हैप्पी एंडिंग: भाग-2

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

शाम को जब सभी भाई गली में क्रिकेट खेल रहे होते, मां, चाचियां रसोई में और

दादी ड्योढ़ी में बैठी पड़ोस की महिलाओं से बात कर होतीं, मुझे अच्छा समय मिल जाता छत पर जाने का… उम्मीद के मुताबिक सुमित मेरा ही इंतजार कर रहे होते… संकोच और डर के साथ शुरू हुई हमारी बात, उन की बातों में इस कदर खो जाती… कब अंधेरा हो जाता पता ही नहीं चलता.

उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं प्रेम की दुनिया से यथार्थ में आई, सुमित से विदा ले कर नीचे आई ही थी कि घरवालों के सवालों के घेरे में खड़ी हो गई.

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘छत पर इतनी रात को अकेले क्या कर रही थी?’’

‘‘दिमाग सही रहता है कि नहीं तुम्हारा.’’

मैं चुपचाप सिर झुकाए खड़ी थी, क्या बोलूं… सच बोल दूं… ‘‘आप सभी की तमाम बंदिशों को तोड़ कर किसी से प्यार करने लगी हूं, मेरे जन्म के साथ ही जिस डर के साये में दादी ने सभी को जिंदा रखा है आखिरकार वह डर सच होने जा रहा है.’’ मेरे शब्द मेरे दिमाग में चल रहे थे जुबां पर लाने की हिम्मत नहीं थी… कुछ नहीं बोली मैं, सुनती रही… जब सब बोल कर थक गए तो मैं अपने कमरे में चली गई.

ऐसे ही समय बीतता गया और मेरा प्यार परवान चढ़ता गया. 10 दिनों के बाद सुमित मद्रास के लिए निकल गए, उस दिन मैं छत पर उस की बाहों में घंटों रोती रही वह मुझे समझाता रहा, विश्वास दिलाया कि वह मुझे कभी नहीं भूलेगा, हमारा प्रेम आत्मिक है जो मरने के बाद भी जिंदा रहेगा.

‘‘हमें इंतजार करना होगा रीवा, पढ़ाई पूरी करने के बाद ही हम घर वालों से बात कर

सकते हैं.’’

‘‘मैं तो पढ़ाई पूरी करने के बाद भी बात नहीं कर सकती, तुम जानते हो मेरे परिवार को… जिस दिन उन्हें भनक भी लग गई तो वे बिना सोचे मेरी शादी किसी से भी करा देंगे और मैं रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकती.’’

‘‘हम्म… मुझे एहसास है इस बात का, मैं ने एक डरपोक लड़की से प्रेम कर लिया है,’’ हंसते हुए सुमित ने कहा तो मेरी भी हंसी छूट गई.

इसी तरह 4 वर्ष बीत गए… हर गर्मियों

की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए सुमित आते हम ऐसे छिप कर मिलते फिर पूरा साल खतों

के सहारे बिताते… बीना आंटी को हम दोनों के बारे में सब पता था… मेरे खत उन्हीं के पते पर आते थे, बीना आंटी मुझे बहुत प्यार करती थी. उन के लिए तो मैं 4 साल पहले ही उन की बहू बन गईर् थी.

मैं बीकौम कर रही थी उधर सुमित को डाक्टर की डिगरी मिल गई. एमडी करने के लिए वह पुणे शिफ्ट हो गया और मैं दादी की आंखों की किरकिरी बनती जा रही उन्होंने वह मेरी शादी के लिए पिताजी पर जोर डालना शुरू कर दिया था, हर दिन पंडितजी को बुलावा जाता, नएनए रिश्ते आते, कुंडली मिलान के बाद रिश्तों की लिस्ट बनती फिर शुरू हो जाता आनाजाना, मैं ने बीना आंटी से कहा वे मां से बात करें नहीं तो दादी मेरी शादी कहीं और करा देंगी.

बीना आंटी ने मां से बात की तो मां को विश्वास नहीं हुआ इतनी बंदिशों के बाद उन की बेटी ने प्रेम करने की हिम्मत कैसे कर ली वह भी दूसरी जाति में.

‘‘तू चल अपने कमरे में’’ पहली बार मां का यह सख्त रूप देख रही थी.

‘‘मां, मैं सुमित से ही शादी करूंगी नहीं तो खुद को मार लूंगी.’’

‘‘तो किस ने रोका तुम्हें. वैसे भी मारी जाओगी इस से अच्छा है खुद को मार लो, मेरा परिवार तो गुनाह करने से बच जाएगा.’’

‘‘मां’’ मैं ने तड़पते हुए कहा.

गुस्से से मां कांप रही थी उन की ममता ने उन्हें रोक लिया था नहीं तो शायद उस

दिन उन्होंने मेरा गला दबा दिया था.

चुपचाप मेरे लिए दूल्हा ढूंढ़ने का तमाशा देखने वाली मेरी मां… दादी के साथ मिल कर खुद दूल्हा ढूंढ़ रही थी.

इस घर में एकमात्र सहारा मेरी मां मुझ से दूर हो गई थी, बीना आंटी ने सुमित से बात की… सुमित उधर परीक्षा शुरू होने वाली थी और इधर मेरी जिंदगी की.

कभी सोचती…

‘‘खुद को मार लूं या सुमित के पास भाग जाऊं?’’

‘‘नहीं… नहीं सुमित के पास नहीं जा सकती नहीं तो ये लोग उस को मार देंगे, बीना आंटी को भी बदनाम कर देंगे… कुछ भी कर सकते हैं.’’

भाइयों को रईसी विरासत में मिली थी पढ़ाई छोड़ राजनीति और गुंडागर्दी में आगे थे.

मेरी कोई सहेली भी नहीं थी जिस से दिल की बात कर सकूं. बीना आंटी से बात न करने की मां की सख्त हिदायत थी. अब तो सुमित के खत भी नहीं मिलते, उस की कोई खबर नहीं… मैं कहां जाती… किस से बात करती, यहां सब दादी के इशारे पर चलते थे.

कालेज से घर… घर से कालेज यही मेरी लाइफ थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब मेरी शादी की डेट फिक्स हो गई… एनआरआई दूल्हा, पैसेरुपए वाले और क्या चाहिए था इन लोगों को.

मैं एक जीतीजागती, चलतीफिरती गुडि़या बन गई थी जिस के अंदर भावनाओं का ज्वार ज्वालामुखी का रूप ले रहा था, मैं चुप थी… क्योंकि मेरी मां चुप थी. यहां बोलने का कोई फायदा नहीं सभी ने अपने दिल के दरवाजे पर बड़ा ताला लगा रखा था, जहां प्रेम को पाप समझा जाए वहां मैं कैसे अपने प्रेम की दुहाई दे कर अपने प्रेम को पूर्ण करने के लिए झोली फैलाती, यहां दान के बदले प्रतिदान लेने की प्रथा है, इन के लिए सच्चा प्रेम सिर्फ कहानियों में होता है. लैला मजनू, हीररांझा ये सब काल्पनिक कथाएं ऐसे विचारों के बीच मेरा प्रेम अस्तित्वहीन था.

अब तो कोई चमत्कार ही मुझे मेरे प्रेम से मिला सकता था. हैप्पी ऐंडिंग तो

कहानियों में होती है असल जिंदगी में समझौते से ऐंडिंग होती है. फिर भी एक आस थी मेरे मन में, सुमित मुझे नहीं छोड़ेगा, वह जरूर आएगा… दुलहन के लाल जोड़े में बैठी उसी आखिरी आस के सहारे बैठी थी… कभी लगता… अभी दूसरे दरवाजे से सुमित निकल कर आएंगे और मैं उन का हाथ थामे यहां से निकल जाऊंगी… लेकिन उस को नहीं आना था और वह नहीं आया, मेरा प्रेम झूठा था या उस के वादे… दिल टूटा और

मैं रीवा… उस पल में मर गई, प्रेम कहानियों

से प्यार करने वाली मैं… कहानियों से नफरत करने लगी, सब कुछ झूठ और धोखे का पुलिंदा बन गया…

मंडप में बैठी मैं शून्य थी, मुझे याद भी नहीं कैसे रस्में हुई, शादी हुई… मैं होश में नहीं थी.

विदाई के वक्त बीना आंटी दरवाजे पर खड़ी थीं मैं रोते हुए उन के गले लग गई… मैं ने फुसफुसा कर कहा ‘‘मेरा प्यार छिन लिया अभी कुछ वक्त पहले मैं ने सुमित को बेवफा समझा… वह वहां अनजान बैठा है और मैं किसी और के नाम का सिंदूर सजा कर खड़ी हूं.’’

आगे पढें- मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई…

अब आओ न मीता- भाग 1 क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. मीता भीड़ के बीच खड़ी अपना टिकट कनफर्म करवाने के लिए टी.टी.ई. का इंतजार कर रही थी. इतनी सारी भीड़ को निबटातेनिबटाते टी.टी.ई. ने मीता का टिकट देख कर कहा, ‘‘आप एस-2 कोच में 12 नंबर सीट पर बैठिए, मैं वहीं आऊंगा.’’

5 दिन हो गए उसे घर छोड़े. आशा दी से मिलने को मन बहुत छटपटा रहा था. बड़ी मुश्किल से फैक्टरी से एक हफ्ते की छुट्टी मिल पाई थी. अब वापसी में लग रहा है कि ट्रेन के पंख लग जाएं और वह जल्दी से घर पहुंच जाए. दोनों बेटों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था उस का मन…और सागर? सोच कर धीरे से मुसकरा उठी वह.

यह टे्रन उसे सागर तक ही तो ले जा रही है. कितना बेचैन होगा सागर उस के बिना. एकएक पल भारी होगा उस पर. लेकिन 5 युगों की तरह बीते 5 दिन. उस की जबान नहीं बल्कि उस की गहरीगहरी बोलती सी आंखें कहेंगी…वह है ही ऐसा.

मीता अतीत में विचरण करने लगी. ‘परसों दीदी के पास कटनी जा रही हूं. 4-5 दिन में आ जाऊंगी. दोनों बच्चों को देख लेना, सागर.’ ‘ठीक है पर आप जल्दी आ जाना,’ फिर थोड़ा रुक कर सागर बोला, ‘और यदि जरूरी न हो तो…’

‘जरूरी है तभी तो जा रही हूं.’ ‘मुझ से भी ज्यादा जरूरी है?’ ‘नहीं, तुम से ज्यादा जरूरी नहीं, पर बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई है एक हफ्ते की. फिर अगले माह बच्चों के फाइनल एग्जाम्स हैं, अगले हफ्ते होली भी है. सोचा, अभी दीदी से मिल आऊं.’ ‘तो एग्जाम्स के बाद चली जाना.’

‘सागर, हर चीज का अपना समय होता है. थोड़ा तो समझो. मेरी दीदी बहुत चाहती हैं मुझे, जानते हो न? मेरी तहसनहस जिंदगी का बुरा असर पड़ा है उन पर. वह टूट गई हैं भीतर से. मुझे देख लेंगी, दोचार दिन साथ रह लेंगी तो शांति हो जाएगी उन्हें.’ ‘तो उन्हें यहीं बुला लीजिए…’

‘हां, जाऊंगी तभी तो साथ लाऊंगी. एक बार तो जाने दो मुझे. मेरे जाने का मकसद तुम ही तो हो. दीदी को बताने दो कि अब अकेली नहीं हूं मैं.’

इतने में नीलेश और यश आ गए, अपनी तूफानी चाल से. अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने की दोनों में होड़ लगी थी. मीता ने दोनों की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी. टेस्ट में दोनों ही फर्स्ट थे. दोनों को गले लगा कर मीता ने आशीर्वाद दिया…पर उस की आंखें नम थीं…कितने अभागे हैं राजन. बच्चों की कामयाबी का यह गौरव उन्हें मिलता पर…

दोनों बच्चों ने अपने कार्ड उठाए. वापस जाने को पीछे मुड़ते इस के पहले ही दोनों सागर के पैरों पर झुक गए, ‘…और आप का आशीर्वाद?’

‘वह तो सदा तुम दोनों के साथ है,’ कहते हुए सागर ने दोनों को उठा कर सीने से लगा लिया और कहा, ‘तुम दोनों को इंजीनियर बनना है. याद है न?’ ‘हां, अंकल, याद है पर शाम की आइसक्रीम पक्की हो तो…’ ‘शाम की आइसक्रीम भी पक्की और कल की एग्जीबिशन भी. वहां झूला झूलेंगे, खिलौने खरीदेंगे, आइसक्रीम भी खाएंगे और जितने भी गेम्स हैं वे सब खेलेंगे हम तीनों.

‘हम तीनों मीन्स?’ यश बोला. ‘मीन्स मैं, तुम और नीलेश.’ ‘और मम्मी?’ ‘वह तो बेटे, कल तुम्हारी आशा मौसी के पास कटनी जा रही हैं. 4-5 दिन में लौटेंगी. मैं हूं ना. हम तीनों धूम मचाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे और मम्मी को बिलकुल भी याद नहीं करेंगे. ठीक?’

दोनों बच्चे खुश हो कर बाहर चल दिए. मीता आश्चर्यचकित थी. पहले बच्चों के उस व्यवहार पर जो उन्होंने सागर से आशीर्वाद पाने के लिए किया, फिर सागर के उस व्यवहार पर जो उस ने बच्चों के संग दोहराया. सागर की गहराई को अब तक महसूस किया था आज उस की ऊंचाई भी देख चुकी वह.

किस मिट्टी का बना है सागर. चुप रह कर सहना. हंस कर खुद के दुखदर्द को छिपा लेना. कहां से आती है इतनी ताकत? मीता शर्मिंदा हो उठी. ‘नहीं, सागर, तुम्हें इस तरह अकेला कर के नहीं जा सकती मैं. एक हफ्ता हम घर पर ही रहेंगे. माफ कर दो मुझे. तुम्हारा मन दुखा कर मुझे कोई भी खुशी नहीं चाहिए. मैं बाद में हो आऊंगी.’

‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मुझ से पहले तो आप पर आप के परिवार का हक है. फिर रोकने का हक भी तो नहीं है मुझे…आप की अपनी जिम्मेदारियां हैं जो मुझ से ज्यादा जरूरी हैं. फिर आशा दी को यहां बुलाना भी तो है…’

एकाएक झटके से ट्रेन रुक गई. आसपास फिर वही शोर. पैसेंजरों का चढ़नाउतरना, सब की रेलपेल जारी थी.

मीता पर सीधी धूप आ रही थी. हलकी सी भूख भी उसे महसूस होने लगी. एक कप कौफी खरीद कर वह सिप लेने लगी. सामने की सीट पर बैठे 3-4 पुलिस अफसर यों तो अपनी बातों में मशगूल लग रहे थे लेकिन हरेक की नजरें उसे अपने शरीर पर चुभती महसूस हो रही थीं.

सागर और मीता का परिचय भी एक संयोग ही था. कभी- कभी किसी डूबते को तिनका बन कर कोई सहारा मिल जाता है और अपने हिस्से का मजबूत किनारा तेज बहाव में कहीं खो जाता है. यही हुआ था मीता के संग. अपने बेमेल विवाह की त्रासदी ढोतेढोते थक गई थी वह. पूरे 11 सालों का यातनापूर्ण जीवन जिया था उस ने. जिंदगी बोझ बनने लगी थी पर हारी नहीं थी वह. आत्महत्या कायरता की निशानी थी. उस ने वक्त के सामने घुटने टेकना तो सीखा ही न था. एक मजबूत औरत जो है वह.

मगर 11 सालों में पति रूपी दीमक ने उस के वजूद को ही चाटना शुरू कर दिया था.

तानाशाह, गैरजिम्मेदार और क्रूर पति का साथ उस की सांसें रोकने लगा था. प्रेम विवाह किया था मीता ने, लेकिन प्रेम एक धोखा और विवाह एक फांसी साबित हुआ आगे जा कर. पति को पूजा था बरसों उस ने, उस की एकएक भावना की कद्र की थी. उसे अपनी पलकों पर बैठाया, उसे क्लास वन अफसर की सीट तक पहुंचाने में भावनात्मक संबल दिया उस ने. यह प्रेम की पराकाष्ठा ही तो थी कि मीता ने अपनी शिक्षा, प्रतिभा और महत्त्वाकांक्षाओं को परे हटा कर सिर्फ  पति के वजूद को ही सराहा. सांसें राजन की चलतीं पर उन सांसों से जिंदा मीता रहती, वह खुश होता तो दुनिया भर की दौलत मीता को मिल जाती.

पुरुष प्रधान समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि प्राय: हर सफल व्यक्ति के पीछे कोई महिला होती है, लेकिन सफल होते ही वही पुरुष किसी और मरीचिका के पीछे भागने लगता है. प्रेम विवाह करने वाला प्रेम की नई परिभाषाएं तलाशने लगा. एक के बाद दूसरे की तलाश में भटकने लगा.

पद के साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है यह भूल ही गया था राजन. यहां तो पद के साथसाथ शराब, ऐयाशी और ज्यादतियां आ जुड़ी थीं. प्रतिष्ठा को ताख पर रख कर राजन एक तानाशाह इनसान बनने लगा था, मीता का जीवन नरक से भी बदतर हो गया था. पतिपत्नी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मीता की सारी कोशिशें बेकार हो गईं. उस का स्वाभिमान उसे उकसाने लगा. दोनों बेटों की परवरिश, उन का भविष्य और ममता से भारी न था यह नरक. नतीजा यह हुआ कि शहर छूटा, कड़वा अतीत छूटा और नरक सा घर भी छूट गया. धीरेधीरे आत्मनिर्भर होने लगी मीता. नई धरती, नए आसमान, नई बुलंदियों ने दिल से स्वागत किया था उस का. फैशन डिजाइनिंग का डिप्लोमा काम आ गया सो एक एक्सपोर्ट गारमेंट फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई. दोनों बच्चों की परवरिश और चैन से जीने के लिए पर्याप्त था इतना कुछ. ज्ंिदगी एक ढर्रे पर आ गई थी.

मारने से मन नहीं मरता न? मीता का भी नहीं मरा था. बेचैन मीता रात भर न सो पाती. नैतिकता की लड़ाई में जीत कर भी औरत के रूप में हार गई थी वह. लेकिन जीवन तो कार्यक्षेत्र है जहां दिल नहीं दिमाग का राज चलता है. मीता फिर अपनी दिनचर्या से जूझने को कमर कस कर खड़ी हो जाती, चेहरे पर झूठा मुखौटा लगा कर दुनियादारी की भीड़ में शामिल हो जाती.

लेकिन पति से अलग हो कर जीने वाली अकेली औरत को तो कांटों भरा ताज पहनाना समाज अपना धर्म समझता है. अपने अस्तित्व, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की रक्षा करना यदि किसी नारी का गुनाह है तो बेशक समाज की दोषी थी वह…

नीलेश अब चौथी और यश दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था. उस दिन पेरेंट्सटीचर्स  मीटिंग में जाना था मीता को. जाहिर है छुट्टी लेनी पड़ती. सागर दूसरे डिपार्टमेंट में उसी पद पर था. मीता ने जा कर उसे अपनी स्थिति बताई और न आने का कारण बता कर अपना डिपार्टमेंट संभालने की रिक्वेस्ट भी की. सागर ने मीता को आश्वासन दिया और मीता निश्ंिचत हो कर मीटिंग में चली गई.

पिछले 3 साल से सागर इसी फैक्टरी में सुपरवाइजर था…अंतर्मुखी और गंभीर किस्म का व्यक्तित्व था सागर का… सब से अलग था, अपनेआप में सिमटा सा.

दूसरे दिन मीता सब से पहले सागर से मिली. पिछले दिन की रिपोर्ट जो लेनी थी और धन्यवाद भी देना था. पता चला, सागर आया जरूर है लेकिन कल से वायरल फीवर है उसे.

‘तो आप न आते कल… जब इतनी ज्यादा तबीयत खराब थी तो एप्लीकेशन भिजवा देते,’ मीता ने कहा.

‘तो आप की दी जिम्मेदारी का क्या होता?’

‘अरे, जान से बढ़ कर थी क्या यह जिम्मेदारी.’

‘हां, शायद मेरे लिए थी,’ जाने किस रौ में सागर के मुंह से निकल गया. फिर मुसकरा कर बात बदलते हुए बोला, ‘आप सुनाइए, कल पेरेंट्सटीचर्स मीटिंग में क्या हुआ?’ फिर सागर खुद ही नीलेश और यश की तारीफों के पुल बांधने लगा.

आश्चर्यचकित थी मीता. सागर को यह सब कैसे पता?

‘हैरान मत होइए, क्योंकि जब मां आइडियल होती है तो बच्चे जहीन ही होते हैं.’

 

 

दाहिनी आंख: भाग 3- अनहोनी की आशंका ने बनाया अंधविश्वास का डर

 

मन अच्छा हो गया. मैं ने कमर पर कसे बेटे के हाथों को नरमी से थपथपाया. उस ने जैसे मेरी देह की भाषा पढ़ ली और पटरपटर बातें करने लगा, ‘‘मम्मा, पापा का काम कितनी देर में होगा?’’

‘‘बस, थोड़ी देर में.’’

‘‘फिर हम क्या करेंगे?’’

‘‘घर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, मम्मा, हम भारत भवन चलेंगे,’’ उस ने पूछा नहीं, बताया.

सपने सी वीआईपी सड़क खत्म हुई और अब हमें अतिव्यस्त चौराहा पार करना था. ठीक इसी समय, दाहिनी पलक फिर थरथराई और माथे की शिकन में तबदील हो गई. मैं सामने सड़क से गुजरती गाडि़यों को गौर से देखने लगी. स्कूटी बढ़ाने को होती और रुकरुक जाती. रहरह कर आत्मविश्वास टूट रहा था और मुझे लगने लगा कि जैसे ही मैं आगे बढ़ूंगी, इन में से एक बड़ा ट्रक तेज रफ्तार में अचानक आ निकलेगा और हमें रौंदता चला जाएगा. मेरे पैर स्कूटी के दोनों तरफ जमीन पर टिके थे. यह मैं थी जो हमेशा कहती रही कि ड्राइविंग करते वक्त बारबार जमीन पर पैर टिकाने वाले कच्चे ड्राइवर होते हैं और उन बुजदिल लमहों में मेरा बरताव नौसिखिए स्कूटर ड्राइवरों से भी बदतर था.

कई बार मैं आगे बढ़ी, डर और परेशानी से पीछे हटी और इस तरह पता नहीं मैं कितनी देर वहां तमाशा बनी खड़ी रहती, उस मोड़ पर जिसे मैं सैकड़ों दफा पार कर चुकी थी. पर भला हो उस कार वाले का जिस ने मेरे पीछे से आते हुए सड़क पार करने का इंडीकेटर दिया. झट मैं ने अपनी दुपहिया उस बड़ी कार की ओट में कर ली और उस के समानांतर चलते हुए आखिर सड़क पार कर ली.

अब हम कमला पार्क वाली व्यस्त रोड पर शनिमंदिर के सामने से गुजरे और पलभर को स्कूटी की गति धीमी कर के सिर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘हमारी रक्षा करना.’

स्कूटी की गति कितनी कम हो गई थी, यह मुझे तब ध्यान आया जब पीछे से आते स्कूली बच्चे की साइकिल मुझ से आगे निकल गई. बेटे को और एकदो बार बेवजह डांटा या शायद मेरा तनाव था जो शब्दों में ढल रहा था, ‘‘चुपचाप चिपक कर बैठे रहना वरना आगे से कभी साथ नहीं लाऊंगी.’’

 

मां को डरा जान बच्चे कहीं ज्यादा डर जाते हैं. नैवेद्य अपनी कुल जमा ताकत से मुझ से चिपक गया. उस की सांसें भी सहमीसहमी सी थीं और मैं विचारहीन मन, कांपती अपशकुनी आंख माथे और चौकन्ने दिमाग से ड्राइविंग कर रही थी.

औफिस आ गया, दिल ने राहत की सांस ली. स्कूटी पार्क कर ही रही थी कि बेटे ने बिल्ंिडग की ओर दौड़ लगा दी.

‘‘नैवेद्य…’’ इतनी जोर से मेरी चीख निकली कि आसपास के लोग ठहर से गए. अपनी गलती महसूस होते ही मैं सकपका सी गई. बेटे के पास जा कर दबी जबान में उसे डांटा और फिर उस के लिए मुझे इतनी भयंकर असुरक्षा महसूस हुई कि मैं ने उसे गोद में उठा लिया. 5 साल के स्वस्थ बच्चे को गोद में उठाए सीढि़यों पर हांफती हुई चढ़ रही थी. मुझ को लोग आंखें फाड़ कर देख रहे थे. मैं बच्चे को कंधे से चिपकाए हुए थी. मन की स्थिति उस गाय जैसी हो गई थी जो अपने नवजात बच्चे की रक्षा के लिए भेडि़यों सरीखे कुत्तों का सामना करने को पूरी तरह तैयार होती है.

हम तीसरी मंजिल पर बने औफिस के गलियारे में पहुंचे. सूने, ऊंचे, धूल से भरे गलियारे की सधी हवा में कबूतरों का संगीत पसरा था. औफिस के भीतर जाने से पहले मैं ने बेटे को गोद से उतार कर अपने को संयत किया.

अपना परिचय दे कर फाइल मैं ने एक बाबूनुमा आदमी को दे दी. काम करते क्लर्क ने बीच में रुक कर कहा कि मैं फाइल यहीं छोड़ जाऊं, वह बड़े साहब तक पहुंचा देगा, पर मैं वहीं खड़ी रही किसी नासमझ गूंगीबहरी की तरह. उस ने अपना काम रोका, अजीब तरह से मुझे घूरा और फाइल उठा कर अपने बड़े साहब के केबिन की ओर चला गया. जब उसे फाइल सहित केबिन में घुसते देख लिया तब जा कर मुझे यकीन हुआ कि फाइल इन के बौस के हाथों में सहीसलामत पहुंच जाएगी.

सीढि़यां उतरते हुए मन पहले से कुछ हलका था. एक तो इसलिए कि आधा काम निर्विघ्न पूरा हो चुका था. दूसरे किसी कष्टप्रद दशा में पड़े हुए जब कुछ देर हो जाती है तब हम परिस्थिति का सामना करने के लिए स्वाभाविक तौर पर तैयार हो चुके होते हैं. नदी में भीगे पंजों से जब हम घाट की रपटीली सीढि़यां चढ़ते हैं तो किस कदर चौकन्ने होते हैं, लेशमात्र को हमारा ध्यान नहीं भटकता, मैं उसी मनोस्थिति में पहुंच चुकी थी. बेटे को पीछे बैठाया, स्कूटी स्टार्ट की और चारों तरफ देखतेपरखते हुए घर के लिए चल पड़ी. बिलकुल बाएं किनारे बचबचा कर चलते हुए मैं स्वयं को लगातार आश्वस्त करती जा रही थी, सब सामान्य है.

‘‘मम्मा, पापा का काम हो गया?’’

‘‘हां, बेटा, हो गया.’’

‘‘तो अब हम भारत भवन जाएंगे,’’ बहुत देर बाद वह खुश लगा.

भारत भवन नैवेद्य को हद दर्जे तक पसंद है और वह जबतब वहां जाने की जिद लगाए रहता है. लंबेचौड़े कैनवास सा परिसर, सजावटी पाषाण प्रतिमाएं, सिरेमिक वर्कशौप के विचित्र शिल्प और झील का सुख भरा किनारा जहां जंगली फूलों में तितलियों का एक लोक बसा है, उसे जैसे पुकारता है. वहां वह अपनी ड्राइंग कौपी और मोम के रंग अकसर साथ ले जाता है और झील, जंगली फूलों, अपरिचित तितलियों और शाम के आकाश पर छाई चमगादड़ों की घुचड़पुचड़ पेंटिंग बनाया करता है और मैं एक मध्यवर्गीय मां, जो बेटे के अतिरिक्त काबिलीयत में अपना असुरक्षित भविष्य तलाशती है, उसे वहां ले जाने का अवसर कभी नहीं गंवाती.

‘‘नहीं नानू, आज नहीं.’’

‘‘क्यों नहीं?’’ वह इस कदर ठुनका कि स्कूटी डगमगाने लगी.

मैं इतना डरी कि गाड़ी रोक कर खड़ी हो गई. वह जिद पर था और मैं हरसंभव तरह से उसे टाल रही थी. वह नहीं माना और मुझे एक ग्लानिभरा झूठ बोलना पड़ा.

‘‘बेटा, गाड़ी में पैट्रोल बहुत कम है, बस इतना कि हम घर पहुंच पाएंगे. अगर भारत भवन गए तो पैट्रोल बीच में ही खत्म हो जाएगा, फिर हम घर कैसे जाएंगे? पापा भी शहर में नहीं हैं. हमारी मदद को कोई नहीं आएगा.’’

उस की नन्ही आंखों ने मेरे परेशान चेहरे पर सौ फीसदी यकीन कर लिया और गाड़ी स्टार्ट करते हुए भारी दिल से मैं ने अपनी दाहिनी आंख को कोसा, जिस के कारण मैं ने अपने बच्चे को आज धोखा दिया.

अब हम घर के रास्ते पर थे. बगल से तकरीबन मेरी ही उम्र की एक स्त्री कार चलाती हुई गुजरी, पैसेंजर सीट पर नैवेद्य के बराबर बच्चा बैठा था और ड्राइविंग करती अपनी मां से खुश हो कर बातें कर रहा था. उन पलों में मैं ने जाना कि डर, आस्थाओं और अंधविश्वासों का हैसियत और ताकत से कितना गहरा नाता है. अगर मैं इस समय मामूली दुपहिए पर न होती, जिसे चारों दिशाओं के वाहनों से उसी तरह सतर्क रहना पड़ता है जैसे तालाब में किसी नन्ही, अकेली मछली को बड़ी मछलियों और मगरमच्छों से, बल्कि किसी लग्जरी कार में होती तो क्या पता, दाहिनी आंख के फड़कने का अपशकुन मुझे इतना न डरा रहा होता? ईश्वर, धर्म और अंधविश्वास कमजोरों की देन है.

 

जैसे-जैसे हम घर के करीब आने लगे, मेरा खुद पर भरोसा लौटने लगा. हैंडिल पर कलाइयों की पकड़ मजबूत होने लगी और कालोनी के मोड़ से पहले का फोरलेन हाइवे मैं ने इंडीकेटर हौर्न दे कर सहजता से पार कर लिया.

‘रात होते ही सारे नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं.’ मन इस प्रसिद्ध खयाल को दोहरा कर मुसकराया और अपने घर के सामने मैं ने स्कूटी रोकी.

हाथों में फूले गुब्बारे लिए बालकनी में मिसेज सिंह शायद नैवेद्य की ही प्रतीक्षा में थीं.

‘‘नानू, देखो, तुम्हारे लिए कितने गुब्बारे फुला कर रखे हैं. आओ खेलें.’’

बेटे ने मेरी ओर प्रश्नभरी नजरों से देखा और मेरे मुसकराते ही उस ने दौड़ लगा दी.

मैं हंस पड़ी, कमबख्त दाहिनी आंख अब तक फड़क रही है. मुझे भरोसा हो गया कि इस से कुछ होता नहीं है. मेरा आत्मविश्वास अंधविश्वासों से ज्यादा मजबूत है. अब चाहे दोनों आंखें फड़कें, मुझे वही करना है जो जरूरी है. आंख की वजह से न मैं रुकूंगी और न किसी पंडे को दान देने के बारे में सोचूंगी.

Holi 2024: मौन निमंत्रण- क्या अलग हो गए प्रशांत और प्राची

‘‘क्या प्राची, अभी तक ऐसे ही बैठी हो अस्तव्यस्त सी? मैं ने सोचा तैयार बैठी होगी तुम, ड्राइवर तुम्हें रिंकी के यहां छोड़ देगा,’’ बहुत सारी खरीदारी कर के लौटी थीं नीलाजी पर, प्राची को देखते ही उस पर बरस पड़ीं.

‘‘मेरा मन नहीं है रिंकी के यहां जाने का,’’ प्राची रिमोट से चैनल बदलते हुए बेमन से बोली.

‘‘अरे तो समझाओ अपने मन को. अपने मन पर काबू रखना सीखो. पर यहां तो उलटा ही हो रहा है. मन ही तुम्हें अपने पंजों में जकड़ता जा रहा है,’’ नीलाजी ने प्राची को समझाया.

‘‘मेरा मन मेरी सुनता कहां है मम्मी,’’ प्राची खोखली हंसी हंस दी.

‘‘ऐसा नहीं कहते. रिंकी तुम्हारी सब से प्यारी सहेली है. कितना आग्रह कर के गई थी कि मेहंदी की रस्म से ले कर विवाह की समाप्ति तक तुम्हें उस के घर में ही रहना है. तुम ने छुट्टी ले ली है. 2 महीनों से तुम्हारी तैयारी चल रही थी. ढेरों कपडे़ खरीद डाले तुम ने. फिर अचानक ऐसी बेरुखी क्यों?’’

‘‘कोई बेरुखी नहीं है. बस जाने का मन नहीं है. मुझे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो मम्मी.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी बच्ची को? इस तरह तो तू घर की चारदीवारी में घुट कर रह जाएगी. जीवन है तो उस के सुखदुख भी होंगे. रिंकी के यहां तेरी अन्य सहेलियां भी आएंगी, मन बदल जाएगा,’’ नीलाजी ने उसे जबरदस्ती उठा दिया. नीलाजी देर तक शून्य में बनतीबिगड़ती आकृतियों को देखती रहीं… क्या नहीं था उन के पास धन, प्रतिष्ठा और प्राची व प्रखर जैसी मेधावी संतानें. पर प्राची का विवाह होते ही जैसे इस सुख को ग्रहण लग गया. प्राची ने जब प्रशांत से विवाह का प्रस्ताव रखा था तो उन की खुशी की सीमा नहीं थी. प्रशांत था भी लाखों में एक. 35 वर्ष का प्रशांत अपनी कंपनी का सर्वेसर्वा था. उस के शालीन व सुसंस्कृत व्यवहार ने सभी का मन जीत लिया था.

पर विवाह होते ही नवविवाहित जोड़े को न जाने क्यों ग्रहण लग गया. हर बात पर दोनों का अहं टकराता. प्राची ने हनीमून के बाद से ही प्रशांत में मीनमेख निकालना जो शुरू किया तो कभी रुकी ही नहीं. पहले तो प्राची ने इन छोटीमोटी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया. वह तो यही सोचती रही कि हर विवाह में एकदूसरे को जाननेसमझने में समय लगता ही है. पर जब तक वह चेती शायद बहुत देर हो चुकी थी. एक दिन अचानक ही प्राची ने घोषणा कर दी कि अब उस का प्रशांत के साथ रहना संभव नहीं है. यह सुन कर नीलाजी कुछ क्षणों तक स्तब्ध रह गईं. उन्होंने और उन के पति ने बात संभालने का भरसक प्रयत्न किया पर प्राची तो जैसे कुछ सुनने को ही तैयार नहीं थी. उन्होंने प्रशांत को अलग से समझाया, पर उस का उत्तर सुन कर नीलाजी निरुत्तर हो गईं.

‘‘प्राची पढ़ीलिखी, स्वावलंबी युवती है. यदि उसे लगता है कि वह मेरे साथ नहीं रह सकती तो उसे बांध कर तो नहीं रखा जा सकता न मम्मी?’’ प्रशांत का तर्क अकाट्य था. 2 वर्षों से प्राची और प्रशांत का तलाक का केस चल रहा है. अब तो नीलाजी की यही इच्छा है कि प्राची को शीघ्र मुक्ति मिल जाए ताकि वे भी इस झमेले से छुटकारा पा सकें. प्राची का हाल तोे उन से भी बुरा है. कई बार पूछने पर ही किसी बात का उत्तर देती है. हंसनाखेलना तो वह जैसे भूल ही चुकी है. रिंकी अपने विवाह का निमंत्रणपत्र देने आई तो नीलाजी की बांछें खिल गईं. रिंकी प्राची की सब से प्रिय सहेली है. इसी बहाने प्राची कुछ लोगों से मिलेगी. कम से कम कुछ दिनों के लिए तो अपनी घुटन से बाहर निकलेगी.

पिछले 2 महीनों से प्राची रिंकी के विवाह की तैयारी में व्यस्त थी. सप्ताहांत दोनों सखियां साथ बितातीं. जब तक प्राची रिंकी के साथ रहती घर दोनों की खिलखिलाहटों से गूंजता रहता. प्राची ने मेहंदी की रस्म से ले कर विदाई तक हर अवसर के लिए अलगअलग परिधान बनवाए थे. हर परिधान के साथ मेल खाते गहने तथा पर्स खरीदे थे. तरहतरह की चप्पलों और सैंडलों का चुनाव किया गया था. सब कुछ संजो कर करीने से सूटकेस में सजा कर पैक किया था और अचानक आज विवाह में जाने से मना कर दिया. नीलाजी की विचारशृंखला टूटी तो पुन: प्राची पर नजर गई. वह अब भी समाचारपत्र में मुंह गड़ाए बैठी थी. वे कुछ कहतीं उस से पहले ही फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो, रिंकी,’’ प्राची ने फोन उठा कर कहा.

‘‘कहां हो प्राची? हम सब कब से इंतजार कर रहे हैं,’’ रिंकी का स्वर उभरा.

‘‘मैं नहीं आ सकूंगी. तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को? यह बहानेबाजी मुझ से नहीं चलेगी. 10 मिनट में नहीं पहुंची तो मैं स्वयं आ रही हूं लेने,’’ रिंकी ने धमकी दे डाली.

‘‘अब तो जाओ वरना रिंकी यहीं आ धमकेगी,’’ नीलाजी बोलीं.

‘‘बात वह नहीं है मम्मी. मैं तो कुछ और ही सोच रही थी.’’

‘‘क्या?’’

‘‘रिंकी वहां अकेली तो होगी नहीं, घर मित्रों और संबंधियों से भरा होगा. मुझे देख कर किसी ने कुछ कह दिया तो? मेरा मतलब किसी ने आपत्ति उठाई तो?’’

‘‘आपत्ति? कैसी आपत्ति?’’ नीलाजी अचरज भरे स्वर में बोलीं.

‘‘आप समझीं नहीं, विवाह में सभी नवविवाहितों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं. वहां मेरी मौजूदगी मेरा मतलब मैं तो असफल विवाह का प्रतीक हूं न मम्मी,’’ प्राची ने किसी तरह अपनी बात पूरी की.

‘‘क्या? ऐसी बात तुम्हारे मन में आई भी कैसे? कुदरत की कृपा से प्रशांत सहीसलामत है,’’ नीलाजी स्तब्ध रह गईं.

‘‘मन में विचार मेरी इच्छानुसार थोड़े ही आते हैं. अनायास यह बात मन में कौंधी,’’ चाह कर भी प्राची अपनी भर आई आंखों को न छिपा पाई.

‘‘चलो उठ कर तैयार हो जाओ. रिंकी को तो तुम अच्छी तरह जानती हो, वह सचमुच यहां आ धमकेगी,’’ नीलाजी आदेश भरे स्वर में बोलीं.

‘‘कितनी देर कर दी प्राची, कब से तेरी राह देख रही हूं. कहा था न आज छुट्टी ले लेना,’’ रिंकी ने प्राची को देखते ही शिकायत की.

‘‘छुट्टी ली थी रिंकी पर…’’

‘‘पर क्या?’’

‘‘मन को अजीब से संशय ने घेर लिया था.’’

‘‘कैसा संशय?’’

‘‘यही कि तेरे शुभ विवाह में मेरा क्या काम…’’

‘‘तेरे दिमाग में बड़ी ऊटपटांग बातें आने लगी हैं प्राची… खबरदार जो आज के बाद ऐसी बात मुंह से निकाली,’’ कह रिंकी ने उसे चुप करा दिया. मेहंदी की रस्म हंसीखुशी संपन्न हो गई. सब खानेपीने और बातचीत में व्यस्त थे पर प्राची को लगता सब उसी की बातें कर रहे हैं. रिंकी लगातार फोन करने में व्यस्त थी. बधाई देने वालों का तांता लगा था. उन से फुरसत मिलती तो सूरज का फोन आ जाता. वह अपने यहां होने वाले उत्सव का विवरण देता. फिर रिंकी उसे विस्तार से अपने मित्रों, संबंधियों और मेहंदी की रस्म के बारे में बताती. ‘‘आज रात को नृत्य और संगीत का कार्यक्रम है. प्राची मेरी अच्छी तरह फोटो लेना, मैं पूरा अलबम सूरज को भेंट करूंगी, फोटोग्राफर तो कल से आएगा,’’ रिंकी ने आग्रह किया.

‘‘ठीक है,’’ प्राची ने अनजाने ही सिर हिला दिया. वह तो अपनी ही सोच में डूबी थी. उसे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि कितनी बदल गई है वह, बिलकुल अकेली और उदास. मन में अजीब सा शून्य पसरा हुआ है. कोई फोन पर बात करने वाला भी नहीं है. अपना मोबाइल निकाल कर देर तक उस में सुरक्षित नंबरों को आगेपीछे करती रही. प्रशांत का नंबर अभी तक सुरक्षित था. सोचा फोन मिला कर देखे नंबर वही है या बदल गया है. अनजाने नंबर डायल कर दिया. उधर से प्रशांत का स्वर उभरा तो घबरा कर फोन बंद कर दिया. स्वयं पर ही क्रोध आया, प्रशांत न जाने क्या सोचता होगा. अगले दिन ढेर सारे काम थे. रिंकी की मम्मी साधनाजी ने रिंकी को ब्यूटीपार्लर ले जाने का काम उसे सौंप दिया. प्राची भी प्रसन्न थी. कम से कम लोगों की तीखी निगाहें तो नहीं झेलनी पड़ेंगी.

‘‘तेरी बूआजी तो मुझे ऐसे घूरघूर कर देख रही थीं गोया दिव्यदृष्टि से सब उगलवा लेंगी,’’ प्राची कार में बैठते ही बोली.

‘‘कौन? रमा बूआजी?’’

‘‘हां, तू कह रही थी न बड़ी अंधविश्वासी हैं वे.’’

‘‘प्राची क्या हो गया है तुझे? मैं ने किसी को नहीं बताया कि तेरा तलाक का मुकदमा चल रहा है… और तू क्या सोचती है पूरी दुनिया को केवल तेरी ही चिंता है? अरे, प्राची होश में आ. लोग अपनी उलझनों में ऐसे उलझे हैं कि किसी और के संबंध में सोचते तक नहीं,’’ रिंकी ने अपनी बातों से प्राची को दर्पण में अपनी छवि निहारने को मजबूर कर दिया था. ‘‘तू ठीक कहती है रिंकी, किसी को क्या पड़ी है मुझ जैसी तुच्छ युवती के बारे में सोचे,’’ प्राची सुबकने लगी.

‘‘यह क्या है प्राची… हर बात को अपनी सुविधानुसार मोड़ लेती है. पता है रमा बूआजी क्या कह रही थीं?’’

‘‘क्या?’’ प्राची ने आंसू पोंछ लिए थे.

‘‘कह रही थीं, तेरी सहेली तो बड़ी सुंदर है. मेरी नजर में एक बड़ा अच्छा लड़का है. उस से शादी करवाऊंगी तेरी सहेली की.’’

‘‘तो तूने क्या कहा?’’ प्राची आंसुओं के बीच भी मुसकरा दी.

‘‘मैं ने कहा कि मेरी सहेली न केवल सुंदर है वरन बहुत गुणी भी है. 50 हजार प्रति माह वेतन है उस का.’’

‘‘रिंकी तू जब भी मेरी प्रशंसा के पुल बांधती है तो मैं ठगी सी रह जाती हूं,’’ प्राची बोली.

‘‘मैं ने कुछ गलत कहा क्या?’’

‘‘नहीं, मैं ने यह तो नहीं कहा. सच कहूं तो तेरे जैसी मित्र पर नाज है मुझे.’’

‘‘नाज है न मुझ पर? तो प्रशांत से समझौता कर ले.’’

‘‘क्या कह रही है… तू तो हमारे केस को सुन रहे जज की तरह बात करने लगी है. पिछली सुनवाई में वे यही कह रहे थे. विवाह एक अनुबंध नहीं बंधन है बेटी. यह कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल नहीं है कि आज खेला कल भूल गए.’’

‘‘तो तूने क्या कहा?’’

‘‘मैं क्या कहती. वे समझौते की बात कर रहे थे पर प्रशांत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.’’

‘‘तो क्या हुआ. तुम भी पहल कर सकती थीं. पहले आप पहले आप में तुम दोनों की गाड़ी निकल जाएगी.’’

‘‘यदि उसे मेरी जरूरत नहीं है तो मुझे भी परवाह नहीं है,’’ प्राची क्रोधित स्वर में बोली.

‘‘प्राची अक्ल से काम ले. क्या बुराई है प्रशांत में, नशे में धुत्त घर लौटता है? मारतापीटता है? किसी और के चक्कर में है?’’

‘‘नहीं… नहीं… नहीं… पर वह मेरी चिंता ही नहीं करता. उस ने तो अपने काम से विवाह किया है. मेरा तो उसे जन्मदिन तक याद नहीं रहता.’’

‘‘पर विवाह से पहले तो उस के अपने काम के प्रति समर्पण पर ही तू मरमिटी थी प्राची,’’ रिंकी ने याद दिलाया.

‘‘तब की बात और थी. तब मैं नासमझ थी.’’ ‘‘अब तो समझदार हो गई है न तू. तो इस समझ का ठीक से प्रयोग क्यों नहीं करती?’’

रिंकी की बात का उत्तर दे पाती प्राची, उस से पहले ही गाड़ी ब्यूटीपार्लर के सामने रुक चुकी थी. दोनों सहेलियां नीचे उतर गईं. रिंकी से बातचीत कर के प्राची बहुत हलका महसूस करती है. यही तो खासीयत है रिंकी की. बड़ी सुलझी हुई बातें करती है. ऐसे मित्र बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. ब्यूटीपार्लर में भी प्राची की विचारधारा अनवरत चल रही थी… विवाह का दिन गहमागहमी से भरा था. सजनेधजने से रिंकी का रूप और निखर आया था.

‘‘कितनी सुंदर लग रही है रिंकी. हैं न आंटी?’’ प्राची रिंकी को एकटक देखते हुए बोली.

‘‘तुम दोनों सहेलियां सब को मात कर रहीं…’’

रिंकी की मम्मी अपनी बात पूरी कर पातीं तभी आवाजें आने लगीं कि बरात आ गई. सब उसी ओर दौड़ गए. प्राची रिंकी के पास बैठी थी.

‘‘चल, बालकनी से बरात देखते हैं. देखें तो दूल्हे के वेश में सूरज कैसा लगता है,’’ प्राची बोली.

‘‘चल, वैसे बरात में तेरे लिए भी एक आश्चर्य है,’’ रिंकी बोली.

‘‘मेरे लिए? वह क्या?’’

‘‘स्वयं ही देख लेना.’’

बालकनी में पहुंच कर प्राची हैरान रह गई. बरातियों की भीड़ में माला पहने प्रशांत भी खड़ा था.

‘‘तुम ने प्रशांत को भी आमंत्रित किया था?’’

‘‘मैं ने नहीं, सूरज ने बुलाया है, दोनों अच्छे मित्र हैं,’’ रिंकी बोली. प्राची चुप रह गई. मन में हूक सी उठी कि सब ठीक होता तो दोनों साथ ही आते. जयमाला के समय दोनों आमनेसामने पड़ ही गए.

‘‘कैसी हो प्राची? बड़ी सुंदर लग रही हो,’’ प्रशांत बोला तो प्राची उसे गहरी नजरों से देखती रह गई कि अब प्रशांत को सामान्य शिष्टाचार समझ आने लगा है.

‘‘तुम भी कम सुंदर नहीं लग रहे हो,’’ प्राची ने पलट कर उत्तर दिया.

‘‘धन्यवाद, तुम्हारे मुंह से यह सुन कर बहुत अच्छा लगा,’’ कह प्रशांत मुसकराया. विवाह की अन्य रस्मों के बीच भी दोनों में आंखमिचौली चलती रही. प्रशांत कभी प्राची के लिए आइसक्रीम ले आता तो कभी और कोई खाने की चीज. प्राची झुंझला कर रह जाती. विवाह संपन्न हुआ तो मित्रों ने रिंकी और सूरज को घेर लिया. दोनों पर प्रश्नों की बौछार होने लगी. कब, कहां, कैसे मिले थे दोनों? संपर्क कैसे बढ़ा? विवाह करने का निर्णय कब लिया? दोनों हासपरिहास समझ कर हर प्रश्न का उत्तर दे रहे थे.

तभी मित्रगण आग्रह करने लगे कि दोनों एकदूसरे का नाम लेंगे.

‘‘यह कौन सा कठिन काम है रिंकी,’’ सूरज हंसते हुए बोला.

‘‘ऐसे नहीं. प्रशांत बाबू, कुछ सिखाओ अपने मित्र को,’’ मित्रों का समवेत स्वर गूंजा.

‘‘प्राची भई प्रशांत की रिंकी हुई उदास,’’ प्रशांत मुसकराते हुए बोला.

‘‘रिंकी सूरज की हुई, प्राची हुई उदास,’’ सूरज ने तुरंत ही दोहरा दिया. अब रिंकी की बारी थी पर प्राची न कुछ बोल रही थी न सुन. अपने विवाह की 1-1 घटना चलचित्र की भांति उस की आंखों के सामने घूमने लगी थी.

‘‘प्राची भई प्रशांत की…’’ यही तो कहा था प्रशांत ने, फिर यह अलगाव की भावना कहां से आ गई? प्राची का चेहरा आंसुओं से भीग गया. सब ने सोचा बेचारी सहेली की विदाई का दुख नहीं सह पा रही. तभी प्रशांत ने आगे बढ़ कर रूमाल पकड़ाया कि आंसू पोंछ डालो प्राची. क्या आज इस मंडप के नीचे एक और विदाई संभव है? मैं आज पुन: वचन देता हूं कि तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं आने दूंगा. प्राची ने मौन स्वीकृति में नजरें उठाईं तो प्रशांत की आंखों में उभरे मौन निमंत्रण को देख कर दंग रह गई. कौन कहता है कि मौन की भाषा नहीं होती.

Holi 2024: समानांतर- क्या सही था मीता का फैसला

रात का पहला पहर बीत रहा था. दूर तक चांदनी छिटकी हुई थी. रातरानी के फूलों की खुशबू और मद्धम हवा रात को और भी रोमानी बना रहे थे. मीता की आंखों में नींद नहीं थी. बालकनी में बैठी वह चांद को निहारे जा रही थी. हवाएं उस की बिखरी लटों से खेल रही थीं. तभी कहीं से भटके हुए आवारा बादलों ने चांद को ढक लिया तो मीता की तंद्रा भंग हुई. अब चारों और घुप्प अंधेरा था. मीता उठ कर अपने कमरे में चली गई. मोहन की बातें अभी भी उस के दिल और दिमाग दोनों को परेशान कर रही थीं. बिस्तर पर करवट बदलते हुए मीता देर तक सोने की कोशिश करती रही, लेकिन नींद नहीं आई. इतनी रात गए मीता राजन को भी फोन नहीं कर सकती थी. राजन दिन भर इतना व्यस्त रहता है कि रात में 11 बजते ही वह गहरी नींद में होता है. फिर तो सुबह 7 बजे से पहले उस की नींद कभी नहीं खुलती. दोनों के बीच बातों के लिए समय तय है. उस के अलावा कभी मीता का मन करता है बातें करने का तो इंतजार करना पड़ता है. पहले अकसर मीता चिढ़ जाया करती थी. अब मीता को भी इस की आदत हो गई है. यही सब सोचतेसोचते मीता बिस्तर से उठी और कमरे के कोने में रखी कुरसी पर बैठ गई. कुछ पढ़ने के लिए उस ने टेबल लैंप जला लिया. लेकिन आज उस का मन पढ़ने में भी नहीं लग रहा था. एक ही सवाल उस के दिमाग को परेशान कर रहा था. सिर्फ 5 महीने ही तो हुए थे मोहन से मिले हुए. क्या उम्र के इस पड़ाव पर आ कर सिर्फ 5 महीने की दोस्ती प्यार का रूप ले सकती है? उस पर तुर्रा यह कि दोनों शादीशुदा. मोहन की बातों ने उस के दिमाग को झकझोर कर रख दिया था. मीता फिर से बिस्तर पर आ कर लेट गई. मोहन के बारे में सोचतेसोचते कब उस की आंखें बंद हो गईं और वह नींद की आगोश में चली गई, उसे पता ही नहीं चला.

सुबह उस ने निश्चय किया कि आज मोहन को सीधेसीधे बोल देगी कि ऐसा बिलकुल भी संभव नहीं है. मेरी दुनिया अलग है और तुम्हारी अलग. इसलिए जो रिश्ता हमारे दरम्यान है वही सही है और उसे ही निभाना चाहिए. लेकिन मोहन के सामने उस की जबान बिलकुल बंद हो गई. ऐसा लगा जैसे किसी बाह्य शक्ति ने उस की जबान को बंद कर दिया हो. मोहन ने कौफी का घूंट भरते हुए मीता से पूछा, ‘‘फिर क्या सोचा है?’’ मीता ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘मोहन, ऐसा नहीं हो सकता. देखो, तुम भी शादीशुदा हो और मैं भी. यह बात और है कि हम दोनों ‘डिस्टैंस रिलेशनशिप’ में बंधे हुए हैं. न तुम्हारी पत्नी और बच्चा यहां रहते हैं और न ही मेरे पति, लेकिन हम दोनों ही अपनेअपने परिवार से बेहद प्यार करते हैं. फिर हमारे बीच दोस्ती का रिश्ता तो है ही.’’ मोहन ने मीता की ओर देखे बगैर कौफी का दूसरा घूंट लिया और बोला, ‘‘मीता, शादीशुदा होने से क्या हमारा मन, प्यार सब गुलाम हो जाते हैं? क्या हमारी व्यक्तिगत पसंदनापसंद कुछ नहीं हो सकती?’’

‘‘जो भी हो मोहन लेकिन दोस्ती तक ठीक है. उस से आगे न तो मैं सोच सकती हूं और न ही तुम्हें सोचने का हक दे सकती हूं,’’ मीता थोड़ा सख्त होते हुए बोली. मोहन ने कहा, ‘‘मीता तुम अपनी बात कह सकती हो, मेरी सोच पर तुम लगाम कैसे लगा सकती हो?’’ मोहन का स्वर अब भी बेहद संयत था.मोहन की कौफी खत्म हो चुकी थी और मीता की कौफी अब भी जस की तस पड़ी थी. मोहन ने याद दिलाया, ‘‘कौफी ठंडी हो चुकी है मीता, कहो तो दूसरी मंगवा दूं?’’

मीता ने ‘न’ में सिर हिलाया और ठंडी ही कौफी पीने लगी. पूरे वातावरण में एक सन्नाटा छा गया था. ऐसा लग रहा था जैसे कोई समुद्र जोरजोर से शोर मचाने के बाद थक कर बिलकुल शांत हो गया हो या फिर जैसे कोई तूफान आने वाला हो. काफी देर तक दोनों खामोश बैठे रहे. फिर चुप्पी को तोड़ते हुए मोहन ने मीता से कहा, ‘‘चलो, घर छोड़ देता हूं.’’

मीता ने मना कर दिया और फिर दोनों अलगअलग दिशा में चल पड़े. मीता रास्ते भर यही सोचती रही कि आखिर उस से कहां चूक हुई? मोहन ने ऐसा प्रस्ताव क्यों रखा? लेकिन हर बार उस के मन में उठ रहे प्रश्न अनुत्तरित रह जा रहे थे. अकसर ऐसा होता है कि अगर मनमुताबिक जवाब न मिले तो व्यक्ति आत्मसंतुष्टि के लिए अपने अनुसार जवाब खुद ही तय कर लेता है. मीता ने भी खुद को संतुष्ट करने के लिए एक जवाब तय कर लिया कि वही कुछ ज्यादा ही खुल कर बातें करने लगी थी मोहन से, इसीलिए ऐसा हुआ. घर आ कर मीता ने अपने पति राजन से फोन पर ढेर सारी बातें कीं. फिर निश्चिंत हो कर अपने मन में उठ रहे गैरजरूरी विचारों को झाड़ा. वह स्वयं से बोली जैसे खुद को समझाने और आश्वस्त करने की कोशिश कर रही हो, ‘मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करती हूं. जो तुम ने कहा वैसा कभी नहीं हो सकता मोहन, तुम देखना, जिस आकर्षण को तुम प्यार समझ बैठे हो वह जल्द ही खत्म हो जाएगा.’

ऐसा सोचने के बाद मीता की कोशिश यही रही कि वह मोहन से कम से कम मिले. हालांकि एक ही संस्थान में दोनों शिक्षक थे, इसलिए एकदूसरे से मुलाकातें तो हो ही जाती थीं. वैसे समय में उन दोनों के बीच बातें होतीं प्रोफैशन की, साहित्य की, क्योंकि दोनों को साहित्य से गहरा लगाव था. लेकिन अब मीता थोड़ी चुपचुप सी रहती, खुल कर बातें नहीं करती. मोहन भी अपनी भावनाओं को छिपाता था. उस ने उस बारे में फिर कभी कुछ नहीं कहा. एक शाम एक पत्रिका में छपे मोहन के आलेख पर चर्चा हो रही थी. आलेख निजी संबंध पर था. कुछ चीजें मीता को खटक रही थीं जिस पर उस ने आपत्ति जताई. फिर दोनों में बहस शुरू हो गई. बाकी साथी मूकदर्शक बन गए. अपना पक्ष रखते हुए मोहन ने मीता से पूछा, ‘‘क्या आप ने प्यार किया है?’’ फिर खुद ही जवाब भी देने लगा, ‘‘अगर किया होता तो फिर इस आलेख की गहराई को समझतीं और आप को आपत्ति भी नहीं होती.’’

मीता ने तल्खी से जवाब दिया, ‘‘ये कैसा बेतुका सवाल है. मैं एक शादीशुदा औरत हूं. मेरे पति हैं जिन से मैं बहुत प्यार करती हूं. भले ही वे काम की वजह से मुझ से दूर रहते हों, लेकिन हम दोनों एकदूसरे के बेहद करीब हैं.’’ मोहन ने कहा, ‘‘फिर तो प्रेम की समझ आप में बेहतर होनी चाहिए थी.’’

मीता ने तंज कसा, ‘‘लगता है आप अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करते.’’ मोहन ने जवाब दिया, ‘‘जी नहीं, हमारे संबंध बहुत अच्छे हैं. हम एक आदर्श पतिपत्नी हैं, लेकिन मैं ने उन्हें किसी और से प्रेम करने से नहीं रोका. देखो मीता, इश्क का इतिहास तहजीब की उम्र से पुराना है. विवाह करना और प्यार करना दोनों अलग चीजें हैं. मानव मन गुलाम बनने के लिए बना ही नहीं है. प्रकृति ने मनुष्य को आजाद पैदा किया है. ये सामाजिक बंधन तो हमारे बनाए हुए हैं. प्राकृतिक रूप से हम ऐसे नहीं हैं.’’ पहले तो मीता सुनती रही फिर कहा, ‘‘अपनी गलती को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए कुछ भी तर्क दिया जा सकता है. मैं इसे प्यार नहीं मानती. मेरी समझ से यह सिर्फ अपनी जरूरत पूरी करने के लिए दिया गया एक तर्क भर है.’’

उस शाम मोहन ने अपने जीवन में आई लड़कियों की कहानियां, अपने तर्क को सच साबित करने के क्रम में सुनाईं, लेकिन मीता उस की कोई बात मानने को तैयार नहीं थी. हां, इस घटना के बाद फिर से दोनों आपस में पहले की तरह या यों कहें पहले से ज्यादा खुल कर बातें करने लगे. जाने कब वे दोनों एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि जानेअनजाने दोनों की बातों में ज्यादातर दोनों का जिक्र होता. मीता को तो कई बार उस के पति राजन ने मजाक में फोन पर टोका था, ‘‘कहीं मोहन से तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया मीता?’’ तब मीता खिलखिला देती, लेकिन राजन का यह मजाक कब गंभीर आरोप में बदल गया मीता समझ ही नहीं पाई और उस दिन तो सारी हदें पार हो गईं. मीता ने अभी क्लास खत्म ही की थी कि राजन का फोन आया. उस दिन राजन के स्वर से प्यार गायब था. ऐसा लग रहा था जैसे उस ने कुछ तय कर रखा हो. मीता हमेशा की तरह चहक रही थी. बातोंबातों में यह भी बोल गई कि आज दोपहर का खाना मोहन के साथ खाएगी. फिर तो जैसे शांत माहौल में तूफान आ गया.

राजन, जिस ने आज तक कभी उस से ऊंची आवाज में बात नहीं की थी, आज उस के चरित्र पर उंगली उठा रहा था. तब मीता अपनी सफाई में कुछ नहीं बोल सकी थी. हालांकि उस दिन के बाद इस के लिए राजन ने जाने कितनी बार माफी मांगी, लेकिन मीता के सीने में तो नश्तर चुभा था. जख्म भरना बड़ा ही मुश्किल था. वह अपनी ओर से बहुत कोशिश करती उन बातों को भुलाने की, लेकिन वे शब्द नासूर बन चुके थे. अकसर अकेले में रिसते रहते. मोहन जब तक साथ रहता मीता हंसती रहती, खुश रहती. लेकिन मोहन के जाते ही फिर से नकारात्मक सोच हावी होने लगता. इस दौरान जानेअनजाने मोहन ज्यादा से ज्यादा वक्त मीता के साथ गुजारने लगा. शायद दोनों को अब एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. दोनों के रिश्ते की गरमाहट की आंच दोनों के परिवार वालों तक पहुंचने लगी. शुरुआत मीता के परिवार में हुई और अब मोहन के घर में भी मातम मनाया जाने लगा. मीता मोहन के करीब आती जा रही थी और राजन से दूरी बढ़ती जा रही थी. मोहन का भी हाल ऐसा ही था. एक शाम मोहन ने फिर से मीता के सामने प्रेम प्रस्ताव रखा साथ ही यह भी कहा, ‘‘जवाब देने की कोई हड़बड़ी नहीं है. कल रविवार है. सुबह तुम्हारे घर आता हूं. सोचसमझ लो, रात भर का समय है तुम्हारे पास.’’

मीता घर आ कर देर तक मोहन के प्रस्ताव के बारे में सोचती रही. फिर राजन के बारे में सोचा तो मुंह कसैला हो गया. यह सब सोचतेसोचते धीरेधीरे मीता की पलकें भारी होने लगीं. फिर वह यह सोचते हुए सो गई कि आखिर कल उसे मोहन को सब कुछ सचसच बताना है. मीता सूरज की पहली किरण के साथ जागी. वह बेहद ताजगी महसूस कर रही थी, क्योंकि आज उस की जिंदगी एक नई करवट ले रही थी. वह पुरानी सभी यादों को अपनी जिंदगी से मिटा देना चाहती थी. राजन की दी हुई जिस पायल की रुनझुन से उस का मन नाच उठता था आज वही उसे बेडि़यां लगने लगी थी. जिस कुमकुम की बिंदी लगा कर वह अपना चेहरा देर तक आईने में निहारा करती थी आज वही उसे दाग सी लगने लगी थी. मीता ने अपना लैपटौप खोला और राजन को सारी बातें लिख डालीं. यह भी लिखा कि जिस दिन तुम ने पहली बार मुझे शक की नजर से देखा था राजन, तब तक जिंदगी में सिर्फ तुम थे. लेकिन मेरे प्रति तुम्हारा अविश्वास और मेरे लिए वक्त नहीं होना, मुझे मोहन के करीब लाता गया. मुझे जब भी तुम्हारी जरूरत होती थी राजन, तुम मेरे पास नहीं होते थे. लेकिन मोहन हमेशा साथ रहा और इस के लिए मैं तुम्हारी हमेशा शुक्रगुजार रहूंगी, क्योंकि अगर तुम ऐसा नहीं करते तो मैं मोहन की अहमियत को कभी समझ नहीं पाती. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना. मैं तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर जा रही हूं.

इतना लिखने के बाद मीता ने गहरी सांस ली. आज सालों बाद वह अपने को तनावमुक्त और आजाद महसूस कर रही थी. उस ने अपने पांवों से पायल को उतार फेंका और कुमकुम की बिंदी मिटा कर उस की जगह काली छोटी सी बिंदी, जो वह कालेज के दिनों में लगाया करती थी, एक बार फिर से लगा ली. मोहन अपने अंदर चल रहे तूफान पर नियंत्रण रखने की कोशिश करता हुआ बैठक में मीता का इंतजार कर रहा था. इंतजार ने कौफी के स्वाद को फीका कर दिया था. लंबे इंतजार के बाद जब मीता मोहन के सामने आई तो बिलकुल पहचान में नहीं आ रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे अभीअभी उस ने कालेज में एडमिशन लिया हो. अपनी उम्र से 20 साल छोटी लग रही थी वह. मोहन उत्सुकता से उस के चेहरे की ओर देख रहा था. उसे अपना जवाब चाहिए था और ऐसा लग रहा था जैसे उस का जवाब मीता के चेहरे पर लिखा है.

मीता ने मुसकरा कर मोहन से कहा, ‘‘मोहन, कभीकभी सोच साहित्यिक होने लगती है. ऐसा लगने लगता है कि हम किसी कहानी का हिस्सा भर हैं. लेकिन सच कहूं मोहन, तो ऐसा लगता है कि तुम जब पहली बार उस शिक्षिका साहिबा से इश्क कर रहे थे, मेरे पास ही थे. फिर तुम जबजब जितनी भी स्त्रियों के पास गए, हर बार मेरे और पास आते गए और अब जब सारी दूरियां खत्म हो गईं हम और तुम एक हो गए. क्या ऐसा नहीं हो सकता हम किसी ऐसी जगह चले जाएं, जहां न कोई हमें पहचाने, न हम किसी को जानें. जहां न राजन हो न तुम्हारी प्रिया. बोलो मोहन, क्या ऐसा हो सकता है?’’ मोहन ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ मीता के आंसुओं से भीगे चेहरे को सांसों की गरमी देते हुए अपने हाथों में थाम लिया. थोड़ी देर बाद दोनों एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले चल पड़े एक अनजाने सफर पर जहां थोड़ा दर्द लेकिन सुकून था. खुली हवा थी, उम्मीदों से भरापूरा जीवन था.

Holi 2024: पलाश- अर्पिता ने क्यों किया शलभ को अपनी जिंदगी से दूर?

रखैल…बदचलन… आवारा… अपने लिए ऐसे अलंकरण सुन कर अर्पिता कुछ देर के लिए अवाक रह गई. उस की इच्छा हुई कि बस धरती फट जाए और वह उस में समा जाए… ऐसी जगह जा कर छिपे जहां उसे कोई देख न पाए. रिश्तेदार तो कानाफूसी कर ही रहे थे, पर क्या शलभ की पत्नी भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर सकती है? वह तो उस की अच्छी दोस्त बन गई थी. फिर वह ऐसा कैसे बोल सकती है?

अर्पिता का नाम शलभ के साथ जोड़ा जा रहा था, उस के संबंध को नाजायज बताया जा रहा था. उस ने रुंधे गले से शलभ से पूछा, ‘‘सब मुझे गलत कह रहे हैं… हमारे रिश्ते को नाजायज बता रहे हैं… सच ही तो है, तुम ठहरे शादीशुदा. तुम्हारे साथ रहने का मुझे कोई अधिकार नहीं… क्या मैं सच में तुम्हारी रखैल हूं?’’

शलभ को शीशे की तरह चुभा था यह सवाल. अर्पिता की सिसकियां थम नहीं रही थीं. रोतेरोते ही बोली, ‘‘इतनी बदनामी के बाद अब मुझ से कौन शादी करेगा?’’

शलभ ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘मैं ढूंढ़ूगा तुम्हारे लिए लड़का… तुम्हारे विवाह की सारी जिम्मेदारी मैं निभाऊंगा.’’

‘‘तुम मेरे बिना रह सकोगे?’’

शलभ अर्पिता के सवाल का जवाब देने के बजाय उस का सिर अपनी गोद में रख कर थपकियां देने लगा. थोड़ी ही देर में अर्पिता नींद में डूब गई. शलभ उस के मासूम चेहरे को देर तक देखता रहा, जो अब भी आंसुओं से भीगा था.

1-1 कर उसे अर्पिता से जुड़ी सभी छोटीबड़ी घटनाएं याद आने लगीं. यादें समुद्र की लहरों सी होती हैं. उठती हैं, गिरती हैं और फिर छोड़ जाती हैं एक खालीपन, एक एकाकीपन जिसे भर पाना मुश्किल हो जाता है…

अर्पिता रिश्ते में शलभ की कजिन थी. दोनों के बीच उम्र का बड़ा फासला भी था. उस फासले का असर दोनों के व्यक्तित्व, पसंदनापसंद में नजर आता था. शलभ के जेहन में नन्ही सी अर्पिता की धुंधली सी तसवीर थी, जबकि अर्पिता को तो शलभ बिलकुल याद नहीं था.

हो भी कैसे? तब से अब तक उस की जिंदगी ने बहुत उतारचढ़ाव देख लिए. मां गुजर गईं, पिता ने दूसरी शादी कर ली, इसे ननिहाल भेज दिया गया. जिंदगी के थपेड़ों ने उम्र के लिहाज से अनुभव थोड़ा ज्यादा दे दिया था, जो कभीकभी उस के स्वभाव से भी झलकता था.

वर्षों बाद अर्पिता शलभ से मिली थी. फिर भी उस के व्यवहार में बिलकुल भी अजनबियत नहीं दिखी. एक अपनापन था. चंद रोज में ही शलभ उस का राजदार बन गया. अर्पिता ने शलभ को अपने बचपन के प्यार के बारे में बताया. यह भी बताया कि दोनों शादी करना चाहते हैं.

‘‘घर वालों को शादी के लिए नहीं मना सकते, तो मुझे ही दिल्ली ले चलो. आसिफ वहीं नौकरी करता है. मैं भी पीजी में रहूंगी और नौकरी करूंगी. कोर्ट मैरिज करने के बाद घर वालों को बता दूंगी,’’ एक सांस में अर्पिता ने अपनी बात शलभ से कह डाली.

शलभ ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन फिर उस की जिद के आगे हार गया.

उन दिनों शलभ दिल्ली में कार्यरत था. अच्छी कंपनी, अच्छी कमाई, खुशहाल परिवार. अर्पिता के घर में शलभ की बड़ी इज्जत थी. अर्पिता के दिल्ली जाने की बात पर उस के घर वालों को समझाना पड़ा. आखिरकार अर्पिता को दिल्ली जाने की इजाजत मिल गई.

अर्पिता को तो पंख लग गए. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह दिन भी आ गया जब शलभ के साथ अर्पिता अपने सपनों की नगरी की ओर निकल पड़ी. अर्पिता के पिता ने उस की सारी जिम्मेदारी शलभ के कंधों पर डाल थी. शलभ ने भी इस जिम्मेदारी को खुशीखुशी स्वीकार लिया था.

दिल्ली पहुंचने के बाद शलभ ने अर्पिता के रहने का इंतजाम पीजी में करा दिया. गुजरते समय के साथ ही अर्पिता ने भी दिल्ली की रफ्तार भरी जिंदगी से तालमेल बैठा लिया. शलभ अपने काम में व्यस्त हो गया. अर्पिता इस नई और पसंद की दुनिया में बेहद खुश थी. वीकैंड पर आसिफ के साथ कभी कनाट प्लेस के चक्कर लगाती तो कभी बाइक से देर रात दोनों इंडिया गेट कुल्फी खाने निकल जाते.

मार्च का महीना था. पलाश के पेड़ों में हरे पत्तों की जगह सुर्ख फूलों ने ले ली थी. यही तो वे फूल हैं, जो बचपन से ही उसे बेहद पसंद हैं, सुर्ख रंग उस का पसंदीदा. उस के घर के सामने भी पलाश का पेड़ था. दिल्ली में कहीं भी सुर्ख फूल देख कर उसे घर जैसा महसूस होता.

होली आने में बस चंद दिन ही रह गए थे. इस बार की होली को ले कर अर्पिता बेहद उत्साहित थी. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. होली से चंद रोज पहले शलभ के पास अर्पिता के अस्वस्थ होने की खबर पहुंची. शलभ पीजी पहुंचा तो अर्पिता को तेज बुखार में तड़पता पाया.

अर्पिता की रूममेट्स से पता चला कि आसिफ ने प्यार और शादी का वादा कर उस के साथ शारीरिक संबंध बनाए और फिर उस पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाने लगा. एक रोज धर्म को शादी की अड़चन बता कर उसे हमेशा के लिए छोड़ गया. जिस ख्वाब को आंखों में सजाए अर्पिता दिल्ली आई थी, वह टूट चुका था. कल्पना की उड़ान में उस के पंख लहूलुहान हो चले थे.

शलभ रात भर वहीं अर्पिता के पास बैठा रहा. उस के पिता को फोन पर सारी बातें बताने की कोशिश भी की, लेकिन उन की इस में कोई दिलचस्पी नहीं थी. सूर्योदय के साथ ही शलभ अर्पिता को अपने फ्लैट में ले आया. उस ने अर्पिता की देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी. अर्पिता बचपन के प्यार और फिर उस से मिले धोखे से उबर नहीं पा रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस के प्रेम में जातिधर्म कैसे आड़े आ गए.

संघर्ष और दुख भरा समय गुजर गया. हफ्ते भर में अर्पिता स्वस्थ हो गई. शलभ ने उसे अपने औफिस में ही नौकरी दिला दी. अर्पिता का मन भी नौकरी में रमने लगा. खाली वक्त में वह खुद को घर के कामों में व्यस्त रखने लगी. शलभ की छोटीमोटी चीजों की जिम्मेदारी भी उठा ली. सुबह उठती, चाय बनाती, फिर शलभ को उठाती, नास्ता बनाती और फिर औफिस के लिए तैयार हो जाती. दोनों साथसाथ औफिस निकल पड़ते.

शाम को शलभ के साथ घर आ जाती. जिस रात शलभ को देर तक औफिस में रुकना होता, वह तब तक जागती रहती जब तक शलभ आ नहीं जाता. रात में कभी डर जाती तो चुपके से शलभ के पास बिस्तर पर आ कर सो जाती. शलभ भी उसे थपकियां देने लगता. लेकिन दोनों के बीच एक तकिए की दूरी बनी रहती. मगर एक रात यह एक तकिए की दूरी भी खत्म हो गई.

मुश्किल दिनों का साथ अकसर मजबूत होता है. संघर्ष रिश्ते बनाता है

तो कुछ रिश्तों को कमजोर भी करता है. 3-4 हफ्ते ही बीते थे. लेकिन ऐसा लगने लगा था जैसे सदियों से दोनों साथ रह रहे हों. वे एकदूसरे का चेहरा पढ़ सकते थे. शलभ का अपने गृह शहर जाना भी कम होने लगा था. अगर घर जाता भी तो लौटने की बुकिंग अर्पिता पहले से ही करवा देती.

एक तरफ शलभ और अर्पिता के बीच का फासला कम होता जा रहा था तो दूसरी तरफ घर और परिवार से शलभ का फासला बढ़ता जा रहा था. शलभ और उस की पत्नी के रिश्ते में कड़वाहट घुलती जा रही थी. कई बार तो शलभ ने अर्पिता से विवाह के बारे में भी सोचा, लेकिन हर बार उस की आंखों के सामने बेटे का मासूम चेहरा आ जाता. एक वही तो था जो उस के आने का बेसब्री से इंतजार करता था.

दोनों के घरों में व रिश्तेदारों के बीच कानाफूसी का दौर शुरू हो गया था. कानाफूसी धीरेधीरे आरोप में बदल गई और शलभ के शांत जीवन में भूचाल आ गया. रिश्तों के अग्निपथ पर चलते हुए पांवों में छाले पड़ने तो तय था, लेकिन छाले इतने दर्द भरे हो सकते हैं, इस का एहसास दोनों को अब होने लगा.

अचानक शलभ को घुटन सी महसूस हुई तो सोच का सिलसिला थम गया. शलभ ने अपनी गोद से उतार कर अर्पिता को बिस्तर पर सुला दिया और स्वयं बालकनी में आ गया. सुबह की लालिमा क्षितिज पर छाई थी. ऐसा लग रहा था जैसे ढेर सारे पलाश के फूलों को मसल कर आसमान में बिखेर दिया गया हो. शलभ सामने लगे पलाश के पेड़ को देखने लगा. उस के सारे पत्ते गिर चुके थे और लाल फूलों से लदा वृक्ष ऐसा लग रहा था जैसे नए रिश्ते बन गए हों और पुरानों से नाता टूट रहा हो.

शलभ के ऊपर एक नई जिम्मेदारी आ चुकी थी. अर्पिता के विवाह की जिम्मेदारी और इसे ले कर वह बेहद संजीदा था. शलभ ने औफिस में ही कार्य करने वाले अपने दोस्त के छोटे भाई से अर्पिता के विवाह की बात की. लड़का और उस के परिवार वालों ने इस प्रस्ताव को मान लिया. अर्पिता के हाथ पीले किए जाने की तैयारी शुरू हो गई.

पत्नी के खिलाफ जा कर शलभ ने अर्पिता की शादी की सारी जिम्मेदारी, सारा खर्च उठा लिया. शादी की तैयारी में दिन गुजरने लगे. शलभ के पास अपने बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं रहती थी. पिता और सौतेली मां को अर्पिता की जिंदगी में कुछ खास रुचि थी नहीं. अर्पिता के लिए तो शलभ में ही उस का पूरा परिवार समाहित था.

नए रिश्ते को आत्मसात करने की जद्दोजहद में जानेअनजाने अर्पिता शलभ की उपेक्षा भी कर जाती थी. जिस अर्पिता के लिए शलभ ने अपने सभी रिश्तेदारों, यहां तक कि अपनी अर्धांगिनी से भी रिश्ता तोड़ लिया, अब वही उस से दूर होती जा रही थी. रात में देर से लौटने पर अब अर्पिता इंतजार करती नहीं मिलती थी, न ही सुबह की चाय के साथ उस की आवाज आती.

मौसम बदल रहा था. शलभ को इस का एहसास होने लगा था. वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगा था. उस ने अपने चारों ओर अकेलेपन की दीवार खड़ी करनी शुरू कर दी. जल्द ही अर्पिता के विवाह का दिन भी आ गया. शलभ की संवेदनाएं जड़ हो चुकी थीं. यंत्रवत वह सारे काम करता जा रहा था.

विदाई की बेला आ गई. हमेशा चहकने वाली अर्पिता की आंखें भर आईं.

वह बिलखने लगी. कमरे की हर दीवार उस की पसंद के रंग में रंगी थी, हर परदा उस की पसंद का था. बालकनी की छोटी सी बगिया में भी उस की पसंद के ही फूल सजे थे. वह नम आंखों से उन्हें निहार रही थी.

घर के सामने उस का पसंदीदा पलाश का पेड़ अकेला खड़ा था. शलभ जड़वत था. उसे एहसास था कि उस की जिंदगी की रंगत को भी वह अपने संग लिए जा रही है, लेकिन दिल पर पड़ा बोझ उतर गया था. उस ने अपनी जिम्मेदारी जो पूरी कर दी थी.

Holi 2024: कल हमेशा रहेगा: वेदश्री ने किसे चुना

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Holi 2024: राधेश्याम नाई- बेटे का क्या था फैसला

कहानी- रमेश कुमार

‘‘अरे भाई, यह तो राधेश्याम नाई का सैलून है. लोग इस की दिलचस्प बातें सुनने के लिए ही इस की छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने या दाढ़ी बनवाने आते हैं. ये बड़ा जीनियस व्यक्ति है. इस की दुकान रसिक एवं कलाप्रेमी ग्राहकों से लबालब होती है, जबकि यहां आसपास के सैलून ज्यादा नहीं चलते. राधेश्याम का रेट भी सारे शहर के सैलूनों से सस्ता है. राधेश्याम के बारे में यहां के अखबारों में काफी कुछ छप चुका है.’’

राजेश तो राधेश्याम का गुण गाए जा रहा था और मुझे उस का यह राग जरा भी पसंद नहीं आ रहा था क्योंकि गगन टायर कंपनी वालों ने मुझे राधेश्याम का परिचय कुछ अलग ही अंदाज से दिया था.

गगन टायर का शोरूम राधेश्याम की दुकान के ठीक सामने सड़क पार कर के था. मैं उन के यहां 5 दिनों से बतौर चार्टर्ड अकाउंटेंट बहीखातों का निरीक्षण अपने सहयोगियों के साथ कर रहा था. कंपनी के अधिकारियों ने इस नाई के बारे में कहा था कि यह दिमाग से जरा खिसका हुआ है. अपनी ऊलजलूल हरकतों से यह बाजार का माहौल खराब करता है. चीखचिल्ला कर ड्रामा करता है और टोकने पर पड़ोसियों से लड़ता है.

इन 5 दिनों में राधेश्याम मुझे किसी से लड़ते हुए तो दिखा नहीं, पर लंच के समय मैं अपने कमरे की खिड़की से उस की हरकतें जरूर देख रहा था. उस की दुकान से लोगों की जोरदार हंसी और ठहाकों की आवाज मेरे लंच रूम तक पहुंचती थी.

इस कंपनी में मेरे निरीक्षण कार्य का अंतिम दिन था. मैं ने अपनी फाइनल रिपोर्ट तैयार कर के स्टेनो को दे दी थी. फोन कर के राजेश को बुलाया था. मुझे राजेश के साथ उस के घर लंच के लिए जाना था. राजेश मेरा मित्र था और मैं उस के  यहां ही ठहरा था.

राजेश मुझे लेने आया तो रिपोर्ट टाइप हो रही थी. अत: वह मेरे पास बैठ गया. राधेश्याम के बारे में राजेश के विचार सुन कर लगा जैसे मैं आसमान से नीचे गिरा हूं. तो क्या मैं अपनी आंखों से 5 दिनों तक जो कुछ देख रहा था वह भ्रम था.

पिछले दिनों काम करते हुए मेरा ध्यान नाई की दुकान की ओर बंट जाता तो मैं लावणी की तर्ज पर चलने वाले तमाशे को देखने लगता. तब एक दिन भल्ला साहब बोले थे, ‘साहब, मसखर नाई की एक्ंिटग क्या देख रहे हो, अपना जरूरी काम निबटा लो. यहां तो मटरगश्ती करने वाले लोग दिन भर बैठे रहते हैं.’

‘ऐसे लोगों के अड्डे की शिकायत पुलिस से करो,’ मैं ने सुझाव दिया.

‘हम ने सब प्रयास कर लिए,’ भल्ला साहब बोले, ‘इस की शिकायत पुलिस और यहां तक कि स्थानीय प्रशासन और मंत्री तक से कर दी है, पर इस उस्तरे वाले का बाल भी बांका नहीं होता. मीडिया के लोगों और स्थानीय नेताओं ने इस को सिर पर बैठा रखा है.’

अब राजेश ने तो मानो पासा ही पलट दिया था. रास्ते में राजेश को मैं ने टायर कंपनी के अधिकारियों की राय राधेश्याम के बारे में बताई. राजेश हंस कर बोला, ‘‘तुम इस शहर में नए हो न, इसलिए ये लोग बात को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहे थे. दरअसल, राधेश्याम की चलती दुकान से उस के कई पड़ोसी दुकानदारों को ईर्ष्या है. वे राधेश्याम की दुकान हथिया कर वहां शोरूम खोलना चाहते हैं. अरे भई, बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह कहावत तो तुम ने सुन रखी है न?’’

गाड़ी चलाते हुए राजेश ने एक पल को मुझे देखा फिर कहने लगा, ‘‘टायर कंपनी वालों ने पहले तो उसे रुपयों का भारी लालच दिया. जब वह उन की बातों में नहीं आया तो उस पर तरहतरह के आरोप लगा कर सरकारी महकमों और पुलिस में उस की शिकायत की और इस पर भी बात न बनी तो अब उस के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि वह नाई बहुत बड़ी तोप है?’’

‘‘नहीं…नहीं…पर नगर का बुद्धिजीवी वर्ग उस के साथ है.’’

‘‘परंतु राजेश, मुझे उस अनपढ़ नाई की हरकतें बिलकुल भी अच्छी नहीं लगीं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तुम तो अभी इस शहर में 2 महीने और ठहरोगे. किसी दिन उस की दुकान पर ग्राहक बन कर जाना और स्वयं उस के स्वभाव को परखना,’’ राजेश ने चुनौती भरे स्वर में कहा.

मैं चुप हो गया. राजेश को क्या जवाब देता? मैं कभी ऐसी छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने के लिए नहीं गया. दिल्ली के मशहूर सैलून में जा कर मैं अपने बाल कटवाता था.

राजेश ने मुझे अपनी कार घूमनेफिरने और काम पर जाने के लिए सौंपी हुई थी. मैं भी राजेश की कंपनी का लेखा कार्य निशुल्क करता था. एक दिन मैं कार से नेहरू मार्ग से गुजर रहा था कि अचानक ही कार झटके लेने लगी और थोड़ी दूर तक चलने के बाद आखिरी झटका ले कर बंद हो गई. मैं ने खिड़की के बाहर झांक कर देखा तो गगन टायर कंपनी का शोरूम ठीक सामने था. मैं ने इस कंपनी का काम किया था, सोचा मदद मिलेगी. उन के दफ्तर में पहुंचा तो जी.एम. साहब नहीं थे. दूसरे कर्मचारी अपने कार्य में व्यस्त थे. एक कर्मचारी से मैं ने पूछा, ‘‘यहां पर कार मैकेनिक की दुकान कहां है?’’ उस ने बताया कि मैकेनिक की दुकान आधा किलोमीटर दूर है. मैं ने उस से कहा, ‘‘2-3 लड़के कार में धक्का लगाने के लिए चाहिए.’’

‘‘लेकिन सर, अभी तो लंच का समय चल रहा है. 1 घंटे बाद लड़के मिलेंगे. मैं भी लंच पर जा रहा हूं,’’ कह कर वह रफूचक्कर हो गया.

सड़क पर जाम लगता देख कर मैं ने किसी तरह अकेले ही गाड़ी को ठेल कर किनारे लगा दिया. इस के बाद पसीना सुखाने के लिए खड़ा हुआ तो देखता हूं कि राधेश्याम नाई की दुकान के आगे खड़ा हूं.

दुकान के ऊपर बड़े से बोर्ड पर लिखा था, ‘राधेश्याम नाई.’ इस के बाद नीचे 2 पंक्तियों का शेर था :

‘जाते हो कहां को, देखते हो किधर,

राधेश्याम की दुकान, प्यारे है इधर.’

मेरी निगाहें बरबस दुकान के अंदर चली गईं. 3-4 ग्राहक बेंच पर बैठे थे और बड़े से आईने के सामने रखी कुरसी पर बैठे एक ग्राहक की दाढ़ी राधेश्याम बना रहा था. आपस में हमारी आंखें मिलीं तो राधेश्याम एकदम से बोल पड़ा, ‘‘सेवा बताइए साहब, कोई काम है हम से क्या? यदि कटिंग करवानी है तो 1 घंटा इंतजार करना पड़ेगा.’’

‘‘कटिंग तो फिर कभी करवाएंगे, राधेश्यामजी. अभी तो मेरी कार खराब हो गई है और मैकेनिक की दुकान तक इसे पहुंचाना है, क्या करें,’’ मैं परेशान सा बोला.

‘‘गाड़ी कहां है?’’ राधेश्याम बोले.

‘‘वो रही,’’ मैं ने उंगली के इशारे से बताया.

‘‘आप जरा ठहर जाओ,’’ फिर दुकान से नीचे कूद कर, आसपास के लड़कों को नाम ले कर राधेश्याम ने आवाज लगाई तो 3-4 लड़के वहां जमा हो गए.

उन की ओर मुखातिब हो कर राधेश्याम गायक किशोर कुमार वाले अंदाज में बोला, ‘‘छोरां, मेरा 6 रुपैया 12 आना मत देना पर इन साहब की गाड़ी को धक्का मारते हुए इस्माइल मिस्त्री के पास ले जाओ. उस से कहना, राधेश्याम ने गाड़ी भेजी है, ज्यादा पैसे चार्ज न करे. और हां, गाड़ी पहुंचा कर वापस आओगे तो गरमागरम समोसे खिलाऊंगा.’’

राधेश्याम का अंदाज और संवाद मुझे पसंद आया. मैं ने 50 का नोट राधेश्याम के आगे बढ़ाया, ‘‘धन्यवाद, राधेश्यामजी… लड़कों के लिए समोसे मेरी तरफ से.’’

‘‘ये लड़के मेरे हैं साहब…समोसे भी मैं ही खिलाऊंगा. इन पैसों को रख लीजिए और अभी तो इस्माइल मैकेनिक के पास पहुंचिए. फिर कभी दाढ़ी बनवाने आएंगे तब हिसाब बराबर करेंगे,’’ राधेश्याम गंवई अंदाज में मुसकराते हुए बोला.

मेरी एक न चली. मैं मैकेनिक के पास पहुंचा. बोनट खोलने पर मालूम हुआ कि बैटरी से तार का कनेक्शन टूट गया था. उस ने तार जोड़ दिया पर पैसे नहीं लिए.

राधेश्याम से यह मेरी पहली मुलाकात थी जो मेरे हृदय पर छाप छोड़ गई थी. मैं ने शाम को राजेश से यह घटना बताई तो वह भी खूब हंसा और बोला, ‘‘राधेश्याम वक्त पर काम आने वाला व्यक्ति है.’’

मेरे मन का अहम कुछ छंटने लगा था इसलिए मैं ने मन में तय किया कि राधेश्याम की दुकान पर दाढ़ी बनवाने जरूर जाऊंगा.

रविवार के दिन राधेश्याम की दुकान पर मैं सुबह ही पहुंच गया. उस समय दुकान पर संयोग से कोई ग्राहक नहीं था. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया, ‘‘आइए साहब, लगता है कि आप दाढ़ी बनवाने आए हैं.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ मैं ने परीक्षा लेने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘क्योंकि हर बार तो आप की कार खराब नहीं हो सकती न,’’ वह हंसने लगा.

‘‘राधेश्यामजी, पिछले दिनों मेरी कार में धक्का लगवाने के लिए शुक्रिया, पर मैं ने भी आप के यहां दाढ़ी बनवाने का अपना वादा निभाया,’’ मैं ने बात शुरू की.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, हुजूर. खाकसार की दालरोटी आप जैसे कद्रदानों की बदौलत ही चल रही है. हुजूर, देखना, मैं आप की दाढ़ी कितनी मुलायम बनाता हूं. आप के गाल इतने चिकने हो जाएंगे कि इन गालों का बोसा आप की घरवाली बारबार लेना चाहेगी.’’

‘‘अरे, राधेश्यामजी अभी तो मेरी शादी ही नहीं हुई. घरवाली बोसा कैसे लेगी.’’

‘‘हुजूर, राधेश्याम से दाढ़ी बनवाते रहोगे तो इन गालों पर फिसलने वाली कोई दिलरुबा जल्दी ही मिल जाएगी.’’

‘‘हुजूर, खाकसार जानना चाहता है कि आप कहां रहते हैं, जिंसी, अनाज मंडी, छावनी या ग्वाल टोला…’’ राधेश्याम लगातार बोले जा रहा था.

‘‘मैं जूता फैक्टरी के मालिक राजेश वर्मा का मित्र हूं और उन्हीं के यहां ठहरा हूं.’’

‘‘तब तो आप इस खाकसार के भी मेहमान हुए हुजूर. राजेश बाबूजी ने आप को बताया नहीं कि मुझ से आप अपने सिर की चंपी जरूर करवाएं. दिलीप कुमार और देव आनंद तो जवानी में मुझ से ही चंपी करवाते थे,’’ यह बताते हुए राधेश्याम ने मेरे गालों पर झागदार क्रीम मलनी शुरू कर दी थी.

फिर राधेश्याम बोला, ‘‘किशोर दा, अहा, क्या गाते थे. आज भी उन की यादों को भुलाना मुश्किल है. मैं ने किशोर कुमार और अशोक कुमार की भी चंपी की है.’’

‘‘आप शायद मेरी बात को झूठ समझ रहे हैं. मैं ने फिल्मी दुनिया की बड़ी खाक छानी है और गुनगुनाना भी वहीं से सीखा है,’’ कहते हए वह ऊंचे स्वर में गाने लगा :

‘ओ मेरे मांझी, ले चल पार,

मैं इस पार, तू उस पार

ओ मेरे मांझी, अब की बार ले चल पार…’

मुझे लगा कि मेरे गालों पर लगाया साबुन सूख जाएगा अगर यह आदमी इसी तरह से गाता रहा. आखिर मैं ने उसे टोका, ‘‘राधेश्याम, पहले दाढ़ी बनाओ.’’

‘‘हां…हां… हुजूर साहब,’’ और इसी के साथ वह मेरे गालों पर उस्तरा चलाने लगा. पर अधिक देर तक चुप न रह सका. बोल ही पड़ा, ‘‘सर, आप को पता है कि आप की दाढ़ी में कितने बाल हैं?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने इनकार में सिर हिला दिया.

‘‘इसी तरह इस देश में कितनी कारें होंगी. किसी भी आम आदमी को नहीं पता. सड़कों पर चाहे पैदल चलने के लिए जगह न हो पर कर्ज ले कर लोग प्रतिदिन हजारों कारें खरीद रहे हैं और वातावरण को खराब कर रहे हैं,’’ राधेश्याम ने पहेली बूझी और मैं हंस पड़ा.

इस के बाद राधेश्याम अपने हाथ का उस्तरा मुझे दिखा कर बोला, ‘‘ये उस्तरा नाई के अलावा किसकिस के हाथ में है, पता है?’’

‘‘नहीं…’’ मैं अब की बार मुसकरा कर बोला.

‘‘सब से तेज धार वाला उस्तरा हमारी सरकार के हाथ में है. नित नए टैक्स लगा कर आम आदमी की जेब काटने में लगी हुई है,’’ राधेश्याम बोला.

अब तक राधेश्याम मेरी शेव एक बार बना चुका था. दूसरी बार क्रीम वाला साबुन मेरे गालों पर लगाते हुए बोला, ‘‘यह क्रीम जो आप की दाढ़ी पर लगा रहे हैं, इस का मतलब समझे हैं आप?’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला.

‘‘लोग आजकल बहुत चालाक और चापलूस हो गए हैं. जब अपना मतलब होता है तो इस क्रीम की तरह चिकना मस्का लगा कर दूसरों को खुश कर देते हैं किंतु जब मतलब निकल जाता है तो पहचानते भी नहीं,’’ राधेश्याम अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगाने लगा.

मुझे राधेश्याम की इस तरह की उपमाएं बहुत पसंद आईं. वह एक खुशदिल इनसान लगा. मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर राधेश्याम चालू रहा और बताने लगा कि उस के घर में उस की बूढ़ी मां, पत्नी, 2 पुत्र और 1 पुत्री हैं.

पुत्री की वह शादी कर चुका था. उस का बड़ा बेटा एम.काम. कर चुका था और छोटा बी.ए. सेकंड ईयर में था. पर राधेश्याम को दुख इस बात का था कि उस का बड़ा बेटा एम.काम. करने के बाद भी पिछले 2 वर्षों से बेरोजगार था. वह सरकारी नौकरी का इच्छुक था पर उसे सरकारी नौकरी बेहद प्रयासों के बावजूद भी नहीं मिली.

अपनी दुकान से 5-6 हजार रुपए महीना राधेश्याम कमा रहा था. उस ने बेटे को सलाह दी थी कि वह दुकान में काम करे तो अभी जो दुकान 7 घंटे के लिए खुलती है उस का समय बढ़ाया जा सकता है. परंतु बेटे का तर्क था कि जब नाईगिरी ही करनी है तो एम.काम. करने का फायदा क्या था. पर राधेश्याम का कहना था कि नाईगिरी करो या कुछ और… पर काम करने की कला आनी चाहिए.

राधेश्याम की यह बात खत्म होतेहोते मेरी दाढ़ी बन चुकी थी. अब उस को अपनी असली कला मुझे दिखानी थी. उस ने अपनी बोतल से मेरे सिर पर पानी की फुहार मारी. फिर थोड़ी देर चंपी कर के सिर में कोई तेल डाला और मस्ती में अपने दोनों हाथों से मेरे सिर पर बड़ी देर तक उंगलियों से कलाबाजी दिखाता रहा.

मुझे पता नहीं सिर की कौनकौन सी नसों की मालिश हुई पर सच में आनंद आ गया. सारी थकान दूर हो गई. शरीर बेहद हलका हो गया था.

मैं राधेश्याम नाई को दिल से धन्यवाद देने लगा. उस का मेहनताना पूछा तो बोला, ‘‘कुल 20 रुपए, सरकार… यदि कटिंग भी बनवाते तो सब मिला कर 35 रुपए ले लेता.’’

मैं ने 100 का नोट निकाल कर कहा, ‘‘राधेश्याम, 20 रुपए तुम्हारी मेहनत के और शेष बख्शीश.’’

वह कुछ जवाब में कहता इस से पहले ही मैं बोल पड़ा, ‘‘देखो राधेश्याम, पहली बार तुम्हारी दुकान पर आया हूं… अनेक यादें ले कर जा रहा हूं इसलिए इसे रखना होगा. बाद में मिलने पर तुम्हारे फिल्मी दुनिया के अनुभव सुनूंगा.’’

अगले दिन ही मुझे दिल्ली लौटना पड़ा. इस के 6 माह बाद एक दिन राजेश का फोन आया कि उसे मेरी जरूरत पड़ गई है. मैं दिल्ली से राजेश के शहर में पहुंचा. 2 दिन में सारा काम निबटाया. इस के बाद दिल्ली लौटने से पहले सोचा कि राधेश्याम की दुकान पर 10 मिनट के लिए चल कर उस से मिल लूं, वह खुश हो जाएगा.

दुकान पर राधेश्याम का बड़ा लड़का मिला. वह कटिंग कर रहा था. मैं ने बड़ी व्याकुलता से पूछा, ‘‘राधेश्यामजी कहां हैं?’’

जवाब में वह फूटफूट कर रोने लगा. बोला, ‘‘पापा का पिछले महीने हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया.’’

उस के रोते हुए बेटे को मैं ने अपने सीने से लगा कर दिलासा दी. जब वह थोड़ा शांत हुआ तो मैं ने उसे अपने पिता के व्यवसाय को अपनाते देख आश्चर्य प्रकट किया. कहा, ‘‘बेटे, तुम तो यह काम करना नहीं चाहते थे? क्या तुम्हारे लिए मैं नौकरी ढूंढूं. कामर्स पढ़े हो, मेरी किसी क्लाइंट की कंपनी में नौकरी लग जाएगी.’’

‘‘नहीं, अंकल, अब नौकरी नहीं करनी. पापा ठीक कहते थे कि पढ़ाई- लिखाई से आदमी का बौद्धिक विकास होता है पर सच्ची सफलता तो अपने काम को ही आगे बढ़ाने से मिलती है. नाई का काम करने से मैं छोटा नहीं बन जाऊंगा. छोटा बनूंगा, गलत काम करने से.’’

राधेश्याम के बेटे की आवाज में आत्मविश्वास झलक रहा था.

Holi 2024: अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का

‘‘वाह मां, ये झुमके तो बहुत सुंदर हैं, कब खरीदे?’’ रंजो ने अपनी मां प्रभा के कानों में झूलते झुमकों को देख कर कहा.

‘‘पिछले महीने हमारी शादी की सालगिरह थी न, तभी अपर्णा बहू ने मुझे ये झुमके और तुम्हारे पापा को घड़ी दी थी. पता नहीं कब वह यह सब खरीद लाई,’’ प्रभा ने कहा.

अपनी आंखें बड़ी कर रंजो बोली, ‘‘भाभी ने, क्या बात है.’’ फिर आह भरते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे तो कभी इस तरह से कुछ नहीं दिया उन्होंने. हां भई, सासससुर को मक्खन लगाया जा रहा है, लगाओ,’ लगाओ, खूब मक्खन लगाओ.’’ उस का ध्यान उन झुमकों पर ही अटका हुआ था, कहने लगी, ‘‘जिस ने भी दिए हों मां, पर मेरा दिल तो इन झुमकों पर आ गया.’’

‘‘हां, तो ले लो न, बेटा. इस में क्या है,’’ कह कर प्रभा ने वे झुमके उतार कर तुरंत अपनी बेटी रंजो को दे दिए. उस ने एक बार यह नहीं सोचा कि अपर्णा को कैसा लगेगा जब वह जानेगी कि उस के दिए उपहारस्वरूप झुमके उस की सास ने अपनी बेटी को दे दिए.

प्रभा के देने भर की देरी थी कि रंजो ने झट से वे झुमके अपने कानों में डाल लिए, फिर बनावटी मुंह बना कर कहने लगी, ‘‘मन नहीं है तो ले लो मां, नहीं तो फिर मेरे पीठपीछे घर वाले, खासकर पापा, कहेंगे कि जब आती है रंजो, कुछ न कुछ ले कर ही जाती है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बेटा, कोई क्यों कुछ कहेगा. और क्या तुम्हारा हक नहीं है इस घर में? तुम्हें पसंद है तो रख लो न, इस में क्या है. तुम पहनो या मैं पहनूं, बात बराबर है.’’

‘‘सच में मां? ओह मां, आप कितनी अच्छी हो,’’ कह कर रंजो अपनी मां के गले लग गई. हमेशा से तो वह यही करती आई है, जो पसंद आया उसे रख लिया, यह कभी न सोचा कि वह चीज किसी के लिए कितना माने रखती है. कितने प्यार से और किस तरह से पैसे जोड़ कर अपर्णा ने अपनी सास के लिए वे झुमके खरीदे थे, पर प्रभा ने बिना सोचेसमझे उठा कर झुमके अपनी बेटी को दे दिए.

अरे, वह यह तो कह सकती थी कि ये झुमके तुम्हारी भाभी ने बड़े शौक से मुझे खरीद कर दिए हैं, इसलिए मैं तुम्हें दूसरे बनवा कर दे दूंगी. पर नहीं, कभी उस ने बेटी के आगे बहू की भावना को समझा है, जो अब समझेगी?

‘‘मां, देखो तो मेरे ऊपर ये झुमके कैसे लग रहे हैं, अच्छे लग रहे हैं न, बोलो न मां?’’ आईने में खुद को निहारते हुए रंजो कहने लगी, ‘‘वैसे मां, आप से एक शिकायत है.’’

‘‘अब किस बात की शिकायत है?’’ प्रभा ने पूछा.‘‘मुझे नहीं, बल्कि आप के जमाई को, कह रहे थे आप ने वादा किया था उन से ब्रेसलेट देने का, जो अब तक नहीं दिया.’’

‘‘ओ, हां, याद आया, पर अभी पैसे की थोड़ी तंगी है, बेटा. तुझे तो पता ही है कि तेरे पापा को कितनी कम पैंशन मिलती है. घर तो अपर्णा बहू और मानव की कमाई से ही चलता है,’’ अपनी मजबूरी बताते हुए प्रभा ने कहा.‘‘वह सब मुझे नहीं पता है मां, वह आप जानो और आप के जमाई. बीच में मुझे मत घसीटो,’’ झुमके अपने पर्स में सहेजते हुए रंजो ने कहा और चलती बनी.

‘‘बहू के दिए झुमके तुम ने रंजो को दे दिए?’’ हैरत से भरत ने अपनी पत्नी प्रभा से पूछा‘‘हां, उसे पसंद आ गए तो दे दिए,’’ बस इतना ही कहा प्रभा ने और वहां से जाने लगी, जानती थी वह कि अब भरत चुप नहीं रहने वाले.

‘‘क्या कहा तुम ने, उसे पसंद आ गए? हमारे घर की ऐसी कौन सी चीज है जो उसे पसंद नहीं आती है, बोलो? जब भी आती है कुछ न कुछ उठा कर ले ही जाती है. जरा भी शर्म नहीं है उसे. उस दिन आई तो बहू का पर्स, जो उस की दोस्त ने उसे दिया था, उठा कर ले गई. कोई कुछ नहीं कहता तो इस का मतलब यह नहीं कि वह अपनी मनमरजी करेगी,’’ गुस्से से आगबबूला होते हुए भरत ने कहा.

तिलमिला उठी प्रभा. अपने पति की बातों पर बोली, ‘‘ऐसा कौन सी जायदाद उठा कर ले गई वह, जो तुम इतना सुना रहे हो? अरे एक जोड़ी झुमके ही तो ले गई है. जाने क्यों रंजो, हमेशा तुम्हारी आंखों में खटकती रहती है?’’

भरत भी चुप नहीं रहे. कहने लगे, ‘‘किस ने मना किया तुम्हें जायदाद देने से, दे दो न जो देना है, पर किसी का प्यार से दिया हुआ उपहार यों ही किसी और को देना, क्या यह सही है? अगर बहू ऐसा करती तो तुम्हें कैसा लगता? कितने अरमानों से वह तुम्हारे लिए झुमके खरीद कर लाई थी और तुम ने एक मिनट भी नहीं लगाया उसे रंजो को देने में.’’‘‘किसी को नहीं, बेटी को दिए हैं, समझे, बड़े आए बहू के चमचे, हूं…’’

‘‘अरे, तुम्हारी बेटी तुम्हारी ममता का फायदा उठा रही है और कुछ नहीं. किस बात की कमी है उसे? हमारे बेटेबहू से ज्यादा कमाते हैं वे दोनों पतिपत्नी, फिर भी कभी हुआ उसे कि अपने मांबाप के लिए

2 रुपए का भी उपहार ले कर आए? और हमारी छोड़ो, क्या कभी उस ने अपनी भतीजी को एक खिलौना भी खरीद कर दिया है? नहीं, बस लेना जानती है. क्या मेरी आंखें नहीं हैं? देखता हूं मैं, तुम बहूबेटी में कितना फर्क करती हो. बहू का प्यार तुम्हें ढकोसला लगता है और बेटी का ढकोसला प्यार. ऐसे घूरो मत मुझे, पता चल जाएगा तुम्हें भी एक दिन.’’

‘‘कैसे बाप हो तुम, जो बेटी के सुख पर भी नजर लगाते रहते हो. पता नहीं क्या बिगाड़ा है रंजो ने आप का, जो हमेशा वह तुम्हारी आंखों की किरकिरी बनी रहती है?’’ अपनी आंखें लाल करते हुए प्रभा बोली.

‘‘ओ, कमअक्ल औरत, रंजो मेरी आंखों की किरकिरी नहीं बनी है बल्कि अपर्णा बहू तुम्हें फूटी आंख नहीं सुहाती है. पूरे दिन घर में बैठी आराम फरमाती रहती हो, हुक्म चलाती रहती हो. कभी यह नहीं होता कि बहू के कामों में थोड़ा हाथ बंटा दो और तुम्हारी बेटी, वह तो यहां आ कर अपना हाथपैर हिलाना भी भूल जाती है. क्या नहीं करती है बहू इस घर के लिए. बाहर जा कर कमाती भी है और अच्छे से घर भी संभाल रही है. फिर भी तुम्हें उस से कोई न कोई शिकायत रहती ही है. जाने क्यों तुम बेटीबहू में इतना भेदभाव करती हो?’’

‘‘कमा कर लाती है और घर संभालती है, तो कौन सा एहसान कर रही है हम पर. घर उस का है, तो संभालेगा कौन?’’ ‘‘अच्छा, सिर्फ उस का घर है, तुम्हारा नहीं? बेटी जब भी आती है उस की खातिरदारी में जुट जाती हो, पर कभी यह नहीं होता कि औफिस से थकीहारी आई बहू को एक गिलास पानी दे दो. बस, तानें मारना आता है तुम्हें. अरे, बहू तो बहू, उस की दोस्त को भी तुम देखना नहीं चाहती हो. जब भी आती है, कुछ न कुछ सुना ही देती हो. तुम्हें लगता है कहीं वह अपर्णा के कान न भर दे तुम्हारे खिलाफ. उफ्फ, मैं भी किस पत्थर से अपना सिर फोड़ रहा हूं, तुम से तो बात करना ही बेकार है,’’ कह कर भरत वहां से चले गए.

सही तो कह रहे थे भरत. अपर्णा क्या कुछ नहीं करती है इस घर के लिए. पर फिर भी प्रभा को उस से शिकायत ही रहती थी. नातेरिश्तेदार हों या पड़ोसी, हर किसी से वह यही कहती फिरती थी, ‘भाई, अब बहू के राज में जी रहे हैं, तो मुंह बंद कर के ही जीना पड़ेगा न, वरना जाने कब बहूबेटे हम बूढ़ेबूढ़ी को वृद्धाश्रम भेज दें.’ यह सुन कर अपर्णा अपना चेहरा नीचे कर लेती थी पर अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं बोलती थी. पर उस की आंखों के बहते आंसू उस के मन के दर्द को जरूर बयां कर देते थे.

अपर्णा ने तो आते ही प्रभा को अपनी मां मान लिया था, पर प्रभा तो आज तक उसे पराई घर की लड़की ही समझती रही. अपर्णा जो भी करती, प्रभा को वह बनावटी लगता था और रंजो का एक बार सिर्फ यह पूछ लेना, ‘मां आप की तबीयत तो ठीक है न?’ सुन कर कर प्रभा खुशी से कुप्पा हो जाती और अगर जमाई ने हालचाल पूछ लिया, तो फिर प्रभा के पैर ही जमीन पर नहीं पड़ते थे.

उस दिन सिर्फ इतना ही कहा था अपर्णा ने, ‘मां, ज्यादा चाय आप की सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकती है और वैसे भी, डाक्टर ने आप को चाय पीने से मना किया है. वुमन हौर्लिक्स लाई हूं, यह पी लीजिए.’ यह कह कर उस ने गिलास प्रभा की ओर बढ़ाया ही था कि प्रभा ने गिलास उस के हाथों से झटक लिया और टेबल पर रखते हुए तमक कर बोली, ‘तुम मुझे ज्यादा डाक्टरी का पाठ मत पढ़ाओ बहू, जो मांगा है वही ला कर दो,’ फिर बुदबुदाते हुए अपने मन में ही कहने लगी, ‘बड़ी आई मुझे सिखाने वाली, अच्छे बनने का नाटक तो कोई इस से सीखे.’ अपर्णा की हर बात उसे नाटक सरीखी लगती थी.

मानव औफिस के काम से शहर से बाहर गया हुआ था और अपर्णा भी अपने कजिन भाई की शादी में गई हुई थी. मन ही मन अपर्णा यह सोच कर डर रही थी कि अकेले सासससुर को छोड़ कर जा रही हूं, कहीं पीछे कुछ… यह सोच कर जाने से पहले उस ने रंजो को दोनों का खयाल रखने और दिन में कम से कम एक बार उन्हें देख आने को कहा. जिस पर रंजो ने आग उगलते हुए कहा, ‘‘आप नहीं भी कहतीं न, तो भी मैं अपने मांपापा का खयाल रखती. आप को क्या लगता हैख् एक आप ही हैं इन का खयाल रखने वाली?’’

पर अपर्णा के जाने के बाद वह एक बार भी अपने मायके नहीं आई वह इसलिए कि उसे वहां काम करना पड़ जाता. हां, फोन पर हालचाल जरूर पूछ लेती और साथ में यह बहाना भी बना देती कि वक्त नहीं मिलने के कारण वह उन से मिलने नहीं आ पा रही, पर वक्त मिलते ही आएगी.

एक रात अचानक भरत की तबीयत बहुत बिगड़ गई. प्रभा इतनी घबरा गई कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. उस ने मानव को फोन लगाया पर उस का फोन विस्तार क्षेत्र से बाहर बता रहा था. फिर उस ने अपनी बेटी रंजो को फोन लगाया. घंटी तो बज रही थी पर कोई उठा नहीं रहा था. जमाई को भी फोन लगाया, उस का भी वही हाल था. जितनी बार भी प्रभा ने रंजो और उस के पति को फोन लगाया, उन्होंने नहीं उठाया. ‘शायद सो गए होंगे’ प्रभा के मन में यह खयाल आया. फिर हार कर उस ने अपर्णा को फोन लगाया. इतनी रात गए प्रभा का फोन आया देख कर अपर्णा घबरा गई. प्रभा कुछ बोलती, उस से पहले ही वह बोल पड़ी.

‘‘मां, क्या हुआ, पापा ठीक हैं न?’’ लेकिन जब उसे प्रभा की सिसकियों की आवाज आई तो वह समझ गई कि कुछ बात जरूर है. घबरा कर वह बोली, ‘‘मां, मां, आप रो क्यों रही हैं, कहिए न क्या हुआ?’’ अपने ससुर के बारे में सब जान कर कहने लगी, ‘‘मां, आ…आ…आप घबराइए मत, कुछ नहीं होगा पापा को. मैं कुछ करती हूं.’’ उस ने तुरंत अपनी दोस्त शोना को फोन लगाया और सारी बातों से उसे अवगत कराते हुए कहा कि तुरंत वह पापा को अस्पताल ले कर जाए, जैसे भी हो.

अपर्णा की जिस दोस्त को प्रभा देखना तक नहीं चाहती थी और उसे बंगालनबंगालन कह कर बुलाती थी, आज उसी की बदौलत भरत की जान बच पाई, वरना पता नहीं क्या हो जाता. डाक्टर का कहना था कि मेजर अटैक था. अगर थोड़ी और देर हो जाती मरीज को लाने में, तो वे इन्हें नहीं बचा पाते.तब तक अपर्णा और मानव आ चुके थे. फिर कुछ देर बाद रंजो भी आ गई. बेटेबहू को देख कर बिलखबिलख कर रो पड़ी प्रभा और कहने लगी, आज अगर शोना न होती, तो शायद तुम्हारे पापा जिंदा न होते.’’

अपर्णा के भी आंसू रुक नहीं रहे थे. उस ने अपनी सास को ढांढ़स बंधाया और अपनी दोस्त को तहेदिल से धन्यवाद दिया कि उस की वजह से उस के ससुर की जान बच पाई. अपनी भाभी को मां के करीब देख कर रंजो भी मगरमच्छ के आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मां, मैं तो मर ही जाती अगर पापा को कुछ हो जाता. कितनी खराब हूं मैं जो आप की कौल नहीं देख पाई. वह तो सुबह आप की मिस्डकौल देख कर वापस आप को फोन लगाया तो पता चला, वरना यहां तो कोई कुछ बताता भी नहीं है.’’ यह कह कर अपर्णा की तरफ घूरने लगी रंजो.

तभी उस का 7 साल का बेटा बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, आप झूठ क्यों बोल रही हो? नानी, मम्मी झूठ बोल रही हैं. जब आप का फोन आया था, हम टीवी पर ‘बाहुबली’ फिल्म देख रहे थे. मम्मी यह कह कर फोन नहीं उठा रही थीं कि पता नहीं कौन मर गया जो मां इतनी रात को हमें परेशान कर रही हैं. पापा ने कहा भी उठा लो, पर मां ने फोन नहीं उठाया और फिल्म देखती रहीं.’’ यह सुन कर तो सब हैरान हो गए.

?सचाई खुलने से रंजो की तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा, जैसे उसे करंट लग गया हो. अपने बेटे को एक थप्पड़ लगाते हुए बोली, ‘‘पागल कहीं का, कुछ भी बकवास करता रहता है.’’ फिर हकलाते हुए कहने लगी, ‘‘अरे, वह तो कि…सी और का फोन आ रहा था, मैं ने उस के लिए कहा था,’’ दांत निपोरते हुए आगे बोली, ‘‘देखो न मां, कुछ भी बोलता है, बच्चा है न इसलिए.’’

प्रभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहने लगी, ‘‘इस का मतलब तुम उस वक्त जागी हुई थी और तुम्हारा फोन भी तुम्हारे आसपास ही था? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि इतनी रात को तुम्हारी मां किसी कारणवश ही तुम्हें फोन कर रही होगी? अच्छा सिला दिया तू ने मेरे प्यार और विश्वास का, बेटा. आज मेरा सुहाग उजड़ गया होता, अगर यह शोना न होती. जिस बहू के प्यार को मैं ढकोसला और बनावटी समझती रही, आज पता चल गया कि वह, असल में, प्यार ही था. मैं तो आज भी इस भ्रम में ही जीती रहती अगर तुम्हारा बेटा सचाई न बताता तो.’’अपने हाथों से सोने का अंडा देने वाली मुरगी निकलते देख कहने लगी रंजो, ‘‘ना, नहीं मां, आप गलत समझ रही हैं.’’

‘‘समझ रही थी, पर अब मेरी आंखों पर से परदा हट चुका है. सही कहते थे तुम्हारे पापा कि तुम मेरी ममता का सिर्फ फायदा उठा रही हो, कोई मोह नहीं है तुम्हारे दिल में मेरे लिए,’’ कह कर प्रभा ने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया और अपर्णा से बोली, ‘‘चलो बहू, देखें तुम्हारे पापा को कुछ चाहिए तो नहीं?’’ रंजो, ‘‘मां, मां’’ कहती रही. पर पलट कर एक बार भी नहीं देखा प्रभा ने, मोह टूट चुका था उस का.

मेरी एक परिचिता के बेटे का विवाह होने वाला था. शादी का जो कार्ड पसंद किया गया, वह काफी महंगा था. उन्होंने ज्यादा कार्ड न छपवा कर एक तरकीब आजमाई, जिस में उन्हें पूरी सफलता मिली. पति व बेटे के बौस और कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण लोगों को तो कार्ड दे दिए, बाकी जिस के घर भी गईं, कार्ड पर उन्हीं के सामने नाम लिखने से पहले बोलतीं, ‘‘बस, क्या बताऊं, कैसे गलती हो गई, कार्ड्स कम हो गए.’’

सुनने वाला फौरन बोलता, ‘‘अरे, हमें कार्ड की जरूरत नहीं, हम आ जाएंगे.’’परिचिता पूछतीं, ‘‘सच, आप आ जाओगे? फिर आप को कार्ड रहने दूं?’’सामने वाला कहता है, ‘‘हां, हां, हम ऐसे ही आ जाएंगे.’’

सामने वाला भी अपने को उन का खास समझता कि वे ऐसी बात शेयर कर रही हैं. परिचिता ने सब को एक खाली कार्ड दिखाते हुए निबटा दिया.मैं उन के साथ 2 घरों में कार्ड देने गई थी, इसलिए इस कलाकारी की प्रत्यक्षदर्शी हूं. खैर, कार्ड मुझे भी नहीं मिला. मैं ने बाद में उन्हें छेड़ा, ‘‘जब सब को दिखा देना, तो आखिर में कार्ड मुझे चाहिए.’’  इस पर

वे खुल कर हंसीं, बोलीं, ‘‘नहीं मिलेगा, बहुत खर्चे हैं शादी के. चलो, कार्ड के तो

पैसे बचाए.’’मेरी मौसी ने एक दिलचस्प किस्सा बताया. वे रोडवेज की बस से बनारस जा रही थीं. उन की दूसरी तरफ की सीट पर एक बूढ़ी अम्मा आ कर बैठ गईं. कंडक्टर भला आदमी था, उस ने बूढ़ी अम्मा से टिकट के लिए पैसे भी नहीं लिए.बस चल पड़ी. थोड़ी देर में कंडक्टर ने देखा कि अम्मा कुछ परेशान सी हैं. उस ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, इलाहाबाद आ जाए तो बता देना.’’

कंडक्टर ने हां बोला और चला गया. लेकिन बाद में वह भी भूल गया, तब तक बस इलाहाबाद से आगे निकल गई थी.कंडक्टर को अच्छा न लगा, उस ने बस वापस मुड़वाई. इलाहाबाद आया तो सोती हुई को जगाते हुए वह बोला, ‘‘अम्मा, इलाहाबाद आ गया.’’

‘‘अच्छा बेटा, चलो, अपनी दवाई खा लेती हूं.’’‘‘अरे अम्मा, यहां उतरना नहीं है क्या,’’ कंडक्टर बोला.‘‘मुझे तो बनारस जाना है. बेटी ने कहा था कि इलाहाबाद आने पर दवाई खा लेना,’’ अम्मा बोलींसवारियों का हंसहंस कर बुरा हाल हो गया और कंडक्टर की शक्ल देखने लायक थी.

Holi 2024: प्रेम न बाड़ी उपजै

लीला ने जब से उस को देखा था, तब से ही उस के दिल में चैन ओ करार था ही नहीं. यह लड़का मनोज उस का सब सुकून छीन रहा था. इतना ही नहीं, सपनों में भी वह आ रहा था, पर वो जैसे कमजोर पड़ रही थी और आसक्ति में फंस कर खुद कुछ नहीं कर पा रही थी या शायद करना ही नहीं चाहती थी.

लीला कोई गईगुजरी तो थी नहीं. वह खुद एक दौलतमंद महिला थी. उस की इतनी लंबीचैड़ी जमींदारी थी, फिर भी वह साधना के पथ पर अपना आध्यात्मिक काम भी कर रही थी. वह जगहजगह यात्रा कर रही थी और प्रेम की कार्यशाला चला रही थी.

यों सच्ची बात यह थी कि साधना, वार्ता वगैरह यह सब वह अपने अकेलेपन की सूखी नदी को भरने के लिए ही कर रही थी. समाज उस को इतनी गपशप करने नहीं देता, मगर इस बहाने कितने चेहरे कितनी रसभरी बातें सब काम हो रहे थे. साथ ही, उस पर एक आवरण लग गया था त्याग करती महिला का, वह अपनी प्रेम पिपासा को ढंक कर, छिपा कर बहुत ही मजे में पूरा कर रही थी.

मगर, आज सुबह 3 बजे अचानक ही भद्देपन से फिर मनोज सपने में आ धमका और उस ने ही प्रीत की अगन जलाई और लीला को तत्परता से अपनी देह में भर कर यहांवहां टटोलने लगा. वह खुद भी बेसुध हो सब भूल सा गई थी. पुरुषोचित शौर्य से सम्मोहित वह कितनी पागल कैसी मोहित हो गई थी.

पर, आज वह 5 बजे जाग कर फिर से यही सोच रही थी कि कहीं कुछ जाहिर न हो जाए. मनोज को रोकना होगा. वह बेकार के लफडे़ में ही क्यों पड़ रही है, जबकि वह इस से पहले इसी तरह अचानक वहां, जहां उस के प्रवचन और वार्ता ही भलीभांति प्यास बुझा सकती हैं, कितने भी दर्जी बदल लो, न कपड़ा बदलता है, न तन और न ही मन. तो…, तो फिर खुद लीला क्या देहचक्र के साथ इतनी तेजी से खुद ही गोलगोल घूम रही थी?

यही सब सोचतेसोचते 6 बज गए. वह यों ही बाहर आंगन में निकल आई. देखा, अरे, मनोज  एक कुरसी पर बुत बना बैठा है. कम उजाले में अनिश्चितता में, उस के पदचाप सुन कर वह उठ खड़ी हुई और हंस दी.

यह हंसी मनोज की किसी सांस में झनझना उठी. वह चुपचाप उस के निकट गया. शायद वह देखना चाहता था, उस को आत्मा के भीतर बिलकुल उस की गहराई में देखना चाहता हो, पर यह तो, हमारा खयाल है, लीला ने एक मंत्र कहा और आवाज के तीव्र एकरस प्रकाश से उस का मुख एकबारगी चकाचौंध सा हो गया.

नहीं… यह खयाल नहीं है. मैं अभीअभी खेतों से चल कर यहां आया हूं.

और भरोसा दिलाने के लिए मनोज ने तिलमिला कर लीला को थाम लिया. उस की उंगली को 2-3 बार चूस कर छोड़ दिया.

‘‘ओह, बस… बस, मनोज बस… बहुत हुआ,‘‘ कह कर लीला ने हाथ छुड़ा लिया.

अब वे दोनों ही वहीं बैठ गए और फिर कोई जादू सा छाने लगा. उस खामोशी में जैसे मनोज अपने अंक में लीला को अचानक एक क्षण में पा गया.

‘‘फिर मिलेंगे. आज मैं चली जाऊंगी. अंतिम सत्र है आज मेरा,‘‘ वह जैसे इन एकएक शब्दों की सूक्ष्म ध्वनि नहीं, स्थूल शरीर दांतों से चबाना चाहती है. यह सुन कर मनोज जैसे हताश सा हो गया.

‘तो लीला, तुम्हारे आगे क्या इरादे हैं?’ जैसे इसी प्रश्न को करने के लिए शब्दों का दास बना हुआ है मनोज. जैसे उसे यह प्रश्न करने का निर्विवाद अधिकार है. लीला ने निर्विकार कहा, ‘कुछ… नहीं, नहीं.’

यह सुन कर वह चौंक उठा. एक विचित्र संतोष से, जैसे यह उत्तर पाने के लिए ही उस ने यह प्रश्न किया था, फिर बोला, ’क्या तुम मुझ से बंधी नहीं हो?’

‘बंधी’,  मैं तो जाने कब से जीवन के हर बंधन के मुंह पर थूक रही हूं. वह बोली, जैसे वह कुछ और कहना चाहती थी, ‘‘तो मुझे अभी और इसी समय प्रेम का रहस्य जानना है,‘‘ कह कर वह उस के पैरों से लिपट गया.

‘‘मगर, अभी तो भोर हुई है बस. ये क्या तमाशा कर रहे हो… यहां गेस्ट हाउस के नौकरचाकर आते ही होंगे,‘‘ लीला कुछ परेशान सी हो रही थी.

‘‘आने दो… आ जाते हैं तो भला हो क्या जाएगा? लीला, मैं तो तुम्हारा भक्त हो गया हूं. अब मैं अपनी देवी के पास जब चाहे आ सकता हूं… मुझे कोई डर नहीं है, कोई भय नहीं है.‘‘

सचमुच लीला यही सुनना चाहती थी. वह भी तो मन ही मन मनोज की दीवानी हो गई थी. उस ने यह भी नहीं पूछा कि 9 बजे का सत्र है. तुम इतनी सुबह क्यों खेतों से और कैसे पैदलपैदल ही आ धमके,‘‘ वह उस के गाल सहलाती हुई बोली, ‘‘मनोज, तुम बच्चे नहीं हो. तुम को यह पता होना चाहिए कि प्रेम करने की कला या किसी के प्यार में डूब जाने का गुर, किसी भी कार्यशाला में सीखे जाने लायक कौशल या हुनर बिलकुल नहीं है.”

‘‘हां… हां, जानता हूं,‘‘ मनोज ने बीच में टोका और कहने लगा, ‘‘लीला, ये बात अलग है कि कई विदेशी और भारतीय मीडिया में ‘क्रिएटिव लव’ यानी जादुई अटैचमेंट के फार्मूले सिखलाने के रसीले कोर्स बाकायदा चलाए जाते आ रहे हैं, और वे अकेले पड़ गए मनोज जैसे संकोची जीवों के बीच लोकप्रिय भी हैं.‘‘

‘‘लीला, मुझे मालूम है कि अकेले में मैं ने ही यही कोई 3,000 वैबसाइट देख रखी हैं, जो प्यार कैसे करें का बाकायदा लज्जतदार मसाला बना कर अनोखा आनंद भी देती हैं,‘‘ मनोज के  मुंह से निकल पड़ा.

यह सुनते ही लीला ने भी तपाक से कहा, ‘‘मनोज, मेरा मतलब प्रेम का आनंद आकर्षित करने वाली कुछ जरूरी चीजों की याद दिलाने की कोशिश तक ही सीमित नहीं है. मैं प्यार की कला के बारे में वे छोटीमोटी बातें कहूंगी, जिन्हें हम सब जानते हैं, पर जिन्हें हम अकसर भूल जाते हैं, इसलिए… और इस वार्ता के अंत में होने वाली निराशा के लिए मैं खासतौर पर मनोज तुम जैसे प्रेमियों से क्षमादान की उम्मीद करती हूं, जिन्होंने अपने दिल में ये छाप लिया है कि मैं तुम को आज प्यार करने के जादुई गुर सिखाने जा रही हूं… दुनिया में अनेक आविष्कार हुए हैं, पर प्यार करने, उस में डूबने का फार्मूला आज तक नहीं बना.‘‘

‘‘अच्छा… तो कब बनेगा? ऐसा करो, तुम ही बना दो ना,‘‘ मनोज ने उस की कलाई थाम ली.

‘‘मनोज, जहां तक सुंदर देह को सोचने का सवाल है, हमारे प्राचीन रसिकों ने, प्रेमशास्त्रियों ने 2 बातें जोर दे कर कही हैं- एक तो कल्पना और दूसरी लगाव. तुम जानते ही होगे या कभी सुना तो होगा ना…’’

‘‘क्या सुना होगा? साफसाफ कहो लीला?‘‘

‘‘वही मनोज, ‘करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’. मनोज, मेरा मतलब है कि देह की  आहट सुनो… भाव को दफनाओ मत.‘‘

यह सुन कर मनोज जोरों से हंस पड़ा. लीला समझ गई तो वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘मन में कोई देवी स्थापित कर लो मनोज इस की तर्ज पर, न सिर्फ अकेली सौंदर्य कला का आनंद मिल जाता है. साथ में लगाव का अभ्यास करते जाने से, बल्कि दोनों के आदर्श मेल से सुकून ही सुकून… इसलिए प्रेम प्रतिभा को भी युद्ध अभ्यास की तरह जरूरी बतलाया गया है.”

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर मनोज ने अपनी दोनों आंखों को बंद कर लिया.

‘‘देखो, तबला बजाना सीखना है, तो इस कला में  ‘रियाज’ का असाधारण महत्त्व है. मुझे लगता है, प्रेम में भी अभ्यास या रियाज शायद उतना ही उपयोगी और जरूरी चीज होनी चाहिए, मुझे उम्मीद है कि संकल्प ही प्रेम को झरने की तरह प्रस्फुटित करता है, बहने देता है. प्रेम की हर गली में नयापन खोजने की संभावना है? इस मामले में कल, आज और कल कोई पगडंडी नहीं है.

“इसलिए जादुई अहसास में डूबने को राजी मन, उस की कल्पनाशक्ति और गंध महसूस करना यही एक बेहतरीन प्रेमी होने के लिए 3 जरूरी औजार हैं,‘‘ लीला कहती रही.

‘‘मनोज, सुन लो, यह भी एक विचार है, सौंदर्य और आनंद को ‘देखने’ की आदत से बंधा विचार, जो यह बतलाता है कि हम कितना कम देखते हैं.‘‘

‘‘लीला, यह लगाव और देखने के अलावा एक और बात है, खुद अपनी देह की जरूरत उस से प्रेम करने की निरंतरता, अनिवार्यता, यही ना लीला,‘‘ मनोज ने कहा, तो लीला ने सहमति में सिर हिला दिया.

वह फिर उस का माथा चूम कर बोली, ‘‘सुनो मनोज, कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा है… और हां, एक बात और सुन लो, याद भी रखना, अचार, चटनी बेशक कम खाएं,  पर अच्छा खाएं.

‘‘यह लालसा भी वही है… समझे, यानी तुम्हारी सलाह है, प्रेमी, आशिक बेशक कम ही डूबें, पर शानदार ढंग से.‘‘

मनोज ने सवाल किया, “केवल आकर्षण के जोर से या केवल जरूरत के चमत्कार भर से कोई अच्छा प्रेम पूरा हो पाएगा, मुझे संदेह है.‘‘

मनोज के इस सवाल पर लीला ने उस को संकेत किया कि उसे तैयार होना है क्योंकि सत्र का समय हो रहा है और उसे आज यहां से लौट कर भी जाना था. आज इस गेस्ट हाउस में उस का अंतिम दिन था. अब वह यहां कब वापस लौटेगी, कुछ पता नहीं था.

मनोज ने सत्र में रुकना उचित नहीं समझा. वह किसान था. अब उस को फसल कटवानी थी. मजदूरों की व्यवस्था करनी थी. वह भी लौट चला. जब तक अपने खेतों मे पहुंचा, याद करता रहा कि लीला क्या कह रही थी…

‘‘मनोज, प्रेम की दुनिया वैसी ही दुनिया है, जिस में अनगिनत महकतेगमकते चित्रों का असमाप्त मेला है, हर कोने में हर कदम पर आप का साबका तसवीरों से पड़ता है, पर जिन के बारे में आप तब तक जागरूक नहीं होते, जब तक आप उन्हें देखने की सही कोशिश और अभ्यास न करें, जैसा रोमियो जैसे समर्पित प्रेमी ने कभी जूलियट से कहीं कहा था. हमें चाहिए कि हम थोडा सा रुकें और वे अद्भुतअनूठे चित्र देखें, जो सिर्फ प्रेम ही हमें दिखला सकता है.’’

‘‘हर पल, हर समय आनंद आने तक रोज कई घंटे बस एक ही रंगरूप का विचार इस बात का सब से बड़ा उदाहरण है… अब भले ही वह युद्ध जैसा उतना कठोर और भयानक न हो, पर हौलेहौले उस रूप को दिल की कल्पना की किताब में रोज लिख रहा था और यथासंभव कलापूर्ण तरीके से उस में अपने अनुभव लिखना प्रेम रियाज की एक शुरुआत हो चुकी थी. यह चौंकाने वाला अनुभव वह झरोखा बन गया, जो उस को घरबैठे संसारभर के आनंद  दिखला रही थी.

अब मनोज विधिवत अपना कामधंधा देख रहा था. अनाज मंडी जा रहा था. रुपया आ रहा था. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सब सिद्ध हो गए. हर काम हो रहा था. सबकुछ आसान था.

जहां जैसी जरूरत होती है, वो अपनी कल्पना का वैसा ही उपयोग कर रहा था. जैसी उस पल की मांग होती, पर अब उस के दिमाग में कल्पना का भंडार ही इतना चटपटा था कि अभिव्यक्ति भी वैसी ही होने लगी थी.

अब तो कल्पना की कामधेनु को वह कितना दुह सकता, यह उस की कलाकारी थी. अब वह माहिर हो गया तो वह जान चुका था कि कैसे आती है सुंदरी किसी दृश्य, किसी आवाज, किसी गंध, किसी आकृति, किसी याद, किसी स्पर्श में सुंदरी की आत्मा एक पल के हजारवें हिस्से में दिखती है और सांस की तरह उस में दाखिल हो जाती है… पर, वह जानता था कि वह बहुत देर रुकने वाला अनुभव नहीं. फौरन वह उस आत्मा को अपनी हैरत, अचरज के आभूषण पहना कर सफलतम लाभ ले लिया करता था. अब तो हर जादुई अनुभव उस के निकट उस अनुभव को व्यक्त करने की, ‘’मोहिनी विद्या का खुशबूदार- प्रस्ताव भी साथ ही लिए आता रहा.”

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