खाली हाथ : जातिवाद के चलते जब प्रेमी अनुरोध पहुंचा पागलखाने

आगरापूरी दुनिया में ‘ताजमहल के शहर’ के नाम से मशहूर है. इसी शहर में स्थित है मानसिक रोगियों के उपचार के लिए मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय. इस संस्थान को कई भारतीय हिंदी फिल्मों में प्रमुखता से दिखाया गया है, हालांकि सच्चाई यह है कि न जाने कितनी भयानक और दुखद कहानियां दफन हैं इस की दीवारों में. आरोही को इस संस्थान में आए 2 महीने ही हुए थे. वह मनोचिकित्सक थी. इस के पहले वह कई निजी अस्पतालों में काम कर चुकी थी. अपनी काबिलीयत और मेहनत के बल पर उस का चयन सरकारी अस्पताल में हो गया था. उस से ज्यादा उस का परिवार इस बात से बहुत खुश था. वैसे भी भारत में आज भी खासकर मध्य वर्ग में सरकारी नौकरी को सफलता का सर्टिफिकेट माना जाता है. आरोही अपना खुद का नर्सिंगहोम खोलना चाहती थी. इस के लिए सरकारी संस्थान का अनुभव होना फायदेमंद रहता है. इसी वजह से वह अपनी मोटी सैलरी वाली नौकरी छोड़ कर यहां आ गई थी.

वैसे आरोही के घर से दूर आने की एक वजह और भी थी. वह विवाह नहीं करना चाहती थी और यह बात उस का परिवार समझने को तैयार नहीं था. यहां आने के बाद भी रोज उस की मां लड़कों की नई लिस्ट सुनाने के लिए फोन कर देती थीं. जब आरोही विवाह करना चाहती थी तब तो जातबिरादरी की दीवार खड़ी कर दी गई थी और अब जब उस ने जीवन के 35 वसंत देख लिए और उस के छोटे भाई ने विधर्मी लड़की से विवाह कर लिया तो वही लोग उसे किसी से भी विवाह कर लेने की आजादी दे रहे हैं. समय के साथ लोगों की प्राथमिकता भी बदल जाती है. आरोही उन्हें कैसे समझाती कि-

‘सूखे फूलों से खुशबू नहीं आती, किताबों में बंद याद बन रह जाते हैं’ या ‘नींद खुलने पर सपने भी भाप बन उड़ जाते हैं.’

‘‘मैडम,’’

‘‘अरे लता, आओ.’’

‘‘आप कुछ कर रही हैं तो मैं बाद में आ जाती हूं.’’

आरोही ने तुरंत अपनी डायरी बंद कर दी और बोली, ‘‘नहींनहीं कुछ नहीं. तुम बताओ क्या बात है?’’

‘‘216 नंबर बहुत देर से रो रहा है. किसी की भी बात नहीं सुन रहा. आज सिस्टर तबस्सुम भी छुट्टी पर हैं इसलिए…’’

‘‘216 नंबर… यह कैसा नाम है?’’

‘‘वह… मेरा मतलब है बैड नंबर 216.’’

‘‘अच्छा… चलो देखती हूं.’’

चलतेचलते ही आरोही ने जानकारी के लिए पूछ लिया, ‘‘कौन है?’’

‘‘एक प्रोफैसर हैं. बहुत ही प्यारी कविताएं सुनाते हैं. बातें भी कविताओं में ही करते हैं. वैसे तो बहुत शांत हैं, परेशान भी ज्यादा नहीं करते हैं, पर कभीकभी ऐसे ही रोने लगते हैं.’’

‘‘सुनने में तो बहुत इंटरैस्टिंग कैरेक्टर लग रहे हैं.’’

कमरे में दाखिल होते ही आरोही ने देखा कोई 35-40 वर्ष का पुरुष बिस्तर पर अधलेटा रोए जा रहा था.

‘‘सुनो तुम…’’

‘‘आप रुकिए मैडम, मैं बोलती हूं…’’

‘‘हां ठीक है… तुम बोलो.’’

‘‘अनुरोध… रोना बंद करो. देखो मैडम तुम से मिलने आई हैं.’’

इस नाम के उच्चारण मात्र से आरोही परेशान हो गई थी. मगर जब वह पलटा तो सफेद काली और घनी दाढ़ी के बीच भी आरोही ने अनुरोध को पहचान लिया. उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह चेतनाशून्य हो कर वहीं गिर गई. होश आने पर वह अपने क्वार्टर में थी. उस के आसपास हौस्पिटल का स्टाफ खड़ा था. सीनियर डाक्टर भी थे.

‘‘तुम्हें क्या हो गया था आरोही?’’ डाक्टर रमा ने पूछा.

‘‘अब कैसा फील कर रही हो?’’ डाक्टर सुधीर के स्वर में भी चिंता झलक रही थी.

‘‘हां मैडम, मैं तो डर ही गई थी… आप को बेहोश होता देख वह पेशैंट भी अचानक चुप हो गया था.’’

‘‘मुझे माफ करना लता और आप सब भी, मेरी वजह से परेशान हो गए…’’

‘‘डोंट बी सिली आरोही. तुम अब

आराम करो हम सब बाद में आते हैं,’’ डाक्टर सुधीर बोले.

‘‘जी मैडम, और किसी चीज की जरूरत हो तो आप फोन कर देना.’’

उन के जाने बाद आरोही ने जितना सोने की कोशिश की उतना ही वह समय उस के सामने जीवंत हो गया, जब आरोही और अनुरोध साथ थे. आरोही और अनुरोध बचपन से साथ थे. स्कूल से कालेज का सफर दोनों ने साथ तय किया था. कालेज में भी उन का विषय एक था- मनोविज्ञान. इस दौरान उन्हें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया, यह वे स्वयं नहीं समझ पाए थे. घंटों बैठ कर भविष्य के सपने देखा करते थे. देशविदेश पर चर्चा करते थे. समाज की कुरीतियों को जड़ से मिटाने की बात करते थे. मगर जब स्वयं के लिए लड़ने का समय आया, सामाजिक आडंबर के सामने उन का प्यार हार गया. एक दलित जाति का युवक ब्राह्मण की बेटी से विवाह का सपना भी कैसे देख सकता था. अपने प्रेम के लिए लड़ नहीं पाए थे दोनों और अलग हो गए थे.

आरोही ने तो विवाह नहीं किया, परंतु 4-5 साल के बाद अनुरोध के विवाह की खबर उस ने सुनी थी. उस विवाह की चर्चा भी खूब चली थी उस के घर में. सब ने चाहा था कि आरोही को भी शादी के लिए राजी कर लिया जाए, परंतु वे सफल नहीं हो पाए थे. आज इतने सालों बाद अनुरोध को इस रूप में देख कर स्तब्ध रह गई थी वह. अगले दिन सुबह ही वह दोबारा अनुरोध से मिलने उस के कमरे में गई.

आज अनुरोध शांत था और कुछ लिख भी रहा था. हौस्पिटल की तरफ से उस की इच्छा का सम्मान करते हुए उसे लिखने के लिए कागज और कलम दे दी गई थी. आज उस के चेहरे से दाढ़ी भी गायब थी और बाल भी छोटे हो गए थे.

‘‘अनु,’’ आरोही ने जानबूझ कर उसे उस नाम से पुकारा जिस नाम से उसे बुलाया करती थी. उसे लगा शायद अनुरोध उसे पहचान ले.

उस ने एक नजर उठा कर आरोही को देखा और फिर वापस अपने काम में लग गया. पलभर को उन की नजरें मिली अवश्य थीं पर उन नजरों में अपने लिए अपरिचित भाव देख कर तड़प गई थी आरोही, मगर उस ने दोबारा कोशिश की, ‘‘क्या लिख रहे हो तुम?’’

उस की तरफ बिना देखे ही वह बोला-

‘सपने टूट जाते हैं, तुम सपनों में आया न करो, मुझे भूल जाओ और मुझे भी याद आया न करो.’

अनुरोध की दयनीय दशा और उस की अपरिचित नजरों को और नहीं झेल पाई आरोही और थोड़ा चैक करने के बाद कमरे से बाहर निकल गई. मगर वह स्वयं को संभाल नहीं पाई और बाहर आते ही रो पड़ी. अचानक पीछे से किसी ने उस के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘आप अनुरोध को जानती हैं मैडम?’’

पीछे पलटने पर आरोही ने पहली बार देखा सिस्टर तबस्सुम को, जिन के बारे में वह पहले सुन चुकी थी. वे इकलौती थीं जिन की बात अनुरोध मानता भी था और उन से ढेर सारी बातें भी करता था. कई सालों से वह सिस्टर तबस्सुम से काफी हिलमिल गया था.

‘‘मैं… मैं और अनुरोध…’’

‘‘शायद आप वही परी हैं जिस का इंतजार यह पगला पिछले कई सालों से कर रहा है. पिछले कई सालों में आज पहली बार मुसकराते हुए देखा मैं ने अनुरोध को. चलिए मैडम आप के कैबिन में चल कर बात करते हैं.’’

दोनों कैबिन में आ गईं. तबस्सुम का अनुरोध के प्रति अनुराग आरोही देख पा रही थी.

‘‘अनुरोध… ऐसा नहीं था. उस की ऐसी हालत कैसे हुई? क्या आप को कुछ पता है?’’ सिर हिला कर सिस्टर ने अनुरोध की दारुण कहानी शुरू की…

‘‘अनुरोध का चयन मेरठ के कालेज में मनोविज्ञान के व्याख्याता के पद पर हुआ था. इसी दौरान वह एक शादी में हिस्सा लेने मोदी नगर गया था, परंतु उसे यह नहीं पता था कि वह शादी स्वयं उसी की थी.

‘‘उस के मातापिता ने उस के लगातार मना करने से तंग आ कर उस का विवाह उस की जानकारी के बिना ही तय कर दिया था. शादी में बहुत कम लोगों को ही बुलाया गया था. मोदी नगर पहुंचने पर उस के पास विवाह करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. अपने मातापिता के किए की सजा वह एक मासूम लड़की को नहीं दे सकता था और उस का विवाह विनोदिनी से हो गया.

‘‘विवाह के कुछ महीनों बाद ही विनोदिनी ने पढ़ाई के प्रति अपने लगाव को अनुरोध के सामने व्यक्त किया. अनुरोध सदा से स्त्री शिक्षा तथा स्त्री सशक्तीकरण का प्रबल समर्थक रहा था. खासकर उस के समुदाय में तो स्त्री शिक्षा की स्थिति काफी दयनीय थी. इसीलिए जब उस ने अपनी पत्नी के शिक्षा के प्रति लगाव को देखा तो अभिभूत हो गया.

‘‘विनोदिनी कुशाग्रबुद्धि तो नहीं थी, परंतु परिश्रमी अवश्य थी और उस की इच्छाशक्ति भी प्रबल थी. उस के मातापिता बहू की पढ़ाई के पक्षधर नहीं थे. विनोदिनी के मातापिता भी उसे आगे नहीं पढ़ाना चाहते थे, परंतु सब के खिलाफ जा कर अनुरोध ने उस का दाखिला अपने ही कालेज के इतिहास विभाग में करा दिया. विनोदिनी को हर तरह का सहयोग दे रहा था अनुरोध.

‘‘शादी के 1 साल बाद ही अनुरोध की मां ने विनोदिनी पर बच्चे के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया, परंतु यहां भी अनुरोध अपनी पत्नी के साथ खड़ा रहा. जब तक विनोदिनी की ग्रैजुएशन पूरी नहीं हुई, उन्होंने बच्चे के बारे में सोचा तक नहीं.

‘‘विनोदिनी प्रथम श्रेणी में पास हुई और उस के बाद उस ने पीसीएस में बैठने की अपनी इच्छा अनुरोध को बताई. उसे भला क्या ऐतराज हो सकता था. अनुरोध ने उस का दाखिला शहर के एक बड़े कोचिंग सैंटर में करा दिया. घर वालों का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया था. पहले 2 प्रयास में सफल नहीं हो पाई थी विनोदिनी.

‘‘मगर अनुरोध उसे सदा प्रोत्साहित करता रहता. इसी दौरान विनोदिनी 1 बेटे की मां भी बन गई. परंतु बच्चे को दूध पिलाने के अलावा बच्चे के सारे काम अनुरोध स्वयं करता था. घर के काम और जब वह कालेज जाता था तब बच्चे को संभालने के लिए उस ने एक आया रख ली थी. कभीकभी उस की मां भी गांव से आ जाती थीं. बेटे के इस फैसले से सहमत तो वे भी नहीं थीं, परंतु पोते से उन्हें बहुत लगाव था.

‘‘चौथे प्रयास के दौरान तो विनोदिनी को जमीन पर पैर तक रखने नहीं दिया था अनुरोध ने. अनुरोध की तपस्या विफल नहीं हुई थी. विनोदिनी का चयन पीसीएस में डीएसपी के पद पर हो गया था. वह ट्रेनिंग के लिए मुरादाबाद चली गई. उस समय उन का बेटा अमन मात्र 4 साल का था.

‘‘अनरोध ने आर्थिक और मानसिक दोनों तरह से अपना सहयोग विनोदिनी को दिया. लोगों की बातों से न स्वयं आहत हुआ और न अपनी पत्नी को होने दिया. उस ने विनोदिनी के लिए वह किया जो उस के स्वयं के मातापिता नहीं कर पाए. सही मानों में फैमिनिस्ट था अनुरोध. स्त्रीपुरुष के समान अधिकारों का प्रबल समर्थक.

‘‘जब विनोदिनी की पहली पोस्टिंग अलीगढ़ हुई तो लगा कि उस की समस्याओं का अंत हुआ. अब दोनों साथ रह कर अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ेंगे, परंतु वह अंत नहीं आरंभ था अनुरोध की अंतहीन पीड़ा का.

‘‘विनोदिनी के जाने के बाद अनुरोध अपना तबादला अलीगढ़ कराने में लग गया. अमन को भी वह अपने साथ ही ले गई थी. अनुरोध को भी यही सही लगा था कि बच्चा अब कुछ दिन मां के साथ रहे और फिर उस का तबादला भी 6 महीने में अलीगढ़ होने ही वाला था. सबकुछ तय कर रखा था उस ने परंतु नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था उस के लिए.

‘‘विनोदिनी का व्यवहार समय के साथ बदलता चला गया. पद के घमंड में अब वह अनुरोध का अपमान भी करने लग गई थी. उस ने तो मेरठ आना बंद ही कर दिया था, इसलिए अनुरोध को अपने बेटे से मिलने अलीगढ़ जाना पड़ता था. विनोदिनी के कटु व्यवहार का तो वह सामना कर लेता था, परंतु इस बात ने उसे विचलित कर दिया था कि उन के बीच के झगड़े का विपरीत असर उन के बेटे पर हो रहा था.

अब वह शीघ्र ही मेरठ छोड़ना चाहता था. डेढ़ साल बीत गया था, पर उस का तबादला नहीं हो पा रहा था.

‘‘‘प्रिंसिपल साहब, आखिर यह हो क्या रहा है? 6 महीनों में आने वाली मेरी पोस्टिंग, डेढ़ साल में नहीं आई. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?’

‘‘‘अनुरोध तुम्हें तो पता है सरकारी काम में देर हो ही जाती है.’

‘‘‘जी सर… पर इतनी देर नहीं. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे आप जानबूझ कर ऐसा नहीं होने दे रहे?’

‘‘‘अनुरोध…’

‘‘‘आप मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं सर? क्या हमारा रिश्ता आज का है?’

‘‘‘अनुरोध… कोई है जो जानबूझ कर तुम्हारी पोस्टिंग रोक रहा है.’

‘‘‘कौन?’

‘‘‘तुम्हें तो मैं बहुत समझदार समझता था, जानबूझ कर कब तक आंखें बंद रखोगे?’

‘‘‘क्या मतलब?’

‘‘‘गिरिराज सिंह और विनोदिनी…’

‘‘‘प्रिंसिपल साहब…’ चीख पड़ा अनुरोध.

‘‘अनुरोध के कंधे पर हाथ रख कर प्रिंसिपल साहब बोले,…

‘बेटा, विश्वास करना अच्छी बात है, परंतु अंधविश्वास मूर्खता है. अपनी नींद से जागो.’

‘‘विनोदिनी के बारे में ऐसी बातें अनुरोध ने पहली बार नहीं सुनी थीं, परंतु वह ऐसी सुनीसुनाई बातों पर यकीन नहीं करता था. उसे लगता था कि विनोदिनी बददिमाग, बदतमीज और घमंडी हो सकती है परंतु चरित्रहीन नहीं.

‘‘2 महीने की छुट्टी ले कर जिस दिन वह अलीगढ़ पहुंचा, घर पर ताला लगा था. वहां पर तैनात सिपाही से पता चला कि मैडम नैनीताल घूमने गई हैं. मगर विनोदिनी ने अनुरोध को इस बारे में कुछ नहीं बताया था.

‘‘7 दिन बाद लौटी थी विनोदिनी परंतु अकेले नहीं, उस के साथ गिरिराज सिंह भी था.

‘‘‘कैसा रहा आप का टूर मैडम?’

‘‘‘उसे देख कर दोनों न चौंके न ही शर्मिंदा हुए. बड़ी बेशर्मी से वह आदमी सामने रखे सोफे पर ऐसे बैठ गया जैसे यह उस का ही घर हो.’

‘‘‘तुम कब आए?’

‘‘विनोदिनी की बात अनसुनी कर अनुरोध गिरिराज सिंह से बोला, ‘मुझे अपनी पत्नी से कुछ बात करनी है. आप इसी वक्त यहां से चले जाएं.’

‘‘‘यह कहीं नहीं जाएगा…’

‘‘‘विनोदिनी चुप रहो…’

‘‘मगर उस दिन गिरिराज सिंह नहीं अनुरोध निकाला गया था उस घर से. विनोदिनी ने हाथ तक उठाया था उस पर.

‘‘गिरिराज और विनोदिनी को लगा था कि इस के बाद अनुरोध दोबारा उन के रिश्ते पर आवाज उठाने की गलती नहीं करेगा, परंतु वे गलत थे.

‘‘टूटा जरूर था अनुरोध पर हारा नहीं था. वह जान गया था कि अब इस रिश्ते

में बचाने जैसा कुछ नहीं था. उसे अब केवल अपने अमन की चिंता थी. इसलिए वह कोर्ट में तलाक के साथ अमन की कस्टडी की अर्जी भी दायर करने वाला था. इस बात का पता लगते ही विनोदिनी ने पूरा प्रयास किया कि वह ऐसा न करे. उन के लाख डरानेधमकाने पर भी अनुरोध पीछे नहीं हटा था. एक नेता और अधिकारी का नाम होने के कारण मीडिया भी इस खबर को प्रमुखता से दिखाने वाली है. इस बात का ज्ञान उन दोनों को था.

‘‘गिरिराज सिंह को अपनी कुरसी और विनोदिनी को अपनी नौकरी की चिंता सताने लगी थी. इसीलिए कोर्ट के बाहर समझौता करने के लिए विनोदिनी ने उसे अपने घर बुलाया.

‘‘जब अनुरोध वहां पहुंचा घर का दरवाजा खुला था. घर के बाहर भी कोई नजर नहीं आ रहा था. जब बैल बजाने पर भी कोई नहीं आया तो उस ने विनोदिनी का नाम ले कर पुकारा. थोड़ी देर बाद अंदर से एक पुरुष की आवाज आई, ‘इधर चले आइए अनुरोध बाबू.’

‘‘अनुरोध ने अंदर का दरवाजा खोला तो वहां का नजारा देख कर वह हैरान रह गया. बिस्तर पर विनोदिनी और गिरिराज अर्धनग्न लेटे थे. उसे देख कर भी दोनों ने उठने की कोशिश तक नहीं की.

‘‘‘क्या मुझे अपनी रासलीला देखने बुलाया है आप लोगों ने?’

‘‘‘नहींजी… हा… हा… हा… आप को तो एक फिल्म में काम देने बुलाया है.’

‘‘‘क्या मतलब?’

‘‘‘हर बात जानने की जल्दी रहती है तुम्हें… आज भी नहीं बदले तुम,’ विनोदिनी ने कहा.

‘‘‘मतलब समझाओ भई प्रोफैसर साहब को.’’

‘‘इस से पहले कि अनुरोध कुछ समझ पाता उस के सिर पर किसी ने तेज हथियार से वार किया. जब उसे होश आया उस ने स्वयं को इसी बिस्तर पर निर्वस्त्र पाया. सामने पुलिस खड़ी थी और नीचे जमीन पर विनोदिनी बैठी रो रही थी.

‘‘कोर्ट में यह साबित करना मुश्किल नहीं हुआ कि विनोदिनी के साथ जबरदस्ती हुई है. इतना ही नहीं यह भी साबित किया गया कि अनुरोध एक सैक्सहोलिक है और उस का बेटा तक उस के साथ सुरक्षित नहीं है, क्योंकि अपनी इस भूख के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है. विनोदिनी के शरीर पर मारपीट के निशान भी पाए गए. अनुरोध के मोबाइल पर कई लड़कियों के साथ आपत्तिजनक फोटो भी पाए गए.

‘‘उस पर घरेलू हिंसा व महिलाओं के संरक्षण अधिनियम कानून के अनुसार केस दर्ज किया गया. उस पर बलात्कार का भी मुकदमा दर्ज किया गया. मीडिया ने भी अनुरोध को एक व्यभिचारी पुरुष की तरह दिखाया. सोशल नैटवर्किंग साइट पर तो बाकायदा एक अभियान चला कर उस के लिए फांसी की सजा की मांग की गई. कोर्ट परिसर में कई बार उस के मातापिता के साथ बदसुलूकी भी की गई.

‘‘अनुरोध के मातापिता का महल्ले वालों ने जीना मुश्किल कर दिया था. जिस दिन कोर्ट ने अनुरोध के खिलाफ फैसला सुनाया उस के काफी पहले से उस की मानसिक हालत खराब होनी शुरू हो चुकी थी. लगातार हो रहे मानसिक उत्पीड़न के साथ जेल में हो रहे शारीरिक उत्पीड़न ने उस की यह दशा कर दी थी. फैसला आने के 10 दिन बाद ही अनुरोध के मातापिता ने आत्महत्या कर ली और अनुरोध को यहां भेज दिया गया. एक आदर्शवादी होनहार लड़के और उस के खुशहाल परिवार का ऐसा अंत…’’

कुछ देर की खामोशी के बाद तबस्सुम फिर बोलीं, ‘‘मैडम, मैं मानती हूं कि घरेलू हिंसा का सामना कई महिलाओं को करना पड़ता है. इसीलिए स्त्रियों की रक्षा हेतु इस कानून का गठन किया गया था.

‘‘परंतु घरेलू हिंसा से पीडि़त पुरुषों का क्या? उन पर उन की स्त्रियों द्वारा की गई मानसिक और शारीरिक हिंसा का क्या?

‘‘अगर पुरुष हाथ उठाए तो वह गलत… नामर्द, परंतु जब स्त्री हाथ उठाए तो क्या? हिंसा कोई भी करे, पुरुष अथवा स्त्री, पति अथवा पत्नी, कानून की नजरों में दोनों समान होने चाहिए. जिस तरह पुरुष द्वारा स्त्री पर हाथ उठाना गलत है उसी प्रकार स्त्री द्वारा पुरुष पर हाथ उठाना भी गलत होना चाहिए. परंतु हमारा समाज तुरंत बिना पूरी बात जाने पुरुष को कठघरे में खड़ा कर देता है.

‘‘ताकतवार कानून स्त्री की सुरक्षा के लिए बनाए गए परंतु आजकल विनोदिनी जैसी कई स्त्रियां इस कानून का प्रयोग कर के अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगी हैं.

‘‘वैसे तो कानून से निष्पक्ष रहने की उम्मीद की जाती है, परंतु इस तरह के केस में ऐसा हो नहीं पाता. वैसे भी कानून तथ्यों पर आधारित होता है और आजकल पैसा और रसूख के बल पर तथ्यों को तोड़ना और अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना आम बात हो गई है. जिस के पास पैसा और ताकत है कानून भी उस के साथ है.

‘‘हां, सही कह रही हैं आप तबस्सुम. अनुरोध जैसे मर्द फैमिनिज्म का सच्चा अर्थ जानते हैं. वे जानते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों एकसमान है. न कोई बड़ा, न कोई छोटा. इसलिए गलत करने पर सजा भी एकसमान होनी चाहिए.

‘‘मगर विनोदिनी जैसी कुछ स्त्रियां नारीवाद का गलत चेहरा प्रस्तुत कर रही हैं,’’ लता के अचानक आ जाने से दोनों की बातचीत पर विराम लग गया.

‘‘माफ कीजिएगा वह बैड नंबर 216 को खाना देना था.’’

‘‘अरे हां… तुम चलो मैं आती हूं. चलती हूं मैडम अनुरोध को खाना खिलाने का समय हो गया है.’’

‘‘मैं भी चलती हूं…’’

जब वे दोनों वहां पहुंचीं तो देखा अनुरोध अपने दोनों हाथों को बड़े ध्यान से निहार रहा  था. आरोही उस के पास जा कर बैठ गई. फिर पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो? प्लीज कुछ तो बोलो.’’

कुछ नहीं बोला अनुरोध. उस की तरफ देखा तक नहीं.

सिस्टर तबस्सुम अनुरोध के सिर पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘बोलो बेटा, बताओ… तुम चिंता न करो कुदरत ने चाहा तो अब सब ठीक हो जाएगा.’’

इस बार वह उन की तरफ पलटा और फिर अपनी खाली हथेलियों को उन की तरफ फैलाते हुए बोला-

‘ऐ प्यार को मानने वालो, इजहार करना हमें भी सिखाओ. बंद करें हथेली या खोल लें इसे, खो गई हमारी छाया से हमें भी मिलवाओ…

जब सगी बहन ही बीवी हो

अभी कुछ ही देर पहले ट्रेन लंदन के पैडिंगटन स्टेशन से औक्सफोर्ड रेलवे स्टेशन पर आई थी. सोफिया ने अपना बैग पीठ पर डाला और सूटकेस के साथ कोच से नीचे आई. कुछ

देर प्लेटफौर्म पर इधरउधर देखा फिर दिए गए दिशानिर्देश के अनुसार टैक्सी स्टैंड की ओर

चल पड़ी.

उस दिन औक्सफौर्ड में मूसलाधार बारिश हो रही थी. टैक्सी स्टैंड पर पहले से ही काफी लोग टैक्सी की कतार में खड़े थे. औक्सफोर्ड

एक छोटा शहर है जो अपनी यूनिवर्सिटी के लिए दुनियाभर में जाना जाता है. वहां स्टूडैंट्स पैदल

या साइकिल से चलते हैं. सोफिया के आगे एक हमउम्र लड़का भी सामान के साथ खड़ा था. उसे लगा कि यह लड़का भी जरूर यूनिवर्सिटी जा

रहा होगा.

करीब 20-30 मिनट पर एक टैक्सी आई. उस ने लड़के से पूछा, ‘‘अगर मैं गलत नहीं तो तुम भी औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी जा रहे हो? हम लोग बहुत देर से खड़े हैं टैक्सी के लिए. अगर तुम्हें एतराज न हो तो हम दोनों टैक्सी शेयर

कर लें.’’

‘‘मु झे कोई एतराज नहीं बशर्ते टैक्सी वाला भी मान जाए,’’ लड़के ने कहा और कुछ पल उसे घूरने लगा.

‘‘क्या हुआ? ऐसे क्यों देख रहे हो? तुम्हें प्रौब्लम है तो रहने दो, मैं टैक्सी का इंतजार कर लूंगी.’’

‘‘सौरी. मु झे कोई प्रौब्लम नहीं होगा. उम्मीद है तुम फेयर शेयर करोगी तो मु झे फायदा ही है . फेयर नहीं शेयर करोगी तब भी मु झे कोई प्रौब्लम नहीं है,’’ बोल कर लड़का मुसकरा पड़ा.

फिर दोनों टैक्सी में सवार हुए. लड़के ने कहा, ‘‘मैं सैंडर हूं. मैं सैंडर सिट्रोएन नीदरलैंड से हूं पर इंग्लिश मेरा विषय रहा है और मैं वहां के इंग्लिश स्पीकिंग क्षेत्र से हूं. बाद में हम लोग स्कौटलैंड चले आए पर अब मेरे पेरैंट्स नहीं हैं.’’

‘‘सौरी टू हियर अबौउट योर पेरैंट्स.  मैं सोफिया डी वैन. शायद मेरी मम्मी भी डच ही थीं पर मु झे किसी और ने गोद लिया था. हम लोग आयरलैंड में सैटल्ड हैं पर मेरी मम्मी भी अब नहीं रही हैं.’’

रास्ते में सोफिया और सैंडर दोनों बातें करते रहे. इसी दौरान उन्हें पता चला कि दोनों को एक ही पते पर जाना था. दोनों ने एक ही अपार्टमैंट में एक रूम का स्टूडियो पहले से ही बुक करा रखा था और वह भी एक ही फ्लोर पर. हालांकि सोफिया का ईस्टर्न विंग में था तो सैंडर का वैस्टर्न विंग में. थोड़ी ही देर में दोनों अपार्टमैंट पहुंच गए. वहां लिफ्ट की सुविधा नहीं थी. उन्हें पहली मंजिल पर जाना था इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई. सीढि़यां चढ़ने के बाद सोफिया पूरब की तरफ मुड़ गई और सैंडर पश्चिम की.

वन रूम स्टूडियो बड़े सलीके से बनाया गया था. अंदर प्रवेश करने पर एक तरफ छोटा बाथरूम और उस के आगे 12?12 फुट का एक कमरा था. इसी कमरे में 12 फुट लंबा एक वार्डरोब था जिसे खोलने पर उसी के अंदर किचन, सिंक और एक स्टोरेज रैक था. किचन के नाम पर एक तरफ इलैक्ट्रिक स्टोव था और दूसरी तरफ नीचे एक छोटा सा फ्रिज. रूम से सटी 4 फुट की बालकनी थी जहां कपड़े सुखाने के लिए एक स्टैंड था. रूम में एक फर्निश्ड सिंगल बैड, 1 छोटी टेबल और 1 चेयर थी. यह छोटा सा स्टूडियो किसी स्टूडैंट के लिए परिपूर्ण था.

2 दिन बाद यूनिवर्सिटी की ओर से नए विद्यार्थियों के लिए एक गाइडेड टूर का प्रबंध था. इस से नए विद्यार्थी को यूनिवर्सिटी की भिन्न विभागों की जानकारी मिलती है. सोफिया और सैंडर दोनों का टूर एक ही दिन था. इस के बाद वीकैंड था और फिर सैमैस्टर की शुरुआत. सैंडर भूगोल में मास्टर करने आया था और सोफिया इंग्लिश में. सैंडर ने बीए स्कौटलैंड में ही पूरी कर ली थी और यहां एमफिल करने आया था जबकि सोफिया को 3 साल की इंग्लिश में बीए और फिर 1 साल का मास्टर कोर्स करना था. दोनों को 4 वर्ष वहां पढ़ना था.

सोफिया और सैंडर दोनों साइकिल से कालेज आतेजाते. अपार्टमैंट के ग्राउंड फ्लोर पर मालिक ने एक कवर्ड साइकिल स्टैंड  बना रखा था. विद्यार्थी अकसर साइकिल से या पैदल चल कर कालेज जाते. यूनिवर्सिटी में दोनों को एकसाथ देख कर अकसर उन के दोस्त कहते कि दोनों के चेहरे कुछ हद तक मिलते हैं. अब सोफिया को भी लगा कि उस के और सैंडर के चेहरे में कुछ समानता है. शायद इसी कारण पहली ही मुलाकात में वह उसे घूरने लगा था. औक्सफोर्ड आए अभी 2 साल ही हुए थे कि सोफिया के पापा का निधन हो गया. वे

पत्नी के निधन के बाद ज्यादा शराब पीने लगे थे. जब तक सोफिया साथ थी उन्हें ज्यादा पीने से रोकती. बेटी के जाने के बाद वे बिलकुल अकेले पड़ गए और अब उन्हें रोकने वाला कोई न था. नतीजतन उन्हें लिवर सिरोसिस हुआ और वे चल बसे.

दुख की इस घड़ी में सैंडर सोफिया के साथ खड़ा रहा और उस का साहस बढ़ाते रहा. दोनों एकदूसरे के और नजदीक हो गए और उन में प्यार का बीज फूट पड़ा. दोनों एकदूसरे को चाहने लगे, एकदूसरे की भावनाओं की इज्जत करते. उन्होंने मिल कर फैसला किया कि फिलहाल हम शादी नहीं करेंगे. अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद और अपने पैरों पर खड़े होने के बाद ही शादी होगी.

करीब 2 वर्ष बाद वह समय भी आ गया जब उन की पढ़ाई पूरी हुई. शादी की 2 शर्तों में से एक पूरी हुई. अब उन्हें नौकरी की तलाश थी. सैंडर के कहने पर सोफिया भी उस के साथ स्कौटलैंड आई. कुछ ही दिनों के बाद सैंडर को एडिनबरा के एक कालेज में ट्यूटर की नौकरी मिल गई.

तब सैंडर ने सोफिया से कहा, ‘‘तुम शादी के बारे में क्या सोच रही हो? क्या हम अब शादी कर सकते हैं?’’

‘‘नहीं, कुछ दिन और इंतजार कर लेते हैं. इस बीच मु झे जौब मिल जाती है तब ठीक है, नहीं तो मैं आयरलैंड चली जाऊंगी. वहां मेरे बहुत कौंटैक्ट्स हैं.’’

‘‘तुम अगर आयरलैंड चली गई तब हमारी शादी का क्या होगा?’’

‘‘मेरी शादी होगी तो तुम्हीं से होगी,

डौंट वरी.’’

‘‘देखो आयरिश लोगों को हमारे यहां सैटल करने के लिए किसी वीजा की जरूरत नहीं है और न ही कोई समयसीमा है इसलिए तुम यहीं रुक जाओ. नौकरी आज नहीं तो कल मिलेगी ही. आयरलैंड जाने का इरादा छोड़ दो.’’

‘‘एक बार जाना तो पड़ेगा. वहां जा कर घर को लंबी अवधि के लिए लीज पर दे दूंगी और जरूरत पड़ी तो बाद में उसे बेच दूंगी.’’

‘‘तुम फिलहाल कुछ दिनों के लिए आयरलैंड जा कर घर को लीज रैंट कर दो.’’

‘‘ठीक है, मैं 1-2 दिन में जाने की कोशिश करती हूं.’’

‘‘सिर्फ तुम नहीं, हम दोनों जाएंगे. मैं भी बहुत दिनों से आयरलैंड जाने की सोच रहा था. ज्यादा तैयारी भी नहीं करनी है. यहां से करीब

1 घंटे की फ्लाइट है. हम लोग 2 दिन बाद वीकैंड में चलते हैं.’’

सोफिया और सैंडर दोनों आयरलैंड के डब्लिन शहर आए. सोफिया का घर काफी बड़ा था. सोफिया ने अपना कुछ सामान गैराज और उस से सटे एक कमरे में शिफ्ट कर दिया. बाकी फर्नीश्ड घर को उस ने लीज पर दे दिया और

कार को भी किराएदार को बेच दिया. दोनों करीब 1 सप्ताह डब्लिन में रहे. इसी दौरान सोफिया को भी नौकरी मिल गई. उसे ईमेल से जौब औफर मिला. उन दोनों की समस्या का समाधान हो गया. दोनों खुशीखुशी एडिनबरा लौट आए.

सोफिया को स्काटलैंड के दूसरे शहर ग्लासगो के एक कालेज में नौकरी मिली. एडिनबरा से ग्लास्गो जाने में ट्रेन या कार दोनों से करीब 1 घंटे का समय लगता था. फिलहाल मजबूरी थी इसलिए सोफिया ने वहां जौइन कर लिया. उस ने एक सैकंड हैंड कार खरीदी और उसी से आनाजाना होता.

अब दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला लिया. 1 महीने बाद दोनों की शादी हुई. दोनों अपने हनीमून के लिए इटली में वेनिस गए. दोनों पहली बार वेनिस आए थे और 1 सप्ताह वहां रुके. इस के बाद रोम और वैटिकन घूमने गए और फिर रोम से वापस स्कौटलैंड लौट आए.

करीब 2 महीने बाद सोफिया ने पति से कहा, ‘‘लगता है घर में नया मेहमान आने वाला है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है, बहुत दिन

हुए कोई गैस्ट नहीं आया हमारे घर और भला आएगा कौन. हम दोनों का कोई निकट संबंधी भी तो नहीं है. अच्छा बताओ कौन आ रहा है, तुम्हारा कोई फ्रैंड?’’

‘‘नहीं, हमारा बहुत नजदीकी संबंधी आने वाला है.’’

‘‘ऐसा कौन निकट संबंधी पैदा हो गया है?’’

‘‘पैदा नहीं हुआ है पर 9 महीने बाद पैदा हो जाएगा. तुम डैड बनने वाले हो.’’

‘‘ओह, व्हाट ए प्लीजैंट सरप्राइज,’’ बोल कर सैंडर ने सोफिया को चूमते हुए गोद में उठा लिया.

‘‘पर तुम्हें इतनी जल्दी क्या पड़ी थी? हम ने सोचा था कि 1-2 साल कुछ मौजमस्ती करने के बाद बच्चे की जिम्मेदारी लेते. खैर, जो हुआ अच्छा ही हुआ.’’

‘‘जल्दी तुम्हें पड़ी थी. मैं ने हनीमून में तुम्हें चेताया था प्रिकौशन लेने को पर तुम माने ही नहीं.’’

‘‘मैं ने यों ही कहा था. बहुत खुशी की बात है बल्कि मैं तो कहूंगा दूसरा बच्चा भी जल्द ही प्लान कर लेंगे ताकि हमारे बच्चे हमारे रिटायरमैंट के पहले वैल सैटल्ड हो जाएं.’’

करीब 3 महीने बाद सैंडर ने सोफिया से कहा, ‘‘मेरे कालेज में इंग्लिश ट्यूटर की वैकेंसी बहुत जल्द निकालने जा रही है. एक ट्यूटर ने रिजाइन कर दिया है. वह लंदन जा रहा है. तुम अपना एक रिज्यूम बना कर मु झे दे दो. जैसे ही नोटिफिकेशन होगा मैं तुम्हारी ऐप्लिकेशन दे दूंगा.’’

करीब 1 महीने के अंदर ही सोफिया को एडिनबरा कालेज से औफर मिला. उस ने ग्लास्गो कालेज से इस्तीफा दे कर एडिनबरा कालेज जौइन करने में कोई देरी नहीं की. अब पतिपत्नी दोनों की नौकरी एक ही शहर और एक ही कालेज में थी. दोनों बहुत खुश थे. सोफिया की डिलिवरी भी निकट थी. उस ने मैटरनिटी लीव ले ली थी.

समय पर उन दोनों को 1 बेटा हुआ. उस का नाम ओलिवर रखा गया. प्रसव के बाद सोफिया करीब 9 महीने तक छुट्टी पर रही. स्कौटलैंड में मैटरनिटी लीव 1 साल तक होती है. इस के अतिरिक्त पिता को भी शिशु के जन्म के बाद 2 सप्ताह की छुट्टी मिलती है. सोफिया और सैंडर दोनों ने मिल कर करीब 1 साल तक ओलिवर की देखभाल स्वयं की. इस के बाद वे ओलिवर को डे केयर में छोड़ कर जाते. 2 साल बाद ओलिवर ईएलसी यानी अर्ली लर्निंग चाइल्ड केयर जाने लगा.

इसी बीच सोफिया एक बार फिर गर्भवती हुई. इस बार उन्हें बेटी हुई ईवा. बेटी होने से दोनों बहुत खुश थे.

सैंडर बोला, ‘‘हमें बेटा और बेटी दोनों मिल गए, अब हम अपनी फैमिली प्लान कर सकते हैं.’’

अब ईवा और ओलिवर दोनों ही अर्ली लर्निंग चाइल्ड केयर जाने लगे थे. समय के साथ उन के बच्चे बड़े होने लगे. सैंडर एक अच्छा सर्फर था. उस ने बहुत दिनों से सर्फिंग नहीं की थी. उस ने सोफिया से कहा, ‘‘अब हमारे बच्चे कुछ बड़े हो चले हैं. बहुत दिन हुए सर्फिंग किए. अगला वीकैंड लौंग वीकैंड है, सोमवार भी औफ है. क्यों न हम पीज बे चलें. ज्यादा दूर भी नहीं 45 मिनट में पहुंच जाएंगे.’’

‘‘थोड़ी बहुत सर्फिंग तो मैं भी कर लेती हूं पर बहुत दिनों से आदत छूट गई है.’’

वीकैंड में सभी पीज बे के लिए निकल पड़े. सैंडर ने सर्फिंग बोर्ड को एक बैग में रखा और उसे अपनी गाड़ी की छत पर सौफ्ट रैक पर बांध लिया. पौने घंटे में ही वे बीच पर थे.

सैंडर सर्फ एक हाथ में बोर्ड लिए था और दूसरे हाथ में फोल्डिंग बीच चेयर. सोफिया ने भी एक हाथ में फोल्डिंग चेयर और दूसरे हाथ से बेटी को पकड़ रखा था. अन्य खानेपीने का सामान सैंडर, सोफिया और ओलिवर के बैग में था.

सैंडर अपने दोनों बच्चों को ले कर समुद्र के पानी में गया. कुछ देर उन के साथ बौल खेलने के बाद उन्हें सोफिया के पास छोड़ कर सर्फिंग बोर्ड ले कर वापस समुद्र में गया. वह करीब 40 मिनट तक लहरों पर सर्फ करता रहा. उस के आने के बाद सोफिया सर्फिंग बोर्ड ले कर जाने लगी. तब सैंडर ने पूछा, ‘‘आर यू श्योर? सर्फ कर सकोगी?’’

‘‘तुम ने मु झे क्या सम झ रखा है? मैं ने कुछ वर्षों से सर्फिंग नहीं की है तो बिलकुल भूल गई हूं. एक बार तैरना या सर्फिंग सीख लेने के बाद कोई इसे भूलता नहीं है,’’ इतना बोल कर सोफिया पानी में चली गई.

सोफिया करीब 20-25 मिनट बाद लौट आई. बीच पर चेंजरूम में जा कर सभी ने फ्रैश वाटर से स्नान कर ड्रैस चेंज की. फिर वापस कार में बैठ कर सब ने खाना खाया और वापस एडिनबरा के लिए चल पड़े. 1 घंटे बाद सभी लोग अपने घर में थे.

समय का कालचक्र अपनी गति से गतिमान था. सैंडर और सोफिया के दोनों बच्चे भी बड़े हो चले थे. दोनों बच्चे स्कूल में थे. दोनों मातापिता से अकसर पूछते, ‘‘न्यू ईयर और क्रिसमस पर सभी बच्चों के घर बहुत गैस्ट आते हैं जिन में उन के ग्रैंड पेरैंट्स भी होते हैं या सभी परिवार के लोग खुद ग्रैंड पेरैंट्स के पास जाते हैं. पूरा सप्ताह साथ रहते हैं. हमारे यहां कोई नहीं आता है न हम लोग  ही ग्रैंड पेरैंट्स के पास जाते हैं.’’

‘‘सौरी, बेटे तुम्हारे ग्रैंड पेरैंट्स इस दुनिया में नहीं रहे. अगर होते तो हम जरूर मिलने जाते या वे लोग ही आते हमारे यहां. तुम्हारे नाना का निधन हमारी शादी के कुछ समय पहले हो गया था. तुम्हारे दादादादी तुम्हारे पापा के बचपन में ही चल बसे थे,’’ सोफिया ने कहा.

औलिवर बोला, ‘‘फिर भी दादादादी और नानानानी कौन थे. उन का अपना घर तो होगा. आप दोनों के सिवा और कोई उन की संतान होगी. वे उन के घर में रहते होंगे.’’

ईवा भी भाई के समर्थन में बोली, ‘‘यस मम्मा. हम लोग उन के बारे में जानना चाहेंगे और अपने पुश्तैनी घर या गांव के बारे में जानना चाहेंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम लोग कुछ और बड़े हो जाओ तब दादाजी का घर देखने चलेंगे.’’

‘‘मम्मी बड़े हो जाएंगे तो हम लोग खुद पता लगा लेंगे.’’

दोनों बच्चे अकसर पापामम्मी से अपने पूर्वजों के बारे में पूछा करते. एक दिन

सोफिया ने सैंडर से कहा, ‘‘हम लोगों को बच्चों की इच्छा पूरी करनी चाहिए. मैं तो गोद ली गई थी. मेरे पेरैंट्स अपना देश छोड़ कर आयरलैंड में आ बसे. अब तो वे रहे नहीं और उन का घर भी मैं ने बेच दिया है. तुम्हें कुछ पता है अपने नेटिव प्लेस के बारे में?’’

‘‘मुझे नीदरलैंड जाना होगा. मेरे पेरैंट्स भी नहीं रहे. मु झे जहां तक याद है मेरे अंकलआंटी हम लोगों के साथ रहते थे. डैड और मौम की डैथ के बाद मैं अपनी विधवा मौसी के पास स्कौटलैंड आ गया और मेरा संपर्क वहां से टूट गया. अब तो मौसी भी नहीं रहीं. मु झे भी कोई दिलचस्पी नहीं रही थी इन सब बातों में सो मैं भी सब भूल कर यहीं रम गया.’’

‘‘तुम ने सुना न बच्चे क्या कह रहे थे. वे बोल रहे हैं हम खुद ही पता लगा लेंगे. ओलिवर तो 15 साल का हो गया है, कुछ साल में दोनों बच्चे एडल्ट हो जाएंगे. फिर तो हम न भी पता करें तो वे अपना रूट्स जानने के लिए आजाद हैं. उन्हें हम रोक नहीं सकते हैं.’’

‘‘ठीक है, अगले महीने ईवा भी बोर्डिंग स्कूल जा रही है. उस के बाद हम लोग नीदरलैंड चलते हैं. घूमना भी हो जाएगा और अपनी जड़ें भी खोजेंगे. एक पंथ दो काज.’’

1 महीने बाद सैंडर और सोफिया दोनों नीदरलैंड की राजधानी एमस्टरडम पहुंचे. दोनों वहां के एक होटल में ठहरे थे. थोड़ी देर आराम करने के बाद सैंडर ने टेलीफोन डायरैक्टरी खगालनी शुरू की. सिट्रोएन सरनेम के जितने नाम थे सब के नाम, फोन नंबर और पता नोट किया. इस के बाद डी वालेन और जोर्डान रिहायशी इलाके के नंबर अलग कर लिए. सैंडर की आंटी ने उसे बताया था कि उस के मातापिता दोनों इसी क्षेत्र के निवासी थे. सैंडर ने सोचा फोन न कर सीधे उन से बात करना ठीक रहेगा.

अगले दिन सैंडर और सोफिया दोनों डी वालेन गए वहां सिट्रोएन सरनेम के सिर्फ 3 परिवार रहते थे. तीनों से उन्हें अपने पेरैंट्स का कोई क्लू नहीं मिला. फिर भोजनोपरांत वे जौर्डन महल्ला गए. वहां सिट्रोएन सरनेम के 5 परिवार थे. 4 जगहों से उन्हें निराशा ही मिली. 5वां परिवार कहीं बाहर गया था. सैंडर ने उन्हें फोन कर बताया कि मैं ब्रिटेन से आया हूं और आप से मिलना चाहता हूं. फोन पर जवाब मिला कि वे शहर से बाहर हैं और अगले दिन शाम तक एमस्टरडम लौटेंगे. वे दोनों अपने होटल लौट गए. उन के पास सिट्रोएन के इंतजार करने के सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं था.

अगले दिन शाम को सैंडर ने उन्हें फोन किया तो वे बोले, ‘‘तुम अभी या कल सुबह जब चाहो मिल सकते हो.’’

सैंडर ने सुबह मिलने का फैसला किया.

उस ने सोचा सिट्रोएन से मिले क्लू के बाद उसे कुछ और लोगों से भी संपर्क करना पड़ सकता है. यही सोच कर उस ने सुबह का प्रोग्राम बनाया.

अगली सुबह वे दोनों सिट्रोएन के घर पहुंचे. सैंडर ने अपना परिचय दिया. फिर सोफिया की तरफ देख कर सिट्रोएन ने पूछा, ‘‘और ये तुम्हारी सिस्टर हैं?’’

‘‘नो, माइ वाइफ सोफिया.’’

‘‘ओह, सौरी.’’

इस के बाद बिना देर किए अपने मातापिता का नाम बताया. फिर अपने और मातापिता के बारे में जितना जानता था बताया.

सिट्रोएन ने कहा, ‘‘मैं सीधे तौर पर तुम्हारे पेरैंट्स को नहीं जानता पर यह घर किसी सिट्रोएन फैमिली का ही था जिसे मेरे डैड ने खरीदा था. 1 मिनट रुको मैं कुछ दस्तावेज देख कर उन का पूरा नाम बताता हूं.’’

कुछ देर बाद सिट्रोएन ने कहा, ‘‘इस घर को किसी विलेन सिट्रोएन नाम के आदमी से मेरे डैड ने खरीदा था.’’

‘‘हां, यही तो मेरे छोटे अंकल का नाम था, मेरी मौसी ने बताया था.’’

‘‘तुम ने अपने डैड का क्या नाम बताया था?’’

‘‘ब्रेम, आई मीन ब्रेम सिट्रोएन.’’

‘‘और, मां का क्या नाम था?

‘‘फेना डी वैन सिट्रोएन.’’

सोफिया ने कहा, ‘‘मौम फेना डी वैन थीं. शादी के बाद फेना सिट्रोएन बनी होंगी. मेरी मौसी का भी सरनेम डी वैन था शादी के पहले.’’

‘‘डी वैन का मतलब फ्राम माउंटेन होता है और यहां एक ही डी वैन नाम सुना है मैं ने.’’

सिट्रोएन ने कहा सैंडर के मातापिता का नाम सुन कर वह व्यक्ति कभी सैंडर तो कभी सोफिया को गौर से देखने

लगा. कुछ देर सिर खुजलाता रहा फिर बोला, ‘‘मेरी मौम

और तुम्हारी मौम दोनों एकदूसरे को जानती थीं पर पता नहीं

क्यों मौम ने बाद में फेना से दूरी बना ली. जहां तक मु झे याद है मौम से सुना था कि फेना को

2 बच्चे थे.’’

सैंडर आश्चर्य से पूछ बैठा ‘‘2 बच्चे, और क्या जानते हैं मेरे पेरैंट्स के बारे में?’’

‘‘मैं सम झ नहीं पा रहा हूं तुम्हें कैसे बताऊं या बताऊं भी कि नहीं.’’

‘‘आप निस्संदेह जो भी जानते हों फ्रैंकली बता सकते हैं, अच्छाबुरा जो भी.’’

कुछ देर सिट्रोएन को खामोश देख कर सोफिया से नहीं रहा गया, ‘‘सिट्रोएन, क्या हुआ? आप ने हमारी जिज्ञासा बड़ा दी है. अब तो बिना जाने हम यहां से जाएंगे भी नहीं.’’

सिट्रोएन ने कहना शुरू किया, ‘‘आई एम सौरी. मैं जो कहने जा रहा हूं वह सुनी बात है, इस की सचाई का दावा मैं नहीं करता. हो सकता है गलत बात हो तो मु झे माफ  करना पर हो सकता है इस बात से तुम्हारे मकसद में मदद मिले.’’

‘‘हांहां, आप अवश्य कहें.’’

‘‘मैं ने सुना है कि आप की मौम की शादी आप के डैड सिट्रोएन से हुई थी. पर उन के चालचलन से आप के डैड बहुत नाराज थे और उन्होंने फेना को छोड़ दिया था.’’

‘‘अगर आप कुछ और स्पष्ट करें तो बेहतर होगा.’’

‘‘आप की मौम लैस्बियन थीं. हालांकि बाद में उन्हें मां बनने की इच्छा हुई. उन्हें 2 बच्चे हुए थे और दोनों सरोगेसी से, आई मीन आईवीएफ तकनीक से. एक बेटा उन के साथ रहा था कुछ दिन. बाद में उन्हें एक बेटी हुई. सुना है उसे किसी ने गोद ले लिया था.’’

‘‘क्या आप किसी खास फर्टिलिटी क्लीनिक के बारे में जानते हैं जहां से मौम प्रैगनैंट हुई थीं?’’

‘‘यह मैं कैसे बता सकता हूं? वैसे भी यह कानूनन मना है. हां दोनों पार्टी यानी डोनर और रिसीवर सहमत हों तो यह संभव है.’’

‘‘ठीक है, आप ने जितना कुछ बताया वह बहुत है हमारे लिए. बहुतबहुत धन्यवाद.’’

सैंडर और सोफिया दोनों वहां से निकल पड़े. उन्होंने शहर के फर्टिलिटी क्लीनिक के

नंबर गूगल कर निकाले. सैंडर ने शहर के कुछ पुराने फर्टिलिटी क्लीनिक के नंबर और पता नोट किया. एक सब से मशहूर क्लीनिक के एम्सटरडम और उस के आसपास 3 ब्रांचें थे. अगले दिन वे उस क्लीनिक में गए. सैंडर ने अपना पासपोर्ट दिखा कर अपनी मां के नाम का सुबूत दिखा कर फेना की डिलिवरी के बारे में रिसैप्शन पर पूछा.

रिसैप्शनिस्ट ने कहा, ‘‘एक तो आप के अनुसार यह केस 3 दशक से भी ज्यादा पुराना है. वैसे भी इस की जानकारी इंचार्ज के पास होगी. भला हो कंप्यूटर का कि सारे रिकौर्ड्स को हम लोगों ने कंप्यूटर के डेटा बेस में ले लिया है.’’

वे दोनों इंचार्ज से मिलने गए और पूरी बात बताई तो उस ने अपने कंप्यूटर में चैक कर

कहा, ‘‘हां, आज से करीब 35 साल पहले यहां फेना की सरोगेसी हुई थी और उन्हें एक बेटा

हुआ था.’’

‘‘आप स्पर्म डोनर का नाम बता सकते हैं?’’

‘‘सौरी, मैं उन की बिना सहमति के नहीं बता सकता हूं.’’

‘‘आप प्लीज, बता दें. मैं पिछले कई वर्षों से अपने पेरैंट्स के बारे में जानना चाहता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘आप उन से फोन पर मेरी बात करा दें तो मैं उन का कंसैंट ले लूंगा.’’

बहुत मिन्नत करने के बाद क्लीनिक

इंचार्ज तैयार हुआ और बोला, ‘‘1 मिनट मु झे

चैक करने दीजिए. उस समय उन का पुराना लैंड लाइन का नंबर था. अगर उन्होंने अपडेट किया है तब तो आसानी होगी वरना क्या पता नंबर बदल गया हो.’’

कुछ देर बाद क्लीनिक इंचार्ज ने बताया ‘‘हां, नंबर भी अपडेट कराया है उन्होंने. दरअसल वे फ्रीक्वैंट डोनर हैं.’’

क्लीनिक वाले ने उस डोनर से सैंडर की बात कराई. सैंडर ने अपना और मां के बारे में पूरी बात बताई. डोनर ने क्लीनिक वाले को फोन पर अपनी सहमति दे दी. पर क्लीनिक ने उसे ईमेल या व्हाट्सऐप पर कन्फर्म करने को कहा. थोड़ी ही देर में डोनर का मैसेज आया.

क्लीनिक वाले ने थोड़ी देर में सैंडर से कहा, ‘‘फेना उस दिन रिक वर्हिस के स्पर्म से प्रैगनैंट हुई थीं और उन्होंने एक बेटे को इसी क्लीनिक में जन्म दिया था. रिक

ही उस दिन पैदा हुए बच्चे का बायोलौजिकल फादर है.’’

अगले दिन सैंडर रिक से मिलने गया. उस ने कहा, ‘‘मु झे उम्मीद है कि आप ही मेरे बायोलौजिकल फादर हैं. इस उम्मीद को मैं यकीन में बदलना चाहता हूं. इस के लिए हम दोनों को डीएनए टैस्ट कराना होगा. प्लीज, आप मेरा साथ दें.’’

‘‘तुम बचकानी हरकत कर रहे हो बल्कि पागल जैसी बात कर रहे हो. मैं क्यों अपना डीएनए दूं और तुम्हें इस से क्या मिलेगा?’’

‘‘मैं कुछ लेने के लिए ऐसा नहीं कह रहा हूं. वैसे भी मु झे पता है कानूनन हम दोनों का एकदूसरे पर कोई हक नहीं है. बस मेरी तस्सली के लिए. आप से और कुछ नहीं चाहिए मु झे मैं लिखित दे सकता हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारे कहने पर इतना भर कर सकता हूं. तुम अपना डीएनए टैस्ट कराओ और वहीं पर मैं भी सैंपल दूंगा. लैब वाले मेरी सहमति से तुम्हें बता देंगे डीएनए का रिजल्ट पर मैं अपनी रिपोर्ट तुम्हें नहीं दूंगा.’’

‘‘इतना ही काफी है मेरे लिए.’’

4  दिनों के बाद दोनों के डीएनए रिपोर्ट मिलनी थी. इन 4 दिनों के अंदर सैंडर और सोफिया दोनों कुछ और क्लीनिक में पता लगाने गए कि फेना की दूसरी संतान किस क्लीनिक

में हुई थी. एक क्लीनिक शहर से दूर था. वहां उन्होंने रिक की रिपोर्ट मिलने के बाद जाने का फैसला किया.

4 दिनों के बाद दोनों की डीएनए रिपोर्ट मिलें. रिक ही सैंडर का बायोलौजिकल फादर था.

दूसरे दिन वे जब एक क्लीनिक गए तो पता चला कि फेना ने किस क्लीनिक में सरोगेसी डिलिवरी कराई थी. यहां क्लीनिक से पता

चला कि फेना की दूसरी सरोगेसी डिलिवरी यहीं हुई थी. उसे एक बेटी हुई थी. यहां भी क्लीनिक वाले ने बहुत अनुरोध करने पर डोनर से बात कराई. यह डोनर भी रिक ही था. सैंडर और सोफिया दोनों कुछ पल एकदूसरे को देखने लगे. दोनों ने एक बार फिर रिक से अनुरोध किया कि वह सोफिया की डीएनए रिपोर्ट से अपनी रिपोर्ट मैच कराए.

सोफिया ने अपना डीएनए टैस्ट कराया. उस का और रिक का डीएनए मैच कर रहा था. रिक ही सोफिया का भी बायोलौजिकल फादर निकला. सैंडर और सोफिया दोनों के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. दोनों ने अपना डीएनए मैच कराया तो देखा कि उन का डीएनए भी 55% मैच कर रहा था. उन्होंने डीएनए ऐक्सपर्ट से भी बात की तो उस ने कहा तुम दोनों की मौम एक ही हैं, फेना और स्पर्म डोनर भी एक ही है रिक तो इस में शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है. तुम दोनों के सिबलिंग होने में कोई शक नहीं है. तुम दोनों सगे भाईबहन हो.’’

सैंडर और सोफिया दोनों पर जैसे बिजली गिर पड़ी, सोफिया बोली, ‘‘कुदरत हमें माफ करें, ये हम ने क्या किया. अनजाने में ही हम से गुनाह हो गया.’’

‘‘यह गुनाह कुदरत की मरजी से हुआ है. हम ने खुद जानबू झ कर कोई गुनाह नहीं किया

है. हम लोग तो 4-5 दिन पहले तक इस बारे

में कुछ नहीं जानते थे. हमें कोई पछतावा नहीं करना चाहिए.’’

सैंडर और सोफिया दोनों औक्सफोर्ड में

हुई मुलाकात से पहले एकदूसरे से बिलकुल अनजान थे और वर्षों से पतिपत्नी रहे हैं और उन के 2 बच्चे भी हुए. वे दोनों नीदरलैंड से वापस एडिनबरा आए. वहां उन्होंने वकील से राय ली कि ऐसे में क्या करना चाहिए.

उस ने कहा, ‘‘आप ने जानबू झ कर ऐसा नहीं किया है. पर अब पतिपत्नी के रूप में रहना कानूनन अपराध है. बेहतर है आप लोग खामोश रहें पर आप खुद सम झदार हैं कि अब आप भाईबहन हैं  और रहेंगे, पतिपत्नी नहीं. बच्चों से भी इस की चर्चा न करें.’’

सोफिया और सैंडर दोनों काफी उदास और चिंतित थे. उन्हें देख कर वकील ने कहा, ‘‘आप पहले ऐसे दंपती नहीं हैं. पहले भी ऐसे मामले मु झे देखने और सुनने को मिले हैं. रिक जैसे कुछ प्रोफैसनल डोनर्स हैं जिन्हें खुद पता नहीं कि दुनिया में उन की कितनी औलादें हैं. कुछ दिन पहले मु झे पढ़ने को मिला था कि किसी डोनर ने 150 से भी ज्यादा बार स्पर्म डोनेट किया है. ऐसे में इस तरह की समस्या का होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है.’’

‘‘बच्चों को क्या बताया जाण्?’’ सैंडर ने पूछा.

वकील ने कहा, ‘‘सचाई छोड़ कर उन्हें कुछ भी बातएं मसलन कोई मनगढ़ंत कहानी बता कर इस मुद्दे को हमेशा के लिए खत्म कर दें. पूरे परिवार की भलाई इसी में है.’’

सोफिया और सैंडर दोनों ने सिर हिला कर अपनी सहमति जताई. अब उन्हें भी बात सम झ में आने लगी थी कि क्यों लोग अकसर हम दोनों को साथ देख कर कुछ पल घूरा करते थे. हमारे चेहरों का मिलना मात्र संयोग नहीं था. हमारे चेहरे बायोलौजिकल फादर रिक से मिलते थे.

मान अभिमान : क्यों बहुओं से दूर हो गई थी रमा?

कहानी- वीना टहिल्यानी

अपने बच्चों की प्रशंसा पर कौन खुश नहीं होता. रमा भी इस का अपवाद न थी.ं अपनी दोनों बहुओं की बातें वह बढ़चढ़ कर लोगों को बतातीं. उन की बहुएं हैं ही अच्छी. जैसी सुंदर और सलोनी वैसी ही सुशील व विनम्र भी.

एक कानवेंट स्कूल की टीचर है तो दूसरी बैंक में अफसर. रमा के लिए बच्चे ही उन की दुनिया हैं. उन्हें जितनी बार वह देखतीं मन ही मन बलैया लेतीं. दोनों लड़कों के साथसाथ दोनों बहुओं का भी वह खूब ध्यान रखतीं. वह बहुओं को इस तरह रखतीं कि बाहर से आने वाला अनजान व्यक्ति देखे तो पता न चले कि ये लड़कियां हैं या बहुएं हैं.

सभी परंपराओं और प्रथाओं से परे घर के सभी दायित्व को वह खुद ही संभालतीं. बहुओं की सुविधा और आजादी में कभी हस्तक्षेप नहीं करतीं. लड़के तो लड़के मां के प्यार और प्रोत्साहन से पराए घर से आई लड़कियों ने भी प्रगति की.

मां का स्नेह, सीख, समझदारी और विश्वास मान्या और उर्मि के आचरण में साफ झलकता. देखते ही देखते अपने छोटे से सीमित दायरे में उन्हें यश भी मिला और नाम भी. कार्यालय और महल्ले में वे दोनों ही अच्छीखासी लोकप्रिय हो गईं. जिसे देखो वही अपने घर मान्या और उर्मि का उदाहरण देता कि भाई बहुएं हों तो बस, मान्या और उर्मि जैसी.

‘‘रमा, तू ने मान्या व उर्मि के रूप में 2 रतन पाए हैं वरना आजकल के जमाने में ऐसी लड़कियां मिलती ही कहां हैं और इसी के साथ कालोनी की महिलाओं का एकदूसरे का बहूपुराण शुरू हो जाता.

रमा को तुलना भली न लगती. उन्हें तो इस की उस की बुराई भी करनी नहीं आती पर अपनी बहुओं की बड़ाई उन्हें खूब सुहाती थी. वह खुशी से फूली न समातीं.

इधर कुछ समय से रमा की सोच बदल रही है. मान्या और उर्मि की यह हरदम की बड़ाई उन्हें कहीं न कहीं खटक रही है. अपने ही मन के भाव रमा को स्तब्ध सा कर देते हैं. वह लाख अपने को धिक्कारेफटकारे पर विचार हैं कि न चाहते हुए भी चले आते हैं.

‘मैं जो दिन भर खटती हूं, परिवार में सभी की सुखसुविधाओं का ध्यान रखती हूं. दोनों बहुओं की आजादी में बाधक नहीं बनती…उन पर घरपरिवार का दायित्व नहीं डालती…वो क्या कुछ भी नहीं…बहुओं को भी देखो…पूरी की पूरी प्रशंसा कैसे सहजता के साथ खुद ही ओढ़ लेती हैं…मां का कहीं कोई जिक्र तक नहीं करतीं. उन की इस सफलता में मेरा काम क्या कुछ भी नहीं?’

अपनी दोनों बहुओं के प्रति रमा का मन जब भी कड़वाता तो वह कठोर हो जातीं. बातबेबात डांटडपट देतीं तो वे हकबकाई सी हैरान रह जातीं.

मान्या और उर्मि का सहमापन रमा को कचोट जाता. अपने व्यवहार पर उन्हें पछतावा हो आता और जल्द ही सामान्य हो वह उन के प्रति पुन: उदार और ममतामयी हो उठतीं.

मांजी में आए इस बदलाव को देख कर मान्या और उर्मि असमंजस में पड़ जातीं पर काम की व्यस्तता के कारण वे इस समस्या पर विचार नहीं कर पाती थीं. फिर सोचतीं कि मां का क्या? पल में तोला पल में माशा. अभी डांट रही हैं तो अभी बहलाना भी शुरू कर देंगी.

क्रिसमस का त्योहार आने वाला था. ठंड खूब बढ़ गई थी. उस दिन सुबह रमा से बिस्तर छोड़ते ही नहीं बन रहा था. ऊपर से सिर में तेज दर्द हो रहा था. फिर भी मान्या का खयाल आते ही रमा हिम्मत कर उठ खड़ी हुईं.

किसी तरह अपने को घसीट कर रसोईघर में ले गईं और चुपचाप मान्या को दूध व दलिया दिया. रात की बची सब्जी माइक्रोवेव में गरम कर, 2 परांठे बना कर उस का लंच भी पैक कर दिया. मां का मूड बिगड़ा समझ कर मान्या ने बिना किसी नाजनखरे के नाश्ता किया. लंचबौक्स रख टाटाबाई कहती भागती हुई घर से निकल गई. 9 बजे तक उर्मि भी चली गई. सुयश और सुजय के जाने के बाद अंत में राघव भी चले गए थे.

10 बजे तक घर में सन्नाटा छा जाता है. पीछे एक आंधीअंधड़ छोड़ कर सभी चले जाते हैं. कहीं गीला तौलिया पलंग पर पड़ा है तो कहीं गंदे मोजे जमीन पर. कहीं रेडियो बज रहा है तो किसी के कमरे में टेलीविजन चल रहा है. किसी ने दूध अधपिया छोड़ दिया है तो किसी ने टोस्ट को बस, जरा कुतर कर ही धर दिया है, लो अब भुगतो, सहेजो और समेटो.

कभी आनंदअनुराग से किए जाने वाले काम अब रमा को बेमजा बोझ लगते. सास के जीतेजी उन के उपदेशों पर उस ने ध्यान न दिया…अब जा कर रमा उन की बातों का मर्म मान रही थीं.

‘बहू, तू तो अपनी बहुओं को बिगाड़ के ही दम लेगी…हर दम उन के आगेपीछे डोलती रहती है…हर बात उन के मन की करती है…अरी, ऐसा तो न कहीं देखा न सुना…डोर इतनी ढीली भी न छोड़…लगाम तनिक कस के रख.’

‘अम्मां, ये भी तो किसी के घर की बेटियां हैं. घोडि़यां तो नहीं कि उन की लगाम कसी जाए.’ सास से रमा ठिठोली करतीं तो वह बेचारी चुप हो जातीं.

तब मान्या और उर्मि उस का कितना मान करती थीं. हरदम मांमां करती आगे- पीछे लगी रहती थीं. अब तो सारी सुख- सुविधाओं का उन्होंने स्वभाव बना लिया है…न घर की परवा न मां से मतलब. एक के लिए उस की टीचरी और दूसरी के लिए उस की अफसरी ही सबकुछ है. घर का क्या? मां हैं, सुशीला है फिर काम भी कितना. पकाना, खाना, सहेजना, समेटना, धोना और पोंछना, बस. शरीर की कमजोरी ने रमा के अंतस को और भी उग्र बना दिया था.

सुशीला काम निबटा कर घर से निकली तो 2 बज चुके थे. रमा का शरीर टूट रहा था. बुखार सा लग रहा था. खाने का बिलकुल भी मन न था. उन्होंने मान्या की थाली परोस कर मेज पर ढक कर रख दी और खुद चटाई ले कर बरामदे की धूप में जा लेटीं.

बाहर के दरवाजे का खटका सुन रमा चौंकीं. रोज की तरह मान्या ढाई बजे आ गई थी.

‘‘अरे, मांजी…आप धूप सेंक रही हैं…’’ चहकती हुई मान्या अंदर अपने कमरे में चली गई और चाह कर भी रमा आंखें न खोल पाईं.

हाथमुंह धो कर मान्या वापस पलटी तो रमा अभी भी आंखें मूंदे पड़ी थीं.

‘मेज पर एक ही थाली?’ मान्या ने खुद से प्रश्न किया फिर सोचा, शायद मांजी खा कर लेटी हैं. थक गई होंगी बेचारी. दिन भर काम करती रहती हैं…

रमा को झुरझुरी सी लगी. वह धीरे से उठीं. चटाई लपेटी दरवाजा बंद किया और कांपती हुई अपनी रजाई में जा लेटीं.

उधर मान्या को खाने के साथ कुछ पढ़ने की आदत है. उस दिन भी वही हुआ. खाने के साथ वह पत्रिका की कहानी में उलझी रही तो उसे यह पता नहीं चला कि मांजी कब उठीं और जा कर अपने कमरे में लेट गईं. बड़ी देर बाद वह मेज पर से बरतन समेट कर जब रमा के पास पहुंची तो वह सो चुकी थीं.

‘गहरी नींद है…सोने दो…शाम को समझ लूंगी…’ सोचतेसोचते मान्या भी जा लेटी तो झपकी लग गई.

रोज का यही नियम था. दोपहर के खाने के बाद घंटा दो घंटा दोनों अपनेअपने कमरों में झपक लेतीं.

शाम की चाय बनाने के बाद ही रमा मान्या को जगातीं. सोचतीं बच्ची थकी है. जब तक चाय बनती है उसे सो लेने दिया जाए.

बहुत सारे लाड़ के बाद जाग कर मान्या चाय पीती स्कूल की कापियां जांचती और अगले दिन का पाठ तैयार करती.

इस बीच रमा रसोई में चली जातीं और रात का खाना बनातीं. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटातीं ताकि शाम का कुछ समय अपने परिवार के साथ मिलबैठ कर गुजार सकें.

संगीत के शौकीन पति राघव आते ही टेपरिकार्ड चला देते तो घर चहकने लगता.

उर्मि को आते ही मांजी से लाड़ की ललक लगती. बैग रख कर वह वहीं सोफे पर पसर जाती.

सुजय एक विदेशी कंपनी में बड़ा अफसर था. रोज देर से घर आता और सुयश सदा का चुप्पा. जरा सी हायहेलो के बाद अखबार में मुंह दे कर बैठ जाता था. उर्मि उस से उलझती. टेलीविजन बंद कर घुमा लाने को मचलती. दोनों आपस में लड़तेझगड़ते. ऐसी खट्टीमीठी नोकझोंक के चलते घर भराभरा लगता और रमा अभिमान अनुराग से ओतप्रोत हो जातीं.

लगातार बजती दरवाजे की घंटी से मान्या अचकचा कर उठ बैठी. खूब अंधेरा घिर आया था.

दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला तो सामने तमतमायी उर्मि खड़ी थी.

‘‘कितनी देर से घंटी बजा रही हूं. आप अभी तक सो रही थीं. मां, मां कहां हैं?’’ कह कर उर्मि के कमरे की ओर दौड़ी.

मांजी को कुछ खबर ही न थी. वह तो बुखार में तपी पड़ी थीं. डाक्टर आया, जांच के बाद दवा लिख कर समझा गया कि कैसे और कबकब लेनी है. घर सुनसान था और सभी गुमसुम.

मान्या का बुरा हाल था.

‘‘मैं तो समझी थी कि मांजी थक कर सोई हुई हैं…हाय, मुझे पता ही न चला कि उन्हें इतना तेज बुखार है.’’

‘‘इस में इतना परेशान होने की क्या बात है…बुखार ही तो है…1-2 दिन में ठीक हो जाएगा,’’ पापा ने मान्या को पुचकारा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘अरे, इस में रोने की कौन सी बात है,’’  राघव बिगड़ गए.

अगले दिन, दिनचढ़े रमा की आंख खुली तो राघव को छोड़ सभी अपनेअपने काम पर जा चुके थे.

घर में इधरउधर देख कर रमा अकुलाईं तो राघव उन बिन बोले भावों को तुरंत ताड़ गए.

‘‘मान्या तो जाना ही नहीं चाहती थी. मैं ने ही जबरदस्ती उसे स्कूल भेज दिया है. उर्मि को तो तुम जानती ही हो…इतनी बड़ी अफसरी तिस पर नईनई नौकरी… छुट्टी का तो सवाल ही नहीं…’’

‘‘हां…हां…क्यों नहीं…सभी काम जरूरी ठहरे. मेरा क्या…बीमार हूं तो ठीक भी हो जाऊंगी,’’ रमा ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा था.

राघव ने बताया, ‘‘मान्या तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर गई है. और उर्मि ने सूप बना कर रख दिया है.’’

रमा ने बारीबारी से दोनों चीजें चख कर देखीं. खिचड़ी उसे फीकी लगी और सूप कसैला…

3 दिनों तक घर मशीन की तरह चलता रहा. राघव छुट्टी ले कर पत्नी की सेवा करते रहे. बाकी सब समय पर जाते, समय पर आते.

आ कर कुछ समय मां के साथ बिताते.

तीसरे दिन रमा का बुखार उतरा. दोपहर में खिचड़ी खा कर वह भी राघव के साथ बरामदे में धूप में जा बैठी.

राघव पेपर देखने लगे तो रमा ने भी पत्रिका उठा ली. ठीक तभी बाहर का दरवाजा खुलने का खटका हुआ. रमा ने मुड़ कर देखा तो मान्या थी. साथ में 2-3 उस के स्कूल की ही अध्यापिकाएं भी थीं.

‘‘अरे, मांजी, आप अच्छी हो गईं?’’ खुशी से मान्या ने आते ही उन्हें कुछ पकड़ाया और खुद अंदर चली गई.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ रमा ने पैकेट को उलटपलट कर देखा.

‘‘आंटी, मान्या को बेस्ट टीचर का अवार्ड मिला है.’’

‘‘क्या? इनाम…अपनी मनु को?’’

‘‘जी, आंटी, छोटामोटा नहीं, यह रीजनल अवार्ड है.’’

रोमांचित रमा ने झटपट पैकेट खोला. अंदर गोल डब्बी में सोने का मैडल झिलमिला रहा था. प्रमाणपत्र के साथ 10 हजार रुपए का चेक भी था. मारे खुशी के रमा की आवाज ही गुम हो गई.

‘‘आंटी, देखो न, मान्या ने कोई ट्रीट तक नहीं दी. कहने लगी, पहले मां को दिखाऊंगी…अब देखो न कब से अंदर जा छिपी है.’’ खुशी के लमहों से निकल कर रमा ने मान्या को आवाज लगाई, ‘‘मनु, बेटा…आना तो जरा.’’

अपने लिए मनु का संबोधन सुन मान्या भला रुक सकती थी क्या? आते ही सहजता से उस ने अपनी सहेलियों का परिचय कराया, ‘‘मां, यह सौंदर्या है, यह नफीसा और यह अमरजीत. मां, ये आप से मिलने नहीं आप को देखने आई हैं. वह क्या है न मां, यह समझती हैं कि आप संसार का 8वां अजूबा हो…’’

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’ रमा के माथे पर बल पड़ गए.

मान्या की सहेलियां कुछ सकपकाईं फिर सफाई देती हुई बोलीं, ‘‘आंटी, असल में मान्या आप की इतनी बातें करती है कि हम तो समझते थे कि आप ही मान्या की मां हैं. हमें तो आज तक पता ही न था कि आप इस की सास हैं.’’

‘‘अब तो पता चल गया न. अब लड्डू बांटो…’’ मान्या ने मुंह बनाया.

‘‘लड्डू तो अब मुझे बांटने होंगे,’’ रमा ने पति को आवाज लगाई, ‘‘अजी, जरा फोन तो लगाइए और इन सभी की मनपसंद कोई चीज जैसे पिज्जा, पेस्ट्री और आइसक्रीम मंगा लीजिए.’’

रमा ने मान से मैडल मान्या के गले में डाला और खुद अभिमान से इतराईं. मान्या लाज से लजाई. सभी ने तालियां बजाईं.

ए दिल तुझे कसम है

शाम के 4 बज रहे थे. गरमी से काजल की हालत खराब थी. वह सुबह 10 बजे घर से निकली थी. अभी मैट्रो से घर वापस आई थी. अब आ कर देखा तो लाइट नहीं थी. गरमी ने इस साल पूरे देश को जला रखा था. लोग दिनभर हाय गरमी हाय गरमी कर रहे थे. समृद्ध लोग ग्लोबल वार्मिंग पर बात करते हुए दिनबदिन कम होती जा रही हरियाली को कोसते, फिर घर आ कर एसी चला कर टांगें फैला कर पसर जाते. काजल दिनभर दिल्ली में एक सरकारी औफिस से दूसरे सरकारी औफिस धक्के खाती रही थी, लंच भी नहीं किया था. कहीं किसी दुकान पर एक गिलास लस्सी पी ली थी. अब रास्ते से ही उस के सिर में दर्द था. पूरा रास्ता सोचती रही कि घर जा कर नहाधो कर चायब्रैड खाएगी.

घर का दरवाजा खोलते ही दिल भारी सा हुआ. लगा, स्नेह में डूबी एक आवाज आएगी, ‘‘बड़ी देर लगा दी, बेटा,’’ पर अब यह आवाज तो कभी नहीं आएगी, सोचते हुए एक ठंडी सांस  ली और अपना बैग सोफे पर रख टौवेल उठा कर वाशरूम चली गई. वाशरूम में जा कर खूंटी पर टौवेल टांगा ही था कि फिक्र हुई कि मेन गेट अंदर से ठीक से बंद तो कर लिया है न.

आजकल यही तो होता है पता नहीं कितनीकितनी बार घर के दरवाजे चैक करती रहती है.

छत पर जाने वाले दरवाजे का ताला पता नहीं कितनी बार चैक करती, ठीक से बंद है या नहीं. शरीर पर पानी पड़ा तो चैन की सांस आई. पूरा दिन बदन जैसे आग में तपता रहा था. नहातेनहाते रोने लगी कि आओ मम्मी देखो, आप की फूल जैसी बच्ची कहांकहां दिनभर धक्के खा कर आई है, अब आप की बच्ची फूल सी नहीं रही. आप को पता है कि अपनी जिस बेटी को आप फूल सी बना कर पालते रहे, वह फूल अब कांटों से घिरा है?

शावर से गिरते पानी में आंसू मिलते रहे. नहा कर निकली, बस एक हलका छोटा सा  स्लीवलैस टौप पहन लिया. नीचे नामभर की शौर्ट्स पहनी. अकेली ही तो थी घर में, कुछ पहनने का मन नहीं किया. अब बस 1 कप चाय और 2 ब्रैडस्लाइस, फिर थोड़ी देर आराम करेगी. फ्रिज खोला, सिर पकड़ लिया, सुबह जल्दी निकलने के चक्कर में भूल गई थी, दूध खत्म हो गया है. ब्रैड भी तो नहीं है.

पापा के रहते ऐसा कभी नहीं होता था. वह इस बात का हमेशा ध्यान रखते कि फ्रिज भरा रहे. क्या खाए, कुछ सम झ नहीं आया तो मैगी बनने रख दी. पानी, मैगी मसाला, नूडल्स एकसाथ सबकुछ डाल दिया. आंच धीमी कर थोड़ी देर लेटने चली गई. बिस्तर पर लेटी क्या, औंधी पड़ी थी.

काजल 35 साल की देखने में ठीकठाक, पढ़ीलिखी, आधुनिक, अब दुनिया में अकेली रह गई अविवाहित लड़की. 24 साल की थी तो उस की मम्मी की अचानक हार्ट फेल से डैथ हो गई थी. पितापुत्री पर कहर सा टूटा था. शांत सीधे से सरकारी अफसर पापा की देखरेख के लिए उस ने दिल्ली से बाहर शादी करने का मन नहीं बनाया, जिन पापा का हमेशा साथ देने के लिए उन की एक आवाज पर हाजिर रहती, वही अब अचानक हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए थे. उस के पापा का भी हार्ट फेल हुआ था. भरी दुनिया में काजल उन के अचानक जाने से ठगी सी रह गई थी. इस के लिए तो सोचा ही नहीं था पर भला इंसान जो सोचता है, क्या हमेशा वही होता है? वक्त की हर शय गुलाम, वक्त का हर शय पर राज.

अभी तक काजल अपना पूरा ध्यान अपने पापा में, घर में और अपने किसी न किसी कोर्स में लगाती रही थी. अब जाने कितने काम निकल आए थे, पैंशन पेपर्स और प्रौपर्टी ट्रांसफर के पेपर्स बनवाने के लिए उसे बहुत धक्के खाने पड़ रहे थे. मैगी बनने की खुशबू आई तो भूख फिर जाग गई. पेट कोई  दुखदर्द नहीं देखता. पेट शायद हमेशा ही एक छोटे बच्चे की तरह रहता है, जब उस का टाइम हो, उसे जरूरत हो तो बस चाहिए. काजल उठी, मैगी प्लेट में डाली, उसे अपने पापा की याद आई, उन्हें भी मैगी पसंद थी. दोनों पितापुत्री बहुत शौक से मैगी खाते थे. मम्मी डांटती रह जाती कि दोनों अनहैल्दी चीजें खाते हो. काजल की आंखों के आगे वे दृश्य उपस्थित हो गए. ऐसा तो अब पता नहीं कितनी बार होता था.

टीवी देखते हुए मैगी जल्दीजल्दी खाई, बहुत भूख लग रही थी. अपनी पसंद की चीज देखते ही वैसे भी भूख बढ़ जाती है. खास दोस्त तनु और रवीना के फोन आ रहे थे. उस ने दोनों को मैसेज डाल दिया कि बहुत थकी हुई हूं, बाद में कौल करूंगी. ये दोनों सहेलियां उस की शुभचिंतक थीं, दोनों मैरिड थीं. तनु कोलकाता में और रवीना रोहिणी, दिल्ल में ही रहती थी. दोनों उस की खोजखबर लेती रहतीं.

मैगी खा कर वह बैड पर लेटी ही थी कि डोरबेल बजी. मेन गेट पर बड़ीबड़ी ग्रिल वाला डिजाइन था, किचन की खिड़की से दिख जाता कि कौन है. काजल ने किचन से  झांका, उमेश था. उसे देखते ही काजल का मूड खराब हो गया. उस का चचेरा भाई. काजल के काफी रिश्तेदार आसपास ही थे पर वह उन सब से बहुत परेशान हो चुकी थी.

जब से उस के पापा गए थे, उन की मौरल पौलिसिंग बढ़ गई थी. उस की किसी चीज की किसी को चिंता नहीं थी, उस की किसी परेशानी से मतलब नहीं था पर वह कब क्या कर रही है, इस की उन्हें पूरी जानकारी होना वे सब अपना फर्ज सम झते. उन सब को काजल को परेशान होते देख एक आनंद आता.

काजल सोच में ही थी कि क्या करे. दरवाजा खोले या नहीं. तभी उमेश जोर से आवाज देने लगा, ‘‘अरे, काजल दरवाजा खोल. अभी मैं ने तु झे आते देखा है अरे, कहां है?’’

काजल ने अभी जो आरामदायक कपड़े पहने थे, वे जल्दी से उतारे, एक कुरता और जींस पहन दरवाजा खोला. उमेश उस से 2 साल बड़ा था, विवाहित था, एक बेटे जय का पिता था. उमेश की पत्नी मेखला भी काजल को खास पसंद नहीं थी. उस के दिल में काजल के प्रति ईर्ष्या का भाव है, काजल को हमेशा यही महसूस हुआ. काजल ने बिना गेट खोले रूखे स्वर में पूछा, ‘‘क्या है? मैं अभी आराम कर रही हूं. अगर कोई जरूरी काम नहीं है तो बाद में आना.’’

‘‘अरे, दरवाजा तो खोल, तेरा भाई तेरा हाल पूछने आया है. कहां गई थी? मैं अभी दुकान पर ही था, तु झे आता देखा तो आ गया.’’

काजल ने चिढ़ते हुए दरवाजा खोल दिया, ‘‘दुकान छोड़ कर आ गया?’’

अंदर आ कर उमेश सोफे पर पसर गया, कहा, ‘‘चल, चाय पिला दे.’’

‘‘दूध नहीं है.’’

‘‘सुबह से बाहर थी, कहां घूम कर

आई है?’’

‘‘तु झे क्या मतलब है?’’

उमेश ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर कहा, ‘‘बड़ी थकी हुई लग रही है? कहां ऐश हो रही है?’’

‘‘यह ऐश तुम लोगों को भी मिले, यही कह सकती हूं.’’

उमेश की पास में ही कपड़ों की दुकान थी. यहां सब रिश्तेदारों के घर आसपास थे, काजल के काम तो कोई नहीं आ रहा था, उलटा जब भी कोई आता उसे चार बातें सुना जाता.

काजल ने कहा, ‘‘देख उमेश मु झे अभी बहुत काम हैं, अभी तू जा और हो सके तो तुम सभी लोग यहां आना छोड़ दो.’’

‘‘जब से अकेली रह गई है, बहुत बदतमीज होती जा रही है. अकेले छोड़ दें ताकि तू खानदान की नाक कटवा दे? पापा भी कह रहे थे कि तू किसी का फोन नहीं उठाती,’’ फिर उस की आंखों में जो भाव आए, काजल का मन हुआ उसे धक्के दे कर निकाल दे.

उमेश कह रहा था, ‘‘वैसे तू कुछ पतली सी हो गई है और अच्छी लगने लगी है.’’

काजल अभी तक खड़ी ही थी ताकि वह सम झ जाए कि काजल चाहती है कि वह जल्दी चला जाए. काजल ने जानबू झ कर कहा, ‘‘चल, तेरे पास इतनी फुरसत है तो दूध ला कर दे दे.’’

‘‘पागल हो गई है क्या, तेरा हालचाल पूछने के लिए दुकान छोड़ कर आया हूं, काम देखना है,’’ काम सुनते ही उमेश हमेशा की तरह जाने के लिए उठ कर खड़ा हो गया और चला गया.

काजल को अब 1-1 रिश्तेदार की हकीकत सम झ आ गई थी कि कोई उस का साथ नहीं देगा बल्कि उस की परेशानियां ही बढ़ाई जाती हैं. अब वह वक्त के साथ इन सब से निबटना सीख चुकी थी. उस ने फिर अंदर से गेट बंद किया और कपड़े फिर बदले और जा कर लेट गई. तभी काजल के मामा राजीव का फोन आया, ‘‘कहां घूमती रहती है? मांबाप के जाने के बाद एकदम बेलगाम हो गई है. मैं दिन में 2 बार आया, कहां थी?’’

‘‘जहां आज मैं गई थी, आप मेरे साथ कल चलना, मामाजी. मैं भी चाहती हूं कि कोई बड़ा मेरे साथ जाए तो मेरा पेपर वर्क थोड़ा जल्दी हो जाए.’’

यह बात सुन कर मामाजी की आवाज ढीली हो गई, कहा, ‘‘तू तो जानती ही है कि मेरी तबीयत कितनी खराब रहती है. ऐसा कर उमेश को ले जा, उन लोगों का भी तो फर्ज है कुछ.’’

‘‘आप का बेटा क्या सोशल मीडिया पर ही मु झे फौलो करेगा कि मैं कब क्या कर रही हूं. उसे बोलो मामाजी, रियल लाइफ में मेरे साथ चला करे.’’

‘‘वह तो अपनी जौब में बिजी है न.’’

‘‘पता है मु झे सब लोग कितने बिजी हो.’’

‘‘सचमुच बदतमीज होती जा रही है,’’ कह कर मामाजी ने फोन रख दिया.

काजल का मन खराब हो गया. इन सब से बात कर के वह बहुत देर तक उदास रहती. कोई उस से नहीं पूछता कि वह कैसी है, उसे कोई परेशानी तो नहीं. सब ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे वह दिनरात कोई गलत काम कर रही है. अब अकेली रह गई है तो सब के लिए जवाबदेही बढ़ गई है? अकेली मतलब बुरी? इतना पढ़लिख लिया है, कोई जौब भी ढूंढ़ ही लेगी पर यह समाज क्या हमेशा ऐसा ही रहेगा? ये सब उस की पर्सनल लाइफ की खोजबीन ही करते रहेंगे? हमारे समाज में अकेली अविवाहित युवा, युवा विधवा, युवा तलाकशुदा का जीवन कितना संघर्षभरा है, ये वही जानती हैं. समाज इन्हें नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता.

काजल ने तनु और रवीना को लेटेलेटे ग्रुप कौल किया, दोनों उस से उस का हालचाल लेती रहीं. उमेश और मामा से हुई बात बताते हुए काजल को रोना आ गया. दोस्त भी उदास हुईं, तनु ने कहा, ‘‘तु झे इन सब से एक दूरी बनानी होगी, तभी तू शांति से अपने काम कर पाएगी. कल कोई जौब करेगी तब भी ये सब तेरा जीना मुश्किल ही करेंगे.’’

‘‘तो क्या करूं? उमेश जब चाहे, मुंह उठा कर चला आता है जैसी नजरों से देखता है. उसे पीटने का मन करता है. एक दिन कह रहा था कि मूवी चलेगी? मैं ने मना किया तो कहने लगा कि ‘‘मु झे ही अपना बौयफ्रैंड सम झ ले, तेरी सारी परेशानियां कम हो जाएंगी.

‘‘मैं ने कहा कि चाचा को बताती हूं तो हंस दिया कि अरे मेरी बहन है तू, मजाक नहीं कर सकता क्या? चचेरे भाईबहन तो कितने ही मजाक करते हैं और फिर बेशर्मी से हंस दिया कि तु झे क्या पता, मजाक के साथसाथ क्याक्या चलता है कजिंस में मु झे सम झ नहीं आ रहा है कि मैं कैसे इन सब से निबटूं?

‘‘अब पैंशन औफिस में क्या कह रहे हैं?’’

‘‘15 दिन बाद आने के लिए कहा है. सोच रही हूं, एक वैलनैस सैंटर खुला है दिल्ली से निकलते ही, नोएडा वाले रोड पर. मु झे मैंटल पीस चाहिए, तुम लोगों को भी सही लगता है तो कुछ दिनों के लिए चली जाऊं?’’

दोनों कुछ देर सोचती रहीं, फिर रवीना ने कहा, ‘‘हां, अभी एकाध हफ्ता कहीं मूड चेंज करने के लिए चली जा. ठीक लगे तो रुकना नहीं तो या मेरे पास या तनु के घर आ जाना. हमारा घर तेरा अपना ही है, संकोच मत करना. अभी अंकल को गए 4 महीने ही तो हुए हैं, घर में मन भी नहीं लगता होगा. सम झ रही हूं, तेरे रिश्तेदार किसी काम के नहीं. तेरी मानसिक शांति ही भंग करते हैं और इस उमेश के लिए तो गेट खोला ही मत कर.’’

‘‘हां, यह फोन पर भी उलटेसीधे मैसेज भेजता रहता है.’’

‘‘पढ़वा दे इस की पत्नी को, दिमाग ठिकाने आ जाएगा.’’

‘‘सोच रही हूं, काफी रिश्तेदारों को ब्लौक कर दूं. अभी भी तो बुरी लड़की ही सम झ रहे हैं, बात नहीं होगी तो मेरा दिमाग तो नहीं खाएंगे.’’

‘‘हां, कर दे ब्लौक.’’

‘‘सचमुच कर दूं?’’

‘‘हां, कर दे.’’

थोड़ी देर बाद सब ने फोन रख दिया. फोन रखने के बाद काजल ने सोचा, वह अकेली रहती है, अब उस का कोई नहीं. जो भी दोस्त हैं, दूर हैं. 1-2 दोस्त और भी हैं, अमित और नैना. दोनों उस के साथ पढ़े हैं. अमित तो उस के घर से 2 किलोमीटर दूर ही है, नैना पटपड़गंज में. दोनों पापा के जाने के बाद उस के घर कई बार आ चुके हैं, मुसीबत में काम भी आएंगे, उसे यह भी यकीन है. ये रिश्तेदार उसे सिर्फ ताने मारते हैं, उस का मजाक उड़ाते हैं, ये सब उस के किसी काम नहीं आने वाले हैं. उमेश की गंदी नजरों से बचना ही अब बहुत मुश्किल होता जा रहा है पर अपनी सेफ्टी के लिए उसे कई कदम उठाने ही होंगे. अकेली है तो क्या जीना छोड़ दे?

काजल ने अब उमेश को और कई लोगों को फोन पर ब्लौक कर ही दिया. देखा जाएगा और बुरी सम झ लें, क्या फर्क पड़ जाएगा. फिर उस ने आसपास के वैलनैस सैंटर ढूंढे़. उस का मन था कि दिल्ली से थोड़ा बाहर निकले. यहां की हवा में तो अब सांस भी मुश्किल से आती थी, हर तरफ धुआं ही धुआं, गरमी, अजीब सा मौसम और माहौल. उसे नोएडा वाला ही सैंटर सम झ आया, नैचुरल वैलनैस सैंटर. उस के पास उस के अकाउंट में इतने पैसे थे कि उस के खर्चे आराम से पूरे हो रहे थे. यहां 15 हजार 1 हफ्ते का था, उसे पहले तो ज्यादा लगे पर उस ने सोचा कि उस की मैंटल हैल्थ के लिए यहां से कुछ दिन दूर होना उस के लिए जरूरी है. उस ने रजिस्ट्रेशन करवा लिया. उसे अब अगले दिन ही सुबह निकलना था. वह अब कुछ तैयारी करने लगी. बाहर निकल कर दूध और भी कुछ चीजें लेने निकलीं.

काजल ने सोचा इस समय बस थोड़ी सी खिचड़ी बना लेगी. सुबह चायब्रैड खा कर निकल जाएगी. 5 मिनट दूर ही सब दुकानें थीं. उस ने घर का कुछ सामान लिया. इस समय रात के 8 बज रहे थे. इस समय भी इतनी उमस थी, पसीना पोंछती सब सामान ले कर घर की तरफ बढ़ ही रही थी कि उमेश ने आ कर पीछे से जोर से बोलते हुए डरा ही दिया, ‘‘तेरे फोन को क्या हुआ?’’

काजल तेजी से चली, कहा, ‘‘मेरे पीछे आया तो तेरे घर जा कर मेखला के सामने क्याक्या कहूंगी, कई दिन याद रखेगा, सम झा?’’

पत्नियों के नाम से अच्छेअच्छों को डर लगता है. भरी भीड़ में उमेश उस समय तो चुप हो गया पर मन में सोचा, इसे तो बाद में देख लूंगा.

घर जा कर काजल ने अपने दिल की बेतरतीब धड़कनें संभालीं. हमारे समाज में एक अकेली लड़की की परेशानी सम झना आसान नहीं है. कैसेकैसे भेडि़ए अपनों की शक्ल में आसपास घूमते हैं, अपनों से ही अपनी सुरक्षा करनी होती है. उस ने नैना और अमित को भी फोन कर के सब बता दिया और सब दोस्तों को अगले हफ्ते लगातार टच में रहने के लिए कहा.

काजल ने अगले दिन निकलने के लिए अपनी पैकिंग की, खिचड़ी बनाई, स्नेहिल सुधा जिसे काजल, आंटी कहती थी, जो उस की मम्मी के समय से घर के काम करती थीं, उन्हें सुबह जल्दी आने के लिए कहा. घर में हर तरफ उसे अपने मम्मीपापा दिखते, लगता कहीं नहीं गए हैं, उस के आसपास ही हैं. मगर यह तो मन को बहलाने वाली बात थी. वह अकेली है, वह जानती थी. उस ने गूगल पर इस नैचुरल वैलनैस सैंटर के बारे में और पढ़ा. वहां प्राकृतिक माहौल में मैडिटेशन, ऐक्सरसाइज, हैल्दी लाइफस्टाइल के बारे में सिखाया जाता था. रिव्यू अच्छे थे. उसे सब ठीक ही लग रहा था. इस का एड उसे न्यूजपेपर में काफी टाइम से दिख रहा था.

अगले दिन सुधा आंटी से काम कराते हुए काजल ने अपने जाने के बारे में बता दिया. सुधा को अब उस की फिक्र रहती, उसे अपना ही सम झती थी. अब नौकर और मालिक का रिश्ता न था, इंसानियत और स्नेह

का रिश्ता था. सुधा ने उसे सुरक्षा सबंधी कई निर्देश दिए. वह भी जानती थीं काजल आज की पढ़ीलिखी लड़की है, अलर्ट रहती है. इतने सालों से एक मासूम बच्ची को मजबूत बनते देख रही थी.

काजल मैट्रो से नोएडा पहुंच गई. सैंटर तक पहुंचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई. आजकल तो वह वैसे भी पता नहीं कहांकहां किसकिस विभाग में चक्कर काट रही थी. अब तो मशीन की तरह एक से दूसरी जगह पहुंचती रहती. दिल्ली में ही जन्मी और पलीबढ़ी थी. रिसैप्शन पर उस ने एक फौर्म भरा, अपनी कुछ डिटेल्स दी. वहां की हरियाली ने उस का मन मोह लिया. लगा ही नहीं कि आसपास इतना सुंदर कोई सैंटर था. बहुत शांति थी. वहां के स्टाफ की एक 20-21 साल की लड़की मुसकराते हुए उसे एक रूम तक ले गई, कहा, ‘‘काजल, आप फ्रैश हो लें. फिर 1 घंटे बाद हौल में मिलते हैं.’’

काजल ने पूछ लिया, ‘‘यहां कितने लोग हैं? सब को 1-1 रूम मिलता है?’’

‘‘इस हफ्ते के बैच में यहां 20 लोग हैं,

2 पुरुषों को एक रूम शेयर करना होता है, किसी लड़की को एक ही रूम दिया जाता है. उसे शेयर नहीं करना पड़ता.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उन की प्राइवेसी का ध्यान रखना पड़ता है,’’ कहते हुए वह जब मुसकराई तो उस की स्माइल काजल को कुछ भाई नहीं.

1 घंटा काजल ने आराम किया, अपने दोस्तों को, यहां तक कि सुधा आंटी को भी अभी तक के अपडेट्स दे दिए. सभी ने उसे ध्यान से रहने के लिए कहा. सभी को उस की चिंता थी. सभी चाहते तो यही थे कि वह किसी अनजान जगह न जाए पर पिछले कुछ महीनों से काजल जिस उदास दौर से गुजर रही थी, सब ने उस की हां में हां यही सोच कर मिला दी थी कि कहीं निकलेगी तो उस का मन बहलेगा. हौल में पहुंच कर वहां आए लोगों पर एक नजर डाली. सभी उम्र के लोग थे. काजल ने एक बात जरूर नोट की कि स्टाफ की लड़कियां बैच के पुरुषों को कुछ अलग तरह से अटैंड कर रही थीं. उसे अजीब सा लगा. इन लड़कियों की ड्रैस थी, वाइट कलर का टौप और वाइट कलर की ही ढीली सी पैंट. यह ड्रैसकोड काफी स्टाइलिश लग रहा था. फिर वहां 2 लड़के और 2 लड़कियां आए, इन लड़कों ने बड़े स्टाइलिश कुरतेपजामे पहने हुए थे, लड़कियों ने कुरता और लैगिंग. ये चारों वहां बने एक छोटे से स्टेज पर गुरुओं की तरह बैठ कर सब का वैलकम करते हुए अपने वैलनैस प्रोग्राम के बारे में बताने लगे. बैच के लोग इन के सामने जमीन पर बिछी दरी पर बैठे थे.

स्टाइलिश गुरुओं ने सब पर नजर डाली, फिर एक गुरु की नजर काजल पर अटक गई. काजल कुछ असहज हुई. फिर कुछ प्राणायाम हुआ, कुछ ओशो जैसी बातें हुईं. काजल को याद आया कि ये सब ज्ञान की बातें तो इंस्टाग्राम पर रील्स पर खूब घूमती हैं. काफी कुछ यौगिक क्रियाओं पर बातें हुईं. कभी कोई गुरु बोल रहा था, कभी कोई, जैसे सब ने अपनीअपनी बातें रट रखी हों. काजल हैरान सी थी कि सबकुछ कितना मैनेज्ड है. 2 घंटे बाद कहा गया कि जा कर सब लोग थोड़ा आराम कर लें, फिर सैंटर में थोड़ा टहल कर आएं, लंच सब साथ करेंगे. बता दिया गया कि कैंटीन किधर है.

यहां इतनी गरमी, घुटन नहीं थी जितनी काजल को दिल्ली में लग रही थी. इस का कारण यहां की हरियाली होगा. काजल को यहां सब शांत लग रहा था, शांत पर कुछ अलग. लोग आपस में एकदूसरे से पूछने लगे कि कौन कहां से क्यों आया है. कारण लगभग एक सा ही था. बोरिंग लाइफ में

कुछ चेंज के लिए. काजल को छोड़ कर सब के साथ एक न एक परिवार वाला या दोस्त था. वही बिलकुल अकेली थी. सब रूम शेयर कर रहे थे. उसी के पास सिंगल रूम था. सादा स्वादिष्ठ खाना सब ने साफसुथरी कैंटीन में साथ ही खाया. चारों गुरुओं ने भी अपने नाम पल्लवी, ऋतु, रजत और चिराग बताए और अपना परिचय दिया. सब ने कोई न कोई बड़ी डिग्री ली हुई थी पर अब शौकिया अच्छे मनपसंद काम में समय बिता रहे थे.

खाना हो गया तो रजत ने कहा, ‘‘अब आप लोग जो चाहें करें, 4 बजे वापस हौल में आ जाएं, 1 घंटा कुछ बातें करेंगे, फिर शाम की सैर, फिर कुछ ऐक्सरसाइज. यहां वहां सामने एक छोटी सी लाइब्रेरी भी है, जो चाहे, वह करें. हौल में फोन बंद ही रखें.’’

रजत ने काजल से कहा, ‘‘आप अकेली हैं, चाहें तो हमारे स्टाफ के साथ घूम सकती हैं या हम लोग भी हैं, हमारे साथ भी टाइम बिता सकती हैं,’’ कहतेकहते उस ने काजल को जिन नजरों से देखा, उसे उमेश याद आ गया. वह दुखी तो थी पर मूर्ख तो बिलकुल नहीं थी.

काजल ने सामान्य से स्वर में कहा, ‘‘थैंक्स, अभी तो मैं थोड़ी देर सामने पेड़ के नीचे रखी चेयर पर कुछ देर बैठना चाहूंगी. फिर हौल में ही मिलती हूं.’’

‘‘श्योर, एज यू विश, ऐंजौय द ब्यूटी औफ दिस प्लेस,’’ कह कर वह चला गया.

काजल इधरउधर देखती हुई पेड़ के नीचे रखी 2 सुंदर चेयर्स में से एक पर बैठ गई. यहां अच्छा तो लग रहा था पर मन में कुछ खटक रहा था. दोस्तों के व्हाट्सऐप पर कई मैसेज आए हुए थे कि ठीक हो न, सब ठीक है? कुछ रिश्तेदारों के भी मैसेज थे कि कहां घूम रही हो? तुम्हारे घर पर ताला क्यों लगा है? सुबहसुबह कहां निकल जाती हो?

काजल ने अपने दोस्तों से बात की, सब बताया कि अभी तक क्या चल रहा है. इन रिश्तेदारों को ब्लौक कर दिया जिन्हें बस सवाल पूछने थे.

तभी काजल को एक लगभग 50 साल का व्यक्ति अपनी ओर आता दिखा, स्टाइलिश सूट में, मौडर्न शूज, शानदार परफ्यूम की खुशबू बिखेरता उस के सामने आ कर खड़ा हो गया. अपना परिचय दिया, ‘‘हैलो काजल, मैं रवि कुमार. यहां का ओनर, यहां का कांसैप्ट मेरा ही है. आप डिस्टर्ब न हों तो मैं थोड़ी देर आप को कंपनी देना चाहूंगा. आप अकेली हैं, आप को अभी तक यहां कोई प्रौब्लम तो नहीं, बस आप से मिलने आ गया.’’

‘‘नो प्रौब्लम, रविजी, आप से मिल कर खुशी हुई. आइए, बैठिए.’’

रवि उस की ऐजुकेशन, उस के पेरैंट्स के बारे में बात करता रहा, उस के आगे के प्लान पर बात करता रहा. अपने बारे में बताता रहा, उस ने शादी नहीं की थी. वह सालों से इसी कौंसैप्ट पर काम करने में बिजी रहा. फिर कहने लगा, ‘‘आप यहां 1 हफ्ता आराम से रहिए, रातदिन किसी भी टाइम कंपनी चाहिए तो मु झे फोन कर दीजिए, मैं आप की सेवा में हाजिर हो जाऊंगा, आप भी अकेली, मैं भी अकेला. यह रहा मेरा कार्ड,’’ कह कर वह जिस तरह से हंसा, काजल को उमेश की मक्कारी वाली हंसी याद आ गई. वह सोचने लगी कि यहां के लोगों को देख कर उसे उमेश का ध्यान क्यों आ रहा है. आंखों से ही बहुत कुछ कह कर रवि कुमार चला गया. काजल ने ठंडी सांस ली. उफ, उसे क्यों लग रहा है जैसे यह वैलनैस सैंटर किसी मौडर्न बाबा का मौडर्न आश्रम है, अकेली लड़की पर यहां कुछ खास मेहरबानी हो रही है. उसे उमेश जैसी नजरों से देखा जा रहा है. उसे हवा में ही किसी खतरे की गंध आई. उस ने फौरन अमित को फोन लगा दिया, ‘‘अमित, तुम मु झे यहां आ कर तुरंत ले जाओ, बोलना फैमिली इमरजैंसी है. ये लोग कुछ कहें तो अड़ जाना. सख्ती से बात करना.’’

‘‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो?’’

‘‘बस, मु झे आज ही यहां से ले जाओ. और हां, ये लोग हौल में फोन बंद करने के लिए कहते हैं. अब तुम देख लेना कि क्या कैसे करना है. यहां अंदर आ जाओ तो कौल करना, मैं सम झ जाऊंगी कि तुम आ गए हो.’’

‘‘चिंता मत करो, अभी औफिस से निकल रहा हूं.’’

काजल ने बाकी दोस्तों को भी सब बता दिया. सब परेशान हो गए पर सब को यही ठीक लगा कि किसी अनहोनी का इंतजार न किया जाए. अभी निकला जाए.’’

काजल हौल में सब के साथ बैठी थी, उस के कुरते में फोन वाइब्रेट कर रहा था पर इस समय वह फोन उठा नहीं सकती थी. उस ने रूमाल निकालने के बहाने देख लिया कि अमित कौल कर रहा है. वह अब कुछ निश्चिंत हो गई. इस समय मंच पर रजत और पल्लवी सही तरह से सांस लेने की टैक्नीक बता रहे थे. काजल का अब पूरा ध्यान 1-1 आवाज पर था. किसी ने आ कर रजत के कान में कुछ कहा, उस के चेहरे पर नागवारी के भाव आए.

रजत ने पल्लवी को धीरे से कुछ कहा, फिर उस ने घोषणा की, ‘‘काजल, हौल से बाहर जाइए, आप से कोई मिलने आया है. कुछ अर्जैंट है.’’

काजल कुछ न सम झने की ऐक्टिंग करते हुए बाहर निकली, औफिस की तरफ गई, वहां खड़े अमित ने बहुत ही गंभीर स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारा फोन ही नहीं लग रहा है, बहुत बुरी खबर है.’’

‘‘अरे, क्या हुआ?’’

‘‘तुम्हारे कजिन की ऐक्सीडैंट में डैथ हो

गई है.’’

‘‘उफ…’’

‘‘जल्दी चलो, तुम्हारे चाचा ने फौरन

बुलाया है.’’

वहीं कुछ दूरी पर रवि कुमार भी खड़ा था. उस का चेहरा ऐसा था जैसे हाथ आए खजाने को कोई छीन कर भाग गया हो. फिर भी उस ने कोशिश की, ‘‘सो सौरी, काजल. बहुत दुख हुआ. आप चाहें तो दोबारा आ जाएं. आप की फीस तो जमा ही रहेगी, हम उसे तो वापस नहीं कर सकते.’’

‘‘जी, थैंक यू, कोशिश करूंगी कि जल्दी आ जाऊं.’’

काजल ने पहले से तैयार अपना बैग जल्दी से जाकर उठाया. वहां से अमित और काजल भागते हुए ही निकले. अमित अपनी कार ले कर आया था. कार में बैठते हुए अपनी सीट बैल्ट लगाते हुए दोनों ने चैन की सांस ली, अमित ने पूछा, ‘‘अब बताओ यार क्या हुआ था?’’

‘‘अभी तक तो कुछ नहीं हुआ था पर मु झे पूरा यकीन है कि यह मौडर्न वैलनैस सैंटर किसी ऐयाश बाबा के आश्रम का ही नया रूप है. नए रैपर में पुरानी मिठाई ही है.’’

‘‘फिर तो समय रहते वहां से निकलना ही ठीक था. इस जगह की शिकायत करनी है?’’

‘‘अभी मेरे पास कोई पू्रफ नहीं है.’’

‘‘हां, यह बात भी है.’’

दोनों बहुत सी बातें करते रहे. काजल ने एक जगह कहा, ‘‘बस मु झे यहीं उतार दो, यहां से मैं मैट्रो पकड़ सकती हूं. मु झे घर छोड़ने जाओगे तो तुम्हें लंबा रास्ता पड़ेगा. थैंक यू, दोस्त. अब तुम ही लोग हो मेरे पास,’’ कहतेकहते काजल का गला भर आया.

अमित ने कहा, ‘‘किसी बात की टैंशन न ले, घर जा कर आराम कर. जल्द ही सब मिलते हैं.’’

इस तरह की अकेली रहने वाली लड़कियों के पास कुछ अच्छे दोस्त भी होते हैं जिन पर ये यकीन कर सकती हैं. ऐसे दोस्तों के कारण इन की दुनिया कुछ सुंदर तो हो ही जाती है. दोस्ती में अगर स्वार्थ, ईर्ष्या न हो तो यह रिश्ता दुनिया का सब से सुंदर रिश्ता होता है.

काजल ने मैट्रो पकड़ी. उसे अच्छा लग रहा था कि आज सुबह से उसे किसी रिश्तेदार का फोन नहीं आया न आगे आना था. सब से कटने का वह मन बना ही चुकी थी. उस ने घर आ कर सुधा आंटी को बता दिया कि वह आ गई है. उस के जल्दी आने पर वह चिंतित हुई. उसे चैन नहीं आया कि काजल तो

1 हफ्ते के लिए गई थी, आज ही कैसे आ गई? वह देखने आ ही गई, ‘‘काजल. आज ही कैसे आ गई, बेटा?’’

काजल ने सब कह सुनाया. आंटी हैरान हुई, दुखी भी हुई. बोली, ‘‘कितनी सम झदार हो तुम, आज का दिन मुश्किल सा रहा होगा पर ऐसी बातें तुम्हें बहुत मजबूत बना देंगी. आराम करो, बेटा सुबह आती हूं. अपनी मम्मी वाला गाना याद कर लो,’’ स्नेह भरे स्वर में कह कर आंटी तो चली गई पर आंटी की कही बात को काजल देर तक सोचती रही, मथती रही. लगा, मम्मी घर के ही किसी कोने में गुनगुना रही हैं कि ऐ दिल तु झे कसम है, तू हिम्मत न हारना, दिन जिंदगी के जैसे भी गुजरें, गुजारना…’’

काजल को यह गाना याद कर मम्मी की याद आई तो कुछ आंसू भी गालों पर बह चले पर अपने दिल पर हाथ रख कर कहा कि चल दिल, हिम्मत नहीं हारनी है, जीना है और हिम्मत से जीना है और फिर उस ने अपने सब दोस्तों को यह एक लाइन गा कर वौइस मैसेज भेज दिया. काजल का मैसेज सब फौरन देखते थे. सब की हार्ट वाली इमोजी और थम्सअप आ गया.

बैडरैस्ट: आखिर जया को कौनसी बीमारी हुई थी?

और्थोपैडिक डाक्टर अमित ने जब मुझे 10 दिन की बैडरैस्ट बताई तो तेज दर्द में भी मैं ने अपने होंठों पर आने के लिए तैयार हंसी रोक ली. मनमयूर नाच उठा. मन में दर्द में आह और बैडरैस्ट सोच कर वाह एकएक निकल रही थीं. मेरे पति विजय ने बैडरैस्ट सुन कर मुझे देखा तो मैं ने फौरन अपना चेहरा गंभीर कर लिया.

आप ने यह तो सुना ही होगा न कि हर औरत के अंदर एक अभिनेत्री होती है. विजय के मुंह से बैडरैस्ट सुन कर आह ही निकली थी. डाक्टर के सारे निर्देश समझ कर विजय ने जाने के लिए उठते हुए मुझे हाथ का सहारा दे कर उठाया. मेरे मुंह से एक कराह निकल ही गई.

‘‘बहुत ध्यान से जया… 10 दिन की बैडरैस्ट है,’’ मुझसे कह डाक्टर अमित ने मेरे दवा के परचे पर भी बड़ेबड़े अक्षरों में सीबीआर यानी कंप्लीट बैडरैस्ट लिख दिया.

डाक्टर अमित को हम काफी सालों से जानते हैं पर सच कहती हूं 60 साल के डाक्टर अमित आज तक मुझे इतने अच्छे नहीं लगे थे जितने आज लगे. अचानक मुझे अपनी कल्पना में डाक्टर अमित एक सुपरमैन की तरह लगे जो घर के कामों में पिसती औरत को कुछ दिन आराम करवाने आए हों. उन का मन ही मन शुक्रिया करते हुए मैं मन में खुद से कहने लगी कि जया, कर ले अब अपना सपना पूरा… कितने अरमान थे कभी बैडरैस्ट मिले… कम से कम कुछ दिन तो चैन से लेट कर टीवी देखेगी, किताबें पढ़ेगी. बस खाएगीपीएगी, नहाएगी फिर अच्छे से कपड़े पहन कर लेट जाएगी. फ्रैंड्स देखने आएंगी, गप्पें मारेंगे. बढि़या टाइम पास होगा. चलो, जया ऐंजौय योर बैडरैस्ट. जी ले अपनी जिंदगी. यह बैडरैस्ट डाक्टर रोजरोज नहीं बोलेगा. 40 साल में पहली बार बोला है. जया, जीभर कर इस बैडरैस्ट का 1-1 पल जी लेना.

मु?ो सोच में डूबे देख विजय ने कहा, ‘‘डौंट वरी जया. बस अब तुम घर चल कर आराम करना. हम सब मैनेज कर लेंगे.’’

मैं कुछ नहीं बोली. बहुत दर्द तो था ही.

विजय ने मु?ो ध्यान से कार की सीट पर बैठा

कर सीटबैल्ट भी खुद ही बांध दी. मैं ने सोचा वाह, इतना ध्यान रखा जाएगा, बढि़या है पर प्रत्यक्षत: इतना ही कहा, ‘‘सम?ा नहीं आ रहा कैसे होगा…डाक्टर का क्या है. ?ाट से बैडरैस्ट बोल दिया.’’

‘‘चिंता क्यों करती हो? हम हैं न… बच्चों के साथ मिल कर मैं सब संभाल लूंगा.’’

विजय ने कार स्टार्ट की. स्पीड ब्रेकर्स, गड्ढों का ध्यान रखते हुए गाड़ी चला रहे थे ताकि ?ाटका आदि लगने पर मु?ो दर्द न हो. दरअसल, हुआ यह था कि मैं आज सुबह तेजी से सीढि़यां उतरते हुए सब्जी लेने जा रही थी कि मेरा पैर फिसल गया… मैं बड़ी मुश्किल से उठ पाई थी. टैस्ट्स और ऐक्सरे के बाद डाक्टर अमित ने कहा कि यह प्रो स्लिप डिस्क इंजरी है… बच गई तुम, जया नहीं तो मुश्किल हो जाती.

मेरा मूड हलका करने के लिए विजय ने कहा ‘‘क्यों दौड़तीभागती हो इतना जया? कितनी बार कहा कि घोड़े की तरह इधर से उधर मत भागती फिरा करो… तुम आराम से क्यों नहीं चलती, डियर?’’

‘‘इस का सारा क्रैडिट मेरे पापी मायके वालों को है, जिन्होंने सब से छोटी होने के

कारण मुझे हर काम बताते हुए यही कहा कि जया, जाओ भाग कर यह ले आओ, भाग कर

वह ले आओ. किसी ने कभी यह कहा ही नहीं कि जाओ जया आराम से ले आओ. तो जनाब, मु?ो तो हर काम भागभाग कर करने की ही

आदत है.’’

मेरी नाटकीयता के साथ कही इस बात पर विजय हंस पड़े. बोले, ‘‘वाह, दर्द में भी हंसना कोई तुम से सीखे.’’

अब मैं उन्हें यह तो नहीं बता सकती थी कि दर्द में मु?ो बस बैडरैस्ट दिख रही है… मेरा सपना पूरा होने जा रहा है.

घर पहुंचे तो बच्चे नीरुषा और तन्मय परेशान से हमारी ही राह देख रहे थे. दोनों ने सवालों की ?ाड़ी लगा दी. विजय ने मुझे बैड तक ले जा कर लिटाते हुए उन्हें सब बताया.

पहले तो बच्चों ने आह कह कर गंभीर प्रतिक्रिया दी, फिर अचानक दोनों

जोश से भर गए. नीरुषा ने कहा, ‘‘मम्मी, हम सब मिल कर आप का ध्यान रखेंगे, डौंट वरी…’’

तन्मय भी बोला, ‘‘हां, बस आप लेटेलेटे हमें बताते रहना कि क्या काम करना है.’’

मैं ने मन ही मन सोचा कि चलो अब शायद सचमुच आराम मिलेगा. कितने प्यारे बच्चे हैं… कितना प्यारा पति है. मु?ो बड़ा लाड़ सा आया तीनों पर. फिर कहा, ‘‘मेड से कुछ और काम भी कह दूंगी…थोड़ी हैल्प हो जाएगी.’’

विजय बोले, ‘‘मैं ने आज छुट्टी ले ली है.’’

तभी नीरुषा बोली, ‘‘कल मैं कालेज नहीं जाऊंगी.’’

तन्मय भी कहां पीछे रहता. बोला ‘‘नहीं दीदी, आप चली जाना, मैं स्कूल नहीं जाऊंगा.’’

‘‘नहीं, मेरा कालेज जाना जरूरी नहीं, तुम स्कूल जाना.’’

तन्मय का मुंह उतर गया तो मु?ो हमेशा की तरह फ्रंट पर आना पड़ा, ‘‘ऐसा करो कि तीनों बारीबारी से 1-1 दिन रह लेना… तब तक तो मु?ो आराम हो ही जाएगा. चलो, आज तुम दोनों जाओ… आज तो विजय हैं.’’

दोनों बेमन से जाने के लिए उठ गए. विजय ने औफिस के 2-4 फोन निबटाए.

फिर मैं ने कहा, ‘‘सुनो, मैं ने नाश्ता तो बना ही दिया था. चलो, सब नाश्ता कर लेते हैं. बस मेरे लिए 1 कप चाय बना दो प्लीज.’’

विजय का चेहरा उतर गया, ‘‘चाय?’’

‘‘हां.’’

घर में सिर्फ मु?ो ही चाय पीने की आदत है. ज्यादा नहीं. 1 कप सुबह उठ

कर, 1 नाश्ते के साथ और 1 शाम को.

इस से ज्यादा एक बार भी नहीं. बच्चे तैयार हो रहे थे. मेड सुबह का काम कर के जा चुकी थी.

विजय ने किचन से वापस आ कर पूछा, ‘‘जया, मंजू चाय का बरतन कहां

रख गई?’’

‘‘टोकरे में रखे धुले बरतनों में होगा.’’

‘‘मतलब टोकरे में ढूंढूं?’’

थोड़ी देर में टोकरे के बरतनों की आवाज से लगा कि चाय का बरतन नहीं, पूरे टोकरे के बरतन एकसाथ नीचे गिर गए हैं. मैं ने आज नाश्ते में पोहा बनाया था. बस बना कर ही ताजा सब्जी लेने उतर रही थी जब यह हादसा हुआ. बच्चे तैयार हो कर अपना और मेरा नाश्ता ले कर मेरे पास ही आ गए, ‘‘मम्मी, आप भी खा लो. दवा लेनी होगी.’’

‘‘विजय चाय ला रहे हैं… तुम लोग शुरू करो… मैं खाती हूं.’’

विजय ?ोंपते हुए बड़ी देर बाद आधा कप चाय ले कर आए तो मैं ने पूछा, ‘‘अरे, इतनी कम बनाई?’’

‘‘नहीं, वह छानते हुए गिर गई.’’

बच्चे जोर से हंस पड़े. मैं ने भी हंसते हुए कहा, ‘‘हंसो मत, तुम लोगों का भी नंबर आने वाला है.’’

विजय ने प्यारे, मीठे स्वर में कहा, ‘‘पी कर बताओ. जया कैसी बनी है? सालों बाद बनाई है.’’

मैं ने पहला घूंट भरा. तीनों एकटक मेरा चेहरा देख रहे थे. मैं ने जानबू?ा कर गंभीरता से कहा, ‘‘तुम से यह उम्मीद नहीं थी, विजय.’’

‘‘क्या हुआ… पीने लायक नहीं है?’’

‘‘अरे, अच्छी बनी है.’’

अब तीनों एकसाथ हंस पड़े. विजय ने बच्चों को गर्व से देखा. मैं कहतीकहती रुक गई कि विजय प्लीज, चाय वापस ले जाओ. मैं कल से चाय पीने की अपनी गंदी आदत छोड़ दूंगी पर कह नहीं पाई. तब ऐसा तो कुछ भी नहीं लगा कि महबूब के हाथ से जहर भी अमृत लग रहा है और उस की आंखों में देखते हुए सब पी गए. जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ. चाय खराब थी पर पोहे के साथ गटक ली. विजय सब काम कर सकते हैं पर किचन में जरा अनाड़ी हैं, छोड़ो आज ?ाठ नहीं बोलूंगी… जरा नहीं पूरे अनाड़ी हैं और मजेदार बात यह है कि उन्हें लगता है कि उन्हें किचन के काम आते हैं. जनाब की इस गलतफहमी को मैं कभी दूर नहीं कर पाई.

बच्चे चले गए तो विजय ने कहा, ‘‘अब तुम आराम करो.’’

मैं सुहाने सपनों में खोई लेटी थी.

10 दिन रैस्ट… डिलिवरी के समय ही कुछ दिन लेटी थी. उस के बाद तो रैस्ट शब्द याद ही नहीं आया आज तक. खैर, मन ही मन काफी कुछ सोचने के बाद मैं ने व्हाट्सऐप पर अपनी 3 खास सहेलियों गीता, नीरा और संजू को बैडरैस्ट की न्यूज दे दी. हम चारों को व्हाट्सऐप पर गु्रप है. तीनों के ज्ञान, जोक्स शुरू हो गए.

 

तभी विजय आए, ‘‘जया, फोन रख कर आराम कर लो,’’ और फिर मेरी

बगल में ही लेट गए. थोड़ी देर हम आम बातें करते रहे. फिर अचानक उन के खर्राटे शुरू हो गए. लो हो गया आराम… मैं ने अपना साइड में रखा नौवेल उठा लिया. ‘इस टाइम सोने की आदत तो है नहीं. चलो नौवेल ही पढ़ लूं,’ सोच मैं हिली तो मेरे शरीर में तेज दर्द की लहर दौड़ गई.

एक कराह सी निकली तो विजय की नींद खुल गई. मु?ो देख बोले, ‘‘उठना मत. कुछ चाहिए तो मु?ो बताना,’’ कह कर करवट बदल कर फिर सो गए.

मु?ो बस वाशरूम जाने की परमिशन थी. मैं रोज 1 बजे लंच करती हूं. मेरा टाइम तय है. 1 बजा तो मु?ो भूख लगने लगी. विजय सो रहे थे. डेढ़ बजे तक मैं ने वेट किया, फिर आवाज दे दी, ‘‘विजय, लंच कर लें?’’

ऊंघती हुई आवाज आई, ‘‘अभी तो खाया था?’’

‘‘भूख लगी है, विजय,’’ मु?ो अपने स्वर में अतिरिक्त गंभीरता का पुट देना पड़ा. जानती हूं इस का असर.

विजय तुंरत उठ गए, ‘‘क्या लाऊं?’’

‘‘तुम लोगों के टिफिन के लिए जो खाना बनाया था, वही रखा है, ले आओ.’’

कुछ ही पलों बाद वे फिर आए, ‘‘खाना गरम करना है?’’

आदतन मु?ो मस्ती सू?ा, ‘‘रोज तो गरम कर के खाती हूं, आज तुम्हारी मरजी है जैसा दोगे खा लूंगी.’’

विजय हंस दिए, ‘‘इतनी बेचारी बन कर मत दिखाओ. गरम कर के ला रहा हूं.’’

विजय मेरा और अपना खाना ले आए. खाना हम ने अच्छे मूड में हंसतेबोलते खाया. मेरा खाना खत्म हुआ तो मैं प्लेट रखने व हाथ धोने के लिए उठने लगी.

तब विजय ने उठने नहीं दिया. बोले, ‘‘मैं तुम्हारे हाथ यहीं धुलवा दूंगा.’’

‘‘नहीं, इतना तो उठूंगी,’’ कह कदम आगे बढ़ाने पर कमर में दर्द की लहर दौड़ गई पर जरा हिम्मत कर के किचन तक चली ही गई. किचन में आने न देने का कारण भी फौरन स्पष्ट हो गया. विजय खिसियाए से मु?ो देख रहे थे. सुबह से दोपहर तक ही किचन की काफी दयनीय स्थिति हो चुकी थी. सुबह टोकरे में जो चाय का बरतन ढूंढ़ा गया था तो बाकी के सारे बरतन किचन में बिखरे अपनी दर्दनाक कहानी सुना रहे थे.

मैं जड़ सी खड़ी रही तो विजय ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘जया, खड़ी मत रहो. दर्द होगा. तुम चलो, मैं सब समेट कर आता हूं.’’

मैं चुपचाप लेट गई. किचन तक आनेजाने में काफी दर्र्द हुआ था. विजय ने मु?ो दोपहर की दवाई दी. थोड़ी देर बाद मेरी आंख लग गई. मैं गहरी नींद सोई. विजय के खर्राटों से ही फिर 4 बजे आंख खुली. रोज की तरह चाय पीने का मन हुआ, पर विजय के हाथ की चाय पीने की हिम्मत नहीं थी. संजू मेरी बराबर की बिल्डिंग में रहती है. मैं ने उसे मैसेज डाला, ‘‘आ जाओ, चाय पीनी है, बना कर दो.’’

उस ने खुशी से रोने वाली इमोजी भेजी. पूछा, ‘‘विजय से नहीं बनवाओगी?’’

मैं ने भी सिर पर हाथ मारने वाली इमोजी भेज दी, थोड़ी मस्ती में चैट की, फिर संजू आ गई. चाय उसी ने बनाई तो विजय ने भी चैन की सांस ली.

संजू ने कहा, ‘‘डिनर मैं बना लाऊंगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘हां, बना लाना आज. कल से अंजू को बोल दूंगी… दोनों टाइम का बना लाएगी.’’

तभी नीरा और गीता भी आ गईं. गीता ही फिर थोड़ी देर बाद सब के

लिए चाय बना लाई. मेरे दर्द की बात होती रही. दर्द तो था ही, फिर मैं शरारत से इठलाते हुए बोली, ‘‘मैं तो अभी बैडरैस्ट करूंगी, तुम लोग आती रहना.’’

गीता ने घुड़का, ‘‘ज्यादा उड़ो मत. हमारा भी टाइम आएगा… कभी तो हम भी बैडरैस्ट करेंगे.’’

नीरा ने भी कहा, ‘‘हां, बिलकुल.

ऐसा थोड़े ही है कि हम कभी बैडरैस्ट नहीं करेंगे. चिढ़ाओ मत हमें, सब का टाइम आता है.’’

हम सब जी भर कर हंसे. गीता मस्ती मैं बोली, ‘‘यार, जरा टिप्स दो, कैसे गिरना है कि ज्यादा बुरा हाल भी न हो और बैडरैस्ट भी हो जाए.’’

हम मस्ती कर ही रहे थे कि बच्चे भी आ गए. सब से मिल कर, थोड़ी देर बैठ कर फिर फ्रैश होने चले गए.

डिनर संजू ले आई थी. सब ने खाया तो मु?ो याद आया, ‘‘अरे, कोई मशीन चला दो. कपड़े धोते हैं…’’

तीनों ने एकदूसरे का मुंह देखा. विजय ने कहा, ‘‘अब तो थक गए, कोई इमरजैंसी तो है नहीं, कल धो लेंगे.’’

मैं ने मन में कहा कि थक गए? सोसो कर? मैं बस वाशरूम जाने के लिए ही किसी न किसी का सहारा ले कर उठी थी. मैं ने सचमुच आराम किया था. मु?ो अच्छा लग रहा था.

अगले दिन नीरुषा ने मु?ा से कहा, ‘‘मम्मी, पापा को औफिस भेज दो न. मेरा मन कर रहा है आप के पास रुक कर आप का खयाल रखने का.’’

नीरुषा ने मु?ा से लिपट कर यह बात ऐसे कही कि मना करने का सवाल ही नहीं उठता था. मैं ने सोचा, विजय दिनभर आराम ही तो करेंगे… बेटी का मन है तो वही रह लेगी. अत: मैं ने हामी भर दी. फिर कहा, ‘‘चलो, अब चाय पिला दो.’’

‘‘पापा नहीं बनाएंगे?’’

मैं ने जल्दी से कहा कि ‘‘थक गए? सोसो कर?’’

उसे हंसी आ गई. बोली, ‘‘सम?ा गई… बनाती हूं.’’

विजय और तन्मय चले गए. अंजू ने सफाई के साथसाथ खाने का काम भी कर दिया. नीरुषा मेरे पास ही लेट कर अपने फोन में व्यस्त रही. बीचबीच में कुछ बात कर लेती. पूरा दिन नीरुषा ने अच्छा रिलैक्स कर के बिताया. खूब सोई, गाने सुने. मैं ने उसे जब भी कोई काम कहा वह मु?ा से लिपट गई, ‘‘मम्मी, आप के पास ही लेटने का मन है. काम तो हो ही जाएगा.’’

दिनभर धोबी, कूरियर वाले किसी ने भी डोरबैल बजाई तो नीरुषा ?ां?ालाई, ‘‘उफ, मम्मी दिनभर कितनी घंटियां बजती हैं. कोई आराम से लेट भी नहीं सकता.’’

शाम को उसे चाय के लिए उठाया तो नींद में बोली, ‘‘मम्मी, चाय क्यों पीती हो? अच्छी चीज नहीं है?’’

मु?ो हंसी आ गई, ‘‘अच्छा, आज याद आया? चलो, उठो बना लो.’’

शाम को 2-3 पड़ोसिनें देखने आ गईं.

अंजू उन के घर भी काम करती थी, तो पता चलना ही था.

रात को तन्मय शुरू हो गया, ‘‘कल मैं मम्मी के पास रहूंगा…’’

विजय और नीरुषा ने मना किया तो उस का मुंह लटक गया. मैं ने हां में सिर हिलाया तो प्यार से मु?ा से लिपट गया.

अगले दिन 11 बजे उस ने मु?ा से पूछा, ‘‘मम्मी, आप को अभी मु?ा से कोई काम तो

नहीं है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं, बेटा.’’

‘‘मम्मी, थोड़ी देर खेल आऊं?’’

‘‘जाओ.’’

‘‘प्यारी मम्मी,’’ कह तन्मय ने अपनी बांहें मेरे गले में डाल दीं, ‘‘मम्मी, आप के लंच तक आ जाऊंगा. आप उठना नहीं. बाय, लव यू,’’ कह कर तन्मय यह जा, वह जा.

मुझे पता है कि खेलने का दीवाना तन्मय घर रह कर  यह मौका कैसे छोड़ देता. बाहर

बच्चों के खेलने की आवाजें मु?ो भी आ रही थीं तो भला तन्मय ने क्यों न सुनी होंगी. 1 बजे वह आ गया. तब तक मैं अपना नौवेल पढ़ रही थी. फोन पर भी थी, अच्छा टाइम पास हो रहा था. हम दोनों ने खाना खाया. तन्मय सो गया. मैं ने भी थोड़ी देर ?ापकी ली. दर्द में थोड़ा आराम लग रहा था. उठ कर नहाने में भी किसी का सहारा नहीं लेना पड़ा. अब मेरा मन उठ कर चलनेफिरने का होने लगा. 4 बजे सोचा, चाय आज खुद ही बना लेती हूं.

उठी तो दर्द तो हुआ पर धीरेधीरे कदम रखते हुए चल कर आदतन बच्चों के कमरे में नजर डाली. देखते ही चक्कर आ गया. पूरा कमरा अस्तव्यस्त, हर जगह सामान बिखरा. बहुत गुस्सा आया.

किचन में गई तो वहां भी हाल खराब. अंजू भी अपने हिसाब से बस निबटा ही गई थी. गैस चूल्हा गंदा, फ्रिज पर गंदे हाथों के निशान, बरतन कहीं के कहीं. वाशप्लैश पर नजर डाली. धुलने वाले कपड़ों का अंबार. उफ, बहुत काम इकट्ठा हो गया. मैं बु?ो मन से धीरेधीरे चलती हुई अपनी चाय ले कर लिविंगरूम में सोफे पर बैठ गई. अंजू ने डस्टिंग की ही नहीं थी. हर जगह धूल. 2 दिन के पेपर सोफे पर ही थे. सफाईपसंद विजय को ये सब कैसे नहीं दिखाई दिया, हैरानी हुई. पैर ज्यादा देर लटकाने नहीं थे. मैं फिर ठंडी सांस ले कर बैड पर आ कर लेट गई.

तभी गीता का फोन आ गया, ‘‘कैसी चल रही है बैडरैस्ट?’’

मैं ने कहा, ‘‘चुप हो जाओ. अभीअभी पूरे घर की हालत देख कर लेटी हूं.’’

गीता हंस पड़ी, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आ कर देख लो.’’

‘‘तुम्हें आराम मिल रहा है न? बस ऐंजौय करो.’’

‘‘मु?ो अब डर लग रहा है कि ठीक हो जाने के बाद यह बैडरैस्ट मु?ो बहुत महंगी पड़ने वाली है.’’

‘‘हाहा, बड़ी आई थी हमें चिढ़ाने वाली?’’

रात को सब साथ बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘तुम लोग प्लीज घर ठीक कर लो… सारा सामान बिखरा है… बच्चो, अपनाअपना कमरा ठीक कर लो… विजय प्लीज लिविंगरूम संवार लो.’’

‘‘अरे, तुम इतना क्यों उठीं? तुम्हें अभी बैडरैस्ट करनी है.’’

‘‘अच्छा ही हुआ कि उठी. सम?ा आया कि बैडरैस्ट महंगी पड़ेगी… ठीक होने पर 4 गुना काम करना पड़ेगा.’’

तीनों ?ोंप गए. बच्चों ने मासूम शक्ल बना कर कहा, ‘‘आप को यह अच्छा नहीं लगा कि हम छुट्टी ले कर आप के पास रहें? फाम का क्या है मम्मी, आप ठीक हो कर कर ही लोगी. आप के लिए काम इंपौर्टैंट है या हमारी कंपनी?’’

मैं निरुत्तर हो गई. कह नहीं पाई कि भाई, काम कर दो कुछ पहले. कंपनी मिलती रहेगी… कोई भागा नहीं जा रहा है… यह जो हर जगह सामान फैला है… मेरे ठीक होने का इंतजार हो रहा है. डांटना, उलाहने देना मेरे स्वभाव में नहीं. सो बस अब लेटेलेटे अपने तथाकथित ध्यान रखने वालों की हरकतें नोट कर रही थी.

सोच रही थी कि इन लोगों के हिसाब से तो सबकुछ टाला जा सकता है… मशीन चलाने की कोई जल्दी नहीं क्योंकि अभी तो काम चल ही रहा है, बहुत कपड़े हैं… जो एक टाइम भी दाल खा कर खुश नहीं होते वे सुबहशाम दाल खा रहे हैं क्योंकि सब्जी लेने भी जाना पड़ेगा… जो नीरुषा दही के बिना खाना नहीं खाती, अब दही जमाना याद दिलाने पर कहती है कि मम्मी जरूरत नहीं है. दही के बिना भी खाना ठीक लग रहा है. फ्रूट्स लाने को कहा तो उसे फोन कर दिया गया.

एक दिन बहुत कहने पर नीरुषा ने वाशिंग मशीन चला ही दी. फ्लैट की सीमित जगह में इतने कपड़े कहां, कैसे सुखाने हैं, इस पर जबरदस्त विचारविमर्श हुआ, जिसे मैं ने चुपचाप आंखें बंद कर अपनी हंसी रोक कर सुना. अंजू को तो यह दिन बड़ी मुश्किल से मिला. रोज मु?ा से मेरी तबीयत पूछती और पहले से भी ज्यादा फुरती से काम निबटा कर भागती. पति और बच्चों को तो टोका जा सकता पर मेड के आगे तो अच्छोंअच्छों की बोलती बंद रहती है कि कहीं कुछ कह दिया तो भाग न जाए. मेड से तो हम लोग इतने प्यार से बोलते हैं कि इतना पति और बच्चों से बोल लें तो बेचारे निहाल हो जाएं.

मु?ो जरा बेहतर लगा तो मैं ने कहा, ‘‘अब तुम सब जाओ, मैं मैनेज कर लूंगी. काफी आराम कर लिया.’’

अब मु?ो लेटेलेटे चैन भी नहीं आ रहा था. मैं ने सब को छुट्टी दी. तीनों आश्वस्त हो कर चले गए तो मैं ने थोड़ाथोड़ा धीरेधीरे काम संभालना शुरू किया. 3 बजे गीता आई तो मैं तीसरी बार मशीन के कपड़े निकाल कर सुखा रही थी. उस ने फौरन नीरा और संजू को भी बुला लिया. तीनों इकट्ठा हुईं तो पूरे घर पर एक नजर डाली. तीनों हंसने लगीं. मैं ने इन दिनों उन्हें इस बात पर खूब चिढ़ाया था कि तुम लोग बस मूर्ख औरतों की तरहकाम करती रहो… मैं तो बैडरैस्ट पर हूं. देखो मु?ो… आजकल तो मेरा स्टेटस भी यही था, बैडरैस्ट.

मैं ने धीरेधीरे चलते हुए कहा, ‘‘यार, अगर पता होता कि बैडरैस्ट के बाद दोगुनी मेहनत

करनी पड़ेगी तो बैडरैस्ट पर कभी खुशियां न मनाई होतीं.’’

नीरा जोर से हंसी, ‘‘क्यों, आराम नहीं मिला? कितनी अच्छी सेवा हो रही थी है न?’’

‘‘छुट्टी ले ले कर सब ने बस आराम ही किया, काम सुनते ही कहते थे कि अरे, हो जाएगा. तुम बस आराम करो.’’

मेरे नाटकीय ढंग से बताने पर सब हंसने लगीं.

संजू बोली, ‘‘मेरी आंखों के आगे तो इस का पहले दिन का चेहरा आ रहा है जब बैडरैस्ट बताते हुए मुंह अनोखी चमक से चमक उठा था मैडम का. जया मैडम, हमारा पति है, बच्चे हैं, भरीपूरी गृहस्थी है, एकल परिवार है और सब से बड़ी बात हम औरतें हैं, बैडरैस्ट हमारे लिए कोई खुशी की बात नहीं हो सकती… ठीक होने पर डबल काम करने पड़ते हैं.’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘हां, इसीलिए सब को भेज दिया… काम कोई कर नहीं रहा था… जब खुद ही करना है तो इन लोगों को घर में क्या रखना.’’

मेरी लास्ट लाइन पर सब जोर से हंस पड़ीं. सब बातें करते हुए मेरा हाथ भी बंटा रही थीं. घर गया तो नीरा सब के लिए चाय बना लाई. गीता ने कहा, ‘‘चलो, यह तय हुआ कि अब बैडरैस्ट की तमन्ना नहीं करेंगे.’’

हम सब ने हंसते हुए हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘हां, नहीं चाहिए बैडरैस्ट.’’

परिंदा : अजनबी से एक मुलाकात ने कैसे बदली इशिता की जिंदगी

लेखक-रत्नेश कुमार

‘‘सुनिए, ट्रेन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन

से जाना होगा.’’

आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.

हमारी ट्रेन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.

अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.

‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.

‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.

पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.

हमारे भीगने से पहले एक दूसरी ट्रेन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. ट्रेन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं…

आखिरी 3-4 स्टेशन तक जब ट्रेन कुछ खाली हो गई तब मैं उस का नाम जान पाई. अभिन्न कोलकाता से पहली बार गुजर रहा था जबकि यह मेरा अपना शहर था. इसलिए कालिज की छुट्टियों में अकेली ही आतीजाती थी.

हावड़ा पहुंच कर अभिन्न को पता चला कि उस की फ्लाइट छूट चुकी है और अगला जहाज कम से कम कल दोपहर से पहले नहीं था.

‘‘क्या आप किसी होटल का पता बता देंगी?’’ अभिन्न अपने भीगे कपड़ों को रूमाल से पोंछता हुआ बोला.

हम साथसाथ ही टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे थे. कुली ने मेरा सामान उठा रखा था.

लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद हम कम से कम अजनबी नहीं रह गए थे. वह भी कालिज का छात्र था और किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए दूसरे शहर जा रहा था. टैक्सी तक पहुंचने से पहले मैं ने उसे 3-4 होटल गिना दिए.

‘‘बाय,’’ मेरे टैक्सी में बैठने के बाद उस ने हाथ हिला कर कहा. उस ने कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं की थी. बस, औपचारिकताएं ही पूरी हुई थीं मगर विदा लेते वक्त उस के शब्दों में एक दोस्ताना आभास था.

‘‘एक बात पूछूं?’’ मैं ने खिड़की से गरदन निकाल कर कुछ सोचते हुए कहा.

एक जोरदार बिजली कड़की और उस की असहज आंखें रोशन हो गईं. शायद थकावट के कारण मुझे उस का चेहरा बुझाबुझा लग रहा था.

उस ने सहमति में सिर हिलाया. वैसे तो चेहरा बहुत आकर्षक नहीं था लेकिन आत्मविश्वास और शालीनता के ऊपर बारिश की नन्ही बूंदें चमक रही थीं.

‘‘यह शहर आप के लिए अजनबी है और हो सकता है आप को होटल में जगह न भी मिले,’’ कह कर मैं थोड़ी रुकी, ‘‘आप चाहें तो हमारे साथ हमारे घर चल सकते हैं?’’

उस के चेहरे पर कई प्रकार की भावनाएं उभर आईं. उस ने प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘डरिए मत, आप को ले कर भाग नहीं जाऊंगी,’’ मैं खिलखिला पड़ी तो वह झेंप गया. एक छोटी सी हंसी में बड़ीबड़ी शंकाएं खो जाती हैं.

वह कुछ सोचने लगा. मैं जानती थी कि वह क्या सोच रहा होगा. एक अनजान लड़की के साथ इस तरह उस के घर जाना, बहुत अजीब स्थिति थी.

‘‘आप को बेवजह तकलीफ होगी,’’ आखिरकार अभिन्न ने बहाना ढूंढ़ ही निकाला.

‘‘हां, होगी,’’ मैं गंभीर हो कर बोली, ‘‘वह भी बहुत ज्यादा यदि आप नहीं चलेंगे,’’ कहते हुए मैं ने अपने साथ वाला गेट खोल दिया.

वह चुपचाप आ कर टैक्सी में बैठ गया. इंसानियत के नाते मेरा क्या फर्ज था पता नहीं, लेकिन मैं गलत कर रही हूं या सही यह सोचने की नौबत ही नहीं आई.

मैं रास्ते भर सोचती रही कि चलो, अंत भला तो सब भला. मगर उस दिन तकदीर गलत पटरी पर दौड़ रही थी. घर पहुंच कर पता चला कि पापा बिजनेस ट्रिप से एक दिन बाद लौटेंगे और मम्मी 2 दिन के लिए रिश्तेदारी में दूसरे शहर चली गई हैं. हालांकि चाबी हमारे पास थी लेकिन मैं एक भयंकर विडंबना में फंस गई.

‘‘मुझे होटल में जगह मिल जाएगी,’’ अभिन्न टैक्सी की ओर पलटता हुआ बोला. उस ने शायद मेरी दुविधा समझ ली थी.

‘‘आप हमारे घर से यों ही नहीं लौट सकते हैं. वैसे भी आप काफी भीग चुके हैं. कहीं तबीयत बिगड़ गई तो आप सेमिनार में नहीं जा पाएंगे और मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूं,’’ भले ही मेरे दिल में कई आशंकाएं उठ रही थीं पर ऊपर से बहादुर दिखना जरूरी था.

कुछ देर में हम घर के अंदर थे. हम दोनों बुरी तरह से सहमे हुए थे. यह बात अलग थी कि दोनों के अपनेअपने कारण थे.

मैं ने उसे गेस्टरूम का नक्शा समझा दिया. वह अपने कपड़ों के साथ चुपचाप बाथरूम की ओर बढ़ गया तो मैं कुछ सोचती हुई बाहर आई और गेस्टरूम की कुंडी बाहर से लगा दी. सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था. दुनियादारी के पहले पाठ का शीर्षक है, शक. खींचतेधकेलते मैं सूटकेस अपने कमरे तक ले गई और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी.

‘‘लगता है दरवाजा फंसता है?’’ अभिन्न गेस्टरूम के दरवाजे को गौर से देखता हुआ बोला. उस ने कम से कम 5 मिनट तक दरवाजा तो अवश्य ठकठकाया होगा जिस के बारे में मैं भूल गई थी.

‘‘हां,’’ मैं ने तपाक से झूठ बोल दिया ताकि उसे शक न हो, पर खुद पर ही यकीन न कर पाई. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

किचन से मुझे जबरदस्त चिढ़ थी और पढ़ाई के बहाने मम्मी ने कभी जोर नहीं दिया था. 1-2 बार नसीहतें मिलीं भी तो एक कान से सुनी दूसरे से निकल गईं. फ्रिज खोला तो आंसू जमते हुए महसूस होने लगे. 1-2 हरी सब्जी को छोड़ कर उस में कुछ भी नहीं था. अगर घर में कोई और होता तो आसमान सिर पर उठा लेती मगर यहां खुद आसमान ही टूट पड़ा था.

एक बार तो इच्छा हुई कि उसे चुपचाप रफादफा करूं और खुद भूख हड़ताल पर डट जाऊं. लेकिन बात यहां आत्मसम्मान पर आ कर अटक गई थी. दिमाग का सारा सरगम ही बेसुरा हो गया था. पहली बार अफ सोस हुआ कि कुछ पकाना सीख लिया होता.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’

आवाज की ओर पलट कर देखा तो मन में आया कि उस की हिम्मत के लिए उसे शौर्यचक्र तो मिलना ही चाहिए. वह ड्राइंगरूम छोड़ कर किचन में आ धमका था.

‘दफा हो जाओ यहां से,’ मेरे मन में शब्द कुलबुलाए जरूर थे मगर प्रत्यक्ष में मैं कुछ और ही कह गई, ‘‘नहीं, आप बैठिए, मैं कुछ पकाने की कोशिश करती हूं,’’ वैसे भी ज्यादा सच बोलने की आदत मुझे थी नहीं.

‘‘देखिए, आप इतनी रात में कुछ करने की कोशिश करें इस से बेहतर है कि मैं ही कुछ करूं,’’ वह धड़धड़ा कर अंदर आ गया और किचन का जायजा लेने लगा. उस के होंठों पर बस, हलकी सी मुसकान थी.

मैं ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पा रही थी इसलिए आंखें ही इशारों में बात करने लगीं. मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई. कारण कई हो सकते थे मगर मुझे जोरदार भूख लगी थी और भूखे इनसान के लिए तो सबकुछ माफ है. मैं चुपचाप उस की मदद करने लगी.

10 मिनट तक तो उस की एक भी गतिविधि समझ में नहीं आई. मुझे पता होता कि खाना पकाना इतनी चुनौती का काम है तो एक बार तो जरूर पराक्रम दिखाती. उस ने कढ़ाई चढ़ा कर गैस जला दी. 1-2 बार उस से नजर मिली तो इच्छा हुई कि खुद पर गरम तेल डाल लूं, मगर हिम्मत नहीं कर पाई. मुझे जितना समझ में आ रहा था उतना काम करने लगी.

‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’

मैं पूरी तल्लीनता से आटा गूंधने में लगी थी कि उस ने मुझे टोक  दिया. एक तो ऐसे काम मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे और ऊपर से एक अजनबी की रोकटोक, मैं तिलमिला उठी.

‘‘दिखता नहीं, आटा गूंध रही हूं,’’ मैं ने मालिकाना अंदाज में कहा, पर लग रहा था कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. मैं ने एक बार उस की ओर नजर उठाई तो उस की दबीदबी हंसी भी दुबक गई.

‘‘आप रहने दें, मैं कर लूंगा,’’ उस ने विनती भरे स्वर में कहा.

आटा ज्यादा गीला तो नहीं था मगर थोड़ा पानी और मिलाती तो मिल्क शेक अवश्य बन जाता.

हाथ धोने बेसिन पर पहुंची तो आईना देख कर हृदय हाहाकार कर उठा. कान, नाक, होंठ, बाल, गाल यानी कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां आटा न लगा हो. एक बार तो मेरे होंठों पर भी हंसी फिसल गई.

मैं जानबूझ कर किचन में देर से लौटी.

‘‘आइए, खाना बस, तैयार ही है,’’ उस ने मेरा स्वागत यों किया जैसे वह खुद के घर में हो और मैं मेहमान.

इतनी शर्मिंदगी मुझे जीवन में कभी नहीं हुई थी. मैं उस पल को कोसने लगी जिस पल उसे घर लाने का वाहियात विचार मेरे मन में आया था. लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था. किसी तरह से 5-6 घंटे की सजा काटनी थी.

मैं फ्रिज से टमाटर और प्याज निकाल कर सलाद काटने लगी. फिलहाल यही सब से आसान काम था मगर उस पर नजर रखना नहीं भूली थी. वह पूरी तरह तन्मय हो कर रोटियां बेल रहा था.

‘‘क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘आप को दिखता कम है क्या…’’ मेरे गुस्से का बुलबुला फटने ही वाला था कि…

‘‘मेरा मतलब,’’ उस ने मेरी बात काट दी, ‘‘मैं कर रहा हूं न,’’ उसे भी महसूस हुआ होगा कि उस की कुछ सीमाएं हैं.

‘‘क्यों, सिर्फ काटना ही तो है,’’ मैं उलटे हाथों से आंखें पोंछती हुई बोली. अब टमाटर लंबा रहे या गोल, रहता तो टमाटर ही न. वही कहानी प्याज की भी थी.

‘‘यह तो ठीक है इशिताजी,’’ उस ने अपने शब्दों को सहेजने की कोशिश की, ‘‘मगर…इतने खूबसूरत चेहरे पर आंसू अच्छे नहीं लगते हैं न.’’

मैं सकपका कर रह गई. सुंदर तो मैं पिछले कई घंटों से थी पर इस तरह बेवक्त उस की आंखों का दीपक जलना रहस्यमय ही नहीं खतरनाक भी था. मुझे क्रोध आया, शर्म आई या फिर पता नहीं क्या आया लेकिन मेरा दूधिया चेहरा रक्तिम अवश्य हो गया. फिर मैं इतनी बेशर्म तो थी नहीं कि पलकें उठा कर उसे देखती.

उजाले में आंखें खुलीं तो सूरज का कहीं अतापता नहीं था. शायद सिर पर चढ़ आया हो. मैं भागतीभागती गेस्टरूम तक गई. अभिन्न लेटेलेटे ही अखबार पलट रहा था.

‘‘गुडमार्निंग…’’ मैं ने अपनी आवाज से उस का ध्यान खींचा.

‘‘गुडमार्निंग,’’ उस ने तत्परता से जवाब दिया, ‘‘पेपर उधर पड़ा था,’’ उस ने सफाई देने की कोशिश की.

‘‘कोई बात नहीं,’’ मैं ने टाल दिया. जो व्यक्ति रसोई में धावा बोल चुका था उस ने पेपर उठा कर कोई अपराध तो किया नहीं था.

‘‘मुझे कल सुबह की फ्लाइट में जगह मिल गई है,’’ उसे यह कहने में क्या प्रसन्नता हुई यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं आशंकित हो उठी, ‘‘सौरी, वह बिना पूछे ही आप का फोन इस्तेमाल कर लिया,’’ उस ने व्यावहारिकतावश क्षमा मांग ली, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘कहां?’’

अभिन्न ने मुझे यों देखा जैसे पहली बार देख रहा हो. प्रश्न तो बहुत सरल था मगर मैं जिस सहजता से पूछ बैठी थी वह असहज थी. मुझे यह भी आभास नहीं हुआ कि यह ‘कहां’ मेरे मन में कहां से आ गया. मेरी रहीसही नींद भी गायब हो गई.

कितने पलों तक कौन शांत रहा पता नहीं. मैं तो बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी.

‘‘10 बज गए हैं,’’ ऐसा नहीं था कि घड़ी देखनी मुझे नहीं आती हो मगर कुछ कहना था इसलिए उस ने कह दिया होगा.

‘‘ह…हां…’’ मेरी शहीद हिम्मत को जैसे संजीवनी मिल गई, ‘‘आप चाहें तो इधर रुक सकते हैं, बस, एक दिन की बात तो है.’’

मैं ने जोड़तोड़ कर के अपनी बात पूरी तो कर दी मगर अभिन्न दुविधा में फंस गया.

उस की क्या इच्छा थी यह तो मुझे पता न था लेकिन उस की दुविधा मेरी विजय थी. मेरी कल्पना में उस की स्थिति उस पतंग जैसी थी जो अनंत आकाश में कुलांचें तो भर सकती थी मगर डोर मेरे हाथ में थी. पिछले 15 घंटों में यह पहला सुखद अनुभव था. मेरा मन चहचहा उठा.

‘‘फिर से खाना बनवाने का इरादा तो नहीं है?’’

उस के इस प्रश्न से तो मेरे अरमानों की दुनिया ही चरमरा गई. पता नहीं उस की काया किस मिट्टी की बनी थी, मुझे तो जैसे प्रसन्न देख ही नहीं सकता था.

‘‘अब तो आप को यहां रुकना ही पड़ेगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुना दिया. वास्तव में मैं किसी ऐसे अवसर की तलाश में थी कि कुछ उस की भी खबर ली जा सके.

‘‘एक शर्त पर, यदि खाना आप पकाएं.’’

उस ने मुसकरा कर कहा था, सारा घर खिलखिला उठा. मैं भी.

‘‘चलिए, आज आप को अपना शहर दिखा लाऊं.’’

मेरे दिमाग से धुआं छटने लगा था इसलिए कुछ षड्यंत्र टिमटिमाने लगे थे. असल में मैं खानेपीने का तामझाम बाहर ही निबटाना चाहती थी. रसोई में जाना मेरे लिए सरहद पर जाने जैसा था. मैं ने जिस अंदाज में अपना निर्णय सुनाया था उस के बाद अभिन्न की प्रतिक्रियाएं काफी कम हो गई थीं. उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘मैं कुछ देर में आती हूं,’’ कह कर मैं फिर से अंदर चली गई थी.

आखिरी बार खुद को आईने में निहार कर कलाई से घड़ी लपेटी तो दिल फूल कर फुटबाल बन गया. नानी, दादी की मैं परी जैसी लाडली बेटी थी. कालिज में लड़कों की आशिक निगाहों ने एहसास दिला दिया था कि बहुत बुरी नहीं दिखती हूं. मगर वास्तव में खूबसूरत हूं इस का एहसास मुझे कभीकभार ही हुआ था. गहरे बैगनी रंग के सूट में खिलती गोरी बांहें, मैच नहीं करती मम्मी की गहरी गुलाबी लिपस्टिक और नजर नहीं आती काजल की रेखाएं. बचीखुची कमी बेमौसम उमड़ आई लज्जा ने पूरी कर दी थी. एक बार तो खुद पर ही सीटी बजाने को दिल मचल गया.

घड़ी की दोनों सुइयां सीधेसीधे आलिंगन कर रही थीं.

‘‘चलें?’’ मैं ने बड़ी नजाकत से गेस्टरूम के  दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘बस, एक मिनट,’’ उस ने अपनी नजर एक बार दरवाजे से घुमा कर वापस कैमरे पर टिका दी.

मैं तब तक अंदर पहुंच चुकी थी. थोड़ी ऊंची सैंडल के कारण मुझे धीरेधीरे चलना पड़ रहा था.

उस ने मेरी ओर नजरें उठाईं और जैसे उस की पलकें जम गईं. कुछ पलों तक मुझे महसूस हुआ सारी सृष्टि ही मुझे निहारने को थम गई है.

‘‘चलें?’’ मैं ने हौले से उस की तंद्रा भंग की तो लगा जैसे वह नींद से जागा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ उस ने इतने सीधे शब्दों में कहा कि मैं उलझ कर रह गई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरी सारी अदा आलोपित हो गई.

‘‘क्या हुआ? अरे मैडम, लंगूर के साथ हूर देख कर तो शहर वाले हमारा काम ही तमाम कर देंगे न,’’ उस ने भोलेपन से जवाब दिया.

ऐसा न था कि मेरी प्रशंसा करने वाला वह पहला युवक था लेकिन ऐसी विचित्र बात किसी ने नहीं कही थी. उस की बात सुन कर और लड़कियों पर क्या गुजरती पता नहीं लेकिन शरम के मारे मेरी धड़कनें हिचकोले खाने लगीं.

टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.

अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.

‘‘क्या फिगर है?’’

उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.

‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.

मैं गुमशुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.

‘‘जरा उधर…हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

किसी तरह खुद को बहलाफुसला कर लेट गई. खुद का खून देखने का शौक कभी रहा नहीं इसलिए नर्स की विपरीत दिशा में देखने लगी. गाड़ी में ज्यादा जगह न होने की वजह से वह बिलकुल पास ही खड़ा था. चेहरे पर ऐसी लकीरें थीं जैसे कोई उस के दिल में सूई चुभो रहा हो.

दर्द और घबराहट का बवंडर थमा तो वह मेरी हथेली थामे मुझे दिलासा दे रहा था. मेरी आंखों में थोड़े आंसू जरूर जमा हो गए होंगे. मन भी काफी भारी लगने लगा था.

बाहर आने से पहले मैं ने 2 गिलास जूस गटक लिया था और बहुत मना करने के बाद भी डाक्टरों ने उस का ब्लड सैंपल ले लिया.

इंडियन म्यूजियम से निकल कर हम ‘मैदान’ में आ गए. गहराते अंधकार के साथ हमेशा की तरह लोगों की संख्या घटने लगी थी और जोड़े बढ़ने लगे थे. यहां अकसर प्रेमी युगल खुले आकाश के नीचे बैठ सितारों के बीच अपना आशियाना बनाते थे. इच्छा तो बिलकुल नहीं थी लेकिन मैं ने सोच रखा था कि खानेपीने का कार्यक्रम निबटा कर ही वापस लौटूंगी. हम दोनों भी अंधेरे का हिस्सा बन गए.

मैं कुछ ज्यादा ही थकावट महसूस कर रही थी. इसलिए अनजाने ही कब उस की गोद में सिर रख कर लेट गई पता ही नहीं चला. मेरी निगाहें आसमान में तारों के बीच भटकने लगीं.

वे अगणित सितारे हम से कितनी दूर होते हैं. हम उन्हें रोज देखा करते हैं. वे भी मौन रह कर हमें बस, देख लिया करते हैं. हम कभी उन से बातें करने की कोशिश नहीं करते हैं. हम कभी उन के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि हमें लगता ही नहीं है कि वे हम से बात कर सकते हैं, हमें सुन सकते हैं, हमारे साथ हंस सकते हैं, सिसक सकते हैं. हम कभी उन्हें याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि हम जानते हैंकि कल भी वे यहीं थे और कल भी वे यही रहेंगे.

मुझे अपने माथे पर एक शीतल स्पर्श का एहसास हुआ. शायद शीतल हवा मेरे ललाट को सहला कर गुजर गई.

सुबह दरवाजे पर ताबड़तोड़ थापों से मेरी नींद खुली. मम्मी की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं. मैं भाग कर गेस्टरूम में पहुंची तो कोई नजर नहीं आया. मैं दरवाजे की ओर बढ़ गई.

4 दिन बाद 2 चिट्ठियां लगभग एकसाथ मिलीं. मैं ने एक को खोला. एक तसवीर में मैं तांबे की मूर्ति के बगल में विचित्र मुद्रा में खड़ी थी. साथ में एक कागज भी था. लिखा था :

‘‘इशिताजी,

मैं बड़ीबड़ी बातें करना नहीं जानता, लेकिन कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा जो मेरे लिए शायद सबकुछ हैं. आप कितनी सुंदर हैं यह तो कोई भी आंख वाला समझ सकता है लेकिन जो अंधा है वह इस सच को जानता है कि वह कभी आप को नहीं देख पाएगा. जैसे हर लिखे शब्द का कोई अर्थ नहीं होता है वैसे ही हर भावना के लिए शब्द नहीं हैं, इसलिए मैं ज्यादा लिख भी नहीं सकता. मगर एक चीज ऐसी है जो आप से कहीं अधिक खूबसूरत है, वह है आप का दिल.

हम जीवन में कई चीजों को याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे हमेशा हमारे साथ होती हैं और कुछ चीजों को याद रखने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वे हमारे साथ बस, एक बार होती हैं.

सच कहूं तो आप के साथ गुजरे 2 दिन में मैं ठीक से मुसकरा भी नहीं सका था. जब इतनी सारी हंसी एकसाथ मिल जाए तो इन्हें खोने का गम सताने लगता है. उन 2 दिनों के सहारे तो मैं दो जनम जी लेता फिर ये जिंदगी तो दो पल की है. जानता हूं दुनिया गोल है, बस रास्ते कुछ ज्यादा ही लंबे निकल आते हैं.

जब हम अपने आंगन में खड़े होते हैं तो कभीकभार एक पंछी मुंडेर पर आ बैठता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां से आया. हम बस, उसे देखते हैं, थोड़ा गुस्साते हैं, थोड़ा हंसते भी हैं और थोड़ी देर में वह वापस उड़ जाता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां जाएगा और उसे याद रखने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती है.

जीवन के कुछ लमहे हमारे नाम करने का शुक्रिया.

-एक परिंदा.’’

दूसरी चिट्ठी में ब्लड रिपोर्ट थी. मुझे अपने बारे में पता था. अभिन्न की जांच रिपोर्ट देख कर पलकें उठाईं तो महसूस हुआ कि कोई परिंदा धुंधले आकाश में उड़ चला है…अगणित सितारों की ओर…दिल में  चुभन छोड़ कर.

प्रयास: क्या श्रेया अपने गर्भपात होने का असली कारण जान पाई?

छतपर लगे सितारे चमक रहे थे. असली नहीं, बस दिखाने भर को ही थे. जिस वजह से लगाए गए थे वह तो… खैर, जीवन ठहर नहीं जाता कुछ होने न होने से.

बगल में पार्थ शांति से सो रहे थे. उन के दिमाग में कोई परेशान करने वाली बात नहीं थी शायद. मेरी जिंदगी में भी कुछ खास परेशानी नहीं थी. पर बेवजह सोचने की आदत थी मुझे. मेरे लिए रात बिताना बहुत मुश्किल होता था. इस नीरवता में मैं अपने विचारों को कभी रोक नहीं पाती थी. पार्थ तो शायद जानते भी नहीं थे कि मेरी हर रात आंखों में ही गुजरती है.

मैं शादी से पहले भी ऐसी ही थी. हर बात की गहराई में जाने का एक जनून सा रहता था. पर अब तो उस जनून ने एक आदत का रूप ले लिया था. इसीलिए हर कोई मुझ से कम ही बात करना पसंद करता था. पार्थ भी. जाने कब किस बात का क्या मतलब निकाल बैठूं. वैसे, बुरे नहीं थे पार्थ. बस हम दोनों बहुत ही अलग किस्म के इनसान थे. पार्थ को हर काम सलीके से करना पसंद था जबकि मैं हर काम में कुछ न कुछ नया ढूंढ़ने की कोशिश करती.

उस पहली मुलाकात में ही मैं जान गई थी कि हम दोनों में काफी असमानता है.

‘‘तुम्हें नहीं लगता कि हम घर पर मिलते तो ज्यादा अच्छा रहता?’’ पार्थ असहजता से इधरउधर देखते हुए बोले.

‘‘मुझे लगा तुम मुझ से कहीं अकेले मिलना पसंद करोगे. घर पर सब के सामने शायद हिचक होगी तुम्हें,’’ मैं ने बेफिक्री से कहा.

‘‘तुम? तुम मुझे ‘तुम’ क्यों कह रही हो?’’ पार्थ का स्वर थोड़ा ऊंचा हो गया.

मैं ने इस ओर ज्यादा ध्यान न दे कर एक बार फिर बेफिक्री से कहा, ‘‘तुम भी तो मुझे ‘तुम’ कह रहे हो?’’

उस दिन पार्थ के चेहरे का रंग तो बदला था, लेकिन उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा. मैं भी अपने महिलावादी विचारों में चूर अपने हिसाब से उचित उत्तर दे कर संतुष्ट हो गई.

फेरों के वक्त जब पंडित ने मुझ से कहा कि कभी अकेले जंगल वीराने में नहीं जाओगी, तब इन्होंने हंस कर कहा, ‘‘अकेले तो वैसे भी कहीं नहीं जाने दूंगा.’’

यह सुन कर सभी खिलखिला उठे. मैं ने भी इसे प्यार भरा मजाक समझ कर हंसी में उड़ा दिया. उस वक्त नहीं जानती थी कि वह सिर्फ एक मजाक नहीं था. उस के पीछे पार्थ के मन में गहराई तक बैठी सोच थी. इस जमाने में भी वे औरतों को खुद से कमतर समझते थे.

शादी के बाद हनीमून मना कर जब लौटी तो खुद को हवा में उड़ता पाती थी. लेकिन इस नशे को काफूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. रविवार की एक खुशनुमा सुबह जब मैं ने पार्थ से फिर से नौकरी जौइन करने के बारे में पूछा तो उन के रूखे जवाब ने मुझे एक और झटका दे दिया.

‘‘क्या जरूरत है नौकरी करने की? मैं तो कमा ही रहा हूं.’’

पार्थ के इस उत्तर को सुन कर मेरी आंखों के सामने पुरानी फिल्मों के खड़ूस पतियों की तसवीरें आ गईं. फिर बोली, ‘‘लेकिन शादी से पहले भी तो मैं नौकरी करती ही थी?’’

‘‘शादी से पहले तुम्हारा खर्च तुम्हारे घर वालों को भारी पड़ता होगा. अब तुम मेरी जिम्मेदारी हो. जैसी मेरी मरजी होगी वैसा तुम्हें रखूंगा. इस बारे में मुझे कोई राय नहीं चाहिए,’’ इन्होंने मुझ पर पैनी नजर डालते हुए कहा.

अपने परिवार पर की गई टिप्पणी तीर की तरह चुभी मुझे. अत: फुफकार उठी, ‘‘मैं नौकरी खर्चा निकालने के लिए नहीं, बल्कि अपनी खुशी के लिए करती थी और अब भी करूंगी. मैं भी देखती हूं मुझे कौन रोकता है,’’ इतना कह कर मैं वहां से जाने लगी.

तभी पीछे से पार्थ का ठंडा स्वर सुनाई दिया, ‘‘ठीक है, करो नौकरी, लेकिन फिर मुझ से एक भी पैसे की उम्मीद मत रखना.’’

एक पल को मेरे पैर वहीं ठिठक गए, लेकिन मैं स्वाभिमानी थी, इसलिए बिना उत्तर दिए कमरे से निकल गई.

अब तक काफी कुछ बदल चुका था हमारे बीच. पार्थ को तो खैर वैसे भी कुछ मतलब नहीं था मुझ से और अब मैं ने भी दिमाग पर जोर डालना काफी हद तक छोड़ दिया था. दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त रहते. शाम को थकहार कर खाना खा कर अपनेअपने लैपटौप में खोए रहते. कभीकभी जब पार्थ को अपनी शारीरिक जरूरत पूरा करने का ध्यान आता तो मशीनी तरीके से मैं भी साथ दे देती. उन्हें मेरी रुचि अरुचि से कोई फर्क नहीं पड़ता.

अब तो लड़ने का भी मन नहीं करता था. पहले की तरह अब हमारा झगड़ा कईकई दिनों तक नहीं चलता था, बल्कि कुछ ही मिनटों में खत्म हो जाता. उस का अंत करने में अकसर मैं ही आगे रहती. मुझे अब पार्थ से बहस करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता था. इस का मतलब यह नहीं था कि मैं ने पार्थ के सत्तावादी रवैऐ से हार मान ली थी. उस की हर बात का जवाब देने में अब मुझे आनंद आने लगा था.

उस दिन पार्थ की बहन रितिका के बेटे की बर्थडे पार्टी थी. उन्होंने मुझे शाम को जल्दी घर आने को कहा. वे अपनी बात पूरी कर पाते, उस से पहले ही मैं ने सपाट स्वर में उत्तर दिया, ‘‘मुझे औफिस में देर तक काम है, तुम चले जाना.’’

‘‘अरे, पर मैं अकेले कैसे जाऊंगा? वहां लोग क्या कहेंगे?’’ वे परेशान हो कर बोले.

‘‘वही जो हर बार मेरे अकेले जाने पर मेरे घर वाले कहते हैं,’’ कह कर मैं जोर से दरवाजा बंद कर औफिस के लिए निकल पड़ी.

आंखों में आंसू थे, पर इन के कारण मैं पार्थ के सामने कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. उन्हें कभी एहसास नहीं होता था कि वे क्या गलत कर जाते हैं. उन्हें इस तरह वक्त बेवक्त सुना कर मुझे लगता था कि शायद उन्हें समझा पाऊं कि उन के व्यवहार में क्या कमी है. लेकिन बेरुखी का जवाब बेरुखी से देना, फासला ही बढ़ाता है. कभीकभी लगता कि पार्थ को प्यार से समझाऊं. कई बार कोशिश भी की, लेकिन रिश्ते में मिठास बनाए रखने का प्रयास दोनों ओर से होता है.

एक मौका मिला था मुझे सब कुछ ठीक करने का. तभी आंखें भर आईं. पलक मूंद कर पार्थ के साथ बिताए उन खूबसूरत पलों को फिर से याद करने लगी…

‘‘पा…पार्थ…’’ मैं ने लड़खड़ाते हुए उन्हें पुकारा.

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘पार्थ, मुझे तुम से बहुत जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, बोलो. मैं सुन रहा हूं,’’ वे अब भी अपने लैपटौप में खोए थे.

‘‘पार्थ… मैं…,’’ मेरे मुंह से मारे घबराहट के कुछ निकल ही नहीं रहा था कि पता नहीं पार्थ क्या प्रतिक्रिया देंगे.

‘‘बोलो भी श्रेया क्या बात है?’’ आखिरकार उन्होंने लैपटौप से अपनी नजरें हटा कर मेरी तरफ देखा.

‘‘पार्थ मैं मां बनने वाली हूं,’’ मैं ने पार्थ से नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘सच?’’ उन्होंने झटके से लैपटौप को हटाते हुए खुशी से कहा.

मैं ने उन की तरफ देखा. पार्थ के चेहरे पर इतनी खुशी मैं ने कभी नहीं देखी थी.

उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘हमारे लिए यह सब से बड़ी खुशी की बात है, श्रेया. इस बात पर तो मिठाई होनी चाहिए भई,’’ और फिर मेरा माथा चूम लिया. उस रात काफी वक्त के बाद अपने रिश्ते की गरमाहट मुझे महसूस हुई. उस रात पार्थ कुछ अलग थे, रोजाना की तरह रूखे नहीं थे.

मुझे तो लगा था कि पार्थ यह खबर सुन कर खुश नहीं होंगे. हर दूसरे दिन वे पैसे की तंगी का रोना रोते थे, जबकि हम दोनों की जरूरत से ज्यादा पैसा ही घर में आ रहा था. उन की इस परेशानी का कारण मुझे समझ नहीं आता था. उस पर घर में नए सदस्य के आने की बात मुझे उन्हें और अधिक परेशान करने वाली लगी. लेकिन पार्थ की प्रतिक्रिया से मैं खुश थी, बहुत खुश.

ऐसा लगता था कि पार्थ बदल गए हैं. रोज मेरे लिए नएनए उपहार लाते. चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जाते, मेरे खानेपीने का वे खुद खयाल रखते. औफिस के लिए लेट हो जाना भी उन्हें नहीं अखरता. मुझे नाश्ता करा कर दवा दे कर ही औफिस निकलते थे. अकसर मेरी और अपनी मां से मेरी सेहत को ले कर सलाह लेते.

मेरे लिए यह सब नया था, सुखद भी. पार्थ ऐसे भी हो सकते हैं, मैं ने कभी सोचा नहीं था. उन का उत्साह देख कर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता.

‘‘मुझे तुम्हारी तरह एक प्यारी सी लड़की चाहिए,’’ एक रात पार्थ ने मेरे बालों में उंगलियां घुमाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मुझे तो लड़का चाहिए ताकि ससुराल में पति का रोब न झेलना पड़े,’’ मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा.

‘‘अच्छा… और अगर वह घरजमाई बन बैठा तो?’’ पार्थ के इतना कहते ही हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘मजाक तक ठीक है पार्थ, लेकिन मांजी तो बेटा ही चाहेंगी न?’’ मैं ने थोड़ी गंभीरता से पूछा.

‘‘तुम मां की चिंता न करो. उन्होंने ही तो मुझ से कहा है कि उन्हें पोती ही चाहिए.’’

दरअसल, मांजी अपने स्वामी के आदेशों का पालन कर रही थीं. स्वामी का कहना था कि लड़की होने से पार्थ को तरक्की मिलेगी. इस स्वामी के पास 1-2 बार मांजी मुझे भी ले कर गई थीं. मुझे तो वह हर बाबा की तरह ढोंगी ही लगा. उस का ध्यान भगवान में कम, अपनी शिष्याओं में ज्यादा लगा रहता था. वहां का माहौल भी मुझे कुछ अजीब लगा. लेकिन मांजी की आस्था को देखते हुए मैं ने कुछ नहीं कहा.

घर के हर छोटेबड़े काम से पहले स्वामी से पूछना इस घर की रीत थी. अब जब स्वामी ने कह दिया कि घर में बेटी ही आनी चाहिए, मांबेटा दोनों दोहराते रहते. मांजी मेरी डिलिवरी के 3 महीने पहले ही आ गई थीं. उन्हें ज्यादा तकलीफ न हो, इसलिए मैं कुछ दिनों के लिए मायके जाने की सोच रही थी पर पार्थ ने मना कर दिया.

‘‘तुम्हारे बिना मैं कैसे रहूंगा श्रेया?’’ उन्होंने कहा.

अब मुझे मांबेटे के व्यवहार पर कुछ शक सा होने लगा. मेरा यह शक कुछ ही दिन बाद सही भी साबित हुआ.

‘‘ये सितारे किसलिए पार्थ?’’ पूरा 1 घंटा मुझे इंतजार कराने के बाद यह सरप्राइज दिया था पार्थ ने.

‘‘श्रुति के लिए और किस के लिए जान,’’ श्रुति नाम पसंद किया था पार्थ ने हमारी होने वाली बेटी के लिए.

‘‘और श्रुति की जगह प्रयास हुआ तो?’’ मैं ने फिर चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘हो ही नहीं सकता. स्वामी ने कहा है तो बेटी ही होगी,’’ मैं ने उन की बात सुन कर अविश्वास से सिर हिलाया, ‘‘और हां स्वामी से याद आया कि कल हम सब को उस के आश्रम जाना है. उस ने तुम्हें अपना आशीर्वाद देने बुलाया है,’’ उन्होंने कहा.

मैं चुपचाप लेट गई. मेरे लिए इस हालत में सफर करना बहुत मुश्किल था. स्वामी का आश्रम घर से 50 किलोमीटर दूर था और इतनी देर तक कार में बैठे रहना मेरे बस का नहीं था. पार्थ और उन की मां से बहस करना बेकार था. मेरी कोई भी दलील उन के आगे नहीं चलने वाली थी.

अगले दिन सुबह 9 बजे हम आश्रम पहुंच गए. ऐसा लग रहा था जैसे किसी जश्न की तैयारी थी.

‘‘स्वामी ने आज हमारे लिए खास पूजा की तैयारी की है,’’ मांजी ने बताया.

कुछ ही देर में हवनपूजा शुरू हो गई. इतनी तड़कभड़क मुझे नौटंकी लग रही थी. पता नहीं पार्थ से कितने पैसे ठगे होंगे इस ढोंगी ने. पार्थ तो समझदार हैं न. लेकिन नहीं, जो मां ने कह दिया वह काम आंखें मूंद कर करते जाना है.

पूजा खत्म होने के बाद स्वामी ने सभी को चरणामृत और प्रसाद दिया. उस के बाद उस के प्रवचन शुरू हो गए. उन बोझिल प्रवचनों से मुझे नींद आने लगी.

मैं पार्थ को जब यह बताने लगी तो मांजी बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘नींद आ रही है तो यहीं आराम कर लो न, बहुत शांति है यहां.’’

‘‘नहीं मांजी, मैं घर जा कर आराम कर लूंगी,’’ मैं ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, ऐसे वक्त में सेहत के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए. मैं अभी स्वामी से कह कर इंतजाम करवाती हूं.’’

5 मिनट में ही स्वामी की 2 शिष्याएं मुझे विश्रामकक्ष की ओर ले चलीं. कमरे में बिलकुल अंधेरा था. बिस्तर पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला. जब नींद खुली तो सिर भारी लग रहा था. कमरे में मेरे अलावा और कोई नहीं था. मैं ने हलके से आवाज दे कर पार्थ को बुलाया. शायद वे कमरे के बाहर ही खड़े थे, आवाज सुनते ही आ गए.

अभी हम आश्रम से कुछ ही मीटर की दूरी पर आए थे कि मेरे पेट में जोर का दर्द उठा. मुझे बेचैनी हो रही थी. पार्थ के चेहरे पर जहां परेशानी थी, वहीं मांजी मुझे धैर्य बंधाने की कोशिश कर रही थीं. मुझे खुद से ज्यादा अपने बच्चे की चिंता हो रही थी.

कब अस्पताल पहुंचे, उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं. जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया.

शाम को मांजी मुझ से मिलने आईं. लेकिन मेरी नजरें पार्थ को ढूंढ़ रही थीं.

‘‘वह किसी काम में फंस गया है. कल सुबह आएगा तुम से मिलने,’’ मांजी ने झिझकते हुए कहा.

 

मगर पार्थ अगली सुबह नहीं आए. अब तक मैं यह तो जान ही चुकी थी कि मैं अपना बच्चा खो चुकी हूं. लेकिन उस का कारण नहीं समझ पा रही थी. न तो मैं शारीरिक रूप से कमजोर थी और न ही कोई मानसिक परेशानी थी मुझे. कोई चोट भी नहीं पहुंची थी. फिर वह क्या चीज थी जिस ने मुझ से मेरा बच्चा छीन लिया?

2 दिन बाद पार्थ मुझ से मिलने आए. न जाने क्यों मुझ से नजरें चुरा रहे थे. पिछले कुछ महीनों का दुलारस्नेह सब गायब था. मांजी के व्यवहार में भी एक अजीब सी झिझक मुझे हर पल महसूस हो रही थी.

खैर, मुझे अस्पताल से छुट्टी मिलने के कुछ ही दिन बाद मांजी चली गईं, लेकिन मेरे और पार्थ के बीच की खामोशी गायब होने का नाम ही नहीं ले रही थी. शायद मुझ से ज्यादा पार्थ उस बच्चे को ले कर उत्साहित थे. कई बार मैं ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कभी अपनी नाराजगी को ले कर मुंह नहीं खोला.

उस दिन से ले कर आज तक कुछ नहीं बदला था. एक ही घर में हम 2 अजनबियों की तरह रह रहे थे. अब न तो पार्थ का गुस्सैल रूप दिखता था और न ही स्नेहिल. अजीब से कवच में छिप गए थे पार्थ.

अचानक आई तेज खांसी ने मेरी विचारशृंखला को तोड़ दिया. पानी पीने के लिए उठी तो छाती में दर्द महसूस हुआ. ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने जकड़ लिया हो. पानी पीपी कर जैसेतैसे रात काटी. सुबह उठी, तब भी बदन में हरारत हो रही थी. बिस्तर पर पड़े रहने से और बीमार पड़ूंगी, यह सोच कर उठ खड़ी हुई. पार्थ के लिए नाश्ता बनाते वक्त भी मैं खांस रही थी.

‘‘तुम्हें काफी दिनों से खांसी है. पूरी रात खांसती रहती हो,’’ नाश्ते की टेबल पर पार्थ ने कहा.

‘‘उन की आवाज सुन कर मैं लगभग चौंक पड़ी. पिछले कुछ दिनों से उन की आवाज ही भूल चुकी थी मैं.’’

‘‘बस मामूली सी है, ठीक हो जाएगी,’’ मैं ने हलकी मुसकान के साथ कहा.

‘‘कितनी थकी हुई लग रही हो तुम? कितनी रातों से नहीं सोई हो?’’ पार्थ ने माथा छू कर कहा, ‘‘अरे, तुम तो बुखार से तप रही हो. चलो, अभी डाक्टर के पास चलते हैं.’’

‘‘लेकिन पार्थ…’’ मैं ने कुछ बोलने की कोशिश की, लेकिन पार्थ नाश्ता बीच में ही छोड़ कर खड़े हो चुके थे.

गाड़ी चलाते वक्त पार्थ के चेहरे पर फिर से वही परेशानी. मेरे लिए चिंता दिख रही थी. मेरा बीमार शरीर भी उन की इस फिक्र को महसूस कर आनंदित हो उठा.

जांच के बाद डाक्टर ने कई टैस्ट लिख दिए. इधर पार्थ मेरे लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे, उधर मैं उन की इस भागदौड़ पर निहाल हुए जा रही थी. सूई के नाम से ही घबराने वाली मैं ब्लड टैस्ट के वक्त जरा भी नहीं कसमसाई. मैं तो पूरा वक्त बस पार्थ को निहारती रही थी.

मेरी रिपोर्ट अगले दिन आनी थी. पार्थ मुझे ले कर घर आ गए. औफिस में फोन कर के 3 दिन की छुट्टी ले ली. मेरे औफिस में भी मेरे बीमार होने की सूचना दे दी.

‘‘कितने दिन औफिस नहीं जाओगे पार्थ? मैं घर का काम तो कर ही सकती हूं,’’ पार्थ को चाय बनाते हुए देख मैं सोफे से उठने लगी.

‘‘चुपचाप लेटी रहो. मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूं,’’ उन्होंने मुझे झिड़कते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा… मुझे काम मत करने दो… मांजी को बुला लो,’’ मैं ने सुझाव दिया.

कुछ देर तक पार्थ ने अपनी नजरें नहीं उठाईं. फिर दबे स्वर में कहा, ‘‘नहीं, मां को बेवजह परेशान करने का कोई मतलब नहीं है. मैं बाई का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘बाई? पार्थ ठीक तो है?’’ मैं ने सोचा.

एक बार जब मैं ने झाड़ूपोंछे के लिए बाई का जिक्र किया था तो पार्थ भड़क उठे थे, ‘‘बाइयां घर का काम बिगाड़ती हैं. आज तक तो तुम्हें घर का काम करने में कोई परेशानी नहीं हुई थी. अब अचानक क्या दिक्कत आ गई?’’

‘‘पार्थ, तुम्हें पता है न मुझे सर्वाइकल पेन रहता है. दर्द के कारण रात भर सो नहीं पाती,’’ मैं ने जिद की.

‘‘देखो श्रेया, अभी हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि घर में बाई लगा सकें,’’ उन्होंने अपना रुख नर्म करते हुए कहा.

मगर मैं ने पूरी प्लानिंग कर रखी थी. अत: बोली, ‘‘अरे, उस की तनख्वाह मैं अपने पैसों से दे दूंगी.’’

मेरी बात सुनते ही पार्थ का पारा चढ़ गया. बोले, ‘‘अच्छा, अब तुम मुझे अपने पैसों का रोब दिखाओगी?’’

‘‘नहीं पार्थ, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘इस घर में कोई बाई नहीं आएगी. अगर जरूरत पड़ी तो मां को बुला लेंगे,’’ उन्होंने करवट लेते हुए कहा.

आज वही पार्थ मांजी को बुलाने के बजाय बाई रखने पर जोर दे रहे थे. पिछले कुछ दिनों से पार्थ सिर्फ मुझ से ही नहीं मांजी से भी कटने लगे थे. अब तो मांजी का फोन आने पर भी संक्षिप्त बात ही करते थे.

कहां, क्या गड़बड़ थी मुझे समझ नहीं आ रहा था. अपना बच्चा खोने के कारण मुझे कुसूरवार मान कर रूखा व्यवहार करना समझ आता था, लेकिन मांजी से उन की नाराजगी को मैं समझ नहीं पा रही थी.

अगली सुबह अस्पताल जाने से पहले ही मांजी का फोन आ गया. पार्थ बाथरूम में थे तो मैं ने ही फोन उठाया.

‘‘हैलो, हां श्रेया कैसी हो बेटा?’’ मेरी आवाज सुनते ही मांजी ने पूछा.

‘‘ठीक हूं मांजी. आप कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बस बाबा की कृपा है बेटा. पार्थ से बात कराना जरा.’’

तभी पार्थ बाथरूम से निकल आए, तो मैं ने मोबाइल उन के हाथ में थमा दिया. उन की बातचीत से तो नहीं, लेकिन इन के स्वर की उलझन से मुझे कुछ अंदेशा हुआ, ‘‘क्या हुआ? मांजी किसी परेशानी में हैं क्या?’’ पार्थ के फोन काटने के बाद मैं ने पूछा.

‘‘अरे, उन्हें कहां कोई परेशानी हो सकती है. उन की रक्षा के लिए तो दुनिया भर के बाबा हैं न,’’ उन्होंने कड़वाहट से उत्तर दिया.

‘‘वह उन की आस्था है पार्थ. इस में इतना नाराज होने की क्या बात है? उन का यह विश्वास तो सालों से है और जहां तक मैं जानती हूं अब तक तुम्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं थी. अब अचानक क्या हुआ?’’ मैं ने शांत स्वर में पूछा.

‘‘ऐसी आस्था किस काम की है श्रेया जो किसी की जान ले ले,’’ उन्होंने नम स्वर में कहा.

मैं अचकचा गई, ‘‘जान? मांजी किसी की जान थोड़े ही लेंगी पार्थ. तुम भी न.’’

‘‘मां नहीं, लेकिन उन की आस्था एक जान ले चुकी है,’’ पार्थ का स्वर गंभीर था. वे सीधे मेरी आंखों में देख रहे थे. उन आंखों का दर्द मुझे आज नजर आ रहा था. मैं चुप थी. नहीं चाहती थी कि कई महीनों से जो मेरे दिमाग में चल रहा है वह सच बन कर मेरे सामने आए.

मेरी खामोशी भांप कर पार्थ ने कहना शुरू किया, ‘‘हमारे बच्चे का गिरना कोई हादसा नहीं था श्रेया. वह मांजी की अंधी आस्था का नतीजा था. मैं भी अपनी मां के मोह में अंधा हो कर वही करता रहा जो वे कहती थीं. उस दिन जब हम स्वामी के आश्रम गए थे तो तुम्हें बेहोश करने के लिए तुम्हारे प्रसाद में कुछ मिलाया गया था ताकि जब तुम्हारे पेट में पल रहे बच्चे के लिंग की जांच हो तो तुम्हें पता न चले.

‘‘मां और मैं स्वामी के पास बैठे थे. वहां क्या हो रहा था, उस की मुझे भनक तक नहीं थी. थोड़ी देर बाद स्वामी ने मां से कुछ सामान मंगाने को कहा. मैं सामान लेने बाहर चला गया, जब तक वापस आया, तुम होश में आ चुकी थीं. उस के बाद क्या हुआ, तुम जानती हो,’’ पार्थ का चेहरा आंसुओं से भीग गया था.

‘‘लेकिन पार्थ इस में मांजी कहां दोषी हैं? तुम केवल अंदाज के आधार पर उन पर आरोप कैसे लगा सकते हो?’’ मैंने उन का चेहरा अपने हाथों में लेते हुए पूछा. मेरा दिल अब भी मांजी को दोषी मानने को तैयार नहीं था.

पार्थ खुद को संयमित कर के फिर बोलने लगे, ‘‘यह मेरा अंदाजा नहीं है श्रेया. जिस शाम तुम अस्पताल में दाखिल हुईं, मैं ने मां को स्वामी को धन्यवाद देते हुए सुना. उन का कहना था कि स्वामी की कृपा से हमारे परिवार के सिर से काला साया हट गया.

‘‘मैं ने मां से इस बारे में खूब बहस की. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मां हमारे बच्चे के साथ ऐसा कर सकती हैं.’’

अब पार्थ मुझ से नजरें नहीं मिला पा रहे थे. मेरी आंखें जल रही थीं. ऐसा लग रहा था जैसे मेरे अंदर सब कुछ टूट गया हो. लड़खड़ाती हुई आवाज में मैं ने पूछा, ‘‘लेकिन क्यों पार्थ? सब कुछ तो उन की मरजी से हो रहा था? क्या स्वामी के मुताबिक मेरे पेट में लड़की नहीं थी?’’

पार्थ मुझे नि:शब्द ताकते रहे. फिर अपनी आंखें बंद कर के बोलने लगे, ‘‘वह लड़की ही थी श्रेया. वह हमारी श्रुति थी. हम ने उसे गंवा दिया. एक बेवकूफी की वजह से वह हम से बहुत दूर चली गई,’’ पार्थ अब फूटफूट कर रो रहे थे. इतने दिनों में जो दर्द उन्होंने अपने सीने में दबा रखा था वह अब आंसुओं के जरीए निकल रहा था.

‘‘पर मांजी तो लड़की ही चाहती थीं न और स्वामी ने भी यही कहा था?’’ मैं अब भी असमंजस में थी.

‘‘मां कभी लड़की नहीं चाहती थीं श्रेया. तुम सही थीं, उन्होंने हमेशा एक लड़का ही चाहा था. जब से स्वामी ने हमारे लिए लड़की होने की बात कही थी, तब से वे परेशान रहती थीं. वे अकसर स्वामी के पास अपनी परेशानी ले कर जाने लगीं. स्वामी मां की इस कमजोरी को भांप गया था. उस ने पैसे ऐंठने के लिए मां से कह दिया कि अचानक ग्रहों की स्थिति बदल गई है. इस खतरे को सिर्फ और सिर्फ एक लड़के का जन्म ही दूर कर सकता है.

‘‘उस ने मां से एक अनुष्ठान कराने को कहा ताकि हमारे परिवार में लड़के का जन्म सुनिश्चित हो सके. मां को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई. उन्होंने मुझे इस बात की कानोंकान खबर न होने दी.

‘‘पूजा वाले दिन जब मैं आश्रम से बाहर गया तो स्वामी और उस के शिष्यों ने तुम्हारे भ्रूण की जांच की तो पता चला कि वह लड़की थी. अब स्वामी को अपने ढोंग के साम्राज्य पर खतरा मंडराता प्रतीत हुआ. तब उस ने मां से कहा कि ग्रहों ने अपनी चाल बदल ली है. अब अगर बच्चा नहीं गिराया गया तो परिवार को बरबाद होने से कोई नहीं रोक सकता. मां ने अनहोनी के डर से हामी भर दी. एक ही पल में हम ने अपना सब कुछ गंवा दिया,’’ पार्थ ने अपना चेहरा अपने हाथों में छिपा लिया.

मैं तो जैसे जड़ हो गई. वे एक मां हो कर ऐसा कैसे कर सकती थीं? उस बच्चे में उन का भी खून था. वे उस का कत्ल कैसे कर सकती थीं और वह ढोंगी बाबा सिर्फ पैसों के लिए किसी मासूम की जान ले लेगा?

‘‘मां तुम्हें अब भी उस ढोंगी बाबा के पास चलने को कह रही थीं?’’ मैं ने अविश्वास से पूछा.

‘‘नहीं, अब उन्होंने कोई और चमत्कारी बाबा ढूंढ़ लिया है, जिस के प्रसाद मात्र के सेवन से सारी परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है.’’

‘‘तो क्या मांजी की आंखों से स्वामी की अंधी भक्ति का परदा हट गया?’’ मैं ने पूछा.

पार्थ गंभीर हो गए, ‘‘नहीं, उन्हें मजबूरन उस ढोंगी की भक्ति त्यागनी पड़ी. वह ढोंगी स्वामी अब जेल में है. जिस रात मुझे उस की असलियत पता चली, मैं धड़धड़ाता हुआ पुलिस के पास जा पहुंचा. अपने बच्चे के को मैं इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाला था. अगली सुबह पुलिस ने आश्रम पर छापा मारा तो लाखों रुपयों के साथसाथ सोनोग्राफी मशीन भी मिली. उसे और उस के साथियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. उस ढोंगी को उस के अपराध की सजा दिलाने में व्यस्त होने के कारण ही कुछ दिन मैं तुम से मिलने अस्पताल नहीं आ पाया था.’’

‘‘उफ, पार्थ,’’ कह कर मैं उन से लिपट गई. अब तक रोकी हुई आंसुओं की धारा अविरल बह निकली. पार्थ का स्पर्श मेरे अंदर भरे दुख को बाहर निकाल रहा था.

‘‘आप इतने वक्त से मुझ से नजरें क्यों चुराते फिर रहे थे?’’ मैं ने थोड़ी देर बाद सामान्य हो कर पूछा.

‘‘मुझे तुम से नजरें मिलाने में शर्म महसूस हो रही थी. जो कुछ भी हुआ उस में मेरी भी गलती थी. पढ़ालिखा होने के बावजूद मैं मां के बेतुके आदेशों का आंख मूंद पालन करता रहा. मुझे अपनेआप को सजा देनी ही थी.’’

उन के स्वर में बेबसी साफ झलक रही थी. मैं ने और कुछ नहीं कहा, बस अपना सिर पार्थ के सीने पर टिका दिया.

शाम के वक्त हम अस्पताल से रिपोर्ट ले कर लौट रहे थे. मुझे टीबी थी. डाक्टर ने समय पर दवा और अच्छे खानपान की पूरी हिदायत दी थी. कार में एक बार फिर चुप्पी थी. पार्थ और मैं दोनों ही अपनी उलझन छिपाने की कोशिश कर रहे थे.

तभी पार्थ के फोन की घंटी बजी. मां का फोन था. पार्थ ने कार रोक कर फोन स्पीकर पर कर दिया.

मांजी बिना किसी भूमिका के बोलने लगीं, ‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं पार्थ? श्रेया को टीबी है?’’

अस्पताल में रितिका का फोन आने पर पार्थ ने उसे अपनी परेशानी बताई थी. शायद उसी से मां को मेरी बीमारी के बारे में पता चला था.

‘‘पहले अपशकुनी बच्चा और अब टीबी… मैं ने तुम से कहा था न कि यह लड़की हमारे परिवार के लिए परेशानियां खड़ी कर देगी.’’

पार्थ का चेहरा सख्त हो गया. बोला, ‘‘मां, श्रेया को मेरे लिए आप ने ही ढूंढ़ा था. तब तो आप को उस में कोई ऐब नजर नहीं आया था. इस दुनिया का कोई भी बच्चा अपने मांबाप के लिए अपशकुनी नहीं हो सकता.’’

मांजी का स्वर थोड़ा नर्म पड़ गया, ‘‘पर बेटा, श्रेया की बीमारी… मैं तो कहती हूं कि उसे एक बार बाबाजी का प्रसाद खिला लाते हैं. सब ठीक हो जाएगा.’’

पार्थ गुस्से में कुछ कहने ही वाले थे, लेकिन मैं ने हलके से उन का हाथ दबा दिया. अत: थोड़े शांत स्वर में बोले, ‘‘अब मैं अपनी श्रेया को किसी ढोंगी बाबा के पास नहीं ले जाने वाला और बेहतर यही होगा कि आप भी इन सब चक्करों से दूर रहो. श्रेया को यह बीमारी उस की शारीरिक कमजोरी के कारण हुई है. इतने वक्त तक वह मेरी उपेक्षा का शिकार रही है. वह आज तक एक बेहतर पत्नी साबित होती आई है, लेकिन मैं ही हर पल उसे नकारता रहा. अब मुझे अपना पति फर्ज निभाना है. उस का अच्छी तरह खयाल रख कर उसे जल्द से जल्द ठीक करना है.’’

मांजी फोन काट चुकी थीं. पार्थ और मैं न जाने कितनी देर तक एकदूसरे को निहारते रहे.

घर लौटते वक्त पार्थ का बारबार प्यार भरी नजरों से मुझे देखना मुझ में नई ऊर्जा का संचार कर रहा था. हमारी जिंदगी में न तो श्रुति आ सकी और न ही प्रयास, लेकिन हमारे रिश्ते में मिठास भरने के प्रयासों की श्रुति शीघ्र ही होगी, इस का आभास मुझे हो रहा था.

हौसले की उड़ान : बदनामी की धार सिर्फ स्त्री के लिए ही क्यों है?

Writer-  रेखा भारती मिश्रा

सुमन  दोपहर का खाना बना रही थी. उस की सास बिट्टो को ले कर हौल में बैठी थी. हौल में बिट्टो के खिलौने बिखरे पड़े थे. बिट्टो सुमन की डेढ़ वर्षीय बेटी थी. सुमन की शादी को अभी 3 साल हीं हुए थे.

सुमन उसे याद है अमन ने उस को एक बार देखा और पसंद कर लिया था. परिवार वाले भी सुमन को बहू बनाने को तैयार थे. लेकिन जब लेनदेन की बात आई तो सुमन के पिता ने हाथ जोड़ लिए और बोले, ‘‘रिटायर आदमी हूं, क्लर्क की नौकरी करता था. ऐसे में भला कहां से मोटी रकम जुटा पाऊंगा. बरात के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा. जो भी जमा किया पैसा है उसी में खर्च हो जाएगा. मैं दहेज नहीं दे पाऊंगा समधीजी.’’

अमन के परिवार वाले शादी के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन अमन की जिद्द के आगे किसी की नहीं चली, ‘‘हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं तो फिर दहेज की मोटी रकम के नाम पर सुमन जैसी लड़की को छोड़ना कितना उचित है? मु?ो सुमन बहुत पसंद है, मेरी शादी यहीं होगी,’’ और फिर उन की शादी हो गई.

अमन के पिता का कपड़ों का व्यवसाय था. सुपर मार्केट में उन की कपड़ों की एक बड़ी दुकान थी जहां अमन, उस का भाई और पिता तीनों बैठते थे. अमन भाई के साथ दोपहर का खाना खाने घर आता था और खाने के बाद

दुकान चला जाता. तब उस के बाद पिताजी आते और खा कर 2 घंटे आराम और फिर शाम में दुकान जाते थे.

रोज की भांति आज भी अमन अपने भाई को ले कर बाइक से घर लौट रहा था. तभी रास्ते में एक टैंपो वाले ने तेजी से बढ़ते हुए जोर का धक्का मारा जिस से अमन का बैलेंस लड़खड़ाया और वह टप्पा खाते हुए एक दूसरी कार पर जा गिरा. अमन का भाई भी दूसरी तरफ जा गिरा और सड़क पर भीड़ लग गई. घर वालों को जैसे ही सूचना मिली वे बदहवास भागे. अमन को गहरी चोटें आई थीं. उस के भाई को भी फै्रक्चर हो गया था मगर उस की जान बचा ली गई. इधर अमन को डाक्टर नहीं बचा पाए.

घर में मातम ने डेरा डाल दिया था. सुमन की तो दुनिया ही उजड़ गई. लेकिन उस के दुखों का सिलसिला शायद अब शुरू हुआ था. अमन को गुजरे अभी महीना भी नहीं हुआ था कि घर वालों ने सुमन को अपने साथ रखने से इनकार कर दिया.

वह मानसिक यातना ?ोलने लगी. वह कोशिश कर रही थी कि दृढ़ हो कर रहे मगर अमन के विछोह से कमजोर पड़ी सुमन घर वालों के प्रतिकूल व्यवहार से टूट रही थी.

वृद्ध पिता से सुमन का दुख देखा नहीं जा रहा था. उन्होंने सुमन को मायके बुला लिया. हालांकि सुमन  जाना नहीं चाहती थी. उसे एहसास था कि यहां से जाते हीं ससुराल वालों के मन की  बात हो जाएगी. फिर भी बिट्टो को देखते हुए वह भी मायके जाने को तैयार हो गई.

पिता ने भी सम?ाया, ‘‘अभी जख्म ताजा हैं, उन्हें भरने में समय लगेगा. तुम अपनी हालत को देखो. यदि तुम लड़खड़ा जाओगी तो बिट्टो को कौन संभालेगा? एक दिन सब ठीक हो जाएगा. इसलिए कुछ दिन यहीं हमारे साथ रहो.’’

सुमन बिट्टो को ले कर मायके आ गई. मायके में मां भले ही नहीं थीं मगर पिता ने सुमन को भरपूर सहारा दिया. अपने शब्दों से उसे मजबूत करते रहते. धीरेधीरे सुमन गम से निकलने की कोशिश करने लगी. उस का अधिकांश समय बिट्टो और वृद्ध पिता के साथ बीतता. घर के कामों में भी भाभी को भरपूर सहयोग देती

मगर भाभी को सुमन से कोई खास लगाव नहीं था. सुमन को मायके में रहते हुए कुछ महीने हो गए लेकिन ससुराल वाले उस की खोजखबर नहीं लेते. वह यदाकदा फोन करती भी तो ससुराल के लोग नंबर देख कर ही कौल काट देते. यहां तक कि सुमन के मायके से किसी का भी फोन जाता तो वे लोग बात नहीं करते. अब सुमन का ससुराल वालों से कोई रिश्ता नहीं रह गया था.

सुमन का भाई एक प्राइवेट कंपनी में अच्छी पोस्ट पर काम करता था. तनख्वाह भी अच्छीखासी थी. मगर फिर भी उस की भाभी पैसों की तंगी का रोना रोती रहती. पिताजी की पैंशन भी उन्हीं लोगों के हाथ रहती.  पिताजी की सारी जरूरतें उन की पैंशन से पूरी कर दी जातीं. फिर बची रकम घर खर्च में लगा देते हैं. सुमन और बिट्टो वहां बस अपने दिन गुजार रहे थे.

बिट्टो की भी जरूरतें बढ़ रही थीं. आखिर कब तक सुमन इधरउधर हाथ पसारती. पिता की अवस्था देख कर सुमन भैयाभाभी के व्यवहार के बारे में कुछ नहीं कहती. वह अपने पिता को किसी भी प्रकार से दुखी नहीं करना चाहती थी इसलिए वह एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी करने लगी. उस ने स्कूल जाना शुरू कर दिया मगर बिट्टो को उस की भाभी संभालने को तैयार नहीं हुई. पिता के पास चाह कर भी नहीं छोड़ सकती थी. अब इस उम्र में वे कहां इस बच्ची के पीछे भागते. सुमन बिट्टो को अपने साथ ले कर जाने लगी. वहां स्कूल स्टाफ, सहायिका आदि हाथोंहाथ बच्चे को संभाल लेते. बिट्टो नन्हेनन्हे पैरों से इधरउधर भागती, खेलती.

सुमन अपने काम और बिट्टो में उल?ा कर कुछ सुकून के पल तलाशने में कामयाब होने लगी लेकिन कालचक्र से सुमन का यह सुकून देखा नहीं गया. समय ने करवट बदली. सुमन के पिता को टाइफाइड हो गया जिस में वे गंभीर इन्फैक्शन के शिकार हो गए. इलाज हो रहा था लेकिन बीमारी बढ़ती जा रही थी. उन का वृद्ध शरीर बीमारी के कारण और भी जर्जर हो गया. एक दिन वे इस दुनिया से विदा हो गए. पीछे छूट गया सुमन और बिट्टो का उल?ा जीवन.

मायके में पिता ही मजबूत सहारा थे जिस से सुमन मुश्किल भरे दिनों में भी टिकी हुई थी. अब तो भैयाभाभी पर वह पूरी बो?ा ही लग रही थी, ‘‘अब हम अपनी गृहस्थी देखे या सुमन का जीवन. हमारे बच्चों की तो इस महंगाई में बहुत मुश्किल से कुछ जरूरतें पूरी हो पाती हैं. फिर इस बिट्टो का भार कौन उठाएगा. पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह,’’ भाभी ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘हम आप पर बो?ा कहां हैं. मैं स्कूल में पढ़ाती हूं और अपना खर्च निकाल लेती हूं,’’ बोलते हुए सुमन की आवाज में दर्द था.

‘‘अपना रोज का खर्च ही तो निकालती हो. उस के अलावा भी तो कई खर्चे हैं जो हमें चलाने पड़ते हैं. रहने का, खाने का, त्योहारों में कपड़े, उपहार देने का.’’

भाभी की बातों ने सुमन को बहुत ही आहत किया. भैया की चुप्पी में सुमन को भाभी के लिए उन का मौन समर्थन नजर आया. सुमन ने मंथन किया. उसे महसूस हुआ कि छोटेमोटे खर्चे के लिए चंद रुपए कमाने से कुछ नहीं होगा. अब उसे अपनी और बिट्टो की जिंदगी को सुरक्षित करना होगा. वह एक वकील से मिली और फिर ससुराल में अपनी हिस्सेदारी के लिए कोर्ट में एक अपील दायर करवाई. सुमन ने अर्जी तो लगा दी मगर उस पर फैसला आना इतना आसान नहीं था. एक तो वैसे ही कोर्ट में न जाने कितने मामले लंबित पड़े थे. ऊपर से सुमन के ससुराल वाले पैसे का लेनदेन कर के मैनेज कर लेते और अपने वकील से तारीख बढ़वा देते. इस तरह सुमन को ससुराल से इतनी आसानी से कुछ मिलने वाला नहीं था.

इधर भाभी का व्यवहार सुमन को टीसता रहता. एक दिन भाभी ने सुमन को शादी करने की सलाह दी.

‘‘भाभी,’’ मैं दूसरी बार दुलहन बनने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हूं. मैं फिलहाल सिर्फ और सिर्फ बिट्टो की मां बन कर जीना चाहती हूं.’’

‘‘दूसरी शादी करने में भला बुराई ही क्या है? भरी जवानी में यों घूमना और अकेले रहना… तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर यह समाज हम पर ताने कसेगा कि जवान ननद के जीवन के बारे में कुछ नहीं सोचा. ऊपर से कल को हम ने अपने बच्चों का भी तो रिश्ता करना है. तुम्हारी शादी नहीं होगी तो उन का भविष्य प्रभावित होगा,’’ भाभी ने फिर शब्दों के तीर छोड़े.

‘‘लेकिन मेरी शादी से उन के भविष्य का क्या संबंध और वैसे भी समाज क्या कहेगा, मैं कुंआरी नहीं विधवा हूं और जीने के लिए एक सहारा ही काफी है बिट्टो.’’

‘‘एक जवान महिला आखिर कब तक अकेले रहेगी. समाज ऐसी महिलाओं के चरित्र को गलत नजर से देखता है,’’ भाभी ने कटाक्ष भरे लहजे में कहा.

यह बात सुमन को भीतर तक चुभ गई मगर खुद को संयमित रखते हुए बोली, ‘‘मैं ऐसे समाज या लोगों की परवाह नहीं करती और वैसे भी जब किसी के पास औरत से जीतने के तरीके नहीं होते तो वे स्त्री के चरित्र पर हीं छींटाकशी करने का हथकंडा अपनाते हैं,’’ यह कहते हुए सुमन वहां से चली गई.

मगर बात यहीं पर खत्म नहीं हुई. सुमन की भाभी किसी भी तरह से उस की शादी करवाने में लगी रहती. इस के लिए वह अपने पति की भी रजामंदी ले लेती. अब सुमन के भैया भी उस पर शादी कर लेने का दबाव डालते हैं. वे बिट्टो की अच्छी परवरिश का हवाला देते.

दबावों से घिरी सुमन दूसरी शादी के लिए तैयार हो गई. सुमन की भाभी अपने मायके में एक दूर के रिश्तेदार के यहां उस की शादी करवाना चाहती थी. वह व्यक्ति विधुर था. उस के 2 बच्चे थे 1 लड़का और 1 लड़की. बहुत मुश्किल से सुमन हामी भर पाई. सोचा चलो बिट्टो को खेलने के लिए 2 दोस्त मिल जाएंगे और वह भी शायद 3 बच्चों के बीच अपने दुख को ढक कर मुसकराहट के पलों को संवार पाएगी. मगर शादी के बाद वे लोग बिट्टो को अपनाने को तैयार नहीं थे. उन लोगों ने सिर्फ सुमन को ही अपनाने की बात बताई.

यह सुन कर सुमन काफी नाराज हो गई और शादी करने से इनकार कर दिया.

‘‘बिट्टो को नहीं अपना रहे हैं तो क्या तुम्हें तो बहू बना कर पूरा मान देने को तैयार हैं न. बड़े घर में जा रही हो. किसी चीज की कमी नहीं है वहां,’’ भाभी ?ाल्ला कर बोली.

‘‘सब से बड़ी कमी तो मेरी बिट्टो की होगी भाभी. मैं बिट्टो को नहीं छोड़ूंगी.’’

‘‘अरे छोड़ना क्या है, बिट्टो को किसी अनाथाश्रम में रखवा देते हैं. वहां जा कर कभीकभी अपनी बेटी से मिल लिया करना.’’

‘‘भाभी,’’ सुमन गुस्से से बोली, ‘‘आप सोच भी कैसे सकती है कि मेरी बिट्टो अनाथाश्रम में रहेगी. माना कि उस के सिर पर पिता का हाथ नहीं है मगर उस की मां जीवित है. मेरी बिट्टो अनाथ नहीं है.’’

‘‘ठीक है, जो मन में आए वह करो लेकिन हम से किसी प्रकार की मदद की उम्मीद नहीं करना. अपनी व्यवस्था खुद देख लो,’’ भाभी ने दोटूक जवाब दिया.

सुमन की अपनी भाभी से जोरदार बहस हुई. वह एक बार फिर से दुख की गहराई में उतर रही थी. उसे अपने जीवन में चारों तरफ अंधकार ही अंधकार नजर आ रहा था. मगर उसे बिट्टो के लिए उजाला लाना था. खुशियों के लमहे समेटने थे.

अत: उस ने स्वयं को कठोर बनाना बेहतर सम?ा. उसे आभास हो रहा था कि यदि इस पल वह कमजोर हो गई तो वह रौंद दी जाएगी. उस का अस्तित्व हाशिए पर चला जाएगा और बिट्टो बिट्टो का क्या होगा.

इसी द्वंद्व के बीच रात गुजर गई. सुबह हुई तो भैया ने सुमन को भाभी से माफी मांगने के लिए कहा लेकिन सुमन ने माफी मांगने से इनकार कर दिया और स्पष्ट जवाब दिया, ‘‘मेरा फैसला है कि मैं वहां शादी नहीं करूंगी और हां जब तक मेरी कोई ठोस व्यवस्था न हो जाए या लाइफ सिक्योर न हो जाए तब तक मैं यहां से जाने वाली भी नहीं. मत भूलो, मायके में मेरा भी अधिकार है,’’ कह कर सुमन तैयार हो बिट्टो को ले कर स्कूल चली गई.

इधर सुमन की बातें सुन कर भैयाभाभी दंग थे.

सुमन स्कूल तो आ गई लेकिन आज उस का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. वह खुद को सहज दिखाने की भरपूर कोशिश कर रही थी मगर उस के चेहरे के भाव और माथे पर खिंचती लकीरें उस की असहजता का एहसास करा रही थीं जिन्हें पुलकित आसानी से देख रहा था. पुलकित उस स्कूल में संगीत शिक्षक था और सुमन के साथ उस की अच्छी निभती थी.

‘‘क्या बात है सुमन, आज कुछ ज्यादा ही परेशान लग रही हो?’’

‘‘नहीं तो,’’ सुमन ने खुद को सामान्य दिखाने की कोशिश की.

‘‘लेकिन मु?ो एहसास है तुम्हारी परेशानी का. मु?ो सिर्फ कलीग नहीं अपना हमदर्द भी सम?ा,’’ कहते हुए पुलकित ने सुमन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

पुलकित के हाथ के स्पर्श ने सुमन को अपनेपन का एहसास कराया. वह चाहती तो अपने हाथों को खींच सकती थी मगर ऐसा कर न सकी. एक लंबी सांस खींचते हुए उस ने अपनी बातें पुलकित को बता दीं.

‘‘तुम्हारी परिस्थितियां विकट होती जा रही हैं. तुम्हें ससुराल वालों के साथसाथ अपने मायके वालों से भी संघर्ष करना पड़ रहा है. मु?ो डर है कि कहीं विचलित हो कर तुम कोई गलत कदम न उठा लो.’’

‘‘नहीं पुलकित, मु?ो बिट्टो की फिक्र है और मैं इस मासूम के जीवन को सुंदर बनाना चाहती हूं इसलिए खुद को सुदृढ़ रखना जरूरी है.’’

सुमन के शब्द और आंखें एकदूसरे से मेल नहीं खा रहे थे. शब्द दृढ़ता की बात कर रहे थे मगर आंखों की नमी उस की तकलीफ का स्तर बता रही थी.

पुलकित आगे कुछ बोलना नहीं चाह रहा था. सुमन के मन को बदलने के खयाल से उस

ने सुमन को अपने घर चाय पर आने को कहा. सुमन मना नहीं कर सकी और स्कूल की छुट्टी होने पर बिट्टो को ले कर पुलकित के साथ उस

के घर चली गई. पुलकित सुमन के लिए कुछ खाने की व्यवस्था करना चाह रहा था मगर उस

ने मना कर दिया. बिट्टो को बिस्कुट, टौफी दे

कर पुलकित 2 कौफी बना कर ले आया. कौफी पीते हुए दोनों के बीच सामान्य बातें होती रहीं. इस सहज माहौल में सुमन को सुकून की मिठास घुली नजर आ रही थी. अचानक वक्त का ध्यान आया तो सुमन वापस घर के लिए वहां से निकल गई.

पुलकित के घर से निकलते समय सुमन को एक व्यक्ति ने देखा जो उस की ससुराल से परिचित था. उस व्यक्ति ने सुमन के ससुराल वालों को यह बात गलत तरीके से बताई जिस के कारण लोग सुमन के चरित्र पर शक करने लगे.

सुमन का संघर्ष मायके और ससुराल दोनों तरफ के लोगों से बढ़ रहा था. इधर पुलकित का स्नेहिल साथ सुमन को तपती धूप में शीतल छांव की भांति राहत भी देने लगा था. वह जब भी बहुत परेशान या तनावग्रस्त होती तो पुलकित के साथ बैठ कर कुछ मन हलका कर लेती. ससुराल वालों ने सुमन के चरित्र पर आक्षेप लगाना भी शुरू कर दिया. उन की कोशिश थी कि सुमन को बदनामी के गर्त में इतना धकेल दिया जाए कि वह फिर सामने आ कर यहां अपना अधिकार न मांग सके.

बात उड़तेउड़ते सुमन के मायके तक भी पहुंच चुकी थी. आसपास के लोगों में सुमन को ले कर कानाफूसी होने लगी.

इधर भाभी की कर्कशता भी बढ़ गई, ‘‘अब सम?ा में आया कि शादी से इनकार क्यों कर रही थी, इसे तो कुंआरा छैलछबीला रास आया. फांस लिया उसे अपने रूपजाल में.’’

‘‘यह क्या बोल रही हो भाभी? एक स्त्री हो कर दूसरी स्त्री पर गलत आक्षेप लगाना कहां तक जायज है?’’

‘‘आक्षेप,’’ उस संगीत मास्टर के साथ जो प्रेम राग अलाप रही हो न उस से समाज में हमारी नाक कट गई है. अरे तेरी छोड़, अब तो हमें चिंता है कि कल हमारे बच्चों के रिश्ते कैसे तय होंगे?’’

‘‘समाज, समाज तो अकसर स्त्रियों के लिए पंच बन कर तैयार बैठा रहता है. बस उसे थोड़ा सा भी मौका मिले की स्त्री को कुलटा और चरित्रहीन दिखाने में लग जाता है लेकिन यह भी सच है कि इसी समाज में कुछ अच्छे लोग भी होते हैं जो महिलाओं को चरित्र प्रमाणपत्र बांटने के बदले उन के सहयोगी और संबल बनने का प्रयास करते हैं. पुलकित भी उन्हीं में से एक है,’’ सुमन भी भाभी को करारा जवाब दिया.

बात पुलकित तक भी पहुंच गई. स्कूल में सुमन से वह संकोच भरी नजरों से मिलता है. मगर उस की आंखों में सुमन के लिए स्नेह कम भी नहीं हुआ. स्टाफरूम में थोड़ी चुप्पी के बाद उस ने बोलने की हिम्मत जुटाई, ‘‘सौरी सुमन, मु?ो नहीं मालूम था कि तुम्हें खुशी और सुकून देने की कोशिश में हमारी यों बदनामी हो जाएगी.’’

‘‘सौरी मत बोलो पुलकित, तुम ने कुछ भी गलत नहीं किया. गलत तो लोगों की नजरें हैं जो तुम्हारे पवित्र स्नेह को दैहिक प्रेम समझ रही हैं.’’

‘‘सुमन, मैं तुम्हारे मन की नहीं जानता लेकिन यदि तुम्हारी सहमति हो तो हम आजीवन एकदूसरे का संबल बन सकते हैं.’’

पुलकित द्वारा अचानक बोली गई यह

बात सुमन को आश्चर्य में डाल गई, ‘‘मतलब तुम्हारे मन में… ओह मैं तो सोच भी नहीं पाई थी. तुम अफवाह को हकीकत बनाने की कोशिश कर रहे हो.’’

‘‘तुम गलत न सम?ा सुमन. मैं तुम्हारे हर फैसले का सम्मान करूंगा. तुम्हारे ऊपर मैं भावनात्मक दबाव नहीं डाल रहा. बस अपने मन की साझा कर रहा हूं. तुम्हें पीड़ा से उबारना चाहता हूं.’’

‘‘पीड़ा, पीड़ा तो हम जैसी महिलाओं की शक्ति होती है. हम वेदना से टूटते नहीं जू?ाते हैं. आलोचना का श्रंगार कर खुद को स्थापित करते हैं.’’

थोड़ा रुक कर एक लंबी सांस खींच सुमन ने आगे कहा, ‘‘अभी कुछ नहीं कह सकती मु?ो थोड़ा वक्त दो.’’

सुमन घर लौट आई. बीच में शनिवाररविवार की छुट्टी थी. वह न तो पुलकित से मिली और न ही बात की मगर उस के शब्द सुमन के साथ थे. इधर घर में लोगों के ताने उधर ससुराल पक्ष से कई तरह के ?ाठे आरोप, किसकिस को जवाब दे, वह सोचने लगी कि इज्जत का गहना, बदनामी की धार आखिर सिर्फ स्त्री के लिए ही क्यों है? हमेशा स्त्री ही क्यों कठघरे में खड़ी की जाती है? नहीं, मु?ो इन चीजों से बाहर आना होगा. जिसे जो कहना है कहे लेकिन मु?ो अपने और बिट्टो के जीवन को देखते हुए फैसले लेने होंगे.

काफी सोचने के बाद सुमन ने पुलकित को फोन किया, ‘‘हैलो, पुलकित, मैं तुम्हें पिछले दिनों में जितना सम?ा पाई हूं उस के आधार पर यह तय किया है कि मैं तुम से शादी करने के लिए तैयार हूं मगर तुम्हें सिर्फ पति नहीं अच्छा पिता भी बनना होगा. बिट्टो के प्रति पिता के रूप में प्रेम और जिम्मेदारियां बखूबी निभानी होंगी.’’

‘‘तुम निश्चिंत रहो सुमन. एक पिता के फर्ज और दायित्व से मैं पीछे नहीं हटाने वाला.’’

पुलकित के शब्दों में खुशी की ध्वनि सुमन को स्पष्ट सुनाई दे रही थी. उस ने फोन रख दिया और फिर स्नेहभरी नजरों से देखते हुए बिट्टो के सिर पर हाथ फेरा क्योंकि उस के जीवन में खुशियों को लाने के लिए उसने साहस का पिटारा खोल दिया था. अब वह मुश्किलों को बांध कर हौसले की उड़ान भरने के लिए तैयार थी.

Raksha Bandhan 2024 : चमत्कार- क्या बड़ा भाई रतन करवा पाया मोहिनी की शादी?

‘‘मोहिनी दीदी पधार रही हैं,’’ रतन, जो दूसरी मंजिल की बालकनी में मोहिनी के लिए पलकपांवडे़ बिछाए बैठा था, एकाएक नाटकीय स्वर में चीखा और एकसाथ 3-3 सीढि़यां कूदता हुआ सीधा सड़क पर आ गया.

उस के ऐलान के साथ ही सुबह से इंतजार कर रहे घर और आसपड़ोस के लोग रमन के यहां जमा होने लगे.

‘‘एक बार अपनी आंखों से बिटिया को देख लें तो चैन आ जाए,’’ श्यामा दादी ने सिर का पल्ला संवारा और इधरउधर देखते हुए अपनी बहू सपना को पुकारा.

‘‘क्या है, अम्मां?’’ मोहिनी की मां सपना लपक कर आई थीं.

‘‘होना क्या है आंटी, दादी को सिर के पल्ले की चिंता है. क्या मजाल जो अपने स्थान से जरा सा भी खिसक जाए,’’ आपस में बतियाती खिलखिलाती मोहिनी की सहेलियों, ऋचा और रीमा ने व्यंग्य किया था.

‘‘आग लगे मुए नए जमाने को. शर्म नहीं आती अपनी पोशाक देख कर? न गला, न बांहें, न पल्ला, न दुपट्टा और चली हैं दादी की हंसी उड़ाने,’’ ऋचा और रीमा को आंखों से ही घुड़क दिया. वे दोनों चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं.

लगभग 2 साल पहले सपना ने अपने पति रामेश्वर बाबू को एक दुर्घटना में गंवा दिया था. श्यामा दादी ने अपना बेटा खोया था और परिवार ने अपना कर्णधार. दर्द की इस सांझी विरासत ने परिवार को एक सूत्र में बांध दिया था.

‘‘चायनाश्ते का पूरा प्रबंध है या नहीं? पहली बार ससुराल से लौट रही है हमारी मोहिनी. और हां, बेटी की नजर उतारने का प्रबंध जरूर कर लेना,’’ दादी ने लाड़ जताते हुए कहा था.

‘‘सब प्रबंध है, अम्मां. आप तो सचमुच हाथपैर फुला देती हैं. नजर आदि कोरा अंधविश्वास है. पंडितों की साजिश है,’’ सपना अनचाहे ही झल्ला गई थी.

‘‘बुरा मानने जैसा तो कुछ कहा नहीं मैं ने. क्या करूं, जबान है, फिसल जाती है. नहीं तो मैं कौन होती हूं टांग अड़ाने वाली?’’ श्यामा दादी सदा की तरह भावुक हो उठी थीं.

‘‘अब तुम दोनों झगड़ने मत लगना. शुक्र मनाओ कि सबकुछ शांति से निबट गया नहीं तो न जाने क्या होता?’’ मोहिनी के बड़े भाई रमन ने बीचबचाव किया तो उस की मां सपना और दादी श्यामा तो चुप हो गईं पर उस के मन में बवंडर सा उठने लगा. क्या होता यदि मोहिनी के विवाह के दिन ऊंट दूसरी करवट बैठ जाता? वह तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा था. उस की यादों में तो आज भी सबकुछ वैसा ही ताजा था.

‘भैया, ओ भैया. कहां हो तुम?’ रतन इतनी तीव्रता से दौड़ता हुआ घर में घुसा था कि सभी भौचक्के रह गए थे. वह आंगन में पड़ी कुरसी पर निढाल हो कर गिरा था और हांफने लगा था.

‘क्या हुआ?’ बाल संवारती हुई अम्मां कंघी हाथ में लिए दौड़ी आई थीं. रमन दहेज के सामान को करीने से संदूक में लगवा रहा था. उस ने रतन के स्वर को सुन कर भी अनसुना कर दिया था.

शादी का घर मेहमानों से भरा हुआ था. सभी जयमाला की रस्म के लिए सजसंवर रहे थे. सपना और रतन के बीच होने वाली बातचीत को सुनने के लिए सभी बेचैन हो उठे थे. पर रतन के मुख से कुछ निकले तब न. उस की आंखों से अनवरत आंसू बहे जा रहे थे.

‘अरे, कुछ तो बोल, हुआ क्या? किसी ने पीटा है क्या? हाय राम, इस की कनपटी से तो खून बह रहा है,’ सपना घबरा कर खून रोकने का प्रयत्न करने लगी थीं. सभी मेहमान आंगन में आ खड़े हुए थे.

श्यामा दादी दौड़ कर पानी ले आई थीं. घाव धो कर मरहमपट्टी की. रतन को पानी पिलाया तो उस की जान में जान आई.

‘मेरी छोड़ो, अम्मां, रमन भैया को बुलाओ…वहां मैरिज हाल में मारपीट हो गई है. नशे में धुत बराती अनापशनाप बक रहे थे.’’

सपना रमन को बुलातीं उस से पहले ही रतन के प्रलाप को सुन कर रमन दौड़ा आया था. रतन ने विस्तार से सब बताया तो वह दंग रह गया था. वह तेजी से मैरिज हाल की ओर लपका था उस के मित्र प्रभाकर, सुनील और अनिल भी उस के साथ थे.

रमन मैरिज हाल पहुंचा तो वहां कोहराम मचा हुआ था. करीने से सजी कुरसियांमेजें उलटी पड़ी थीं. आधी से अधिक कुरसियां टूटी पड़ी थीं.

‘यह सब क्या है? यहां हुआ क्या है, नरेंद्र?’ उस ने अपने चचेरे भाई से पूछा था.

‘बराती महिलाओं का स्वागत करने घराती महिलाओं की टोली आई थी. नशे में धुत कुछ बरातियों ने न केवल महिलाओं से छेड़छाड़ की बल्कि बदतमीजी पर भी उतर आए,’ नरेंद्र ने रमन को वस्तुस्थिति से अवगत कराया था.

रमन यह सब सुन कर भौचक खड़ा रह गया था. क्या करे क्या नहीं…कुछ समझ नहीं पा रहा था.

‘पर बराती गए कहां?’ रमन रोंआसा हो उठा था. कुछ देर में स्वयं को संभाला था उस ने.

‘जाएंगे कहां? बात अधिक न बढ़ जाए इस डर से हम ने उन्हें सामने के दोनों कमरों में बंद कर के ताला लगा दिया,’ नरेंद्र ने क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोल कर नजरें झुका ली थीं.

‘यह क्या कर दिया तुम ने. क्या तुम नहीं जानते कि मैं ने कितनी कठिनाई से पाईपाई जोड़ कर मोहिनी के विवाह का प्रबंध किया था. तुम लोग क्या जानो कि पिता के साए के बिना जीवन बिताना कितना कठिन होता है,’ रमन प्रलाप करते हुए फूटफूट कर रो पड़ा था.

‘स्वयं को संभालो, रमन. मैं क्या मोहिनी का शत्रु हूं? तुम ने यहां का दृश्य देखा होता तो ऐसा नहीं कहते. तुम्हें हर तरफ फैला खून नजर नहीं आता? यदि हम करते इन्हें बंद न तो न जाने कितने लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते,’ नरेंद्र, उस के मित्र प्रभाकर, सुनील और अनिल भी उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयत्न करने लगे थे.

किसी प्रकार साहस जुटा कर रमन उन कमरों की ओर गया जिन में बराती बंद थे. उसे देखते ही कुछ बराती मुक्के हवा में लहराने लगे थे.

‘तुम लोगों का साहस कैसे हुआ हमें इस तरह कमरों में बंद करने का,’ कहता हुआ एक बराती दौड़ कर खिड़की तक आया और गालियों की बौछार करने लगा. एक अन्य बराती ने दूसरी खिड़की से गोलियों की झड़ी लगा दी. रमन और उस के साथी लेट न गए होते तो शायद 1-2 की जान चली जाती.

दूल्हा ‘राजीव’ पगड़ी आदि निकाल ठगा सा बैठा था.

‘समझ क्या रखा है? एकएक को हथकडि़यां न लगवा दीं तो मेरा नाम सुरेंद्रनाथ नहीं,’ वर के पिता मुट्ठियां हवा में लहराते हुए धमकी दे रहे थे.

चंद्रा गार्डन नामक इस मैरिज हाल में घटी घटना का समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया था. समस्त मित्र व संबंधी घटनास्थल पर पहुंच कर विचारविमर्श कर रहे थे.

चंद्रा गार्डन से कुछ ही दूरी पर जानेमाने वकील और शहर के मेयर रामबाबू रहते थे. रमन के मित्र सुनील के वे दूर के संबंधी थे. उसे कुछ न सूझा तो वह अनिल और प्रभाकर के साथ उन के घर जा पहुंचा.

रामबाबू ने साथ चलने में थोड़ी नानुकुर की तो तीनों ने उन के पैर पकड़ लिए. हार कर उन को उन के साथ आना ही पड़ा.

रामबाबू ने खिड़की से ही वार्त्तालाप करने का प्रयत्न किया पर वरपक्ष का कोई व्यक्ति बात करने को तैयार नहीं था. वे हर बात का उत्तर गालियों और धमकियों से दे रहे थे.

रामबाबू ने प्रस्ताव रखा कि यदि वरपक्ष शांति बनाए रखने को तैयार हो तो वह कमरे के ताले खुलवा देंगे पर लाख प्रयत्न करने पर भी उन्हें कोई आश्वासन नहीं मिला. साथ ही सब को गोलियों से भून कर रख देने की धमकी भी मिली.

इसी ऊहापोह में शादी के फूल मुरझाने लगे. बड़े परिश्रम और मनोयोग से बनाया गया भोजन यों ही पड़ापड़ा खराब होने लगा.

‘जयमाला’ के लिए सजधज कर बैठी मोहिनी की आंखें पथरा गईं. कुछ देर पहले तक सुनहरे भविष्य के सपनों में डूबी मोहिनी को वही सपने दंश देने लगे थे.

काफी प्रतीक्षा के बाद वह भलीभांति समझ गई कि दुर्भाग्य ने उस का और उस के परिवार का साथ अभी तक नहीं छोड़ा है. मन हुआ कि गले में फांसी का फंदा लगा कर लटक जाए, पर रमन का विचार मन में आते ही सब भूल गई. किस तरह कठिन परिश्रम कर के रमन भैया ने पिता के बाद कर्णधार बन कर परिवार की नैया पार लगाई थी. वह पहले ही इस अप्रत्याशित परिस्थिति से जूझ रहा था और एक घाव दे कर वह उसे दुख देने की बात सोच भी नहीं सकती थी.

उधर काफी देर होहल्ला करने के बाद बराती शांत हो गए थे. बरात में आए बच्चे भूखप्यास से रोबिलख रहे थे. बरातियों ने भी इस अजीबोगरीब स्थिति की कल्पना तक नहीं की थी.

अत: जब मेयर रामबाबू ने फिर से कमरों के ताले खोलने का प्रस्ताव रखा, बशर्ते कि बराती शांति बनाए रखें तो वरपक्ष ने तुरंत स्वीकार कर लिया.

अब तक अधिकतर बरातियों का नशा उतर चुका था. पर रस्सी जलने पर भी ऐंठन नहीं गई थी. वर के पिता सुरेंद्रनाथ तथा अन्य संबंधियों ने बरात के वापस जाने का ऐलान कर दिया. रामबाबू भी कच्ची गोलियां नहीं खेले थे. उन के इशारा करते ही कालोनी के युवकों ने बरातियों को चारों ओर से घेर लिया था.

‘देखिए श्रीमान, मोहिनी केवल एक परिवार की नहीं सारी कालोनी की बेटी है. जो हुआ गलत हुआ पर उस में बरातियों का दोष भी कम नहीं था,’ रामबाबू ने बात सुलझानी चाही थी.

‘चलिए, मान लिया कि दोचार बरातियों ने नशे में हुड़दंग मचाया था तो क्या आप हम सब को सूली पर चढ़ा देंगे?’ वरपक्ष का एक वयोवद्ध व्यक्ति आपा खो बैठा था.

‘आप इसे केवल हुड़दंग कह रहे हैं? गोलियां चली हैं यहां. न जाने कितने घरातियों को चोटें आई हैं. आप के सम्मान की बात सोच कर ही कोई थानापुलिस के चक्कर में नहीं पड़ा,’ रमन के चाचाजी ने रामबाबू की हां में हां मिलाई थी.

‘तो आप हमें धमकी दे रहे हैं?’ वर के पिता पूछ बैठे थे.

‘धमकी क्यों देने लगे भला हम? हम तो केवल यह समझाना चाह रहे हैं कि आप बरात लौटा ले गए तो आप की कीर्ति तो बढ़ने से रही. जो लोग आप को उकसा रहे हैं, पीठ पीछे खिल्ली उड़ाएंगे.’

‘अजी छोडि़ए, इन सब बातों में क्या रखा है. अब तो विवाह का आनंद भी समाप्त हो गया और इच्छा भी,’ लड़के के पिता सुरेंद्रनाथ बोले थे.

‘आप हां तो कहिए, विवाह तो कभी भी हो सकता है,’ रामबाबू ने पुन: समझाया था.

काफी नानुकुर के बाद वरपक्ष ने विवाह के लिए सहमति दी थी.

‘इन के तैयार होने से क्या होता है. मैं तो तैयार नहीं हूं. यहां जो कुछ हुआ उस का बदला तो ये लोग मेरी बहन से ही लेंगे. आप ही कहिए कि उस की सुरक्षा की गारंटी कौन देगा. माना हमारे सिर पर पिता का साया नहीं है पर हम इतने गएगुजरे भी नहीं हैं कि सबकुछ देखसमझ कर भी बहन को कुएं में झोंक दें,’ तभी रमन ने अपनी दोटूक बात कह कर सभी को चौंका दिया था और फूटफूट कर रोने लगा था.

कुछ क्षणों के लिए सभी स्तब्ध रह गए थे. रामबाबू से भी कुछ कहते नहीं बना था. पर तभी अप्रत्याशित सा कुछ घटित हो गया था. भावी वर राजीव स्वयं उठ कर रमन को सांत्वना देने लगा था, ‘मैं आप को आश्वासन देता हूं कि आप की बहन मोहिनी विवाह के बाद पूर्णतया सुरक्षित रहेगी. विवाह के बाद वह आप की बहन ही नहीं मेरी पत्नी भी होगी और उसे हमारे परिवार में वही सम्मान मिलेगा जो उसे मिलना चाहिए.’

‘ले, सुन ले रमन, अब तो आंसू पोंछ डाल. इस से बड़ी गारंटी और कोई क्या देगा,’ रामबाबू बोले थे.

धीरेधीरे असमंजस के काले मेघ छंटने लगे थे. नगाड़े बज उठे थे. बैंड वाले अपनी ही धुन पर थिरक रहे थे. रमन पुन: बरातियों के स्वागतसत्कार मेें जुट गया था.

रमन न जाने और कितनी देर अपने दिवास्वप्न में डूबा रहता कि तभी मोहिनी ने अपने दोनों हाथों से उस के नेत्र मूंद दिए थे.

‘‘बूझो तो जानें,’’ वह अपने चिरपरिचित अंदाज में बोली थी.

रमन ने उसे गले से लगा लिया. सारा घर मेहमानों से भर गया था. सभी मोहिनी की एक झलक पाना चाहते थे.

मोहिनी भी सभी से मिल कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही थी. तभी रामबाबू ने वहां पहुंच कर सब के आनंद को दोगुना कर दिया था. रमन कृतज्ञतावश उन के चरणों में झुक गया था.

‘‘काकाजी उस दिन आप ने बीचबचाव न किया होता तो न जाने क्या होता,’’ वह रुंधे गले से बोला था.

‘‘लो और सुनो, बीचबचाव कैसे न करते. मोहिनी क्या हमारी कुछ नहीं लगती. वैसे भी यह हमारे साथ ही दो परिवार के सम्मान का भी प्रश्न था,’’ रामबाबू मुसकराए फिर

राजीव से बोले, ‘‘एक बात की बड़ी उत्सुकता है हम सभी को कि वे लोग थे कौन जिन्होंने इतना उत्पात मचाया था? मुझे तो ऐसा लगा कि बरात में 3-4 युवक जानबूझ कर आग को हवा दे रहे थे.’’

‘‘आप ने ठीक समझा, चाचाजी,’’ राजीव बोला, ‘‘वे चारों हमारे दूर के संबंधी हैं. संपत्ति को ले कर हमारे दादाजी से उन का विवाद हो गया था. वह मुकदमा हम जीत गए, तब से उन्होंने मानो हमें नीचा दिखाने की ठान ली है. सामने तो बड़ा मीठा व्यवहार करते हैं पर पीठ पीछे छुरा भोंकते हैं,’’ राजीव ने स्पष्ट किया.

‘‘देखा, रमन, मैं न कहता था. वे तो विवाह रुकवाने के इरादे से ही बरात में आए थे, पर उस दिन राजीव, तुम ने जिस साहस और सयानेपन का परिचय दिया, मैं तो तुम्हारा कायल हो गया. मोहिनी बेटी के रूप में हीरा मिला है तुम्हें. संभाल कर रखना इसे,’’ रामबाबू ने राजीव की प्रशंसा के पुल बांध दिए थे.

राजीव और मोहिनी की निगाहें एक क्षण को मिली थीं. नजरों में बहते अथाह प्रेम के सागर को देख कर ही रमन तृप्त हो गया था, ‘‘आप ठीक कहते हैं, काका. ऐसे संबंधी बड़े भाग्य से मिलते हैं.’’

वह आश्वस्त था कि मोहिनी का भविष्य उस ने सक्षम हाथों में सौंपा था.

15 प्रतिशत : उस डिस्काउंट ड्रैस की क्या थी कहानी

नया पर्स ले कर कालेज जाने के लिए बाहर निकल ही रही थी कि पड़ोस के कमरे की सरोज प्रिंटर के लिए एफोर साइज के कागज मांगने आ पहुंची. पर्स पर नजर पड़ी तो बोली, ‘‘रंग तो बड़ा अच्छा है. कितने का खरीदा?’’

‘‘क्व2,100 में. सस्ता है न?’’

‘‘सस्ता. चीप स्टो वैबसाइट पर बिलकुल यही पर्स 15-30% में नहीं 90% डिस्काउंट पर आप को दिलवा दूं. ये ईकौमर्स करते लोग तो महा ठग होते हैं. सही साइट की पहचान न हो तो मनमाने ढंग से लूटते हैं.’’

सुन कर दिल को बड़ा धक्का लगा. स्टाइल दिखाने के चक्कर में कुछ न कुछ रोज खरीदना ही पड़ता है और हमें तो फ्रैश बास्केट वाले बारहों महीने उल्लू बनाते हैं. गरमियों में सस्ती के दाम 20% बढ़ा कर 10% की छूट कर के देते हैं. रेन डिस्काउंट में कहते हैं एंड औफ रेन सीजन पर

4 सब्जियां 30% डिस्काउंट पर मिलेंगी पर 10 के दाम बढ़े होते हैं.

कजिन का विवाह पास आ रहा था. मुझे 2-3 हलकी ड्रैसों की आवश्यकता थी. रूममेट ने सु?ाव दिया कि साइटों से कंपेयर करना मेरे बस की बात नहीं. अत: मुझे कपड़ो ऐसी साइट से लेना चाहिए जहां एकदाम हो ताकि हेराफेरी की संभावना न रहे. पैराजान माल और दाम सही होते हैं. ब्लैक वैडनैसडे उन का हर वैडनैसडे होता है.

लौपटौप पर औफिस से छुट्टी ले कर रूमसैट के साथ मैं बैठ गई. साइट खुली तो दिखा 75% औफऔन सिलैक्टेड प्रोडक्ट्स.

हमें कुछ अटपटा सा लगा क्योंकि क्लिक करने पर कुछ नहीं हुआ. 75% मिस पर यही पता नहीं चल रहा था. कहीं कोई बटन नहीं दिखा. 1 मिनट के इंतजार के बाद एक पौप रूप स्क्रीन आई. क्लिक किया तो आगे बस एक जलेबी घूम रही थी.

5 मिनट बाद खीज हुई और लैपटौप बंद करना पड़ा. आधे घंटे बाद फिर उसी ईकौमर्स साइट पर पहुंचे तो वही हाल. मैं ने तो शौपिंग के लिए छुट्टी ली थी पर यहां एक ही प्रोडक्ट बारबार आ रहा था.

एक और ईकौमर्स साइट सेवकार्ट पर गए. वहां 60% डिस्काउंट का एक बौक्स हमें बुला रहा था. क्लिक किया तो लिखा था- औन परचेज औफ 10000 रुपीज और मेरा औन… कार्ड क्रैडिट कार्ड. अब यह कार्ड नहीं था मेरे पास इसलिए डील औफ ट्रैंड पर क्लिक किया. खूब सारी ड्रैसें थीं, दूसरे प्रोडक्ट्स भी. अगर एक बौक्स में 40% डिस्काउंट औन सिलैक्टेड आइटम्स. मन खुश हो गया. क्लिक किया तो स्क्रैच करने पर एक के बाद एक सही ही दिल्ली के लाजपत नगर में बिकने वाली ड्रैसें थीं. कुछ अच्छी लगीं तो उन के नीचे आउट औफ स्टौक लिखा था.

ईकौमर्स साइट वालों को गालियां देते हुए मैं ने और रूममेट ने लैपटौप बंद कर दिया. वैसे और भी कई साइटों पर एक ही अनुभव काफी था. ऐसा लग रहा था जैसे कंप्यूटर पर गेमिंग खेल रहे हों, शौपिंग नहीं कर रहे. जैसे कहीं भीख मांगने गए हों और दुत्कार मिली हो.

मगर ड्रैसों का क्या हो? मैं ने सुना था कि कुछ इन्फ्लुएंसर्स हैंडलों में छोटे ब्रैंड्स भी मिलते हैं. डंके की चोट पर बड़ी ईकौमर्स कंपनियों के कान काट लाती हैं. नैक्सूट रूम की रूममेट सरोज की पेपर, स्टैप्लर, कैरी बैग मांगने की आदत से सारा होस्टल चाहे परेशान हो पर उस की खरीदारी की कला की धाक सब पर जमी हुई है.

मैं ने उसे अपनी कठिनाई बताई तो उस ने कहा, ‘‘सोमवार को 4-5 इन्फ्लुएंसर्स डै्रस बाजार में बेहद सस्ती और बढि़या ड्रैसों की रील्स दिखाती हैं. कमैंट सैक्शन में लिंक भी होता हैं. सोमवार को औफिस के बाद मिलते हैं.’’

पहला सोमवार तो कट गया क्योंकि वह दर्शनीय थी. हरेक में चमचमाती ड्रैसें, बे… बौडी डै्रसें दिख रही थीं… अंबार लगे थे. हम एक इन्फ्लुएंसर्स पोस्ट के पास रुके. कुछ सुंदर डै्रसें पहन कर वे अदाएं दिखा रही थीं. उन में से एक पसंद आने पर मैं ने नीचे डिस्क्रिप्शन पढ़ी और होस्टल मेट ने कहा, ‘‘पहले उसे कार्ड में डाल लो. पता नहीं कहीं आउट औफ स्टौक न हो जाए.’’

मैं ने यही किया. ऐसा करते ही एक पौप अप स्क्रीन उभरी, ‘‘थैंक्स फौर योर पेशंस. नाऊ साइन अप एंड गैट ऐक्स्ट्रा 20% डिस्काउंट.’’

होस्टल मेट ने गर्व से देखा और कहा, ‘‘इस शौपिंग का यही तो राज हरेक को नहीं मालूम है.’’

‘‘उस पर कीमत तो सवा सौ है, क्या यह 50 में मिल जाएगी?’’

‘‘हो सकता है 50 में भी मिल जाए,’’ मेट ने कहा, ‘‘यह डील पर डिपैंड करता है. कई बार घंटों के लिए 80% की छूट होती है.’’

फिर भी वहां कई और चीजों पर ऐसे ही दाम लिखे दिख रहे थे.

मैं ने सोचा 125 की चीज खरीद है. 50 रुपए में, सिल्क की ड्रैस कहां मिलेगी. फिर भी वहां कई और चीजों पर ऐसे ही दाम लिखे दिख रहे थे.

ड्रैसों की बहार देखते हुए हम ने और ब्राउजिंग शुरू की. अब तो जो भी साइट खोलों किसी न किसी ड्रैस वाले का एड टपक पड़ रहा था. ड्रैसें शानदार, दशा बिलकुल सही पर हर जगह क्रैडिट कार्ड से एडवांस में भुगतान, सीओडी यानी कैश औन डिलिवरी की सुविधा नहीं. कुछ साइटें बिलकुल अनजान. एक कंप्यूटर ऐक्सपर्ट सहेली से पूछा तो उस ने कहा कि उस के अकाउंट अस या कौंटैक्ट अस पर जाओ और देखो अकाउंट अस में सैकड़ों शब्द. एक जगह लगा था क्लिक फौर टर्मस ऐंड कंडीशंस. उस पर क्लिक किया तो 20 पेज की छोटे टाइप में पीडीएफ फाइल. अंत में ओके करने को कहा. कहीं कोई सवालजवाब नहीं.

अंत में एक साइट पर 50% डिस्काउंट पर सहेली की सिफारिश पर एक ड्रैस खरीद ली. एक बार पहनी और उस के बाद से वह अलमारी की सब से नीचे की दराज में पड़ी हम पर रोज हंसती है.

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