एक और मित्र- भाग 4: प्रिया की मदद किसने की

‘‘मैं जानती हूं कि भाभी को घूमने का शौक है पर बच्चों के कारण वे जा नहीं पातीं. इसीलिए यहां आ कर मैं ज्यादा से ज्यादा उन्हें घूमने का अवसर देती हूं. घर के कामों में उन का हाथ बंटाती हूं. इस से उन्हें भी अच्छा लगता है और मुझे भी यहां पर परायापन नहीं लगता.

‘‘फिर दीदी, जरा यह भी सोचो कि सिर्फ भाई होने के नाते क्या वे हमेशा ही हमारी झोली भरने का दायित्व निभाते रहेंगे? आखिर अब उन का भी अपना परिवार है. फिर हम लोगों के पास भी कोई कमी तो नहीं है.’’

‘‘वीरा बूआ, वीरा बूआ,’’ तभी नीचे से भैया के बेटे रोहित का स्वर गूंजा और वह लपक कर नीचे चली गई पर जातेजाते वह प्रिया के लिए विचारों का अथाह समुद्र छोड़ गई.

प्रिया सोचने लगी, ‘कितना सही कहती है वीरा. स्वयं मैं ने भी तो भैया के ऊपर हमेशा यही विवशता थोपी है. दिल्ली आ कर घूमनाफिरना या फिल्म देखने के अतिरिक्त मुझे याद नहीं कि भाभी के साथ मैं ने कभी रसोईघर में हाथ बंटाया हो.’

‘‘किस सोच में डूब गईं, दीदी?’’ काम निबटा कर वीरा फिर ऊपर आ गई तो प्रिया चौंक गई. पर मन की बात छिपाते हुए उस ने विषय पलट दिया, ‘‘वह भैया की समस्या…’’

‘‘हां, सुनो, भैया को इस बार व्यापार में 5 लाख रुपए का घाटा हुआ है. उन की आर्थिक स्थिति इस समय बहुत ही खराब है,’’ वीरा का गंभीर स्वर प्रिया को बेचैन कर गया. वह बोली, ‘‘क्या कह रही हो?’’

‘‘हां, भैया ने माल देने के लिए किसी से 5 लाख रुपए बतौर पेशगी लिए थे पर उस के बाद ही उन्हें किसी काम से बाहर जाना पड़ा. उन के पीछे कर्मचारियों की लापरवाही से माल इतने निम्न स्तर का बना कि उसे कोई आधेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं.’’

‘‘पेशगी देने वाली पार्टी का कहना है कि 1 माह के भीतर या तो वे उन्हें अच्छे स्तर का माल दें वरना उन का पैसा वापस कर दें. नहीं तो वे लोग फैक्टरी कुर्क करवा कर अपना पैसा वसूल लेंगे.’’

‘‘पर वह पेशगी 5 लाख…?’’

‘‘वह भैया ने कच्चा माल खरीदने में व्यय कर दिया. अब वह भाभी का पूरा जेवर भी गिरवी रख दें तो भी उन्हें

2 लाख से ज्यादा रुपया नहीं मिलेगा,’’ वीरा इतना कह कर चुप हो गई.

पर प्रिया के मस्तिष्क में तो अभी भी कुछ चल रहा था, ‘‘पर भैया ने हम लोगों से यह बात क्यों नहीं बताई?’’

‘‘कैसे बताते,’’ वीरा का स्वर इस बार जरूरत से ज्यादा तीखा था, ‘‘तुम तो इस घर में हमेशा बेटी के हक की बग्घी में बैठ कर मानसम्मान पाने की दृष्टि से आईं. फिर भला वे अपने घर की इज्जत को तुम्हारे सामने कैसे निर्वस्त्र करते. हम मध्यवर्गीय परिवारों का आत्मसम्मान ही तो एक पूंजी है. फिर भैया का स्वभाव तो तुम जानती ही हो, कोई उन के गले में हाथ डाल कर उन का दर्द भले ही उगलवा ले, पर दूर खड़े व्यक्ति पर तो वे अपनी पीड़ा की छाया भी नहीं पड़ने देंगे.’’

वीरा ने इतनी बेरहमी से सचाई की परतें उधेड़ीं कि प्रिया कराह उठी, ‘‘वीरा, बस करो. अब और सुनने का मुझ में साहस नहीं है. मुझे अपनी भूल समझ में आ गई है.’’

‘‘प्रिया,’’ तभी नीचे से प्रणव का स्वर गूंजा और वे दोनों उठ कर नीचे आ गईं. दिनेश और प्रणव बाजार से ही खाना ले आए थे.

‘‘भाभी, आज आप की रसोई की छुट्टी,’’ प्रणव ने हाथ में पकड़ा बड़ा सा पैकेट भाभी की ओर बढ़ाया तो वे अचकचा गईं, ‘‘पर, यह सब?’’ उन्हें कुछ सूझा नहीं कि क्या कहें.

‘‘अरे, आज हम लोगों की छुट्टी है तो आप लोगों को भी तो आराम मिलना चाहिए. आखिर यह समानता का युग है न.’’

एक समवेत ठहाका लगा और अचानक ही प्रिया को जैसे वातावरण हलकाफुलका लगने लगा.

शाम को चलते समय भाभी ने प्रिया के सम्मुख साड़ी और बच्चों के कपड़ों के लिए रुपए रखे तो वह पहली बार सकुचा उठी, ‘‘बस भाभी, औपचारिकताओं के बंधन को तोड़ कर आज मैं खुद को बहुत हलकाफुलका महसूस कर रही हूं. अब फिर मुझे उसी दलदल में मत घसीटो.’’

भाभी पता नहीं इन शब्दों का अर्थ समझीं या नहीं, पर पास खड़ी वीरा ने उन्हें आंख से इशारा किया. कुछ न बोलते हुए उन्होंने प्रिया को अपने अंक में भर लिया.

‘‘क्यों, मायके से बिछुड़ने का गम सता रहा है?’’ टे्रन में उसे उदास देख प्रणव ने उसे छेड़ा तो वह धीमे से बोली, ‘‘वह बात नहीं…’’

‘‘तो फिर, किसी और से बिछुड़ने का…?’’ प्रणव के स्वर में शैतानी उतर आई. पर वह तो रोंआसी हो उठी, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं, भैया इस समय कितनी परेशानी में हैं. काश, हम उन की मदद कर पाते.’’

इतने दिनों बाद एकांत पाने पर प्रणव का मन तो कर रहा था कि वह प्रिया को कुछ और चिढ़ाए पर उस का उदास स्वर सुन उस ने यह विचार छोड़ दिया, ‘‘मुझे मालूम है, पर तुम्हें कैसे पता चला?’’

प्रणव के स्वर में आश्चर्य का स्पर्श था. पर प्रिया ने उस ओर ध्यान न दे चिंतित स्वर में कहा, ‘‘अब क्या होगा? क्या भैया की फैक्टरी कुर्क…?’’

पर प्रणव मुसकरा दिया, ‘‘तुम चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘पर इतना रुपया…?’’

‘‘मैं ने लघु उद्योग विकास बैंक के प्रबंधक से बात की थी. वह मेरा पुराना मित्र निकला. 15 दिन के भीतर भैया को 5 लाख रुपए का ऋण मिल जाएगा.’’

‘‘ओह, प्रणव, तुम कितने अच्छे हो…’’ खुशी और गर्व से भर कर प्रिया ने पति के दोनों हाथ अपनी मुट्ठियों में भर लिए तो मुसकरा कर उस ने बच्चों की ओर संकेत किया. लजा कर प्रिया ने झटके से हाथ छोड़ दिए.

बाद में सीट पर बिस्तर लगाते हुए प्रणव ने उसे बताया, ‘‘भैया की परेशानी की कुछ भनक तो मुझे यहां आते ही हो गई थी पर उन से साफ पूछने का साहस नहीं हो रहा था. दिनेश के आते ही उस से मुझे पूरा ब्योरा मिल गया और फिर भैया से बात कर के समस्या चुटकियों में हल हो गई.’’

पत्नी का बदला रूप देख कर प्रणव को बहुत प्रसन्नता हो रही थी. रिश्ते में दुर्गंध आने से पहले ही प्रिया ने बासी औपचारिकताओं को जड़ से उखाड़ उस में हमेशा के लिए ताजगी भर दी थी. पर उस से भी ज्यादा खुशी का एहसास उस वक्त भाभी के घर से वापस जाते हुए वीरा को हो रहा था, क्योंकि उस के भैया को एक मित्र जो मिल गया था.

एक और मित्र- भाग 2: प्रिया की मदद किसने की

पर शिमला में पहला दिन ही उस का अच्छा नहीं बीता. वहां पहुंचते ही मौसम बहुत खराब हो गया. तेज हवा के साथ बूंदाबांदी भी होने लगी. प्रणव के जाने के बाद प्रिया को होटल के कमरे में ही सारा दिन गुजारना पड़ा. इसलिए जब प्रणव ने रात में लौट कर बताया कि मीटिंग 2 दिन के बजाय 1 ही दिन में खत्म हो गई है और वे सवेरे ही दिल्ली वापस जा रहे हैं तो प्रिया ने चैन की सांस ली.

भैया के घर पहुंचते ही गेट पर ही प्रिया की छोटी बहन वीरा मिल गई. दौड़ कर उस ने प्रिया को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘ओह दीदी, कितने दिन बाद मिली हो.’’

‘‘पर तू कब आई?’’ प्रिया ने उस के साथ भीतर कदम रखते हुए पूछा.

‘‘कल, बस तुम्हारे जाने के 5 मिनट बाद, दिनेश को कुछ सामान खरीदना था.’’

‘‘अच्छा, पर इस से तो तू 5 मिनट पहले आ जाती तो मैं शिमला की बोरियत से बच जाती,’’ प्रिया ने हंस कर कहा तो वीरा भी मुसकरा दी, ‘‘क्यों, शिमला में जीजाजी के साथ अच्छा नहीं लगा क्या?’’

‘‘यह बात नहीं,’’ प्रिया झेंपती सी बोली, ‘‘वहां पहुंचते ही मौसम इतना खराब हो गया कि होटल से बाहर पांव निकालना भी दुश्वार था,’’ कहतेकहते उस ने सोफे पर बैठते हुए वहीं से आवाज लगाई, ‘‘अरे भाभी, जरा चाय तो पिला दो.’’

‘‘पर तुम कहां चलीं सालीजी, हमारे आते ही?’’ टैक्सी वाले को भाड़ा चुका कर तब तक प्रणव भी भीतर आ गया. वीरा को उठते देख उस ने चुटकी ली तो उस ने भी हंस कर जवाब दिया, ‘‘आप के लिए बढि़या सी चाय बनाने.’’

‘‘पर तू क्यों जा रही है? रसोई में भाभी तो हैं,’’ प्रिया ने वीरा का हाथ पकड़ उसे बिठाने का प्रयत्न किया.

पर उस ने धीमे से हाथ छुड़ा लिया, ‘‘भाभी गाजियाबाद गई हैं भैया के साथ. उन की बहन के लड़के का जन्मदिन है आज.’’

‘‘क्या? पर तुझे यहां अकेली छोड़ कर?’’ प्रिया का स्वर आश्चर्य की नोक पर लटक गया तो वीरा गंभीर हो उठी, ‘‘वे गईं नहीं बल्कि मैं ने ही उन्हें जबरदस्ती भेजा है. इस घर में तो ब्याह से पहले मैं ने 20 साल गुजारे हैं. यहां रह कर अकेलापन कैसा? फिर रोहित, सीमा हैं, वे लोग स्कूल के कारण नहीं गए हैं और दिनेश तो शाम को आ ही जाते हैं.’’

‘‘हूं,’’ कुछ सोच में पड़ गई प्रिया, फिर धीमे से बोली, ‘‘पर भाभी को तो मालूम था कि हमें लौटते ही कानपुर जाना है.’’

‘‘हां, लेकिन दीदी, तुम अपने कार्यक्रम के मुताबिक 1 दिन पहले लौट आई हो और कल तुम्हारे जाने से पहले तक भाभी आ जाएंगी,’’ कह कर वीरा चाय बनाने चली गई.

पर प्रिया को भाभी का यह उपेक्षित व्यवहार कुछ अच्छा नहीं लगा. सोचने लगी कि आखिर वह रोजरोज तो मायके आती नहीं.

कुछ ही देर में वीरा चाय के साथ पकौड़े भी बना लाई और सब लोग चाय पीने के साथ हंसीमजाक में व्यस्त हो गए. बातों के दौरन ही वीरा रसोईघर से सब्जी उठा लाई और जब तक बातें खत्म हुईं तब तक उस ने रात के खाने के लिए सब्जियां काट ली थीं.

अगले 2 घंटों में वीरा ने रात का खाना तैयार कर लिया. प्रिया ने भी उस की थोड़ीबहुत मदद कर दी थी. तब तक दिनेश भी आ गया. फिर खाने की मेज पर कुछ अतीत और कुछ वर्तमान की बातों में कब रात के 11 बज गए, पता ही न चला.

दूसरे दिन सुबह ही भैयाभाभी आ गए. प्रिया को पहले ही वहां उपस्थित देख कर भाभी को थोड़ी हैरानी हुई पर वीरा ने तुरंत आगे आते हुए हंस कर कहा, ‘‘दीदी का प्रोग्राम बदल गया था, इसलिए कल शाम ही आ गईं. पर घबराओ नहीं, भाभी, तुम्हारे मेहमान को मैं ने कोई तकलीफ नहीं होने दी है.’’

यह सुन और समझ कर प्रिया चिढ़ गई, ‘हुंह, मैं मेहमान हूं तो वीरा क्या है,’ पर बहन से बात न बढ़ाने की गरज से चुप रही. तभी भाभी रसोईघर की ओर बढ़ीं तो वीरा ने उन्हें रोक दिया, ‘‘तुम बैठो भाभी, अभी सफर से थकीमांदी आई हो. मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

फिर प्रिया ने गौर किया कि भाभी के आने के बाद भी वीरा घर के हर काम में इतनी रुचि ले रही है जैसे वह कभी इस घर से गई ही न हो. वह उसी घर का एक अंग लग रही थी. भैया भी बातबात पर वीरा और दिनेश से सलाह ले रहे थे. भैया के बच्चों को तो वह कल से ही देख रही थी. वे किसी न किसी बहाने वीरा को घेरे हुए थे. खाना बनाते समय रसोईघर से बराबर वीरा और भाभी की आवाजें आ रही थीं.

 

सबकुछ महसूस कर प्रिया को पहली बार उस घर में अपना अपमान सा लगा, वह भी अपनी ही छोटी बहन के कारण. वह सोचने लगी, ‘आखिर ऐसा क्या कर दिया है वीरा ने जो भाभी उस से इस कदर घुलमिल कर बातें कर रही हैं. मुझे तो याद नहीं कि भाभी ने कभी मुझ से भी इतनी अंतरंगता से बात की हो. आखिर मुझ में क्या कमी है. वीरा का पति अगर सफल व्यवसायी है तो प्रणव भी तो एक प्रतिष्ठित फर्म में उच्चाधिकारी हैं.’

प्रिया का मन उदास हो गया तो वह चुपचाप कमरे में आ कर लेट गई. प्रणव दफ्तर जा चुके थे और दिनेश भैया के साथ फैक्टरी चले गए. बच्चे बाहर खेल रहे थे. तनहाई उसे बहुत खल रही थी. पर इस से भी ज्यादा गम उसे इस बात का था कि उस की उपस्थिति से बेखबर वीरा और भाभी अपनी ही बातों में मशगूल हैं.

‘‘अरे दीदी, तुम यहां लेटी हो और मैं तुम्हें सारे घर में ढूंढ़ढूंढ़ कर थक गई,’’ कुछ ही देर में वीरा ने कमरे में घुसते हुए कहा तो वह जानबूझ कर चुप रही. पर मन ही मन बड़बड़ाई, ‘हुंह, खाक मुझे ढूंढ़ रही थी, झूठी कहीं की.’

‘‘क्या बात है प्रिया, तबीयत तो ठीक है?’’ तब तक भाभी भी आ गईं. प्रिया के माथे पर हाथ रख उन्होंने बुखार का अंदाजा लगाना चाहा पर उस ने धीमे से उन का हाथ हटा दिया, ‘‘ठीक हूं, कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘सिर में दर्द है क्या?’’ भाभी के स्वर में चिंता उभर आई तो वह गुस्से से भर गई. ‘ऊपर से कैसे दिखावा करती हैं,’ उस ने सोचा.

एक और मित्र- भाग 1: प्रिया की मदद किसने की

कार्यालय से लौट कर जैसे ही प्रणव ने बताया कि उसे मीटिंग के सिलसिले में 5-6 दिन के लिए दिल्ली जाना है, प्रिया खुशी से उछल पड़ी, ‘‘इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी. वीनू और पायल के स्कूल में 3 दिन की छुट्टियां हैं, 2 दिन की छुट्टी उन्हें और दिला देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ प्रणव ने जूते के फीते खोलते हुए कहा.

प्रिया के उत्साह का उफान दोगुना हो गया, ‘‘कितने दिन हो गए दिल्ली गए हुए. अब 5-6 दिन बहुत मजे से कटेंगे. बच्चों को भी इस बार पूरी दिल्ली घुमा दूंगी.’’

प्रिया के स्वर में बच्चों की सी शोखी देख प्रणव के अधरों पर मुसकराहट उभर आई, ‘‘अच्छा बाबा, खूब घूमनाघुमाना, पर अब चाय तो पिला दो.’’

‘‘हां, चाय तो मैं ला रही हूं पर तुम कल सुबह ही दफ्तर से फोन कर के भैया को अपना प्रोग्राम बता देना,’’ प्रिया ने उठते हुए कहा तो प्रणव फिर धीमे से मुसकरा दिया, ‘‘पर मैं तो सोच रहा था कि इस बार उन्हें अचानक पहुंच कर आश्चर्यचकित कर देंगे.’’

‘‘नहीं, तुम पहले फोन जरूर कर देना,’’ कमरे से निकलती हुई प्रिया एक पल को ठहर गई.

‘‘पर क्यों?’’

‘‘अरे, उन्हें कुछ तैयारी करनी होगी. आखिर तुम दामाद हो उस घर के,’’ कहते हुए प्रिया रसोईघर की ओर मुड़ गई.

पर प्रणव का चेहरा गंभीर हो उठा. प्रिया की यही बात तो उसे अच्छी नहीं लगती थी. ससुराल में उस की इतनी आवभगत होती कि संकोच महसूस कर के वह स्वयं वहां बहुत कम जाता था. प्रिया के भैयाभाभी से जबजब उस ने औपचारिकता के इन बंधनों को काटने का अनुरोध किया तो प्रिया ने बीच में आ कर सबकुछ वहीं का वहीं स्थिर कर दिया. वह बोली, ‘हम कौन सा रोजरोज यहां आते हैं.’

इस संबंध में प्रणव ने खुद कितनी बार पत्नी को समझाने का प्रयत्न किया पर सब व्यर्थ रहा. उस के मस्तिष्क पर तो संस्कारों की स्याही से लिखी इबारत इतनी पक्की थी कि उस पर कोई रंग चढ़ने को तैयार न था.

प्रिया चाय ले आई. चाय पी कर उठते हुए प्रणव धीमे से बोला, ‘‘शुक्रवार को रात की गाड़ी से चलना है. मैं दफ्तर से किसी को भेज कर आरक्षण करवा लूंगा. तुम सब तैयारी कर लेना.’’

दिल्ली जाने की बात सुन कर बच्चों की भी खुशी का ठिकाना न था. पिछली बार की स्मृतियां अभी भी ताजा थीं. सो वे आगे का प्रोग्राम बना रहे थे.

‘‘याद है वीनू, पिछली बार मामाजी के यहां कितना मजा आया था. रोज खूब चाट, पकौड़े, आइसक्रीम और रसगुल्ले खाते थे, वीसीआर पर रोज फिल्म…’’

पायल ने अपनी आंखें नचाते हुए कहा तो वीनू भी बोल पड़ा, ‘‘अरे, इस बार तो हम खूब दिल्ली घूमेंगे और मां कह रही थीं कि हम पूरे सालभर बाद वहां जा रहे हैं, मामाजी हम को नएनए कपड़े भी देंगे.’’

सुन कर उधर से गुजरते प्रणव का मन खट्टा हो गया. दिल तो किया कि प्रिया का जाना रद्द कर दे. वह सोचने लगा, ‘आखिर क्या कमी है उस के घर में जो वह अभी तक मायके वालों से इतनी अपेक्षाएं रखती है. फिर वह यह क्यों नहीं सोचती कि उस के भाई का अपना परिवार है, कब तक अपने मांबाप के दायित्वों का बोझ वह उठाता रहेगा. शराफत की भी एक सीमा होती है. अगर भाई अपने कर्तव्यों को निबाह रहा है तो बहन का भी तो कुछ फर्ज बनता है…

‘पर प्रिया तो इस मामले में बिलकुल कोरी है. अधिकारों की सीमाएं लांघना तो उसे खूब आता है पर कर्तव्यों की लक्ष्मणरेखा के करीब भी जाना उसे पसंद नहीं. अब बच्चों के भोले मस्तिष्क में भी इस प्रकार की बातें डाल कर वह अच्छा नहीं कर रही.’

उसी पल प्रणव ने निश्चय कर लिया कि इस बार वापस आने पर वह प्रिया से इस विषय में कड़ाई से पेश आएगा. अब जाते समय वह इस बात को छेड़़ कर पत्नी और फिर स्वयं का मूड खराब नहीं करना चाहता था.

स्टेशन पर ही भैयाभाभी आए हुए थे. पर इस बार प्रणव ने महसूस किया कि हर बार की तरह उन के चेहरों पर वह ताजगी नहीं थी जिसे देखने का वह अभ्यस्त था. घर जाते समय उस ने दबे शब्दों में उन से पूछने का प्रयत्न भी किया, जिसे भैया हंस कर टाल गए. पर प्रिया इन सब से बेखबर अपनी ही रौ में भाभी को कानपुर के किस्से सुनाती जा रही थी.

घर पहुंचते ही सब ने छक कर नाश्ता किया. एक तो जबरदस्त भूख, ऊपर से भाभी ने इतना स्वादिष्ठ नाश्ता बनाया था कि प्लेटों पर प्लेटें साफ होती चली गईं.

नाश्ते के बाद भाभी तो रसोईघर में दोपहर के भोजन की व्यवस्था में लग गईं और प्रिया भैया से गपशप मारने में मशगूल हो गई.

‘‘भैया, आप दफ्तर जा कर गाड़ी वापस भेज दीजिएगा क्योंकि इस बार मैं बच्चों को दिल्ली घुमाने का वादा कर चुकी हूं.’’

बातों के दौरान प्रिया ने कहा तो पास ही खड़ा टाई की गांठ लगाता प्रणव झल्ला उठा, ‘‘तुम भी कमाल करती हो प्रिया, भैया का दफ्तर यहां रखा है, 30-35 किलोमीटर दूर से कार वापस आए और फिर शाम को भैया को भी लौटना है. इस से तो अच्छा है तुम लोग टैक्सी से जाओ. बच्चे आराम से घूम लेंगे.’’

‘‘देखो जी, तुम मेरे और मेरे भैया के बीच में मत बोलो. यह हमारे आपस की बात है,’’ प्रिया ने चिढ़ कर कहा तो क्रोध में भरा प्रणव बिना कुछ बोले बाहर निकल गया. वह जानता था कि मायके में प्रिया से कुछ कहना और भी व्यर्थ सिद्ध होगा.

अगले 2 दिनों तक प्रणव अपने कार्यालय की मीटिंग में व्यस्त रहा. उस की कंपनी द्वारा एक नई फैक्टरी लगाने के सिलसिले में कनाडा से कुछ विशेषज्ञ आए हुए थे. इसलिए दोपहर और रात का खाना भी उसे विदेशी अतिथियों के साथ ही खाना पड़ता था.

इस बीच, प्रिया ने भैया की कार से बच्चों को जीभर कर सैर कराई. भाभी के बच्चे तो स्कूल चले जाते थे और भाभी को घर में ही काफी काम था. क्योंकि पुराना नौकर इन दिनों छुट्टी पर था इसलिए प्रिया के साथ केवल वीनू और पायल ही थे.

तीसरे दिन प्रणव ने आ कर बताया कि अगले 2 दिनों की मीटिंग शिमला में होनी है और प्रिया अगर वहां अकेले घूमना पसंद करे तो उस के साथ चल सकती है. घुमक्कड़ प्रिया को इस से बढ़ कर खुशी क्या हो सकती थी. शानदार होटल में रहना, खाना और घूमने के लिए कंपनी की गाड़ी, उस ने झट से ‘हां’ कर दी.

विधवा विदुर- भाग 3: किस कशमकश में थी दीप्ति

दीप्ति की सास को यह सुन कर अच्छा तो नहीं लगा पर वह कुछ नहीं बोली और उस ने घर आ कर यह बात जब दीप्ति के ससुर से कही तो वे भी अपना अनुभव बताने लगे कि जब वे सुबह पार्क में टहलने गए थे तब राजेश भी उन से कुछ इसी तरह की बातें कर रहे थे. अब समाज में रहना है तो उस के अनुसार चलना भी तो पड़ेगा ही.

सास ने दीप्ति से कहा कि वे जानते हैं कि उस के आचरण में कहीं कोई कमी नहीं है और उन्हें दीप्ति पर पूरा भरोसा है, लेकिन परी और रजनीश से दूरी बना कर रखने का समय आ गया है.

दीप्ति बहुत कुछ कहना चाहती थी, मगर कह न सकी क्योंकि उसे पता था कि कुछ तो लोग कहेंगे जैसी बातें फिल्मों में तो अच्छी लगती हैं पर असल जिंदगी में तो एक विधवा को मरते दम तक इम्तिहान ही देते रहना पड़ता है. विधवा का कोई अस्तित्व नहीं.

उधर विधुर रजनीश को भी लोग फिर से शादी करने की सलाह देते और उस के न मानने पर कहते कि इधरउधर मुंह मारने से तो अच्छा होता है कि एक ही खूंटे से बंध कर रहा जाए.

लोगों के तानों के आगे 2 सालों तक परी को जो प्यार उस की दीप्ति आंटी से मिल रहा था वह आज बंद हो गया था. रजनीश के सामने फिर से वही बच्ची को पालने वाली समस्या आ रही थी. अब उस के सामने 2 ही रास्ते थे- पहला कि वह दूसरी शादी कर ले और दूसरा यह कि वह परी को बोर्डिंग स्कूल में डाल दे.

रजनीश ने दूसरा रास्ता चुनना ज्यादा बेहतर सम झा क्योंकि दूसरी शादी कर के भी परी को नई मां स्वीकार कर पाए या नहीं इस बात में संदेह था. रजनीश ने परी से बात करी और उसे बोर्डिंग स्कूल में जाने के लिए उस का रुख जानना चाहा. परी वैसे भी मां के अभाव में जल्दी सम झदार हो चुकी थी, इसलिए उस ने बोर्डिंग स्कूल जाने के लिए हामी भर दी.

रजनीश परी को स्कूल में दाखिला दिला कर निश्चिंत हो गया.

एक दिन उस के मोबाइल पर एक फोन आया, उधर से देविका के पापा बोल रहे थे, ‘‘तेरे जीवन में इतना कुछ हो गया पर तूने हमें बताया तक नहीं… हम इतने पराए हो गए क्या?’’

ससुर की आवाज इतने वर्षों के बाद सुन कर रजनीश सिसकता रहा. उन्होंने उसे बताया कि उन्हें तो किसी और से पता चला कि उस की दुनिया उजड़ चुकी है. आखिर कैसे और क्यों? इतना कह कर उन्होंने रजनीश को यह बताया कि पुरानी बातें भूल कर वे लोग गाजियाबाद में उस से मिलने आए हैं.

मां और पापा को अपने फ्लैट पर ले आया था रजनीश, सामने देविका की तसवीर पर माला देख कर काफी व्याकुल हो गए थे उस के मांबाप.

झूठी शान और जातिपाति के भेद में हम डूबे हुए थे और समय रहते सही फैसला नहीं कर पाए थे पर अब उन्हें यह एहसास हो गया था कि रजनीश को नहीं अपनाना उन लोगों की भूल थी. ये सारी बातें रजनीश की सास और ससुर ने उसे बताईं. शायद बढ़ती उम्र और बेटी को त्याग कर अकेलेपन के अनुभव ने उन्हें सही और गलत का बोध करा दिया था और इसलिए वे दोनो यहां आए थे.

‘‘अब हम दोनों यहां आ गए हैं, इसलिए परी की तरफ से तुम्हें चिंता करने की जरूरत

नहीं है.’’

मांबाप की बातें सुन कर रजनीश खुश हो गया और स्कूल में संपर्क कर के परी को वापस घर ले आया. वह अपने नानानानी से मिल कर बहुत खुश हो रही थी. उस ने जीवन में पहली बार बचपन जैसे किसी स्वाद का अनुभव किया था.

आज परी का जन्मदिन था, वह 8 साल की हो चुकी थी. नानानानी के साथ मिल कर परी ने केक काटा और पापा के तो पूरे चेहरे पर ही केक लगा दिया परी ने.

घर के हलकेफुलके माहौल के बीच

रजनीश के ससुर ने कहा, ‘‘बेटे रजनीश, हम जानते हैं कि देविका के जाने के बाद भी तुम ने शादी नहीं करी क्योंकि नई मां आ कर कोई लापरवाही न बरते.’’

रजनीश सम झ नहीं पा रहा था कि उस के ससुर क्या कहना चाह रहे हैं. इस के बाद ससुर ने कहा कि अभी रजनीश का पूरा जीवन बाकी है और परी भी बड़ी हो रही है. इस नाजुक उम्र में मां की बहुत जरूरत रहती है. इसलिए वे चाहते हैं कि रजनीश दोबारा शादी कर ले.

ससुर की यह बात सुन कर रजनीश चौंक गया. वह कुछ बोल नहीं पाया. कुछ देर तक खामोश रहने के बाद बोला और अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क भी दिए मसलन नई मां ने अगर परी को नहीं अपनाया तो? कौन करेगा एक बच्चे वाले विदुर से शादी? फिर समाज. समाज क्या कहेगा?

परी अब अपने नाना की गोद से उतर कर दूसरे कमरे में चली गई थीं.

‘‘देखो बेटा, तुम्हारी हर बात का जवाब मैं सिर्फ एक बार में दे सकता हूं अगर तुम कहो तो.’’

रजनीश की आंखों में कई सवाल थे.

तभी सासूमा ने परी को आवाज लगाई.

दूसरे कमरे से परी निकल कर आई,

उस के साथ में दीप्ति भी थी और उस का बेटा शान और दीप्ति के सासससुर भी थे जो रजनीश की तरफ उम्मीद और प्रेम भरी नजरों से देखे जा रहे थे.

रजनीश कुछ सम झ नहीं पाया तो उस के ससुर ने कहा कि इस दुनिया में इंसान को स्वार्थी बनना पड़ता है, दीप्ति भी जिंदगी के सफर में अकेली है और तुम भी और फिर तुम दोनों पर बच्चों की जिम्मेदारी भी है… साथ मिल कर चलोगे तो राह की मुश्किलें भी आसान हो जाएंगी और सफर भी सुहाना हो जाएगा.

‘‘पर पापा… मैं तो एक नीची जाति से हूं और दीप्ति ऊंची जाति की. दीप्ति को उस का परिवार मंजूरी नहीं देगा.’’

‘‘इस का समाधान सब परी ने कर लिया है. वह अकसर दीप्ति से तेरी बातें करती थी और दीप्ति व शान भी तेरे बारे में रुचि रखते थे. जब यह बात हमें पता चली तो हम ने दीप्ति के मम्मीपापा से बात चलाई तो हमें सहमति मिल गई. तुम दोनों की हां का तो देविका को भी इंतजार होगा.’’

परी दीप्ति की उंगली पकड़े हुए अपने

पापा को निहार रही थी. दीप्ति और रजनीश की नजरें टकराईं तो दोनों के होंठों पर हलकी सी मुसकराहट फैल गई, जिस का मतलब था कि एक विधवा और एक विदुर ने अपने बच्चों के जीवन की बेहतरी और खुद के अस्तित्व के

लिए समाज से बिना डरे एक साहस भरा फैसला ले ही लिया.

तौबा- भाग 2

‘‘मारे गुस्से के मैं सारी रात जाग कर और क्या करती रही हूं? तेरे पति की दुम हमेशा के लिए सीधी करने की बड़ी सटीक योजना है मेरे पास.’’

‘‘मैं हर कदम पर तेरा साथ दूंगी, माधवी,’’ मैं ने भावुक हो कर अपनी सहेली को गले से लगा लिया.

दोपहर के भोजन के समय तक मैं ने माधवी की योजना पूरी तरह समझ ली. उसी दिन से उस पर अमल करने का हम ने पक्का निर्णय लिया.

मेरे साथ खाना खाने के बाद उस ने पहला कदम उठा भी लिया.

मेरे घर के फोन से माधवी ने सुमित के औफिस का नंबर मिला कर उस से बातें कीं. पिछली रात सुमित ने उसे अपना कार्ड दिया था.

तभी माधवी की आवाज सुन कर उसे सुखद हैरानी जरूर हुई पर किसी तरह का शक उस के दिमाग में बिलकुल पैदा नहीं हुआ.

‘‘अपनी आवाज सुना कर तुम ने मेरे दिन को बहुत खूबसूरत बना दिया है, माधवी. कहो, कैसे याद आ गई बंदे की?’’ सुमित की स्पीकर से आती आवाज मैं साफ सुन सकती थी.

‘‘मैं एक बार तुम्हें जरूर फोन करूं, तुम्हारी उसी जिद को पूरा कर रही हूं,’’ माधवी ने वार्त्तालाप सहज ढंग से बोलते हुए आरंभ किया.

‘‘थैंक्यू, डियर. अब मेरी एक और जिद पूरी कर दो.’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘आज शाम चायकौफी पीने के लिए कहीं मिल लो. कल रात तुम से ज्यादा बातें नहीं हो सकीं. वह प्यास अभी भी बनी हुई है.’’

‘‘शादीशुदा इंसान को लड़कियों से दोस्ती करने के चक्कर में नहीं रहना चाहिए, जनाब.’’

‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई. तुम से दोस्ती करने की मेरी इच्छा कैसे गलत है?’’

‘‘साधारण दोस्ती करने में कोई बुराई नहीं, पर तुम ने कल रात जो मेरा हाथ पकड़ा, क्या वह गलत नहीं था?’’

‘‘तुम्हें बुरा लगा?’’

‘‘मेरे सवाल का जवाब दो पहले.’’

‘‘सारे जवाब जब हम आमनेसामने बैठे होंगे, तब दूंगा. प्लीज, मिलो न आज शाम को.’’

‘‘मैं आधे घंटे से ज्यादा देर तक नहीं रुक सकूंगी.’’

‘‘ओह, थैंक्यू, थैंक्यू, थैंक्यू,’’ सुमित की आवाज की खुशी पहचान कर मेरा खून उबलने लगा था.

आने वाले दिनों में अपने पति के चालाक व्यवहार को देख कर मैं मन ही मन बड़ा अचंभा करती. मुझे माधवी रोज की रिपोर्ट न दे रही होती, तो मुझे सपने में भी शक न होता कि सुमित किसी और लड़की के चक्कर में फंस गए हैं. घर में देर से आने के उन के बहाने एक से बढ़ कर एक होते.

‘‘आज कार स्टार्ट ही नहीं हुई. मैकेनिक ने ठीक करने में पूरे 2 घंटे लगाए. आगे से ठीक टाइम पर सर्विसिंग कराया करूंगा,’’ माधवी के साथ पहली बार रेस्तरां में मिलने के बाद जनाब ने यह बहाना बनाया था.

छुट्टी के दिन वे माधवी को फिल्म दिखाने ले गए. उस दिन वे अस्पताल में दाखिल अपने एक सहयोगी को देखने जाने की बात कह कर घर से निकले थे.

जिस दिन 5 सितारा होटल में माधवी के साथ डिनर किया, उस रात वे औफिस में एक महत्त्वपूर्ण कौन्फ्रैंस में व्यस्त थे. अगले डिनर का बहाना, अपने दोस्त के बेटे की जन्मदिन पार्टी में जाने का था.

मुझे उन के माधवी के साथ बने हर कार्यक्रम की पहले से जानकारी होती थी. उन्हें बड़ी सहजता व सफाई के साथ झूठ बोलते देख मैं सचमुच दांतों तले उंगली दबा लेती. न कोई झिझक, न बेचैनी और न किसी तरह का अपराधबोध. अपने पतियों पर आंखें मूंद कर विश्वास करने वाली औरतें महामूर्ख होती हैं, उन का व्यवहार देख कर यह धारणा हर रोज मेरे मन में मजबूत होती जाती.

करीब 10 दिनों की मेलमुलाकातों के बाद सुमित को सबक सिखाने का समय आ ही गया.

उस दिन माधवी के पास सुबह 11 बजे सुमित का फोन आया तो उस ने मेरे पति को जानकारी दी, ‘‘आज शाम को नहीं मिल सकूंगी. एक समारोह में शामिल होना है.’’

सुमित के पूछने पर उस ने खुलासा किया, ‘‘मौसी के यहां गृहप्रवेश का फंक्शन हो रहा है. मम्मीपापा सुबह चले गए. मैं शाम को जाऊंगी.’’

‘‘तो क्या अभी घर में अकेली हो?’’

‘‘हां, और जी भर कर खूब सोऊंगी.’’

‘‘लंच मेरे साथ करो और बाकी समय सोना.’’

‘‘मैं बाहर निकलने के मूड में नहीं हूं, सुमित.’’

‘‘नो प्रौब्लम, डियर. मैं ‘पैक्ड लंच’ ले कर हाजिर होता हूं. ठीक 1 बजे पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘नहीं, तुम यहां मत…’’

‘‘बेकार में डरो मत. मैं आ रहा हूं. अच्छा बाय. बौस बुला रहे हैं. मैं 1 बजे मिलता हूं.’’

ऐसा प्रोग्राम बना कर धोखेबाज सुमित हमारे जाल में पूरी तरह फंस गए थे.

1 बजे से चंद मिनट पहले ही मैं ने उतावले सुमित को माधवी के फ्लैट में प्रवेश करते देखा. इस वक्त मैं माधवी के पड़ोसी योगेशजी के घर में उपस्थित थी. उन के यहां आधा घंटा पहले मुझे माधवी ही बैठा कर गई थी.

मैं ने गंभीरता का मुखौटा ओढ़ा, मन में गुस्से के भाव पैदा करने शुरू किए और सुमित के अंदर जाने के करीब 5 मिनट बाद माधवी के फ्लैट की घंटी बजाई.

दरवाजा माधवी ने खोला. किसी सज्जन पुरुष की तरह सुमित बड़े सलीके से सोफे पर बैठे नजर आए.

मुझे देख कर माधवी ने चौंकने का शानदार अभिनय किया, जबकि सुमित सचमुच यों उछले मानो उन्हें अचानक बिजली का झटका लगा हो.

‘‘अरे, सपना तुम? यों अचानक? सचमुच मजा आ गया तुम्हें देख कर,’’ माधवी ने बढि़या नाटक करते हुए मुझे गले से लगा लिया.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम इस फ्लैट में रहती हो,’’ मैं ने उस की पकड़ से छूट कर शुष्क लहजे में जवाब दिया.

‘‘मुझ से नहीं तो फिर किस से मिलने आई हो?’’

‘‘तुम से ही. मेरा मतलब है कि मैं ‘माधवी’ नाम की लड़की से ही मिलने आई हूं, पर मुझे नहीं पता था कि वह लड़की मेरे साथ कालेज में पढ़ी मेरी सब से अच्छी सहेली निकलेगी.’’

मेरी नजरें सुमित की तरफ घूमीं. मेरी बात सुन कर सुमित का चेहरा पीला पड़ता चला गया.

‘‘ये मेरे अच्छे दोस्त सुमित हैं,’’ माधवी ने मुझे सुमित की तरफ देखता पा कर हमारा परिचय कराया.

‘‘प्रेमी को दोस्त मत कहो, माधवी,’’ मैं रूखे अंदाज में मुसकराई.

‘‘नहीं वैसा चक्कर नहीं है हमारे बीच. सुमित शादीशुदा हैं,’’ माधवी शरमाए से अंदाज में हंस पड़ी.

‘‘मुझे मालूम है.’’

‘‘कैसे?’’ उस ने माथे पर बल डाले.

‘‘तुम्हारे रोमियो की पत्नी तुम्हारे सामने ही खड़ी है. हैलो, पतिदेव,’’ मैं ने जहर बुझे अंदाज में सुमित को ‘हैलो’ कहा.

सुमित ने अपने को संभाला और नाराजगी भरे स्वर में मुझ से बोले, ‘‘माधवी और मुझ पर गलत शक करने की बेवकूफी मत करो, सपना. एक शादी में कुछ दिन पहले ही मेरी इन से जानपहचान हुई है. आज सुबह फोन करने से मालूम पड़ा कि इन की तबीयत खराब है. मैं तो सिर्फ हालचाल पूछने आया हूं.’’

‘‘झूठ मत बोलिए,’’ मैं फौरन गुस्से से फट पड़ी, ‘‘मेरे ऐसे शुभचिंतक हैं आप के औफिस में जो मुझे आप की कारगुजारियों की सारी खबरें देते रहते हैं. आप ने माधवी के साथ एक फिल्म देखी है, 3 बार डिनर किया है और लगभग रोज शाम को मिलते रहे हो इस से. आज रंगे हाथों पकड़ा है मैं ने आप को. अब तो झूठ मत बोलो.’’

तौबा- भाग 1

मेरे पति सुमित बढि़या डांस करते हैं. उन की पार्टनर नीली जींस और लाल टौप वाली लड़की भी कम न थी. क्लब के डांस फ्लोर पर वे दोनों छाए हुए थे.

मैं उस लड़की को पहचानती नहीं थी. सुमित में उस की दिलचस्पी देख कर मेरी कई सहेलियों ने आ कर मुझे उस का परिचय दिया.

‘‘उस का नाम निशा है. वह जो सांवले चेहरे वाली मोटी सुषमा है, यह निशा उस की ननद है. जौब करने के लिए मेरठ से दिल्ली कुछ दिन पहले आई है. सुमित तो एकदम दीवाना हो गया है उस का,’’ मुझे यह जानकारी देते हुए उन सभी की आंखों में खुराफाती चमक मौजूद थी.

सुमित से मेरी शादी करीब डेढ़ साल पहले हुई थी. मेरे सुंदर स्मार्ट पति की छाती में एक दिलफेंक आशिक का हृदय धड़कता है, यह बात शादी के आरंभिक दिनों में ही मैं समझ गई थी.

अमीर लोगों को अमीर बने रहने के लिए बड़ी तनाव भरी जिंदगी जीनी पड़ती है. तनावमुक्ति के लिए फिर खूब पार्टियों का आयोजन होता है. शादी के बाद हमें भी सप्ताह में 1-2 ऐसी पार्टियों में शामिल होना पड़ता.

इन पार्टियों में खूबसूरत स्त्रियों की भरमार होती. उन से सामना होते ही सुमित का व्यक्तित्व बदल जाता. बातबात में वे चुटकुले और शेर सुनाते. उन की लच्छेदार बातें किसी भी हसीना की प्रशंसा कर उसे सातवें आसमान पर चढ़ा देतीं. वे जहां होते, वहां हंसनेहंसाने का माहौल आसानी से बन जाता.

ऐसे अवसरों पर मुझ जैसी नई दुलहन की मन:स्थिति का अंदाजा लगाना कठिन नहीं. मैं अपने को उपेक्षित व असुरक्षित सा महसूस करती. नकली मुसकराहट जब मेरे चेहरे की मांसपेशियों को थका देती, तो मेरा चेहरा लटक जाता.

देरसवेर उन्हें मेरी परेशानी या नाराजगी का एहसास हो ही जाता. पहले तो वे बड़े स्टाइल से हैरानी प्रकट करते, फिर माथे पर बल डाल कर नाराजगी भरे कुछ वाक्य मुंह से निकाल कर मुझे डांटतेडपटते.

जब मेरी आंखों में आंसू छलक आते तो बड़े प्यार से वे मुझे समझाते, ‘‘सपना डार्लिंग, मुझ पर शक करने की अपनी गलत आदत का गला घोंट दो. सिर्फ तुम मेरे दिल की रानी थी, हो और रहोगी. तुम्हारा व्यवहार मेरे दिल को बड़ी ठेस पहुंचाता है.’’

‘‘आप के दिलफेंक व्यवहार के कारण सब स्त्रियां मुझ पर हंसती हैं. मेरी खिल्ली उड़वाना, सब की नजरों में मुझे गिराना क्या आप को अच्छा लगता है?’’ कभी गुस्से से, तो कभी आंखों में आंसू ला कर मैं उन से अपने दिल की बात कहती.

‘‘लोगों की फिक्र छोड़ो और मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलो, सपना डियर. मेरा स्वभाव हंसनेहंसाने का जरूर है, पर मेरी नीयत में खोट नहीं. मेरे साथ मस्त हो कर जिओ, जानेमन.’’

उन की ऐसी बातें सुन कर मैं खुद को ही अपराधी सा महसूस करती. कोशिश कर के जल्द ही मैं ने अपने स्वभाव को बदल लिया. उन्हें हसीनाओं से खुल कर हंसतेबोलते देख मैं मन ही मन बेचैन हो लेती, पर मुंह से शिकायत करना या उन से नाराज नजर आना मैं ने बिलकुल छोड़ दिया.

फिर शादी के करीब 5 महीने बाद माधवी मुझ से मिलने मेरे घर आई और सुमित के कमजोर चरित्र की सचाई मेरे सामने उजागर हो गई.

तबीयत ठीक न होने के कारण सुमित के एक दोस्त की बरात में मैं शामिल नहीं हुई. मेरे साथ कालेज में पढ़ी मेरी अच्छी सहेली माधवी उस दोस्त की ममेरी बहन थी.

चुलबुली और हंसमुख माधवी बरात में खूब नाची. वहां सुमित ने लगातार उस का साथ दिया. सिर्फ 1 घंटे के अंदर उन की आपस में अच्छी जानपहचान हो गई.

माधवी ने मुझे बताया, ‘‘सपना, तेरे पति की शक्ल मुझे शुरू से ही जानीपहचानी सी लगी थी. सिर्फ यह ध्यान नहीं आया कि वे तेरे पति हैं. जब बाद में मुझे सुमित और तेरे रिश्ते का पता चला, तब तक देर हो चुकी थी.’’

‘‘कैसी देर हो चुकी थी? क्या मतलब है तुम्हारा?’’ मैं फौरन उलझन और बेचैनी का शिकार हो गई.

‘‘सपना, बरात में नाचते हुए हम खूब हंसबोल रहे थे. मुझे लगा कि सुमित अविवाहित है. उस की आंखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव देख कर मैं खुश हुई थी.

‘‘बाद में वरमाला के समय भीड़ का फायदा उठा कर सुमित ने अचानक मेरा हाथ पकड़ा और फुसफुसाया कि तुम बहुत सुंदर हो, माधवी. मुझ से दोस्ती करोगी?

‘‘मैं ने हाथ छुड़ाया और उस से दूर हट गई, लेकिन मेरे मन में बड़ी गुदगुदी हो रही थी. फिर मैं ने पूछताछ की, तो पाया कि मुझ पर लाइन मारने वाले साहब न सिर्फ शादीशुदा हैं, बल्कि मेरी पक्की सहेली के जीवनसाथी हैं.

‘‘तब मुझे तेरे सुमित पर बहुत गुस्सा आया था… और अभी भी आ रहा है,’’ कुछ विस्तार से पिछली रात की घटना का विवरण बताते हुए माधवी का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा था.

सुमित की कारस्तानी जान कर मुझे भी बड़ा गुस्सा आया. साथ ही खुद को शर्मिंदा भी महसूस किया. अचानक ही मेरी आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘यों कमजोर पड़ कर दुखी मत हो, सपना,’’ माधवी की आवाज कठोर हो गई, ‘‘अपने दिल की बात मुझ से खुल कर कह. तुम जैसी सुंदर, सुघड़ पत्नी को पा कर भी सुमित क्यों दूसरी लड़कियों के पीछे भागता है? क्या वह तुम से प्रेम नहीं करता?’’

‘‘अब तक तो वह धोखेबाज इंसान मुझे ही अपने दिल की रानी बताता था, माधवी,’’ मेरी आवाज बेहद कड़वी हो गई, ‘‘शुरू में मैं शोर मचाती थी कि सुंदर लड़कियों के पीछे मत भागो, तो मुझे गलत बता कर कठघरे में खड़ा कर देते थे वे. तेरे मुंह से उन की असलियत जान कर मेरा दिल कह रहा है कि… या मैं उन्हें तलाक दे दूं या उन का मुंह नोच लूं.’’

‘‘तलाक लेने की बात तो तू मत कर, सपना, पर तेरे पति को सबक तो सिखाना ही पड़ेगा,’’ माधवी का चेहरा तमतमा उठा.

‘‘डांटफटकार या आंसू बहाने से वे रास्ते पर नहीं आने वाले हैं, माधवी.’’ ‘‘मैं समझती हूं इस बात को, लेकिन हम सुमित को ऐसा जबरदस्त झटका देंगे कि उस के पैरों तले से जमीन खिसक जाएगी. भविष्य में किसी लड़की पर लाइन मारने से वे हमेशा के लिए तोबा न कर लें, तो मेरा नाम बदल देना.’’

‘‘उन्हें सीधे रास्ते पर लाने का कोई प्लान है तेरे पास?’’

परवरिश- भाग 2: मानसी और सुजाता में से किसकी सही थी परवरिश

आखिर दीदी ने अक्षत का रिश्ता तय कर ही दिया. अक्षत के विवाह की तैयारियां होने लगीं. विवाह हुआ, सुंदर, सलोनी सी बहू घर आई तो सभी खुश थे कि आखिर दीदी ने अपने बच्चों की लाइफ सेटल कर ही दी.

मेरा राहुल, अक्षत से डेढ़ साल ही छोटा है. उस के नौकरी पर लगते ही मैं ने भी शादी के लिए उस के दिमाग के पेंच कसने शुरू कर दिए, ‘अभी कैसे शादी कर सकता हूं मम्मी…पैसे भी तो चाहिए, इतने कम में कैसे गुजारा होगा.’ उस का जवाब सुन कर  मैं हतप्रभ रह गई. आखिर प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत मेरे बेटे के पास गृहस्थी बसाने के लिए पैसे कब होंगे?

नौकरी पर लग जाने के बाद भी मेरे बेटे व मुझ में किसी न किसी बात पर ठन ही जाती. जब घर आता तब आने के कुछ दिन तक और जाने के कुछ दिन पहले तक हमारे बीच में कुछ ठीक रहता. बाकी दिन किसी न किसी कारण से हम मांबेटे के बीच अनबन चलती रहती. शादी के लिए हां बोलने में भी उस ने मुझे बहुत परेशान किया.

उस के पापा ने एक दिन उसे खूब जोर की डांट लगा दी, ‘राहुल, यदि तुम अभी शादी के लिए हां नहीं बोलोगे तो तुम्हारी शादी करने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं, तब तुम खुद ही कर लेना…बच्चों की शादी करना मातापिता की जिम्मेदारी है और हम तुम्हारी शादी कर के अपनी जिम्मेदारी से फारिग होना चाहते हैं.’

तब जा कर उस ने मौन स्वीकृति दी और रहस्योद्घाटन किया कि उसे एक लड़की पसंद है और वह उसी से शादी करेगा. उस के रहस्योद्घाटन से बचीखुची आशा भी टूट गई. ऐसे लगा जैसे बेटे ने हम से मांबाप होने का हक भी छीन लिया. मैं ने कुछ समय तक बेटे से बात भी नहीं की. किसी तरह मौन रह कर मैं अपने दुख पीती रही और खुद को आने वाली परिस्थितियों के लिए तैयार करती रही.

दीदी की बहू को देखती तो दिल में एक हूक सी उठती. काश, राहुल ने भी लड़की ढूंढ़ने का काम मुझ पर छोड़ा होता. छांट कर खानदानी बहू ढूंढ़ती. आखिर रिश्तेदारी भी कोई चीज होती है. संबंधी भी तो अच्छे होने चाहिए. मातापिता अच्छे होते हैं तभी तो लड़की में अच्छे संस्कार आते हैं.

लेकिन जब राहुल से कहा तो तुरंत  जवाब मिल गया, ‘ये पुराने जमाने की घिसीपिटी बातें मत करो मुझ से. जिस लड़की से हम थोड़ी देर के लिए मिलते हैं उस के बारे में हम क्या जानते हैं और जिस को मैं ने पसंद किया है उसे मैं पिछले 4 साल से जानता हूं. नियोनिका अच्छी लड़की है मां और वैसे भी, परिवार और बीवी में संतुलन रखने का काम तो लड़के का है, और वह मुझे अच्छी तरह से आता है.’

दिल किया कि कहूं, तू तो मां और अपने बीच ही संतुलन नहीं रख पाया, कितनी लड़ाई करता है. अब बीवी और परिवार के बीच तू क्या संतुलन रखेगा? फिर भी उस तुनकमिजाज लड़के से ऐसी गंभीर बात सुन कर कुछ अच्छा सा लगा.

उधर, बहू के आने के बाद दीदी व्यस्त हो गईं. उन के उत्साह की कोई सीमा नहीं थी. हम सभी खुश थे. जीजाजी के जाने के बाद उदासी व गम में डूबी दीदी को जिंदगी जीने का खूबसूरत बहाना मिल गया था. लेकिन कुछ समय बाद ही उन का उत्साह कुछ कम होने लगा. फोन पर भी उन की बातें गमगीन होने लगीं. उत्साह की जगह चुप्पी व उच्छ्वासों ने ले ली. मैं बहू के बारे में कोई बात करती तो अकसर टाल जातीं. जिस बेटे की तारीफ करते दीदी की जबान नहीं थकती थी, उस के बारे में बात करने पर दीदी अकसर टाल जातीं.

मुझे कारण समझ में नहीं आ रहा था. बेटा तो दीदी का हमेशा से ही आज्ञाकारी था. बहू भी ठीक ही लगती थी. मिलना ही कितना होता था उस से. फिर भी जितना देखा चुलबुली सी लगी थी. पता नहीं दीदी को क्या दुख खाए जा रहा है. जीजाजी के जाने का दुख तो खैर अपनी जगह पर है ही. पर 2 साल हो गए हैं उन को गए हुए. दीदी कभी इतनी गमगीन नहीं दिखीं.

इन से कहा तो बोले, ‘तुम दीदी को उन के हाल पर छोड़ दो, उन का अब एक परिवार है, तुम बेकार बात में अपनी टांग मत अड़ाओ. दीदी को हमेशा अपनी मर्जी की आदत रही है. अब बहू आ गई है, बेटेबहू की अपनी जिंदगी है, हो सकता है अब उन्हें अकेलापन महसूस हो रहा हो?’

हो सकता है यही कारण हो. मैं ने अपने मन को समझा लिया, हो सकता है बहू के आने से थोड़ाबहुत अनदेखा महसूस कर रही हों. मेरे बेटे ने तो लड़की पसंद कर ही ली थी, ना की गुंजाइश ही कहां थी. मैं भी अपना मन पक्का कर शादी की तैयारियों में जुट गई. शादी की तैयारी करतेकरते उदासी का स्थान आखिर उत्साह ने ले ही लिया, मैं भी भूल गई कि बेटा अपनी मर्जी से ब्याह कर रहा है.

शादी में दीदी भी परिवार सहित आईं. दीदी की बहू में अब नई बहू का सा छुईमुईपन नहीं था. आखिर वह भी अब 1 साल के बेटे की मां बन चुकी थी. अक्षत भी पहले की तरह मां की हां में हां मिलाते नहीं दिखा, बल्कि मां से बातबात पर टोकाटाकी करता व तिरस्कार करता सा दिखा. मुझे आश्चर्य व दुख हुआ, जब बेटा ही मां से इस भाषा में बात करता है, मां की कमियां गिनाता रहता है तो बहू से क्या उम्मीद कर सकते हैं.

मुझे अपनी भी चिंता हो आई. मेरा बेटा तो हमेशा लड़ाई में ही बात करता है. अब बहू के सामने भी ऐसे ही बोलेगा तो दूसरी जाति की वह अनजानी लड़की, जिस का मैं ने इस घर में आने का विरोध भी किया था, मेरी क्या इज्जत करेगी? सासससुर को क्या मानेगी?

खैर, विवाह संपन्न हुआ और मेरे बेटेबहू हनीमून पर चले गए. दीदी 1-2 दिन रुकना भी चाह रही थीं पर अक्षत बिलकुल नहीं माना, शायद उस को अपने 1 साल के बच्चे की देखभाल की चिंता थी. मैं ने भी बहुत कहा पर अक्षत का रवैया तो हमारे प्रति भी पराया सा हो गया था.

‘दीदी, राहुल और नियोनिका हनीमून से लौट आएं तब मैं आऊंगी इस बार आप के पास…’

‘अच्छा…’ दीदी खास उत्साहित नहीं दिखीं. मेरे कुछ दिन शादी के बाद के कार्य निबटाने में बीत गए. लगभग 10 दिन बाद राहुल और नियोनिका वापस आ गए. घर आ कर भी वे अत्यधिक व्यस्त थे. आएदिन कोई न कोई उन को डिनर और लंच पर बुला लेता. उस के बाद थोडे़ दिन के लिए नियोनिका मायके चली गई और राहुल को भी मैं ने ठेलठाल कर उस के साथ भेज दिया. यही सही समय था. मैं ने इन को मुश्किल से मनाया और 2-4 दिन के लिए दीदी के पास चली गई.

अक्षत और उस की पत्नी ने मुझे खास तवज्जो नहीं दी. लगता था जैसे पहले वाला अक्षत कहीं खो गया है. दीदी अलबत्ता खुश हो गईं. इस बार मैं ने दीदी को पकड़ ही लिया.

‘दीदी, मुझे सच बताओ…क्या गम खाए जा रहा है आप को, आधी भी नहीं रह गई हो. चेहरा तो देखो अपना,’ मैं बोली.

‘कुछ नहीं…’ दीदी की आंखें भर आईं.

‘कुछ तो है, दीदी, मुझे भी नहीं बताओगी तो किसे बताओगी?’ दीदी चुप आंसू पोंछती  रहीं. मैं उन का हाथ सहलाने लगी, ‘बोलो न, दीदी.’

‘पता नहीं सुजाता, अक्षत को क्या हो गया है. बातबात पर मुझे टोकता है, मुझ पर चिल्लाता है. यों तो बात ही नहीं करता और जब बात करता है तो कड़वा ही बोलता है. बहू तो तीखी है ही, पलट कर जवाब देना उस का स्वभाव ही है…पर अक्षत भी हमेशा उस का साथ देता है. उसे मुझ में कमियां दिखाई देती हैं. कैसे दिन बिताऊं इन दोनों के साथ? मेरे सामने जोर से भी न हंसने वाला मेरा बेटा, जिस ने कभी मुझ से अलग जाने की हिम्मत नहीं की थी, आज मुझ पर अपनी बीवी के सामने इतनी जोर से चिल्लाता है कि सहन नहीं होता,’ दीदी फफकफफक कर रोने लगीं.

‘पर ऐसा क्यों करता है अक्षत?’

‘पता नहीं, पुरानीपुरानी बातें याद करकर के मुझ पर दहाड़ता रहता है. पढ़ने वाले बच्चों पर तो बंधन सभी लगाते हैं सुजाता, मैं ने क्या गलत किया?’

परवरिश- भाग 1: मानसी और सुजाता में से किसकी सही थी परवरिश

मानसी दीदी की चिट्ठी मिलते ही मैं एक ही सांस में पूरी चिट्ठी पढ़ गई. चिट्ठी पढ़ कर दो बूंद आंसू मेरे गालों पर लुढ़क गए. मानसी दीदी के हिस्से में भी कभी सुख नहीं रहा. कुछ दुख उन्हें उन के हिस्से के मिले, कुछ कर्मों से और कुछ स्वभाव से. इन तीनों में से कुछ भी यदि उन का ठीक होता तो शायद उन्हें इतने दुख नहीं भुगतने पड़ते. दीदी के बारे में सोचती मैं अतीत में खो सी गई.

हम दोनों बहनें मातापिता की लाड़ली थीं. पिता ने हमें ही बेटा मान हमारे लालनपालन व शिक्षादीक्षा में कोई कमी नहीं रखी. दीदी सुंदरता में मां पर व स्वभाव से पापा पर गई थीं. वह दबंग व उग्र स्वभाव की थीं. वह दूसरे के अनुसार ढलने के बजाय दूसरे को अपने अनुसार ढालने में विश्वास रखती थीं. परिस्थितियों के अनुसार ढलने के बजाय परिस्थितियों को अपने अनुसार ढाल लेती थीं. यह उन का स्वभाव भी था और इस की उन में क्षमता भी थी.

इस के विपरीत मेरा स्वभाव मां पर व शक्लसूरत पापा पर गई थी. मैं देखने में ठीकठाक थी. शालीन व लुभावना सा व्यक्तित्व था. हर एक के साथ समझौता करने वाला लगभग शांत स्वभाव था. जब तक बहुत परेशानी न हो तब तक मैं खुश ही रहती थी. हर तरह की परिस्थिति के साथ समझौता करना जानती थी. मेरे स्वभाव में दबंगता तो नहीं थी पर मैं दब्बू स्वभाव की भी नहीं थी.

दीदी का दबंग स्वभाव सब को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता. जो करे उन की मन की करे. जो उन को ठीक लगे वह करे. विवाह के बाद भी पति व बच्चों पर उन का ही शासन रहा. यहां तक कि सासससुर ने भी उन की ही सुनी. किसी की क्या मजाल कि कोई उन की इच्छा के विपरीत घर में कुछ कर दे.

‘दीदी, इतना मत दबाया करो सब को, बच्चों पर इतनी अधिक बंदिश रखना ठीक नहीं है…’ मैं अकसर दीदी को समझाने का प्रयास करती.

‘तू अपनी समझ अपने पास रख…जैसे तू ने खुल्ला छोड़ा हुआ है बच्चों को…मेरे दोनों बच्चे, मजाल है मेरे सामने जोर से हंस भी दें…कितने आज्ञाकारी बच्चे हैं…मेरे ही नियंत्रण का फल है…वरना इन के पापा तो इन को बिगाड़ कर रख देते,’ दीदी बडे़ गर्व से कहतीं.

‘दीदी, आप के बच्चे आज्ञाकारी नहीं बल्कि डरते हैं आप से. आज्ञा प्यार से मानें बच्चे, तब तो ठीक लेकिन यदि वे डर कर मानें, तो जिस दिन वे आत्मनिर्भर हो जाएंगे आप की सुनेंगे भी नहीं,’ मैं दलील देती तो दीदी मुझे जोर से झिड़क देतीं.

दीदी के इस दबंग रूप को अगर सकारात्मक पहलू से देखा जाए तो पूरी गृहस्थी का भार उन के ही कंधों पर था. जीजाजी अकसर बीमार रहते थे. उन्हें दिल की बीमारी थी. किसी तरह वह नौकरी कर लेते थे बस, बाकी समस्याएं दीदी के जिम्मे थीं.

दीदी हिम्मत वाली थीं. हर मुश्किल का सामना वह किसी तरह कर लेती थीं. इसीलिए जीजाजी बीमार होने के बावजूद थोड़ा जी गए, लेकिन बीमार दिल के साथ आखिर वह कितने दिन जी पाते. एक दिन परिवार को आधाअधूरा छोड़ वह इस दुनिया से कूच कर गए. दीदी की हिम्मत ने परिवार की पतवार फिर से चलानी शुरू कर दी. उन्होंने बेटी की पढ़ाई छुड़वा कर उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया.

‘दीदी, आमना पढ़ने में तेज है, उस की इतनी जल्दी शादी क्यों कर रही हो…उसे पढ़ने दो,’ मैं बोली.

‘तू अपनी गृहस्थी के बारे में सोच, सुजाता. मेरी बेटी मेरी जिम्मेदारी है,’ उन्होंने मुझे दोटूक जवाब दे दिया. दीदी न किसी की सुनती थीं, न किसी की मानती थीं. आमना भी बहुत रोई, गिड़गिड़ाई, बेटे ने भी बहुत कहा पर दीदी ने बी.काम. खत्म करते ही उस का विवाह कर दिया.

अपनी सफलता पर दीदी बहुत खुश थीं कि उन्होंने अकेले होते हुए भी बेटी का विवाह कर दिया और बेटी ने चूं भी नहीं की. आमना को खुश देख कर मैं ने भी अपने दिल को समझा लिया. हालांकि उस के सपनों की कोंपलों को झुलसते हुए मैं ने साफ महसूस किया था.

दीदी कभीकभी बच्चों के साथ हमारे घर रहने आ जाती थीं. उन का बेटा अक्षत इतना आज्ञाकारी था कि उन दिनों मुझे अपना राहुल कुछ ज्यादा ही बिगड़ा हुआ और उद्दंड दिखाई देता. उन दोनों मांबेटे में मैंने कभी बहस होते नहीं देखी. मांबेटे के बीच झगड़ा तो दूर की बात थी, जबकि मेरे और मेरे बेटे के बीच बिना कारण हमेशा ठनी ही रहती. मेरे बेटे को मुझ में कमी ही कमी दिखाई देती.

दीदी अकसर मुझे टोकतीं, ‘तू राहुल पर थोड़ी सख्ती रखा कर सुजाता, अभी से ऐसा लड़ता है तुझ से तो बड़ा हो कर क्या करेगा? तेरी जगह पर मैं होती तो थप्पड़ लगा देती.’

‘इतने बड़े बच्चे थप्पड़ से कहां काबू होते हैं, दीदी…किशोरावस्था से गुजर रहे हैं बच्चे इस समय, थोड़ीबहुत समस्याएं तो होती ही हैं उन के साथ इस दौर में,’ मैं दीदी से बात करते हुए बीच का रास्ता अपनाती.

‘नहीं, जैसे हम तो इस दौर से कभी गुजरे ही नहीं थे,’ दीदी तुनक कर कहतीं. मैं कैसे कहती कि मैं ने तो मां के साथ झगड़ा नहीं भी किया होगा पर तुम तो हमेशा झगड़ती थीं.

दीदी के बेटे अक्षत ने इंजीनियरिंग के बाद एम.बी.ए. किया और प्रतिष्ठित कंपनी में उसे जौब मिल गई. दीदी बहुत खुश थीं. उन को देख कर हम सभी खुश थे. अक्षत को देख कर दिल खुश हो जाता. अक्षत खूबसूरत, स्मार्ट, आज्ञाकारी, नम्र स्वभाव का प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत युवक था. उसे देख कर कोई भी रश्क कर सकता था. एक से एक लड़कियों के रिश्ते उस के लिए आते. दीदी खुद ही सब जगह बात करतीं.

दीदी से कई बार कहा भी मैं ने, ‘दीदी हर किसी पर अंधा भरोसा मत किया करो…जिस ने भी रिश्ता बताया, आप सोचती हो अक्षत पसंद कर ले…बस, हां बोल दे.’

‘तो और क्या देखना है, सबकुछ तो बायोडाटा में लिखा रहता है. शक्ल अक्षत देख ही लेता है, मैं अधिक प्रपंच में नहीं पड़ती.’

आखिर दीदी ने अक्षत का रिश्ता तय कर ही दिया. अक्षत के विवाह की तैयारियां होने लगीं. विवाह हुआ, सुंदर, सलोनी सी बहू घर आई तो सभी खुश थे कि आखिर दीदी ने अपने बच्चों की लाइफ सेटल कर ही दी.

मेरा राहुल, अक्षत से डेढ़ साल ही छोटा है. उस के नौकरी पर लगते ही मैं ने भी शादी के लिए उस के दिमाग के पेंच कसने शुरू कर दिए, ‘अभी कैसे शादी कर सकता हूं मम्मी…पैसे भी तो चाहिए, इतने कम में कैसे गुजारा होगा.’ उस का जवाब सुन कर  मैं हतप्रभ रह गई. आखिर प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत मेरे बेटे के पास गृहस्थी बसाने के लिए पैसे कब होंगे?

भाभी- भाग 3: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

आप के भैया के लाख मना करने पर भी मैं ने आप को ऐबी बना दिया है… आप के पतन की दोषी मैं ही हूं…आप कहीं नहीं जाएंगे, जाना ही होगा तो मैं जाऊंगी,’’ कह कर उन्होंने अटैची से मेरे कपड़े निकाल कर हैंगर में डाल अलमारी में लटका दिए और पुस्तकें मेज पर लगा दीं.

‘‘किस अधिकार से आप मुझे रोक रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अधिकार की बात मत कीजिए, मैं नहीं जानती कि अधिकार किसे कहते हैं, बस आप कहीं नहीं जाएंगे, कह दिया सो कह दिया, कोई मेरी बात टाले, मुझे बरदाश्त नहीं.’’

‘‘सौमित्र और राघव की हुक्मउदूली तो आप बरदाश्त कर लेंगी,’’ सुनते ही उन्होंने मेरे मुंह पर तड़ातड़ चांटे बरसाने शुरू कर दिए. बदहवास सी सौमित्र… राघव… सौमित्र… राघव…चीखे जा रही थीं और मेरे मुंह पर थप्पड़ पर थप्पड़ मारे जा रही थीं. मैं हाथ पीछे बांधे मूर्तिवत खड़ा थप्पड़ खाता रहा और फिर मैं ने उन की कोली भर ली और उन के मुंह को दोनों हथेलियों के बीच ले कर उन से आंखें मिलाते हुए कहा, ‘‘मां, मुझे माफ कर दे, मैं ने तो कभी की सिगरेट पीनी छोड़ दी है. देखो, ये रहे सारे रुपए,’’ और मैं ने अपने बैड के नीचे रखे सौसौ के नोटों की ओर इशारा किया. फिर फफकफफक कर रो पड़ा.

उन्होंने मुझे कस कर अपनी छाती से लगा लिया. कुछ देर वे यों ही खड़ी रहीं, फिर साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘ठीक है, मैं एक बार फिर विश्वास कर लेती हूं,’’ कह कर वे जाने लगीं.

मैंने उन का हाथ पकड़ कर उन्हें रोका और बोला, ‘‘भाभी मां, मैं वादा करता हूं कि अब कोई गलती नहीं करूंगा.’’

‘‘ठीक है, ठीक है,’’ कह कर वे चली गईं.

‘‘और यह उसी का फल है बेला कि मैं आज इस रूप में तुम्हारे सामने हूं.’’

बेला बोली, ‘‘खैर छोडि़ए, अब सुधरे हुए हैं तो क्या हुआ, हैं तो आप ऐक्सऐबी,’’ और मुसकराते हुए जातेजाते कह गई, ‘‘आप आज ही चले जाइए भाभी से मिलने.’’

‘‘तुम भी चलो.’’

‘‘नहीं, शायद वे तुम से कोई प्राइवेट बात करना चाहती हों, मेरी उपस्थिति शायद उन्हें अच्छी न लगे. आप अकेले ही जाइए.’’

‘‘ठीक है, मैं अकेला ही जाता हूं, ड्राइवर को आज छुट्टी दे दो.’’

बेला बोली, ‘‘उसे भी साथ ले जाते तो क्या बुराई थी? कोई साथ में हो तो अच्छा है.’’

‘‘अरी, यह रहा आगरा, दोढाई घंटे का ही तो सफर है.’’

थोड़ी देर बाद तैयार हो कर मैं आगरा के लिए निकल पड़ा और 3 बजे आगरा पहुंच गया. कोठी के गेट में घुसते ही देखा कि भाभी सामने ही लौन में कुरसी पर बैठी हैं.

मुझे देखते ही वे खिल उठीं, ‘‘आ गए गौरव.’’

‘‘हां भाभी,’’ कहते हुए मैं ने उन्हें प्रणाम किया.

‘‘अकेले ही चले आए हो, बेला को भी ले आते.’’

मैं ने कहा, ‘‘उसे कुछ जरूरी काम था.

मैं जल्दी में चला आया इसलिए कि ऐसी क्या बात है, जो आप ने बुलाया है और कारण भी नहीं बताया. सब ठीक तो है?’’

‘‘हां, यहां सब ठीकठाक है, कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘बात तो कुछ जरूर है भाभी, वरना आप इतनी जल्दी फोन छोड़ने वाली कहां थीं? बताइए क्या बात है?’’

‘‘अरे दम तो ले, चायपानी पी, फिर बैठ कर आराम से बातें करेंगे,’’ कह कर भाभी ने नौकर को आवाज लगाई, ‘‘अरे रामू.’’

रामू भागता हुआ आया और बोला, ‘‘कहिए बीबीजी.’’

‘‘जा, 2 कप चाय बना ला.’’

चाय पीतेपीते कुछ देर बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसी हो भाभी?’’

‘‘यों तो सब ठीकठाक है गौरव, पर यहां अब मन नहीं लगता, मुझे अपने साथ दिल्ली ले चल.’’

‘‘इस में क्या मुझे किसी की आज्ञा लेनी होगी? जब चाहिए चलिए,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां आज्ञा लेनी होगी, बेला की,’’

वे बोलीं.

‘‘कैसी बात करती हो भाभी, आप को साथ ले चलने के लिए बेला की आज्ञा? बेला कौन होती है आज्ञा देने वाली? नहीं भाभी नहीं, अपने इस बेटे पर तुम्हारा कितना अधिकार है, यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा? पर बताओ तो सही कि बात क्या है? सौमित्र, राघव, दोनों बहुएं क्या नाराज चल रहे हैं? किसी ने कुछ कहा है आप से?’’

‘‘मुझे कुछ कहने की हिम्मत कौन करेगा? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, बस मन नहीं लगता. अब मेरा दम घुटता है यहां,’’ कह कर वे कुछ उदास सी हो गईं.

‘‘भाभी, साफसाफ बताओ न? कुछ बात तो जरूर है.’’

‘‘समझो तो बहुत कुछ है, न समझो तो कुछ भी नहीं. बस यों समझ ले, बहूबेटों के रंगढंग मुझे अच्छे नहीं लगते. मुझे लगता है कि ये बहुएं तुम्हारे भैया की इज्जत खाक में मिलाने पर तुली हुई हैं. इन की चालढाल, इन का रंगढंग, इन का लाइफस्टाइल मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’’

मुझे इस के अतिरिक्त कोई और कारण नहीं दिखाई दे रहा था, भाभी की परेशानी का. मैं पहले ही जानता था, हो न हो वही सासबहू का, मांबेटे का पारंपरिक तनाव है.

थोड़ी देर बाद भाभी फिर बोलीं, ‘‘गौरव, अब सहन नहीं होती मुझ से बहुओं की यह चालढाल… सौमित्र और राघव तो जोरू के पक्के गुलाम बन गए हैं… दब्बू कहीं के, उन के ही रंग में रंग गए हैं, जन्म से जवानी तक चढ़ा हुआ मां का रंग इतना कच्चा पड़ गया कि बहुओं के आते ही उतर गया? अरे, मैं तो इन से बड़े खानदान की थी, पढ़ीलिखी भी इन से कम नहीं हूं, इन से हर बात में आगे हूं. चलो और कुछ न सही, इन की सास तो हूं, यह सब कुछ मेरा ही तो है, फिर भी…’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं समझ तो रहा हूं, पर यह भी जानता हूं भाभी, मेरे कहे को उपदेश मत समझना, यह भी मत समझना कि मैं तुम्हें बोझ समझ कर टालना चाहता हूं, मैं मानता हूं भाभी कि तुम प्रसन्न नहीं हो, परेशान हो, पर क्या तुम सुख खोजने का अपना दृष्टिकोण नहीं बदल सकतीं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह भाभी कि सुख तो हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा है, उसे बीनने और संजो कर रखने का ढंग बदल दो तो तुम्हारी झोली में सुख ही सुख होगा. स्पष्ट कहूं, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी रुचि बेटेबहुओं के दोष ढूंढ़ने तक ही सीमित हो गई हो, अच्छाई देखने की इच्छा ही नहीं हो?’’

‘‘अरे, तू तो मुझे उपदेश ही देने बैठ गया,’’ इतना ही कह पाई थीं कि मैं बोल उठा, ‘‘देखो भाभी, मुझे तुम से यह आशा कदापि नहीं है कि तुम अपने गौरव को उपदेश झाड़ने वाला समझोगी. मैं ने कभी तुम से कुछ नहीं छिपाया, अपने मन की बात सदा ही साफसाफ करता रहा हूं, आज भी मैं तुम से उसी रूप में अपने मन की बात कह रहा हूं. जरूरी तो नहीं कि मेरे मन में आई हर बात सही हो, मैं गलत भी हो सकता हूं, बिना किसी लागलपेट के मैं ने अपने मन की बात आप से कह दी, आप प्लीज अन्यथा न लें.’’

इस पर वे बोलीं, ‘‘तू बता गौरव, बहुएं जींस पहन कर बाहर निकलें, यह गलत नहीं तो और क्या है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बड़े भैया की बड़ी बेटी एम.ए.कर रही है, कालेज जींस पहन कर जाती है या नहीं?’’

‘‘जाती तो है, पर वह तो बेटी है.’’

‘‘बस, यही तो गड़बड़ है भाभी, बहुएं क्या तुम्हारी बेटियां नहीं?’’

‘‘जो कुछ भी हो, पर बेटीबहू में अंतर तो रहता ही है, बहुएं बड़ेबूढ़ों का इतना भी लिहाज न करें कि उन्हें देख कर तिनके की ओट जितना परदा कर लें?’’

‘‘और बेटी भले ही नौजवान लड़कों के साथ बेलिहाज घूमती फिरे?’’ मैं ने कहा, ‘‘यह तो भाभी एक कोल्डवार है, न जाने कब से जारी है, इस का अंत होता नजर नहीं आता. सास, मां नहीं बन सकती और बहू, बेटी. इस में मैं आप को दोषी नहीं ठहराता, कदाचित आप ठीक कह रही हैं,’’ मैं ने मन ही मन सोचा कि कहीं मैं यह भाभी के डर से तो नहीं कह गया. पर मैं डर जरूर रहा था कि कहीं वे मेरी बात को अन्यथा न ले लें.

वही हुआ, वे बोलीं, ‘‘अरे, तू तो वाकई मुझे उपदेश झाड़ने लगा. लगता है अब तू बड़ा हो गया है, मुझे उपदेश देने लगा.’’

‘‘वही हुआ न भाभी, जिस का मुझे अंदेशा था. निश्छल बात मैं ने आप से कही तो आप बुरा मान गईं, सौरी. सोचता हूं आप ठीक कहती हैं- एक दिन में ही बेटा, मां का न हो कर बहू का हो जाए, तो गलत तो है ही,’’ और मैं चुप हो गया.

अजीब दास्तान- भाग 1: क्या हुआ था वासन और लीना के साथ

कुछ महीनों से लीना महसूस कर रही थी कि उस का पति वासन कुछ बदल सा गया है. पहले, हफ्ते में 2 दिन टूर करता था पर अब हफ्ते में 5 दिन बाहर रहता था.

पूछने पर बोलता कि तुम और बच्चे इतना आरामदायक जीवन जी रहे हो, उस के लिए मु झे अधिक काम करना पड़ रहा है. लीना उसे सच मान लेती क्योंकि उसे वासन पर पूरा विश्वास था. टूर से जब वासन वापस आता तो बच्चों के लिए ढेरों उपहार और उस के लिए 2-4 सुंदरसुंदर साडि़यां लाता. उपहार देते समय वासन अपना मनपसंद वाक्य बोलना न भूलता, ‘आई लव माई फैमिली’. ऐसे में वासन पर शक करने की कोई गुुंजाइश ही नहीं थी.

पर आज जब मंगला ने कालेज से वापस घर आ कर पूछा, ‘‘आजकल डैडी का कोई और घर भी है क्या? मेरी एक सहेली ने मु झे आज बताया कि मेरे डैडी कोडमबक्कम में रहते हैं. मैं उस सहेली से लड़ बैठी पर वह अपनी बात की इतनी पक्की थी कि मैं चुप हो गई. अब मैं आप से पूछ रही हूं कि क्या यह सच है?’’

मंगला की इन बातों ने लीना को  झक झोर दिया. लीना तो जैसे नींद से जागी हो. लीना के मन में वासन को ले कर कहीं न कहीं ऐसी बात थी पर वह वासन की प्यारभरी बातों में भूल जाती थी. लेकिन आज यह शक सच में बदलता नजर आ रहा था. वह बोली, ‘‘डैडी घर आएंगे तभी सच का पता चलेगा.’’

‘‘मां, इस से पहले ही हम सचाई का पता लगा सकते हैं. उस सहेली का पता मु झे मालूम है. हम वहां चलते हैं,’’ और दोनों मांबेटी कोडमबक्कम जाने के लिए निकल पड़ीं.

वहां जा कर उस बिल्ंिडग में रहने वाले लोगों के नाम वहां लगे बोर्ड पर पढ़े. वासन का नाम वहां नहीं था. वे लौट आईं.

5 दिन बाद जब वासन वापस आया तो परिवार वालों के लिए ढेरों तोहफे लाया. लीना घर में अकेली थी. बच्चे कालेज गए हुए थे. लीना ने आते ही उसे सामने बिठाया और बोली, ‘‘हम लोगों को कब तक गिफ्ट दे कर बहलाओगे? अब मैं सचाई जानना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सी सचाई?’’

‘‘अब भी भोले बन रहे हो तुम. क्या जानते नहीं हो कि मैं क्या पूछ रही हूं?’’

‘‘हां, मैं सेल्वी के साथ रहता हूं. हम ने अलग फ्लैट लिया हुआ है. पर यह भी सच है कि मेरा परिवार तो यही है. आई लव माई फैमिली.’’

इतना सुनते ही लीना स्तब्ध रह गई. वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि वासन सेल्वी के साथ रह रहा है.

सेल्वी उन के सब से करीबी दोस्त राजन की पत्नी

थी. वह भी सेल्वी को बहुत अच्छी तरह से जानती थी.

लीना जानती थी कि राजन और सेल्वी के बीच बहुत  झगड़े होते थे. दोनों की शादी घर वालों ने जबरदस्ती करवाई थी. सेल्वी अपने ही मामा के साथ शादी नहीं करना चाहती थी पर उस की नानी, जो बहुत पैसे वाली थी, अपनी बेटी की बेटी को ही बहू बनाना चाहती थी. उन की जाति में मामा ही पहला उम्मीदवार होता है. बड़ों की जोरजबरदस्ती से विवाह तो हो गया था पर विवाह के बाद सेल्वी का जीवन नारकीय हो गया था. सेल्वी राजन को पति के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर पाई. ऐसे में वासन और लीना ही दोनों के  झगड़े निबटाते थे. इस दौरान वे दोनों कब करीब आ गए, पता ही नहीं चला.

सेल्वी के पति राजन को खबर थी पर वह अपने गम में शराबी बन चुका था. दिनरात शराब पी कर धुत पड़ा रहता था. ऐसे में वासन और सेल्वी ने एक नया आशियाना बना लिया था. दोनों ने एकसाथ रहना शुरू कर दिया था. पिछले 7 महीने से दोनों एकसाथ एक ही फ्लैट में रह रहे थे और वासन अधिक समय सेल्वी के साथ ही गुजारता था. घर में टूर का बहाना बनाना बहुत आसान था. पर आज जब रहस्य खुल ही गया था तो वासन बोला, ‘‘हां, मैं सेल्वी के साथ रहता हूं. उसे मेरी जरूरत है. वह बहुत दुखी है पर मैं ने तुम्हें और बच्चों को तो किसी भी बात की कमी नहीं होने दी है.’’

‘‘पर अब यह सब नहीं चलेगा. तुम्हें आज ही फैसला लेना होगा कि तुम सेल्वी के साथ रहना चाहते हो या हमारे साथ,’’ लीना क्रोध में बोली.

‘‘एक बार फिर सोच लो.’’

‘‘सोच लिया, मु झे अपने बच्चों का भविष्य देखना है. तुम्हारी इस जीवनशैली का जवान होते बच्चों पर क्या असर पड़ेगा? मैं यह सहन नहीं कर सकती.’’

‘‘तो ठीक है, मैं चला जाता हूं,’’ और वासन अपनी अटैची उठा कर घर से बाहर निकल गया.

लीना जोर से चिल्लाई, ‘‘अब कभी वापस मत लौटना, तुम्हारे लिए यहां जगह नहीं है.’’

वासन के जाने के बाद लीना चुप बैठ गई. उस ने स्वयं को कभी भी इतना असहाय नहीं पाया था. वासन को शराब की लत तो बहुत पहले से थी. उस लत को वह किसी प्रकार सहन करती थी. वासन का आधी रात के बाद नशे की हालत में घर लौटना उस ने अपनी आदत में शामिल कर लिया था. पर बच्चों के लिए वह सांताक्लौज जैसा था जो उन्हें उपहारों से लादता रहता था. बच्चों को इस के अलावा वासन से कुछ भी प्राप्त नहीं होता था. उस के पास समय नहीं था बच्चों से बात करने का या उन की कोई समस्या सुल झाने का. वह तो यह भी नहीं जानता था कि बच्चे कौन से कालेज में जाते हैं और क्या पढ़ते हैं. पैसा दे कर ही उस की जिम्मेदारी पूरी हो जाती थी.

ऐसी परिस्थितियों को  झेलते झेलते लीना भी कठोर बन गई थी. वह अब बातबात में रोने वाली लीना नहीं थी. उस ने वासन की इस प्रतिक्रिया को भी सहज रूप से स्वीकार कर लिया था. उस ने मन में निश्चय किया था कि वह वासन को फिर कभी इस घर में वापस नहीं आने देगी. जिस आदमी ने इतनी आसानी से रिश्ता तोड़ लिया हो, ऐसे आदमी के लिए वह न रोएगी और न  झुकेगी.

मंगला और शुभम ने जब डैडी के लिए पूछा तो लीना ने बिना कुछ भी छिपाए सबकुछ बता दिया. वह बोली, ‘‘अब तुम्हारे डैडी यहां कभी नहीं आएंगे. अब वे अलग घर में सेल्वी आंटी के साथ रहते हैं, अब तुम लोग भी उन का नाम इस घर में मेरे सामने कभी नहीं लोगे. उन के बिना हम अच्छी तरह से जीएंगे. तुम लोग अपनी पढ़ाई करो और मेरा सपना पूरा करो. मंगला को डाक्टर बनना है और शुभम को इंजीनियर बनना है.’’

मां की आवाज की दृढ़ता को सुन कर दोनों बच्चे चुप हो गए थे. वे जानते थे कि मां जो भी बोल रही हैं वह ठीक है. अब उन्हें पीछे मुड़ कर नहीं देखना है और मेहनत कर के मां के सपने को पूरा करना है.

एक हफ्ते के अंदर ही वासन वापस आया था. उसे दरवाजे पर देख कर लीना ने उसे अंदर आने को नहीं कहा. वह ही बोला, ‘‘बस, 1 मिनट के लिए तुम से बात करनी है, मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किसी प्रकार की कोई तकलीफ हो या बच्चों की पढ़ाई में कोई कमी आए,’’ इतना कह कर उस ने अपनी प्रौपर्टी के सारे कागजात लीना को सौंप दिए, उस ने अपनी सारी प्रौपर्टी लीना और बच्चों के नाम कर दी थी.

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