छुटकारा – भाग 3 : नीरज को क्या पता था

‘‘अब यह टौपिक बदल भी लो, यार,’’ चिकन खा रही संगीता को खाने के आनंद में पड़ रहा खलल अच्छा नहीं लगा रहा था.‘‘मैं बहुत परेशान हूं और मु झे इतना गुस्सा आ रहा है… इतना गुस्सा आ रहा है कि…’’उसे टोकते हुए संगीता ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘तुम अनुराधा से इतने ही दुखी और परेशान हो, तो उसे तलाक क्यों नहीं दे देते हो?’’‘‘तलाक?’’

नीरज चौंक पड़ा.‘‘हां, तलाक. हम दोनों तलाकशुदा प्रेमी फिर शादी कर के साथ रहेंगे, डार्लिंग. सोचना शुरू करोगे तो मेरा सु झाव तुम्हें जरूर पसंद आएगा, स्वीटहार्ट.’’‘‘रोहित बीच में न होता, तो मैं जरूर अनुराधा को तलाक दे देता. मैं उसे तो अपनी जान से ज्यादा चाहता हूं.’’‘‘अपनी इस जान की खुशियों व मन की सुखशांति की तरफ भी ध्यान दो, जानेमन. तुम्हें सम झना चाहिए कि अपनी पत्नी की बातें हर समय कर के तुम माहौल बिगाड़ डालते हो,’’

संगीता ने शिकायत करी.‘‘यार, मैं तुम से अपने दिल की बातें नहीं करूंगा, तो किस से करूंगा?’’ नीरज भी चिड़ उठा.‘‘तुम्हारे दिल में मेरे लिए प्यार भरी बातें भी मौजूद हैं न?’’‘‘मैं तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहता हूं, डार्लिंग.’’‘‘तब मेरे सामने उन्हीं बातों को जबान पर लाया करो, प्लीज.’’‘‘ओके… ओके,’’ अपने गुस्से को नियंत्रण में रखने की कोशिश करता हुआ

नीरज फिर चुप हो कर खाना खाने लगा. बाद में संगीता के फ्लैट में पहुंचने के बाद दोनों ने प्यार का खेल खेला जरूर, लेकिन इस बार उस में जोश व उत्साह की कमी दोनों को ही महसूस हुई. विदा लेते समय नीरज का आंतरिक तनाव बेचैनी अपनी जगह बने हुए थे, जबकि संगीता के मन में नाराजगी व असंतोष के भाव और ज्यादा गहरा गए थे.महीने के दूसरे हफ्ते में नीरज के सिर पर मंडराता आर्थिक संकट और गहरा गया.अनुराधा की ममेरी बहन की शादी का कार्ड आ गया. करीब 2 हफ्ते बाद होने वाली शादी में शामिल होने के लिए अनुराधा सप्ताह भर के लिए अपने मामा के घर जान चाहती थी. शादी की तैयारी करने के लिए उस ने 30 हजार रुपयों की मांग नीरज के सामने रख दी.

‘‘नीरज, तुम्हारा ऐसा चिड़चिड़ा रूप मैं ने पहले कभी नहीं देखा है,’’ संगीता ने चिढ़ कर शिकायत करी.‘‘मु झे भी पहले कभी एहसास नहीं हुआ था कि मेरे प्रति तुम्हारा प्यार मेरे पर्स में भरे नोटों की संख्या से जुड़ा हुआ है.’’‘‘नीरज, अपनी पत्नी की नौकरी चले जाने से तुम बौखला गए हो… पागल हो गए हो.’’‘‘उस ने नौकरी भी तुम्हारे कारण छोड़ी है.’’‘‘मेरे कारण क्यों?’’ संगीता ने चिढ़ कर पूछा.‘‘कारण साफ नहीं है क्या? मैं लाख इनकार करूं, पर वह हमारे प्रेम संबंध को पहचानती है.

यह किस स्त्री को अच्छा लगेगा कि कमा कर वह लाए और उस का पति उस की कमाई की मदद से अपनी प्रेमिका के साथ गुलछर्रे उड़ाए.’’‘‘तब बंद कर दो, मेरे साथ गुलछर्रे उड़ाना,’’ संगीता चिल्ला पड़ी.‘‘तो क्या तुम मेरे साथ संबंध तोड़ने को तैयार हो?’’ नीरज ने चौंक कर आहत भाव से पूछा.‘‘मैं नहीं, बल्कि तुम यह रिश्ता तोड़ना चाहते हो क्योंकि तुम्हें अनुराधा या मु झ से नहीं बल्कि सिर्फ रुपयों से प्यार है. तुम जैसे लालची इंसान रुपयों के कारण कोई भी रिश्ता जोड़ सकते हैं और तोड़ भी.’’‘‘शटअप,’’ संगीता की चुभती बात नीरज के दिल को जख्मी कर गई.

‘‘तुम कुछ भी कहो, वह ठीक है और जब मैं सच्ची बात मुंह से निकालूं तो ‘शटअप’ चिल्लाओ तुम. वाह.’’नीरज ने उसे कुछ पलों तक गुस्से से घूरा. पर संगीता उस के गुस्से से न डरी थी, न घबराई. उस के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि उस का मूड बगावती हो चुका है.‘‘मैं जा रहा हूं,’’ नीरज  झटके से उठ खड़ा हुआ. संगीता खामोश रही. नीरज का दिमाग बुरी तरह से भन्ना उठा. अचानक उसे यह एहसास हुआ कि आज तक संगीता उस के साथ प्यार का नाटक खेल कर उसे उल्लू बनाती रही. उस के तमतमाए चेहरे ने एक परदा साउस के दिलोदिमाग पर से उठाया और संगीता के प्रति बना उस के मन का आकर्षण व लगाव अभी से गया.‘‘मु झे 1 गिलास पानी पिला सकोगी,

’’ नीरज की नाराजगी उस की आवाज से  झलकरही थी.‘‘श्योर,’’ संगीता उठ कर रसोई की तरफ चल पड़ी.उसके कमरे से बाहर जाते ही नीरज ने उसे गिफ्ट दिए फोन का डब्बा उठा कर फुरती से खोला और फोन जेब रख लिया. फिर फोन को बंद करतेकरते वह मुख्यद्वार की तरफ बढ़ गया.नीरज ने धीमे से कुंडी खोली और बाहर निकल आया. नए फोन को जेब में रखते हुए उस ने अजीब सा संतोष महसूस किया. उसे लगा कि चालाक व लालची संगीता से गिफ्ट वापस ले कर उस ने उसे सही मजा चखा दिया.इस से पहले कि वह लालची और चालाक औरत मु झ से संबंध तोड़ती,

मैं ही उस से दूर हो गया. यह महंगा फोन अपनी अनु को दूंगा तो वह कितनी खुश हो जाएगी. नौकरी फिर से शुरूकरने के लिए उसे राजी करने में भी इस गिफ्ट को दे कर मु झे सहायता मिलेगी. एक लालची औरत के नकली प्रेम की खातिर अपने घर की खुशहाली को दांव पर लगाने की मूर्खता मैं आगे कभी नहीं करूंगा. छुट्टी ले कर अनुराधा के पास मैं कल ही पहुंचता हूं, ऐसे विचारों की उथलपुथल मन में समेटे नीरज अपने फ्लैट की तरफ बढ़ता जा रहा था.नीरज को इस बात की हैरानी भी महसूस हो रही थी कि संगीता से संबंध तोड़ लेने का फैसला उसे परेशान नहीं कर रहा, मगर उसे लग रहा कि अचानक ही उस का मन हलका और प्रसन्न हो गया है. अनुराधा व रोहित से मिलने की खुशी उस के अंदर पलपल बढ़ती जा रही थी.

सच के फूल: क्या हुआ था सुधा के साथ

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भाग्यश्री: मालती देवी शादी के लिए क्यों राजी हुई

शाम का वक्त था भाग्यश्री के घर पर काफी चहलपहल थी. सभी सेवक भागभाग कर काम कर रहे थे. घर की सजावट देखने लायक थी. उसी समय वह कालेज से घर आई. यों कोलकाता का धर्मतल्ला काफी भीड़भाड़ वाला इलाका है. यही वजह थी कि उसे घर आतेआते देर हो गई थी. भाग्यश्री के पिता वहीं पर एक साधारण व्यापारी थे. वे दहेज के लिए पैसे इकट्ठा करने से ज्यादा अपनी दोनों बेटियों को शिक्षित करने पर जोर देते थे और इस में वे कामयाब भी रहे. भाग्यश्री को अपने घर में किए गए सजावट आदि के बारे में कुछ नहीं पता था.

‘‘अरे वाह, आज इतनी सजावट? कोई खास बात है क्या?’’ चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए भाग्यश्री ने पूछा.

‘‘शायद तेरी शादी का खयाल दिल में आया है, इसीलिए मम्मी ने लङके वालों को बुलाया है…’’ छोटी बहन दिव्या फिल्मी अंदाज में बोलती हुई उसे छेङने लगी.

‘‘मां, इस बार कौन आ रहा है तुम्हारी इस कालीकलूटी बेटी को देखने के लिए? कितनी नुमाइश करनी है आप को… क्यों नहीं थक जातीं आप?’’ कंधे से बैग उतार कर पैर पटकते हुए भाग्यश्री ने रोष प्रकट किया.

‘‘बेटा, बड़े अच्छे लोग हैं. तुम्हारी मौसी के सुसराल वाले हैं. लङका मानव यहीं यादवपुर में अपना कारोबार करता है. बहुत पैसे वाले लोग हैं.

“अच्छी बात क्या है पता है? तुम्हारे रंग से उन्हें कोई ऐतराज नहीं है बेटा,’’ मां ने उसे समझाते हुए लङके और उस के पूरे खानदान की जानकारी दी, जिस में भाग्यश्री की कोई दिलचस्पी नहीं थी.

‘‘यह क्या बात हुई… मुझ से पूछा भी नहीं और रिश्ता तय कर दिया? अभी तो स्नातक का आखिरी साल चल रहा है और उस के बाद मुझे कानून की पढ़ाई करनी है…’’ वह बोले जा रही थी.

‘‘हां पढ़ लेना, एक बार रिश्ता हो जाए उस के बाद सबकुछ करना. किस ने रोका है तुम्हें,’’ मां ने बीच में ही टोका.

‘‘और हर बार यही अच्छे और संस्कारी लोग न तुुम्हारी बेटी को डार्क कौंप्लैक्शन का खिताब दे कर चले जाते हैं…रहम करो मां,’’ भाग्यश्री पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई.
वहां बिस्तर पर उस के लिए एक सुंदर गुलाबी साड़ी रखी हुई थी.

“अब क्या इसे भी पहनना होगा,’’ वह लगभग चिल्ला कर बोली.

उस ने अपनेआप को आईने में देखा. लंबा कद, छरहरा बदन, पतले होंठ लेकिन सब से ऊपर उस का सांवला रंग… उस ने आईने से नजरें फेर लीं.
तभी गैस्टरूम से पापा की आवाज आई, ‘‘मेहमान आ गए.’’

पापा की आवाज सुनते ही भाग्यश्री का मन स्थिर हो गया. फिर वही सब होगा. लङके वालों को सबकुछ पसंद आएगा पर सांवली रंगत के आगे सब कुछ फीका पड़ जाएगा. वह अनमने ढंग से तैयार हो गई. उस की खूबसूरती गुलाबी साड़ी में और निखर गई थी. उस के तीखे नैननक्श किसी का भी दिल चुराने लिए काफी थे.

शरबत का गिलास लिए जैसे ही वह अंदर आई, मानव की नजरें भाग्यश्री पर स्थिर हो गईं. दोनों की आंखें चार हुईं, दिल की धङकनों ने एकसाथ धङक कर एकदूसरे का अभिनंदन किया. मानव को भाग्यश्री देखते ही पसंद आ गई थी. दोनों पक्षों में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ ही था कि भाग्यश्री ने अपनी बात रख दी,”मुझे आप सभी से कुछ कहना है… मैं पहले अपनी पढ़ाई पूरी करूंगी और एक सफल वकील बनने के बाद ही शादी करूंगी,’’ भाग्यश्री ने तनिक ऊंची आवाज में अपनी बात रखी, जिसे सुन सभी स्तब्ध हो गए.

मानव के घर वाले जहां बड़ी मुश्किल से उस के सांवले रंग से समझौता कर लङकी के घरेलू होने की बात पर राजी हो कर रिश्ता ले कर आए थे, वहीं उस का मुखर हो कर बोलना एवं पढ़ाई और नौकरी वाली बात को सभी के समक्ष बेबाक हो कर रखना उन से बरदाश्त नहीं हुआ.

मानव की मां मालती देवी बोलीें, ‘‘लड़कियों को घर के काम ही शोभा देते हैं और हमारा मानव इतना कमा लेता है कि उस की गृहस्थी अच्छे से गुजरबसर हो जाएगी. तुम्हारी नौकरी हमें…’’ वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि भाग्यश्री उठ खड़ी हुई. मालती देवी का इशारा साफ था. न तो वह भाग्यश्री को आगे पढ़ने की अनुमति दे रही थीं और न ही एक सफल वकील बनने की इजाजत जोकि भाग्यश्री का सपना था. ऐसे घर में शादी कर अपने सपनों को कुचलना उसे कतई मंजूर नहीं था.

उस ने उन की शर्तों पर शादी करने से इनकार कर दिया और अपने कमरे में चली गई. भाग्यश्री के इस व्यवहार को मालती देवी ने अपना अपमान समझ लिया और मानव का हाथ पकड़ कर खींचती हुईं कमरे से बाहर निकल गईं.

पर मानव का दिल तो वहीं भाग्यश्री के पास छूट गया था. उस ने घर पहुंचते ही भाग्यश्री के मोबाइल पर मैसेज किया…

“प्रिए भाग्यश्री,

‘‘मुझे आप के सपनों के साथ कदम से कदम मिला कर चलना है. मां पुराने खयालात की हैं लेकिन मेरा यकीन कीजिए कि मैं उन्हें मना लूंगा. आप बस वह कीजिए जो आप का दिल चाहता है और हां, कहीं अगर मेरी जरूरत महसूस हो तो एक बार आवाज जरूर दें.

“एक बात और… मैं मां के खिलाफ जा कर आप से शादी कर तो सकता हूं पर करना नहीं चाहता. थोड़ा समय दीजिए, मैं सबकुछ ठीक कर लूंगा. यकीन मानिए, मैं बारात ले कर आप के घर ही आऊंगा. आशा है तब तक आप भी मेरा इंतजार करेंगी.’’

“आप का और सिर्फ आप का
मानव.”

‘‘सामने तो कुछ बोला न गया, पीठ पीछे हल्ला बोल… बहुत देखे ऐसे आशिक आवारा,” कहते हुए वह संदेश को मिटाने लगी पर हाथ रुक गया. पहली बार किसी से इतनी आत्मीयता मिली थी, कैसे जाने देती भला.

इस बात को बीते लगभग 7 साल हो गए थे. भाग्यश्री ने वह मुकाम हासिल कर लिया था, जिस के लिए उस ने शादी के कई रिश्ते को ठुकराया था. वैसे इन 7 सालों में मानव ने कभी उसे अकेलेपन का एहसास होने नहीं दिया था. दोनों औपचारिक रूप से मिलते व एकदूसरे का हालचाल लेते रहते थे. यह बात और थी कि मालती देवी इन बातों से बिलकुल अनजान थीं. भाग्यश्री अपने सपनों को साकार करती सिविल कोर्ट में प्रैक्टिस करने लगी थी. उस की छोटी बहन का विवाह अच्छे घराने में हो गया था.

उस दिन सुबह के करीब 10 बजे थे. मालती देवी रोजमर्रा के कामों के लिए अपने नौकरों पर हुक्म चला रही थीं. तभी उन की बेटी कामिनी रोतेबिलखते मुख्य दरवाजे से अंदर आई.

‘‘मां, अब मैं कभी ससुराल वापस नहीं जाऊंगी,’’ चेहरे पर खून जमने से बने स्याह धब्बे साफ नजर आ रहे थे.

कामिनी मानव की बड़ी बहन थी. कहने को तो शादी के 8 साल हो गए थे लेकिन 1 भी साल ऐसा नहीं गुजरा था जब कामिनी को सताया न गया हो और कामिनी रोतीबिलखती घर न आई हो. हर बार उसे समझा दिया जाता, हाथ जोड़े जाते थे और समझाबुझा कर उसे ससुराल भेज दिया जाता था.

‘‘लोग क्या कहेंगे… बेटी की डोली मायके से निकलती है और अर्थी ससुराल से,’’ मालती देवी हर बार इन्हीं बातों का वास्ता दे कर कामिनी को सुसराल भेज देती थीं और यही वजह थी कि उन्होंने भाग्यश्री का रिश्ता ठुकरा दिया था क्योंकि वह समाज के नियमों के विरुद्ध जा कर पढ़ना चाहती थी, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी, वकील बनना चाहती थी. मगर आज कामिनी के इस दशा ने कोई ठोस कदम लेने पर उन्हें मजबूर कर दिया था.

‘‘राजू…राजू…’’ मालती देवी ने ड्राइवर को जोर से आवाज लगाई.

‘‘जी मैम साहब…’’ राजू दौड़ कर आया.

‘‘गाड़ी निकालो,’’ मालती देवी ने आदेश दिया.

‘‘कामिनी, गाड़ी में बैठो,’’ मालती देवी ने पर्स हाथ में लेते हुए कहा.

राजू गाड़ी निकाल कर खड़ा था. दोनों मांबेटी गाड़ी में बैठ गए. गाड़ी चलने लगी.

‘‘कहां जाना है मैम साहब?’’ ड्राइवर ने डरतेडरते पूछा.

‘‘सिविल कोर्ट,’’ मालती देवी ने आत्मविश्वास के साथ कहा.

कामिनी उन के चेहरे को आश्चर्य से देखने लगी, क्योंकि उसे लग रहा था कि इस बार भी मां उसे ससुराल छोङने जा रही हैं और उस ने यह भी सोच लिया था कि इस बार अर्थी निकलने वाली बात को वह सच कर दिखाएगी.

लेकिन मां द्वारा सिविल कोर्ट का जिक्र करने से वह अपने अंदर संतोष का अनुभव करने लगी. अब तक वह दूर बैठी थी. करीब आ कर वह मां से लिपट कर रोने लगी.

सिविल कोर्ट के आगू राजू ने गाड़ी रोक दी. मालती देवी कामिनी का हाथ पकड़े लगभग दौड़ती हुई चल रही थीं. मन में केवल यही था कि इस बार बेटी को इस नकली रिश्ते से आजाद करना है, तलाक दिलवा कर ही चैन लेगी. जहां न पति का प्यार है, न सासससुर का स्नेह फिर क्यों बनी रहे वहां? उन्हें सारी बातें याद आ रही थीं कि किस तरह से कामिनी को बहू न समझ बेटी समझने का वादा किया था उस के ससुराल वालों ने लेकिन खोखले वादों के अलावा कुछ भी नहीं दिया था. मालती देवी के आंखों के आगे चलचित्र की तरह सारे दृश्य घूमने लगे थे.

कामिनी का हाथ थामे सिविल कोर्ट के बड़े से दरवाजे से अंदर चली गईं वह. सभी वकील अपनेअपने क्लाइंट के साथ व्यस्त थे. किस से अपनी बात कहे, किसी को तो नहीं जानतीं वे. तभी उन की नजर एक नेम प्लेट पर पड़ी ‘भाग्यश्री.’

नाम को दोहराया उन्होंने. यादों के मानस पटल पर धूल जम चुकी थी. उसे झाड़ा तो तसवीर साफ हो गई. वे लगभग दौड़ती हुई उस के पास पहुंचीं. भाग्यश्री के आगे हाथ जोड़ कर खड़ी हो गईं. उन्हें ऐसी स्थिति में देख कर भाग्यश्री हड़बड़ा कर उठ कर खड़ी हो गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि मालवी देवी ऐसे क्यों खड़ी हैं? कई सवाल एकसाथ सामने आजा रहे थे.

‘‘आप बैठ जाइए न मैडम,’’ भाग्यश्री ने औपचारिकता निभाई.

‘मैडम कहा उस ने. लगता है, मुझे नहीं पहचाना,’ मन ही मन सोचने लगीं मालवी देवी.

मालती देवी ने पर्स से फोन निकाला और नंबर डायल करने लगीं,”मानव, तुम जहां कहीं भी हो यहां आ जाओ? पता राजू से पूछ लेना,’’ जल्दबाजी में केवल इतना ही बोल पाईं वह.

“मां, क्या हुआ?” मानव ने कभी मां को इस तरह बात करते नहीं सुना था. वह भी घबरा गया.

आधे घंटे में मानव उन सब के सामने था. भाग्यश्री ने मालती देवी को पानी पिलाया, उन्हें शांत किया और फिर एकएक जानकारी उन से लेने लगी.
मामला दहेज उत्पीङन का था.

‘‘मैडम देखिए, हमारे पास 2 रास्ते हैं, एक तो आप जा कर पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करवाएं और आगे कानूनी काररवाई की लंबी प्रक्रिया होगी फिर जो फैसला होगा वह हमें मानना ही होगा. दूसरा, मैं कामिनीजी के ससुराल वालों से मिल कर उन्हें न्यायिक प्रक्रिया के साथ समझाऊं, क्योंकि किसी का घर टूटे यह कोई नहीं चाहता, मैं तो बिलकुल भी नहीं. आगे आप जैसा कहें,’’ भाग्यश्री बोले जा रही थी, जिसे मालवी देवी सुन कर निहाल हुई जा रही थीं और उन्हें अपने किए पर ग्लानि भी हो रही थी.

‘‘बेटा, तुुम्हें जो ठीक लगे वही करो,’’ मालती देवी बोलीं.

भाग्यश्री मानव के साथ जा कर कामिनी के ससुराल वालों से मिली. काले कोर्ट वाले को देखते ही वे सिहर गए थे. रहीसही कसर उस के रौबीले अंदाज ने पूरी कर दी थी. उस ने उन्हें दहेज उत्पीङन पर लगने वाले धाराओं के बारे में बताया. न मानने की स्थिति में होने वाले दुष्परिणामों की भी जानकारी दी. ‘मरता क्या न करता…’ नतीजा यह हुआ कि कामिनी के ससुराल वाले उन की हर बात मानने के लिए तैयार हो गए.

कामिनी के लिए 6 महीने का पूरा आराम, साथ ही पति द्वारा खाना बना कर खिलाए जाने की हिदायत एवं देखभाल करने की जिम्मेदारी सासससुर के ऊपर दे कर साथ ही दहेज में दी गई पूरी रकम को कामिनी के बैंक खाते में भेजने का आदेश दे कर भाग्यश्री और मानव वापस आ गए थे.

यह सब देख मालती देवी की आंखों में भाग्यश्री के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ रहा था. जब उन्हें पश्चाताप करने का कोई और रास्ता नहीं दिखा तो एक दिन बेटे से बोलीं,‘‘मानव, मैं भाग्यश्री को बहू बनाना चाहती हूं, वह मान तो जाएगी न?”

‘‘मां, पिछले 7 सालों से वह भी हमारा ही इंतजार कर रही है.’’

‘‘सच मानव,’’ सजल नेत्रों से कहा मालती देवी ने.

उत्तर में मानव ने कुछ फोटोज दिखाए जिस में वे साथसाथ थे. भाग्यश्री के घर जा कर उस की मां से उन्होंने जो कुछ भी कहा वह काबिलेतारीफ थी,
‘‘मुझे अपने बेटे के लिए आप की होनहार और काबिल बेटी का हाथ चाहिए. आशा है, आप मुझे मना नहीं करेंगी.’’

भाग्यश्री की मां ने नम आंखों से मालती देवी को गले से लगा लिया था. मालती देवी ने भाग्यश्री के गले में सोने का हार पहनाया, ‘‘अब से मैं तुम्हारी मां हूं. मुझे मैडम मत कहना प्लीज,” मालती देवी ने याचना भरे शब्दों में कहा.

मानव वहीं सोफे पर बैठा मुसकरा रहा था. जैसे ही एकांत मिला तो बोल पङा, ‘‘कहा था न मैं ने बारात ले कर आप के घर ही आऊंगा…’’

भाग्यश्री क्या कहती भला… शरमा कर दोनों हाथों से चेहरे को ढंक लिया था उस ने.

‘‘वाह…वाह… जी, क्या जोड़ी है बनाई… भैया और भाभी को बधाई हो बधाई…” दिव्या ने फिल्मी अंदाज में गा कर दोनों को साथ खड़ा किया. फिर दोनों ने घर के सभी बड़े सदस्यों का आशीर्वाद लिया. माहौल बेहद खुशनुमा लग रहा था.

अनमोल क्षण: क्या नीरजा को मिला प्यार

शाम के 4 बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की हवाएं और आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ घूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे.

सुशांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का लुत्फ उठाया जाए, लेकिन फिर उन्हें लगा कि नीरजा का कमजोर दुर्बल शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने नीरजा की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंद कर लेटी हुई थी.

सुशांत ने नीरजा से पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पियोगी?’’

अदरक वाली चाय नीरजा को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से कहिए ना वह बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह इतना ही कह पाई.

‘‘अरे मोहन से क्यों कहूं, यह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा, तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर सुशांत किचन में चले गए. जब वह वापिस आए तो ट्रे में 2 कप चाय के साथ कुछ बिसकुट भी रख लाए, उन्होंने सहारा दे कर नीरजा को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिसकुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी… कुछ नहीं खाना,’’ कह कर नीरजा ने बिसकुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिसकुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहल ही नीरजा ने सिर हिला कर मना कर दिया.

नीरजा की हालत देख कर सुशांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर हो गया था. आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे हो गए थे, वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि उस की हालत देखी नहीं जाती थी. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे, अपनी किस्मत के आगे हारते चले जा रहे थे सुशांत.

कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने ना जाने कितने मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहींं कर पा रहे थे. बस धीरेधीरे अपने प्राणों से भी प्रिय पत्नी नीरजा को मौत की ओर जाते हुए भीगी आंखों से देख रहे थे.

सुशांत के जेहन में वह दिन उतर आया, जिस दिन वह नीरजा को ब्याह कर अपने घर ले आए थे.

अम्मां अपनी सारी जिम्मेदारियां बहू नीरजा को सौंप कर निश्चित हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली नीरजा ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को पूरे मन से स्वीकारा और किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया.

उस के सौम्य व सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था. सारे सदस्य नीरजा की तारीफ करते नहीं थकते थे.

सुशांत उन दिनों मैडिकल कालेज में लेक्चरार के पद पर थे, साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक योग्य व नामी डाक्टर के रूप में देखने की व शोहरत पाने की उन की बड़ी दिली तमन्ना था.

घर का मोरचा अकेली नीरजा पर डाल कर वह सुबह से रात तक अपने कामों में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे पल गुजारने की फुरसत उन्हें ना थी… या फिर शायद सुशांत ने जरूरत ही नहीं समझी.

या यों कहिए कि ये अनमोल क्षण उन दोनों की ही किस्मत में नहीं थे, उन्हें लगता था कि नीरजा को तमाम सुखसुविधा व ऐशोआराम में रख कर वह पति होने का फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, जबकि सच तो यह था कि नीरजा की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं था.

नीरजा का मन तो यही चाहता था कि सुशांत उस के साथ सुकून व प्यार के दो पल गुजारे. वह तो यह भी सोचती थी कि सुशांत मेरे साथ जितना भी समय बिताएंगे, उतने ही पल उस के जीवन के अनमोल पल कहलाएंगे, लेकिन अपने मन की यह बात सुशांत से कभी नहीं कह पाई, जब कहा तब सुशांत समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ सुशांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढऩे लगी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया.

नीरजा ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह सुशांत का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छांव देती रही. सुशांत की मेहनत रंग लाई, कुछ समय बाद सफलता सुशांत के कदम चूमने लगी थी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का काफी नाम हो गया, वहां उन की व्यस्तता इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ अपने नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच नीरजा ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रही थी.

सुशांत के लिए उस का अपना काम था और नीरजा के लिए उस के बच्चे व सामाजिकता का निर्वाह. अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद की शादी के बाद नीरजा और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो कर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे. सुशांत के लिए पत्नी का अस्तित्व सिर्फ इतना भर था कि सुशांत समयसमय पर उसे ज्वेलरी, कपड़े गिफ्ट कर देते थे. नीरजा का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की सुशांत ने कभी कोशिश नहीं की.
जिंदगी ने सुशांत को एक मौका दिया था, कभी कोई फरमाइश न करने वाली उन की पत्नी नीरजा ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से वाकिफ भी कराया था, लेकिन वे ही उस के दिल का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे.

उस दिन नीरजा का जन्मदिन था. उन्होंने प्यार जताते हुए उस से पूछा था, ‘बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’ तब नीरजा के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा, ‘‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हो, अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए… ‘‘

सुशांत बोले, “वह भी मिल जाएगा, सिर्फ कुछ साल मेहनत कर लूं और अपनी और बच्चों की लाइफ सेटल कर लूं, फिर तो तुम्हारे साथ समय ही समय गुजारना है,’’ कहते हुए सुशांत ने नीरजा को एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा कर काम पे चला गया.

नीरजा ने फिर भी कभी सुशांत से कुछ नहीं कहा था. रवि भी सुशांत के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी कलीग गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई.

अब सुशांत को बेटेबहू का सहयोग भी मिलने लगा, फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. सुशांत व नीरजा अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो गए, लेकिन परिस्थिति आज भी पहले की ही तरह थी.

नीरजा अब भी सुशांत के सान्निध्य को तरस रही थी, लेकिन सुशांत कुछ वर्ष और काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.
शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता, अगर नीरजा बीमार न पड़ती.

एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम में थे, तब नीरजा चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब घबड़ा कर घर आए, फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला, जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि नीरजा को ओवेरियन कैंसर है.

सुशांत यह सुन कर घबरा गए, मानो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को नीरजा की रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘‘सुशांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देरी से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफें छिपाई होंगी, अब तो इन का कैंसर चौथे स्टेज पर है, यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है, चाहो तो सर्जरी और कीमियोथेरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है इन के पास, उस में ही इन को खुश रखो.’’

यह सुन कर सुशांत को लगा कि उस के हाथपैरों से दम ही निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि नीरजा इतनी जल्दी इस तरह उन्हें दुनिया में अकेली छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. सुशांत की हर छोटी जरूरतों को उन के कहने के पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर सुशांत को लगा कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितनी बड़ी गलती कर दी थी. नीरजा के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की, उसे कभी महत्त्व ही नहीं दिया सुशांत ने, उन के लिए तो वह बस एक मूक सहचरी ही थी, जो उन की जरूरत के लिए हर वक्त उन की नजरों के सामने मौजूद रहती थी, इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी सुशांत ने नीरजा को.

आज प्रकृति ने न्याय किया था. सुशांत को अपनी की हुई गलतियों की कड़ी सजा मिल रही थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागतेभागते उन की जिंदगी गुजरी थी, जिस का उन्हें बेहद गुमान भी था, आज उन का सारा गुमान व शान तुच्छ लग रहा था.

अब जब उन्हें पता चला कि नीरजा के जीवन का बस थोड़ा ही समय बाकी रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा अहम हिस्सा थीं. नीरजा के बिना जीने की कल्पनामात्र से ही वे सिहर उठे.

महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा नीरजा को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अब अपनी सारी सफलताएं उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’’ उन की बहू गीता कह रही थी.

सुशांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो, तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है, उस ने मेरे लिए बहुतकुछ त्याग किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हालत में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अंतिम समय में उस का साथ तो निभाऊं.’’

उस के बाद से सुशांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर नीरजा की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते, कभी कोई बुक पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ बैठ कर टीवी देखते. वे किसी भी तरह नीरजा के जाने के पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे. मगर वक्त उन के साथ नहीं था.

धीरेधीरे नीरजा की तबीयत और भी बिगड़ने लगी थी. सुशांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन के दिल की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बहती थी.

नीरजा की कमजोर काया और सूनी आंखें सुशांत के हृदय में शूल की तरह चुभती रहती. वे स्वयं को नीरजा की इस हालत का दोषी मानने लगे थे व उन के मन में नीरजा को खो देने का डर भी रहता. वे जानते थे कि दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस मर्मांतक क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा होगा जी,’’ नीरजा की आवाज से सुशांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा कि नीरजा का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी.

सुशांत ने चुपचाप चाय का कप उठाया, किचन में जा कर सिंक में चाय फेंक दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने को कहा. खिचड़ी भी मुश्किल से दो चम्मच ही खा पाई थी नीरजा ने. आखिर में सुशांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से लौट आए थे.’’

‘‘कैसी हो मम्मा?’’ रवि प्यार से नीरजा की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक ही हूं मेरे बच्चे,’’ मुसकराते हुए नीरजा उस के सिर पर हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

सुशांत ने देखा कि नीरजा के चेहरे पे असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनजान नहीं थी, परंतु फिर भी वह प्रसन्न ही रहती थी. जिस अनमोल सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रही थी. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस नीरजा के चेहरे पे दिखाई नहीं दे रहा था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचात पूछते रहे. उसे अपने दिनभर के काम के बारे में बताते रहे, फिर नीरजा का रुख देख कर सुशांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होंगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं है बेटा. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद नीरजा फिर आंखें मूंद कर लेट गई. सुशांत ने धीमी आवाज में टीवी औन कर दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग गई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा, नीरजा और अपने लिए दूध ही ले आएं. किचन में जा कर सुशांत ने 2 गिलास दूध गरम किया, तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में जा कर सो चुके थे.

‘‘नीरजा, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर सुशांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन नीरजा ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

सुशांत ने नीरजा की तरफ देखा. उस के सोते हुए चेहरे पर कितनी शांति झलक रही थी. सुशांत का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा, फिर वह चौंक पड़े, दोबारा माथेगालों को स्पर्श किया, तब उन्हें एहसास हुआ कि नीरजा का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी, बल्कि हमेशा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

सुशांत को जो डर इतने महीनों से डरा रहा था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए वे एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही नहीं आया कि वे क्या करें, फिर धीरेधीरे सुशांत की चेतना जागी, पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन कुछ सोच कर रुक गए. सारी उम्र नीरजा सुशांत के सान्निध्य के लिए तड़पी थी, लेकिन आज सुशांत एकदम तनहा हो गए थे. अब वे नीरजा के सामीप्य के लिए तरस रह थे. अश्रुधारा उन की आंखों से अविरल बहे जा रही थी. वे नीरजा की मौजूदगी को अपने दिल में महसूस करना चाह रहे थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे, क्योंकि बाकी की तनहा जिंदगी उन्हें अपने इसी दुखभरे एहसास के साथ व पश्चाताप के दर्द के साथ ही तो गुजारनी थी. सुशांत के पास केवल एक रात ही थी. अपने और अपनी प्राणों से भी प्रिय पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की दखलअंदाजी नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और निर्जीव नीरजा को अपने हृदय से लगा कर फूटफूट कर रोने लगे.

बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन सुशांत की आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी…
काश, सुशांत अपने जीवन के व्यस्त क्षणों में से कुछ पल अपनी प्रेयसी नीरजा के साथ गुजार लेते तो शायद आज नीरजा सुशांत को छोड़ कर दूर बहुत दूर नील गगन के पार नहीं जाती.

सुशांत के सान्निध्य की तड़प अपने साथ ले कर नीरजा हमेशा के लिए चली गई और सुशांत को दे गई पश्चाताप का असहनीय दर्द.

पारिवारिक सुगंध – भाग 2 : परिवार का महत्व

आज इस करोड़पति इनसान का इकलौता बेटा 2 कमरों के एक साधारण से किराए वाले फ्लैट में अपनी पत्नी शिखा के साथ रह रहा था. नर्सिंग होम से सीधे घर न जा कर मैं उसी के फ्लैट पर पहुंचा.

नवीन और शिखा दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे. इन दोनों ने प्रेम विवाह किया था. साधारण से घर की बेटी को चोपड़ा ने अपनी बहू बनाने से साफ मना कर दिया, तो इन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली थी.

चोपड़ा की नाराजगी को नजरअंदाज करते हुए मैं ने इन दोनों का साथ दिया था. इसी कारण ये दोनों मुझे भरपूर सम्मान देते थे.

चोपड़ा को दिल का दौरा पड़ने की चर्चा शुरू हुई, तो नवीन उत्तेजित लहजे में बोला, ‘‘चाचाजी, यह तो होना ही था.’’ रोजरोज की शराब और दौलत कमाने के जनून के चलते उन्हें दिल का दौरा कैसे न पड़ता?

‘‘और इस बीमार हालत में भी उन का घमंडी व्यवहार जरा भी नहीं बदला है. शिखा उन से मिलने पहुंची तो उसे डांट कर कमरे से बाहर निकाल दिया. उन के जैसा खुंदकी और अकड़ू इनसान शायद ही दूसरा हो.’’

‘‘बेटे, बड़ों की बातों का बुरा नहीं मानते और ऐसे कठिन समय में तो उन्हें अकेलापन मत महसूस होने दो. वह दिल का बुरा नहीं है,’’ मैं उन्हें देर तक ऐसी बातें समझाने के बाद जब वहां से उठा तो मन बड़ा भारी सा हो रहा था.

चोपड़ा ने यों तो नवीन को पूरी स्वतंत्रता से ऐश करने की छूट हमेशा दी, पर जब दोनों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई तो बाप ने बेटे को दबा कर अपनी चलानी चाही थी.

जिस घटना ने नवीन के जीवन की दिशा को बदला, वह लगभग 3 साल पहले घटी थी.

उस दिन मेरे बेटे विवेक का जन्मदिन था. नवीन उसे नए मोबाइल फोन का उपहार देने के लिए अपने साथ बाजार ले गया.

वहां दौलत की अकड़ से बिगडे़ नवीन की 1 फोन पर नीयत खराब हो गई. विवेक के लिए फोन खरीदने के बाद जब दोनों बाहर निकलने के लिए आए तो शोरूम के सुरक्षा अधिकारी ने उसे रंगेहाथों पकड़ जेब से चोरी का मोबाइल बरामद कर लिया.

‘गलती से फोन जेब में रह गया है. मैं ऐसे 10 फोन खरीद सकता हूं. मुझे चोर कहने की तुम सब हिम्मत कैसे कर रहे हो,’ गुस्से से भरे नवीन ने ऐसा आक्रामक रुख अपनाया, पर वे लोग डरे नहीं.

मामला तब ज्यादा गंभीर हो गया जब नवीन ने सुरक्षा अधिकारी पर तैश में आ कर हाथ छोड़ दिया.

उन लोगों ने पहले जम कर नवीन की पिटाई की और फिर पुलिस बुला ली. बीचबचाव करने का प्रयास कर रहे विवेक की कमीज भी इस हाथापाई में फट गई थी.

पुलिस दोनों को थाने ले आई. वहीं पर चोपड़ा और मैं भी पहुंचे. मैं सारा मामला रफादफा करना चाहता था क्योंकि विवेक ने सारी सचाई मुझ से अकेले में बता दी थी, लेकिन चोपड़ा गुस्से से पागल हो रहा था. उस के मुंह से निकल रही गालियों व धमकियों के चलते मामला बिगड़ता जा रहा था.

उस शोरूम का मालिक भी रुतबेदार आदमी था. वह चोपड़ा की अमीरी से प्रभावित हुए बिना पुलिस केस बनाने पर तुल गया.

एक अच्छी बात यह थी कि थाने का इंचार्ज मुझे जानता था. उस के परिवार के लोग मेरे दवाखाने पर छोटीबड़ी बीमारियों का इलाज कराने आते थे.

उस की आंखों में मेरे लिए शर्मलिहाज के भाव न होते तो उस दिन बात बिगड़ती ही चली जाती. वह चोपड़ा जैसे घमंडी और बदतमीज इनसान को सही सबक सिखाने के लिए शोरूम के मालिक का साथ जरूर देता, पर मेरे कारण उस ने दोनों पक्षों को समझौता करने के लिए मजबूर कर दिया.

हां, इतना उस ने जरूर किया कि उस के इशारे पर 2 सिपाहियों ने अकेले में नवीन की पिटाई जरूर की.

‘बाप की दौलत का तुझे ऐसा घमंड है कि पुलिस का खौफ भी तेरे मन से उठ गया है. आज चोरी की है, कल रेप और मर्डर करेगा. कम से कम इतना तो पुलिस की आवभगत का स्वाद इस बार चख जा कि कल को ज्यादा बड़ा अपराध करने से पहले तू दो बार जरूर सोचे.’

मेरे बेटे की मौजूदगी में उन 2 पुलिस वालों ने नवीन के मन में पुलिस का डर पैदा करने के लिए उस की अच्छीखासी धुनाई की थी.

उस घटना के बाद नवीन एकाएक उदास और सुस्त सा हो गया था. हम सब उसे खूब समझाते, पर वह अपने पुराने रूप में नहीं लौट पाया था.

फिर एक दिन उस ने घोषणा की, ‘मैं एम.बी.ए. करने जा रहा हूं. मुझे प्रापर्टी डीलर नहीं बनना है.’

यह सुन कर चोपड़ा आगबबूला हो उठा और बोला, ‘क्या करेगा एम.बी.ए. कर के? 10-20 हजार की नौकरी?’

‘इज्जत से कमाए गए इतने रुपए भी जिंदगी चलाने को बहुत होते हैं.’

‘क्या मतलब है तेरा? क्या मैं डाका डालता हूं? धोखाधड़ी कर के दौलत कमा रहा हूं?’

‘मुझे आप के साथ काम नहीं करना है,’ यों जिद पकड़ कर नवीन ने अपने पिता की कोई दलील नहीं सुनी थी.

बाद में मुझ से अकेले में उस ने अपने दिल के भावों को बताया था, ‘चाचाजी, उस दिन थाने में पुलिस वालों के हाथों बेइज्जत होने से मुझे मेरे पिताजी की दौलत नहीं बचा पाई थी. एक प्रापर्टी डीलर का बेटा होने के कारण उलटे वे मुझे बदमाश ही मान बैठे थे और मुझ पर हाथ उठाने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं हो रही थी.

‘दूसरी तरफ आप के बेटे विवेक के साथ उन्होंने न गालीगलौज की, न मारपीट. क्यों उस के साथ भिन्न व्यवहार किया गया? सिर्फ आप के अच्छे नाम और इज्जत ने उस की रक्षा की थी.

‘मैं जब भी उस दिन अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को याद करता हूं, तो मन शर्म व आत्मग्लानि से भर जाता है. मैं आगे इज्जत से जीना चाहता हूं…बिलकुल आप की तरह, चाचाजी.’

अब मैं उस से क्या कहता? उस के मन को बदलने की मैं ने कोशिश नहीं की. चोपड़ा ने उसे काफी डराया- धमकाया, पर नवीन ने एम.बी.ए. में प्रवेश ले ही लिया.

इन बापबेटे के बीच टकराव की स्थिति आगे भी बनी रही. नवीन बिलकुल बदल गया था. अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने में उसे बिलकुल रुचि नहीं रही थी. किसी भी तरह से बस, दौलत कमाना उस के जीवन का लक्ष्य नहीं रहा था.

फिर उसे अपने साथ पढ़ने वाली शिखा से प्यार हो गया. वह शिखा से शादी करना चाहता है, यह बात सुन कर चोपड़ा बेहद नाराज हुआ था.

‘अगर इस लड़के ने मेरी इच्छा के खिलाफ जा कर शादी की तो मैं इस से कोई संबंध नहीं रखूंगा. फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी इसे मेरी दौलत की,’ ऐसी धमकियां सुन कर मैं काफी चिंतित हो उठा था.

दूसरी तरफ नवीन शिखा का ही जीवनसाथी बनना चाहता था. उस ने प्रेमविवाह करने का फैसला किया और पिता की दौलत को ठुकरा दिया.

नवीन और शिखा ने कोर्ट मैरिज की तो मेरी पत्नी और मैं उन की शादी के गवाह बने थे. इस बात से चोपड़ा हम दोनों से नाराज हो गया पर मैं क्या करता? जिस नवीन को मैं ने गोद में खिलाया था, उसे कठिन समय में बिलकुल अकेला छोड़ देने को मेरा दिल राजी नहीं हुआ था.

नवीन और शिखा दोनों नौकरी कर रहे थे. शिखा एक सुघड़ गृहिणी निकली. अपनी गृहस्थी वह बड़े सुचारु ढंग से चलाने लगी. चोपड़ा ने अपनी नाराजगी छोड़ कर उसे अपना लिया होता तो यह लड़की उस की कोठी में हंसीखुशी की बहार निश्चित ले आती.

चोपड़ा ने मेरे घर आना बंद कर दिया. कभी किसी समारोह में हमारा आमनासामना हो जाता तो वह बड़ा खिंचाखिंचा सा हो जाता. मैं संबंधों को सामान्य व सहज बनाने का प्रयास शुरू करता, तो वह कोई भी बहाना बना कर मेरे पास से हट जाता.

वकीलनी-भाग3 : अमीरों को जाल में फंसाती श्यामा

वह घबरा सी गई, ‘‘वकील साहब ही उस समय बुलाते हैं.’’ मैं ने कहा, ‘‘पर यह समय तो अदालत का होता है. वह यहां कैसे रहते हैं?’’मैडम जिस दिन साहब के केस नहीं होते. उसी दिन बुलाते हैं.’’

‘‘यानी वे तुम्हें फोन करते हैं. आमतौर पर क्लाइंट ही फोन करते हैं वकीलों को,’’ मैं ने कड़क आवाज में पूछा. ये आवाज मैं ने अपने ससुर से सीख ली थी.

‘‘जीजी वे मु?ो अच्छे लगते हैं, इसलिए मैं उन की डायरी देखती रहती थी और उस दिन आती थी जिस दिन उन का अदालत में केस न हो,’’ वह सफाई देती बोली.

‘‘अभी तो तुम कह रही थी कि सुयश तुम्हें फोन कर के बुलाते हैं. अब उलटा कह रही हो. यह ?ाठ क्यों बोल रही हो,’’ मैं ने अपनी आवाज कड़क बनाए रखते हुए पूछा.

‘‘जीजी, कभी मैं फोन करती थी तो वे इस समय बुला लेते थे.’’

‘‘ये बुला लेते थे या तुम धमक जाती थी? सच बोलो?’’

‘‘नहीं मैडम मैं सच कह रही हूं. मैं तो वैसे ही रेप की मारी हूं. समाज में मेरी कोई इज्जत नहीं है. मैं भला किस खेत की मूली हूं,’’ वह रोआंसे शक्ल में बोली.

‘‘अच्छा अपना मोबाइल दो,’’ मैं ने उस का मोबाइल देते हुए कहा.

अब वह चौकन्नी हो गई. उसे पता लग गया कि मैं ने कुछ पकड़ा है. क्या, यह मु?ो नहीं मालूम. वह मु?ा से मोबाइल छीनने बढ़ी ही थी कि मैं ने डपट कर कहा, ‘‘चुप बैठ जाओ. साहब की असिस्टैंट और स्टाफ यहीं है. मेरे बुलाते ही आ जाएंगे.’’

अब वह अचानक रोने लगी, ‘‘मैडम साहब से हमें बचा लो. साहब हमें छेड़ते हैं कि हम उन के साथ सोएं वरना केस खराब कर देंगे… मोबाइल में देख लो. उन की रिकौर्डिंग की है.’’

अब मु?ो सम?ा आ गया कि सुयश इन दिनों क्यों परेशान दिखते हैं. यह औरत बहुत चालू है. इस ने रतन सिंह को फंसा दिया और अब सुसश से मुक्त में काम कराना चाहती है. उन्हें ब्लैकमेल कर रही है.

मैं ने श्यामा के फोन को देखा. उस पर पासवर्ड नहीं था. मैं ने देखा कि लास्ट कौल ‘वकील

जानू’ के नाम से दर्ज थी. मैं ने बटन दबा दिया और स्पीकर चालू कर दिया.

‘‘श्यामा यह क्या मखौल कर रही हो. जानती हो, तुम मु?ो ब्लैकमेल कर रही हो. वकील से उल?ाना ठीक नहीं. मैं ने तुम्हें ढील दी, बेचारी सम?ा कर, अब तुम मु?ा पर औडियो के नाम पर तोहमत लगा रही हो. मेरे पत्नी मीनाक्षी को पता चल गया तो बहुत बुरा होगा.’’

सुयश सोच रहे थे कि श्यामा ने बाहर जा कर उसे फोन करा है. मैं ने जोर से कहा, ‘‘सुयश, मैं मीनाक्षी. तुरंत बैडरूम में आओ. आशा और महिमा को भी ले आओ.’’

‘‘तुम्हारे पास श्यामा का फोन वैसे?’’ सुयश चकरा गए. फिर 1 मिनट में तीनों बैडरूम में थे.

मैं जानती थी कि अब मु?ो श्यामा को एक क्षण भी सफाई नहीं देने देनी है. मैं ने डपट कर कहा, ‘‘श्यामा खैरीयत इसी में है कि तुम सबकुछ उगल दो वरना तुम्हारी लाश भी घर से बाहर नहीं जाएगी. जानती हो न सुयश के डैड एसपी रह चुके हैं. उन के  हाथ बहुत लंबे हैं. तुम मेरी आड़ में सुयश के भोलेपन का फायदा उठा रही थी. मैं ही उस से कहती थी कि हमारे देश में रेप विक्टिम को कोई हैल्प नहीं करता. उन्हें समाज भी सपोट नहीं करता, फैमिली भी नहीं. कानून तो करे न्याय उन के साथ. तुम ?ाठे मुकदमे दायर करने में सुयश को पार्टनर बनाना चाहती थी या नहीं?’’

आखिरी बात मेरी अपनी थी, बिना किसी आधार के. पर लगा कि यह तीर सही जगह पर लगा. श्यामा गिर कर रोने लगी, ‘‘हां, मैडम मेरा ही दोष है. मैं ही वकील साहब को इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही थी. मैं तो वीडियो बना रही थी जब इन्होंने रोक लिया और मु?ो कमरे से भगा दिया जब आप ने मु?ो देखा था… मु?ो माफ  कर दो.’’

सुयश मुंह खोले सारा तमाशा देख रहे थे. श्यामा और बहुत कुछ बक रही थी. आशा और महिमा ने भी कई बातें बताईं.

मैं ने उस का सारा बयान उसी के मोबाइल पर रिकौर्ड कर लिया और अपनी 2 सहेलियों को भेज दिया जिन से अकसर फील्ड इंटरव्यू शेयर किया करती थी. श्यामा सम?ा गई थी. दहाड़ें मारमार कर रो रही थी.

‘सुयश तुम इस की फाइल वापस करो. यह लड़की किसी सिंपैथी की हकदार नहीं है.’’

अब पासा पलट चुका था. सुयश के चेहरे पर रौनक वापस आने लगी थी.

अगली रात जब श्यामा का किस्सा निबट गया तो सुयश बोले, ‘‘मीनाक्षी तुम

स्कूल छोड़ दो. मु?ो भरोसा है कि अब डैड की इनकम पर नहीं हम दोनों अपनी इनकम पर जी सकते हैं.’’

मैं अंचभे में सुयश का मुंह देखने लगी,‘‘हां हमारा बोर्ड होगा- ‘सुयश ऐंड मीनाक्षी कंपनी’ सुयश एलएलवी, एडवोकेट ऐंड मीनाक्षी सोशियोलौजिस्ट एडवाइजर स्पैशलिस्ट इन वूमन… हमारा मुकाबला कोई नहीं कर पाएगा. तुम सीनियर एडवाइजर, मैं जूनियर वकील.’’

मैं कुछ कहती, इस से पहले सुयश बोले ‘आईएम सौरी फौर विहेविंग नैस्टिली अर्लियर. यू आर ए जैम.’ तुम्हारे बगैर अधूरे हैं हम दो.

मैं ने कहा, ‘‘हां हम 2 नहीं 3.’’ और फिर पेट पर हौले से हाथ फेरा. सुयश खुशी से चिल्लाए, ‘‘आहवाह, क्या अच्छी खबर है, एक और वकील घर में.’’

‘‘कभी नहीं. मैं उसे कभी वकील नहीं बनने दूंगी. न जाने कौन श्यामा या रतन सिंह पल्ले पड़ जाए,’’ वह रात हमारी असली हनीमून की थी.

वकीलनी-भाग2 : अमीरों को जाल में फंसाती श्यामा

‘‘हां, श्यामा तो जिस समय रतन सिंह तुम्हारे खेत पर आया, तब तुम क्या रही थी?’’

मुवक्किला चुप थी. मैं ने थोड़ा सा परदा उठा कर उस स्त्री को देखा जिस को बलात्कार के मुकदमे में मेरे पति अदालत में दिया जाने वाला बयान सिखला रहे थे.

‘‘हां, बोलो, क्या कहोगी?’’

‘‘साहब, उस समय मैं खेत पर नहीं थी.’‘‘नहीं, श्यामा, यह बयान नहीं चलेगा. मुकदमा हारना है क्या? पुलिस में लिखे बयान को भूल जाओ. तुम्हें तो यह कहना है कि उस समय मैं खेत पर थी और तभी रतन सिंह…

‘‘ठीक है, साहब.’’

रात को मैं ने सुयश पति से पूछा, ‘‘क्यों, तुम्हारा यह सुबह वाला बलात्कार का मुकदमा सच्चा है या ?ाठा? किसी को फंसा तो नहीं रहे हो?’’

ये चौंक कर बोले, ‘‘लगता है तुम्हारी इस मुकदमे में काफी रुचि पैदा हो गई है.’’

‘‘नहींनहीं, भला मैं इस में क्यों रुचि लेने लगी? मैं तो यों ही जिज्ञासा शांत कर रही हूं.’’

ये सुन कर यह हंसने लगे. फिर कुछ देर बाद बोले, ‘‘मुकदमा तो एकदम सच्चा है, पर इन

लोगों ने आरंभ में पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराते समय अपने बयान बिगाड़ दिए हैं. उन्हें सुधारना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘जब इतनी बड़ी गलती हुई है तो तुम कैसे मुकदमा जीतोगे?’’

‘‘अरे, तुम तो वकील और न्यायाधीश की भी बाप हो गईं. यह धंधा तो ऐसा है कि जहां बूंद भर पानी न हो, वहां समुद्र साबित करना पड़ता है.’’

उस समय मेरी सलाह को इन्होंने हवा में उड़ा दिया था.

एक बार मैं ने पूछा था, ‘‘जिंदगीभर ससुरजी के बूते पर जीने का इरादा है? भला इस में हमारी कौन सी शान है? धोती लाना हो तो बाबूजी रुपए देगे. पिक्चर जाना हो तो बाबूजी की इजाजत लो. मैं तो आप की तनख्वाह में जीना चाहती हूं.’’

‘‘लो, तुम तो आते ही घर फोड़ने की बात करने लगीं,’’ इन्होंने बात का पैंतरा बदलत हुए कहा.

‘‘छि:छि:… कितना गलत सोचते हैं आप,’’ मैं रोआंसे स्वर में अपना अगला सु?ाव भी कह गई.

अच्छा जाने दो, पर क्या आप किन्हीं विशिष्ट मामलों के नामी वकील बन कर नहीं कमा सकते? बताइए, आप किन मामलों के विशेषज्ञ बनना पसंद करेंगे.’’

इन्होंने क्रोधित होते मेरे प्रस्ताव की धज्जियां उड़ा दीं, ‘‘बाप रे, वकील मु?ो नहीं तुम्हें होना चाहिए था. देखो, बाकायदा डिगरी मैं ने ली है, तुम ने नहीं. फालतू बहस मत करो. और हां, आगे भी ऐसी ऊलजलूल बातों से दिमाग मत खराब करना.’’

ये सब सुन कर मु?ो चोट तो लगी और सुयश ने मु?ो किसी मुवक्किल को डांटने वाले अंदाज

में फटकार कर मेरा जो अपमान किया, उसे मैं काफी दिन तक नहीं भुला सकी.

मैं ने उसी दिन कान पकड़ कर प्रण कर लिया था कि अब चाहे जो हो इन से कभी जबान नहीं लड़ाऊंगी. पर हां, मेरी जो औलाद होगी उसे वकील कभी नहीं बनाऊंगी.

2- महीनों वर्षों में इन आंखों ने बहुत देखा है. नकली व्यस्तता का भाव जता कर इन का मु?ा से कन्नी काटना, वकालत न चलने पर भी ?ाठा रोब और वकील होने की शेखी बघारना.

मैं तो पते की बात कहती हूं कि यदि बाबूजी न होते तो क्या होगा? ससुरजी के दम पर ही यह गुलछर्रे उड़ा रहे हैं. इन की चेहरे की चमक का राज दरअसल इन के पिता ही हैं.

कुछ दिन बाद मैं ने देखा कि श्यामा फिर आने लगी है. मु?ो लगा कि उस केस की तारीखें पड़ती होंगी, इसलिए आ रही है.

‘यह श्यामा कितनी फीस देनी वाली है?’’ मैं ने एक दिन उत्सुकता से पूछा.

‘‘यही कोई 50 हजार. 20 हजार पेशगी दे गईर् है. तुम क्यों पूछ रही हो?’’

‘‘यों ही, उस के लटकों?ाटकों से लग रहा था कि वह खेलीखाई है और उस का रेप शायद नहीं हुआ होगा,’’ मैं बोली.

सुयश कुछ चौंके, फिर बोले, ‘‘हां मामला रजामंदी का है. इस श्यामा ने रतन सिंह को खुद ही बुलाया था. ये दोनों कई बार मिले और कई बार दोनों में संबंध हुआ होगा, ऐसा मु?ो लगता है. श्यामा ने रतन सिंह के खेत पर आते हुए अपने मोबाइल पर खींचे फोटो दिखाए थे तो उन में यह रेपिस्ट के मूड में नहीं लग रहा था.’’

फिर कुछ रुक कर सुयश ने कहा, ‘‘श्यामा एक कौंस्टेबल की बेटी है जो कि डैडी के साथ कार्य कर चुका है. इसलिए मैं ने उस का केस लिया है. वैसे ही दिखने में पटाका लगती है. मु?ो नहीं लगता कि इस ने कभी खेतों में काम किया होगा. कुछ तो छिपा रही है.’’

कुछ ही महीनों में श्यामा फिर आई. इस बार वह जींसटौप में थी. मु?ो बाहर मिली जब मैं स्कूल जा रही थी. गहरी लिपस्टिक, उन्नत वक्ष, तना बदन. रोमरोम उस का अटै्रक्ट कर रहा था. मु?ो कुछ

संदेह हुआ कि यह सुबहसुबह क्यों आई. पर मैं जल्दी में थी, इसलिए चली गई.

अगले दिन से देखा सुयश कुछ परेशान नजर आ रहे थे. मैं ने कई बार कुरेदा तो बोले, ‘‘नहीं कोई बात नहीं.’’

उन की असिस्टैंटों को टटोला तो पता चला कि साहब श्यामा के साथ 2-2 घंटे बैठे केस की तैयारी करते रहे थे. कई बार उन्हें भी आने नहीं देते थे. श्यामा अकसर कमरा बंद कर देती थी.

‘‘हमें श्यामा ने कहा कि इस मामले में रतन सिंह ने कई जासूस छोड़ रखे हैं. न जाने कौन क्लाइंट की शक्ल में आ कर हमारी बात सुन ले. मैडम, आप जानती हैं न कि नौकर के बाहर के कमरे में ही क्लाइंट बैठते हैं और हमें भी पता नहीं होता कि कौन कहां से क्यों आया जब तक उन की फाइल तैयार न हो.’’

मुझे कुछ खटका लगा. कहीं कुछ चक्कर है. 2 दिन बाद श्यामा तब दिखाई दी जब वह बाहर जा रही थी और मैं स्कूल से आ रही थी. आज उस ने गांव की लड़कियों वाले कपड़े पहने हुए थे. चुन्नी सिर पर थी. बाल बिखरे हुए. मैं ने उसे रोक कर पूछा, ‘‘तुम श्यामा हो न? तुम्हारा रेप का केस है न?’’

वह कुछ सकपकाई, फिर पूछने लगी, ‘‘आप कौन?’’

‘‘मैं मिसेज सुयश की पत्नी वकीलनी. आओ तुम से बात करनी है. कमरे में चलो.’’

‘‘नहीं मैडम फिर किसी दिन आऊंगी. आज जल्दी में हूं’’

मैं ने जोर दिखाते हुए कहा, ‘‘नहीं आज ही. जो काम करना या जहां जाना है वह छोड़ दो. फोन कर दो कि तुम नहीं आ सकती.’’

मेरे तेवर देख कर शायद वह डर गई. मैं उस जैसा गांव की औरतों के बारे में बहुत कुछ

 

पढ़ चुकी थी और जानती थी कि ये किस व्यवहार से काबू में रहती हैं. वह चुपचाप मेरे पीछे चली आई.

इधरउधर, उस के घरगांव की बातों के बाद में मुद्दे पर आई, ‘‘तुम वकील साहब के यहां कई बार आई हो न?’’ ‘हां,’’ उस ने कहा.

‘‘तुम तभी क्यों आती हो जब मेरा स्कूल का समय होता है?’’ मैं ने तमक कर पूछा.

 

वकीलनी-भाग1 : अमीरों को जाल में फंसाती श्यामा

मैंबेहद गुस्से में उस दिन को कोस रही हूं जिस दिन मेरा प्रेम एक वकील से हुआ. मैं एमए कर रही थी. सोशियोलौजी में और सुयश वकालत पढ़ कर आ चुका था. मैट्रीमोनियल साइट से हमारी शादी हुई. मैं उस

से मिली और वह बेहद सुल?ा इंसान लगा तो 15-20 बार कौफी पर उस के पैसे खर्च करा कर मैं ने हां कर दी. कई दोस्तों ने पता किया और तारीफों के पुल बांधे. सुयश ने सब को पार्टियों में भी खूब खिलायापिलाया और सगाई हुई थी.

 

अपने मांबाप से ले कर उन तमाम रिश्तेदारों पर मु?ो बेहद गुस्सा आ रहा था कि मैं ने इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफैसर या किसी व्यापारी को नहीं ढूंढा. लेदे कर मेरे लिए ये वकील ही मिले, जिन के पेशे को गांधीजी जैसे संत भी भला नहीं सम?ाते थे.

 

वकालत का पेशा भी क्या पेशा? यों सम?िए कि यह चोरउचक्कों और बदमाशों की पैरवी की एक कला है जिस से घर तो भर जाता है, पर घर वालों के लिए यह मुसीबत ही है. सुबहसुबह कितने ही भले बनने का प्रण कर लो, फिर भी उठते ही ?ाठ का सामना करना पड़ता है अथवा बोलना पड़ता है. ?ाठ ही खाना, ?ाठ ही पहननाओढ़ना. सच मानिए वकील की पूरी दिनचर्या ही ?ाठ होती है.

 

उस जमाने की बात जाने दीजिए जब वकीलों की जमात ने इस देश को आजाद कराने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. उस समय नैतिकता मरी नहीं थी. आज तो गलीगली एडवोकेट का बोर्ड टांगने वाले इस पेशे के लोगों को ‘बार’ यानी कचहरी में वकीलों के उठनेबैठने के लिए विशेष रूप से बने कक्ष में बैठेबैठे मक्खियां मारते अथवा ताश के खेल में समय गुजारते देखा जा सकता है. आज समस्या आ खड़ी है कि इन का धंधा कैसे चले.

 

कुछ गिनेचुने बड़ेबड़े वकीलों की बात जाने दीजिए. जिन की दुकानदारी जम गई है और जिन्होंने बैंकों में बड़ीबड़ी रकमें जमा कर लेने के साथ कोठियां भी खड़ी कर ली हैं, पर क्या आप जानते हैं कि अधिकतर वकीलों को किन मुसीबतों का सामना करना पड़ता है? न्यायालय में धर्म की दुहाई देते हुए गीता, कुरानशरीफ या गंगाजल की कसमें खाई जाती हैं. पर हाय, चोरीछिपे मुकदमे के फैसले से ले कर सम?ौता कराने तक जो बंदरबांट वकील के मुंशी से ले कर ऊपर तक मची है वह क्या इस पेशे पर लानत भेजने को काफी नहीं है.

मु?ो इस बात का मलाल है कि इस गलत धंधे में सुयश मेरी शादी होने से पहले ही फंस गए अन्यथा मैं उन्हें अदालत की ओर मुंह कर के सोने भी न देती. मेरी नौकरी भी लग गई थी पर बहुत अच्छी नहीं. एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की थी.

सचाई यह है कि सुयश अपने स्वनामधन्य चाचाजी की प्रेरणा से हायर सैकंडरी के बाद एकदम कानून के क्षेत्र में कूद पड़े थे. वैसे उन्हें अपने पिता की संपत्ति तो घर बैठे स्वाहा करनी ही थी, किंतु खुद को निठल्ले न कहलाने के लिए वकालत की डिगरी प्राप्त कर ली थी. शायद शादी जल्दी करने का चक्कर भी इस के पीछे रहा हो.

ससुर जानेमाने एसपी रह चुके थे. अपने इकलौते पुत्र के लिए काफी संपत्ति तो इकट्ठी कर ही ली थी, लगे हाथ सुयश के एक सीनियर की फाइलें ढोते हुए उस के हाथ पीले करने की धुन में वे मेरे प्रोफैसर पिता से मेरा हाथ मांग बैठे थे.

फौजी जवान की तरह सुंदर, स्वस्थ, पढ़ालिखा नवयुवक और प्रतिष्ठित पर्सनैलिटी देखते ही मेरी बूआ की लार ऐसी टपकी कि उन्होंने पिताजी पर जादू सा कर दिया और मैं सुयश के पल्ले बांध दी गई.

मेरे अपने पिताजी के घर बड़े कानूनकायदे थे, हालांकि उन्होंने मु?ो एमए करा दिया था, पर मैं अपनी अम्मां के तेवरों के आगे कभी भी अपनी जबान न खोल सकी थी. सोशियोलौजी करते हुए भी मैं दब्बू की दब्बू रही थी.

मु?ो सुयश से मिलने को कहा गया, भाई रेस्तरां में छोड़ गया. वैसे वकीलों की नैतिकता में मु?ो जरा भी विश्वास नहीं है. आजकल इस धंधे वाले गलीगली में मारेमारे फिर रहे हैं. यह जमाना वैसे भी स्पर्धा का है. फिर वकालत जैसे पेशे में तो वकील को दिनरात यही खयाल करना पड़ता है कि मुवक्किल टूट कर दूसरे वकील के पास न चला जाए या प्रतिपक्षी का वकील अपने पक्ष में फैसला न करा ले. ऐसे में वह घर का खयाल कब रखेगा?

फिर आमदनी का भी कोई ठिकाना नहीं. यदि किसी दिन वकील साहब मेरे गले में सोने का हार पहना भी देंगे तो क्या? हमेशा यही डर लगा रहेगा कि न जाने कब फाकों के दिनों में मांग बैठें, ‘‘प्रिये, बुरा न मानो. कमबख्त समय बहुत बुरा है. लाओ, फिलहाल दूसरी बार का सिलसिला टाल दें और 2-4 साल निकाल लें. उस समय की हालत क्या होगी, आप क्या जानें?’’

मेरी बूआ बड़ी तेज हैं. मु?ो फंसाने को उन्होंने ही मैट्रीमोनियल साइट पर मेरा प्रोफाइल

डाला था और वही पिताजी की जगह मेरी गार्जियन बनी हुई थीं. उन्होंने सुयश के फोटो मेरे व्हाट्सऐप पर फौरवर्ड कर दिए. जैसे गुडि़या खिलौना देख बहल जाएगी. उन का खयाल था कि मैं होने वाले जीवनसाथी के धंधे के बारे में ज्यादा सोचविचार न कर के उन की सुंदर सूरत पर मर मिटूंगी. एक लड़की को यही सब तो चाहिए. सजीला, बांका, नौजवान. मेरी बूआ ने अपनी भतीजी को चारों खाने चित करने को यह ब्रह्मास्त्र खूब फेंका था.

मैं निरी बुद्धू तो थी नहीं, स्कूलकालेज में सर्वश्रेष्ठ वक्ता और विवादक के ढेर सारे पुरस्कार जीते थे. मेरी तार्किक शक्ति का सभी लोहा मानते थे, पर एक तो मैं ने इन उल?ानों के बारे में कभी सोचा भी नहीं था और दूसरे मां का रूख देख कर जबान पर ताले पड़ गए.

सुयश कुमार यानी वकील साहब ही अब मेरे भविष्य हैं. वर्तमान और अत: इन भविष्य प्रसाद से सम?ौते में ही भलाई थी वरना कुछ

और कर बैठती तो मेरे पीछे जाति, समाज में पिताजी की इज्जत खूब उछाली जाती. मैं ने कई सहेलियों को रोज बौयफ्रैंड बदलते देखा था. दरअसल, मेरा विद्रोह कोई भगतसिंह या सुभाषचंद्र बोस की बिरादरी में बैठने का तो

था नहीं. अच्छाखासा लड़का ढूंढ़ा जा रहा था.

सो मैं नानुकर कर के अपने को दकियानूसी होने का सुबूत कैसे देती? इसलिए चुप लगा गई

और एक  अच्छी लड़की की तरह विवाह की बलिदेवी पर निछावर हो गई.

मांबाप, बूआ से बहस करना व्यर्थ सम?ा मैं सपने लेने लगी कि पति को ही तैयार कर लूंगी कि जिंदगी के मिशन में कोरे वकील बनने का कोई मजा नहीं. आप का लक्ष्य तो जज बनना चाहिए.

 

मु?ो पूरा विश्वास था कि मैं जब छात्र जीवन में भाषण प्रतियोगिता के निर्णायकों को अपने तर्कों से प्रभावित कर ?ाका लेती थी तो क्या सुयश को उन के ही तेजस्वी भविष्य के लिए तैयार न कर पाऊंगी. इसलिए मैं सखीसहेलियों के मजाकों की परवा किए बगैर पूरे आत्मविश्वास के साथ गृहस्थाश्रम मै घुसी थी.

 

सचमुच सुयश ने मु?ो मोह भी लिया था. उन की लुभावनी सूरत व रसभरी (मीठी) बातों में वे सब गुण मिले जो एक अच्छे पति में होने चाहिए.

मगर विवाह के बाद कन्या होने तक घरगृहस्थी के सारे भाव मालूम हो गए. संयुक्त परिवार होने के कारण ससुरजी के बूते पर ही घर की गाड़ी चल रही है. सुयश की वकालत तो बस समय काटने का एक जरीया मात्र है. ससुरजी के बनवाए आलीशान ड्राइंगरूम के आधे हिस्से में सुयश का दफ्तर है जिस में उन की एक क्लर्क आया, टाइप करने वाली क्लर्क महिला और कानून की पुस्तकों की अलमारियों ने डेरा जमा रखा है. क्लाइंट्स के लिए कुरसियां लगी हैं और एक कोने में छोटा सा बोर्ड लगा है- ‘यहां मोबाइल साइलंट पर रखें, बीड़ी पीना मना है,’ इन के घर की बहू और सुयश की पत्नी बनने के बाद इन की अदालत की प्रैक्टिस का जायजा प्रथम बार कुछ ऐसे ही तो लिया था.

छुटकारा – भाग 2 : नीरज को क्या पता था

अगले हफ्ते संगीता का जन्मदिन भी आने वाला था. पिछली बार नीरज ने उसे लैदर का कोट दिलवाया था. इस बार उस ने अपनी प्रेमिका को नया मोबाइल दिलाने का वादा काफी पहले कर लिया था. करीब 30-35 हजार का यह खर्चा भी उसे उठाना था.अनुराधा की पगार के कारण उसे ऐसे फालतू खर्चों के लिए कभी बैंक में जमापूंजी में से कुछ भी कभी नहीं निकलवाना पड़ता था.

उस के अकाउंट में वैसे भी ज्यादा रुपए पिछले डेढ़दो सालों से बच नहीं रहे थे क्योंकि संगीता के ऊपर अपना बढि़या प्रभाव जमाए रखने के लिए उस ने काफी अनापशनाप खर्चा किया था.अनुराधा की पगार सिर्फ 1 महीने के लिए उसे उपलब्ध नहीं हुईर् थी और इतने कम समय में ही इन 2 खर्चों को ले कर उस का दिमाग भन्ना उठा था.संगीता से तो उस ने कुछ नहीं कहा, पर अनुराधा से वह कम खर्चा करने की जिद पकड़ कर खूब उल झा.‘‘आप तो हमेशा डंके की चोट पर कहा करते थे कि सिर्फ अपनी पगार के बलबूते पर आप सारा खर्चा आराम से उठा सकते हो.

मैं ने नौकरी करने से जुड़ी परेशानियां भी  झेलीं और कभी आप के मुंह से धन्यवाद तो सुना ही नहीं, बल्कि अपमानित जरूर हुई. अब मैं ने नौकरी छोड़ दी है और रोहित व मेरे सारे खर्चे आप को उठाने ही होंगे,’’ अनुराधा ने सख्त लहजे में अपनी बात कह कर खामोशी अख्तियार कर ली.नीरज खूब चीखताचिल्लाता रहा, पर उस ने उस के साथ बहस और  झगड़ा कतई नहीं किया. हार कर नीरज ने उसे रुपए दिए जरूर, पर ऐसा कर के उस ने अपनी सुखशांति गंवा दी.

पहली बार संगीता को कीमती तोहफा देना भी नीरज को खला. वह अपनी प्रेमिका से सीधेसीधे तो कुछ कह नहीं सका, पर आर्थिक कठिनाइयां उस का मूड खराब रखने लगीं.वह संगीता के सामने अपनी परेशानियों का रोना रोता. उन के बीच रोमांटिक वार्त्तालाप के बजाय बढ़ती महंगाई को ले कर चर्चा ज्यादा होने लगी. अनुराधा की हर मांग और रुपए खर्च करने का हर मौका नीरज का गुस्सा भड़का देता.‘‘सब ठीक चल सकता है, नीरज. मेरी सम झ से तुम जरूरत से ज्यादा परेशान रहने लगे हो. हर वक्त खर्चों का रोना रो कर तुम अपना और मेरा मूड खराब करना बंद करो, यार,

’’ सब्र का घड़ा भर जाने के कारण एक रात संगीता ने चिढ़ कर ये शब्द नीरज को सुना ही दिए.‘‘मेरी परेशानियों को न मेरी पत्नी सम झ रही है, न तुम,’’ नीरज ने फौरन नाराजगी प्रकट करी.‘‘तुम्हारी पत्नीका मु झे पता नहीं, पर मेरे जन्मदिन पर तुम मु झे मोबाइल मत दिलाना. उस खर्चे को बचा कर तुम्हारे चेहरे पर मुसकान लौट आए तो सौदा बुरा नहीं होगा.’’नीरज को लगा कि संगीता ने उस पर कटाक्ष किया है. उस ने चिड़ कर जवाब दिया, ‘‘मैं ने सचमुच ही गिफ्ट नहीं दिया, तो तुम्हारी मुसकान जरूर गायब हो जाएगी, मैडम.’’‘‘सुनो, नीरज,’’ संगीता ऊंची आवाज में बोली,

‘‘मैं तुम्हारे रुपए ऐंठने को तुम्हारे साथ नहीं जुड़ी हुई हूं. हमारे बीच प्रेम का संबंध न होता, तो तुम से सौ गुणा बड़ा धन्ना सेठ मैं बड़ी आसानी से फांस कर दिखा देती.’’

‘‘आईएम सौरी, डियर,’’ उस की नाराजगी व गुस्से से घबरा कर नीरज ने माफी मांगना ही बेहतर सम झा. यह बात जुदा है कि संगीता का मूड फिर उखड़ा ही रहा. नीरज ने उसे आगोश में भर का प्यार करने का प्रयास किया भी, पर उसे मजा नहीं आ रहा था.नीरज जब विदा ले कर उस के फ्लैट से निकला, तो पहली बार वह बड़बड़ा उठा था,

‘‘इन औरतों की कौम ही साली स्वार्थी होती है. इन का हंसनामुसकराना. इन का प्यार, इन की अदाएं, इन का सबकुछ रुपए से जुड़ा हुआ है.’’अनुराधा जिस दिन रोहित को ले कर अपने मामा के घर चली गई, उस के 2 दिन बाद संगीता का जन्मदिन आना था. नीरज ने शादी से सिर्फ 1 दिन पहले पहुंचने का फैसला किया था.‘‘मेरी अनुपस्थिति का गलत फायदा मत उठाना. मेरी कई सहेलियां मु झे तुम्हारी रिपोर्टदेती हैं,’’ अनुराधा ने चलते समय हलकी मुसकराहट के पीछे छिपा कर यह चेतावनी नीरज को दे डाली.‘‘मेरा मन जो कहेगा, मैं करूंगा,’’ नीरज चिड़ उठा.‘‘ऐसी बात है,

तो ठीक है मेरा मन मायके से कभी इस घर में लौटने का न हुआ, तो मेरा वह फैसला तुम भी स्वीकार कर लेना, पतिदेव.’’नीरज ने उस के स्वर की सख्ती को पहचान कर उस से आगे उल झने का इरादा त्याग दिया. गलत काम करने वाले के पास वैसे भी आंखों में आंखें डाल कर बोलने की हिम्मत नहीं होती है.

अनुराधा की अनुपस्थिति में नीरज ने रोज संगीता के फ्लैट पर जाने का कार्यक्रम बना लिया. अगले ही दिन उस ने संगीता को मोबाइल खरीदवा दिया, तो उस का मूड खुशी से खिल उठा. फिर संगीता ने अचानक 3 दिनों के लिए मनाली चलने की अपनी इच्छा उस के सामने जाहिर कर नीरज का दिल ही बैठा दिया.‘‘नहीं, यार, अभी और खर्चा करने की हिम्मत नहीं बची है,

’’ नीरज ने फौरन मनाली चलने से इनकार कर दिया था.‘‘क्रैडिट कार्ड्स हैं तो तुम्हारे पास. कुछ रुपए मैं ले चलूंगी साथ. प्लीज हां कहो न,’’ संगीता ने उस के गले में बांहें डाल कर प्यार से अनुरोध किया.‘‘मनाली चलना है तो इस ट्रिप का सारा खर्च इस बार तुम उठाओ.

मैं तुम्हें बाद में रुपए लौटा दूंगा.’’‘‘स्वीटहार्ट, क्रैडिट कार्ड…’’‘‘क्रैडिट कार्ड इमरजैंसी के लिए रखता हूं मैं. एक बार कार्ड के कर्जे में उल झा, तो निकलना मुश्किल हो जाएगा. अनुराधा की नौकरी भी अब नहीं रही.’’‘‘अब उस की नौकरी छोड़ देने का रोना मत शुरू करो, प्लीज,’’ संगीता ने बड़े नाटकीय अंदाज में हाथ जोड़ दिए.‘‘तब तुम भी मनाली जाने की जिद छोड़ दो.’’

‘‘ठीक है, अब यहीं मरेंगे दिल्ली कीगरमी में.’’‘‘यह तो हुआ नहीं कि मनाली का ट्रिप तुम फाइनैंस करने को राजी हो जाती. अरे, क्या एक बार का खर्च तुम नहीं कर सकती हो?’’‘‘कर सकती हूं, पर प्रेमिका की दौलत पर ट्रिप का आनंद उठाना क्या तुम्हारे जमीर को स्वीकार होगा?’’‘‘तुम ने यह सवाल पूछ लिया है, तो अब बिलकुल स्वीकार नहीं होगा क्योंकि तुम्हारी सोच अब मेरी सम झ में आ गई है.’’‘‘क्या सोच है मेरी?’’ संगीता के माथे में बल पड़ गए.‘‘यही कि हमारी मौजमस्ती तभी संभव है जब मेरा पर्र्स नोटों से भरा रहे.’’‘‘ऐसी बात मुंह से निकाल कर तुम मेरा अपमान कर रहे हो, नीरज. तुम मेरे चरित्र को घटिया बता रहे हो.’’‘‘अब छोड़ो भी इस बहस को और ्रचलो कोई फिल्म देख कर आते हैं,’’ परेशान नीरज ने वार्त्तालाप का विषय बदलने कीकोशिश करी.‘‘सौरी, मैं तुम्हारा 5-6 सौ का खर्चा भी नहीं कराऊंगी. वैसे भी मेरा सिर अचानक दर्द से फटने लगा है.’’‘‘तुम्हारे सिरदर्द के पीछे मनाली न जाने का मेरा फैसला है, यह बात मैं खूब सम झ रहा हूं.’’

पारिवारिक सुगंध – भाग 1 : परिवार का महत्व

रिश्तों की सुगंध ही जीवन में सुखशांति लाती है. लेकिन राजीव अपनी धनदौलत के घमंड में डूबा रहता. रिश्तों की अहमियत उस के लिए कोई माने नहीं रखती थी. परिवार, सगेसंबंधी होते हुए भी वह खाली हाथ था. साथ था तो केवल एक दोस्त.

अपने दोस्त राजीव चोपड़ा को दिल का दौरा पड़ने की खबर सुन कर मेरे मन में पहला विचार उभरा कि अपनी जिंदगी में हमेशा अव्वल आने की दौड़ में बेतहाशा भाग रहा मेरा यार आखिर जबरदस्त ठोकर खा ही गया.

रात को क्लिनिक कुछ जल्दी बंद कर के मैं उस से मिलने नर्सिंग होम पहुंच गया. ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर से यह जान कर कि वह खतरे से बाहर है, मेरे दिल ने बड़ी राहत महसूस की थी.

मुझे देख कर चोपड़ा मुसकराया और छेड़ता हुआ बोला, ‘‘अच्छा किया जो मुझ से मिलने आ गया पर तुझे तो इस मुलाकात की कोई फीस नहीं दूंगा, डाक्टर.’’

‘‘लगता है खूब चूना लगा रहे हैं मेरे करोड़पति यार को ये नर्सिंग होम वाले,’’ मैं ने उस का हाथ प्यार से थामा और पास पड़े स्टूल पर बैठ गया.

‘‘इस नर्सिंग होम के मालिक डाक्टर जैन को यह जमीन मैं ने ही दिलाई थी. इस ने तब जो कमीशन दिया था, वह लगता है अब सूद समेत वसूल कर के रहेगा.’’

‘‘यार, कुएं से 1 बालटी पानी कम हो जाने की क्यों चिंता कर रहा है?’’

‘‘जरा सा दर्द उठा था छाती में और ये लोग 20-30 हजार का बिल कम से कम बना कर रहेंगे. पर मैं भी कम नहीं हूं. मेरी देखभाल में जरा सी कमी हुई नहीं कि मैं इन पर चढ़ जाता हूं. मुझ से सारा स्टाफ डरता है…’’

दिल का दौरा पड़ जाने के बावजूद चोपड़ा के व्यवहार में खास बदलाव नहीं आया था. वह अब भी गुस्सैल और अहंकारी इनसान ही था. अपने दिल के दौरे की चर्चा भी वह इस अंदाज में कर रहा था मानो उसे कोई मैडल मिला हो.

कुछ देर के बाद मैं ने पूछा, ‘‘नवीन और शिखा कब आए थे?’’

अपने बेटेबहू का नाम सुन कर चोपड़ा चिढ़े से अंदाज में बोला, ‘‘नवीन सुबहशाम चक्कर लगा जाता है. शिखा को मैं ने ही यहां आने से मना किया है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अरे, उसे देख कर मेरा ब्लड प्रेशर जो गड़बड़ा जाता है.’’

‘‘अब तो सब भुला कर उसे अपना ले, यार. गुस्सा, चिढ़, नाराजगी, नफरत और शिकायतें…ये सब दिल को नुकसान पहुंचाने वाली भावनाएं हैं.’’

‘‘ये सब छोड़…और कोई दूसरी बात कर,’’ उस की आवाज रूखी और कठोर हो गई.

कुछ पलों तक खामोश रहने के बाद मैं ने उसे याद दिलाया, ‘‘तेरे भतीजे विवेक की शादी में बस 2 सप्ताह रह गए हैं. जल्दी से ठीक हो जा मेरा हाथ बंटाने के लिए.’’

‘‘जिंदा बचा रहा तो जरूर शामिल हूंगा तेरे बेटे की शादी में,’’ यह डायलाग बोलते हुए यों तो वह मुसकरा रहा था, पर उस क्षण मैं ने उस की आंखों में डर, चिंता और दयनीयता के भाव पढ़े थे.

नर्सिंग होम से लौटते हुए रास्ते भर मैं उसी के बारे में सोचता रहा था.

हम दोनों का बचपन एक ही महल्ले में साथ गुजरा था. स्कूल में 12वीं तक की शिक्षा भी  साथ ली थी. फिर मैं मेडिकल कालिज में प्रवेश पा गया और वह बी.एससी. करने लगा.

पढ़ाई से ज्यादा उस का मन कालिज की राजनीति में लगता. विश्वविद्यालय के चुनावों में हर बार वह किसी न किसी महत्त्वपूर्ण पद पर रहा. अपनी छात्र राजनीति में दिलचस्पी के चलते उस ने एलएल.बी. भी की.

‘लोग कहते हैं कि कोई अस्पताल या कोर्ट के चक्कर में कभी न फंसे. देख, तू डाक्टर बन गया है और मैं वकील. भविष्य में मैं तुझ से ज्यादा अमीर बन कर दिखाऊंगा, डाक्टर. क्योंकि दौलत पढ़ाई के बल पर नहीं बल्कि चतुराई से कमाई जाती है,’ उस की इस तरह की डींगें मैं हमेशा सुनता आया था.

उस की वकालत ठीक नहीं चली तो वह प्रापर्टी डीलर बन गया. इस लाइन में उस ने सचमुच तगड़ी कमाई की. मैं साधारण सा जनरल प्रेक्टिशनर था. मुझ से बहुत पहले उस के पास कार और बंगला हो गए.

हमारी दोस्ती की नींव मजबूत थी इसलिए दिलों का प्यार तो बना रहा पर मिलनाजुलना काफी कम हो गया. उस का जिन लोगों के साथ उठनाबैठना था, वे सब खानेपीने वाले लोग थे. उस तरह की सोहबत को मैं ठीक नहीं मानता था और इसीलिए हम कम मिलते.

हम दोनों की शादी साथसाथ हुई और इत्तफाक से पहले बेटी और फिर बेटा भी हम दोनों के घर कुछ ही आगेपीछे जन्मे.

चोपड़ा ने 3 साल पहले अपनी बेटी की शादी एक बड़े उद्योगपति खानदान में अपनी दौलत के बल पर की. मेरी बेटी ने अपने सहयोगी डाक्टर के साथ प्रेम विवाह किया. उस की शादी में मैं ने चोपड़ा की बेटी की शादी में आए खर्चे का शायद 10वां हिस्सा ही लगाया होगा.

रुपए को अपना भगवान मानने वाले चोपड़ा का बेटा नवीन कालिज में आने तक एक बिगड़ा हुआ नौजवान बन गया था. उस की मेरे बेटे विवेक से अच्छी दोस्ती थी क्योंकि उस की मां सविता मेरी पत्नी मीनाक्षी की सब से अच्छी सहेली थी. इन दोनों नौजवानों की दोस्ती की मजबूत नींव भी बचपन में ही पड़ गई थी.

‘नवीन गलत राह पर चल रहा है,’ मेरी ऐसी सलाह पर चोपड़ा ने कभी ध्यान नहीं दिया था.

‘बाप की दौलत पर बेटा क्यों न ऐश करे? तू भी विवेक के साथ दिनरात की टोकाटाकी वाला व्यवहार मत किया कर, डाक्टर. अगर वह पढ़ाई में पिछड़ भी गया तो कोई फिक्र नहीं. उसे कोई अच्छा बिजनेस मैं शुरू करा दूंगा,’’ अपनी ऐसी दलीलों से वह मुझे खीज कर चुप हो जाने को मजबूर कर देता.

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