Hindi Moral Tales : थैंक्यू मम्मीपापा – बेटे के लिए क्या तरकीब निकाली?

Hindi Moral Tales : ‘‘हां, बोलो तानिया, कैसी हो,’’ फोन उठाते ही वरुण ने तानिया का स्वर पहचान लिया.

‘‘मैं तो ठीक हूं, पर तुम्हारी क्या समस्या है वरुण?’’ तानिया ने तीखे स्वर में पूछा.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘वह तो तुम्हीं जानो पर तुम से बात करना तो असंभव होता जा रहा है. घर पर फोन करो तो मिलते नहीं हो. मोबाइल हमेशा बंद रहता है,’’ तानिया ने शिकायत की.

‘‘आज पूरा दिन बहुत व्यस्त था. बौस के साथ एक के बाद एक मीटिंगों का ऐसा दौर चला कि सांस लेने तक की फुरसत नहीं थी. मीटिंग में मोबाइल तो बंद रखना ही पड़ता है,’’ वरुण ने सफाई दी.  ‘‘बनाओ मत मुझे. तुम जानबूझ कर बात नहीं करना चाहते. मैं क्या जानती नहीं कि तुम अपनी कंपनी के उपप्रबंध निदेशक हो. तुम्हें फोन पर बात करने से कौन मना कर सकता है?’’

‘‘प्रश्न किसी और के मना करने का नहीं है पर जो नियमकायदे दूसरों के लिए बनाए गए हैं, उन का पालन सब से पहले मुझे ही करना पड़ता है,’’ वरुण ने सफाई दी.

‘‘यह सब मैं कुछ नहीं जानती. पर मैं बहुत नाराज हूं. फोन करकर के थक गई हूं मैं.’’

‘‘छोड़ो ये गिलेशिकवे और बताओ कि किसलिए इतनी बेसब्री से फोन पर संपर्क साधा जा रहा था?’’

‘‘वाह, बात तो ऐसे कर रहे हो जैसे कुछ जानते ही नहीं. याद है, आज संदीप ने तुम्हारे स्वागत में बड़ी पार्टी का आयोजन किया है.’’

‘‘याद रहने, न रहने से कोई अंतर नहीं पड़ता. मैं ने पहले ही कहा था कि मैं पार्टी में नहीं आ रहा. आज मैं बहुत व्यस्त हूं. व्यस्त न होता तो भी नहीं आता. मुझे पार्टियों में जाना पसंद नहीं है.’’

‘‘क्या कह रहे हो? संदीप बुरा मान जाएगा. उस ने यह पार्टी विशेष रूप से तुम्हारे लिए ही आयोजित की है.’’

‘‘जरा सोचो तानिया, पिछले 10 दिन में हम जब भी मिले हैं, किसी न किसी पार्टी में ही मिले हैं. तुम्हें नहीं लगता कि कभी हम दोनों अकेले में ढेर सारी बातें करें. एकदूसरे को जानेंसमझें?’’

‘‘कितने पिछड़े विचार हैं तुम्हारे, बातें तो हम पार्टी में भी कर सकते हैं और एकदूसरे को जाननेसमझने को तो पूरा जीवन पड़ा है,’’ तानिया ने अपने विचार प्रकट किए तो वरुण बुरी तरह झल्ला गया. पर वह कोई कड़वी बात कह कर कोई नई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था.

‘‘ठीक है, तो फिर कभी मिलेंगे. बहुत सारी बातें करनी हैं तुम से,’’ वरुण ने लंबी सांस ली थी.

‘‘क्या, पार्टी में नहीं आ रहे तुम?’’ तानिया चीखी.

‘‘नहीं.’’

‘‘ऐसा मत कहो, तुम्हें मेरी कसम. आज की पार्टी में तुम्हारी मौजूदगी बेहद जरूरी है.’’

‘‘केवल एक ही शर्त पर मैं पार्टी में आऊंगा कि आज के बाद तुम मुझे किसी दूसरी पार्टी में नहीं बुलाओगी,’’ वरुण अपना पीछा छुड़ाने की नीयत से बोला था.

‘‘जैसी आप की आज्ञा महाराज,’’ तानिया नाटकीय अंदाज में हंस कर बोली.  वरुण पार्टी में पहुंचा तो वहां की तड़कभड़क देख कर दंग रह गया था. ज्यादातर युवतियां पारदर्शी, भड़काऊ परिधानों में एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा करती नजर आ रही थीं.

तानिया को देख कर पहली नजर में तो वरुण पहचान ही नहीं सका. कुछ देर के लिए तो वह उसे देखता ही रह गया था.

‘‘अरे, ऐसे आश्चर्य से क्या घूर रहे हो?’’ तानिया खिलखिलाई थी, ‘‘कैसा लग रहा है मेरा नया रूपरंग? आज का यह नया रूपरंग, साजसिंगार खासतौर पर तुम्हारे लिए है. बालों का यह नया अंदाज देखो और यह नई ड्रैस. इसे आज के मशहूर डिजाइनर सुशी से डिजाइन करवाया है,’’ तानिया सब के सामने अपनी प्रदर्शनी कर रही थी. पर वरुण के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला था.

‘‘क्या कर रही हो तुम? क्यों लोगों के सामने अपना तमाशा बना रखा है तुम ने. अपना नहीं तो कम से कम मेरे सम्मान का खयाल करो,’’ वरुण उसे एक ओर ले जा कर बोला था.

‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम तो ऐसे नाराज हो रहे हो जैसे मैं ने कोई अपराध कर डाला होे. खुद तो कभी मेरी प्रशंसा में दो शब्द बोलते नहीं हो और मेरे पूछने पर यों मुंह फुला लेते हो,’’ तानिया आहत स्वर में बोली थी.

‘‘तुम्हें दुखी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था. पर फिर भी…’’

‘‘फिर भी क्या?’’

‘‘मैं अपनी भावी पत्नी से थोड़े शालीन व्यवहार की उम्मीद रखता हूं और तुम्हारी यह ड्रैस? इस के बारे में जो न कहा जाए वह कम है,’’ वरुण शायद कुछ और भी कहता कि तभी संदीप अपने 2 दूसरे मित्रों के साथ आ गया था.

‘‘हैलो वरुण,’’ संदीप ने बड़ी गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया था.

‘‘आज आप को यहां देख कर मुझे असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है. मैं ने यह पार्टी आप के सम्मान में आयोजित की है. आप के न आने से इस सब तामझाम का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता,’’ संदीप ने कहा और वहां मौजूद अतिथियों से उस का परिचय कराने लगा. तानिया भी उस के साथ ही अपने दोस्तों से वरुण का परिचय करा रही थी.

‘‘इन से मिलिए, ये हैं डा. पंकज राय. शल्य चिकित्सक होने के साथ ही तानिया के अच्छे मित्र भी हैं,’’ एक युवक से परिचय कराते हुए कुछ ठिठक सा गया था संदीप.  ‘‘डा. पंकज से इन का परिचय मैं स्वयं कराऊंगी. मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं. 2 वर्ष तक हम दोनों साथ रहे हैं. एकदूसरे को जाननेसमझने का प्रयत्न किया. जब लगा कि हम एकदूसरे के लिए बने ही नहीं हैं तो अलग हो गए,’’ तानिया ने विस्तार से डा. पंकज का परिचय दिया.  ‘‘तानिया ठीक कहती है. मैं ने तो इसे सलाह दी थी कि हमारे साथ रहने की बात आप को न बताए. पर यह कहने लगी कि आप संकीर्ण मानसिकता के व्यक्ति नहीं हैं. वैसे भी आजकल तो यह सब आधुनिक जीवन का हिस्सा है,’’

डा. पंकज ने अपने विचार प्रकट किए थे.  कुछ क्षणों के लिए तो वरुण को लगा कि उस का मस्तिष्क किसी प्रहार से सुन्न हो गया है. पर दूसरे ही क्षण उस ने खुद को संभाल लिया. वह कोई भी उलटीसीधी हरकत कर के लोगोें के उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.  पर मन में एक फांस सी गड़ गई थी जो लाख प्रयत्न करने पर भी निकल नहीं रही थी. अच्छा था कि वरुण के चेहरे के बदलते भावों को किसी ने नहीं देखा.

हाथ में शीतल पेय का गिलास थामे वह एक ओर पड़े सोफे पर बैठ गया.  पिछले कुछ समय की घटनाएं चलचित्र की तरह वरुण के मानसपटल से टकरा रही थीं. 10-12 दिन पहले ही बड़ी धूमधाम से तानिया से उस की सगाई हुई थी. बड़े से पांचसितारा होटल में मानो आधा शहर ही उमड़ आया था. तानिया के पिता जानेमाने व्यवसायी थे. विधानपरिषद के सदस्य होने के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में उन की अच्छी पैठ थी. सगाई से पहले वरुण 3-4 बार तानिया से मिला था. उसे लगा कि तानिया ही उस के सपनों की रानी है, जिस की उसे लंबे समय से प्रतीक्षा थी. अपने सुंदर रंगरूप और खुले व्यवहार से किसी को भी आकर्षित कर लेना तानिया के बाएं हाथ का खेल था.  वरुण के मातापिता ने तानिया को देखते ही पसंद कर लिया था. वरुण का परिवार भी शहर के संपन्न परिवारों में गिना जाता था. पर उस के मातापिता ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के पक्षधर थे. सगाई के अवसर की तड़कभड़क देख कर उस के मित्रों और संबंधियों ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. वरुण और उस के मातापिता ने भी इसे स्वाभाविक रूप से ही लिया था. पर अब वरुण को लग रहा था कि सबकुछ बहुत जल्दबाजी में हो गया. उसे तानिया को अच्छी तरह जाननेसमझने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए था.  तानिया की कई सहेलियां व दोस्त थे. उस ने खुद ही वरुण को सबकुछ स्पष्ट रूप से बता दिया था. शायद उस के इस खुले स्वभाव ने ही प्रारंभ में उसे प्रभावित किया था. आज जब युवा खुलेआम एकदूसरे से मिलतेजुलते हैं तो उन में मित्रता होना स्वाभाविक है. वह अब तक स्वयं को खुली मानसिकता का व्यक्ति समझता था, पर आज की घटना ने उसे पूर्ण रूप से उद्वेलित कर दिया था.

हर समय अपने पुरुष मित्रों की बातें करना, उन के गले में बाहें डाल कर घूमना, उन के साथ बेशर्मी से हंसना, खिलखिलाना, तानिया के ऐसे व्यवहार को वह सहजता से नहीं ले पा रहा था. मन ही मन स्वयं को भी झिड़क देता था.  ‘समय बहुत तेजी से बदल रहा है वरुण राज. उस के कदम से कदम मिला कर नहीं चले तो औंधे मुंह गिरोगे,’ वह खुद को ही समझाता. कभीकभी तो उसे लगता मानो वह संकीर्ण मानसिकता का शिकार है, जो आधुनिकता का जामा पहन कर भी स्त्री की स्वतंत्रता को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं आ सका.  पर आज नहीं, आज तो उसे लगा कि यह उस की सहनशक्ति से परे है. वह इतना आधुनिक भी नहीं हुआ कि समाज की समस्त वर्जनाओं को अस्वीकार कर के उच्छृंखल जीवनशैली अपना ले. उस के धीरगंभीर स्वभाव और अनुशासित जीवनशैली की सभी प्रशंसा करते थे.

धीरेधीरे सबकुछ शीशे की तरह साफ होता जा रहा था. वरुण को लगने लगा कि उसे ग्लैमर की गुडि़या नहीं जीवनसाथी चाहिए, जो शायद तानिया चाह कर भी नहीं बन सकेगी.  वरुण अपने गंभीर खयालों में खोया था कि एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में गिलास थामे तानिया लहराती हुई आई.  ‘‘हे, वरुण, तुम यहां बैठे हो? मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. चलो न, डांस करेंगे,’’ वरुण को देखते ही उस ने आग्रह किया था.  वरुण तुरंत ही उठ खड़ा हुआ था. ‘‘तानिया यह सब क्या है? तुम तो कह रही थीं कि तुम तो सिगरेटशराब को छूती तक नहीं?’’ वरुण ने तीखे स्वर में प्रश्न किया था.  ‘‘मैं तो अब भी वही कह रही हूं. यह सिगरेट तो केवल अदा के लिए है. मुझे तो एक कश लेते ही इतने जोर की खांसी उठती है कि सांस लेना कठिन हो जाता है. तुम भी लो न. अच्छा लगता है. दोनों साथ में फोटो खिचवाएंगे. और यह तो केवल शैंपेन है, महिलाओें का पेय.’’

‘‘धन्यवाद, मैं ऐसे अंदाज दिखाने में विश्वास नहीं रखता,’’ वरुण ने मना किया तो तानिया उसे डांसफ्लोर तक खींच ले गई. तानिया देर तक वहां थिरकती रही, वरुण ने कुछ देर उस का साथ देने का प्रयत्न किया फिर कक्ष से बाहर आ गया. बाहर की ठंडी सुगंधित मंद पवन ने उसे बड़ी राहत दी. वह कुछ देर वहीं बैठ कर आकाश में बनतीबिगड़ती आकृतियों को देखता रहा.  पीनेपिलाने, नाचनेगाने और देर रात तक पार्टी गेम्स खेलने के बाद जब भोजन शुरू हुआ तो सुबह के 4 बज गए थे. वरुण की भूख मर चुकी थी.  तानिया से विदा ले कर जब तक घर पहुंचा तो पौ फटने लगी थी.

‘‘यह घर आने का समय है?’’ उस की मां शोभा देवी झल्लाई थीं.

‘‘मां, तानिया के मित्रों की पार्टी थी. रात भर गहमागहमी चलती रही. मैं थोड़ी देर सो जाता हूं. 3 घंटे के बाद जगा देना. 9 बजे तक कार्यालय पहुंचना है. आवश्यक कार्य है,’’ थके उनींदे स्वर में बोल कर वरुण अपने कमरे में सोने चला गया.  ‘‘आ गया तुम्हारा बेटा?’’ प्रात: टहलने के लिए तैयार हो रहे वरुण के पिता मनोहर ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में पत्नी से कहा. ‘‘हां, आ गया,’’ शोभा ने बुझे स्वर में कहा था.

‘‘देख लो, साहबजादे के लक्षण ठीक नजर नहीं आ रहे.’’

‘‘हम दोनों चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. पढ़ालिखा समझदार है वरुण. अच्छे पद पर है. विवाह भी हम ने उस की पसंद पर छोड़ दिया है. सब देखसुन कर उस ने तानिया को पसंद किया था. पढ़ीलिखी सुंदर स्मार्ट लड़की है. दोनों आनंद से जीवन बिताएं, इस से अधिक हमें क्या चाहिए.’’

‘‘वह भी होता नजर नहीं आ रहा. तुम्हें नहीं लगता कि हमारे और उन के सामाजिक स्तर में बड़ा अंतर है.’’

‘‘होंगे वे बड़े लोग, हम भी उन से किसी बात में कम नहीं हैं. वैसे भी यदि वरुण प्रसन्न है तो तुम क्यों अपना दिल जला रहे हो,’’ शोभा ने बात को वहीं विराम देना चाहा था.

‘‘वह भी ठीक है. काजीजी दुबले क्यों…’’ ठहाका लगाते हुए मनोहर बाबू टहलने के लिए पार्क की ओर चल पड़े.

कुछ दिन इसी ऊहापोह में बीत गए. वरुण अंतर्मुखी होता जा रहा था.  उस दिन डिनर के समय वरुण अपने ही विचारों में खोया हुआ था. शोभा देवी कुछ देर तक उसे ध्यान से देखती रही थीं.

‘‘वरुण,’’ उन्होंने धीमे स्वर में पुकारा.

‘‘हां, मां, कहिए न, क्या बात है?’’

‘‘बात क्या होगी, तेरी सगाई क्या हुई हम तो तुम से बात करने को तरस गए. बात क्या है बेटे?’’

‘‘कुछ नहीं मां. ऐसे ही कुछ सोचविचार कर रहा था.’’

‘‘सोचविचार बाद में करना. कभी हम से भी बात करने का समय निकाला करो न.’’

‘‘कैसी बात कर रही हो मां. कहिए न, क्या कहना है?’’

‘‘तानिया के पापा का फोन आया था. वे विवाह की तिथि पक्की कर के चटपट इस जिम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहते हैं.’’

‘‘ऐसी जल्दी भी क्या है मां? अभी 10 दिन पहले ही तो सगाई हुई है. थोड़े दिन साथ घूमफिर लें, एकदूसरे को समझ लें, फिर विवाह के बारे में सोचेंगे.’’

‘‘क्या कह रहा है बेटे, सगाई के बाद कोई लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं करता. वैसे भी कितना समय चाहिए तुम्हें एकदूसरे को जानने के लिए?’’ शोभा देवी हैरानपरेशान स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, हमारे विचारों में कोई समानता नहीं है. मुझे नहीं लगता कि यह विवाह एक दिन भी चल पाएगा. जीवन भर की तो कौन कहे,’’ वरुण रूखे स्वर में बोला था.

‘‘यह क्या कह रहा है बेटे? ये सब तो सगाई से पहले सोचना था.’’

‘‘उसी भूल की तो सजा पा रहा हूं मैं. सच कहूं तो सगाई के बाद से मैं ने एक दिन भी चैन से नहीं बिताया. मां, यह सगाई तोड़ दो. इस विवाह से न मैं खुश रहूंगा, न तानिया. हम दोनों के विचारों और जीवनशैली में जमीनआसमान का अंतर है.’’

शोभा देवी स्तब्ध रह गईं. जब मनोहर बाबू ने भोजन कक्ष में प्रवेश किया तो वहां बोझिल चुप्पी छाई थी.

‘‘क्या बात है. आज मांबेटे का मौनव्रत है क्या?’’ उन्होंने उपहास किया था.

‘‘मौनव्रत तो नहीं है पर पूरी बात सुनोगे तो तुम्हारे पांवों तले से धरती खिसक जाएगी,’’ शोभा देवी रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘फिर तो कह ही डालो. हम भी इस अलौकिक अनुभूति का आनंद उठा ही लें.’’

‘‘तो सुनो, वरुण तानिया से विवाह नहीं करना चाहता. चाहता है कि इस सगाई को तोड़ दिया जाए.’’

‘‘क्या? यह सच है वरुण?’’

‘‘जी पापा, मैं विवाह के बंधन को अपने लिए ऐसा पिंजरा नहीं बना सकता जिस में मेरा अस्तित्व मात्र एक परकटे पंछी सा रह जाए.’’  मनोहर बाबू यह सुन कर मौन रह गए थे. वरुण के स्वर से उस की पीड़ा स्पष्ट हो गई थी.  ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा. अभी तो केवल सगाई हुई है. यदि तुम समझते हो कि तुम दोनों की नहीं निभ सकती तो सगाई को तोड़ देने में ही सब की भलाई है.’’

मनोहर बाबू और शोभा ने तानिया के मातापिता के सामने पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी. काफी विचारविमर्श के बाद उस संबंध को वहीं समाप्त करने का निर्णय लिया गया.  दोनों पक्षों ने एकदूसरे को दी हुई वस्तुओं की अदलाबदली कर संपूर्ण प्रक्रिया की इतिश्री कर डाली.  आज बहुत दिनों के बाद शोभा देवी ने वरुण के चेहरे पर स्वाभाविक चमक देखी थी. मन में गहरी टीस होने पर भी उस के चेहरे पर संतोष था.

Hindi Story Collection : वापसी – तृप्ति अमित के पास वापस क्यों लौट आयी?

Hindi Story Collection : दिल्ली पहुंचने की घोषणा के साथ विमान परिचारिका ने बाहर का तापमान बता कर अपनी ड्यूटी खत्म की, लेकिन वीरा की ड्यूटी तो अब शुरू होने वाली थी. अंडमान निकोबार से आया जहाज जैसे ही एअरपोर्ट पर रुका, वीरा के दिल की धड़कनें यह सोच कर तेज होने लगीं कि उसे लेने क्या विजेंद्र आया होगा?

अपने ही सवालों में उलझी वीरा जैसे ही बाहर आई कि सामने से दौड़ कर आती विपाशा ‘मांमां’ कहती उस से आ कर लिपट गई.

वीरा ने भी बेटी को प्यार से गले लगा लिया.

‘5 साल में तू कितनी बड़ी हो गई,’ यह कहते समय वीरा की आंखें चारों ओर विजेंद्र को ढूंढ़ रही थीं. शायद आज भी विजेंद्र को कुछ जरूरी काम होगा. विपाशा मां को सामान के साथ एक जगह खड़ा कर गाड़ी लेने चली गई. वह सामान के पास खड़ी- खड़ी सोचने लगी.

5 साल पहले उस ने अचानक अंडमान निकोबार जाने का फैसला किया, तो  महज इसलिए कि वह विजेंद्र के बेरुखी भरे व्यवहार से तिलतिल कर मर रही थी.

विजेंद्र ने भरपूर कोशिश की कि अपनी पत्नी वीरा से हमेशा के लिए पीछा छुड़ा ले. उस ने तो कलंक के इतने लेप उस पर चढ़ाए कि कितना ही पानी से धो लो पर लेप फिर भी दिखाई दे.

यही नहीं विजेंद्र ने वीरा के सामने परेशानियों के इतने पहाड़ खड़े कर दिए थे कि उन से घबरा कर वह स्वयं विजेंद्र के जीवन से चली जाए. लेकिन वीरा हर पहाड़ को धीरेधीरे चढ़ कर पार करने की कोशिश में लगी रही.

अचानक ही अंडमान में नौकरी का प्रस्ताव आने पर वह एक बदलाव और नए जीवन की तैयारी करते हुए वहां जाने को तैयार हो गई.

अंडमान पहुंच कर वीरा ने अपनी नई नौकरी की शुरुआत की. उसे वहां चारों ओर बांहों के हार स्वागत करते हुए मिले. कुछ दिन तो जानपहचान में निकल गए लेकिन धीरेधीरे अकेलेपन ने पांव पसारने शुरू कर दिए. इधर साथ काम करने वाले मनचलों में ज्यादातर के परिवार तो साथ थे नहीं, सो दिन भर नौकरी करते, रात आते ही बोतल पी कर सोने का सहारा ढूंढ़ लेते.

छुट्टी होने पर घर और घरवाली की याद आती तो फोन घुमा कर झूठासच्चा प्यार दिखा कर कुछ धर्मपत्नी को बेवकूफ बनाते और कुछ अपने को भी. ऐसी नाजुक स्थिति में वे हर जगह हर किसी महिला की ओर बढ़ने की कोशिश करते, पट गई तो ठीक वरना भाभीजी जिंदाबाद. अंडमान में वीरा अपने कमरे की खिड़की पर बैठ कर अकसर यह नजारे देखती. कई बार बाहर आने के लिए उसे भी न्योते मिलते पर उस का पहला जख्म ही इतना गहरा था कि दर्द से वह छटपटाती रहती.

कंपनी से वीरा को रहने के लिए जो फ्लैट मिला था, उस फ्लैट के ठीक सामने पुरुष कर्मचारियों के फ्लैट थे. बूढ़ा शिवराम शर्मा भी अकसर शराब पी कर नीचे की सीढि़यों पर पड़ा दिख जाता. कैंपस के होटलों में शिवराम खाना कम खाता रिश्ते ज्यादा बनाने की कोशिश करता. उस के दोस्ती करने के तरीके भी अलगअलग होते थे. कभी धर्म के नाते तो कभी एक ही गांव या शहर का कह कर वह महिलाओं की तलाश में रहता था. शिवराम टेलीफोन डायरेक्टरी से अपनी जाति के लोगों के नाम से घरों में भी फोन लगाता. हर रोज दफ्तर में उस के नएनए किस्से सुनने को मिलते. कभीकभी उस की इन हरकतों पर वीरा को गुस्सा भी आता कि आखिर औरत को वह क्या समझता है?

कभीकभी उस का साथी बासु दा मजाक में कह देता, ‘बाबू शिवराम, घर जाने की तैयारी करो वरना कहीं भाभीजी भी किसी और के साथ चल दीं तो घर में ताला लग जाएगा,’ और यह सुनते ही शिवराम उसे मारने को दौड़ता.

3 महीने पहले आए राधू के कारनामे देख कर तो लगता था कि वह सब का बाप है. आते ही उस ने एक पुरानी सी गाड़ी खरीदी, उसे ठीकठाक कर के 3-4 महिलाओं को सुबहशाम दफ्तर लाने और वापस ले जाने लगा था. शाम को भी वह बेमतलब गाड़ी मैं बैठ कर यहांवहां घूमता फिरता.

एक दिन अचानक एक जगह पर लोगों की भीड़ देख कर यह तो लगा कि कोई घटना घटी है लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ छंटने पर पता चला कि राधू ने किसी लड़की को पटा कर अपनी कार में लिफ्ट दी और फिर उस के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी तो लड़की ने शोर मचा दिया. जब भीड़ जमा हो गई तो उस ने राधू को ढेरों जूते मारे.

वीरा अकसर सोचती कि आखिर यह मर्दों की दुनिया क्या है? क्यों औरत को  बेवकूफ समझा जाता है. दफ्तर में भी वीरा अकसर सब के चेहरे पढ़ने की कोशिश करती. सिर्फ एकदो को छोड़ कर बाकी के सभी एक पल का सुख पाने के लिए भटकते नजर आते.

वीरा की रातें अकसर आकाश को देखतेदेखते कट जातीं. जीने की तलाश में अंडमान आई वीरा को अब धरती का यह हिस्सा भी बेगाना सा लग रहा था. बहुत उदास होने पर वह अपनी बेटी विपाशा से बात कर लेती. फोन पर अकसर विपाशा मां को समझाती रहती, उस को सांत्वना देती.

5 साल बाद विजेंद्र ने बेटी विपाशा के माध्यम से वीरा को वापस आने का न्योता भेजा, तो वह अकसर यही सोचती, ‘आखिर क्या करे? जाए या न जाए. पुरुषों की दुनिया तो हर जगह एक सी ही है.’ आखिरकार बेटी की ममता के आगे वीरा, विजेंद्र की उस भूल को भी भूल गई, जिस के लिए उस ने अलग रहने का फैसला किया था.

वीरा को याद आया कि घर छोड़ने से पहले उस ने विजेंद्र से कहा था कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है, कभी अगर मेरे कदम डगमगाने लगें या मुझे जीवन में कभी किसी मर्द की जरूरत पड़ी तो वापस तुम्हारे पास लौट आऊंगी. आखिर हर जगह के आदमी तो एक जैसे ही हैं. इस राह पर सब एक पल के लिए भटकते हैं और वह भटका हुआ एक पल क्या से क्या कर देता है.

कभी वीरा सोचती कि बेटी के कहने का मान ही रख लूं. आज वह ममता की भूखी, मानसम्मान से बुला रही है, कहीं ऐसा न हो, कल को उसे भी मेरी जरूरत न रहे.

अचानक वीरा के कानों में विपाशा के स्वर उभरे, ‘‘मां, तुम कहां खोई हो जो तुम्हें गाड़ी का हार्न भी नहीं सुनाई पड़ रहा है.’’

वीरा हड़बड़ाती हुई गाड़ी की ओर बढ़ी. घर पहुंच कर विपाशा परी की तरह उछलने लगी. कमला से चाय बनवा कर ढेर सारी चीजों से मेज सजा दी.

सामने से आते हुए विजेंद्र ने एक पल को उसे देखा, उस की आंखों में उसे बेगानापन नजर आया. घर का भी एक अजीब सा माहौल लगा. हालांकि गीतांजलि अब  विजेंद्र के जीवन से जा चुकी थी, फिर भी वीरा को जाने क्यों अपने लिए शून्यता नजर आ रही थी. हां, विपाशा की हंसी जरूर उस के दिल को कुछ तसल्ली दे देती.

वह कई बार अपनेआप से ही बातें करती कि ऊपरी तौर पर वह लोगों के लिए प्रतिभासंपन्न है लेकिन हकीकत में वह तिनकातिनका टूट चुकी थी. जीने के लिए विपाशा ही उस की एकमात्र आशा थी.

विजेंद्र की कुछ मीठी यादों के सहारे वीरा अपना दुख भूलने की कोशिश करती, वह तो बेटी के प्रति मां की ममता थी जिस की खुशी के लिए उस ने अपनी वापसी स्वीकार कर ली थी. वह सोेचती, जब जीना ही है तो क्यों न अपने इस घर के आंगन में ही जियूं, जहां दुलहन बन के आई थी.

वीरा की वापसी से विपाशा की खुशी में जो इजाफा हुआ उसे देख कर काम वाली दादी अकसर कहती, ‘‘बेटा, निराश मत हो. विजेंद्र एक बार फिर से वही विजेंद्र बन जाएगा, जो शादी के कुछ सालों तक था. मैं जानती हूं कि तुम्हें विजेंद्र की जरूरत है और विपाशा को तुम्हारी. क्या तुम विपाशा की खुशी के लिए विजेंद्र की वापसी का इंतजार नहीं कर सकतीं?

‘‘आखिर तुम विपाशा की मां हो और समाज ने जो अधिकार मां को दिए हैं वह बाप को नहीं दिए. तुम्हारी वापसी इस घर के बिखरे तिनकों को फिर से जोड़ कर घोंसले का आकार देगी. खुद पर भरोसा रखो, बेटी.’’

लेखक- बीना बुदकी 

Famous Hindi Stories : मझधार – हमेशा क्यों चुपचाप रहती थी नेहा ?

Famous Hindi Stories :  पूरे 15 वर्ष हो गए मुझे स्कूल में नौकरी करते हुए. इन वर्षों में कितने ही बच्चे होस्टल आए और गए, किंतु नेहा उन सब में कुछ अलग ही थी. बड़ी ही शांत, अपनेआप में रहने वाली. न किसी से बोलती न ही कक्षा में शैतानी करती. जब सारे बच्चे टीचर की गैरमौजूदगी में इधरउधर कूदतेफांदते होते, वह अकेले बैठे कोई किताब पढ़ती होती या सादे कागज पर कोई चित्रकारी करती होती. विद्यालय में होने वाले सारे कार्यक्रमों में अव्वल रहती. बहुमखी प्रतिभा की धनी थी वह. फिर भी एक अलग सी खामोशी नजर आती थी मुझे उस के चेहरे पर. किंतु कभीकभी वह खामोशी उदासी का रूप ले लेती. मैं उस पर कई दिनों से ध्यान दे रही थी. जब स्पोर्ट्स का पीरियड होता, वह किसी कोने में बैठ गुमनाम सी कुछ सोचती रहती.

कभीकभी वह कक्षा में पढ़ते हुए बोर्ड को ताकती रहती और उस की सुंदर सीप सी आंखें आंसुओं से चमक उठतीं. मेरे से रहा न गया, सो मैं ने एक दिन उस से पूछ ही लिया, ‘‘नेहा, तुम बहुत अच्छी लड़की हो. विद्यालय के कार्यक्रमों में हर क्षेत्र में अव्वल आती हो. फिर तुम उदास, गुमसुम क्यों रहती हो? अपने दोस्तों के साथ खेलती भी नहीं. क्या तुम्हें होस्टल या स्कूल में कोई परेशानी है?’’

वह बोली, ‘‘जी नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं. बस, मुझे अच्छा नहीं लगता. ’’

उस के इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया जहां बच्चे खेलते नहीं थकते, उन्हें बारबार अनुशासित करना पड़ता है, उन्हें उन की जिम्मेदारियां समझानी पड़ती हैं वहां इस लड़की के बचपन में यह सब क्यों नहीं? मुझे लगा, कुछ तो ऐसा है जो इसे अंदर ही अंदर काट रहा है. सो, मैं ने उस का पहले से ज्यादा ध्यान रखना शुरू कर दिया. मैं देखती थी कि जब सारे बच्चों के मातापिता महीने में एक बार अपने बच्चों से मिलने आते तो उस से मिलने कोई नहीं आता था. तब वह दूर से सब के मातापिता को अपने बच्चों को पुचकारते देखती और उस की आंखों में पानी आ जाता. वह दौड़ कर अपने होस्टल के कमरे में जाती और एक तसवीर निकाल कर देखती, फिर वापस रख देती.

जब बच्चों के जन्मदिन होते तो उन के मातापिता उन के लिए व उन के दोस्तों के लिए चौकलेट व उपहार ले कर आते लेकिन उस के जन्मदिन पर किसी का कोई फोन भी न आता. हद तो तब हो गई जब गरमी की छुट्टियां हुईं. सब के मातापिता अपने बच्चों को लेने आए लेकिन उसे कोई लेने नहीं आया. मुझे लगा, कोई मांबाप इतने गैर जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं? तब मैं ने औफिस से उस का फोन नंबर ले कर उस के घर फोन किया और पूछा कि आप इसे लेने आएंगे या मैं ले जाऊं?

जवाब बहुत ही हैरान करने वाला था. उस की दादी ने कहा, ‘‘आप अपने साथ ले जा सकती हैं.’’ मैं समझ गई थी कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है वरना इतनी प्यारी बच्ची के साथ ऐसा व्यवहार? खैर, उन छुट्टियों में मैं उसे अपने साथ ले गई. कुछ दिन तो वह चुपचाप रही, फिर धीरेधीरे मेरे साथ घुलनेमिलने लगी थी. मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी बड़ी जंग को जीतने वाली हूं. छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले वह 8वीं कक्षा में आ गई थी. उस की शारीरिक बनावट में भी परिवर्तन होने लगा था. मैं भलीभांति समझती थी कि उसे बहुत प्यार की जरूरत है. सो, अब तो मैं ने बीड़ा उठा लिया था उस की उदासी को दूर करने का. कभीकभी मैं देखती थी कि स्कूल के कुछ शैतान बच्चे उसे ‘रोतली’ कह कर चिढ़ाते थे. खैर, उन्हें तो मैं ने बड़ी सख्ती से कह दिया था कि यदि अगली बार वे नेहा को चिढ़ाते पाए गए तो उन्हें सजा मिलेगी.

हां, उस की कुछ बच्चों से अच्छी पटती थी. वे उसे अपने घरों से लौटने के बाद अपने मातापिता के संग बिताए पलों के बारे में बता रहे थे तो उस ने भी अपनी इस बार की छुट्टियां मेरे साथ कैसे बिताईं, सब को बड़ी खुशीखुशी बताया. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मंजिल का आधा रास्ता तय कर चुकी हूं. इस बार दीवाली की छुट्टियां थीं और मैं चाहती थी कि वह मेरे साथ दीवाली मनाए. सो, मैं ने पहले ही उस के घर फोन कर कहा कि क्या मैं नेहा को अपने साथ ले जाऊं छुट्टियों में? मैं जानती थी कि जवाब ‘हां’ ही मिलेगा और वही हुआ. दीवाली पर मैं ने उसे नई ड्रैस दिलवाई और पटाखों की दुकान पर ले गई. उस ने पटाखे खरीदने से इनकार कर दिया. वह कहने लगी, उसे शोर पसंद नहीं. मैं ने भी जिद करना उचित न समझा और कुछ फुलझडि़यों के पैकेट उस के लिए खरीद लिए. दीवाली की रात जब दिए जले, वह बहुत खुश थी और जैसे ही मैं ने एक फुलझड़ी सुलगा कर उसे थमाने की कोशिश की, वह नहींनहीं कह रोने लगी और साथ ही, उस के मुंह से ‘मम्मी’ शब्द निकल गया. मैं यही चाहती थी और मैं ने मौका देख उसे गले लगा लिया और कहा, ‘मैं हूं तुम्हारी मम्मी. मुझे बताओ तुम्हें क्या परेशानी है?’ आज वह मेरी छाती से चिपक कर रो रही थी और सबकुछ अपनेआप ही बताने लगी थी.

वह कहने लगी, ‘‘मेरे मां व पिताजी की अरेंज्ड मैरिज थी. मेरे पिताजी अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं, इसीलिए शायद थोड़े बदमिजाज भी. मेरी मां की शादी के 1 वर्ष बाद ही मेरा जन्म हुआ. मां व पिताजी के छोटेछोटे झगड़े चलते रहते थे. तब मैं कुछ समझती नहीं थी. झगड़े बढ़ते गए और मैं 5 वर्ष की हो गई. दिनप्रतिदिन पिताजी का मां के साथ बरताव बुरा होता जा रहा था. लेकिन मां भी क्या करतीं? उन्हें तो सब सहन करना था मेरे कारण, वरना मां शायद पिताजी को छोड़ भी देतीं.

‘‘पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि मां उन को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. पिताजी को सिगरेट पीने की बुरी आदत थी. कई बार वे गुस्से में मां को जलती सिगरेट से जला भी देते थे. और वे बेचारी अपनी कमर पर लगे सिगरेट के निशान साड़ी से छिपाने की कोशिश करती रहतीं. पिताजी की मां के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही थी और अब वे दूसरी लड़कियों को भी घर में लाने लगे थे. वे लड़कियां पिताजी के साथ उन के कमरे में होतीं और मैं व मां दूसरे कमरे में. ‘‘ये सब देख कर भी दादी पिताजी को कुछ न कहतीं. एक दिन मां ने पिताजी के अत्याचारों से तंग आ कर घर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुझे ले कर अपने मायके आ गईं. वहां उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी कर ली. मेरे नानानानी पर तो मानो मुसीबत के पहाड़ टूट पड़े. मेरे मामा भी हैं किंतु वे मां से छोटे हैं. सो, चाह कर भी कोई मदद नहीं कर पाए. जो नानानानी कहते वे वही करते. कई महीने बीत गए. अब नानानानी को लगने लगा कि बेटी मायके आ कर बैठ गई है, इसे समझाबुझा कर भेज देना चाहिए. वे मां को समझाते कि पिताजी के पास वापस चली जाएं.

‘‘एक तरह से उन का कहना भी  सही था कि जब तक वे हैं ठीक है. उन के न रहने पर मुझे और मां को कौन संभालेगा? किंतु मां कहतीं, ‘मैं मर जाऊंगी लेकिन उस के पास वापस नहीं जाऊंगी.’

‘‘दादादादी के समझाने पर एक बार पिताजी मुझे व मां को लेने आए और तब मेरे नानानानी ने मुझे व मां को इस शर्त पर भेज दिया कि पिताजी अब मां को और नहीं सताएंगे. हम फिर से पिताजी के पास उन के घर आ गए. कुछ दिन पिताजी ठीक रहे. किंतु पिताजी ने फिर अपने पहले वाले रंगढंग दिखाने शुरू कर दिए. अब मैं धीरेधीरे सबकुछ समझने लगी थी. लेकिन पिताजी के व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया. वे उसी तरह मां से झगड़ा करते और उन्हें परेशान करते. इस बार जब मां ने नानानानी को सारी बातें बताईं तो उन्होंने थोड़ा दिमाग से काम लिया और मां से कहा कि मुझे पिताजी के पास छोड़ कर मायके आ जाएं. ‘‘मां ने नानानानी की बात मानी और मुझे पिताजी के घर में छोड़ नानानानी के पास चली गईं. उन्हें लगा शायद मुझे बिन मां के देख पिताजी व दादादादी का मन कुछ बदल जाएगा. किंतु ऐसा न हुआ. उन्होंने कभी मां को याद भी न किया और मुझे होस्टल में डाल दिया. नानानानी को फिर लगने लगा कि उन के बाद मां को कौन संभालेगा और उन्होंने पिताजी व मां का तलाक करवा दिया और मां की दूसरी शादी कर दी गई. मां के नए पति के पहले से 2 बच्चे थे और एक बूढ़ी मां. सो, मां उन में व्यस्त हो गईं.

‘‘इधर, मुझे होस्टल में डाल दादादादी व पिताजी आजाद हो गए. छुट्टियों में भी न मुझे कोई बुलाता, न ही मिलने आते. मां व पिताजी दोनों के मातापिता ने सिर्फ अपने बच्चों के बारे में सोचा, मेरे बारे में किसी ने नहीं. दोनों परिवारों और मेरे अपने मातापिता ने मुझे मझधार में छोड़ दिया.’’ इतना कह कर नेहा फूटफूट कर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘आज फुलझड़ी से जल न जाऊं. मुझे मां की सिगरेट से जली कमर याद आ गई. मैडम, मैं रोज अपनी मां को याद करती हूं, चाहती हूं कि वे मेरे सपने में आएं और मुझे प्यार करें.

‘‘क्या मेरी मां भी मुझे कभी याद करती होंगी? क्यों वे मुझे मेरी दादी, दादा, पापा के पास छोड़ गईं? वे तो जानती थीं कि उन के सिवा कोई नहीं था मेरा इस दुनिया में. दादादादी, क्या उन से मेरा कोई रिश्ता नहीं? वे लोग मुझे क्यों नहीं प्यार करते? अगर मेरे पापा, मम्मी का झगड़ा होता था तो उस में मेरा क्या कुसूर? और नाना, नानी उन्होंने भी मुझे अपने पास नहीं रखा. बल्कि मेरी मां की दूसरी शादी करवा दी. और मुझ से मेरी मां छीन ली. मैं उन सब से नफरत करती हूं मैडम. मुझे कोई अच्छा नहीं लगता. कोई मुझ से प्यार नहीं करता.’’ वह कहे जा रही थी और मैं सुने जा रही थी. मैं नेहा की पूरी बात सुन कर सोचती रह गई, ‘क्या बच्चे से रिश्ता तब तक होता है जब तक उस के मातापिता उसे पालने में सक्षम हों? जो दादादादी, नानानानी अपने बच्चों से ज्यादा अपने नातीपोतों पर प्यार उड़ेला करते थे, क्या आज वे सिर्फ एक ढकोसला हैं? उन का उस बच्चे से रिश्ता सिर्फ अपने बच्चों से जुड़ा है? यदि किसी कारणवश वह बीच की कड़ी टूट जाए तो क्या उन दादादादी, नानानानी की बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? और क्या मातापिता अपने गैरजिम्मेदार बच्चों का विवाह कर एक पवित्र बंधन को बोझ में बदल देते हैं? क्या नेहा की दादी अपने बेटे पर नियंत्रण नहीं रख सकती थी और यदि नहीं तो उस ने नेहा की मां की जिंदगी क्यों बरबाद की, और क्यों नेहा की मां अपने मातापिता की बातों में आ गई और नेहा के भविष्य के बारे में न सोचते हुए दूसरे विवाह को राजी हो गई?

‘कैसे गैरजिम्मेदार होते हैं वे मातापिता जो अपने बच्चों को इस तरह अकेला घुटघुट कर जीने के लिए छोड़ देते हैं. यदि उन की आपस में नहीं बनती तो उस का खमियाजा बच्चे क्यों भुगतें. क्या हक होता है उन्हें बच्चे पैदा करने का जो उन की परवरिश नहीं कर सकते.’ मैं चाहती थी आज नेहा वह सब कह डाले जो उस के मन में नासूर बन उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. जब वह सब कह चुप हुई तो मैं ने उसे मुसकरा कर देखा और पूछा, ‘‘मैं तुम्हें कैसी लगती हूं? क्या तुम समझती हो मैं तुम्हें प्यार करती हूं?’’ उस ने अपनी गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’ और मैं ने पूछ लिया, ‘‘क्या तुम मुझे अपनी मां बनाओगी?’’ वह समझ न सकी मैं क्या कह रही हूं. मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम हमेशा के लिए मेरे साथ रहोगी?’’

जवाब में वह मुसकरा रही थी. और मैं ने झट से उस के दादादादी को बुलवा भेजा. जब वे आए, मैं ने कहा, ‘‘देखिए, आप की तो उम्र हो चुकी है और मैं इसे सदा के लिए अपने पास रखना चाहती हूं. क्यों नहीं आप इसे मुझे गोद दे देते?’’

दादादादी ने कहा, ‘‘जैसा आप उचित समझें.’’ फिर क्या था, मैं ने झट से कागजी कार्यवाही पूरी की और नेहा को सदा के लिए अपने पास रख लिया. मैं नहीं चाहती थी कि मझधार में हिचकोले खाती वह मासूम जिंदगी किसी तेज रेले के साथ बह जाए.

Hindi Stories Online : नेवी ब्लू सूट – दोस्ती की अनमोल कहानी

Hindi Stories Online :  मैं हैदराबाद बैंक ट्रेनिंग सैंटर आई थी. आज ट्रेनिंग का आखिरी दिन है. कल मुझे लौट कर पटना जाना है, लेकिन मेरा बचपन का प्यारा मित्र आदर्श भी यहीं पर है. उस से मिले बिना मेरा जाना संभव नहीं है, बल्कि वह तो मित्र से भी बढ़ कर था. यह अलग बात है कि हम दोनों में से किसी ने भी मित्रता से आगे बढ़ने की पहल नहीं की. मुझे अपने बचपन के दिन याद आने लगे थे.

उन दिनों मैं दक्षिणी पटना की कंकरबाग कालोनी में रहती थी. यह एक विशाल कालोनी है. पिताजी ने काफी पहले ही एक एमआईजी फ्लैट बुक कर रखा था. मेरे पिताजी राज्य सरकार में अधिकारी थे. यह कालोनी अभी विकसित हो रही थी. यहां से थोड़ी ही दूरी पर चिरैयाटांड महल्ला था. उस समय उत्तरी और दक्षिणी पटना को जोड़ने वाला एकमात्र पुल चिरैयाटांड में था. वहीं एक तंग गली में एक छोटे से घर में आदर्श रहता था. वहीं पास के ही सैंट्रल स्कूल में हम दोनों पढ़ते थे.

आदर्श बहुत सुशील था. वह देखने में भी स्मार्ट व पढ़ाई में अव्वल तो नहीं, पर पहले 5 विद्यार्थियों में था. फुटबौल टीम का कप्तान आदर्श क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. इसलिए वह स्कूल के टीचर्स और स्टूडैंट्स दोनों में लोकप्रिय था. वह स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लेता था. मैं भी उन कार्यक्रमों में भाग लेती थी. इस के अलावा मैं अच्छा गा भी लेती थी. हम दोनों एक ही बस से स्कूल जाते थे.

आदर्श मुझे बहुत अच्छा लगता था. 10वीं कक्षा तक पहुंचतेपहुंचते हम दोनों अच्छे दोस्त बन चुके थे. स्कूल बस में कभीकभी कोई मनचला सीनियर मेरी चोटी को खींच कर चुपचाप निकल जाता था. इस बारे में एक बार मैं ने आदर्श से शिकायत भी की थी कि न जाने इन लड़कों को मेरे बालों से खिलवाड़ करने में क्या मजा आता है.

इस पर आदर्श ने कहा, ‘‘तुम इन्हें बौबकट करा लो… सच कहता हूं आरती, तुम फिर और भी सुंदर और क्यूट लगोगी.’’ मैं बस झेंप कर रह गई थी. कुछ दिन बाद मैं ने मां से कहा कि अब इतने लंबे बाल मुझ से संभाले नहीं जाते. इन पर मेरा समय बरबाद होता है, मैं इन्हें छोटा करा लेती हूं. मां ने इस पर कोई एतराज नहीं जताया था. कुछ ही दिन के अंदर मैं ने अपने बाल छोटे करा लिए थे. आदर्श ने इशारोंइशारों में मेरी प्रशंसा भी की थी. एक बार मैं ने भी उसे कहा था कि स्कूल का नेवीब्लू ब्लैजर उस पर बहुत फबता है. कुछ ही दिन बाद वह मेरे जन्मदिन पर वही नेवीब्लू सूट पहन कर मेरे घर आया था तो मैं ने भी इशारोंइशारों में उस की तारीफ की थी. बाद में आदर्श ने बताया कि यह सूट उसे उस के बड़े चाचा के लड़के की शादी में मिला था वरना उस की हैसियत इतनी नहीं है. शायद यहीं से हम दोनों की दोस्ती मूक प्यार में बदलने लगी थी.

लेकिन तभी आदर्श के साथ एक घटना घटी. आदर्श की 2 बड़ी बहनें भी थीं. उस के पिता एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. अचानक हार्ट फेल होने से उन का देहांत हो गया. उस के पिता के औफिस से जो रकम मिली, वही अब उस परिवार का सहारा थी. उन्होंने अपने हिस्से की गांव की जमीन बेच कर पटना में छोटा सा प्लाट खरीदा था. अभी बस रहने भर के लिए 2 कमरे ही बनवाए थे. उन का कहना था बाकी मकान बेटियों की शादी के बाद बनेगा या फिर आदर्श बड़ा हो कर इसे आगे बनाएगा. हम दोनों के परिवार के बीच तो आनाजाना नहीं था, पर मैं स्कूल के अन्य लड़कों के साथ यह दुखद समाचार सुन कर गई थी. हम लोग 10वीं बोर्ड की परीक्षा दे चुके थे. आदर्श ने कहा था कि वह मैडिकल पढ़ना चाहता है पर ऐसा संभव नहीं दिखता, क्योंकि इस में खर्च ज्यादा होगा, जो उस के पिता के लिए लगभग असंभव है. एक बार जब हम 12वीं की बोर्ड की परीक्षा दे चुके थे तो मैं ने अपनी बर्थडे पार्टी पर आदर्श को अपने घर बुलाया था. वह अब और स्मार्ट लग रहा था. मैं ने आगे बढ़ कर उस को रिसीव किया और कहा, ‘‘तुम ब्लूसूट पहन कर क्यों नहीं आए? तुम पर वह सूट बहुत फबता है.’’आदर्श बोला, ‘‘वह सूट अब छोटा पड़ गया है. जब सैटल हो जाऊंगा तो सब से पहले 2 जोड़ी ब्लूसूट बनवा लूंगा. ठीक रहेगा न?’’

हम दोनों एकसाथ हंस पड़े. फिर मैं आदर्श का हाथ पकड़ कर उसे टेबल के पास ले कर आई, जहां केक काटना था. मैं ने ही उसे अपने साथ मिल कर केक काटने को कहा. वह बहुत संकोच कर रहा था. फिर मैं ने केक का एक बड़ा टुकड़ा उस के मुंह में ठूंस दिया.केक की क्रीम और चौकलेट उस के मुंह के आसपास फैल गई, जिन्हें मैं ने खुद ही पेपर नैपकिन से साफ किया. बाद में मैं ने महसूस किया कि मेरी इस हरकत पर लोगों की प्रतिक्रिया कुछ अच्छी नहीं थी, खासकर खुद मेरी मां की. उन्होंने मुझे अलग  बुला कर थोड़ा डांटने के लहजे में कहा, ‘‘आरती, यह आदर्श कौन सा वीआईपी है जो तुम इसे इतना महत्त्व दे रही हो?’’मैं ने मां से कहा, ‘‘मा, वह मेरा सब से करीबी दोस्त है. बहुत अच्छा लड़का है, सब उसे पसंद करते हैं.’’

मा ने झट से पूछा, ‘‘और तू?’’

मैं ने भी कहा, ‘‘हां, मैं भी उसे पसंद करती हूं.’’

फिर चलतेचलते मां ने कहा, ‘‘दोस्ती और रिश्तेदारी बराबरी में ही अच्छी लगती है. तुम दोनों में फासला ज्यादा है. इस बात का खयाल रखना.’’

मैं ने भी मां से साफ लफ्जों में कह दिया था कि कृपया आदर्श के बारे में मुझ से ऐसी बात न करें.मैं ने महसूस किया कि आदर्श हमारी तरफ ही देखे जा रहा था, पर ठीक से कह नहीं सकती कि मां की बात उस ने भी सुनी हो, पर उस की बौडी लैंग्वेज से लगा कि वह कुछ ज्यादा ही सीरियस था.  बहरहाल, आदर्श मैथ्स में एमए करने लगा था. मैं ने बीए कर बैंक की नौकरी के लिए कोचिंग ली थी. दूसरे प्रयास में मुझे सफलता मिली और मुझे बैंक में जौब मिल गई. बैंक की तरफ से ही मुझे हैदराबाद टे्रनिंग के लिए भेजा गया. मैं आदर्श से ईमेल और फोन से संपर्क में थी. कभीकभी वह भी मुझे फोन कर लेता था. एक बार मैं ने उसे मेल भी किया था यह जानने के लिए कि क्या हम मात्र दोस्त ही रहेंगे या इस के आगे भी कुछ सोच सकते हैं. आदर्श ने लिखा था कि जब तक मेरी बड़ी बहनों की शादी नहीं हो जाती तब तक मैं चाह कर भी आगे की कुछ सोच नहीं सकता. मुझे उस का कहना ठीक लगा. आखिर अपनी दोनों बड़ी बहनों की शादी की जिम्मेदारी उसी पर थी, पर इधर मुझ पर भी मातापिता का दबाव था कि मेरी शादी हो जाए ताकि बाकी दोनों बहनों की शादी की बात आगे बढ़े. हम दोनों ही मजबूर थे और एकदूसरे की मजबूरी समझ रहे थे. आदर्श हैदराबाद की एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंटैंट की पोस्ट पर कार्यरत था. उस की बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी. अपनी मां और दूसरी बहन के साथ वह भी हैदराबाद में ही था.

मैं ने उसे फोन किया और ईमेल भी किया था कि आज शाम की फ्लाइट से मैं पटना लौट रही हूं. उस ने जवाब में बस ओके भर लिखा था. वह सिकंदराबाद में कहीं रहता था. उस के घर का पता मुझे मालूम तो था, पर नए शहर में वहां तक जाना कठिन लग रहा था और थोड़ा संकोच भी हो रहा था. मेरी फ्लाइट हैदराबाद के बेगमपेट एयरपोर्ट से थी, मैं एयरपोर्ट पर बेसब्री से आदर्श का इंतजार कर रही थी. बेगमपेट एयरपोर्ट से सिकंदराबाद ज्यादा दूर नहीं था, महज 5 किलोमीटर की दूरी होगी. मैं सोच रही थी कि वह जल्दी ही आ जाएगा, पर जैसेजैसे समय बीत रहा था, मेरी बेसब्री बढ़ रही थी. चैक इन बंद होने तक वह नहीं दिखा तो मैं ने अपना टिकट कैंसिल करा लिया. मैं आदर्श के घर जाने के लिए टैक्सी से निकल पड़ी थी. जब मैं वहां पहुंची तो उस की बहन ने आश्चर्य से कहा, ‘‘आरती, तुम यहां. भाई तो तुम से मिलने एयरपोर्ट गया है. अभी तक तो लौटा नहीं है. शुरू में आदर्श संकोच कर रहा था कि जाऊं कि नहीं पर मां ने उसे कहा कि उसे तुम से मिलना चाहिए, तभी वह जाने को तैयार हुआ. इसी असमंजस में घर से निकलने में उस ने देर कर दी.’’

मैं आदर्श के घर सभी के लिए गिफ्ट ले कर गई थी. मां और बहन को तो गिफ्ट मैं ने अपने हाथों से दिया. थोड़ी देर बाद मैं एक गिफ्ट पैकेट आदर्श के लिए छोड़ कर लौट गई. इसी बीच, आदर्श की बहन का फोन आया और उस ने कहा, ‘‘भाई को ट्रैफिक जैम और उस का स्कूटर पंक्चर होने के कारण एयरपोर्ट पहुंचने में देर हो गई और भाई ने सोचा कि तुम्हारी तो फ्लाइट जा चुकी होगी. मैं उसे तुम्हारी फ्लाइट के बारे में बता चुकी हूं.’’ आदर्श की बहन ने फोन कर उसे कहा, ‘‘भाई, तुम्हारे लिए आरती ने अपनी फ्लाइट कैंसिल कर दी. वह तुम से मिलने घर आई थी, पर थोड़ी देर पहले चली भी गई है. अभी वह रास्ते में होगी, बात कर लो.’’ लेकिन आदर्श ने फोन नहीं किया और न मैं ने किया. आदर्श ने जब घर पहुंच कर पैकेट खोला तो देखा कि उस में एक नेवीब्लू सूट और मेरी शादी का निमंत्रण कार्ड था. साथ में मेरा एक छोटा सा पत्र जिस में लिखा था, ‘बहुत इंतजार किया. मुझे अब शादी करनी ही होगी, क्योंकि मेरी शादी के बाद ही बाकी दोनों बहनों की शादी का रास्ता साफ होगा. एक नेवीब्लू सूट छोड़ कर जा रही हूं. मेरी शादी में इसे पहन कर जरूर आना, यह मेरी इच्छा है.’

एयरपोर्ट से मैं ने उसे फोन किया, ‘‘तुम से मिलने का बहुत जी कर रहा था आदर्श, खैर, इस बार तो नहीं मिल सकी. उम्मीद है शादी में जरूर आओगे. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’ थोड़ी देर खामोश रहने के बाद आदर्श इतना ही कह पाया था, ‘‘हां… हां, आऊंगा.’’

Interesting Hindi Stories : नहीं बचे आंसू

Interesting Hindi Stories : सुधा का पति राम सजीवन दूरसंचार महकमे में लाइनमैन था. एक दिन काम के दौरान वह खंभे से गिर गया. उसे गहरी चोट लगी. अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उस ने दम तोड़ दिया.

सुधा की जिंदगी में अंधेरा छा गया. वह कम पढ़ीलिखी देहाती औरत थी. उस के 2 मासूम बच्चे थे. बड़ा बेटा पहली क्लास में पढ़ता था और छोटा 2 साल का था.

पति का क्रियाकर्म हो गया, तो सुधा ससुराल से मायके चली आई. वहां उस के बड़े भाई सुखनंदन ने कहा, ‘‘बहन, जो होना था, वह तो हो ही गया. गम भुलाओ और आगे की सोचो. बताओ कि नौकरी करोगी? बहनोई की जगह तुम्हें नौकरी मिल जाएगी. एक नेता मेरे जानने वाले हैं. उन से कहूंगा तो वे जल्दी ही तुम्हें नौकरी पर रखवा देंगे.’’

‘‘कुछ तो करना ही होगा भैया, वरना इन बच्चों का क्या होगा? लेकिन, मैं 8वीं जमात तक ही तो पढ़ी हूं. क्या मुझे नौकरी मिल जाएगी?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘चपरासी की नौकरी तो मिल ही जाएगी. मैं आज ही नेता से मिलता हूं,’’ सुखनंदन बोला.

सुखनंदन की दौड़धूप काम आई और सुधा को जल्दी ही नौकरी मिल गई.

‘‘बहन, तुम बच्चों को ले कर शहर में रहो. मैं वहां आताजाता रहूंगा. कोई चिंता की बात नहीं है. तुम्हारी तरह बहुत सी औरतें हैं दुनिया में, जो हिम्मत से काम ले कर अपनी और बच्चों की जिंदगी संवार रही हैं,’’ सुखनंदन ने बहन का हौसला बढ़ाया.

सुधा शहर आ गई और किराए के मकान में रह कर चपरासी की नौकरी करने लगी. उस ने पास के स्कूल में बड़े बेटे का दाखिला करा दिया.

सुखनंदन सुधा का पूरा खयाल रखता था. वह बीचबीच में गांव से राशन वगैरह ले कर आया करता था. फोन पर तो रोज ही बात कर लिया करता था.

सुधा खूबसूरत और जवान थी. महकमे के कई अफसर और बाबू उसे देख कर लार टपकाते रहते थे. उस से नजदीकी बनाने के लिए भी कोई उस के प्रति हमदर्दी जताता, तो कोई रुपएपैसे का लालच देता.

सुधा का मकान मालिक भी रसिया किस्म का था. वह नशेड़ी भी था. सुधा पर उस की नीयत खराब थी. कभीकभी शराब के नशे में वह आधी रात में उस का दरवाजा खटखटाया करता था. आतेजाते कई मनचले भी सुधा को छेड़ा करते थे.

किसी तरह दिन कटते रहे और सुधा खुद को बचाती रही. उस के साथ राजू नाम का एक चपरासी काम करता था. वह उस का दीवाना था, लेकिन दिल की बात जबान पर नहीं ला पा रहा था.

राजू बदमाश किस्म का आदमी था और शराब का नशा भी करता था. वह अकसर लोगों के साथ मारपीट किया करता था, लेकिन सुधा से बेहद अच्छी बातें किया करता था.

राजू उसे भरोसा दिलाता था, ‘‘मेरे रहते चिंता बिलकुल मत करना. कोई आंख उठा कर देखे तो बताना… मैं उस की आंख निकाल लूंगा.’’

सुधा को राजू अकसर घर भी छोड़ दिया करता था. कुछ दिनों बाद राजू सुधा को घुमानेफिराने भी लगा. सुधा को भी उस का साथ भाने लगा. वह राजू से खुल कर हंसनेबोलने लगी.

जल्दी ही दोनों के बीच प्यार हो गया. अब तो राजू उस के घर आ कर उठनेबैठने लगा. सुधा के बच्चे उसे ‘अंकल’ कहने लगे. वह बच्चों के लिए खानेपीने की चीजें भी लाया करता था. सुधा के पड़ोस में एक और किराएदार रहता था. राजू ने उस से दोस्ती कर ली.

एक दिन वह किराएदार अपने गांव जाने लगा, तो राजू ने उस से मकान की चाबी मांग ली. दिन में उस ने सुधा से कहा, ‘‘आज रात मैं तुम्हारे साथ गुजारूंगा.’’

‘‘लेकिन, कैसे? बच्चे भी तो हैं,’’ सुधा ने समस्या रखी.

‘‘उस की चिंता तुम बिलकुल न करो…’’ यह कह कर उस ने जेब से चाबी निकाली और कहा, ‘‘यह देखो, मैं ने सुबह ही इंतजाम कर लिया है. आज तुम्हारा पड़ोसी गांव चला गया है. रात को मैं आऊंगा और उसी के कमरे में…’’

सुधा मुसकराई और फिर शरमा कर उस ने सिर झुका लिया. उस की भी इच्छा हो रही थी और वह राजू की बांहों में समा जाना चाहती थी.

राजू देर रात शराब के नशे में आया. उस ने सुधा के पड़ोसी के मकान का दरवाजा खोला. आहट मिली तो सुधा जाग गई. उस के दोनों बेटे सो रहे थे. उस ने आहिस्ता से अपना दरवाजा बंद किया और पड़ोसी के कमरे में चली गई.

राजू ने फौरन दरवाजा बंद कर लिया. उस के बाद जो होना था, वह देर रात तक होता रहा. लंबे अरसे बाद उस रात सुधा को जिस्मानी सुख मिला था. वह राजू की बांहों में खो गई थी. तड़के राजू चला गया और सुधा अपने कमरे में आ गई.

सुधा और पड़ोसी के मकान के बीच जो दीवार थी, उस में दरवाजा लगा था. पहले जो किराएदार रहता था, उस ने दोनों कमरे ले रखे थे. वह जब मकान छोड़ कर गया, तो मालिक ने दोनों कमरों के बीच का दरवाजा बंद कर दिया और ज्यादा किराए के लालच में 2 किराएदार रख लिए. अब उसे एक हजार की जगह 2 हजार रुपए मिलने लगे.

उस रात के बाद राजू अकसर सुधा के घर देर रात आने लगा. कई बार सुधा का भाई सुबहसुबह ही आ जाता और राजू अंदर. ऐसी हालत में बीच का दरवाजा काम आता था. राजू उस दरवाजे से पड़ोसी के मकान में दाखिल हो जाता था.

सुधा के भाई को कभी शक ही नहीं हुआ कि बहन क्या गुल खिला रही है. वह तो उसे सीधीसादी, गांव की भोलीभाली औरत मानता था.

राजू का अपना भी परिवार था. बीवी थी, 4 बच्चे थे. परिवार के साथ वह किसी झुग्गी बस्ती में रहता था. बीवी उस से बेहद परेशान थी, क्योंकि वह पगार का काफी हिस्सा शराबखोरी में उड़ा दिया करता था.

बीवी मना करती, तो राजू उस के साथ मारपीट भी करता था. पैसों के बिना न तो ठीक से घर चल रहा था और न ही बच्चे पढ़लिख पा रहे थे.

पहले तो राजू कुछ रुपए घर में दे दिया करता था, लेकिन जब से उस की सुधा से नजदीकी बढ़ी, तब से पूरी तनख्वाह ला कर उसे ही थमा दिया करता था.

सुधा उस के पैसों से अपना शहर का खर्च चलाती और अपनी तनख्वाह बैंक में जमा कर देती. वह काफी चालाक हो गई थी. राजू डालडाल तो सुधा पातपात थी.

उधर राजू की बीवी घर चलाने के लिए कई बड़े लोगों के घरों में नौकरानी का काम करने लगी थी. वह खून के आंसू रो रही थी. लेकिन उस ने कोई गलत रास्ता नहीं चुना, मेहनत कर के किसी तरह बच्चों को पालती रही.

कुछ साल बाद रकम जुड़ गई, तो सुधा ने ससुराल में अपना मकान बनवा लिया. ससुराल वालों ने हालांकि उस का विरोध किया कि वह गांव में न रहे, वे उस का हिस्सा हड़प कर जाना चाहते थे, लेकिन पैसा मुट्ठी में होने से सुधा में ताकत आ गई थी. उस ने जेठ को धमकाया, तो वह डर गया. सुधा का बढि़या मकान बन गया.

‘‘भैया, तुम मेरा पास के टैलीफोन के दफ्तर में ट्रांसफर करा दो नेता से कह कर. इस से मैं घर और खेतीबारी भी देख सकूंगी,’’ एक दिन सुधा ने भाई से कहा.

‘‘मैं कोशिश करता हूं,’’  सुखनंदन ने उसे भरोसा दिलाया.

कुछ महीने बाद सुधा का तबादला उस के गांव के पास के कसबे में हो गया. यह जानकारी जब राजू को हुई, तो वह बेहद गुस्सा हुआ और बोला, ‘‘मेरे साथ इतनी बड़ी गद्दारी? तुम्हारे चलते मैं ने अपने बालबच्चे छोड़ दिए और तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी? ऐसा कतईर् नहीं होगा. या तो मैं तुम्हें मार डालूंगा या खुद ही जान दे दूंगा. तुम्हारी जुदाई मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘राजू, तुम मरो या जीओ, इस से मेरा कोई मतलब नहीं. यह मेरी मजबूरी थी कि मैं ने तुम से संबंध बनाया. तमाम लोगों से बचने के लिए मैं ने तुम्हारा हाथ पकड़ा. अब मेरा सारा काम बन चुका है. मुझे हाथ उठाने के बारे में सोचना भी नहीं, वरना जेल की हवा खाओगे. आज के बाद मुझ से मिलना भी नहीं,’’ सुधा ने धमकाया.

राजू डर गया. वह सुधा के सामने रोनेगिड़गिड़ाने लगा, लेकिन सुधा का दिल नहीं पसीजा. अगले ही दिन वह मकान खाली कर गांव चली गई.

प्यार में पागल राजू सुधा का गम बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ दिन बाद उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली.

जब राजू की पत्नी को उस के मरने की खबर मिली, तो वह बोली, ‘‘मेरे लिए तो वह बहुत पहले ही मर गया था. उस ने मुझे इतना रुलाया कि आज उस की मिट्टी के सामने रोने के लिए मेरी आंखों में आंसू नहीं बचे हैं,’’ यह कह कर वह बेहोश हो कर गिर पड़ी.

राजू के घर के सामने लोगों की भीड़ लग गई. लोग पानी के छींटे मार कर उस की पत्नी को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे.

लेखक- राजकुमार धर द्विवेदी

Famous Hindi Stories : आशा नर्सिंग होम – क्यों आशीष से दूर हो गई रजनी

Famous Hindi Stories :  रजनी उदास है. पति को दिल का दौरा पड़ा हुआ है. वे आशा नर्सिंग होम के औपरेशन थिएटर में है. उन्हें सुबह बेहोशी की हालत में अस्पताल लाया गया था, इलाज किया जा रहा है. औपरेशन थिएटर का दरवाजा बंद है.

अभीअभी उन्हें अंदर ले जाया गया है. बाहर रजनी, उस की बड़ी बहन अनुपमा, युवा भांजा रोहित और जीजा प्रभाकर खड़े हैं. सभी चिंतित हैं, रजनी के पतिदेव के स्वास्थ्य की कामना कर रहे हैं.

रजनी के पति रमेश की उम्र 54 वर्ष है. उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा है. मृत्यु नाम ही कितना भयानक है कि मनुष्य, जीव-जंतु हो या प्राणी… मृत्यु से दूर भागने की कोशिश में ही रहते हैं जब तक कि उन का जीवन है, जब तक कि उन की सांसें चल रही हैं.

रजनी, स्वाभाविक है कि, सब से ज्यादा चिंतित है. उस के 2 बच्चे है. 19 वर्षीय सौम्य कालेज की पढ़ाई कर रहा है और 12 वर्षीया नेहा 8वीं कक्षा में है. दोनों पढ़ाई में व्यस्त होने की वजह से घर पर वडोदरा में ही हैं. रजनी वडोदरा में रहती है. भांजे रोहित की एंगेजमैंट के उपलक्ष्य में यहां रमेश के साथ बहन के घर कानपुर आई हुई है.

अब सोफ़े पर बैठी रजनी आंखें मूंदें है. वह सोच रही है कि इस अस्पताल का नाम ‘आशा नर्सिग होम’ है और शादी से पहले उस का नाम भी आशा था. रमेश के साथ शादी होने के बाद उस का नया नाम रजनी हो गया और आज वह अपने असल नाम को याद करती हुई यहां आशा नर्सिंग होम में है. अजीब संयोग है.

अरे, मैँ तो यहां बड़ी बहन अनुपमा के घर, कानपुर आई हुई हूं. यह मेरा मायका है. मां-बाऊजी तो अब नहीं रहे. बाऊजी का घरबार, कपड़े की दुकान… सबकुछ बेच कर बड़े अमर भैया परिवार के साथ अमेरिका में रह रहे हैं. इंजीनियर अमर भैया पहले वहां नौकरी के बहाने गए और बाद में शादी भी अपने औफिस में कार्यरत अमेरिकन लड़की से कर ली. पहले मां और बाद में बाऊजी की मृत्यु हुई और अमर भैया का मानो भारत से नाता ही टूट गया. अब रह गईं हम 2 बहनें, जो सुखदुख में एक दूजी का साथ निभा रही हैं. अनुपमा दीदी के बेटे की कल शाम एंगेजमैंट है.

“हैलो,” कहते हुए रजनी ने फोन कान से सटाया. बेटे का वडोदरा से फोन था.

“कैसे हो मम्मी? पापा का फोन स्विचऔफ आ रहा है.”

“हम कहीं बाहर हैं बेटे, बाद में बात करती हूं,” कहते हुए रजनी ने फोन बंद कर दिया. वह बच्चों को कुछ बताना नहीं चाहती थी क्योंकि वे परेशान हो सकते थे. अब वह फिर से सोचने लगी…

रमेश, दूर की रिश्ते की बूआ के बेटे, को मैं ने ही पसंद किया था. तब मैँ एमए इंग्लिश की पढ़ाई कर रही थी. रमेश इंजीनियर था और बड़ा ही हैंडसम था. सरकारी नौकरी, कार, बड़ा सा मकान… सबकुछ था उस के पास. घर में भी सभी को पसंद था.

“ननकी, तेरी तबीयत ठीक तो है? चिंता न कर. सब ठीक ही होगा. आशा नर्सिग होम यहां का बहुत जानामाना अस्पताल है, ननकी. डा. भट्ट की ख्याति दूरदूर तक है. यहां से कभी कोई पेशेंट निराश नहीं लौटता, ऐसा लौकिक है. ये ले, पानी पी ले. रमेश जी जल्दी स्वस्थ हो जाएंगे. अभी खबर आ जाएगी कि खतरा टल गया है,” कहते हुए अनुपमा ने पानी का गिलास रजनी के हाथ में दिया.

रोहित वहां पड़ी हुई किसी मैगजीन के पन्ने पलट रहा था. सामने सोफ़े पर एक स्त्री गोद में आठदस महीने का बच्चा ले कर बैठी हुई थी जो सो रहा था. रजनी ने देखा कि वह बारबार पल्लू से आंखें पोंछ रही थी. उस का भी कोई अपना अस्पताल में शायद एडमिट था.

रजनी ने फिर पीछे गरदन टिकाई और आंखें मूंद लीं. ननकी नाम कितना प्यारा है. यह नाम मेरा ही है. बचपन में मां, बाबूजी, भैया… सभी तो ननकी ही बुलाते थे मुझे. आशा नाम तो स्कूल और सहेलियों के बुलाने के लिए था और आशीष, मेरा आशीष, भी तो मुझे आशा कह कर ही बुलाता था, लेकिन वह मेरा नहीं हुआ.

डाक्टर का क्या नाम बताया था दीदी ने…हां, डा. भट्ट. मेरी बचपन की सहेली विजया का किराएदार जो छत पर एक कमरा किराए पर ले कर रहता था, आशीष भट्ट नाम था उस का. वह भी मैडिकल स्टूडैंट ही तो था. तब वह एमबीबीएस के सैकंड ईयर में था. लेकिन वह तो राजकोट, गुजरात का रहने वाला था. यहां कानपुर में उस का नर्सिग होम? और इतना बड़ा विदेश से डिग्रियां ले कर आया हुआ कार्डियोलौजिस्ट?

इतने में औपरेशन थिएटर से एक नर्स बाहर आई और अनुपमा के पति से बातें करने लगी. तो रजनी ने आंखें खोलीं और उठ कर तेजी से उस के पास जा कर बोली, “सिस्टर, कैसे हैं रमेश जी? कैसी है अब उन की तबीयत?”

“सौरी बहन जी, अभी उन को होश आया नहीं है. डाक्टर साहब और हम स्टाफ कोशिश कर रहे हैं. यह इंजैक्शन उन के लिए डाक्टर साहब ने मंगवाया है,” कहती हुई नर्स वापस औपरेशन थिएटर में चली गई और फिर दरवाजा बंद हो गया. नर्स प्रभाकर जी के हाथ में एक परचा पकड़ा कर गई थी और वे तुरंत इंजैक्शन लेने वहां से बाहर की ओर चले गए.

अनुपमा अब रजनी के पास आई और उसे वापस सोफ़े पर बैठाते हुए बोली, “ननकी, हिम्मत से काम ले. डाक्टर अपनी कोशिश पूरी कर रहे हैं. देखती जा, तेरे जीजा अभी इंजैक्शन ले कर

आएंगे. मेरा मन कहता है, इंजैक्शन लग जाने के बाद रमेश जी होश में आ ही जाएंगे.”

“ऐसा ही हो दीदी,” कहते हुए रजनी ने पास बैठी अनुपमा के कंधे पर सिर रख दिया. अनुपमा का बेटा रोहित, जो वहीं पर बैठा हुआ था, के मोबाइल की रिंग बज उठी और वह ‘हैलो’ बोलता हुआ वहां से उठ कर थोड़ी दूर जा कर बात करने लगा. अब रजनी ने अनुपमा के कंधे से सिर उठाया और थोड़ी स्वस्थ हो कर पहले की तरह आंखें मूंद कर बैठी. चलचित्र की भांति उस की आंखों के सामने से एकएक दृश्य गुजर रहा था…

‘आशा, क्या तुम मुझ से आज शाम नानाराव पार्क में मिलने आ सकती हो?’ आशीष ने इतने प्यार से पूछा कि मैं मना न कर सकी और चली गई. आशीष ने अपने प्यार का इजहार किया. मैं ने शर्म से आंखें झुकाईं और अपने हाथ में पकड़े पर्स को कस कर दबाया. आशीष ने मेरे हाथ पर हाथ रखा और ‘आशु’ कहते हुए और नजदीक आया. मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. एक पुरुष का स्पर्श तनमन में एक जादुई जोश पैदा कर रहा था. उस पहले स्पर्श का अनुभव मैं इस समय भी कर रही हूं. लेकिन क्यों?’ और रजनी ने एकदम से आंखें खोलीं.

दीदी पास नहीं थी. कहां गई होगी? शायद वाशरूम गई होगी. इतने में दीदी आती दिखाई दी और दूसरी तरफ से जीजाजी भी आते दिखाई दिए. रोहित अब भी दूर खड़ा मोबाइल पर बातें कर रहा था. शायद उस की फियांसी का फोन था. जीजाजी ने औपरेशन थिएटर के बाहर खड़े अटेंडैंट को इंजैक्शन का लिफ़ाफ़ा पकड़ाया और उस ने उसे तुरंत अंदर भिजवा दिया.

जीजाजी अब रजनी के साथ बैठे हुए थे. दूसरी तरफ दीदी बैठ गई. इस समय सभी की आंखें औपरेशन थिएटर के दरवाजे पर लगी हुई थीं. लगभग 25 मिनट के बाद दरवाजा खुला और अंदर से डाक्टर भट्ट और उन के पीछे एक डाक्टर व नर्स बाहर आए.

‘ओह, यह तो मेरा वही आशीष भट्ट है,’ देख कर रजनी सन्न रह गई और अपनी जगह पर बैठी रही. लेकिन बहन अनुपमा, प्रभाकर जी और रोहित उठ कर डाक्टर की तरफ चल दिए. उसे सब सुनाई दे रहा था जो डाक्टर भट्ट कह रहे थे.

“अब रमेश जी होश में आ गए हैं और उन की तबीयत ठीक है. अब उन्हें वार्ड में शिफ्ट किया जाएगा. वहां आप उन से मिल सकते हैं. उन की हार्टबीट नौर्मल है. परीक्षण के लिए आज रात उन्हें यहीं रहना पड़ेगा. कल सुबह 10 बजे डिस्चार्ज किया जाएगा. और हां, उन की शराब और सिगरेट की आदत छुड़वा सकते हैं, तो अच्छा रहेगा. यही वजह है उन के दिल के दौरे की,” कहते हुए डा. आशीष भट्ट के चेहरे पर स्मित हास्य था.

वही मोटापा, छोटा कद, आंखों पर मोटा चश्मा… पर ये सब आशीष के व्यक्तित्व में और ज्यादा निखार भर रहा था. अच्छा हुआ कि उन की नजर आशा उर्फ रजनी की तरफ नहीं पड़ी. वह चाहती नहीं थी कि वे उसे देखें. उस ने दूसरी तरफ मुंह घुमाया. डा. भट्ट अब लिफ्ट की ओर जा रहे थे.

“ननकी, अब तो खुश हो ले बहन. तू भी कर लेती बात डाक्टर साहब से. चलो, अब सब ठीक है…” और अनुपमा आगे भी बोलती गई.

लेकिन रजनी अपने खयालों खोई वहीं बैठी रही… आशीष से उस का मिलनाजुलना बढ़ता जा रहा था. वह सोच रही थी कि परसों अपने जन्मदिन पर घर की छोटी सी पार्टी में आशीष को आमंत्रित करूं और सब से उस का परिचय कराऊं. सब को सरप्राइज दूंगी. फिर शादी की बात चलने में देर नहीं लगेगी. मेरे मन में लड्डू फूट रहे थे.

नानाराव पार्क की उसी खास बैंच पर बैठते हुए आशीष ने मिलते ही उदास स्वर में कहा, ‘आशा, मैँ आज रात की ट्रेन से राजकोट जा रहा हूं. पिताजी बीमार हैं, अस्पताल में एडमिट हैं. अभी थोड़ी देर पहले ही बूआ का फोन आया था.’

‘लेकिन आशीष, परसों मेरा बर्थडे है. उस के बाद भी तो जा सकते हो. क्या पिताजी के पास कोई और नहीं है?’ मैं ने थोड़ा जोर दे कर पूछा.

‘नहीं, वैसे मेरी माताजी, बूआ और चाचाचाची हैं, दोनों छोटे भाई भी हैं लेकिन अब मैँ कैसे रुक सकता हूं? मेरे पिताजी…’ कहते हुए आशीष का गला रुंध गया और उस ने रूमाल आंखों से लगाया.

उस के बाद हमारी कोई बातचीत नहीं हुई. घर पहुंच कर मैं ने सोचा कि आशीष को घरवालों की ज्यादा ही फिक्र है. इस के लिए मैँ कोई खास नहीं हूं. और पता नहीं, कल का भी क्या भरोसा?

आशीष ठीक 10 दिनों बाद वापस आया. बीच में एक बार उस का फोन आया लेकिन फोन पर अपने पिताजी के बारे में ही बात करता रहा. वापस आने पर उस को परीक्षा की तैयारी करनी थी. उस के पास मिलने के लिए समय नहीं था.

अब मुझे आशीष में बहुत सी कमियां नजर आने लगी थीं. उस का मोटापा, उस का छोटा कद, उस का मोटे शीशे वाला चश्मा मुझे अखर रहा था. ठीक 15 दिनों बाद वह मिला. बड़े ही प्यार से मिला. अपने ही भविष्य के बारे में ज्यादा बातें की उस ने. कार्डियोलौजी में आगे की डिग्री लेने की बात भी बताई. बीचबीच में मेरा हाथ पकड़ना, आंखों में झांकना, गाल सहलाना आदि क्रियाएं भी प्रेम से अभिभूत हो कर रहा था.

फिर जब उस ने अपनी बहन की बात की, तो मैं ने उसे रोका, कहा, ‘आशीष, अब हम यहीं रुक जाते हैं. तुम अपने घरवालों के ही बन कर रहो. उन की ही चिंता करो. तुम्हारे मन में मेरे लिए प्यार नहीं है, यह मैँ समझ गई हूं. मैँ कभी तुमारे लिए ‘खास’ थी, न बन सकूंगी.’

‘ऐसा नहीं है, आशा. मैं ने तुम से सच्चे दिल से प्यार किया है. ठंडे दिमाग से फिर से मेरे बारे में सोचो. अरे, मैं ने तो भविष्य में बनने वाले अपने नर्सिंग होम का नाम भी ‘आशा नर्सिंग होम’ रखने की सोचा है. जीवन तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं, आशा.’

लेकिन मैँ वहां रुकी नहीं. मैं ने पीछे मुड़ कर उसे देखा भी नहीं. और घर चली आई.

बाद में मेरे न मिलने को शायद वह अपनी हार समझ बैठा और उस ने मुझ से किनारा कर लिया. विजया ने बताया था कि वह पुणे चला गया. फिर मेरी शादी मेरी पसंद के लंबे, गोरे और चश्मा न पहनने वाले इंजीनियर रमेश से हुई, जिस ने इतने वर्षों में अपनी ज्यादातर कमाई जुआ और शेयर मार्केट में उड़ा दी और शराबसिगरेट का तो वह शुरू से ही आदी था. यह बात मैँ उस से शादी करने से पहले जान गई थी लेकिन उस के बाह्य रंगरूप पर मैँ फिदा थी.

रमेश के लिए भी मैँ ‘खास’ कभी नहीं रही. नशे में कई बार मुझ पर उस का हाथ भी उठ जाता था और साथ में गालीगलौज की बौछार करता था. हर रोज शराब पीना ही उस के लिए दिल के दौरे का कारण बना. बाहरी रूपरंग देख कर मैं ने उसे पसंद किया, जो गलत था.

आज रमेश भी भद्दी शक्लवाला और मोटा है. मोटे शीशे का चश्मा भी पहनता है. क्या मिला मुझे? हां, अपने मातापिता और परिवारजनों की चिंता करना, उन के सुखदुख के समय उन के साथ खड़े होना, जितनी बन पड़ें उतनी उन की सहायता करना…यह गुण रमेश में भी है. आशीष को तो मैं ने इसी गुण की वजह से छोड़ दिया था. कितनी नासमझ और नादान थी मैँ, इतने अच्छे गुण को मैं ने दोष समझा.

लेकिन अब रमेश जो भी है, मेरा वर्तमान है. मैँ, कुछ भी हो, उस की शराब की आदत तो छुड़वा कर ही रहूंगी. डा. आशीष भट्ट ने भी यही कहा है. मेरे लिए आज आशीष की सलाह सिरआंखों पर है. मन ही मन अपनेआप को ये सब सूचनाएं देती हुई रजनी उठी और थोड़ी दूर खड़ी अनुपमा के पास जा कर बोली-

“दीदी, मुझे जल्दी रमेश जी के पास ले चलिए, डाक्टर साहब ने मिलने की परमिशन तो दी है न, दीदी?”

रजनी ने पास खड़ी अनुपमा का हाथ पकड़ा और दोनों बहनें अब उस वार्ड की तरफ चल दीं जहां रमेश को शिफ्ट किया गया था. रजनी अब सोच रही थी कि आशीष ने उस से दिल से प्यार किया था. तभी तो उस ने गुजरात छोड़ कर यहां कानपुर में अस्पताल खोला और नाम तो उस ने पहले ही बता दिया था- ‘आशा नर्सिग होम’.

अब आशा उर्फ रजनी को डा. आशीष भट्ट से मिलने की या उस के बारे में ज्यादा जानने की जरूरत नहीं थी. आशीष ने शादी की या नहीं, उस की पत्नी क्या करती है, उस का नाम क्या… इन सब से अब वह अलिप्त रहना चाहती थी. आशीष अब उस का बीता हुआ कल था.

लेखिका- अरुणा कपूर

Hindi Kahaniyan : दिल का बोझ – क्या मां की इच्छा पूरी हो पाई

Hindi Kahaniyan :  मंजू के मातापिता एक छोटे से शहर में रहते थे. उस के घर के आगे दुकानें बनी हुई थीं. उन में से कई दुकानें किराए पर चढ़ी हुई थीं. मंजू अपनी मां के साथ फर्स्ट फ्लोर पर रहती थी. वह अपने फ्लैट के नीचे वाली दुकान से दूध लाने गई थी. वह जैसे ही दूध ले कर आई, अपने साथ एक नन्हा सा गोलमटोल बच्चा भी गोद में ले आई थी.

‘‘अरे, यह किस का बच्चा उठा लाई?’’ मां ने हैरानी से देख कर पूछा.

‘‘विनोद अंकल की दुकान पर खेल रहा था. उन्हीं के घर का कोई होगा… मैं ज्यादा नहीं जानती,’’ मंजू ने हंसते हुए अपनी मां को सफाई दी.

विनोद ने मंजू के घर के नीचे मोटर पार्ट्स की दुकान खोल रखी है. दुकान में भीड़ कम ही रहती है.

बच्चा बहुत खूबसूरत था. मां की भी ममता जाग गई. उन्होंने उसे गोद में

ले लिया.

बच्चा घंटाभर वहां खेलता रहा. बच्चे की किलकारी से मंजू की मां के चेहरे पर खुशी की लकीरें उभर आई थीं. वे उस का खास खयाल रख रही थीं. बच्चा एक कटोरी दूध भी पी गया था.

एक घंटे बाद मां मंजू से बोलीं, ‘‘जा कर बच्चे को दुकान पर पहुंचा दे.’’

मंजू बच्चे को विनोद अंकल की दुकान पर छोड़ आई. इस तरह से वह बच्चा कई दिन तक मंजू के घर आता रहा. उस की मां बच्चे का ध्यान रखतीं. बच्चा वहां खेलता, घंटे 2 घंटे बाद मंजू दुकान में छोड़ आती. कई दिनों से यह सिलसिला चल रहा था.

उस दिन रात के 10 बज रहे थे. मंजू अपनी मां के बगल में सोई हुई थी. मंजू को नींद नहीं आ रही थी. वह सोच रही थी कि कैसे बात को शुरू करे.

‘‘बच्चा कितना खूबसूरत है न मां?’’ मंजू बोली.

‘‘अरे, तू किस की बात कर रही है?’’

‘‘उसी बच्चे की मां जो विनोद अंकल की दुकान से लाई थी.’’

‘‘सो जा. क्या तु झे नींद नहीं आ रही है? अभी भी तेरा ध्यान उस बच्चे पर अटका है?’’ मां ने मंजू को हिदायत दी.

‘‘दीदी का बच्चा भी ऐसा ही होता न मां?’’ मंजू अचानक बोली.

यह सुन कर मां गुस्से में बिफर पड़ीं, इसलिए वे बिस्तर से उठ कर बैठ गईं.

‘‘तेरे बड़े चाचा ने मना किया था न कि दीदी का नाम कभी मत लेना? वह हम लोगों के लिए मर गई है…’’ मां गुस्से में बोलीं.

अब तक मंजू भी चादर फेंक कर उठ कर बैठ गई थी और बोली, ‘‘मानती हूं कि दीदी हम लोगों के लिए मर गई हैं, लेकिन सचमुच में तो नहीं मरी हैं न?’’ उस ने मां से सवाल किया.

मां के पास कोई जवाब नहीं था. वे मंजू का मुंह ताकती रह गईं.

मंजू का दिल तेजी से धड़क रहा था. वह सोच नहीं पा रही थी कि जो कहने वाली है, उस का क्या नतीजा होने वाला है? अपना दिल मजबूत कर के वह मां से बोली, ‘‘मां, वह जो बच्चा रोज आ रहा है न, वह अपनी दीदी का ही बच्चा है. तुम उस की नानी हो और वह तुम्हारा नाती है. तुम्हारी अपनी बेटी का बेटा है,’’ मंजू हिम्मत कर के सबकुछ एक ही सांस में बोल गई.

मां को यह सुन कर ऐसा लगा, जैसे वे आसमान से जमीन पर गिर गई हैं. वे कुछ भी नहीं बोल पा रही थीं, सिर्फ मंजू को देखे जा रही थीं. मंजू अपनी मां के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी.

मां पुरानी यादों में खोने लगी थीं.

3 साल पहले की घटी हुई वह घटना. उन की बड़ी बेटी सोनी कालेज में पढ़ती थी. कालेज आतेजाते वह अमर डिसूजा नाम के एक ईसाई लड़के के इश्क में पड़ गई थी.

अमर बहुत खूबसूरत था. वह सोनी से बहुत प्यार करता था. दोनों घंटों एकदूसरे से मोबाइल पर बात किया करते थे. सोनी उस के प्यार में पागल हो गई थी. उसे इस बात का कहां ध्यान रहा कि वह एक हिंदू ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती है, जबकि अमर एक ईसाई परिवार से था.

जैसे ही सोनी के बड़े चाचा और उस के पिता को मालूम हुआ, सोनी को काफी भलाबुरा सुनना पड़ा था. घर के लोगों के साथसाथ बाहर के लोगों ने भी उसे खूब जलील किया था. लोग यही कह रहे थे कि सोनी को कोई हिंदू लड़का नहीं मिला था? उस ने अपना धर्म भ्रष्ट कर दिया था, इसीलिए उस के बड़े चाचा ने उसे घर से बाहर निकलने से मना कर दिया था. अमर से भी दूर रहने की हिदायत दे दी थी.

उस के चाचा ने चेतावनी दी थी, ‘अब से तुम्हारी पढ़ाईलिखाई बंद रहेगी. बहुत हो गया पढ़नालिखना.’

सोनी की शादी की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. कई जगह लड़के देखे जा रहे थे, लेकिन वह पढ़ना चाहती थी. उस ने अपनी मां और अपने पिता से काफी गुजारिश की थी. कुछ दिन बाद उस के पिता ने सिर्फ कालेज में एडमिशन लेने और फार्म भरने की इजाजत दी थी. धीरेधीरे सोनी कालेज आनेजाने लगी थी.

एक दिन अचानक थाने से खबर आई कि सोनी अमर के साथ थाने में पहुंच गई है. दोनों ने एकदूसरे से प्यार करने की बात स्वीकार ली थी.

सोनी 18 साल की हो चुकी थी और अमर भी 21 साल का था. दोनों की पहले से ही गुपचुप तरीके से शादी करने की तैयारियां चल रही थीं, वे सिर्फ बालिग होने का इंतजार कर रहे थे.

सोनी के बड़े चाचा और उस के पिता ने शादी रुकवाने की कई तरह से कोशिश की, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए. जब लड़कालड़की ही राजी थे, तो भला उन्हें कौन रोक सकता था. थानेदार की मदद से दोनों की शादी करवा दी गई थी. प्रशासन ने उन्हें प्रोटैक्शन दे कर अमर के घर तक पहुंचाया था.

बड़े चाचा ने गुस्से में आ कर सोनी का पुतला बना कर दाह संस्कार करवा दिया. पिता ने खास हिदायत दी थी, ‘वह हमारे लिए मर गई है. घर में कोई अब उस का नाम तक नहीं लेगा.’

तब से ले कर आज तक किसी ने भी सोनी का नाम इस घर में नहीं लिया था. आज जब मंजू उस के बच्चे की बात कर रही थी, तो मां सुन कर सन्न रह गई थीं.

मां मन ही मन सोनी से रिश्ता खत्म हो जाने के चलते दुखी रहती थीं. वे इस दुख को किसी के साथ जाहिर भी नहीं कर पाती थीं. आज वे अपने नाती को अनजाने में ही दुलार चुकी थीं.

जब मंजू ने मां को जोर से  झक झोरा, तो वे अपनी यादों से बाहर आ गईं, ‘‘ऐसा तू ने क्यों किया मंजू?’’ मां गुस्से में बोलीं.

‘‘तुम दीदी के जाने के बाद क्या कभी उन्हें भुला पाई हो मां? अपने दिल पर हाथ रख कर सच बताना?’’

मां के चेहरे पर बेचैनी देखी जा सकती थी. उन के पास कोई जवाब नहीं था. जैसे वे सच का सामना कर ही नहीं सकती थीं. वे मंजू से नजरें नहीं मिला पा रही थीं. ऐसा लग रहा था जैसे उन की चोरी पकड़ी गई है. चोरी पकड़ने वाला कोई और नहीं, बल्कि उन की अपनी बेटी की थी.

यह तो सच था कि जब से सोनी चली गई थी, मां दुखी थीं. वे कैसे जिंदा बेटी को मरा मान सकती थीं? उसे जितना भी भुलाने की कोशिश की थी, वे अपनी बेटी की यादों में खो जाती थीं. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को खूब प्यार दिया था.

बड़ी बेटी के गम में पिता उदास रहने लगे थे. कुछ दिन बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे. तब से मां अकेली हो गई थीं. वे चाहती थीं कि किसी तरह मंजू की भी शादी हो जाए.

‘‘मंजू, तुम कब से यह सब जानती हो?’’ मां ने सवाल किया.

‘‘एक दिन अचानक दीदी बाजार में मिल गई थीं. दीदी ने मु झ से नजरें फेर ली थीं, लेकिन मैं ने ही उन का पीछा किया था. बात करने पर उन्हें मजबूर कर दिया था. वे कहने लगी थीं कि मैं तो तुम्हारे लिए मर गई हूं. मैं ने उन्हें बहुत सम झाया, तब जा कर वे बात करने के लिए तैयार हुई थीं.

‘‘दीदी भी यह जान कर बहुत दुखी थीं कि हम सब ने उन्हें मरा सम झ लिया है. दीदी के गम में पिताजी नहीं रहे, उन्हें यह जान कर काफी दुख हुआ. लेकिन मैं ने उन्हें बताया कि यह सब बड़े चाचा का कियाधरा है. पिताजी तो उन की हां में हां मिलाते रहे. मां तो कुछ सम झ ही नहीं पाई थीं. वे आज भी आप के लिए दुखी रहती हैं.

‘‘यह सुन कर दीदी रोने लगी थीं. वे आप को बहुत याद करती हैं. मैं उन से लगातार फोन पर बातचीत करती रहती हूं. तभी मैं जान पाई थी कि दीदी को एक बच्चा हुआ है और यह मेरी ही योजना थी कि किसी तरह से आप को और दीदी को मिला दूं. दीदी का बच्चा उन का देवर ले कर आता है. वह विनोद अंकल की दुकान पर सेल्समैन है.’’

मां मंजू के सिर पर हाथ फेरने लगीं. उन की आंखों से आंसू बहने लगे. ऐसा लग रहा था, दिल का बो झ आंखों से बाहर निकल रहा था.

मंजू अपनी मां से आज ये सब बातें कर के हलका महसूस कर रही थी. वह बहुत खुश थी. रात के 11 बज गए थे, इसलिए वह अपनी दीदी को परेशान नहीं करना चाहती थी, वरना यह खुशखबरी दीदी तक अभी पहुंचा देती, पर वह खुश थी कि अब उस की दीदी मां से बात कर सकेंगी. अब उस के घर में एक नन्हा बच्चा खेलेगा. वह सालों से 2 परिवारों में आई दरार को पाटने में कामयाब हो गई थी.

Moral Stories in Hindi : लेडी डौक्टर कहां है

Moral Stories in Hindi :  सुबह से ही मीरा बहुत घबराहट महसूस कर रही थी. शरीर में भी भारीपन था और मन तो खैर… न जाने कब से उस के ऊपर अपराधबोध के बोझ लदे हुए हैं. काम छोड़ कर आराम करने का तो सवाल ही नहीं उठता था. बवाल मच जाएगा घर में. सब की दिनचर्या में अस्तव्यस्तता फैल जाएगी. वैसे भी कोरोना के चलते घर में माहौल हर समय गंभीर रहता है. सासससुर घर में हर समय पड़े रहने से खीझ चुके हैं तो वहीं देवर औनलाइन क्लासेस से परेशान है. घर में तंगी न हो, इसलिए पति समर को औफिस जाना पड़ता है जिस से उन का मूड हमेशा ही खराब रहता है. कुछ नहीं बदला है तो वह है मीरा और उस के काम. अगर वह समय से काम नहीं करेगी तो सासुमां को अपने लड्डू गोपाल की सेवा को बीच में छोड़ना पड़ेगा, पति समर औफिस जाने के लिए लेट हो जाएंगे, देवर रोहन बिना कुछ खाए पढ़ने बैठ जाएगा और ससुरजी शोर मचाएंगे कि हर आधे घंटे में उन्हें चाय कौन देगा. इसलिए उसे बीमार पड़ने या आराम करने का हक नहीं है इस हालत में भी. शुक्र है कि जेठ दूसरे शहर में रहते हैं अपने परिवार के साथ, वरना उन के बच्चों के भी नखरे उठाने पड़ते.

पेट में तेज दर्द उठा. इतनी भयानक पीड़ा, पर अभी तो मात्र 7 महीने ही हुए हैं. यह लेबरपेन तो नहीं हो सकता, शायद थकान से हो रहा हो. उलटी का एक गोला अंदर बनने लगा तो वह बाथरूम की ओर भागी. सुबह चाय के साथ सिर्फ एक बिस्कुट खाया था, सो, वही निकल गया. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि तुम्हारा शरीर इतना कमजोर है कि उसे ताकत के लिए पौष्टिक भोजन की जरूरत है. हर एक घंटे बाद उस के लिए कुछ खाते रहना आवश्यक है, खासकर सुबह बिस्तर से उठते ही एक सेब तो वह खा ही ले. इस से उलटियां नहीं होंगी. डाक्टर के निर्देश और हिदायतें केवल उस के परचे तक ही सीमित हैं. घर में न तो उस की बातों को कोई मानता है और न ही उसे अपने ऊपर ध्यान देने का समय मिल पाता है. डाक्टर ने तो यह भी कहा था कि कोरोना का संक्रमण उस के और उस के होने वाले बच्चे के लिए घातक हो सकता है, जितनी ज्यादा हो सके उतनी कोशिश करे कि उसे अस्पताल न आना पड़े. लेकिन, यहां तो बाहर से जो कुछ आता उसे सैनिटाइज करने का काम भी मीरा के हिस्से था.

इतनी पढ़ीलिखी तो वह भी है कि प्रैग्नेंसी में कैसे केयर रखनी चाहिए, इस की जानकारी रखती है. पर वह कुछ करना भी चाहे तो सासुमां फट से ताना मारती हैं, “पता नहीं इतनी नाजुक क्यों है, मैं ने भी बच्चे पैदा किए हैं, वे भी बेटे, और तू है कि लड़कियों को कोख में रखने पर भी इतनी मरियल सी रहती है.”

वह अकसर सोचती है सासुमां का इतनी पूजा और भक्ति का क्या फायदा जब उन के अंदर सहनशीलता का एक कण तक नहीं. हर समय गुस्से से उबलती रहती हैं. उन की बात न मानो तो चिल्लाने लगती हैं. वह मानती है कि दूसरों के दर्द समझो और जितना हो सके, दूसरों के काम आ सको, वही सच्ची पूजा. इस बात से भी उन्हें बहुत आपत्ति है.

“न जाने कैसी कुमति बहू मिली है. अरी, कभी भगवान के सामने खड़े हो कर हाथ भी जोड़ लिया कर. हे राम, न जाने क्या अनिष्ट हो इस की वजह से,” वे आरती करती जातीं और यह भी बोलती जातीं. उसे उन पर हंसी आती और दया भी. बहू को बेटी कैसे समझ सकते हैं ऐसे लोग, जिन के अंदर ममता का सोता बहता ही नहीं है. विडंबना तो देखो, एक औरत हो कर भी दूसरी औरत की पीड़ा नहीं समझतीं.

“सत्यानाश, दूध उबल कर गिर रहा है. सुबहसुबह कैसा अपशकुन करने पर तुली है, मीरा,” सासुमां की कठोर और तीव्र आवाज पूरे घर में गूंज गई.

“वह मां… उलटी आ गई थी,” सहमे स्वर में मीरा ने कहा. वह जल्दीजल्दी गैस साफ करने लगी. “पेट में भी दर्द हो रहा है, और काफी थकान महसूस कर रही हूं,” थोड़ी हिम्मत कर उस ने कह ही दिया.

“पेट में दर्द हो रहा है तो थोड़ी अजवायन निगल जा पानी के साथ. हो सकता है गैस बन गई हो पेट में. अभी तो 2 महीने बाकी हैं, और हां, खयाल रख अपनी कोख में पल रहे बच्चे का. जांच से पता लग ही गया है कि इस बार लड़का है. पता चले जांच के लिए अस्पताल ले कर गए और वहां से कोरोना ले आई. अपने साथसाथ पूरे घर को ले कर डूबेगी. अच्छा, ऐसा कर नाश्ता कर ले. रसोई का सारा काम तो निबट ही चुका है,” सासुमां ऐसे बोलीं मानो कोई एहसान कर रही हों.

साढ़े 11 बज चुके थे, और भूख तो उसे भी सता रही थी. शायद न खाने से गैस बन गई हो, मीरा ने सोचा.

नाश्ता कर, कमरे में आ कर लेट गई मीरा. दर्द अभी भी हो रहा था. पेट से होतेहोते नीचे तक पहुंच रहा था. अजीब सी ऐंठन और बेचैनी थी. सोने की कोशिश करने लगी, पर सोच के ऊपर तो अनगिनत परछाइयां मंडरा रही थीं. क्या होगा जब घर में सब को पता लगेगा कि इस बार भी उस की कोख में लड़की ही है. डाक्टर से अनुरोध कर उस ने ही उन से यह झूठ बोलने को कहा था. हालांकि लड़का है या लड़की, इस की जांच कराना अवैधानिक है, पर फिर भी सबकुछ होता है. छोटे क्लीनिकों में पैसे खिला कर और अपनी जानपहचान निकाल कर समर ने इस का बंदोबस्त कर लिया था. 2 लड़कियों को गर्भ में आते ही मारने का अपराधबोध एक बोझ की तरह उस के सीने से लिपटा रहता है. कितना मना किया था उस ने, रोई थी, गिड़गिड़ाई थी, पर न समर माना था और न ही सासुमां ने उस की बात सुनी थी.

“लड़कियां हमें चाहिए ही नहीं. बस, बेटे होने चाहिए. लड़की को पढ़ाओ, खर्च करो, उस की शादी करो और उस का फायदा उठाए उस की ससुराल वाले. ससुराल वालों के नखरे सहो, सो अलग. बेकार में सारी जिंदगी खपाने का कोई शौक नहीं हमें. मैं नहीं चाहती कि मेरा समर पूरी जिंदगी लड़कियों की वजह से खटता रहे,” सासुमां के तर्क उसे भयभीत कर गए थे.

“मां, आप भी तो लड़की हैं. आप ऐसा कैसे कह सकती हैं? आप भी तो ब्याह कर इस घर में आई हैं और अपने बेटे के लिए भी तो आप भी लड़की को ही ब्याह कर लाई हैं. अगर आप के मांबाप ने आप को भी कोख में ही मार दिया होता या मुझे भी जन्म नहीं लेने दिया होता तो न ससुरजी की शादी होती और न ही समर की. लड़कियां नहीं होंगी तो लड़के कुंआरे ही रह जाएंगे. सोचिए मां, अगर आप को जन्म नहीं दिया गया होता तो… यह खयाल ही कितना पीड़ादायक है,” मीरा के ऐसा कहते ही घर में भूचाल आ गया था.

“वार्निंग दे रहा हूं तुम्हें, मां से कभी बहस करने की कोशिश मत करना,” समर की आंखों में उठती ज्वालाओं ने उस के थोड़ेबहुत साहस को राख कर दिया था. 2 बेटियां अजन्मी ही मार दी गईं और वह अपनी बेबसी पर केवल कराह ही पाई. अपनी ही कोख पर अधिकार नहीं था उसे, अपने रक्तमांस को सांस लेनेदेने का अधिकार नहीं था उसे. कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है वह भी जब हर तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का शोर है. बेटियां बेटों से कहीं ज्यादा टेलेंटेड साबित हो रही हैं और हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं. यही नहीं, बेटों से कही ज्यादा पेरेंट्स का ख्याल रखती हैं, फिर भी इन लोगों की ऐसी सोच है.

मां तो चलो पुराने खयालात रखती हैं, पर समर, वे तो ऐजुकेटेड इंसान हैं, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं जहां लड़कियों की संख्या लड़कों से कम नहीं है, वे किस तरह लड़कीलड़के में भेद कर सकते हैं यहां तक कि लिंग परीक्षण करा गर्भपात करवा सकते हैं. समर कंजर्वेटिव हैं, यह तो मीरा शादी के शुरुआती दिनों में ही जान गई थी. उस का उन्हीं के पुरुषमित्रों से बात करना या आसपड़ोस के किसी पुरुष से बात करना उन्हें अखरता था, यहां तक कि रिश्तेदारों में भी पुरुषों से उस का हंसीमजाक करना उन्हें चुभता था.

कैसे दोहरे मापदंड हैं, मीरा अकसर सोचती. एक तरफ लड़की को जन्म न दो और दूसरी ओर पुरुषों से दूरी बना कर रखो.

पर कहीं जन्म लेने के बाद उस की बेटी को मार डाला गया तो क्या होगा… मीरा कांप गई. अजन्मी बेटियां तो चली गईं, पर उस की गोद में आई बेटी अगर उस से छीन ली गई तो अपराधबोध के बोझों को क्या कभी वह अपने से अलग कर पाएगी? साहस तो जुटाना ही होगा मीरा को इस बार. उस ने जैसे खुद ही अपना मनोबल बढ़ाने की कोशिश की.

“दोपहर के खाने का वक्त हो गया है, आज हमें भूखा ही रखने का इरादा है क्या?” सासुमां दरवाजे पर खड़ी थीं. अपनी गीली आंखों को पोंछा नहीं मीरा ने. नहीं उठा जा रहा है उस से.

“मां, अस्पताल ले चलिए मुझे, लगता है समय से पहले ही बेबी हो जाएगा,” मीरा के पीले पड़ते चेहरे और उखड़ती सांस के कंपन को सुन सहम गईं कमला. कहीं इसे कुछ हो गया तो अपने वंश से भी हाथ धोने पड़ेंगे. मीरा उन्हें इस समय कुछ ज्यादा ही कमजोर लगी. शरीर से जैसे किसी ने सारा रक्त ही चूस लिया हो.

“मैं समर को फोन करती हूं,” वे बाहर भागीं.

“मैं कैब बुला लेता हूं, समर को औफिस से ही घर के सब से पास जो सरकारी अस्पताल है उस में आने को कहो,” ससुरजी की आवाज मीरा के कानों में पड़ी. वह जानती थी कि मांबेटे के सामने चाहे कुछ न बोलें, पर उस के प्रति उन के मन में कोमल संवेदनाएं थीं. कुछ जरूरी सामान रखने में सासुमां ने उस की मदद की.

कैब में बैठे वे पूरे रास्ते बड़बड़ाते रहे कि आखिर अस्पताल में मीरा को भरती किया जाएगा भी या नहीं. कोरोना के चलते अस्पताल में किसी को भी भरती नहीं किया जा रहा था. जिसे किया आ रहा था उस से बड़ी कीमत वसूली जा रही थी. दिल्ली के हालात तो वैसे भी त्रस्त थे. ऐसे में मन में कई सवाल भी उठ रहे थे और डर भी था.

घर के सब से पास वाले अस्पताल में मीरा को भरती करने से मना कर दिया गया. मीरा दर्द से कराह रही थी, तब भी उस की हालत को नजरंदाज करते हुए कहा गया कि यहां केवल कोरोना मरीजों को भरती किया जा रहा है और एक भी बैड खाली नहीं है.

वहीं समर भी आ चुका था. समर मीरा और मातापिता को ले कर दूसरे अस्पताल गया. वहां भी उन्हें यह कह कर लौटा दिया गया कि बैड खाली नहीं है.

“अरे, भगवान की दया से ही बहू को भरती कर लो, हालत तो देखो इस की,” मीरा की सास रिसेप्शन पर कहने लगीं.

““मां जी, यहां भगवान की नहीं, डाक्टर की दया चलती है. वेंटिलेटर और अन्य सवास्थ सुविधाओं से जान बचती है, भगवान का नाम जपने से नहीं. देर मत कीजिए और किसी दूसरे अस्पताल जाइए, यहां कोरोना के कई गंभीर केसेस पहले ही आए हुए हैं,” रिसेप्शनिस्ट ने कहा.

मारेमारे वे लोग तीसरे अस्पताल पहुंचे जहां किसी तरह मीरा को अस्पताल में भरती कर लिया गया. मशीन लगा कर डाक्टर ने टेस्ट किया. बच्चे की सांस चल रही थी, पर वह रिस्पौंड नहीं कर रहा था.

“तुरंत सिजेरियन करना होगा, वी कांट टेक चांस, इट्स ए प्रीमेच्योर डिलीवरी, इसलिए हो सकता है थोड़ी कौंप्लीकेटेड हो, वैसे भी, इन की मेडिकल हिस्ट्री बता रही है कि पहले 2 अबौर्शन कराए हैं आप ने,” डा. मजूमदार, जो उस समय ड्यूटी पर थे, सारी रिपोर्ट्स ध्यान से पढ़ रहे थे. हैरानी थी उन के चेहरे पर.

समर ने दबी आवाज में वहां खड़ी सिस्टर से पूछा, “कोई लेडी डाक्टर नहीं है क्या इस समय? गाइनी तो लेडी डाक्टर को ही होना चाहिए. डिलीवरी वही तो करवा सकती है. अब तक तो चेकअप लेडी डाक्टर ही करती आई है. क्या कोई लेडी डाक्टर नहीं आ सकती क्या?”

““आप का दिमाग ठिकाने तो है? कैसी बातें कर रहे हैं आप. क्या आप ने आसपास का हाल देखा है, लोग भरती होने के लिए यहांवहां भटक रहे हैं, कोरोना से पीड़ित तड़प रहे हैं. और एक तरफ आप हैं जो लेडी डाक्टर की मांग कर रहे हैं, जरा सोचसमझ कर तो बात कीजिए,”” पास खड़ी नर्स ने कहा.

यह सुन समर के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव झलकने लगे. वह असमंजस में पड़ गया. पास खड़े उस के पिता ने कहा, ““बेटा, इतनी मुश्किल से बहू को अस्पताल में बैड मिला है, बनीबनाई बात मत बिगाड़ो.”

मीरा की हालत बिगड़ रही थी, जिसे देख डाक्टर जल्दीजल्दी उस की रिपोर्ट देखने लगे.

“कोई प्रौब्लम थी जो वन मंथ की प्रेगनेंसी में ही दोनों बार अबौर्शन कराया गया?” डा. मजूमदार ने समर से पूछा.

“असल में बोथ वेयर गर्ल्स,” हिचकिचाहट का गोला जैसे समर के गले में फंस गया था. सच बताना और उस का सामना करना दोनों ही मुश्किल होते हैं. समर तो डा. मजूमदार को उस का चेकअप करते देख वैसे ही झल्ला रहा था. एक पुरुष जो थे वह. पर इस समय वह मजबूर था, इसलिए इस बारे में कोई शोर नहीं मचाया.

“व्हाट रबिश,” आवाज की तेजी से सकपका गए समर. 40 वर्ष के होंगे डा. मजूमदार, सांवली रंगत, आंखों पर चौकोर आकार का चश्मा, मुंह पर प्रौपर मास्क व शील्ड, और ब्लूट्राउजर व व्हाइट शर्ट के ऊपर डाक्टर वाला कोट पहना हुआ था उन्होंने. बंगाली होते हुए भी हिंदी का उच्चारण एकदम स्पष्ट व सधा हुआ था. बालों में एकदो सफेद बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. अकसर लोगों को कहते सुना है मीरा ने कि अगर डाक्टर स्मार्ट और वेलड्रेस्ड हो तो आधी बीमारी उसे देखते ही गायब हो जाती है. यह सोच ऐसे माहौल और ऐसी हालत में भी उस के होंठों पर मुसकान थिरकी, पर मुंह पर मास्क लगे होने से किसी को दिखाई नहीं पड़ा.

“सिस्टर, औपरेशन की तैयारी करो. इन्हें अभी लेबररूम में ले जाओ और ड्रिप लगा दो. शी इज वैरी वीक एंड एनीमिक औल्सो.”

सिस्टर को हिदायत देने के बाद वे समर से बोले, “हालांकि, अभी इन बातों का टाइम नहीं है, बट आई एम शौक्ड कि आप जैसे पढ़ेलिखे लोग अभी भी लड़कालड़की में अंतर करते हैं. शादी करने के लिए आप को लड़की चाहिए, घर संभालने के लिए लड़की चाहिए और बच्चे पैदा करने के लिए. वहीं, वंश चलाने के लिए, बेटा पैदा करने के लिए भी लड़की चाहिए तो उन्हें मारते क्यों हो? जो कोख जन्म देती है, उसी की कोख में मर्डर भी कर देते हो. बहुत दुखद बात है. आई एम सरप्राइज्ड एंड शौक्ड बोथ, मिस्टर समर. इस से भी बढ़ कर वर्तमान में लोगों की हालत देखते हुए आप को अपनी पत्नी के कोरोना संक्रमित होने या बच्चे के संक्रमित होने का डर नहीं है, बल्कि इस बात की फिक्र है कि लेडी डाक्टर है या नहीं, पेट में लड़का है या नहीं.”

समर जैसे कुछ समझ नहीं रहा था या समझना नहीं चाहता था. उसे विचारशून्य सा खड़ा देख सासुमां बोलीं, “डाक्टर साहब, इस का औपरेशन तो लेडी डाक्टर से ही कराएंगे, आप उन्हें ही बुला दो. कोई तो होगी इस समय ड्यूटी पर.”

“इस समय लेडी डाक्टर कोई नहीं है, और इंतजार करने का हमारे पास समय नहीं है. आप को तो शुक्र मनाना चाहिए कि आप की बहू को ट्रीट करने के लिए कोई है. दूसरा अस्पताल ढूंढने की कोशिश या लेडी डाक्टर का वेट करने के चलते आप मांबच्चे दोनों की जान को अगर खतरे में डालना चाहते हैं तो चौयस इज योअर, पर मैं इस की इजाजत नहीं दे सकता. और मांजी, अगर आप इसी तरह लड़कियों को मारती रहेंगी तो लेडी डाक्टर कैसे होंगी? डाक्टर ही क्या, किसी भी पेशे में कोई महिला होगी ही नहीं. इट्स शेमफुल. आई डोंट अंडरस्टेंड कि एक तरफ तो आप ने बेटी को पैदा होने से पहले ही मार दिया और दूसरी ओर लेडी डाक्टर से ही डिलीवरी करवाना चाहती हैं,” डा. मजूमदार का चेहरा सख्त हो गया था.

“पर डाक्टर साहब, सुनिए तो, थोड़ी देर रुक सकें तो रुक जाएं. हो सकता है किसी लेडी डाक्टर की ड्यूटी हो. हमें तो लेडी डाक्टर से ही बहू का औपरेशन करवाना है. क्या गजब हो रहा है समर, यह…तू कुछ कह क्यों नहीं रहा और आप क्यों चुप खड़े हैं?” सासुमां कभी अपने बेटे को तो कभी अपने पति की ओर देखते हुए बड़बड़ाए जा रही थीं.

वहां मौजूद डाक्टर और नर्स समर और उस की मां के इस नाटक को देख हतप्रभ थे. देश में लोगों को यह नहीं पता कि कोरोना के कारण वे कल सुबह का सूरज देखेंगे भी या नहीं, और एक यह मांबेटे हैं जिन्हें लेडी डाक्टर का राग अलापने से फुरसत नहीं.

मीरा यह सब सुन रही थी और अंदर ही अंदर टूट रही थी, पर उसे टूटना नहीं था बल्कि मजबूत बनना था. अभी तो उसे एक और लड़ाई लड़नी थी, अपनी आने वाली बेटी की रक्षा करनी थी. जन्म होने से पहले तो मरने से उसे बचा लिया था, पर जन्म के बाद मिलने वाली पीड़ा, अवहेलना और तिरस्कार से उसे बचाना था. स्नेह, प्यार और सम्मानसब देते हुए उसे ही परवरिश करनी होगी. किसी और से उम्मीद रखना व्यर्थ है.

फिर भी, लेबररूम की ओर जाते हुए मीरा ने सांत्वना और प्यारभरे स्पर्श की उम्मीद में बड़ी आशा से समर की ओर देखा. पर वह तो चारों ओर नजरें घुमाता हुआ एक ही बात कह रहा था, “लेडी डाक्टर कहां है? उसे बुलाओ, जल्दी, हमें लेडी डाक्टर ही चाहिए.”

Best Hindi Stories : इधर उधर – क्यो पिता और भाभी के कहने पर शादी के लिए राजी हुई तनु

Best Hindi Stories : “देखो तनु, शादीब्याह की एक उम्र होती है.  कब तक यों टालमटोल करती रहोगी. यह घूमनाफिरना, मस्तीमटरगश्ती एक हद तक ही ठीक रहती है. उस के आगे ज़िंदगी की सचाइयां रास्ता देख रही होती हैं. सभी को उस रास्ते पर जाना होता है,”  जयनाथ अपनी बेटी को रोज की तरह समझाने का प्रयास कर रहे थे.

“ठीक है पापा.  बस, यह आख़िरी बार, कालेज का ग्रुप है, अगले महीने से तो कक्षाएं ख़त्म  हो जाएंगी, फिर इम्तिहान और बाद में आगे की पढाई…”

जयनाथ ने बेटी तनु की बात को सुन कर अनसुना कर दिया. वे हर रोज़ अपना काफी वक़्त तनु के लिए रिश्ता ढूंढने में बिताते. जिस गति से जयनाथ रिश्ते ढूंढढूंढ कर लाते, उस से दुगनी रफ़्तार से तनु रिश्ते ठुकरा देती.

“ये 2 लिफ़ाफ़े हैं, इन में 2 लड़कों के फोटो और बायोडाटा हैं, देख लेना.  और हां, दोनों ही तुम से मिलने इस इतवार को आ रहे हैं. मैं ने तुम से बिना पूछे ही दोनों को घर बुला लिया है. पहला लड़का अम्बर दिन में 11 बजे और दूसरा आकाश शाम को 4 बजे.” जयनाथ ने लिफ़ाफ़े टेबल पर रखते हुए कहा, ”इन दोनों में से तुम्हें एक को चुनना है.”

तनु ने अनमने ढंग से लिफ़ाफ़े खोले और एक नज़र डाल कर लिफ़ाफ़े वहीं पटक दिए. सामने देखा, भाभी खड़ी थीं. तनु बोली,  “लगता है भाभी,  इन दोनों में से एक के चक्कर में पड़ना ही पड़ेगा. आप लोगों ने बड़ा जाल बिछाया है. अब और टालना मुश्किल सा लग रहा है.”

“बिलकुल सही सोच रही हो तनु. हमें बहुत जल्दी है तुम्हें यहां से भगाने की. ये दोनों रिश्ते बहुत ही अच्छे हैं.  अब तुम्हें फैसला करना है, अम्बर या आकाश. पापामम्मी ने पूरी तहकीकात कर के ही तुम तक ये रिश्ते पहुंचाए हैं. आख़िरी फैसला तुम्हारा ही होगा.”

“अगर दोनों ही पसंद आगए तो?” तनु ने हंसते हुए कहा तो भाभी मुसकराए बगैर नहीं रह पाईं, बोलीं,  “तो कर लेना दोनों से.”

तनु सैरसपाटे और मौजमस्ती करने में विश्वास रखती थी. मगर साथ ही, वह पढ़ाईलिखाई और अन्य गतिविधियों में  भी अव्वल थी. कई संजीदा मसलों पर उस ने डिबेट के जरिए अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाई थी. घर में भी देशविदेश के कई चर्चित विषयों पर अपने भैया और जयनाथ से बहस करती व अपनी बात मनवा के ही दम लेती . यह भी एक कारण था कि उस ने कई रिश्ते नामंजूर कर दिए थे.

उसे लगता था कि उस के सपनों का राजकुमार किसी फिल्म के नायक से कम नहीं होना चाहिए. हैंडसम, डैशिंग, व्यक्तित्व ऐसा कि चलती हवा भी उस के दीदार के लिए रुक जाए. ऐसी ही छवि लिए वह हर रात को सोती.  उसे यकीन था कि उस के सपनों का राजकुमार एक दिन ज़रूर उस के सामने होगा.

रविवार को भाभी ने जबरदस्ती उठा कर उसे 11 बजे तक तैयार कर दिया. लाख कहने के बावजूद, उस ने न कोई मेकअप किया न कोई ख़ास कपडे पहने. तय समय पर ड्राइंगरूम में बैठ कर सभी मेहमानों का इंतज़ार करने लगे. करीब आधे घंटे के इंतज़ार के एक गाडी आ कर रुकी और उस में से एक बुज़ुर्ग दंपती उतरे.

तनु ने फ़ौरन सवाल दाग दिया, “आप लोग अकेले ही आए हैं, अम्बर कहां है?” तनु के इस सवाल ने जयनाथ व अन्य को सकते में डाल दिया. इस के पहले कि कोई कुछ जवाब देता, एक आवाज़ उभरी, “मैं यहां हूं, मोटरसाइकिल यहीं लगा दूं?”

तनु ने देखा, तो उसे अपलक  देखते रह गई.  इतना  खूबसूरत बांका नौजवान बिलकुल उस के सपने से मिलताजुलता. उसे लगा, कहीं वह ख्वाब तो नहीं देख रही. इतना बड़ा सुखद आश्चर्य और वह भी इतना ज़ल्दी… तनु की तंद्रा तब भंग हुई जब युवक मोटरसाइकिल पार्क करने की इज़ाज़त मांग रहा था.”

“हां बेटा, जहां इच्छा हो, लगा दो,” जयनाथ ने कहा.

अम्बर ने मोटरसाइकिल लगाई और सभी घर के अंदर दाखिल हो गए. इधरउधर की औपचारिक वार्त्तालाप के बाद तनु बोल पडी, “अगर आप लोग इज़ाज़त दें तो मैं और अम्बर थोड़ा बाहर घूम आएं?”

“गाडी में चलना चाहेंगी या…” अम्बर ने पूछना चाहा, तनु फ़ौरन बोल पड़ी, “मोटरसाइकिल पर, मेरी फेवरेट सवारी है.”

थोड़ी ही देर में अम्बर की मोटरसाइकिल हवा से बातें कर रही थी. समंदर के किनारे फर्राटे से दौड़ती मोटरसाइकिल में बैठ कर तनु खुद को किसी अन्य दुनिया में महसूस कर रही थी. “नारियल पानी पीना है,”  तनु ने जोर से कहा. “पूछ रही हैं या कह रही हैं?”

“कह रही हूं, तुम्हें पीना हो तो पी सकते हो.”

अम्बर ने फ़ौरन मोटरसाइकिल घुमा दी. विपरीत दिशा से आती गाड़ियों के बीच मोटरसाइकिल को कुशलता से निकालते हुए दोनों नारियल पानी वाले के पास पहुंच गए. अम्बर ने एक सांस में ही नारियल पानी ख़त्म कर दिया और नारियल वाले को उछल कर जेब से पर्स निकाल कर पैसे दे दिए, “मैं ने अपने नारियल के पैसे दे दिए, आप अपने दे दीजिए.

तनु अवाक हो कर अम्बर को ताकने लगी.

“बुरा मत मानिएगा तनु जी, आप का मेरा अभी कोई रिश्ता नहीं है, मैं क्यों आप पर खर्च करूं?”

तनु हार मानने वालों में से नहीं थी, “और जो आप के मातापिता हमारे घर पर काजू, किशमिश और चायकौफी उड़ा रहें हैं, उस का क्या?”

“बात तो सही है. हम दिल्ली वाले हैं, मुफ्त के माल पर हाथ साफ़ करना हमें खूब आता है,” अम्बर ने हंसते हुए कहा, “चिंता न करें, मैं दोनों के पैसे दे चुका हूं, नारियल वाला छुट्टा करवाने गया है.“ अम्बर की इस बात पर तनु हंसे बगैर नहीं रह पाई.

अम्बर के जूते मिटटी में सन गए थे. उस ने पौलिश वाले बच्चे से जूते पौलिश करवाए. तब तक नारियल वाला आ चुका था.

“आप ने देशविदेश में कहां की सैर की है?” तनु ने पूछा तो मानो अम्बर के पास जवाब हाज़िर थे, “यह पूछिए कहां नहीं गया.  नौकरी ही ऐसी है, पूरा एशिया और यूरोप का कुछ हिस्सा मेरे पास है. आनाजाना लगा रहता है.”

“क्या फर्क लगता है आप को अपने देश में और परदेस में?

“इस का क्या जवाब दूं, सभी जानते हैं, हम हिंदुस्तानी कानून तोड़ने में विश्वास करते हैं. नियम न मानना हमारे लिए गर्व की बात है. वहां के तो जानवर भी कायदेकानून की हद से बाहर नहीं जाते.”

“फिर क्या होगा अपने देश का?”

“जहां तक देश का सवाल है, सबकुछ चल ही रहा है और चलता रहेगा. युवा विदेशों की तरफ भाग रहे हैं और सरकार उन्हें रोकने का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना रही. अब मुंबई को ही देख लीजिए, नेता सरकार बनाने के लिए अपनी सोच और अपना दल बदलते रहते हैं और लोग अपना दिल.” एक पल के लिए रुक कर अम्बर ने एक नज़र घुमाई और फिर बोला, “ फिलहाल तो यह सोचिए कि हमारा क्या होगा, आसमान पर बादल छा रहे हैं और मेरे 10 तक की गिनती गिनने तक बरसात हमें अपनी आगोश में ले लेगी.”

‘घर तो जाना ज़रूरी है. मेरी दूसरी शिफ्ट भी है,’  तनु मन ही मन बुदबुदाई और फिर ऊंची आवाज़ में बोली, “चलते हैं. और अगर भीग भी गए तो मुझे फर्क नहीं पड़ता, मुझे बरसात में भीगना पसंद है.”

“मुझे भी,” अम्बर ने मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए कहा, “ मगर, यों भीगने से पहले थोड़ा इंतजार करना अच्छा नहीं रहेगा? चलिए, पास में ही ताज के रेस्तरां में एक कप कौफ़ी हो जाए, यह मेरा रोज़ का सिलसिला है.”

तनु ने मुसकरा कर हामी भर दी. अगले चंद ही मिनटों में वे दोनों ताज के रेस्तरां में थे. अम्बर ने ऊंची आवाज़ में वेटर को आवाज़ दी और जल्दी से 2 कप कौफ़ी लाने का और्डर दिया. कौफ़ी ख़त्म कर के अम्बर ने एक बड़ा नोट बतौर टिप वेटर को दिया और दोनों बाहर आ गए. बारिश रुकने के बजाय और भी उग्र हो चुकी थी.

पूरे रास्ते तेज बरसात में भीगते हुए तनु को बहुत आनंद आ रहा था. घर पहुंचतेपहुंचते दोनों तरबतर हो चुके थे. अम्बर के मातापिता मानो उन का इंतजार ही कर रहे थे. उन के आते ही औपचारिक बातचीत कर के सभी वहां से चल पड़े.

“कैसा लगा लड़का?”  भाभी ने उतावलेपन से पूछा तो तनु ने स्पष्ट कर दिया, “भाभी, दूसरे लड़के को मना ही कर दो, कह दो मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मुझे अम्बर पसंद है.”

“तनु, अब अगर वे आ ही रहे हैं, तो आने दो.  कुछ समय गुजार कर उन्हें रुखसत कर देना. कम से कम हमारी बात रह जाएगी.”

“लेकिन भाभी, जब मुझे अम्बर पसंद है तो इस स्वयंबर की क्या ज़रूरत है?

ठीक 4 बजे एक लंबीचौड़ी गाडी आ कर रुकी. गाडी में से एक संभ्रांत उम्रदराज़ जोड़ा और एक नवयुवक उतरा. पूरे परिवार ने बड़े ही सम्मान से उन का स्वागत किया.

तनु ने एक नज़र लड़के पर डाली और उस के मुंह से अनायास ही निकल गया, “आप सूटबूट में तो ऐसे आए हैं, मानो किसी इंटरव्यू में आए हों?” जयनाथ ने इशारे से तनु को हद में रहने को कहा.

जवाब में सब ने एक ठहाका लगाया और युवक ने बिना झिझके कहा, “आप सही कह रही हैं, एक तरह से मैं एक इंटरव्यू से दूसरे इंटरव्यू में आया हूं. दरअसल, हम यहां का कामा होटल खरीदने का इरादा बना रहे हैं. अभी उन के निदेशकों से मीटिंग थी. वह किसी इंटरव्यू से कम नहीं थी. और यह भी किसी इंटरव्यू से कम नहीं.”

तनु को कोई उत्तर नहीं सूझा. मगर, इधरउधर की औपचारिक बातें करने के वह मुख्य मुद्दे पर आ गई और उस ने कह दिया, “अगर आप लोग इज़ाज़त दें तो मैं और आकाश थोड़ा समय घर से बाहर…”

“हां ज़रूर,” लगभग सब ने एकसाथ कहा.

आकाश ने ड्राइवर से चाबी ली और तनु के लिए गाडी का दरवाज़ा खोल कर बैठने का आग्रह किया. तनु की फरमाइश पर गाड़ी ने गेटवे औफ़ इंडिया का रुख किया.  “यहां से एक शौर्टकट है, आप चाहें, तो ले सकते हैं, 15-20 मिनट बच जाएंगे.” “तनु जी, आप भूल रही हैं कि इधर नो एंट्री है,”  आकाश ने कहा. फिर, मानो उसे कुछ याद आया, बोला, “अगर आप बुरा न मानें, तो मैं रास्ते में सिर्फ 10 मिनटों के लिए होटल कामा में रुक जाऊं. वहां के निर्दशकों का मैसेज आया है, वे मुझ से मिलना चाहते हैं.”

तनु ने अनमने मन से हां कर दी. आकाश ने तनु को कौफी शौप में बिठाया. वेटर को आवाज़ दे कर कौफी और चिप्स का और्डर दिया और खुद माफी मांग कर बोर्डरूम की तरफ चला गया. ठीक 10 मिनट के बाद जब आकाश आया तो उस के चेहरे पर खुशी और विजय के भाव थे. “मेरा पहला इंटरव्यू कामयाब हुआ. यहां की डील फाइनल हो गई है. तनु जी,  आप हमारे लिए बहुत लकी साबित हुईं,” यह कह कर अम्बर ने वेटर से बिल लाने को कहा. मैनेजर ने बिल बनाने से इनकार कर दिया, बोला, “यह हमारी तरफ से.”

“नहीं मैनेजर साहब, अभी हम इस होटल के मालिक बने नहीं हैं. और बन भी जाएं, तो भी मैं नहीं चाहूंगा कि हमें या किसी और को कुछ भी मुफ्त में दिया जाए. मेरा मानना है की मुफ्त में सिर्फ खैरात बांटी जाती है और खैरात इंसान की अगली नस्ल तक को बरबाद करने के लिए काफी होती है.”

होटल के बाहर निकल कर आकाश ने तनु की ओर नज़र डाली और कहा, “बहुत दिनों से लोकल  में सफ़र करने की इच्छा थी, आज छुट्टी का दिन है, भीड़भाड़ भी कम होगी. क्यों न हम यहां से लोकल ट्रेन में चलें, फिर वहां से टैक्सी…” तनु ने अविश्वास से आकाश की ओर देखा और दोनों स्टेशन की तरफ चल पड़े.

“आप तो अकसर विदेश जाते रहते होंगे,  क्या फर्क लगता है हमारे देश में और विदेशों में?

“सच कहूं तो लंदन स्कूल औफ़ इकोनौमिक्स से डिग्री लेने के बाद मैं विदेश बहुत कम बार गया हूं. आजकल के जमाने में इंटरनैट पर सबकुछ मिल जाता है और जहां तक घूमने की बात है, यूरोप की छोटीमोटी भुतहा इमारतें, जिन्हें वे कैशल के नमूने कहते हैं और प्रवेश के लिए बीसों यूरो ले लेते हैं, उन के मुकाबले बीकानेर या जैसलमेर के महल और किले मुझे ज्यादा भव्य लगते हैं. स्विट्ज़रलैंड से कहीं अच्छा हमारा कश्मीर है, सिक्किम है, अरुणाचल है.  बस, ज़रूरत है सफाई की, सुविधाओं की और ईमानदारी की.”

“जो हमारे यहां नहीं है, है न?” तनु ने प्रश्न किया.

“आप इनकार नहीं कर सकतीं कि बदलाव आया है और अच्छी रफ़्तार से आया है. जागरूकता बढ़ी है, देश की प्रतिष्ठा बढी है, हमारे पासपोर्ट की इज्ज़त होनी शुरू हो गई है. आज का भारत कल के भारत से कहीं अच्छा है और कल का भारत आज के भारत से लाख गुना अच्छा होगा.”

“आप तो नेताओं जैसी बात करने लगे आकाश जी,” तनु को उस की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

गेटवे के किनारे तनु ने नारियल पानी पीने की इच्छा जाहिर कर दी. दोनों ने नारियल पानी पिया.  इसी दौरान आकाश ने पास में फुटबौल खेल रहे बच्चों के साथ कुछ समय गुजारा. “बड़े दिनों बाद आज फुटबौल  पर हाथ साफ़ किया है, या यों कहूं कि पैर साफ़ किया है. हमारे क्लब में तो गोल्फ, स्क्वाश, टेनिस आदि खेल कर ही लोग खुश होते रहते हैं. शायद, यही खेल उन का परिचय है. इन्हीं खेलों की ट्रौफी उन की पहचान है,” यह कहने के साथ आकाश के चेहरे पर मुसकान थी. आकाश के जूते मिटटी से सन गए थे.  पौलिश करने वाले दोतीन बच्चों ने उसे घेर लिया और पौलिश करवाने का आग्रह करने लगे. आकाश उन सब को ले कर कोने में गया मानो उन से कोई ज़रूरी मंत्रणा करनी हो.

सही कहा गया है कि इंसान के हालात का और मुंबई की बरसात का कोई भरोसा नहीं. एक बार फिर बादलों ने पूरे माहौल को अपनी आगोश में कर लिया और चारों ओर रात जैसा अंधेरा छा गया. अगले ही पल मोटीमोटी बूंदों ने दोनों को भिगोना शुरू कर दिया. दोनों ने भाग कर पास की एक छप्परनुमा दुकान में घुस कर गरमगरम भुट्टों पर अपना हाथ साफ़ कर दिया. आकाश ने जेब से पैसे निकाले और भुट्टे वाली बुज़ुर्ग महिला के हाथ में थमा दिए. उस की नज़र उमड़ते बादलों पर ही थी. प्रश्नवाचक दृष्टि से उस ने तनु की ओर देखा और दोनों बाहर निकल गए.  टैक्सी लेने की तमाम कोशिशें नाकामयाब होने के बाद दोनों स्टेशन की ओर पैदल ही निकल पड़े. रास्ते में आकाश ने ड्राइवर को फ़ोन कर के कामा होटल से गाड़ी ले कर स्टेशन पर आने को कह दिया .

घर पहुंचतेपहुंचते रात हो चुकी थी. आकाश और उस के परिवार वालों ने इज़ाज़त मांगी. उन के जाते ही जयनाथ कुछ कहने के लिए मानो तैयार ही थे, “कितने पैसे वाले लोग हैं, मगर कोई मिजाज़ नहीं, कोई घमंड नहीं.  हम जैसे मिडिल क्लास वालों की लड़की लेना चाहते हैं. दहेज़ की मांग नहीं, यहां तक कि…”

“तो मुझे क्या करना चाहिए, अम्बर के बजाय आकाश को पसंद कर लेना चाहिए क्योंकि आकाश करोड़पति है. उस के मातापिता घमंडी नहीं हैं. वे धरातल से जुड़े हैं. और सब से बड़ी बात कि उन्हें हम, हमारा परिवार,  हमारी सादगी पसंद हैं. मेरी पसंद मैं भाभी को सुबह ही बता चुकी हूं. आकाश से मिलने के बाद मेरी पसंद में  कोई तबदीली नहीं आई है.”

“ठीक है, इस बारे में हम बाकी बातें कल करेंगे,” जयनाथ ने लगभग पीछा छुडाते हुए कहा.

रात के करीब 2 बजे तनु ने भाभी को फ़ोन मिलाया, “भाभी, मुझे आप से मिलना है. भैया तो बाहर गए हैं. ज़ाहिर है आप भी जग रही होंगी. मुझे अम्बर के बारे में कुछ बात करनी है. मै आ जाऊं?”

“तनु, मैं गहरी नींद में हूं. हम सुबह मिलें?”

“मैं तो आप के दरवाज़े पर ही हूं. गेट खोलेंगी या खिड़की से आना पड़ेगा?”

अगले ही पल तनु अंदर थी. बातों का सिलसिला शुरू करते हुए भाभी ने तनु से पूछा, “तुम मुझे अपना फैसला सुना चुकी हो. अब इतनी रात मेरी नींद क्यों खराब कर रही हो?”

“भाभी, अम्बर को फ़ोन कर के कहना है कि मैं उस से शादी नहीं कर सकती.”

“क्या?”  भाभी को लगा कि वह अभी भी नींद में ही है. पलक झपकते ही तनु ने अम्बर को फ़ोन लगा दिया, “हेलो अम्बर, मैं तनु बोल रही हूं. मैं इधरउधर की बात करने के बजाय सीधा मुद्दे पर आना चाहती हूं.”

“ठीक है, जल्दी बता दो. मैं इधर हूं या उधर.”

“इधरउधर की छोड़ो और सुनो, सौरी यार, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती.”

“ठीक है, मगर इतनी रात को क्यों बता रही हो, सुबह बतातीं?”

“सुबह तक मेरा दिमाग बदल गया तो…? तुम हो ही ऐसे कि तुम्हें मना करना बहुत मुश्किल है.”

“अच्छा, औल द बेस्ट. अब सो जाओ और मुझे भी सोने दो. किसी उधर वाले से शादी तय हो जाए तो जगह, तारीख वगैरह बता देना, मैं आ जाऊंगा, मुफ्त का खाना खा कर चला आऊंगा.”

“मुफ्ती साहब, गिफ्ट लाना पड़ेगा.  शादी में खाली लिफ़ाफ़े देने का रिवाज़ दिल्ली में होगा, मुंबई में नहीं.”

“ठीक है, दोचार फूल ले आऊंगा. अब मुझे सोने दो. सुबह मेरी फ्लाइट है.”

भाभी, सकते में थीं.”  यह सब क्या है तनु? तुम तो अम्बर पर फ़िदा हो गई थीं. क्या आकाश का पैसा तुम्हें आकर्षित कर गया, क्या उस की बड़ी गाड़ी अम्बर की मोटरसाइकिल से आगे निकल गई?”

“भाभी, अम्बर पर फ़िदा होना स्वाभाविक है. ऐसे लड़के के साथ घूमनाफिरना मजे करना अच्छा लगेगा.  मगर शादी ऐसा बंधन है जिस में एक गंभीर, संजीदा इंसान चाहिए न कि कालेज से निकला हुआ एक हीरोनुमा लड़का. हम घर से बाहर निकले, आकाश ने पूरी शिद्दत के साथ ट्रैफिक के सारे नियमों का पालन किया. मेरे लाख कहने के बावजूद उस ने गाड़ी नो एंट्री में नहीं घुमाई.  अपने देश के बारे में उस के विचार सकारात्मक थे. उसे देश से कोई शिकायत न थी. रेस्तरां में वेटर से इज्ज़त से बात की, न कि उसे वेटर कह कर आवाज़ दी. मुफ्त का खाने के बजाय उस ने पैसे देने में अपनी खुद्दारी समझी.  बड़ी गाड़ी छोड़ कर लोकल ट्रेन में जाने में उसे कोई परहेज नहीं.  नारियल पानी पी कर उस ने नारियल एक ओर उछाला नहीं, बल्कि डस्टबिन की तलाश की. पौलिश करने वाले बच्चों को कोने में ले गया और उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित किया. सब को कौपीपेंसिल खरीदने के लिए पैसे दिए. भुट्टे वाली माई को उस ने जब मुट्ठीभर के पैसे दिए तो उस का सारा ध्यान इस पर था कि मैं कहीं देख न लूं. इतने पैसे उस भुट्टे वाली ने एकसाथ कभी नहीं देखे होंगे… इतने  संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक के सामने मै एक प्यारे से हीरो को चुन कर जीवनसाथी बनाऊं, इतनी बेवकूफ मैं लगती ज़रूर हूं मगर हूं नहीं..”

भाभी, सिर पर हाथ रख कर बैठ गईं.

“क्या सिरदर्द हो रहा है?”

“ नहीं, बस, चक्कर से आ रहे हैं.”

“रुको, अभी सिरदर्द भी हो जाएगा,” तनु ने कहा तो भाभी बोल पड़ीं, “अब क्या बाकी है?”

तनु ने फ़ोन उठाया और एक नंबर मिलाया, “हेलो आकाश,  मैं ने फैसला कर लिया है, मुझे आप पसंद हैं. मैं आप से शादी करने को तैयार हूं. मुझे पूरा यकीन है कि मैं भी आप को पसंद हूं.”

“तुम ने फैसला ले कर मुझे बताने का समय जो चुना वह वाकई काबिलेतारीफ़ है,” दूसरी ओर से आवाज़ आई.

“है न, मगर भाभी इस बात को मानती ही नहीं. देखो, मुझे धक्के मार कर अपने कमरे से बाहर निकालने को उतारू हैं…”

Famous Hindi Stories : मैली लाल डोरी – अपर्णा ने गुस्से में मां से क्या कहा?

Famous Hindi Stories :  रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन 2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

अपर्णा ने नितिन से पूछा, ‘यह सब क्या है नितिन? सुबह मैं स्कूल गई थी, तब तो तुम ने कुछ नहीं बताया?’

‘तुम सुबह जल्दी निकल गई थीं, सूचना बाद में मिली. आज गुरुजी घर आने वाले हैं. जाओ तुम भी तैयार हो जाओ,’ कह कर नितिन फिर जोश से काम में जुट गया.

उस दिन देररात्रि तक गुरुजी का प्रोग्राम चलता रहा. न जाने कितने ही लोग आए और गए. सब को चाय, खाना आदि खिलाया गया. अपर्णा को सुबह स्कूल जाना था, सो, वह अपने कमरे में आ कर सो गई. दूसरे दिन शाम को जब स्कूल से लौटी तो नितिन बड़ा खुश था. ट्रे में चाय के 2 कप ले कर अपर्णा के पास ही बैठ गया और कल के सफल आयोजन के लिए खुशी व्यक्त करने लगा. तभी अपर्णा ने धीरे से कहा, ‘नितिन, आप खुश हो, इसलिए मैं भी खुश हूं परंतु मेहनत की गाढ़ी कमाई की यों बरबादी ठीक नहीं.’

‘तुम क्या जानो इन बाबाओं की करामात? और जगदगुरु तो पहुंचे हुए हैं. तुम्हें पता है, शहर के बड़ेबड़े पैसे वाले लोग इन के शिष्य बनना चाहते हैं परंतु ये घास नहीं डालते. अपना तो समय खुल गया है जो गुरुजी ने स्वयं ही घर पधारने की बात कही. तुम्हारी गलती भी नहीं है. तुम्हारे घर में कोई भी बाबाओं के प्रताप में विश्वास नहीं करता. तो तुम कैसे करोगी? व्यंग्यपूर्वक कह कर नितिन वहां से चला गया. शाम को फिर आया और कहने लगा, ‘देखो, यह लाल डोरी. इसे सदा हाथ में बांधे रखना, कभी उतराना नहीं, गुरुजी ने दी है. सब ठीक होगा.’

कलह और असंतोष के मध्य जिंदगी किसी तरह कट रही थी. बिना किसी काम के व्यक्ति की मानसिकता भी बेकार हो जाती है. उसी बेकारी का प्रभाव नितिन के मनमस्तिष्क पर भी दिखने लगा था. अब उस के स्वभाव में हिंसा भी शामिल हो गई थी. बातबात पर अपर्णा व बच्चों पर हाथ उठा देना उस के लिए आम बात थी. घर का वातावरण पूरे समय अशांत और तनावग्रस्त रहता. लगातार चलते तनाव के कारण अपर्णा को बीपी, शुगर जैसी कई बीमारियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.

एक दिन घर पर नितिन से मिलने कोई व्यक्ति आया. कुछ देर की बातचीत

के बाद अचानक दोनों में हाथापाई होने लगी और वह आदमी जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगा. कालोनी के कुछ लोग गेट पर जमा हो गए और कुछ अपने घरों में से झांकने लगे. किसी तरह मामला शांत कर के नितिन आया तो अपर्णा ने कहा, ‘यह सब क्या है? क्यों चिल्ला रहा था यह आदमी?’

‘शांत रहो, ज्यादा जबान और दिमाग चलाने की जरूरत नहीं है,’ बेशर्मी से नितिन ने कहा.

‘इस तरह कालोनी में इज्जत का फालूदा निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती?’

‘बोला न, दिमाग मत चलाओ. इतनी देर से कह रहा हूं, चुप रह. सुनाई नहीं पड़ता,’ कह कर नितिन ने एक स्केल उठा कर अपर्णा के सिर पर दे मारा.

अपर्णा के सिर से खून बहने लगा. अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो उस के सिर पर लगी बैंडएड देख कर पिं्रसिपल ऊषा बोली, ‘यह क्या हो गया, चोट कैसे लगी?’

उन के इतना कहते ही अपर्णा की आंखों से जारजार आंसू बहने लगे. ऊषा मैडम उम्रदराज और अनुभवी थीं. उन की पारखी नजरों ने सब भांप लिया. सो, उन्होंने सर्वप्रथम अपने कक्ष का दरवाजा अंदर से बंद किया और अपर्णा के कंधे पर प्यार से हाथ रख कर बोलीं, ‘क्या हुआ बेटा, कोई परेशानी है, तो बताओ.’

कहते हैं प्रेम पत्थर को भी पिघला देता है, सो ऊषा मैडम के प्यार का संपर्क पाते ही अपर्णा फट पड़ी और रोतेरोते उस ने सारी दास्तान कह सुनाई.

‘मैडम, आज शादी के 20 साल बाद भी मेरे घर में मेरी कोई कद्र नहीं है. पूरा पैसा उन तथाकथित बाबाजी की सेवा में लगाया जा रहा है. बाबाजी की सेवा के चलते कभी आश्रम के लिए सीमेंट, कभी गरीबों के लिए कंबल, और कभी अपना घर लुटा कर गरीबों को खाना खिलाया जा रहा है. यदि एक भी प्रश्न पूछ लिया तो मेरी पिटाई जानवरों की तरह की जाती है. सुबह से शाम तक स्कूल में खटने के बाद जब घर पहुंचती हूं तो हर दिन एक नया तमाशा मेरा इंतजार कर रहा होता है. मैं थक गई हूं इस जिंदगी से,’ कह कर अपर्णा फूटफूट कर रोने लगी.

ऊषा मैडम अपनी कुरसी से उठीं और अपर्णा के आगे पानी का गिलास रखते हुए बोलीं, ‘बेटा, एक बात सदा ध्यान रखना कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है. सब से बड़ी गलती तेरी यह है कि तू पिछले

20 सालों से अन्याय को सह रही है. जिस दिन तेरे ऊपर उस का पहला हाथ उठा था, वहीं रोक देना था. सामने वाला आप के साथ अन्याय तभी तक करता है जब तक आप सहते हो. जिस दिन आप प्रतिकार करने लगते हो, उस का मनोबल समाप्त हो जाता है. आत्मनिर्भर और पूर्णतया शिक्षित होने के बावजूद तू इतनी कमजोर और मजबूर कैसे हो गई? जिस दिन पहली बार हाथ उठाया था, तुम ने क्यों नहीं मातापिता और परिवार वालों को बताया ताकि उसे रोका जा सकता. क्यों सह रही हो इतने सालों से अन्याय? छोड़ दो उसे उस के हाल पर.’

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‘मैं हर दिन यही सोचती थी कि शायद सब ठीक हो जाएगा. मातापिता की इज्जत और लोकलाज के डर से मैं कभी किसी से कुछ नहीं कह पाई. लगा था कि मैं सब ठीक कर लूंगी. पर मैं गलत थी. स्थितियां बद से बदतर होती चली गईं.’ अपर्णा ने रोते हुए कहा.

अब ऊषा मैडम बोलीं, ‘जो आज गलत है, वह कल कैसे सही हो जाएगा. जिस इंसान के गुस्से से तुम प्रथम रात्रि को ही डर जाती हो और जिस इंसान को अपनी पत्नी पर हाथ उठाने में लज्जा नहीं आती. जो बाबाओं की करामात पर भरोसा कर के खुद बेरोजगार हो कर पत्नी का पैसा पानी की तरह उड़ा रहा है, वह विवेकहीन इंसान है. ऐसे इंसान से तुम सुधार की उम्मीद लगा बैठी हो? क्यों सह रही हो? तोड़ दो सारे बंधनों को अब. निर्णय तुम्हें लेना है,’ कह कर मैडम ने दरवाजा खोल दिया था.

बाहर निकल कर उस ने भी अब और न सहने का निर्णय लिया और अगले ही दिन अपने तबादले के लिए आवेदन कर दिया. 6 माह बाद अपर्णा का तबादला दूसरे शहर में हो गया.

नितिन को जब तबादले के बारे में पता चला, तो क्रोध से चीखते हुए बोला, ‘यह क्या मजाक है मुझ से बिना पूछे ट्रांसफर किस ने करवाया?’

‘मैं ने करवाया. मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. तुम्हारे उन तथाकथित गुरुजी ने तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज और अभी से ही तुम्हारी यह दुनिया तुम्हें मुबारक. अब और अधिक सहने की क्षमता मुझ में नहीं है.’

‘हांहां, जाओ, रोकना भी कौन चाहता है तुम्हें? वैसे भी कल गुरुजी आ रहे हैं. तुम्हारी तरफ देखना भी कौन चाहता है. मैं तो यों भी गुरुजी की सेवा में ही अपना जीवन लगा देना चाहता हूं,’ कह कर भड़ाक से दरवाजा बंद कर के नितिन बाहर चला गया.

बस, उस के बाद से दोनों के रास्ते अलगअलग हो गए थे. बेटे नवीन ने पुणे में जौब जौइन कर ली थी. परंतु आज आए इस एक फोन ने उस के ठहरे हुए जीवन में फिर से तूफान ला दिया था. तभी अचानक उस ने मां का स्पर्श कंधे पर महसूस किया.

‘‘क्या सोच रही है, बेटा.’’

‘‘मां, कुछ नहीं समझ आ रहा? क्या करूं?’’

‘‘बेटा, पत्नी के नाते नहीं, केवल इंसानियत के नाते ही चली जा, बल्कि नवीन को भी बुला ले. कल को कुछ हो गया, तो मन में हमेशा के लिए अपराधबोध रह जाएगा. आखिर, नवीन का पिता तो नितिन ही है न,’’ अपर्णा की मां ने उसे समझाते हुए कहा.

अगले दिन वह नवीन के साथ दिल्ली के सरकारी अस्पताल के बैड नंबर 401 पर पहुंची. बैड पर लेटे नितिन को देख कर वह चौंक गई. बिखरे बाल, जर्जर शरीर और गड्ढे में धंसी आंखें. शरीर में कई नलियां लगी हुई थीं. मुंह से खून की उलटियां हो रही थीं. पूछने पर पता चला कि नितिन को कोई खतरनाक बीमारी है. उसे आया देख कर नितिन के चेहरे पर चमक आ गई.

वह अपनी कांपती आवाज में बोला, ‘‘तुम आ गईं. मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी. अब मैं ठीक हो जाऊंगा,’’ तभी डाक्टर सिंह ने कमरे में प्रवेश किया. नवीन की तरफ मुखातिब हो कर वे बोले, ‘‘इन्हें एड्स हुआ है. अंतिम स्टेज में है. हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

‘‘आज आप के तथाकथित गुरुजी कहां गए. आप की देखभाल करने क्यों नहीं आए वे. जिन के कारण आप ने अपनी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज उन्होंने अपनी करामात क्यों नहीं दिखाई? मुझ से क्या चाहते हैं आप. क्यों मुझे फोन किया गया था?’’ अपर्णा आवेश से भरे स्वर में बोली. तभी देवर अरुण आ गया. उस ने जो बताया, उसे सुन कर अपर्णा दंग रह गई.

‘‘आप के जाने के बाद भैया एकदम निरंकुश हो गए. गुरुजी के आश्रम में कईकई दिन पड़े रहते. घर पर ताला रहता और भैया गुरुजी के आश्रम में. गुरुजी के साथ ही दौरों पर जाते. गुरुजी के आश्रम में सेविकाएं

भी आती थीं. गुरुजी सेविकाओं से हर प्रकार की सेवा करवाते थे. कई बार गुरुजी के कहने पर भैया ने भी अपनी सेवा करवाई. बस, उसी समय कोई इन्हें तोहफे में एड्स दे गई. गुरुजी और उन के आश्रम के लोगों को जैसे ही भैया की बीमारी के बारे में पता चला, उन्होंने इन्हें आश्रम से बाहर कर दिया. और आज 3 साल से कोई खैरखबर भी नहीं ली है.’’

अपर्णा मुंह खोले सब सुन रही थी. उस ने नितिन की ओर देखा तो उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए मानो अब तक की सारी काली करतूतों को एक माफी में धो देना चाहता हो.

अपर्णा कुछ देर सोचती रही, फिर नितिन की ओर घूम कर बोली, ‘‘नितिन, मेरातुम्हारा संबंध कागजी तौर पर भले ही न खत्म हुआ हो पर दिल के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. जब मेरे दिल में ही तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है, तो कागज क्या करेगा? जहां तक माफी का सवाल है, माफी तो उस से मांगी जाती है जिस ने कोई गुनाह किया हो. तुम ने आज तक जो कुछ भी मेरे साथ किया, उसे भुलाना तो मुश्किल है, पर हां, माफ करने की कोशिश करूंगी. पर अब तुम मुझ से कोई उम्मीद मत रखना.

मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती. हां, इंसानियत के नाते तुम्हारी बीमारी के इलाज में जो पैसा लगेगा, मैं देने को तैयार हूं. बस, अब और मुझे कुछ नहीं कहना. मैं तुम्हें सारे बंधनों से मुक्त कर के जा रही हूं,’’ यह कह कर मैं ने पर्स में से एक छोटा पैकेट, वह मैली लाल डोरी निकाल कर नितिन के तकिए पर रख दी, ‘‘लो अपनी अमानत, अपने पास रखो.’’

यह कह कर अपर्णा तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. नितिन टकटकी लगाए उसे जाते देखता रहा.

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