गुलाबो की मुसकान: वेलेंटाइन डे पर क्या हुआ उसके साथ

कालेज के लंचटाइम में हम सभी स्टाफ के साथ गपशप कर रहे थे कि अचानक मेरे कानों में आवाज आई, ‘मैडम, प्लीज यहां विटनैस में आप के साइन की जरूरत थी. दरअसल, मैं ने यहां पीजीटी (मैथ्स) के रूप में जौइन किया है. बैंक में अकाउंट के लिए बैंक वाले एक विटनैस मांग रहे हैं.’ मुझे उस के बोलने का लहजा, पहनावा अपनों जैसा लगा. पेपर मेरे सामने था, मैं न नहीं कर सकी. फौर्म पर हलके से नजर डाली, इंद्रेश बरेली. ‘ओह तो महाशय बरेली से हैं.’ यह बुदबुदाने के साथ साइन कर फौर्म दे दिया. सर ने थैंक्यू कहा और मुसकरा कर चले गए.

उन के मुड़ते ही एक जोरदार ठहाका लगा, ‘‘क्यों इंदु, इंद्रेशजी ने क्या राशि देख कर तुम्हारे साइन मांगे या फिर…?’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप लोग. उन्होंने तो आगे बढ़ाया था पेपर, अब वह मैं सामने पड़ गई तो वे क्या करते या मैं क्या करती,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो इतनी जल्दी फेवर भी होने लगा,’’ दूसरी टीचर साथी ने कहा. टन…टन…टन तभी घंटी बज गई, हम सभी अपनेअपने क्लास में चले गए.

लेकिन मैं क्लास में जा कर भी क्लास में नहीं पहुंच सकी. गले में मफलर, पैंट, हां ये तो हमारे यहां जैसा ही है. ओह, मिट्टी, पानी और बोली में इतनी ताकत होती है कि आदमी दस की भीड़ में भी अपनों को पहचान लेता है. पर मैं तो उन्हें जानती भी नहीं. मैं ने साइन तो कर दिए हैं पर क्या? चलो, जो होगा, देखा जाएगा. मैं ने ऐसा सोच कर अपने को झटका पर विचारों की शृंखला हटने का नाम ही नहीं ले रही थी कि एक बच्चे ने कहा, ‘‘मैडम, क्लास ओवर हो गई.’’

मैं ने अपने शरीर को एक क्लास से ढकेल कर दूसरे क्लास में पहुंचा दिया. पूरा दिन इसी उधेड़बुन में निकल गया.

अगले दिन सुबह जब असेंबली के लिए सारे टीचर्स बच्चों के सामने खड़े थे, मेरी आंखें गेट पर लगी थीं. सामने से मुझे इंद्रेश सर तेजी से, कुछ शरमाए, घबराए, शांत, कुछ मुसकराते हुए आते दिखाई दिए. मैं ने कनखियों से उन्हें देखा. वे मुझ से कुछ दूरी पर आ कर खडे़ हो गए. उन्होंने मुझ से नमस्ते की तो मुझे अपने शहर की हवा चलती हुई महसूस हुई.

2-3 दिन बाद उन का अकाउंट खुल गया. वे मुझे धन्यवाद देने मेरे पास आए. तब पता चला उन के बारे में थोड़ाबहुत. मैं उस परदेश में 4 साल से रह रही थी. नौकरी के दौरान मेरे कुछ दोस्त भी बने थे पर फिर भी आज पहली बार उन सब को पीछे छोड़ कर आखिर यह कौन था जिस को ले कर मैं सोचने लगी थी. वरना मैं, मेरा कमरा मेरा मोबाइल, मेरी डायरी. इस के सिवा मैं किसी को अपना कीमती वक्त देना पसंद नहीं करती थी. आंखें नीची कर तेज चाल से जाने वाली मैं अब सड़कों पर किसी के साथ का इंतजार करने लगी थी.

3 महीने हो गए सर को जौइन किए हुए. अब हमारे बीच नियमित कुछ न कुछ बातों का आदानप्रदान होने लगा था. मैं छोटीमोटी चीजें बाजार से सर के द्वारा मंगवा लेती थी. वे चीजें देने के बहाने मेरे यहां आ जाया करते थे. हम चाय पीते हुए घर पर थोड़ी देर गपशप कर लिया करते थे. वे बहुत कम बोलते थे. दरअसल, वे मैथ्स के टीचर थे. मैं संगीत की. मुझे लिखनेपढ़ने में थोड़ी रुचि थी इसलिए मेरा अभिव्यक्ति पक्ष थोड़ा मजबूत था. हम एकदूसरे को सर और मैडम कह कर ही संबोधित करते थे.

वैसे तो मैं ने सपनों में किसी राजकुमार को देखा ही नहीं था. फिर भी मुझे बोलने वाले बिंदास लोग ही पसंद आते थे. पर फिर भी न जाने क्यों मैं सर से मिलने, उन से बात करने के बाद उन की छोटीछोटी बातों को सोचसोच कर खुश होने लगी थी. वे मेरी जिंदगी में बिना आहट किए दबेपांव प्रवेश कर चुके थे. मैं उन की तरफ खिंचने लगी थी. मैं जितनी बातूनी, चंचल, हंसमुख, वे उतने ही शांत, सौम्य, गंभीर. अब उन की मैथ में प्लस और माइनस का क्या रिजल्ट होता है, मैं जानना चाहती थी. एक दिन हम दोनों मेरे कमरे में बैठे चाय पी रहे थे तब मैं ने कहा कि कितने शांत हैं यह पहाड़ बिलकुल आप की तरह, मन करता है इस शांति के साथ हम देर तक यों ही बैठ कर चाय पीते रहें. मैं अपनी बात खत्म भी न कर पाई थी कि वे बीच में ही बोल पड़े, ‘‘यदि ज्यादा देर तक चाय पीनी है तो चलो कहीं बाहर घूमने चलते हैं.’’

यह बात उन के मुंह से सुन कर मैं अवाक् रह गई. वैसे तो हम पहाड़ों पर रहते थे. हमारा कालेज घाटी में था. पर हम दोनों ऐसे व्यवसाय से जुड़े थे कि उस जगह हम कहीं भी साथसाथ नहीं जा सकते थे.मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कहां चलेंगे हम, यहां तो पहाड़ों के अलावा कुछ है ही नहीं.’’ तो उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘पहाड़ों की ही तो जरूरत है, पहाड़ी से तुम्हें मांगना चाहता हूं, इसीलिए तो.’’ मेरा मन भावनाओं के अथाह सागर में गोते खाने लगा . अब तो जाना ही पड़ेगा.

उन की चंद अभिव्यक्तियों ने मुझे उन की दीवानी बना दिया था. जो मन में था वह बाहर आने लगा था. प्रेम परवान चढ़ने लगा था. वक्त तेजी से दौड़ रहा था.

‘‘मैडम, बड़े सर ने बुलाया है,’’ चपरासी क्लास में कहने आया. मैं तेजी से अपना बैग उठा कर पिं्रसिपल औफिस में पहुंची.

‘‘जी सर,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां मैडम, आप का ट्रांसफर और्डर आ गया है. आप को देहरादून मिल गया है. बधाई हो,’’ प्रिंसिपल सर ने कहा. ‘मुझे ट्रांसफर नहीं चाहिए,’ मैं लगभग बुदबुदाई.

‘‘जी?’’ सर ने कहा.

‘‘नहीं, कुछ नहीं सर, कब जौइन करना है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘विद इन अ वीक,’’ वे बोले.

मैं ने तेजी से अपना शरीर स्टाफरूम की तरफ ढकेला. टन…टन…टन छुट्टी की आवाज आई, मैं किसी से मिले बिना चुपचाप घर चली गई. तो क्या जिंदगी का एक अध्याय यहीं खत्म हुआ. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मैं यह ट्रांसफर लेना नहीं चाहती. मैं अभी एक ऐप्लीकेशन लिखती हूं. तभी अचानक फोन की घंटी से मैं स्वयं से बाहर निकली, ‘‘हैलो.’’

‘‘हां बेटा, मैं ने नैट पर देखा, तुम्हारा ट्रांसफर हो गया है. तुम अब घर आ जाओगी. चलो, अच्छा हुआ, मन बहुत परेशान रहता था. तुम्हें अकेला छोड़ तो रखा था पर…’’ पापा बोलते जा रहे थे. पर मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

मै इस घटना के बाद 2 दिन तक कालेज नहीं गई. तीसरे दिन सर, कुछ परेशान से घर पर आए, बोले, ‘‘क्या बात है मैडम, कालेज क्यों नहीं आईं? 4 दिन बाद तो आप वैसे भी जा रही हैं. फिर तो हम आप को देख नहीं पाएंगे.’’

मै फफक कर उन से लिपट गई. उन्होंने मुझे अपने से अलग करते हुए कहा, ‘‘मैं आप की आंखों में आंसू नहीं देख सकता. पर यह तो बताओ, आप क्यों रो रही हैं?’’

मैंने गुस्से से उन की तरफ देखा, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’

‘‘मैं जाना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों, तुम ने तो रिक्वैस्ट की थी?’’

‘‘हां, पर तब कुछ और बात थी.’’

‘‘और अब क्या बात है?’’

‘‘तो सबकुछ मुझ से ही कहलवाना चाहते हैं. जैसे आप मुझे अपना बनाना चाहते हैं वैसे ही मैं भी,’’ कहते हुए मेरी आंखें फिर भर आई थीं. मेरी बात सुन कर वे हंसे.

‘‘आप को हंसी आ रही है. मैं देहरादून नहीं जाऊंगी,’’ मैं लगभग चीखती हुई सी बोली.

‘‘तो तुम्हें अपने पर विश्वास नहीं है?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘पर विश्वास के बिना तो प्यार भी पूर्ण नहीं होता है,’’ उन्होंने कहा तो मैं कुछ नहीं बोली.

4 दिनों के बाद पापा आ गए. मैं अपना सामान पैक कर के जाने को तैयार हो गई. भीगी पलकों से स्टाफ ने विदाई दी. सभी बसस्टैंड तक छोड़ने आए. सर भी आए. मुझे मन ही मन ऐसा लगा जैसे मैं अपनी भावनाओं के हाथों छली गई थी. सर के चेहरे पर सामान्य भाव थे. तो क्या उन्हें मेरे अलग होने का दुख नहीं हुआ. रास्ते भर इसी ऊहापोह में मेरा श्रीनगर से देहरादून का सफर तय हो गया.

मैं ने नया कालेज जौइन कर लिया. मेरा नए कालेज में बिलकुल मन नहीं लग रहा था. मैं कालेज जाती और आ जाती, न किसी से बोलना न बतियाना. एक सप्ताह के बाद जब छुट्टी की घंटी बजी. मैं कालेज से बाहर निकली तो सर सामने खड़े थे. मैं ठिठक गई, ‘‘अरे…अरे, आप?’’ मैं ने कहा.

‘‘क्यों, भूल गई या आश्चर्य हुआ,’’ उन्होंने हंसते हुए कहा.

‘‘हां, नहीं तो, पर आप यहां कैसे?’’

‘‘तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाने को आया हूं.’’

उन की इस बात से मैं हतप्रभ रह गई.

‘‘कल मम्मीपापा तुम्हें देखने तुम्हारे घर आ रहे हैं. जरा सजसंवर कर उन के सामने जाना. और हां, बोलना थोड़ा कम.’’

मैं शरमा गई. फिर हम ने बाहर जा कर चाय पी. ‘‘और कालेज में सब ठीक है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मैं तुम्हारे आने के बाद कालेज ही नहीं गया. नहीं गया या यों समझो कि जाने का मन ही नहीं हुआ. तुम्हारे जाने के बाद ऐसा लगा कि अब मैं बिलकुल अकेला हो गया. कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘मांबाबा से अपने मन की बात बता कर बड़ी मुश्किल से तुम्हें देखने को राजी कर सका हूं. वे थोड़े परंपरावादी हैं पर तुम चिंता मत करो. मैं सही परंपराओं के निर्वहन पर विश्वास करता हूं और गलत का सख्त विरोध करता हूं. वैसे अंदर की बात यह है कि मेरी बहन नंदिनी को तुम पसंद हो. उस ने मम्मी को समझा कर तैयार कर लिया है. फिर भी आगे का खेल तुम्हारे हाथ में है.’’

मैं ने सर को इतना बोलते हुए और इतना खुश पहले कभी नहीं देखा था. वे हमेशा मुझे गंभीर, शांत से ही दिखे थे. पर हां, मैं नर्वस जरूर थी.

‘‘आप कमजोर लग रहे हैं,’’ मैं ने कहा पर उन्होंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया. बिना कहे भी उन की आंखों ने बहुतकुछ कह दिया. उन की आंखें भीगी थीं. मैं कितनी गलत थी जो सोचती थी कि मैं छली गई.

वे वापस घर चले गए. मैं ने मां को डरतेडरते घर जा कर यह बात बताई. मांपापा मुझ से बहुत प्यार करते थे, मुझ पर उन्हें पूरा विश्वास था. इसलिए उन्होंने कोई नकारात्मक बात नहीं कही और अगले दिन की तैयारी के लिए जुट गए.

मैं ने सर की पसंदीदा रंग की साड़ी पहनी. चाय ले कर जब कमरे में पहुंची तो सर के मम्मीपापा के साथ नंदिनी भी थी. मुझे आश्चर्य हुआ यह देख कर कि मैं ने नंदिनी से इस से पहले कई बार बात की थी. वह उछल पड़ी, मैं शरमा गई.

मुझे माहौल थोड़ा भारी सा लगा. न तो मम्मीपापा ने ही उन्हें प्रभावित करने की कोशिश की और न ही उन्होंने ही ज्यादा बात की. उन की मां ने मुझ से बस यह पूछा कि कभी बरेली अपने घर पर गई हो. मैं ने हंस कर कह दिया कि वहां कोई रहता ही नहीं है, इसलिए पापा हमें वहां कभी भी नहीं ले गए. बस, सर की बहन ही बातें करती रही थी.

उन के जाने के बाद मां ने कुछ परेशान होते हुए कहा, ‘साड़ी उतार दो और मन में पल रहे प्रेम को मार दो क्योंकि यह रिश्ता नहीं हो सकेगा.’’ मुझे आश्चर्य हुआ ऐसा क्या था जो मां को पसंद नहीं आया. मैं ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे हमारे परिवार को पसंद नहीं करेंगे,’’ जवाब पापा ने दिया था.

मैं पापा की तरफ मुड़ी, ‘‘पर उन्होंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा.’’

‘‘25 साल पहले ही कह दिया था जब तुम्हारे चाचा ने तुम्हारी चाची से अंतर्जातीय विवाह किया था. तुम्हारी चाची एक ऐसी जाति से हैं जिसे अपने समाज ने तिरस्कृत किया है. चाचाजी तो चाची से शादी कर के विदेश चले गए पर हमारे परिवार का हुक्कापानी अपनी जाति वालों ने बंद कर दिया. हम मां और पिताजी को ले कर देहरादून आ गए. तब से हम बरेली लौट कर नहीं गए. अपनों से दूर, अपनी मिट्टी से दूर, अपने रिश्तों से दूर. मां इसी गम को लिए साल भर के भीतर चल बसीं और पिताजीउन के 5 साल बाद. न चाचाजी को फिर कभी दोबारा देखा और न अपना घर,’’ पापा ने लंबी सांस ली. मां ने पापा के कंधे को पकड़ लिया.

पापा इन चंद लमहों में मुझे बूढ़े दिखाई देने लगे. मैं झल्लाई, ‘‘हुक्कापानी बंद पर पापा, यह तो अब ब्लैक ऐंड व्हाइट मूवी की स्टोरी जैसा लगता है. पापा इंटरनैट का जमाना है. लोग दूसरे प्लैनैट्स पर कालोनीज बनाने की सोच रहे हैं. क्या आज भी 25 साल पुरानी बातें माने रखेंगी? यह आप का पूर्वाग्रह है. आप परेशान न हों, देखना कल सर का ‘हां’ में फोन जरूर आएगा.’’ पाप मुसकराए और बोले, ‘‘बेटा, बदलाव की बयार चल जरूर रही है पर सब को छू नहीं पा रही है. तुम नहीं जानतीं, आज भी अपटूडेट दिखने वाले भी वैसे ही अनपढ़ हैं जैसे पहले थे. आज भी हम हर जाति के साथ अपना लंच शेयर नहीं करते. मैं नेतो अपने स्कूल में देखा है, बच्चों का एक समूह आज भी दीवार से चिपक कर जमीन पर बैठ कर चुपचाप अपना खाना खा लेता

है. यह जाति और छुआछूत की समस्या सदियों से चली आ रही है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहेगी जब तक इस देश के युवा स्वयं कोई ठोस कदम नहीं उठाते. हमें ठोस कदम के साथ आगे बढ़ना होगा.

मैं तुम्हारे चाचा की कुछ बातों से सहमत नहीं. उसे शादी कर के वहीं रहना था. यदि हम दो होते तो उस विरोध को आसानी से झेल लेते. आज मैं इसलिए दुखी नहीं हूं कि तुम्हारे चाचा द्वारा उठाया गया कदम तुम्हारे आगे परेशानी बन कर खड़ा है, बल्कि इसलिए कि तुम्हें तुम्हारी पसंद नहीं दिला पाऊंगा.’’

मैं संभल चुकी थी और अब मुझे चाचा के द्वारा जलाई मशाल को ले कर आगे बढ़ना था.

मैं ने अगले दिन सर को फोन किया और अपने इरादों को बताया. सर ने सिर्फ इतना कहा कि मैं अपने इरादों में मजबूत हूं. अब यह शादी सिर्फ प्यार को पाने के लिए नहीं, बल्कि युवाओं में जातिगत भावना से ऊपर उठने के लिए एक अलख जगाना है.’’ मैं ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी और इस जंग में हमेशा तुम्हारे साथ हूं.’’

इस बात को 1 वर्ष हो गया. उस के बाद न तो उन का कोई फोन आया, न ही कोई समाचार. मैं ने कई बार उन्हें फोन करने का प्रयास किया पर नंबर मिला ही नहीं. शायद, सब यहीं खत्म हो गया, मुझे अब ऐसा लगने लगा. लड़का व लड़की भावनाओं में बह कर शादी के बड़ेबड़े वादे तो कर लेते हैं पर रूढि़वादी परंपराओं की दीवार तोड़ने का साहसी कदम नहीं उठा पाते.

फरवरी का महीना, कोहरा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैं कालेज जा रही थी. आज वैलेंटाइन डे था. कालेज में सभी के हाथ में गुलाब, ग्रीटिंग और खुशियां देखते ही बनती थीं. मैं धुंध की मोटी चादर में सिमटती जा रही थी. छुट्टी हो गई. लो, यह दिन भी खत्म हुआ. टिं्रगटिं्रग की आवाज से स्वयं से बाहर आई. पर्स से मोबाइल निकाला. अनफीडेड नंबर देख बेमन से ‘हैलो’ कहा.

‘‘हां, मैं बोल रहा हूं, हैपी वैलेंटाइन डे. बाहर निकलो, तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’

उधर से चिरप्रतीक्षित आवाज सुन कर चेहरा खिल गया. चाल तेज हो गई. बाहर आई. सर खड़े हुए थे. उन्हें देख मेरी आंखों में आंसू आ गए. उन से लिपट कर रोना चाहती थी. ‘हमेशा इतना इंतजार और सरप्राइज क्यों देते हैं आप?’ कहना चाहती थी. पर छुट्टी हो गई थी, बच्चे बाहर जा रहे थे, न कुछ कह सकी न कर सकी. बस, उन के साथ आगे बढ़ने लगी.

‘‘इतने दिनों बाद? नंबर क्या बदल लिया? कहां थे? कहां से आ रहे हो? क्या सब शादी के लिए राजी हो गए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘इतने सवाल एकसाथ पूछोगी तो कैसे बता पाऊंगा,’’ उन्होंने कहा.

मेरे बहुत समझाने पर वे शादी के लिए राजी हो गए हैं. मैं ने तुम्हारा ट्रांसफर भी कैंसिल करवा दिया है. पापा संडे को ‘रोके’ के लिए आ रहे हैं. नंदिनी ने अपने साथ प्रैक्टिस कर रहे डाक्टर को पसंद किया है. जब वे लोग नंदिनी का हाथ मांगने आए तअंतर्जातीय होने के बाद भी मांबाबा मना नहीं कर सके और उन्होंने मुझ से कहा कि फिर तुम ने क्या गलती की है. सो, वे शादी की बात आगे बढ़ाने के लिए आ रहे हैं. और हां, हम अपना रिसैप्शन बरेली में करेंगे ताकि तुम और तुम्हारे मम्मीपापा फिर से अपना खोया हुआ घर देख सकें. चलो, जल्दी करो, बस चल देगी.’’

मैं ने बस में बैठे हुए पूछा, ‘‘हम कहां जा रहे हैं?’’

‘‘शादी की तारीख निकलवाने,’’ वे हंसते हुए बोले.

मैं ने बस में बैठ कर बाहर देखा, धूप निकल आई थी, कोहरा छंट गया था. सड़कों पर लड़के और लड़कियों के हाथों में वैलेंटाइन डे के गुलाबों की मुसकान साफ नजर आ रही थी.

काश, मेरी बेटी होती- भाग 3: शोभा की मां का क्या था फैसला

‘‘अभी जल्दी क्या है मम्मी? आप तो, बस, शादी के पीछे ही पड़ जाते हो,’’ वह उठते हुए बोला. ‘‘मैं तु झे आज उठने नहीं दूंगी. 30 साल का हो गया, अभी शादी की उम्र नहीं हुई, तो कब होगी?’’

‘‘मम्मी. यह आप की ढूंढ़ी लड़कियां आखिर मु झे क्या पता कि ये कैसी हैं. एकदो मुलाकातों में किसी के बारे में कुछ पता थोड़े ही न चलता है.’’ ‘‘तो फिर कैसे देखेगा तू लड़की?’’

‘‘मैं जब तक लड़की को 2-4 साल देखपरख न लूं, हां नहीं बोल सकता.’’ ‘‘क्या मतलब?’’ शोभा आश्चर्यचकित हो बोली. ‘‘मतलब साफ है, मैं अरैंज्ड मैरिज नहीं करूंगा.’’

‘‘तो क्या तू ने कोई लड़की पसंद की हुई है?’’ ऋषभ बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया. शोभा उस के पीछेपीछे दौड़ी, ‘‘बोल ऋषभ, तू ने कोई लड़की पसंद की हुई है?’’

‘‘हां.’’ ‘‘तो फिर बताता क्यों नहीं, इतने दिनों से हमें बेवकूफ बना रहा है.’’ ‘‘बेवकूफ नहीं बना रहा हूं. बता इसलिए नहीं रहा था कि मेरी पसंद को आप लोग पसंद कर पाओगे या नहीं.’’

‘‘तेरी पसंद अच्छी होगी तो क्यों नहीं पसंद करेंगे. पर तू विस्तार से बताएगा उस के बारे में.’’ ‘‘क्या सुनना है आप को? लड़की सुंदर है, शिक्षित है. मेरी तरह इंजीनियर है. ठीकठाक सा परिवार है पर…’’‘‘पर क्या?’’

‘‘अगर आप के शब्दों में कहूं तो वह छोटी जाति की है. उसी जाति की जिन जातियों के आरक्षण का मुद्दा हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है और जिन जातियों पर देश की राजनीति हमेशा गरम रहती है और पापा का ब्राह्मणवाद… वह तो घर के नौकरचाकरों तक पर हावी रहता है. वे तो चाहते हैं कि घर में नौकर भी हो तो ब्राह्मण हो. ऐसी स्थिति में…? और मैं कहीं दूसरी जगह शादी कर नहीं सकता. इसलिए आप मेरी शादी की बात तो भूल ही जाओ.’’

शोभा का मुंह खुला का खुला रह गया. उस की स्थिति देख कर ऋषभ परिहास सा करता हुआ बोला, ‘‘इसीलिए कहता हूं मु झे ही बेटा व बहू दोनों सम झ लो और मस्त रहो,’’ कह कर वह कमरे से बाहर चला गया.

शोभा जड़ खड़ी रह गई. रक्षा और जयंति के बच्चों ने तो उन का सुखचैन ही छीना था पर उस के बेटे ने तो उसे जीतेजी ही मार दिया. घर से भी साधारण और जाति से भी छोटी. जिस लड़की के आने से पहले ही दिल में फांस चुभ गई हो, दिलों में दीवार खड़ी होने की पूरी संभावना पैदा हो गई. उस के घर में आने पर क्या होगा, सोचा जा सकता है. बेटा तो फिर से अपनी दिनचर्या में मस्त और व्यस्त हो गया पर उसे ज्वालामुखी के शिखर पर बैठा गया. उसे पता था, बेटे के हाथ पीले करने हैं तो बात तो माननी ही पड़ेगी. वह पति से बात करने की कूटनीति तैयार करने लगी. बहुत मुश्किल था सुकेश के ब्राह्मणवाद से लड़ना. कई बार तो उस की खुद की भी बहस हो जाती थी इस बात पर सुकेश से. पर उसे नहीं पता था कि ऋषभ उसे इस नैतिक दुविधा में डाल देगा.

खैर डरतेघबराते जब उस ने सुकेश को बताया तो घर कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया. युद्ध का आगाज हो जाने के कारण वह बिना किसी जतन के बेटे के पाले में फेंक दी गई. और सुकेश अपने पाले में अकेले रह गए. नित तोपगोले दागे जाते. दोनों पक्ष व्यंग्यबाणों से एकदूसरे को घायल करने में कोताही न बरतते. कई तरह के तर्कवितर्क होते पर महिला सशक्तीकरण का भूत कुछकुछ शोभा के दिमाग को वशीभूत कर चुका था, इसलिए वह डटी रही. आखिर सुकेश को अपने तीरतरकश जमीन पर रखने ही पड़े. असहाय शत्रु की तरह वे शरण में आ गए इस शर्त पर कि विवाह के बाद बेटेबहू ऊपर के पोर्शन में रहेंगे. इस बात को ऋषभ व शोभा दोनों मान गए और दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद विवाह विधिविधान से संपन्न हो गया.

 

ऋषभ ने अपने कपड़ों की अटैची उठाई और दान में मिले पलंग व 4 बरतनों के साथ एक गैस का चूल्हा खरीदा और ऊपर के पोर्शन में अपनी गृहस्थी बसा ली. शोभा तो बहू को ले कर पहले ही कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी, ऊपर से छोटी जाति की लड़की. हालांकि वह बहुत ज्यादा जातिवाद नहीं मानती थी पर फिर भी इस स्तर की जाति तक जाना, रुढ़ीवादिता से ग्रसित उस का मन भी बहुत खुल कर बहू को अपना नहीं पा रहा था.  इसलिए उस ने भी पति सुकेश को मनाने की कोशिश नहीं की. बहूबेटे विवाह के अगले दिन 10 दिन के हनीमून ट्रिप पर निकल गए. उस ने भी विवाह के बाद के कार्य, रिश्तेदारों में मिठाईकपड़े वगैरह का लेनदेन निबटाया. अपने निकट रिश्तेदारों का इस विवाह में मूड जो उखड़ा था, उखड़ा ही रहा. वे कर भी क्या सकते थे. ‘बेटे की मरजी थी’ कह कर उन्होंने हाथ  झाड़ दिए थे. बच्चों के वापस आने का दिन पास आ रहा था. इसी बीच सुकेश औफिस की तरफ से एक हफ्ते की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई चले गए. उस के अगले दिन बेटेबहू हनीमून से वापस आ गए.

सुबह शोभा की देर से नींद खुली. उठ कर वह बाथरूम में फ्रैश होने चली गई. मुंह धो कर वह तौलिए से पोंछती हुई बाहर आ रही थी कि सुबहसुबह कोयल सी कुहुक कानों में मधुर संगीत घोल गई.

‘‘मां, चाय लाई हूं आप के लिए,’’ मुखड़े पर मीठी मुसकान की चाशनी घोले माधवी ट्रे लिए खड़ी थी. सुबहसुबह की धूप से उज्ज्वल मुखड़े पर स्निग्ध चांदनी छिटकी हुई थी.

‘‘पर तुम क्यों लाईं चाय, मैं खुद ही बना लेती,’’ शोभा को एकाएक सम झ नहीं आया, क्या बोले.

‘‘वो, ऋषभ ने कहा कि पापा नहीं हैं तो… आप पी लेंगी. नहीं पीना चाहती हैं तो कोई बात नहीं. मैं वापस ले जाती हूं.’’ मुखड़े की चांदनी जैसे मलिन हो गई. शोभा का हृदय द्रवित हो गया.

‘‘नहींनहीं, रख दो, मैं पी लूंगी.’’ खुश हो माधवी ने ट्रे साइड टेबल पर रख दी. मुखड़ा फिर से लकदक करने लगा. शोभा का दिल किया, बहू को खींच कर छाती से लगा ले पर नहीं, उंगली पकड़ कर उस की गृहस्थी में उस का अनाधिकार प्रवेश? सुकेश कभी भी बरदाश्त नहीं करेंगे. वह 2 मिनट खड़ी रही, फिर चली गई.

शोभा सुबह उठती और चाय की ट्रे ले कर माधवी उस के पास खड़ी हो जाती. न जयंति की बेटी सुबह उठती है न रक्षा की बहू. माधवी भी इंजीनियर है पर यह कैसे? अगले दिन रविवार था. लंच के समय माधवी कढ़ी का कटोरा लिए हाजिर हो गई. ‘‘मां, मैं ने कढ़ी बनाई है आज. खा कर देखिए, कैसी बनी है?’’

कढ़ी खाते हुए शोभा सोच रही थी, ‘इतनी स्वादिष्ठ कढ़ी? इंजीनियरिंग करतेकरते यह लड़की कब गृहस्थी के काम सीख गई. रात को भी माधवी कमल ककड़ी के कोफ्ते रख गई. उस की सुघढ़ता देख कर शोभा के दिल में सुनीसुनाई आजकल की बिगड़ैल बेटीबहुओं की छवि गड्डमड्ड हो रही थी. लड़की माधवी जैसी भी होती है. पर उसे ज्यादा भाव नहीं देना चाह रही थी क्योंकि सुकेश का ब्राह्मणवाद उस के समूचे प्यार व सपनों पर हावी हो रहा था.

दूसरे दिन कामवाली ने छुट्टी ले ली यह कह कर कि उसे अपने भाई के घर जाना है, शाम तक आ जाएगी. ऊपर भी वही काम करती थी. सुबह माधवी चाय रख गई. अभी शोभा चाय पी ही रही थी कि उसे किचन में बरतनों की खटरपटर की आवाज सुनाई दी. वह किचन में गई तो देखा, माधवी जल्दीजल्दी रात के बरतन धो रही है. यह क्या कर रही हो माधवी?

‘‘मां, आज कामवाली दीदी ने छुट्टी की है न, इसलिए बरतन धो रही हूं. ऊपर के तो मैं ने उठते ही धो लिए थे.’’

शोभा आश्चर्य व ममता से माधवी को निहारने लगी, तु झे औफिस के लिए देर नहीं हो रही?

‘‘नहीं, अभी तो टाइम है. बस, तैयार हो जाऊंगी जल्दी से,’’ बरतन रख कर, सिंक धो कर वह उस की तरफ पलटती हुई बोली.

जयंति और रक्षा को तो कितनी शिकायतें हैं अपनी बेटी और बहू से. पर माधवी, कितनी अलग है. उस की खुद की बेटी होती तो क्या ऐसी ही होती या उन के जैसी होती. दिल फिर किया, बहू को छाती से लगा ले, मनभर कर दुलार कर ले. पर सुकेश की बड़ीबड़ी गुस्सैल आंखें याद आ गईं. ‘नहींनहीं, शादी करा दी किसी तरह. बस, दोनों खुश रह लें आपस में. अब नहीं उल झना उसे.’

प्रश्नचिह्न- भाग 2: निविदा ने पिता को कैसे समझाया

मालिनी क्लास में भी उस की दोस्ती किसी दूसरे से नहीं होने देती. उस की दबंगता की वजह से दूसरी लड़कियां निविदा के आसपास भी नहीं फटकतीं. मालिनी उस से मनचाहा व्यवहार करती. उस का दब्बूपन उस के लिए कुतूहल का विषय था. ऐसी लड़की पढ़ने में इतनी होशियार कैसे थी कि उसे इस कालेज में प्रवेश मिल गया.

मालिनी की हरकतों की वजह से निविदा भी कई बार डांट खा जाती थी.

एक दिन मालिनी टीचर्स के जाने के बाद क्लास में अपने गु्रप की लड़कियों के साथ टीचर्स की नकल कर उन का मजाक उड़ा रही थी. बाकी विद्यार्थी चले गए थे. लेकिन वह तो मालिनी की आज्ञा के बिना खिसक भी नहीं सकती. उस दिन मालिनी व उन लड़कियों की शिकायत चपरासी के जरीए टीचर्स तक पहुंच गई.

उन सब के साथ निविदा को भी खूब डांट पड़ी. कालेज में उस पूरे ग्रुप की तो छवि खराब थी ही, निविदा भी उस में शामिल हो गईर् थी. उन के क्लासरूम के आगे स्टाफरूम था जहां से निकल कर जाते समय टीचर्स की नजर विद्यार्थियों पर पड़ जाती थी.

दूसरे दिन मालिनी व उस की गु्रप की लड़कियां क्लासरूम की पीछे की खिड़की से कूद कर एडल्ट मूवी देखने की योजना बना रही थीं.

मालिनी ने उसे भी पकड़ लिया, ‘‘तू भी चल हमारे साथ.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी… मुझे क्लास अटैंड करनी है,’’ वह भीख मांगने वाले अंदाज में बोली.

‘‘एक दिन नहीं करेगी तो क्या आईएएस बनने से रह जाएगी?’’ चुपचाप चल हमारे साथ.

‘‘तुम मेरे साथ इतनी जबरदस्ती क्यों करती हो मालिनी?’’ वह घिघियाती हुई बोली, ‘‘तुम्हें जाना है तो तुम जाओ.’’

‘‘ताकि तू टीचर्स से हमारी खासकर मेरी शिकायत कर दे.’’

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी.’’

मगर मालिनी ने उस की एक न सुनी और उस के डर से वह भी पीछे की खिड़की से कूद कर मालिनी के साथ चली गई. उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मालिनी की दबंगता के खिलाफ बगावत कर उस की शिकायत कर उस से दुश्मनी मोल लेती. मूवी में उस का मन बिलकुल नहीं लगा.

घर के घुटनभरे वातावरण से भाग कर यहां आईर् थी पर मालिनी पता नहीं कहां से अभिशाप बन उस के जीवन के साथ लग गईर् थी. मालिनी के गु्रप के साथ उसे जबरदस्ती रहना पड़ता था, जिस से क्लास में, कालेज में उस की छवि खराब हो रही थी.

यों मालिनी उसे कई मुसीबतों से बचाती भी थी. तबीयत खराब होने पर उसे डाक्टर को भी दिखा लाती. दवा भी ला देती. उस की तरफ उस का रवैया सुरक्षात्मक तो रहता पर वैसा ही जैसा किसी का अपने गुलाम के प्रति रहता है.

उस दिन उन के पूरे ग्रुप के गायब होने की शिकायत प्रिंसिपल तक चली गई और अगले दिन प्रिंसिपल के सामने उन का जवाब तलब हो गया. सब को खूब डांट पड़ी. सभी को अपनेअपने अभिभावकों को बुला लाने का फरमान सुना दिया गया. प्रिंसिपल के इस फरमान के बाद तो निविदा के लिए जैसे दुनिया खत्म हो गई और भविष्य चौपट.

पापा का डरावना चेहरा, मम्मी का रोनासिसकना, गिड़गिड़ाना, घर का घुटन भरा वातावरण सबकुछ याद आ गया. इस हरकत के बाद तो पापा उसे यहां कभी नहीं रहने देंगे. उस दिन कमरे में आ कर वह फूटफूट कर रो पड़ी. पर मालिनी को कोई फर्क नहीं पड़ा. वह मस्त थी.

‘‘इतना स्यापा क्यों कर रही है ऐसा क्या हो गया भई? मूवी ही तो गए थे किसी का मर्डर तो नहीं किया. प्रिंसिपल ने डांटा ही तो है… कालेज लाइफ में तो ये सब चलता ही रहता है.’’

‘‘तुम्हारे लिए यह साधारण बात होगी,’’ अचानक निविदा ने अपना आंसुओं भरा चेहरा उठाया, ‘‘पर मेरे लिए तो मेरा पूरा भविष्य खत्म हो गया. मुझे तो अब कालेज छोड़ना पड़ेगा… मेरे पापा अब मुझे यहां किसी कीमत पर नहीं रहने देंगे… जिन मुश्किलों से घबरा कर यहां आई थी, तुम्हारी हरकतों व ज्यादतियों ने मुझे फिर वहीं धकेल दिया. तुम्हारा क्या, तुम तो खेल की दुनिया में भी अपना कैरियर बना लोगी, पर मैं क्या करूंगी,’’ कहतेकहते निविदा फिर फूटफूट कर रोने लगी.

शांत और हर समय घबराई सी निविदा को इतने गुस्से से बोलते देख मालिनी एकाएक संजीदा हो गई. टेबल पर सिर रख कर फूटफूट कर रोती निविदा के सिर पर स्नेह से हाथ फेरने लगी, ‘‘चुप हो जाओ निविदा… लगता है कुछ गलती हो गई मुझ से… मैं कोशिश करूंगी स्थिति को संभालने की… कम से कम तुम पर आंच न आए… पर ऐसा क्या है तुम्हारे मन में जो तुम इतनी डरी और घुटी हुई रहती हो हर वक्त? क्या कमी है तुम में? तुम्हारे जैसा दिमाग, खूबसूरती, जिन के पास हो उन का व्यक्तित्व तो आत्मविश्वास से वैसे ही छलक जाएगा. सबकुछ होते हुए भी तुम इतनी डरपोक क्यों हो? आत्मविश्वास नाम की चीज नहीं है तुम्हारे अंदर.’’

निविदा ने कोई जवाब नहीं दिया.

मालिनी उस के सिर पर हाथ फेरती रही, ‘‘बताओ मुझे… शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद

कर सकूं.’’

‘‘तुम क्या मदद करोगी मेरी… इतनी बड़ी मुसीबत में फंसा दिया मुझे.’’

‘‘बोल कर तो देखो निविदा… खोटा सिक्का भी काम आता है कभीकभी… मैं जिंदगी को बहुत गंभीरता से कभी नहीं लेती, इसलिए बिंदास रहती हूं… पर तुम्हारी बातों ने आज सोचने पर मजबूर कर दिया है.’’

और निविदा ने धीरेधीरे सुबकसुबक कर पहली बार किसी गैर के सामने अपना पूरा मन खोल कर रख दिया. पूरा बचपन, पूरा अतीत बयां करते हुए मालिनी को न जाने कितनी बार निविदा को गले लगा कर चुप करा कर सांत्वना देनी पड़ी.

‘‘इतना कुछ निविदा… काश, तुम मुझे पहले बताती. आई एम सौरी… गलती हो गई मुझ से… पर मैं ही सुधारूंगी इसे. चाहे इस के लिए मुझे सारा इलजाम खुद पर क्यों न लेना पड़े. तुम फिक्र मत करो.’’

दूसरे दिन मालिनी प्रिंसिपल से व्यक्तिगत तौर पर मिलने उन के औफिस पहुंच गई

और उन्हें सारी बात कह सुनाई, ‘‘बस एक मौका और दे दीजिए मैम. पूरे ग्रुप से आप को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा… अगर शिकायत मिली तो आप सब से पहले मुझे रैस्टिकेट कर दीजिएगा…’’

प्रिंसिपल पिघल गईं और उन्होंने पूरे ग्रुप को माफी दे दी.

निविदा मालिनी की मुरीद हो गई. उस के बिंदास, लापरवाह, दबंग स्वभाव के पीछे एक संजीदा व सहृदय दोस्त के दर्शन हुए. जिस मालिनी की वजह से निविदा को कालेज की भी जिंदगी दमघोटू महसूस हो रही थी वही जिंदगी उसी मालिनी के सान्निध्य में खुशगवार लगने लगी थी. वह पढ़ाई करती तो मालिनी अपना ही नहीं उस का भी काम कर देती.

‘‘तू अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे… मैं तेरे जैसी लायक नहीं… पर मेरी सखी जिस दिन आईएएस बनेगी गर्व से कौलर मैं ही अप करूंगी.’’

‘‘वह मौका तो मुझे भी मिलेगा मालिनी जिस दिन खेल की दुनिया में तू नाम रोशन करेगी.’’

दोनों सहेलियां दिल से एकदूसरे के नजदीक आ गईर् थीं. प्रथम वर्ष के इम्तिहान के बाद विद्यार्थी छुट्टियों में अपनेअपने घर चले गए. निविदा भी दुखी मन से अटैची पैक करने लगी. अपने घर जाने का मन मालिनी का भी नहीं हो रहा था.

‘‘मैं भी तेरे साथ तेरे घर चलती हूं निविदा… कुछ दिन तेरे साथ रहूंगी. फिर कुछ दिनों के लिए घर चली जाऊंगी या फिर तू मेरे साथ चले चलना कुछ दिनों के लिए…’’

निविदा घबरा गई. मालिनी की बेबाकी घर में क्या गुल खिला सकती है, वह जानती थी. उस ने कई तरह के बहाने बनाए और फिर सुबह की बस से अपने घर चली गई.

कागज का रिश्ता- भाग 2: क्या परिवार का शक दूर हुआ

चिंता की गहरी लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट उभर आई थीं. उस ने एक गुलाबी लिफाफा अपनी पत्नी के आगे रखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा पत्र आया है.’’

‘‘मेरा पत्र,’’ विभा ने आगे बढ़ कर वह पत्र अपने हाथ में उठाया और चहक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मोहन का पत्र है.’’

मुसकरा कर विभा वह पत्र खोल कर पढ़ने लगी. उस के चेहरे पर इंद्रधनुषी रंग थिरकने लगे थे.

मुकेश पत्नी पर एक दृष्टि फेंक कर सिगरेट सुलगाते हुए बोला, ‘‘यह मोहन कौन है?’’

‘‘मेरे पत्र मित्रों में सब से अधिक स्नेहशील और आकर्षक,’’ विभा पत्र पढ़तेपढ़ते ही बोली.

विभा पत्र पढ़ती रही और मुकेश चोर निगाहों से पत्नी को देखता रहा. पत्र पढ़ कर विभा ने दराज में डाल दिया और फिल्मी धुन गुनगुनाती हुई ड्रैसिंग टेबल के आईने में अपनी छवि निहारते हुए बाल संवारती रही.

मुकेश ने घड़ी में समय देखा और विभा से बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

‘‘खाना तो लगभग तैयार है,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ चल दी. जब रसोई से बरतनों की उठापटक की आवाज आनी शुरू हो गई तो मुकेश ने दराज से वह पत्र निकाल कर पढ़ना शुरू कर दिया.

हिमाचल के चंबा जिले के किसी गांव से आया वह पत्र पर्वतीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता हुआ, विभा को सपरिवार वहां आ कर कुछ दिन रहने का निमंत्रण दे रहा था.

विभा के द्वारा भेजे गए नए साल के बधाई कार्ड और पूछे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर भी उस पत्र में दिए गए थे. पत्र की भाषा लुभावनी और लिखावट सुंदर थी.

विभा ने मेज पर खाना लगा दिया था. पूरा परिवार भोजन करने बैठ चुका था, पर मुकेश न जाने क्यों उदास सा था. राकेश बराबर में बैठा लगातार अपने भैया के मर्म को समझने की कोशिश कर रहा था. उसे अपनी भाभी पर रहरह कर क्रोध आ रहा था.

राकेश ने मटरपनीर का डोंगा भैया के आगे सरकाते हुए कहा, ‘‘आप ने मटरपनीर की सब्जी तो ली ही नहीं. देखिए तो, कितनी स्वादिष्ठ है.’’

‘‘ऐं, हांहां,’’ कहते हुए मुकेश ने राकेश के हाथ से डोंगा ले लिया, पर वह बेदिली से ही खाना खाता रहा.

मुकेश की स्थिति देख कर राकेश ने निश्चय किया कि वह इस बार भाभी के नाम आया कोई भी पत्र मुकेश के ही हाथों में देगा. जितनी जल्दी हो सके, इन पत्रों का रहस्य भैया के आगे खुलना ही चाहिए.

राकेश के हृदय में बनी योजना ने साकार होने में अधिक समय नहीं लिया. एक दोपहर जब वह अपने मित्र के यहां मिलने जा रहा था, उसे डाकिया घर के बाहर ही मिल गया. वह अन्य पत्रों के साथ विभा भाभी का गुलाबी लिफाफा भी अपनी जेब के हवाले करते हुए बाहर निकल गया.

राकेश जब घर लौटा तब मुकेश घर पहुंच चुका था. भाभी रसोई में थीं और मांजी बरामदे में बैठी रेडियो सुन रही थीं. राकेश ने अपनी जेब से 3-4 चिट्ठियां निकाल कर मुकेश के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘भैया, शायद एक पत्र आप के दफ्तर का है और एक उमा दीदी का है. यह पत्र शायद भाभी का है. मैं सतीश के घर जा रहा था कि डाकिया रास्ते में ही मिल गया.’’

‘‘ओह, अच्छाअच्छा,’’ मुकेश ने पत्र हाथ में लेते हुए कहा. अपने दफ्तर का पत्र उस ने दफ्तरी कागजों में रख लिया और उमा का पत्र घर में सब को पढ़ कर सुना दिया. विभा के नाम से आया पत्र उस ने तकिए के नीचे रख दिया.

रात को कामकाज निबटा कर विभा लौटी तो मुकेश ने गुलाबी लिफाफा उसे थमाते हुए कहा, ‘‘यह लो, तुम्हारा पत्र.’’

‘‘मेरा पत्र, इस समय?’’ विभा ने आश्चर्य से कहा.

‘‘आया तो यह दोपहर की डाक से था, जब मैं दफ्तर में था. लेकिन अभी तक यह आप के देवर की जेब में था,’’ मुकेश ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा.

विभा ने मुसकरा कर वह पत्र खोला और पढ़ने लगी. शायद पत्र में कोई ऐसी बात लिखी थी, जिसे पढ़ कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी. मुकेश ने इस बार पलट कर पूछा, ‘‘मोहन का
पत्र है?’’

‘‘हां, लेकिन आप ने कैसे जान लिया?’’ विभा ने हंसतेहंसते ही पूछा.

‘‘लिफाफे को देख कर. कुछ और बताओगी इन महाशय के बारे में?’’ मुकेश ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मोहन एक सुंदर नवयुवक है. उस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक है. मुझे तो उस की शरारती आंखों की मुसकराहट बहुत भाती है,’’ विभा ने सहज भाव से कहा पर मुकेश शक और ईर्ष्या की आग में जल उठा.

मुकेश ने फिर पत्नी से कोई बात नहीं की और मुंह फेर कर लेट गया. विभा ने एक बार मुकेश की पीठ को सहलाया भी, पर पति का एकदम ठंडापन देख कर वह फिर नींद की आगोश में डूब गई.

घरगृहस्थी की गाड़ी ठीक पहले जैसी ही चलती रही पर मुकेश का स्वभाव और व्यवहार दिनोंदिन बदलता चला गया. अब अकसर वह देर रात घर लौटता. पति के इंतजार में भूखी बैठी विभा से वह ‘बाहर से खाना खा कर आया हूं’ कह कर सीधे अपने कमरे में घुस जाता. मांजी और राकेश भी मुकेश का व्यवहार देख कर परेशान थे. मुकेश और विभा के बीच धीरेधीरे एक ठंडापन पसरने लगा था. दोनों के बीच वार्त्तालाप भी अब बहुत संक्षिप्त होता था. मुकेश अब अगर दफ्तर से समय पर घर लौट भी आता तो सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहता.

आखिर एक शाम विभा ने मुकेश के हाथ से सिगरेट छीनते हुए तुनक कर कहा, ‘‘आप मुझे देखते ही नजरें क्यों फेर लेते हैं? क्या अब मैं सुंदर नहीं रही?’’

मुकेश ने विभा की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘आप किस सोच में डूबे रहते हैं? देखती हूं, आप आजकल सिगरेट ज्यादा ही पीने लगे हैं. बताइए न?’’ विभा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘तुम तो उतनी ही सुंदर हो जितनी शादी के समय थीं, पर मैं न तो मोहन की तरह सुंदर हूं न ही बलिष्ठ. न मैं उस की तरह योग्य हूं न आकर्षक,’’ मुकेश ने रूखे स्वर में जवाब दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं अब तुम्हें साफसाफ बता देना चाहता हूं कि अब मैं तुम्हारे साथ अधिक दिनों तक नहीं निभा सकता. मैं बहुत जल्दी ही तुम्हें आजाद करने की सोच रहा हूं जिस से तुम मोहन के पास आसानी से जा सको,’’ मुकेश ने अत्यंत ठंडे स्वर से कहा.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’ विभा घबरा कर बोली. उसे लगा, संदेह के एक नन्हे कीड़े ने उस के दांपत्य की गहरी जड़ों को क्षणभर में कुतर डाला है.

‘‘मैं वही सच कह रहा हूं जो तुम नहीं कह सकीं और छिप कर प्रेम का नाटक खेलती रहीं,’’ अब मुकेश के स्वर में कड़वाहट घुल गई थी.

अजीब दास्तान: क्या हुआ था वासन और लीना के साथ

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पंछी एक डाल के: क्या पूरी हो पाई सीमा की शादी

‘‘औफिस के लिए तैयार हो गईं?’’ इतनी सुबह रजत का फोन देख कर सीमा चौंक पड़ी.

‘‘नहीं, नहाने जा रही हूं. इतनी जल्दी फोन? सब ठीक है न?’’

‘‘हां, गुडफ्राईडे की छुट्टी का फायदा उठा कर घर चलते हैं. बृहस्पतिवार की शाम को 6 बजे के बाद की किसी ट्रेन में आरक्षण करवा लूं?’’

‘‘लेकिन 6 बजे निकलने पर रात को फिरोजाबाद कैसे जाएंगे?’’

‘‘रात आगरा के बढि़या होटल में गुजार कर अगली सुबह घर चलेंगे.’’

‘‘घर पर क्या बताएंगे कि इतनी सुबह किस गाड़ी से पहुंचे?’’ सीमा हंसी.

‘‘मौजमस्ती की रात के बाद सुबह जल्दी कौन उठेगा सीमा, फिर बढि़या होटल के बाथरूम में टब भी तो होगा. जी भर कर नहाने का मजा लेंगे और फिर नाश्ता कर के फिरोजाबाद चल देंगे. तो आरक्षण करवा लूं?’’

‘‘हां,’’ सीमा ने पुलक कर कहा.

होटल के बाथरूम के टब में नहाने के बारे में सोचसोच कर सीमा अजीब सी सिहरन से रोमांचित होती रही. औफिस के लिए सीढि़यां उतरते ही मकानमालिक हरदीप सिंह की आवाज सुनाई पड़ी. वे कुछ लोगों को हिदायतें दे रहे थे. वह भूल ही गई थी कि हरदीप सिंह कोठी में रंगरोगन करवा रहे हैं और उन्होंने उस से पूछ कर ही गुडफ्राईडे को उस के कमरे में सफेदी करवाने की व्यवस्था करवाई हुई थी. हरदीप सिंह सेवानिवृत्त फौजी अफसर थे. कायदेकानून और अनुशासन का पालन करने वाले. उन का बनाया कार्यक्रम बदलने को कह कर सीमा उन्हें नाराज नहीं कर सकती थी.

सीमा ने सिंह दंपती से कार्यक्रम बदलने को कहने के बजाय रजत को मना करना बेहतर समझा. बाथरूम के टब की प्रस्तावना थी तो बहुत लुभावनी, अब तक साथ लेट कर चंद्र स्नान और सूर्य स्नान ही किया था. अब जल स्नान भी हो जाता, लेकिन वह मजा फिलहाल टालना जरूरी था.

सीमा और रजत फिरोजाबाद के रहने वाले थे. रजत उस की भाभी का चचेरा भाई था और दिल्ली में नौकरी करता था. सीमा को दिल्ली में नौकरी मिलने पर मम्मीपापा की सहमति से भैयाभाभी ने उसे सीमा का अभिभावक बना दिया था. रजत ने उन से तो कहा था कि वह शाम को अपने बैंक की विभागीय परीक्षा की तैयारी करता है. अत: सीमा को अधिक समय नहीं दे पाएगा, लेकिन असल में फुरसत का अधिकांश समय वह उसी के साथ गुजारता था. छुट्टियों में सीमा को घर ले कर आना तो खैर उसी की जिम्मेदारी थी. दोनों कब एकदूसरे के इतने नजदीक आ गए कि कोई दूरी नहीं रही, दोनों को ही पता नहीं चला. न कोई रोकटोक थी और न ही अभी घर वालों की ओर से शादी का दबाव. अत: दोनों आजादी का भरपूर मजा उठा रहे थे.

सीमा के सुझाव पर रजत ने शाम को एमबीए का कोर्स जौइन कर लिया था. कुछ रोज पहले एक स्टोर में एक युवकयुवती को ढेर सारा सामान खरीदते देख कर सीमा ने कहा था, ‘‘लगता है नई गृहस्थी जमा रहे हैं.’’ ‘‘लग तो यही रहा है. न जाने अपनी गृहस्थी कब बसेगी?’’ रजत ने आह भर कर कहा.

‘‘एमबीए कर लो, फिर बसा लेना.’’

‘‘यही ठीक रहेगा. कुछ ही महीने तो और हैं.’’

सीमा ने चिंहुक कर उस की ओर देखा. रजत गंभीर लग रहा था. सीमा ने सोचा कि इस बार घर जाने पर जब मां उस की शादी का विषय छेड़ेंगी तो वह बता देगी कि उसे रजत पसंद है. औफिस पहुंचते ही उस ने रजत को फोन कर के अपनी परेशानी बताई.

‘‘ठीक है, मैं अकेला ही चला जाता हूं.’’

‘‘तुम्हारा जाना जरूरी है क्या?’’

‘‘यहां रह कर भी क्या करूंगा? तुम तो घर की साफसफाई करवाने में व्यस्त हो जाओगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह सीमा ने मम्मी को फोन कर बता दिया कि रंगरोगन करवाने की वजह से वह रजत के साथ नहीं आ रही. रविवार की शाम को कमरा सजा कर सीमा रजत का इंतजार करने लगी. लेकिन यह सब करने में इतनी थक गई थी कि कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. रजत सोमवार की शाम तक भी नहीं आया और न ही उस ने फोन किया. रात को मम्मी का फोन आया. उन्होंने बताया, ‘‘रजत यहां आया ही नहीं, मथुरा में सुमन के घर है. उस के घर वाले भी वहीं चले गए हैं.’’

सुमन रजत की बड़ी बहन थी. सीमा से भी मथुरा आने को कहती रहती थी. ‘अब इस बार रजत घर नहीं गया है. अत: कुछ दिन बाद महावीर जयंती पर जरूर घर चलना मान जाएगा,’ सोच सीमा ने कलैंडर देखा, तो पाया कि महावीर जयंती भी शुक्रवार को ही पड़ रही है.

लेकिन कुछ देर के बाद ही पापा का फोन आ गया. बोले, ‘‘तेरी मम्मी कह रही है कि तू ने कमरा बड़ा अच्छा सजाया है. अत: महावीर जयंती की छुट्टी पर तू यहां मत आ, हम तेरा कमरा देखने आ जाते हैं.’’

‘‘अरे वाह, जरूर आइए पापा,’’ उस ने चिंहुक कर कह तो दिया पर फिर जब दोबारा कलैंडर देखा तो कोई और लंबा सप्ताहांत न पा कर उदास हो गई.

अगले दिन सीमा के औफिस से लौटने के कुछ देर बाद ही रजत आ गया. बहुत खुश लग रहा था, बोला, ‘‘पहले मिठाई खाओ, फिर चाय बनाना.’’

‘‘किस खुशी में?’’ सीमा ने मिठाई का डब्बा खोलते हुए पूछा.

‘‘मेरी शादी तय होने की खुशी में,’’ रजत ने पलंग पर पसरते हुए कहा, ‘‘जब मैं ने मम्मी को बताया कि मैं बस से आ रहा हूं, तो उन्होंने कहा कि फिर मथुरा में ही रुक जा, हम लोग भी वहीं आ जाते हैं. बात तो जीजाजी ने अपने दोस्त की बहन से पहले ही चला रखी थी, मुलाकात करवानी थी. वह करवा कर रोका भी करवा दिया. मंजरी भी जीजाजी और अपने भाई के विभाग में ही मथुरा रिफायनरी में जूनियर इंजीनियर है. शादी के बाद उसे रिफायनरी के टाउनशिप में मकान भी मिल जाएगा और टाउनशिप में अपने बैंक की जो शाखा है उस में मेरी भी बड़ी आसानी से बदली हो जाएगी. आज सुबह यही पता करने…’’

‘‘बड़े खुश लग रहे हो,’’ किसी तरह स्वर को संयत करते हुए सीमा ने बात काटी.

‘‘खुश होने वाली बात तो है ही सीमा, एक तो सुंदरसुशील, पढ़ीलिखी लड़की, दूसरे मथुरा में घर के नजदीक रहने का संयोग. कुछ साल छोटे शहर में रह कर पैसा जोड़ कर फिर महानगर में आने की सोचेंगे. ठीक है न?’’

‘‘यह सब सोचते हुए तुम ने मेरे बारे में भी सोचा कि जो तुम मेरे साथ करोगे या अब तक करते रहे हो वह ठीक है या नहीं?’’ सीमा ने उत्तेजित स्वर में पूछा.

‘‘तुम्हारे साथ जो भी करता रहा हूं तुम्हारी सहमति से…’’

‘‘और शादी किस की सहमति से कर रहे हो?’’ सीमा ने फिर बात काटी.

‘‘जिस से शादी कर रहा हूं उस की सहमति से,’’ रजत ने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘तुम्हारे और मेरे बीच में शादी को ले कर कोई वादा या बात कभी नहीं हुई सीमा. न हम ने कभी भविष्य के सपने देखे. देख भी नहीं सकते थे, क्योंकि हम सिर्फ अच्छे पार्टनर हैं, प्रेमीप्रेमिका नहीं.’’

‘‘यह तुम अब कह रहे हो. इतने उन्मुक्त दिन और रातें मेरे साथ बिताने के बाद?’’

‘‘बगैर साथ जीनेमरने के वादों के… असल में यह सब उन में होता है सीमा, जिन में प्यार होता है और वह तो हम दोनों में है ही नहीं?’’ रजत ने उस की आंखों में देखा.

सीमा उन नजरों की ताब न सह सकी. बोली, ‘‘यह तुम कैसे कह सकते हो, खासकर मेरे लिए?’’

रजत ठहाका लगा कर हंसा. फिर बोला, ‘‘इसलिए कह सकता हूं सीमा कि अगर तुम्हें मुझ से प्यार होता न तो तुम पिछले 4 दिनों में न जाने कितनी बार मुझे फोन कर चुकी होतीं और मेरे रविवार को न आने के बाद से तो मारे फिक्र के बेहाल हो गई होतीं… मैं भी तुम्हें रंगरोगन वाले मजदूरों से अकेले निबटने को छोड़ कर नहीं जाता.’’

रजत जो कह रहा था उसे झुठलाया नहीं जा सकता था. फिर भी वह बोली, ‘‘मेरे बारे में सोचा कि मेरा क्या होगा?’’

‘‘तुम्हारे घर वालों ने बुलाया तो है महावीर जयंती पर गुड़गांव के सौफ्टवेयर इंजीनियर को तुम से मिलने को… तुम्हारी भाभी ने फोन पर बताया कि लड़के वालों को जल्दी है… तुम्हारी शादी मेरी शादी से पहले ही हो जाएगी.’’

‘‘शादी वह भी लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली लड़की के साथ? मैं लड़की हूं रजत… कौन करेगा मुझ से शादी?’’

‘‘यह 50-60 के दशक की फिल्मों के डायलौग बोलने की जरूरत नहीं है सीमा,’’ रजत उठ खड़ा हुआ, ‘‘आजकल प्राय: सभी का ऐसा अतीत होता है… कोई किसी से कुछ नहीं पूछता. फिर भी अपना कौमार्य सिद्ध करने के लिए उस समय अपने बढ़े हुए नाखूनों से खरोंच कर थोड़ा सा खून निकाल लेना, सब ठीक हो जाएगा,’’ और बगैर मुड़ कर देखे रजत चला गया. रजत का यह कहना तो ठीक था कि उन में प्रेमीप्रेमिका जैसा लगाव नहीं था, लेकिन उस ने तो मन ही मन रजत को पति मान लिया था. उस के साथ स्वच्छंदता से जीना उस की समझ में अनैतिकता नहीं थी. लेकिन किसी और से शादी करना तो उस व्यक्ति के साथ धोखा होगा और फिर सचाई बताने की हिम्मत भी उस में नहीं थी, क्योंकि नकारे जाने पर जलालत झेलनी पड़ेगी और स्वीकृत होने पर जीवन भर उस व्यक्ति की सहृदयता के भार तले दबे रहना पड़ेगा.

अच्छा कमा रही थी, इसलिए शादी के लिए मना कर सकती थी, लेकिन रजत के सहचर्य के बाद नितांत अकेले रहने की कल्पना भी असहनीय थी तो फिर क्या करे? वैसे तो सब सांसारिक सुख भोग लिए हैं तो क्यों न आत्महत्या कर ले या किसी आश्रमवाश्रम में रहने चली जाए? लेकिन जो भी करना होगा शांति से सोचसमझ कर. उस की चार्टर्ड बस एक मनन आश्रम के पास से गुजरा करती थी. एक दिन उस ने अपने से अगली सीट पर बैठी महिला को कहते सुना था कि वह जब भी परेशान होती है मैडिटेशन के लिए इस आश्रम में चली जाती है. वहां शांति से मनन करने के बाद समस्या का हल मिल जाता है. अत: सीमा ने सोचा कि आज वैसे भी काम में मन नहीं लगेगा तो क्यों न वह भी उस आश्रम चली जाए. आश्रम के मनोरम उद्यान में बहुत भीड़ थी. युवा, अधेड़ और वृद्ध सभी लोग मुख्यद्वार खुलने का इंतजार कर रहे थे. सीमा के आगे एक प्रौढ दंपती बैठे थे.

‘‘हमारे जैसे लोगों के लिए तो ठीक है, लेकिन यह युवा पीढ़ी यहां कैसे आने लगी है?’’ महिला ने टिप्पणी की.

‘‘युवा पीढ़ी को हमारे से ज्यादा समस्याएं हैं, पढ़ाई की, नौकरी की, रहनेखाने की. फिर शादी के बाद तलाक की,’’ पुरुष ने उत्तर दिया.

‘‘लिव इन रिलेशनशिप क्यों भूल रहे हो?’’

‘‘लिव इन रिलेशनशिप जल्दबाजी में की गई शादी, उस से भी ज्यादा जल्दबाजी में पैदा किया गया बच्चा और फिर तलाक से कहीं बेहतर है. कम से कम एक नन्ही जान की जिंदगी तो खराब नहीं होती? शायद इसीलिए इसे कानूनन मान्यता भी मिल गई है,’’ पुरुष ने जिरह की, ‘‘तुम्हारी नजरों में तो लिव इन रिलेशनशिप में यही बुराई है न कि यह 2 लोगों का निजी समझौता है, जिस का ऐलान किसी समारोह में नहीं किया जाता.’’

जब लोगों को विधवा, विधुर या परित्यक्तों से विवाह करने में ऐतराज नहीं होता तो फिर लिव इन रिलेशनशिप वालों से क्यों होता है?

तभी मुख्यद्वार खुल गया और सभी उठ कर अंदर जाने लगे. सीमा लाइन में लगने के बजाय बाहर आ गई. उसे अपनी समस्या का हल मिल गया था कि वह उस गुड़गांव वाले को अपना अतीत बता देगी. फिर क्या करना है, उस के जवाब के बाद सोचेगी. कार्यक्रम के अनुसार मम्मीपापा आ गए. उसी शाम को उन्होंने सौफ्टवेयर इंजीनियर सौरभ और उस के मातापिता को बुला लिया.

‘‘आप से फोन पर तो कई महीनों से बात हो रही थी, लेकिन मुलाकात का संयोग आज बना है,’’ सौरभ के पिता ने कहा.

‘‘आप को चंडीगढ़ से बुलाना और खुद फिरोजाबाद से आना आलस के मारे टल रहा था लेकिन अब मेरे बेटे का साला रजत जो दिल्ली में सीमा का अभिभावक है, यहां से जा रहा है, तो हम ने सोचा कि जल्दी से सीमा की शादी कर दें. लड़की को बगैर किसी के भरोसे तो नहीं छोड़ सकते,’’ सीमा के पापा ने कहा. सौरभ के मातापिता एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए फिर सौरभ की मम्मी हंसते हुए बोलीं, ‘‘यह तो हमारी कहानी आप की जबानी हो गई. सौरभ भी दूर के रिश्ते की कजिन वंदना के साथ अपार्टमैंट शेयर करता था, इसलिए हमें भी इस के खानेपीने की चिंता नहीं थी. मगर अब वंदना अमेरिका जा रही है. इसे अकेले रहना होगा तो इस की दालरोटी का जुगाड़ करने हम भी दौड़ पड़े.’’

कुछ देर के बाद बड़ों के कहने पर दोनों बाहर छत पर आ गए.

‘‘बड़ों को तो खैर कोई शक नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि हम दोनों एक ही मृगमरीचिका में भटक रहे थे…’’

‘‘इसीलिए हमें चाहिए कि बगैर एकदूसरे के अतीत को कुरेदे हम इस बात को यहीं खत्म कर दें,’’ सीमा ने सौरभ की बात काटी.

‘‘अतीत के बारे में तो बात यहीं खत्म कर देते हैं, लेकिन स्थायी नीड़ का निर्माण मिल कर करेंगे,’’ सौरभ मुसकराया.

‘‘भटके हुए ही सही, लेकिन हैं तो हम पंछी एक ही डाल के,’’ सीमा भी प्रस्ताव के इस अनूठे ढंग पर मुसकरा दी.

काश, मेरी बेटी होती- भाग 4: शोभा की मां का क्या था फैसला

हाथ पोंछ कर माधवी चली गई. एक हफ्ता गुजर गया. आज रात की ट्रेन से सुकेश आने वाले थे. सुबह चाय पी कर शोभा गेट का ताला खोलने के लिए बाहर जा रही थी कि बरामदे की सीढ़ी से पैर लड़खड़ा गया. एक चीख मार कर वह वहीं बैठ गई. उस की जोर की चीख सुन कर ऋषभ और माधवी भागतेदौड़ते नीचे उतर कर उस के पास पहुंच गए. वह अपना पैर पकड़ कर कराह रही थी.

क्या हुआ मां? माधवी बोली.

‘‘अचानक से पैर लड़खड़ा गया सीढ़ी पर. दाएं पैर में बहुत दर्द हो रहा है.’’

‘‘ओह, कहीं फ्रैक्चर न हो गया हो,’’ कह कर ऋषभ शोभा को उठा कर अंदर ले आया. माधवी उस के पैरों के पास बैठ कर हलके हाथों से मलहम लगाती हुई बोली, ‘‘अभी डाक्टर के पास ले चलते हैं मां. चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा.’’ उस ने उस के पैर में कस कर क्रेप बैंडेज बांध दी.

दोनों उसे अस्पताल ले गए. एक्सरे में फ्रैक्चर नहीं आया. मोच आ गई थी. डाक्टर ने कुछ दिन आराम करने के लिए कहा. सबकुछ करा कर उसे घर छोड़ कर ऋषभ औफिस चला गया. लेकिन माधवी थोड़ी देर बाद उस के पास जा कर बैठ गई.

तू औफिस नहीं गई? वह आश्चर्य  से बोली.

नहीं मां, ऐसी हालत में आप को छोड़ कर औफिस कैसे चली जाऊं मैं. फिलहाल कुछ दिन की छुट्टी ले ली है. पापा भी आ जाएंगे आज. ऐसे में खाना भी कैसे बनाएंगी आप?’’

कुछ न बोला गया शोभा से. मन भर आया और आंखें भी. सुकेश के डर पर दिल के उद्गार भारी पड़ गए. ‘मेरी बेटी होती तो ऐसी ही होती,’ उस ने सोचा, ‘नहींनहीं, ऐसी ही क्यों होती, बल्कि यही है मेरी बेटी.’

उस ने माधवी का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. माधवी ने आश्चर्य से उस की आंखों में देखा. पर शोभा की आंखों में वात्सल्य का अनंत महासागर हिलोरें ले रहा था. वह हुलस कर शोभा की बांहों में समा गई. शोभा का वर्षों का सपना पूरा हो गया था.

माधवी ने उस के घर व उस के दिल में तो प्रवेश पा लिया था पर सुकेश के दिल में प्रवेश पाना टेढ़ी खीर था. रात की ट्रेन से सुकेश आए. शोभा के पैर में पट्टी बंधी देख कर परेशान हो गए. पर शोभा के चेहरे पर दर्द व परेशानी का नामोनिशान न था. वह आराम से पलंग पर पीछे तकिया लगा पीठ टिकाए बैठी मुसकरा रही थी. न यह शिकायत कि एक हफ्ता तुम्हारे बिना मन नहीं लगा वगैरहवगैरह.

‘‘कुछ तो गड़बड़ है,’’ सुकेश अपनी उधेड़बुन में कपड़े बदल कर नहाने चले गए. बाथरूम से फ्रैश हो कर लौटे,

‘‘दर्द तो नहीं हो रहा तुम्हें?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ शोभा मुसकराते हुए बोली.

‘‘कुछ खाना तो बना नहीं होगा. बाहर से और्डर कर देता हूं.’’

तभी दरवाजे पर आहट हुई. देखा, तो माधवी 2 प्लेटों में खाना लिए खड़ी थी. मुसकराती हुई आगे बढ़ी, एक प्लेट माधवी को पकड़ा दी. बिना  िझ झके, सुकेश से बिना डरे शोभा ने प्लेट पकड़ ली. सुकेश आश्चर्य से माधवी को देख रहे थे. माधवी ने  िझ झकते हुए दूसरी प्लेट साइड टेबल पर रखी और वापस चली गई. शोभा इत्मीनान से खाना खाने लगी.

‘‘तुम कब से खाने लगी हो इस के हाथ का?’’ सुकेश के स्वर में क्रोध भरा था.

‘‘तरीके से बात करो सुकेश. वह तुम्हारे बेटे की पत्नी है और इस घर की बहू. अब जो जाति हमारी वही उस की,’’ शोभा तनिक रोष में बोली.

शोभा के रोष को भांप कर सुकेश थोड़ा आराम से बोले, ‘‘ठीक है, पर मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा. तुम से पहले ही बात हो गई थी. यह शादी मैं ने सिर्फ ऋषभ की जिद के कारण की थी. वरना, इतनी छोटी जाति में… तुम जानती हो.’’

‘‘मुझे तो चोट लगी थी. खाना बना नहीं सकती थी. और वैसे भी, मैं तो कभी ब्राह्मणवाद के पीछे इतनी पागल भी नहीं रही हूं. पर तुम खाना बाहर से और्डर कर लो अपने लिए. लेकिन ध्यान रखना, जिस जगह और्डर करो, वहां किचन में खाना किस ने बनाया है, उस के ब्राह्मण होने का प्रमाणपत्र अवश्य ले लेना,’’ शोभा विर्दूप स्वर में बोली.

सुकेश ठगे से शोभा को देखने लगे.

‘‘हांहां, ऐसे क्या देख रहे हो. ब्याहशादियों में जाते हो. खाना बनाने वालों का, स्नैक्स सर्व करने वाले वेटरों की जाति भी पूछी है तुम ने कभी? सड़क मार्गों से लंबीलंबी यात्राएं करते हो औफिशियल दौरों के लिए, रास्तेभर रुकतेरुकाते, खातेपीते जाते हो, क्या वहां पर सब की जाति पूछ कर खातेपीते हो? उन सब की जाति पूछ लो. अगर वे सब ऊंची जाति के हों तो मैं अपनी ऐसी सुघढ़, सल्लज और प्यारी बहू के हाथ का खाना बंद कर दूंगी, वादा है तुम से. पर तब तक तुम मु झे टोकना मत,’’ कह कर शोभा खाना खाने लगी.

सुकेश थोड़ी देर किंकर्तव्यविमूढ़  से खड़े रह गए. शोभा के तर्कों  में दम था. अधिकतर शोभा उन की बात हंसीखुशी मान जाती थी पर जब वह किसी बात पर अड़ती थी तो उसे डिगाना मुश्किल होता था. वे खड़े सोचते रहे. बात तो सच है, इतनी जगह खाना खाते हैं क्या जाति पूछ कर. माधवी तो उन की बहू है. बेटे ने, शोभा ने उसे सहज अपना लिया. उन की वंशवेल उसी से आगे बढ़ेगी और  झूठे दंभ व  झूठी जिद्द के कारण वे उसे अपना नहीं पा रहे हैं.

उन्होंने खाने की प्लेट उठाई और शोभा की बगल में बैठ गए. पलभर के लिए दोनों की नजरें टकराईं. सुकेश ने रोटी का टुकड़ा तोड़ कर सब्जी में डुबोया और मुंह में डाल लिया. अंदर की मुसकराहट व दिल की पुलक अंदर ही दबाए शोभा चुपचाप खाना खाती रही. दोनों ने खाना खत्म किया ही था कि माधवी फिर आ गई.

‘‘मां, कुछ चाहिए तो नहीं?’’ पर पापा को खाते देख वह अचंभित सी हो गई. बिना छेड़े चुपचाप वापस पलट गई.

‘‘रुको माधवी,’’ सुकेश अपनी जगह पर खड़े हो गए, ‘‘बहुत अच्छा खाना बनाया तुम ने बेटा. इंजीनियरिंग करतेकरते कैसे सीख लिया इतना सबकुछ?’’

हतप्रभ हो माधवी अचल खड़ी हो गई. उस से यह सब संभल नहीं पा रहा था. भावविह्वल स्वर में बोली, ‘‘आप को अच्छा लगा पापा?’’

‘‘हां,  बहुत अच्छा लगा. आज पहली बार तुम्हारे हाथ का खाना  खाया है, इसलिए इनाम तो बनता है,’’ सुकेश ने अलमारी से कुछ रुपए निकाल कर माधवी के हाथ में रखे, ‘‘मांपापा की तरफ से अपने लिए कुछ ले लेना.’’

‘‘जी पापा,’’ वह भरी आंखों से पैरों में  झुक गई. सुकेश ने  झुकी हुई माधवी को उठा कर छाती से लगा लिया, ‘‘माफी चाहता हूं तुम से बेटा. कभीकभी बड़ों से भी गलतियां हो जाती हैं.’’

‘‘नहीं पापा, कुछ मत बोलिए, मु झे कोई शिकायत नहीं है.’’

जाति को ले कर बिना कोई तर्कवितर्क किए माधवी ने सुकेश के ब्राह्मणवाद के किले को फतेह कर लिया था. दोनों -पिता और बहूरूपी पुत्री – सजल नेत्रों से गले लिपटे हुए थे. तभी ऋषभ माधवी को ढूंढ़ता हुआ नीचे उतर आया. कमरे में आया तो पितापुत्री को गले लगे देखा. प्रश्नवाचक दृष्टि मां पर डाली पर वहां भी सजल मुसकराहट में सारे उत्तर थे. गरदन हिलाता हुआ वह भी मुसकरा दिया और उलटे पैरों वापस लौट गया, शायद ऊपर से अपना बोरियाबिस्तर समेटने के लिए.

काश, मेरी बेटी होती- भाग 2: शोभा की मां का क्या था फैसला

जयंति जब इन युवा लड़कियों की तुलना अपने समय की लड़कियों से करती तो पसोपेश में पड़ जाती. उस का जमाना भी तो कोई बहुत अधिक पुराना नहीं था पर कितना बदल गया है. लड़कियों की जिंदगी का उद्देश्य ही बदल गया. कभी लगता उस का खुद का जमाना ठीक था, कभी लगता इन का जमाना अधिक सही है. लड़केलड़कियों की सहज दोस्ती के कारण इस उम्र में आए स्वाभाविक संवेगआवेग इसी उम्र में खत्म हो जाते हैं और बच्चे उन की पीढ़ी की अपेक्षा अधिक प्रैक्टिकल हो जाते हैं.

पर फिर दिमागधारा दूसरी तरफ मुड़ जाती और वह शोभा व रक्षा के सामने अपनी बेटी को ले कर अपना रोना रोती रहती, उस के भविष्य को ले कर निराधार काल्पनिक आशंकाएं जताती रहती.

उधर, रक्षा की बहू भी तो कोई पुरानी फिल्मों की नायिका न थी. आखिर जयंति की बेटी जैसी ही एक लड़की रक्षा की बहू बन कर घर आ गई थी. अभी एक ही साल हुआ था विवाह हुए, इसलिए गृहस्थी के कार्य में वह बिलकुल अनगढ़ थी. हां, बेटाबहू दोनों एकदूसरे के प्यार में डूबे रहते. सुबह देर से उठते. बेटा भागदौड़ कर तैयार होता, मां का बनाया नाश्ता करता और औफिस की तरफ दौड़ लगा देता. थोड़ी देर बाद बहू भी चेहरे पर मीठी मुसकान लिए तैयार हो कर बाहर आती और रक्षा उसे भी नाश्ते की प्लेट पकड़ा देती. बहू के चेहरे पर दूरदूर तक कोई अपराधबोध न होता कि उसे थोड़ा जल्दी उठ कर काम में सास का हाथ बंटाना चाहिए था. इतना तो उस के दिमाग में भी न आता.

रक्षा सोचती, ‘‘चलो सुबह न सही, अब लंच और डिनर में बहू कुछ मदद कर देगी. पर नाश्ते के बाद बहू आराम से लैपटौप सामने खींचती और डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नैट पर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने में व्यस्त हो जाती. वह अपनी लगीलगाई नौकरी छोड़ कर आई थी, इसलिए अब यहां पर नौकरी ढूंढ़ रही थी.

पायल छनकाती बहू का ख्वाब देखने वाली रक्षा का वह सपना तो ढेर हो चुका था. बहू के वैस्टर्न कपड़े पचाने बहुत भारी पड़ते थे. शुरूशुरू में आसपड़ोस की चिंता रहती थी, पर किसी ने कुछ न कहा. सभी अधेड़ तो इस दौर से गुजर रहे थे. वे इस नई पीढ़ी को अपनी पुरानी नजरों से देखपरख रहे थे. बेटा शाम को औफिस से आता तो रक्षा सोचती कि बहू उन के लिए न सही, अपने पति के लिए ही चाय बना दे. पर बेटा जो कमरे में घुसता, तो गायब हो जाता. कभी दोनों तैयार हो कर बाहर आते, ‘मम्मी, हम बाहर जा रहे हैं. खाना खा कर आएंगे.’ उस के उत्तर का इंतजार किए बिना वे निकल जाते और रक्षा इतनी देर से मेहनत कर बनाए खाने को घूरती रह जाती, ‘पहले नहीं बता सकते थे.’’

बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे. जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों की हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुल झी. अब बहू को नौकरी मिल गई थी. सो, वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.

रक्षा सोचती, ‘मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी, पहले मांबाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ी के बीच  झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.

उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पड़ने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहूबेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.

शिक्षित रक्षा सोचती, आखिर महिला सशक्तीकरण का युग इसी पीढ़ी के हिस्से आया है. पर उन की पीढ़ी की महिलाएं कब इस सशक्तीकरण का हिस्सा बनेंगी जिन पर पति नाम के जीव ने भी पूरा शासन किया, रुपए भी गिन कर दिए, जबकि, खुद ने अच्छाखासा कमा लाने लायक शिक्षा अर्जित की थी.

‘‘कैसा महिला सशक्तीकरण?’’ वह आश्चर्य से कहती और जयंति व शोभा के आगे बड़बड़ा कर अपनी भड़ास निकालती. उस की यह विचारधारा उन दोनों शिक्षित महिलाओं को भी प्रभावित करती, पर बाहरी तौर पर. क्योंकि, वे सीधीतौर पर तीसरी पीढ़ी से अभी प्रभावित नहीं हो रही थीं. पर शोभा उन दोनों के अनुभव सुनसुन कर बहू के बारे में तरहतरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो बैठी थी.

पहले तो बेटा ही इतना नखरेबाज था, ऊपर से बहू न जाने कैसी हो. बहू की मनभावन काल्पनिक तसवीर उस ने अपने मस्तिष्क के कैनवास से पूरी तरह मिटा दी थी. रक्षा ठीक कहती है, आजकल की ऐसी बिगड़ैल बेटियां ही तो बहुएं बन रही हैं. आखिर, ऊपर से थोड़े ही न उतरेंगी. उस का वर्षों का मासूम सा सपना भी दिल ही दिल में दम तोड़ चुका था. जब वह सोचा करती थी कि काश, उस की भी बेटी होती. बेटी तो नहीं हुई पर बड़े होते बेटे को देख कर वह नन्हा सा ख्वाब पालने लगी थी कि उस की प्यारी सी बहू आएगी और उस का वर्षों का बेटी का सपना पूरा हो जाएगा. पर रक्षा की बातों से उस ने यह उम्मीद भी छोड़ दी थी.

अब वह मन ही मन हर आने वाले संकट के लिए तैयार हो गई थी. वह उम्र में उन दोनों से थोड़ी छोटी थी. पति की अच्छी आय के चलते उस का घर भी उन दोनों से बड़ा था. उस ने सोच लिया था कि बहू के साथ ज्यादा मुश्किल हुई तो बेटेबहू को ऊपर के पोर्शन में शिफ्ट कर देगी. रक्षा सही कहती है हमारे लिए महिला सशक्तीकरण के माने कब आकार लेगा.

बेटे ने 31वें साल में कदम रख दिया था. अब वह भी चाह रही थी कि बेटे का विवाह कर वह अपनी जिम्मेदारियों से निवृत्त हो जाए. शोभा के पति सुकेश भी सोचते थे कि उन के रिटायरमैंट से पहले बेटे का विवाह निबट जाए तो अच्छा है. पर जैसे ही बेटे से विवाह की बात छेड़ते, बेटा बहाने बना कर उठ खड़ा होता. जब भी किसी रिश्ते के बारे में बात चलती, बेटा हवा में उड़ा देता. जब भी किसी लड़की की तसवीर दिखाई जाती तो परे खिसका देता. यह देखतेदेखते एक दिन वह उखड़ ही गई, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा ऋषभ? कब तक शादी नहीं करेगा तू?’’

प्रश्नचिह्न- भाग 3: निविदा ने पिता को कैसे समझाया

घर पहुंचे निविदा को 2-3 दिन ही हुए थे कि एक दिन शाम को बिना किसी पूर्व सूचना के मालिनी उस के घर पहुंच गई.

‘‘कौन हो तुम?’’ एक अजनबी लड़की को दरवाजे पर बैग और अटैची के साथ खड़े देख कर मालिनी के पापा ने पूछा.

‘‘नमस्ते अंकल… नमस्ते आंटी… मैं मालिनी हूं… निविदा की बैस्ट फ्रैंड और उस की रूममेट.’’

इसी बीच निविदा बाहर आ गई. मालिनी को देख कर बुरी तरह चौंक गई, ‘‘मालिनी तू?’’

‘‘तू मुझ से बोल कर आई थी कि मम्मीपापा के साथ साउथ घूमने जाना है पर मैं समझ गई थी तू झूठ बोल रही है. इसलिए आ गई,’’ मालिनी बेबाकी से बोली.

उस की बोलचाल, चालढाल, उस के व्यक्तित्व से लग रहा था जैसे घर में तूफान आ गया है. उस की हरकतें देख कर निविदा व उस की मम्मी सुलेखा अपनेआप में सिमट रही थीं और निविदा के पापा उस संस्कारहीन लड़की को आश्चर्य से त्योरियां चढ़ाए देख रहे थे.

‘‘मालिनी तू क्यों… मेरा मतलब तू कैसे आ गई?’’ सकपकाई सी निविदा बोली.

‘‘अरे, ऐसे क्यों घबरा रही है… तेरे साथ छुट्टियां बिताने आई हूं…’’ वह उस की पीठ पर हाथ मारती हुई बोली, ‘‘चल, मेरा सामान अंदर रख और बाथरूम स्लीपर ले कर आ… आंटीजी, कुछ खानेपीने का इंतजाम कर दीजिए. बहुत भूख लगी है.’’

सुलेखा किचन में घुस गईं. निविदा उस का सामान अंदर रख बाथरूम स्लीपर उठा लाई. मालिनी ने आराम से जूते खोल स्लीपर पहन कहा, ‘‘जा मेरे जूते भी कमरे में रख. मेरी अटैची से तौलिया निकाल लाना.’’ निविदा के तौलिया लाने पर मालिनी वाशरूम में घुस गई.

निविदा के पापा को निविदा के साथ उस का नौकरों जैसा व्यवहार अखर गया. सुलेखा पकौड़े बना लाईं.

मालिनी फ्रैश हो कर टेबल पर आ गई. पूछा, ‘‘क्या बनाया आंटी? वाह पकौड़े… तू भी खा निविदा. क्या स्वादिष्ठ पकौड़े बनाए हैं आंटी… इस निविदा को भी सिखा दीजिए… कभीकभी पीजी होस्टल के रूम में ऐसे ही पकौड़े बना कर खिला दिया करना.’’

‘‘निविदा तुम्हारी नौकरानी है न,’’ एकाएक निविदा के पापा बुदबुदाए.

‘‘अंकल कुछ कहा आप ने?’’

मगर उन्होंने कोईर् जवाब नहीं दिया. रात को मालिनी कमरे में निविदा से अपने व्यवहार के लिए माफी मांग रही थी.

‘‘पर तू ऐसा कर क्यों रही है… मेरे पापा के मन में मेरी बैस्ट फ्रैंड की इमेज खराब हो जाएगी.’’

‘‘तू देखती जा कि मैं क्या करती हूं.’’

दूसरे दिन नाश्ते की टेबल पर सब चुपचाप नाश्ता कर रहे थे. लेकिन मालिनी का घमासान जारी था. वह निविदा को किसी न किसी चीज के लिए किचन में दौड़ा रही थी.

‘‘अच्छा, वह अखबार भी उठा कर देना तो जरा निविदा,’’ वह इतमीनान से टोस्ट के ऊपर आमलेट रख कर खाते हुए बोली.

निविदा ने अखबार ला कर उसे दे दिया. फ्रंट पेज पर समाचार समलैंगिक संबंधों पर कोर्ट की मुहर लगने को ले कर था.

‘‘तुझे पता है निविदा, समलैंगिकता क्या होती है?’’ एकाएक मालिनी बोली.

निविदा के पापा के हाथ से टोस्ट छूटतेछूटते बचा. उन्होंने गुस्से से भरी नजरों से निविदा की तरफ देखा. निविदा को काटो तो खून नहीं.

‘‘चुप मालिनी बाद में बात करेंगे,’’ वह किसी तरह बोली.

‘‘अरे बाद में क्या… देख न अंदर क्या समाचार छपा है… एक पिता ने अपनी तीनों बेटियों से रेप किया… कितने वहशी होते हैं ये पुरुष… अपनी शारीरिक क्षमता पर बहुत घमंड है इन्हें… औरत को कमजोर समझते हैं… औरत इन के लिए एक शरीर मात्र है… 2 टांगों के बीच कुदरत ने इन्हें जो दिया है न उस के बल पर दुनिया रौंदने चले हैं… न रिश्ता देखते हैं, न उम्र… न समय देखते हैं न परिस्थिति… हर तरह से औरत का इस्तेमाल करना, फायदा उठाना शगल है इन का… बीवी के रूप में भी औरत का शोषण करते हैं. कमजोर मानसिकता के खुद होते हैं और मारतेपीटते, सताते बीवियों को हैं… मेरा पति ऐसा करेगा तो हाथपैर तोड़ कर रख दूंगी…’’

निविदा और सुलेखा सन्न बैठी रह गईं. पापा के सामने मालिनी की ऐसी बेबाकी से निविदा की टांगें कांपने लगीं. हाथ से दूध का गिलास छूट गया. गिलास तो फूटा ही, नाश्ते की प्लेट भी नीचे गिर कर टूट गई.

‘‘निविदा,’’ पापा की कु्रद्ध दहाड़ गूंजी, ‘‘तमीज नहीं है तुम्हें… इसीलिए भेजा है तुम्हें घर से बाहर पढ़ने कि तुम समय देखो न जगह… कुछ भी डिसकस करने लग जाओ.’’

निविदा को लगा कि पापा का गुस्सा आज या तो उस की मम्मी को हलाल करेगा या फिर उसे.

लेकिन मालिनी इतमीनान से बोली, ‘‘यह क्या निविदा… दूध पीती बच्ची है क्या अभी… चीजें गिराती रहती है… और तू कांप क्यों रही है… हर वक्त कांपती रहती है, क्लास में… कालेज में टीचर्स के सामने, लड़कियों के सामने. मैं सोचती थी तू वहीं कांपती है. डरपोक कहीं की. अंकल इसे किसी मनोचिकित्सक को दिखाइए… मानसिक रूप से बीमार है आप की बेटी.’’

निविदा के पापा गुस्से में नाश्ता पटक कर बाहर चले गए. निविदा खुद को संयत नहीं कर पा रही थी. मालिनी के सामने तो पापा ने किसी तरह खुद को नियंत्रित कर लिया पर इस का खमियाजा उसे बाद में भुगतना पड़ेगा.

पापा के जाने के बाद मालिनी निविदा को खींच कर कमरे में ले गई और छाती से चिपका लिया, ‘‘डर मत निविदा, तेरा डर ही तेरा दुश्मन है. अकसर हमारे अंदर के डर का दूसरे फायदा उठाते हैं. तेरे घर का वातावरण और तेरे पापा के व्यवहार, क्रोध व ज्यादतियों ने तेरे अंदर डर भर दिया है और मैं तेरा यह डर दूर कर के रहूंगी.’’

निविदा देर तक मालिनी के कंधे पर सिर रख कर रोती रही. उस के पापा इस कुसंस्कारी, दिशाहीन, वाचाल लड़की को जितना अपनी नजरों से दूर रखना चाहते, वह उतना ही उन के आसपास मंडराती. निविदा मन ही मन कामना कर रही थी कि मालिनी के रहते हुए घर में कोई अप्रिय स्थिति न खड़ी हो… कहीं पापा मम्मी की धुनाई कर के अपना गुस्सा न निकाल दें या फिर मालिनी को ही कुछ उलटासीधा बोल दें.

मालिनी को आए 1 हफ्ता होने वाला था. एक दिन एकाएक निविदा के

फोन पर किसी लड़के के दोस्ताना मैसेज आने लगे. वह कोई गलत बात तो नहीं करता पर उस के प्रोफाइल फोटो पर बड़े प्यारे कमैंट करता. उसे दोस्त बनाने को उत्सुक दिखता.

निविदा बहुत परेशान हो रही थी कि न जाने कौन लड़का है. प्रोफाइल पिक्चर देखी तो काफी आकर्षक लगा. फिर मालिनी से अपनी परेशानी कही, ‘‘पता नहीं इस के पास मेरा नंबर कहां से आ गया… कहीं पापा को पता चल गया तो…’’

‘‘अरे, तू इतना डरती क्यों है? कोई ऐसीवैसी बात तो नहीं लिख रहा न… इस उम्र में दोस्ती, थोड़ीबहुत ऐसी हलकीफुलकी बातें जायज हैं. लड़केलड़की की दोस्ती कोई बुरी बात नहीं. जब तक कुछ बुरा नहीं कह रहा चुप रह.’’

यह सुन कर निविदा नहाने चली गई.

मालिनी ने निविदा का मोबाइल उठा कर चुपचाप लौबी में अखबार पढ़ते उस के पापा के सामने टेबल पर रख दिया. मैसेज लगातार आ रहे थे. लगातार बजती मैसेज टोन से परेशान उस के पापा ने निविदा का मोबाइल उठाया और चैक करने लगे. किसी लड़के के मैसेज निविदा के मोबाइल पर और वे भी ऐसे दिलकश अंदाज में, साथ ही उस ने अपने कई फोटो भी भेजे थे. उन्हें समझ नहीं आया कि पहले मोबाइल पटकें या निविदा को या फिर मालिनी को घर से निकालें… बस बहुत हो गई बाहर रह कर पढ़ाई.

‘‘निविदा… सुलेखा…’’ वे बहुत जोर से चिल्लाए.

कागज का रिश्ता- भाग 3: क्या परिवार का शक दूर हुआ

‘‘ऐसा मत कहिए. मोहन सिर्फ मेरा पत्र मित्र है और कुछ नहीं. मेरे मन में आप के प्रति गहरी निष्ठा है. आप मुझ पर शक कर रहे हैं,’’ कहते हुए विभा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘तुम चाहे अब अपनी कितनी भी सफाई क्यों न दो लेकिन मैं यह नहीं मान सकता कि मोहन तुम्हारा केवल पत्र मित्र है. कौन पति यह सहन कर सकता है कि उस की पत्नी को कोई पराया मर्द प्रेमपत्र भेजता रहे,’’ मुकेश का स्वर अब नफरत में बदलने लगा था.

‘‘आप पत्र पढ़ कर देख लीजिए, यह कोई प्रेमपत्र नहीं है,’’ विभा ने जल्दी से मोहन का पत्र दराज से निकाल कर मुकेश के आगे रखते हुए कहा.

‘‘यह पत्र अब तुम अपने भविष्य के लिए संभाल कर रखो,’’ मुकेश ने मोहन का पत्र विभा के मुंह पर फेंकते हुए कहा.

‘‘तुम जानते नहीं हो मुकेश, मेरी दोस्ती सिर्फ कागज के पत्रों तक ही सीमित है. मेरा मोहन से ऐसावैसा कोई संबंध नहीं है. अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’ विभा अब सचमुच रोने लगी थी.

‘‘तुम मुझे क्या समझाओगी? शादी के बाद भी तुम्हारी आंखों में मोहन का रूप बसता रहा. तुम्हारे हृदय में उस के लिए हिलोरें उठती हैं. मैं इतना बुद्धू नहीं हूं, समझीं,’’ मुकेश पलंग से उठ कर सोफे पर जा लेटा.

विभा देर तक सुबकती रही.

अगली सुबह मुकेश कुछ जल्दी ही उठ गया. जब तक विभा अपनी आंखों को मलते हुए उठी तब तक तो वह जाने के लिए तैयार भी हो चुका था. विभा ने आश्चर्य से घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. विभा घबरा कर जल्दी से रसोई में पहुंची. वह मुकेश के लिए नाश्ता बना कर लाई, परंतु वह जा चुका था.

विभा मुकेश को दूर तक जाते हुए देखती रही, नाश्ते की प्लेट अब तक उस के हाथों में थी.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’ दरवाजे के बाहर खड़ी उस की सास ने भीतर आते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मांजी,’’ विभा ने सास से आंसू छिपाते हुए कहा.

‘‘मुकेश क्या नाश्ता नहीं कर के गया?’’ उन्होंने विभा के हाथ में प्लेट देख कर पूछा.

‘‘जल्दी में चले गए,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ मुड़ गई.

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी कि आदमी घर से भूखा ही चला जाए. मैं देख रही हूं, तुम दोनों में कई दिनों से कुछ तनाव चल रहा है. बात बढ़ने से पहले ही निबटा लेनी चाहिए, बहू. इसी में समझदारी है.’’

शाम को मुकेश दफ्तर से लौटा तो मां ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा, ‘‘मुकेश, आजकल इतनी देर से क्यों लौटता है?’’

‘‘मां, दफ्तर में आजकल काम कुछ ज्यादा ही रहता है.’’

‘‘आजकल तू उदास भी रहता है.’’

‘‘नहींनहीं, मां,’’ मुकेश ने बनावटी हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘आज कोई पुरानी फिल्म डीवीडी पर लगाना,’’ मां ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए मुकेश उठ कर अपने कमरे में चला गया.

दिनभर के थके और भूख से बेहाल हुए मुकेश ने जैसे ही कमरे की बत्ती जलाई, उसे अपने बिस्तर पर शादी का अलबम नजर आया. कपड़े उतारने को बढ़े हाथ अनायास ही अलबम की तरफ बढ़ गए. वह अलबम देखने बैठ गया. हंसीठिठोली, मानमनुहार, रिश्तेदारों की चुहलभरी बातें एक बार फिर मन में ताजा हो उठीं. तभी विभा ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए.’’

मुकेश का गुस्सा अभी भी नाक पर चढ़ा था, पर उस ने पत्नी के हाथ से चाय का प्याला ले लिया. विभा फिर रसोईघर में चली गई.

मुकेश जब तक हाथमुंह धो कर बाथरूम से निकला, परिवार रात के खाने के लिए मेज पर बैठ चुका था. विमला देवी ने बेटे को पुकारा, ‘‘मुकेश, आओ बेटे, सभी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

कुरसी पर बैठते हुए मुकेश सामान्य होने का प्रयत्न कर रहा था, पर उस का रूखापन छिपाए नहीं छिप रहा था. सभी भोजन करने लगे तो विमला देवी बोलीं, ‘‘आज मुकेश जल्दीजल्दी में नाश्ता छोड़ गया तो विभा ने भी पूरे दिन कुछ नहीं खाया.’’

‘‘पतिव्रता स्त्रियों की तरह,’’ राकेश ने शरारत से हंसते हुए कहा.

विमला देवी भी मुसकराती रहीं, पर मुकेश चुपचाप खाना खाता रहा. गरम रोटियां सब की थालियों में परोसते हुए विभा ने यह तो जान लिया था कि मुकेश बारबार उस को आंख के कोने से देख रहा है, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर शब्द न मिल रहे हों.

रात में बिस्तर पर बैठते हुए विभा बोली, ‘‘देखिए, मेरे दिल में कोई ऐसीवैसी बात नहीं है. हां, आज तक मैं अपने बरसों पुराने पत्र मित्रों के पत्रों को सहज रूप में ही लेती रही. मेरे समझने में यह भूल अवश्य हुई कि मैं ने कभी गंभीरता से इस विषय पर सोचा नहीं…’’

मुकेश चुपचाप दूसरी तरफ निगाहें फेरे बैठा रहा. विभा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘आज दिनभर मैं ने इस विषय पर गहराई से सोचा. मेरी एक साधारण सी भूल के कारण मेरा भविष्य एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. हम दोनों की सुखी गृहस्थी अलगाव की तरफ मुड़ गई है. मैं आज ही आप के सामने इन कागज के रिश्तों को खत्म किए देती हूं.’’

यह कहते हुए विभा ने बरसों से संजोया हुआ बधाई कार्डों व पत्रों का पुलिंदा चिंदीचिंदी कर के फाड़ दिया और मुकेश का हाथ अपने हाथ में लेते हुए धीरे से कहा, ‘‘मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मैं सिर्फ आप की हूं.’’

शक के कारण अपनत्व की धुंधली पड़ती छाया मुकेश की पलकों को गीला कर के उजली रोशनी दे गई. वह पत्नी के हाथ को दोनों हाथों में दबाते हुए बोला, ‘‘मुझे अब तुम से कोई शिकायत नहीं है, विभा. अच्छा हुआ जो तुम्हें अपनी गलती का एहसास समय रहते ही हो गया.’’

‘‘जो कुछ हम ने कहासुना, उसे भूल जाओ,’’ विभा ने पति के समीप आते हुए कहा.

‘‘मुझे गुस्सा तुम्हारी लापरवाही ने दिलाया. एक के बाद एक तुम्हारे पत्र आते चले गए और मेरी स्थिति अपने परिवार में गिरती चली गई. जरा सोचो, अगर घर के बुजुर्ग इन पत्रों को गलत नजरिए से देखने लगते तो परिवार में तुम्हारी क्या इज्जत रह जाती?’’ मुकेश ने धीमे स्वर में कहा.

विभा कुछ नहीं बोली. मुकेश ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘उस शाम जब राकेश ने तुम्हारा वह पत्र मेरे हाथों में दिया था तो तुम नहीं जानतीं, वह कैसी विचित्र निगाहों से तुम्हें ताक रहा था. वह लांछित दृष्टि मैं बरदाश्त नहीं कर सकता, विभा. हम ऐसा कोई काम करें ही क्यों जिस में हमारे साथसाथ दूसरों का भी सुखचैन खत्म हो जाए?’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं,’’ विभा ने इस बार मुकेश की आंखों में देखते हुए कहा. उस ने मन ही मन अपने पति का धन्यवाद किया. जिस तरह मुकेश ने भविष्य में होने वाली बदनामी से विभा को बचाया, यह सोच कर वह आत्मविभोर हो उठी. फिर लाइट बंद कर सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई.

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