महुए की खुशबू – भाग 2

चाय की तलब बड़ी ज़ोर से उठ रही थी. पास खड़े एक बुजुर्ग से इच्छा बताई और वे पता नहीं कहां से एक पीतल के लोटे में चाय भर लाए और बहुत आग्रह से ग्रहण करने को कहने लगे.

उन से बोला कि मुझे स्कूल ले चलो, तो वे बड़ी खुशी से चल पड़े. छोटा सा गांव एकमुश्त ही दिख गया. दो मिनट बाद ही वे बोले, ‘जेई है तुमाओ इस्कूल.’  मुझे कुछ समझ नहीं आया कि किस घर की तरफ इशारा किया.  वे और आगे बढ़े. दो झोपड़ियों के बीच से रास्ता था जो आगे हाते में खुल गया. खपरैल वाले 2 जीर्णशीर्ण कमरे में दरवाज़े थे जिन में पल्ले नहीं थे. खिड़कियों के नाम पर दीवार में छेद भर थे. आगे बरामदा था. न तो वहां पेड़ था न ही हैंडपंप और न ही कोई घंटा लटका था.

“प्राइ…री पाठ ..ला , ..टका पु ..” पीले बैकग्राउंड पर काले रंग से पहले कभी पूरा नाम लिखा गया होगा, पर अब इतना ही बचा था. वक़्त के साथ कुछ अक्षर मिट गए, कुछ शायद बजट की भेंट चढ़ गए. क्लासरूम में कटीफटी दरियां पड़ी थीं. दीवार पर ब्लैकबोर्ड था ज़रूर, पर उस का काला रंग दीवार का सफेद चूना खा गया था. अब यह ब्लैक एंड व्हाइट बोर्ड बन गया था.

एक कमरे पर ताला था, शायद, औफिस होगा. बुजुर्ग ने गर्व से कहा, “देखो माटसाब, कितेक नीक है जे इस्कूल बीसबाइस बच्चा आत पढबे ख़ातिर. दुई माटसाब और हैं. अब आप तीसरे हो गए. आराम से कट जे इते.”

11 बज रहे थे, गरमी तेज़ थी और स्कूल में सन्नाटा पसरा था. तभी एक कुत्ता क्लास से निकल कर मुझे घूरने लगा और अनजान देख गुर्राने भी लगा. बुजुर्ग के पत्थर उठाने की ऐक्टिंग करते ही वह भाग गया, अनुभवी था.

“चाचा, बाकी स्टाफ़ कहां हैं, बुलवाइए ज़रा, मुझे रिपोर्ट करना है ड्यूटी पर.” मुझे यह वातावरण असहनीय लग रहा था, पाठशाला ऐसी भी हो सकती है. इस बीच बुजुर्ग हंस कर बोले, “आइए मेरे साथ, आप को गांव दिखाते हैं.”  मैं बेमन से चल पड़ा.

कुछ खुले में आ कर उन्होंने उंगली से इशारा किया और मैं ने उस दिशा में देखा, खेतों में कटाईमड़ाई चल रही थी. सारा गांव ही वहां जमा था. लोगलुगाई, बड़ेबूढ़े. गांव इस समय बहुत व्यस्त था. यह भी पता चला कि दोनों सहशिक्षक भी इसी भीड़ का हिस्सा थे.

मैं ढूंढ रहा था कि स्कूल के बच्चे कहां थे. बुजुर्ग से पूछा, तो उन का जवाब सुन कर चकित रह गया. वे बोले, “बच्चे महुआ बीनने गए हैं. गांव के जमींदार के हाते में महुआ के कई पेड़ इस समय फूलों से लदे पड़े थे. सवेरे से फूलों की बिछायत बिछ जाती है और बच्चे उन्हीं पेड़ों के नीचे काम पर लग जाते हैं.”

यह भी  बताया गया कि उन पेड़ों के मालिक-जमींदार  ऊंची जाति के थे. गांव का कोई आदमी हाते में घुसने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था. फूल उठाना तो दूर की बात. फिर बच्चे कैसे घुस आते थे? मेरा प्रश्न जायज था. पता चला कि जमींदार का मानस कहता है कि बच्चों की जाति नहीं होती, यानी, वे पवित्र होते हैं.

जमींदार की कोई औलाद नहीं थी शायद, इसलिए उस की भावनाओं ने धर्म को अपने हिसाब से परिभाषित कर दिया था. अंतिम सवाल था कि बच्चे महुए का करेंगे क्या? बुजुर्गवार ने मेरी यह जिज्ञासा भी शांत कर दी, “माटसाब, महुआ की शराब भट्टी लगी है गांव के बाहर. बच्चे  फूल बीन कर निहोरे को दे आते हैं और वह उस की देसी शराब खींचता है. बदले में, बच्चों को रेवड़ी मिलती है.”  मतलब वे यह भी बता गए कि गांव में नशेड़ियों की कमी नहीं थी, जो मेरे लिए एक और बुरी खबर भी थी.

गरीबी में यह नशा मिल जाए, तो घर, बकरी, खेत बिकवा दे, बच्चो की पढ़ाईलिखाई का नंबर तो बाद में आता. मुझे कुछ सोचता देख बुजुर्ग मुसकराए, “वह तो सुधा बहन जी लगी हैं गांव सुधारने में, वरना यह गांव तो कब का शराब की भट्ठी में जल, डूब जाता.”

सुधा बहनजी…मेरे चेहरे पर प्रश्न देख वे बोले, “माटसाब, यह समझिए कि ऊपर वाले ने ही बहनजी को भेजा. वखत पर हम मिलवा देंगे नहीं तो वे खुद्दई फेरा मारती रहती हैं. हो सकता है आप के आने की ख़बर उन को मिल भी चुकी हो. आसपास के गांवों के लोगलुगाई उन्हें ख़ूब जानते व मानते हैं.”  मुझे लगा जैसे गांव में कोई तो एक चेतनापुंज था.

बहनजी आसपास की  होंगी और खबर लग गई, मतलब, उन का अपना सूचनातंत्र भी विकसित लग रहा था और उन की अपनी एक साख भी गांव में थी, यह भी स्पष्ट हो गया था.

इतनी भद्दर जगह में गांव के लोगों की भलाई के लिए सोचने वाली बहनजी से मिल कर अपने स्कूल के लिए क्याक्या किया जा सकता है, मैं इन विचारों में खोया हुआ उस कमरे पर आ गया जिस में मेरा सामान रखवा दिया गया था. एकडेढ़ दिन की रोटी, अचार, सब्ज़ी का राशन साथ लाया था, वह काम आ गया.

मालिक मकान ने खुले में खटिया डाल कर गद्दा फैला दिया था और पास एक घड़ा व कुल्हड़ भी धर दिया था. गरमी की रातों में तारोंभरा खुला आकाश, चांद, टूटते तारे और स्पुतनिक को आतेजाते देखना मेरे लिए स्वप्निल अनुभव था. चारों तरफ़ से कभी सियार, तो कभी गीदड़ व उल्लू, तो कभी न जाने किस पशु की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती रहीं और मैं ठीक से सो नहीं पाया. एक कहावत सुनी थी कि गांव की सुबह और शाम जितनी चित्ताकर्षक होती है उतनी ही दोपहर और रात डरावनी. उस कहावत को सच होते देख रहा था.

यादों के साए : क्या थी मां-बाप की ज़रुरत?

डोरबैल बजी. थके कदमों से नलिनी ने उठ कर देखा, रोज की तरह दूध वाला आया था. आज देखा तो उस का 15 साल का लड़का दूध देने आया था. एक चिंता की लकीर उस मासूम चेहरे पर झलक रही थी.

नलिनी आखिर पूछ ही बैठी, “क्या बात है, आज तुम्हारे पिताजी नही आए?”

“वो…वो…मैडम, कल रात अचानक पाप की तबीयत खराब हो गई, वे अस्पताल में भरती हैं. अब जब तक पापा ठीक नहीं हो जाते, रोज मैं ही दूध देने आऊंगा,” कह कर वह दूध देने लगा.

नलिनी के शरीर में अजीब सी उदासी की लहर दौड़ गई. वह गहरी सांस भर कर अंदर आ गई. अकेलेपन का नाग रहरह कर उसे डस रहा था. वह अपने पुराने दिनों को याद कर अकसर उदास रहती. वह चाय प्याले में ले कर और दूध गैस पर रख खिड़की के पास आ खड़ी हो गई. खिड़की से आते ठंडे झरोखों को अंतर्मन में महसूस करती नलिनी अतीत के साए में खो सी गई. उसे वो दिन याद आने लगे जब अस्पताल के चक्कर लगा कर नरेंद्र कभी थकते नहीं थे.

नलिनी की हंसी से घर हमेशा खिलखिलाहट से भरा रहता. जैसे कल ही कि बात हो नरेंद्र जैसे ही अस्पताल से घर आए, तो उन का उतरा चेहरा देख कर नलिनी घबरा गई. रिपोर्ट हाथ में पकड़े नरेंद्र ख़ामोशी से सोफे पर बैठ गए. उन की सांसों का वेग इतना तेज था, मानो वे अभीअभी मीलों दौड़ कर आ रहे हों.

नलिनी ने पानी का गिलास देते हुए पूछा, ‘क्या बात है, क्या लिखा है रिपोर्ट में, सब नौर्मल ही होगा, तुम भी न…?’

‘नहीं नलिनी, कुछ भी नौर्मल नहीं है.’

‘क्या कहा डाक्टर ने, रिपोर्ट क्या कहती हैं? बताओ न प्लीज़?’

‘थोड़ा दम तो लेने दो, कहां भागा जा रहा हूं,’ निस्तेज सी सांस छोड़ते हुए नरेंद्र ने कहा, ‘नलिनी, क्या तुम्हारा दर्द बढ़ता जा रहा है?’

नलिनी चहकती हुई बोली, ‘नहीं तो, आप यों क्यों पूछ रहे हैं?’

लिफाफे से रिपोर्ट निकाल कर टेबल पर पड़े चश्मे की धूल पोंछते हुए नरेंद्र रिपोर्ट को ध्यान से नजर डाल कर उदास आंखों से नलिनी को देखते हुए कहते हैं, ‘नलिनी, तुम्हें ब्रेस्ट कैंसर है. और जल्दी ही इसे रिमूव करवाना होगा, वरना पूरे शरीर में इस के बैक्टीरिया फैलने के चांस हैं.’

‘क्या..??’

नलिनी के चेहरे पर आई चिंता की लकीरें साफ बयां कर रही थीं कि वह अपने लिए चिंतित नहीं है. उम्र का पड़ाव उस की परीक्षा ले रहा था. नरेंद्र को हार्ट प्रौब्लम थी. पिछले साल ही औपरेशन करवाया था. उन को पेसमेकर लगवाया था. डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी थी. ऊपर से खानपान का परहेज भी चल रहा था. बड़ी मुश्किलों से तो वह अपनेआप को योगा वौक के जरिए स्वस्थ रखना चाहती थी ताकि नरेंद्र की देखभाल अच्छे से हो सके.

विनय तो आज से 7 साल पहले ही लंदन में सैट हो गया था. व्हाट्सऐप और वीडियोकौल के जरिए क्या यहां की समस्याएं हल हो सकती हैं, उम्र के ढलते दोनों के शरीर बीमार हो गए. यह सोच कर नलिनी वहीं कुरसी पर जड़ हो गई. दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. कुछ देर के लिए यों ही मौन ने अपना आतंक जमा लिया था.

कुछ देर में नरेंद्र ने मौन तोड़ा, ‘इस तरह घबरा कर काम नहीं चलेगा, नलिनी. हमें अपने बचे हुए लमहों को खुद ही संभालना होगा. मैं कल ही तुम्हारे औपरेशन करने की बात कर आया हूं. आज ही सारे काम निबटा लो. मैं ने ग्रेच्युटी में से पैसे भी निकाल लिए हैं. खर्चे का कुछ कहा नहीं जा सकता,’ हांफतेहांफते एक ही सांस में नरेंद्र और न जाने क्याक्या कह गए.

नलिनी को कुछ सुनाई ही नहीं दिया. वह रात होने का इंतजार करने लगी. उसे विनय से बात करनी थी.

नलिनी को उदास देख कर नरेंद्र ने वहां पड़ी एक कैसेट लगा दी. गीत बज रहा था, ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…’ अचानक उन्हें लगा कि इस गीत को सुन कर नलिनी और परेशान हो जाएगी, तभी वहां पड़ी एक नई फिल्म की कैसेट उस में डाली तो गाना बज उठा- ‘ओ मेरी छम्मक छल्लो…’ यह गाना सुनते ही नलिनी के चहरे पर स्मित मुसकान उभर आई.

विनय को जब पता चला, उस ने कहा, ‘पापा के इलाज के लिए अभी पिछले साल ही तो 20 लाख रुपए के आसपास खर्चा हो चुका है.’ और अब मां की बीमारी सुन कर वह कुछ ज्यादा न बोल सका, ‘मां, आप खर्चा बता दो, मैं भेज दूंगा.’

नरेंद्र पास बैठे उस की बातें सुन रहे थे. रिश्तों से बढ़ कर तो पैसा है. यदि पैसा नहीं होता, तो शायद आज मैं जीवित ही न होता. कुछ देर बात कर नलिनी ने राहत की सांस ली.

नलिनी का औपरेशन सक्सैस हुआ. लेकिन नरेंद्र की इस उम्र में अकेले ही भागदौड़ ज्यादा हो चुकी थी. जब रूम में शिफ्ट किया तो नलिनी से ज्यादा नरेंद्र ही थके लग रहे थे. नर्स ने आ कर कहा कि बाबूजी अब घबराने की कोई बात नहीं, आप के साथ कोई है क्या? कुछ दवाएं मंगवानी हैं, ये दवाएं इमरजैंसी हैं, प्लीज जल्दी ले आइए.

नरेंद्र की शारीरिक क्षमता भी अब दम तोड़ चुकी थी. गहरी सांस ले कर वे खांसने लगे. तभी वहां का वार्ड बौय आया. उसे नरेंद्र की हालत पर तरस आया, बोला, ‘बाबूजी, आप माताजी के पास बैठिए, मैं आप को दवाई ला कर देता हूं. मगर यहां किसी से कहिएगा मत, हमें ड्यूटी पर दूसरे काम करने की अनुमति नहीं है.’

नरेंद्र संतोष की सांस ले कर नलिनी के पास बैठे रहे.

नलिनी ठीक हो चुकी थी. उसे हर 15 दिन में कीमो के लिए जाना पड़ता था. उस के बाद उसे दोचार दिनों की कमजोरी का सामना करना पड़ता था. नरेंद्र ने उस की देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ी थी.

कुछ दिनों बाद रात को नरेंद्र की तबीयत अचानक बिगड़ गई. वे नलिनी का साथ छोड़ गए. नलिनी इस सदमे को सहन नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे अकेलेपन से उस की हालत गिर रही थी. विनय ने आ कर अपना पुत्रधर्म निभा दिया था. कुछ महीनों के लिए मां को साथ ले गया था. लेकिन नलिनी को वहां का हवापानी रास नहीं आ रहा था. एक कैदी की भ्रांति जीवन व्यतीत हो रहा था.

नलिनी वापस अपने घर आ गई. उस छोटे से घर में नरेंद्र के साथ बीते दिनों की यादें उसे बहुत सुकून दे रही थीं. उसे प्रतीत हो रहा था जैसे वह अपनी पुरानी दुनिया में वापस आ गई हो, अकेलेपन ने नलिनी को जीना सिखा दिया था. बेटा परिदों की तरह परदेश उड़ चुका था. उस के वापस आने की उम्मीद के दीये का तेल अब धीरेधीरे कम होता जा रहा था. उस ने कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी कभी इस मोड़ पर ला कर अकेला छोड़ देगी.

आज वह दूध वाले के बेटे को देख मन में उपजे विचारों के नन्हे कपोलो को खिलते देख सोच रही थी, काश, हम ने भी अपने बच्चों को बड़े सपने न दिखाए होते. लेकिन यह भी सच था कि बच्चे जब बड़े हो कर स्वनिर्णय लेने लगते हैं तो मांबाप उस घर के किसी स्टोररूम के दरवाजे की तरह हो जाते हैं जो सारा समय बंद रहते हैं, जरूरत पड़ने पर ही खुलते हैं.

चाय का कप ले कर नलिनी चाय पीने लगी. उसे याद ही नहीं रहा, गैस पर रखा दूध उफन चुका था. उस ने जल्दी से गैस बंद की. अब उस के विचारों का सैलाब भी थम चुका था. कैसेट लगाई तो वही आखरी गीत बज उठा- ‘ओ मेरी छम्मक छल्लो…’ यह गीत सुन वह मुसकराती हुई बालकनी से आती सुबह की हवा का आनंद लेने लगी. आखिर, उसे अब जीना आ गया था.

विचित्र मांग- संजीव ने अमिता के सामने क्या शर्त रखी थी

“अमिता, एक बात मेरे मन में है, कहूं?” संजीव ने अमिता के होठों पर चुंबन अंकित करते हुए कहा.

“तुम तो मना करते हो इन क्षणों में कुछ बात करने को. इन क्षणों में सिर्फ और सिर्फ ऐसी ही बातें करने के लिए कहते हो,” अमिता ने शोखी से संजीव के पीठ पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए कहा.

“इन क्षणों में जो बातें करने के लिए कहता हूं वही बात है,” संजीव ने कहा.

“कहो,” अमिता ने संजीव को चूमते हुए कहा.

“हम दो के अलावा कोई तीसरा हो तो कैसा रहे…? काफी मजा आएगा. मेरी दिली ख्वाइश है इस की.”

“छीः, कैसी बातें कर रहे हो? मुझे तो शादी के पहले यह सब करना ही उचित नहीं लगता. सिर्फ तुम्हारे कहने से मैं तैयार हो जाती हूं,” अमिता ने कहा.

“तीसरे के जगह पर कोई तीसरी भी हो तो चलेगा. तुम्हारी कोई फ्रेंड हो तो उस से बातें कर सकती हो,” संजीव ने कहा.

अमिता संजीव की बातों से विस्मित हो गई. उसे इस तरह की बात की जरा भी आशा नहीं थी.

वह संजीव के साथ लगभग दो वर्षों से रिलेशनशिप में रह रही थी. वह संजीव से प्यार करती थी और संजीव भी उस से बेइंतिहा प्यार करता था. दोनों शादी करने का विचार रखते थे. शादी के बारे में उन दोनों ने प्लानिंग भी कर रखी थी.
शायद अति उत्साह में आ कर संजीव ने ऐसी बात कह दी थी. यह सोच कर अमिता ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था.

पर, दूसरे दिन उस ने फिर उस से पूछा, “अमिता वो तीन वाली बात पर तुम ने कुछ विचार किया? कहो तो मैं अपने मित्र जीवन से बात करूं.”

“नहीं संजीव. मुझे यह बिलकुल भी पसंद नहीं है. यह मेरे मूल्यों के खिलाफ है,” अमिता ने कहा.

“कम औन अमिता. क्या तुम भी दकियानूसी बातें कर रही हो…? हम आधुनिक समाज में रह रहे हैं. सैक्स भी एक मनोरंजन है. इस का आनंद उठाने में क्या हर्ज है. तुम चाहो तो सपना से बात कर लो. वह तुम्हारे साथ काफी घुलीमिली भी है. मुझे थ्रीसम का कांसेप्ट बहुत भाता है. यह मेरे वर्षों की तमन्ना है. प्लीज अमिता,”
संजीव ने अमिता को समझाने की कोशिश की.

“बिलकुल नहीं,” अमिता ने कहा.

अमिता काफी उलझन में पड़ गई. संजीव से वह प्यार करती थी. उस से शादी करना चाहती थी. उस के कहने पर वह कभीकभार उस के साथ शारीरिक संबंध भी बना लिया करती थी. पर उस की नई मांग अजब थी. यह अमिता के नैतिक मूल्यों के खिलाफ था. उस के नैतिक मूल्यों के खिलाफ तो शादी के पहले शारीरिक संबंध बनाना भी था. पर सुरक्षात्मक उपाय अपना कर ऐसा वह सिर्फ अपने प्रेमी संजीव के साथ कर सकती थी. और संजीव अब किसी और को भी इस में शामिल करना चाहता था. यहां तक कि कोई लड़की भी हो तो उसे स्वीकार्य था. पहले उसे लगा कि उत्तेजना में उस ने ऐसा कह दिया है. परंतु पिछले कई महीनों से वह इस बात पर जोर दे रहा था. खासकर अंतरंग क्षणों में वह जरूर इस मुद्दे को उठा देता था.

क्या करे उस की समझ में नहीं आ रहा था. वैसे, हर बार उस की इस मांग पर उस ने अपनी असहमति जताई थी. कई बार वह उस के स्थान पर खुद को रख कर उस की मांग के औचित्य को समझने की कोशिश करती थी. उसे यह आइडिया बिलकुल भी पसंद नहीं था. फिर यदि ऐसा करने के लिए वह राजी हो जाती है तो जो तीसरा या तीसरी होगा या होगी, उस के साथ कैसा रिश्ता बनेगा. संजीव हमेशा उसे ओपेन माइंडेड होने की सलाह देता था. पर ओपेन माइंडेड होने का यह मतलब तो नहीं कि नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया जाए. जो लोग ऐसे कृत्य में खुद को सहज पाते हैं, वे भले ही ऐसा करें. पर वह इस के लिए सहज नहीं हो पा रही थी.

एक दिन वह बैठी अखबार के पन्ने पलट रही थी कि एक स्तंभ पर उस की निगाह गई. इस में पाठक अपनी प्रेम से संबंधित समस्याओं की सलाह विशेषज्ञ से लेते थे. एक बड़ी ही विचित्र समस्या इस में उस ने पढ़ी. इस में एक लड़की ने अपने प्रेमी की कम आय होने के कारण आत्महीनता की भावना से ग्रसित होने के कारण सलाह मांगी थी. विशेषज्ञ ने बड़ा ही व्यावहारिक सुझाव दिया था. उसे उस का सुझाव बहुत ही अच्छा लगा था. उस ने देखा, स्तंभ के नीचे एक ईमेल पता दिया हुआ था और स्पष्ट आमंत्रण था पाठकों से शारीरिक और प्रेम से संबंधित समस्या का हल पाने के लिए.

उस ने ईमेल पता नोट किया और अपनी समस्या को विस्तार से लिख कर ईमेल कर दिया. अखबार औनलाइन उपलब्ध था. दूसरे दिन से ही प्रतिदिन वह अखबार को औनलाइन खोलती और उस कौलम को पढ़ने लगी. इस क्रम में अन्य कई लोगों की समस्याओं से वह रूबरू हुई. उसे आश्चर्य हुआ कि लोगों के पास अलगअलग तरह की समस्याएं हैं, कुछ तो बिलकुल ही विचित्र.

एक सप्ताह के बाद उस ने अपनी समस्या का समाधान अखबार में छपा पाया. समाधान कुछ इस प्रकार था-
“आप का बौयफ्रेंड आप से बहुतकुछ चाह सकता है. लेकिन आप को देखना है कि आप किस बात में सहज हैं. सही रिलेशनशिप वही है, जिस में दोनों पक्ष एकदूसरे का सम्मान करें. आप के बौयफ्रेंड को उस सीमा को मानना चाहिए, जो आप ने अपने लिए और उस के साथ अपने भविष्य के लिए तय कर रखा है. आप स्पष्ट रूप से उस से बात करें. उसे स्पष्ट रूप से बताएं कि आप उस की बात को क्यों नहीं मान सकतीं. ओपेन माइंडेड होने का मतलब यही है कि किसी भी मुद्दे के पक्ष और विपक्ष को समझा जाए और फिर उस पर सोचविचार कर सही निर्णय लिया जाए.”

अमिता को यह सुझाव पसंद आया. पहले उस ने विचार किया कि क्यों उसे उस का तिकड़ी वाला प्रस्ताव स्वीकार नहीं है. सब से पहले तो उस के मन में खयाल आया कि सैक्स सिर्फ दो पार्टनर के बीच होना चाहिए. तीसरा कोई भी बीच में नहीं आना चाहिए. यही कारण है कि सैक्स बिलकुल एकांत में किया जाता है. फिर यदि तीसरा या तीसरी को शामिल किया जाए तो आपसी संबंधों में दरार आ सकती है. हो सकता है कि उस के और संजीव में से कोई तीसरे की ओर आकर्षित हो जाए और फिर पूरा समीकरण बिगड़ जाए. पर ज्यादा महत्वपूर्ण उसे नैतिक आधार ही लगा.

अगली बार जब संजीव ने इस बारे में चर्चा की, तो उस ने स्पष्ट रूप से उसे अपना विचार बता दिया. साथ ही, यह भी बता दिया कि यदि उसे यह आइडिया आजमाना है, तो वह उस का साथ नहीं दे सकती. उसे डर था कि शायद संजीव नाराज हो कर उस का साथ छोड़ देगा. परंतु संजीव समझदार निकला. उस ने उस के तर्क को सुना और बात उस की समझ में आई. उस ने अपनी विचित्र मांग को तज कर अपनी प्रेमिका के साथ जीवन बिताने का निर्णय लिया.

बीच राह में : क्या डॉक्टर की हो पाई अनिता?

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आशा का दीप- भाग 2 : किस उलझन में थी वैभवी

‘‘हैलो विनोद, हाऊ आर यू?’’ प्रत्युत्तर में वैभवी का औपचारिकताभरा संबोधन सुन कर विनोद चौंका. उस ने गौर से सैलफोन की स्क्रीन पर नजर डाली, कहीं गलती से किसी और का नंबर तो प्रैस नहीं कर दिया था. प्यार से विक्की कह कर बुलाने वाली वैभवी उसे अपरिचित या गैर के समान संबोधन कर रही थी.

‘‘विनोद, परसों संडे है, आप पार्क व्यू होटल के ओपन रैस्टोरैंट में आ जाना,’’ कहते हुए वैभवी ने फोन काट दिया.

असमंजस में पड़ा विनोद हाथ में पकड़े सैलफोन को देख रहा था.

पार्क व्यू होटल के रैस्टौंरैंट को एक बड़े तालाब को सुधार कर पिकनिक स्पौट का रूप दिया गया था. कई बार दोनों वहां जा चुके थे.

आमनेसामने बैठ कर चप्पू चलाते किश्ती  झील के बीचोंबीच ला कर किश्ती रोक कर विनोद ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘क्या बात है? इतनी सीरियस क्यों हो? तुम्हारा लहजा भी एकदम एब्नौर्मल है?’’

वैभवी ने अपने छोटे वैनिटी पर्स से एक लिफाफा निकाल कर बढ़ाया. एक बड़े अस्पताल का लिफाफा देख कर विनोद चौंका.

उस ने लिफाफा निकाला और उस में रखे कागजों को निकाल कर एक नजर डाली और प्रश्नवाचक नजरों से वैभवी की तरफ देखा.

‘‘विनोद, मु झे कैंसर है. मेरे वक्षस्थल में ट्यूमर है. मैं ब्रेस्ट कैंसर ग्रस्त हूं. आई एम सौरी,’’ कहते हुए वैभवी ने अपना चेहरा  झुका लिया. विनोद को ऐसा लगा जैसे किसी ने उस को ऊंची पहाड़ी के शिखर से नीचे की ओर की धक्का दे दिया हो.

वह भौचक्का सा कभी हाथ में पकड़े मैडिकल रिपोर्ट के कागजों को, कभी सामने बैठी अपनी मंगेतर, अपनी भावी पत्नी को देख रहा था. उस ने एक बार फिर सरसरी नजर मैडिकल रिपोर्ट पर डाली और कागज लिफाफे में डाल कर लिफाफा वैभवी की तरफ बढ़ा दिया. दोनों खामोश थे.

दोनों जानते थे कि ऐसे हालात में खामोशी ही ठीक है. थोड़ी देर बाद वैभवी ने चप्पू थामे और नाव को किनारे की तरफ धकेलना शुरू कर दिया.

किनारे पर किश्ती लगी. वैभवी उतरी. उस ने एक नजर अपने मंगेतर की तरफ डाली और फिर मुड़ कर स्थिर कदमों से बाहर चली गई.

विनोद उस को जाता देखता रहा. वह थोड़ा हकबकाया सा, थोड़ा लुटालुटा सा था. इस बदले हालात की वह क्या समीक्षा करे, क्या बोले.

यदि वैभवी ने कोई अन्य कारण बता कर शादी से मना कर दिया होता, रिश्ता तोड़ने की बात कही होती तब वह इस आघात को सहजता से  झेल लेता, मगर ऐसी स्थिति.

मात्र 10 दिन विवाह को बचे थे. भावी दुलहन में जानलेवा कैंसर की बीमारी के लक्षण उभर आए थे.

धीमे कदमों से चलता विनोद अपनी कार में बैठा. घर चला आया. अपने मम्मीपापा को क्या बताए? बताए या न बताए?

‘‘विनोद, ज्वैलर का फोन आया था. सारे जेवरात तैयार हैं. थोड़ी देर में उन का आदमी ले कर आने वाला है,’’ सोफे पर चुपचाप बैठे विनोद से उस की मम्मी ने कहा.

ऐसे हालात में विनोद क्या कहे? कैसे कहे? वैभवी उस को अपनी असाध्य सम झी जाने वाली अकस्मात उभरी बीमारी का कारण बता रिश्ता तोड़ने का इशारा कर चुकी है.

खुशी के मौके को सैलिब्रेट करने के लिए दोनों पक्षों से जुड़ी सभी सैरेमनी समयसमय पर की जा रही थीं. पहले रोका सैरेमनी, फिर रिंग सैरेमनी. अब समय था बधाई सैरेमनी और साथ ही लेडीज संगीत सैरेमनी का जो कि विवाह से मात्र 2 दिन पहले तय थी और संयुक्त समारोह था.

ऐसे आघात, जो कि कुदरती था, का आभास न वैभवी को था न विनोद को. वैभवी के परिवार वाले तो आ पड़ी इस आसन्न विपत्ति से आगाह थे मगर विनोद के परिवार वाले अनजान थे.

विनोद का परिवार पूरे उत्साह से शादी की तैयारियों में मग्न था. मगर वैभवी का परिवार असमजंस  में था. क्या करें? क्या न करें?

‘‘विनोद को बताया?’’ मम्मी ने वैभवी से पूछा.

‘‘हां, मैडिकल रिपोर्ट उस को दिखा कर सब बता दिया,’’ ठंडे, स्थिर स्वर में वैभवी ने कहा.

‘‘उस ने क्या कहा?’’

‘‘फिलहाल कुछ नहीं. मामला ही ऐसा है, कोई भी एकदम क्या जवाब दे सकता है.’’

अगले दिन औफिस में सब व्यवस्थित था, सुचारु था. कंपनी के मामलों में मार्केटिंग मैनेजर और सेल्समेन में सामान्य तौर पर डिस्कशन हुआ. भविष्य की योजनाएं बनाई गईं.

शाम को विनोद घर लौटा. उस की मम्मी ने उस को पानी का गिलास थमाते कहा, ‘‘आज हमारी सोसाइटी में रहने वाले 2 परिवारों के सदस्यों के  साथ दुर्घटनाएं हुई हैं.’’

‘‘किस के साथ?’’

‘‘साथ वाले अपार्टमैंट में रहने वाले अमन सीढि़यों से फिसल कर गिरने पर रीढ़ की हड्डी तुड़वा बैठे हैं. जबकि सामने वाले बैरागीजी की पत्नी बस की चपेट में आ कर कुचल गई हैं. दोनों सीरियस हैं.’’

विनोद सोच में पड़ गया. क्या कभी उस ने इस बात पर गौर किया था. उस का अड़ोसीपड़ोसी कौन था?

महानगरीय सभ्यता का अनुकरण करते अब बड़े शहर या मध्यम श्रेणी के महानगर भी अपरिचय की सभ्यता या संस्कृति का अनुकरण कर रहे थे. क्या उस ने कभी अपने साथ वाले फ्लोर में रहने वाले अड़ोसीपड़ोसी से परिचय किया? हालचाल पूछा? क्या उन्होंने भी ऐसा किया?

अगले 2 दिनों में दोनों दुर्घटनाग्रस्त पड़ोसी चल बसे. उन की अंतिम विदाई में विनोद भी शामिल हुआ.

जिस से जानपहचान थी उन से विनोद को पता चला कि हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाले कई पड़ोसी तरहतरह की बीमारियों से ग्रस्त थे. मगर अपनी असाध्य बीमारियों को सहजता से अपनी नियति सम झ वे अपना जीवन जी रहे थे.

रिटायर्ड प्रिंसिपल मिस्टर अस्थाना 80 वर्ष के थे. पिछले 50 साल से, कैंसरग्रस्त थे. मगर परहेजभरा जीवन अपना कर सहजता से जी रहे थे.

उन की रिटायर्ड पत्नी भी असाध्य बीमारी से ग्रस्त थी, मगर बीमारी को अपने जीवन का अंग मान कर 70 बरस पार कर अपना जीवन सहजता से जी रही थी.

एक परिवार का बच्चा 5 बरस का था. एक टांग पोलियोग्रस्त थी, मगर वह कृत्रिम टांग से खेलताकूदता था. मग्न रहता था.

एक 12 साल का बच्चा खुद ही मधुमेह के इंजैक्शन लगाता था.

मनुष्य का दिमाग सुख की अवस्था में इतना चैतन्य नहीं होता जितना दुखपरेशानी या विपत्ति पड़ने पर.

अपनी भावी पत्नी पर आ पड़ी आसन्न विपत्ति ने विनोद का मस्तिष्क चैतन्य कर दिया. आसपड़ोस, अनेक मित्रों, संबंधियों पर गौर फरमाने से उस को आभास हुआ, संसार में पूर्ण सुखी कोई नहीं था.

‘‘वैभ,’’ आईपौड की नईर् शैली के सैलफोन पर विनोद का फोन नंबर उभरा.

‘‘कहिए?’’

‘‘शाम को ओपन रैस्टौरैंट में आना है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हारी मैडिकल रिपोर्ट का जवाब देना है.’’

‘‘ओके, विनोद, शाम 7 बजे.’’

‘‘विनोद नहीं, विक्की. जरा नई शैली की कोई अट्रैक्टिव ड्रैस डालना,’’ और खट से फोन कट गया.

अनबू झी पहेली के समान हाथ में पकड़े सैलफोन को देखती वैभवी कुछ न सम झ सकी.

‘‘दीदी, जीजाजी से मिलने जा रही हो?’’ बड़ी बहन को ड्रैसिंग टेबल के सामने बैठा देख छोटी बहन अनुष्का ने पूछा.

वैभवी खामोश रही. असाध्य बीमारी का छोटी बहन को पता नहीं था. मम्मी खामोश थीं. वरपक्ष क्या पता कब रिश्ता तोड़ने के लिए फोन कर दे या पर्सनल मैसेज भेज दे.

त्रिकोण- भाग 2 : शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

दोनों बच्चों को पता था कि मम्मीपापा के बीच सब कुछ नौर्मल नहीं था.
पर जिंदगी फिर भी कट ही रही थी.
यह सब सोचतेसोचते सोनल की आंख ना जाने किस पहर में लग गई थी. उसे एक बेहद अजीब सपना आया जिस में नितिन के हाथ खून से रंगे हुए थे. अचकचा कर सोनल उठ बैठी, उस का शरीर भट्टी की तरह तप रहा था. बुखार चैक किया 102 था. चाह कर भी वह उठ ना पाई और ऐसे ही गफलियत में लेटी रही.

सुबह किसी तरह से औक्सिमीटर का इंतजाम हो गया था. सोनल ने जैसे ही नापा तो उस का औक्सीजन लैवल
85 था. उस ने फोन कर के नितिन को बोला तो नितिन भी थोड़ा परेशान हो गया और बोला,”सोनल, प्रोन
पोजीशन में लेटी रहो.”

इधरउधर नितिन ने हाथपैर मारने शुरू किए. सब जगह पैसों के साथसाथ सिफारिश चाहिए थी. नितिन
के हाथ खाली थे. किसी तरह श्रेया की फ्रैंड की मदद से सोनल को अस्पताल तो मिल गया था पर दवाओं और टैस्ट के पैसे कौन देगा?
तभी कौरिडोर में एक सांवली मगर गठीली शरीर की नर्स आई और नितिन से मुखातिब होते हुए बोली,”सर, दवाएं यहां फ्री नहीं हैं.”

नितिन मायूसी से बोला,”जानता हूं पर घर में सब लोगों को कोविड है और मांपापा को कैसे ऐसे छोड़ देता, उसी चक्कर में सबकुछ लग गया. 2 बच्चे भी हैं, आप ही बताओ क्या करूं? बिजनैस में अलग से घाटा चल रहा है.”

नर्स का नाम ललिता था. वह 32 वर्ष की थी. उसे नितिन से थोड़ी सहानुभूति सी हो गई. उस ने कहा,”अच्छा सर, मैं कोशिश करती हूं.”

नितिन ने अचानक से ललिता का हाथ अपने हाथों में ले कर हलके से थपथपा दिया. ललित हक्कीबक्की रह गई थी. नितिन धीरे से बोला,”आई एम सौरी ललिता, पर तुम्हें पता है ना इंसान ऐसे पलों में कितना कमजोर पड़ जाता है.”

ललिता को लगा कि नितिन कितना केयरिंग है. अपने घरपरिवार को ले कर और एक उस का पहला पति था
एकदम निक्कमा. काश, मेरा पति भी इतना केयरिंग होता तो मुझे अपनी जान हथेली पर रख कर यह नौकरी नहीं करनी पड़ती.

नितिन विजयी भाव के साथ घर आया. उसे लग रहा था कि उस ने दवाओं का इंतजाम फ्री में ही कर दिया है. थोड़े से घड़ियाली आंसू बहा कर वह ललिता को पूरी तरह अपने शीशे में उतार लेगा.

नितिन के पास यही हुनर था, औरतों की भावनाओं को हवा दे कर उन को उल्लू बनाना. औरतों की झूठी
तारीफें करना और खुद अपना उल्लू सीधा करना.

ललिता ने सोनल की दवाओं का इंतजाम कर दिया था. नितिन ने नहा कर ब्लू कलर की शर्ट और जींस
पहनी. उसे पता था वह इस में कातिल लगता है. दोनों बच्चों को बुलाकर दूर से ही बोला,”बेटा, मैं मम्मी के पास जा रहा हूं, तुम लोग रह लोगे क्या अकेले?”

श्रेया डबडबाई आवाज में बोली,”पापा, मम्मी ठीक हो जाएंगी ना?”

नितिन इतना स्वार्थी था कि उसे अभी भी ललिता दिख रही थी. झुंझलाता हुआ बोला,”अरे भई, इसलिए तो वहां
जा रहा हूं, तुम क्यों रोधो रही हो?”

आर्यन श्रेया को चुप कराते हुए बोला,”दीदी, हम लोग हिम्मत नहीं हारेंगे, पापा आप जाओ.”

नितिन हौस्पिटल तो गया पर सोनल के पास जाने के बजाए घाघ लोमड़ी की तरह ललिता के बारे में
इधरउधर से पता लगाता रहा था. यह पता लगते ही कि ललिता का अपने पति से तलाक हो गया है नितिन
की बांछें खिल गई थीं. उधर सोनल का औक्सीजन लैवल डीप कर रहा था. हौस्पिटल में इतनी मारामारी थी
कि अगर मरीज का तीमारदार ध्यान ना दे तो मरीज की कोई सुधबुध नहीं लेता था.

नितिन बाहर से ही सोनल को देख रहा था. उस का बिलकुल भी मन नहीं था अंदर जाने का. तभी नितिन ने दूर से ललिता को आते हुए देखा, नितिन भाग कर अंदर सोनल के पास गया. नितिन ने देखा कि सोनल का
औक्सीजन लेवल 70 पहुंच चुका था. वह भाग कर ललिता के पास गया और घड़ियाली आंसू बहाते हुए
बोला,”ललिता, मेरी सोनल को बचा लो. घर पर बच्चों के लिए खाने का इंतजाम करने गया था.”

ललिता भागते हुए सोनल के पास पहुंची तो देखा औक्सीजन मास्क ठीक से लगा हुआ नहीं था. उस ने ठीक किया तो सोनल का औक्सिजन लैवल बढ़ने लगा. नितिन ललिता के करीब जाते हुए बोला,”ललिता, तुम मेरे लिए फरिश्ता बन कर आई हो.”

ललिता को नितिन से सहानुभूति सी हो गई थी. नरम स्वर में बोली,”आप चिंता मत करें, यह मेरा पर्सनल नंबर है. अगर जरूरत पड़े तो कौल कर लीजिएगा.”

नितिन को ललिता से और बात करनी थी, इसलिए बोला,”यहां कोई कैंटीन है, सुबह से कुछ नहीं खाया है. तुम्हें अजीब लग रहा होगा पर पापी पेट तो नहीं मानता ना.”

ललिता बोली,”आप मेरे साथ चलो…”

कैंटीन में बैठेबैठे 1 घंटा हो गया था. नितिन जितना झूठ बोल सकता था, उस ने बोल दिया था. ललिता जब
कैंटीन से बाहर निकली तो उसे लगा कि वह नितिन के बेहद करीब आ गई है. ललिता ने नितिन की मदद करने के उद्देश्य से अपनी ड्यूटी भी उस वार्ड में लगवा ली जिस में सोनल ऐडमिट थी. वह आतेजाते आंखों ही आंखों में नितिन को साहस देती रहती थी. नितिन को ललिता में अपना अगला शिकार मिल गया था. वह बेहया इंसान यहां तक सोच बैठा था कि अगर सोनल को कुछ हो गया तो वह ललिता को अपनी जिंदगी में शामिल कर लेगा. ललिता अकेली रहती है और अच्छाखासा कमाती है. दिखने में भी आकर्षक है और सब से बड़ी बात ललिता उसे पसंद भी करने लगी है.

अब नितिन का रोज का यह काम हो गया था, ललिता के साथ कैंटीन में खाना खाना और अपनी दुख की
कहानी कहना. ललिता को नितिन का आकर्षक रूपरंग और उस का अपने परिवार के लिए समर्पण आकर्षित
कर रहा था. उसे सपने में भी भान नहीं था कि नितिन इंसान के रूप में एक भेड़िया है.

महुए की खुशबू – भाग 1

पोस्टमैन ने हाथ में पकड़ा दिया एक भूरा लिफ़ाफ़ा. तीसचालीस साल पहले इसे सरकारी डाक माना जाता था. लिफ़ाफ़ा किस दफ़्तर से आया? कोने में एक शब्द ‘प्रेषक’ लिखा दिखाई दे रहा था. आगे कुछ लिखा तो है पर अस्पष्ट है.

सरकारी मोहर ऐसी ही होती थी. उस के मजमून से ही भेजने वाले दफ्तर का पता चलता. उत्सुकता से लिफ़ाफ़ा खोला औऱ खुशी से उछल पड़ा.

सुदूर गांव की प्राइमरी पाठशाला में मुझे शिक्षक की नियुक्ति और तैनाती देने की बाबत आदेश था और अब भूरा सरकारी लिफ़ाफ़ा मुझे रंगीन नज़र आने लगा.

‘गांव की पाठशाला…’ एक पाठ था बचपन में. साथ में अनेक चित्र दिए थे उस पाठशाला के ताकि  शहर के बच्चों को पाठ की वस्तुस्थिति सचित्र दिखाई जा सके. वे सभी चित्र अब मेरी आंखों के सामने आ गए…

साफसुथरा स्कूल.  छोटा सा मैदान. उस में खेलतेदौड़ते बच्चे. 2 झूले भी, जिन पर बालकबालिकाएं झूलती दिख रही होतीं. वहीं सामने लाइन से बने खपरैल वाले क्लास के 4 कमरे, अंदर जूट की लंबीलंबी रंगीन टाटपट्टियां. ऊपर घनी छांव डालते नीम और आम के पेड़. ध्यान से देखने पर एकदो चिड़िया भी बैठी दिख गईं डाल पर. एक क्लास तो पेड़ के नीचे ही लगी थी.

तिपाये पर ब्लैकबोर्ड था. मोटे चश्मे में सदरी डाले माटसाब पढ़ा रहे थे.स्कूल का घंटा पेड़ की एक डाल से ही लटका था जिसे एक सफेद टोपी लगाए चपरासी बजा रहा होता. ईंटों पर रखा मटका और पानी पीती एक बच्ची.

कक्षा के दरवाज़े से अंदर दिखतेपढ़ाते गुरुजी और ध्यान लगा कर पढ़ते बच्चे. कमीजनिक्कर में लड़के और लाल रिबन लगाए बच्चियां, सब गुलगोथने और लाललाल गाल वाले प्यारेप्यारे.

दूर पीछे  गांव के खेत, तालाब और झोपड़ियां दिख रही थीं, जिनके आगे भैंसगाय हरा चारा खा रही होतीं. गांव की तरफ़ एक सड़क मोड़ ले कर आती दिख रही थी. आकाश में सफ़ेद कपास के जैसे उड़ते बादल और साथ में एक पक्षियों की टोली.

शायद हवा पुरवाई चल रही होगी, पर तसवीरों में पता नहीं चलता हवा के रुख का. सरकारी किताब थी, इसलिए सबकुछ ठीकठाक ही नहीं, अत्यंत मनमोहक दिखाना मजबूरी थी चित्रकार की शायद. असलियत दिखा कर भूखे थोड़े ही मरना था.

गांव के स्कूल की वही पुरानी किताबी तसवीरें मन में उतारे मैं बस में बैठ गया. गांव में रहनेखाने का क्या होगा, अख़बार मिलेगा या नहीं, कितने बच्चे होंगे, सहशिक्षक, प्रिंसिपल, क्लर्क,  चपरासी  आदि सोचते हुए मेरा सिर सीट पर टिक गया था.

‘ए बाबू साहब, मटकापुर आय गवा, उतरो,’  कंडक्टर ने कंधा पकड़ कर उठाया. मेरे एक बक्सा, झोला और होल्डाल ले कर सड़क पर टिकते  ही बस धुआंधूल उड़ाती आगे निकल गई.मेरे साथ ही एक सवारी और उतरी थी, एक महिला, उस के साथ 2 बच्चे. उन्हें लेने 2 मर्द साइकिलों से आए थे. एक साइकिल पर बच्चे और दूसरी पर पीछे वह महिला बैठ गई.

मुझे ऐसा आभास हुआ कि महिला साथ आए पुरुष को मेरी तरफ़ इशारा कर के कुछ बता रही थी. पुरुष ने एक उचटती सी नज़र मुझ पर मारी, सिर हिलाया और साइकिल पर बैठ कर पैडल मारता चल दिया.

‘होगा कुछ,’ मैं ने मन ही मन सोचा और रूमाल से चेहरा पोंछ कर चारों तरफ नज़र दौड़ाई. दूरदूर तक गांव का कोई निशान नहीं था. इकलौती  पगडंडी सड़क से उतर कर खेतों की तरफ जाती सी लगी. मैं उसी पर बढ़ लिया और मुझे चित्र की ग्रामीण सड़क याद आ गई. पता नहीं वह कौन सा गांव था, यह वाला तो पक्का नहीं था.

कभी इतना बोझा मैं ने उठाया नहीं था. ऊपर से मंज़िल और रास्ते की लंबाई भी अज्ञात थी व दिशा अनिश्चित. तभी सामने से गमछा डाले एक आदमी साइकिल पर आता दिखाई दिया. मैं कुछ कहता, इस के पहले ही वह खुद पास आ गया, साइकिल से उतरा और सवाल दाग दिया, ‘कौन हो, कौन गांव जाए का है?’ गांव में आप को परिचय देना नहीं पड़ता, आप से लिया जाता है.

रास्तेभर में मेरा पूरा नाम, जाति, जिला, पिताजी, बच्चे, परिवार आदि की पूरी जानकारी साइकिल वाले को ट्रांसफर हो चुकी थी. बीसपचीस कच्चे और दोतीन मकान पक्के यानी छत पक्की वाले दिखने लगे. मेरी पोस्टिंग वाला गांव आ चुका था- मटकापुर.

यह वह तसवीर वाला गांव नहीं ही था.  समझ आने लगा कि चित्रकार के रंगों का गांव हक़ीक़त से कितना अलग होता है. वह कभी मटकापुर आया नहीं होगा. कूची भी झूठ बोलती है. गांव के स्कूल का नया ‘मास्टर’ आया है, यह ख़बर जंगल की आग बन गांव में फ़ैलने लगी. बड़ेबूढ़े जुटने लगे. कौन हैं, कौन गांव, जिला, पूरा नाम, जाति सब बारबार पूछा और बताया जा रहा था.

मेरे नाम का महत्त्व नाम के साथ दी गई अनावश्यक  जानकारी के आधार पर ही लगाया जाने लगा. किसी को समझ आया, कुछ सिर हिला रहे थे, ‘पता नहीं को है, किते से आए.’ ख़ैर, मैं जो भी था, प्रारंभिक आवभगत में कमी नहीं हुई. गांव में जो व्यक्ति मेरी बिरादरी के सब से क़रीब साबित हुए, उन का ही धर्म बन गया मुझे आश्रय देने का. खाना हुआ और सोने के लिए खटिया डाल दी गई.

मैं अनजाने में और घोर अनिच्छा से पहले ही दिन गांव के लोगों के एक धड़े में जा बैठा था. गांव मे न्यूट्रल कुछ नहीं होता. हर आदमी होता है इस तरफ का या दूसरी तरफ  या ऊंचा या नीचा. चुनो या न चुनो. एक पाले की मोहर तो लग ही जाएगी, मतलब  लगा दी जाएगी आप की शख्सियत के लिफ़ाफ़े पर.

यह मोहर सरकारी वाली नहीं, सामाजिक होती है जो दूर से ही दिख जाती है. इस का छापा जन्मभर का होता है.

आशा का दीप- भाग 1: किस उलझन में थी वैभवी

आप हैं मिस वैभवी, सीनियर मार्केटिंग मैनेजर,’’ शाखा प्रबंधक ने वैभवी का परिचय नए नियुक्त हुए सेल्स एवं डिस्ट्रिब्यूशन औफिसर विनोद से कराते हुए कहा.

वैभवी ने तपाक से उठ कर हाथ मिलाया. विनोद ने वैभवी के हाथ के स्पर्श में गर्मजोशी को स्पष्ट महसूस किया. उस ने वैभवी की तरफ गौर से देखा. वह उस के चुस्त शरीर, संतुलित पोशाक और दमकते चेहरे पर बिखरी मधुर मुसकान से प्रभावित हुआ.

वैभवी ने भी विनोद का अवलोकन किया. सूट के साथ मैच करती शर्ट और नेक टाई, अच्छी तरह सैट किए बाल, क्लीनशेव्ड, दमकता चेहरा पहली नजर में प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व.

‘‘आप हैं मिस्टर विनोद, आवर न्यू सेल्य एंड डिस्ट्रिब्यूशन मैनेजर.’’

वैभवी से परिचय के बाद शाखा प्रबंधक महोदय विनोद को सिलसिलेवार सभी केबिनों में ले गए. विनोद ने केबिन में अपनी सीट पर बैठ कर मेज के एक तरफ रखा लैपटौप औन किया.

थोड़े समय में ही सेल्स, डिस्ट्रिब्यूशन और मार्केटिंग इंटररिलेटिड वैभवी और विनोद की नियमित बैठकें होने लगीं. फिर धीरेधीरे अंतरंगता बढ़ती गई.

दोनों ही अविवाहित थे. दोनों अपने लिए उपयुक्त जीवनसाथी की तलाश में भी थे. बढ़ती अंतरंगता की परिणति उन की मंगनी में बदली और विवाह की तिथि तय की गई.

दोनों के परिवार जोशोखरोश से विवाह की तैयारियां कर रहे थे. एक रोज बड़े डिपार्टमैंटल स्टोर से शौपिंग कर वैभवी बाहर आ रही थी, सामने से आती एक प्रौढ़ा स्त्री उस से टकराई. उस के हाथों का पैकेट वैभवी के वक्षस्थल से टकराया.

दर्द की तीव्र लहर वैभवी के वक्ष स्थल पर फैल गई. बड़ी मुश्किल से चीखने से रोक पाई वैभवी अपनेआप  को. पर लौट कर कपड़े बदलते हुए उस ने वक्षस्थल पर हाथ फिराया तो एक हलकी सी गांठ उस को दाएं वक्षस्थल पर महसूस हुई. गांठ दबाने पर हलकाहलका दर्द उठा.

औफिस से थोड़ी देर की छुट्टी ले कर वह अपने परिचित डाक्टर के पास गई. जांच करने के बाद डाक्टर गंभीर हो गए.

‘‘आप को कुछ टैस्ट करवाने होंगे,’’ डाक्टर साहब ने गंभीरता से कहा.

‘‘क्या कुछ सीरियस है?’’ आशंकित स्वर में वैभवी ने पूछा.

‘‘टैस्ट रिपोर्ट आने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. वैसे क्या आप के परिवार में किसी, मेरा मतलब आप की माताजी या पिताजी या दादीनानी को ऐसी तकलीफ हुई थी,’’ डाक्टर साहब ने धीरेधीरे बोलते हुए गंभीर स्वर में पूछा.

इस सवाल पर वैभवी गंभीर हो गई. उस की मम्मी को कई साल पहले, जब वह किशोरावस्था में थीं, ब्रेस्ट कैंसर हुआ था. लंबे समय तक तरहतरह के इलाज के बाद और वक्षस्थल से एक वक्ष काटने के बाद इस समस्या से छुटकारा मिला था. क्या उसे भी वक्षस्थल यानी ब्रेस्ट कैंसर है?

‘‘क्या टैस्ट आप के यहां होंगे?’’

‘‘जी नहीं, ये सब बड़े अस्पताल में होते हैं. एक टैस्ट से स्थिति स्पष्ट न होने पर दूसरे कई टैस्ट करवाने पड़ सकते हैं.’’

‘‘बाई द वे, आप का अंदाजा क्या है?’’ वैभवी के इस सवाल पर डाक्टर गंभीर हो गए, ‘‘मिस वैभवी, अंदाजे के आधार पर चिकित्सा नहीं हो सकती. प्रौपर डायग्नोसिस किए बिना बीमारी का इलाज नहीं हो सकता.’’

‘‘आप ने फैमिली बैकग्राउंड पर सवाल किया था. मेरी मम्मी को कई साल पहले ब्रेस्ट कैंसर हुआ था. सर्जरी द्वारा उन के वक्ष को काटना पड़ा था. कहीं मु झे भी…’’

‘‘मिस वैभवी, हैव फेथ औन योरसैल्फ. कभीकभी सारा अंदाजाअनुमान गलत साबित होता है,’’ यह कहते डाक्टर साहब ने अपने लैटर पर एक बड़े अस्पताल का नाम लिखते उस पर परामर्श लिखा और कागज वैभवी की तरफ बढ़ा दिया.

औफिस में अपनी सीट पर बैठी वैभवी गंभीर सोच में थी. हर रोज वह अपने सहयोगियों के साथ कंपनी के किसी नए उत्पादन और उस की मार्केटिंग पर डिस्कशन करती थी, मगर आज वह खामोश थी.

विनोद भी अपनी मंगेतर को गंभीर देख कर उल झन में था.

‘‘हैलो वैभवी, हाऊ आर यू?’’ साइलैंट मोड पर रखे सैलफोन की स्क्रीन पर एसएमएस चमका.

‘‘फाइन,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे वैभवी ने फोन बंद कर दिया और उठ कर शाखा प्रबंधक के कमरे में चली गई.

‘‘सर, मु झे कुछ पर्सनल काम है, आज छुट्टी चाहिए.’’

बेटी को आज इतनी जल्दी आया देख कर मम्मी चौंक गईं. ‘‘वैभवी, कोई प्रौब्लम है?’’ पानी का गिलास थमाते मम्मी ने पूछा.

वैभवी खामोश थी. क्या बताए? कैंसर एक दाग सम झा जाता था. एक स्टिगमा. कैंसरग्रस्त व्यक्ति को अछूत के समान सम झ कर हर कोई उस से दूरी बनाए रखना चाहता है.

उस की मम्मी को भी कैंसर हुआ था 20 साल पहले. सर्जरी द्वारा उन का एक वक्ष काट दिया गया था. कैंसर जेनेटिक स्टेज की प्रथम स्टेज पर था. उस का फैलना थम गया था. 20 साल बाद उस की मम्मी नौर्मल लाइफ जी रही थीं. मगर सब जानकार, सभी संबंधी उन से एक दूरी बना कर रखते थे.

‘‘वैभवी, क्या बात है, कोई औफिस प्रौब्लम है?’’ सोफे पर बैठ कर वैभवी का चेहरा अपने हाथों में थामते मम्मी ने प्यार से पूछा.

वैभवी की आंखें भर आईं. वह हौलेहौले सुबकने लगी. इस पर मम्मी घबरा गईं. उन्होंने उस को अपनी बांहों में भर लिया. पानी का गिलास उस के होंठों से लगाया. चंद घूंट पीने के बाद वैभवी संयत हुई. उस ने स्थिर हो मम्मी को सब बताया.

वैभवी की मां गंभीर हो गईं. क्या कैंसर पुश्तैनी था? उन को कैंसर था. उन से पहले शायद उन की मां को भी. मगर दोनों अच्छी उम्र तक जीवित रही थीं.

अजीब पसोपेशभरी और दुखभरी स्थिति बन गई थी. वैभवी के विवाह होने को मात्र 15 दिन बाकी थे. अब यह दुखद स्थिति बताने पर रिश्ता टूटना तो था ही, साथ ही कैंसरग्रस्त परिवार है, यह दाग स्थायीतौर पर उन पर लग जाना था.

‘‘डाक्टर ने अभी अपना अंदाजा बताया है, साथ ही यह भी कहा है कि कई बार अंदाजा गलत भी साबित होता है,’’ मम्मी ने हौसला बंधाने के लिए आश्वासनभरे स्वर में कहा.

‘‘मगर हम विनोद और उस के परिवार को क्या बताएं?’’

वैभवी के इस सवाल पर मम्मी खामोश हो गईं. मां के बाद अब बेटी को कैंसर जैसे रोग की त्रासदी का सामना करना पड़ रहा था. मां को कैंसर विवाह के बाद 2 बच्चों को जन्म देने के बाद जाहिर हुआ था. परिणाम में वक्ष स्थल और बाद में गर्भाशय को निकालना पड़ा था.

मगर बेटी की त्रासदी मां से बड़ी थी. वह कुंआरी थी. विवाह दहलीज पर था. वरवधू दोनों पक्षों की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं.

विवाह की तारीख से पहले रिश्ता टूट जाना आजकल के जमाने में इतना असामान्य नहीं सम झा जाता. मगर कोई उचित कारण होना चाहिए.

मगर वैभवी की स्थिति एकदम असामान्य थी. कुदरत की मार कि इतनी त्रासदीभरे ढंग से उस पर पड़ी थी. ‘‘मैं अगर यह बात विनोद से छिपाती हूं तो विवाह के बाद इस बात के उजागर होने पर, कि मु झे डाक्टर द्वारा आगाह कर दिया गया था, मैं सारी उम्र उन से आंख नहीं मिला सकूंगी,’’ वैभवी ने सारी स्थिति की समीक्षा करते कहा.

‘‘मेरे बाद तुम्हारे कैंसरग्रस्त होने से तुम्हारी छोटी बहन अनुष्का के भविष्य पर भी प्रभाव पड़ेगा. उस का रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा,’’ मम्मी के स्वर में परेशानी  झलक रही थी.

वैभवी भी सोच में थी कि वह विनोद को कैसे बताए.

‘‘वैभ,’’ विनोद का फोन था. हर शाम विदा लेने के बाद दोनों एक या अनेक बार अपनेअपने सैलफोन से हलकीफुलकी चैट करते थे.

त्रिकोण- भाग 1 : शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

आज सोनल को दूसरे दिन भी बुखार था. नितिन अनमना सा रसोई में खाना बनाने का असफल प्रयास कर रहा था. सोनल मास्क लगा कर हिम्मत कर के उठी और नितिन को दूर से ही हटाते हुए बोली,”तुम जाओ, मैं करती हूं.”

नितिन सपाट स्वर में बोला,”तुम्हारा बुखार तो 99 पर ही अटका हुआ है और तुम आराम ऐसे कर रही हो,
जैसे 104 है.”

फीकी हंसी हंसते हुए सोनल बोली,”नितिन, शरीर में बहुत कमजोरी लग रही है, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं.”

तभी 15 वर्षीय बेटी श्रेया रसोई में आई और सोनल के हाथों से बेलनचकला लेते हुए बोली,”आप जाइए, मैं बना लूंगी.”

तभी 13 वर्षीय बेटा आर्यन भी रसोई में आ गया और बोला,”मम्मी, आप लेटो, मैं आप को नारियल पानी देता हूं और टैंपरेचर चेक करता हूं.”

सोनल बोली,”बेटा, तुम सब लोग मास्क लगा लो, मैं अपना टैंपरेचर खुद चैक कर लेती हूं.”

नितिन चिढ़ते हुए बोला,”सुबह से जब मैं काम कर रहा था तो तुम दोनों का दिल नहीं पसीजा?”

श्रेया थके हुए स्वर में चकले पर किसी देश का नक्शा बेलते हुए बोली,”पापा, हमारी औनलाइन क्लास थी, 1
बजे तक.”

आर्यन मास्क को ठीक करते हुए बोला,”पापा, एक काम कर लो, कहीं से औक्सिमीटर का इंतजाम कर लीजिए, मम्मी का औक्सीजन लैवल चैक करना जरूरी है.”

नितिन बोला,”अरे सोनल को कोई कोरोना थोड़े ही हैं, पैरासिटामोल से बुखार उतर तो जाता है, यह वायरल
फीवर है और फिर कोरोना के टैस्ट कराए बगैर तुम क्यों यह सोच रहे हो?”

श्रेया खाना परोसते हुए बोली,”पापा, तो करवाएं? नितिन को लग रहा था कि क्यों कोरोना के टैस्ट पर ₹4,000 खर्च किया जाए. अगर होगा भी तो अपनेआप ठीक हो जाएगा. भला वायरस का कभी कुछ इलाज मिला है जो अब मिलेगा?”

जब श्रेया खाना ले कर सोनल के कमरे में गई तो सोनल दूर से बोली,”बेटा, यहीं रख दो, करीब मत आओ, मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण यह बुखार तुम्हे भी हो.”

नितिन बाहर से चिल्लाते हुए बोला,”तुम तो खुद को कोरोना कर के ही मानोगी.”

सोनल बोली,”नितिन, चारों तरफ कोरोना ही फैला हुआ है और फिर मुझे बुखार के साथसाथ गले में दर्द भी हो रहा है.”

श्रेया और आर्यन बाहर खड़े अपनी मम्मी को बेबसी से देख रहे थे. क्या करें, कैसे मम्मी का दर्द कम करें
दोनों बच्चों को समझ नहीं आ रहा था. सोनल को नितिन की लापरवाही का भलीभांति ज्ञान था. उसे यह भी पता था कि महीने के आखिर में पैसे ना के बराबर होंगे इसलिए नितिन टैस्ट नहीं करवा रहा है. सरकारी फ्री टैस्ट की स्कीम ना जाने किन लोगों के
लिए हैं, उसे समझ नहीं आ रहा था.
सोनल ने व्हाट्सऐप से नितिन को दवाओं की परची भेज दिया. नितिन मैडिकल स्टोर से दवाएं ले आया,
हालांकि मैडिकल स्टोर वाले ने बहुत आनाकानी की थी क्योंकि परची पर सोनल का नाम नहीं था.

दवाओं का थैला सोनल के कमरे की दहलीज पर रख कर नितिन चला गया. सोनल ने पैरासिटामोल खा ली
और आंखे बंद कर के लेट गई. पर उस का मन इसी बात में उलझा हुआ था कि वह कल औफिस जा पाएगी
या नहीं. आजकल तो हर जगह बुरा हाल है. एक दिन भी ना जाने पर वेतन कट जाता है. कैसे खर्च चलेगा
अगर उसे कोरोना हो गया तो? नितिन के पास तो बस बड़ीबड़ी बातें होती हैं, यही सोचतेसोचते उस के कानों
में अपने पापा की बात गूंजने लगी,”सोनल, यह तुझे नहीं तेरी नौकरी को प्यार करता है. तुझे क्या लगता है यह तेरे रूपरंग पर रिझा है?
तुझे दिखाई नहीं देता कि तुम दोनों में कहीं से भी किसी भी रूप में कोई समानता नहीं है…”

आज 16 वर्ष बाद भी रहरह कर सोनल को अपने पापा की बात याद आती है. सोनल के घर वालों ने उसे नितिन से शादी के लिए आजतक माफ नहीं किया था और नितिन के घर में रिश्तों का कभी कोई महत्त्व था ही नहीं. शुरूशुरू में तो नितिन ने उसे प्यार में भिगो दिया था, सोनल को लगता था जैसे वह दुनिया की सब से खुशनसीब औरत है पर यह मोहभंग जल्द ही हो गया था, जब 2 माह के भीतर ही नितिन ने बिना सोनल से पूछे उस की सारी सैविंग किसी प्रोजैक्ट में लगा दी थी.

जब सोनल ने नितिन से पूछा तो नितिन बोला,”अरे देखना मेरा प्रोजैक्ट अगर चल निकला तो तुम यह नौकरी
छोड़ कर बस मेरे बच्चे पालना.”

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और तब तक श्रेया के आने की दस्तक सोनल को मिल गई थी. फिर धीरेधीरे नितिन
का असली रंग सोनल को समझ आ चुका था. जब तक सोनल का डैबिट कार्ड नितिन के पास होता तो सोनल पर प्यार की बारिश होती रहती थी. जैसे ही सोनल नितिन को पैसों के लिए टोकती तो नितिन सोनल से बोलना छोड़ देता था. धीरेधीरे सोनल ने स्वीकार कर लिया था कि नितिन ऐसा ही है. उसे मेहनत करने की आदत नही है. सोनल के परिवार का उस के साथ खड़े ना होने के कारण नितिन और ज्यादा शेर हो गया था. घरबाहर की जिम्मेदारियां, रातदिन की मेहनत और पैसों की तंगी के कारण सोनल बेहद रूखी हो गई थी.
सुंदर तो सोनल पहले भी नहीं थी पर अब वह एकदम ही रूखी लगती थी. सोनल मन ही मन घुलती रहती
थी. नितिन का इधरउधर घूमना सोनल से छिपा नहीं रहा था और ऊपर से यह बेशर्मी कि नितिन सोनल के पैसों से ही अपनी गर्लफ्रैंड के शौक पूरे करता था.

बड़बोला: भाग-4

हम विपुल के घर गए तो वहां घर के साथ वाला प्लाट खाली था, जहां खाने का प्रबंध था. शहरी वातावरण से बिलकुल उलट दरियों पर बैठ कर खाने का प्रबंध था. शादी का माहौल देख कर पूरा स्टाफ दंग रह गया. तभी बरात आ गई. आतिशबाजी के नाम पर बंदूक के दोचार फायर देखने को मिले.

भूख से बुरा हाल हुआ जा रहा था, इसलिए चुपचाप दरियोें पर बैठ गए, लेकिन सुषमा ने तो जैसे प्रण कर लिया था. वह अपने इरादे से नहीं पलटी. उस ने खाना तो दूर, पानी की एक बूंद भी नहीं ली. विपुल ने काफी आग्रह किया, लेकिन सब बेकार.

महेश का मन खाने से अधिक वापस जाने की जुगाड़ में लगा था. अत: गुस्से में भुनभुनाता बोला, ‘‘कसम लंगोट वाले की, ऐसी बेइज्जती कभी नहीं हुई. विपुल से ऐसी उम्मीद नहीं थी. सर, मुझे चिंता वापस जाने की है. यहां रहने का कोई इंतजाम नहीं है, रात को कोई बस भी नहीं जाती है. सुबह आफिस कैसे पहुंचेंगे. स्टाफ की लड़कियां परेशान हैं, उन के घर कैसे सूचना दें कि हम यहां फंस गए हैं.’’

हमारी बातें सुन कर साथ में बैठे वरपक्ष के एक सज्जन बोेले, ‘‘आप कितने व्यक्ति हैं, हमारी एक बस खाना खत्म होने के बाद वापस मेरठ जाएगी. हम आप को नवयुग सिटी के बाईपास पर छोड़ देंगे. शहर के अंदर बस नहीं जाएगी, क्योंकि वहां जाने से हमें देर हो जाएगी.’’

यह बात सुन कर पूरा स्टाफ खुशी से झूम उठा. जहां दो पल पहले खाने का एक निवाला गले के नीचे जाने में अटक रहा था, अब भूख से ज्यादा खाने लगे. ऐसा केवल खुशी में ही हो सकता है. वरपक्ष के उस सज्जन को धन्यवाद देते हुए हम सब बस में जा बैठे. यह उन का बड़प्पन ही था कि बस में जगह न होते हुए भी हम 8 लोगों को बस में जगह दी, स्टाफ की लड़कियों को सीट दी और खुद ड्राइवर के केबिन में बोनट पर बैठ गए.

रात के 1 बजे नवयुग सिटी के बाईपास पर बस ने हमें उतारा. चारों तरफ सन्नाटा, सब से बड़ी समस्या बस अड्डे जाने की थी, जहां हमारे स्कूटर खड़े थे. मन ही मन सब विपुल को कोस रहे थे कि कहां फंसा दिया, कोई आटो- रिकशा भी नहीं मिला. आधे घंटे इंतजार के बाद एक रोडवेज की बस रुकी, तब जान में जान आई. हालांकि बस ने पीछे से किराया वसूल किया. उस समय हम कोई भी किराया देने को तैयार थे, हमारा लक्ष्य केवल अपने घरों को पहुंचने का था.

अगले दिन गिरतापड़ता आफिस पहुंचा. पूरे आफिस में सन्नाटा. सिर्फ कंप्यूटर आपरेटर श्वेता ही आफिस में थी. मैं कुरसी पर बैठेबैठे कब सो गया, पता ही नहीं चला. दोपहर के 2 बजे महेश ने आ कर मुझे जगाया. बाकी समय हम दोनों सिर्फ शादी की बातें करते रहे. श्वेता के कान हमारी तरफ थे. हम ने तो अपनी भड़ास कह कर निकाल दी, लेकिन वज्रपात श्वेता पर हुआ, बेचारी के सारे सपने टूट गए. कहां तो उस ने एक राजकुमार से शादी का सपना संजोया था और वह राजकुमार फक्कड़ निकला.

बात को बढ़ाचढ़ा कर कहने की आदत तो बहुतों की होती है, लेकिन 1 का 500 विपुल बना गया. श्वेता इस आडंबरपूर्ण झूठ को सह नहीं सकी और उस ने 3-4 दिन बाद त्यागपत्र दे दिया. आफिस में सब विपुल के व्यवहार

से नाराज थे, लेकिन हम कर भी कुछ नहीं सकते थे. जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा वाली कहावत आखिर चरितार्थ हो गई.

एक दिन शाम को जब विपुल आफिस से निकला तो श्वेता के भाई ने अपने 3 दोस्तों के साथ उसे घेर लिया और हाकी से उस की जम कर पिटाई करने लगे. विपुल अपने बचाव में जोरजोर से चिल्लाने लगा, लेकिन ऐसे मौके पर लोग केवल तमाशबीन बन कर रह जाते हैं, कोई बचाने नहीं आता. तभी हम और महेश वहां से गुजरे तो भीड़ देख कर महेश रुक गया. विपुल की आवाज सुन कर महेश मुझ से बोला, ‘‘सर, यह तो अपना विपुल है.’’

विपुल को पिटता देख कर हम दोनों उसे बचाने की कोशिश करने लगे. उस के बचाव के चक्कर में हम भी पिट गए. हमारे कपड़े भी फट गए. हमें देख कर भीड़ में से कुछ लोग बचाव को आगे बढ़े तो हमलावर भाग गए. विपुल की बहुत पिटाई हुई थी. आंखें सूज गईं, शरीर पर जगहजगह नीले निशान पड़ गए थे. उसे पास के नर्सिंगहोम में इलाज के लिए ले गए, जहां उसे 2 दिन रहना पड़ा.

‘‘देख लिया अपने बड़बोलेपन का नतीजा, इतनी सुंदर सुशील कन्या का दिल तोड़ दिया. क्याक्या सपने संजो कर रखे थे उस ने, सब बरबाद कर दिया. शुक्र कर हम वहां पहुंच गए वरना तेरा तो क्रियाकर्म आज हो जाता. मैं तो कहता हूं कि अब भी समय है, संभल जा और आज की पिटाई से सबक ले.’’

विपुल चुपचाप सुनता रहा. महेश का भाषण जले पर नमक का काम कर रहा था, लेकिन कड़वी दवा तो पीनी ही पड़ती है. ऐसा आदमी अपनी आदत से मजबूर होता है, फिर उसी रास्ते पर चल पड़ता है. कुछ दिन खामोश रहने के बाद विपुल की बोलने की आदत फिर शुरू हो गई, लेकिन अब स्टाफ के लोग उस की बातों को गंभीरता से नहीं लेते थे.

एक दिन विपुल मेरे केबिन में आया और बोला, ‘‘सर, आप की हेल्प की जरूरत है.’’

‘‘बोलो, विपुल, अगर मेरे बस में होगा तो जरूर करूंगा.’’

यहां नवयुग सिटी में सरकार ने प्लाट काटे हैं. डैडी ने नवगांव का मकान बेच कर यहां एक प्लाट खरीदा है और कोठी बनवानी है. आप को मालूम है कि ठेकेदार, मजदूरों के सिर पर बैठना पड़ता है, नहीं तो वे काम नहीं करते. सुबह कुछ देर से आने की इजाजत मांगनी है, शाम को देर तक बैठ कर आफिस का काम पूरा कर लूंगा, कोई काम पेंडिंग नहीं होगा. हम ने यहां किराए पर मकान ले लिया है, शाम को डैडी कोठी के कंस्ट्रेक्शन का काम देख लेंगे. बस, 1 महीने की बात है, सर.’’

मैं ने उस को इजाजत दे दी और सोचने लगा कि 1 महीने में कौन सी कोठी बन कर तैयार होती है, तभी महेश केबिन में आया.

‘‘विपुल अंगरेजों के जमाने का बड़बोला है, जिंदगी में कभी नहीं सुधरेगा.’’

‘‘अब क्या हो गया?’’

‘‘सर, सेक्टर 20 में तो 25 और 50 गज के प्लाट प्राधिकरण काट रहा है, वहां कौन सी कोठी बनवाएगा. मकान कहते शर्म आती है, इसलिए कोठी कह रहा है. यदि उस की 50 गज में कोठी है, तो सर, मेरा 100 गज का मकान तो महल की श्रेणी में आएगा.’’

मैं महेश की बातें सुन कर हंस दिया और जलभुन कर महेश विपुल को जलीकटी सुनाने लगा. खैर, विपुल ने 1 महीना कहा था, लेकिन लगभग 4 महीने बाद मकान बन कर तैयार हो गया. मकान के गृहप्रवेश पर विपुल ने पूरे स्टाफ को आमंत्रित किया, लेकिन स्टाफ ने कोई रुचि नहीं दिखाई. सब बड़े आराम से आफिस के काम में जुट गए. मेरे कहने पर सब ने एकजुट हो कर विपुल के यहां जाने से मना कर दिया.

‘‘महेश, बड़े प्रेम से विपुल ने गृहप्रवेश पर बुलाया है, हमें वहां जाना चाहिए.’’

‘‘सर, मुझे चलने को मत कहिए, उस की कोठी मैं बरदाश्त नहीं कर सकूंगा. मैं अपने झोंपड़े में खुश हूं.’’

‘‘महेश, आफिस से 2 घंटे जल्दी चल कर बधाई दे देंगे, उस की कोठी हो या झोंपड़ा, हमें इस से कुछ मतलब नहीं. वह अपनी कोठी में खुश और हम अपने झोंपड़े में खुश.’’

यह बात सुन कर महेश खुशी से उछल पड़ा और बोला, ‘‘कसम लंगोट वाले की, आप की इस बात ने दिल बागबाग कर दिया. अब आप का साथ खुशीखुशी.’’

शाम को 4 बजे हम आफिस से चल कर विपुल की कोठी पहुंचे. 50 गज के प्लाट पर दोमंजिला मकान था विपुल का. महेश ने चुटकी ली, ‘‘यार, कोठी के दर्शन करवा, बड़ी तमन्ना है, दीदार क रने की.’’

‘‘हांहां, देखो, यह ड्राइंगरूम, रसोई, बैडरूम…’’ अपनी आदत से मजबूर साधारण काम को भी बढ़ाचढ़ा कर बताने लगा कि कोठी के निर्माण में 50 लाख रुपए लग गए.

‘‘सुधर जा, विपुल, 5 के 50 मत कर.’’

‘‘नहींनहीं, आप को पता नहीं है कि हर चीज बहुत महंगी है. जिस चीज को हाथ लगाओ, लाखों से कम आती नहीं है,’’ विपुल आदत से मजबूर सफाई देने लगा.

‘‘विपुल, समय बड़ा बलवान है, इतना झूठ बोलना छोड़ दे, एक

दिन तेरा सच भी हम झूठ मानेंगे. सुधर जा.’’

‘‘बाई गौड, झूठ की बात नहीं है, बिलकुल सच है,’’ विपुल सफाई पर सफाई दे रहा था.

हम ने वहां से खिसकने में ही अपनी बेहतरी समझी. विपुल से बहस करना बेकार था. हम ने उसे शगुन का लिफाफा पकड़ाया और विदा ली.

मकान से बाहर आ कर हम दोनों के मुख से एकसाथ बात निकली :

‘‘विपुल कभी नहीं सुधरेगा. बड़बोला था, बड़बोला है और बड़बोला रहेगा.’

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