एक रिश्ता ऐसा भी: क्या हुआ था मिस मृणालिनी ठाकुर के साथ

यों यह था तो शहर का एक बौयज कालेज अर्थात लड़कों का कालेज, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षकों में आधे से अधिक संख्या महिलाओं की थी. लेडीज क्या थीं रंगबिरंगी, एक से बढ़ कर एक नहले पे दहला वाला मामला था. इन रंगों में मिस मृणालिनी ठाकुर का रंग बड़ा चोखा था.

लंबे कद, छरहरे बदन और पारसी स्टाइल में रंगबिरंगी साडि़यां पहनने वाली मिस मृणालिनी ठाकुर सब से योग्य टीचरों में गिनी जाती थीं. अपने विषय पर उन्हें महारत हासिल था. फिर रुआब ऐसा कि लड़के पुरुष टीचर्स का पीरियड बंक कर सकते थे, मगर मिस मृणालिनी ठाकुर के पीरियड में उपस्थिति अनिवार्य थी.

लड़का मिस मृणालिनी का शागिर्द हो और कालेज में होते हुए उन का पीरियड मिस करे, ऐसा बहुत कम ही होता था, इस लिहाज से मिस मृणालिनी ठाकुर भाग्यशाली कही जा सकती थीं कि लड़के उन से डरते ही नहीं थे, बल्कि उन का सम्मान भी करते थे.

इस तरह के भाग्यशाली होने में कुछ अपने विषय पर महारत हासिल होने का हाथ था तो कुछ मिस मृणालिनी ठाकुर की मनुष्य के मनोविज्ञान की समझ भी थी. वह अपने स्टूडेंट्स को केवल पढ़ा देना और कोर्स पूरा कराने को ही अपनी ड्यूटी नहीं समझती थीं, बल्कि वह उन के बहुत नजदीक रहने को भी अपनी ड्यूटी का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझती थीं.

हालांकि उन के साथियों को उन का यह व्यवहार काफी हद तक मजाकिया लगता था. मिसेज अरुण तो हंसा करती थीं, उन का कहना था, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर लेक्चरर के बजाय प्राइमरी स्कूल की टीचर लगती हैं.’’

मगर मिस मृणालिनी ठाकुर को इस की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि उन के व्यवहार के बारे में लोगों की क्या राय है, उन का कहना था कि जो बच्चे हम से शिक्षा लेने आते हैं हम उन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, इसलिए हमें अपना कर्तव्य नेकनीयती और ईमानदारी से पूरा करना चाहिए.

मिस मृणालिनी ठाकुर के साथियों की सोचों से अलग स्टूडेंट्स की अधिकतर संख्या उन के जैसी थी. उन्हें सच में किसी प्राइमरी स्कूल के टीचर की तरह मालूम होता था कि लड़के का पिता क्या करता है, कौन फीस माफी का अधिकारी है? कौन पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जौब करता है? आदि आदि.

पता नहीं यह स्टूडेंट्स से नजदीकी का परिणाम था या किसी अपराध की सजा कि एक सुबह कालेज आने वालों ने लोहे के मुख्य दरवाजे के एक बोर्ड पर चाक से बड़े अक्षरों में लिखा देखा—आई लव मिस मृणालिनी ठाकुर.

इस एक वाक्य को 3 बार कौपी करने के बाद लिखने वाले ने अपना व क्लास का नाम बड़ी ढिठाई से लिखा था: शशि कुमार सिंह, प्रथम वर्ष, विज्ञान सैक्शन बी.

किसी नारे की सूरत में लिखा यह वाक्य औरों की तरह मिस मृणालिनी ठाकुर को अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रह सका. क्षण भर को तो वह सन्न रह गईं.

उन्होंने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. शायद कोई न होता तो वह अपनी सिल्क की साड़ी के पल्लू से वाक्य को मिटा देतीं. मगर स्टूडेंट ग्रुप पर ग्रुप की शक्ल में आ रहे थे, बेतहाशा धड़कते दिल को संभालती मिस मृणालिनी ठाकुर स्टाफरूम तक पहुंचीं और अंदर दाखिल होने के बाद अपना सिर थामती हुई कुरसी पर गिर गई.

‘‘यकीनन आप देखती हुई आई हैं,’’ मिसेज जयराज की आवाज मिस मृणालिनी ठाकुर को कहीं दूर से आती मालूम हुई. उन्होंने सिर उठा कर मिसेज जयराज की ओर देखा और कंपकंपाती आवाज में बोलीं, ‘‘आप ने भी देखा?’’

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

लेक्चर वह अत्यंत तन्मयता से सुनता और लेक्चर के मध्य ऐसे ऐसे प्रश्न करता, जिन की उम्मीद एक तेज स्टूडेंट से ही की जा सकती थी.

मिस मृणालिनी लेक्चर देना ही काफी नहीं समझती थीं बल्कि असाइनमेंट देना और उसे चैक करना भी जरूरी समझती थीं. शशि सिंह कई बार अपना काम चैक कराने मिस मृणालिनी और मिस्टर अंशुमन के कौमन रूम में आया था. वह जब भी आता, बड़े सलीके और सभ्यता के साथ. इस आनेजाने के बीच मिस मृणालिनी ने उस के बारे में यह मालूमात हासिल की थी कि उस के मातापिता दक्षिण अफ्रीका में थे, वह यहां अपनी नानी के पास रहा करता था.

शशि जैसे सभ्य स्टूडेंट से मिस मृणालिनी को इस किस्म की छिछोरी हरकत की उम्मीद भी नहीं थी. उन्हें यकीन था कि यह हरकत किसी और की थी मगर उस ने शरारतन या रंजिशन शशि सिंह का नाम लिख दिया था.

बहरहाल, रामलाल ने कोई 15 मिनट बाद आ कर यह समाचार सुनाया कि मेनगेट पर से एकएक शब्द मिटा आया है. मगर यह बताते हुए उस के चेहरे पर अजीब सी मुसकराहट थी. मिस मृणालिनी ने अपने हैंड बैग में रखा छोटा सा पर्स निकाल कर 20 रुपए का नोट रामलाल की ओर बढ़ा दिया.मगर बात तो फैल चुकी थी, न सिर्फ टीचरों, बल्कि स्टूडेंट्स के बीच भी तरहतरह की बातें हो रही थीं.

घंटी बज गई. लड़के अपनीअपनी क्लासों में चले गए. मृणालिनी भी पीरियड लेने चली गईं. मजे की बात यह हुई कि उन का पहला पीरियड फर्स्ट ईयर साइंस बी सैक्शन में ही था. मिस मृणालिनी पहली बार क्लास में जाते हुए झिझक रही थीं, उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. लेकिन जाना तो था ही, सो गईं और लेक्चर दिया.

लेक्चर के दौरान उन की निगाह शशि सिंह पर भी पड़ी, वह रोज की तरह तन्मयता से सुन रहा था. मिस मृणालिनी लेक्चर देती रहीं, लेकिन आंखें रोज की तरह लड़कों के चेहरों पर पड़ने के बजाए झुकीझुकी थीं. पहली बार मिस मृणालिनी को क्लास के चेहरों पर दबीदबी मुसकराहटें दिखीं.

जैसेतैसे पीरियड समाप्त हुआ तो मृणालिनी ठाकुर कमरे की ओर चल दीं. वह कमरे में पहुंची तो मिस्टर अंशुमन पहले ही मौजूद थे. मिस मृणालिनी ने रोज की तरह उन का अभिवादन किया और अपनी सीट पर बैठ गईं.

जरा देर बाद मिस्टर अंशुमन खंखारे और चंद क्षणों की देरी के बाद उन की आवाज मिस मृणालिनी के कानों से टकराई.

‘‘शशि सिंह से पूछा आप ने?’’

ओह तो इन्हें भी पता चल गया. मिस मृणालिनी ने आंखों के कोने से मिस्टर अंशुमन की ओर देखते हुए सोचा और पहलू बदल कर बोलीं, ‘‘जी नहीं.’’
‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा विचार है यह किसी और की शरारत है, शशि सिंह बहुत अच्छा लड़का है.’’
‘‘आप ने पूछा तो होता, आप के विचार के अनुसार अगर उस ने नहीं लिखा तो संभव है उस से कोई सुराग मिल सके.’’

मिस्टर अंशुमन ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.
कुछ देर बाद शशि सिंह नीची निगाहें किए फाइल हाथ में लिए अंदर दाखिल हुआ. मिस्टर अंशुमन कड़क कर बोले, ‘‘क्या तुम बता सकते हो गेट पर किस ने लिखा था?’’

‘‘यस सर.’’ बिना देरी किए जवाब आया.
मृणालिनी ठाकुर ने घबरा कर और चौंक कर शशि की ओर देखा.
‘‘किस ने लिखा था?’’ अंशुमन सर की रौबदार आवाज गूंजी.
‘‘मैं ने..’’ शशि ने कहा.

मिस मृणालिनी चौंकी. उन्होंने देखा शशि अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद बड़े इत्मीनान से खड़ा था.
अंशुमन सर ने मृणालिनी की ओर देखा, मानो उन की आंखें कह रही थीं, ‘मिस मृणालिनी आप का तो विचार था…’मृणालिनी ने नजरें झुका लीं.

‘‘मैं मेनगेट की बात कर रहा हूं, वहां मिस मृणालिनी के बारे में तुम ने ही लिखा था?’’ अंशुमन सर ने साफतौर पर पूछा ‘‘यस सर.’’ बड़े इत्मीनान से जवाब दिया गया.

‘‘यू इडियट… तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?’’

अंशुमन दहाड़े, वह कुरसी से उठे और शशि के गोरेगोरे गाल ताबड़तोड़ चांटों से सुर्ख कर दिए. शशि सिर झुकाए किसी प्राइमरी कक्षा के बच्चे की तरह खड़ा पिटता रहा.

अंशुमन सर जिन का गुस्सा कालेज भर में मशहूर था, जिस कदर हंगामा कर सकते थे, उन्होंने किया. उस के 2 कारण हो सकते थे. पहला तो खुद मृणालिनी में उन की दिलचस्पी और आकर्षण और दूसरा स्टूडेंट्स और साथियों से यह कहलवाने का शौक कि अंशुमन सर बहुत सख्त इंसान हैं.

शोर सुन कर अंशुमन सर के कमरे के दरवाजे पर भीड़ सी इकट्ठी हो गई. मगर अंशुमन सर ने बाहर निकल कर घुड़की लगाई तो ज्यादातर रफूचक्कर हो गए. मगर चंद दादा किस्म के लड़के शशि की हिमायत में सीना तान कर आ गए.

मिस मृणालिनी बेहोश होने को थीं मगर इस से पहले उन्होंने भयानक नजरों से शशि की ओर देखा और पूरी ताकत से चिल्लाईं, ‘‘गेट आउट फ्राम हियर.’’
वह चुपचाप निकल गया. और फिर कभी कालेज नहीं आया.

फिर भी मिस मृणालिनी को उस का खयाल कई बार आया. इस घटना का फौरी और स्थाई परिणाम यह हुआ कि मिस मृणालिनी और उन के स्टूडेंट्स के बीच एक सीमा रेखा खिंच गई.

12 साल गुजर गए. उस घटना को समय की दीमक आहिस्ताआहिस्ता चाट गई. अंशुमन सर ने मिस मृणालिनी की ओर से मायूस हो कर शादी कर ली और कनाडा चले गए. कालेज में कई परिवर्तन आए, मिस मृणालिनी ठाकुर अपनी योग्यता और अनथक परिश्रम के सहारे वाइस प्रिंसिपल के पद पर नियुक्त हो गईं.

12 साल पहले की 28 वर्षीय मिस मृणालिनी एक अधेड़ सम्मानीय औरत की शक्ल में बदल गईं. 12 साल बाद जनवरी की एक सुबह चपरासी ने मिस मृणालिनी को एक विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा, ‘‘मैडम, एक साहब आप से मिलने आए हैं.’’

मिस मृणालिनी जो चंद कागजात देखने में व्यस्त थीं, कार्ड देखे बिना बोलीं, ‘‘बुलाओ.’’
जरा देर बाद उच्च क्वालिटी का लिबास पहने लंबे कद और भरेभरे जिस्म वाला व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ. उन्होंने बिखरे हुए कागजात इकट्ठा करते हुए कहा, ‘‘तशरीफ रखिए.’’

वह बैठ गया और जब मिस मृणालिनी ठाकुर कागजात इकट्ठा करने के बाद उस की ओर मुखातिब हुईं तो वह बहुत ही साफसुथरी अंग्रेजी में बोला, ‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर एक लम्हा को मुसकराईं और फिर एक निगाह उस के चेहरे पर डाल कर बोलीं, ‘‘पुराने स्टूडेंट हैं आप?’’

‘जी हां.’’

‘‘दरअसल इतने बच्चे पढ़ कर जा चुके हैं कि हर एक को याद रखना मुश्किल है.’’ मिस मृणालिनी ठाकुर का चेहरा अपने स्टूडेंट्स के जिक्र के साथ दमक उठा.
‘‘माफ कीजिएगा मैडम, बड़ा निजी सा सवाल है.’’ वह खंखारा.

मिस मृणालिनी चौंकी.
‘‘आप अब तक मिस मृणालिनी ठाकुर हैं या…’’

‘‘हां, अब तक मैं मिस मृणालिनी ठाकुर ही हूं.’’ स्नेह उन के चेहरे से झलक रहा था.
‘‘आप ने वाकई में नहीं पहचाना अब तक?’’ वह मुसकराकर बोला.

मिस मृणालिनी ने बहुत गौर से देखा और घनी मूंछों के पीछे से वह मासूम चेहरे वाला सभ्य सा शशि सिंह उभर आया.

‘‘क्या तुम शशि सिंह हो?’’ मस्तिष्क के किसी कोने में दुबका नाम तुरंत उन के होठों पर आ गया.
‘‘यस मैडम.’’ वह अपने पहचान लिए जाने पर खुश नजर आया.
‘‘ओह…’’ मिस मृणालिनी की समझ में कुछ न आया क्या करें, क्या कहें.

‘‘मैं डर रहा था अंशुमन सर न टकरा जाएं कहीं.’’ वह बेतकल्लुफी से बोल रहा था. मिस मृणालिनी ठाकुर शांत व बिलकुल चुप थीं.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका चला गया था. फिर वहां से डैडी ने अंकल के पास इंग्लैंड भेज दिया. अब सर्जन बन चुका हूं और अपने देश आ गया हूं. मैं आप को कभी भूल न सका. मुझे विश्वास था आप कभी न कभी, कहीं न कहीं फिर मुझे मिलेंगी. और वाकई आप मिल गईं, उसी जगह जहां मैं छोड़ कर गया था.’’
‘‘माइंड यू बौय.’’ मिस मृणालिनी ने उस की बेतकल्लुफी पर कुछ नागवारी के साथ कहा.

‘‘मेरी मम्मी भी किसी हालत में यह स्वीकार नहीं करतीं कि मैं अब बच्चा नहीं रहा.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने देखा वह बड़े सलीके से मुसकरा रहा था. वह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था, पता नहीं कहां जा छिपा था.

‘‘आई स्टिल लव यू मिस मृणालिनी.’’ वह 12 साल बाद एक बार फिर अपने अपराध को स्वीकार रहा था.

‘‘शट अप!’’ मिस मृणालिनी का चेहरा लाल हो गया.
‘‘नो मैडम, आई कान्ट! और क्यों मैं अपनी जुबान बंद रखूं. अगर एक बेटे को यह अधिकार है कि वह अपनी मां को चूम कर उस के गले में बांहें डाल कर उस से अपने प्रेम का इजहार कर सकता है तो इतना अधिकार हर स्टूडेंट को है वह अपने रुहानी मातापिता से प्रेम कर सके. क्या गलत कह रहा हूं मिस मृणालिनी ठाकुर? क्या गुरु से प्रेम की स्वीकारोक्ति अपराध है मैडम?’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने हैरानी से देखा वह कह रहा था.
‘‘अगर अंशुमन सर की तरह आप ने भी इसे अपराध मान लिया तो यह वाकई में बड़ा दुखद होगा.’’
मिस मृणालिनी अविश्वास से उस की ओर देख रही थीं.

‘‘यस मैडम आइ लव यू.’’ उस ने एक बार फिर स्वीकार किया.

‘‘ओह डियर….’’ भावनाओं के वेग से मिस मृणालिनी की जुबान गूंगी हो चली थी. बिलकुल उस मां की तरह जिस का बेटा सालों बाद घर लौट आया हो.

यह नाइटी जो न हुई: सुहानी की कहानी

अजीअब अकेले में भी गुफ्तगू न कर सके तो लानत है ऐसी मर्दानगी पर और वैसी नाइटी वाली मुहतरमा के जुल्म ढाने वाले लापरवाह हुस्न पर. हम तो समझा करते थे नाइटी का मतलब-बेमतलब पोशाकों की उधेड़बुन से बच कर सस्ता टिकाऊ आवरण, जो स्त्री के लिए पहनना आसान भर हो. भई, हमें क्या मालूम था कि नाइटी की नटी हमारे जीवन में यों नाट्य भर जाएगी.

हमारी कयामत, जबान फिसल गई जी जरा. हमारी हुस्ने मलिका यानी हमारी श्रीमतीजी तो चौबीसों घंटे साड़ी में यों लिपटी रहती हैं जैसे खोल में गद्देदार तकिया. हिलाओडुलाओ तब भी न सरके.

अब बेचारी हमारी आंखें बटन तो नहीं. तरसती रहती हैं हुस्ने शबाब में गोते लगाने को. अब आप ही बताएं कि अगर ये दीदार वाली आंखें न हों तो हुस्न का काम ही क्या?

अजी साहब गुस्ताखी माफ. आज दरअसल बोलने का या कहूं श्रीमतीजी के पड़ोस में जाने से लिखने का मौका मिल गया तो हम भी बुक्का फाड़ के अपने दिल की निकालने लग पड़े.

सब्र का भी बांध होता है कोई जी. हर वक्त अब तो श्रीमतीजी का पहरा ही लग गया है हम पर. ‘यहां बालकनी में क्या कर रहे हो?’, ‘यहां छत पर क्या कर रहे हो?’, ‘खिड़की में क्या कर रहे हो?’, ‘दरवाजे पर क्या कर रहे हो?’ अजी इतना पूछेंगी तो हम भी न सोचेंगे कि आखिर है क्या इधर जो इतनी रोकटोक?

अब दिल तो बच्चा है न जी. सो हम ने भी बालकनी से, छत से, खिड़की से, दरवाजे से, आखिर वह राज जान ही लिया, जो हमारी कयामत श्रीमतीजी (लाहौल वला कूबत) ने छिपा कर रखना चाहा था.

चलो, अब और पहेलियां न बुझाएं वरना आप हम से खार खा जाओगे.

तो हुआ यों कि इस नई बसीबसाई सुसंस्कृत कालोनी के सिस्टम से बने सारे

बंगलों में से चुनचुन कर हमारे ही नए बंगले के सामने वाले बंगले में एक नवविवाहित जोड़ा रहने आया.

इन की शादी को मुश्किल से 4 महीने हुए होंगे. पहलेपहल तो इन दोनों की चुटिया तक न दिखती थी, मगर अब कुछ दिनों से तो हमारे पौबारह हैं. जब चाहो नजरें सेंक लो. सुना है लड़के के धनकुबेर ससुरजी से दामादबेटी को यह बंगला हासिल हुआ है. इस पतिपत्नी की उम्र करीब 25-30 के बीच होगी. उन के पतिदेव तो जाते अलसुबह चाकरी पर और हम जाते औफिस 10 बजे.

हमारी तकिए की खोल वाली मलिका खैर करें हमारी श्रीमतीजी जब तक रसोई में बरतन खटकातीं, हम अखबार पर आंखें रखते ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ के जुमले को चरितार्थ करते नजरों की भागदौड़ को मनमरजी भागने देते हैं. बेचारे एक ही कालकोठरी के गुलाम, कभीकभी दिल बिदक जाए तो कुसूर ही क्या.

तो बिदकते हुए वह हमारे सामने वाले बंगले की नवयौवना, नवप्रफुल्लिता, नवसमर्पिता के हृदय कोष्ठ तक पहुंच गया, जो सागर की दुर्दांत लहरों की तरह उछलउछल कर बरसों तक एक ही गागर का पानी पीतेपीते थक चुके नवरस के प्यासे को आलिंगन में भरने को उतावला हुआ जाता था.

40 पार के अधखाए इस गुठली सर्वस्व आम जैसे आम व्यक्ति के लिए यह तो वाकईर् बड़ी बात थी. सुदर्शना घर पर रहते वक्त बालकनी में, छत पर, खिड़की पर, दरवाजे पर यानी हर उस जगह पर जहांजहां मुझ पर पहरे थे, नाइटी में ही दिखती थीं.

 

एक से बढ़ कर एक नाइटी. कभी झीनी मिनी नाइटी, कभी स्लीवलैस नाइटी, कभी बैकलैस नाइटी, फुग्गेदार बांहों वाली फ्रंट कट नाइटी, कभी सुराहीदार कमर में लिपटी बलखाती नाइटी, कभी चिकने पैरों से नजरें फिसलाती नाइटी. इन रसास्वादन में डूब कर हम मन ही मन बटन बन चुकी आंखों से कुछकुछ दिवास्वप्न देखने लग गए थे. अब गुस्ताखी तो थी, मगर अपनी श्रीमतीजी से कह दें कि अजी तुम भी कुछ बदनउघाड़ू झीनी मिनी नाइटी पहन कर हमारे तनमन पर तितली जैसी उड़ चलो तो वे झाड़ू से हमारा जहर न झाड़ दें और तितली की तो क्या, कहीं गैंडे जैसी हमारे सिर पर सवार हो गईं तो लेने के देने न पड़ जाएं? ख्वामख्वाह ही कयामत नहीं बोलतेजी.

खैर, अब जब 50 मीटर की दूरी से दीदारे हुस्न ज्यादा ही मन को तरसाने लगा तो सोचा क्यों न पड़ोसी होने के नाते कुछ वादसंवाद ही स्थापित कर लिया जाए. सो हम ने श्रीमतीजी को ‘दिखाने के दांत’ बना कर साथ ले चलना ठीक समझा. ऐसे भी ठीक न समझ कर करते भी क्या?

उन के हुक्म के बिना हमारा तो पत्ते सा शरीर भी नहीं हिलता. तो ‘दिखाने के दांत’ के साथ जैसे ही हम उन के घर के दरवाजे पर पहुंचे हमारी सांसें तो थमने को हो गईं.

गोरी नारी छरहरे बदन पे मृदुल मांसल काया,

चपलाचंचला तू कामिनी, तेरी नाइटी की अजब माया.

मुखर यामिनी, मृदुहासिनी, मधुभाषिणी… हम तो सरपट कवि हुए जा रहे थे.

हमारी जबान ने जिस बात पर अब तक ताला जड़ रखा था वह बात भी अब खुशी के मारे हमारे फूले गुब्बारे से मुंह से बाहर निकलने लग पड़ थी. क्या है कि हमारी श्रीमतीजी की काया, काया क्या कहें साड़ी में लिपटी भैंसन सी पहलवानी तगड़ी काया के आगे बढ़ हम कभी एक छटांक भर का स्वप्न भी देखने की हिम्मत न कर पाए थे. मगर अब तो इस नाइटी की रासलीला ने हमारे अंदर साहस का दरिया ही नहीं पूरा समंदर भर दिया था कि अब हम इस आग के समंदर में बेझिझक तैरने वाले थे.

शाम हो चली थी. इच्छा तो नहीं थी कि उस स्वप्नसुंदरी के पतिदेव भी पधार जाएं, लेकिन जिस तरह ‘दिखाने के दांत’ हम साथ ले कर गए थे, वैसे ही उस के भी पहरेदार साथ हों तो जरा ‘रोके न रुकेगी’ वाली फील आ ही जाएगी, सोच हम इस अभियान में निकल लिए.

अंदर से स्विच औन करने की कड़क आवाज के साथ चेहरे के सामने 20 वाट के बल्ब वाली एक पुरानी लाल लाइट जल उठी. अंदर से एक कर्कश आवाज भी कानों में पड़ी, ‘‘देखो तो बाहर कौन बुला रहा है… जब देखो तब कोई न कोई मुंह उठाए चला आता है.’’

साहब ने दरवाजा खोला. सभ्यशिष्ट लगे. अंदर बैठक में ले जा कर सौफे पर बैठाया. बैठे रहे, बैठे रहे बंगले की खरीदारी से ले कर उन के ससुरालियों की खोजखबर, उन की नौकरीचाकरी, कैरियर, राजनीति, पार्टी, देशभक्ति… क्याक्या नहीं हम ने बोलते रहने की कोशिश की. कोशिश ही कर सकते हैं साहब, भैंसन सी श्रीमतीजी के आगे जबान जो सिल कर इतने वर्षों से बैठे थे और अब अचानक वक्त खपाने और जिया भरमाने के लिए सारे टौपिकों का जिम्मा हम पर ही आन पड़ा था. मगर जिस काव्यधारा की प्रेरणा से कामना की बाढ़ में बह कर हम इस ‘राम’ की देहरी तक आ जाने की हिम्मत कर पाए थे उस नाइटी सुंदरी सीता के रसपान को जिया हलक में ही अटका रहा. कोई अतापता नहीं. बगल में बैठी श्रीमती को हम ने कुहनी मारी. अकल की होशियार या अकल की दुश्मन वही जानें, पर श्रीमतीजी ने काम और दुश्वार कर दिया हमारा. सोचा था पूछ लेंगी कि आप की बीवी कहां है? बुलाइए उसे, पर यह न पूछ कर कहती हैं कि आज बड़ी देर हो गई. अब चलते हैं. आप की बीवी से फिर कभी मिल लेंगे.

अजी, यह तो हम पर जुल्म करने की इंतहा ही हो गई. अब तो फिर से हम बालकनी में बैठेबैठे पागल होते रहेंगे.

नहींनहीं, अब हमें ही कुछ करना होगा. अंतरात्मा की आवाज भी कभी हमारी इतनी जोर न पकड़ी होगी जितनी जोर दे कर हम ने यथेष्ट शालीन होते हुए कहा, ‘‘अरे, आप दोनों को जोड़ी में एक बार देख लें. फिर तो जाना ही है, क्योंजी?’’

श्रीमतीजी को देखा तो खा जाने वाली नजरों और होंठों की मुसकराहट के तालमेल का अजब प्रयोग करती नजर आईं. पर हमारी इस से निकल पड़ी.

नवयुवक को अतिथि की अंतिम इच्छा जैसी शायद फील आ गई थी, इसलिए अंदर की ओर आवाज दे कर कहा, ‘‘रंजना, इधर आओ. तुम से मिलना चाहते हैं.’’

हमारा तो जी, क्या कहूं, पहले प्रेम के चंचल हृदय की छटपटाहट सी सांसें मुंह को आने लगीं. क्या सचमुच उस सौंदर्य की बलिहारी को हम इतने निकट से देख पाएंगे? उन से कुछ देर बातें कर पाएंगे.

खुदा कसम इसी याद के साथ इस भरकम तकिए को जिंदगी भर झेल जाएंगे. परदे ठेल कर आ रही थीं हमारी हृदय की देवी.

हम ने नजरें उठाईं. यह क्या? यह मोटीताजी 6 गज की चटगुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी चपटी नाक वाली घर में घुसते समय की कर्कश आवाज की मालकिन हमारी मनोहारिणी बलखातीइठलाती नाइटी सुंदरी?

नहींनहीं, हम चीखतेचीखते रह गए.

‘‘मिलिए, रंजना मेरी बीवी से,’’ युवक ने कहा.

हमारी अर्धांगिनी के सुखद आश्चर्य को हम बहुत शिद्दत से महसूस कर पा रहे थे. 14 साल तक धीरेधीरे यों ही न वे हमारी अर्ध अंग बनी थीं. भले ही यह आधा अंग अब हमारे पूरे अंग से भी ज्यादा भरापूरा क्यों न हो गया हो. मोटी भैंसन अभी खुशी से मन ही मन बल्लियों उछल रही थीं. हमारी खुशी पर तो उन के दिल पर सांप लौटने लगता है. अब हो गए श्रीमतीजी के सारे  अरमान पूरे.

यह तो वही कुछ सालों में होने वाली हमारी श्रीमतीजी की जिरौक्स. खुद पर क्या तरस खाएं अब तो इस युवक की ही हम सोचते रहे.

‘‘मगर आप की बीवी हम तो किसी और को समझ रहे थे?’’ हम ने घिघियाते हुए उस से स्पष्ट करवाना चाहा. आखिर गड़बड़ हुई तो कैसे?

‘‘अरे एक को आप ने देखा होगा… वह मेरी चचेरी बहन है…अमेरिका में एनआरआई लड़के से उस की शादी तय हो चुकी है. कुछ दिनों के लिए वह यहां घूमने आई थी. आज ही दोपहर को हम उसे दिल्ली फ्लाइट के लिए छोड़ आए. दिल्ली में उस का घर है. 10 दिन बाद उस की शादी है. फिर वह अमेरिका चली जाएगी.’’

आंखों के आगे मनोहारी पकवान अब भी घूम रहे थे. हम घर लौट रहे थे अपनी भूखे दांतों के बीच सूखी जीभ फिराते हुए.

 

सैरोगेट मदर: क्या था आबिदा का फैसला

आबिदा अपनी गरीबी से काफी परेशान थी. सिर्फ उस के पति जैनुल की कमाई से घर चलता था. जैनुल कपड़े सिलता था. एक तो बड़ी मुश्किल से घर चलता था, दूसरे कुछ दिनों से उस की आंखों की रोशनी बहुत ज्यादा कमजोर हो गई थी. उस की आंखें बहुत साल से खराब चल रही थीं.

आबिदा जैनुल की आंखों की कम होती रोशनी और घटती ताकत से बहुत परेशान थी.

आबिदा के 2 बच्चे थे. दोनों स्कूल में पढ़ रहे थे. आबिदा घर की तंगहाली के चलते दोनों बच्चों को ठीक से पढ़ालिखा भी नहीं पा रही थी.

आबिदा सोच रही थी कि अगर जैनुल की आंखों का आपरेशन हो जाए तो आंख की रोशनी भी ठीक हो जाएगी और वह काम भी ज्यादा करने लगेगा, मगर इस के लिए पैसे नहीं थे. आंख का आपरेशन कराने में कम से 50,000 रुपए लगेंगे.

आबिदा अपनी पड़ोसन जैनब से किसी काम के बारे में पूछताछ करती रहती थी, मगर कोई ढंग का काम नहीं मिल रहा था.

एक दिन पड़ोसन जैनब ने आबिदा को सैरोगेट मदर के बारे में बताया. दरअसल, जैनब की एक सहेली ने सैरोगेट मदर बन कर 2 लाख रुपए कमाए थे. इस में अपनी कोख किराए पर देनी होती है. अपनी कोख में किसी पराए मर्द के बच्चे को पालना पड़ता है.

पड़ोसन जैनब की इस बात का असर आबिदा पर हुआ था. उस ने भी सैरोगेट मदर बनने की ठान ली थी.

इधर जैनुल की तबीयत और खराब रहने लगी थी. आबिदा को भी पड़ोसन जैनब ने सैरोगेट मदर बनने के लिए और ज्यादा उकसाया.

आबिदा ने कहा, ‘‘इस के लिए मुझे इजाजत नहीं मिल पाएगी.’’

जैनब ने पति से पूछने को कहा.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बनने की बात अपने पति को बताई. यह सुनते ही वह भड़क गया, ‘‘कोई जरूरत नहीं है यह सब करने की. जैसे भी होगा, मैं घर चला लूंगा.’’

‘‘लेकिन इस में बुराई भी क्या है? जैनब की एक सहेली भी सैरोगेट मदर बन कर खुशहाल है. इस पैसे से तुम्हारी आंखों का आपरेशन भी हो जाएगा और बच्चों की पढ़ाईलिखाई भी ठीक से होने लगेगी. अब सैरोगेट मदर बनने में किसी के साथ सोना नहीं होता है. यह सब डाक्टर करते हैं,’’ आबिदा ने पति जैनुल को मनाते हुए कहा.

‘‘रिश्तेदार, पासपड़ोस के लोग क्या कहेंगे? सब तु झ पर हंसेंगे, मु झ पर थूकेंगे,’’ जैनुल बोला.

‘‘नहीं, कहीं कुछ गलत नहीं है. यह बुरा भी नहीं है. कितनी औरतें आज सैरोगेट मदर बन कर अपना काम बना रही हैं.’’

‘‘यह काम होता ही गुपचुप है. किसी को क्या पता चलेगा. इस में डाक्टरों को लाखों रुपए मिलते हैं. दलाल भी हजारों रुपए लेते हैं.

‘‘सब से बड़ी बात यह कि कोई जोड़ा औलाद की खुशी पाएगा, मेरी वजह से.’’

आबिदा के बहुत सम झाने और घरेलू हालात देख कर जैनुल ने आखिरकार इजाजत दे दी.

एक साल में आबिदा ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसे अस्पताल में मरा हुआ कह दिया गया. वह मन में खुशी दबाए लौट आई. उसे नहीं पता चला कि बच्चा किस का था और अब कहां है.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बन कर अपने पति की आंखें ठीक कराईं, बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल कराया. उन का घरखर्च भी आराम से चलने लगा था.

कुछ दिन बाद लड्डू खिलाते हुए आबिदा ने जैनुल से कहा, ‘‘लो, मुंह मीठा करो.’’

‘‘किसलिए?’’ जैनुल ने पूछा.

‘‘मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं, किसी दूसरे के बच्चे की नहीं.’’

जैनुल की खुशी इस बार दोगुनी हो गई.

 

वसूली : क्या हुआ था रधिया के साथ

Manoj Kumar Jha

रधिया का पति बिकाऊ एक बड़े शहर में दिहाड़ी मजदूर था. रधिया पहले गांव में ही रहती थी, पर कुछ महीने पहले बिकाऊ उसे शहर में ले आया था. वे दोनों एक झुग्गी बस्ती में किराए की कोठरी ले कर रहते थे.

रधिया को खाना बनाने से ले कर हर काम उसी कोठरी में ही करना पड़ता था. सुबहशाम निबटने के लिए उसे बोतल ले कर सड़क के किनारे जाना पड़ता था. उसे शुरू में खुले में नहाने में बड़ी शर्म आती थी. पता नहीं कौन देख ले, पर धीरेधीरे वह इस की आदी हो गई.

बिकाऊ 2 रोटी खा कर और 4-6 टिफिन में ले कर सुबह 7 बजे निकलता, तो फिर रात के 9 बजे से पहले नहीं आता था. उस की 12 घंटे की ड्यूटी थी.

जब बिकाऊ को महीने की तनख्वाह मिलती, तो रधिया बिना बताए ही समझ जाती थी, क्योंकि उस दिन वह दारू पी कर आता था. रधिया के लिए वह दोने में जलेबी लाता और रात को उस का कचूमर निकाल देता.

बिकाऊ रधिया से बहुत प्यार करता था, पर उस की तनख्वाह ही इतनी कम थी कि वह रधिया के लिए कभी साड़ी या कोई दूसरी चीज नहीं ला पाता था.

एक दिन दोपहर में रधिया अपनी कोठरी में लेटी थी कि दरवाजे पर कुछ आहट हुई. वह बाहर निकली, तो सामने एक जवान औरत को देखा.

उस औरत ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा नाम मालती है. मैं बगल की झुग्गी में ही रहती हूं. तुम जब से आई हो, कभी तुम्हें बाहर निकलते नहीं देखा. मर्द तो काम पर चले जाते हैं. बाहर निकलोगी, तभी तो जानपहचान बढ़ेगी. अकेले पड़ेपड़े तो तुम परेशान हो जाओगी. चलो, मेरे कमरे पर, वहां चल कर बातें करते हैं.’’

रधिया ने कहा, ‘‘मैं यहां नई आई हूं. किसी को जानती तक नहीं.’’

‘‘अरे, कोठरी से निकलोगी, तब तो किसी को जानोगी.’’

रधिया ने अपनी कोठरी में ताला लगाया और मालती के साथ चल पड़ी.

जब वह मालती की झुग्गी में घुसी, तो दंग रह गई. उस की झुग्गी में

2 कोठरी थी. रंगीन टैलीविजन, फ्रिज, जिस में से पानी निकाल कर उस ने रधिया को पिलाया.

रधिया ने कभी फ्रिज नहीं देखा था, न ही उस के बारे में सुना था.

रधिया ने पूछा, ‘‘बहन, यह कैसी अलमारी है?’’

इस पर मालती मन ही मन मुसकरा दी. उस ने कहा, ‘‘यह अलमारी नहीं, फ्रिज है. इस में रखने पर खानेपीने की कोई चीज हफ्तों तक खराब नहीं होती. पानी ठंडा रहता है. बर्फ जमा सकते हैं. पिछले महीने ही तो पूरे 10 हजार रुपए में लिया है.’’

रधिया ने हैरानी से पूछा, ‘‘बहन, तुम्हारे आदमी क्या काम करते हैं?’’

मालती ने कहा, ‘‘वही जो तुम्हारे आदमी करते हैं. बगल वाली कैमिकल फैक्टरी में मजदूर हैं. पर उन की कमाई से यह सब नहीं है. मैं भी तो काम करती हूं. यहां रहने वाली ज्यादातर औरतें काम करती हैं, नहीं तो घर नहीं चले.

‘‘बहन, मैं तो कहती हूं कि तुम भी कहीं काम पकड़ लो. काम करोगी, तो मन भी बहला रहेगा और हाथ में दो पैसे भी आएंगे.’’

‘‘पर मुझे क्या काम मिलेगा? मैं तो अनपढ़ हूं.’’

‘‘तो मैं कौन सी पढ़ीलिखी हूं. किसी तरह दस्तखत कर लेती हूं. यहां अनपढ़ों के लिए भी काम की कमी नहीं है. तुम चौकाबरतन तो कर सकती हो? कपड़े तो साफ कर सकती हो? चायनाश्ता तो बना सकती हो? ऐसे काम कोठियों में खूब मिलते हैं और पैसे भी अच्छे मिलते हैं. नाश्ताचाय तो हर रोज मिलता ही है, त्योहारों पर नए कपड़े और दीवाली पर गिफ्ट.’’

‘‘आज मैं अपनी कमाई में से ही 2 बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही हूं. इन की कमाई तो झुग्गी के किराए, राशन और दारू में ही खर्च हो जाती है.’’

‘‘क्या मुझे काम मिलेगा?’’ रधिया ने जल्दी से पूछा.

‘‘करना चाहोगी, तो कल से ही काम मिलेगा. जहां मैं काम करती हूं, उस के बगल में रहने वाली कोठी की मालकिन कामवाली के बारे में पूछ रही थीं. वे एक बड़े स्कूल में पढ़ाती हैं. उन के मर्द वकील हैं. 2 बच्चे हैं, जो मां के साथ ही स्कूल जाते हैं.

‘‘मैं आज शाम को ही पूछ लूंगी और पैसे की बात भी कर लूंगी. मालिकमालकिन अगर तुम्हारे काम से खुश हुए, तो तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई भी हो जाती है.’’

इस बीच मालती ने प्लेट में बिसकुट और नमकीन सजा कर उस के सामने रख दिए. गैस पर चाय चढ़ा रखी थी.

चाय पीने के बाद मालती ने रधिया से कहा कि वह चाहे, तो अभी उस के साथ चली चले. मैडम 2 बजे घर आ जाती हैं. आज ही बात पक्की कर ले और कल से काम पर लग जा.

मालती ने यह भी बताया कि हर काम के अलग से पैसे मिलते हैं. अगर सफाई करानी हो, तो उस के 3 सौ रुपए. कपड़े भी धुलवाने हों, तो उस के अलग से 3 सौ रुपए. अगर सारे काम कराने हों, तो कम से कम 2 हजार रुपए.

मालती कपड़े बदलने लगी. उस ने रधिया से कहा, ‘‘चल, तू भी कपड़े बदल ले. पैसे की बात मैं करूंगी. चायनाश्ता तो बनाना जानती होगी?’’

‘‘हां दीदी, मैं सब जानती हूं. मीटमछली भी बना लेती हूं,’’ रधिया ने कहा. उस का दिल बल्लियों उछल रहा था. अगर वह महीने में 2 हजार रुपए कमाएगी, तो उस की सारी परेशानी दूर हो जाएंगी.

रधिया तेजी से अपनी झुग्गी में आई. नई साड़ी पहनी और नया ब्लाउज भी. पैरों में वही प्लास्टिक की लाल चप्पल थी. उस ने आंखों में काजल लगाया और मालती के साथ चल पड़ी.

रधिया थी तो सांवली, पर जोबन उस का गदराया हुआ था और नैननक्श बड़े तीखे थे. गांव में न जाने कितने मर्द उस पर मरते थे, पर उस ने किसी को हाथ नहीं लगाने दिया. इस मामले में वह बड़ी पक्की थी.

रास्ते में मालती ने कहा, ‘‘बहन, अगर तुम्हारा काम बन गया, तो मैं महीने की पहली पगार का आधा हिस्सा लूंगी. यहां यही रिवाज है.’’

मालती एक कोठी के आगे रुकी. उस ने घंटी बजाई, तो मालकिन ने दरवाजा खोला.

मालती ने उन्हें नमस्ते किया. रधिया ने भी हाथ जोड़ कर नमस्ते किया. मालती 2 साल पहले उन के घर भी काम कर चुकी थी.

गेट खोल कर अंदर जाते ही मालती ने कहा, ‘‘मैडमजी, मैं आप के लिए बाई ले कर आई हूं.’’

‘‘अच्छा, बाई तो बड़ी खूबसूरत है. पहले कहीं काम किया है?’’ मैडम ने रधिया से पूछा.

मालती ने जवाब दिया, ‘‘अभी गांव से आई है, पर हर काम जानती है. मीटमछली तो ऐसी बनाती है कि खाओ तो उंगलियां चाटती रह जाओ. मेरे इलाके की ही है, इसीलिए मैं आप के पास ले कर आई हूं. अब आप बताओ कि कितने काम कराने हैं?’’

मैडम ने कहा, ‘‘देख मालती, काम तो सारे ही कराने हैं. सुबह का नाश्ता और दिन में लंच तैयार करना होगा. रात का डिनर मैं खुद तैयार कर लूंगी. कपड़े धोने ही पड़ेंगे, साफसफाई, बरतनपोंछा… यही सारे काम हैं. सुबह जल्दी आना होगा. मैं साढ़े 7 बजे तक घर से निकल जाती हूं.’’

इस के बाद मैडम ने मोलभाव किया और पूछा, ‘‘कल से काम करोगी?’’

‘‘मैं कल से ही आ जाऊंगी. जब काम करना ही है, तो कल क्या और परसों क्या?’’ रधिया ने कहा.

रात में जब बिकाऊ घर लौटा, तो रधिया ने उसे सारी रामकहानी सुनाई.

बिकाऊ ने कहा, ‘‘यह तो ठीक है कि तू काम पर जाएगी, पर कोठियों में रहने वाले लोग बड़े घटिया होते हैं. कामवालियों पर बुरी नजर रखते हैं. यह मालती बड़ी खेलीखाई औरत है. जिन कोठियों में काम करती है, वहां मर्दों को फांस कर वह खूब पैसे ऐंठती है. ऐसे ही नहीं, इस के पास फ्रिज और महंगीमहंगी चीजें हैं.’’

इस पर रधिया ने कहा, ‘‘मुझ पर कोई हाथ ऐसे ही नहीं लगा सकता. गांव में भी मेरे पीछे कुछ छिछोरे लगे थे, पर मैं ने किसी को घास नहीं डाली.

‘‘एक दिन दोपहर में मैं कुएं से पानी भरने गई थी. जेठ की दोपहरी, रास्ता एकदम सुनसान था. तभी न जाने कहां से बाबू साहब का बड़ा लड़का आ टपका और अचानक उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैं ने उसे ऐसा धक्का दिया कि कुएं में गिरतेगिरते बचा और फिर भाग ही खड़ा हुआ.

‘‘मैं दबने वाली नहीं हूं. पर मैं ने बात कर ली है. दुनिया में बुरेभले हर तरह के लोग हैं.’’

बिकाऊ ने कहा, ‘‘तू जैसा ठीक समझ. मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है.’’

दूसरे दिन रधिया सुबह जल्दी उठी और मालती को साथ ले कर 6 बजे तक कोठी पर पहुंच गई. मालकिन ने उसे सारा काम समझाया.

रधिया ने जल्दी से पोंछा लगा दिया, गैस जला कर चाय भी बना दी.

‘‘तू भी समय से नाश्ता कर लेना. चाहो तो बाथरूम में नहा भी सकती हो. साहब निकल जाएं, तो कुछ कपड़े हैं, उन्हें धो लेना.’’

थोड़ी देर में रधिया साहब के लिए चाय बनाने चली गई. ‘ठक’ की आवाज कर वह कमरे में आ गई और बैड के पास रखी छोटी मेज पर टे्र को रख दिया.

साहब ने रधिया को गौर से देखा और कहा, ‘‘देखना, बाहर अखबार डाल गया होगा. जरा लेती आना.’’

रधिया बाहर से अखबार ले कर आ गई और साहब की तरफ बढ़ा दिया. इसी बीच साहब ने 5 सौ का एक नोट उस की तरफ बढ़ाया.

रधिया ने कहा, ‘‘यह क्या?’’

‘‘यह रख ले. मालती ने तुझ से 5 सौ रुपए ले लिए होंगे. पहले वह यहां काम कर चुकी है.

‘‘तुम ये 5 सौ रुपए ले लो, पर मैडम से मत कहना. तनख्वाह मिलने पर मैं अलग से 5 सौ तुझे फिर दे दूंगा. यह मुआवजा समझना.’’

लेकिन रधिया ने अपना हाथ नहीं बढ़ाया. इस पर साहब ने उसे 5 सौ के

2 नोट लेने को कहा.

रधिया ने साहब के बारबार कहने पर पैसे ले लिए और कपड़े धोने में लग गई. कपड़े धो कर जब तक उन्हें छत पर सुखाने डाला, तब तक साहब नहाधो कर तैयार थे. उस ने उन के नाश्ते के लिए आमलेट और ब्रैड तैयार किया, फिर चाय बनाई.

नाश्ता करने के बाद साहब बोले, ‘‘तू ने तो अच्छा नाश्ता तैयार किया. पर नाश्ते से ज्यादा तू अच्छी लगी.’’

चाय देते समय उस ने जानबूझ कर ब्लाउज का बटन ढीला कर दिया और ओढ़नी किनारे रख दी.

‘‘अब मैं चलता हूं. किसी चीज की जरूरत हो, तो मुझ से कहना. संकोच करने की जरूरत नहीं है.’’

साहब ने उसे टैलीविजन खोलना और बंद कर के दिखाया और अपना बैग रधिया को पकड़ा दिया.

बैग ले कर रधिया उन के पीछेपीछे कार तक गई. साहब ने उस के हाथों से बैग लिया. न जाने कैसे साहब की उंगलियां उस के हाथों से छू गईं.

रधिया भी 2 सैकंड के लिए रोमांचित हो उठी.

साहब के जाने के बाद रधिया ने गेट बंद किया. फिर वह कोठी के अंदर आई और दरवाजा बंद कर लिया.

वह नहाने के लिए बाथरूम में गई. ऐसा बाथरूम उस ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा था. तरहतरह के साबुन, तेल की शीशियां और शैंपू की शीशी, आदमकद आईना.

रधिया को लगा कि वह किसी दूसरी दुनिया में आ गई है. कपड़े उतार कर पहली बार जब से वह गांव से आई थी, उस ने जम कर साबुन लगा कर नहाया और फिर बाथरूम में टंगे तौलिए से देह पोंछ कर मैडम का दिया पुराना सूट पहन कर अपनेआप को आदमकद आईने में निहारा. उसे लगा कि वह रधिया नहीं, कोई और ही औरत है.

अपने कपड़े धो कर रधिया उन्हें भी छत पर डाल आई. फिर बचे हुए परांठे खा लिए. थोड़ी चाय बच गई थी. उसे गरम कर पी लिया, नहीं तो बरबाद ही होती.

धीरेधीरे रधिया ने उस घर के सारे तौरतरीके सीख लिए. वह सारा काम जल्दीजल्दी निबटा देती और किसी को शिकायत का मौका नहीं देती. मैडम उस के काम से काफी खुश थीं. एक महीना कब बीत गया, उसे पता ही नहीं चला. महीना पूरा होते ही मैडम ने उसे बकाया पगार दे दी.

उस दिन वह काफी खुश थी. शाम तक जब वह अपनी झुग्गी में लौटी, तो उस ने सब से पहले एक हजार रुपए जा कर मालती को दे दिए.

मालती ने उसे चाय पिलाई और हालचाल पूछा. उस ने इशारों में ही पूछा कि साहब से कोई दिक्कत तो नहीं.

रधिया ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है.’’

मालती ने कहा, ‘‘अगर तू चाहे, तो शाम को किसी और घर में लग जा. और कुछ नहीं, तो हजार रुपए वहां से भी मिल जाएंगे.’’

इस पर रधिया ने कहा, ‘‘सोचूंगी… अपने घर का भी तो काम है.’’

साहब तो अपनी चाय उसी से लेते. जब मैडम आसपास न हों, तो उसे ही देखते रहते और रधिया मजे लेती रहती.

रधिया समझ गई थी कि मालिक की निगाह उस की जवानी पर है. वे उसे पैसे देते, तो वह पहले लेने से मना करती, पर वे जबरन उसे दे ही डालते और कहते, ‘‘देख रधिया, अपने पास पैसों की कमी नहीं है. फिर हजार रुपए की आज कीमत ही क्या है? तेरे काम ने मेरा दिल जीत लिया है. कई औरतों ने इस घर में काम किया, पर तेरी सुघड़ता उन में नहीं थी.’’

रधिया चुप रह जाती. साहब कुछ हाथ मारना चाहते थे, पर समझ ही नहीं आता था.

एक दिन मैडम ने उस से कहा, ‘‘रधिया, हमारे स्कूल से टूर जा रहा है. मैं भी जा रही हूं और बच्चे भी, घर में सिर्फ साहब रहेंगे. हमें टूर से लौटने में 10 दिन लगेंगे.

‘‘आनेजाने के टाइम का तुम समझ लेना. साहब को कोई दिक्कत न हो.

‘‘पहले आमलेट बना दे… और तू ऐसा करना, लंच के साथ डिनर भी तैयार कर फ्रिज में रख देना. साहब रात में गरम कर के खा लेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ रधिया ने कहा और अपने काम में लग गई.

मैडम की गए 10वां दिन था. रधिया जब ठीक समय पर चाय और पानी का गिलास ले कर साहब के कमरे में पहुंची, तो उन्होंने कहा, ‘‘आज कोर्ट नहीं जाना है. वकीलों ने हड़ताल कर दी है. फ्रिज में एक बोतल पड़ी होगी, वह ले आ. मैं थोड़ी ब्रांडी लूंगा, मुझे ठंड लग गई है.’’

रधिया रसोई में आमलेट बनाने चली गई. आमलेट बना कर उसे प्लेट में रख कर वह साहब के कमरे में गई, तो वे वहां नहीं थे. उस ने सोचा कि शायद बाथरूम गए होंगे. साहब तब तक वहां आ गए थे.

‘‘वाह रधिया, वाह, तू ने तो फटाफट काम कर दिया. तू बड़ी अच्छी है. आ चाय पी.

‘‘ये ले हजार रुपए. मनपसंद साड़ी खरीद लेना.’’

‘‘किस बात के पैसे साहब? पगार तो मैं लेती ही हूं,’’ रधिया ने कहा.

‘‘अरे, लेले. पैसे बड़े काम आते हैं. मना मत कर,’’ कहतेकहते साहब ने उस का हाथ पकड़ लिया और पैसे उस के ब्लाउज में डाल दिए.

रधिया पीछे हटी. तब तक साहब ने उस के ब्लाउज में हाथ डाल दिया था और उस के ब्लाउज के बटन टूट गए थे.

रधिया ने एक जोर का धक्का दिया. साहब बिस्तर पर गिर पड़े. इस बीच रधिया भी उन पर गिर गई.

रधिया ने एक जोरदार चुम्मा गाल पर लगाया और बोली, ‘‘साहब, 5 हजार और दो. देखो, मैडम बच्चों के साथ चली आ रही हैं.’’

साहब ने कहा, ‘‘रधिया, तू जल्दी यहां से निकल,’’ और अपना पूरा पर्स उसे पकड़ा दिया.

 

औरत पैर की जूती: किस बात पर अड़े थे वकील साहब

मैं  अपने चैंबर में बैठ कर मेज पर  रखी फाइलों को निबटा रहा था. उसी समय नरेश एक रौबदार मूंछ वाले व्यक्ति के साथ कमरे में घुसा. लंबा कद और घुंघराले बालों वाले उस व्यक्ति की उम्र कोई 40 साल के आसपास की लग रही थी. चेहरे से परेशान उस व्यक्ति का परिचय नरेश ने कराया, ‘‘यह कैलाशजी हैं, गुजराती होटल के मैनेजर. इन के मकानमालिक ने इन का सारा सामान घर से निकाल कर सड़क के किनारे रखवा दिया है. बेचारे, बहुत मुसीबत में हैं. सर, इन की मदद कर दें.’’

‘‘इन्होंने मकान का भाड़ा नहीं दिया होगा?’’

‘‘अजी, किराया तो मैं पहली तारीख की शाम को एडवांस में ही दे देता हूं, अपुन मर्द आदमी है. किसी का उधार नहीं रखते.’’

‘‘तो फिर उस की बहन या लड़की को छेड़ा होगा?’’

‘‘सर, इस उम्र में किसी की बहन या लड़की को क्यों छेड़ेंगे.’’ कैलाश बोला, ‘‘मैं पिछले 10 सालों से उस का किराएदार हूं, अब मकानमालिक को लगता है कि कहीं मैं उस का मकान न हड़प लूं. इसलिए पिछले एक साल से डरा रहा है कि मकान खाली करो, वरना सामान निकाल कर बाहर फेंक दूंगा.’’

‘‘अब उस ने सामान बाहर फेंक कर अपनी धमकी पूरी कर दी,’’ मैं बोला.

‘‘जी, आप ने बिलकुल ठीक सोचा. अपुन मर्द आदमी है. चाहे तो मकान मालिक का सिर फोड़ सकता है, पर नरेश ने समझाया कि ऐसा बिलकुल नहीं करना. अब नरेश ही आप के पास मुझे ले कर आया है,’’ कैलाश ने उत्तर दिया.

नरेश मेरे पास पिछले 5 महीनों से वकालत का काम सीख रहा था. नरेश और कैलाश आपस में अच्छे मित्र थे. मैं ने नरेश को आदेश दिया कि वह कैलाश को साथ ले कर थाने जाए और पहले वहां कैलाश की रिपोर्ट दर्ज करा कर उस रिपोर्ट की कापी मेरे पास ले कर लौटे.

उन दोनों के जाने के बाद मैं ने कैलाश के इलाके के थाने में गणपतराव थानेदार को फोन कर के आग्रह किया कि वह कैलाश की रिपोर्ट लिखवा लें और कैलाश का मकानमालिक के साथ कोई उचित समझौता करवा दें.

गणपतराव मेरा कोर्ट का साथी है. अत: गणपतराव और मुझ में अकसर बातचीत होती रहती थी.

मेरी छोटी सी सहायता के चलते कैलाश का अपने मकानमालिक से सम्मानजनक समझौता हो गया. कैलाश को एक साल की मोहलत मिल गई. कैलाश को उम्मीद थी कि इस एक साल के भीतर ही वह अपने प्लाट पर खुद का मकान बनवा लेगा.

फीस के रूप में कैलाश ने मुझे 5 हजार रुपए की एक गड्डी पेश की. मैं ने इसे लेने से इनकार कर दिया क्योंकि मेरा जमीर इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था. पर इस व्यवहार से कैलाश इतना प्रभावित हुआ कि वह मेरा मित्र बन गया. वह खुद भी बहुत मिलनसार था और उस के दोस्तों की शहर में कमी न थी.

उस ने मेरे छोटेमोटे कई काम किए थे. अच्छा भुगतान करने वाले कुछ मुवक्किल भी मुझे दिलाए थे. अत: उस के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव मेरे मन में पैदा होना स्वाभाविक था.

कैलाश की यह एक बात मुझे बहुत चुभती थी कि वह हर बात छिड़ने पर कहता था, ‘अपुन मर्द आदमी है. किसी का उधार नहीं रखता.’ शायद इस तरह का संवाद बोलना उस का तकिया कलाम बन चुका था.

उस का यह तकियाकलाम सुनते- सुनते मैं अब तंग आ चुका था. अत: एक दिन जब कैलाश ने यही संवाद दोहराया तो मैं मुसकराते हुए बोला, ‘‘क्या तुम भाभीजी के सामने भी इसी तरह का संवाद बोल कर अपनी मर्दानगी दिखाते रहते हो? वह बरदाश्त कर लेती हैं क्या तुम्हारी हेकड़ी?’’

बस, फिर क्या था. कैलाश चालू हो गया, बोला, ‘‘अरे, तुम्हारी भाभी क्या कर लेगी? अपुन मर्द आदमी है. घर पर पूरा पैसा देता है, किसी भी तरह की कमी नहीं छोड़ता,’’ और जोर से होहो कर हंसते हुए बोला, ‘‘औरत को ताज चाहिए न तख्त……झापड़ चाहिए सख्त. पैर की जूती होती है, औरत.’’

मुझे कैलाश की बात पर बहुत हंसी आ रही थी और गुस्सा भी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम औरत के बारे में इतने पिछड़े विचार आज के आधुनिक जमाने में रखते हो. आजकल तो औरतें आदमी को उंगली पर नचा रही हैं. तुम इतना सबकुछ पत्नी को सुनाने के बाद घर में शांति से खाना खा लेते हो?’’

‘‘वकील साहब, मेरी होटल की नौकरी है. रात को 1 बजे घर पहुंचता हूं तो वह मुझे ताजी रोटी बना कर खिलाती है. मैं बीवी को सिर पर नहीं चढ़ाता. पैर की जूती है वह,’’ कैलाश बहुत ही अभिमान के साथ बोला.

मेरी आंखें आश्चर्य से फटी जा रही थीं. मुझे लगता था कि मेरी पढ़ाई और मेरा अनुभव बेकार है. मेरी वकालत पर कैलाश के अभिमान से आंच आने लगी थी. मेरी खुद की हिम्मत ऐसी नहीं थी कि मैं अपनी पत्नी या किसी दूसरी औरत के बारे में इतना खुला वक्तव्य दे सकूं.

यदि वह अपनी पत्नी से ऐसी बातें करे तो क्या इस के घर में झगड़ा नहीं होता होगा. क्या इस की पत्नी ऐसी बातें बरदाश्त कर लेती होगी? आखिर मैं अपना संयम रोक नहीं सका. उस से पूछ ही बैठा, ‘‘तब तो तुम्हारे घर में रोज ही खूब झगड़ा होता होगा?’’

‘‘झगड़ा…?’’ कैलाश अपनी आंखें चौड़ी कर के बोला, ‘‘बिलकुल नहीं होता. तुम्हारी भाभी की हिम्मत नहीं होती मेरे से झगड़ा करने की. अपुन मर्द आदमी है. औरतों का क्या, पैरों की जूतियां होती हैं. तुम्हारी भाभी को भी मैं ऐसे ही रखता हूं, जैसे पैर की जूती.’’

मेरे मन में उस समय कई तरह के प्रश्न उठ रहे थे. यदि कैलाश के दावे में दंभ अधिक नहीं है तो जरूर उस की पत्नी कोई असाधारण औरत होगी. यदि ऐसा नहीं है तो कैलाश के दावे का परीक्षण करना होगा. यह सोचते हुए मैं ने किसी समय कैलाश के घर जाने का फैसला लिया.

यह सुअवसर भी जल्दी ही मिल गया. कैलाश के 10 वर्षीय बेटे अजय का जन्मदिन था और इस मौके पर कैलाश अपने मित्रों को शाम का खाना घर पर ही खिलाना चाहता था. अत: उस ने अपने खासखास मित्रों को दावत पर बुलाया. मैं भी अपने जूनियर नरेश के साथ दावत में पहुंच गया.

कैलाश के घर का एकएक सामान करीने से लगा हुआ था. ड्राईंग रूम, बेड रूम, किचन और यहां तक कि टायलेट भी बहुत साफसुथरे थे. पता चला कि यह सब उस की पत्नी माला का कमाल था. मैं और नरेश तो कैलाश के छोटे भाई गोपाल के साथ उस का घर देख रहे थे.

इस के बाद हम घर के पीछे बने मैदान में गए. वहां एक शानदार शामियाना लगा हुआ था. वहीं कैलाश और उस की पत्नी माला आने वाले मेहमानों का स्वागत करते मिले.

मैं ने माला को देखा. वह 34-35 साल की उम्र में भी बहुत सुंदर लग रही थी. मैरून रंग की साड़ी और मैच करता ब्लाउज, गले में लाल रंग के मोतियों की माला, गोल चेहरा और शालीन व्यक्तित्व.

कैलाश ने परिचय कराया, ‘‘यह मेरी धर्मपत्नी माला देवी हैं.’’

मैं ने तुरंत दोनों हाथ जोड़ कर माला को नमस्कार किया.

कैलाश ने माला से कहा, ‘‘ये वकील साहब राजेंद्र कुमारजी हैं.’’

‘‘अच्छा…अच्छा…समझ गई,’’ माला ने तुरंत कहा और मुझे हाथ के इशारे से आगे मेजकुरसी दिखाते हुए बोली, ‘‘आइए, भाई साहब, आप तो हमारे खास मेहमान हैं.’’

माला के साथ आगे बढ़ते हुए मैं ने पूछा, ‘‘लगता है कि आप मुझे जानती हैं?’’

‘‘देखा तो आज ही है, पर नाम से परिचित हूं क्योंकि इन की जबान पर हमेशा आप का ही नाम रहता है.’’

माला ने मुझे एक सोफे पर बैठने का इशारा किया और 1-2 मिनट के लिए इजाजत ले कर चली गई. जब वह वापस लौटी तो उसके हाथ की टे्र में संतरे का जूस 2 गिलासों में मौजूद था. उस के आग्रह पर मैं ने और नरेश ने जूस का एकएक गिलास थाम लिया. फिर वह बहुत ही कोमल लहजे में हम से इजाजत ले कर कैलाश के पास चली गई.

मैं और नरेश आपस में बातचीत करते रहे. पता चला कि माला ने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया है. घर में कैलाश के 2 बच्चे, (एक लड़का व एक लड़की) कैलाश की विधवा बहन तथा एक कुंवारा छोटा भाई मिल कर रहते हैं.

शामियाना थोड़ी ही देर में खचाखच भर गया तो कैलाश मेरे पास आया और केक की टेबल पर चलने का आग्रह किया. कैलाश का बेटा, पत्नी माला और निकट संबंधी भी केक की टेबल पर पहुंचे. ‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों कई हजार’ गाने की ध्वनि के साथ कैलाश के बेटे ने केक काटा. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मेहमानों ने उसे बधाई दी. उपहार दिए. फोटोग्राफर फोटो लेने लगे. इस के साथ ही भोजन का कार्यक्रम शुरू हो गया.

कैलाश ने पहली प्लेट मुझे पकड़ाई. मैं प्लेट में खाना डालने लगा. तभी कैलाश को निकट संबंधियों की सेवा में जाना पड़ा. कुछ देर बाद कैलाश की पत्नी माला मेरे पास आई. मैं ने उस से आग्रह किया कि वह भी साथ में खाना ले ले. वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘सारे मेहमानों के बाद इन के साथ ही खाना लूंगी. आप के साथ सलाद ले लेती हूं,’’ और इतना कह कर उस ने एक गाजर का टुकड़ा उठा लिया.

मैं ने भी उसी मुसकराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘हांहां, आप अपने पति के साथ ही खाना, मेरे साथ सलाद लेने के लिए आप का बहुतबहुत धन्यवाद. लगता है कि उम्र के इस मोड़ पर भी आप अपने पति को बहुत चाहती हैं?’’

‘‘बढ़ती उम्र के साथ तो पतिपत्नी के बीच प्यार भी बढ़ना चाहिए न?’’ माला बोली.

‘‘आप दिल से कह रही हैं या असलियत कुछ और है?’’

‘‘भाई साहब, आप के मन में कोई शंका हो तो साफसाफ बताइए न, पहेलियां क्यों बूझ रहे हैं? हमारा जीवन तो खुली किताब है.’’

मैं थोड़ा संकोच के साथ बोला, ‘‘कैलाशजी मेरे परम मित्र हैं पर जब वह स्त्री जाति के बारे में कहते हैं कि वह तो पैर की जूती होती है, तब मुझे बहुत बुरा लगता है. वह कहते हैं कि मैं अपनी पत्नी को भी पैर की जूती समझता हूं. आप बताइए, अपने बारे में इतना जान कर आप कैसा महसूस कर रही हैं?’’

‘‘आप का प्रश्न कोई अनोखा नहीं है. इस तरह के प्रश्न अकसर लोग मुझ से पूछते रहते हैं. शुरू में यह सुन कर मुझे भी बहुत तकलीफ हुई थी पर अब तो आदत सी पड़ गई है. मैं ने इन को समझाया भी कि ऐसी गंदी बातें मत किया करो लेकिन यह सुधरते नहीं. अब तो मैं ने इन्हें इन के हाल पर छोड़ दिया है. वक्त ही इन्हें सुधारेगा. यदि मैं लोगों के उकसाने पर चलती तो शायद इन से मेरा तलाक हो जाता पर मैं ने बहुत ही गंभीरता से सारी परिस्थितियों पर विचार किया है.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां, इन से झगड़ा कर के अपने घर की सुखशांति भंग करने के बजाय मैं बात की तह में गई कि यह ऐसे संवाद आखिर क्यों बोलते हैं?’’

‘‘कुछ मिला?’’

‘‘हां, इन के बूढ़े पिता, जिन का अब स्वर्गवास हो चुका है, अपने जातिगत एवं पुरातनपंथी संस्कारों से पीडि़त थे. अपनी जवानी क्या, बुढ़ापे तक वह शराब का सेवन करते रहे. वह अपनी बीवी यानी मेरी सास की पिटाई भी किया करते थे.

‘‘अपनी मां को मार खाते देख कर इन्हें गुस्सा बहुत आता था. पर इन्होंने कभी मुझे मारा नहीं. ये शराब भी नहीं पीते. फिर भी अपने पिता की तरह खुद को बड़ा मर्द समझते हैं. बड़ीबड़ी मूंछें पिता की तरह ही रखी हुई हैं. कहते हैं कि मूंछें  रखना हमारी खानदानी परंपरा है. अपने पिता की तरह बारबार दोहराते हैं, ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी.’

‘‘डींग हांकते हुए कहते हैं कि औरत तो मर्द के पैर की जूती होती है. अगर मैं इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लूं तो हम दोनों एक पल भी साथ नहीं रह सकते. इन में यही एक कमी है. इसलिए मैं ने इन को अधिक से अधिक प्यार दे कर हिंसक नहीं बनने दिया. पर इन के तकियाकलाम और नारी जाति के बारे में ऐसे संवादों पर रोक नहीं लगा पाई.’’

मेरी प्लेट का खाना खत्म हो चुका था. जूठी प्लेट एक बड़ी प्लास्टिक की टोकरी में डालते हुए मैं बोला, ‘‘भाभीजी, यदि आप जैसी समझदार महिलाओं की संख्या समाज में बढ़ जाए तो व्यर्थ के घरेलू झगड़े कम हो जाएं. कैलाश को तो वक्त ही ठीक करेगा.’’

‘‘अच्छा, मै चलता हूं,’’ कहते हुए मैं ने उन से इजाजत ली.

इस के बाद कैलाश से कई मुलाकातें हुईं, वह अपनी पत्नी को ले कर मेरे घर भी आया. मेरी पत्नी को भी माला का स्वभाव अच्छा लगा.

जून माह के बाद मुझे कैलाश कई दिनों तक नहीं मिला. अपना मकान बनवाने के कारण नरेश भी 2 महीने की छुट्टी पर था. छुट्टी के बाद नरेश काम पर आया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘कैलाश की कोई खैरखबर है? पिछले 3 महीनों से वह दिखाई नहीं दिया.’’

‘‘सर, वह तो महाराजा यशवंतराव अस्पताल में भरती है.’’

‘‘आश्चर्य की बात है. मुझे  किसी ने खबर नहीं दी. तुम्हारा भी कोई फोन इस संबंध में नहीं आया?’’

‘‘सर, मुझे खुद परसों पता लगा है.’’

मैं शाम को अस्पताल में पहुंच कर कैलाश के बारे में पूछतेपूछते उस के वार्ड तक जा पहुंचा. वार्ड में अभी मैं कैलाश का बेड ढूंढ़ ही रहा था कि मुझे माला ने देख लिया और बोली, ‘‘आइए, भाई साहब.’’

माला मुझे आवाज न देती तो शायद मैं उसे पहचान भी नहीं पाता. वह सूख कर कांटा हो गई थी. उस के गोरे गाल किशमिश की तरह पिचक गए थे.

मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अरे, तुम इतनी बीमार कैसे हो गईं? मैं ने तो सुना था कि कैलाशजी बीमार हैं.’’

‘‘आप ने ठीक सुना था, भाई साहब, मैं नहीं आप के भाई बीमार हैं. देखिए, वह पड़े हैं पलंग पर, लेकिन अब पहले से बहुत ठीक हैं.’’

मुझे देख कर कैलाश पलंग पर ही उठ बैठा. मैं स्टूल खींच कर उस के पास बैठ गया.

‘‘क्या हो गया था, कैलाश? तुम ने या माला ने तो कोई सूचना भी नहीं भेजी. क्या तुम लोगों के लिए मैं इतना गैर हो गया,’’ कैलाश को कमजोर हालत में देख कर मैं ने शिकायत की.

कैलाश की पीठ के पीछे बड़ा सा तकिया लगाते हुए माला बोली, ‘‘भाई साहब, अभी तक तो हम लोग ही इन्हें संभाल रहे थे. यदि कोई कठिनाई आती तो आप के पास ही आते.

‘‘इन्हें पीलिया हो गया था. इन का न तो कोई खाने का समय है और न ही सोने का. लिवर पर तो असर पड़ना ही था. पीलिया का इलाज चल रहा था कि इन्हें टायफाइड हो गया. अब इन्हें आवश्यक रूप से बिस्तर पर आराम करना पड़ रहा है,’’ यह कहते हुए माला को हंसी आ गई.

मुझे लग रहा था कि मेरे पहुंचने से इन दोनों को बहुत राहत मिली थी. अत: माला के उदास चेहरे पर भी बहुत दिनों बाद हंसी की रेखा फूटी होगी.

कैलाश भी मुसकाराया और बोला, ‘‘वकील साहब, यह मेरी सेवा करतेकरते खुद बीमार हो गई है. इस ने मुझे मरने से बचा लिया है. बहन और रिश्तेदार तो आतेजाते रहते थे पर माला मुझे छोड़ कर एक पल के लिए भी घर नहीं गई.’’

‘‘अरे, आप कम बोलो ना? डाक्टर ने ज्यादा बोलने के लिए मना किया है,’’ माला ने कैलाश को रोका.

कैलाश रुका नहीं, बोलता रहा, ‘‘मैं बुखार में चीखताचिल्लाता था. माला पर अपना गुस्सा उतारता था. पर यह औरत ठंडे पानी की पट्टियां मेरे सिर और बदन पर रखते हुए हर समय मुझे बच्चा मान कर दिलासा देती रहती थी. मैं इस का यह कर्ज इस जीवन में उतार नहीं पाऊंगा,’’ इतना बतातेबताते कैलाश की आंखों में आंसू आ गए थे.

वह एक पल को रुक कर बोला, ‘‘यह कब जागती थी और कब सोती थी, मुझे नहीं पता. लेकिन जब भी रात में मेरी आंख खुलती  थी तो यह मेरी सेवा करते मिलती. मेरे कारण देखो इस का शरीर कितना कमजोर हो गया है.’’

‘‘यह ठीक हो गए. अब घर जाने पर मैं भी अपनेआप ठीक हो जाऊंगी,’’ माला बोली.

मैं अपने साथ कुछ फल लाया था. उस में से एक संतरा निकाल कर छीला और फांके कैलाश को दी. माला को भी दिया. इस के बाद हम लोेग गपशप करने लगे. जब माहौल पूरी तरह से प्रसन्नता का हो गया तो मैं ने कैलाश से चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘कैलाश, तुम तो कहते थे, औरत पैर की जूती होती है. माला भी इसी दरजे में आती है. अब तुम माला को महान कह रहे हो. तुम्हारी यह राय सचमुच बदल गई है या सिर्फ अस्पताल तक सीमित है.’’

‘‘आप, वकील साहब सुधरेंगे नहीं, यहां अस्पताल में भी अपनी वकालत दिखा कर रहेंगे.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं चौंका.

‘‘मतलब यह है कि आप मेरे गुनाहों को सब के सामने कबूलने के लिए कहेंगे?’’

‘‘मेरी ओर से कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. मुजरिम भी तुम खुद हो और यह अदालत भी तुम्हारी है, जो मर्जी में आए फैसला लिख लो.’’

‘‘अगर ऐसी बात है तो वकील साहब मेरा फैसला भी सुन लो. मैं अपने दंभ और झूठे घमंड के कारण औरत को पैर की जूती कहता था. अब जमाना बदल गया है. कई मामलों में औरत आदमी से आगे निकल गई है. उसे सलाम करना होगा. उस का स्थान पैरों पर नहीं दिल और माथे पर है.

नया नंबर : ऋची की दर्द भरी कहानी

‘‘खिड़कियों में से रातरानी की महक अंदर झंक रही थी और चंद्रमा की रजत रोशनी ऋ ची के मुख पर तैर रही उन तमाम खुशियों को उजागर करने के लिए जैसे बेताब हुई जा रही थी. वह अपने भीतर बह रहे प्रेममय सागर को समेटने का भरसक प्रयास करने में लगी थी, पर खुशियों की लहरें दिल की दीवारों को बारबार लांघ कर उस के तनमन को छू कर रोमरोम पुलकित कर देतीं. मन में हिलोरें ले रही इन लहरों ने उस की रातों की नींद चुरा रखी थी.

ध्यान बारबार मोबाइल की ओर जा रहा था. घर में  मम्मीपापा इस समय तक गहरी नींद में सो जाते हैं. समीर रोज रात 12 बजे फोन कर ही देता. 12 बजे के बाद 1 मिनट भी देर हो जाती तो ऋची का जी ऊपरनीचे होने लगता. मन कई तरह की आशंकाओं से घिर जाता.

ऋची के समंदर में डुबकी लगा ही रही थी कि तभी मोबाइल के रिंगटोन ने चिंताओं की सारी लकीरें मिटा दीं.

वह कुछ कहती उस से पहले ही समीर ने कहा, ‘‘स्वीटहार्ट आज इस नाचीज को तुम्हारी सेवा में आने में थोड़ी देर हो गई.’’

ऋची खिलखिलाते हुए कहने लगी, ‘‘और 5 मिनट भी देर करते समी तो मेरी जानही निकल जाती,’’ वह प्यार से समीर को समी ही कहती.

‘‘डार्लिंग मैं तुम्हारा पीछा आसानी से नहीं छोड़ूंगा… जीएंगे तो साथ मरेंगे तो साथ.’’

‘‘सचमुच? लव यू समी… तुम न होते तो पता नहीं जिंदगी कितनी बेरंग सी लगती.’’

‘‘कितनी, बताओ तो जरा?’’ वह हंसते हुए पूछने लगा.

‘‘जैसे नमक के बिना सब्जी, बरखा के बगैर सावन, बिना चांद की रात, सूरज के बिना दिन और…’’

‘‘बस… बस… अब बस भी करो स्वीटहार्ट. ऋची कैसी दिख रही हो जरा बताओ न प्लीज… तुम्हें देख लूं तो दिन सफल हुआ समझ.’’

‘‘तुम तो हीरो बनने लगे समी, लेकिन इस वक्त मैं फोटो नहीं भेज पाऊंगी…’’

‘‘क्यों तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं?’’

‘‘अपनेआप से भी ज्यादा भरोसा तुम पर है समी, पर अभी नहीं प्लीज. परसों तुम्हारा बर्थडे है, मेरे लिए बहुत स्पैशल डे, बोलो कब और कहां मिलोगे?’’

‘‘ओह ऋची परसों आने में अभी पूरे 32 घंटे पड़े हैं, कल ही मिलते न.’’

‘‘कल मुझे प्रोजैक्ट सबमिट करना है तो कालेज में देर हो जाएगी. कल तो फोन पर बात भी हो पाना मुश्किल लग रहा है…’’

‘‘ऋची चाहो तो जान ले लो पर इतनी बड़ी सजा मत दो, तुम से बात किए बिना दिन काटना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘समी इस प्रोजैक्ट से बहुत से स्टूडैंट्स जुड़े हैं और यह प्रोजैक्ट सफल रहा तो मेरी प्रमोशन तय समझ.’’

‘‘तो क्या मुझ से ज्यादा इंपौरटैंट यह प्रोजैक्ट है?’’

‘‘समी तुम जानते हो घरगृहस्थी की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर है. आए दिन मम्मीपापा का हौस्पिटल चलता रहता है.’’

‘‘अच्छा चलो जैसेतैसे दिल पर पत्थर रख लूंगा, पर परसों पक्का हमें मिलना है. तुम रोज वे कैफे में ठीक शाम 6 बजे आ जाना.’’

‘‘ओके गुड नाइट समी…’’

‘‘क्या ऋची कम से कम कोई इमोजी ही भेज दो जैसे मैं तुम्हें भेजता हूं.’’

‘‘तुम भी न समी…’’ कहते हुए उस ने एक प्यारी सी इमोजी भेजी और सिरहाने फोन रख कर सोने की कोशिश करने लगी.

ऋची दूसरे दिन कालेज में व्यस्त रही. कालेज से लौटते वक्त ही समी के लिए कितने ही गिफ्ट ले आई, हाथ से कार्ड बनाया.

समी को बधाई देने के लिए ऋची बेताब हुए जा रही थी. जैसे ही रात में 12 बजे उस ने समी को वीडियोकौल की, काले रंग के कौड सैट में उस की खूबसूरती और निखर कर आ रही थी. हैप्पी वाला बर्थडे माइ लव… बर्थडे बौय के लिए ऋची हाजिर है,’’ कहते हुए वह खिलखिलाने लगी.

‘‘थैंक्स डार्लिंग. इतना शानदार सरप्राइज आज तो तुम गजब कहर ढा रही हो… जी कर रहा है अभी तुम्हारे पास आ जाऊं,’’ कहते हुए गाने लगा, ‘‘चांद सी महबूबा बांहों में हो ऐसा मैं ने सोचा था हां तुम…’’

‘‘अरे वाह समी तुम तो गाते भी अच्छा हो.’’

बातों का यह सिलसिला आधी रात तक जारी था. फिर ऋची बोली, ‘‘चलो अब सोते है.’’

‘‘अच्छा चलो आज की रात तुम्हारे फोटो के सहारे ही बितानी होगी… अपना फोटो भेजो. और हां तुम जानती ही हो कैसे फोटो भेजना है.’’

‘‘ठीक है बाबा आज तो तुम्हें मना नहीं कर सकतीं, कहते हुए उस ने कितने ही फोटो समी को भेज दिए.

दूसरे दिन समी से मिलने का ख्वाब आंखों में संजो कर वह सो गई .सुबह मम्मी आवाज दे उस से पहले ही ऋची उठ गई. यह देख मम्मी को आश्चर्य हुआ. कहने लगी, ‘‘क्या बात है बेटा आज बड़ी खुश लग रही हो?’’

‘‘हां मम्मी आज मेरी फ्रैंड है न नैनी उस का बर्थडे है. आज उस ने पार्टी रखी है, कालेज से उधर ही जाऊंगी, आने में देर होगी आप चिंता मत करना.’’

‘‘बेटा, तुम्हारे पापा को देर रात तक घूमनाफिरना. यह सब बिलकुल पसंद नहीं. अभी समय कैसा है यह तुम भी अच्छे से जानती हो, तुम समय से आ जाना.’’

‘‘मम्मी अब मैं बड़ी हो गई हूं, प्लीज आप हर बात में रोकटोक न करो तो अच्छा,’’ कहते हुए वह निकल गई. बैग में ही अलग से ड्रैस रख ली थी.

शाम ठीक 6 बजे वह रोज वे कैफे पहुंच गई. समी वहां पहले से ही मौजूद था. उसे देखते ही कहने लगा, ‘‘ओह वैलकम स्वीटहार्ट कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था.’’

‘‘समी मैं ठीक 5 बजे पहुंच गई देखो.’’

‘‘मैं तो सुबह से 5 बजने के इंतजार में 4 बजे ही यहां आ कर बैठ गया, सच में ऋची कुदरत ने तुम्हें बहुत फुरसत से घड़ा है… मेरा बस चले तो दुनियाजहां की खुशियां तुम्हारे कदमों में रख दूं, तुम्हारे साथ रहने में जो मजा है वह दुनिया की किसी चीज में नहीं है सच में.’’

यह सब सुन ऋची के सपनों को जैसे पर लग गए हों.

‘‘अच्छा बोलो क्या और्डर करूं?’’

बर्थडे तुम्हारा है समी… आज की ट्रीट मेरी ओर से.

‘‘स्वीटहार्ट तुम्हें देख कर मेरी तो भूखप्यास सब उड़नछू हो जाती है. सैंडविच और कौफी ले कर लौंग ड्राइव पर चलते हैं. ऋची मना मत करना प्लीज मुझे उम्मीद है आज के दिन तुम मेरा दिल नहीं तोड़ोगी.’’

दोनों काफी और सैंडविच ले निकल पड़े लौंग ड्राइव पर.

‘‘समी कहां जा रहे हैं हम? कितना सुनसान रास्ता है.’’

‘‘ऋची मैं हूं न साथ,’’ कहते हुए उस ने गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी.

उस का स्पर्श ऋची के मन को लुभा रहा था. बहुत आगे निकलने पर उस ने नदी

किनारे गाड़ी रोकी. और ऋची के हाथों में हाथ डाल कर आगे बढ़ने लगा. दूरदूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था.

‘‘समी, काश, वक्त यहीं ठहर जाए और हम यों ही साथ में रहें.’’

‘‘अरे, हम कौन से अलग रहने वाले हैं ऋची तुम्हें तो मैं जीवनभर अपनी पलकों पर बैठा कर रखना चाहता हूं.’’

‘‘कितने अच्छे हो समी तुम,’’ कहते हुए वह समी से लिपट गई.

चारों तरफ अंधेरा घिर आया था ऋची के मोबाइल पर बारबार उस की मम्मी का फोन आ रहा था. ऋची ने मोबाइल साइलैंट मोड पर डाल दिया और कहने लगी, ‘‘समी, अब तुम मुझे घर ड्रौप कर दो काफी देर हो गई है.’’

‘‘ऋची, तुम से अलग रहने का मन ही नहीं करता. ऐसा लगता है हम दूर कहीं भाग चलें जहां बस तुम हो और मैं पर तुम्हें तो हर वक्त जाने की जल्दबाजी रहती है,’’ ऐसा कहते हुए उस ने बाइक स्टार्ट की और स्पीड से ऋची के घर की तरफ बढ़ने लगा.

ऋची के पापा बालकनी में खड़े उसी का इंतजार कर रहे थे और मम्मी घबराहट के मारे बेचैन हुए जा रही थीं.

पापा ने देख लिया ऋची किसी लड़के के साथ गाड़ी पर सट कर बैठी है. जैसे ही उस ने घर में कदम रखा आगबबूला हो गए. ऋची ने अपने पापा का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.

वह भी तमतमाते हुए अपने कमरे में गई और फिर दरवाजा लौक कर गुमसुम सी बैठी रही. मम्मी ने कई बार दरवाजा खटखटाया पर उस ने एक नहीं सुनी. आधी रात जब समी ने फोन किया तो ऐसा लगा किसी दर्द की दवा मिल गई हो.

ऋची कहने लगी, ‘‘समी तुम्हारी बांहों में सचमुच जन्नत है. इस कमरे की दीवारें जैसे मुझे काटती हैं… तुम्हारे बिना कितना अकेलापन महसूस होता है… पता नहीं कब तक ऐसा ही चलेगा.’’

‘‘मैं चाहूं तो कल ही तुम से शादी कर सकता हूं. दिक्कत तो तुम्हें ही है ऋची.’’

‘‘क्या करूं अपने मम्मीपापा की एकलौती बेटी जो हूं. उन की खुशियां मेरे इर्दगिर्द ही हैं. अच्छा समी अब रखती हूं, मम्मी लगातार दरवाजा नौक कर रही हैं.’’

ऋची ने दरवाजा खोला और मुंह फुला कर लेट गई. मम्मी उसे समझने लगीं, ‘‘बेटी, अभी तुम ने दुनिया देखी नहीं, आए दिन अखबारों में दिल दहलाने वाली खबरें पढ़पढ़ कर डर लगने लगा है. वैसे कौन है वह लड़का जिस ने तुम्हें घर छोड़ा और वह करता क्या है, तुम उसे कहां मिली?’’

मम्मी, नैनी की बहन की शादी में मिला था… समीर नाम है उस का… प्राइवेट कंपनी में जौब करता है और हम दोनों एकदूजे को पसंद करते हैं.’’

‘‘पागल हो गई हो ऋची एक मुलाकात में तुम उसे दिल दे बैठी… उस की जातपात, खानदान कैसा है जानती हो तुम. तुम्हारी अक्ल तो ठिकाने है? बेटा थोड़ा समझने की कोशिश करो. तुम हमारी एकलौती बेटी हो हम तुम्हारे लिए जो सोचेंगे वह अच्छा ही सोचेंगे.’’

‘‘मम्मी, आप मेरे हो कर भी मुझे खुश नहीं रख सकते और वह पराया हो कर भी मेरी भावनाओं को सम?ाता है. आप कुछ न कहो वही बेहतर होगा,’’ कहते हुए वह तुनक कर घर से निकल पड़ी.

ऋची के घर से निकलते ही उस की मम्मी स्वयं को बेसहारा महसूस करने लगीं. वे हताश हो कर सोफे पर बैठ गईं.

तभी उस के पापा आए और पूछने लगे, ‘‘क्या हुआ गीता तुम इतनी चिंतित क्यों लग रही हो?’’

‘‘हमें जिस बात का डर था आखिर वही हुआ. हमारी ऋची उस समीर को चाहने लगी है. उम्र की इस दहलीज पर मन में प्यार की भावनाओं का उफान स्वाभाविक है लेकिन यह ब्याह कर चली गई तो हमारा क्या होगा यह सोचा है कभी?’’

‘‘हां तुम सही कह रही हो शादी के बाद वह हमारा ध्यान रख पाएगी इस की कोई गारंटी नहीं है गीता. हमें किसी भी तरह उसे समीर से दूर करना होगा… कोई तरकीब सोचनी होगी.’’

समी कैफे में बैठ ऋची का इंतजार कर रहा था. उसे देखते ही कहने लगा, ‘‘क्या हुआ मेरी जान तुम इतनी मुर?ाई सी क्यों हो? मैं तुम्हें इस तरह नहीं देख सकता माई लव.’’

यह सुन वह भावुक हो रोने लगी, ‘‘समी अब जल्द ही हम शादी कर लेते हैं. मेरे मम्मीपापा तो जैसे मेरे दुश्मन बन बैठे हैं. उन्हें एहसास ही नहीं कि मैं बड़ी हो रही हूं और मेरे भी कुछ अरमान हैं.’’

‘‘ठीक है मैं आज ही बात करता हूं अपने मम्मीपापा से… वैसे उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा ऋची. चलो अब कल मिलते हैं,’’ कहते हुए वह विदा हुआ.

ऋची घर आते ही सीधे अपने कमरे में चली गई तो उस के पीछेपीछे मम्मीपापा भी चल दिए. पापा कहने लगे, ‘‘सौरी बेटा तुम्हें कल बहुत भलाबुरा कह गया. हम चाहते हैं तुम्हारी शादी किसी अच्छे खानदान में हो… देखो बहुत से बायोडाटा तुम्हारे लिए आए हुए हैं. हमें समीर के बारे में पता चला है वह लड़का तुम्हारे काबिल नहीं है… परिवार की आर्थिक स्थिति भी खास ठीक नहीं है.’’

‘‘मम्मीपापा मुझे शादी रुपयों से नहीं इंसान से करनी है. मैं शादी करूंगी तो समी से ही.’’

‘‘देखो बेटी यह जीवनभर का फैसला पलभर में लेना सही नहीं है. 2-4 दिन में ये सारे बायोडाटा देख लो फिर सोचते हैं,’’ कह कर वे अपने बैडरूम में चले गए.

नींद ऋची के आंखों से कोसों दूर थी. इस एकांत में वह बस समी के ही सपने देख रही थी. पानी पीने उठी तो बोतल खाली पड़ी थी. वह रसोई में पानी की बोतल लेने जा ही रही थी कि तभी मम्मीपापा की बातें सुन कर वह वहीं स्तब्ध रह गई.

मम्मी पापा से कह रही थी, ‘‘तुम्हारी पैंशन से केवल हमारी दवाइयां आ पाती हैं यह ब्याह कर चली गई तो हम खाएंगे क्या? ऋची भले ही बेटी है पर इस ने बेटे से बढ़ कर सारी जिम्मेदारियां उठाई हैं. मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा इसे कैसे समीर से दूर करें.’’

‘‘चिंता मत करो गीता कोई न कोई रास्ता जरूर निकल आएगा. मैं ने जो बायोडाटा उस के रूम में रखे हैं वे सब अमीर घरानों के ही हैं. हां, कुछ लड़के उन्नीस हैं. किसी की उम्र बड़ी तो किसी को कोई छोटीमोटी तकलीफें… उस से ऋची के जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा और हमारा बुढ़ापा भी आराम से कट जाएगा. हमें या तो घरजंवाई मिल जाए या कोई धनाढ्य परिवार, आजकल तो बेटी वाले भी रुपए ले रहे हैं और हम तो मजबूर हैं… क्या करें हमारे पास सहारे के लिए ऋची के अतिरिक्त कोई और विकल्प ही नहीं है. समीर खुद ही साधारण परिवार से है. उस से ब्याह करेगी तो हमें कुछ आर्थिक सहयोग मिलने से रहा यह तो पक्का. इसलिए किसी भी तरह इस के दिलोदिमाग से समीर का भूत निकालना जरूरी है. अब यह मान गई तो ठीक वरना कुछ उलटीसीधी तरकीब सोचनी होगी. चलो अब काफी रात हो चुकी है सो जाओ गीता. सोचते हैं… इस समस्या का समाधान भी मिल ही जाएगा,’’ और फिर चचा पर विराम लग गया.

ऋची का मन क्रोध में धधक रहा था. आंखों से अंश्रुधारा बहने लगी. इतनी ओछी बात समीर से साझ करने में भी शर्म आ रही थी. मन मसोस कर उस ने जैसे जहर का घूंट पी लिया.वह बारबार अपने को कोस रही थी. सारी रात ऊहापोह में करवटें बदलते हुए निकली.

सुबहसुबह समी का मैसेज देख उसे कुछ राहत मिली. उस ने लिखा था कि ऋची मम्मीपापा हमारी शादी को ले कर राजी हो गए हैं. अब तुम जब चाहो हम साथ रह सकते हैं.

ऋची घर में सामान्य बने रहने का स्वांग रचने लगी. वह धीरेधीरे कर अपने सारे जरूरी सामान की पैकिंग करने लगी. उस ने समी को कोर्ट मैरिज के लिए राजी कर लिया था.

ऋची अपने मम्मीपापा से कहने लगी, ‘‘मुझे ट्रेनिंग लेने कालेज से 8 दिन दूसरे शहर जाना होगा… यह ट्रेनिंग ले लूं तो मेरी प्रमोशन आसानी से हो जाएगीं.’’

‘थोड़े दिन ही सही शादी की बला टली’ यह सोच कर मम्मीपापा खुश हो रहे थे.

ऋची ने बैग पैक किया टैक्सी की और सीधे कोर्ट में पहुंची जहां समी पहले से ही मौजूद था.

ऋची का मन आजाद पंछी सा उड़ने लगा. उस के दिल के सूने आंगन में समी ने प्रेम के कई रंग भर दिए थे. इस नए घर में उसे वह सबकुछ मिला जो तमन्ना एक नवविवाहिता की रहती है.

समी औनलाइन मीटिंग में व्यस्त था तभी गृहस्थी ने अपने मोबाइल से अपने मम्मीपापा को मैसेज किया, ‘मम्मीपापा, आप को यह जान कर अफसोस होगा कि आप का लौटरी टिकट यानी मैं हमेशाहमेशा के लिए वह घर छोड़ चुकी हूं. मैं उम्र के 30 साल पार कर चुकी हूं और अपना भलाबुरा सम?ाती हूं. अपने स्वार्थ के लिए जब मातापिता अपनी बेटी की खुशियां कुरबान कर सकते हैं तो जरूरी नहीं मैं भी आप की जिम्मेदारी उठाऊं.’

मैसेज पढ़ते ही ऋची के मम्मीपापा की हालत खराब हो गई. वे बारबार नंबर डायल करने लगे लेकिन गृहस्थी ने मोबाइल स्विच औफ कर दिया. दूसरे दिन नया सिम कार्ड ले कर उस ने अपना मोबाइल नंबर बदल लिया.

एक नए नंबर के सहारे गृहस्थी अपने नए जीवन की शुरुआत कर चुकी थी. एक नया नंबर उसे स्वार्थ की उन तमाम परछाइयों से दूर करने के लिए पर्याप्त था.

Top 10 Social Story In Hindi: पढ़ें टॉप 10 सोशल कहानियां हिंदी में

Social Story In Hindi: समाज से जुड़ी कुछ नीतियां और कुरीतियां सभी को माननी पड़ती हैं, लेकिन कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो इन नियमों को मानने की बजाय अपना रास्ता खुद बनाने का प्रयास करते हैं. हालांकि इस रास्ते पर उनकी जिंदगी में कई मुश्किलें आती है. लेकिन वह बिना हार माने अपनी जीत हासिल करते हैं. तो इसलिए आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गृहशोभा की Top 10 Social Story in Hindi. समाज का एक पहलू दिखाती ये कहानियां आपकी लाइफ में गहरी छाप छोड़ेंगी. तो पढ़िए गृहशोभा की Top 10 Social Story in Hindi.

1. खामोश जिद: क्या हुआ था रुकमा के साथ

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‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

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2. अंतिम निर्णय: रिश्तों के अकेलेपन में समाज के दायरे से जुड़ी सुहासिनी की कहानी

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सुहासिनी के अमेरिका से भारत आगमन की सूचना मिलते ही अपार्टमैंट की कई महिलाएं 11 बजते ही उस के घर पहुंच गईं. कुछ भुक्तभोगियों ने बिना कारण जाने ही एक स्वर में कहा, ‘‘हम ने तो पहले ही कहा था कि वहां अधिक दिन मन नहीं लगेगा, बच्चे तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं, हम सारा दिन अकेले वहां क्या करें? अनजान देश, अनजान लोग, अनजान भाषा और फिर ऐसी हमारी क्या मजबूरी है कि हम मन मार कर वहां रहें ही. आप के आने से न्यू ईयर के सैलिब्रेशन में और भी मजा आएगा. हम तो आप को बहुत मिस कर रहे थे, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

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3. बुड्ढा आशिक: किस तरह प्रोफेसर प्रसाद कर रहे थे मानसी का शोषण

 

मानसी अभी कालेज से लौट कर होस्टल पहुंची ही थी कि उस के डीन मिस्टर प्रसाद का फोन आ गया. वह बैग पटक कर मोबाइल अटैंड करने लगी. प्रसाद मानसी के पीएचडी गाइड थे और वे चाहते थे कि मानसी उन के साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो जाए, उन्हें तुरंत बाहर जाना है.

मानसी को समझ नहीं आया कि क्या कहे? हां कहे तो मुश्किल और ना कर दे तो और भी मुसीबत. तभी उसे अपने बचपन के साथी शिशिर का बहाने बनाने का फार्मूला याद आया.

उस ने कराहते हुए कहा, ‘‘सर, मैं तो एक कदम भी चल नहीं पा रही हूं.’’

प्रसाद भी बड़े घाघ थे, बोले, ‘‘अभी तो यहां से अच्छीभली निकली हो, अब क्या हो गया?’’

‘‘ओह,’’ मानसी आवाज में दर्द भर कर बोली, ‘‘सर, अभी यहां बस से उतरते समय मेरा पांव मुड़ गया जिस से मोच आ गई,’’ कहते हुए मानसी ने एक और कराह भरी.

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4.  गुलाब यूं ही खिले रहें- क्या हुआ था रिया के साथ

 

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शादी की शहनाइयां बज रही थीं. सभी मंडप के बाहर खड़े बरात का इंतजार कर रहे थे. शिखा अपने दोनों बच्चों को सजेधजे और मस्ती करते देख कर बहुत खुश हो रही थी और शादी के मजे लेते हुए उन पर नजर रखे हुए थी. तभी उस की नजर रिया पर पड़ी जो एक कोने में गुमसुम सी अपनी मां के साथ चिपकी खड़ी थी. रिया और शिखा दूर के रिश्ते की चचेरी बहनें थीं. दोनों बचपन से ही अकसर शादीब्याह जैसे पारिवारिक कार्यक्रमों में मिलती थीं. रिया को देख शिखा ने वहीं से आवाज लगाई, ‘‘रिया…रिया…’’

शायद रिया अपनेआप में ही खोई हुई थी. उसे शिखा की आवाज सुनाई भी न दी. शिखा स्वयं ही उस के पास पहुंची और चहक कर बोली, ‘‘कैसी है रिया?’’

रिया ने जैसे ही शिखा को देखा, मुसकरा कर बोली, ‘‘ठीक हूं, तू कैसी है?’’

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5. आहत- शालिनी के प्यार में डूबा सौरभ उसके स्वार्थी प्रेम से कैसे था अनजान

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हैवलौक अंडमान का एक द्वीप है. कई छोटेबड़े रिजोर्ट्स हैं यहां. बढ़ती जनसंख्या ने शहरों में प्रकृति को तहसनहस कर दिया है, इसीलिए प्रकृति का सामीप्य पाने के लिए लोग पैसे खर्च कर के अपने घर से दूर यहां आते हैं.

1 साल से सौरभ ‘समंदर रिजोर्ट’ में सीनियर मैनेजर के पद पर काम कर रहा था. रात की स्याह चादर ओढ़े सागर के पास बैठना उसे बहुत पसंद था. रिजोर्ट के पास अपना एक व्यक्तिगत बीच भी था, इसलिए उसे कहीं दूर नहीं जाना पड़ता था. अपना काम समाप्त कर के रात में वह यहां आ कर बैठ जाता था. लोग अकसर उस से पूछते कि वह रात में ही यहां क्यों बैठता है?

सौरभ का जवाब होता, ‘‘रात की नीरवता, उस की खामोशी मुझे बहुत भाती है.’’

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6. संबंध- क्या शादी नहीं कर सकती विधवा

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‘‘इस औरत को देख रही हो… जिस की गोद में बच्चा है?’’

‘‘हांहां, देख रही हूं… कौन है यह?’’

‘‘अरे, इस को नहीं जानती तू?’’ पहली वाली औरत बोली.

‘‘हांहां, नहीं जानती,’’ दूसरी वाली औरत इनकार करते हुए बोली.

‘‘यह पवन सेठ की दूसरी औरत है. पहली औरत गुजर गई, तब उस ने इस औरत से शादी कर ली.’’

‘‘हाय, कहां पवन सेठ और कहां यह औरत…’’ हैरानी से दूसरी औरत बोली, ‘‘इस की गोद में जो लड़का है, वह पवन सेठ का नहीं है.’’

‘‘तब, फिर किस का है?’’

‘‘पवन सेठ के नौकर रामलाल का,’’ पहली वाली औरत ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पवन सेठ की उम्र देखो, मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं…’’ दूसरी वाली औरत ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘दोनों में उम्र का कितना फर्क है. इस औरत ने कैसे कर ली शादी?’’

‘‘सुना है, यह औरत विधवा थी,’’ पहली वाली औरत ने कहा.

‘‘विधवा थी तो क्या हुआ? अरे, उम्र देख कर तो शादी करती.’’

‘‘अरे, इस ने पवन सेठ को देख कर शादी नहीं की.’’

‘‘फिर क्या देख कर शादी की?’’ उस औरत ने पूछा.

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7. महकती विदाई: क्या था अंजू का राज

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अम्मां की नजरों में शारीरिक सुंदरता का कोई मोल नहीं था इसीलिए उन्होंने बेटे राज के लिए अंजू जैसी साधारण लड़की को चुना. खाने का डब्बा और कपड़ों का बैग उठाए हुए अंजू ने तेज कदमों से अस्पताल का बरामदा पार किया. वह जल्द से जल्द अम्मां के पास पहुंचना चाहती थी. उस की सास जिन्हें वह प्यार से अम्मां कह कर बुलाती है, अस्पताल के आई.सी.यू. में पड़ी जिंदगी और मौत से जूझ रही थीं. एक साल पहले उन्हें कैंसर हुआ था और धीरेधीरे वह उन के पूरे शरीर को ही खोखला बना गया था. अब तो डाक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी.

आज जब वह डा. वर्मा से मिली तो वह बोले, ‘‘आप रोगी को घर ले जा सकती हैं. जितनी सांसें बाकी हैं उन्हें आराम से लेने दो.’’

पापा मानने को तैयार नहीं थे. वह बोले, ‘‘डाक्टर साहब, आप इन का इलाज जारी रखें. शायद कोई चमत्कार हो ही जाए.’’

8. बीरा- गांव वालों ने क्यों मांगी माफी

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आज भी बीरा के मांबाप को भजन सिंह चेताने आए थे, ‘‘तुम अपनी बेटी को संभाल कर रखो, नहीं तो मैं उस के हाथपैर तोड़ दूंगा.’’

हर रोज बीरा किसी न किसी लड़के से झगड़ा कर लेती थी. गांव के लड़के बीरा को हमेशा छेड़ा करते थे, ‘तुम लड़के जैसी लगती हो, लेकिन तुम्हारी आवाज लड़की जैसी है. एक पप्पी नहीं दोगी…’

कोई लड़का बीरा के गाल को पकड़ लेता तो कोई मौका मिलते ही उस की छाती को भी. बीरा कभी बरदाश्त नहीं करती और मारपीट पर उतारू हो जाती. स्कूल, गलीमहल्ले, खेतखलिहान, खेल के मैदान, बीरा को हर रोज इन समस्याओं से जूझना पड़ता था.

धीरेधीरे पूरे गांव में यह प्रचार होने लगा कि बीरा किन्नर है.

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9. वार्निंग साइन बोर्ड: आखिर क्या हुआ था 7 साल की निधि के साथ?

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निशा औफिस के बाद निधि को लेने स्कूल पहुंची. उसे देखते ही दौड़ कर उस के पास आने वाली निधि ठीक से चल भी नहीं पा रही थी.

निशा को देखते ही अटैंडैंट ने दवा देते हुए कहा, ‘‘मैम, आज निधि दर्द की शिकायत कर रही थी. डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने यह दवा दी है. आप इस दवा को दिन में 2 बार तो इस दवा को दिन में 3 बार देना.’’

‘‘मुझे फोन कर दिया होता?’’

‘‘हो सकता है न मिला हो, इसलिए डाक्टर को बुला कर दिखाया हो.’’

‘‘ओके, डाक्टर का परचा?’’

‘‘डाक्टर ने परचा नहीं दिया, सिर्फ यह दवा दी है.’’

निशा ने सोचा शायद इस से परचा कहीं खो गया होगा. अत: झूठ बोल रही है… फिर उस ने मन ही मन स्कूल प्रशासन को धन्यवाद दिया. नाम के अनुरूप काम भी है, सोच कर संतुष्टि की सांस ली. निधि को किस कर गोद में उठा कर कार तक ले गई. निधि कार में बैठते ही सो गई. कैसी भागदौड़ वाली जिंदगी है उस की… वह अपनी बेटी को भी समय नहीं दे पा रही है. स्कूल तो ढाई बजे ही बंद हो जाता है पर घर में किसी के न होने के कारण उसे निधि को स्कूल के क्रैच में ही छोड़ना पड़ता है. कभीकभी लगता है कि एक छोटी सी बच्ची पर कहीं जरूरत से ज्यादा शारीरिक और मानसिक बोझ तो नहीं पड़ रहा है. पर करे भी तो क्या करे? अपनेअपने कार्यक्षेत्र में व्यस्त होने के कारण न तो उस के और न ही दीपक के मातापिता का लगातार उन के साथ रहना संभव है. बस एक ही उपाय है कि वह नौकरी छोड़ दे, पर उसे लगता है कि अगर नौकरी छोड़ देगी तो फिर पता नहीं ऐसी नौकरी मिले या न मिले.

10. कलंक: बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

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उस रात 9 बजे ही ठंड बहुत बढ़ गई थी. संजय, नरेश और आलोक ने गरमाहट पाने के लिए सड़क के किनारे कार रोक कर शराब पी. नशे के चलते सामने आती अकेली लड़की को देख कर उन के भीतर का शैतान जागा तो वे उस लड़की को छेड़ने से खुद को रोक नहीं पाए.

‘‘जानेमन, इतनी रात को अकेली क्यों घूम रही हो? किसी प्यार करने वाले की तलाश है तो हमें आजमा लो,’’ आसपास किसी को न देख कर नरेश ने उस लड़की को ऊंची आवाज में छेड़ा.

‘‘शटअप एंड गो टू हैल, यू बास्टर्ड,’’ उस लड़की ने बिना देर किए अपनी नाराजगी जाहिर की.

‘‘तुम साथ चलो तो ‘हैल’ में भी मौजमस्ती रहेगी, स्वीटहार्ट.’’

‘‘तेरे साथ जाने को पुलिस को बुलाऊं?’’ लड़की ने अपना मोबाइल फोन उन्हें दिखा कर सवाल पूछा.

‘‘पुलिस को बीच में क्यों ला रही हो मेरी जान?’’

‘‘पुलिस नहीं चाहिए तो अपनी मां या बहनों…’’

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कड़वी गोली: बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर क्यों बड़बड़ा रही थी मीना

बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर मीना बड़बड़ा रही है. दोष किसी इनसान का नहीं, एक छोटे से पंछी का है जिसे पंजाब में ‘घुग्गी’ कहते हैं. किस्सा इतना सा है कि सामने कोने में ‘घुग्गी’ के एक जोड़े ने अपना छोटा सा घोंसला बना रखा है जिस में उन के कुछ नवजात बच्चे रहते  हैं. अभी उन्हें अपने मांबाप की सुरक्षा की बेहद जरूरत है.

नरमादा दोनों किसी को भी उस कोने में नहीं जाने देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि हम उन के बच्चे चुरा लेंगे या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाएंगे. काम वाली बाई सफाई करने गई तो चोंच से उस के सिर के बाल ही खींच ले गए. इस के बाद से उस ने तो उधर जाना ही छोड़ दिया. मीना घूंघट निकाल कर उधर गई तो उस के सिर पर घुग्गी के जोड़े ने चोंच मार दी.

‘‘इन्हें किसी भी तरह यहां से हटाइए,’’ मीना गुस्से में बोली, ‘‘अजीब गुंडागर्दी है. अपने ही घर में इन्होंने हमारा चलनाफिरना हराम कर रखा है.’’

‘‘मीना, इन की हिम्मत और ममता तो देखो, हमारा घर इन नन्हेनन्हे पंछियों के शब्दकोष में कहां है. यह तो बस, कितनी मेहनत से अपने बच्चे पाल रहे हैं. यहां तक कि रात को भी सोते नहीं. याद है, उस रोज रात के 12 बजे जब मैं स्कूटर रखने उधर गया था तो भी दोनों मेरे बाल खींच ले गए थे.’’

रात 12 बजे का जिक्र आया तो याद आया कि मीना को महेश के बारे में बताना तो मैं भूल ही गया. महेश का फोन न मिल पाने के कारण हम पतिपत्नी परेशान जो थे.

‘‘सुनो मीना, महेश का फोन तो कटा पड़ा है. बच्चों ने बिल ही जमा नहीं कराया. कहते हैं सब के पास मोबाइल है तो इस लैंडलाइन की क्या जरूरत है…’’

बुरी तरह चौंक गई थी मीना. ‘‘मोबाइल तो बच्चों के पास है न, महेश अपनी बातचीत कैसे करेंगे? वैसे भी महेश आजकल अपनेआप में ही सिमटते जा रहे हैं. पिछले 2 माह से दोपहर का खाना भी दफ्तर के बाहर वाले ढाबे से खा रहे हैं क्योंकि सुबहसुबह खाना  बना कर देना बहुओं के बस का नहीं है.’’

मीना के बदलते तेवर देख कर मैं ने गरदन झुका ली. 18 साल पहले जब महेश की पत्नी का देहांत हुआ था तब दोनों बेटे छोटे थे, उम्र रही होगी 8 और 10 साल. आज दोनों अच्छे पद पर कार्यरत हैं, दोनों का अपनाअपना परिवार है. बस, महेश ही लावारिस से हैं, कभी इधर तो कभी उधर.

एक दिन मैं ने पूछा था, ‘तुम अपनी जरूरतों के बारे में कब सोचोगे, महेश?’

‘मेरी जरूरतें अब हैं ही कितनी?’

‘क्यों? जिंदा हो न अभी, सांस चल रही है न?’

‘चल तो रही है, अब मेरे चाहने से बंद भी तो नहीं होती कम्बख्त.’

यह सुन कर मैं अवाक् रह गया था. बहुत मेहनत से पाला है महेश ने अपनी संतान को. कभी अच्छा नहीं पहना, अच्छा नहीं खाया. बस, जो कमाया बच्चों पर लगा दिया. पत्नी नहीं थी न, क्या करता, मां भी बनता रहा बच्चों की और पिता भी.

माना, ममता के बिना संतान पाली नहीं जा सकती, फिर भी एक सीमा तो होनी चाहिए न, हर रिश्ते में एक मर्यादा, एक उचित तालमेल होना चाहिए. उन का सम्मान न हो तो दर्द होगा ही.

महेश ने अपना फोन कटा ही रहने दिया. इस पर मुझे और भी गुस्सा आता कि बच्चों को कुछ कहता क्यों नहीं. फोन पर तो बात हो नहीं पा रही थी. 2 दिन सैर पर भी नहीं आया तो मैं उस के घर ही चला गया. पता चला साहब बीमार हैं. इस हालत में अकेला घर पर पड़ा था क्योंकि दोनों बहुएं अपनेअपने मायके गई थीं.

‘‘हर शनिवार उन का रात का खाना अपनेअपने मायके में होता है.’’

‘‘तो तुम कहां खाते हो? बीमारी में भी तुम्हें उन की ही वकालत सूझ रही है. फोन ठीक होता तो कम से कम मुझे ही बता देते, मैं ही मीना से खिचड़ी बनवा लाता…’’

महेश चुप रहा और उस का पालतू कुत्ता सूं सूं करता उस के पैरों के पास बैठा रहा.

‘‘यार, इसे फ्रिज में से निकाल कर डबलरोटी ही डाल देना,’’ महेश बोला, ‘‘बेचारा मेरी तरह भूखा है. मुझ से खाया नहीं जा रहा और इसे किसी ने कुछ दिया नहीं.’’

‘‘क्यों? अब यह भी फालतू हो गया है क्या?’’ मैं व्यंग्य में बोल पड़ा, ‘‘10 साल पहले जब लाए थे तब तो आप लोगों को मेरा इसे कुत्ता कहना भी बुरा लगता था, तब यह आप का सिल्की था और आज इस का भी रेशम उतर गया लगता है.’’

‘‘हो गए होंगे इस के भी दिन पूरे,’’ महेश उदास मन से बोला, ‘‘कुत्ते की उम्र 10 साल से ज्यादा तो नहीं होती न भाई.’’

‘‘तुम अपनी उम्र का बताओ महेश, तुम्हें तो अभी 20-25 साल और जीना है. जीना कब शुरू करोगे, इस बारे में कुछ सोचा है? इस तरह तो अपने प्रति जो तुम्हारा रवैया है उस से तुम जल्दी ही मर जाओगे.’’

कभीकभी मुझे यह सोच कर हैरानी होती है कि महेश किस मिट्टी का बना है. उसे कभी कोई तकलीफ भी होती है या नहीं. जब पत्नी चल बसी तब नाते- रिश्तेदारों ने बहुत समझाया था कि दूसरी शादी कर लो.

तब महेश का सीधा सपाट उत्तर होता था, ‘मैं अपने बच्चों को रुलाना नहीं चाहता. 2 बच्चे हैं, शादी कर ली तो आने वाली पत्नी अपनी संतान भी चाहेगी और मैं 2 से ज्यादा बच्चे नहीं चाहता. इसलिए आप सब मुझे माफ कर दीजिए.’

महेश का यह सीधा सपाट उत्तर था. हमारे भी 2 बच्चे थे. मीना ने साथ दिया. इस सत्य से मैं इनकार नहीं कर सकता क्योंकि यदि वह न चाहती तो शायद मैं भी चाह कर कुछ नहीं कर पाता.

एक तरह से महेश, मैं और मीना, तीनों ने मिल कर 4 बच्चों को पाला. महेश के बच्चे कबकब मीना के भी बच्चे रहे समझ पाना मुश्किल था. मैं यह भी नहीं कहता महेश के बच्चे उस से प्यार नहीं करते, प्यार कहीं सो सा गया है, कहीं दब सा गया है कुछ ऐसा लगता है. सदा पिता से लेतेलेते  वे यह भूल ही गए हैं कि उन्हें पिता को कुछ देना भी है. छोटे बेटे ने पिता के नाम पर गाड़ी खरीदी जिस की किश्त पिता चुकाता है और बड़े ने पिता के नाम पर घर खरीदा है जिस की किश्त भी पिता की तनख्वाह से ही जाती है.

‘‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तुम्हारे हाथ आते हैं. उस में तुम्हारा दोपहर का खाना, कपड़ा, दवा, टेलीफोन का बिल कैसे पूरा होगा, क्या बच्चे यह सब- कुछ सोचते हैं? अगर नहीं सोचते तो उन्हें सोचना पड़ेगा, महेश.

‘‘यह कुत्ता भी आज तुम्हारे परिवार में फालतू है क्योंकि घर में तुम्हारे पोतेपोतियां हैं जो एक जानवर के साथ असुरक्षित हैं. कल कुत्ता तुम्हारी जरूरत था क्योंकि बच्चे अकेले थे. दोनों बच्चे तुम्हारे साथ किस बदतमीजी से पेश आते हैं तुम्हें पता ही नहीं चलता, कोई भी बाहर का व्यक्ति झट समझ जाता है कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी इज्जत नहीं कर रहे और तुम कबूतर की तरह आंखें बंद किए बैठे हो. महेश, अपनी सुधि लेना सीखो. याद रखो, मां भी बच्चे को बिना रोए दूध नहीं पिलाती. तकलीफ हो तो रोना भी पड़ता है और रोना भी चाहिए. इन्हें वह भाषा समझाओ जो समझ में आए.’’

‘‘मैं क्या करूं? कभी अपने लिए कुछ मांगा ही नहीं.’’

‘‘तुम क्यों मांगो, अभी तो 20 हजार हर महीने तुम इन पर खर्च कर रहे हो. अभी तो देने वालों की फेहरिस्त में तुम्हारा नाम आता है. तुम्हें अपने लिए चाहिए ही क्या, समय पर दो वक्त का खाना और धुले हुए साफ कपड़े. जरा सी इज्जत और जरा सा प्यार. बदले में अपना सब दे चुके हो बच्चों को और दे रहे हो.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता मेरा.’’

‘‘चाहो तो सब हो सकता है. तुम जरा सी हिम्मत तो जुटाओ.’’

वास्तव में उस दिन महेश बेचैन था और उस की पीड़ा हम भी पूरी ईमानदारी से सह रहे थे. बिना कुछ भी कहे पलपल हम महेश के साथ ही तो थे. एक अधिकार था मीना के पास भी, मां की तरह ममत्व लुटाया था मीना ने भी बच्चों पर.

‘‘जी चाहता है कान मरोड़ दूं दोनों के,’’ मीना ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘‘आज किसी लायक हो गए तो पिता की जरूरतों का अर्थ ही नहीं रहा उन के मन में.’’

‘‘पहल महेश को करने दो मीना, यह उस की अपनी जंग है.’’

‘‘इस में जंग वाली क्या बात हुई?’’

‘‘जंग का अर्थ सिर्फ 2 देशों के बीच लड़ाई ही तो नहीं होता, विचारों के बीच जब तालमेल न हो तब भी तो मन के भीतर एक घमासान चलता रहता है न. उस के घर का मसला है, उसी को निबटने दो.’’

किसी तरह मीना को समझा- बुझा कर मैं ने शांत तो कर दिया लेकिन खुद असहज ही रहा. अकसर सोचता, महेश बेचारे ने गलती भी तो कोई  नहीं की. एक अच्छा पिता और एक समर्पित पति बनना तो कोई अपराध नहीं है. महेश ने जब दूसरी शादी न करने का फैसला लिया था तब उस का वह फैसला उचित था. आज यदि वह अकेला है तो हम सोचते हैं कि उस का निर्णय गलत था, तब शादी कर लेता तो कम से कम आज अकेला तो न होता.

अकसर जीवन में ऐसा ही होता है. कल का सत्य, आज का सत्य रहता ही नहीं. उस पल की जरूरत वह थी, आज की जरूरत यह है. हम कभी कल के फीते से आज को तो नहीं नाप सकते न.

संयोग ऐसा बना कि कुछ दिन बाद, सुबहसुबह मैं उठा तो पाया कि बरामदे का वह कोना साफसुथरा है जहां घुग्गी ने घोंसला बना रखा था. बाई पोंछा लगा रही थी.

‘‘बच्चे उड़ गए साहब,’’ बाई ने बताया, ‘‘वह देखिए, उधर…’’

2 छोटेछोटे चिडि़या के आकार के नन्हेनन्हे जीव इधरउधर फुदक रहे थे और नरमादा उन की खुली चोंच में दाना डाल रहे थे.

‘‘अरे मीना, आओ तो, देखो न कितने प्यारे बच्चे हैं. जरा भाग कर आना.’’

मीना आई और सहसा कुछ ऐसा कह गई जो मेरे अंतरमन को चुभ सा गया.

‘‘हम इनसानों से तो यह परिंदे अच्छे, देखना 4 दिन बाद जब बच्चों को खुद दाना चुगना आ जाएगा तो यह नरमादा इन्हें आजाद छोड़ देंगे. हमारी तरह यह नहीं चाहेंगे कि ये सदा हम से ही चिपके रहें. हम सब की यही तो त्रासदी है कि हम चाहते हैं कि बच्चे सदा हमारी उंगली ही पकड़ कर चलें. हम सोचना ही नहीं चाहते कि बच्चों से अपना हाथ छुड़ा लें.’’

‘‘क्योंकि इनसान को बुढ़ापे में संतान की जरूरत पड़ती है जो इन पक्षियों को शायद नहीं पड़ती. मीना, इनसान सामाजिक प्राणी है और वह परिवार से, समाज से जुड़ कर जीना चाहता है.’’

मीना बड़बड़ा कर वहीं धम से बैठ गई. मैं मीना को पिछले 30 सालों से जानता हूं. अन्याय साथ वाले घर में होता हो तो अपने घर बैठे इस का खून उबलता रहता है. महेश के बारे में ही सोच रही होगी. एक बेनाम सा रिश्ता है मीना का भी महेश के साथ. वह मेरा मित्र है और यह मेरी पत्नी, दोनों का रिश्ता भला क्या बनता है? कुछ भी तो नहीं, लेकिन यह भी एक सत्य है कि मीना महेश के लिए बहुत कुछ है, भाभी, बहन, मित्र और कभीकभी मां भी.

‘‘महेश को अपने घर ला रही हूं मैं, ऊपर का कमरा खाली करा कर सब साफसफाई करा दी है. बहुत हो चुका खेलतमाशा…बेशर्मी की भी हद होती है. अस्पताल से सीधे यहीं ला रही हूं, सुना आप ने…’’

मुझ में काटो तो खून नहीं रहा. अस्पताल से सीधा? तो क्या महेश अस्पताल में है? याद आया…मैं तो 2 दिन से यहां था ही नहीं, कार्यालय के काम से दिल्ली गया था. देर रात लौटा था और अब सुबहसुबह यह सब. पता चला महेश के शरीर में शुगर की बहुत कमी हो गई थी जिस वजह से उसे कार्यालय में ही चक्कर आ गया था और दफ्तर के लोगों उसे अस्पताल पहुंचा दिया था.

‘‘नहीं मीना, यह हमारी सीमा में नहीं आता. घर तो उस का वही है, कोई बात नहीं, आज देखते हैं अस्पताल से तो वह अपने ही घर जाएगा.’’

उस दिन मैं दफ्तर से आधे दिन का अवकाश ले कर उसे अस्पताल से उस के घर ले गया. दोनों बेटे जल्दी में थे और बहुएं बच्चों में व्यस्त थीं. सहसा तभी उन का कुत्ता छोटे बच्चे पर झपट पड़ा, शायद वह भूखा था. उस के हाथ का बिस्कुट छिटक कर परे जा गिरा. महेश के पीछे उस ने 2 दिन कुछ खाया नहीं होगा क्योंकि महेश के बिना वह कुछ भी खाता नहीं. महेश को देखते ही उस की भूख जाग उठी और बिस्कुट लपक लिया.

‘‘पापा, आप ने इसे ढंग से पाला नहीं. न कोई टे्रनिंग दी है न तमीज सिखाई है. 2 दिन से लगातार भौंकभौंक कर हम सब का दिमाग खा गया है. न खाता है न पीता है और हमारे पास इस के लिए समय नहीं है.’’

‘‘समय तो आप के पास अपने बाप के लिए भी नहीं है, कुत्ता तो बहुत दूर की चीज है बेटे. रही बात तमीज की तो वह महेश भैया ने तुम दोनों को भी बहुत सिखाई थी. यह तो जानवर है. बेचारा मालिक के वियोग में भूखा रह सकता है या भौंक सकता है फिर भी दुम हिला कर स्वागत तो कर सकता है. तुम से तो वह भी नहीं हुआ…जिन के पास जबान भी है और हाथपैर भी. घंटे भर से हम देख रहे हैं मुझे तो तुम दोनों में से कोई अपने पिता के लिए एक कप चाय लाता भी दिखाई नहीं दिया.’’

मीना बोली तो बड़ा बेटा अजय स्तब्ध रह गया. कुछ कहता तभी टोक दिया मीना ने, ‘‘तुम्हारे पास समय नहीं कोई बात नहीं. महेश नौकर रख कर अपना गुजारा कर लेंगे. कम से कम उन की तनख्वाह तो तुम उन के पास छोड़ दो…बाप की तनख्वाह तो तुम दोनों भाइयों ने आधीआधी बांट ली, कभी यह भी सोचा है कि वह बचे हुए 2 हजार रुपयों में कैसे खाना खाते हैं? दवा भी ले पाते हैं कि नहीं? फोन तक कटवा दिया उन का, क्यों? क्या उन का कोई अपना जानने वाला नहीं जिस के साथ वह सुखदुख बांट सकें. क्या जीते जी मर जाए तुम्हारा बाप?’’

मीना की ऊंची आवाज सुन छोटा बेटा विजय और उस की पत्नी भी अपने कमरे से बाहर चले आए.

‘‘तुम दोनों की मां आज जिंदा होतीं तो अपने पति की यह दुर्गति नहीं होने देतीं. हम क्या करें? हमारी सीमा तो सीमित है न बेटे. तुम मेरे बच्चे होते तो कान मरोड़ कर पूछती, लेकिन क्या करूं मैं तुम्हारी मां नहीं हूं न.’’

रोने लगी थी मीना. महेश और उस के परिवार के लिए अकसर रो दिया करती है. कभी उन की खुशी में कभी उन की पीड़ा में.

‘‘कभी कपड़े देखे हैं विजय तुम ने अपने पापा के. हजारों रुपए अपनी कमीजों पर तुम खर्च कर देते हो. कभी देखा है इतनी गरमी में उन के पास कोई ढंग की सूती कमीज भी है…

‘‘आफिस के सामने वाले ढाबे पर दोपहर का खाना खाते हैं. क्या तुम दोनों की बीवियां वक्त पर ससुर को टिफिन नहीं दे सकतीं. अरे, सुबह नहीं तो कम से कम दोपहर तक पहुंचाने का इंतजाम ही करवा दो.

‘‘बहुएं तो दूसरे घरों से आई हैं. हो सकता है इन के घर में मांबाप का ऐसा ही आदर होता हो. कम से कम तुम तो अपने पिता की कद्र करना अपनी पत्नियों को सिखाओ. क्या मैं ने यही संस्कार दिए थे तुम लोगों को? ऐसा ही सिखाया था न?’’

दोनों भाई चुप थे और उन की बीवियां तटस्थ थीं. अजयविजय आगे कुछ कहते कि मीना ने पुन: कहा, ‘‘बेटा, अपने बाप को लावारिस मत समझना. अभी तुम जैसे 2-4 वह और भी पाल सकते हैं. नहीं संभाले जाते तो यह घर छोड़ कर चले जाओ, अजय तुम अपने फ्लैट में और विजय तुम किराए के घर में. अपनीअपनी किस्तें खुद दो वरना आज ही महेश फ्लैट और गाड़ी बेचने को तैयार हैं…इन्हीं के नाम हैं न दोनों चीजें.’’

महेश चुपचाप आंखें मूंदे पड़े थे. जाहिर था उसी के शब्द मीना के होंठों से फूट रहे थे.

‘‘मीना, अब बस भी करो. आओ, चलें.’’

आतेआते दोनों बच्चों का कंधा थपक दिया. मुझ से आंखें मिलीं तो ऐसा लगा मानो वही पुराने अजयविजय सामने खड़े हों जो स्कूल में की गई किसी शरारत पर टीचर की सजा से बचने के लिए मेरे या मीना के पास चले आते थे. आंखें मूंद कर मैं ने आश्वासन दिया.

‘‘कोई बात नहीं बेटा, जब जागे तभी सवेरा. संभालो अपने पापा को…’’

डबडबा गई थीं दोनों की आंखें. मानो अपनी भूल का एहसास पहली बार उन्हें हुआ हो. मैं कहता था न कि हमारे बच्चे संस्कारहीन नहीं हैं. हां, जवानी के जोश में बस जरा सा यह सत्य भूल गए हैं कि उन्हें जवान बनाने में इसी बुढ़ापे का खून और पसीना लगा है और यही बुढ़ापा बांहें पसारे उन का भी इंतजार कर रहा है.

कहा था न मैं ने कि उन का प्यार कहीं सो सा गया है. उसी प्यार को जरा सा झिंझोड़ कर जगा दिया था मीना ने. सच ही कहा था मैं ने, रो पड़े थे दोनों और साथसाथ मीना भी. जरा सा चैन आ गया मन को, अंतत: सब अच्छा ही होगा, यह सोच मैं ने और मीना ने उन के घर से विदा ली. क्या करते हम, कभीकभी मर्ज को ठीक करने के लिए मरीज को कड़वी गोली भी देनी पड़ती है.

ढाल: सलमा की भूल का क्या था अंजाम

लेखक- इनायतबानो कायमखानी

अभी पहला पीरियड ही शुरू हुआ था कि चपरासिन आ गई. उस ने एक परची दी, जिसे पढ़ने के बाद अध्यापिकाजी ने एक छात्रा से कहा, ‘‘सलमा, खड़ी हो जाओ, तुम्हें मुख्याध्यापिकाजी से उन के कार्यालय में अभी मिलना है. तुम जा सकती हो.’’

सलमा का दिल धड़क उठा, ‘मुख्याध्यापिका ने मुझे क्यों बुलाया है? बहुत सख्त औरत है वह. लड़कियों के प्रति कभी भी नरम नहीं रही. बड़ी नकचढ़ी और मुंहफट है. जरूर कोई गंभीर बात है. वह जिसे तलब करती है, उस की शामत आई ही समझो.’

‘तब? कल दोपहर बाद मैं क्लास में नहीं थी, क्या उसे पता लग गया? कक्षाध्यापिका ने शिकायत कर दी होगी. मगर वह भी तो कल आकस्मिक छुट्टी पर थीं. फिर?’

सामने खड़ी सलमा को मुख्या- ध्यापिका ने गरदन उठा कर देखा. फिर चश्मा उतार कर उसे साड़ी के पल्लू से पोंछा और मेज पर बिछे शीशे पर रख दिया.

‘‘हूं, तुम कल कहां थीं? मेरा मतलब है कल दोपहर के बाद?’’ इस सवाल के साथ ही मुख्याध्यापिका का चेहरा तमतमा गया. बिना चश्मे के हमेशा लाल रहने वाली आंखें और लाल हो गईं. वह चश्मा लगा कर फिर से गुर्राईं, ‘‘बोलो, कहां थीं?’’

‘‘जी,’’ सलमा की घिग्घी बंध गई. वह चाह कर भी बोल न सकी.

‘‘तुम एक लड़के के साथ सिनेमा देखने गई थीं. कितने दिन हो गए

तुम्हें हमारी आंखों में यों धूल झोंकते हुए?’’

मुख्याध्यापिका ने कुरसी पर पहलू बदल कर जो डांट पिलाई तो सलमा की आंखों में आंसू भर आए. उस का सिर झुक गया. उसे लगा कि उस की टांगें बुरी तरह कांप रही हैं.

बेशक वह सिनेमा देखने गई थी. हबीब उसे बहका कर ले गया था, वरना वह कभी इधरउधर नहीं जाती थी. अम्मी से बिना पूछे वह जो भी काम करती है, उलटा हो जाता है. उन से सलाह कर के चली जाती तो क्या बिगड़ जाता? महीने, 2 महीने में वह फिल्म देख आए तो अम्मी इनकार नहीं करतीं. पर उस ने तो हबीब को अपना हमदर्द माना. अब हो रही है न छीछालेदर, गधा कहीं का. खुद तो इस वक्त अपनी कक्षा में आराम से पढ़ रहा होगा, जबकि उस की खिंचाई हो रही है. तौबा, अब आगे यह जाने क्या करेगी.

चलो, दोचार चांटे मार ले. मगर मारेगी नहीं. यह हर काम लिखित में करती है. हर गलती पर अभिभावकों को शिकायत भेज देती है. और अगर अब्बा को कुछ भेज दिया तो उस की पढ़ाई ही छूटी समझो. अब्बा का गुस्सा इस मुख्याध्यापिका से उन्नीस नहीं इक्कीस ही है.

‘‘तुम्हारी कक्षाध्यापिका ने तुम्हें कल सिनेमाघर में एक लड़के के साथ देखा था. इस छोटी सी उम्र में भी क्या कारनामे हैं तुम्हारे. मैं कतई माफ नहीं करूंगी. यह लो, ‘गोपनीय पत्र’ है. खोलना नहीं. अपने वालिद साहब को दे देना. जाओ,’’ मुख्याध्यापिका ने उसे लिफाफा थमा दिया.

सलमा के चेहरे का रंग उड़ गया. उस ने उमड़ आए आंसुओं को पोंछा. फिर संभलते हुए उस गोपनीय पत्र को अपनी कापी में दबा जैसेतैसे बाहर निकल आई.

पूरे रास्ते सलमा के दिल में हलचल मची रही. यदि किसी लड़के के साथ सिनेमा जाना इतना बड़ा गुनाह है तो हबीब उसे ले कर ही क्यों गया? ये लड़के कैसे घुन्ने होते हैं, जो भावुक लड़कियों को मुसीबत में डाल देते हैं.

अब अब्बा जरूर तेजतेज बोलेंगे और कबीले वाली बड़ीबूढि़यां सुनेंगी तो तिल का ताड़ बनाएंगी. उन्हें किसी लड़की का ऊंची पढ़ाई पढ़ना कब गवारा है. बात फिर मसजिद तक भी जाएगी और फिर मौलवी खफा होगा.

जब उस ने हाईस्कूल में दाखिला लिया था तो उसी बूढ़े मौलवी ने अब्बा पर ताने कसे थे. वह तो भला हो अम्मी का, जो बात संभाल ली थी. लेकिन अब अम्मी भी क्या करेंगी?

सलमा पछताने लगी कि अम्मी हर बार उस की गलती को संभालती हैं, जबकि वह फिर कोई न कोई भूल कर बैठती है. वह मांबेटी का व्यवहार निभने वाली बात तो नहीं है. सहयोग तो दोनों ओर से समान होना चाहिए. उसे अपने साथ बीती घटनाएं याद आने लगी थीं.

2 साल पहले एक दिन अब्बा ने छूटते ही कहा था, ‘सुनो, सल्लो अब 13 की हो गई, इस पर परदा लाजिम है.’

‘हां, हां, मैं ने इस के लिए नकाब बनवा लिया है,’ अम्मी ने एक बुरका ला कर अब्बा की गोद में डाल दिया था, ‘और सुनो, अब तो हमारी सल्लो नमाज भी पढ़ने लगी है.’

‘वाह भई, एकसाथ 2-2 बंदिशें हमारी बेटी पर न लादो,’ अब्बा बहुत खुश हो रहे थे.

‘देख लीजिए. फिर एक बंदिश रखनी है तो क्या रखें, क्या छोड़ें?’

‘नमाज, यह जरूरी है. परदा तो आंख का होता है?’

और अम्मी की चाल कामयाब रही थी. नमाज तो ‘दीनदार’ होने और दकियानूसी समाज में निभाने के लिए वैसे भी पढ़नी ही थी. उस का काम बन गया.

फिर उस का हाईस्कूल में आराम से दाखिला हो गया था. बातें बनाने वालियां देखती ही रह गई थीं. अब्बा ने किसी की कोई परवा नहीं की थी.

सलमा को दूसरी घटना याद आई. वह बड़ी ही खराब बात थी. एक लड़के ने उस के नाम पत्र भेज दिया था. यह एक प्रेमपत्र था. अम्मी की हिदायत थी, ‘हर बात मुझ से सलाह ले कर करना. मैं तुम्हारी हमदर्द हूं. बेशक बेटी का किरदार मां की शख्सियत से जुड़ा होता है.’

मैं ने खत को देखा तो पसीने छूटने लगे. फिर हिम्मत कर के वह पत्र मैं ने अम्मी के सामने रख दिया. अम्मी ने दिल खोल कर बातें कीं. मेरा दिल टटोला और फिर खत लिखने वाले महमूद को घर बुला कर वह खबर ली कि उसे तौबा करते ही बनी.

मां ने उस घटना के बाद कहा, ‘सलमा, मुसलिम समाज बड़ा तंगदिल और दकियानूसी है. पढ़ने वाली लड़की को खूब खबरदार रहना होता है.’

सलमा ने पूछा, ‘इतना खबरदार किस वास्ते, अम्मी?’

वह हंस दी थीं, ‘केवल इस वास्ते कि कठमुल्लाओं को कोई मौका न मिले. कहीं जरा भी कोई ऐसीवैसी अफवाह उड़ गई तो वे अफवाह उदाहरण देदे कर दूसरी तरक्की पसंद, जहीन और जरूरतमंद लड़कियों की राहों में रोड़े अटका सकते हैं.’

‘आप ठीक कहती हैं, अम्मी,’ और सलमा ने पहली बार महसूस किया कि उस पर कितनी जिम्मेदारियां हैं.

पर 2-3 साल बाद ही उस से वह भूल हो गई. अब उस अम्मी को, जो उस की परम सहेली भी थीं, वह क्या मुंह दिखाएगी? फिर अब्बा को तो समझाना ही मुश्किल होगा. इस बार किसी तरह अम्मी बात संभाल भी लेंगी तो वह आइंदा पूरी तरह सतर्क रहेगी.

सलमा ने अपनी अम्मी रमजानी को पूरी बात बता दी थी. सुन कर वह बहुत बिगड़ीं, ‘‘सुना, इस गोपनीय पत्र में क्या लिखा है?’’

सलमा ने लिफाफा खोल कर पढ़ सुनाया.

रमजानी बहुत बिगड़ीं, ‘‘अब तेरी आगे की पढ़ाई गई भाड़ में. तू ने खता की है, इस की तुझे सजा मिलेगी. जा, कोने में बैठ जा.’’

शाम हुई. अब्बा आए, कपड़े बदल कर उन्होंने चाय मांगी, फिर चौंक उठे, ‘‘यह इस वक्त सल्लो, यहां कोने में कैसे बैठी है?’’

‘‘यह मेरा हुक्म है. उस के लिए सजा तजवीज की है मैं ने.’’

‘‘बेटी के लिए सजा?’’

‘‘हां, हां, यह देखो…खर्रा,’’ सलमा की अम्मी गोपनीय पत्र देतेदेते रुक गईं, ‘‘लेकिन नहीं. इसे गोपनीय रहने दो. मैं ही बता देती हूं.’’

और सलमा का कलेजा गले में आ अटका था.

‘‘…वह बात यह है कि अपनी सल्लो की मुख्याध्यापिका नीम पागल औरत है,’’ अम्मी ने कहा था.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मसजिद के मौलवी से भी अधिक दकियानूसी और वहमी औरत.’’

‘‘बात क्या हो गई?’’

‘‘…वह बात यह है कि मैं ने सल्लो से कहा था, अच्छी फिल्म लगी है, जा कर दिन को देख आना. अकेली नहीं, हबीब को साथ ले जाना. उसे बड़ी मुश्किल से भेजा. और बेचारी गई तो उस की कक्षाध्यापिका ने, जो खुद वहां फिल्म देख रही थी, इस की शिकायत मुख्याध्यापिका से कर दी कि एक लड़के के साथ सलमा स्कूल के वक्त फिल्म देख रही थी.’’

‘‘लड़का? कौन लड़का?’’ अब्बा का पारा चढ़ने लगा.

रमजानी बेहद होशियार थीं. झट बात संभाल ली, ‘‘लड़का कैसा, वह मेरी खाला है न, उस का बेटा हबीब. गाजीपुर वाली खाला को आप नहीं जानते. मुझ पर बड़ी मेहरबान हैं,’’ अम्मी सरासर झूठ बोल रही थीं.

‘‘अच्छा, अच्छा, अब मर्द किस- किस को जानें,’’ अब्बा ने हथियार डाल दिए.

बात बनती दिखाई दी तो अम्मी, अब्बा पर हावी हो गईं, ‘‘अच्छा क्या खाक? उस फूहड़ ने हमारी सल्लो को गलत समझ कर यह ‘गोपनीय पत्र’ भेज दिया. बेचारी कितनी परेशान है. आप इसे पढ़ेंगे?’’

‘शाबाश, वाह मेरी अम्मी,’ सलमा सुखद आश्चर्य से झूम उठी. अम्मी बिगड़ी बात यों बना लेंगी, उसे सपने में भी उम्मीद न थी, ‘बहुत प्यारी हैं, अम्मी.’

सलमा ने मन ही मन अम्मी की प्रशंसा की, कमाल का भेजा पाया है अम्मी ने. खैर, अब आगे जो भी होगा, ठीक ही होगा. अम्मी ढाल बन कर जो खड़ी रहती हैं अपनी बेटी के लिए.

शायद अब्बा ने खत पढ़ना ही नहीं चाहा. बोले, ‘‘रमजानी, वह औरत सनकी नहीं है. दरअसल, मैं ने ही उन मास्टरनियों को कह रखा है कि सलमा का खयाल रखें. वैसे कल मैं उन से मिल लूंगा.’’

‘‘तौबा है. आप भी वहमी हैं, कैसे दकियानूसी. बेचारी सल्लो…’’

‘‘छोड़ो भी, उसे बुलाओ, चाय तो बने.’’

‘‘वह तो बहुत दुखी है. आई है जब से कोने में बैठी रो रही है. आप खुद ही जा कर मनाओ. कह रही थी, मुख्याध्यापिका ने शक ही क्यों किया?’’

‘‘मैं मनाता हूं.’’

और शेर मुहम्मद ने अपनी सयानी बेटी को उस दिन जिस स्नेह और दुलार से मनाया, उसे देख कर सलमा अम्मी की व्यवहारकुशलता की तारीफ करती हुई मन ही मन सोच रही थी, ‘आइंदा फिर कभी ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए.’

और सलमा यों अपने चारों ओर फैली दकियानूसी रिवायतों की धुंध से जूझती आगे बढ़ी तो अब वह कालिज की एक छात्रा है. उस के इर्दगिर्द उठी आंधियां, मांबेटी के व्यवहार के तालमेल के आगे कभी की शांत हो गईं.

दर्द आत्महत्या का: क्या हुआ बनवारी के साथ

जीवन में हमेशा वह कहां होता है जो सोचासमझा हो, वह भी हो जाता है जो अनजानाअनचाहा हो और वह भी जिसे शायद कभी सपने में ही सोचा हो. कभी सोचतेसोचते हम कितना कुछ सोच लेते हैं जो बड़ा सुखद, बड़ा मीठा होता है और कभीकभी कड़वा और डरावना भी कल्पना में आ कर चला जाता है.

उस दिन सहसा एक दूर के रिश्तेदार के दाहसंस्कार पर जाना पड़ा. पता चला जाने वाले ने आत्महत्या कर ली थी. क्या हुआ, क्यों हुआ, इस पर तो परिवार वाले भी असमंजस और सदमे में थे लेकिन जाने वाला चर्चा का विषय जरूर बना था. हर आने वाला चेहरा एक सवालिया निशान बना दूसरे का चेहरा देख रहा था.

‘‘क्या हुआ, भाई साहब, कुछ पता चला?’’

‘‘क्या पतिपत्नी में झगड़ा हुआ था? सुना है आजकल हर रोज झगड़ा होता था. बनवारी भाई साहब तो कईकई दिन घर पर खाना भी नहीं खाते थे. कहते हैं, कल रात भी सुबह से भूखे थे. खाली पेट जहर ने असर भी जल्दी किया. बस, खाते ही गरदन ढुलक गई…’’

‘‘कौन जाने खुद खा लिया या किसी ने खिला दिया. अब मरने वाला तो उठ कर बताने से रहा कि उसे किसी ने मारा या वह खुद मरा.’’

मैं लोगों की भीड़ में बैठा सब सुन रहा था. तरहतरह के सवाल और तरहतरह के जवाब. संवेदना कहां थी वहां किसी के शब्दों में. मरने वाले ने खुद ही अपनी मौत को एक तमाशा बना दिया था. पुलिस केस बन गया था जिस वजह से लाश का पोस्टमार्टम होना भी जरूरी था.

जो चला गया सो गया लेकिन अपनी मौत पर रोने वालों के मन में दुख कम गुस्सा आक्रोश अधिक छोड़ गया. पत्नी पर कोई भी ससुराल का सदस्य ताना कस सकता था, ‘अरी, तू तो अपने पति की सगी नहीं हुई जिस का दिया खाती थी, तो भला हमारी क्या होगी.’

बच्चों पर सदा एक आत्मग्लानि का बोझ था कि उन का पिता उन से दुखी हो कर मौत के मुंह में चला गया. कोई कुछ भी सुना दे, भला बच्चों के पास क्या उत्तर होगा कि क्यों उन का पिता उन्हें सवालों के इस चक्रव्यूह में छोड़ गया.

वापस तो चला आया मैं, लेकिन सामान्य नहीं हो पा रहा हूं. बारबार वही सब नजर आता है. सोचता हूं, क्यों मरने वाला यों मर गया. यदि जीवन में कोई परेशानी थी तो क्या मर कर हल हो गई होगी?

जीवित रहते तो कुछ भी करते लेकिन मरने के बाद क्या पा लिया होगा, सिवा इस के कि न खुशी से जी पाए न मर कर ही चैन पाया. परिवार पर दाग लगा सो अलग.

होता है न ऐसा कभीकभी, किसी का साहस या दुस्साहस हमें भी कमजोर या बहादुर बना देता है. कोई कहता है  ‘‘अरे भई, सबकुछ था पास, बेटीबेटा, कमाऊ पत्नी, अच्छा घर, गाड़ी और अच्छी नौकरी. जीवन का हर वह सुख जो इनसान को चाहिए. सब था, फिर क्या कम था जिस वजह से जहर ही खा लिया.’’

यह सुन थोड़ा असमंजस में पड़ गया मैं. क्या उत्तर दूं? शायद मैं इतनी हिम्मत कभी नहीं जुटा सकता कि आत्महत्या ही कर लूं.

‘‘बनवारी लाल को जमीन खरीदने का बहुत शौक था. मांबाप बचपन में ही लंबाचौड़ा परिवार छोड़ कर मर गए थे. 6-7 बहनें थीं, भाई था, जो कमाया उन पर लगाया. उन से फारिग हुआ तो अपना परिवार शुरू हो गया. जरा सा पैसा एक जमीन के टुकड़े पर लगाया जिस से कुछ लाभ हुआ और लगाया और लाभ हुआ, और होता गया. आज की तारीख में 40-50 लाख की जमीन है बनवारी के परिवार के पास. सुना है और जमीन खरीदना चाहता था जिस के लिए पत्नी से रुपए मांगता था. उस ने नहीं दिए तो जोश में आ कर जहर खा लिया.’’

बनवारी लाल तो चले गए लेकिन एक प्रश्न छोड़ गए, ‘‘क्या सचमुच आत्महत्या करना बड़ी बहादुरी का काम है?’’

मैं एक भावुक इनसान हूं. मन में जो धंस गया बस, धंस गया. जीवन और मृत्यु दोनों में क्या वरण करना बहादुरी का काम है और क्या कायरता का. उस दिन के बाद मैं अकसर अब अपनी ही आत्महत्या का सपना देखने लगा हूं. सपने में डरने लगा हूं मैं यह देख कर कि मेरी आत्महत्या मेरे परिवार के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन गई. वे तो रोतेपीटते मेरा दाहसंस्कार भी कर चुके हैं. मेरी चिता की आग बुझ गई है लेकिन उस आग का क्या जो आजीवन मेरे परिवार के जीवन में जलती रहेगी. बेटी की शादी की बात चलेगी तो मेरा प्रश्न कैसे नहीं उठेगा. बेटा पत्नी लाना चाहेगा तो लोग मेरी पत्नी के व्यवहार पर भी उंगली उठाएंगे ही.

अगर मैं भी बनवारी लाल की तरह लाखों की जमीन छोड़ कर मरता हूं तो उस का मुझे क्या लाभ मिलेगा? जमीनजायदाद पर एक दिन परिवार वाले ही ऐश करेंगे. मुझे क्या मिला? अगर मैं बनवारी लाल होता तो क्या मैं आत्महत्या करने की हिम्मत करता? क्या मुझ में इतनी हिम्मत होती? मैं यह सोचता भी हूं और डरता भी हूं. असहनीय लगता है मुझे अपने परिवार पर ऐसा कहर ढा देना. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है.

इसी सोच में मैं कुछ दिन डूबता- उतराता रहा.  मेरे सोचते रहने को पत्नी अकसर कुरेदने लगती. उस दिन  युवा होता बेटा भी पास में बैठा था, सहसा मैं ने पूछ लिया,  ‘‘क्या बनवारी लाल ने आत्महत्या कर के हिम्मत का काम किया?’’

‘‘ पापा, कैसी बात पूछ रहे हैं, मरने के लिए भला हिम्मत की क्या जरूरत? यह तो पागल, डरपोक और मानसिक रोगों से पीडि़त इनसान का काम है. आत्महत्या करना तो कायरता है. जीवन से पलायन को आप हिम्मत का काम कैसे कह सकते हैं? बनवारी लाल अंकल तो अवसाद के मरीज थे. बातबात पर मरने की धमकी देना उन का रोज का काम था. उन का तो इलाज भी चल रहा था.’’

‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘उन का बेटा ही बता रहा था. उस के चाचा ने भी तो 4 साल पहले आत्महत्या ही की थी.’’

‘‘क्या…लेकिन उन का तो ब्लड प्रैशर…’’

‘‘अरे, नहीं पापा,’’ बीच में बात काटते हुए बेटा बोला, ‘‘यह सब तो लोगों को सुनाने के लिए होता है. बनवारी अंकल के लिए भी तो वे अपने मुंह से यही कहते हैं.’’

वह एक पल को रुका फिर कहने लगा, ‘‘इन की तो पारिवारिक हिस्ट्री है. इन के एक और चाचा हैं, वह भी जराजरा सी बात पर आत्महत्या की ही धमकी देते हैं. बनवारी अंकल ने भी उस दिन धमकी ही दी थी. अब परिवार वालों ने भी रोज का तमाशा समझ कह दिया, ‘‘ठीक है, जाइए, आप की जो इच्छा है कर लीजिए…और बस…’’

स्तब्ध सा मैं पत्नी और बेटे का चेहरा देखता रहा.

बेटा हाथ का काम छोड़ मेरे पास आ बैठा. धीरे से मेरा हाथ पकड़ लिया.

‘‘आप ऐसा बेतुका प्रश्न क्यों कर रहे हैं, पापा? आप ने ही तो समझाया है मुझे कि जीवन से भागना कायर लोगों का काम है.’’

मुसकरा दिया मैं. बेटे का माथा सहला दिया.

‘‘जी कर कुछ तो करेंगे. भला मर कर क्या कर पाएंगे…कुछ भी तो नहीं.’’

कभीकभी सब गड्डमड्ड हो जाता है, जब परिवार में या करीबी ही कोई ऐसा कायरता भरा कदम उठा ले. कहते हैं, आत्महत्या बड़ी हिम्मत का काम है. अरे, तनाव तो सब के जीवन में है. कुछ आफिस का तनाव, कुछ बेटी के लिए उचित वर न मिल पाने का तनाव, कुछ पत्नी की अस्वस्थता का तो कुछ बेटे के   भविष्य को ले कर तनाव. अगर कोई आत्महत्या ही करना चाहे तो हरेक के  पास कितनी वजह हैं. जमीन न खरीद पाने का दुख भी क्या कोई वजह है. आखिर क्या जरूरत थी इतनी जमीन खरीद कर यहांवहां घर की संपत्ति बिखेर देने की?

अवसाद में मर गया वह, शायद मजाकमजाक में परिवार को डराना चाहता था, नहीं सोचा होगा कि मर ही जाएगा. डराना चाहता होगा बस, उसी प्रयास में मर गया क्योंकि किसीकिसी खानदान में यह प्रयास वंश दर वंश चलता है जो कभी  सफल हो जाता है और कभी असफल भी.

बनवारी जैसे भी मरा, बस, मर गया और यही सत्य है कि अपना इस से बड़ा नुकसान वह नहीं कर सकता था. एक इज्जत भरी मौत तो हमारा हक है न. कोई हमारी मौत पर भी हमें धिक्कारे इस से बड़ा अपमान और क्या होगा?

जोश में यों ही मर जाना प्रकृति का घोर अपमान है. बनवारी लाल ने अच्छा नहीं किया. तरस आता है मुझे उस पर. बेचारा बनवारी लाल…

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