शायद कुछ नया मिलेगा: क्या खुद को बदल पाया विजय

विजय अपने किसी जानपहचान वाले की तारीफ करते हुए कह रहा था, ‘‘बड़े दिलदार इंसान हैं हमारे ये भाईसाहब. राजा हैं राजा. बहुत बड़े दिल के मालिक हैं. जेब में चाहे 50 रुपए ही हों, खर्चा 500 का कर देते हैं. मेहमाननवाजी में कभी कोई कमी नहीं करते. बड़े शाही स्वभाव के हैं.’’

मैं समझ नहीं पा रहा था. वह उन के जिस गुण की तारीफ कर रहा था क्या वह वास्तव में तारीफ के लायक था. कहीं वही पुराना अंदाज ही तो नहीं दिखा रहा विजय?

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही इन के बेटे की शादी हुई है. इन्होंने दिल खोल कर खर्चा किया. औफिस में सब को खूब शराब पिलाई. खाने पर खूब खर्चा किया. सभी वाहवाह करते हैं.’’

‘‘जी,’’ बढ़ कर हाथ मिला लिया मैं ने, ‘‘आप किस जगह काम करते हैं, क्या करते हैं, मतलब आप अपना ही कारोबार करते हैं या किसी नौकरी में हैं?’’

‘‘इन का अकाउंट्स का काम है, साहब. डी पी मेहता का नाम सुना होगा आप ने. वह इन्हीं की फर्म है.’’

एक लौ फर्म का नाम बताया मुझे विजय ने. उस व्यक्ति को देख कर ऐसा नहीं लगा मुझे कि वह इतनी बड़ी लौ फर्म का मालिक होगा. एक मुसकान का आदानप्रदान हुआ और वे साहब विदा ले कर चले गए. विजय के साथ अंदर आ गया मैं. विजय मेरा साढ़ू भाई है.

‘‘आइए, जीजाजी,’’ सौम्या मेरी आवाज सुनते ही चली आई थी. दीवाली का तोहफा ले कर गया था मैं.

‘‘दीदी ने क्या भेजा है, इस बार मठरी और बेसन की बर्फी तो नहीं बनाई होगी. दीदी के हाथ में दर्द था न.’’

‘‘बनाई है बाबा, और आधे से ज्यादा काम मुझ से कराया है तुम्हारी दीदी ने. अब यह मत कहना सब दीदी ने बनाया है. सारी मेहनत मेरी है इस बार. बेसन में कलछी भी मैं ने घुमाई है और मैदे में मोयन डाल उसे भी मैं ने ही मला है.’’

मैं ने जरा सा बल डाला माथे पर, सच बताया तो बड़ीबड़ी आंखें और भी बड़ी कर लीं सौम्या ने. मेरे हाथ से डब्बा झपट लिया, ‘‘क्या सच में?’’

सौम्या का सिर थपक दिया मैं ने, ‘‘जीती रहो. और सुनाओ, कैसी हो?’’

‘अच्छी हूं’ जैसी अभिव्यक्ति उभर आई सौम्या के गले लगने में. सौम्या का माथा चूमा मैं ने. मेरी छोटी बहन जैसी है सौम्या, मेरी बेटी जैसी.

‘‘और सुनाइए, आप कैसे हैं? इस बार बहुत देर बाद मुलाकात हुई है. फोन पर बात होती है तब भी कभी बाथरूम में होते हैं, कभी पता नहीं कहां होते हैं आप?’’ विजय से पूछा. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस, मुसकराभर दिया. अभी जो बाहर किसी की तारीफ में इतने पुल बांध रहा था. मेरे सामने, अब चुप था.

सौम्या झट से चाय बना लाई और प्लेट में इडलीसांभर.

‘‘भई वाह, तुम्हारे हाथ के इडलीसांभर का जवाब नहीं.’’

‘‘तुम्हारे मायके वाले पहले हलवाई का काम करते थे क्या? तुम दोनों बहनों को हर पल इन्हीं कामों की ही लगी रहती है. बाजार में क्या नहीं मिलता. सोहन हलवाई के पास अच्छी से अच्छी मिठाई मिलती है. 200 रुपए किलो से शुरू होती है 1000 रुपए किलो तक जो चाहो ले लो. पैसा खर्च करो, क्या नहीं मिलता.’’

सदा की तरह का रवैया था विजय का इस बार भी. उस ने इस बार भी जता दिया था, हमारा परिवार कंजूस है. हम रुपयापैसा खर्च करने में पीछे हटते हैं.

‘‘सोहन हलवाई की मिठाई में मेरी बहन के हाथ का प्यार नहीं है न, जिस की कीमत उस की 1000 रुपए किलो मिठाई से कहीं ज्यादा है.’’

‘‘अपनीअपनी सोच है, विजयजी. मैं आप की सोच को गलत नहीं कहता. आप मेरी सोच का सम्मान कीजिए. अगर इन बहनों को 1000 रुपए किलो वाली चीज 400 रुपए खर्च कर के घर में मिल जाती है तो 600 रुपए भी तो हमारा ही बचता है न. मेरी पत्नी अपने कपडे़ खुद डिजाइन करती है. जो सूट बाजार में 2000 का आता है उसे वह 700 रुपए में बना लेती है, 1300 रुपए किस के बचते हैं, मेरे ही घर के न. मुझे इतनी सुरक्षा अवश्य रहती है कि समय पर मुझे जो चाहिए, इस की दीदी अवश्य हाजिर कर देगी.

‘‘तभी झट से निकाल देगी न जब उस के पास होगा, होगा तभी जब वह अपनी मेहनत से बचाएगी. हमें इतनी मेहनती जीवनसाथी मिली है, आप को इस बात का सम्मान करना चाहिए. जेब में 100 रुपया हो और इंसान 50 का खर्चा करे, इस में समझदारी है या जेब में 50 रुपया हो और इंसान 500 का खर्च करे, इस में समझदारी है? क्या ऐसा इंसान हर पल कर्ज में नहीं डूबा रहेगा? ये जो साहब अभी गए जिन की आप तारीफ कर रहे थे, क्या सच में डी पी मेहता लौ फर्म वाले ही हैं?’’

‘‘कौन, जीजाजी?’’ सौम्या का प्रश्न था.

‘अभी जो गए वे डीपी मेहता लौ फर्म में अकाउंट्स का काम देखते हैं. संयोग से ये भी मेहता ही हैं.’’

हंसी आने लगी मुझे विजय की बुद्धि पर. हमें कंजूस कहने के लिए बेचारे ने अकाउटैंट को मालिक बना दिया था. सिर्फ यही समझाने के लिए कि देखिए, दिलदार आदमी क्या होता है, 50 जेब में और खर्चा 500 का करता है.’’

‘‘पिछले दिनों इन के बेटे ने भाग कर चुपचाप मंदिर में शादी कर ली. तो क्या करते मेहता साहब? कैसे बताते सब को कि बेटे ने शादी कर ली है. सब को मिठाई बांट दी और औफिस में सब को खिलापिला दिया. इन की जेब में तो कभी पैसे रहते ही नहीं. सदा किसी न किसी की उधारी ही चलती है. इन की तुलना हमारे परिवार से करने की क्या तुक?’’

क्रोध आने लगा था, सौम्या को, ‘‘पीठ पीछे आप गाली भी इसी आदमी को देते हैं कि जब देखो उधार ही मांगता रहता है फिर जीजाजी के सामने उसी को बढ़ाचढ़ा कर बताने का क्या मतलब? मेहताजी खर्च ही कर पाते तो इज्जत से अपने दोनों बच्चों की शादी न कर लेते. बेटी ने भी लड़का पसंद कर रखा था और बेटे ने भी लड़की कब से समझबूझ रखी थी. मातापिता क्या अंधे थे जो कुछ नजर नहीं आता था. वे %

मम्मी जी के बेटे जी: क्या पति को सास से दूर कर पाई जूही

प्रतिभा ने अपनी ससुराल फोन किया. 3 बार घंटी बजने के बाद वहां उस के पति शरद ने रिसीवर उठाया और हौले से कहा, ‘‘हैलो?’’ शरद की आवाज सुन कर प्रतिभा मुसकराई. उस ने चाहा कि वह शरद से कहे कि मम्मीजी के बेटेजी.

मगर यह बात उस के होंठों से बाहर निकलतेनिकलते रह गई. वह सांस रोके असमंजस में रिसीवर थामे रही. उधर से शरद ने दोबारा कहा, ‘‘हैलो?’’ प्रतिभा शरद के बारबार ‘हैलो’ कहते सुनने से रोमांचित होने लगी, पर उस ने शरद की ‘हैलो’ का कोई जवाब नहीं दिया. सांसों की ध्वनि टैलीफोन पर गूंजती रही. फिर शरद ने थोड़ी प्रतीक्षा के बाद झल्लाते हुए कहा, ‘‘हैलो, बोलिए?’’ किंतु प्रतिभा ने फिर भी उत्तर नहीं दिया, उलटे, वह हंसने को बेताब हो रही थी, इसीलिए उस ने रिसीवर रख दिया. रिसीवर रखने के बाद उस की हंसी फूट पड़ी. हंसतेहंसते वह पास बैठी अपनी बेटी जूही के कंधे झक झोरने लगी. जूही को मम्मी की हंसी पर आश्चर्य हुआ. इसीलिए उस ने पूछा, ‘‘मम्मी, किस बात पर इतनी हंसी आ रही है? टैलीफोन पर ऐसी क्या बात हो गई?’’ ‘‘टैलीफोन पर कोई बात ही कहां हुई,’’ प्रतिभा ने उत्तर दिया. ‘‘तो फिर आप को इतनी हंसी क्यों आ रही है? पापा पर?’’ जूही चौंकी. ‘‘हां.’’

‘‘उन्होंने ऐसा क्या किया?’’ ‘‘यह सम झाना मुश्किल है.’’ ‘‘मगर कुछ तो बतलाइए, मम्मी, प्लीज?’’ ‘‘वे आएंगे तब बतलाऊंगी, जूही,’’ प्रतिभा ने पीछा छुड़ाने के लिए बेटी जूही से कह दिया. किचन में जा कर प्रतिभा खाना बनाने लगी, मगर उस की हंसी फिर भी रुक नहीं रही थी. उसे रहरह कर इसी बात पर आश्चर्य हो रहा था कि शरद भी कैसा व्यक्ति है जो 2 बच्चों का बाप बन गया, मगर अपनी मां का आंचल अभी भी छोड़ नहीं पाया. बातबात पर मम्मीमम्मी की रट लगाता रहता है. अपने पापा के प्रति तो शरद को इतना लगाव नहीं रहा, मगर मम्मी तो जैसे उस के रोमरोम में बसी हैं.

कदमकदम पर मम्मी उसे याद आती रहती हैं. विवाह के कुछ वर्षों बाद उस ने जब पापामम्मी से अलग होने का सु झाव दिया था तो शरद की पहली प्रतिक्रिया यही हुई थी, ‘मम्मी को अलग कैसे छोड़ सकते हैं.’ इस पर चकित होते हुए प्रतिभा ने शरद से पूछा था, ‘क्यों नहीं छोड़ सकते हो? तुम कोई दूध पीते बच्चे हो जो मम्मी से अलग नहीं रह सकते?’ ‘तुम्हें कैसे सम झाऊं, प्रतिभा. यह मामला दूसरी तरह का है,’ तब शरद ने बहुत ही भावुक हो कर उत्तर दिया था. ‘क्या मतलब? कुछ सम झाओ न?’ ‘बात यह है कि यह भावनाओं का मामला है. भावनात्मक लगाव के कारण ही मम्मी से अलग होना मु झे…’ भावावेश में शरद अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था, क्योंकि उस स्थिति को व्यक्त करने लायक शब्द उसे सू झे नहीं थे. उस ने अपने हावभाव से मम्मी से विछोह की पीड़ादायक स्थिति अभिव्यक्त कर दी थी.

अपने पति की इस बात को प्रतिभा सम झ गई थी, इसीलिए उस ने दोटूक शब्दों में पूछा था, ‘भावनाएं क्या केवल तुम्हारे ही पास हैं? मेरा हृदय क्या भावनाशून्य है?’ ‘क्या मतलब?’ ‘मतलब यही कि मु झे अपने मम्मीपापा से लगाव नहीं है क्या?’ ‘किस ने कहा कि लगाव नहीं है?’ ‘तो फिर तुम ने यह क्यों नहीं सोचा कि मैं अपने मम्मीपापा को छोड़ कर यहां, दूसरे नगर में, इस नए परिवार में कैसे आ गई?’ लेकिन प्रतिभा की इस बात का शरद कोई उत्तर नहीं दे पाया था. वह मुंहबाए देखता रहा था. ‘अपने मम्मीपापा से तुम्हारा यह विछोह तो नाममात्र का है,’ प्रतिभा फिर बोली थी, ‘क्योंकि हम तो इसी नगर में अपना अलग चूल्हा कायम करेंगे. हम कोई दूसरे नगर में नहीं बसेंगे, उन के पास ही रहेंगे. यहां जगह की कमी नहीं होती तो हम अलग होने का विचार भी नहीं करते. मजबूरी में ही यह विचार कर रहे हैं.’

इस मजबूरी का तो शरद भी कायल था, क्योंकि 2 कमरे एवं एक किचन वाले इस घर में विवाह के बाद वह खुद को बंधाबंधा सा महसूस करता था. अभी तक वह मांबाप, भाईबहन के साथ रहता आया था, मगर उसे यह घर छोटा कभी महसूस नहीं हुआ था. पर विवाह के बाद उसे महसूस होने लगा था कि घर जैसे पहले से छोटा हो गया है, इसीलिए इस से बड़े घर की कामना उस ने की थी. प्रतिभा ने उस की इस कामना की पूर्ति के लिए अलग होने की बात सु झाई थी, किंतु यह सु झाव शरद को पसंद नहीं था, क्योंकि अपनी मम्मी से अलग होने की कल्पना मात्र से ही वह सिहर उठा था. इसीलिए इस विकल्प को वह टालता रहा था. शरद के पापा ने ही शरद की पीड़ा सम झते हुए सु झाव दिया था, ‘‘भैया, कोई बड़ा घर ढूंढ़ो. ढाई कमरे में अब गुजरबसर संभव नहीं है.’ तब शरद और उस का छोटा भाई हेमंत बड़ा मकान ढूंढ़ने निकले थे,

किंतु बहुत भटकने के बाद भी उन्हें कम किराए वाला बड़ा मकान नहीं मिला था. जो मिले थे उन का किराया भी बहुत अधिक था और पेशगी में बड़ी रकम की मांग भी थी. उन की और भी कई शर्तें थीं, इसीलिए उन्होंने यह प्रयास त्याग दिया था. वे मन मसोस कर रह गए थे. इसी दौरान 2 कमरे एवं एक किचन वाले एक फ्लैट की सहज प्राप्ति का मौका आ गया था. हुआ यों था कि शहर से बाहर पूर्वी क्षेत्र में शरद के एक सहयोगी ने वह फ्लैट खरीदा था. वह उस में रहने भी लगा था, किंतु तबादला हो जाने से उसे जाना पड़ रहा था. वह चाहता था कि उस फ्लैट में कोई ऐसा किराएदार आ जाए जो जरूरत होने पर फ्लैट खाली कर दे, दुखी न करे. उसे शरद की मकान की परेशानी पता थी, इसीलिए उस ने शरद से कहा कि वह यदि चाहे तो उस के फ्लैट में आ जाए. अभी 3 वर्ष तक उस के यहां लौटने की कोई संभावना नहीं है. लिहाजा, इन 3 वर्षों तक वह यहां रह सकता है. इस बीच वह अ%2

गूंगी गूंज- क्यों मीनो की गुनाहगार बन गई मां?

“रिमझिम के तराने ले के आई बरसात, याद आई किसी से वो पहली मुलाकात,” जब
भी मैं यह गाना सुनती हूं, तो मन बहुत विचलित हो जाता है, क्योंकि याद
आती है, पहली नहीं, पर आखिरी मुलाकात उस के साथ.

आज फिर एक तूफानी शाम है. मुझे सख्त नफरत है वर्षा  से. वैसे तो यह भुलाए
न भूलने वाली बात है, फिर भी जबजब वर्षा होती है तो मुझे तड़पा जाती है.

मुझे याद आती है मूक मीनो की, जो न तो मेरे जीवन में रही और न ही इस
संसार में. उसे तकदीर ने सब नैमतों से महरूम रखा था. जिन चीजों को हम
बिलकुल सामान्य मानते हैं, वह मीनो के लिए बहुत अहमियत रखती थीं. वह मुंह
से तो कुछ नहीं बोल सकती थी, पर उस के नयन उस के विचार प्रकट कर देते थे.

कहते हैं, गूंगे की मां ही समझे गूंगे की बात. बहुतकुछ समझती थी, पर मैं
अपनी कुछ मजबूरियों के कारण मीनो को न चाह कर भी नाराज कर देती थी.

बारिश की पहली बूंद पड़ती और वह भाग कर बाहर चली जाती और खामोशी से आकाश
की ओर देखती, फिर नीचे पांव के पास बहते पानी को, जिस में बहती जाती थी
सूखें पत्तों की नावें. ताली मार कर खिलखिला कर हंस पड़ती थी वह.

बादलों को देखते ही मेरे मन में एक अजीब सी उथलपुथल हो जाती है और एक
तूफान सा उमड़ जाता है जो मुझे विचलित कर जाता है और मैं चिल्ला उठती हूं
मीनो, मीनो…

मीनो जन्म से ही मानसिक रूप से अविकसित घोषित हुई थी. डाक्टरों की सलाह
से बहुत जगह ले गई, पर कहीं उस के पूर्ण विकास की आशा नजर नहीं आई.

मीनो की अपनी ही दुनिया थी, सब से अलग, सब से पृथक. सब सांसारिक सुखों से
क्या, वह तो शारीरिक व मानसिक सुख से भी वंचित थी. शायद इसीलिए वह कभीकभी
आंतरिक भय से प्रचंड रूप से उत्तेजित हो जाती थी. सब को उस का भय था और
उसे भय था अनजान दुनिया का, पर जब वह मेरे पास होती तो हमेशा सौम्य, बहुत
शांत व मुसकराती रहती.

बहुत कोशिश की थी उस रोज कि मुझे गुस्सा न आए, पर 6 वर्षों की सहनशीलता
ने मानसिक दबावों के आगे घुटने टेक दिए थे और क्रोध सब्र का बांध तोड़ता
हुआ उमड़ पड़ा था. क्या करती मैं? सहनशीलता की भी अपनी सीमाएं होती हैं.

एक तरफ मीनो, जिस ने सारी उम्र मानसिक रूप से 3 साल का ही रहना था और
दूसरी ओर गोद में सुम्मी. दोनों ही बच्चे, दोनों ही अपनी आवश्यकताओं के
लिए मुझ पर निर्भर.

उस दिन एहसास हुआ था मुझे कि कितना सहारा मिलता है एक संयुक्त परिवार से.
कितने ही हाथ होते हैं आप का हाथ बंटाने को और इकाई परिवार में
स्वतंत्रता के नाम पर होती है आत्मनिर्भरता या निर्भर होना पड़ता है
मनमानी करती नौकरानी पर. नौकर मैं रख नहीं सकती थी, क्योंकि मेरी 2
बेटियां थीं और कोई उन पर बुरी नजर नहीं डालेगा, इस की कोई गारंटी नहीं
थी.

आएदिन अखबारों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मीनो के साथसाथ मेरा भी
परिवार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गया था. संजीव, मीनो, सुम्मी और मैं.
कभीकभी तो संजीव भी अपने को उपक्षित महसूस करते थे. हमारी कलह को देख कर
कई लोगों ने मुझे सलाह दी कि मीनो को मैं पागलखाने में दाखिल करा दूं और
अपना ध्यान अपने पति और दूसरी बच्ची पर पूरी तरह दूं, पर कैसे करती मैं
मीनो को अपने से दूर. उस का संसार तो मैं ही थी और मैं नहीं चाहती थी कि
उसे कोई तकलीफ हो, पर अनचाहे ही सब तकलीफों से छुटकारा दिला दिया मैं ने.

उस दिन मेरा और संजीव का बहुत झगड़ा हुआ था. फुटबाल का ‘विश्व कप’ का
फाइनल मैच था. मैं ने संजीव से सुम्मी को संभालने को कहा, तो उस ने मना
तो नहीं किया, पर बुरी तरह बोलना शुरू कर दिया.

यह देख मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं ने भी उलटेसीधे जवाब दे दिए. फुटबाल
मैच में तो शायद ब्राजील जीता था, परंतु उस मौखिक युद्ध में हम दोनों ही
पराजित हुए थे. दोनों भूखे ही लेट गए और रातभर करवटें बदलते रहे.

सुबह भी संजीव नाराज थे. वे कुछ बोले या खाए बिना दफ्तर चले गए. जैसेतैसे
बच्चों को कुछ खिलापिला कर मैं भी अपनी पीठ सीधी करने के लिए लेट गई.
हलकीहलकी ठंडक थी. मैं कंबल ले कर लेटी ही थी कि मीनो, जो खिलौने से खेल
रही थी, मेरे पास आ गई. मैं ने हाथ बाहर निकाल उसे अपने पास लिटाना चाहा,
पर मीनो बाहर बारिश देखना चाहती थी.

मैं ने 2-3 बार मना किया, मुझे डर था कि कहीं मेरी ऊंची आवाज सुन कर
सुम्मी न जाग जाए. उस समय मैं कुछ भी करने के मूड में नहीं थी. मैं ने एक
बार फिर मीनो को गले लगाने के लिए बांह आगे की और उस ने मुझे कलाई पर काट
लिया.

गुस्से में मैं ने जोर से उस के मुंह पर एक तमाचा मार दिया और चिल्लाई,
‘‘जानवर कहीं की. कुत्ते भी तुम से ज्यादा वफादार होते हैं. पता नहीं
कितने साल तेरे लिए इस तरह काटने हैं मैं ने अपनी जिंदगी के.’’

कहते हैं, दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जरूर बैठती है. उस दिन दुर्गा
क्यों नहीं बैठी मेरी काली जबान पर. अपनी तलवार से तो काट लेती यह जबान.

थप्पड़ खाते ही मीनो स्तब्ध रह गई. न रोई, न चिल्लाई. चुपचाप मेरी ओर बिना
देखे ही बाहर निकल गई मेरे कमरे से और मुंह फेर कर मैं भी फूटफूट कर रोई
थी अपनी फूटी किस्मत पर कि कब मुक्ति मिलेगी आजीवन कारावास से, जिस में
बंदी थी मेरी कुंठाएं. किस जुर्म की सजा काट रही हैं हम मांबेटी?

एहसास हुआ एक खामोशी का, जो सिर्फ आतंरिक नहीं थी, बाह्य भी थी. मीनो
बहुत खामोश थी. अपनी आंखें पोंछती मैं ने मीनो को आवाज दी. वह नहीं आई,
जैसे पहले दौड़ कर आती थी. रूठ कर जरूर खिलौने पर निकाल रही होगी अपना
गुस्सा.

मैं उस के कमरे में गई. वहां का खालीपन मुझे दुत्कार रहा था. उदासीन बटन
वाली आंखों वाला पिंचू बंदर जमीन पर मूक पड़ा मानो कुछ कहने को तत्पर था,
पर वह भी तो मीनो की तरह मूक व मौन था.

घबराहट के कारण मेरे पांव मानो जकड़ गए थे. आवाज भी घुट गई थी. अचानक अपने
पालतू कुत्ते भीरू की कूंकूं सुन मुझे होश सा आया. भीरू खुले दरवाजे की
ओर जा कूंकूं करता, फिर मेरी ओर आता. उस के बाल कुछ भीगे से लगे.

यह देख मैं किसी अनजानी आशंका से भयभीत हो गई. कितने ही विचार गुजर गए
पलछिन में. बच्चे उठाने वाला गिरोह, तेज रफ्तार से जाती मोटर कार का मीनो
को मारना.

भीरू ने फिर कूंकूं की तो मैं उस के पीछे यंत्रवत चलने लगी. ठंडक के
बावजूद सब पेड़पौधे पानी की फुहारों में झूम रहे थे. मेरा मजाक उड़ा रहे
थे. मानव जीवन पा कर भी मेरी स्थिति उन से ज्यादा दयनीय थी.

भीरू भागता हुआ सड़क पर निकल गया और कालोनी के पार्क में घुस गया. मैं उस
के पीछेपीछे दौड़ी. भीरू बैंच के पास रुका. बैंच के नीचे मीनो सिकुड़ कर
लेटी हुई थी. मैं ने उसे उठाना चाहा, पर वह और भी सिकुड़ गई. उस ने कस कर
बैंच का सिरा पकड़ लिया. मैं बहुत झुक नहीं सकती. हैरानपरेशान मैं इधरउधर
देख रही थी, तभी संजीव को अपनी ओर आते देखा.

संजीव ने घर फोन किया, लेकिन घंटी बजती रही, इसलिए परेशान हो कर दफ्तर से
घर आया था. खुले दरवाजे व सुम्मी को अकेला देख बहुत परेशान था कि मिसेज
मेहरा ने संजीव को मेरा पार्क की तरफ भागने का बताया. वे भी अपना दरवाजा
बंद कर आ रही थीं.

संजीव ने झुक कर मीनो को बुलाया तो वह चुपचाप बाहर घिसट कर आ गई. मीनो को
इस प्रव्यादेश का जिंदगी में सब से बड़ा व पहला धक्का लगा था. पर मैं खुश
थी कि कोई और बड़ा हादसा नहीं हुआ और मीनो सुरक्षित मिल गई.

घर आ कर भी वह वैसे ही संजीव से चिपटी रही. संजीव ने ही उस के कपड़े बदले
और कहा, ‘‘इस का शरीर तो तप रहा है. शायद, इसे बुखार है,” मैं ने जैसे ही
हाथ लगाना चाहा, मीनो फिर संजीव से लिपट गई और सहमी हुई अपनी बड़ीबड़ी
आंखों से मुझे देखने लगी.

मैं ने उसे प्यार से पुचकारा, “आ जा बेटी, मैं नही मारूंगी,” पर उस के
दिमाग में डर घर कर गया था. वह मेरे पास नहीं आई.

”ठंड लग गई है. गरम दूध के साथ क्रोसीन दवा दे देती हूं,“ मैं ने मायूस
आवाज में कहा.

“सिर्फ दूध दे दो. सुबह तक बुखार नहीं उतरा, तो डाक्टर से पूछ कर दवा दे
देंगे,” संजीव का सुझाव था.

मैं मान गई और दूध ले आई. थोड़ा सा दूध पी मीनो संजीव की गोद में ही सो
गई. अनमने मन से हम ने खाना खाया. सुबह का तूफान थम गया था. शांति थी हम
दोनों के बीच.

संजीव ने प्यार भरे लहजे से पूछा, “उतरा सुबह का गुस्सा?”

उस का यह पूछना था और मैं रो पड़ी.

“पगली सब ठीक हो जाएगा?” संजीव ने प्यार से सहलाया. मेरी रुलाई और फूटी.
मन पर एक पत्थर का बोझ जो था मीनो को तमाचा मारने का.

मीनो सुबह उठी तो सहज थी. मेरे उठाने पर गले भी लगी. मैं खुश थी कि मुझे
माफ कर वह सबकुछ भूल गई है. मुझे क्या पता था कि उस की माफी ही मेरी सजा
थी.

मीनो को बुखार था, इसलिए हम उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने सांत्वना
दी कि जल्दी ही वह ठीक हो जाएगी, पर मानो मीनो ने न ठीक होने की जिद पकड़
ली हो. 4 दिन बाद बुखार टूटा और मीनो शांति से सो गई- हमेशाहमेशा के लिए,
चिरनिद्रा में. मुक्त कर गई मुझे जिंदगीभर के बंधनों से. और अब जब भी
बारिश होती है, तो मुझे उलाहना सा दे जाती है और ले आती है मीनो का एक
मूक संदेश, ”मां तुम आजाद हो मेरी सेवा से. मैं तुम्हारी कर्जदार नहीं
बनना चाहती थी. सब ऋणों से मुक्त हूं मैं.

‘‘मीनो मुझे मुक्त कर इस सजा से. यादों के साथ घुटघुट कर जीनेमरने की सजा.”

लेखिका- नीलमणि भाटिया

मुसकान : भाग 2- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

राजकुमार को एंबुलेंस में डाला गया तो सभी उन के साथ जाना चाहते थे पर सुनील नहीं माना. सुनील, अनिल और मुसकान साथ गए.

पटियाला पहुंच कर जल्दी ही सारे टेस्ट हो गए. डाक्टर ने रात को ही उन की बाईपास सर्जरी करने को कहा. 2 बोतल खून का भी प्रबंध करना था, जिस के लिए सुनील और अनिल अपना खून का सैंपल मैच करने के लिए दे आए थे. बेशक दोनों डाक्टर थे पर मुसकान बहुत घबराई हुई थी. लोगों को बीमारी में देखना और बात है पर अपनों के लिए जो दर्द, घबराहट होती है, यह मुसकान आज जान पाई.

सुनील उसे ढाढ़स बंधा रहा था. उसे यह सोच कर दुख हो रहा था कि उस के सपनों की राजकुमारी, जिस ने जीवन में दुख का एक क्षण नहीं देखा, आज इतना बड़ा दुख…वह भी उस रात में जिस में इस समय उस की बांहों में लिपटी सुहागरात की सेज पर बैठी होती.

‘‘मुसकान, मैं हूं न तुम्हारे साथ. मेरे होते तुम चिंता क्यों करती हो.’’

‘‘मुझे आप के लिए दुख हो रहा है कि मेरे पापा के कारण आप को अपनी खुशी छोड़नी पड़ी,’’ मुसकान की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘पगली, यह हमारे बीच में मेरे-तुम्हारे कहां से आ गया. यह मेरे भी पापा हैं. कल को मुझ पर या घर के किसी दूसरे सदस्य पर कोई मुसीबत आ जाए तो क्या तुम साथ नहीं दोगी?’’

‘‘मेरी तो जान भी हाजिर है.’’

‘‘मुझे जान नहीं, बस, मुसकान चाहिए,’’ कहते हुए सुनील ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर दबाया.

सुनील को डाक्टर ने बुलाया था. अनिल बाजार सामान लेने गया हुआ था. मुसकान पापा के पास बैठ गई. पूरे एक घंटे बाद सुनील आया तो उदास और थकाथका सा था.

‘‘क्या खून दे कर आए हैं?’’ मुसकान घबरा गई.

‘‘हां,’’ जैसे कहीं दूर से उस ने जवाब दिया हो.

‘‘आप थोड़ी देर कमरे में जा कर आराम कर लें, अभी भैया भी आ जाएंगे. मैं पापा के पास बैठती हूं.’’

मुसकान के मन में चिंता होने लगी. सुनील को क्या हो गया. शायद थकावट और परेशानी है और ऊपर से खून भी देना पड़ा. चलो, थोड़ा आराम कर लेंगे तो ठीक हो जाएंगे.

उधर सुनील पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. किसे बताए, क्या बताए. मुसकान का क्या होगा. फिर डाक्टर परमिंदर सिंह का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा और उन के कहे शब्द दिमाग में गूंजने लगे :

‘‘सुनील बेटा, तुम  मेरे छात्र रह चुके हो, मेरे बेटे जैसे हो. कैसे कहूं, क्या बताऊं मैं 2 घंटे से परेशान हूं.’’

‘‘सर, मैं बहुत स्ट्रांग हूं, कुछ भी सुन सकता हूं, आप निश्ंिचत हो कर बताइए,’’ सुनील सोच भी नहीं सकता था, वह क्या सुनने जा रहा है.

‘‘तुम एच.आई.वी. पौजिटिव हो. जांच के लिए भेजे गए तुम्हारे ब्लड से पता चला है.’’

‘‘क्या? सर, यह कैसे हो सकता है? आप तो मुझे जानते हैं. कितना सादा और संयमित जीवन रहा है मेरा.’’

‘‘बेटा, मैं जानता हूं और तुम डाक्टर हो, जानते हो कि देह व्यापार और नशेबाजों के मुकाबले में डाक्टर को एड्स से अधिक खतरा है. खुदगर्ज, निकम्मे व भ्रष्ट लोगों की वजह से अनजाने में ही मेडिकल स्टाफ इस बीमारी की गिरफ्त में आ जाता है. सिरिंजों, दस्तानों की रिसाइक्ंिलग, हमारी लापरवाही, अस्पतालों में आवश्यक साधनों की कमी जैसे कितने ही कारण हैं. लोग ब्लड डोनेट करते हैं, समाज सेवा के लिए मगर उसी सेट और सूई को दोबारा इस्तेमाल किया जाए तो क्या होगा? शायद वही सूई पहले किसी एड्स के मरीज को लगी हो.’’

‘‘सर, मुझे अपनी चिंता नहीं है. मैं मुसकान से क्या कहूंगा? वह तो जीते जी मर जाएगी,’’ सुनील की आवाज कहीं दूर से आती लगी.

‘‘बेटा, हौसला रखो. अभी किसी से कुछ मत कहो. आज पापा का आपरेशन हो जाने दो. 15 दिन तो अभी यहीं लग जाएंगे. घर जा कर मांबाप की सलाह से अगला कदम उठाना. जीवन को एक चुनौती की तरह लो. सकारात्मक सोच से हर समस्या का हल मिल जाता है. मुसकान से मैं बात करूंगा पर अभी नहीं.’’

‘‘सर, उसे अभी कुछ मत बताइए, मुझे सोचने दीजिए,’’ कह कर सुनील अपने कमरे में आ गया था.

पर वह क्या सोच सकता है? एड्स. क्या मुसकान सुन सकेगी? नहीं, वह सह नहीं सकेगी. मैं उसे तलाक दे दूंगा, कहीं दूर चला जाऊंगा, नहीं…नहीं…वह तो अपनी जान दे देगी…नहीं…इस से अच्छा वह मर जाएगा पर मांबाप सह नहीं पाएंगे. नहीं…विपदा का हल मौत नहीं. सर ने ठीक कहा था कि सब को एक न एक दिन मरना है पर मरने से पहले जीना सीखना चाहिए.

अचानक उसे ध्यान आया, आपरेशन का टाइम होने वाला है. मुसकान परेशान हो रही होगी…कम से कम जब तक पापा ठीक नहीं होते, मैं उस का ध्यान रख सकता हूं…इतने दिन कुछ सोच भी सकूंगा.

वह जल्दी कमरा बंद कर के वार्ड में आ गया.

‘‘अब कैसी तबीयत है?’’ उसे देखते ही मुसकान पूछ बैठी.

‘‘मैं ठीक हूं. मुसकान, तुम थोड़ी स्ट्रांग बनो. मैं तुम्हें परेशान देख कर बीमार हो जाता हूं.’’

12 बजे राजकुमार को आपरेशन के लिए ले गए. वह तीनों आपरेशन थियेटर के बाहर बैठ गए. मुसकान को सुनील की खामोशी खल रही थी पर समय की नजाकत को देखते हुए चुप थी. शायद पापा के कारण ही सुनील परेशान हों.

आपरेशन सफल रहा. अगले दिन घर से भी सब लोग आ गए थे. मां ने दोनों को गेस्ट रूम में आराम करने को भेज दिया.

कमरे में जाते ही सुनील लेट गया.

‘‘मुसकान, तुम भी थोेड़ी देर सो लो, रात भर जागती रही हो. मुझे भी नींद आ रही है,’’ कहते हुए वह मुंह फेर कर लेट गया. मुसकान भी लेट गई.

शादी के बाद पहली बार दोनों अकेले एक ही कमरे में थे. इस घड़ी में सुनील का दिल जैसे अंदर से कोई चीर रहा हो. उस का जी चाह रहा था कि मुसकान को बांहों में भर ले पर नहीं, वह उसे और सपने नहीं दिखाएगा. वह उस की जिंदगी बरबाद नहीं होने देगा.

मुसकान मायूस सी किसी हसरत के इंतजार में लेट गई. कुछ कहना चाह कर भी कह नहीं पा रही थी. सुनील पास हो कर भी दूर क्यों है? शायद कई दिनों से भागदौड़ में ढंग से सो नहीं पाया. पर दिल इस पर यकीन करने को तैयार नहीं था. उस ने सोचा, सुनील थोड़ी देर सो ले तब तक मैं वार्ड में चलती हूं. जैसे ही वह दरवाजा बंद करने लगी कि सुनील उस का नाम ले कर चीख सा पड़ा.

‘‘क्या हुआ,’’ वह घबराई सी आई तो देखा कि सुनील का माथा पसीने से भीगा हुआ था.

‘‘एक गिलास पानी देना.’’

उस ने पानी दिया और उसे बेड पर लिटा दिया.

‘‘कहीं मत जाओ, मुसकान. मैं ने अभीअभी सपना देखा है. एक लालपरी बारबार मुझे दिखाई देती है. मैं उसे छूने के लिए आगे बढ़ता हूं पर छू नहीं पाता, एक पहाड़ आगे आ जाता है. वह उस के पीछे चली जाती है. मैं उस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता हूं तो नीचे गिर जाता हूं,’’ इतना कह कर सुनील मुसकान का हाथ जोर से पकड़ लेता है.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हो? सपने भी क्या सच होते हैं? चलो, चुपचाप सो जाओ. तुम्हारी लालपरी तुम्हारे पास बैठी है.’’

वह धीरेधीरे उस के माथे को सहलाने लगी. सुनील ने आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर बाद मुसकान ने सोचा, वह सो गया है. वह चुपके से उठी और वार्ड की तरफ चल पड़ी. वह उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थी.

आगे पढ़ें- कुछ देर के लिए वहां…

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मुसकान : भाग 1- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

आज आसमान से कोई परी उतरती तो वह भी मुसकान को देख कर शरमा जाती, क्योंकि मुसकान आज परियों की रानी लग रही है. नजाकत से धीरेधीरे पांव रखती शादी के मंडप की ओर बढ़ रही मुसकान लाल सुर्ख जरी पर मोतियों से जड़ा लहंगाचोली पहने जेवरों से लदी, चूड़ा, कलीरे और पांव में झांजर डाले हुए है. उस के भाई उस के ऊपर झांवर तान कर चल रहे हैं. झांवर भी गोटे और घुंघरुओं से सजी है. उस का सगा भाई अनिल उस के आगेआगे रास्ते में फूल बिछाते हुए चल रहा है.

शादी के मंडप की शानोशौकत देखते ही बनती है. सामने स्टेज पर सुनील दूल्हा बना बैठा है. वहां मौजूद सभी एकटक मुसकान को आते हुए देख रहे हैं जो अपने को आज दुनिया की सब से खुशनसीब लड़की समझ रही है. आज मुसकान अपने सपनों के राजकुमार की होने जा रही है. सुनील के पिता सुंदरलालजी जिस फैक्टरी में लेखा अधिकारी हैं उसी में मुसकान के पिता राजकुमार सहायक हैं.

दोनों परिवार 20 साल से इकट्ठे रह रहे हैं. दोनों के घरों के बीच में दीवार न होती तो एक ही परिवार था. राजकुमार के 2 बच्चे थे, जबकि सुंदरलाल का इकलौता बेटा सुनील था. यह छोटा सा परिवार हर तरह से खुशहाल था. सुंदरलाल, मुसकान को अपनी बेटी की तरह मानते थे. तीनों बच्चे साथसाथ खेले, बढ़े और पढ़े.

मुसकान, अनिल से 5 वर्ष छोटी थी. सुनील और मुसकान हमउम्र थे. दोनों पढ़ने में होशियार थे. जैसेजैसे बड़े होते गए उन में प्यार बढ़ता गया. मन एक हो गए, सपने एक हो गए और लक्ष्य भी एक, दोनों डाक्टर बनेंगे.

राजकुमार की हैसियत मुसकान को डाक्टरी कराने जितनी नहीं थी मगर सुनील के मांबाप ने मन ही मन मुसकान को अपनी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था इसलिए उन्होंने यथासंभव सहायता का आश्वासन दे कर मुसकान को डाक्टर बनाने का फैसला कर लिया था. अनिल भी इंजीनियरिंग कर के नौकरी पर लग गया. वह भी चाहता था कि मुसकान डाक्टर बने.

सुनील को एम.बी.बी.एस. में दाखिला मिल गया. मुसकान अभी 12वीं में थी. जब सुनील पढ़ने के लिए पटियाला चला गया तब दोनों को लगा कि वे एकदूसरे के बिना जी नहीं सकेंगे. मुसकान को लगता कि उस का कुछ कहीं खो गया है पर वह चेहरे पर खुशी का आवरण ओढ़े रही ताकि मन की पीड़ा को कोई दूसरा भांप न ले. दाखिले के 7 दिन बाद सुनील पटियाला से आया तो सीधा मुसकान के पास ही गया.

‘लगता है 7 दिन नहीं सात जन्म बाद मिल रहा हूं. मुसकान, मैं तुम्हें बहुत मिस करता हूं.’

मुसकान कुछ कह न पाई पर उस के आंसू सबकुछ कह गए थे.

‘मुसकान, आंसू कमजोर लोगों की निशानी है. हमें तो स्ट्रांग बनना है, कुछ कर दिखाना है, तभी तो हमारा सपना साकार होगा,’ सुनील ने उसे हौसला दिया.

अब दोनों ही अपना कैरियर बनाने में जुट गए. सुनील जब भी घर आता मुसकान के लिए किताबें, नोट्स ले कर आता. वह चाहता था कि मुसकान को भी उस के ही कालिज में दाखिला मिल जाए. मुसकान उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकती थी. सुनील मुसकान की पढ़ाई की इतनी चिंता करता कि फोन पर उसे समझाता रहता कि कौन सा विषय कैसे पढ़ना है, टाइम मैनेज कैसे करना है.

सुनील एक हफ्ते की छुट्टी ले कर घर आया और मुसकान से टेस्ट की तैयारी करवाई. दोनों ने दिनरात एक किया. अगर लक्ष्य अटल हो, प्रयास सबल हो तो विजय निश्चित होती है. मुसकान को भी पटियाला में ही प्रवेश मिल गया. मुसकान को दाखिल करवाने दोनों के ही मांबाप गए थे. वापसी से पहले सुनील की मां ने मुसकान से कहा था, ‘बेटा, हमें उम्मीद है तुम दोनों अपने परिवार की मर्यादा का ध्यान रखोगे तो हम सब तुम्हारे साथ हैं.’

‘मां, जितना प्यार मुझे मेरे मांबाप ने दिया है उस से अधिक आप लोगों ने दिया है. मैं आप से वादा करती हूं कि मेरा जीवन इस परिवार और प्यार के लिए समर्पित है,’ मुसकान मम्मी के गले लग गई.

दोनों ने बड़ी मेहनत की और अपने मांबाप की आशाओं पर फूल चढ़ाए. सुनील ने एम.डी. की और उसे पटियाला में ही नौकरी मिल गई. दोनों के मांबाप चाहते थे अब सुनील व मुसकान की शादी हो जानी चाहिए पर दोनों ने फैसला किया था कि जब मुसकान भी एम.डी. हो जाए उस के बाद ही वे शादी करेंगे.

आज उन की मेहनत और सच्चे प्यार का पुरस्कार शादी के रूप में मिला था. सुनील हाथ में जयमाला लिए मंडप की ओर आती मुसकान को देख रहा था.

मुसकान की विदाई एक तरह से अनोखी ही थी. न किसी के चेहरे पर उदासी न आंखों में आंसू. सभी लोग शादी के मंडप से निकले और गाडि़यों में बैठ कर जहां से चले थे वहीं वापस आ गए. दुलहन के रूप में मुसकान सुनील के घर चली गई. दोनों घरों के बीच एक दीवार ही तो थी. जब सब के दिल एक थे तो मायका क्या और ससुराल क्या.

आज सुनील से भी अपनी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. आज वह अपनी लाल परी को छुएगा.

‘‘मां, हमें जल्दी फारिग करो, हम थक गए हैं,’’ सुनील बेसब्री से बोला.

‘‘बस, बेटा, 10 मिनट और लगेंगे. मुसकान कपड़े बदल ले.’’

मम्मी मुसकान को एक कमरे में ले गईं और एक बड़ा सा पैकेट दे कर बोलीं, ‘‘बेटा, यह सुनील ने अपनी पसंद से तुम्हारे लिए खरीदा है आज रात के लिए.’’

मम्मी के जाने के बाद मुसकान ने कमरा अंदर से बंद किया और जैसे ही उस ने पैकेट खोला, वह उसे देख कर हैरान रह गई. पैकेट में सुर्ख रंग का जरी, मोतियों की कढ़ाई से कढ़ा  हुआ कुरता, हैवी दुपट्टा पटियाला सलवार, परांदा आदि निकला था. उस ने तो बचपन से ही पैंटजींस पहनी थी. कपड़ों की तरफ दोनों ने पहले कभी ध्यान ही नहीं दिया था. सुनील ने भी कभी उस के कपड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी.

वह बड़े सलीके से तैयार हुई. अपने केशों में परांदी, सग्गीफूल लगाया, मैच करती लिपस्टिक लगाई, माथे पर मांग टीका लटक रहा था, फिर दुपट्टा पिनअप कर के जैसे ही शीशे के सामने खड़ी हुई सामने पंजाबी दुलहन के रूप में खुद को देख मुसकान हैरान रह गई. सुनील की पसंद पर उसे नाज हो आया और दिल धड़क उठा रात के उस क्षण के लिए जब उस का राजकुमार उसे अपनी बांहों में भर कर उस की कुंआरी देहगंध से रात को सराबोर करेगा.

किसी ने दरवाजा खटखटाया. मुसकान ने दरवाजा खोला तो सामने मम्मी और मां घबराई सी खड़ी थीं.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा की तबीयत खराब हो गई थी. सुनील और अनिल उन्हें अस्पताल ले कर गए हैं. पर घबराने की बात नहीं है, अभी आते होंगे,’’ कह कर मां और मम्मी दोनों उस के पास बैठ गईं.

मुसकान एकदम घबरा गई. अभी 1 घंटा पहले तो पापा ठीक थे, हंसखेल रहे थे. उस ने जल्दी से मोबाइल उठाया, ‘‘सुनील, कैसे हैं पापा, क्या हुआ उन्हें?’’

‘‘मुसकान, देखो घबराना नहीं,’’ सुनील बोला, ‘‘मेरे होते हुए चिंता मत करो. पापा को हलका हार्ट अटैक पड़ा है. हमें इन्हें ले कर पटियाला जाना होगा. तुम जरूरी सामान और कपड़े ले कर डैडी के साथ यहीं आ जाओ. तुम भी साथ चलोगी. मेरे वाला पैकेट अभी संभाल कर रख लो.’’

‘‘मम्मी, सुनील ने मुझे अस्पताल बुलाया है. पापा को पटियाला ले कर जाना पड़ेगा,’’ और फिर जितनी हसरत से उस ने सुनील वाले कपड़े पहने थे, उतने ही दुखी मन से उन्हें उतार दिया. हलके रंग का सूट पहना और यह सोच कर कि इस लाल सूट को तो वह सुहागरात को ही पहनेगी उसे बड़े प्यार से उसी तरह अलमारी में रख दिया.

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तितली: सियाली के चेहरे पर क्यों थी मुस्कान

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मीपापा के  झगड़े की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी कि चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर तक ओढ़ ली, इस से आवाज पहले से कम तो हुई, पर अब भी उस के कानों से टकरा रही थी.

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईयरफोन लगा कर उन्हें कानों में कस कर ठूंस लिया और आवाज को बहुत तेज कर दिया.

18 साल की सियाली के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. उस के मांबाप आएदिन ही  झगड़ते रहते थे, जिस की सीधी वजह थी उन दोनों के संबंधों में खटास का होना… ऐसी खटास, जो एक बार जिंदगी में आ जाए, तो आपसी रिश्तों का खात्मा ही कर देती है.

सियाली के मांबाप प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास कोई एक दिन में नहीं आई, बल्कि यह तो  एक मिडिल क्लास परिवार के कामकाजी जोड़े के आपसी तालमेल बिगड़ने के चलते धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी.

सियाली के पिता प्रकाश अपनी पत्नी निहारिका पर शक करते थे. उन का शक करना भी एकदम जायज था, क्योंकि निहारिका का अपने औफिस के एक साथी के साथ संबंध चल रहा था. जितना शक गहरा हुआ, उतना ही प्रकाश की नाराजगी बढ़ती गई और निहारिका का नाजायज रिश्ता भी उसी हिसाब से  बढ़ता गया.

‘‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते, तो तलाक क्यों नहीं दे देते… एकदूसरे को,’’ सियाली बिस्तर से उठते हुए  झुं झलाते  हुए बोली.

सियाली जब तक अपने कमरे से बाहर आई, तब तक वे दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद वे किसी फैसले तक पहुंच गए थे.

‘‘तो ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए पूछा.

‘‘मैं सम झती हूं… सियाली को तुम मु झ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा, तो उस की इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो, ताकि तुम अपने उस औफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारों तरफ एक गार्ड बन कर घूमता रहूं.’’

प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है…  1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे भी एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था.

सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी, तो कभी पिता की तरफ, उस से कुछ कहते न बना, पर वह इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का वजूद एक पैंडुलम से ज्यादा नहीं है जो उन दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है.

शाम को जब सियाली कालेज से लौटी, तो घर में एक अलग सी शांति थी. पापा सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की शिकन गायब थी.

सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश की और बोले, ‘‘देख ले… तेरे लिए चाय बची होगी… लेले और मेरे पास बैठ कर पी.’’

सियाली पापा के पास आ कर बैठी, तो पापा ने अपनी सफाई में काफीकुछ कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था. उस के काम ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’

पापा की बातें सुन कर सियाली से भी नहीं रहा गया और वह बोली, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत है, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए, तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है.’’

बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और गुस्सा ही छलक रहा था, जिसे सियाली चुपचाप सुनती रही थी.

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को भी कोई एतराज नहीं हुआ.

शाम को सियाली मां के दिए पते पर पहुंच गई. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था और वह फ्लैट नंबर 111 में पहुंच गई.

सियाली ने डोरबैल बजाई. दरवाजा मां ने ही खोला था. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थीं. उन की मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर बिंदी… सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से सिंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादा वेश में ही रहती थीं मां और टोकने पर दलील देती थीं, ‘अरे, हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो हैं नहीं, जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें… हम पिछड़ी जाति वालों के लिए साधारण रहना ही अच्छा है.’

तो फिर आज मां को ये क्या हो गया? बहरहाल, सियाली ने मां को बुके दे दिया. मां ने बड़े प्यार से कोने में रखी एक मेज पर उसे सजा दिया.

‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से,’’ मां के पीछे से आवाज आई.

सियाली ने आवाज की दिशा में नजर उठाई, तो देखा कि सफेद कुरतापाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था.

सियाली उसे पहचान गई. वह मां का औफिस का साथी देशवीर था. मां उसे पहले भी घर ला चुकी थीं.

मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस  पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां… पहले भी आप इन से मु झ को मिलवा चुकी हो.’’

‘‘पर, पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे, लेकिन आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे.’’

सियाली मुसकरा कर रह गई थी. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था. मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

सियाली रात को मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख ले, घर जा कर पिज्जा और्डर कर देना.’’

कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण पेश किए थे, पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से वह उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई.

‘‘सियाली, आज तू यह किस खुशी में पार्टी दे रही है?’’ महक ने पूछा.

‘‘बस यों सम झो कि आजादी की पार्टी है,’’ कह कर सियाली मुसकरा दी थी.

सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे छुटकारा मिल चुका था और वह अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी, इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ग्रुप जौइन करना चाहती हूं, ताकि मैं अपने

जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’

इस पर उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए, जिन से वह अपनेआप को दुनिया के सामने पेश कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना, पर सियाली तो मौजमस्ती के लिए डांस ग्रुप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे बाकी के औप्शन अच्छे  नहीं लगे.

सियाली ने अपने शहर के डांस ग्रुप इंटरनैट पर खंगाले, तो ‘डिवाइन डांसर’ नामक एक डांस ग्रुप ठीक लगा, जिस में 4 मैंबर लड़के थे और एक लड़की थी.

सियाली ने तुरंत ही वह ग्रुप जौइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह तानाशाह हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकने वाला. वह जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक ऐसी चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी.

एक दिन सियाली का फोन बज उठा. यह पापा का फोन था, ‘सियाली, तुम कई दिन से घर नहीं आई, क्या बात है? कहां हो तुम?’

‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’

‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो…’

‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं… आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही  जिऊंगी,’’ इतना कह कर सियाली ने फोन काट दिया था, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था.

डांस ग्रुप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी, पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी थी.

पराग स्मार्ट था और पैसे वाला भी. वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को भी सिक्योरिटी का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रैस्टोरैंट में गए. पराग ने अपने लिए एक बीयर मंगवाई और सियाली से पूछा, ‘‘तुम तो कोल्ड ड्रिंक लोगी न सियाली?’’

‘‘खुद तो बीयर पीओगे और मु झे बच्चों वाली ड्रिंक… मैं भी बीयर पीऊंगी,’’ कहते हुए सियाली के चेहरे पर  एक अजीब सी शोखी उतर आई थी.

सियाली की इस अदा पर पराग भी मुसकराए बिना न रह सका और उस ने एक और बीयर और्डर कर दी.

सियाली ने बीयर से शुरुआत जरूर की थी, पर उस का यह शौक धीरेधीरे ह्विस्की तक पहुंच गया था.

अगले दिन डांस क्लास में जब वे दोनों मिले, तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर ग्रुप के सभी लड़केलड़कियां तालियां बजाने लगे.

सियाली ने भी मुसकरा कर पराग के हाथ से गुलाब ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जिंदगी बिताने का, पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ग्रुप के लड़केलड़कियां शांत से हो गए थे.

सियाली ने थोड़ा रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को उन की शादीशुदा जिंदगी में हमेशा लड़ते ही देखा है, जिस का खात्मा तलाक के रूप में हुआ और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं.’’

पराग यह बात सुन कर तपाक से बोला, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ लिवइन में रहने को तैयार हूं,’’ तो सियाली ने इसे  झट से स्वीकार कर लिया.

कुछ दिन बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे, जहां वे जी भर कर जिंदगी का मजा ले रहे थे. पराग के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी.

कुछ दिनों के बाद उन के डांस ग्रुप की गायत्री नाम की एक लड़की ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है… और इतनी जल्दी किसी के साथ लिवइन में रहना… कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें…’’

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर उस ने अपनेआप को संभालते हुए कहा, ‘‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं की, तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं… और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है, इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की…

‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं, और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ, उम्र का तो सोचो ही मत… बस मस्ती करो.’’

सियाली यह कहते हुए वहां से  चली गई, जबकि गायत्री अवाक सी खड़ी रह गई.

तितली कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठती… वह कभी एक फूल पर, तो कभी दूसरे फूल पर, और तभी तो  इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है… रंगबिरंगी तितली, जिंदगी से भरपूर तितली.

बदली परिपाटी: मयंक को आखिर कैसी सजा मिली

लगता है रात में जतिन ने फिर बहू पर हाथ उठाया. मुझ से यह बात बरदाश्त नहीं होती. बहू की सूजी आंखें और शरीर पर पड़े नीले निशान देख कर मेरा दिल कराह उठता है. मैं कसमसा उठता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. काश, पूजा होती और अपने बेटे को समझाती पर पूजा को तो मैं ने अपनी ही गलतियों से खो दिया है.

यह सोचतेसोचते मेरे दिमाग की नसें फटने लगी हैं. मैं अपनेआप से भाग जाना चाहता हूं. लेकिन नहीं भाग सकता, क्योंकि नियति द्वारा मेरे लिए सजा तय की गई है कि मैं पछतावे की आग में धीरेधीरे जलूं.

‘‘अंतरा, मैं बाजार की तरफ जा रहा हूं, कुछ मंगाना तो नहीं.’’

‘‘नहीं पापाजी, आप हो आइए.’’ मैं चल पड़ा यह सोच कर कि कुछ देर बाहर निकलने से शायद मेरा मन थोड़ा बहल जाए. लेकिन बाहर निकलते ही मेरा मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा…

‘मुझ से जबान लड़ाती है,’ एक भद्दी सी गाली दे कर मैं ने उस पर अपना क्रोध बरसा दिया.

‘आह…प्लीज मत मारो मुझे, मेरे बच्चे को लग जाएगी, दया करो. मैं ने आखिर किया क्या है?’ उस ने झुक कर अपनी पीठ पर मेरा वार सहन करते हुए कहा.

कोख में पल रहे बच्चे पर वह आंच नहीं आने देना चाहती थी. लेकिन मैं कम क्रूर नहीं था. बालों से पकड़ते हुए उसे घसीट कर हौल में ले आया और अपनी बैल्ट निकाल ली. बैल्ट का पहला वार होते ही जोरों की चीख खामोशी में तबदील होती चली गई. वह बेहोश हो चुकी थी.

‘पागल हो गया क्या, अरे, उस के पेट में तेरी औलाद है. अगर उसे कुछ हो गया तो?’ मां किसी बहाने से उसे मेरे गुस्से से बचाना चाहती थीं.

‘कह देना इस से, भाड़े पर लड़कियां लाऊं या बियर बार जाऊं, यह मेरी अम्मा बनने की कोशिश न करे वरना अगली बार जान से मार दूंगा,’ कहते हुए मैं ने 2 साल के नन्हे जतिन को धक्का दिया, जो अपनी मां को मार खाते देख सहमा हुआ सा एक तरफ खड़ा था. फिर गाड़ी उठाई और निकल पड़ा अपनी आवारगी की राह.

उस पूरी रात मैं नशे में चूर रहा. सुबह के 6 बज रहे होंगे कि पापा के एक कौल ने मेरी शराब का सारा नशा उतार दिया. ‘कहां है तू, कब से फोन लगा रहा हूं. पूजा ने फांसी लगा ली है. तुरंत आ.’ जैसेतैसे घर पहुंचा तो हताश पापा सिर पर हाथ धरे अंदर सीढि़यों पर बैठे थे और मां नन्हे जतिन को चुप कराने की बेहिसाब कोशिशें कर रही थीं.

अपने बैडरूम का नजारा देख मेरी सांसें रुक सी गईं. बेजान पूजा पंखे से लटकी हुई थी. मुझे काटो तो खून नहीं. मांपापा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पूजा ने अपने साथ अपनी कोख में पल रहे मेरे अंश को भी खत्म कर लिया था. पर इतने खौफनाक माहौल में भी मेरा शातिर दिमाग काम कर रहा था. इधरउधर खूब ढूंढ़ने के बाद भी पूजा की लिखी कोई आखिरी चिट्ठी मुझे नहीं मिली.

पुलिस को देने के लिए हम ने एक ही बयान को बारबार दोहराया कि मां की बीमारी के चलते उसे मायके जाने से मना किया तो जिद व गुस्से में आ कर उस ने आत्महत्या कर ली. वैसे भी मेरी मां का सीधापन पूरी कालोनी में मशहूर था, जिस का फायदा मुझे इस केस में बहुत मिला. कुछ दिन मुझे जरूर लौकअप में रहना पड़ा, लेकिन बाद में सब को देदिला कर इस मामले को खत्म करने में हम ने सफलता पाई, क्योंकि पूजा के मायके में उस की खैरखबर लेने वाला एक शराबी भाई ही था जिसे अपनी बहन को इंसाफ दिलाने में कोई खास रुचि न थी.

थोड़ी परेशानी से ही सही, लेकिन 8-10 महीने में केस रफादफा हो गया पर मेरे जैसा आशिकमिजाज व्यक्ति ऐसे समय में भी कहां चुप बैठने वाला था. इस बीच मेरी रासलीला मेरे एक दोस्त की बहन लिली से शुरू हो गई. लिली का साथ मुझे खूब भाने लगा, क्योंकि वह भी मेरी तरह बिंदास थी. पूजा की मौत के डेढ़ साल के भीतर ही हम ने शादी कर ली. वह तो शादी के बाद पता चला कि मैं सेर, तो वह सवा सेर है. शादी होते ही उस ने मुझे सीधे अपनी अंटी में ले लिया.

बदतमीजी, आवारगी, बदचलनी आदि गुणों में वह मुझ से कहीं बढ़ कर निकली. मेरी परेशानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई जिस दिन मैं ने पूजा समझ कर उस पर पहली बार हाथ उठाया. मेरे उठे हाथ को हवा में ही थाम उस ने ऐसा मरोड़ा कि मेरे मुंह से आह निकल गई. उस के बाद मैं कभी उस पर हाथ उठाने की हिम्मत न कर पाया.

घर के बाहर बनी पुलिया पर आसपास के आवारा लड़कों के साथ बैठी वह सिगरेट के कश लगाती जबतब कालोनी के लोगों को नजर आती. अपने दोस्तों के साथ कार में बाहर घूमने जाना उस का प्रिय शगल था. रात को वह शराब के नशे में धुत हो घर आती और सो जाती. मैं ने उसे अपने झांसे में लेने की कई नाकाम कोशिशें कीं, लेकिन हर बार उस ने मेरे वार का ऐसा प्रतिवार किया कि मैं बौखला गया. उस ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दी कि अगर मैं ने उस से उलझने की कोशिश की तो वह मुझे मरवा देगी या ऐसा फंसाएगी कि मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं उस के गदर से तभी तक बचा रहता जब तक कि उस के कामों में हस्तक्षेप न करता.

तो इस तरह प्रकृति के न्याय के तहत मैं ने जल्द ही वह काटा, जो बोया था. घर की पूरी सत्ता पर मेरी जगह वह काबिज हो चुकी थी. शादी के सालभर बाद ही मुझ पर दबाव बना कर उस ने पापा से हमारे घर को भी अपने नाम करवा लिया. और फिर हमारा मकान बेच कर उस ने पौश कालोनी में एक फ्लैट खरीदा और मुझे व जतिन को अपने साथ ले गई. मेरे मम्मीपापा मेरी बहन यानी अपनी बेटी के घर में रहने को मजबूर थे. यह सब मेरी ही कारगुजारियों की अति थी जो आज सबकुछ मेरे हाथ से मुट्ठी से निकली रेत की भांति फिसल चुका था.

अपना मकान बिकने से हैरानपरेशान पापा इस सदमे को न सह पाने के कारण हार्टअटैक के शिकार हो महीनेभर में ही चल बसे. उन के जाने के बाद मेरी मां बिलकुल अकेली हो गईं. प्रकृति मेरे कर्मों की इतनी जल्दी और ऐसी सजा देगी, मुझे मालूम न था.

नए घर में शिफ्ट होने के बाद भी उस के क्रियाकलाप में कोई खास अंतर नहीं आया. इस बीच 5 साल के हो चुके जतिन को उस ने पूरी तरह अपने अधिकार में ले लिया. उस के सान्निध्य में पलताबढ़ता जतिन भी उस के नक्शेकदम पर चल पड़ा. पढ़ाईलिखाई से उस का खास वास्ता था नहीं. जैसेतैसे 12वीं कर उस ने छोटामोटा बिजनैस कर लिया और अपनी जिंदगी पूरी तरह से उसी के हवाले कर दी. उन दोनों के सामने मेरी हैसियत वैसे भी कुछ नहीं थी. किसी समय अपनी मनमरजी का मालिक मैं आजकल उन के हाथ की कठपुतली बन, बस, उन के रहमोकरम पर जिंदा था.

इसी रफ्तार से जिंदगी के कुछ और वर्ष बीत गए. इस बीच लिली एक भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आ गई और अपनेआप में गुमसुम पड़ी रहने लगी. अब घर की सत्ता मेरे बेटे जतिन के हाथों में आ गई. हालांकि इस बदलाव का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं था. हां, जतिन की शादी होने पर उस की पत्नी अंतरा के आने से अलबत्ता मुझे कुछ राहत जरूर हो गई, क्योंकि मेरी बहू भी पूजा जैसी ही एक नेकदिल इंसान थी.

वह लिली की सेवा जीजान से करती और जतिन को खुश करने की पूरी कोशिश भी. पर जिस की रगों में मेरे जैसे गिरे इंसान का लहू बह रहा हो, उसे भला किसी की अच्छाई की कीमत का क्या पता चलता. सालभर पहले लिली ने अपनी आखिरी सांस ली. उस वक्त सच में मन से जैसे एक बोझ उतर गया और मेरा जीवन थोड़ा आसान हो गया.

इस बीच, जतिन के अत्याचार अंतरा के प्रति बढ़ते जा रहे थे. लगभग रोज रात में जतिन उसे पीटता और हर सुबह अपने चेहरे व शरीर की सूजन छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए वह फिर से अपने काम पर लग जाती. कल रात भी जतिन ने उस पर अपना गुस्सा निकाला था.

मुझे समझ नहीं आता था कि आखिर वह ये सब क्यों सहती है, क्यों नहीं वह जतिन को मुंहतोड़ जवाब देती, आखिर उस की क्या मजबूरी है? तमाम बातें मेरे दिमाग में लगातार चलतीं. मेरा मन उस के लिए इसलिए भी परेशान रहता क्योंकि इतना सबकुछ सह कर भी वह मेरा बहुत ध्यान रखती थी. कभीकभी मैं सोच में पड़ जाता कि आखिर औरत एक ही समय में इतनी मजबूत और मजबूर कैसे हो सकती है?

ऐसे वक्त पर मुझे पूजा की बहुत याद आती. अपने 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैं ने एक पल भी उसे सुकून का नहीं दिया. शादी की पहली रात जब सजी हुई वह छुईमुई सी मेरे कमरे में दाखिल हुई थी, तो मैं ने पलभर में उसे बिस्तर पर घसीट कर उस के शरीर से खेलते हुए अपनी कामवासना शांत की थी.

काश, उस वक्त उस के रूपसौंदर्य को प्यारभरी नजरों से कुछ देर निहारा होता, तारीफ के दो बोल बोले होते तो वह खुशी से अपना सर्वस्व मुझे सौंप देती. उस घर में आखिर वह मेरे लिए ही तो आई थी. पर मेरे लिए तो प्यार की परिभाषा शारीरिक भूख से ही हो कर गुजरती थी. उस दौरान निकली उस की दर्दभरी चीखों को मैं ने अपनी जीत समझ कर उस का मुंह अपने हाथों से दबा कर अपनी मनमानी की थी. वह रातों में मेरे दिल बहलाने का साधनमात्र थी. और फिर जब वह गर्भवती हुई तो मैं दूसरों के साथ इश्क लड़ाने लगा, क्योंकि वह मुझे वह सुख नहीं दे पा रही थी. वह मेरे लिए बेकार हो चुकी थी. इसलिए मुझे ऐसा करने का हक था, आखिर मैं मर्द जो था. मेरी इस सोच ने मुझे कभी इंसान नहीं बनने दिया.

हे प्रकृति, मुझे थोड़ी सी तो सद्बुद्धि देती. मैं ने उसे चैन से एक सांस न लेने दी. अपनी गंदी हरकतों से सदा उस का दिल दुखाया. उस की जिंदगी को मैं ने वक्त से पहले खत्म कर दिया.

उस दिन उस ने आत्महत्या भी तो मेरे कारण ही की थी, क्योंकि उसे मेरे नाजायज संबंधों के बारे में पता चल गया था और उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि इस बारे में मुझ से पूछ बैठी थी. बदले में मैं ने जीभर कर उस की धुनाई की थी. ये सब पुरानी यादें दिमाग में घूमती रहीं और कब मैं घर लौट आया पता ही नहीं चला.

‘‘पापा, जब आप मार्केट गए थे. उस वक्त बूआजी आई थीं. थोड़ी देर बैठीं, फिर आप के लिए यह लिफाफा दे कर चली गईं.’’ बाजार से आते ही अंतरा ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘ठीक है बेटा,’’ मैं ने लिफाफा खोला. उस में एक छोटी सी चिट और करीने से तह किया हुआ एक पन्ना रखा था. चिट पर लिखा था, ‘‘मां के जाने के सालों बाद आज उन की पुरानी संदूकची खोली तो यह खत उस में मिला. तुम्हारे नाम का है, सो तुम्हें देने आई थी.’’ बहन की लिखावट थी. सालों पहले मुझे यह खत किस ने लिखा होगा, यह सोचते हुए कांपते हाथों से मैं ने खत पढ़ना शुरू किया.

‘‘प्रिय मयंक,

‘‘वैसे तो तुम ने मुझे कई बार मारा है, पर मैं हमेशा यह सोच कर सब सहती चली गई कि जैसे भी हो, तुम मेरे तो हो. पर कल जब तुम्हारे इतने सारे नाजायज संबंधों का पता चला तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया. हर रात तुम मेरे शरीर से खेलते रहे, हर दिन मुझ पर हाथ उठाते रहे. लेकिन मन में एक संतोष था कि इस दुखभरी जिंदगी में भी एक रिश्ता तो कम से कम मेरे पास है. लेकिन जब पता चला कि यह रिश्ता, रिश्ता न हो कर एक कलंक है, तो इस कलंक के साथ मैं नहीं जी सकती. सोचती थी, कभी तो तुम्हारे दिल में अपने लिए प्यार जगा लूंगी. लेकिन अब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. मायके में भी तो कोई नहीं है, जिसे मेरे जीनेमरने से कोई सरोकार हो. मैं अपनी व्यथा न ही किसी से बांट सकती हूं और न ही उसे सह पा रही हूं. तुम्हीं बताओ फिर कैसे जिऊं. मेरे बाद मेरे बच्चों की दुर्दशा न हो, इसलिए अपनी कोख का अंश अपने साथ लिए जा रही हूं. मासूम जतिन को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुश रहो तुम, कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना. जाने से पहले एक बात तुम से जरूर कहना चाहूंगी. ‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.’

‘‘तुम्हारी चाहत के इंतजार में पलपल मरती…

तुम्हारी पूजा.’’

पूरा पत्र आंसुओं से गीला हो चुका था, जी चाह रहा था कि मैं चिल्लाचिल्ला कर रो पड़ूं. ओह, पूजा माफ कर दे मुझे. मैं इंसान कहलाने के काबिल नहीं, तेरे प्यार के काबिल भला क्या बनूंगा. हे प्रकृति, मेरी पूजा को लौटा दे मुझे, मैं उस के पैर पकड़ कर अपने गुनाहों की माफी तो मांग लूं उस से. लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत.

भावनाओं का ज्वार थमा तो कुछ हलका महसूस हुआ. शायद मां को पूजा का यह सुसाइड लैटर मिला हो और मुझे बचाने की खातिर यह पत्र उन्होंने अपने पास छिपा कर रख लिया हो. यह उन्हीं के प्यार का साया तो था कि इतना घिनौना जुर्म करने के बाद भी मैं बच गया. उन्होंने मुझे कालकोठरी की सजा से तो बचा लिया, परंतु मेरे कर्मों की सजा तो नियति से मुझे मिलनी ही थी और वह किसी भी बहाने से मुझे मिल कर रही.

पर अब सबकुछ भुला कर पूजा की वही पंक्ति मेरे मन में बारबार आ रही थी, ‘‘कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना.’’ अंतरा के मायके में भी तो उस की बुजुर्ग मां के अलावा कोई नहीं है. हो सकता है इसलिए वह भी पूजा की तरह मजबूर हो. पर अब मैं मजबूर नहीं बनूंगा…कुछ सोच कर मैं उठ खड़ा हुआ. अंतरा को आवाज दी.

‘‘जी पापा,’’ कहते हुए अंतरा मेरे सामने मौजूद थी. बहुत देर तक मैं उसे सबकुछ समझाता रहा और वह आंखें फाड़फाड़ कर मुझे हैरत से देखती रही. शायद उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जतिन का पिता होने के बावजूद मैं उस का दर्द कैसे महसूस कर रहा हूं या उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि अचानक मैं यह क्या और क्यों कर रहा हूं, क्योंकि वह मासूम तो मेरी हकीकत से हमेशा अनजान थी.

पास के पुलिसस्टेशन पहुंच कर मैं ने अपनी बहू पर हो रहे अत्याचार की धारा के अंतर्गत बेटे जतिन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. मेरे कहने पर अंतरा ने अपने शरीर पर जख्मों के निशान उन्हें दिखाए, जिस से केस पुख्ता हो गया. थोड़ा वक्त लगा, लेकिन हम ने अपना काम कर दिया था. आगे का काम पुलिस करेगी. जतिन को सही राह पर लाने का एक यही तरीका मुझे कारगर लगा, क्योंकि सिर्फ मेरे समझानेभर से बात उस के पल्ले नहीं पड़ेगी. पुलिस, कानून और सजा का खौफ ही अब उसे सही रास्ते पर ला सकता है.

पूजा के चिट्ठी में कहे शब्दों के अनुसार, मैं उसे रिश्तों की इज्जत करना सिखाऊंगा और एक अच्छा इंसान बनाऊंगा, ताकि फिर कोई पूजा किसी मयंक के अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करने को मजबूर न हो. औटो में वापसी के समय अंतरा के सिर पर मैं ने स्नेह से हाथ फेरा. उस की आंखों में खौफ की जगह अब सुकून नजर आ रहा था. यह देख मैं ने राहत की सांस ली.

पन्नों पर फैली पीड़ा

रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफान चल रहा था. औपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता. नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें तेज करने लगती. नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था. हौस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था. नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फिर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं.

अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी. नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है.

कल कितनी चोटें आई थीं सुजाता को. नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे. कार नवीन ही चला रहा था. सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ की खिड़की में जोरदार टक्कर मारी. नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं. उस का सिर भी फट गया था. कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. नवीन किसी से लिफ्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था.

नवीन ने फोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी. वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे. विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी.

नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी. उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया. वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खड़ी हो गई है. झट से आंखें बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए. नवीन ने आंखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं…

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. पढ़ाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फैसला किया.

सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था. वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी. वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लड़की से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी. उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफान खड़ा कर दिया. नवीन के पिताजी नहीं थे.

वसुधा चिल्लाने लगीं, ‘क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बड़ा किया है कि एक विजातीय लड़की बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता.’

कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा. नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली.

नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था. घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी. यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन.

नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था. नवीन मूकदर्शक बना रहा था. रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया था और फिर उस ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए औफिस से छुट्टियां ले ली थीं. वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते.

जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ‘मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोड़ो और अपनी घरगृहस्थी संभालो.’

यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी. माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं.

दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई. वसुधा दिनरात कहती, ‘इस बर अपनी जाति की बहू लाऊंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी.’

सुजाता अपमानित सा महसूस करती. नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती. वसुधा ने खूब खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया. नीता को वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया. सुजाता शांत देखती रहती. नीता भी नौकरीपेशा थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह औफिस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की. सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खड़ी रह जाती.

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया. लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं. इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था.

दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उसे वहां शांति और आराम तो मिलेगा. नवीन रोज औफिस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था.

घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं. वसुधा जोड़ों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था. नीता और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ‘सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’

सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करता है.

फिर विनय और नीरज अलग अलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढ़ते परिवार के लिए छोटा पड़ने लगा था. वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे.

विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं. दिव्यांशु और दिव्या को वसुधा प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं. सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढ़ती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं.

बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फैल जाता. बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया. पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ़ गई थी. सुजाता को हमेशा ही पढ़नेलिखने का शौक रहा. फुरसत मिलते ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी. उस के विचार, उस के सपने उसे लेखन की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है. सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती.

पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फाड़ती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकतीं, बस उन्हें कूड़े की टोकरी में फटे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ‘पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है. बस, पन्ने फाड़ती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं.’

सुजाता कोई तर्क नहीं दे पाती, मगर उस का लेखन कार्य चलता रहा.

अब सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था. इस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था. लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती.

उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ़ जाते, ‘समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो.’

सुजाता को रोना आ जाता. सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है. मेहनत का फल जरूर मिलता है और वह फिर लिखने बैठ जाती. धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं.

सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था. वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शांति से अपना काम करते रहते. अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा. उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं. सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी. उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों में विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा. वसुधा की सहेलियां, पड़ोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं.

‘‘नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर हैं,’’ डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई.

वह खड़ा हो गया, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

‘‘चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पड़ेगा, थोड़ी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं.’’

मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया. सुजाता अभी बेहोश थी. नवीन ने थोड़ी देर बाद मां से कहा, ‘‘मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोड़ा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना.’’

वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे. वे सब हौस्पिटल आ गए. विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे. सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौड़ने लगा. पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फिर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

साफसुथरे कमरे में एक ओर सुजाता के पढ़नेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं. अब तक प्रकाशित 2 कहानी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे. सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढ़ती चली गईं.

एक जगह लिखा था, ‘‘मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं. कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे. मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?’’

एक पन्ने पर लिखा था, ‘‘आज फिर कहानी वापस आ गई. नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेड़बुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोड़ा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोड़ी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती.’’

आगे लिखा था, ‘‘कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंग्यबाणों की चोट सह नहीं पाता,

मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछूं, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भी अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं, पर कुछ कह नहीं सकते. उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढ़ायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद. कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता. बस तुम ही समझौता कर लो. मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीड़ा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘मेरी एक भी कहानी मांजी ने नहीं पढ़ी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढ़ी होती.’’

वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पड़ी थी.

वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, ‘‘हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खड़ी रह जाती हूं आज भी. मां की दृष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य.’’

पढ़तेपढ़ते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा. फिर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी. आज यह मुकदमा उन के

मन की अदालत में आया और उन्हें फैसला सुनाना है. भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को.

वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड़ पड़ा. बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा.

हम तुम कुछ और बनेंगे

बगल के कमरे से अब फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी. कुछ देर पहले तक उन की आवाजें लगभग स्पष्ट आ रही थीं. बात कुछ ऐसी भी नहीं थी. फिर दोनों इतने ठहाके क्योंकर लगा रहे? जाने क्या चल रहा है दोनों के बीच. वार्त्तालाप और ठहाकों का सामंजस्य उस की सोच के परे जा रहा था. उफ, तीर से चुभ रहे हैं, बिलकुल निशाना बैठा कर नश्तर चुभो रही है उन की हंसी. रमण का मन किया कि वह कोने वाले कमरे में चला जाए और दरवाजा बंद कर तेज संगीत चला दुनिया की सारी आवाजों से खुद को काट ले. परंतु एक कीड़ा था जो कुलबुला रहा था, काट रहा था, हृदय क्षतविक्षत कर भेद रहा था, पर कदमों में बेडि़यां भी उसी ने डाल रखी थीं. वह कीड़ा बारबार विवश कर रहा था कि वह ध्यान से सुने कि बगल के कमरे से क्या आवाजें आ रही हैं:

‘‘जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी,

खुशियों की कलियां झूमेंगी,

झूलेंगी, फूलेंगी,

जीवन की बगिया…’’ काजल इन पंक्तियों को गुनगुना रही थी.

‘रोहन को अब सीटियां बजाने की क्या जरूरत है इस पर? बेशर्म कहीं का,’ सोफे पर अधलेटे रमण ने सोचा. उस का सर्वांग सुलग रहा था. अब जाने उस ने क्या कहा जो काजल को इतनी हंसी आ रही है. रमण अनुमान लगाने की कोशिश कर ही रहा था कि रोहन के ठहाकों ने उस के सब्र के पैमाने को छलका ही दिया. रमण ने कुशन को गुस्से से पटका और सोफे से उठ खड़ा हुआ.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? कितनी देर से तुम दोनों की खीखी सुन रहा हूं. आदमी अपने घर में भी कुछ पल चैनसुकून से नहीं रह सकता है,’’ रमण के गुस्से ने मानो खौलते दूध में नीबू निचोड़ दिया.

रोहन, सौरीसौरी बोलता हुआ उठ कर चला गया. पर काजल अभी भी कुछ गुनगुना रही थी. रोहन के जाने के बाद काजल का गुनगुनाना उस की रूह को मानो ठंडक पहुंचाने लगा. उस ने भरपूर नजरों से काजल को देखा. 7वां महीना लग गया है. इतनी खूबसूरत उस ने अपनी ब्याहता को पहले कभी नहीं देखा था. गालों पर एक हलकी सी ललाई और गोलाई प्रत्यक्ष परिलक्षित थी. रंगत निखर कर एक सुनहरी आभा से मानो आलोकित हो दिल को रूहानी सुकून पहुंचा रही थी. सदा की दुबलीपतली छरहरी काजल आज अंग भर जाने के पश्चात अपूर्व व्यक्तित्व की स्वामिनी लग रही थी.

कोई स्त्री गर्भावस्था में ही शायद सर्वाधिक रूपवती होती है. रोमरोम से छलकती मातृत्व से परिपूर्ण सुंदरता अतुलनीय है. रमण अपने दोनों चक्षुओं सहित सभी ज्ञानेंद्रियों से अपनी ही बीवी के इस अद्भुत नवरूप का रसास्वादन कर ही रहा था कि रोहन फिर आ गया और रमण हकीकत की विकृत सचाई से आंखें चुराता हुआ झट कमरे से निकल गया.

रोहन के हाथ में विभिन्न फलों को काट कर बनाया गया फ्रूट सलाद था.

इस बार रमण सच में कोने वाले कमरे में चला गया और तेज संगीत बजा वहीं पलंग पर लेट गया. म्यूजिक भले ही कानफोड़ू हो गया, परंतु उस कमरे से आती फुसफुसाहट को रोकने में अभी भी असमर्थ ही था. रोहन की 1-1 सीटी इस संगीत को मध्यम किए जा रही थी, साथ ही साथ बीचबीच में काजल की दबीदबी खिलखिलाहट भी. ऐसा लग रहा था कि दोनों कर्ण मार्ग से प्रवेश कर उस के मानस को क्षतविक्षत कर के ही दम लेंगे.

इसी बीच स्मृति कपाट पर विगत की दस्तक शुरू हो गई. इस नवआगंतुक ने मानो उस की सुधबुध को ही हर लिया. बगल के कमरे की फुसफुसाहट, तेज संगीत और अब स्मृतियों की थाप. इस स्वर मिश्रण ने उसे आभास दिला दिया कि शायद जहन्नुम यही है.

सच इन दिनों उसे आभास होने लगा है कि वह मानो जहन्नुम की अग्नि में झुलस रहा हो. जिस उत्कंठा से उस ने इस खुशी को पाने की तमन्ना की थी, वह इस अग्नि कुंड से हो कर निकलेगी, यह उस के लिए कल्पनातीत थी.

‘कुछ महीने पहले तक सब कितना मधुर था,’ रमण ने सोचा, ‘पर कैसे कहा जाए कि मधुर था तब तो कुछ और ही शूल चुभ रहे थे,’ चेतना की बखिया उधड़ने लगीं.

विवाह के 10 वर्ष होने को थे. शुरू के वर्षों में नौकरी, कैरियर, पदोन्नति और घर की जिम्मेदारियों के चलते रमण और काजल परिवार बढ़ाने की अपनी योजना को टालते रहे. आदर्श जोड़ी रही है दोनों की. कितना दबाव था सब का कि उन के बच्चे होने चाहिए. काजल के मातापिता, रमण के मातापिता, नातेरिश्तेदार यहां तक कि दोस्त भी टोकने लगे थे. रमण के सासससुर उस की शादी की 7वीं वर्षगांठ परआए थे.

‘‘तुम लोगों ने बड़ा ही अच्छा आयोजन किया अपनी 7वीं वर्षगांठ पर. इस से पहले तो तुम लोग वर्षगांठ मनाने के ही विरुद्ध होते थे. बहुत खुशी हो रही है.’’

रमण के ससुरजी ने ऐसा कहा तो काजल झट से बोल पड़ी, ‘‘हां पापा, इस बार बात ही कुछ ऐसी थी. मेरे देवर ने अपनी पढ़ाई बहुत हद तक पूरी कर ली है. अपने आगे की पढ़ाई का खर्च अब वह खुद वहन कर सकता है. मेरा देवर डाक्टर बन गया, हमारी तपस्या सफल हुई. वर्षगांठ तो बस एक बहाना है अपनी खुशियों को सैलिब्रेट करने का.’’

‘‘बहनजी, अब आप ही रमण और काजल को समझाएं कि ये जल्दी से हमें खुशखबरी सुनाएं. मेरी तो आंखें तरस गई हैं कि कोई शिशु मेरे आंगन में खेले. ऐसा न हो कि कहीं देर हो जाए,’’ रमण की मां ने अपनी समधिन से कहा.

‘‘हां बहनजी, आप सही कह रही हैं. हर चीज का एक वक्त होता है, जो सही वक्त पर पूरी हो जानी चाहिए. हम भी तो बूढ़े हो चले हैं,’’ रमण की सास ने कहा.

कुछ ही महीनों में काजल को यह भान होने लगा कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. फिर शुरू हुआ जांचरिपोर्ट का अंतहीन सिलसिला. जब तक चाह नहीं थी तब तक इतनी बेसब्री और संवेदनाएं भी जाग्रत नहीं थीं. अब जब असफलता और अनचाहे परिणाम मिलने लगे तो दोनों की बच्चे के प्रति उत्कंठा भी उतनी ही तीव्र हो गई. घर के बुजुर्गों की आशंकाएं मूर्त हो रही थीं. रमण की प्रजनन क्षमता ही संदेह के दायरे में आ गई थी. किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हर तरह से स्वस्थ दिखने वाले और स्वस्थ जीवनशैली जीने वाले रमण को यह समस्या होगी.

‘‘अब जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, तो हर चीज का समाधान है. हम किसी अच्छे क्लिनिक या अस्पताल से बात करने की सोच रहे हैं, जहां से शुक्राणु ले कर मेरे गर्भ में निषेचित किया जाएगा,’’ पूरे परिवार के सामने काजल ने रमण के हाथ को थामे हुए रहस्योद्घाटन किया.

‘‘आप कहीं और जाने की क्यों सोच रहे हैं? मेरे ही हौस्पिटल में कृत्रिम शुक्राणु निषेचन का अच्छा डिपार्टमैंट है. मैं संबंधित डाक्टर से बात कर लूंगा. सब अच्छी तरह निष्पादित हो जाएगा,’’ रोहन ने कहा.

फिर तो दोनों के मातापिता सिर जोड़े इस समस्या के निदान में जुट गए. वहीं काजल और रमण ने बालकनी से नीचे पार्क में खेलते छोटे बच्चों को देख ख्वाबों का एक लिहाफ बुन लिया.

उन दिनों काजल उस का हाथ मानो एक क्षण को भी नहीं छोड़ती थी. रमण को उस ने यह एहसास ही नहीं होने दिया कि कमी उस में है. दोनों ने इस आती रुकावट को पार करने हेतु जमीनआसमान एक कर दिया. दोनों दो शरीर एक जान हो गए थे.

‘‘लेकिन…पर…’’ अपनी सास की बनतीबिगड़ती माथे की लकीरों को काजल भांप रही थी.

‘‘उस तरीके से जन्मा बच्चा क्या पूरी तरह स्वस्थ होगा?’’ रमण के पिताजी ने पूछा था.

‘‘फिर जाने किस कुल या गोत्र का होगा वह?’’ रमण की सास ने बुझी वाणी में कहा.

‘‘देर तक एक लंबी चुप्पी छाई रही. जब चुप्पी के नुकीले नख रक्तवाहिनियों से खून टपकाने की हद तक पहुंच गए तो रमण ने ही चुप्पी तोड़ी, हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हम चाहते तो किसी को कुछ नहीं बताते पर आप सब को जानने का हक है.’’

‘‘एक रास्ता है. यदि घर का ही कोई स्वस्थ पुरुष अपने शुक्राणु दान करे इस हेतु तो वह अनजाना कुलपरिवार की भांति नहीं रहेगा,’’ काजल के पिताजी ने कहा.

‘‘आप सब निश्चिंत रहें, बहुत लोग इस विधि से बच्चे प्राप्त कर रहे हैं. हर नए आविष्कार को संशय और अविश्वास की दृष्टि से देखा ही जाता है. मैं खुद ध्यान रखूंगा कि सब अच्छे से संपन्न हो,’’ रोहन के इस आश्वासन ने उन्हें फौरी तौर पर थोड़ी राहत दे दी.

आखिर वर्षों बाद वह दिन आया जब काजल के गर्भवती होने की डाक्टर ने पुष्टि की. काजल ने अपनी नौकरी से अनिश्चितकालीन छुट्टी ले ली. एक बच्चे की आहट से परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई. आंगन में घुटनों के बल चलते शिशु की कल्पना से ओतप्रोत हरेक सदस्य अपनी तरह से खुशियां जाहिर कर रहा था. अचानक घर में काजल सब से महत्त्वपूर्ण हो गई. आखिर क्यों न होती? आती खुशियों को तो उसी ने अपने में सहेज रखा था.

रमण देखता उस की प्रिया उस से ज्यादा उस के मातापिता के साथ वक्त गुजार रही है. आजकल उस के सासससुर भी जल्दीजल्दी आते. रमण भी एक विजयी भाव से हर जाते पल को महसूस कर रहा था. पापापापा सुनने को बेचैन उस के दिल को कुछ ही दिनों में सुकून जो मिलने वाला था.

सब ठीक चल रहा था. डाक्टर हर चैकअप के बाद संतुष्टि जाहिर करते. माह दर माह बीत रहे थे. इस दौरान रमण महसूस कर रहा था कि आजकल रोहन भी कुछ ज्यादा ही जल्दीजल्दी आने लगा है. जल्दी आना तो तब भी चलता, आखिर उस का भी घर है, ऊपर से डाक्टर. सब को उस की जरूरत रहती. कभी मां को, कभी पिताजी को. बूढ़े जो हो चले थे. पर देखता जब रोहन आता, वह काजल की कुछ अधिक ही देखभाल करता. यह बात रमण को अब चुभने लगी थी. शक का बुलबुला उस के मानस में आकार पाने लगा था कि कहीं यह वीर्यदान रोहन ने तो नहीं किया है?

हालांकि उस के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं था पर जब कमी खुद में होती है तो शायद ऐसे विचार उठने स्वाभाविक हैं.

रोहन को देखते ही उसे अपनी कमी और बड़ेबड़े स्पष्ट अक्षरों में परिलक्षित होने लगती. रोहन का काजल के साथ वक्त गुजारना उसे बड़ा ही नागवार गुजरता. धीरेधीरे उसे महसूस हो रहा था कि जब तक वह कुछ करने की सोचता है काजल के लिए, रोहन तब तक वह कर गुजरता है. रोहन सहित घर के सभी सदस्य जब आपस में हंसीमजाक कर रहे होते, रमण कोई न कोई बहाना बना वहां से खिसक लेता. धीरेधीरे रमण अपने पलकपांवड़े समेटने लगा जो बिछा रखे थे नव अंकुरण के लिए. एक अजीब सी विरक्ति हो चली उसे जिंदगी से. रमण खुद को बिलकुल अनचाहा सा महसूस कर रहा था. काजल बुलाती रह जाती. वह उस के पास नहीं जाता.

रोहन और काजल की घनिष्ठता उसे बेहद नागवार गुजर रही थी. रमण सोचता, ‘यदि बच्चे का पिता रोहन ही है तो मैं क्यों दालभात में मूसलचंद बनूं?’

इस सोच ने उस की दुनिया पलट दी थी. वह अपना ज्यादा वक्त दफ्तर में गुजारता. कभीकभी तो टूअर का बहाना कर कईकई दिनों तक घर भी नहीं आता था. गर्भावस्था के आखिर के दिन बड़े ही तकलीफदेह थे. काजल को बैठानाउठाना सब रोहन करता. रिश्ते बेहद उलझ गए थे. सिरा अदृश्य था और उलझनों का मकड़जाल पूरे शबाब पर. रमण को याद आता, जब उस की शादी हुई थी तब रोहन छोटा ही था. काजल को भाभी मां कहता था. काजल कितनी फिक्रमंद रहती थी उस की पढ़ाई के लिए.

‘छि: सब गडमड हो गया… इस से अच्छा बेऔलाद रहता.’ बेसिरपैर के खयालात रमण के सहभागी बन उस की मतिभ्रष्ट किए जा रहे थे. तभी रोहन की आवाज आई, ‘‘भैया जल्दी आइए भाभी की तबीयत खराब हो रही है. हौस्पिटल ले जाना होगा तुरंत.’’

‘‘तुम ले जाओ… मैं भला जा कर क्या करूंगा. कोई डाक्टर तो हूं नहीं. मुझे आज ही 15 दिनों के लिए हैदराबाद जाना है,’’ रमण ने उचटती हुई आवाज में कहा.

काजल को लग रहा था कि रमण की यह उदासीनता उस के अपराधभाव के कारण है कि वह होने वाले बच्चे का जैविक पिता नहीं है. डाक्टर ने पहले ही काजल को सचेत कर दिया था कि बहुत से पिता इस तरह का व्यवहार करते हैं और नकारात्मक रवैया अपनाते हैं. उस ने जानबूझ कर बखेड़ा नहीं खड़ा किया.

करीब 10 दिनों के बाद काजल भरी गोद वापस आई. इस बीच रमण एक बार भी हौस्पिटल नहीं गया. 15वें दिन वापस आया था.

मां से उसे पता चला. पहले दिन तो बच्चे को छुआ भी नहीं. काजल से बेहतर उस के मनोभावों को कौन समझता पर उस ने भी शायद अब वही रुख इख्तियार कर लिया था जो रमण ने. उस दिन उसी कोने वाले कमरे में तेज संगीत को चीरती एक मधुर सी रुनझुन संगीतमय लहरी रमण को बेचैन किए जा रही थी.

‘हां, यह तो बच्चे की आवाज है,’ रमण ने कानफोड़ू म्यूजिक औफ किया और ध्यानमग्न हो शिशु की स्वरलहरियों को सुनने लगा. जाने लड़का है या लड़की? उफ कोई चुप क्यों नहीं करा रहा. मन उद्वेलित होने लगा. एक क्षण को चुप्पी छाई फिर रुदन…

रमण कमरे में चहलकदमी करने लगा. अब तो लग रहा था जैसे बच्चे का कंठ सूख रहा हो. इस आरोहअवरोह ने शीत शिला को धीमी आंच पर पिघलाना आरंभ कर दिया. मां भी न जाने क्यों उन्हें छोड़ कर चली गईं. अभी कुछ दिन तो रहना चाहिए था.

इसी बीच उस का मोबाइल बजने लगा. जाने कौन है. नया नंबर है… सोचते उस ने कान से लगाया.

‘‘भैया, मैं रोहन बोल रहा हूं, प्लीज, फोन मत काटिएगा. मैं आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया आ गया हूं. यहां के एक अस्पताल में मुझे काम मिल गया है. साथ ही मैं कुछ कोर्स भी करूंगा. आप और भाभी मां ने जीवन में मेरे लिए बहुत कुछ किया है. भैया, पिछले कुछ महीनों में भाभी मां बेहद मानसिक संत्रास से गुजरी हैं. आप की बेरुखी उन्हें जीने नहीं दे रही. छोटा मुंह बड़ी बात हो जाएगी पर मैं कहना चाहूंगा कि आप ने भाभी मां को उस वक्त छोड़ दिया जब उन को सर्वाधिक आप की जरूरत थी,’’ इतना कह रोहन फूटफूट कर रोने लगा. एक लंबी सी चुप्पी पसरी रही कुछ क्षण रिसीवर के दोनों तरफ…

‘‘कितना बड़ा और समझदार हो गया है रोहन. मैं ने ही खुद को अदृश्य उलझनों और विकारों में कैद कर लिया था.’’

रमण शायद कुछ और भी कहता कि तभी रोहन बोल पड़ा, ‘‘भैया बच्चे क्यों रो रहे हैं? मुझे उन के रोने की आवाजें आ रही हैं.’’

‘‘बच्चे क्या जुड़वा हैं?’’ रमण उछल पड़ा और दौड़ पड़ा उन की तरफ. 2 नर्मनर्म गुलाबी रुई के फाहे हाथपैर फेंकते समवेत स्वर में आसमान सिर पर उठाए थे.

‘‘धन्यवाद रोहन, धन्यवाद भाई. घर जल्दीजल्दी आते रहना,’’ कह उस ने यह सोचते हुए बच्चों को छाती से लगा लिया कि क्या फर्क पड़ता है कि बच्चे रोहन के स्पर्म से पैदा हुए हैं या किसी और के. अब ये बच्चे उस के हैं. वही उन का पिता है. रोहन के होते तो शायद वह उन्हें छोड़ कर नहीं जाता. यह तसल्ली कम नही है.

बड़बोला: विपुल से आखिर क्यों परेशान थे लोग

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