाय कह कर सैर के लिए निकल गई.

बस में बैठ कर अंजलि ने बाहर झंका. आरती तेज कदमों से सैर कर रही थी.

रोज की तरह 1 घंटे की सैर कर के जब तक आरती आई, पीहू और यश कालेज जाने के लिए तैयार थे. फै्रश हो कर बच्चों के साथ ही उस ने नाश्ता किया, फिर दोनों को भेज न्यूज पेपर पढ़ने लगी. उस के बाद मेड के आने पर रोज के काम शुरू हो गए.

आरती एक पढ़ीलिखी हाउसवाइफ थी. नौकरी न करने का फैसला उस का खुद का था. वह घरपरिवार की जिम्मेदारियां बहुत संतोष और खुशी से निभा कर अपनी लाइफ में बहुत खुश थी. आराम से रहती, खूब हंसमुख स्वभाव था, न किसी से शिकायतें करने की आदत थी, न किसी से फालतू उम्मीदें.

वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती थी, सम?ाती थी कि इस महानगर की भागदौड़ में घर से निकलना आसान काम नहीं होता, पर उसे यह बात हमेशा अजीब लगती कि वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती है तो आसपास की वर्किंग महिलाएं अंजलि, मीनू और रीता उस के हाउसवाइफ होने का मजाक क्यों बनाती हैं? उसे नीचे क्यों दिखाती हैं?

उसे याद है जब वह शुरूशुरू में इस सोसाइटी में रहने आई तो अंजलि ने पूछा था, ‘‘कुछ काम नहीं करतीं आप? बस घर में रहतीं?’’

उस के पूछने के ढंग पर आरती को हंसी आ गई थीं. उस ने अपने स्वभाव के अनुसार हंस कर जवाब दिया था, ‘‘भई, घर में भी जो काम होते हैं, उन्हें करती हूं, अपना हाउसवाइफ होना ऐंजौय करती हूं.’’

‘‘तुम्हारे पति तुम्हें कहते नहीं कि कुछ काम करो बाहर जा कर?’’

‘‘नहीं, वे इस में खुश रहते हैं कि जब वे औफिस से लौटें तो मैं उन्हें खूब टाइम दूं, उन्हें भी घर लौटने पर मेरे साथ समय बिताना अच्छा लगता है.’’

‘‘कमाल है.’’

आरती हंस दी पर उसे यह समझ आ गया था कि इन लोगों को आसपास की हाउसवाइफ की लाइफ बिलकुल खराब लगती है. यहां तो मेड भी आ कर उत्साह से पहला सवाल यही पूछती है कि मैडम, काम पर जाती हैं क्या?

उस के आसपास वर्किंग महिलाएं ही ज्यादा थीं जो पूरा दिन घर में रहने वाली महिलाओं को किसी काम का न समझतीं. अजय और आरती ने प्रेम विवाह किया था.

आरती के कोई जौब न करने का फैसला अजय को ठीक लगा था. इस में उसे कोई भी परेशानी नहीं थी. अंजलि, मीनू, रीता के पति भी एकदूसरे को अच्छी तरह जानते थे. वह तो किसी पार्टी में किसी के दोस्त के यह पूछने पर कि भाभीजी क्या करती हैं तो आरती को निहारता हुआ हंस कर कह देता कि उस का काम है मुझे प्यार करना और वह बखूबी इस काम को अंजाम देती है.

आसपास खड़ी हो कर यह बात सुन रहीं अंजलि, मीनू और रीता इस बात पर एकदूसरे को देखतीं और इशारे करतीं कि यह देखो यह भी अजीब ही है.

ऐसी ही एक पार्टी में मीनू के पति ने बात छेड़ दी, ‘‘आरतीजी, आप बोर नहीं होतीं घर रह कर? मीनू तो घर में रहने पर बहुत जल्दी बोर हो जाती है. यह तो बहुत ऐंजौय करती है अपने पैरों पर खड़ी होने को. हर काम अपनी मरजी से करने में एक अलग ही खुशी होती है. आप तो काफी ऐजुकेटेड हैं, आप क्यों कोई जौब नहीं करतीं?’’

आरती ने खुशदिली से कहा, ‘‘मुझे तो शांति से घर रहना पसंद है. मैं ने तो शादी से पहले ही अजय से कह दिया था, मैं कोई जौब नहीं करूंगी, मैं बस घर में रह कर अपनी जिम्मेदारियां उठाऊंगी. फिर आरती ने और मस्ती से कहा, ‘‘मैं क्यों करूं कोई काम, मेरा पति है काम करने के लिए, वह कमाता है, मैं खर्च करती हूं मजे से, और मजे की बातें आज बता ही देती हूं, मैं अपने मन में अजय को आज भी पति नहीं, प्रेमी ही  समझती हूं अपना जो मेरे आसपास रहे तो मुझे अच्छा लगता है, मैं नहीं चाहती कि मैं कोई जौब करूं और वह मुझ से पहले आ कर घर में मेरा इंतजार करे.

‘‘किसी भी मेड के हाथ का बना खाना खा कर मेरे पति और मेरे बच्चों की हैल्थ खराब हो, मुझे तो अजय का हर काम अपने हाथों से करना अच्छा लगता है. आप लोगों को पता है कि मैं लाइफ की किन चीजों को आज भी ऐंजौय करती हूं. जब अजय नहा कर निकलें तो मैं उन का टौवेल उन के हाथ से ले कर तार पर टांग दूं, उन का टिफिन कोई बोझ समझ कर नहीं, मुहब्बत से पैक करूं और बदले में पता है मुझे क्या मिलता है, आरती बताते हुए ही शर्मा गई, ‘‘अपने लिए ढेर सी फिक्र और प्यार. असल में आप लोग घर में रहने को जितनी बुरी चीज सम?ाने लगे हैं, उतनी बुरी बात यह है नहीं.

‘‘मैं जब वर्किंग लेडीज की रिस्पैक्ट कर सकती हूं तो आप लोगों को एक हाउसवाइफ के कामों की वैल्यू क्यों समझ नहीं आती. कल हमारी पीहू भी अपने पैरों पर खड़ी होगी, जौब करेगी, यह उस की चौइस ही होगी कि उसे क्या पसंद है. हां, वह किसी हाउसवाइफ का मजाक कभी नहीं उड़ाएगी, यह भी जानती हूं मैं.’’

सब चुप से हो गए थे. आरती के सभ्य शब्दों में कही बात का असर जरूर हुआ था. सब इधरउधर हुए तो रीता ने कहा, ‘‘आरती, मुझे तुम्हें थैंक्स भी बोलना था. उस दिन जब घर पर रिमी अकेली थी, हम दोनों को औफिस से आने में देर हो गई थी तो तुम ने उसे बुला कर पीहू के साथ डिनर करवाया, हमें बहुत अच्छा लगा.’’

‘‘अरे, यह कोई बड़ी बात नहीं है, बच्चे तो बच्चे हैं, पीहू ने बताया कि रिमी अब तक अकेली है तो मैं ने उसे बुला लिया था.’’

मीनू आरती के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. उस ने पूछ लिया, ‘‘आरती, तुम ने जो अजय को औफिस में कल करेले की सब्जी दी थी, उस की रैसिपी देना. अमित ने भी टेस्ट की थी. बोल रहे थे कि बहुत बढि़या बनी थी. ऐसी सब्जी उन्होंने कभी नहीं खाई थी और पता है अमित बता रहे थे कि अजय तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं.’’

अमित और अजय एक ही औफिस में थे. आरती हंस पड़ी, ‘‘अजय का बस चले तो वे रोज करेले बनवाएं, रैसिपी भी बता दूंगी और जब भी कभी बनाऊंगी, भेज भी दूंगी.’’

थोड़े दिन आराम से बीते. काफी दिन से कोई आपस में मिला नहीं था. कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू हो गया था. सब वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. अब अंजलि, मीनू, रीता की हालत खराब थी, न घर में रहने का शौक, न आदत. सब घर में बंद. लौकडाउन ने सब की लाइफ ही बदल कर रख दी थी, न कोई मेड आ रही थी, न कोई घर के काम संभाल पा रहा था. अब सब आपस में बस कभीकभी फोन ही करते.

एक आरती थी जिस ने कोई भी शिकायत किसी से नहीं की. जितना काम होता, उस में किसी की थोड़ी हैल्प ले लेती. अजय तो अब और हैरान था कि जहां उस का हर दोस्त फोन करते ही शुरू हो जाता कि यार, कहां फंस गए, औफिस के काम करो. फिर घर में लड़ाई भी होने लगी है ज्यादा. वहीं वह आरती को धैर्य से सब संभालता देखता. वह भी थोड़ेबहुत काम सब से करवा लेती पर ऐसे नहीं कि घर में जैसे कोई तूफान आया है.

आराम से जब बच्चे औनलाइन पढ़ते, वह खुद औफिस के कामों में बिजी होता, आरती सब शांति से करती रहती. इस दौरान तो उस ने आरती के और गुण भी देख लिए. वह उस पर और फिदा था.

अमित परेशान था. घर से काम करने पर तो औफिस के काम ज्यादा रहने लगे थे. ऊपर

से उसे अपने बड़े बालों पर बहुत गुस्सा आता रहता. सारे सैलून बंद थे. कहने लगा, ‘‘एक तो इतनी जरूरी वीडियो कौल है आज, औफिस के कितने लोग होंगे और मेरे बाल देखो, शक्ल ही बदल गई घर में रहतेरहते. क्या हाल हो गया है बालों का.’’

उस की चिकचिक देख मीनू ने कहा, ‘‘चिढ़ क्यों कर रहे हो. सब का यही हाल होगा. बाकियों ने कहां कटवा रखे होंगे बाल. सब ही परेशानी में हैं आजकल.’’

अमित को बहुत देर झंझलाहट होती रही. उस दिन की मीटिंग शुरू हुई तो सभी के बाल बढ़े हुए थे. पहले तो सब कलीग्स इस बात पर हंसे, फिर अचानक अजय के बहुत ही फाइन हेयर कट पर सब की नजर गई तो सब बुरी तरह चौंके.

एक कलीग ने कहा, ‘‘यह तुम्हारा हेयरकट कहां हो गया इतना बढि़या. कहां हम सब जंगली लग रहे हैं और तुम तो जैसे अभीअभी किसी सैलून से निकले हो.’’

अजय ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आरती ने किया है यह और मेरा ही नहीं, बच्चों का भी.’’

सब दोस्त आरती की तारीफ करने लगे थे. अमित अपने लुक पर बहुत ध्यान देता था. जब वह काम से फ्री हुआ, उस ने एक ठंडी सांस ली. उठ कर फ्रैश हुआ और शीशे के सामने खड़ा हो कर खुद को देखने लगा.

मीनू भी वहीं लैपटौप पर कुछ काम कर रही थी. पूछा, ‘‘क्या निहार रहे हो?’’

‘‘अपने बाल.’’

‘‘क्या कोई और काम नहीं है तुम्हें? हो गई न मीटिंग? सब के ऐसे ही बढ़े हुए थे न?’’

‘‘अजय का हेयरकट बहुत जबरदस्त था.’’

‘‘क्या?’’ मीनू चौंकी.

‘‘हां, आरती ने अजय और बच्चों का बहुत शानदार हेयरकट कर दिया है. मुंह चमक रहा था अजय का, यह औरत क्या है.’’

मीनू ने ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘यह पिया बावरी है.’’

अमित को हंसी आ गई, ‘‘डियर, कभी तुम भी बन जाओ पिया बावरी.’’

मीनू ने हाथ जोड़ दिए, मुसकरा कर कहा, ‘‘आसान नहीं है.’’

जिस्म की सफेदी: सुषेन क्यों अंजान बन रहा था

इनसान की चमड़ी भी उस की जिंदगी में कितनी अहमियत रखती है… काली चमड़ी… गोरी चमड़ी… मोटी चमड़ी… महीन चमड़ी… खूबसूरत और बदसूरत चमड़ी…

खूबसूरत… हां… सुषेन भी तो खूबसूरत था… बांका और सजीला नौजवान… सुषेन 20 साल पहले की यादों में डूबने लगा था.

कालेज में बीएससी करते समय बहुत सी लड़कियां सुषेन की दीवानी थीं, क्योंकि वह दिखने में तो हैंडसम था ही, साथ ही साथ विज्ञान के प्रैक्टिकल करने में भी उसे महारत हासिल थी.

पर सुषेन के दिल में तो किसी और ही लड़की का राज था और वह लड़की थी एमएससी फाइनल में पढ़ने वाली सुरभि.

सुरभि और सुषेन दोनों अकसर लाइब्रेरी में मिलते थे और वहीं दोनों की आंखें मिलीं, बातें हुईं और 2 जवान दिलों में प्यार होते देर नहीं लगी. दोनों ने महसूस किया कि वे एकदूसरे को जाननेपहचानने लगे हैं और दोनों के विचार भी आपस में मिलते हैं. यकीनन वे एकदूसरे के लिए बने हैं, इसलिए सुषेन और सुरभि ने एकदूसरे से शादी का वादा भी कर डाला.

सुरभि के घर वालों को इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं थी और सुषेन ने भी बगैर यह सोचे ही हामी भर दी थी कि क्या उस के घर वाले उस से उम्र में 2 साल बड़ी लड़की से शादी करने की इजाजत देंगे?

और वही हुआ भी. सुषेन के घर वालों को उस की उम्र से बड़ी लड़की से शादी कर लेने पर घोर एतराज हुआ, पर शायद सुषेन मन ही मन ठान चुका था कि उसे अपने आगे की जिंदगी कैसे और किस के साथ गुजारनी है,
इसलिए उस ने पहले अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर नौकरी लगने के बाद सुरभि के साथ ब्याह भी रचा लिया.

सुषेन और सुरभि के ब्याह में सुषेन के घर से कोई नहीं आया था. मतलब साफ था कि उस ने घर वालों से बगावत कर के यह शादी की थी और इसी के साथ ही सुषेन के घर वालों ने उसे अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया था.

सुरभि को पाने के लिए सुषेन ने अपना सबकुछ खो दिया था और इतनी पढ़ीलिखी और समझदार पत्नी पा कर वह मन ही मन बहुत खुश भी था. दोनों अपने जिंदगी मन भर कर जी लेना चाहते थे और इस के लिए उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी थी.

सुरभि खुश थी और सुषेन भी, पर अचानक उन की खुशियों को तब ग्रहण लग गया जब एक दिन शेव करते समय सुषेन को अपने होंठों के किनारे एक छोटा सा सफेद दाग दिखाई दिया.

सभी की तरह सुषेन ने भी यह सोच कर अनदेखा कर दिया कि शायद ज्यादा सिगरेट पीने की वजह से होंठ कुछ सफेद हो गया होगा, पर उस की चिंता कुछ महीनों बाद बढ़ गई, क्योंकि वह छोटा सा दाग अब न केवल बड़ा हो गया था, बल्कि उसी तरह के चकत्ते शरीर में और जगह भी हो गए थे.

“तो क्या मुझे सफेद दाग हो गया है?” सुषेन मन ही मन शक से बुदबुदा उठा था. ड़ाक्टर को दिखाया तो उस का डर सही निकला. सुषेन को सफेद दाग नामक बीमारी हो गई थी.

डाक्टर ने सुषेन से तनाव नहीं लेने को कहा और बताया कि यह बीमारी धीरेधीरे ही ठीक होती है, इसलिए बताए मुताबिक दवा खाते रहें. पर नियम से लगातार दवा खाने के बाद भी सुषेन के शरीर पर सफेद दाग फैलते ही गए.

‘आखिर मुझे सफेद दाग जैसी बीमारी कैसे हो गई, क्योंकि मैं तो बहुत साफसफाई से रहता हूं… जल्दी किसी से हाथ नहीं मिलाता और अगर मिलाना भी पड़ जाए तो तुरंत हाथों को सैनेटाइज़ करता हूं… फिर भी… मुझे… कैसे?… क्यों…’ वगैरह सवाल सुषेन के दिमाग में घूम रहे थे.

“लोग मुझे देख कर नजरें चुरा लेते हैं… मेरी सूरत की तरफ कोई देखना भी नहीं चाहता है… मैं क्या करूं?” एक दिन सुषेन ने अपने खास दोस्त राघव से कहा.

राघव ने उसे एक बाबा का पता बताया और कहा, “वे बाबा तुम्हारे बदन पर भभूत मलेंगे और कुछ तंत्रमंत्र… और बस तू भलाचंगा हो जाएगा.”

सुषेन बिना देर किए उस बाबा के पास पहुंचा. बाबा ने सुषेन को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, “यह सफेद दाग की बीमारी है जो पिछले जन्म के पाप कर्मों से ही पनपती है. तू ने जरूर किसी सफेद खाल वाले बेजबान जानवर को सताया होगा, इसीलिए तेरा खून खराब हो चुका है और तेरी खाल का रंग भी सफेद हो गया है.

“हमें तेरे खून को साफ करने के लिए सोनेचांदी की भस्म का लेप तेरे पूरे बदन पर लगाना होगा और सोने को गला कर उस का काढ़ा तुझे पिलाना होगा, तब कहीं जा कर यह बीमारी सही हो पाएगी, पर…”

“पर क्या बाबा?” सुषेन ने पूछा.

“क्या है कि इलाज थोड़ा महंगा होगा, इसलिए कुछ एडवांस भी जमा करना पड़ेगा तुझे,” बाबा ने कहा.

“कितना भी महंगा इलाज हो बाबा, आप बस मुझे ठीक कर दो. मैं तो समाज में बैठने लायक नहीं रह गया हूं. आप इलाज शुरू कीजिए, मैं पैसे का इंतजाम करता हूं,” यह कहते हुए सुषेन बहुत जोश में लग रहा था.

बाबा ने इलाज का खर्चा 50,000 रुपए बताया था और 25,000 रुपए पहले ही जमा करा लिए थे.

बाबा ने इलाज शुरू किया. सुषेन को कई तरह के काढ़े पिलाए गए, शरीर के ऊपर भभूत भी मली गई, पर उन सब चीजों से उसे फायदा मिलने के बजाय नुकसान ही होता गया.

धीरेधीरे सुषेन हर तरफ से इलाज करा कर हार गया था. पाखंडी तांत्रिकों, झोलाछाप डाक्टरों, मुल्लेमौलवियों सब ने सुषेन को बस लूटा ही था. अब कहीं न कहीं सुषेन भी यह मान चुका था कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है.

सुषेन एक तरफ तो इस बीमारी के चलते दिमागी तौर पर परेशान रहता था, दूसरी तरफ सामाजिक बहिष्कार ने उसे दुखी कर रखा था और तीसरी तरफ उसे यह भी लगने लगा था कि सुरभि की नजरों में अब उस के लिए प्यार की जगह तिरस्कार आता जा रहा है. अब वह पहले की तरह उस के पास नहीं बैठती थी और रात में उस के सोने के बाद वह अकसर सोफे पर चली जाती है और उसे शारीरिक संबंध भी नहीं बनाने देती है.

सुषेन को एहसास होने लगा था कि सुरभि अब उसे छोड़ देगी. सुरभि से इस बारे में पूछने पर उस का बड़ा सहज सा जवाब आया था, “हां.”

सुषेन के कानों में बहुतकुछ सनसनाता सा चला गया. उस ने जो सुना था, उस पर उसे भरोसा नहीं हो रहा था.

“बुरा मत मानना पर अब तुम्हें यह लाइलाज बीमारी हो गई है. तुम्हें तो इसी के साथ जीना होगा, पर मैं अभी जवान और खूबसूरत हूं. अपने पिछले जन्म के कर्मों का कियाधरा तुम भुगतो… मैं भला उस में क्यों पिसूं? मेरी और तुम्हारी राह आज से अलग है. मैं ने वकील से बात कर ली है. आपसी रजामंदी रहेगी तो तलाक आसानी से हो जाएगा…” और सुरभि ने बड़ी आसानी से इतनी बड़ी बात कह दी.

दोनों में तलाक हो गया. सुरभि कहां गई, यह जानने में सुषेन को कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह अब मन ही मन घुटने लगा था. तनाव हमेशा उस के दिमाग और चेहरे को घेरे रहता. खुदकुशी तक करने का विचार आया, पर सुषेन को लगा कि यह तो सरासर बुजदिली होगी.

सुषेन ने अपनेआप को संभाला तो थोड़ा सहारा उसे रमोला ने भी दिया, जो उस के साथ ही काम करती थी. रमोला यह भी जानती थी कि अगर इस समय सुषेन को सहारा नहीं दिया गया तो वह कुछ भी कर सकता है.

“सुषेनजी, क्या आज आप मुझे मेरे घर तक छोड़ सकते हैं? अंधेरा ज्यादा हो गया है और आजकल शहर में अकेली औरत का निकलना सही नहीं है,” एक दिन रमोला ने सुषेन से कहा.

“क्यों नहीं… बिलकुल छोड़ दूंगा… बस, 15 मिनट और रुक जाइए, फिर साथ ही निकलते हैं,” सुषेन ने हामी भरते हुए कहा.

दरअसल, रमोला एक तलाकशुदा औरत थी. उस के पति ने सांवला रंग होने के चलते उस से तलाक ले लिया था और अब वह अकेली ही जिंदगी काट रही थी.

जब सुषेन अपनी मोटरसाइकिल पर रमोला को उस के घर छोड़ने जा रहा था, तब उस ने महसूस किया कि रमोला उस से कुछ ज्यादा ही सट कर बैठी है. पहले तो सुषेन को लगा कि यह अनजाने में भी हो सकता है, पर जब लगातार रमोला ने अपने गदराए जिस्म को सुषेन के बदन से सटाए रखा तो वह समझ गया कि रमोला को मर्दाना जिस्म की जरूरत है.

“अंदर आ कर एक कप चाय तो पी लीजिए,” रमोला ने कहा तो सुषेन भी मना नहीं कर सका.

वे दोनों अंदर आए ही थे कि बारिश शुरू हो गई. रमोला किचन में चाय बनाने चली गई. सुषेन को रमोला का यह लगाव बहुत सुहा रहा था.

“रमोलाजी, आप मुझे अपने घर के कप में चाय पिला रही हैं. क्या आप को मुझ से कोई परहेज नहीं है? मेरा मतलब है कि मेरे इन सफेद दाग की वजह से?”

“नहीं सुषेनजी, मैं ने आप को आज से पहले भी देखा है. आज भी आप इतने हैंडसम हैं, जितना पहले थे.”

यह सुन कर सुषेन को बहुत अच्छा लगा और वह रमोला की तरफ खिंचता चला गया. रमोला भी मन ही मन सुषेन को पसंद करती थी, जिस का नतीजा यह हुआ कि उन दोनों में जिस्मानी संबंध बन गए. जब एक बार दोनों ने एकदूसरे के जिस्म को भोगा तो फिर प्यार का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि दोनों के बीच अकसर संबंध बनने लगे.

बाद में उन दोनों ने इस रिश्ते को एक नाम देने की सोची और आपस में शादी कर ली. दोनों एक दूसरे के साथ जिंदगी बिता कर बहुत खुश थे, पर सुषेन के मन में कहीं न कहीं अपनी बीमारी को ले कर निराशा भी थी, क्योंकि समाज में उसे एक छूत की बीमारी माना जाता था और उस ने महसूस किया कि देश में ऐसे न जाने कितने लड़केलड़कियां हैं, जिन की शादी इस बीमारी के चलते नहीं हो पाती है.

लिहाजा, सुषेन और रमोला ने इस दिशा में कुछ ठोस काम करने की सोची और अपने खर्चे पर ऐसी 2 लड़कियों की शादी कराई, जिन की शादी में अड़चनें आ रही थीं. इस काम में कुछ समाजसेवी संस्थाओं ने भी उन की पैसे से मदद की थी.

आज जीतोड़ मेहनत कर के उन्होंने देश में अपनी एक पहचान बना ली है और इस काम को ढंग से करने के लिए उन के पास एक शानदार औफिस भी है.

आज सुरभि को सुषेन की जिंदगी से गए पूरे 25 साल हो गए थे. सुषेन अपने औफिस में बैठा हुआ काम में बिजी था कि उस के चपरासी ने बताया, “सर, कोई आप से मिलना चाहता है.”

सुषेन ने अंदर बुलवाने को कहा. थोड़ी देर में एक औरत एक आदमी के साथ अंदर आई. उन के साथ शायद उन की भी बेटी थी.

25 साल का समय लंबा जरूर होता है पर इतना लंबा भी नहीं कि आप उसे पहचान न सकें, जिस से शादी करने के लिए आप ने अपने घर वालों से बगावत कर दी थी. यह सुरभि थी. सुषेन उसे देखते ही पहचान गया था.

“जी, बात यह है कि मेरी बेटी को सफेद दाग की बीमारी है और इसी वजह से उस की शादी में अड़चन आ रही है,” वह आदमी बोला.

‘तो यह सुरभि का पति है. इस का मतलब है कि मुझे छोड़ते ही सुरभि ने इस आदमी से शादी कर ली थी और यह लड़की भी इसी आदमी की है, क्योंकि मुझे तो सुरभि ने अपने पास ही फटकने नहीं दिया था,’ सुषेन के मन में यह सब चल रहा था.

“जी, ठीक है. आप अपनी बेटी का नाम और उस के फोटो हमारे पास जमा करवा दीजिए. हमारी तरफ से जो भी मदद होगी, वह आप को दी जाएगी,” सुषेन ने सुरभि को देखते हुए कहा जो उस की घनी दाढ़ी के बीच छिपे चेहरे को पहचान लेने के बाद भी अनजान बनने की कोशिश कर रही थी.

मैं पवित्र हूं: राज कौर पर भरोसा किसने किया

‘‘साहब, लड़की बहुत ही खूबसूरत है. जिस्म की बनावट देखें. खिला हुआ ताजा गुलदाऊदी है जनाब. रंगरूप कितना चढ़ा हुआ है. जनाब, आप तो इस तरह की रसदार जिस्म वाली लड़कियां ही पसंद करते हो… जनाब उठा लें, फिर मौका नहीं मिलने वाला?’’

जीप से थोड़ी दूर ही हवलदार की नजर उस लड़की पर जा पड़ी थी. सूरज अंबर के घौंसले में जा छिपा था. रात खतरनाक रूप ले कर और गहरी होती जा रही थी.

एक नया शादीशुदा जोड़ा हाथ में एक छोटी सी अटैची उठाए, नाजुकनाजुक प्यारीप्यारी बातें करता पैदल ही अपने गांव जा रहा था. गांव की दूरी तकरीबन एक किलोमीटर ही होगी. वे दोनों बस से उतर कर थोड़ी ही दूर गए थे कि पुलिस की जीप आहिस्ता से उन के पास से गुजरी.

इंस्पैक्टर ने जोश में आ कर ड्राइवर को कहा, ‘‘जीप मोड़ ले…’’ और अपनी  बांहें ऊपर को खींच कर 2-3 अंगड़ाइयां तोड़ लीं.

ड्राइवर ने जीप उस जोड़े के आगे जा कर खड़ी कर दी. हवलदार और इंस्पैक्टर नीचे उतरे.

हवलदार ने उस लड़के से पूछा, ‘‘ओए, कहां जाना है तुझे?’’

‘‘अपनी ससुराल से आ रहा हूं जनाब और अपने गांव जा रहा हूं. जनाब, कुछ दिन पहले ही हमारी शादी हुई है?’’

‘‘ओए, तू तस्करी करता है… तू अफीम बेचता है… इतने अंधेरे में ससुराल से आ रहा है?’’

‘‘जनाब, इस अटैची में सिर्फ कपड़े हैं और कुछ भी नहीं है,’’ उस लड़के ने कहा.

‘‘ओए, तू थाने चल. वहां जा कर पता चलेगा कि इस में क्या है…’’

‘‘जनाब, मेरा कुसूर क्या है? मैं कोई अफीम नहीं बेचता, कोई तस्करी नहीं करता. जनाब, मेरी अटैची देख लें.’’

‘‘चुप कर. हमें अभीअभी वायरलैस से खबर आई है कि एक नया शादीशुदा जोड़ा आ रहा है. उस के पास अफीम है. उन्होंने सारा हुलिया तेरा बताया है कि तू अफीम बेचता है.’’

‘‘जनाब, ऐसी कोई बात नहीं है. आप को गलतफहमी हुई है. मेरे गांव से पूछ लें… मैं प्रीतम सिंह हूं जनाब. मैं रेहड़ा चलाता हूं जनाब. मेरे मातापिता, बहनभाई सब घर में हैं. आप गांव से पता कर लो.’’

‘‘यह तो थाने जा कर ही पता चलेगा. कैसे बकबक करता है. हम को गलत सूचना मिली है?’’ कहते हुए हवलदार ने 5-7 थप्पड़ प्रीतम सिंह के गाल पर जड़ दिए. उस की पगड़ी खुल कर नीचे गिर गई और वह खुद भी. उन्होंने लातोंबांहों से उस की खूब सेवा कर दी.

प्रीतम सिंह की पत्नी राज कौर ने बहुत गुजारिश की, पर इंस्पैक्टर पर तो हवस का भूत सवार हो चुका था. उस ने राज कौर पर 3-4 थप्पड़ जड़ दिए. वह भी नीचे गिर गई.

इंस्पैक्टर ने हवलदार और सिपाही को कहा, ‘‘उठा कर जीप में फेंक दो इन  दोनों को. थाने ले चलो, देखते हैं कैसे  नहीं मानता.’’

सिपाहियों ने उन दोनों को जीप में धकेल लिया.

राज कौर रोरो कर कह रही थी कि जनाब छोड़ दो हमें, हम बेकुसूर हैं, पर सिपाही उन को गंदीगंदी गालियां निकाले जा रहे थे.

थाने में ले जा कर इंस्पैक्टर ने दोनों को हवालात में बंद कर दिया. राज कौर का जूड़ा खुल चुका था, बाल बिखर चुके थे. उन दोनों का रोरो कर बुरा हाल हो गया था.

इंस्पैक्टर ने हवलदार को तेज आवाज लगा कर कहा, ‘‘बड़ा सा पैग बना कर ला.’’

तकरीबन 55 साल के उस इंस्पैक्टर ने अपने सारे कपड़े ढीले कर लिए और गरम लहू में उबलता हुआ टांगें पसार कर कुरसी पर बैठ गया.

हवलदार बड़ा पैग बना कर ले आया और बोला, ‘‘जनाब, माल बहुत बढि़या है. ताजा गुलकंद है जनाब. खींच दो जनाब. यह मौका बारबार नहीं मिलेगा जनाब. पहले माल से यह माल अलग ही है, ताजातरीन है जनाब.’’

इंस्पैक्टर ने अपनी मूंछें अकड़ा कर एक ही सांस में पैग हलक के नीचे उतार लिया. उस की आंखों के डोरे तंदूर की तरह तपने लगे.

हवलदार ने कहा, ‘‘जनाब, एक पैग और ले आएं?’’

‘‘अभी नहीं, पहले उन की तसल्ली तो करवा दूं.’’

इंस्पैक्टर ने जाते ही प्रीतम सिंह के बाल पकड़ लिए और चिल्लाया, ‘‘कहां है तेरी अटैची ओए?’’

‘‘जनाब, आप के पास ही है. उस में कोई अफीम नहीं है.’’

हवलदार ने अटैची में अफीम रख दी थी.

‘‘जनाब, मैं बेकुसूर हूं. जाने दो जनाब. हमारे घर वाले इंतजार करते होंगे,’’ राज कौर ने इंस्पैक्टर के पैर पकड़ लिए. उस ने राज कौर का सुंदर मुखड़ा ऊपर उठा कर कामुकता से निहारा, जिस्म की गोलाइयां उस का नशा और तेज कर गईं.

राज कौर समझ गई थी कि कोई बुरा समय आने वाला है.

इंस्पैक्टर ने प्रीतम सिंह को नंगधड़ंग कर के उलटा लिटा कर खूब पिटाई लगाई. वह बेहोश हो गया.

राज कौर रोरो कर मिन्नतें कर रही थी.

इंस्पैक्टर ने हवलदार को इशारा किया, तो वह एक बड़ा पैग और बना कर ले आया. उस ने एक सांस में ही गटागट पूरा अंदर उतार लिया.

होंठों पर लगे पैग को उलटे हाथ से साफ करते हुए हवलदार को इशारे से समझाया.

हवलदार प्रीतम सिंह को बेहोशी की हालत में खींच कर दूसरे कमरे में ले गया.

राज कौर इंस्पैक्टर के पैर पकड़ रही थी, पर उस पर हवस का भूत सवार था. उस को महकमे का कोई डर नहीं था. उस के हाथ बहुत लंबे थे मिनिस्ट्री तक. उस की लगामें खुली थीं और आंखों का फैलाव कानों को छू रहा था.

इंस्पैक्टर ने नशे में कहा, ‘‘तेरे जैसा मखमल सा माल तो कभीकभार ही मिलता है. तेरे ऊपर केस नहीं डालूंगा, चिंता मत कर. तू किसी से बात मत करना. अगर किसी से बात की तो तेरे पति को जान से मरवा दूंगा…’’

इंस्पैक्टर ने राज कौर के जबरदस्ती कपड़े उतार फेंके और अपनी हवस की आग बुझाने की कोशिश की, पर गुत्थमगुत्था से आगे न जा सका और शांत हो कर अपने कमरे में चला गया.

राज कौर अपनी इज्जत के टुकड़ेटुकड़े समेटते हुए प्रीतम सिंह के पास जा कर रोए जा रही थी.

प्रीतम सिंह को पता चल गया था, पर क्या किया जा सकता था.

अगले दिन प्रीतम सिंह हवालात में था. राज कौर को डराधमका कर छोड़ दिया गया.

इंस्पैक्टर ने राज कौर से कहा, ‘‘अगर कोई भी बात जबान से बाहर निकाली तो तेरे पति को जेल में ही मरवा दूंगा. उस पर केस बनवा कर मार दूंगा. गांव में, घरबाहर किसी से कोई बात मत करना, अगर इस की जिंदगी चाहती?है तो… गांव में जा कर कहना कि इस से अफीम पकड़ी गई थी और पुलिस ने केस डाल कर जेल भेज दिया है.’’

राज कौर पहले ही इंस्पैक्टर की गुंडागर्दी व दहशत को जानती थी. उस ने कई लड़कियों की इज्जत से खिलवाड़ किया था और कई जायजनाजायज कत्ल करवाए थे.

राज कौर ने गांव में जा कर प्रीतम सिंह के मातापिता और भाईबहनों को बताया कि प्रीतम सिंह से अफीम पकड़ी गई?है. वह जेल में बंद है.

प्रीतम सिंह के भाइयों ने उस की जमानत करवा ली. खैर, केस के दौरान उस को कुछ महीनों की सजा हो गई. वह सजा काट कर आ गया था.

प्रीतम सिंह और राज कौर दोनों घर के कमरे में बैठे चुपचाप उस दिन को सोच कर रो रहे थे.

राज कौर पढ़ाई में बहुत होशियार थी. खूबसूरत जवान भरे बदन वाली. गरीब घर की होने के चलते वह मुश्किल से 10वीं जमात तक ही पढ़ पाई थी. मैट्रिक उस ने फर्स्ट डिविजन में पास की थी.

प्रीतम सिंह ने भी बारहवीं फर्स्ट डिविजन से पास की थी. बहुत पढ़नेलिखने में होशियार था, पर घर की तंगहाली के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया था.

प्रीतम सिंह अपने इलाके में घोड़े वाला रेहड़ा चलाता था. यह पुश्तैनी धंधा था उस का. वह सरल स्वभाव का लड़का था.

रात को सोते समय राज कौर ने मायूसी में प्रीतम सिंह को तसल्ली देते  हुए कहा, ‘‘मैं ने कहा जी, आप दिल छोटा मत करें. जो होना था हो गया, कौन हमारी सुनेगा?

‘‘मैं चाहती तो खुदकुशी कर सकती थी. केवल अंजू के लिए जिंदा हूं. देखो, मैं बिलकुल पवित्र हूं, पवित्र रहूंगी. पर मैं पवित्र तब ही हो सकती हूं. अगर आप मेरा एक काम करेंगे तो…’’

प्रीतम सिंह ने कहा, ‘‘राज कौर, तू बेकुसूर है. मेरे लिए तो तू पवित्र ही है. तेरा बड़ा जिगरा है, अगर और कोई लड़की होती तो कब की खुदकुशी कर गई होती, पर तेरा जिगरा देख कर मुझे और ताकत मिली है. तू मुझे बता, मैं तेरी हर एक बात मानूंगा.’’

‘‘सरदारजी, मुझे केवल मक्खन (इंस्पैक्टर) का सिर चाहिए. जैसे भी हो कैसे भी. कोई ऐसी जुगत बनाई जाए कि हींग लगे न फिटकरी… मक्खन हम से ज्यादा नहीं पढ़ालिखा, वह सिपाही से इंस्पैक्टर बना है, बेकुसूर लड़कों को मारमार कर.’’

मैं आप को एक तरकीब बताती हूं. आप जेल में रहें. सारे गांव को पता था कि आप बेकुसूर हैं, पर किया क्या जा सकता था? मक्खन सिंह से सारा इलाका डरता है. उस की ओर कोई मुंह नहीं कर सकता.’’

दिन बीतते गए. प्रीतम सिंह ने सारा भेद अपने दिल में ही रखा. किसी से जिक्र नहीं किया.

राज कौर और प्रीतम सिंह ने कई दिनों के बाद एक योजना बना ली. इस योजना को अंजाम देने के लिए रास्ते ढूंढ़ने शुरू कर दिए.

मक्खन सिंह उन के गांव से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर वाले गांव का रहने वाला था. वह हर शनिवार की शाम को गांव आता था और सुबह तड़के ही अकेला सैर करने जाता था. मक्खन सिंह के घरपरिवार के बारे में सारी जानकारी 1-2 महीने में जमा कर ली थी.

प्रीतम सिंह ने अब एक ईंटभट्ठे से ईंटें लाने का काम शुरू कर लिया था. वह भट्ठे के और्डर के मुताबिक ही ईंटें गांवगांव पहुंचाता था.

मक्खन सिंह के गांव की ओर भी ईंटें छोड़ने जाना शुरू कर दिया था. उस ने मक्खन सिंह के आनेजाने की पूरी जानकारी हासिल कर ली थी. उस ने देखा कि वह हर शनिवार की रात को घर आता है और रविवार को दोपहर को जाता है. सुबह 5 बजे के आसपास अकेला ही सैर करता?है.

इस तरह कुछ महीने बीत गए. एक दिन प्रीतम सिंह ने पूरी जानकारी रखी. उस ने पता किया कि आज शनिवार की शाम को मक्खन सिंह घर आ चुका है. वह सुबह सैर पर जाएगा.

प्रीतम सिंह रात को ही रेहड़े पर ईंटें लाद कर घर ले आया. रात में उन दोनों ने रेहड़े के ऊपर लादी हुई ईंटों के बीच में से ईंटें इधरउधर कर के खाली जगह बना ली. 1-2 खाली बोरे तह लगा कर रख दिए और एक लंबी तीखी तलवार नीचे छिपा कर रख ली.

यह तलवार प्रीतम सिंह ने स्पैशल बनवाई थी. तलवार इतनी तेज धार वाली थी कि पेड़ के तने में मारे, तो एक बार में पेड़ को काट दे.

वे दोनों सुबह 4 बजे रेहड़े पर बैठ कर घर से निकल पड़े. पौने 5 बजे के आसपास मक्खन सिंह की कोठी से थोड़ी दूर जा कर अंधेरे में रेहड़ा खड़ा कर दिया और प्रीतम सिंह घोड़े की लगाम कसने लगा.

पूरे 5 बजे मक्खन सिंह अकेला ही घर से बाहर निकला. चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. हाथ में स्टिक व सफेद कुरतापाजामा पहने मक्खन सिंह अपनी मस्त चाल में आराम से चलता जा  रहा था.

प्रीतम सिंह और राज कौर ने हिम्मत समेट कर रेहड़ा चला लिया. मक्खन सिंह अपनी मस्त चाल में चलता जा रहा था. गांव के बाहर थोड़ी दूर जा कर प्रीतम सिंह ने तलवार अपने दाएं हाथ की मुट्ठी में मजबूती से पकड़ ली.

राज कौर हिम्मत के साथ रेहड़े में बैठी रही. आहिस्ता से रेहड़ा नजदीक करते हुए प्रीतम सिंह ने ललकारा, ‘‘ओए, पापी तेरी ऐसी की तैसी…’’

जब मक्खन सिंह ने उस की ओर देखा, तो प्रीतम सिंह ने पूरी जान लगा कर इतनी तेजी से तलवार उस की गरदन पर दे मारी कि उस का सिर कट कर दूर जा पड़ा. उस की चीख भी निकलने नहीं दी.

प्रीतम सिंह ने जल्दीजल्दी उस का सिर बोरी में लपेट कर उठा लिया और ईंटों के बीच खाली जगह पर रख लिया.

रेहड़ा आसमान से बातें करने लगा. किसी को कोई खबर तक नहीं लगी.  5-6 किलोमीटर दूर जा कर नहर के किनारे राज कौर ने मक्खन सिंह का सिर निकाला और तलवार से उस के सिर के छोटेछोटे टुकड़े कर के नहर में फेंक दिए. इस के बाद वे दोनों घर आ गए.

राज कौर घर के अंदर चली गई और प्रीतम सिंह ईंटों का रेहड़ा ले कर किसी के घर पहुंचाने चला गया.

इलाके में खबर फैल गई कि मक्खन सिंह का कोई सिर काट कर ले गया है. उस के सिर काटने की खबर सुन कर इलाके में दहशत हो गई.

खुद पुलिस ने कोई बड़ी कार्यवाही नहीं की. केवल कानूनी दिखावे के लिए ही सारी कार्यवाही की गई.

पुलिस ने बहुत भागदौड़ की, पर कोई खोजखबर हाथ नहीं लगी. लोगों ने चैन की सांस ली.

कई लोग कहते सुने गए कि किसी मां के बहादुर बेटे ने यह काम किया है. इलाके का कलंक खत्म कर दिया. एक महाराक्षस का खात्मा कर दिया है.

शाम को प्रीतम सिंह रोजमर्रा की तरह रेहड़ा ले कर घर आता है. राज कौर नईनवेली दुलहन सी सजीसंवरी सी काम कर रही थी. उस के दिल में कोई डर नहीं था. अब बेशक उस को मौत भी आ जाए, कोई परवाह नहीं. बेशक फांसी ही क्यों न हो जाए, अब उस के चेहरे पर अलग किस्म का नूर था.

प्रीतम सिंह नहाधो कर अच्छे कपड़े पहन कर कमरे में दाखिल हुआ, तो राज कौर ने शरमा कर प्रीतम सिंह के गले में अपनी बांहें डालते हुए कहा, ‘‘सरदारजी, मैं पवित्र हूं.’’

प्रीतम सिंह ने राज कौर को जोर से छाती से लगा लिया.

मेड मैनेजमैंट: प्रबंधन की एक नई विधा

हमारीभारतीय नारी को, गृहिणी को सब से ज्यादा यदि कोई चीज परेशान करती है, तो वह है… लो अभी हम ने बात पूरी भी नहीं की और आप ने कयास लगाने शुरू कर दिए. यह आदत हम हिंदुस्तानियों की जाती नहीं है. पूरी बात सुनी नहीं कि कयास लगाने शुरू कर दिए कि वह सब से ज्यादा परेशान रहती है. म्यूनिसिपैलिटी वालों से. उन के नल की टोंटी कितनी भी मोटी हो उस से जल समय पर नहीं आता है या फिर असमय आता है. रात को 1 बजे नलजी कलकल कर जल गिराते हैं, तो उत्पन्न होने वाले जलतरंगी संगीत से नींद खुल जाती है. यह नल से जल आने के पूर्व के खर्राटे हैं, जो हमारे खर्राटों पर भारी पड़ जाते हैं.

नहीं यह बात नहीं है. अब आप सोच रहे होंगे कि कचरे वाला कचरा नियमित रूप से नहीं उठाता होगा. नहीं, यह बात भी नहीं है. तो आप सोचने लगे होंगे कि पड़ोसिन पलपल किचकिच करने वाली आ गई होगी? नहीं यह परेशानी भी नहीं है. तो उस की ननद, देवर, सास आदि संताप देते होंगे. नहीं, ये तो दकियानूसी बातें हैं. देखा नहीं आप ने कुछ सीरियलों में कि सासू को बहू मां मानती है.

तो अब आप सोचने लगे होंगे कि दूध वाला पानी मिला कर दूध दे कर परेशान कर रहा होगा. वैसे पानी मिलाना तो दूध वालों का ऋगवेदकाल से चला आ रहा धर्म है. मगर नहीं, यह भी कोई बड़ी परेशानी नहीं है. आजकल पैक्ड दूध आसानी से उपलब्ध है. तो फिर प्रैस वाला परेशान कर रहा होगा. हफ्ते भर से ले गया कपड़ा वापस नहीं ला रहा होगा और इकट््ठे हो गए कपड़े ले जा नहीं रहा होगा या फिर माली परेशान कर रहा होगा. नहीं यह भी नहीं है. तो फिर क्या है? स्त्री को ये सारे के सारे पुरुष प्रजाति के लोग परेशान नहीं कर रहे हैं? तो फिर कौन कर रहा है? क्या स्त्री ही कर रही है? सही पकड़ा. स्त्री को एक स्त्री ही परेशान कर रही है. एक बात और समझ लीजिए कि केवल गृहिणी ही नहीं, कामकाजी स्त्री भी इस समस्या से परेशान है. आखिर दफ्तर से लौटने पर कौन से पति महोदय सारे काम करने के बाद पलकपावड़े बिछाए खड़े रहते हैं. वे तो और कोई न कोई काम ही फैलाए बैठे मिलते हैं. यह आज की स्त्री की ज्वलंत समस्या है. केवल जो स्त्री स्वयं मेड है मतलब ‘सैल्फ मेड’ है अपने इन कामों के लिए वह इस से मुक्त है.

यह मेड सर्वैंट है, जोकि हमारी गृहिणी को टैंशन देती है, आए दिन देती है, रोज देती है. बिना लेट देने में इस का लंबा रिकौर्ड है. यह क्या इस के डीएनए में है? कभी लेट आएगी, तो कभी बिना बताए गायब हो जाएगी. बहाने भी एक से एक नायाब. कभी तबीयत का, तो कभी मेहमान अचानक आ टपकने का, कभी बरसात में छत के टपकने का, तो कभी पानी न आने का, कभी भी कोई भी बेसिरपैर का बहाना. मेड के टैंशन देने के और भी कई तरीके हैं. जैसे काम ठीक से न कर बला टाल देना. यदि झाड़ूपोंछे वाली है, तो किसी दिन पोंछा लगाने का काम चुपचाप गोल कर देना.

एक मेड का नाम ‘कचरा बाई’ था, तो कचरा हर कमरे में थोड़ा सा अपने नाम को सार्थक करते हुए छोड़ ही देती थी. यदि बरतन वाली है, तो बरतन में साबुन लगा छोड़ देना या मौका देख कर पानी से ही साफ कर हाथ की सफाई दिखा देती है. यदि रोटी वाली मेड है

और आने का समय 10 बजे है तो 12 बजे आएगी. मैडम से नाराज है तो खुन्नस निकालने के लिए मिर्चमसाला सब्जी में ज्यादा डाल देगी

या फिर किसी दिन जानबूझ कर नमक डालना भूल जाएगी.

किसी दिन पता चला कि गृहिणी को खुद ही खाना बनाना पड़ा. मेम साहब खूब लेट आ कर केवल किचन साफ करने का काम कर चलती बनी और 2 रोटी व सब्जी भी भूख लगी है कह कर पालथी मार कर ठसके से मार ली. मतलब जिस मेड को खाना बनाने रखा था वह मैडम के हाथ का बना खा गई और उन्हें खून का घूंट पिला गई.

यदि शौकीन परिवार है, तो भी फीका सा खाना बना देना. महीने में 2-3 बार गैस खुली छोड़ देना, सब्जीदाल जला देना. चावलदाल में कंकड़ भी उबाल देना. वैसे ये उबलते नहीं हैं और न ही निगलते बनते हैं. हां, जिस की थाली में आ जाएं, वह जरूर गुस्से में उबलना शुरू हो जाता है.

एक आम लक्षण सभी मेड में होता है और वह यह कि काम करतेकरते 10 बार मोबाइल पर अपने आदमी से या फिर अपनी लड़की अथवा लड़के से बात करना. आग लगे इन सस्ती प्लान्स को. मेड जब चाहे कोई भी लिखापढ़ी का काम ले आएगी और मैडममैडम कर के उन से पूरा करवा लेगी. लेकिन दूसरे दिन से फिर वही हरकतें शुरू. घर में 3-4 मेड हैं, तो आपस में मंडली बना कर मैडम की पीठ पीछे बुराई करना, कानाफूसी कर के मैडम को तनावग्रस्त करना आम बात है. अरे, ये समझती क्यों नहीं कि एक महिला दूसरी महिला की कानाफूसी से परेशान हो जाती है. गृहस्वामिनी को लगता है कि हो न हो उस की घोर तरीके से निंदा हो रही है. भले ही कोई किसी की तारीफ करना चाह रहा हो, ये यह क्यों नहीं समझतीं?

गंगू तो कहता है कि मेड को आज की असली मेम साहब कहना चाहिए.

मेड हुई ही इसलिए है कि मैडम को तंग करे, तनाव दे, 2 पल भी सुकून की जिंदगी न जीने दे. यदि आप मेरी बात से सहमत नहीं हैं, तो अपने सीने पर हाथ रख कर बताएं कि आप का ऐसा सौभाग्य रहा कभी कि मेड ऐसी मिली हो जिस ने आप को अपनी हरकतों से कभी तंगाया न हो, नचाया न हो, उलझाया न हो? इतना तो आप अपने पति को भी नहीं नचा पाती हैं.

यहीं से मैनेजमैंट की एक बिलकुल नई ब्रांच ‘मेड मैनेजमैंट’ का स्कोप शुरू होता है.

गंगू की सलाह है कि सभी गृहिणियां, इन में कामकाजी भी शामिल हैं, इसे जौइन करें. यह एक संपूर्ण पाठ्यक्रम है. इस में यह बताया जाएगा कि मेड सिस्टम का विश्व व भारत में उदय व इतिहास, कितनी तरह की होती हैं, मेडों का स्वभाव, लाइक व डिसलाइक्स, उन से कैसे पेश आएं, क्या बात करें क्या नहीं. ‘मेड मैनेजमैंट’  में एक ‘मेड नीति’ बनाई गई है. उसे पढ़ने से ‘चाणक्य नीति’ की तरफ आप मेड से पार पा सकेंगी, नहीं तो वह आप को इसी तरह आरपार करती रहेगी. मेड मैनेजमैंट के निम्न सिद्धांतों पर गंभीरता से गौर करें:

– यदि आप के यहां एक से अधिक मेड हैं तो कभी भी उन्हें एक ही समय पर न बुलाएं. ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’. सीधी से सीधी मेड भी दूसरे के सान्निध्य में बिगड़ जाती है. जो पहले दिन अपनी आंखें नीचे जमीन में गड़ाए आप से बात करती थी उसी तरह जैसेकि नईनवेली बहू शुरू में सास से करती है, वह भड़कावे में आ कर अब आंखें मिला कर जोरजोर से ऐसे बात करे जैसेकि आप की सास या बौस हो.

– यदि झाड़ूपोंछा वाली को सुबह 9 बजे बुलाया है, तो बरतन वाली को उस के रुखसत होने के बाद 10 या 11 बजे बुलाएं.

– गंगू यह भलीभांति जानता है और मानता है कि यह भारतीय स्त्री के डीएनए में ही होता है कि वह मेड से जमाने भर की बातें किए बिना रह ही नहीं सकती है. वह यह न करे तो उसे बदहजमी हो जाएगी. जिन्हें बदहजमी हो वे कृपया नोट कर लें कि कहीं उन्होंने मेड से दूरी तो नहीं बना ली है. मेड पैरालाइसिस की पौलिसी ठीक नहीं. और यहीं पर जबान फिसल जाती है. वह कई बातें घरपरिवार की भी कर बैठती है और फिर मेड उन्हें यहां से वहां तक खूब नमकमिर्च लगा कर फैला देती है.

– कभी किसी दूसरे घर या मैडम की बात अगर मेड कर रही हो, तो कितनी भी आप के कानों में खुजली हो रही हो, कान न दें. कारण, आप के यहां की बातें भी वह दूसरे के यहां इसी तरह बताएगी.

– यदि आप को समाजसेवा का शौक है, तो आप सब से पहले जोरआजमाइश मेड के बच्चों पर करें. जैसेकि उस के बच्चों को मुफ्त ट्यूशन दें. वह गद्गद हो जाएगी. और आप के सिर पर तबला नहीं बजाएगी.

– सब से बेहतर है ‘एकल मेड’ या ‘ए टु जैड मेड’ जोकि घर के सभी काम करती हो. यह न किसी से बात कर पाएगी और न ही दूसरा इस से बात कर पाएगा.

– कभी जवान व सुंदर मेड को काम पर न लगाएं. विशेषरूप से तब जब आप के पति दिलफेंक स्वभाव के हों. खूसट मेड को खोजबीन कर लाएं. गंगू को माफ करें कि आप खुद ऐसी हैं, तो फिर तो और सतर्क रहने की जरूरत है कि कहीं सुंदरी मेड के रूप में घर न आ जाए.

– मेड की हस्ती कोई सस्ती नहीं होती. उसे चायनाश्ता जरूर करवा दें वरना वह बुरा मानती है. 10 घरों में आप की बुराई करती है.

– यहां आप अंगरेजों की ‘फूट डालो राज करो’ नीति अपनाएं. यदि एक से अधिक मेड हैं, तो एक की कमियां निकाल कर दूसरी के सामने बताएं. वह फील गुड करेगी. कभी उन्हें एकदूसरे से इस तरह भिड़ा भी दें. इस तरह आप का काम निकलता रहेगा.

– बाजारवाद के इस युग में सारी बातें मुफ्त में नहीं बताई जातीं. ‘मेड मैनेजमैंट’ के बाकी सिद्धांत विस्तार से समझने हैं, तो पत्राचार से इस का कोर्स जौइन कर सकते हैं. यदि यह आप के काम का नहीं निकले तो आप के पैसे वापस की भी गारंटी.

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वह पगली सी लड़की: सेजल ने खत में क्या लिखा था

औफिस में आते ही मैं ने रोज की तरह अपना लैपटौप औन किया और एमएस वर्ड में जा कर एक बढि़या सब ब्लौग लिखा, जिसे मैं रास्तेभर सोचता आ रहा था. जल्द ही उसे कौपी कर के अपने ब्लौग ‘अनजाने खत’ में पेस्ट कर के उसे पोस्ट कर दिया. अपने ब्लौग से लिंकअप करते हुए मैं ने उस का भी ब्लौग देखा ‘खुशियों भरी जिंदगी.’ मगर आज भी उस ने कुछ नहीं लिखा था.

3 दिन हो गए थे, उस ने कुछ भी नहीं लिखा, जबकि वह तो रोज लिखने वालों में से है. कभीकभी तो एक दिन में 2-3 कविताएं भी लिख डालती थी. कहीं उस की तबीयत तो नहीं खराब हो गई? मैं फेसबुक पर गया. वहां भी उस की ऐक्टिविटी 3 दिन पहले की दिख रही थी. व्हाट्सऐप पर भी लास्ट सीन देखा तो वही हाल था. आखिर वह पिछले 3 दिनों से है कहां? कहीं बीमार तो नहीं? नहींनहीं वह बीमार भी होती तब भी कुछ न कुछ जरूर लिखती थी. ज्यादा बड़ा नहीं तो 2-3 पंक्तियों की कोई क्षणिका या हाईकू… कहीं उस का लैपटौप व मोबाइल तो नहीं खराब हो गया? अरे नहीं, दोनों एकसाथ कैसे खराब हो सकते हैं? चलो फोन कर के ही देखता हूं. लेकिन उस ने मु झे मैसेज या फोन करने के लिए मना कर रखा है. हमेशा वही फोन करती है. मैं खुद से ही सवालजवाब करने में उल झा था.

मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं उसे फोन करूं. कहीं उस के पति ने देख लिया तो बेचारी मुसीबत में पड़ जाएगी. यही सोच कर मैं ने उसे कौल या मैसेज नहीं किया.

‘1-2 दिन और इंतजार कर लेता हूं, उस के बाद कुछ सोचूंगा,’ मैं ने अपने दिल को सम झाया और फिर अपने काम में लग गया.

मगर आज मेरा मन औफिस के कामों में बिलकुल नहीं लग रहा था. बारबार मेरा ध्यान मोबाइल पर ही जा रहा था. शायद उस की कोई कौल या मैसेज आ गया हो. लंच टाइम हो गया, फिर भी कोई मैसेज नहीं आया. उसे मेरे लंच टाइम का पता था. वह अकसर मु झे इस वक्त फोन करती थी.

मैं कभीकभी उस पर  झल्लाया भी करता था, ‘‘प्लीज लंच टाइम में फोन मत किया करो. मु झे खाते हुए बोलना पसंद नहीं.’’

‘‘तुम से बोलने को किस ने कहा. बस सुनते रहो न मैं जो कह रही हूं. तुम्हारे लंच टाइम के समय मैं भी खाना खाती हूं और तुम से बात किए बिना मु झे खाने में कोई स्वाद नहीं लगता,’’ और इस के साथ ही जोरदार हंसी.

अचानक मु झे भी हंसी आ गई. अचकचा कर मैं ने अपनी अगलबगल देखा, कहीं कोई मु झे अकेले यों हंसते हुए तो नहीं देख रहा. फिर मैं ने जल्दी से अपना लंच खत्म किया और कैंटीन की बालकनी में आ गया. कैंटीन के पीछे वाली बालकनी से एक पार्क दिखाई देता था.

जाड़े का मौसम था. बच्चे धूप में खेल रहे थे. उन की आवाजें तो नहीं सुनाई दे रही थीं, मगर चेहरे देख कर खिलखिलाहट का अंदाजा लगाया जा सकता था. वह भी तो ऐसे ही खिलखिलाती रहती थी. फोन पर या मिलने पर या फिर मैसेज में भी वह बिना स्माइली के बात नहीं करती थी. बेहद जिंदादिल थी वह.

एक कवि सम्मेलन के दौरान हम दोनों मिले थे. हम दोनों ही लेखक थे. कविता एवं ब्लौग लिखना हम दोनों का शौक था.

पहली बार जब उस ने मेरी कविता सुनी थी तो प्रोग्राम के दौरान ही बिंदास हो कर कहा था, ‘‘आप इतनी रोमांटिक कविताएं कैसे लिख लेते हो? मु झे तो आप के शब्दों से प्यार हो गया है.’’

मैं कुछ कहता उस से पहले ही उस ने अपना मोबाइल निकाल कर कहा, ‘‘मु झे अपना मोबाइल नंबर दीजिए.’’

फिर जैसे ही मैं ने अपना मोबाइल नंबर बताया उस ने मु झे कौल कर दिया, ‘‘यह मेरा मोबाइल नंबर है, सेव कर लीजिएगा. जब भी आप की कविता सुनने का दिल किया करेगा मैं आप को परेशान कर दिया करूंगी,’’ कह वह निकल गई.

‘‘पगली कहीं की,’’ अनायास ही मेरे मुंह से अभी निकल गया.

उस दिन भी तो उस के जाने के बाद यही शब्द कहे थे मैं ने. उस के नाम से ज्यादा मैं ने उसे पगली कह कर ही बुलाया है. 1 हफ्ते के अंदर ही हम दोनों व्हाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम सब जगह एकदूसरे को लाइक, कमैंट और शेयर करने लगे थे और साथ ही लंबीलंबी चैटिंग भी. वह अकसर कहा करती कि मैं तुम्हारे शब्दों में जीती हूं. तुम्हारे ब्लौग ‘अनजाने खत’ सीधे मेरे दिल तक पहुंचते हैं.

एक दिन मैं ने उसे मैसेज किया, ‘‘सोच रहा हूं मैं ब्लौग्स लिखना छोड़ दूं.’’

‘‘फिर तो मैं भी तुम्हें छोड़ दूंगी,’’ तुरंत उस का मैसेज आया.

‘‘कोई बात नहीं, छोड़ देना. तुम्हारा भी समय बचेगा और मेरा भी. वैसे भी मेरी पत्नी को बिलकुल पसंद नहीं है मेरा कविता या ब्लौग लिखना और तुम्हारे पति को भी तो नहीं पसंद है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी का तो पता नहीं, मगर मेरे पति को तो मैं भी पसंद नहीं… तो क्या मैं जीना छोड़ दूं? अब मैं तुम्हारी कविताओं के साथसाथ तुम से भी प्यार करने लगी हूं.’’

साथ ही एक चुंबन वाली इमोजी के साथ आया उस का यह मैसेज पढ़ कर मेरे मुंह से फिर निकला, ‘‘पगली कहीं की,’’ और न जाने कैसे रिप्लाई भी हो गया था.

‘‘तो इस पगली से मिलने पागलखाने आ जाओ न.’’

‘‘पागलखाने?’’

‘‘हां, इस रविवार को एक कवि सम्मेलन का न्योता मिला है मु झे. तुम भी आ जाओ. फिर दोनों मिल कर पागलपंती करते हैं.’’

‘‘मैं नहीं आने वाला.’’

मेरे इनकार करने के बावजूद उस ने मु झे उस कवि सम्मेलन का पता भेज दिया.

रविवार का दिन था. मैं भी उस से मिलने का लोभ संवरण न कर पाया और उस के बताए पते पर पहुंच ही गया.

‘‘क्यों छली जाती हो तुम,

कभी सीता बन कर राम से,

तो कभी राधा बन कर श्याम से?’’

जब उस ने स्त्रियों के लिए और ओज, उत्साह एवं उम्मीद से भरी हुई अपनी इस नवरचित कविता का पाठ किया तो सारा हौल तालियों से गुंजायमान हो गया. प्रोग्राम के बाद हम दोनों ही कौफी शौप में जा बैठे.

‘‘तुम्हें डर नहीं लगता इस तरह मेरे साथ खुलेआम मिलने में जबकि तुम्हारे पति बेहद सख्त किस्म के इंसान हैं?’’ मैं ने उस से संजीदा होते हुए पूछा.

‘‘डर तो बहुत लगता है, मगर क्या करूं? तुम से प्यार जो करती हूं, तुम से मिले बिना रहा नहीं जाता,’’ उस ने हमेशा की तरह खिलखिलाते हुए कहा.

‘‘फिर वही पागलों वाली बातें… मैं शादीशुदा हूं, तुम्हें पता है न और मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता हूं,’’ मैं ने पहले से भी ज्यादा गंभीरतापूर्वक कहा.

‘‘मुझे पता है सबकुछ… मैं भी शादीशुदा हूं और मु झे तुम से कोई शादीवादी नहीं करनी है… और मैं ने तुम्हें कब मना किया कि तुम अपनी पत्नी से प्यार मत करो? मैं तो बस अपने दिल की बात कर रही हूं. मैं तुम से प्यार करती हूं, तो करती हूं बस… और मेरी ऐसी कोई शर्त नहीं कि बदले में तुम भी मु झे प्यार करो,’’ कहने के साथ ही वह फिर हंसी.

मगर इस बार उस की हंसी मु झे खोखली लगी. जब मैं ने उस की आंखों में  झांका तो उस ने गरम कौफी का मग मेरे हाथ से छुआ दिया और फिर खिलखिला उठी.

‘‘तुम सचमुच पागल हो… तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता. किसी दिन तुम्हारे पति या तुम्हारे घर वालों को पता चल गया ये सब तो तुम्हें तो घर से निकालेंगे ही मु झे भी कहीं का नहीं छोड़ेंगे.’’

‘‘अरे वाह, कितना मजा आएगा… मेरे पति मु झे निकाल देंगे और तुम्हारी पत्नी तुम्हें भगा देगी घर से, फिर… हम दोनों प्रेम की गली में एक छोटा सा घर बसाएंगे, कलियां न सही कांटों से ही सजाएंगे…’’ उस ने ये बातें इस अंदाज में कहीं कि मैं जोर से हंस पड़ा.

‘‘चल हट पगली,’’ मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘अब जल्दी चलो वरना तुम्हारे साथ रहा तो यही होने वाला है,’’ मैं ने जल्दी से कौफी का बिल चुकाया और उसे 2 मिनट बाद निकलने को बोल कर मैं बाहर निकल गया.

रास्तेभर उस की बातें मेरे मन को गुदगुदा रही थीं. मु झे बेहद आश्चर्य होता था कि वह 40 की उम्र में भी इतनी बिंदास हो सकती है जबकि मैं 35 की उम्र में भी 55 की उम्र वालों की तरह संजीदा रहने लगा हूं.

‘वह करोड़पति की पत्नी है और मैं मामूली सा बिजनैसमैन. मु झे रोज अपनी रोजीरोटी की चिंता रहती है और वह दुनियादारी से बिलकुल बेफिक्र,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

तभी एक ठंडी हवा का  झोंका गुजरा और मु झे एहसास हुआ कि मैं यहां बहुत देर से खड़ा हूं. मैं ने उस की यादों को  झटका और औफिस के कामों में व्यस्त हो गया.

इसी तरह 1 हफ्ता बीत गया, मगर उस का कहीं कोई अतापता नहीं था.

‘काश, मु झे उस के घर का पता मालूम होता तो वहां जा कर उस का हालचाल जान लेता… कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के पति को मेरे बारे में पता चल गया हो?’ मैं मन ही मन बुदबुदाया.

आज मु झे इस आभासी दुनिया के रिश्ते पर कोफ्त हो रही थी. उस के सोशल मीडिया का पता तो मालूम था, मगर मैं ने कभी उस के घर का पता पूछने की जहमत नहीं उठाई.

तभी मु झे याद आया कि मेरी फेसबुक फ्रैंड लिस्ट में उस की छोटी बहन सेजल भी है. वह अकसर कहा करती थी कि सेजल मेरी सहेली जैसी है.

‘क्यों न मैं सेजल से पूछ लूं’ सोच मैं ने तुरंत सेजल का प्रोफाइल खोला और मैसेंजर पर एक औपचारिक मैसेज डाल दिया.

मेरी आशा के विपरीत उस ने 2 मिनट के बाद ही मु झे मैसेंजर कौल किया. मेरे कुछ पूछने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘मु झे आप से दीदी के बारे में कुछ बातें करनी हैं. क्या हम कहीं शांत जगह मिल सकते हैं?’’

मैं ने उसे अपने औफिस के बाहर एक छोटे से रैस्टोरैंट में बुला लिया. 1 घंटे के बाद ही मैं ने अपनी सैक्रेटरी को काम सम झाया और बाहर निकल गया.

मेरे रैस्टोरैंट में पहुंचने के 5 मिनट बाद ही सेजल आ गई. वह अपनी दीदी के बिलकुल विपरीत प्रवृत्ति की लग रही थी. आंखों पर मोटा चश्मा और चेहरे पर गहरी उदासी…

‘‘सब से पहले तो मैं आप को धन्यवाद देना चाहूंगी. आप पहले पुरुष हो जिस ने मेरी दीदी की जिंदगी में ढेर सारा प्यार और खुशियां बिखेरीं,’’ सेजल ने साधारण शब्दों में ही कहा था, मगर मु झे न जाने क्यों एक व्यंग्य सा महसूस हुआ.

खुशियां तो उस ने मेरी जिंदगी में बिखेर रखी थीं. उस का चेहरा देखते ही मैं अपनी सारी परेशानियां भूल जाता था. उत्साह से लबरेज उस की बातें और ब्लौग्स पढ़ कर मैं ने जिंदगी को सकारात्मक नजरिए से देखना शुरू किया था. मगर मैं ने उस से कभी नहीं कहा और अफसोस कि आज भी सेजल के सामने सोच जरूर रहा था, मगर बोल नहीं सका.

‘‘तुम्हारी दीदी खुद भी बहुत अच्छी हैं,’’ मैं ने मुसकराते हुए बस इतना ही कहा.

‘‘और क्या जानते हैं आप मेरी दीदी के बारे में?’’ सेजल ने मेरे चेहरे को एकटक देखते हुए पूछा, तो मैं सकपका गया.

‘‘ज… ज… ज्यादा कुछ नहीं, उस ने ही बताया था कि वह एक बहुत बड़े बिजनैसमैन की पत्नी है और खाली समय में कविताएं लिखती हैं, बस,’’ मैं ने हकलाते हुए कहा.

‘‘ऊं… ह… खाली समय… समय ही कहां था दीदी के पास.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं सेजल की बातों का मतलब नहीं सम झ पाया.

‘‘अच्छा, ये सब छोड़ो. सब से पहले तुम मु झे यह बताओ कि तुम्हारी दीदी आजकल है कहां? हफ्ता बीत गया उस ने मु झ से कोई संपर्क नहीं किया… भूल गई क्या मु झे?’’ अचानक मु झे याद आया कि मैं ने जल्दी पूछ लिया.

‘‘आप को पता है, मेरी दीदी की शादी को 10 साल हो गए थे,’’ सेजल ने मेरे सवाल को नजरअंदाज करते हुए कहा.

‘‘हां, उस ने मु झे बताया तो था.’’

‘‘मगर 1 साल पहले ही दीदी ने अपने पति से तलाक ले लिया था.’’

‘‘क्या? यह तो उस ने मु झे कभी नहीं बताया,’’ मैं चौंक उठा.

‘‘कैसे बताती… पिछले 8 महीनों से आप उसे खूबसूरत जिंदगी दे रहे थे. ऐसे में वह अपनी तकलीफें बता कर आप की हमदर्दी नहीं बटोरना चाहती थी.

‘‘शादी के कई वर्षों बाद भी जब दीदी मां नहीं बन पा रही थी, तब जीजाजी ने उस का कई जगह इलाज करवाया तो पता चला कि कुछ शारीरिक कमियों के कारण दीदी कभी मां नहीं बन सकती. फिर तो जीजाजी और उन के घर वालों ने दीदी को बां झ कहकह कर ताने देना आरंभ कर दिया. उन लोगों की दिलचस्पी अब केवल दीदी की सैलरी में रहने लगी थी. मेरे जीजाजी एक मामूली से शिक्षक थे, जबकि दीदी कालेज की प्रवक्ता. दीदी के पैसों से ही सारी गृहस्थी चलती थी. फिर भी उन लोगों ने कभी मेरी दीदी का सम्मान नहीं किया,’’ सेजल की आंखों में आंसू आ गए थे.

मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर सिर्फ उस की बातें सुन रहा था. मु झे सम झ नहीं आ रहा था कि मैं उस से क्या कहूं. उस ने मु झ से ये सब क्यों छिपाया?

‘‘दीदी की ससुराल वाले जीजाजी की शादी मु झ से करवाने के लिए दीदी पर दबाव डालने लगे ताकि दीदी का पैसा भी उन्हें मिलता रहे और उन की वंशबेल भी आगे बढ़े. जब दीदी ने इस का विरोध किया तो उन लोगों ने प्रताड़ना की सीमा पार करनी शुरू कर दी. इस के बाद दीदी ने जीजाजी तथा उन के परिवार वालों पर घरेलू हिंसा का केस दायर कर दिया और तलाक के लिए अपील की.

‘‘जीजाजी ने बहुत कोशिश की दीदी के साथ सम झौता करने की. धमकी देने के साथसाथ मेरी दीदी के चरित्र पर भी उंगलियां उठाईं उन्होंने, मगर मेरी दीदी विचलित नहीं हुई. वह तलाक ले कर ही मानी. तलाक के बाद दीदी अभी संभली भी नहीं थी कि उसे पता चला कि वह सर्वाइकल कैंसर की लास्ट स्टेज में पहुंच चुकी है. डाक्टर ने सिर्फ

8-10 महीने की जिंदगी बताई,’’ सेजल आगे न बोल सकी और फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘उफ, उसे कैंसर है? उस ने मु झे बताया भी नहीं… उसे देखने से भी मु झे कभी महसूस नहीं हुआ कि वह…’’ मेरी आवाज भर्रा गई.

‘‘दीदी को कभी किसी की हमदर्दी अच्छी नहीं लगती थी. तभी तो वह कीमोथेरैपी के दुष्प्रभाव से नष्ट हुई अपनी खूबसूरती को भी विग तथा मेकअप से छिपा कर रखती थी और अपने दर्द को हंसी के मुखोटे में दबा लेती थी. अपनी ‘खुशियों भरी जिंदगी’ के माध्यम से लोगों को खुशियां बांटा करती थी और अपनी कविताओं में सभी औरतों की हौसलाअफजाई करती थी. दीदी ने कभी किसी से कुछ लिया नहीं… उस ने हमेशा देना ही जाना था,’’ सेजल ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा.

‘‘जानती थी का क्या मतलब? वह अभी कहां है? मु झे मिलना है उस से,’’ मैं ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा.

‘‘अब वह इस दुनिया में नहीं रही,’’ सेजल ने सपाट शब्दों में कहा.

‘‘क्या? तुम यह क्या कह रही हो सेजल? मु झे सम झ नहीं आ रहा कि मैं क्या कहूं.’’

‘‘यह लिफाफा और लैपटौप उस ने मु झे आप को देने को कहा था,’’ कह सेजल ने एक लैपटौप बैग और एक लिफाफा मु झे पकड़ा दिया.

‘‘दीदी ने मु झ से कहा था कि वह तुम से जरूर संपर्क करेगा और जब तक वह तुम से संपर्क न करे तुम उसे मेरे बारे में मत बताना,’’ सेजल के कुछ और बोलने से पहले मैं लिफाफा खोल चुका था.

लिफाफे में उस का मोबाइल था और साथ में एक पत्र, जिसे उस ने

लाल स्याही से लिखा था.

‘सौरी डियर,

‘अब तक तो तुम्हें मेरी जिंदगी और मौत से जुड़ी सारी बातें पता चल ही चुकी होंगी. तुम से छिपाया इस के लिए माफ कर देना. मैं तो तुम्हारा सच्चा प्यार चाहती थी, तुम्हारी हमदर्दी नहीं. मु झे अच्छी तरह पता था कि तुम मु झ से प्यार नहीं करते थे, मगर मैं तो तुम्हारे हर ‘अनजाने खत’ पर स्वयं ही अपना नाम लिख लिया करती थी. तुम्हारे शब्दों में खुद को महसूस किया करती थी. तुम्हारे साथ बिताए 8 महीने मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत समय है. तुम्हारे ब्लौग्स में तुम्हारी सारी प्यारभरी बातों को मैं तुम्हारे प्यार की बारिश सम झ कर सराबोर हो जाती थी. अब तुम रोना मत, क्योंकि मैं हंसते हुए यह पत्र लिख रही हूं.

‘वैसे अच्छा ही हुआ जो तुम ने मु झ से प्यार नहीं किया वरना मु झे जिंदगी से प्यार हो जाता और मैं इतनी जल्दी आसानी से मर नहीं पाती. एक बात पूछूं…

‘जिंदगी दर्द की इतनी घनी छांव क्यों है

अपनों के इस शहर में परायों से इतना लगाव क्यों है?’

‘हो सके तो मेरी एक आखिरी इच्छा पूरी कर देना. जब भी कभी अपनी कविताओं की पुस्तक छपवाना तो उस के साथ मेरी भी कविताएं छपवा देना. मु झे लगेगा कि मैं मर के भी तुम्हारे साथ हूं.

‘अपना लैपटौप और मोबाइल तुम्हें दे रही हूं. मेरी सारी रचनाएं इसी में हैं. पासवर्ड में अपना और मेरा नाम एकसाथ लिख देना.

‘मरने से पहले तुम से नहीं मिल सकी और इतना सारा  झूठ बोलने के लिए मु झे माफ कर देना.

‘तुम्हारी पगली…’

और इस के साथ ही उस ने एक बड़ी सी स्माइली बना दी थी.

मैं ने जब नजरें उठाईं तो सेजल जा चुकी थी. दिल ने चाहा कि मैं जोर से दहाड़ें मार कर रोऊं और यहां मौजूद सारी चीजों को पटक कर तोड़ दूं. मगर मैं कुछ भी नहीं कर पाया, क्योंकि मैं उस से प्यार जो नहीं करता था. वह मेरी प्रेमिका नहीं थी, लेकिन मेरे अंदर कुछ दरक रहा था बिना आवाज.

मैं ने उस की लिखावट और उस के पत्र को होंठों से लगा लिया. ऐसा लगा जैसे वह फिर से खिलखिला उठी हो. मगर मैं ने  झल्लाते हुए कहा, ‘‘तुम बिलकुल पागल हो और आज मु झे तुम्हारी इस पागलपंती पर बहुत गुस्सा आ रहा है,’’ और मैं जोरजोर से रोने लगा बिना यह देखे कि आसपास के लोग मु झे देख रहे हैं.

श्रीमतीजी और प्याज लहसुन

संडे की छुट्टी को हम पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में थे कि सुबहसुबह श्रीमतीजी ने हमें डपटते हुए कहा, ‘‘अजी सुनते हो, लहसुन बादाम से महंगा हो गया और प्याज सौ रुपए किलोग्राम तक जा पहुंचा है.’’

इतनी सुबह हम श्रीमतीजी के ऐसे आर्थिक, व्यावसायिक और सूचनापरक प्रवचनों का भावार्थ समझ नहीं पा रहे थे. तभी अखबार एक तरफ पटकते हुए वे पुन: बोलीं, ‘‘लगता है अब हमें ही कुछ करना पड़ेगा. सरकार की कुंभकर्णी नींद तो टूटने से रही.’’

हम ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘भागवान, चुनाव भी नजदीक नहीं हैं. इसलिए

फिलहाल प्याजलहसुन से सरकार गिरनेगिराने के चांस नहीं दिख रहे हैं. सो व्यर्थ का विलाप बंद करो.’’

श्रीमतीजी तुनक कर बोलीं, ‘‘तुम्हें क्या पता है, आजकल हो क्या रहा है. आम आदमी की थाली से कभी दाल गायब हो रही है तो कभी सब्जियां. सरकार को तो कभी महंगाई नजर ही नहीं आती.’’

व्यर्थ की बहस से अब हम ऊबने लगे थे, क्योंकि हमें पता है कि आम आदमी के रोनेचिल्लाने से कभी महंगाई कम नहीं होती. हां, माननीय मंत्री महोदय जब चाहें तब अपनी बयानबाजी और भविष्यवाणियों से कीमतों में उछाल ला सकते हैं. चीनी, दूध की कीमतों को आसमान तक उछाल सकते हैं. राजनीति का यही तो फंडा है- खुद भी अमीर बनो और दूसरों के लिए भी अमीर बनने के मौके पैदा करो. लूटो और लूटने दो, स्विस बैंक का खाता लबालब कर डालो.

श्रीमतीजी घर के बिगड़ते बजट से पूरी तरह टूट चुकी हैं. रोजमर्रा की वस्तुओं के बढ़ते दामों ने जीना मुहाल कर रखा है. इसलिए वे एक कुशल अर्थशास्त्री की तरह गंभीर मुद्रा में हमें सुझाव देने लगीं, ‘‘क्यों न हम अपने लान की जमीन का सदुपयोग कर के प्याजलहसुन की खेती शुरू कर दें?’’

हम भौचक्के से उन्हें निहारते हुए बोले, ‘‘खेती और लान में?’’

श्रीमतीजी ने तुरंत हमारी दुविधा भांपते हुए कहा, ‘‘फूलों से पेट नहीं भरता. जापान में तो लोग 2-4 फुट जमीन में ही पूरे घर के लिए सब्जियां पैदा कर लेते हैं.’’

हम श्रीमतीजी के असाधारण भौगोलिक ज्ञान के आगे नतमस्तक थे. हमें लगा जैसे मैनेजमैंट ऐक्स्पर्ट हमें प्रबंधन के गुर सिखा रहा है. उन्होंने अपना फाइनल निर्णय देते हुए घोषणा की, ‘‘अब अपने लान में सब्जियों की खेती की जाएगी. एक बार खर्चा तो होगा, लेकिन देखना शीघ्र ही मेरा आइडिया अपना ‘साइड बिजनैस’ बन जाएगा. आम के आम और गुठलियों के दाम.’’

 

हैरान थे हम उन की अक्लमंदी पर. शीघ्र ही हमें अपनी रजाई छोड़ कर कड़ाके की सर्दी में लान की खुदाई में जुटना पड़ा.

तभी एक सूटेडबूटेड सज्जन अपनी कार से उतर कर हमारे लान में तशरीफ लाए. हम कुछ समझ पाते, उस से पूर्व ही उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं नवरंगी लाल, हौर्टीकल्चर ऐक्स्पर्ट. आप के यहां से मेरी विजिट के लिए डिमांड आई थी. मैं उसी सिलसिले में आया हूं.’’

लगभग 1 घंटे की मशक्कत के बाद उन्होंने एक फाइल बना कर हमारे समक्ष प्रस्तुत की, जिस में उस जमीन का ‘बैस्ट यूज’ कर के तरहतरह की सब्जियां उगाने का ‘ब्ल्यू प्रिंट’ तैयार किया गया था. उस में बड़ी तफसील से 1-1 इंच जमीन के उपयोग और सीजन के हिसाब से फसल तैयार करने का पूरा खाका समझाया गया था.

2 फुट में प्याज, 1 फुट में लहसुन, 2 फुट में आलू, 6 इंच में टमाटर… इत्यादि की तकनीकी जानकारी देख कर श्रीमतीजी फूली नहीं समा रही थीं. 10×10 फुट के लान से अब उन्हें उम्मीद हो गई कि शीघ्र ही इतनी सब्जियों का उत्पादन होने लगेगा कि ट्रक भरभर कर सब्जियां सप्लाई की जा सकेंगी.

मि. नवरंगी लाल ने जब अपनी विजिट का 5,000 रुपए का बिल हमें थमाया तो हमारा दिमाग घूम गया. जिस काम को एक साधारण सा माली 2-4 सौ रुपए में कर जाता, उस काम के 5,000 रुपए का भुगतान? सब्जियों के उत्पादन का हमारा चाव एक झटके में ही ठंडा पड़ने लगा.

श्रीमतीजी ने तुरंत हमें समझाते हुए फरमाया, ‘‘हमेशा बड़ी सोच रखो, तभी सफलता के शिखर को छू पाओगे. देखना, ये 5,000 रुपए कैसे 50,000 रुपयों में बदलते हैं.’’

अब धंधे की व्यावसायिक बातों को हम क्या समझते. हम ने तो इतनी उम्र कालेज में छात्रों को पढ़ा कर ही गंवाई थी. खैर, मि. नवरंगी लाल का पेमैंट कर के उन्हें विदा किया गया.

हमें अगले दिन कालेज से छुट्टी लेनी पड़ी, क्योंकि श्रीमतीजी के साथ सब्जियों के बीज, खाद आदि की खरीदारी जो करनी थी. उस दिन करीब 7 हजार रुपए का नश्तर लग चुका था, लेकिन श्रीमतीजी बेहद खुश नजर आ रही थीं.

घर आए तो एक नई समस्या ने दिमाग खराब कर दिया. अपने छोटे से खेत में बीजारोपण कैसे हो, क्योंकि खेतीबाड़ी का ज्ञान हम दोनों में से किसी को भी नहीं था. कृषि वैज्ञानिक महाशय तो ऐक्स्पर्ट राय दे गए थे, लेकिन उन के ‘ऐक्शन प्लान’ को अमलीजामा पहनाने के लिए अब एक अदद माली की सख्त जरूरत थी. इसलिए तुरंत माली की सेवाएं भी ली गईं. माली ने जमीन तैयार कर खाद, बीज डाल दिए. भांतिभांति की सब्जियों का बीजारोपण हो चुका था.

 

माली की जरूरत तो अब रोज पड़ने वाली थी, क्योंकि जब तक कृषि तकनीक में प्रवीणता, दक्षता हासिल न कर ली जाती, तब तक तो उस की सेवाएं लेना हमारी विवशता थी. इसलिए उसे 5,000 रुपए मासिक वेतन पर रख लिया गया. श्रीमतीजी की दिनचर्या भी अब बदल चुकी थी. अब उन का ज्यादातर समय अपने ‘खेत’ में उग रहे ख्वाबों को तराशने में ही व्यतीत होने लगा था. 10 दिन बीततेबीतते कुछ क्यारियों में कोंपलें फूटने लगीं. श्रीमतीजी उन्हें देख कर इस तरह तृप्त होतीं जैसे मां अपने बेटे की अठखेलियां देख कर वात्सल्यभाव में निहाल हो जाती हैं. धीरेधीरे प्याजलहसुन, आलू, टमाटर, पालक, मेथी की फसल बड़ी होने लगी. अब पूरी कालोनी में हमारी श्रीमतीजी के नए प्रयोग की चर्चा होने लगी. दूरदूर से लोग हमारे ‘कृषि उद्योग’ को देखने आने लगे. श्रीमतीजी उन के सामने बड़े गर्व से अपने कृषि हुनर का सजीव प्रदर्शन करतीं.

वह दिन हमारी श्रीमतीजी के लिए बड़ा खुशनसीब था, जिस दिन हमारी फसल पर फल आते नजर आने लगे. मटर की छोटीछोटी फलियां, गोभी, पालक, मिर्चें, बैगन व धनिया देखदेख कर मन पुलकित होने लगा. लेकिन तभी एक प्राकृतिक आपदा ने हमारी खुशी पर बे्रक लगा दिया. एक अनजाना संक्रमण बड़ी तेजी से फैला और हमारी फसल को पकने से पूर्व ही नष्ट करने लगा.

समझदार और अनुभवी माली ने तुरंत हमें कीटनाशकों की एक सूची थमा दी. हम तुरंत दौड़ेदौड़े पूरे 10,000 रुपयों के कीटनाशक ले आए. साथ ही, छिड़काव करने वाले उपकरण भी लाने पड़े.

चूंकि श्रीमतीजी पर सब्जियां उगाने का जनून सवार था, इसलिए वे कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थीं. कीटनाशकों के छिड़काव से संक्रमण पर रोक लगी और फसल पुन: तेजी से बढ़ने लगी. अब सब्जियों के उपभोग के दिन नजदीक आ रहे थे. परिवार में एक नया जोश, नई उमंग छाने लगी थी.

 

हमारे खर्चे की बात उठाते ही श्रीमतीजी तुरंत हमारी बात काटते हुए तर्क देतीं, ‘‘यह इनवैस्टमैंट है, जब आउटपुट आएगा तब देखना कितना फायदा होता है. वैसे भी रोज मंडी जा कर सब्जी लाने में कितना समय, धन और पैट्रोल खर्च होता है. उस लिहाज से तो हम अब भी फायदे में ही हैं.’’

उस दिन अचानक श्रीमतीजी की चीख सुन कर हमारी नींद टूटी. तुरंत बाहर दौड़े आए तो ज्ञात हुआ कि हमारे लान की चारदीवारी फांद कर कोई चोर हमारी नवजात प्याजलहसुन की फसल को चुरा कर चंपत हो गया है. क्यारियां खुदी पड़ी थीं, एकदम सूनी जैसे नईनवेली दुलहन के शरीर से सारे आभूषण और वस्त्र उतार लिए गए हों. हम हैरान रह गए. श्रीमतीजी पर जैसे वज्रपात हो गया हो. बेचारी इस सदमे से उबर नहीं पा रही थीं. वे बेहोश हो कर गिर पड़ीं. फसल पकती, उस से पूर्व ही चोर सब्जियों पर हाथ साफ कर गया था.

होश में आते ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘चलो पुलिस थाने, रपट लिखवानी है.’’

हम ने कहा, ‘‘एफ.आई.आर.?’’

वे बोलीं, ‘‘और नहीं तो क्या? ऐक्शन तो लेना ही पड़ेगा वरना उस की हिम्मत और बढ़ेगी. वह फिर आ धमकेगा.’’

पुलिस भला हमारी श्रीमतीजी की भावनाओं को क्या समझती. उस ने हमारी शिकायत को बड़े मजाकिया ढंग से टालते हुए कहा, ‘‘सब्जियों की चोरी की एफ.आई.आर. भला कैसे लिखी जा सकती है? पुलिस के पास इतना वक्त ही कहां है? वी.आई.पीज की सुरक्षा से महत्त्वपूर्ण तो आप का लान है नहीं कि वहां पुलिस तैनात कर दी जाए.’’

हम निराश हो कर लौट आए. प्राइवेट सिक्युरिटी हायर करने की भी बात आई, लेकिन खर्चा बहुत ज्यादा था. हमें लगा 10-20 हजार रुपए सिक्योरिटी के नाम पर भी सही. शायद तभी हम अपनी उत्पादित सब्जियों का मजा लूट सकें वरना चोर छोड़ते कहां हैं फलसब्जियां.

अब हम ने एक चौकीदार रख लिया है. श्रीमतीजी पूर्ण मुस्तैदी से सब्जियों के पकने के इंतजार में हैं और हम 5-10 किलोग्राम प्याजलहसुन और आलूटमाटर के उत्पादन पर आए 30-35 हजार रुपए के खर्चे का हिसाब लगाने में बेदम हुए पड़े हैं.

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कल्याण : क्या थी चांदनी की कहानी

जब पति चुनाव लड़ता है तो उस की पत्नी को उस से अधिक श्रम करना पड़ता है. चुनाव क्षेत्र में जा कर मतदाताओं से मत देने के लिए हाथ जोड़ने पड़ते हैं, घर में कार्यकर्ताओं आदि के भोजन का भी प्रबंध करना पड़ता है. पत्नी के चुनाव लड़ने पर पति महोदय दौड़धूप तो करते हैं, पर उन की ओर कोई ध्यान नहीं देता. लोग यही समझते हैं कि बेचारा कार्यकर्ता है.

अगर वह खादी के कपड़े पहने होता है तो उसे दल का कार्यकर्ता समझा जाता है. अगर आम कपड़ों में होता है तो फिर भाड़े का प्रचारक समझ लिया जाता है. न वह किसी से यह कह पाता है कि वह प्रत्याशी का पति है और न लोग उस से पूछते हैं कि आप हैं कौन. पत्नी तो शान से कह देती है कि वह प्रत्याशी की पत्नी है. यह जान कर लोग उसे भी आदरसम्मान दे देते हैं. जो रिश्ता बता ही नहीं पाता उसे कोई सम्मान दे भी कैसे?

पति महोदय जब किसी पद पर आसीन होते हैं तो पत्नी को भी विशेष सम्मान प्राप्त होता है. लोग उसे भी उतना ही मान देते हैं जितना कि उस के पति को. पत्नी जब कोई पद प्राप्त करती है तो उस के पति को कोई महत्त्व नहीं मिलता. किसी भी देश के राष्ट्राध्यक्ष अथवा शासनाध्यक्ष की पत्नी उस देश की प्रथम महिला होती है. अगर नारी उस पद पर आसीन हो जाए तो उस का पति कुछ नहीं होता. उदाहरण के लिए ब्रिटेन की रानी एलिजाबेथ और प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर को ही लीजिए.

एलिजाबेथ के पति प्रिंस फिलिप माउंटबेटन को तो कुछ लोग जानते भी हैं पर मार्गरेट थैचर का पति कौन है, यह जानने वाला इक्कादुक्का ही होगा. पुरुष सत्तात्मक समाज भी खूब है. राजा की पत्नी रानी होती है पर रानी का पति राजा नहीं कहलाता. लगता है कि नारी के पद पर आसीन होते ही लोग मातृ सत्तात्मक समाज में आ जाते हैं. उस समाज में पुरुष का कोई मूल्य नहीं होता.

चांदनीजी के नाम निमंत्रणपत्र भी आते हैं. अधिकतर में माननीय चांदनीजी, उपमंत्री लिखा होता है. लेकिन उन के पुरुष सहयोगियों को निमंत्रणपत्र आते हैं तो उन पर श्रीमान एवं श्रीमती फलां लिखा होताहै.

चांदनीजी को शपथग्रहण समारोह में जाना था. बच्चों की उत्सुकता स्वाभाविक थी. दोनों बच्चे मां को सबकुछ खाते देख चुके थे पर शपथ खाते कभी नहीं देखाथा. वह इस लालच में गए कि अगर खाने में अच्छी वस्तु हुई तो मां उन्हें भी खिलाएगी. पतिदेव भी उत्सुक हो उठे. उन्हें ज्ञात था कि अन्य मंत्रियों की पत्नियां भी जाएंगी. वह उपमंत्री के पति हैं, इसलिए उन्हें भी जाना चाहिए. समारोह और खासकर पत्नी का शपथग्रहण देख कर छाती शीतल करनी चाहिए.

कार पर चले पतिदेव चंद्रवदन ने चालक का स्थान ग्रहण किया. बच्चे व चांदनीजी पीछे बैठीं. साथ में अगली सीट पर राजेश नाम का एक कार्यकर्ता भी, जो चांदनीजी के चुनाव का संचालक था, जम गया.

पतिदेव सफारी सूट में थे. राजेश टिनोपाल के पानी से खंगाली गई खादी की पोशाक में था. सिर पर नुकीली गांधी टोपी सुशोभित थी.

राजभवन के सामने कार रुकी. पिंकी को पेशाब आया. बच्चे आखिर बच्चे ही हैं. कहीं भी जाएं, सतर्क रहना ही पड़ता है. किसी भी क्षण पेशाब आ सकता है और किसी भी पल भूख लग सकती है.

चांदनीजी कार से उतरीं. राजेश उतर कर आगे हो लिया. लोगों ने उस के वस्त्रों का स्वागत किया. पुलिस वाले सलाम दागने लगे.

पिंकी ने मां का हाथ झकझोरा, ‘‘मां…’’

शपथग्रहण का समय अति निकट था, अत: चांदनीजी झुंझला पड़ीं, ‘‘क्या है?’’

पिंकी सहम उठी, ‘‘मां, बाथरूम…’’

चांदनीजी ने इधरउधर देखा. राजेश आगे खड़ा लोगों को माननीय उपमंत्री के आगमन की सूचना दे रहा था. कार निश्चित स्थान पर खड़ी कर के पतिदेव चंद्रवदन भी आ गए.

‘‘देखिए, शपथग्रहण में कुल 2 मिनट बाकी हैं. मेरा पहुंचना जरूरी है. आप जानते हैं कि राजनीति क्षणों में बदलती है. आप पिंकी को पेशाब करा दीजिए, उस के उपरांत आ जाइए,’’ चांदनीजी की निगाहों में कातरता थी.

पतिदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया. उत्तर के नाम पर उन के पास था भी क्या? पिंकी को ले कर पेशाब कराने का स्थान तलाशने लगे. चांदनीजी अंदर चली गईं. पीछेपीछे राजेश भी घुस गया.

एक पुलिस वाले ने राजेश की ओर इंगित किया, ‘‘लगता है चांदनीजी के पति भी बड़ी पहुंच वाले नेता हैं.’’

पिंकी को पेशाब कराने के स्थान को तलाशने में कुछ समय लगा. उस के बाद आए तो शपथग्रहण समारोह शुरू हो चुका था.

टे्रन में यात्रा करते वक्त भी बड़ी मुसीबत होती है. बच्चों के लिए हर स्टेशन पर पतिदेव को ही उतरना पड़ता है. उन की मां सीट से ही चिपकी रहती है. अकेली मां के साथ यात्रा करने में बालगोपालों को इतनी जरूरतें महसूस नहीं होतीं जितनी कि पिता के साथ यात्रा करने में होती हैं.

चंद्रवदन अंदर घुसे. फाटक पर ही खडे़ एक दारोगा ने टोका, ‘‘कहां घुसे चले आ रहे हो? आम लोगों के अंदर जाने पर मनाही है.’’

हकला उठे चंद्रवदन, ‘‘मैं…मैं… मैं…’’

‘‘मैं जानता हूं कि आप उपमंत्री चांदनीजी के ड्राइवर हैं. आप अंदर नहीं जा सकते. देखते नहीं, सब के ड्राइवर बाहर खड़े हैं,’’ उसी पुलिस वाले ने चेतावनी दी.

बौखला गए चंद्रवदन, ‘‘देखिए, यह मंत्रीजी की पुत्री है.’’

‘‘तो यहीं खिलाइए इसे. मंत्रीजी और उन के साहब अंदर जा चुके हैं,’’ दारोगा ने सूचित कर दिया.

साथ में खड़े भयंकर मूंछों वाले हवलदार ने मूंछों पर हाथ फेरा, ‘‘हुजूर दारोगाजी, मंत्रीजी का बड़ा मुंहलगा ड्राइवर मालूम होता है.’’

पिंकी ने चंद्रवदन की ओर देखा, ‘‘चाचा, मां कहां है?’’

चंद्रवदन के भतीजों की तरह पिंकी भी उन्हें बजाय पिता के चाचा शब्द से संबोधित करती थी. उन के भतीजे उम्र में बड़े थे. पुत्रपुत्री छोटे थे, इसलिए अपने चचेरे भाइयों की तरह उन्हें चाचा ही कहने लगे थे.

दारोगाजी मुसकरा पड़े, ‘‘जितनी शालीन चांदनीजी हैं उतने ही उन के बच्चे भी. देखो, बच्चे ड्राइवर तक को चाचा कहते हैं.’’

चंद्रवदन के काटो तो खून नहीं वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी. पिंकी को ले कर वह कार में जा कर बैठ गए.

चांदनीजी बाहर आईं तो उन पर उपमंत्रित्व लदा था, ‘‘आप यहां बैठे हैं? अंदर क्यों नहीं आए?’’

उत्तर मिला, ‘‘यों ही. अधिक भीड़ में मन घबरा जाता है.’’

चांदनीजी उपमंत्री के पद पर आसीन हो गईं. टेलीफोन मिला, सरकारी बंगला मिला, सरकारी कार मिली. इस के साथ ही ड्राइवर, चपरासी व व्यक्तिगत सहायक भी प्राप्त हो गए. सब से मजेदार विभाग सहकारिता प्राप्त हुआ.

विभाग से संबंधित लोगों ने चांदनीजी के स्वागत में समारोह आयोजित किया. साथ में रात्रिभोज भी रख दिया. माननीय सहकारिता मंत्री भी आमंत्रित थे.

चांदनीजी तैयार हो कर बाहर निकलीं तो पतिदेव को देख कर बोलीं, ‘‘आप अभी तैयार नहीं हुए? समय का ध्यान रखना चाहिए. भारतीयों की तरह लेटलतीफ होना ठीक नहीं है.’’

आज पतिदेव को यह ज्ञात हो गया कि चांदनीजी भारतीय तो हैं पर भारतीयों की तरह नहीं हैं. भारतीय हो कर गद्दी पर पहुंचने वाला स्वयं को भारतीयों की तरह नहीं मानता. किस की तरह मानता है, यह वही जाने.

उत्तर मिला, ‘‘मेरा मन नहीं है, तुम हो आओ,’’ लगा कि चंद्रवदनजी में पुराना अनुभव कसमसा रहा था.

तुनक पड़ीं चांदनीजी, ‘‘आप हमेशा नखरे करते हैं. मंत्रीजी आएंगे. उन की पत्नी भी आएंगी, पर आप हैं कि मेरे साथ नहीं जा सकते. पुरुष समाज नारी की प्रगति से अब भी जलता है. उसे आगे बढ़ते नहीं देख सकता.’’

चंद्रवदन को तैयार होना ही पड़ा. इस बार बच्चों को घर में ही रोक दिया गया.

कार अभिनंदनस्थल पर जा कर रुकी. चपरासी आननफानन पगड़ी संभालता हुआ दाहिनी ओर उतरा. गाड़ी के पीछे से

घूम कर बाईं ओर

का दरवाजा खोल दिया गया, क्योंकि चांदनीजी उधर ही बैठी थीं. बाद में दाईं ओर का दरवाजा खोलने बढ़ा, पर तब तक चंद्रवदन स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आ गए. उन्हें चपरासी की उपेक्षा खली, पर कुछ कह न सके.

पंडाल के अंदर पहुंचे. मुख्य मंच पर 4 कुरसियां रखी थीं. एक मंत्रीजी की, दूसरी उन की पत्नी मंत्राणीजी की, तीसरी चांदनीजी की और चौथी समारोह के मेजबान की.

चंद्रवदन एक ओर अग्रिम पंक्ति में बैठने चले तो एक ने टोका, ‘‘ये कुरसियां महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं. आप पीछे जाइए.’’

पुरुषों वाली पंक्तियां भरी थीं. बड़ी कठिनाई से 10वीं कतार में जगह मिली. दुख तब हुआ जब देखा कि महिलाओं वाली जो अग्रिम पंक्ति सुरक्षित थी वहां आ कर मंत्रीजी के परिवार वाले डट गए. उन को आयोजकों ने बजाय रोकने के बड़े आदर से बैठा दिया. वे उन से यह न कह सके कि ये सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं. सच है, मंत्री के परिवार के सामने महिलाओं की क्या बिसात?

चंद्रवदन अनमने से देखतेसुनते रहे. भोजन के समय तक ड्रमों मक्खन उड़ेला गया. तारीफों के पुल बांधे गए. आगतों को यकीन दिलाया गया कि भविष्य में सहकारिता की पागल और बिगड़ैल हथिनी को यही माननीय अतिथिगण नियंत्रण में कर लेंगे, गाय सी सीधी हो जाएंगी.

भोजन के समय चांदनीजी ने एक कुरसी रोक ली. चपरासी को इंगित किया, ‘‘वह कहां हैं?’’

चपरासी तलाशने चल दिया. मंत्रीजी पूछ बैठे, ‘‘किन्हें पूछ रही हैं?’’

लाजभरी मुसकान उभर आई चांदनीजी के होंठों पर, ‘‘मेरे वह.’’

‘‘अच्छा…अच्छा, चंद्रवदनजी हैं,’’ कहते हुए मंत्रीजी का मुख कुछ उपेक्षायुक्त हो गया. ऐसा लग रहा था कि मानो कह रहे हों, कहां ले आईं उस उल्लू की दुम को, भला यहां उस की क्या जरूरत?

अचानक गहरा शृंगार प्रसाधन किए एक महिला आ कर खाली कुरसी पर डट गई, ‘‘कहो, चांदनी, कैसी हो? बहुत- बहुत बधाई हो.’’

मंत्रीजी के इशारे पर एक मेज और लगा दी गई. चंद्रवदन उस पर बैठे. अकेले न रहें, इसलिए मंत्रीजी एवं चांदनीजी के निजी सहायक भी वहीं बैठा दिए गए.

1-2 और बैठ गए.

अधिकतर परोसने वाले मंत्रीजी एवं उपमंत्री के ही आसपास मंडराते रहे. खाद्यसामग्री लाने में होड़ लगी थी. आग्रह कर के खिलाया जा रहा था.

चंद्रवदन वाली मेज पर कोई पूछने वाला न था. जो परोस गया बस, परोस गया. मुख्य मेजबान तो मंत्रीजी के साथ बैठे हर व्यंजन को उदरस्थ करने में लगे हुए थे.

एक ने एक कार्यकर्ता को इंगित किया, ‘‘उस मेज पर भी सामान पहुंचाते रहें.’’

‘‘उस पर कौन है?’’ उस ने जानना चाहा.

‘‘मंत्रीजी और उपमंत्रीजी के निजी सहायक हैं. काम के आदमी हैं.’’

उस कार्यकर्ता ने आदेश निभाया, पर ऐसी हिकारत से जैसे बरात में आए बैंड बाजे वालों को परोस रहा हो.

भोजन के उपरांत मंत्रीजी अपनी इंपाला के पास पहुंचे, ‘‘आइए, चांदनीजी, मैं आप को आप के बंगले पर छोड़ दूंगा.’’

चांदनीजी झिझकीं, ‘‘माननीय मंत्रीजी. हमारे वह…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ मंत्रीजी ने उन्हें अपनी इंपाला में घुसने का इशारा किया, ‘‘आप की एंबेसेडर तो है ही. वह उस में आ जाएंगे.’’

इंपाला जब चली तो पिछली सीट पर बाईं ओर मंत्राणीजी, बीच में मंत्रीजी और दाहिनी ओर चांदनीजी थीं. निजी सहायक एवं चपरासी ड्राइवर के साथ अगली सीट पर थे.

मंत्रीजी ने सलाह दी, ‘‘चांदनीजी, आप में अभी बहुत लड़कपन है. अब आप घरेलू नहीं बल्कि सार्वजनिक हैं. अगर राजनीति में आगे बढ़ना चाहती हैं तो हमारे वह के स्थान पर हर वाक्य में हमारे मुख्यमंत्री और हमारे प्रधानमंत्री कहना सीखिए, तभी कल्याण है.’’

जब जागो तभी सवेरा : क्या टूट पाया अवंतिका का अंधविश्वास

संजय के औफिस जाते ही अवंतिका चाय की गरम प्याली हाथों में ले न्यूजपेपर पर अपना राशिफल पढ़ने लगी. उस के बाद उस ने वह पृष्ठ खोल लिया जिस में ज्योतिषशास्त्रियों, रत्नों और उन से जुड़े कई तरह के विज्ञापन होते हैं. यह अवंतिका का रोज का काम था. पति संजय के जाते ही वह न्यूजपेपर और टीवी पर बस ज्योतिषशास्त्रियों और रत्नों से जुड़ी खबरें ही पढ़ती व देखती और फिर उस में सुझई गई विधि या रत्नों को पहनने, घर के बाकी सदस्यों को पहनाने और ज्योतिषों के द्वारा बताए गए नियमों पर अमल करने और सभी से करवाने में जीजान लगा देती.

अवंतिका का इस प्रकार व्यवहार करना स्वाभाविक था क्योंकि उस की परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई थी जहां अंधविश्वास और ग्रहनक्षत्रों का जाल कुछ इस तरह से बिछा हुआ था कि घर का हर सदस्य केवल अपने जीवन में घटित हो रहे हर घटना को ग्रहनक्षत्रों एवं ज्योतिष से जोड़ कर ही देखता था. यही वजह थी कि अवंतिका पढ़ीलिखी होने के बावजूद ग्रहनक्षत्रों एवं रत्नों को बेहद महत्त्व देती थी और अपना कोई भी कार्य ज्योतिष से शुभअशुभ पूछे बगैर नहीं करती थी.

संजय और अवंतिका की शादी को करीब 20 साल हो गए थे, लेकिन आज भी अवंतिका को यही लगता था कि उस का पति संजय घर की ओर ध्यान नहीं देता है, उस की बात नहीं सुनता है. बेटी अनुकृति जो 12वीं क्लास में है, मनमानी करती है और बेटा अनुज जो 10वीं क्लास का छात्र है, बेहद उद्दंड होता जा रहा है. अवंतिका के ज्योतिषियों के चक्कर और पूरे परिवार पर कंट्रोल की चाह की वजह से पूरा घर बिखरता जा रहा था परंतु ये सारी बातें उस की समझ से परे थीं और उसे अपने सिवा सभी में दोष दिखाई देता था.

अवंतिका जरूरत से ज्यादा भाग्यवादी तो थी ही, साथ ही साथ वह अंधविश्वासी भी थी. वह ग्रहनक्षत्रों के कुप्रभावों से बचने के लिए ज्योतिषशास्त्रियों व उन के द्वारा सुझए गए तरहतरह के रत्नों पर अत्यधिक विश्वास रखती थी. यह कहना गलत न होगा कि अवंतिका की सोच करेला ऊपर से नीम चढ़ा जैसी थी.

अभी अवंतिका राशिफल पढ़ ही रही थी कि उस की बेटी अनुकृति उस के करीब आ कर बोली, ‘‘मम्मी मुझे फिजिक्स और कैमिस्ट्री विषय बहुत हार्ड लग रहे हैं. मुझे इन के लिए ट्यूशन पढ़नी है.’’

यह सुनते ही अवंतिका बोली, ‘‘अरे तुम्हें कहीं ट्यूशन जाने की जरूरत नहीं. यह देखो आज के पेपर में एड आया है सर्व समस्या निवारण केंद्र का. यहां ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंदजी सभी की समस्याओं का निवारण

करते हैं. देख इस पर लिखा है कि कैसी भी हो समस्या निराकरण करेंगे ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंद नित्या.

‘‘मम्मी लेकिन मुझे फिजिक्स और कैमिस्ट्री में प्रौब्लम है इस में ये ज्योतिषाचार्य क्या करेंगे?’’ अनुकृति चिढ़ती हुई बोली.

तभी अवंतिका न्यूजपेपर में से वह पेज  जिस पर विज्ञापन छपा था अलग करती हुई

बोली, ‘‘ज्योतिषाचार्यजी ही तो हैं जो तुम्हारी

सारी प्रौब्लम्स दूर करेंगे. आचार्यजी तुम्हें बताएंगे कि पढ़ाई में ध्यान कैसे लगाना चाहिए या फिर कोई रत्न बताएंगे जिस से तुम 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाओगी. चलो जल्दी से तैयार हो जाओ हम आज ही स्वामीजी से चल कर मिलते हैं.’’

यह सुनते ही अनुकृति पैर पटकती हुई बोली, ‘‘मम्मी अभी मुझे स्कूल जाना है. आज मेरी फिजिक्स और कैमिस्ट्री का ऐक्स्ट्रा क्लास है. मैं किसी आचार्य या बाबावाबा के पास नहीं जाऊंगी. आप को जाना है तो आप जाओ,’’ कह कर अनुकृति वहां से चली गई और अवंतिका वहीं खड़ी बड़बड़ाती रही.

थोड़ी देर में अनुकृति और अनुज स्कूल के लिए तैयार हो गए, लेकिन अवंतिका विज्ञापन पर दिए आचार्यजी का फोन नंबर मिलाने में ही लगी रही क्योंकि हर बार वह नंबर व्यस्त ही बता रहा था.

तभी अवंतिका के पास अनुज आ कर बोला, ‘‘मम्मी, टिफिन बौक्स दे दो हम लेट हो रहे हैं.’’

अनुज से टिफिन बौक्स सुन कर अवंतिका को खयाल आया कि उस ने टिफिन तो बनाया ही नहीं है. अत: वह हड़बड़ाती हुई अलमीरा से रुपए निकाल दोनों को देती हुई बोली, ‘‘टिफिन तो बना नहीं है तुम दोनों ये रुपए रख लो, वहीं स्कूल कैंटीन में कुछ खा लेना.’’

अवंतिका का इतना कहना था कि अनुकृति मुंह बनाती हुई बोली, ‘‘यह क्या है मम्मी आप रोजरोज यह राशिफल और ज्योतिषशास्त्रियों के बारे में पढ़ने के चक्कर में हमारा टिफिन ही नहीं बनाती हो और हमें कैंटीन में खाना पड़ता है,’’ कह अवंतिका के हाथों से रुपए ले कर अनुकृति गुस्से से चली गई.

तभी अनुज बोला, ‘‘मम्मी, मुझे और पैसे चाहिए. मेरा इतने पैसों से काम नहीं चलेगा. आज दीदी की ऐक्स्ट्रा क्लास है इसलिए मैं अपनी गाड़ी ले जा रहा हूं. उस में पैट्रोल भी डलवाना होगा.’’

अनुज के ऐसा कहते ही अवंतिका ने बिना कुछ कहे और पैसे उसे दे दिए क्योंकि उस का पूरा ध्यान आचार्यजी को नंबर लगा कर उन से मिलने का समय लेने में था.

दोनों बच्चों के जाते ही अवंतिका फिर से ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंद नित्याजी का नंबर ट्राई करने लगी और इस बार नंबर लग गया. अवंतिका को ज्योतिषाचार्य से आज ही मिलने का समय भी मिल गया. वह जल्दी से तैयार हो कर स्वामी के सर्व समस्या निवारण केंद्र पहुंची तो देखा काफी भीड़ लगी थी. ऐसा लग रहा था मानो आधा शहर यहीं उमड़ आया हो. जब अवंतिका ज्योतिषाचार्य के शिष्य के पास यह जानने के लिए पहुंची कि उस का नंबर कब तक आ जाएगा तो वह बड़ी विनम्रतापूर्वक लबों पर लोलुपता व चाटुकारिता के भावों संग मुसकराते हुए बोला, ‘‘बहनजी, अभी तो 10वां नंबर चल रहा है. आप का 51वां नंबर है. आप का नंबर आतेआते तो शाम हो जाएगी.आप आराम से प्रतीक्षालय में बैठिए, वहां सबकुछ उपलब्ध है- चाय, कौफी, नाश्ता, भोजन सभी की व्यवस्था है. बस आप टोकन काउंटर पर जाइए और आप को जो चाहिए उस का बिल काउंटर पर भर दीजिए आप को मिल जाएगा.’’

यह सुनने के बाद भी अवंतिका वहीं खड़ी रही. उस के माथे पर खिंचते बल को देख कर आचार्यजी के शिष्य को यह अनुमान लगाने में जरा भी वक्त नहीं लगा कि अवंतिका आचार्यजी से शीघ्र मिलना चाहती है. अवसर का लाभ उठाते हुए  शिष्य ने अपने शब्दों में शहद सी मधुरता घोलते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आचार्यजी के कक्ष के समक्ष तो सदा ही उन के भक्तों की ऐसी ही अपार भीड़ लगी रहती है क्योंकि आचार्यजी जो रत्न अपने भक्तों को देते हैं एवं जो विधि उन्हें सुझते हैं उस से उन के भक्तों का सदा कल्याण ही होता है. यदि आप ज्योतिषाचार्यजी से जल्दी भेंट करना चाहती हैं तो आप को वीआईपी पास बनाना होगा, जिस का मूल्य सामान्य पास से दोगुना है परंतु इस से आप की आचार्यजी से भेंट 1 घंटे के भीतर हो जाएगी और बाकी लोगों की अपेक्षा आचार्यजी से आप को समय भी थोड़ा ज्यादा मिलेगा. आप कहें तो वीआईपी पास बना दूं?’’

यह सुन अवंतिका कुछ देर मौन खड़ी रही फिर बोली, ‘‘ठीक है भैया बना दीजिए वीआईपी पास.’’ कहते हुए अवंतिका ने अपने पर्स से रुपए निकाल कर उसे दे दिए जो संजय ने उसे दोनों बच्चों की स्कूल फीस के लिए दिए थे.

यहां इस सर्व समस्या निवारण केंद्र के प्रतीक्षालय में, कैंटिन में इतनी भीड़ था कि ऐसा लग रहा था जैसे कोई मेला लगा हो. वीआईपी पास बनाने के बाद अवंतिका प्रतीक्षालय की कैंटीन में कौफी पीने बैठ गई. करीब 1 घंटे के बाद उस का नंबर आया. आचार्यजी से मिल कर अवंतिका ने अपने घर की वे सारी समस्याएं उन के समक्ष रख दीं जो वास्तव में समस्याएं थी ही नहीं. मात्र उस के मन का भ्रम था, लेकिन उस के इस भ्रम के बीज को आचार्यजी ने बड़ा वृक्ष का रूप दे दिया.

आचार्यजी ने अवंतिका को परिवार के हर सदस्य के लिए अलगअलग रत्न दे दिए और कहा कि इन से सभी समस्याओं का निवारण हो जाएगा, साथ ही साथ ज्योतिषाचार्यजी ने अवंतिका से अच्छीखासी रकम भी ऐंठ ली. यह सर्व समस्या निवारण केंद्र पूरी तरह से अंधविश्वास, ग्रहनक्षत्रों का भय व रत्नों का बुना हुआ ऐसा माया जाल था जो व्यापार का व्यापक रूप ले कर फूलफल रहा था, जिस में लोग स्वत: फंसते चले जा रहे थे और यह खेल पूर्णरूप से भय और लोगों की अज्ञानता का प्रतिफल था.

अवंतिका दोनों बच्चों और संजय के  पहुंचने से पहले ही घर लौट आई और अनुकृति के घर आते ही उस के पीछे लग गई कि वह आचार्यजी के द्वारा दिए गए उस रत्न को पहन ले.अनुकृति नहीं पहनना चाहती थी. वह चाहती थी कि उस की मां उस की परेशानियों को समझे और उसे ट्यूशन जाने की अनुमति दे दे, लेकिन अवंतिका कुछ समझने को तैयार ही नहीं थी, वह तो बस बारबार अनुकृति को इस बात पर जोर दे रही थी कि यदि वह ज्योतिषाचार्यजी के द्वारा दिए गए रत्न को पहन लेगी तो बिना ट्यूशन जाए ही 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाएगी. हार कर आखिरकार अनुकृति ने रत्न पहन ही लिया.

शाम ढलने को थी, लेकिन अनुज अब तक स्कूल से घर नहीं लौटा था, जबकि अनुकृति की ऐक्स्ट्रा क्लास होने के बावजूद वह घर आ चुकी थी. इस बात से बेखबर अवंतिका इस उधेड़बुन में लगी थी कि वह संजय को कैसे बताएगी कि वह घर खर्च के पैसों के साथसाथ बच्चों की स्कूल फीस के रुपए भी सर्व समस्या निवारण केंद्र में दे आई है.

खाना बनाते हुए अवंतिका के मन में यह  विचार भी चल रहा था कि आचार्यजी के द्वारा दिए रत्न जरूर अपना असर दिखाएंगे और उस के घर की सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी.

उसी वक्त संजय भी दफ्तर से आ गया. अनुज को घर पर न पा कर संजय ने अवंतिका से कहा, ‘‘अनुज कहां है दिखाई नहीं दे रहा है?’’

तब जा कर अवंतिका को खयाल आया कि अनुज तो अब तक आया ही नहीं है. वह कुछ कह पाती उस से पहले अनुज आ गया. उसे देख कर लग रहा था कि वह काफी परेशान हैं.

यह देख  संजय ने अनुज से पूछा, ‘‘क्या हुआ अनुज तुम परेशान लग रहे हो?’’

‘‘नहीं पापा ऐसा कुछ नहीं है,’’ अनुज नजरें चुराता हुआ बोला और वहां से चला गया.

तभी अवंतिका बोली, ‘‘अरे आप क्यों चिंता करते हैं आज मैं ज्योतिषाचार्य परमानंद

नित्याजी के केंद्र गई थी. आचार्यजी ने हम सभी के ग्रहों के हिसाब से रत्न दिए हैं. अब आप देखना सब ठीक हो जाएगा.’’

यह सुनते ही संजय और अधिक परेशान हो गया और हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘तो क्या तुम ज्योतिषाचार्य के पास गई थी. सच बताओ तुम कितने रुपए फूंक कर आ रही हो और कौन से रुपए खर्च किए हैं तुम ने?’’

यह सुनते ही अवंतिका बिदक गई और कहने लगी, ‘‘तुम्हें तो बस पैसों की ही पड़ी रहती है. मेरी या घरपरिवार की तो तुम्हें कोई चिंता ही नहीं है. अनुकृति का इस साल ट्वैल्थ है, अनुज का टैंथ है तुम्हारी प्रमोशन भी अटकी पड़ी है, हमारे रिश्ते में भी कुछ सामान्य नहीं है और तुम्हें रुपयों की पड़ी है. मैं जो करती हूं तुम्हारे लिए और इस घर की भलाई के लिए ही करती हूं. ज्योतिष के पास जाती हूं, आचार्यजी के पास जाती हूं यहांवहां भटकती रहती हूं किस के लिए? तुम सब के लिए और तुम हो कि बस हाय पैसा… हाय पैसा करते रहते हो.’’

पैसे और ज्योतिष को ले कर संजय और अवंतिका के बीच बहस छिड़ गई और यह बहस उस वक्त और अधिक बढ़ गई जब संजय को पता चला कि अवंतिका घर खर्च के पैसे और बच्चों की स्कूल फीस के पैसे सब लुटा आई है. यह बात आग में घी का काम कर गई. जिस घर की शांति के लिए अवंतिका रत्न ले कर आई थी उसी घर की शांति पूरी तरह से भंग हो गई थी.

अवंतिका के पति और उस के दोनों बच्चे उस से दूर होते जा रहे थे. रोजरोज की कलह से तंग आ कर संजय ने भी वह रत्न पहन तो लिया जिसे अवंतिका ले कर आई थी और अनुज को भी पहना दिया? लेकिन घर की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया. कलह दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी.

अनुकृति अपनी पढ़ाई को ले कर परेशान थी. अवंतिका उसे ट्यूशन यह कह कर जाने नहीं दे रही थी कि आचार्यजी ने जो रत्न दिया है उस से तुम 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाओगी. संजय कर्ज से लदता जा रहा था क्योंकि अवंतिका ज्योतिष, रत्नों और बेकार के टोटकों में पैसे बरबाद कर रही थी. इधर छोटी सी उम्र में गलत संगत में पड़ कर अनुज जुआरी बन चुका था.

एक रोज अचानक अनुकृति स्कूल से रोती हुई घर पहुंची. अवंतिका किसी ज्योतिषी के पास गई हुई थी और संजय औफिस का कुछ काम कर रहा था. अनुकृति को इस प्रकार रोता देख संजय ने उस से रोने का कारण पूछा.

अनुकृति रोती हुई बोली, ‘‘पापा, पिछले 4 महीनों से मेरी और अनुज स्कूल फीस जमा नहीं हुई है. मैम ने कहा है कि यदि समय से फीस जमा नहीं हुई तो एग्जाम में अपीयर नहीं होने देगी.’’

यह सुन गुस्से से संजय की आंखें लाल हो गईं, लेकिन वह अनुकृति को शांत करते हुए बोला, ‘‘बेटा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं मैं 1-2 दिन में फीस की व्यवस्था करता हूं. तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

संजय का इतना कहना था कि अनुकृति और अधिक रोने लगी यह देख संजय घबरा गया कि आखिर क्या बात हो गई.

तभी अनुकृति दोबारा सिसकती हुई बोली, ‘‘पापा 1 महीने के बाद मेरा फाइनल एग्जाम है और मुझे फिजिक्स, कैमिस्ट्री बिलकुल समझ नहीं आ रहे.’’

‘‘अरे तो इस में रोने वाली क्या बात है  तुम इन के लिए ट्यूशन कर लो और फिर तुम ने मुझे या अपनी मम्मी को पहले क्यों नहीं बताया? हम तुम्हारी ट्यूशन क्लास पहले ही शुरू करा देते?’’ संजय सांत्वना देते हुए बोला.

अनुकृति सुबकती हुई बोली, ‘‘पापा मैं ने मम्मी को बताया था, लेकिन मम्मी ने कहा कि ट्यूशन की कोई जरूरत नहीं है, ज्योतिषाचार्यजी के द्वारा दिया रत्न पहनने से ट्वैल्थ में मेरे अच्छे मार्क आएंगे, लेकिन पापा ऐसा कुछ नहीं हो रहा और अब लास्ट टाइम में कोई भी ट्यूशन लेने को तैयार नहीं है.’’

यह सुन संजय ने अपना सिर पकड़ लिया. अवंतिका का दिनप्रतिदिन

अंधविश्वास, ज्योतिष और रत्न के प्रति सनक बढ़ती ही जा रही थी, जो अब बच्चों के

भविष्य के लिए भी खतरे की घंटी थी क्योंकि अवंतिका न तो घर पर ध्यान दे रही थी और न ही बच्चों पर.

संजय स्वयं को संभालता हुआ अनुकृति को समझते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम चिंता मत करो मैं सब ठीक कर दूंगा. मैं तुम्हारे टीचर्स से बात करूंगा कि वे तुम्हें फिजिक्स और कैमिस्ट्री की ट्यूशन पढ़ाएं.’’

संजय के ऐसा कहने पर अनुकृति का रोना बंद हुआ और वह वहां से चली गई, लेकिन संजय दुविधा में पड़ गया कि वह कहां से लाएगा 4 महीने की स्कूल फीस, ट्यूशन फीस और घर खर्च के लिए रुपए, पहले ही वह कर्ज से दबा हुआ था. उस की छोटी सी प्राइवेट नौकरी में 1 महीने में इतना सब कर पाना आसान नहीं था और अवंतिका है कि बिना सोचविचार के ज्योतिष, आचार्य और रत्नों पर पैसे गंवा रही है.

संजय यदि अवंतिका से इस बारे में कुछ भी कहता या उसे रोकने की कोशिश करता तो वह उस से लड़ने पर आमादा हो जाती. संजय को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे. अवंतिका को इस अंधविश्वास के जाल से कैसे बाहर निकाले.

तभी कुछ देर में अवंतिका घर से नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिए न जाने क्याक्या सामान ले कर आ गई. यह देख संजय ने अवंतिका को बहुत समझने की कोशिश की कि वह ये सब बेकार के खर्चे करना बंद करे, केवल घरपरिवार पर ध्यान दे, लेकिन अवंतिका नहीं मानी वह अपनी मनमानी करती रही.

अवंतिका की मनमानी देख संजय को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह अवंतिका के सिर से यह ज्योतिषाचार्य और रत्नों का भूत कैसे उतारे. संजय ने कर्ज ले कर दोनों बच्चों की फीस भर दी. अनुकृति की टीचर्स से अनुरोध कर  ट्यूशन पढ़ाने के लिए भी उन्हें राजी कर लिया, जिस का नतीजा यह हुआ कि जिस दिन 12वीं कक्षा का रिजल्ट घोषित हुआ अनुकृति फिजिक्स और केमिस्ट्री के साथसाथ सभी विषयों में अच्छे नंबरों के साथ पास हो गई.

अनुकृति को जब इस बात का पता चला कि वह अच्छे नंबरों से पास हो गई है तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. अनुकृति पिता के गले लग कर बोली, ‘‘थैंक्यू पापा…’’

यह देख अवंतिका थोड़ी नाराजगी जताती हुई बोली, ‘‘अरे वाह आचार्यजी के पास मैं गई, घंटों लाइन में मैं खड़ी रही और तुम अपने पापा के गले लग कर थैंक्यू बोल रही हो?’’

यह सुन अनुकृति बोली, ‘‘मम्मी, मेरा ट्वैल्थ पास होना कोई आचार्यजी का प्रताप या रत्नों का कमाल नहीं है. देखो मैं ने तो कोई रत्न पहना ही नहीं है. यह तो मेरी मेहनत और पापा

का मुझे ट्यूशन के लिए टीचर को मनाने का नतीजा है.’’

यह सुन अवंतिका बड़ी नाराज हुई और वह आचार्यजी की पैरवी करने लगी. तभी संजय का मोबाइल बजा. फोन किसी अनजान नंबर से था. संजय के फोन उठाते ही उसे फौरन पुलिस स्टेशन आने को कहा गया. यह सुन संजय भागता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा तो उसे पता चला कि पुलिस ने अनुज को जुआ खेलने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया है.

इधर संजय पुलिस स्टेशन में अनुज को छुड़वाने के प्रयास में लगा हुआ था और उधर जब अवंतिका को इस बात का पता चला कि पुलिस ने अनुज को जुआ खेलने के जुर्म में जेल में बंद कर दिया है तो वह रोती हुई भाग कर सर्व समस्या निवारण केंद्र ज्योतिषाचार्यजी के पास अपनी समस्या के निवारण के लिए जा पहुंची, लेकिन आचार्यजी ने अवंतिका से बिना चढ़ावा चढ़ाए मिलने से इनकार कर दिया. तब जा कर आज अवंतिका को यह स्पष्ट हो पाया कि आचार्यजी के लिए उस की समस्या या उस से कोई लेनादेना नही है.

वह तो केवल एक पैसा कमाने का जरीया थी. जब तक वह चढ़ावा चढ़ाती रही आचार्यजी उस से मिलते रहे और आज उन्होंने मुंह फेर लिया. अवंतिका आचार्यजी से बिना मिले ही घर लौट आई.

संजय जब बड़ी मुश्किलों से अनुज को पुलिस से छुड़ा कर घर पहुंचा तो उस ने जो देखा उसे देख कर उस की आंखें खुली की खुली रह गईं, उस ने देखा अवंतिका घर में रखा सारे टोटकों का सामान बाहर फेंक रही थी जो उस ने स्वयं ही घर की सुखशांति, बच्चों की पढ़ाई और उस की प्रमोशन के लिए रखा था.

संजय और अनुज को देखते ही अवंतिका दौड़ कर उन के करीब आ गई और

उस ने अनुज को अपने गले से लगा लिया. उस के बाद वह अनुज की उंगलियों और गले से वे सारे रत्न निकाल कर फेंकने लगी जो ज्योतिषाचार्य के द्वारा दिए गए थे.

सारे रत्न और टोटकों के सामान फेंकने के उपरांत अवंतिका हाथ जोड़ कर संजय से बोली, ‘‘मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं भटक गई थी. जिस परिवार की सलामती के लिए सुख, शांति और खुशहाली के लिए मैं ज्योतिष, आचार्य और रत्नों को महत्त्व देती रही, उन के पीछे भागती रही वह मेरी मूर्खता थी, अज्ञानता थी. मैं अंधविश्वास में कुछ इस तरह से पागल थी कि मैं एक भ्रमजाल में फंस गई थी, लेकिन अब मैं समझ चुकी हूं कि अंधविश्वास एक ऐसा जहर है जो किसी भी खुशहाल परिवार में घुल जाए तो उस परिवार को पूरी तरह बरबाद कर देता है, तबाह कर देता और ये ज्योतिषाचार्य, साधु, संत, महात्मा, आचार्य अपना उल्लू सीधा करने के लिए, अपनी जेबें भरने के लिए हमारी भावनाओं के साथ, हमारी आस्था और विश्वास के साथ खेलते हैं. मैं आप से वादा करती हूं कि अब मैं कभी किसी ज्योतिषी, आचार्य या रत्नों के चक्कर में नहीं पड़ूंगी. केवल अपने घरपरिवार और बच्चों पर ध्यान दूंगी.’’

अवंतिका से ये सब सुन संजय ने हंसते हुए अवंतिका को गले से लगा लिया और फिर बोला, ‘‘जब जागो तभी सवेरा.’’

मजुरिया का सपना : कैसे पूरा हुआ उस का सपना

लेखिका- डा. सुजाता विरेश

‘‘बहनजी, इन का भी दाखिला कर लो. सुना है कि यहां रोज खाना मिलता है और वजीफा भी,’’ 3 बच्चों के हाथ पकड़े, एक बच्चा गोद में लिए एक औरत गांव के प्राइमरी स्कूल में बच्चों का दाखिला कराने आई थी.

‘‘हांहां, हो जाएगा. तुम परेशान मत हो,’’ मैडम बोली. ‘‘बहनजी, फीस तो नहीं लगती?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘नहीं. फीस नहीं लगती. अच्छा, नाम बताओ और उम्र बताओ बच्चों की. कौन सी जमात में दाखिला कराओगी?’’ ‘‘अब बहनजी, लिख लो जिस में ठीक समझो.‘‘बड़ी बेटी का नाम मजुरिया है. इस की उम्र 10 साल है. ये दोनों दिबुआ और शिबुआ हैं. छोटे हैं मजुरिया से,’’ बच्चों की मां ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘नाम मंजरी. उम्र 8 साल. देव. उम्र 7 साल और शिव. उम्र 6 साल. मजुरिया जमात 2 में और देव व शिव का जमात एक में दाखिला कर लिया है. अब मैं तुम्हें मजुरिया नहीं मंजरी कह कर बुलाऊंगी,’’ मैडम ने कहा.

मजुरिया तो मानो खुशी से कूद पड़ी, ‘‘मंजरी… कितना प्यारा नाम है. अम्मां, अब मुझे मंजरी कहना.’’ ‘‘अरे बहनजी, मजुरिया को मंजरी बना देने से वह कोई रानी न बन जाएगी. रहेगी तो मजदूर की बेटी ही,’’ मजुरिया की अम्मां ने दुखी हो कर कहा.

‘‘नहीं अम्मां, मैं अब स्कूल आ गई हूं, अब मैं भी मैडम की तरह बनूंगी. फिर तू खेत में मजदूरी नहीं करेगी,’’ मंजरी बनते ही मजुरिया अपने सपनों को बुनने लगी थी. मजुरिया बड़े ध्यान से पढ़ती और अम्मां के काम में भी हाथ बंटाती.

मजुरिया पास होती गई. उस के भाई धक्का लगालगा कर थोड़ाबहुत पढ़े, पर मजुरिया को रोकना अब मुश्किल था. वह किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देती थी और अपनी मैडम की चहेती बन गई थी. ‘‘मंजरी, यह लो चाबी. स्कूटी की डिक्की में से मेरा लंच बौक्स निकाल कर लाना तो. पानी की बोतल भी है,’’ एक दिन मैडम ने उस से कहा.

मजुरिया ने आड़ीतिरछी कर के डिक्की खोल ही ली. उस ने बोतल और लंच बौक्स निकाला. वह सोचने लगी, ‘जब मैं पढ़लिख कर मैडम बनूंगी, तो मैं भी ऐसा ही डब्बा लूंगी. उस में रोज पूरी रख कर लाया करूंगी. ‘मैं अम्मां के लिए साड़ी लाऊंगी और बापू के लिए धोतीकुरता.’

मजुरिया मैडम की बोतल और डब्बा हाथ में लिए सोच ही रही थी कि मैडम ने आवाज लगाई, ‘‘मंजरी, क्या हुआ? इतनी देर कैसे लगा दी?’’ ‘‘आई मैडम,’’ कह कर मजुरिया ने मैडम को डब्बा और बोतल दी और किताब खोल कर पढ़ने बैठ गई.

अब मजुरिया 8वीं जमात में आ गई थी. वह पढ़ने में होशियार थी. उस के मन में लगन थी. वह पढ़लिख कर अपने घर की गरीबी दूर करना चाहती थी. उस की मां मजुरिया को जब नए कपड़े नहीं दिला पाती, तो वह हंस कर कहती, ‘‘तू चिंता मत कर अम्मां. एक बार मैं नौकरी पर लग जाऊं, फिर सब लोग नएनए कपड़े पहनेंगे.’’

‘‘अरे, खुली आंख से सपना न देख. अब तक तो तेरी फीस नहीं जाती है. कौपीकिताबें मिल जाती हैं. सो, तू पढ़ रही है. इस से आगे फीस देनी पड़ेगी.’’ अम्मां मजुरिया की आंखों में पल रहे सपनों को तोड़ना नहीं चाहती थी, पर उस के मजबूत इरादों को थोड़ा कम जरूर करना चाहती थी. वह जानती थी कि अगर सपने कमजोर होंगे, तो टूटने पर ज्यादा दर्द नहीं देंगे.

और यही हुआ. मजुरिया की 9वीं जमात की फीस उस की मैडम ने अपने ही स्कूल के सामने चल रहे सरकारी स्कूल में भर दी. मजुरिया तो खुश हो गई, लेकिन कोई भी मजुरिया आज तक इस स्कूल

में पढ़ने नहीं आई थी. एक दिन जब मजुरिया स्कूल पढ़ने गई और वहां के टीचरों ने उस की पढ़ाई की तारीफ की, तो वहां के ठाकुर बौखला गए. ‘‘ऐ मजुरिया की अम्मां, उधार बहुत बढ़ गया है. कैसे चुकाएगी?’’

‘‘मालिक, हम दिनरात आप के खेत पर काम कर के चुका देंगे.’’ ‘‘वह तो ठीक है, पर अकेले तू कितना पैसा जमा कर लेगी? मजुरिया को क्यों पढ़ने भेज रही है? वह तुम्हारे काम में हाथ क्यों नहीं बंटाती है?’’ इतना कह कर ठाकुर चले गए.

मजुरिया की अम्मां समझ गई कि निशाना कहां था. लेकिन इन सब से बेखबर मजुरिया अपनी पढ़ाई में खुश थी. पर कोई और भी था, जो उस के इस ख्वाब से खुश था. पल्लव, बड़े ठाकुर का बेटा, जो मजुरिया से एक जमात आगे गांव से बाहर के पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. वह मजुरिया को उस के स्कूल तक छोड़ कर आगे अपने स्कूल जाता था.

‘‘तू रोज इस रास्ते से क्यों स्कूल जाता है? तुझे तो यह रास्ता लंबा पड़ता होगा न?’’ मजुरिया ने पूछा. ‘‘हां, सो तो है, पर उस रास्ते पर तू नहीं होती न. तू उस रास्ते से आने लगे, तो मैं भी उसी से आऊंगा,’’ पल्लव ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘न बाबा न, वहां तो सारे ठाकुर रहते हैं. बड़ीबड़ी मूंछें, बाहर निकली हुई आंखें,’’ मजुरिया ने हंस कर कहा. ‘‘अच्छा, तो तू ठाकुरों से डरती है?’’ पल्लव ने पूछा.

‘‘हां, पर मुझे ठकुराइन अच्छी लगती हैं.’’

‘‘तू ठकुराइन बनेगी?’’ ‘‘मैं कैसे बनूंगी?’’

‘‘मुझ से शादी कर के,’’ पल्लव ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘तू पागल है. जा, अपने स्कूल. मेरा स्कूल आ गया है,’’ मजुरिया ने पल्लव को धकेलते हुए कहा और हंस कर स्कूल भाग गई.

उस दिन मजुरिया के घर आने पर उस की अम्मां ने कह दिया, ‘‘आज से स्कूल जाने की जरूरत नहीं है. ठाकुर का कर्ज बढ़ता जा रहा है. अब तो तुझे स्कूल में खाना भी नहीं मिलता है. कल से मेरे साथ काम करने खेत पर चलना.’’ मजुरिया टूटे दिल से अम्मां के साथ खेत पर जाने लगी.

वह 2 दिन से स्कूल नहीं गई, तो पल्लव ने खेत पर आ कर पूछा, ‘‘मंजरी, तू स्कूल क्यों नहीं जा रही है? क्या मुझ से नाराज है?’’ ‘‘नहीं रे, ठाकुर का कर्ज बढ़ गया है. अम्मां ने कहा है कि दिनरात काम करना पड़ेगा,’’ कहते हुए मजुरिया की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘तू परेशान मत हो. मैं तुझे घर आ कर पढ़ा दिया करूंगा,’’ पल्लव ने कहा, तो मजुरिया खुश हो उठी. अम्मां जानती थी कि ठाकुर का बेटा उन के घर आ कर पढ़ाएगा, तो हंगामा होगा. पर वह छोटे ठाकुर की यह बात काट नहीं सकी.

पल्लव मजुरिया को पढ़ाने घर आने लगा. लेकिन उन के बीच बढ़ती नजदीकियों से अम्मां घबरा गई. अम्मां ने अगले दिन पल्लव से घर आ कर पढ़ाने से मना कर दिया. मजुरिया कभीकभी समय मिलने पर स्कूल जाती थी. पल्लव रास्ते में उसे मिलता और ढेर सारी बातें करता. कब

2 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला. आज मजुरिया का 10वीं जमात का रिजल्ट आएगा. उसे डर लग रहा था.

पल्लव तेजी से साइकिल चलाता हुआ गांव में घुसा, ‘‘मजुरिया… मजुरिया… तू फर्स्ट आई है.’’ मजुरिया हाथ में खुरपी लिए दौड़ी, उस का दुपट्टा उस के कंधे से उड़ कर दूर जा गिरा. उस ने पल्लव के हाथ से अखबार पकड़ा और भागते हुए अम्मां के पास आई, ‘‘अम्मां, मैं फर्स्ट आई हूं.’’

अम्मां ने उस के हाथ से अखबार छीना और हाथ पकड़ कर घर ले गई. पर उस की आवाज बड़े ठाकुर के कानों तक पहुंच ही गई. ‘‘मजुरिया की मां, तेरी लड़की जवान हो गई है. अब इस से खेत पर काम मत करवा. मेरे घर भेज दिया कर…’’ ठाकुर की बात पूरी नहीं हो पाई थी, उस से पहले ही अम्मां ने उसे घूर कर देखा, ‘‘मालिक, हम खेतिहर मजदूर हैं. किसी के घर नहीं जाते,’’ इतना कह कर अम्मां घर चली गई.

घर पर अम्मां मजुरिया को कमरे में बंद कर प्रधान के घर गई. उन की पत्नी अच्छी औरत थीं और उसे अकसर बिना सूद के पैसा देती रहती थीं. ‘‘मालकिन, मजुरिया के लायक कोई लड़का है, तो बताओ. हम उस के हाथ पीले करना चाहते हैं.’’

प्रधानजी की पत्नी हालात भांप गईं. ‘‘हां मजुरिया की अम्मां, मेरे मायके में रामदास नौकर है. पुरखों से हमारे यहां काम कर रहे हैं. उस का लड़का है. एक टांग में थोड़ी लचक है, उस से शादी करवा देते हैं. छठी जमात पास है.

‘‘अगर तू कहे, तो आज ही फोन कर देती हूं. मेरे पास 2-3 कोरी धोती रखी हैं. तू परेशान मत हो, बाकी का इंतजाम भी मैं कर दूंगी.’’ मजुरिया की अम्मां हां कह कर घर आ गई.

7वें दिन बैलगाड़ी में दूल्हे समेत 3 लोग मजुरिया को ब्याहने आ गए. बिना बाजे और शहनाई के मजुरिया

को साड़ी पहना कर बैलगाड़ी में बैठा दिया गया. मजुरिया कुछ समझ पाती, तब तक बैलगाड़ी गांव से बाहर आ गई. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई और बैलगाड़ी से कूद कर गांव के थाने में पहुंच गई.

‘‘कुछ लोग मुझे पकड़ कर ले जा रहे हैं,’’ मजुरिया ने थानेदार को बताया. पुलिस ने मौके पर आ कर उन्हें बंद कर दिया. मजुरिया गांव वापस आ गई. जब सब को पता चला, तो उसे बुराभला कहने लगे. मां ने उसे पीट कर घर में बंद कर दिया.

मजुरिया के घर पर 2 दिन से न तो चूल्हा जला और न ही वे लोग घर से बाहर निकले. पल्लव छिप कर उस के लिए खाना लाया. उस ने समझाया, ‘‘देखो मंजरी, तुम्हें ख्वाब पूरे करने के लिए थोड़ी हिम्मत दिखानी पड़ेगी. बुजदिल हो कर, रो कर तुम अपने सपने पूरे नहीं कर सकोगी…’’

पल्लव के इन शब्दों ने मजुरिया को ताकत दी. वह अगले दिन अपनी मैडम के घर गई. उन्होंने उसे 12वीं जमात का फार्म भरवाया. इस के बाद पल्लव मंजरी को रास्ता दिखाता रहा और उस ने बीए कर लिया. पल्लव की नौकरी लग गई.

‘‘मंजरी, मैं अहमदाबाद जा रहा हूं. क्या तुम मुझ से शादी कर के मेरी ठकुराइन बनोगी?’’ पल्लव ने मंजरी का हाथ पकड़ कर कहा. ‘‘अगर मैं ने दिल की आवाज सुनी और तुम्हारे साथ चल दी, तो फिर कभी कोई मजुरिया दोबारा मंजरी बनने का ख्वाब नहीं देख पाएगी. फिर कभी कोई टीचर किसी मजुरिया को मंजरी बनाने की कोशिश नहीं करेगी.

‘‘एक मंजरी का दिल टूटने से अगर हजार मजुरियों के सपने पूरे होते हैं, तो मुझे यह मंजूर है,’’ मजुरिया ने कड़े मन से अपनी बात कही. पल्लव समझ गया और उसे जिंदगी में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे कर वहां से चला गया.

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