अनमोल उपहार- भाग 2: सरस्वती के साथ क्या हुआ

विश्वनाथ की बूआ कमला अपने परिवार के साथ शादी के बाद से ही मायके में रहती थीं. उन के पति ठेकेदारी करते थे. बूआ की 3 बेटियां थीं. इसलिए भी अब विश्वनाथ ही सब की आशाओं का केंद्र था. तेज दिमाग विश्वनाथ ने जिस दिन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा पास की सारे घर में जैसे दीवाली का माहौल हो गया.

‘मैं जानती थी, मेरा विशू एक दिन सारे गांव का नाम रोशन करेगा. मां, तेरे पोते ने तो खानदान की इज्जत रख ली.’  विश्वनाथ की बूआ खुशी से बावली सी हो गई थीं. प्रसन्नता की उत्ताल तरंगों ने सरस्वती के मन को भी भावविभोर कर दिया था.

विश्वनाथ पहली पोस्टिंग पर जाने से पहले मां के पांव छूने आया था.

‘सुखी रहो, खुश रहो बेटा,’ सरस्वती ने कांपते स्वर में कहा था. बेटे के सिर पर हाथ फेरने की नाकाम कोशिश करते हुए उस ने मुट्ठी भींच ली थी. तभी बूआ की पुकार ‘जल्दी करो विशू, बस निकल जाएगी,’ सुन कर विश्वनाथ कमरे से बाहर निकल गया था.

समय अपनी गति से बीतता रहा. विशू की नौकरी लगे 2 वर्ष बीत चुके थे. उस की दादी का देहांत हो चुका था. अपनी तीनों फुफेरी बहनों की शादी उस ने खूब धूमधाम से अच्छे घरों में करवा दी थी. अब उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे.

एक शाम सरस्वती की ननद कमला एक लड़की की फोटो लिए उस के पास आई. उस ने हुलस कर बताया कि लड़की बहुत बड़े अफसर की इकलौती बेटी है. सुंदर, सुशील और बी.ए. पास है.

‘क्या यह विशू को पसंद है?’ सरस्वती ने पूछा.

‘विशू कहता है, बूआ तुम जिस लड़की को पसंद करोगी मैं उसी से शादी करूंगा,’ कमला ने गर्व के साथ सुनाया, तो सरस्वती के भीतर जैसे कुछ दरक सा गया.

धूमधाम से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सरस्वती का भी जी चाहता था कि वह बहू के लिए गहनेकपड़े का चुनाव करने ननद के साथ बाजार जाए. पड़ोस की औरतों के साथ बैठ कर विवाह के मंगल गीत गाए. पर मन की साध अधूरी ही रह गई.

धूमधाम से शादी हुई और गायत्री ने दुलहन के रूप में इस घर में प्रवेश किया.

गायत्री एक सुलझे विचारों वाली लड़की थी. 2-3 दिन में ही उसे महसूस हो गया कि उस की विधवा सास अपने ही घर में उपेक्षित जीवन जी रही हैं. घर में बूआ का राज चलता है. और उस की सास एक मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखती रहती हैं.

उसे लगा कि उस का पति भी अपनी मां के साथ सहज व्यवहार नहीं करता. मांबेटे के बीच एक दूरी है, जो नहीं होनी चाहिए. एक शाम वह चाय ले कर सास के कमरे में गई तो देखा, वह बिस्तर पर बैठी न जाने किन खयालों में गुम थीं.

‘अम्मांजी, चाय पी लीजिए,’ गायत्री ने कहा तो सरस्वती चौंक पड़ी.

‘आओ, बहू, यहां बैठो मेरे पास,’ बहू को स्नेह से अपने पास बिठा कर सरस्वती ने पलंग के नीचे रखा संदूक खोला. लाल मखमल के डब्बे से एक जड़ाऊ हार निकाल कर बहू के हाथ में देते हुए बोली, ‘यह हार मेरे पिता ने मुझे दिया था. मुंह दिखाई के दिन नहीं दे पाई. आज रख लो बेटी.’

गायत्री ने सास के हाथ से हार ले कर गले में पहनना चाहा. तभी बूआ कमरे में चली आईं. बहू के हाथ से हार ले कर उसे वापस डब्बे में रखते हुए बोलीं, ‘तुम्हारी मत मारी गई है क्या भाभी? जिस हार को साल भर भी तुम पहन नहीं पाईं, उसे बहू को दे रही हो? इसे क्या गहनों की कमी है?’

सरस्वती जड़वत बैठी रह गई, पर गायत्री से रहा नहीं गया. उस ने टोकते हुए कहा, ‘बूआजी, अम्मां ने कितने प्यार से मुझे यह हार दिया है. मैं इसे जरूर पहनूंगी.’

सामने रखे डब्बे से हार निकाल कर गायत्री ने पहन लिया और सास के पांव छूते हुए बोली, ‘मैं कैसी लगती हूं, अम्मां?’

‘बहुत सुंदर बहू, जुगजुग जीयो, सदा खुश रहो,’ सरस्वती का कंठ भावातिरेक से भर आया था. पहली बार वह ननद के सामने सिर उठा पाई थी.

गायत्री ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी सास को पूरा आदर और प्रेम देगी. इसीलिए वह साए की तरह उन के साथ लगी रहती थी. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया, विश्वनाथ की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. जिस दिन दोनों को रामनगर लौटना था उस सुबह गायत्री ने पति से कहा, ‘अम्मां भी हमारे साथ चलेंगी.’

‘क्या तुम ने अम्मां से पूछा है?’ विश्वनाथ ने पूछा तो गायत्री दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ‘पूछना क्या है. क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम अम्मां की सेवा करें?’

‘अभी तुम्हारे खेलनेखाने के दिन हैं, बहू. हमारी चिंता छोड़ो. हम यहीं ठीक हैं. बाद में कभी अम्मां को ले जाना,’ बूआ ने टोका था.

‘बूआजी, मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है,’ गायत्री बोली, ‘अम्मां की सेवा करूंगी, तो मन को अच्छा लगेगा.’

आखिर गायत्री के आगे बूआ की एक न चली और सरस्वती बेटेबहू के साथ रामनगर आ गई थी.

कुछ दिन बेहद ऊहापोह में बीते. जिस बेटे को बचपन से अपनी आंखों से दूर पाया था, उसे हर पल नजरों के सामने पा कर सरस्वती की ममता उद्वेलित हो उठती, पर मांबेटे के बीच बात नाममात्र को होती.

गायत्री मांबेटे के बीच फैली लंबी दूरी को कम करने का भरपूर प्रयास कर रही थी. एक सुबह नाश्ते की मेज पर अपनी मनपसंद भरवां कचौडि़यां देख कर विश्वनाथ खुश हो गया. एक टुकड़ा खा कर बोला, ‘सच, तुम्हारे हाथों में तो जादू है, गायत्री.’

‘यह जादू मां के हाथों का है. उन्होंने बड़े प्यार से आप के लिए बनाई है. जानते हैं, मैं तो मां के गुणों की कायल हो गई हूं. जितना शांत स्वभाव, उतने ही अच्छे विचार. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मेरी सगी मां लौट आई हों.’

धीरेधीरे विश्वनाथ का मौन टूटने लगा  अब वह यदाकदा मां और पत्नी के साथ बातचीत में भी शामिल होने लगा था. सरस्वती को लगने लगा कि जैसे उस की दुनिया वापस उस की मुट्ठी में लौटने लगी है.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. वैसे भी जब खुशियों के मधुर एहसास से मन भरा हुआ होता है तो समय हथेली पर रखी कपूर की टिकिया की तरह तेजी से उड़ जाता है. जिस दिन गायत्री ने लजाते हुए एक नए मेहमान के आने की सूचना दी, उस दिन सरस्वती की खुशी की इंतहा नहीं थी.

‘बेटी, तू ने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’

‘अभी कहां, अम्मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन वास्तव में आप की मुराद पूरी होगी.’

गायत्री ने स्नेह से सास का हाथ दबाते हुए कहा तो सरस्वती की आंखें छलक आईं.

अनमोल उपहार- भाग 1: सरस्वती के साथ क्या हुआ

दीवार का सहारा ले कर खड़ी दादीमां थरथर कांप रही थीं. उन का चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था. तभी वह बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘बस, यही दिन देखना बाकी रह गया था उफ, अब मैं क्या करूं? कैसे विश्वनाथ की नजरों का सामना करूं?’’

सहसा नेहा उठ कर उन के पास चली आई और बोली, ‘‘दादीमां, जो होना था हो गया. आप हिम्मत हार दोगी तो मेरा और विपुल का क्या होगा?’’

दादीमां ने अपने बेटे विश्वनाथ की ओर देखा. वह कुरसी पर चुपचाप बैठा एकटक सामने जमीन पर पड़ी अपनी पत्नी गायत्री के मृत शरीर को देख रहा था.

आज सुबह ही तो इस घर में जैसे भूचाल आ गया था. रात को अच्छीभली सोई गायत्री सुबह बिस्तर पर मृत पाई गई थी. डाक्टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा था जिस में उस की मौत हो गई. यह सुनने के बाद तो पूरे परिवार पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी.

दादीमां तो जैसे संज्ञाशून्य सी हो गईं. इस उम्र में भी वह स्वस्थ हैं और उन की बहू महज 40 साल की उम्र में इस दुनिया से नाता तोड़ गई? पीड़ा से उन का दिल टुकड़ेटुकड़े हो रहा था.

नेहा और विपुल को सीने से सटाए दादीमां सोच रही थीं कि काश, विश्वनाथ भी उन की गोद में सिर रख कर अपनी पीड़ा का भार कुछ कम कर लेता. आखिर, वह उस की मां हैं.

सुबह के 11 बज रहे थे. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था. वह साफ देख रही थीं कि गायत्री को देख कर हर आने वाले की नजर उन्हीं के चेहरे पर अटक कर रह जाती है. और उन्हें लगता है जैसे सैकड़ों तीर एकसाथ उन की छाती में उतर गए हों.

‘‘बेचारी अम्मां, जीवन भर तो दुख ही भोगती आई हैं. अब बेटी जैसी बहू भी सामने से उठ गई,’’ पड़ोस की विमला चाची ने कहा.

विपुल की मामी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘न जाने अम्मां कितनी उम्र ले कर आई हैं? इस उम्र में ऐसा स्वास्थ्य? एक हमारी दीदी थीं, ऐसे अचानक चली जाएंगी कभी सपने में भी हम ने नहीं सोचा था.’’

‘‘इतने दुख झेल कर भी अब तक अम्मां जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है,’’ नेहा की छोटी मौसी निर्मला ने कहा. वह पास के ही महल्ले में रहती थीं. बहन की मौत की खबर सुन कर भागी चली आई थीं.

दादीमां आंखें बंद किए सब खामोशी से सुनती रहीं पर पास बैठी नेहा यह सबकुछ सुन कर खिन्न हो उठी और अपनी मौसी को टोकते हुए बोली, ‘‘आप लोग यह क्या कह रही हैं? क्या हक है आप लोगों को दादीमां को बेचारी और अभागी कहने का? उन्हें इस समय जितनी पीड़ा है, आप में से किसी को नहीं होगी.’’

‘‘नेहा, अभी ऐसी बातें करने का समय नहीं है. चुप रहो…’’ तभी विश्वनाथ का भारी स्वर कमरे में गूंज उठा.

गायत्री के क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार चले गए तो सारा घर खाली हो गया. गायत्री थी तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे घर के सारे काम सही समय पर हो जाते हैं. उस के असमय चले जाने के बाद एक खालीपन का एहसास हर कोई मन में महसूस कर रहा था.

एक दिन सुबह नेहा चाय ले कर दादीमां के कमरे में आई तो देखा वे सो रही हैं.

‘‘दादीमां, उठिए, आज आप इतनी देर तक सोती रहीं?’’ नेहा ने उन के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘बस, उठ ही रही थी बिटिया,’’ और वह उठने का उपक्रम करने लगीं.

‘‘पर आप को तो तेज बुखार है. आप लेटे रहिए. मैं विपुल से दवा मंगवाती हूं,’’ कहती हुई नेहा कमरे से बाहर चली गई.

दादीमां यानी सरस्वती देवी की आंखें रहरह कर भर उठती थीं. बहू की मौत का सदमा उन्हें भीतर तक तोड़ गया था. गायत्री की वजह से ही तो उन्हें अपना बेटा, अपना परिवार वापस मिला था. जीवन भर अपनों से उपेक्षा की पीड़ा झेलने वाली सरस्वती देवी को आदर और प्रेम का स्नेहिल स्पर्श देने वाली उन की बहू गायत्री ही तो थी.

बिस्तर पर लेटी दादीमां अतीत की धुंध भरी गलियों में अनायास भागती चली गईं.

‘अम्मां, मनहूस किसे कहते हैं?’ 4 साल के विश्वनाथ ने पूछा तो सरस्वती चौंक पड़ी थी.

‘बूआ कहती हैं, तुम मनहूस हो, मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो मैं भी मर जाऊंगा,’ बेटे के मुंह से यह सब सुन कर सरस्वती जैसे संज्ञाशून्य सी हो गई और बेटे को सीने से लगा कर बोली, ‘बूआ झूठ बोलती हैं, विशू. तुम ही तो मेरा सबकुछ हो.’

तभी सरस्वती की ननद कमला तेजी से कमरे में आई और उस की गोद से विश्वनाथ को छीन कर बोली, ‘मैं ने कोई झूठ नहीं बोला. तुम वास्तव में मनहूस हो. शादी के साल भर बाद ही मेरा जवान भाई चल बसा. अब यह इस खानदान का अकेला वारिस है. मैं इस पर तुम्हारी मनहूस छाया नहीं पड़ने दूंगी.’

‘पर दीदी, मैं जो नीरस और बेरंग जीवन जी रही हूं, उस की पीड़ा खुद मैं ही समझ सकती हूं,’ सरस्वती फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘क्यों उस मनहूस से बहस कर रही है, बेटी?’ आंगन से विशू की दादी बोलीं, ‘विशू को ले कर बाहर आ जा. उस का दूध ठंडा हो रहा है.’

बूआ गोद में विशू को उठाए कमरे से बाहर चली गईं.

सरस्वती का मन पीड़ा से फटा जा रहा था कि जिस वेदना से मैं दोचार हुई हूं उसे ये लोग क्या समझेंगे? पिता की मौत के 5 महीने बाद विश्वनाथ पैदा हुआ था. बेटे को सीने से लगाते ही वह अपने पिछले सारे दुख क्षण भर के लिए भूल गई थी.

सरस्वती की सास उस वक्त भी ताना देने से नहीं चूकी थीं कि चलो अच्छा हुआ, जो बेटा हुआ, मैं तो डर रही थी कि कहीं यह मनहूस बेटी को जन्म दे कर खानदान का नामोनिशान न मिटा डाले.

सरस्वती के लिए वह क्षण जानलेवा था जब उस की छाती से दूध नहीं उतरा. बच्चा गाय के दूध पर पलने लगा. उसे यह सोच कर अपना वजूद बेकार लगता कि मैं अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिला सकती.

कभीकभी सरस्वती सोच के अथाह सागर में डूब जाती. हां, मैं सच में मनहूस हूं. तभी तो जन्म देते ही मां मर गई. थोड़ी बड़ी हुई तो बड़ा भाई एक दुर्घटना में मारा गया. शादी हुई तो साल भर बाद पति की मृत्यु हो गई. बेटा हुआ तो वह भी अपना नहीं रहा. ऐसे में वह विह्वल हो कर रो पड़ती.

समय गुजरता रहा. बूआ और दादी लाड़लड़ाती हुई विश्वनाथ को खिलातीं- पिलातीं, जी भर कर बातें करतीं और वह मां हो कर दरवाजे की ओट से चुपचाप, अपलक बेटे का मुखड़ा निहारती रहती. छोटेछोटे सपनों के टूटने की चुभन मन को पीड़ा से तारतार कर देती. एक विवशता का एहसास सरस्वती के वजूद को हिला कर रख देता.

भाभी- भाग 6: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

‘बहुओं की क्यों नहीं आएगी, आखिर बड़े चाव से उन्हें घर लाई हूं, उन के सभी अरमान पूरे कर के मैं ने अपने ही मन की साध पूरी की है, पहनओढ़ कर कितनी सुंदर लगती हैं, जब कभी शृंगार कर लेती हैं तो मेरा मन उन की नजर उतारने को करता है, उन्हें देख कर तो मेरी चाल में एक घमंड उभर आता है. पता है गौरव कभीकभी तो मैं रिश्तेदारों की बहुओं से उन की तुलना करने बैठ जाती हूं कि पासपड़ोस में, रिश्तेदारों में है कोई जो मेरी बहुओं से अधिक सुंदर हो.’’

तभी बेला बोल उठी, ‘‘और भाभी मैं?’’

‘‘अरी, तू किसी और की पसंद की है क्या? तुझे भी तो मैं ही ठोकबजा कर लाई थी, तू किसी से कम कैसे हो सकती है? बहुएं छांटने में मैं ने कोई समझौता नहीं किया, मैं दहेज के लोभ में कभी नहीं आई, बस गुण, शील, सौंदर्य के पीछे ही भागी.’’

तभी फोन की घंटी बजी, तो गौरव ने रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, चाचाजी, प्रणाम. सौमित्र बोल रहा हूं… वहां सब ठीक है?’’

‘‘हां बेटा सब ठीकठाक है और तुम लोग?’’

‘‘यहां सब कुशलमंगल हैं, जरा मां से बात करा दो.’’

‘‘हांहां,’’ कह कर मैं ने भाभी को रिसीवर थमा दिया, ‘‘भाभी, सौमित्र का फोन है.’’

‘‘हैलो मां, प्रणाम.’’

‘‘सुखी रह, इतने दिनों बाद मां की याद आई, नालायक. इतने दिनों तक फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘फोन किसलिए करता, आप कहीं गैर जगह थोड़े ही न गई हैं, अपने तीसरे बेटे के पास गई हैं, बड़े के पास आप हो तो क्या हालचाल पूछता? वैसे मैं उन से बातचीत करता रहता हूं. हां मां, फोन इसलिए किया है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है. परसों ही वे कह रहे थे कि सौमित्र तुम्हारी माताजी को जरूर आना है. आप आ जाइए. कहें तो मैं लेने आ जाऊं? पूछ लीजिए चाचाजी से.’’

भाभी बोलीं, ‘‘अरे गौरव, सौमित्र बुला रहा है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है, आ जाएं, मुझे जाना चाहिए. डा. योगेश हमारे फैमिली डाक्टर हैं, उन से बिलकुल घर जैसे संबंध हैं. सौमित्र पूछ रहा है कि मैं लेने आ जाऊं?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं भाभी, वह क्या करेगा आ कर, कल शनिवार है, मेरी छुट्टी है. मैं छोड़ आऊंगा आप को.’’

मैं भाभी को शनिवार की प्रात: आगरा छोड़ कर शाम को ही वापस दिल्ली लौट आया.

उस के बाद जो वहां हुआ उस की खबर मुझे सौमित्र ने एक दिन फोन पर दी.

भाभी… के आदेशानुसार दोनों बहुएं डा. योगेश की लड़की की शादी के लिए सजधज कर तैयार हो गईं.

भाभी ने आदेश दिया, ‘‘अरी, बड़की, छुटकी जल्दी करो, बरात आने का समय हो चला है.’’

दोनों बहुओं ने साड़ी और गहने पहने, शृंगार किया और फिर सिर पर साड़ी का पल्लू रखा, आ कर भाभी के सामने खड़ी हो गईं और बोलीं, ‘‘चलिए मम्मीजी, हम तैयार हैं.’’

बैंकटहाल की सजावट से आंखें चौंधिया रही थीं. ऐसा लगता था मानो बच्चों से ले कर बड़ेबूढ़ों तक सभी नरनारियों की कोई सौंदर्य प्रतियोगिता हो, नवयुवतियां, बहुएं खासतौर से जम रही थीं. सभी की नजर वहां उपस्थित बहुओं पर थी, पर पता ही नहीं लग रहा था कि कौन बहू है, कौन बेटी. हाथ में चूड़ा पहने कोईकोई नववधू तो पहचानी जा सकती थी.

अधिकतर बहुएं, लड़कियां घाघरे पहने थीं, जो फर्श पर घिसटते हुए पोंछा सा लगाते प्रतीत हो रहे थे. कुछ स्त्रियां साड़ी पहने हुए थीं, सभी नंगे सिर, मात्र छोटा सा ब्लाउज पहने थीं. चुन्नी शायद ही किसी के सिर पर हो. यदि किसी के पास चुन्नी थी भी तो वह एक कंधे पर लटकी हुई, मात्र कंधे की शोभा बढ़ा रही थी.

भाभी की दोनों बहुएं, जरी की भारी कीमती साड़ी पहने हुए थीं, सिर साड़ी के पल्लू से ढके थे. भाभी को अपनी बहुएं सब से अलगथलग सी लग रही थीं. अजीब सी दिखाई दे रही थीं, भाभी ने सोचा कि इतने प्यारे लंबे, घने, काले बालों के जूड़े बनाए हुए हैं बहुओं ने… क्या फायदा? सिर ढके हुए हैं.

भाभी को बहुओं का यह रंगढंग कुछ जंचा नहीं. इतनी महंगी साडि़यां पहने हुए हैं बहुएं, जो किसी के पास ऐसी नहीं, लेकिन जो चीप तो नहीं कहनी चाहिए, पर अपेक्षाकृत सस्ती हैं, उन में जो बात नजर आती है, वह बात मेरी बहुओं के परिधान में नहीं दिखाई दे रही थी.

भाभी सारे समारोह का गहराई से निरीक्षण कर रही थीं, सब के हावभाव, एकदूसरे से हंसहंस कर बातें करना, मटकमटक कर चलना. भाभी को लगा कि मेरी बहुएं तो इन के सामने सेठानी सी लग रही हैं. उन्हें बरदाश्त नहीं हुआ, वे बहुओं के पास गईं. वे अकेली बैठी हुई थीं.

भाभी ने धीरे से कहा, ‘‘गवारों की तरह सिर क्यों ढके बैठी हो?’’

बहुओं ने झट से सिर से साड़ी के पल्लू उतार लिए. भाभी को वे पहले से अच्छी लगीं.

घर लौटतेलौटते रात का 1 बजने जा रहा था. रास्ते में भाभी ने कहा, बेटों से पूछा ‘‘तुम लोग कहां थे, दिखाई नहीं पड़े?’’

‘‘वहीं तो थे यारदोस्तों के साथ,’’ सौमित्र ने कहा.

‘‘और बीवियां कहां हैं, यह पता ही नहीं रहा तुम दोनों को? अपनीअपनी पत्नी के साथ क्यों नहीं थे? मैं देख रही थी कि सब अपनीअपनी पत्नी के साथ घूमघूम कर खापी रहे थे. कितना अच्छा लग रहा था. उन के प्यार को देख कर, लगता था कितने खुश हैं ये लोग और तुम्हारा कुछ पता नहीं, कहां छिप गए थे? जरा भी मैनर्स नहीं तुम लोगों में.’’

अगले दिन भाभी ने सुबह ही बहुओं को हुक्म दिया, ‘‘अरी बड़की, छुटकी सुनो, आज मार्केट चलना है, थोड़ी शौपिंग करनी है. खाने से जल्दी निबट लेना.’’

दोपहर के बाद भाभी बहुओं को ले कर एक प्रसिद्ध मौल में पहुंची. सब से पहले साडि़यों के शोरूम में प्रविष्ट हुईं. बोलीं, ‘‘देखो बड़की, छुटकी अपनीअपनी पसंद की कुछ डिजाइनर साडि़यां ले लो.’’

‘‘पर मम्मीजी, हमारे पास तो एक से बढ़ कर कीमती साडि़यों से अलमारियां भरी पड़ी हैं, क्या करना है और साडि़यां ले कर?’’ बड़की ने कहा और पीछे से छुटकी को चुटकी काटी.

छुटकी बोली, ‘‘दीदी ले लेंगी, मुझे नहीं चाहिए.’’

बड़की बोली, ‘‘अरी, मैं बड़ी हूं, तेरे सामने पहनती क्या मैं अच्छी लगूंगी? नहीं, तू ही ले ले.’’

भाभी- भाग 5: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

अगली प्रात: मैं भाभी को ले कर दिल्ली आ गया, बेटेबहुओं ने बहुत विनती की कि मां मत जाओ, पर मैं उन्हें यह कह कर ले आया कि मेरा अपना घर भी उन का अपना ही घर है.

भाभी को दिल्ली आए हुए 15 दिन बीत गए. मैं सूक्ष्मता से परख रहा था उन के चेहरे को. मैं ने महसूस किया कि उन के चेहरे की उत्फुल्लता का ग्राफ दिनप्रतिदिन गिरता जा रहा है और उदासी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है.

मैं ने बेला से पूछा, ‘‘लगता है भाभी की मुखकांति कुछ फीकी सी पड़ने लगी है. क्या तुम भी ऐसा ही सोचती हो?’’

‘‘हां, लगता तो मुझे भी ऐसा ही है.’’

‘‘आखिर क्यों?’’

‘‘कह नहीं सकती गौरव. पर मैं सतर्क हूं कि कोई भी ऐसा काम न करूं, जो उन्हें बुरा लगे. कई बार उन के सामने मेरे मुंह से ‘गौरव’ निकलते निकलते बचा है. मैं जो कुछ भी करती हूं, पहले सोच लेती हूं कि उन्हें बुरा तो नहीं लगेगा. उन के उठने से पहले सो कर उठ जाती हूं, उन के उठते ही उन के पास जा कर उन के चरणस्पर्श करती हूं, उन के पास बैठ कर पूछती हूं, ‘‘भाभी, नींद ठीक से आई?’’

‘‘हां, बहू, बहुत अच्छी आई.’’

‘‘चाय ले आऊं भाभी?’’

‘‘अभी ठहर जा जरा फ्रैश हो लूं.’’

‘‘रात को जब वे कई बार कहती हैं कि अरी उठ, जा देख गौरव तेरे इंतजार में जाग रहा होगा, जा अब छोड़ मुझे, कब तक मेरे पैर दबाती रहेगी.’’

तब कहीं रात में उन के पास से आती हूं. आज सुबह थोड़ी देर उन के पलंग पर बैठी ही थी तो बोलीं, ‘‘अरी उठ, यहां बैठी रहेगी क्या? जा उठ कर गौरव को चाय दे, उठा उसे, सूरज चढ़ आया है, कब तक सोता रहेगा आलसियों की तरह?’’

‘‘वे तो नहा कर तैयार भी हो चुके.’’

यह सुनते ही वे आंखें फाड़ कर देखने लगीं, ‘‘अच्छा?’’

‘‘हां, भाभी.’’

तभी मैं वहां पहुंच गया. भाभी के चरणस्पर्श किए तो भाभी ने आशीर्वाद देते हुए पूछा, ‘‘अरे, गौरव आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यही गौरव सुबह कान पकड़ कर उठाने से उठता था और आंखें बंद किएकिए ही चाय का प्याला हाथ में पकड़ लिया करता था और आज वही गौरव…’’

‘‘सच कहूं भाभी, कान पकड़ कर उठाने वाली तो चली गईं और कोई ऐसा है नहीं, जो कान पकड़ कर उठाने की हिम्मत करे?’’

‘‘बेला नहीं है?’’ भाभी बोलीं.

भाभी के इतना कहते ही बेला बोली, ‘‘भाभी, मैं इन के कान पकड़ूं? मेरी तो रूह कांपती है इन के गुस्से से, हर वक्त डरीडरी रहती हूं, तो इन के डर के मारे मैं आप से इन की शिकायत भी नहीं कर सकती. ये बस डरते हैं तो आप से.’’ कह कर बेला चुप हो गई.

मैं बोला, ‘‘सच पूछो तो भाभी, आप की अनुपस्थिति, आप की उपस्थिति से ज्यादा महसूस होती है, हर समय यही लगता है कि भाभी छिप कर देख रही हैं, सावधान रहता हूं कि आप को कुछ बुरा न लग जाए.’’

इस पर बेला बोली, ‘‘सच भाभी, मैं तो हर वक्त डरीडरी रहती हूं कि कहीं भाभी को बुरा न लग जाए,’’

भाभी बोलीं, ‘‘इतनी चिंता करती हो मेरी, हर वक्त डरती हो मुझ से? तुम्हें भी कुछ अच्छा लगता है, यह नहीं सोचती?’’

बेला बोली, ‘‘अपने बारे में तो तब न सोचूं भाभी, जब मुझे आप के बारे में सोचने में कोई कष्ट हो, आप के बारे में सोचने में, आप की भावनाओं की कद्र करने में ही सुख महसूस करती हूं मैं तो. मैं जानती हूं भाभी कि जब मां को अपने बच्चे का टट्टीपेशाब साफ करने में कोई कष्ट नहीं होता तो बड़ा हो कर उस बच्चे के मन में भी क्यों तकलीफ हो मां के लिए कुछ करने में?’’

‘‘नहीं बेला, यह गलत है, मैं क्या हौआ हूं, जो तुम मुझ से हर वक्त डरीडरी सी रहो, बच्चे अपना मन मारें तो क्या मां को अच्छा लगेगा? मैं कोई जेलर हूं? तुम्हें कैदी बना कर रखने में मुझे सुख मिलेगा? ‘‘नहींनहीं, यह सब नहीं चलेगा गौरव. तुम भी सुन लो, अपने को मेरा नौकर समझते हो? क्या मैं चाहती हूं कि मुझ तानाशाह के सामने तुम बाअदब, बामुलाहिजा, पेश आओ? मैं हंटर वाली हूं? क्या समझ रखा है मुझे? मैं देख रही हूं कि तुम लोगों ने घर में एक शून्य फैला दिया है, मरघटी चुप्पी नजर आती है मुझे यहां.

‘‘अरे, यह घर किलकारियों से जब गूंजेगा तब गूंजेगा, लेकिन तब तक तो तुम लोग चहकतेफुदकते रहो, एकदूसरे के शिकवेशिकायत करते रहो. तुम कभी एकदूसरे की शिकायतें क्यों नहीं करते? अरे, छोटों की शिकायतें सुनने और उन का फैसला करने में भी एक सुख होता है.

‘‘मुझे तुम उस से वंचित रख रहे हो. क्या मैं देख नहीं रही हूं बेला कि तुम गौरव को टाइम नहीं देती. गौरव शाम को लौटता है, तुम मुझ से चिपकी बैठी रहती हो, वह चुपचाप आता है, कपड़े बदल कर चुपचाप नौकर से चाय को कह देता है और अकेला अपने कमरे में चाय पी लेता है.

‘‘मैं देख रही हूं कि तुम लोग मेरे सामने न खिलखिला कर हंसते हो, न ही एकदूसरे के साथ अपनत्व की बातें करते हो, मुझे सब कुछ बनावटी लगता है. दिखावट क्या अच्छी लगती है?

‘‘अरे, बहूबेटे खिलखिलाते अच्छे लगते हैं, तुम ने एक बार भी अब तक शिकायत नहीं की कि देख लो भाभी ये मुझे चिढ़ा रहे हैं, मुझे तंग कर रहे हैं, न ही कभी मैं ने गौरव को देखा कि वह तुझे डांट रहा है. अरे शिकवेशिकायत, रूठनामनाना, ये सब तो स्वस्थ जीवन के मिर्चमसाले हैं, ये न हों तो जीवन स्वादहीन सा बन जाता है. साफ सुन लो, इन्हीं सब कारणों से मैं यहां सहज अनुभव नहीं कर रही हूं, एक घुटन सी महसूस करती हूं. ‘‘मैं देख रही हूं कि तुम लोग दब्बू से, सहमेसहमे से रहते हो, यह सब मेरे भीतर एक अपराधबोध जगाता है, जैसे मैं आतंकी हूं तुम लोगों के लिए,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

थोड़ी देर रुक कर भाभी फिर बोलीं, ‘‘मैं देख रही हूं मैं किसी नए गौरव के पास आई हूं, पता नहीं मेरा पुराना गौरव कहां खो गया? कहता है भाभी उदास हो? उसे मेरी उदासी तो दिखाई दी, कहां गई मेरी वह सुंदरता… भाभी आज तो बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘भाभी तब तो रुपए ऐंठने होते थे.’’

‘‘मतलब कि मैं सुंदर नहीं थी? मुझे धोखा दे कर रुपए ठगा करता था?’’

‘‘न भाभी, न, सुंदर तो तुम अब भी उतनी ही हो, पाला पड़ने से मुरझाए फूल का सौंदर्य खत्म हो जाता है क्या? मेरी भाभी, अतीव सुंदरी थीं, हैं और सदा रहेंगी,’’ कह कर मैं ने उन की कोली भर ली.

‘‘अरे, हट. अभी भी मस्ती सूझ रही है, बता कितने रुपए चाहिए?’’ भाभी शरमाती हुई बोलीं.

फिर हम तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘बस, ऐसा ही वातावरण चाहिए मुझे घर में एकदम निर्द्वंद्व, उत्फुल्ल, उन्मुक्त,’’ कह कर भाभी मौन हो गईं.

15-20 दिनों बाद मैं ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, उदास सी लग रही हो, क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं, पता नहीं बच्चे कैसे हैं?’’ भाभी ने कहा.

‘‘ठीक ही होने चाहिए, कोई बात होती तो फोन आ जाता,’’ मैं बोला.

‘‘लगता है वे परेशान हैं, नाराज हैं, उस दिन से फोन भी नहीं आया.’’

‘‘फोन तो कई बार आ चुका, मैं ने तुम्हें बताया नहीं.’’

‘‘क्यों? उन्होंने मुझे फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम से डरते हैं भाभी, कह रहे थे कि पता नहीं मम्मी किस बात पर डांट दें?’’

‘‘और अब जो डांटूंगी कि अपनी खैरखबर क्यों नहीं दी मुझे?’’

‘‘अरी भाभी, क्यों चिंता करती हैं, वे अब ज्यादा सुखी होंगे.’’

‘‘नहीं, सौमित्र, राघव दोनों को मैं जानती हूं, दोनों बहुत प्यार करते हैं मुझे… उन की याद आ रही है.’’

‘‘और बहुओं की नहीं?’’ मैं ने तपाक से पूछा.

भाभी- भाग 4: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

अपनी बात को पानी देती हुई वे बोलीं, ‘‘क्या मैं इतनी नासमझ हूं कि यह भी नहीं जानती कि दो दूनी चार होते हैं, पांच नहीं? मुझे क्या एकदम बेवकूफ समझ रखा है? तू यह बता कि जब बहू के चेहरे पर सास यह लिखा पढ़ ले कि इस बुढि़या ने तो हमारा जीना हराम कर दिया, हमारी सारी प्राइवेसी पर बंदूक ताने सिपाही की तरह पहरा देती रहती है, तो कौन बरदाश्त करेगा? इस का अर्थ क्या है? बता कोई दूसरा अर्थ हो सकता है इस का? इसे अपराध न मानूं? क्या यह मेरा अपमान नहीं? दब्बुओं की तरह इस कान से सुन कर उस कान से निकालती रहूं? क्या मैं उन के पतियों का दिया खाती हूं? क्या लाई थीं वे अपनेअपने घर से? हम ने दहेज के नाम पर ‘छदाम’ भी न लिया?

‘‘कौन सा ऐसा शौक है इन का जो मैं ने पूरा नहीं किया? अरे, हमारी सुहागरात तो घर में ही मनी थी, पर मैं ने एक को ऊटी भेजा तो दूसरी को गोवा. कौन सी कमी छोड़ी है मैं ने इन के अरमानों को पूरा करने में? आते ही बेटों को अपने काबू में कर लिया.’’

मैं ने भाभी के प्रश्नों की बौछारों पर एकदम ढाल सी तानते हुए कहा, ‘‘छोड़ो भी भाभी, यह सब मुझे क्या बता रही हो, मैं नहीं जानता? नयानया जोश है, बच्चे ही तो हैं सब, इन्हें दीनदुनिया की क्या खबर?’’

‘‘अरे, सुगृहिणियों के कुछ तौरतरीके होते हैं कि नहीं? सुबह 8 बजे तक सोते रहो, नौकर चाय ले कर पहुंचे… महारानियां बिस्तर पर ही चाय पीती हैं. सुबह उठ कर किसी को नमस्कार, प्रणाम, नहीं… उठते ही टूट पड़ो चाय के प्याले पर… अपने मजनुओं के साथ मेरे सामने मटकमटक कर निर्लज्जों की तरह बातें करती हैं, बेटों पर ऐसा हक जमाती हैं जैसे अपने बाप के यहां से लाई हुई कोई जायदाद हो, हुक्म चलाती हैं, नाम ले कर पुकारती हैं. अरे सौमित्र सुनो तो… अरे राघव तुम ने यह काम नहीं किया, कितनी बार कहना पड़ेगा यार, तुम समझते क्यों नहीं? पति को यार कहती हैं, काम पूरा क्यों नहीं किया, इस का स्पष्टीकरण मांगती हैं… यह तमीज है पति से बात करने की? अब तू कहेगा गौरव कि भाभी पति को पति मानने का जमाना गया. अरे, पति को पति न माने तो क्या बाप माने, भाई माने या बेटा? क्या माने?’’

‘‘भाभी, पति को दोस्त भी तो माना जा सकता है,’’ कह कर मैं ने भाभी की प्रतिक्रिया को परखने की कोशिश की.

‘‘ठीक है, गौरव. तुझे भी मुझ में ही बुराई नजर आई.’’

‘‘फिर गलत समझ रही हो, भाभी. मेरा आशय यह नहीं. मैं तो इतना जानता हूं भाभी कि बहूबेटों में किसी की हिम्मत नहीं, जो आप का अपमान कर सके. यदि कोई आप का अपमान करता है, तो क्या मैं बरदाश्त कर लूंगा? बस मेरा तो यही कहना है कि चीजों को देखने के अपने दृष्टिकोण को बदल कर देखो, फिर देखो कि कुछ अच्छा नजर आता है कि नहीं?’’

तभी सौमित्र आ गया, ‘‘चाचाजी प्रणाम,’’  कह झुक कर उस ने मेरे पैर छुए.

‘‘खुश रहो बेटा. ठीक हो?’’

‘‘जी, चाचाजी.’’

‘‘तुम्हारा कामधाम कैसा चल रहा है?’’

‘‘सब बढि़या है, राघव भी साथ ही है, हम दोनों भाई मिलजुल कर हंसीखुशी अपने काम को बढ़ाते जा रहे हैं. अच्छा चाचाजी, मैं अभी आता हूं, जरा फ्रैश हो लूं,’’ कह कर सौमित्र उठ कर चला गया.

शाम हो चली थी. भाभी मुझे ड्राइंगरूम में ले गईं. मैं ड्राइंगरूम में जा कर बैठा ही था कि दोनों बहुएं बाहर से आ गईं. मुझे देख कर दोनों मेरे पास आईं और मेरे पैर छुए.

बड़ी बोली, ‘‘कितनी देर हो गई चाचाजी आप को आए हुए? चाची नहीं आईं?’’

‘‘बस अभी आ कर बैठा हूं. उन्हें कुछ काम था. कैसी हो तुम लोग?’’

‘‘हम ठीक हैं,’’ कह कर बड़ी मुसकरा पड़ी.

छोटी ने भी मुसकान बिखेरी और बोली, ‘‘चाचाजी, सब कुशलमंगल तो है न?’’

‘‘हां बेटा, सब ठीक है, जाओ तुम लोग… थक गई होगी.’’

वे भीतर चली गईं.

भाभी बोलीं, ‘‘गौरव जब से आया है यों ही कसा हुआ बैठा है. जा हाथमुंह धो कर कपड़े बदल ले, डिनर का समय हो रहा है.’’

भाभी, मैं और चारों बहूबेटे खाने की मेज पर बैठ गए. आधे घंटे में डिनर समाप्त हो गया. मैं ने रामू से कहा, ‘‘रामू, एकएक प्याला चाय तो बना ला.’’

थोड़ी ही देर में रामू ने चाय ला कर मेज पर रख दी. मैं ने उस से कहा, ‘‘रामू, अब तू घर जा. कल जल्दी आ जाना.’’

चाय पीतेपीते मैं ने उन चारों को डांटना शुरू किया, ‘‘क्यों भई, आप चारों, भाभी का बोझ उठातेउठाते थक गए हो क्या?’’

सभी चौंक पड़े मानो अचानक बिजली कड़क उठी हो. सौमित्र बोला, ‘‘क्या मतलब चाचाजी! हम समझे नहीं. हम उठाएंगे मां का बोझ?’’

‘‘हां, मुझे ऐसा ही लगता है,’’ मैं ने थोड़ा तेज स्वर में कहा.

इस पर सौमित्र कुछ आहत सा बोला, ‘‘बोझ तो अकेली ये उठा रही हैं हम सब का, हम कौन होते हैं इन का बोझ उठाने वाले? मां के कारण ही तो समाज में हमारी एक अलग पहचान बनी है, सभी एक स्वर से कहते हैं कि बच्चों का भविष्य बनाना कोई सुमित्रा से सीखे, कितने गुणी, सुशील, सभ्य और होनहार बच्चे हैं. पिताजी का नाम कोई नहीं लेता, आज जो हम राजा बने फिर रहे हैं, मां की ही बदौलत.’’

तभी राघव ने पूछा, ‘‘क्या मां ने कुछ कहा आप से?’’

मैं बोला, ‘‘क्यों, भाभी तुम्हारी शिकायत क्या मुझ से करेंगी? क्या उन्हें तुम ने इतना कमजोर समझा है कि वे तुम्हें ठीक करने के लिए मेरी सहायता मांगेंगी? वे तो तुम्हें क्या मुझे भी ठीक कर सकती हैं,’’ कह कर मैं रुक गया और मेरे चेहरे पर एक रोष उभर आया.

सौमित्र बोला, ‘‘चाचाजी, क्या मुझे इस का प्रमाण देना पड़ेगा कि इस घर में मां की इजाजत के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता?’’

इस पर मैं ने कहा, ‘‘आगे भी उन्हीं का हुक्म चलेगा, वे इस घर की मालकिन हैं, उन्हीं की इजाजत से सब कुछ होगा.’’

‘‘हम कब इनकार करते हैं, चाचाजी?’’ इस बार राघव बोला.

‘‘और सुन लो बहुओ!’’ मैं ने कहना शुरू किया, ‘‘सब लोग अच्छी तरह सुन लो, अगर तुम में से कोई भी दाएंबाएं चला तो ये तो बाद में कहेंगी मैं ही तुम सब को यह कह दूंगा कि तुम ने जो कुछ कमाया है, उसे उठाओ और अपनीअपनी पत्नी की उंगली पकड़ कर दफा हो जाओ इस घर से, समझ क्या रखा है तुम लोगों ने? न बड़े की शर्म न छोटे का लिहाज. कुल की कुछ परंपराएं होती हैं, उन का पालन करते तुम्हें शर्म आती है, बेशर्मों की तरह मां के सामने नंगा नाचनाच कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते हो, समाज में उन्होंने जो प्रतिष्ठा बनाई है, उसे मिट्टी में मिला देना चाहते हो.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है चाचाजी… आखिर बात क्या है?’’ सौमित्र ने पूछा.

‘‘बात कुछ नहीं, बेटा. मैं समझता हूं, तुम चारों के भीतर इतनी अक्ल जरूर है कि यह पहचान सको कि मां को क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा. इतना भी त्याग नहीं कर सकते तुम अपनी मां के लिए कि कोई ऐसा काम न करो, जिस से उन्हें पीड़ा पहुंचे? मैं समझता हूं तुम लोगों में त्याग की भावना है ही नहीं, स्वार्थी हो तुम सब लोग. एक बार आंखें बंद कर के यह तो सोच लिया करो कि मां न होतीं तो तुम क्या होते? ये भी अपने ऐशोआराम के लिए मनमानी करतीं तो तुम लोग क्या होते? बस, इस से अधिक मैं कुछ और नहीं कहूंगा.’’ कह कर मैं शांत हो गया.

कुछ देर शांत रह कर मैं ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, कल सुबह यहां से हम दिल्ली के लिए निकल लेंगे, मुझे आप की जरूरत है, आप के प्यार और आशीर्वाद की जरूरत है. अब आप मेरे साथ रहेंगी, जब इन लोगों का मन करेगा, ये मिलने आ जाया करेंगे, जब आप का मन करे, आप यहां आ जाना… यह आप का घर है.’’

भाभी- भाग 7: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

भाभी कुछ रोष दिखाते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, दोनों बुढि़या हो गईं… जुम्माजुम्मा 8 दिन तो नए जीवन में प्रवेश किए हुए नहीं कि अभी से अपने को बुढि़या समझने लगीं. अरी, यही तो उम्र है पहननेओढ़ने की, उछलनेकूदने की, जब बच्चे हो जाएंगे, तो क्या सुध रहेगी अपनी? चलो मैं कहती हूं, खरीदो.’’

दोनों बहुएं मन ही मन मुसकरा रही थीं. बड़की बोली, ‘‘मम्मीजी, आप कह रही हैं, तो खरीद तो हम लेंगी, पर आप ने पहले ही हमें जेवर, कपड़ेलत्तों से लादा हुआ है कि अब जरूरत ही महसूस नहीं होती, क्या करना है?’’

छुटकी ने भी हां में हां मिलाई.

भाभी ने कहा, ‘‘अरी सुना नहीं, बहस किए जा रही हो, जब कह दिया कि खरीदो, तो बस खरीदो, नो कमैंट.’’

दोनों बहुओं ने जी भर कर डिजाइनर साडि़यां खरीदीं. हर साड़ी पर यह कहना नहीं भूलती थीं, ‘‘मम्मीजी, यह कैसी है?’’

‘‘हांहां, अच्छी है,’’ की मुहर लगवाती जाती थीं.

बड़की बोली, ‘‘बस मम्मीजी, बहुत हो गईं, अब रहने दीजिए.’’

‘‘अरी, अभी मेरी पसंद की तो खरीदी ही नहीं,’’ कह कर मम्मी ने दोनों के लिए अपनी पसंद की कुछ साडि़यां, लहंगे आदि और खरीदे. दोनों बहुओं के मन में लड्डू फूट रहे थे. दोनों सासूमां के साथ खुशीखुशी घर लौट आईं.

शाम को सौमित्र और राघव लौटे. आते ही बिना कपड़े चेंज किए, मां से चिपट कर बैठ गए.

‘‘अरे, उठो भी यहां से. कब तक मेरा दिमाग चाटते रहोगे? जाओ, अपनेअपने कमरे में और कपड़े चेंज करो,’’ और फिर जोर से बोलीं, ‘‘अरी बड़की, छुटकी, मैं देख रही हूं कि तुम दोनों के रंगढंग बिगड़ते जा रहे हैं.’’

दोनों ही घबराई हुई सी भागी आईं, ‘‘क्यों क्या हुआ मम्मीजी?’’ बड़की बोली.

‘‘हुआ ही कुछ नहीं, तुम्हें पता है दोनों लड़के कब के घर आ चुके हैं? उन दोनों को कुछ चायवाय चाहिए या नहीं, खयाल है तुम लोगों को? पतियों के घर आते ही पत्नियां उन की ओर दौड़ी चली जाती हैं, उन का हालचाल पूछती हैं, चायपानी देती हैं, कुछ मैनर्स भी आते हैं तुम्हें या नहीं? जाओ, यों खड़ीखड़ी मेरा मुंह क्या ताक रही हो, उन की खैरखबर लो.

‘‘इतनी भी तमीज नहीं कि शाम को घर लौटा पति क्या चाहता है? यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा कि उस ने अगर पत्नी के मुख पर खिलखिलाहट नहीं देखी, यदि उस के सामने उस की पत्नी फूहड़ सी आ कर खड़ी हो जाए तो कैसा लगेगा उसे? तुम लोगों के पास अच्छे कपड़े नहीं रहे क्या? नौकरानियां सी लग रही हो… जाओ यहां से.’’

दोनों बहुएं चली गईं.

सभी लोगों ने रात को खाना एकसाथ खाया. खाना खाते ही सौमित्र, राघव, भाभी के कमरे में चले गए. दोनों मां से लिपट कर बैठ गए और बातें करने लगे.

थोड़ी देर में ही भाभी बोलीं, ‘‘जाओ, बहुएं इंतजार कर रही होंगी, सुबह की थकीमांदी हैं, जाग रही होंगी.’’

‘‘जागने दो मां, जब नींद आएगी तो सो जाएंगी.’’

‘‘नहींनहीं, उठो तुम लोग यहां से मुझे भी नींद आ रही है.’’

वे उठ कर गए तो दोनों बहुएं भाभी के पास आ पहुंचीं.

‘‘अरी, तुम लोग क्या करने आई हो यहां?’’

‘‘आप जब सो जाएंगी मम्मीजी, तभी हम सोएंगी. लाइए, आप के पैर दबा दें.’’

‘‘नहींनहीं, जाओ यहां से, मुझे नींद आ रही है.’’

दोनों बहुएं भाभी के चरण छू कर चली गईं.

अगले दिन भाभी ने डिनर पर कहा, ‘‘देख रही हूं सौमित्र, राघव तुम दोनों बहुओं की उपेक्षा कर रहे हो और बहुएं भी कम नहीं, वे भी तुम्हारी परवाह नहीं कर रही हैं. सारे काम मेरे सिर पर डालते जा रहे हो. मम्मीजी, नौकरों को तनख्वाह देनी है पैसे दे दीजिए, अखबार वाले का बिल देना है, बाजार से सामान लाना है, पैसे दे दीजिए, मुझे जैसे और कोई काम ही नहीं रह गया, हर वक्त उठती रहूं, सेफ खोल कर पैसे देती रहूं, बस तुम्हारे कामों में फिरकी बनी घूमती रहूं.’’

‘‘पर चाबी तो आप के पास ही रहती है मम्मीजी,’’ बड़की बोली.

‘‘तू खुद क्यों नहीं रख लेती बड़की? चाबी भी मैं संभालू, घर के सारे खर्चों का हिसाब भी मैं ही रखूं, तुम सब लोग खाली पड़े रहो, यह लो गुच्छा, संभालो सब कुछ अपनेआप करो, मुझ से अब नहीं होती तुम्हारी चौकीदारी, अब लेनदेन के मामले में मुझे डिस्टर्ब मत करना, मैं क्या सदा तुम लोगों के चक्करों में ही फिरती रहूंगी? अब से तुम जानो तुम्हारा काम, जो चाहो जैसे चाहो, खर्च करो, अब तुम लोग समर्थ हो, अपना भलाबुरा सब समझती हो,’’ और भाभी ने चाबियों का गुच्छा बड़की को थमा दिया.

बड़की बोली, ‘‘आप के जितनी अक्ल कहां से लाएं हम लोग, हम तो अभी बच्चे हैं, आप जैसेजैसे कहती रहेंगी, हम करते रहेंगे, हमारे बुरेभले की तो आप ही सोचेंगी, आप को ऐसे कैसे फ्री कर दें, अपने इन पौधों को सींचना तो आप को ही है,’’ और दोनों बच्चियों की भांति सास के दाएंबाएं बैठ गईं.

‘‘अरी, मैं कहीं भागी जा रही हूं क्या? जो कुछ गलत होगा, मैं कह दिया करूंगी, पर अब मैं स्वतंत्र होना चाहती हूं. और सुन लो सौमित्र, राघव. घर में मनहूसियत मुझे बरदाश्त नहीं, मुझे हर समय सन्नाटा सा महसूस होता है इस घर में. क्या यह एक घर है? न हल्लागुल्ला, न हंसीमजाक, न बच्चों की किलकारियां, न किसी का रूठनामनाना,’’ कहतेकहते भाभी भावुक हो उठीं. ‘‘तुम चारों ही तो हो, जिन में मैं अपनी खुशी ढूंढ़ती हूं, घर की यह चुप्पी, यह शांति मुझे खाने को दौड़ती है. मैं ने गौरव से भी कहा था कि गौरव, फूल खिले ही अच्छे लगते हैं, मुरझाए फूल देखने की मेरी आदत नहीं. तुम लोग भी कान खोल कर सुन लो, घर में मुझे शांति नहीं, खिलखिलाहट भरा माहौल चाहिए,’’ कह कर भाभी ने साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछ लीं.

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 4: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

शाम को मम्मी ने दिवाकर से लड़की देखने की बात कही. दिवाकर ने अनमनाते हुए मना कर दिया. फिर मुझ से पूछा, ‘‘बहू, तू क्या चाहती है इस के लिए लड़की ढूंढ़ें?’’

मैं ने कह दिया, ‘‘इन से ही पूछो, ये क्या चाहते हैं?’’ फिर मम्मी सीधे असली बात पर आ गईं. दोनों को आमनेसामने बुला कर बोलीं, ‘‘क्या तुम दोनों एकदूसरे को चाहते हो? हां या न में उत्तर दो. वरना पापा अभी लड़की वालों से बात करने वाले हैं.’’ मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर दिवाकर ने ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘तो तुम दोनों शादी के लिए तैयार हो? हां या न में जवाब दो,’’ मम्मी का मूड खराब हो चला था.

कुछ देर मौन रहने के बाद दिवाकर बोले, ‘‘हां, मैं शादी करने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘और बहू तुम…?’’

‘‘मम्मीजी, दिवाकर जैसा चाहेंगे, मैं उन के साथ हूं,’’ मैं ने अपनी बात सामने रख दी. मैं जानती थी अगर अब चूकी तो फिर आगे पछताना पड़ेगा.

मम्मी सुन कर चली गईं. उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था. 10-15 दिनों बाद हम दोनों का विवाह संपन्न हो गया. अगले दिन शाम को प्रीतिभोज की पार्टी की गई. अधिकांश समझदार पढे़लिखे पुरुष विधवा विवाह, वह भी घर ही घर में किए जाने पर मेरे ससुरजी को बधाई दे रहे थे और खुशी जाहिर कर रहे थे. यह सारा कार्यक्रम निबट जाने से मेरी और दिवाकर की खुशी का ठिकाना नहीं था. यह तो मैं जानती थी, पुरुषवर्ग इस तरह के सामाजिक कार्यों में संतोष ही जाहिर करते हैं. उन्हें किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं होती. पर कुछ महिलाएं विधवा विवाह, पुनर्विवाह या अपने ही घर में देवर से विवाह कर लेना पचा नहीं पातीं. यही वे महिलाएं हैं जो स्वयं के विवाह में या अपनों के विवाह में दहेज की भरपूर लोलुप भी होती हैं. कम दहेज आने का मलाल उन में बना रहता है, जो आगे दुलहन के साथ कलह का कारण बना रहता है.

खैर, मेरा अपने ही घर में अपने देवर से पुनर्विवाह हो गया. लोगों का कहा भलाबुरा सब सहन कर लूंगी. जब घर वालों को कोई एतराज नहीं, तो बाहर वालों की क्या चिंता करनी. अगले दिन सुबहसुबह मम्मी ने मुझे और मेरी ननद तनुजा को पासपड़ोस व बिरादरी में पैंणा यानी शादी का लड्डू वगैरा देने के लिए भेज दिया. जब हम अपने चचिया ससुर मानवेंद्र सिंह के घर की बाउंडरी के पास पहुंचे तो हमें कई औरतों के जोरजोर से बतियाने की आवाज सुनाई पड़ी. बातें हमारे परिवार व शादी को ले कर ही हो रही थी. हमारे पैर थम गए. एक औरत की चिरपरिचित आवाज आ रही थी. ‘‘अरी, ये पंडिताइन तो उन के बड़े लड़के को तो खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. सीधेसीदे बच्चों को न जाने किस की नजर लग गई?’’

दूसरी सयानी औरत कह रही थी, ‘‘बुढि़या को भी तो तनक समझ होनी थी. उस ने क्या उन के रंगढंग नहीं देखे होंगे. पता नहीं, उस ने न जाने कब से उसे फांस रखा होगा.’’ अगली आवाज मिर्चमसाला लगा कर आ रही थी, ‘‘उस घर में तो डायन आई है, डायन. एक को तो खा गई, अभी न जाने कितनों को और खा जाएगी.’’ कई औरतें हां में हां मिला रही थीं. मैं आगे सुन न सकी. मुझे रुलाई आने लगी. मैं ने धोती के छोर को मुंह में डाल लिया और वहीं से वापस लौट गई. भरे मन से मेरी ननद भी मेरे पीछेपीछे लौट आई.

मेरी रुलाई रोके नहीं रुक रही थी. बारबार वही शब्द कानों में गूंज रहे थे, ‘बड़े लड़के को खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. न जाने कब से फांस रखा है. उस घर में डायन आई है, डायन. खा जाएगी.’ मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद कर फूटफूट कर रोने लगी. उस पूरे दिन मैं अपने कमरे में बंद रही. किसी से नहीं बोली और न कुछ खायापिया ही. ननद ने सारी बात मम्मी से कह दी होगी. सो, उन्होंने मुझ पर अधिक दबाव नहीं डाला. मन हलका होने के लिए छोड़ दिया. मेरी बेटी दिवाकर के पास थी. कभीकभी उन्हीं के पास सो जाती थी. मैं ने भी उसे अपने पास नहीं मंगाया.

मेरे लिए यह सब बरदाश्त के बाहर होता जा रहा था. मैं अपनेआप से ही सवालजवाब करने लगी थी. मैं ने किस का क्या बिगाड़ा था? प्यार करना क्या गुनाह है? हम ने तो जातिवाद का बंधन तोड़ा था. इस में हम दोनों की रजामंदी थी. विदेश या दूरदराज के शहरों में जाति कौन देखता है. गुणयोग्यता देखी जाती है. फिर यहां यह ढकोसला क्यों? बाद में दिवाकर की इच्छा को मैं टाल नहीं सकी. दिवाकर में मुझे अपने अतुल का प्रतिबिंब नजर आता था. सो, मैं भी उस की ओर झुकती चली गई. मैं विधवा विवाह के लिए राजी हो गई. वह भी अपने ही घर में. इस में क्या बुराई थी. अतुल तो एक हादसे के शिकार हो गए. उन के साथ गजेंद्र बाबू भी तो मारे गए. क्या वे भी मेरे ही कारण मृत्यु को प्राप्त हुए?

क्या उन्हें भी मैं ही खा गई. दुनिया तो अब एडवांस हो गई. पर हमारे गांवों की महिलाओं की रूढि़वादी सोच, अंधविश्वास कब समाप्त होगा? उन के हिसाब से मैं दिवाकर को भी खा जाऊंगी. समझ नहीं आता, मैं क्या करूं? कहीं, कभी सचमुच दिवाकर को भी कुछ हो जाए तो मैं सचमुच गांवभर की डायन कही जाऊंगी. लोग मुझे ढेले, पत्थर मारेंगे. मैं कल्पना मात्र से ही सिहर उठी. ये सब लांछन मेरी बरदाश्त के बाहर थे. इन उलाहनों, पाखंड व दोगलेपन की बातें सुन कर मन ही मन एक दृश्य आकार  लेने लगा-

कल सुबह मेरा शव आंगन में उगे बूढ़े नीम के पेड़ में लटका है, साथ में जातिवाद, विधवा विवाह तथा अंधविश्वास पर मेरा सूसाइड नोट भी है. मैं ने इन उलाहनों से बचने के लिए कायरता का रास्ता अपनाया है. अचानक विचारों की डरावनी लडि़यां टूट गईं. वर्तमान में मौजूद मन में एक ऊर्जा स्फुटित होने लगी. मैं खुद से कह रही थी कि जब अतुल को खो कर मैं ने हार नहीं मानी. जिंदगी का डट कर सामना कर, समाज की खोखली रस्मों व रिवाजों की दीवारें लांघ कर दिवाकर सरीखा जीवनसाथी पा लिया तब किनारे में आ कर डूबने की बेवकूफी आखिर क्यों? मुझे अभी जीना है. अपने लिए. अपनी बच्ची के लिए और दिवाकर के लिए भी. समाज व लोगों का क्या है? कुछ तो लोग कहेंगे…

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 3: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

तभी मुझे किसी बाइक की आवाज सुनाई दी. रात के सन्नाटे में यह आवाज डरावनी सी लग रही थी. मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. बाइक आ कर गेट पर रुक गई. बाइक से 2 लोग उतरे थे. वे उतर कर कुछ बातें कर रहे थे. उन की नजरें उस

सड़क को ताक रही थीं जिस से वे आए थे. शायद किसी का इंतजार था. वे रुके क्यों, सीधे घर क्यों नहीं आए, या कहीं उन की…?

मेरे मन में तरहतरह के विचार कौंधने लगे. मैं बरामदे में खड़ी हो गई. मैं ने चैनल जोर से जकड़ कर पकड़ लिया था. मेरे पैर कांप रहे थे. मुझे अस्पताल के उस वार्डबौय के हाथ के ऐक्शन का बारबार ध्यान आ जाता था. वह हथेली को नकारात्मक ढंग से हिलाता सुस्त चाल में चला जा रहा था. उस के हावभाव से मुझे लगा जैसे वह अपने असली होशहवास में नहीं था या उस ने कुछ गलत देखा था, जिस का प्रभाव उस के दिलोदिमाग में घूम रहा था.

मेरे विचारों की शृंखला फिर से तब टूटी जब मैं ने कुछ कारों और मोटरसाइकिलों की आवाजें सुनीं. उन का प्रकाश भी दूर सड़क तक फैल रहा था. कुछ ही क्षणों में तमाम कारें व मोटरसाइकिलें मुख्य रोड से लिंक रोड को मुड़ गईं. प्रांगण का गेट खुला था. वे सब कारें घर के प्रांगण में प्रवेश कर गईं. मैं ने बरामदे का चैनल खोल दिया था और जिज्ञासावश मैं बाहर आ गई. तभी कारों से महिलाएं व पुरुष बाहर निकले. महिलाओं की ओर से घुटीघुटी रोने की आवाजें आ रही थीं. ससुरजी ने भारी गले से आज्ञा दी, ‘‘अतुल को गाड़ी से बाहर निकालो.’’

सफेद कपड़े में लिपटी अतुल की बौडी को बाहर निकाल कर पोर्च के नीचे लिटा दिया गया. मैं ने देखा और पछाड़ खा कर बौडी पर गिर गई. औरतें भी जोरजोर से रोने लगीं. गांव वाले आवाज सुन कर आने लगे थे.

लोग चर्चा कर रहे थे, ‘वह तो उसी समय खत्म हो गया था जब नर्स और वार्डबौय बाहर आए थे. उस समय 6-7 बजे का समय रहा होगा. अस्पताल वालों ने एक दिन का मैडिकल बिल बढ़ाने के लिए बौडी को रोके रखा था.’

मेरा सबकुछ समाप्त हो गया. विधवा नारी का जीवन भी क्या जीवन होता है. वह अनूठा प्यार जिस की खातिर हम ने सालोंसाल संघर्ष किया. लोगों के ताने सुने. घर की फटकार सुनी. समाज में फैली जातिप्रथा का सामना किया. बड़ी मुश्किल से विजय हासिल की. पर यह हमारी विजय कहां थी, यह तो जीवन की भयानक हार साबित हुई. अब मेरा क्या होगा? इस पहाड़ से जीवन को कैसे ढो पाऊंगी? कितने प्यारे थे. सब के दुलारे थे. अब क्या होगा मेरा?

ठाकुर साहब का इलाके भर में मान था. सो, दाहसंस्कार तथा पीपलपानी में भारी संख्या में लोग उपस्थित थे. सब की सहानुभूति उन के परिवार के साथ थी. धीरेधीरे परिवार का दुख कम होता गया. पर मैं उन्हें कैसे भूल पाती. उन की निशानी दिनप्रतिदिन मेरे गर्भ में बढ़ती चली जा रही थी. आखिर एक दिन उन का प्रतिरूप कन्या बन कर इस धरातल पर उतर आया. घर में बच्ची के रुदन व किलकारी का स्वर सब को आनंदविभोर करने लगा. ऐसा लगा जैसे घर का सूनापन बच्ची की स्वरलहरी में कहीं बहने लगा हो. उदासी का घना बादल छंट रहा हो. बच्ची बहुत सुंदर थी. सो, वह सब के हाथोंहाथ रहती थी. खाली समय में दिवाकर ही उसे अपनी गोद में बैठा कर घुमाया करते थे.

दिवाकर नौकरी के लिए दिल्ली जाने की सोच रहे थे. पर घर में दुर्घटना के बाद ठाकुर साहब ने उन्हें नौकरी करने के लिए मना कर दिया. वे स्वयं भी बूढ़े हो चले थे. फिर बड़े लड़के के निधन ने उन की कमर ही तोड़ दी थी. सो, वे चाहते थे कि छोटा लड़का दिवाकर ही उन के सारे कामकाज को देखे.

घर में रहने और अधिकतर बच्ची को अपने साथ घुमाने से दिवाकर का लगाव मेरी ओर भी होने लगा. यह लगाव बच्ची के कारण था या मेरी टूट कर बिखर चुकी जिंदगी के प्रति दयाभाव का था. यह भी हो सकता है कि भरीपूरी जवानी का उन्माद पिघल कर मेरी ओर पसर रहा हो. ऐसा नहीं कि यह उन्माद का ज्वार मात्र दिवाकर की ओर से ही पनप रहा हो. स्वयं मुझे भी न जाने क्या होता जा रहा था कि मैं उन में अपने पति अतुल का प्रतिबिंब देख रही थी. उन का वही दबे पांव चलना, मुसकराना, अनोखी महक, स्पर्श करना मुझे, अतुल की ही भांति, मदहोश सा कर जाता था. कभीकभी मैं उन्हें अर्द्घचेतनावस्था में अतुल ही समझ बैठती थी. यही खिंचाव मुझे बेचैन कर जाता था. मैं कोशिश करती दिवाकर मेरे पास न आए. अगर घर वालों को उन की मंशा की भनक तनिक भी लग जाएगी तो अनर्थ हो जाएगा. पर वे बच्ची के बहाने बारबार मेरे पास आ जाते. मैं मना करती, पर वे मानते तब न.

 

धीरेधीरे घर के भीतर फुसफुसाहट होने लगी. मम्मी ने पापाजी से कहा, ‘‘दिवाकर की शादी कर देनी चाहिए. अब वह सयाना हो गया है.’’

पापा ने कहा था,‘‘हां, तू ठीक कहती है. मैं बीमार रहने लगा हूं. जिंदगी का क्या भरोसा? पर बेरोजगार को एकदम लड़की कहां मिलती है? कोशिश करनी पड़ेगी.’’

इस कार्य में देरी होती गई. मम्मी बेचैन हो उठीं. एक दिन उन्होंने पापा से कह ही दिया, ‘‘तुम तो आंखें बंद किए रहते हो. घर में क्या हो रहा है, तुम्हें पता भी है?’’ आज मम्मी का मूड बहुत खराब था.

‘‘आखिर क्या हो रहा है हमें भी तो पता चले,’’ पापा ने जिज्ञासा से पूछा.

मम्मी को तनिक संकोच सा हुआ, फिर बोल ही पड़ीं, ‘‘अरे तुम्हारा लाड़ला जब देखो बच्ची के बहाने अपनी भाभी के कमरे में ही पड़ा रहता है. उसे मैं ने डांटा भी है. पर बेशर्म को फर्क पड़े, तब न. तभी तो मैं तुम से उस की जल्दी शादी कर देने की बात कह रही हूं.’’ मम्मी गुस्से में थीं.

‘‘अरे भई, भाभी है उस की, जाता है तो इस में बुराई क्या है?’’ पापा ने सामान्य ढंग से उत्तर दिया.

‘‘इतने में ही बात होती तो मैं तुम से क्यों कहती? वह तो बेशर्म उस की पलंग पर भी देरदेर तक बैठने लगा है. कल कुछ ऊंचनीच हो जाए तो हम मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे,’’ मम्मी खीझ कर बोली थीं.

‘‘ओह, यह तो अच्छी बात नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘एक बात बता, ये दोनों एकदूसरे को चाहते हैं?’’

‘‘जब चाहते होंगे तभी तो बेशर्मी की हद पार कर रहे हैं,’’ मम्मी बोलीं.

पापा कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘शिवानी, मैं तुम्हारी राय लेना चाहता हूं. अगर तुम ठीक समझा तो…?’’

‘‘हां, कहो, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘भई, अगर बात इतनी आगे बढ़ गई है तो क्यों न हम इन दोनों की शादी कर दें. बहू की जिंदगी भी संवर जाएगी और दिवाकर की इच्छा भी पूरी हो जाएगी. घर की जायदाद भी बंटने से बची रहेगी,’’ पापा ने मम्मी से कह दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम? दिमाग तो ठीक है? अरे, दुनिया क्या कहेगी? एक तो पहले ही पंडित की लड़की ला कर खूब खिल्ली उड़ी थी, अब फिर…?’’ मम्मी तिक्त स्वर में बोलीं.

‘‘देख, तू पहले इन दोनों का मन टटोल ले. दिवाकर से कहना कि तेरे लिए तेरे पापा किसी लड़की वालों से बात कर रहे हैं. 2-4 दिन में खबर मिल जाएगी,’’ पापा ने राय दी.

‘‘अगर अतुल की तरह वह भी नहीं माने तो…?’’ मम्मी सशंकित बोलीं.

‘‘तब हमारे लिए लाचारी होगी. बहू अच्छी लड़की है. घर का घर में ही निबट जाए, तो ठीक ही है. जहां तक बाहर वालों की टीकाटिप्पणी की बात है, वह तो पहले भी हुई थी. फिर सब शांत हो गया. यहां भी लोग आलोचना करेंगे. फिर वे समय पर शांत हो जाएंगे,’’ पापा ने कहा था.

‘‘ठीक है, देखती हूं. क्या कहते हैं…?’’ मम्मी ने बुझे मन से कहा.

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 2: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

अपने घर का भी कुछ कामकाज निबटा कर नौकरानी फिर से हमारे मकान में आ गई. आवाज दे कर बोली, ‘‘बीबीजी, दूध पिया कि नहीं…?’’ दूध वैसे ही पड़ा देख कर दुखित मन से बोली, ‘‘बीबीजी, यह तो अच्छी बात नहीं. बच्चे को बचाने के लिए आप को कुछ न कुछ खानापीना तो होगा ही. बच्चा भूखा होगा.’’ उस ने जिद कर दूध का गिलास मुझे पकड़ा दिया. बोली, ‘‘बीबीजी, मालकिन को पता चलेगा कि हम ने आप को कुछ भी खानेपीने को नहीं दिया तो वे बहुत नाराज होंगी. हम क्या जवाब देंगे?’’ मैं ने ठंडा हो गया दूध पी लिया. वह ठीक ही कहती थी. बच्चे की खातिर मुझे कुछ न कुछ लेना ही था. वह पानी का जग और गिलास रख गई थी.

मैं तकिये को सीने में दबाए फिर लेट गई. मेरा ध्यान अस्पताल की ओर ही था. आशानिराशा के भंवर में मेरा मन डोल रहा था. कभीकभी ऐसा लगता जैसे आंधीतूफान के तेज झोंके में मेरी नौका बच न सकेगी, कईकई मीटर उछलती लहरों में सदा के लिए डूब जाएगी.

चिंतातुर मैं बारबार करवट बदल रही थी. मुझे किसी भी प्रकार से चैन नहीं आ रहा था. विचार बारबार मन में कौंध रहे थे कि कहीं वे नहीं बचे तो…मेरा जीवन… नहींनहीं, ऐसा नहीं होगा. कोई उन्हें बचा लो. मैं ने घुमड़ आए अपने आंसुओं को तकिये से पोंछा. जब मन कुछ हलका हुआ, स्मृतिपटल पर अतीत की सुखद यादें उभरने लगीं और कुछकुछ ऊहापोह में लिपटी भयभीत कर देने वाली यादें तड़प पैदा करने लगीं.

हमारा संगसाथ कालेज के दिनों से ही अठखेलियां खेलता चला आ रहा था. तब मैं इंटर फर्स्ट ईयर में थी और अतुल इंटर फाइनल में थे. हम पैदल ही कालेज आतेजाते थे. पर इधर कुछ महीनों से अनजाने में एकदूसरे का इंतजार करने लगे. सिलसिला चलता रहा. बोर्ड की परीक्षा आ गई. इंटर क्लास को फर्स्ट ईयर वालों ने विदाई दी. उस दिन हम दोनों ही उदास थे. हमें पता हीं नहीं चला कि हमें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया. वे इंटर पास हो कर बड़े कालेज जाने लगे थे. रास्ता मेरे घर के पास से ही जाता था. मैं इंतजार करती, वे मुसकरा कर आगे बढ़ जाते थे. कहते हैं इश्क, मुश्क, खांसी और खुशी छिपाए नहीं छिपते. कभी न कभी उजागर हो ही जाते हैं. गांव के लड़केलड़कियों को कभी इस की भनक लग गई थी. पर ठाकुर दिंगबर से भी दुकान में किसी परिचित ने बात छेड़ दी. ठाकुर साहब को यकीन हुआ ही नहीं. बात टालते हुए सशंकित, भारी मन से वे घर लौट आए.

ठाकुर साहब बचपन से ही जातिवाद के कठोर हिमायती थे. उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों से कोई शिकायत नहीं थी. पर वे ब्राह्मणों से खार खाते थे. कभी किसी पंडित ने उन के सीधेसाधे पिता को ठगा था. एक पुरोहित ने शादी में दूसरे पक्ष के पुरोहित से मिल कर दोनों जजमानों की खूब लूटखसोट मचाई थी. ऐसी ही कई बातों के कारण उन के मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत भर गई. हर कोई इस बात को जानता था कि ठाकुर साहब ब्राह्मणों के नाम से नाकभौं सिकोड़ते हैं. पर जब दुकानों, महफिलों में ठाकुर साहब के लड़के अतुल और सुखदानंदजी की लड़की दिव्या के प्रेमप्रसंग का जिक्र आता तो वे लोग मुंह दबा कर हंसते.

शाम के वक्त घर पहुंच कर ठाकुर साहब ने बाहर से ही अतुल को आवाज दे कर बाहर बुलाया. वे गुस्से में थे, दहाड़ कर बोले, ‘क्यों रे अतुवा, यह मैं क्या सुन रहा हूं. तू क्या ब्राह्मण सुखदिया की लड़की के चक्कर में पड़ा है?’ अतुल इस अकस्मात आक्रमण से सन्न रह गया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. ‘तुझे शरम नहीं आई एक ठाकुर हो कर ब्राह्मण की ही लड़की तुझे पसंद आई. कुछ तो शरम करता.’

अतुल अंदर अपने कमरे में चला गया. पापा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. अब वह यही कोशिश करता कि वह अपने पापा के सामने न आए.

कुछ समय बाद ठाकुर साहब ने उस का विवाह करने की सोची. दोएक जगहों से लड़कियों के फोटो भी उपलब्ध किए. अतुल की मां ने उसे फोटो दिखाते हुए शादी की बात की तो अतुल ने फोटो देखने से इनकार कर दिया. उस ने कह दिया, ‘मुझे शादी नहीं करनी है.’ इसी तरह समय निकलता गया. महीना व साल गुजर गया. अब हम दोनों का मिलनाजुलना तो कम हो गया पर दिल में आकर्षण बना रहा. मेरे पिताजी को भी मेरी शादी की चिंता सताने लगी. उन्हें भी पता हो गया था हम दोनों के प्रेमप्रसंग का. उन्होंने मुझे डांट लगाई थी कि मैं आइंदा अतुल से न मिलूं. वे जानते थे कि ठाकुर साहब कट्टर ठाकुरवादी हैं. सो, शादी के लिए तैयार नहीं होंगे. वे स्वयं तो सवर्ण में शादी करने के विरोधी नहीं थे. अपने बच्चों के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे.

मैं ने ही अपनी मां से कहा, ‘मांजी, अगर अतुल कहीं और शादी कर लेते हैं तो तब मुझे कहीं भी शादी करने से कोई एतराज नहीं होगा. पर अभी मेरी शादी तय नहीं करें तो अच्छा होगा.’

 

आखिर जब ठाकुर साहब को दोएक बार हार्टअटैक पड़े तो उन की पत्नी शिवानी ने चिंतित हो कर उन से आग्रह किया, ‘अब अपनी जिद छोड़ दो. लड़की मेरी देखीभाली है, ठीक है. अपनी जाति की जिद में लड़के को भी खो दोगे. वह उस से ही शादी करना चाहता है, अन्यथा कहीं नहीं करना चाहता. देखो, तुम हार्टपेशेंट हो, इस से तुम्हें और धक्का लगेगा. तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी? उस की बात मान लो.’

आखिर ठाकुर साहब मान गए. उन्होंने मेरे पिताजी को अपने घर बुलवाया. संयम व शालीनता के साथ हमारी बात सामने रख कर शादी का प्रस्ताव रखा. मेरे पिताजी एक निर्धन परिवार के किसान थे. उन्हें क्या आपत्ति थी? अच्छे माकूल घर में लड़की को देने में उन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. शादी संपन्न हो गई. ठाकुर साहब ने महिला संगीत व प्रीतिभोज की पार्टी एकसाथ निबटा दी. कुछ दिन तक गांव तथा समाज में अच्छी व बुरी प्रतिक्रियाएं होती रहीं. फिर लोगों ने इसे भुला सा दिया. अब सब सामान्य सा हो गया. इधर, हमारा दांपत्य जीवन सुखकर बीत रहा था. घर के लोग मेरे अच्छे व्यवहार व काम से संतुष्ट थे. मुझे परिवार में ऐडजस्ट होने में अधिक समय नहीं लगा. शादी से पूर्व के विवाद पर न घर वाले बात करते और न हम.

अतुल एक मशहूर कंपनी में फील्ड का काम देखते थे. उन्हें अधिकांश दूरदराज जिलों में सामान की सप्लाई करना व खराब मशीनों की रिपेयरिंग करने का जिम्मा सौंपा गया था. इसी काम से उस दिन वे मसूरी से लौट रहे थे कि रास्ते में…

अतीत की यादें घबराहट में ठहर गईं. मैं ने घड़ी की ओर देखा, रात्रि के 2 बज रहे थे. लेकिन अस्पताल से न कोई आया और न ही कोई खबर आई.

कुरसी डाल कर मैं बरामदे में बैठ गई. बाहर से चैनलगेट बंद था. बिजली का प्रकाश दूरदूर तक फैला था.

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 1: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

उन्हें भरती किए हुए 18 घंटे हो चुके थे. पर सुधार की अभी कोई सूचना नहीं आई थी. जब अतुल का घर में फोन आया था तब वे होशहवास में थे. गंभीर दुर्घटना की बात कह रहे थे. याचनाभरे शब्दों में बोल रहे थे, ‘मुझे बचा लो. मैं मरना नहीं चाहता. मैं मसूरी से करीब 17 मिलोमीटर दूर देहरादून वाली रोड पर बड़े मोड़ पर पड़ा हूं. मेरे साथी गजेंद्र बाबू मर चुके हैं. किसी जीप ने हमारी बाइक को टक्कर मार दी. लोग आजा रहे हैं, पर हमें कोई उठा नहीं रहा है. मेरा खून बहुत बह चुका है. शायद मैं बच न सकूं. दिव्या का खयाल रखना.’ फिर फोन बंद हो गया था. शायद अतुल बेहोश हो गए थे.

शहर के एक बड़े अस्पताल जीवनदायिनी हौस्पिटल में भारी उम्मीदों के साथ मेरे ससुर दिगंबरजी ने अतुल को अस्पताल में भरती कराया था. वे रोड के बीच में बेसुध अवस्था में पड़े थे. गाड़ी का एक पहिया उन की जांघ के बीचोंबीच से निकल गया था. हाथपैरों में कई जगह फै्रक्चर थे. हैलमेट के कारण सिर तो बच गया पर चेहरा बुरी तरह जख्मी था. पास ही गजेंद्र बाबू की लाश पड़ी थी. सिर फटा था. गुद्दी बाहर फैली थी. बाइक का भी कचूमर निकल गया था.

ये सब देखने की मुझ में हिम्मत ही कहां थी. यह तो साथ में गए मेरे देवर दिवाकर व गांववालों ने ही बतलाया था. मैं तो सासूमां और बिरादरी की अन्य औरतों के साथ अस्पताल सीधी पहुंची थी. वहीं सुना, गजेंद्र बाबू की बौडी को पोस्टमार्टम के लिए मौरचरी में ले जाया जा रहा था.

अस्पताल के वेटिंगरूम में तमाम ग्रामीण व रिश्तेदार जमा थे. वे आपस में चर्चा कर रहे थे. मेरे कान उन की बातें सुनने में लगे थे. व्याकुल दशा में मेरा दिल धकधक कर मुझे ही सुनाई दे रहा था. अपने तनमन को संतुलित करने का प्रयास कर रही थी. सासूमां का रुदन थम नहीं रहा था. आंसुओं की मानो बाढ़ आ गई थी. पड़ोसी महिलाएं उन्हें शांत करने का प्रयास कर रही थीं. मेरा ध्यान उन लड़कों की बातों में लगा था जो कुछ दूर धीमेधीमे बतिया रहे थे. मेरा चचेरा देवर बता रहा था, ‘यार, गाड़ी का पहिया उस के कमर व जांघ से हो कर निकल गया था. जिस का निशान साफ दिखाई पड़ रहा था. हम ने जायजा लिया था कि कितनी चोट लगी है. कमर व जांघ की हड्डी चूरचूर हो गई थी. हालत बड़ी गंभीर लगती है…’

मैं ने सुना तो जैसे मुझे बेहोशी सी छाने लगी. मेरे मुंह से घुटीघुटी चीख निकल पड़ी. औरतों ने सुना, वे मेरी ओर लपकीं. मुझे पास ही बिछी चटाई पर लिटा दिया गया. मेरी ननद तनुजा मुझे अखबार से पंखा झलने लगी, हालांकि अस्पताल के पंखे भी चल रहे थे. मैं कुछ देर बाद तनिक सामान्य हालत में आ गई थी. मैं घुटने सिकोड़ कर लेटी रही. औरतें धीरेधीरे फुसफुसा रही थीं. दूर से आदमियों की हलकीहलकी आवाजें आ रही थीं. कुछ ही क्षणों बाद कोई नर्स आईसीयू से बाहर आई. हमारे तीमारदारों ने उसे घेर लिया. हालात के बारे में पूछने लगे. ‘‘अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. डाक्टर लगातार देख रहे हैं,’’ कह कर वह तेजी से दूसरे वार्ड में चली गई.

अस्पताल वाले हमारे लोगों को आईसीयू में घुसने नहीं दे रहे थे. उन का कहना था कि घरवालों को देख कर मरीज को दिल का दौरा पड़ सकता है. अभी 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि एक वार्डबौय आईसीयू से बाहर निकला. उस की चाल में धीमापन था. चेहरे में हताशा की कालिमा पुती हुई थी. श्मशान सी उदासी. वह बिना इधरउधर देखे मंथर गति से बाहर की ओर बढ़ा जा रहा था. दोएक ने उसे रोक कर कुछ पूछना चाहा. पर वह रुका नहीं, चलता ही गया. चलतेचलते हाथ इस प्रकार हिला रहा था मानो कह रहा हो ‘मुझे पता नहीं.’ हाथ हिलाने से यह भी अर्थ निकलता था कि, ‘मुश्किल है.’ यह भी समझा जा सकता था कि ‘अब कुछ नहीं बचा.’

लगभग सभी नजरें उसी पर थीं. उस के हाथ हिलाने का सब मन ही मन अपनेअपने ढंग से अर्थ निकाल रहे थे. दिवाकर ने मेरी ओर देखा. आंखों में प्रश्नचिह्न थे. मैं ने इशारे से वार्डबौय का पीछा करने को कहा. वे समझ गए और धीरेधीरे अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा दिए. जब लौटे तो मुरझाए हुए थे. डूबते कदमों से मेरे पास आए और बोले, ‘‘मांजी ने कहा है अपनी भाभी को घर पर पहुंचा आ. चलो, घर चलते हैं.’’ वे नजर उठा कर मेरी ओर नहीं देख रहे थे. मैं सशंकित होते हुए उठी, पूछा, ‘‘क्या कहा उस ने?’’

‘‘2-4 घंटे बाद डाक्टर ही बतलाएंगे,’’ दिवाकर ने फिर मांजी से कहा, ‘‘मैं भाभी को घर पहुंचाने जा रहा हूं.’’ मांजी ने सहमति में सिर हिलाया.

मुझे लगा किसी को भी मेरा यहां रुकना अच्छा नहीं लग रहा था. एक तो यहां स्थिति नाजुक थी, दूसरा मैं गर्भवती थी. पांचवां महीना चल रहा था. ऐसे में मुझे वहां रोकना कौन पसंद करेगा. मैं घर चली आई. खाली घर भायभाय सा खाने को दौड़ रहा था. मैं ने पलंग पर सिरहाने रखे उन के स्वेटर को उठा लिया. पलंग पर गिर कर जोरजोर से रोने लगी. बड़े जतन से मैं ने उन का स्वेटर बुना था. जब पूर्ण होने को आया तो…? दिवाकर को मेरा रुदन बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन का खुद भी गला भर आया था. यह कह कर कि, ‘‘भाभी, अपना खयाल रखना. मैं अस्पताल जा रहा हूं.’’ और बिना पानी पिए ही वे लौट गए. कल रात्रि से परिवार वालों के गले में अन्न का एक दाना भी नहीं गया था.

मकान के पिछवाड़े बनी झोंपडि़यों में नौकर व बटाइदारों के परिवार रहते हैं. घर में मालिक लोगों के आने की खबर पा कर एक नौकर की बीवी अपने घर से ही दूध गरम कर लाई थी. वह बोली, ‘‘बीबीजी, दूध लाई हूं. पी लीजिए, बच्चे की खातिर आप के पेट में कुछ न कुछ जाना आवश्यक है.’’ वह दूघ का गिलास मेज पर रख कर कुछ दूर खड़ी हो कर बोली, ‘‘मालिक लोगों के आने में समय लगेगा. मैं यहीं हूं. आप को जो भी कुछ चाहिएगा, बतला दें. बाहर जानवरों का सारा काम हम ने कर दिया है. लाइट वगैरा भी हम जला देंगे. आप चिंता न करें. पानी की मोटर हम चालू कर देते हैं,’’ कह कर नौकरानी बरामदे के बिजली के स्विच की ओर बढ़ गई.

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