हमदर्दों से दूर: क्या सही था अखिलेश और सरला का फैसला

“हैलो अखिलेशजी, आप फ्री हों तो आज शाम मिलें?” “जी जरूर, मैं तो खाली ही हूं. मगर कहां?” हड़बड़ाते हुए अखिलेश ने पूछा. “जी वही बंजारा रेस्तरां में ठीक 6 बजे मिलते हैं,” सरला ने जवाब दिया.

“ओके…” अखिलेश सरला से खुद मिलना चाहता था. वह खुश था कि सरला ने ही फोन कर के मिलने बुला लिया. दरअसल, जब से उस ने मैट्रिमोनियल साइट में अपनी प्रोफाइल बनाई थी सरला पहली महिला थी जो उसे एक ही नजर में ही पसंद आ गई थी.

समय 6 बजे का था मगर अखिलेश 2 घंटे पहले ही तैयार हो गया. आखिर सरला से जो मिलने जाना था. हलके ग्रे कलर की शर्ट और पैंट पहन कर वह आईने में ठीक से अपना मुआयना करने लगा. हर ऐंगल से खुद को जांचापरखा. कान के पास

किनारेकिनारे झांक रहे सफेद बालों को छिपाने की कोशिश की. 4 दिन पहले ही डाई लगाई थी मगर सफेदी फिर सामने आ गई थी. आंखों का चश्मा और माथे की सिलवटें वह चाह कर भी छिपा नहीं सकता था. खुद ही दिल को यह सोच कर दिलासा देने लगा कि 60 साल की उम्र में इतना फिट और आकर्षक भला कौन नजर आता है? जेब में पर्स और हाथ में मोबाइल ले कर वह चल दिया.

अखिलेश की पत्नी का करीब 10 साल पहले देहांत हो गया था. उस वक्त बच्चे साथ थे इसलिए ज्यादा पता नहीं चला. मगर धीरेधीरे बच्चों की शादी हो गई और वे अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. बेटी ब्याह कर दूसरे शहर चली गई और

छोटे बेटे ने भी जौब के चक्कर में यह शहर छोड़ दिया. बड़ा बेटा पहले ही शादी के बाद मुंबई में बस चुका था. इस तरह मेरठ के घर में वह नितांत अकेला रह गया था.

अब पत्नी की याद ज्यादा ही आने लगी थी. नौकरानी घर संभाल जाती. नाश्ताखाना भी बना देती. मगर पत्नी वाली केयर कैसे कर सकती थी. यही वजह थी कि अखिलेश ने फिर से शादी करने का फैसला लिया ताकि अपनी बची जिंदगी इस तरह अकेलेपन और उदासी के साथ गुजारने के बजाय किसी विधवा से पुनर्विवाह कर के गुजार सके.

इस के लिए उस ने मैट्रिमोनियल साइट में अपनी प्रोफाइल बना डाली. 3-4 दिनों के अंदर ही बहुत सारी महिलाओं ने उन्हें इंटरैस्ट भेज दिया. इन सबों में सरला सब से ज्यादा पसंद आई थी. रेस्तरां की मेज पर सरला और अखिलेश आमनेसामने बैठे थे. सरला की उम्र करीब 50 साल थी. वह भी विधवा थी. एक बेटी थी जिस की शादी हो चुकी थी.

गोरा रंग, तीखे नैननक्श और चेहरे की चमक बता रही थी कि किसी जमाने में वह बला की खूबसूरत रही होगी. सरला ने साफ शब्दों में अपनी बात रखी,” करीब 5 साल पहले एक सड़क दुर्घटना में मेरे पति की मौत हो गई. आप को पता ही होगा कि पति के जाते ही औरत की

जिंदगी से सारी रौनक चली जाती है. मेरी बेटी भी मायके चली गई. अब बिलकुल दिल नहीं लगता है. बस इसी अकेलेपन की वजह से शादी का फैसला लिया है.”

“सरलाजी, मेरे साथ भी बिलकुल यही बात है. मेरा भी खयाल रखने के लिए कोई अपना मेरे पास नहीं. अकेलापन खाने को दौड़ता है. क्यों न हम एकदूसरे के साथी बन कर इस अकेलेपन को हमेशा के लिए दूर कर दें. मुझे आप की जैसी

समझदार और सरल महिला की ही जरूरत है.” सरला ने हौले से मुसकरा कर अपनी सहमति दे दी. दोनों 1-2 घंटे वहीं बैठे बातें करते रहे. अगले दिन फिर मिलने का वादा कर अपनेअपने घर लौट आए.

आते ही अखिलेश ने मैट्रिमोनियल साइट से अपनी प्रोफाइल हटा दी. उसे जिस की तलाश थी वह मिल चुकी थी. देर रात बेटे का फोन आया तो अखिलेश ने बेटे से अपनी खुशी शेयर की. सुन कर बेटा एकदम चुप हो गया.

कुछ देर बाद समझाते हुए बोला,”पापा, यह क्या करने जा रहे हो? क्या जरूरत है इस उम्र में शादी की? वह औरत पता नहीं कैसी हो? किस मकसद से शादी कर रही हो?”

“बेटा तमीज से बात कर, वह औरत तेरी होने वाली मां है. मैं जो यहां अकेलापन महसूस करता हूं उसे मिटाने के लिए शादी कर रहा हूं.” “यार पापा, अकेलापन मिटाने के सौ तरीके हैं. इस के लिए शादी कौन सा

रास्ता है?” झुंझलाए स्वर में बेटे ने कहा. “शादी ही सही रास्ता है बेटा. मुझे जो उचित लगा वही कर रहा हूं.तुम लोग तो मेरे साथ नहीं रहते न. फिर मेरी समस्या कैसे समझोगे?”

“पापा, इस बार मैं कोशिश करूंगा कि अपना ट्रांसफर दिल्ली करा लूं. फिर पास रहूंगा तो हर वीकेंड आ जाया करूंगा. डोंट वरी पापा.”

“देख 5 साल से तू यही कह रहा है बेटे. पर क्या हुआ? तू आया यहां? ” अखिलेश ने बेटे से सवाल किया. “पापा आप तो समझ ही नहीं रहे.” “तू भी नहीं समझ रहा है सुजय. ”

बेटे ने गुस्से में फोन काट दिया. अखिलेश थोड़ी देर उदास पड़ा रहा फिर सहसा ही उस की आंखों में चमक उभरी. मोबाइल उठा कर सरला का नंबर लगाने

लगा. फिर देर रात तक दोनों बातें करने में मशगूल रहे. कुछ दिनों तक दोनों के बीच इसी तरह बातों और मुलाकातों का दौर चलता रहा. इधर अखिलेश के बच्चे उसे शादी न करने की सलाह देते रहे मगर सही समय देख अखिलेश ने बहुत सादगी के साथ सरला को अपना जीवनसाथी बना लिया.

शादी के लिए अखिलेश ने बहुत सादा समारोह रखा था. अखिलेश का छोटा बेटा और सरला की बेटी और भाई विवाहस्थल पर मौजूद थे. अखिलेश की बेटी नहीं आ पाई थी. उसने वीडियो कौल के जरीए अपने पिता की शादी देखी. बड़ा बेटा औफिस के काम में फंसा होने का बहाना बना कर नहीं आया. अखिलेश के बच्चे अपने पिता की दूसरी शादी से बिलकुल भी खुश नहीं थे.

उस दिन अखिलेश बेटे से बात कर रहा था. सरला बाहर गई हुई थी. अचानक वह लौट आई पर अखिलेश को इस की खबर नहीं थी. अखिलेश फोन स्पीकर पर रख कर बातें करता था क्योंकि उसे कम सुनाई देता था. हमेशा की तरह बेटा सरला के खिलाफ जहर उगल रहा था. मगर अखिलेश लगातार उस की हर बात का प्रतिकार सही दलीलों के साथ पूरे विश्वास से करता रहा. अखिलेश का अपने प्रति यह विश्वास देख कर सरला को बहुत अच्छा लगा.

उम्र की परवाह किए बिना नए जीवन की शुरुआत दोनों ने शिमला की वादियों में जा कर किया. उन्होंने वहां साथ में बहुत खूबसूरत वक्त बिताया. दोनों काफी खुश थे.

अकेलेपन का दर्द एकदूसरे का साथ पा कर कहीं गायब हो चुका था. मगर उन के बच्चों को अभी भी यह शादी रास नहीं आ रही थी. खासकर अखिलेश के बच्चों को डर था कि कहीं सरला उनकी जमीनजायदाद न हड़प ले.

एक दिन बड़ा बेटा सुजय बिना बताए अखिलेश से मिलने चला आया. आते ही उस ने सरला के प्रति रूखा व्यवहार दिखाना शुरू कर दिया. सरला और अखिलेश दोनों

ही जानते थे कि वह सरला को पसंद नहीं करता. सरला बहाना बना कर कुछ दिनों के लिए अपने मायके चली गई. इधर सुजय को पिता से अकेले में बात करने का पूरा मौका मिल गया.

उस ने अखिलेश को समझाने की कोशिश की, “पापा, आप इस बात से अनजान हो कि इस उम्र में विधवा औरतें सिर्फ इसलिए किसी रईस पुरुष से शादी करती हैं ताकि उस की सारी संपत्ति पर अपना हक जमा सके. पापा वह आप की दौलत ले कर गायब हो जाएगी फिर क्या करोगे ? उस की नजर सिर्फ और सिर्फ आप के पैसों पर है.”

“पर तुम ऐसा कैसे कह सकते हो सुजय?” “क्यों नहीं पापा, यदि ऐसा नहीं तो उस ने आप से शादी क्यों की ?” सुजय ने सवाल किया. “तुम ने अपनी बीवी से शादी क्यों की थी?” अखिलेश ने उलटा सवाल किया.

“अरे पापा, यह तो हर कोई जानता है, परिवार बनाने और परिवार बढ़ाने के लिए. पर शादी की भी एक उम्र होती है. आप को कौन सा अब बच्चे पैदा करने हैं जो शादी करनी थी,” सुजय की आवाज में चिढ़ थी.

“ठीक है, बच्चे नहीं पैदा करने पर तुम्हें शादी के बाद बच्चों के अलावा और क्या मिला? पत्नी का साथ नहीं मिला? उस का प्यार नहीं मिला?” “पापा, अब इस उम्र में आप को कौन से प्यार की जरूरत है?”

“जरूरत हर उम्र में होती है बेटा, भले ही रूप बदल जाए और फिर एक साथ भी तो जरूरी है न,” अखिलेश ने उसे समझाने की कोशिश की. “पापा, आप चाहे कितनी भी दलीलें दे लो पर याद रखना, इस औरत की नजर सिर्फ और सिर्फ आप के पैसों पर है,” कहता हुआ सुजय उठ गया.

अखिलेश बोलना तो बहुत चाहता था पर चुप रहा. सुजय के बाद अखिलेश की बेटी भी फोन पर पिता को सावधान करने लग गई,” पापा, ध्यान रखना। ऐसी औरतें जमीनजायदाद अपने नाम करवाती हैं या फिर गहने और कैश लूट कर फरार हो जाती हैं. कई बार अपने पति की हत्या भी कर डालती हैं.”

“बेटे, ऐसी औरतों से क्या मतलब है तुम्हारा?” “मतलब विधवा औरतें जो बुढ़ापे में शादी करती हैं. मैं ने बहुत से मामले देखे हैं, पापा इसलिए समझा रही हूं,” बेटी ने कहा. बच्चों ने अखिलेश के मन में सरला के विरुद्ध इतनी बातें भर दीं कि अब उसे भी इस बात को ले कर शक होने लगा था कि कहीं ऐसा ही तो नहीं?

मैट्रिमोनियल साइट के अपने प्रोफाइल में उस ने इस बात का जिक्र भी काफी अच्छे से किया था कि उस के पास काफी संपत्ति है. इधर सरला मायके गई तो उस के घर वाले और बेटी उस का ब्रैनवाश करने के काम में लग गए. यह तो सच था कि सरला एक साधारण परिवार से संबंध रखती थी जबकि अखिलेश के पास काफी दौलत थी.

सरला की बेटी बहाने से मां को कहने लगी,”मां, तुम्हारे दामाद का काम ठीक नहीं चल रहा. पिछले महीने उन की बाइक भी बिक गई. मां हो सके तो अपने नए पति से कह कर इन के लिए बाइक या गाड़ी का इंतजाम करा दो न और एक दुकान भी खुलवा दो. वे तो बहुत पैसे वाले हैं न.”

“मगर वे तुम्हारे पति के लिए यह सब क्यों करेंगे?” सरला ने पूछा. “अरे मां क्यों नहीं करेंगे? आखिर मैं उन की बेटी ही हुई न भले ही सौतेली सही.””देख बेटी, तू ब्याहता लड़की है. तेरा अपना घरपरिवार है. तेरी देखभाल करना उन की जिम्मेदारी नहीं,” सरला ने दोटूक जवाब दिया.

तब तक भाई बोल पड़ा,”क्या दीदी, तुम तो ऐसे शब्द बोल रही हो जैसे यह तुम्हारी नहीं तुम्हारे पति की जबान हो. अरे दीदी, बच्ची के लिए नहीं तो अपने लिए तो सोचो. सुनहरा मौका है. रईस बुड्ढे से शादी की है. थोड़ा ब्लैकमेल करोगी तो मालामाल हो जाओगी. वरना बुड्ढे ने तो पहले से ही अपने तीनों बच्चों के नाम सब कुछ कर रखा होगा. कल को वह नहीं रहेगा तब तुम्हारा क्या होगा? अपने बुढ़ापे के लिए रुपए जोड़ कर रखना तो पड़ेगा न.

“जब पैसे आ जाएं तो थोड़ीबहुत मदद मेरी या अपने दामाद की भी कर लेना. आखिर हम तो अपने ही हैं न. तुम्हारे भले के लिए ही कह रहे हैं. “अब देखो न, पुराने जीजाजी के साथ तुम ने सारी जवानी गुजार दी मगर वह मरे तो तुम्हें क्या मिला? सब कुछ उन के भाइयों में बंट गया. इसलिए कह रहा हूं कि दीदी कि अपने पति की संपत्ति पर अपना कानूनी हक रखो फिर चाहे कुछ भी हो.”

“भाई मेरे तू ठीक कह रहा है. मैं सोचूंगी. अब ज्यादा नसीहतें न दे और अपने काम पर ध्यान दे,” कह कर सरला ने बात खत्म कर दी. 2-3 दिनों में सुजय चला गया. इधर सरला भी घर वापस लौट आई. दोनों ही थोड़े गुमसुम से थे. अपने बच्चों की बातें उन्हें रहरह कर याद आ रही थी.

इस बीच अखिलेश की तबीयत खराब हो गई. उसे ठंड लग कर तेज बुखार आया. सरला घबरा गई. उस ने जल्दी से डाक्टर को बुलवाया. डाक्टर ने दवाएं लिख दीं और खयाल रखने की बात कह कर चला गया. इधर सरला के भाई को पता चला कि अखिलेश को बुखार है तो वह उसे सलाह देने लगा,” यह बहुत सही समय है दीदी, अपना जाल फेंको ताकि अखिलेश हमेशा के लिए

ऊपर चला जाए. फिर तुम उस की सारी दौलत की अकेली मालकिन बन जाओगी.” सरला ने उसे झिड़का,” बेकार की बातें मत कर. वह मेरे पति हैं और मैं किसी भी तरह उन्हें ठीक कर के रहूंगी.”

इधर दवा खाने के बावजूद अखिलेश का माथा बुखार से तप रहा था. सरला ने जल्दी से उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखनी शुरू कीं. पूरी रात वह पति के सामने बैठी पट्टियां बदलती रही. अखिलेश बेहोश सा सोया हुआ था. बीचबीच में आंखें खुलती तो पानी मांगता. सरला जल्दी से उसे पानी पिलाती और साथ में कुछ खिलाने की भी कोशिश करती. मगर वह खाने से साफ इनकार कर देता.

सुबह होतेहोते अखिलेश का बुखार कम हो गया. खांसी भी कंट्रोल में आ गई. मगर इस बीच सरला को बुखार महसूस होने लगा. पति का बुखार उस ने अपने सिर ले लिया था. अगले दिन दोनों की भूमिका बदल गई थी. अब सरला बेड पर थी और अखिलेश उस की देखभाल कर रहा था.

इस तरह एकदूसरे का खयाल रखतेरखते दोनों ठीक हो गए. अब एक अलग तरह का बंधन दोनों एकदूसरे के लिए महसूस करने लगे थे.

एक दिन शाम में अखिलेश ने सरला से कहा,” मेरी सारी संपत्ति दोनों लड़कों के नाम की हुई है. यह मकान भी बड़े बेटे के नाम है. मैं चाहता हूं कि हम दोनों कहीं दूर जा कर एक नई जिंदगी की शुरुआत करें. क्या तुम इस के लिए तैयार हो?”

“हां ठीक है. इस में समस्या क्या है? हम सब कुछ छोड़ कर कहीं दूर चलते हैं. बस रहने और खाने का प्रबंध हो जाए फिर हमें किस चीज की जरूरत? दोनों आराम से एक छोटा सा घर ले कर रह लेंगे. वैसे भी मेरे पहले पति ने मेरे लिए बैंक में थोड़ीबहुत रकम रख छोड़ी है. जरूरत पड़ी तो उस का भी उपयोग कर लेंगे.”

सरला की बात सुन कर अखिलेश की आंखें भीग गईं. एक तरफ बच्चे जिस महिला को दौलत का लालची बता रहे थे वही इस गृहस्थी में अपनी सारी जमापूंजी लगाने को तैयार थी. अखिलेश को यही सुनने की इच्छा थी.

उस ने सरला को गले से लगा लिया और बोला,” ऐसा कुछ नहीं है सरला. सारी संपत्ति अभी भी मेरे ही नाम है. मैं तो तुम्हारा रिएक्शन देख कर तुम्हें

परखना चाहता था. तुम से अच्छी पत्नी मुझे मिल ही नहीं सकती. वैसे कहीं दूर जाने का प्लान अच्छा है. यह घर बेच कर किसी खूबसूरत जगह घर लिया जा सकता है. ” “सच, मैं भी सब से दूर कहीं चली जाना चाहती हूं,”सरला ने कहा.

अगले ही दिन अखिलेश ने घर बेचने के कागज तैयार करा लिए. काफी समय से उस का एक दोस्त घर खरीदने की कोशिश में था. अखिलेश ने बात कर अपना घर उसे बेच दिया और मिलने वाली रकम से देहरादून के पास एक छोटा सा खूबसूरत मकान खरीद लिया.

उस ने अपना नया पता किसी को भी नहीं दिया था. फोन भी स्विच औफ कर दिया. अपना बैंकबैलेंस भी उस ने दूसरे बैंक में ट्रांसफर करा लिया और पूर्व पत्नी के गहने भी लौकर में रखवा दिए. सरला ने भी अपने घर में किसी को नया पता नहीं बताया.

सारे हमदर्द रिश्तेदारों से दूर दोनों ने अपना एक प्यारा सा आशियाना बना लिया था. यहां वे अपनी जिंदगी दूसरों की हर तरह की दखलंदाजी से दूर शांतिपूर्वक एकदूसरे के साथ बिताना चाहते थे.

अमीरी का डर: खाई अंतर्मन की

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मिलन: क्या हिमालय और भावना की नई शुरुआत हो पाई

प्रांजल और हिमालय दोनों बचपन से ही दोस्त रहे. नौकरी व विवाह के बाद भी उन की निकटता बनी रही. प्रांजल की पत्नी भावना को हिमालय की पत्नी रचना का साथ भी अच्छा लगता. दोनों मित्रों की पत्नियां जबतब बतियाती रहतीं. प्रांजल की दोनों बेटियां मीता व गीता अपनी पढ़ाई लगभग पूरी कर चुकी थीं और बेटा उज्ज्वल अभी डाक्टरी के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था.

मीता की शादी में हिमालय अपने बेटे सौरभ व बेटी ऋचा के साथ मुंबई यथासमय पहुंच गए थे. दोनों परिवार के बच्चे जब एकदूसरे के साथ रहे तो संबंध और भी पक्के हो गए.

एक दिन अचानक प्रांजल को हिमालय से अत्यंत दुखद समाचार मिला. उस की पत्नी रचना रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर सीढि़यों से फिसल कर गिर जाने के कारण गंभीर रूप से घायल हो गई है. प्रांजल और भावना के मुंबई पहुंचने से पहले ही रचना की मृत्यु हो गई.

बचपन के मित्र के कष्ट को समझते हुए भी प्रांजल और भावना संवेदना के दो शब्द के अलावा कुछ भी समझा नहीं पाए. हिमालय दुखी व नितांत अकेले रह गए थे. उन की बेटी ऋचा ससुराल में थी और सौरभ की भी नौकरी दूसरे शहर में थी. लौटते हुए हिमालय से वे कह कर आए थे, ‘जब भी मन करे हमारे पास आ जाया करना…मन कुछ बदल जाएगा.’

प्रांजल के बेटे उज्ज्वल के विवाह पर हिमालय मित्र के आग्रह पर कुछ पहले आए थे. मीता और गीता के विवाह में वह पत्नी रचना के साथ आए थे…वे दिन आंखों के सामने बारबार आ जाते. प्रांजल और भावना उन के दुख को समझ रहे थे अत: उन्हें हर तरह से व्यस्त रखने का प्रयास करते ताकि मित्र अपनी पीड़ा को कुछ सीमा तक भुला सके.

बाद में हिमालय का मन अपने अकेलेपन से बहुत उचाट होता तो वह प्रांजल के पास ही आ जाते.

मुश्किल से 2 साल गुजरे होंगे कि प्रांजल भी गंभीर रूप से बीमार हो गए और केवल एक माह की बीमारी के बाद भावना अकेली रह गई.

बेटियां और उज्ज्वल भावना को बारीबारी से अपने साथ ले भी गए पर वह 3-4 महीने में घूमफिर कर दोबारा अपने घरौंदे में वापस आ गई…पति के साथ सुखदुख की यादों के बीच.

उसे घर में हर तरफ प्रांजल ही दिखाई पड़ते…कभी ऐसा आभास होता कि प्रांजल किचन में उस के पीछे आ कर खड़े हैं और दूसरे ही क्षण उसे लगता…जैसे प्रांजल उसे समझा रहे हैं कि मैं तुम से दूर नहीं हूं भावना बल्कि तुम्हारे बिलकुल पास हूं…और भावना चौंक पड़ती.

भावना का अपने बच्चों के पास मन नहीं लगा. जब हिमालय ने यह सुना तो हिम्मत कर के कुछ दिन का अवकाश ले कर भावना के पास आए. उन्हें देख कर भावना बिफर पड़ी…प्रांजल की यादें जो ताजा हो गईं…जब रचना नहीं रही…और हिमालय आते तो प्रांजल बारबार भावना से कहते, ‘मैं चाहता हूं जो चीजें नाश्ते व भोजन में हिमालय को पसंद हैं…वही बनें. जब तक वह हमारे साथ है हम उस की ही पसंद का खाना व नाश्ता करेंगे.’

भावना प्रांजल की बात इसलिए नहीं रखती कि हिमालय उस के पति के दोस्त हैं…बल्कि इस का दूसरा कारण भी था कि रचना की मृत्यु से हिमालय के प्रति उसे गहरी सहानुभूति हो गई थी. लेकिन अब? अब सबकुछ परिवर्तित रूप में था…अब भावना किचन में घुसती ही नहीं. हिमालय ही जो कुछ बना सकते थे, बना लेते पर खाते दोनों साथसाथ.

भावना ने काफी समय तक बातें भी न के बराबर कीं. हिमालय कहते तो वह तटस्थ सी सुनती. जवाब नपेतुले शब्दों में देती.

हिमालय स्वयं चोट खाए हुए थे इसलिए भावना की पीड़ा को समझते थे. वह उसे समझाने का प्रयास जरूर करते, ‘‘जीवन मृत्यु में किसी का दखल नहीं चलता. इनसान खुद परिस्थितियों के अनुसार जीवन व्यतीत करने को मजबूर है. घाव कुछ हलका होने पर इनसान स्वयं अपने आसपास छोटीमोटी खुशियां खोजने का प्रयास करे. हमें इस तथ्य को अपना कर ही चलना होगा, भावनाजी.’’

भावना की आंखों से बस, आंसू टपकते रहते…वह बोलती कुछ नहीं. हिमालय जाने लगे तो भावना से यह वादा जरूर लिया कि वह अपने खानेपीने का पूरा ध्यान रखेगी. मन ठीक नहीं है तो क्या तन को स्वस्थ रखना जरूरी है.

समय के मरहम से भावना का घाव भरा तो हिमालय का जबतब आना उसे अच्छा लगने लगा…बातें भी करनी शुरू कर दीं. नाश्ताभोजन भी उन के पसंद का बनाने लगी. हिमालय को भी भावना के यहां आना अच्छा लगता.

मीता, गीता व उज्ज्वल भावना से मिलने आए हुए थे. तभी हिमालय भी आ गए थे. बेटियां चाह रही थीं कि मां उन के साथ या भाई के साथ चलें लेकिन भावना तैयार नहीं हुईं. उन का कहना था कि उन्हें अपने इसी घर में अच्छा लगता है.

बच्चे मां को समझ रहे थे…जहां उन्हें अच्छा लगे वहीं रहें. हां, उन्हें इस बात का अंदाजा जरूर लग गया था कि हिमालय अंकल के यहां रहने से मां के मन को कुछ ठीक लगता है. अंकल बरसों से उन के पारिवारिक मित्र रहे हैं और काफी समय उन लोगों ने साथसाथ गुजारा भी है. मीता और उज्ज्वल सोच रहे थे कि हिमालय अंकल जितना भी मां के साथ रह लेते हैं, कम से कम उतने समय तो वे लोग मां की तरफ से निश्चिंत से रहते हैं.

वैसे बच्चे चाहते कि उन में से कोई एक मां के पास अवश्य रहे लेकिन जब यह संभव नहीं था तो वे हिमालय अंकल पर ही निर्भर होने लगे और साग्रह उन से कहते भी, ‘‘अंकल, हम मां पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहते पर आप से आग्रह करते हैं कि उन का हालचाल पूछते रहेंगे. हम लोग भी यथासंभव शीघ्र आने का प्रयास करते रहेंगे.’’

एक दिन हिमालय ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘भावना, मैं समझता हूं कि तुम्हारा कष्ट ऐसा है जिस का भागीदार कोई नहीं हो सकता. फिर भी हिम्मत कर के कह रहा हूं…यदि आप अपने जीवन में किसी हैसियत से मुझे शामिल करना चाहो तो मैं आप की शर्तों के साथ आप को स्वीकार करने को सहर्ष तैयार हूं. इस से न केवल एक को बल्कि दोनों को सहारा और बल मिलेगा.’’

थोड़ा विराम दे कर हिमालय ने पुन: कहा, ‘‘आप के हर निर्णय का मैं सम्मान करूंगा. आप इस बात से भी निश्चिंत रहिए कि हमारी दोस्ती के रिश्ते पर कोई आंच नहीं आएगी.’’

भावना ने पलक उठा कर हिमालय की तरफ देखा. वह मन से यही चाहती थी, हिमालय की बात अपनी जगह सही है. अब वह भी खुद को प्रांजल के अभाव में अकेली और बेसहारा अनुभव करती है. वह कोई गलत अथवा अनुचित कदम उठाना नहीं चाहती…उस के समक्ष उस का परिवार है, बच्चे हैं और सब से बड़ा समाज है. हिमालय की बात का कुछ जवाब दिए बिना वह किचन की तरफ बढ़ गई. हिमालय ने भी फिर कुछ कहा नहीं.

हिमालय के बेटे सौरभ व बेटी ऋचा को यह पता था कि जब से मां मरी हैं पिताजी बहुत दुखी, उदास व नितांत अकेले हैं. यह बात दोनों बच्चे अच्छी तरह जानते थे कि पापा को प्रांजल अंकल और भावना आंटी के यहां जाना हमेशा ही अच्छा लगता रहा, और आज जब आंटी नितांत अकेली व दुखी हो गई हैं, तब भी.

सौरभ ने ही ऋचा से कहा, ‘‘क्यों न हम भावना आंटी के मन का अंदाजा लगाने की कोशिश करें. यदि उन के मन में पापा के लिए कोई जगह होगी तो हम उन से जरूर कुछ कहना चाहेंगे. आंटी का साथ पा कर पापा के दिन भी अच्छे से गुजर सकेंगे.’’

सौरभ और ऋचा ने भावना के पास जाने का निश्चय किया. हिमालय, भावना के यहां ही थे. अचानक सौरभ को फोन से पता चला कि भावना आंटी को सीरियस बीमारी है फिर तो दोनों बहनभाई तुरंत ही वहां के लिए निकल पड़े. मीता, गीता तथा उज्ज्वल का परिवार सब पहुंच चुके थे.

दरअसल, कई दिनों से भावना का मन ठीक नहीं था. उलझन और अनिश्चय से भरा अंतर्मन समुद्र मंथन सा मथ रहा था…कभी हिमालय की बात और अपनत्वपूर्ण व्यवहार उसे अपनी तरफ खींचता तो कभी पति के साथ बिताए दिन यादों को झकझोर देते…तो कभी जीवन में आया अकेलापन भी अपना कोई साथी ढूंढ़ता…सब तरफ से घिरे मन को भावना ने अच्छी तरह से टटोला, परखा तो यही लगा कि पति के अभाव में वह कुछ सीमा तक अकेली और दुखी जरूर है पर उसे किसी और बात का अभाव नहीं है.

दूसरी बात, वह हर कदम अपने बच्चों और परिवार को साथ ले कर ही चलना चाहेगी…सोचती हुई भावना ने अपने मन में निश्चय किया कि हिमालय जैसे अब तक प्रांजल के दोस्त रहे बस, वही दोस्ती का रिश्ता अब भी बना रहेगा.

अपने फैसले से संतुष्ट भावना ने तय किया कि कल सुबह वह हिमालय को उन की उस दिन कही बात के बारे में अपना फैसला जरूर सुना देगी.

लेकिन मन में तनाव के चलते रात को भावना का रक्तचाप काफी बढ़ जाने से उसे जबरदस्त हार्ट अटैक पड़ गया. हिमालय ने फौरन उसे अस्पताल में भरती कराया. डाक्टरों ने 72 घंटे उसे आईसीयू में रखा था. एक सप्ताह अस्पताल में रहने के बाद ही भावना घर आ सकी.

15 दिनों तक मां के साथ रहने के बाद आफिस व बच्चों के स्कूल के चलते मीता, गीता और उज्ज्वल वापस जाने की तैयारी में लग गए थे. हिमालय के दोनों बच्चे सौरभ व ऋचा तो 2 दिन बाद ही चले गए थे. उज्ज्वल ने मां को ले जाना चाहा लेकिन भावना अभी इस स्थिति में नहीं थी कि सफर कर सके. बच्चे जानते थे कि मां की सेवा में हिमालय अंकल का अहम स्थान रहा, वह अभी भी भावना को अकेली छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं थे.

हिमालय का भावना के प्रति आत्मीयभाव व सहृदयता से की गई सेवा ने सिर्फ भावना के ही नहीं बल्कि दोनों के बच्चों के अंतर्मन को गहराइयों से छू लिया था. और अपनी मां व पिता के प्रति एक सुखद फैसला लेने को प्रेरित किया. जाने से पहले मीता और उज्ज्वल ने सौरभ और ऋचा से फोन पर लंबी बातचीत की. इसी के साथ उन्होंने अपने सोचे फैसले के प्रति मन को पक्का भी कर लिया.

एक दिन भावना ने देखा कि अचानक उस के बच्चों के साथ हिमालय के भी दोनों बच्चे आए हैं. उस ने सब से बेहद अनुनय के साथ कहा, ‘‘तुम सब ने तथा हिमालय अंकल ने मेरी बहुत सेवा की. शायद उन के यहां होने से ही मुझे दूसरा जीवन मिला है. यदि उस दिन हिमालय अंकल यहां न होते तो…’’

मीता ने मां के होंठों पर हाथ रख कर आगे बोलने से रोक दिया. अचानक उसे याद आया जब 11 दिसंबर को उस की शादी में हिमालय अंकल सपरिवार आए थे तो पापा ने उन से मुसकरा कर कहा था, ‘जानते हो हिमालय, मैं ने मीता की शादी के लिए यह दिन चुन कर क्यों रखा? यह बड़ा शुभ दिन है…हमारी भावना का जन्मदिन जो है.’

‘तो यह बात तुम ने आज तक मुझ से छिपा कर क्यों रखी? और साथ में यह भी भूल गए कि 11 दिसंबर को मेरा भी जन्मदिन होता है.’ हिमालय अंकल के इतना कहने के बाद प्रांजल ने खुश हो कर उन को बांहों में भर लिया था. फिर तो हिमालय अंकल और मां को बधाई देने वालों का घर में तांता सा लग गया था.

मीता ने कहा, ‘‘मां, जब से मेरी शादी हुई है मैं अपने विवाह की वर्षगांठ पर कभी आप के पास नहीं रही. इस बार मेरी दिली इच्छा है कि इस शुभ दिन का जश्न मैं और यश आप के साथ मनाएं. और मैं ने तो अपनी शादी की इस सालगिरह के लिए होटल भी बुक करा लिया है. कुछ खासखास मेहमानों के साथ हिमालय अंकल, सौरभ भैया तथा ऋचा भी रहेगी. मां, उस दिन आप का भी तो जन्मदिन होता है…हम दोनों यह दिन सुंदरता से एकसाथ मनाया करेंगे.’’

भावना को बेटी की बात सुन कर अच्छा लगा, इसी बहाने घर में कुछ दिन तो रौनक रहेगी. उसे याद था कि इस दिन हिमालय का भी जन्मदिन होता है, लेकिन उस ने मीता से इस का कोई जिक्र नहीं किया.

निश्चित दिन से एक दिन पहले ही ज्यादातर लोग आ गए, इसीलिए अगले दिन सुबह से ही घर में चहलपहल का माहौल बना हुआ था. जहां मीता और यश को सब बधाई दे रहे थे वहीं भावना और हिमालय भी अपनेअपने जन्मदिन की बधाई स्वीकार कर रहे थे.

संध्या समय घर के सभी लोग होटल पहुंच गए. होटल में आकर्षक सजावट की गई थी. एक तरफ शहनाई वादन की व्यवस्था की गई थी. विवाह की वर्षगांठ के मौके पर मीता और यश की जयमाल होने के साथ ही तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी. तभी मुसकराती मीता हिमालय के पास आ कर आग्रह पूर्वक बोली, ‘‘प्लीज अंकल, एक मिनट के लिए उधर मंच पर चलिए.’’

हिमालय भी बिना कुछ सोचेसमझे उस के साथ हो लिए. दूसरी तरफ ऋचा भावना को साथ ले कर मंच पर आई.

मीता और ऋचा ने आमनेसामने खड़े भावना और हिमालय के हाथों में बड़ा सा फूलों का हार पकड़ाते हुए हंस कर कहा, ‘‘जानते हैं अंकल और आंटी, आप इस का क्या करेंगे?’’

‘‘हां, तुम को और यशजी को शादी की वर्षगांठ की खुशी में पहनाना है,’’ हिमालय ने मुसकरा कर कहा.

‘‘नहीं, आज मम्मी का जन्मदिन है. इस उपलक्ष्य में यह हार आप उन को पहनाएंगे,’’ मीता ने हंस कर कहा.

‘‘और आंटी, आज मेरे पापा का भी जन्मदिन है,’’ मीता के कहने के तुरंत बाद ऋचा ने कहा, ‘‘इस खुशी में आप को हार पापा को पहनाना है.’’

अपनेअपने हाथों में हार पकड़े हिमालय और भावना आश्चर्य से भर कर बच्चों की तरफ देखने लगे. अपने लिए बच्चों की इस खूबसूरत कोशिश पर दोनों का दिल भर आया और उन्होंने बच्चों का मन रखने के लिए एकदूसरे को जयमाला पहना कर रस्म अदा कर दी.

मीता और ऋचा ने तालियां बजाते हुए सब के सामने कहा, ‘‘अब आप दोनों दोस्त से आगे एकदूसरे को स्वीकार कर के एक दूसरे के हो कर रहेंगे. हमारा यह प्रयास बस, आप लोगों को अपनी स्थायी पीड़ा और अकेलेपन से कुछ सीमा तक निजात दिलाने के लिए किया गया है.’’

बच्चों के साहस और प्रयास की सब ने मुक्त कंठ से सराहना की. तालियों की गड़गड़ाहट से होटल का हाल गूंज उठा. हिमालय ने अनुग्रहीत नजरों से बच्चों की तरफ देखा…जिन्होंने अत्यंत खूबसूरती से सब को साक्षी बना कर उन के मिलन को स्वीकार किया था.

ब्रदरहुड: क्या शुरु हो पाया रैस्टोरैंट

कहते हैं समय राजा को रंक, रंक को राजा बना देता है. कभी यह अधूरा सच लगता है, जब हम गलतियां करते हैं तब करनी को समय से जोड़ देते हैं. इस कहानी के किरदारों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. 2 सगे भाई एकदूसरे के दुश्मन बन गए. जब तक मांबाप थे, रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा का शहर में बड़ा नाम था. रैस्टोरैंट खुलने से देररात तक ग्राहकों का तांता लगा रहता. फुरसत ही न मिलती. पैसों की ऐसी बरसात मानो एक ही जगह बादल फट रहे हों.

समय हमेशा एक सा नहीं रहता. करवटें बदलने लगा. बाप का साया सिर से क्या उठा, भाइयों में प्रौपर्टी को ले कर विवाद शुरू हो गया. किसी तरह जमापूंजी का बंटवारा हो गया लेकिन पेंच रैस्टोरैंट को ले कर फंस गया. आपस में खींचतान चलती रही. घर में स्त्रियां झगड़ती रहीं, बाहर दोनों भाई. एक कहता, मैं लूंगा, दूसरा कहता मैं. खबर को पंख लगे. उधर रिश्ते के मामा नेमीचंद के कान खड़े हो गए. बिना विलंब किए वह अपनी पत्नी और बड़े बेटे को ले कर उन के घर पहुंच गया. बड़ी चतुराई से उस ने ज्ञानी व्यक्ति की तरह दोनों भाइयों, उन की पत्नियों को घंटों आध्यात्म की बातें सुनाईं. सुखदुख पर लंबा प्रवचन दिया. जब देखा कि सभी उस की बातों में रुचि ले रहे हैं, तब वह मतलब की बात पर आया, ‘‘आपस में प्रेमभाव बनाए रखो. जिंदगी की यही सब से बड़ी पूंजी है. रैस्टोरैंट तो बाद की चीज है.’’ नवीन ने चिंता जताई,

‘‘हमारी समस्या यह है कि इसे बेचेंगे, तो लोग थूथू करेंगे.’’ ‘‘थूथू पहले ही क्या कम हो रही है,’’ नेमीचंद सम झाते हुए बोला, ‘‘रैस्टोरैंट ही सारे फसाद की जड़ है. यदि इसे किसी बाहरी को बेचोगे तो बिरादरी के बीच रहीसही नाक भी कट जाएगी.’’ सभी सोच में पड़ गए. ‘‘रैस्टोरैंट एक है. हक दोनों का है. पहले तो मिल कर चलाओ. नहीं चलाना चाहते तो मैं खरीदने की कोशिश कर सकता हूं. समाज यही कहेगा कि रिश्तेदारी में रैस्टोरैंट बिका है…’’ नेमीचंद का शातिर दिमाग चालें चल रहा था. उसे पता था कि सुलह तो होगी नहीं. रैस्टोरैंट दोनों ही रखना चाहते हैं, यही उन की समस्या है. रैस्टोरैंट बेचना इन की मजबूरी है और उसे सोने के अंडे देने वाली मुरगी को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए. आखिरकार, उस की कूटनीति सफल हुई. दोनों भाई रैस्टोरैंट उसे बेचने को राजी हो गए. नेमीचंद ने सप्ताहभर में ही जमाजमाया रैस्टोरैंट 2 करोड़ रुपए में खरीद लिया. बड़े भाई प्रवीण और छोटे भाई नवीन के बीच मसला हल हो गया,

किंतु मन में कड़वाहट बढ़ गई. नेमीचंद ने ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा’ के बोर्ड के नीचे पुराना नाम बदल कर प्रो. नेमीचंद एंड संस लिखवा दिया. रैस्टोरैंट के पुराने स्टाफ से ले कर फर्नीचर, काउंटर कुछ नहीं बदला. एकमात्र मालिकाना हक बदल गया था. दोनों भाई जब भी रैस्टोरैंट के पास से गुजरते, खुद को ठगा महसूस करते. अब दोनों पश्चात्ताप की आग में जलने लगे. दोनों के परिवार पुश्तैनी मकानों में अलगअलग रहा करते थे. दोनों के प्रवेशद्वार अगलबगल थे. बरामदे जुड़े हुए थे, लेकिन बीच में ऊंची दीवार खड़ी थी. दोनों भाइयों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न देखतीं. बच्चे सम झदार थे, मगर मजबूर. भाइयों के बीच कटुता इतनी थी कि एक बाहर निकलता तो दूसरा उस के दूर जाने का इंतजार करता. सभी एकदूसरे की शक्ल देखना पसंद न करते.

रैस्टोरैंट खरीदने के बाद नेमीचंद के दर्शन दुर्लभ हो गए. पहले कुशलक्षेम पूछ लिया करता था. धीरेधीरे नेमीचंद उन की कहानी से गायब ही हो गया. लेदे कर एक बुजुर्ग थे गोकुल प्रसाद. उन के पारिवारिक मित्र थे. जब उन्हें इस घटना की जानकारी हुई तो बड़े दुखी हुए. उसी दिन वे दोनों से मिलने उन के घर चले आए. पहुंचते ही उन्होंने दोनों को एकांत में बुला कर अपनी नाराजगी जताई. फिर बैठ कर सम झाया, ‘‘इस झगड़े में कितना नुकसान हुआ, तुम लोग अच्छी तरह जानते हो. नेमीचंद ने चालाकी की है लेकिन इस में सारा दोष तुम लोगों का है.’’ ‘‘गलती हो गई दादा, रैस्टोरैंट हमारे भविष्य में न था, सो चला गया,’’ प्रवीण पीडि़त स्वर में बोला और दोनों हथेलियों से चेहरा ढक लिया. ‘‘मूर्खता करते हो, दोष भविष्य और समय पर डालते हो,’’ गोकुल प्रसाद ने निराश हो कर लंबी सांस ली, ‘‘सारे शहर में कितनी साख थी रैस्टोरैंट की. खूनपसीने से सींचा था उसे तुम्हारे बापदादा ने.’’ नवीन बेचैन हो गया,

‘‘छोडि़ए, अब जी जलता है मेरा.’’ ‘‘रुपया है तुम्हारे पास. अब सम झदारी दिखाओ. दोनों भाई अलगअलग रैस्टोरैंट खोलो. इस की सम झ तुम लोग रखते हो क्योंकि यह धंधा तुम्हारा पुश्तैनी है.’’ प्रवीण को बात जम गई, ‘‘सब ठीक है. पर एक ही इलाके में पहले से ही एक रैस्टोरैंट है?’’ ‘‘खानदान का नाम भी कुछ माने रखता है,’’ गोकुल प्रसाद ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिता का दोस्त हूं, गलत नहीं कहूंगा. खूब चलेगा.’’ ‘‘मैं आप की बात मान लेता हूं,’’ प्रवीण ने कहा, ‘‘इस से भी पूछ लो. इसे रैस्टोरैंट खोलना है या नहीं.’’ नवीन भड़क उठा, ‘‘क्या सम झते हो, तुम खोलो और मैं हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूं? ठीक तुम्हारे ही सामने खोलूंगा, देखना.’’ ‘‘क्या हो गया दोनों को? भाई हो कि क्या हो? इतना तो दुश्मन भी नहीं लड़ते,’’ गोकुल प्रसाद झल्लाए और उठने लगे. ‘‘रुकिए दादा. भोजन कर के जाना,’’ प्रवीण ने आग्रह किया. ‘‘आज नहीं. जब दोनों के मन मिलेंगे तब भोजन जरूर करूंगा.’’ गोकुल प्रसाद ने अपनी छड़ी उठाई और अपने घर के लिए चल दिए. दोनों को आइडिया सही लगा.

घर में पत्नियों की राय ली गई और जल्दी ही किराए की जगह पर रैस्टोरैंट खोल दिए. संयोग ऐसा बना कि दोनों को रैस्टोरैंट के लिए जगह आमनेसामने ही मिली. दोनों रैस्टोरैंट चल पड़े. कमाई पहले जैसी तो नहीं थी, तो कम भी न थी. रुपया आने लगा. लेकिन कटुता नहीं गई. दोनों में प्रतिस्पर्धा भी जम कर होने लगी. तू डालडाल, मैं पातपात वाली बात हो गई. दोनों भाइयों में बड़े का रैस्टोरैंट ज्यादा ग्राहक खींच रहा था. इस बात को ले कर नवीन को खासी परेशानी थी. आखिरकार उस ने एक बोर्ड टांग दिया- ‘लंच और डिनर- 100 रुपए मात्र.’ प्रवीण ने भी देखादेखी रेट गिरा दिया, ‘लंच और डिनर- 80 रुपए मात्र.’ ग्राहक को यही सब चाहिए. शहर के लोग लड़ाई का मजा ले रहे थे. मालिकों में तकरार बनी रहे और अपना फायदा होता रहे. नवीन भी चुप नहीं बैठा रहा. कुछ महीनों बाद ही उस ने फिर रेट 75 रुपए कर दिया.

मजबूरन प्रवीण को 60 रुपए पर आना पड़ा. इस तनातनी में 6-7 महीने गुजर गए और आखिर में दोनों रैस्टोरैंट के शटर गिए गए. प्रवीण से सदमा बरदाश्त न हो पाया, उसे एक दिन पक्षाघात हो गया. पासपड़ोसी समय रहते उसे अस्पताल ले गए. आईसीयू में एक सप्ताह बीता, फिर हालत में सुधार दिखा. मोटी रकम इलाज में खर्च हो गई. घर आया, शरीर में जान आने लगी लेकिन आर्थिक तंगी ने उसे मानसिक रूप से बीमार कर दिया. घर की माली हालत अब पहले जैसी न थी. पहले ही झगड़े में काफी नुकसान हो गया था. नवीन की एक बेटी थी मनु. जब भी उसे अकेला पाती, मिलने चली आती. कई दिनों के बाद बरसात आज थम गई थी. आसमान साफ था. प्रवीण स्टिक के सहारे लौन में टहल रहा था. मनु ने उसे देखा तो गेट खोल कर भीतर आ गई. उस ने स्नेह से मनु को देखा और बड़ी उम्मीद से कहा, ‘‘बेटी, पापा से कहना कि ताऊजी एक जरूरी काम से मिलना चाहते हैं.’’ मनु ने हां में सिर हिलाया और पैर छू कर गेट पर खड़ी स्कूटी को फुरती से स्टार्ट किया और कालेज के लिए निकल गई. धूप ढलने लगी, तब मनु कालेज से लौटी. नवीन तब ड्राइंगरूम में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. मनु ने किताबें रैक पर रखीं और पापा के सामने वाले सोफे पर जा बैठी. ‘‘पापा, आप कल दिनभर कहां थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ‘‘ऐसे ही पूछ रही हूं,’’ मनु ने सोफे पर बैठे हुए आगे की ओर शरीर झुकाते हुए कहा. ‘‘महल्ले में एक बुजुर्ग की डैथ हो गई थी, इसलिए जाना पड़ा,’’ नवीन ने बताया. ‘‘आप को वहां जाने की जरूरत क्या थी? उन के पासपड़ोसी, रिलेटिव्स तो रहे ही होंगे,’’ मनु ने प्रश्न किया. ‘‘कैसी बेवकूफों वाली बातें कर रही हो. समाज में जीना है तो सब के सुखदुख में शामिल होना चाहिए,’’ नवीन ने सम झाया. ‘‘दैट्स करैक्ट. यही सुनना चाहती थी मैं. जब ताऊजी बीमार पड़े तब यह बात आप की सम झ में क्यों नहीं आई?’’ नवीन को काटो तो खून नहीं. भौंचक्का सा मनु को देखता ही रह गया वह. ‘‘आप और मम्मी ताऊजी को देखने नहीं गए. मैं गई थी सीधे कालेज से, लगातार 3 दिन. मनु कहती रही, ‘‘रौकी भैया भी अस्पताल में थे. मैं ने उन्हें घर चलने को कहा तो बोले, ‘यहां से सीधे होस्टल जाऊंगा.

घर अब रहने लायक नहीं रहा.’’’ ‘‘यह सब मु झे क्यों सुना रही हो?’’ नवीन ने प्रश्न किया. ‘‘इसलिए कि ताऊजी कोई पराए नहीं हैं. आज उन्हें आप की जरूरत है. मिलना चाहते हैं आप से.’’ नवीन ठगा सा रह गया. इस उम्र तक वह जो सम झ न सका, वह छोटी सी उम्र में उसे सिखा रही है. मनु उठी और पापा के गले से लग कर बोली, ‘‘समाज के लिए नहीं, रिश्ते निभाने के लिए ताऊजी से मिलिए. आज और अभी.’’ उधर प्रवीण, नवीन से मिलने को बेचैन था. वह बारबार कलाई घड़ी की सुइयों पर नजरें टिका देता. कभी बरामदे से नीचे मेन गेट की ओर देखने लगता. अंधेरा बढ़ने लगा. रोशनी में कीटपतंगे सिर के ऊपर मंडराने लगे. थक कर वह उठने को हुआ, तभी नवीन आते हुए दिखा. उस ने इशारे से सामने की चेयर पर बैठने को कहा. नवीन कुछ देर असहज खड़ा रहा. मस्तिष्क में मनु की बातें रहरह कर दिमाग में आ रही थीं. वह आगे बढ़ा और चेयर को खींच कर अनमना सा बैठ गया. दोनों बहुत देर तक खामोश रहे.

आखिरकार नवीन ने औपचारिकतावश पूछा, ‘‘तबीयत ठीक है अब?’’ उस ने ‘हां’ कहते हुए असल मुद्दे की बात शुरू कर दी, ‘‘मु झे पैसों की सख्त जरूरत है. मैं ने सोचा है कि मेरे हिस्से का मकान कोई और खरीदे, उस से अच्छा, तु झे बेच दूं. जितना भी देगा, मैं ले लूंगा.’’ नवीन खामोश बैठा रहा. ‘‘सुन रहा है मैं क्या कह रहा हूं?’’ उस ने जोर दे कर कहा. ‘‘सुन रहा हूं, सोच भी रहा हूं. किस बात का झगड़ा था जो हम पर ऐसी नौबत आई. हमारा खून तो एक था, फिर क्यों दूसरों के बहकावे में आए.’’ ‘‘अब पछता कर क्या फायदा? खेत तो चिडि़या कब की चुग गई. मैं ऐसी हालत में न जाने कब तक जिऊंगा. तु झ से दुश्मनी ले कर जाना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने उदास हो कर बरामदे की छत को ताकते हुए कहा. ‘‘तुम तो बड़े थे, बड़े का फर्ज नहीं निभा पाए. मैं तो छोटा था,’’ नवीन ने उखड़े स्वर में कहा, फिर चश्मा उतार कर रूमाल से नम आंखें साफ करने लगा. ‘‘बड़ा हूं, तो क्या हुआ. छोटे का कोई फर्ज नहीं बनता? खैर छोड़, जो हुआ सो हुआ. अब बता, मेरा हिस्सा खरीदेगा?’’ ‘‘नहीं,’’ नवीन ने सपाट सा जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हुआ? रैस्टोरैंट बेच कर हम से गलती हो चुकी है. अब मेरी मजबूरी सम झ. भले ही रुपए किस्तों में देना. मैं अब किसी और को बचाखुचा जमीर बेचना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने फिर दुखी हो कर वजह बताई, ‘‘रौकी की इंजीनियरिंग पूरी हो जाए. यह मेरी अंतिम ख्वाहिश है. शरीर ने साथ दिया तो कहीं किराए पर घर ले कर छोटामोटा धंधा शुरू कर लूंगा.’’ ‘‘हम ने आपस में जंग लड़ी. तुम भी हारे, मैं भी हारा. नुकसान दोनों का हुआ, तो भरपाई भी दोनों को ही करनी है.’’ ‘‘तेरी मंशा क्या है, मैं नहीं जानता. मु झे इतना पता है कि मु झ में अब लड़ने की ताकत नहीं है और लड़ना भी नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने टूटे स्वर में कहा. ‘‘मैं लड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कह रहा हूं,’’ नवीन ने कुछ देर सोचते हुए जोर दे कर अपनी बात रखी, ‘‘हम लोग मिल कर फिर से रैस्टोरैंट खोलेंगे. अब हम बेचेंगे नहीं, खरीदेंगे.’’ नवीन उठते हुए बोला, ‘‘आज मनु मेरी आंखें न खोलती तो पुरखों की एक और निशानी हाथ से निकल जाती.

’’ प्रवीण आश्चर्य से नवीन को देखता रह गया. उस की आंखें एकाएक बरसने लगीं. गिलेशिकवे खरपतवार की तरह दूर बहते चले गए. ‘‘मकान बेचने की कोई जरूरत नहीं है. सब ठीक हो जाएगा. बिजनैस के लायक पैसा है मेरे पास,’’ जातेजाते नवीन कहता गया. इस बात को लगभग 4 मास हो गए. रैस्टोरैंट के शुभारंभ की तैयारियां शुरू हो गई थीं. इश्तिहार बांटे जा चुके थे. दशहरा का दिन था. रैस्टोरैंट रंगीन फूलों से बेहद करीने से सजा था. शहर के व्यस्ततम इलाके में इस से व्यवस्थित और आकर्षक रैस्टोरैंट दूसरा न था. परिचित लोग दोनों भाइयों को बधाई दे रहे थे. घर की बहुएं वयोवृद्ध गोकुल प्रसाद से उद्घाटन की रस्म निभाने के लिए निवेदन कर रही थीं. गोकुल प्रसाद कोई सगेसंबंधी न थे. पारिवारिक मित्र थे. एक मित्र के नाते उन के स्नेह और समर्पण पर सभी गौरवान्वित हो रहे थे. मनु सितारों जड़े आसमानी लहंगे में सजीधजी आगंतुकों का स्वागत कर रही थी. रौकी, प्रवीण और नवीन के बीच खड़ा तसवीरें खिंचवा रहा था. सड़क पर गुजरते हुए लोग रैस्टोरैंट के बाहर चमचमाते सुनहरे बोर्ड की ओर मुड़मुड़ कर देख रहे थे, जिस पर लिखा था- ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा ब्रदरहुड.’’

तू मायके चली जाएगी: क्या वापस आई श्रीमतीजी

सुबह से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. पड़ोस के दीपक व महेश ने तो मौर्निंग वाक पर ही मुझे बधाई दे दी थी. हम ने भी हंस कर उन की बधाइयों को स्वीकार किया था और साथ ही उन की आंखों में अपने प्रति कुछ जलन भी महसूस की थी. फिर तो जिसे पता चलता गया, वह आ कर बधाई देता गया. जो लोग आ न सके, उन्होंने फोन पर ही बधाई दे डाली. हम भी विनम्रता की मूर्ति बने सब से बधाइयां लिए जा रहे थे. तो आइए आप को भी मिल रही इन बधाइयों का कारण बता दें. दरअसल, कल शाम ही हमारी श्रीमतीजी हम से लड़झगड़ कर मायके चली गई थीं. हमारी 35 साल की शादी के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि वे हम से खफा हो मायके गईं. हां, यह बात और थी कि मुझे कई बार अपने ही घर से गृहनिकाला अवश्य दिया जा चुका था. खैर, इतनी बड़ी जीत की खुशी हम से अकेले बरदाश्त नहीं हो रही थी, तो रात को खानेपीने के दौर में ये बात महल्ले के ही राजीव के सामने हमारे मुंह से निकल गई. तभी से अब तक बधाइयों का अनवरत दौर चालू था.

पिछली रात उन बांहों की कैद से आजाद हम बड़ी मस्त नींद सोए थे. यह बात और है कि सुबह उठने के बाद हमें उन के हाथों से बनी चाय का लुत्फ न मिल पाया. पर जल्द ही अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए हम ने अपने मर्दाना हाथों से एक कड़क चाय बनाई, जो इत्तफाक से कुछ ज्यादा ही कड़क हो गई, बिलकुल हमारी बेगम साहिबा के मिजाज की तरह.

चाय पीतेपीते ही खयाल आया कि आखिर फेसबुक के मित्रों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? उन से भी तो हमें यह खुशखबरी बांटनी चाहिए. हम ने कहीं सुन रखा था कि खुशियां बांटने से बढ़ती हैं तो अपनी खुशी बढ़ाने की गरज से हम ने यों ही चाय पीते हुए अपनी एक सैल्फी ले कर फेसबुक पर अपनी नई पोस्ट डाल दी. फिर तो साहब देखने वाला माहौल बन गया. लाइक पर लाइक, कमैंट्स पर कमैंट्स आते रहे. आज तक हमारी किसी भी पोस्ट पर इतने लाइक्स या कमैंट्स नहीं आए थे. हम खुशी से फूले न समा रहे थे. सुबह के 10 बज रहे थे. कामवाली बाई अपना काम खत्म कर के जा चुकी थी. अब जोरों से लगती भूख ने हमें घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि हमें खाना बनाने का हुनर तो कुदरत ने बख्शा ही नहीं था. यही वह एक कमी थी जिस का फायदा हर झगड़े में हमारी श्रीमतीजी उठाती थीं. हम ने भी तय कर लिया था, बाहर खा लेंगे, पर अब इस लड़ाई में घुटने नहीं टेकेंगे. घर से बाहर निकलते ही हमारा सामना प्रेमा से हो गया, जो इत्तफाक से बाहर अपने प्यासे पौधों को पानी पिला रही थीं. हमें देख कर वे कुछ इस अदा से मुसकराईं कि हमें पतझड़ के मौसम में बसंत बहार नजर आने लगी. प्रेमा अभी कुछ महीनों पहले ही हमारे महल्ले में आई हैं.

उन के बारे में ज्यादा कोई नहीं जानता. बस, इतना ही मालूम था, 2 शादीशुदा बेटे विदेश में रहते हैं, और वे यहां अकेली. उम्र 55 से ऊपर, पर अभी भी बला की खूबसूरत नजर आती थीं. महल्ले के सभी यारों ने कभी न कभी उन की तारीफ में कुछ नगमे अवश्य सुनाए थे. खुद हम भी कहां कम थे, 62 की उम्र में भी दिल जवां था हमारा. उन की एक नजर हम पर भी कभी पड़े, इस हेतु हम ने बड़े जतन किए थे, पर आज श्रीमतीजी के हमारे साथ न होने से शायद हमारा समय चमक गया था. आज उन की इस मुसकान पर हम ठिठक कर रह गए…

नमस्ते मिहिर साहब, कहां जा रहे हैं? उन के पूछने पर जैसे हमारी तंद्रा टूटी.

जी, बस कुछ नहीं, श्रीमतीजी घर पर नहीं हैं, तो बे्रकफास्ट करने किसी रेस्तरां…

‘‘आइए चाय पी लीजिए, मैं कुछ गरमगरम बना देती हूं,’’ मेरी बात को बीच में ही उन्होंने काटते हुए कहा. एक भिखारी को अचानक ही रुपयों से भरा सूटकेस मिल जाए, हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही हो रही थी. हम ने एक बार भी मना किए बगैर उन के इस नेह निमंत्रण को स्वीकार कर लिया. चायनाश्ते के दौरान जब कभी हमारी निगाह मिलती, दिल की धड़कनें बढ़ती हुई प्रतीत होतीं. चाय के साथ गरमगरम पकौडि़यों संग उन की मीठीमीठी बातें. अच्छा हुआ हमें डाइबिटीज नहीं थी, वरना शुगर लैवल बढ़ते देर न लगती. इस दौरान उन्होंने अपनी मेड सर्वैंट से हमारी फोटो भी क्लिक करवाई, इस समय को यादगार बनाने के लिए.

हमारी खुशी का ठिकाना न था. घर आ कर हमें अपना खाली मकान भी गुलजार लगने लगा. श्रीमतीजी के मायके जाने की असल खुशी तो हमें आज हो रही थी. कुछ आराम करने के बाद हम ने अपना फेसबुक खोला, तो उस में प्रेमा की फ्रैंड रिक्वैस्ट देख कर हम फूले न समाए. उन के हमारी फ्रैंड लिस्ट में जुड़ने से जाने कितनों के दिल टूटने वाले थे.

खैर, शाम को जब पार्क में घूमते समय हम ने यह बात अपने दोस्तों को बताई, तो आश्चर्य से भरे उन के चेहरे उस वक्त देखने काबिल थे. कइयों ने उसी समय हम से अपनी पत्नी से लड़नेझगड़ने के नुस्खे उन्हें भी सिखा देने की रिक्वैस्ट की. हम महल्ले के हीरो बन चुके थे. रात का खाना प्रकाश के घर से आ चुका था. खाना खा कर बिस्तर पर लेटते ही हमें नींद ने आ घेरा, रातभर सपनों में भी हम प्रेमा के संग प्रेमालाप में व्यस्त रहे. अगली सुबह फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते हम ने पूरे दिन का प्रोग्राम बनाया, जिस में प्रेमा के साथ शाम को घूमने का प्रोग्राम भी शामिल था. यह सोच कर कि मौर्निंग वाक पर जाते समय ही प्रेमा को निमंत्रण दे देना चाहिए, हम ने तैयार हो कर दरवाजे की तरफ पहला कदम बढ़ाया ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. इतनी सुबह कौन होगा? हम ने दरवाजा खोला. दरवाजा खोलते ही हम गश खा कर गिरतेगिरते बचे, सामने हमारी श्रीमतीजी अपना सूटकेस लिए खड़ी थीं. हम ने कुछ हकलाते हुए कहा, ‘‘तुम इस वक्त यहां?’’

‘‘क्यों अपने ही घर आने के लिए हमें वक्त देखना पड़ेगा क्या?’’ श्रीमतीजी ने अपनी जलती हुई निगाहों से मुझे घूरते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, यह बात नहीं है, तुम कुछ गुस्से में गई थीं न, इसलिए…’’ हम ने उन्हें याद दिलाना चाहा.

‘‘सुना है, आसपड़ोसी तुम्हारा बहुत खयाल रख रहे हैं,’’ श्रीमतीजी के तेवर हमें ठीक नहीं लग रहे थे.

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम आ गईं. तुम्हारे बिना यह घर हमें काटने को दौड़ रहा था,’’ हम ने मुसकराना चाहा.

‘‘तभी तो दूसरों के घर अपना गम भुलाने गए थे तुम, है न?’’ श्रीमतीजी प्रश्न पर प्रश्न किए जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हारे लिए मस्त चाय बनाता हूं,’’ कहते हुए हम वहां से खिसक लिए. चाय पीते वक्त भी श्रीमतीजी की तीखी निगाहें हम पर ही टिकी थीं. कुछ देर बाद वे उठ कर घर के कामों पर नजर दौड़ाने लगीं. और हम अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाने लगे इस बात पर कि आखिर श्रीमतीजी इतनी जल्दी वापस क्यों आ गईं? हमारा पूर्व निर्धारित पूरा प्रोग्राम चौपट हो चुका था. फिर भी हमें तसल्ली थी कि कम से कम उन्हें हमारी कारगुजारियों के बारे में पता तो नहीं चला. अब हम ने मोबाइल पर अपने फेसबुक की अपडेट्स लेनी चाही, तो ये देख कर चौंक गए कि प्रेमाजी ने कल सुबह के नाश्ते की तसवीर फेसबुक पर डाल कर मुझे टैग किया हुआ था, यह लिख कर कि ‘हसीं सुबह की चाय का लुत्फ एक नए दोस्त के साथ’ और श्रीमतीजी ने न केवल उसे लाइक किया था, बल्कि कमैंट भी लिखा था. अब हमें उन के तुरंत लौट आने और उन की तीखी निगाहों का कारण समझ में आ गया. इस बात के लिए उन्हें क्या सफाई देंगे, इस बात पर सोच ही रहे थे कि दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई. श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला, तो सामने प्रेमा हमारी ही उम्र के एक अनजान व्यक्ति के साथ नजर आईं.

‘‘हाय स्वीटी,’’ उन्होंने मुसकरा कर मेरी श्रीमतीजी को गले से लगाते हुए कहा.

‘‘आओ प्रेमा, आओ,’’ श्रीमतीजी उन्हें अंदर लाते हुए बोलीं.

नमस्ते जीजाजी, प्रेमा ने मेरी ओर मधुर मुसकान बिखेरते हुए कहा.

‘जीजाजी, यह शब्द हम पर हथौड़े की भांति पड़ा. मगर फिर भी हम अपनेआप को संभालने में कामयाब रहे. तभी श्रीमतीजी ने प्रेमा के साथ आए आगंतुक का परिचय कराते हुए कहा, ‘ये हैं डा. अनिवनाश जैन, प्रेमा के पति.’

‘‘जी हां, और पिछले कुछ महीनों से मुझ से झगड़ कर अपने मायके यानी मेरे सासससुर के पास रह रहे थे. और आज आप के कारण ही हम दोबारा एक हो पाए हैं. आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जीजाजी,’’ कह कर प्रेमा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘हां मिहिर, प्रेमा मेरी कालेज की सहेली है. कुछ महीनों पहले जब यहां शिफ्ट हुई, तब एक बार अचानक ही हमारी मुलाकात हो गई और बातोंबातों में उस ने बताया कि अविनाश से किसी बात को ले कर उस की काफी कहासुनी हो गई है, और इसीलिए वह अकेली रह रही है. और तभी हमारे दिमाग में यह प्लान आया और मैं जानबूझ कर तुम से लड़ कर मायके चली गई क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे सामने तो तुम इस के पास जाने से रहे,’’ कह कर श्रीमतीजी बेसाख्ता हंस पड़ीं. उन के साथ प्रेमा और अविनाश भी मुसकराने लगे.

ओह, तो इस का मतलब है हमें मुरगा बनाया गया. अब शुरू से आखिर तक की सारी कहानी हमारी समझ में आ चुकी थी. श्रीमतीजी का यों लड़ कर मायके जाना, प्रेमा का प्यार जताना, हमारी फोटो फेसबुक पर डालना ताकि उसे देख अविनाश वापस आ जाए. मतलब जिसे हम अपनी जीत समझ रहे थे. वह मात्र एक भ्रम था. ‘‘लेकिन अगर अविनाश अभी वापस नहीं आते?’’

हमारे इस प्रश्न पर श्रीमतीजी मुसकुराते हुए बोलीं, ‘‘तो यह नाटक कुछ दिनों और चलता. मैं मायके से अभी वापस नहीं आती.’’

अब हमारे पास सिवा मुसकराने के और कोई चारा नहीं था. मन ही मन इस बात की तसल्ली थी कि प्रेमा के संग प्यार की पींगें न सही, साली के रूप में आधी घरवाली मिलने का संतोष तो है.

दाखिले का चक्रव्यूह: सीमा को परिवार का प्यार मिला

रविवार को सुबह 10 बजे जब सीमा के मोबाइल की घंटी बजी तो उस ने उसे लपक कर उठा लिया. स्क्रीन पर अपने बचपन की सहेली नीता का नाम पढ़ा तो वह भावुक हो गई और खुद से ही बोली कि चलो किसी को तो याद है आज का दिन.

लेकिन अपनी सहेली से बातें कर उसे निराशा ही हाथ लगी. नीता ने उसे कहीं घूमने चले का निमंत्रण भर ही दिया. उसे भी शायद आज के दिन की विशेषता याद नहीं थी.

‘‘मैं घंटे भर में तेरे पास पहुंच जाऊंगी,’’ यह कह कर सीमा ने फोन काट दिया.

‘सब अपनीअपनी जिंदगियों में मस्त हैं. अब न मेरी किसी को फिक्र है और न जरूरत. क्या आगे सारी जिंदगी मुझे इसी तरह की उपेक्षा व अपमान का सामना करना पड़ेगा?’ यह सोच उस की आंखों में आंसू भर आए.

कुछ देर बाद वह तैयार हो कर अपने कमरे से बाहर निकली और रसोई में काम कर रही अपनी मां को बताया, ‘‘मां, मैं नीता के पास जा रही हूं.’’

‘‘कब तक लौट आएगी?’’ मां ने पूछा.

‘‘जब दिल करेगा,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर उस ने अपनी नाराजगी प्रकट की.

‘‘ठीक है,’’ मां का लापरवाही भरा जवाब सुन कर उदास हो गई.

सीमा का भाई नवीन ड्राइंगरूम में अखबार पढ़ रहा था. वह उस की तरफ देख कर मुसकराया जरूर पर उस के बाहर जाने के बारे में कोई पूछताछ नहीं की.

नवीन से छोटा भाई नीरज बरामदे में अपने बेटे के साथ खेल रहा था.

‘‘कहां जा रही हो, दीदी?’’ उस ने अपना गाल अपने बेटे के गाल से रगड़ते हुए सवाल किया.

‘‘नीता के घर जा रही हूं,’’ सीमा ने शुष्क लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं कार से छोड़ दूं उस के घर तक?’’

‘‘नहीं, मैं रिकशा से चली जाऊंगी.’’

‘‘आप को सुबहसुबह किस ने गुस्सा दिला दिया है?’’

‘‘यह मत पूछो…’’ ऐसा तीखा जवाब दे कर वह गेट की तरफ तेज चाल से बढ़ गई.

कुछ देर बाद नीता के घर में प्रवेश करते ही सीमा गुस्से से फट पड़ी, ‘‘अपने भैयाभाभियों की मैं क्या शिकायत करूं, अब तो मां को भी मेरे सुखदुख की कोई चिंता नहीं रही.’’

‘‘हुआ क्या है, यह तो बता?’’ नीता ने कहा.

‘‘मैं अब अपनी मां और भैयाभाभियों की नजरों में चुभने लगी हूं… उन्हें बोझ लगती हूं.’’

‘‘मैं ने तो तुम्हारे घर वालों के व्यवहार में कोई बदलाव महसूस नहीं किया है. हां, कुछ दिनों से तू जरूर चिड़चिड़ी और गुस्सैल हो गई है.’’

‘‘रातदिन की उपेक्षा और अपमान किसी भी इंसान को चिड़चिड़ा और गुस्सैल बना देता है.’’

‘‘देख, हम बाहर घूमने जा रहे हैं, इसलिए फालतू का शोर मचा कर न अपना मूड खराब कर, न मेरा,’’ नीता ने उसे प्यार से डपट दिया.

‘‘तुझे भी सिर्फ अपनी ही चिंता सता रही है. मैं ने नोट किया है कि तुझे अब मेरी याद तभी आती है, जब तेरे मियांजी टूर पर बाहर गए हुए होते हैं. नीता, अब तू भी बदल गई है,’’ सीमा का गुस्सा और बढ़ गया.

‘‘अब मैं ने ऐसा क्या कह दिया है, जो तू मेरे पीछे पड़ गई है?’’ नीता नाराज होने के बजाय मुसकरा उठी.

‘‘किसी ने भी कुछ नहीं किया है… बस, मैं ही बोझ बन गई हूं सब पर,’’ सीमा रोंआसी हो उठी.

‘‘तुम्हें कोई बोझ नहीं मानता है, जानेमन. किसी ने कुछ उलटासीधा कहा है तो मुझे बता. मैं इसी वक्त उस कमअक्ल इंसान को ऐसा डांटूंगी कि वह जिंदगी भर तेरी शान में गुस्ताखी करने की हिम्मत नहीं करेगा,’’ नीता ने उस का हाथ पकड़ा और पलंग पर बैठ गई.

‘‘किसकिस को डांटेगी तू. जब मतलब निकल जाता है तो लोग आंखें फेर लेते हैं. अब मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार मेरे दोनों भाई और उन की पत्नियां कर रही हैं तो इस में हैरानी की कोई बात नहीं है. मैं बेवकूफ पता नहीं क्यों आंसू बहाने पर तुली हुई हूं,’’ सीमा की आंखों से सचमुच आंसू बहने लगे थे.

‘‘क्या नवीन से कुछ कहासुनी हो गई है?’’

‘‘उसे आजकल अपने बिजनैस के कामों से फुरसत ही कहां है. वह भूल चुका है कि कभी मैं ने अपने सहयोगियों के सामने हाथ फैला कर कर्ज मांगा था उस का बिजनैस शुरू करवाने के लिए.’’

‘‘अगर वह कुसूरवार नहीं है तब क्या नीरज ने कुछ कहा है?’’

‘‘उसे अपने बेटे के साथ खेलने और पत्नी की जीहुजूरी करने से फुरसत ही नहीं मिलती. पहले बहन की याद उसे तब आती थी, जब जेब में पैसे नहीं होते थे. अब इंजीनियर बन जाने के बाद वह खुद तो खूब कमा ही रहा है, उस के सासससुर भी उस की जेबें भरते हैं. उस के पास अब अपनी बहन से झगड़ने तक का वक्त नहीं है.’’

‘‘अगर दोनों भाइयों ने कुछ गलत नहीं कहा है तो क्या अंजु या निशा ने कोई गुस्ताखी की है?’’

‘‘मैं अब अपने ही घर में बोझ हूं, ऐसा दिखाने के लिए किसी को अपनी जबान से कड़वे या तीखे शब्द निकालने की जरूरतनहीं है. लेकिन सब के बदले व्यवहार की वजह से आजकल मैं अपने कमरे में बंद हो कर खून के आंसू बहाती हूं. जिन छोटे भाइयों को मैं ने अपने दिवंगत पिता की जगह ले कर सहारा दिया, आज उन्होंने मुझे पूरी तरह से भुला दिया है. पूरे घर में किसी को भी ध्यान नहीं है कि मैं आज 32 साल की हो गई हूं…

तू भी तो मेरा जन्मदिन भूल गई… अपने दोनों भाइयों का जीवन संवारते और उन की घरगृहस्थी बसातेबसाते मैं कितनी अकेली रह गई हूं.’’

नीता ने उसे गले से लगाया और बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘इंसान से कभीकभी ऐसी भूल हो जाती है कि वह अपने किसी बहुत खास का जन्मदिन याद नहीं रख पाता. मैं तुम्हें शुभकामनाएं देती हूं.’’

उस के गले से लगेलगे सीमा सुबकती हुई बोली, ‘‘मेरा घर नहीं बसा, मैं इस बात की शिकायत नहीं कर रही हूं, नीता. मैं शादी कर लेती तो मेरे दोनों छोटे भाई कभी अच्छी तरह से अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाते. शादी न होने का मुझे कोई दुख नहीं है.

‘‘अपने दोनों छोटे भाइयों के परिवार का हिस्सा बन कर मैं खुशीखुशी जिंदगी गुजार लूंगी, मैं तो ऐसा ही सोचती थी. लेकिन आजकल मैं खुद को बिलकुल अलगथलग व अकेला महसूस करती हूं. कैसे काटूंगी मैं इस घर में अपनी बाकी जिंदगी?’’

‘‘इतनी दुखी और मायूस मत हो, प्लीज. तू ने नवीन और नीरज के लिए जो कुरबानियां दी हैं, उन का बहुत अच्छा फल तुझे मिलेगा, तू देखना.’’

‘‘मैं इन सब के साथ घुलमिल कर जीना…’’

‘‘बस, अब अगर और ज्यादा आंसू बहाएगी तो घर से बाहर निकलने पर तेरी लाल, सूजी आंखें तुझे तमाशा बना देंगी.

तू उठ कर मुंह धो ले फिर हम घूमने चलते हैं,’’ नीता ने उसे हाथ पकड़ कर जबरदस्ती खड़ा कर दिया.

‘‘मैं घर वापस जाती हूं. कहीं घूमने जाने का अब मेरा बिलकुल मूड नहीं है.’’

‘‘बेकार की बात मत कर,’’ नीता उसे खींचते हुए गुसलखाने के अंदर धकेल आई.

जब वह 15 मिनट बाद बाहर आई, तो नीता ने उस के एक हाथ में एक नई काली साड़ी, मैचिंग ब्लाउज वगैरह पकड़ा दिया.

‘‘हैप्पी बर्थडे, ये तेरा गिफ्ट है, जो मैं कुछ दिन पहले खरीद लाई थी,’’ नीता की आंखों में शरारत भरी चमक साफ नजर आ रही थी.

‘‘अगर तुझे मेरा गिफ्ट खरीदना याद रहा, तो मुझे जन्मदिन की मुबारकबाद देना कैसे भूल गई?’’ सीमा की आंखों में उलझन के भाव उभरे.

‘‘अरे, मैं भूली नहीं थी. बात यह है कि आज हम सब तुझे एक के बाद एक सरप्राइज देने के मूड में हैं.’’

‘‘इस हम सब में और कौनकौन शामिल है?’’

‘‘उन के नाम सीक्रेट हैं. अब तू फटाफट तैयार हो जा. ठीक 1 बजे हमें कहीं पहुंचना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘उस जगह का नाम भी सीके्रट है.’’

सीमा ने काफी जोर डाला पर नीता ने उसे इन सीक्रेट्स के बारे में और कुछ भी

नहीं बताया. सीमा को अच्छी तरह से तैयार करने में नीता ने उस की पूरी सहायता की. फिर वे दोनों नीता की कार से अप्सरा बैंक्वेट हौल पहुंचे.

‘‘हम यहां क्यों आए हैं?’’

‘‘मुझ से ऐसे सवाल मत पूछ और सरप्राइज का मजा ले, यार,’’ नीता बहुत खुश और उत्तेजित सी नजर आ रही थी.

उलझन से भरी सीमा ने जब बैंक्वेट हौल में कदम रखा, तो अपने स्वागत में बजी तालियों की तेज आवाज सुन कर वह चौंक पड़ी. पूरा हौल ‘हैप्पी बर्थडे’ के शोर से गूंज उठा.

मेहमानों की भीड़ में उस के औफिस की खास सहेलियां, नजदीकी रिश्तेदार और परिचित शामिल थे. उन सब की नजरों का केंद्र बन कर वह बहुत खुश होने के साथसाथ शरमा भी उठी.

सब से आगे खड़े दोनों भाई व भाभियों को देख कर सीमा की आंखों में आंसू छलक आए. अपनी मां के गले से लग कर उस के मन ने गहरी शांति महसूस की.

‘‘ये सब क्या है? इतना खर्चा करने की क्या जरूरत थी?’’ उस की डांट को सुन कर नवीन और नीरज हंस पड़े.

दोनों भाइयों ने उस का एकएक बाजू पकड़ा और मेहमानों की भीड़ में से गुजरते हुए उसे हौल के ठीक बीच में ले आए.

नवीन ने हाथ हवा में उठा कर सब से खामोश होने की अपील की. जब सब चुप हो गए तो वह ऊंची आवाज में बोला,

‘‘सीमा दीदी सुबह से बहुत खफा हैं. ये सोच रही थीं कि हम इन के जन्मदिन की तारीख भूल गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं था. आज हम इन्हें बहुत सारे सरप्राइज देना चाहते हैं.’’

सरप्राइज शब्द सुन कर सीमा की नजरों ने एक तरफ खड़ी नीता को ढूंढ़ निकाला. उस को दूर से घूंसा दिखाते हुए वह हंस पड़ी.

अब ये उसे भलीभांति समझ में आ गया था कि नीता भी इस पार्टी को सरप्राइज बनाने की साजिश में उस के घर वालों के साथ मिली हुई थी.

नवीन रुका तो नीरज ने सीमा का हाथ प्यार से पकड़ कर बोलना शुरू कर दिया, ‘‘हमारी दीदी ने पापा की आकस्मिक मौत के बाद उन की जगह संभाली और हम दोनों भाइयों की जिंदगी संवारने के लिए अपनी खुशियां व इच्छाएं इन के एहसानों का बदला हम कभी नहीं भूल गईं.’’

‘‘लेकिन हम इन के एहसानों व कुरबानियों को भूले नहीं हैं,’’ नवीन ने फिर

से बोलना शुरू कर दिया, ‘‘कभी ऐसा वक्त था जब पैसे की तंगी के चलते हमारी आदरणीय दीदी को हमारे सुखद भविष्य की खातिर अपने मन को मार कर जीना पड़ रहा था. आज दीदी के कारण हमारे पास बहुत कुछ है.

‘‘और अपनी आज की सुखसमृद्धि को अब हम अपनी दीदी के साथ बांटेंगे.

‘‘मैं ने अपना राजनगर वाला फ्लैट दीदी के नाम कर दिया है,’’ ऊंची आवाज में ये घोषणा करते हुए नवीन ने रजिस्ट्री के कागजों का लिफाफा सीमा के हाथ में पकड़ा दिया.

‘‘और ये दीदी की नई कार की चाबी है. दीदी को उन के जन्मदिन का ये जगमगाता हुआ उपहार निशा और मेरी तरफ से.’’

‘‘और ये 2 लाख रुपए का चैक फ्लैट की जरूरत व सुखसुविधा की चीजें खरीदने

के लिए.

‘‘और ये 2 लाख का चैक दीदी को अपनी व्यक्तिगत खरीदारी करने के लिए.’’

‘‘और ये 5 लाख का चैक हम सब की तरफ से बरात की आवभगत के लिए.

‘‘अब आप लोग ये सोच कर हैरान हो रहे होंगे कि दीदी की शादी कहीं पक्की होने की कोई खबर है नहीं और यहां बरात के स्वागत की बातें हो रही हैं. तो आप सब लोग हमारी एक निवेदन ध्यान से सुन लें. अपनी दीदी का घर इसी साल बसवाने का संकल्प लिया है हम दोनों भाइयों ने. हमारे इस संकल्प को पूरा कराने में आप सब दिल से पूरा सहयोग करें, प्लीज.’’

बहुत भावुक नजर आ रहे नवीन और नीरज ने जब एकसाथ झुक कर सीमा के पैर छुए, तो पूरा हौल एक बार फिर तालियों की आवाज से गूंज उठा.

सीमा की मां अपनी दोनों बहुओं व पोतों के साथ उन के पास आ गईं. अब पूरा परिवार एकदूसरे का मजबूत सहारा बन कर एकसाथ खड़ा हुआ था. सभी की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे.

बहुत दिनों से चली आ रही सीमा के मन की व्याकुलता गायब हो गई. अपने दोनों छोटे भाइयों के बीच खड़ी वह इस वक्त अपने सुखद, सुरक्षित भविष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नजर आ रही थी.

आग और धुआं: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

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बीच राह में-भाग 3 : क्या डॉक्टर की हो पाई अनिता?

जब वे वार्ड में शिफ्ट हुए तो उन की पत्नी सीमा रात को उन के साथ रुकने लगी थीं.

‘‘आप मैडम से कहो कि वे रात को न रुकें. मैं हूं न आप की देखभाल के लिए.’’ अनिता ने डाक्टर आनंद पर सीमा को आने से मना करने के लिए दबाव डाला.

‘‘वह नहीं मानेगी,’’ डाक्टर आनंद का यह जवाब सुन कर अनिता का मन बुझो सा गया. सीमा की मौजूदगी के कारण वह रात को डाक्टर आनंद से दिल की बातें करने के अवसर से वंचित जो रह जाती थी.

पूरे 20 साल में इकट्ठी हुई

यादों को एक रात में जी

लेना संभव नहीं. वक्त अपनी

रफ्तार से चलता रहा और सुबह

हो गई. अनिता को डाक्टर आनंद से 2 बातें करने का मौका तब मिला जब सीमा गुसलखाने में फ्रैश होने गई थीं.

डाक्टर आनंद ने उस का हाथ पकड़ कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘अपना ध्यान रखना.’’

‘‘मेरी फिक्र करने के बजाय आप सारा ध्यान खुद को ठीक करने में लगाना,’’ उन का कमजोर सा चेहरा देख कर अनिता का गला

रुंध गया.

‘‘मैं अपने अंदर जीने का जोश महसूस नहीं कर रहा हूं.

बेटा कह रहा है कि मैं उस के पास आ कर मुंबई में रहूं… मेरा दिल कैसे लगेगा अनजान शहर में जा कर? मैं तुम से दूर नहीं जाना चाहता हूं…’’

‘‘परिवार के बीच रहने से दिल क्यों नहीं लगेगा? आप यों मन छोटा न करो.’’

‘‘मेरे कारण तुम्हारा तो परिवार भी नहीं बसा. मैं 20 साल पहले अगर किसी तरह से आज की इन परिस्थितियों को देख पाता तो कभी तुम से इतना गहरा रिश्ता न बनाता. दिल के रिश्ते बनाने में उम्र का इतना बड़ा अंतर होना गलत है. तुम्हें बीच राह में यों अकेला छोड़ देने का मु?ो बहुत अफसोस है, अनिता,’’ डाक्टर आनंद की आंसुओं से पलकें भीग गईं.

सीमा के गुसलखाने से बाहर आने की आवाज सुन कर अनिता सिर्फ इतना ही कह सकी थी, ‘‘आप के साथ बिताए प्यार के पलों की यादें मेरे लिए बहुत खास हैं. मु?ो अगर फिर से जिंदगी जीने का मौका मिले तो भी मैं आप का साथ ही चुनूंगी.’’

10 बजे के करीब डाक्टर आनंद अपने बेटेबहू व पत्नी के

साथ घर चले गए. सीमा ने अनिता को गले लगा कर डाक्टर आनंद की दिल से सेवा करने के लिए कई बार धन्यवाद दिया.

डाक्टर आनंद ने एक बार उस की तरफ देख कर हाथ हिलाया और फिर कार में बैठ कर चले गए. अनिता के दिल का एक कोना समझो रहा था कि शायद यह उन की आखिरी मुलाकात है.

उन को विदा करने के बाद अनिता ने अपनी आंखों में आंसू नहीं आने दिए. वह यंत्रचालित सी मरीजों की देखभाल में लग गई. धीरेधीरे शाम के 4 बजे तक का समय किसी तरह बीत ही गया. ड्यूटी खत्म कर के अपने फ्लैट पर पहुंची और निढाल सी पलंग पर लेट गई.

उस समय वह अपनेआप को बहुत अकेला और खाली महसूस कर रही थी. समझो में नहीं आ रहा था कि डाक्टर आनंद के साथ के बिना वह अपनी आगे की जिंदगी में खुशियां और उत्साह कैसे पैदा कर पाएगी.

डाक्टर आनंद की यादों के सहारे जीना पड़ सकता है, इस वक्त से पहले उस ने ऐसी स्थिति की कल्पना तक नहीं की थी. उसे डाक्टर आनंद के साथ 20 साल तक प्रेम के धागे से जुड़े रहने

का कोई अफसोस नहीं था, पर अकेले ही आगे की जिंदगी काटना बहुत बड़ा बोझो जरूर प्रतीत हो

रहा था.जब वे वार्ड में शिफ्ट हुए तो उन की पत्नी सीमा रात को उन के साथ रुकने लगी थीं.

‘‘आप मैडम से कहो कि वे रात को न रुकें. मैं हूं न आप की देखभाल के लिए.’’ अनिता ने डाक्टर आनंद पर सीमा को आने से मना करने के लिए दबाव डाला.

‘‘वह नहीं मानेगी,’’ डाक्टर आनंद का यह जवाब सुन कर अनिता का मन बुझो सा गया. सीमा की मौजूदगी के कारण वह रात को डाक्टर आनंद से दिल की बातें करने के अवसर से वंचित जो रह जाती थी.

पूरे 20 साल में इकट्ठी हुई

यादों को एक रात में जी

लेना संभव नहीं. वक्त अपनी

रफ्तार से चलता रहा और सुबह

हो गई. अनिता को डाक्टर आनंद से 2 बातें करने का मौका तब मिला जब सीमा गुसलखाने में फ्रैश होने गई थीं.

डाक्टर आनंद ने उस का हाथ पकड़ कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘अपना ध्यान रखना.’’

‘‘मेरी फिक्र करने के बजाय आप सारा ध्यान खुद को ठीक करने में लगाना,’’ उन का कमजोर सा चेहरा देख कर अनिता का गला

रुंध गया.

‘‘मैं अपने अंदर जीने का जोश महसूस नहीं कर रहा हूं.

बेटा कह रहा है कि मैं उस के पास आ कर मुंबई में रहूं… मेरा दिल कैसे लगेगा अनजान शहर में जा कर? मैं तुम से दूर नहीं जाना चाहता हूं…’’

‘‘परिवार के बीच रहने से दिल क्यों नहीं लगेगा? आप यों मन छोटा न करो.’’

‘‘मेरे कारण तुम्हारा तो परिवार भी नहीं बसा. मैं 20 साल पहले अगर किसी तरह से आज की इन परिस्थितियों को देख पाता तो कभी तुम से इतना गहरा रिश्ता न बनाता. दिल के रिश्ते बनाने में उम्र का इतना बड़ा अंतर होना गलत है. तुम्हें बीच राह में यों अकेला छोड़ देने का मु?ो बहुत अफसोस है, अनिता,’’ डाक्टर आनंद की आंसुओं से पलकें भीग गईं.

सीमा के गुसलखाने से बाहर आने की आवाज सुन कर अनिता सिर्फ इतना ही कह सकी थी, ‘‘आप के साथ बिताए प्यार के पलों की यादें मेरे लिए बहुत खास हैं. मुझे अगर फिर से जिंदगी जीने का मौका मिले तो भी मैं आप का साथ ही चुनूंगी.’’

10 बजे के करीब डाक्टर आनंद अपने बेटेबहू व पत्नी के

साथ घर चले गए. सीमा ने अनिता को गले लगा कर डाक्टर आनंद की दिल से सेवा करने के लिए कई बार धन्यवाद दिया.

डाक्टर आनंद ने एक बार उस की तरफ देख कर हाथ हिलाया और फिर कार में बैठ कर चले गए. अनिता के दिल का एक कोना समझो रहा था कि शायद यह उन की आखिरी मुलाकात है.

उन को विदा करने के बाद अनिता ने अपनी आंखों में आंसू नहीं आने दिए. वह यंत्रचालित सी मरीजों की देखभाल में लग गई. धीरेधीरे शाम के 4 बजे तक का समय किसी तरह बीत ही गया. ड्यूटी खत्म कर के अपने फ्लैट पर पहुंची और निढाल सी पलंग पर लेट गई.

उस समय वह अपनेआप को बहुत अकेला और खाली महसूस कर रही थी. समझो में नहीं आ रहा था कि डाक्टर आनंद के साथ के बिना वह अपनी आगे की जिंदगी में खुशियां और उत्साह कैसे पैदा कर पाएगी.

डाक्टर आनंद की यादों के सहारे जीना पड़ सकता है, इस वक्त से पहले उस ने ऐसी स्थिति की कल्पना तक नहीं की थी. उसे डाक्टर आनंद के साथ 20 साल तक प्रेम के धागे से जुड़े रहने

का कोई अफसोस नहीं था, पर अकेले ही आगे की जिंदगी काटना बहुत बड़ा बोझो जरूर प्रतीत हो रहा था.

बीच राह में-भाग 1 : क्या डॉक्टर की हो पाई अनिता?

सिस्टरअनिता की नजरें बारबार प्राइवेट कमरा नंबर-1 की तरफ उठ जाती थीं. उस कमरे  में इसी अस्पताल के नामी हार्ट सर्जन डाक्टर आनंद भरती थे.

‘‘अब आप इतनी चिंता क्यों कर रही हैं? डाक्टर आनंद ठीक

हो कर कल सुबह घर जा तो रहे हैं,’’ साथ बैठी सिस्टर शारदा ने अनिता की टैंशन कम करने की कोशिश की.

‘‘मैं ठीक हूं… कई दिनों से नींद पूरी न होने के कारण आंखें लाल हो रही हैं,’’ अनिता बोली.

‘‘कुछ देर रैस्टरूम में जा

कर आराम कर लो, मैं यहां सब संभाल लूंगी.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ देर यहीं सुस्ता लेती हूं,’’ कह अनिता ने आंखें बंद कर सिर मेज पर टिका लिया.

डाक्टर आनंद से अनिता का परिचय करीब 20 साल पुराना था. इतने लंबे समय में इकट्ठी हो गई कई यादें उस के स्मृतिपटल पर आंखें बंद करते ही घूमने लगीं…

पहली बार वह डाक्टर आनंद की नजरों में औपरेशन थिएटर में आई थी. उस दिन वह सीनियर सिस्टर को असिस्ट कर रही थी. तब उस ने डाक्टर आनंद का ध्यान एक महत्त्वपूर्ण बात की तरफ दिलाया था, ‘‘सर, पेशैंट का खून नीला पड़ता जा रहा है.’’

डाक्टर आनंद ने डाक्टर

नीरज की तरफ नाराजगी भरे अंदाज में देखा.

डाक्टर नीरज की नजर औक्सीजन सिलैंडर की तरफ गई. पर उस का रैग्यूलेटर ठीक प्रैशर दिखा रहा था.

‘‘यह रैग्यूलेटर खराब है… जल्दी से सिलैंडर चेंज करो,’’ डाक्टर आनंद का यह आदेश सुन कर वहां खलबली मच गई.

जब सिलैंडर बदल दिया गया तब डाक्टर आनंद एक बार

अनिता के चेहरे की तरफ ध्यान से देखने के बाद बोले, ‘‘गुड औब्जर्वेशन, सिस्टर… थैंकयू.’’

औपरेशन समाप्त होने के कुछ समय बाद डाक्टर आनंद ने अनिता को अपने चैंबर में बुला कर प्रशंसा भरी आवाज में कहा, ‘‘आज तुम्हारी सजगता ने एक मरीज की जान बचाई है.’’

‘‘थैंकयू, सर.’’

‘‘बैठ जाओ, प्लीज… चाय पी कर जाना.’’

‘‘थैंकयू, सर,’’ अपने दिल की धड़कनों को काबू में रखने की कोशिश करते हुए अनिता सामने वाली कुरसी पर बैठ गई.

उस दिन के बाद अनिता अपने खाली समय में डाक्टर आनंद के चैंबर में ही नजर आती. वे अपने मरीजों के ठीक होने में आ रही रुकावटों की उस के साथ काफी चर्चा करते. अगर अनिता की समझो में उन की कुछ बातें नहीं भी आतीं तो भी वह अपने ध्यान को इधरउधर भटकने नहीं देती.

सब यह मानते थे कि उन से अनिता बहुत कुछ सीख रही है. उस की गिनती बेहद काबिल नर्सों में होती, पर उस की सहेलियां डाक्टर आनंद के साथ उस के अजीब से रिश्ते को ले कर उस

का मजाक भी उड़ाती थीं, ‘‘अरे, तुम दोनों केस डिस्कस करने के अलावा कुछ मौजमस्ती भी करते हो या नहीं?’’

‘‘वे कमजोर चरित्र के इंसान नहीं हैं,’’ अनिता उन की बातों का बुरा न मान हंस कर जवाब देती.

‘‘चरित्र कमजोर नहीं है तो क्या कुछ और कमजोर है?’’ वे उसे और ज्यादा छेड़तीं.

‘‘मुझो से हर वक्त ऐसी बेकार की बातें न किया करो,’’ कभीकभी अनिता खीज उठती.

‘‘सारे जूनियर डाक्टर जिस हसीना के लिए लार टपकाते हैं, वह फंसी भी तो एक सनकी और सीनियर डाक्टर से… अरी, उन के साथ बेकार समय न बरबाद कर… तेरी रैपुटेशन इतनी अच्छी है कि कोई तेरा दीवाना डाक्टर तुझ से शादी करने को भी तैयार हो जाएगा,’’ उन दिनों अनिता को ऐसी सलाहें अपनी सहेलियों व अन्य सीनियर नर्सों से आए दिन सुनने को मिलती थीं.

अनिता के मन में शादी करने का विचार उठता ही नहीं था. शादी को टालने की बात को ले कर उस के घर वाले भी उस से नाराज रहने लगे थे. उस के लिए किसी भी अच्छे रिश्ते का आना उन के साथ तकरार का कारण बन जाता.

‘‘आप मेरे लिए रिश्ता न ढूंढ़ो… नर्स के साथ हर आदमी नहीं निभा सकता है. जब कोई अच्छा, समझोदार लड़का मुझे मिल जाएगा, मैं उसे आप सब से मिलवाने ले आऊंगी,’’ अनिता की इस दलील को सुन उस का भाई व मातापिता बहुत गुस्सा होते.

‘‘अब तू 23 साल की तो हो गई है… और कितनी देर लगाएगी उस अच्छे लड़के को ढूंढ़ने में?’’ उन सब के ऐसे सवालों को टालने में वह कुशल होती चली गई थी.

अनिता को अच्छा लड़का तो तब मिलता जब वह डाक्टर आनंद के अलावा किसी और को समय देती. अगर उस की सहेलियां उस की दोस्ती किसी डाक्टर या अन्य काबिल युवक

से कराने की कोशिश करतीं तो अनिता बड़े

रूखे से अंदाज में उस युवक के साथ पेश

आती. हार कर वह युवक उस में दिलचस्पी लेना छोड़ देता.

डाक्टर आनंद ने भी एक दिन अपने

चैंबर में उस के साथ

चाय पीते हुए पूछ ही लिया, ‘‘तुम शादी कब कर रही हो?’’

‘‘मेरा शादी करने का कोई इरादा नहीं है, सर.’’

‘‘यह क्या कह रही हो? शादी करने का… मां बनने का तो हर लड़की का मन करता है.’’

‘‘मु?ो नहीं लगता कि मेरा मनभाता लड़का कभी मेरी जिंदगी में आएगा.’’

‘‘जरा मु?ो भी तो बताओ कि कैसा होना चाहिए तुम्हारे सपनों का राजकुमार?’’

‘‘उसे बिलकुल आप के जैसा होना चाहिए, सर,’’ अनिता ने शरारती मुसकान होंठों पर लाते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या मतलब?’’ डाक्टर आनंद चौंक कर उस के चेहरे को ध्यान से पढ़ने लगे.

‘‘मतलब यह कि उसे आप की तरह संवेदनशील, समझोदार, अपने काम के लिए पूरी तरह समर्पित होना चाहिए.’’

‘‘अरे, ज्यादा मीनमेख निकालना छोड़

कर किसी भी अच्छे लड़के से शादी कर लो.

तुम बहुत समझोदार हो… जिस से भी शादी करोगी, उस में ये सब गुण तुम्हारा साथ पा कर पैदा हो जाएंगे.’’

‘‘सौरी सर, मैं इस मामले में रिस्क नहीं ले सकती… वैसे मैं कभीकभी सोचती हूं…’’

‘‘क्या?’’ उसे अपनी बात पूरी न करते देख डाक्टर आनंद ने पूछा.

‘‘यही कि अगर आप शादीशुदा न होते तो मेरे सामने लड़का ढूंढ़ने की समस्या ही नहीं

खड़ी होती.’’

‘‘अनिता, मैं बस तुम्हें इतना याद दिलाना चाहूंगा कि मैं जब जवान हुआ था तब तुम

पैदा भी नहीं हुई थीं,’’ अपने मन की बेचैनी छिपाने को डाक्टर आनंद ने यह बात मुसकराते हुए कही.

‘‘मेरे दिमाग में ही कुछ खोट होगी सर. हमारे बीच उम्र का 20 साल का अंतर होने के बावजूद मैं आप को इस पूरे अस्पताल का सब

से स्मार्ट पुरुष पता नहीं क्यों मानती हूं?’’ अपने चेहरे पर नाटकीय गंभीरता ला कर अनिता ने

यह सवाल पूछा और फिर खिलखिला कर

हंस पड़ी.

‘‘शरारती लड़की, मु?ो ही ढूंढ़ना

पड़ेगा तुम्हारे लिए कोई

अच्छा रिश्ता.’’

‘‘सर, शीशे के सामने खड़े हो कर इस बारे में सोचविचार करोगे तो मेरी पसंद आसानी से पकड़ में आ जाएगी.’’

अछूत: जब एक फैसला बना बेटे के लिए मुसीबत

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