मम्मियां: आखिर क्या था उस बच्चे का दर्द- भाग 1

स्कूल वैन का ड्राइवर कनुभाई शायद अपनी नींद पूरी न हो पाने की खी?ा गाड़ी का हौर्न बजाबजा कर उतार रहा था. सुबह के 6 बज कर 10 मिनट हो चुके थे, दांत किटकिटा देने वाली ठंड थी और अंधेरा छंटा नहीं था. किंतु पूर्व में क्षीण लालिमा सूर्य के आने पूर्व सूचना दे रही थी. आकाश गहरा नीला था जिस में चंद्रमा और हलके होते तारे अब भी देखे जा सकते थे.

इतना सुंदर दृश्य और ये हौर्न की कर्कश आवाज, सोचते हुए तनूजा गेट की ओर जाने लगी, तो फिर हौर्न की तेज आवाज कानों में पड़ी. वह वैन के पास पहुंचते ही बोली, ‘‘अरे कनुभाई, क्यों सुबहसुबह इतनी जोरजोर से हौर्न बजा रहे हो? आ रहे हैं बच्चे.’’ ‘‘क्या करूं मैडम. अभी 5 अलगअलग जगहों से बच्चों को लेना है और 7 बजे से पहले उन्हें स्कूल पहुंचना है. नहीं तो मेन गेट बंद हो जाएगा.’’

उस का कहना भी सही था. देर से आने वाले बच्चों को पूरा 1 पीरियड, सजा के तौर पर बाहर ही खड़े रहना पड़ता है. इस से तो बेहतर है कि हौर्न से कर्णभेदी ध्वनि पैदा की जाए जिस से चौंक कर उनींदे बच्चे भी दौड़ें. तनूजा के बच्चे तन्मयी व तनिष्क फुरती से दौड़ कर वैन में बैठ
गए.

‘‘बाय मम्मी.’

‘‘बाय बच्चो, हैव ए नाइस डे.’’

फिर हाथ हिलाते हुए तनूजा वैन के ओ?ाल हो जाने तक वहीं खड़ी रही.

तन्मयी और तनिष्क ने जब से स्कूल जाना शुरू किया है तभी से तनूजा के हरेक दिन का शुभारंभ यहीं से होता है. इस के बाद 45-50 मिनट की मौर्निंग वाक और फिर वापस घर. 6.20 हो गए थे, डीपीएस की स्कूल बस के आने का समय हो गया था.

सामने से शांतिजी आ रहीं थीं, अपने पुत्र का लाल, भारीभरकम बैग दाएं कंधे पर लादे. कमर आगे को इतनी ?ाकी हुई मानो मन भर वजन रखा हो पीठ पर. गले में सामने की ओर टंगी वाटर बौटल और दूसरे हाथ में बेटे बिल्लू का हाथ कस कर पकड़े हुए.

बिल्लू को आप 3-4 साल का मुन्ना राजा सम?ाने की भूल कतई न कीजिएगा. वह 9वीं कक्षा में है और बस 3 माह बाद ही 10वीं में होगा. हलकीहलकी मूंछें आ रही हैं और डीलडौल ऐसा कि बैग सहित अपनी मम्मी को भी उठा ले. किंतु क्या करें, शांतिजी का मातृप्रेम बिल्लू की साइज से कहीं अधिक विशाल है.
वैसे शांतिजी सिर्फ नाम की ही शांति हैं. बोलती तो वे इतना हैं कि पूछिए मत.

बस 2 मिनट के अंतराल पर ही आएंगी उन की परम सखी नमिता अपनी दोनों पुत्रियों को छोड़ने के लिए जो डीपीएस में ही पढ़ती हैं. बड़े प्यारे नाम हैं दोनों के, चंद्रकला और चंद्रलक्ष्मी. नमिताजी पहले ही आ जाती हैं और बस को आता देख पूरी ताकत से अपनी बेटियों का नाम ले कर चिल्लाती हैं कि बस आ गई. मानना पड़ेगा कि दम है उन की आवाज में. नीचे से चौथी मंजिल तक आवाज पहुंच जाती है और छोटे कद की, छोटीछोटी आंखों और बड़े से चेहरे वाली, गोरीगोरी उन की बेटियां नीचे आ जाती हैं.

लेकिन नमिता शांति की तरह अपने बच्चों के बैग लादे नहीं आतीं. सिर्फ वाटर बौटल पकड़े आती हैं. उन की छोटीछोटी आंखों में काजल की गहरी रेखाएं खिंची होती हैं. साथ ही पाउडर की एक पतली परत और विचित्र सी गंध वाला डिओ जिस से पास से गुजरती तनूजा को छींक आने लगती है, तो वह तेज गति से चलने लगती है.

नमिता और शांति की गहरी मित्रता है. बच्चों को बस में बैठा कर वे निकल पड़ती हैं अपनी गप यात्रा पर, जिस के लिए उन्हें मंथर गति से मौर्निंग वाक करनी होती है. समयसमय पर उन की गति मंद से मंदतर होती रहती है.

अब तेज गति से चलेंगी तो बातें पूरी कैसे होंगी 2 राउंड लगाने में? उन्हें ऐडजस्ट भी तो करना है.
कभीकभी उन के वार्तालाप से कुछ शब्द अपने क्षेत्र से बाहर निकल तनूजा के कानों में चले आते. अभी परसों ही शांति नमिता से कह रही थीं, ‘‘हम ने तो बिल्लू के लिए ट्यूशन टीचर के यहां बुकिंग करा दी है, तुम ने करा ली?’’

‘‘बुकिंग उन के पास बुकिंग करानी पड़ती है क्या?’’ नमिता ने अचरज से पूछा. ‘‘और नहीं तो क्या, अब तो भइया बुकिंग सिस्टम है, जब बच्चा 9वीं में हो तभी से 10वीं के ट्यूशन के लिए टीचर के पास बुकिंग करानी
पड़ती है. मैं ने मैथ्स के लिए थौमस सर, साइंस के लिए हांडा मैडम और इंगलिश के लिए गौड़ मैडम के पास बिल्लू के लिए बुकिंग करा ली है,’’ शांतिजी धाराप्रवाह बोल रही थीं.

नमिता थोड़ी हताश लग रही थीं. आखिर कैसे पीछे रह गईं वे शांति से? चंद्रकला बिल्लू की ही कक्षा में थी. इतने में ही नहीं रुकी शांतिजी, ‘‘अब खाली हिंदी और सोशल साइंस का रह गया है, वह भी करा दूंगी. तुम भी चंद्रकला के लिए जल्दी से बुकिंग करा लो वरना सीट नहीं मिलेगी किसी भी ट्यूटर के पास.’’
‘‘हां शांति, आज ही जाऊंगी मैं.’’

ट्यूशन में भी सीट का रोना है सोचते हुए हंसी आ गई थी तनूजा को. यों तो ट्यूशनों से उसे कोई शिकायत नहीं थी, किंतु जिस तीव्र गति से ये ट्यूशनें बच्चों का खेलनेकूदने का समय खाए जा रहीं थीं, उन की कल्पनाशक्ति का विकास कुंद बनाए दे रहीं थीं, इस की वह घोर विरोधी थी. बच्चा 6-7 घंटे पढ़ कर स्कूल से थकामांदा लौटे, जल्दीजल्दी किसी तरह भोजन के निवाले मुंह में ठूंसे, तभी मम्मियों की चीखपुकार शुरू
हो जाती है कि जल्दी करो… ट्यूशन का टाइम हो गया. औटो वाला आता ही होगा.

बेचारे बच्चे सांस भी नहीं ले पाते. ट्यूशन पढ़ कर जब वे लौटते हैं तो शाम के 7-8 बज जाते हैं. फिर होमवर्क, ट्यूशन का होमवर्क कभीकभी कोई प्रोजेक्ट. और भी बहुत कुछ. इस सब के बाद मातापिता की ऊंची अपेक्षाओं का दबाव.

आज की जेनरेशन तो बहुत मैटीरियलिस्टिक है. बस इन्हें मोबाइल, आईपौड या लैपटौप दे दो फिर इन्हें किसी की जरूरत नहीं. ओहो, ये सब क्या सोचने लगी मैं फिर से, सिर ?ाटकते हुए कहा तनूजा ने फिर तेजी से चलने लगी.

6.45 हुआ ही चाहते थे. अब आएगी डिवाइन बड्स की पीली मिनी बस. सामने से आ रहा था प्यारा सा अक्षय अपनी मम्मी की उंगली थामे व टैडीबियर के आकार का बैग अपनी पीठ पर टांगे. गोरा, गोलमटोल, घुंघराले बालों वाला अक्षय बहुत आकर्षक था. अपनी चमचमाती सफेद यूनिफौर्म और पौलिश से दमकते काले जूतों में और भी प्यारा लगता.

अक्षय की मम्मी अर्चना ऊपर बताई गई दोनों मम्मियों से भिन्न थी. वेशभूषा से आधुनिक, गंभीर संभ्रांत महिला. तनूजा और उस के बीच एक मुसकराहट के आदानप्रदान का रिश्ता है. कभीकभी प्यार से अक्षय का कंधा थपथपा कर तनूजा कहती, ‘‘गुड मौर्निंग अक्षय,’’ तो वह शरमा कर मम्मी से लिपट जाता.
बस में बैठ अक्षय स्कूल चला गया और अर्चना घर. शांति और नमिता की मंदगति की सैर अभी चल रही थी, जिसे देख कर तनूजा को हंसी आ गई. लेकिन हंसी को बीच में ही रोकना पड़ा, क्योंकि दोनों पास आ गई थीं.

बस अब 10 मिनट ही बचे हैं तनूजा की सैर के. इस में वह ब्रिस्क वाक करती है.
6.55 हो चुके हैं, अब चिल्ड्रेंस ऐकेडमी की बस आने का समय हो गया है. सामने से आ रहे थे जुड़वां भाईबहन सुरभि व समरेश अपनी मम्मी हेमा के साथ. दोनों छठी में पढ़ते हैं. हेमा व्यस्त कामकाजी महिला है और बमुश्किल 33 साल उम्र की होगी. बच्चों को बस में बैठा उसे भी औफिस जाने की तैयारी करनी होती होगी. शायद इसीलिए कभी गाउन, कभी मिडी तो कभीकभी नाइटसूट में ही नीचे आ जाती. कभीकभी नाइटसूट पर ऐप्रन बांधे ही आ जाती. सांस लेने की भी फुरसत नहीं है, उसे देख कर यही लगता था.

सुरभि, समरेश दोनों हाथों में कभी टोस्ट, कभी सैंडविच, कभी परांठा पकड़े आते और चलतेचलते खातेखाते बस में बैठ जाते. अभी परसों ही सुरभि की बहती नाक हेमा ने बड़े ही प्रेम से अपनी स्वैटर की बांह से साफ कर दी थी. लंबे, रेशमी बालों की चोटी, तीखे नाकनक्श और सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाने वाली हेमा तनूजा को बहुत भाती थी. कोई दिखावा नहीं, कोई कृत्रिमता नहीं, सहज, सरल. साइड से कटे गाउन में से टांग दिख रही है तो दिखती रहे, कोई देख रहा है तो देखता रहे. रुमाल नहीं मिल रहा तो स्वैटर या दुपट्टे से भी नाक साफ हो सकती है.

शाम को औफिस से आ कर बच्चों का होमवर्क, डिनर निबटातेनिबटाते रात के 12 बज जाते हैं. नींद देर से खुलती है तो बच्चों को तैयार करने में देर हो जाती है. अब नाश्ता टेबल पर करें या चलतेचलते क्या फर्क पड़ता है, अकसर उस के ये अनकहे शब्द तनूजा को सुनाई दे जाते. और चिल्ड्रेंस ऐकेडमी अन्य स्कूलों से विपरीत दिशा में था, अत: सड़क पार जाना होता था उन्हें. अपनेअपने बैग अपनी पीठ पर लादे उन दोनों का हाथ पकड़ कर सड़क पार कराती हेमा बीच में रहती थी और गले में भोलेनाथ के सर्प सी लिपटी पानी की 2 बोतलें डाले रहती थी.

7 बज चुके हैं. अब अंतिम राउंड तनूजा की वाक का. और अब सिर्फ भूमिका का आना शेष था. 12वीं की छात्रा भूमिका हीरामणि विद्यालय की छात्रा. जितनी खूबसूरत उतनी ही मोटी भी. बड़ी नाइंसाफी थी ये. धीरे से तनूजा के पास से गुजरती और मुसकराते हुए ‘नमस्ते आंटीजी’ कह कर निकल जाती. उस के नमस्ते के बाद तनूजा की वाक को पूर्णविराम और वह अपने घर.

पिछले कई हफ्तों से तनूजा के इस दैनिक अध्याय में एक अधूरापन सा आ गया था. नन्हा अक्षय कई दिनों तक स्कूल जाने के लिए नहीं आया. डिवाइन बड्स की पीली मिनी बस रोज आती हौर्न बजाती 5 मिनट उस की प्रतीक्षा करती फिर उस के न आने पर चली जाती. एक दिन अक्षय आता दिखा कमजोर, पीला सा. अर्चना साथ नहीं थी. एक धीरेधीरे चल रही बुजुर्ग महिला थी साथ में. शायद उस की दादी थीं. कुछ
गुमसुम सा अक्षय उन से भी धीमी चाल से चल रहा था. उस की चमचमाती यूनिफौर्म और दमकते जूते, जिस में वह और भी प्यारा लगता था कुछ अलग ही स्थिति में थे. यूनिफौर्म मुड़ीतुड़ी बिना इस्तिरी की और धूलधूसरित जूते. शायद अर्चना बीमार है, तनूजा ने सोचा.

फिर अक्षय की पीठ थपथपा कर पूछा, ‘‘मम्मी ठीक हैं आप की?’’ प्रत्युत्तर में वह चुपचाप देखता रहा. न पहले की तरह शरमाया, न कुछ बोला. उस की दादी ने हाथ पकड़ कर खींच लिया, ‘‘छेत्ती चल पुत्तर, नई ते बस छुट जानी है,’’ कुछ अजीब व्यवहार लगा तनूजा को उन का.

फिर कई सुबहें बीत गईं. सभी बच्चे क्रमानुसार आते, अपनी मम्मियों की उंगली थामे किंतु अर्चना दिखाई नहीं दी. अक्षय कभी दादी, कभी दादाजी, तो कभी अपने पापा के साथ नीचे आता. कभीकभी 2-3 दिन स्कूल आता ही नहीं. जब भी आता अकेले ही चलता. बिना किसी की उंगली थामे. चेहरे पर खुशी नहीं, चाल में कोई उत्साह नहीं. एकदम मुर?ाया सा. उस का टैडीबियर वाला बैग मानो बहुत भारी हो गया था,
जिस का बो?ा वह उठा नहीं पा रहा था. उस की आंखों में कई प्रश्नों के साथ बहुत पीड़ा भी नजर आती. किसी के पास इतना समय नहीं था कि उस बच्चे में हो रहे परिवर्तनों पर ध्यान देता. सभी अपने में व्यस्त थे, दूसरे के विषय में कौन सोचे.

तनूजा एक संवेदनशील महिला है इसलिए अकसर सोच कर दुखी होती कि क्या हो गया है अक्षय को. अर्चना के विषय में भी कुछ पता नहीं चल रहा. धीरेधीरे 2 महीने हो गए थे. तनूजा की अब न तो शांति और नमिता की बातचीत में कोई दिलचस्पी थी न ही गांगुलीजी के विचित्र ड्रैसिंग सैंस में. तनूजा का सारा ध्यान अब अक्षय पर ही केंद्रित था. शाम को सभी छोटेबड़े बच्चे पार्क में खेलते थे. उन का खेलना, ?ागड़ना, फिर मनाना तनूजा अकसर देखा करती थी अपनी बालकनी से.

चक्कर हारमोंस का: मंजु के पति का सीमा के साथ चालू था रोमांस

कालेज की सहेली अनिता से करीब 8 साल बाद अचानक बाजार में मुलाकात हुई तो हम दोनों ही एकदूसरे को देख कर चौंकीं.

‘‘अंजु, तू कितनी मोटी हो गई है,’’ अनिता ने मेरे मोटे पेट में उंगली घुसा कर मुझे छेड़ा.

‘‘और तुम क्या मौडलिंग करती हो? बड़ी शानदार फिगर मैंटेन कर रखी है तुम ने, यार?’’ मैं ने दिल से उस के आकर्षक व्यक्तित्व की प्रशंसा की.

‘‘थैंक्यू, पर तुम ने अपना वजन इतना ज्यादा…’’

‘‘अरे, अब 2 बच्चों की मां बन चुकी हूं मोटापा तो बढ़ेगा ही. अच्छा, यह बता कि तुम दिल्ली में क्या कर रही हो?’’ मैं ने विषय बदला.

‘‘मैं ने कुछ हफ्ते पहले ही नई कंपनी में नौकरी शुरू की है. मेरे पति का यहां ट्रांसफर हो जाने के कारण मुझे भी अपनी अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर मुंबई से दिल्ली आना पड़ा. अभी तक यहां बड़ा अकेलापन महसूस हो रहा था पर अब तुम मिल गई हो तो मन लग जाएगा.’’

‘‘मेरा घर पास ही है. चल, वहीं बैठ कर गपशप करती हैं.’’

‘‘आज एक जरूरी काम है, पर बहुत जल्दी तुम्हारे घर पति व बेटे के साथ आऊंगी. मेरा कार्ड रख लो और तुम्हारा फोन नंबर मैं सेव कर लेती हूं,’’ और फिर उस ने अपने पर्स से कार्ड निकाल कर मुझे पकड़ा दिया. मैं ने सरसरी निगाह कार्ड पर डाली तो उस की कंपनी का नाम पढ़ कर चौंक उठी, ‘‘अरे, तुम तो उसी कंपनी में काम करती हो जिस में मेरे पति आलोक करते हैं.’’

‘‘कहीं वे आलोक तो तेरे पति नहीं जो सीनियर सेल्स मैनेजर हैं?’’

‘‘वही मेरे पति हैं…क्या तुम उन से परिचित हो?’’

‘‘बहुत अच्छी तरह से…मैं उन्हें शायद जरूरत से कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से जानती हूं.’’ ‘‘इस आखिरी वाक्य को बोलते हुए तुम ने अजीब सा मुंह क्यों बनाया अनिता?’’ मैं ने माथे में बल डाल कर पूछा तो वह कुछ परेशान सी नजर आने लगी. कुछ पलों के सोचविचार के बाद अनिता ने गहरी सांस छोड़ी और फिर कहा, ‘‘चल, तेरे घर में बैठ कर बातें करते हैं. अपना जरूरी काम फिर कभी कर लूंगी.’’

‘‘हांहां, चल, यह तो बता कि अचानक इतनी परेशान क्यों हो उठी?’’

‘‘अंजु, कालेज में तुम्हारी और मेरी बहुत अच्छी दोस्ती थी न?’’

‘‘हां, यह तो बिलकुल सही बात है.’’

‘‘उसी दोस्ती को ध्यान में रखते हुए मैं तुम्हें तुम्हारे पति आलोक के बारे में एक बात बताना अपना फर्ज समझती हूं…तुम सीमा से परिचित हो?’’

‘‘नहीं, कौन है वह?’’

‘‘तुम्हारे पति की ताजाताजा बनी प्रेमिका माई डियर फ्रैंड. इस बात को सारा औफिस जानता है…तुम क्यों नहीं जानती हो, अंजु?’’

‘‘तुम्हें जरूर कोई गलतफहमी हो रही है, अनिता. वे मुझे और अपनी दोनों बेटियों से बहुत प्यार करते हैं. बहुत अच्छे पति और पिता हैं वे…उन का किसी औरत से गलत संबंध कभी हो ही नहीं सकता,’’ मैं ने रोंआसी सी हो कर कुछ गलत नहीं कहा था, क्योंकि सचमुच मुझे अपने पति की वफादारी पर पूरा विश्वास था.

‘‘मैडम, यह सीमा कोई औरत नहीं, बल्कि 25-26 साल की बेहद सुंदर व बहुत ही महत्त्वाकांक्षी लड़की है और मैं जो बता रही हूं वह बिलकुल सच है. अब आंसू बहा कर यहां तमाशा मत बनना, अंजु. हर समस्या को समझदारी से हल किया जा सकता है. चल,’’ कह वह मेरा हाथ मजबूती से पकड़ कर मुझे अपनी कार की तरफ ले चली. उस शाम जब आलोक औफिस से घर लौटे तो मेरी दोनों बेटियां टीवी देखना छोड़ कर उन से लिपट गईं. करीब 10 मिनट तक वे दोनों से हंसहंस कर बातें करते रहे. मैं ने उन्हें पानी का गिलास पकड़ाया तो मुसकरा कर मुझे आंखों से धन्यवाद कहा. फिर कपड़े बदल कर अखबार पढ़ने बैठ गए. मैं कनखियों से उन्हें बड़े ध्यान से देखने लगी. उन का व्यक्तित्व बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा आकर्षक हो गया था. नियमित व्यायाम, अच्छा पद और मोटा बैंक बैलेंस पुरुषों की उम्र को कम दिखा सकते हैं. उन का व्यवहार रोज के जैसा ही था पर उस दिन मुझे उन के बारे में अनिता से जो नई  जानकारी मिली थी, उस की रोशनी में वे मुझे अजनबी से दिख रहे थे.

‘‘मैं भी कितनी बेवकूफ हूं जो पहचान नहीं सकी कि इन की जिंदगी में कोई दूसरी औरत आ गई है. अब कहां ये मुझे प्यार से देखते और छेड़ते हैं? एक जमाना बीत गया है मुझे इन के मुंह से अपनी तारीफ सुने हुए. मैं बच्चों को संभालने में लगी रही और ये पिछले 2 महीनों से इस सीमा के साथ फिल्में देख रहे हैं, उसे लंचडिनर करा रहे हैं. क्या और सब कुछ भी चल रहा है इन के बीच?’’ इस तरह की बातें सोचते हुए मैं जबरदस्त टैंशन का शिकार बनती जा रही थी. अनिता ने मुझे इन के सामने रोने या झगड़ा करने से मना किया था. उस का कहना था कि मैं ने अगर ये 2 काम किए तो आलोक मुझ से खफा हो कर सीमा के और ज्यादा नजदीक चले जाएंगे. रात को उन की बगल में लेट कर मैं ने उन्हें एक मनघड़ंत सपना संजीदा हो कर सुनाया, ‘‘आज दोपहर को मेरी कुछ देर के लिए आंख लगी तो मैं ने जो सपना देखा उस में मैं मर गई थी और बहुत भीड़ मेरी अर्थी केपीछे चल रही थी,’’ पूरी कोशिश कर के मैं ने अपनी आंखों में चिंता के भाव पैदा कर लिए थे.

‘‘अरे, तो इस में इतनी नर्वस क्यों हो रही हो? सपने सपने होते हैं,’’ मेरी चिंता कम करने को उन्होंने मुसकराते हुए कहा.

‘‘आप मेरे सपने की बात सुन कर हंसना मत, जी. जिन लोगों ने मेरी अर्थी उठा रखी थी, वे बेचारे कुबड़ों की तरह झुके होने के साथसाथ बुरी तरह हांफ भी रहे थे. आप का छोटा भाई कह रहा था कि भाभी को तो ट्रक में श्मशानघाट ले जाना चाहिए था.

‘‘और आप की आंखों में आंसू कम और गुस्से की लपटें ज्यादा दिख रही थीं. मुझे उस वक्त भी आप ऊंची आवाज में कोस रहे थे कि मैं ने हजार बार इस मोटी भैंस को समझाया होगा कि वजन कम कर ले नही तो तेरी अर्थी उठाने वालों का बाजा बज जाएगा, पर इस ने मेरी कभी नहीं सुनी. भाइयो, हिम्मत न हाराना. मैं तुम सब को 5-5 सौ रुपए इसे ढोने के दूंगा.’’

‘‘आप के मुंह से अपने लिए बारबार मोटी भैंस का संबोधन सुन मैं अर्थी पर लेटीलेटी रो पड़ी थी, जी. फिर झटके से मेरी आंखें खुलीं तो मैं ने पाया कि मेरी पलकें सचमुच आंसुओं से भीगी हुई हैं. अब मुझे आप एक बात सचसच बताओ. मुंह से तो आप ने मुझे कभी मोटी भैंस नहीं कहा है पर क्या मन ही मन आप मुझे मोटी भैंस कहते हो?’’ मैं ने बड़े भावुक अंदाज में पूछा तो वे ठहाका मार कर हंस पड़े. मैं फौरन रोंआसी हो कर बोली, ‘‘मैं ने कहा था न कि मेरी बात सुन कर हंसना मत. आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते हो कि मैं दोपहर से मन ही मन कितनी दुखी और परेशान हो रही हूं. लेकिन आज मैं आप से वादा करती हूं कि जब तक अपना वजन 10 किलोग्राम कम न कर लूं, तब तक बच्चों के कमरे में सोऊंगी.’’

‘‘अरे, यह क्या बच्चों जैसी बातें कर रही हो?’’ वे पहले चौके और फिर नाराज हो उठे.

‘‘मुझे झिड़को मत, प्लीज. मेरी इस प्रतिज्ञा को पूरी कराने में आप को मेरा साथ देना ही पड़ेगा, जी.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘प्लीज,’’ मैं ने उन के माथे को एक बार प्यार से चूमा और अपना तकिया उठा कर अपनी बेटियों के पास सोने उन के कमरे में चली आई. वजन कम करना आसान काम नहीं है, ये हम सभी मोटे लोग जानते हैं, लेकिन तनमन में आग सी लगी हो तो वजन यकीनन कम हो जाता है. अनिता ने इस मामले में मेरी पूरी सहायता की थी. उस की देखरेख में मेरा वजन कम करो अभियान जोरशोर से शुरू हुआ. वह रोज मुझ से रिपोर्ट लेती और मेरा मनोबल ऊंचा रखने को मुझे खूब समझाती. आलोक के औफिस चले जाने के बाद मैं उस जिम में पहुंची जिस का ट्रेनर अनिता की पहचान का था. उस ने मेरे ऊपर खास ध्यान दिया. मैं ने जीजान से मेहनत शुरू कर दी तो मेरे वजन में हफ्ते भर में ही फर्क दिखने लगा.

‘‘तुम तो कुछकुछ फिट दिखने लगी हो, अंजु,’’ आलोक के मुंह से अपनी तारीफ सुन मेरा मन खुशी से नाच उठा.

‘‘अभी तो कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है, सरकार. आप बस देखते जाओ. मैं ने आप की खातिर अपने को फिल्मी हीरोइन की तरह खूबसूरत न बना लिया, तो कहना,’’ यह डायलौग मैं ने उन की गोद में बैठ कर बोला था. काफी लंबे समय के बाद मैं ने उन की आंखों में अपने लिए वैसे चाहत के भावों की झलक देखी जैसी शादी के शुरू के दिनों में देखी थी. वे मेरा चुंबन लेने को तैयार से दिखे तो मैं उन की गोद से उठ कर शरारती अंदाज में मुसकराती हुई रसोई में चली आई. 2 सप्ताह की मेहनत के बाद मेरा वजन पूरे 3 किलोग्राम कम हो गया. मैं अपने को ज्यादा फिट महसूस कर रही थी, इसलिए मेरा मूड भी अच्छा रहने लगा और आलोक व मेरे संबंध ज्यादा मधुर हो गए. अगले रविवार की शाम हम फिल्म देखने गए. उस के अगले रविवार को हम ने डिनर बाहर किया. फिर उस से अगले रविवार को हम ने फिल्म भी देखी और चाइनीज खाना खाया. वैसे मेरा उन के साथ घूमने जाना बहुत कम हो गया था, क्योंकि घर के कामों से ही मुझे फुरसत नहीं मिलती थी. लेकिन अब मैं किसी भी तरह से उन्हें तैयार कर के हर संडे घूमने जरूर निकल जाती. दोनों बेटियां कभी हमारे साथ होतीं तो कभी मैं उन्हें अपनी पड़ोसिन निशा के पास छोड़ देती. बेटियां उस के यहां आराम से रुक जातीं, क्योंकि उस की बेटी की वे पक्की सहेलियां थीं.

अपने वजन घटाओ अभियान के शुरू होने के डेढ़ महीने भर बाद मैं ने 4 नए सूट सिलवा लिए. जिस दिन शाम को मैं ने पहली बार नया सूट पहना उस दिन मैं ब्यूटीपार्लर भी गई थी. ‘‘वाह, आज तो गजब ढा रही हो,’’ मुझ पर नजर पड़ते ही औफिस से लौटे आलोक का चेहरा खुशी से खिल उठा.

‘‘सचमुच अच्छी लग रही हूं न?’’

मैं ने छोटी बच्ची की तरह इतराते हुए पूछा तो उन्होंने मुझे अपनी बांहों में कैद कर के चूम लिया.

‘‘सचमुच बहुत अच्छी लग रही हो,’’ मेरे ताजा शैंपू किए बालों में उन्होंने अपना चेहरा छिपा लिया और मस्त तरीके से गहरीगहरी सांसें भरने लगे.

‘‘आज मैं ने आप के पसंदीदा कोफ्ते बनाए हैं. खाना जल्दी खा कर बच्चों के साथ आइसक्रीम खाने चलेंगे.’’

‘‘और उस के बाद क्या करेंगे?’’

‘‘सोएंगे.’’

‘‘करैक्ट, लेकिन आज तुम मेरे पास सोओगी न?’’

‘‘अभी पहले 4 किलोग्राम वजन और कम कर लूं, स्वीटहार्ट.’’

‘‘नहीं, आज तुम बच्चों के कमरे में नहीं जाओगी और यह मेरा हुक्म है,’’ उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भींच लिया. मैं ने उन का हुक्म न मानने का कारण बताया तो वे बहुत झल्लाए पर अंत में उन्होंने अपने साथ सुलाने की जिद छोड़ दी. अनिता के मार्गदर्शन और मेरी मेहनत का कमाल देखिए कि 3 महीने पूरे होने से पहले ही मैं ने अपना 10 किलोग्राम वजन कम कर लिया.

‘‘थैंक्यू वैरी मच, सहेली,’’ अपने घर में रखी वजन करने वाली मशीन से उतर कर जब मैं अनिता के गले लगी तब मेरी आंखों में खुशी के आंसू थे.

‘‘2 दिन बाद यानी शनिवार की रात को तुम आलोक के साथ अपने बैडरूम में सो सकती हो,’’ उस ने मुझे छेड़ा तो मैं शरमा उठी. ‘‘मुझे डर है कि कहीं वह भूखा शेर जोश में कहीं मेरी कोई हड्डीपसली न तोड़ डाले,’’ मेरे इस मजाक पर हम दोनों सहेलियां हंसतीहंसती लोटपोट हो गईं. फिर अचानक गंभीर हो कर उस ने मुझ से पूछा, ‘‘सीमा से मुलाकात करने को पूरी तरह से तैयार हो न?’’

‘‘हां,’’ मेरी मुट्ठियां भिंच गईं.

‘‘तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूं.’’

‘‘नहीं, उस से मैं अकेली निबट लूंगी.’’

‘‘गुड,’’ मेरी पीठ थपथपा कर वह चली गई. उस गुरुवार की शाम 7 बजे के करीब मैं आलोक की प्रेमिका सीमा से पहली मुलाकात करने उस के फ्लैट पहुंच गई. वह फ्लैट में अपनी विधवा मां के साथ रहती थी. मेरे घंटी बजाने पर दरवाजा उसी ने खोला. मुझे सामने देख कर उस की आंखों में जो हैरानी के भाव उभरे, उन से मैं ने अंदाजा लगाया कि वह मुझे पहचानती है.

‘‘मैं अंजु हूं, तुम्हारे सहयोगी आलोक की पत्नी,’’ मैं ने उसे अपना परिचय दिया तो वह अपनी हैरानी को छिपा कर स्वागत करने वाले अंदाज में मुसकराने लगी.

‘‘आइए, प्लीज अंदर आइए, अंजुजी,’’ उस ने दरवाजे के सामने से हटते हुए मुझे अंदर आने की जगह दे दी. रसोई में काम कर रही उस की मां ने मेरी तरफ कुतूहल भरी निगाहों से देखा जरूर पर हमारे पास ड्राइंगरूम में नहीं आई.

‘‘मैं आज पहली बार तुम्हारे घर आई हूं, लेकिन…’’ मैं ने जानबूझ कर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

‘‘लेकिन क्या, अंजुजी?’’ वह अब पूरी तरह चौकन्नी नजर आ रही थी.

‘‘लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरा आज का यहां आना आखिरी बाद का आना बन जाए.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं, अंजुजी,’’ उस की आंखों में सख्ती के भाव उभर आए.

‘‘मैं अपनी बात संक्षेप में कहूंगी, सीमा. देखो, मुझे तुम्हारे और आलोक के बीच में कुछ महीनों से चल रहे लव अफेयर के बारे में पता है. मेरी जानकारी बिलकुल सही है, इसलिए उस का खंडन करने की कोशिश बेकार रहेगी.’’ मेरी सख्त स्वर में दी गई चेतावनी को सुन कर सफाई देने को तैयार सीमा ने अपने होंठ सख्ती से भींच लिए. उस के चेहरे की तरफ ध्यान से देखते हुए मैं ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘देखो, मेरे पति के साथ तुम्हारा लव अफेयर अब किसी भी हालत में आगे नहीं चल सकता है. तुम अगर उन की जिंदगी से अपनेआप निकल जाती हो तो बढि़या रहेगा वरना मैं तुम्हें इतना बदनाम कर दूंगी कि तुम घर से बाहर सिर उठा कर नहीं चल सकोगी.’’

‘‘मेरे घर में आ कर मुझे ही धमकी देने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? आप प्लीज इसी वक्त यहां से चली जाएं और आप को मुझ से जो भी बात करनी हो औफिस में आ कर आलोकजी के सामने करना.’’ उस ने मेरे साथ गुस्से से बात करने की कोशिश की जरूर पर मन में पैदा भय के कारण इस कोशिश में ज्यादा सफल नहीं हो पाई. मैं झटके से उठ खड़ी हुई और कू्रर लहजे में बोली, ‘‘मेरे पति की जिंदगी से हमेशा के लिए निकल जाने की मेरी सलाह तुम ने मानी है या नहीं, इस का पता मुझे इसी बात से लगेगा कि तुम हमारी आज की मुलाकात की चर्चा आलोक से करती हो या नहीं.

‘‘अगर तुम में थोड़ी सी भी अक्ल है तो आलोक से मेरे यहां आने की बाबत कुछ मत कहना और एक झटके में उस के साथ अपने प्रेम संबंध को भी समाप्त कर डालो. तब मेरा आज यहां आना पहली और अंतिम बार होगा.’’ ‘‘लेकिन तुम्हें अपनी इज्जत प्यारी न हो, तो जरूर आलोक से मेरी शिकायत कर देना. तब मैं तुम्हारी फजीहत करने के लिए यहां बारबार लौटूंगी, सीमा. हो सकता है कि मैं आलोक को तब सदा के लिए खो दूं, पर मैं तब तक तुम्हें इतना बदनाम कर दूंगी कि फिर कोई अन्य इज्जतदार युवक तुम्हारा जीवनसाथी बनने को कभी तैयार न हो.’’ उसे चेतावनी देते हुए मैं ने मेज पर रखा शीशे का भारी फूलदान हाथ में उठा लिया था. मेरी इस हरकत से डर कर वह झटके से उठ खड़ी हुई. उस के हाथपैर कांपने लगे. मैं ने फूलदान सिर से ऊपर उठाया तो उस की चीख पूरे घर में गूंज गई. उसे जरूर ऐसा लगा होगा कि मैं वह फूलदान उस के सिर पर मार दूंगी. मैं ने उस के सिर को तो बख्शा पर फूलदान जोर से फर्श पर दे मारा. कांच के टूटने की तेज आवाज में सीमा के दोबारा चीखने की आवाज दब गई थी.

‘‘गुड बाय ऐंड गुड लक, सीमा. अगर मुझे फिर यहां आना पड़ा तो तुम्हारी खैर नहीं,’’ मैं ने उसे कुछ पलों तक गुस्से से घूरा और फिर दरवाजे की तरफ बढ़ गई. उस की मां भी ड्राइंगरूम में खड़ी थरथर कांप रही थी. ‘‘अपनी बेटी को समझाना कि वह मेरे रास्ते से हट जाए नहीं तो बहुत पछताएगी,’’ अपनी चेतावनी सीमा की मां के सामने दोहरा कर मैं उन के फ्लैट से बाहर निकल आई. आज हमारी उस पहली मुलाकात को 2 महीने बीत चुके हैं और आलोक ने  कभी इस बाबत कोई जिक्र मेरे सामने नहीं छेड़ा. अनिता का कहना है कि सीमा ने आजकल आलोक से साधारण बोलचाल भी बंद कर रखी है. जब करीब 5 महीने पहले अनिता से मेरी अचानक मुलाकात हुई थी, तो उस ने मुझे उस दिन एक महत्त्वपूर्ण बात समझाई थी, ‘‘अंजु, हर समझदार पत्नी के लिए अपने पति के सैक्स हारमोंस का स्तर ऊंचा रखने के लिए खुद को आकर्षक बनाए रखना बहुत जरूरी है. दांपत्य प्रेम की जड़ें मजबूत बनाने में इन हारमोंस से ज्यादा अहम भूमिका किसी और बात की नहीं होती. तब पति की जिंदगी में किसी सीमा के आने की संभावना भी बहुत कम रहती है.’’ मैं ने उस की वह सीख गांठ बांध ली है. 3 महीने से दूर रहने के कारण आलोक के सैक्स हारमोंस का स्तर जिस ऊंचाई तक पहुंच गया था, मैं ने उसे वहां से रत्ती भर भी गिरने नहीं दिया.

मैं चुप रहूंगी: विजय की असलियत जब उसकी पत्नी की सहेली को चली पता

पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.

उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.

लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.

दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.

मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.

मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.

वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.

एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’

‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’

‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’

‘‘वे विजय साहब थे न?’’

‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’

गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’

‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’

‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?

लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’

मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.

गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.

औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?

‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.

मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.

‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’

‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’

‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.

अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.

इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.

स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.

वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.

स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.

एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.

मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.

मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है.

मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.

मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?

मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?

‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.

पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.

26 January Special: परंपराएं- भाग 2- क्या सही थी शशि की सोच

मेरे मुंह से निकल गया था, ‘‘जूली, मुझे तो खेद इस बात का रहता है कि मेरी बेटी की अभी तक शादी नहीं हुई है. मैं तो उस दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा करती हूं जब वह अपने बच्चों को मेरे पास छोड़ कर जाने की स्थिति में हो.’’

‘‘शायद यह संस्कृतियों का अंतर है,’’ जूली ने कहा, ‘‘मैं मानती हूं कि नई पीढ़ी को आगे बढ़ते देखने से बड़ा सुख तो कोई दूसरा नहीं परंतु मार्क और फियोना को भी तो हमारी सुविधा का ध्यान रखना चाहिए. हमेशा यह मान लेना कि हमें किसी भी तरह की कोई कठिनाई नहीं होगी, यह भी तो ठीक नहीं.’’

जूली के उत्तर पर मुझे काफी आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैं जानती थी कि यदि उसे सचमुच किसी बात की चिंता है तो यह कि किस तरह सिमोन का भी घर दोबारा बस जाए. वह उसे किसी न किसी तरह ऐसे स्थानों पर भेजती रहती थी जहां उस की मुलाकात किसी अच्छे युवक से हो जाए. वह स्वयं हर मुलाकात में न केवल पूरी रुचि लेती थी बल्कि उस के बारे में मुझे भी आ कर बताती थी.

एक दिन जब जूली काम पर आई तो उसे देखते ही मैं समझ गई कि कुछ गड़बड़ है. पहले तो वह टालमटोल करती रही किंतु अंत में उस ने बताया, ‘‘सिमोन की बात फिर एक बार टूट गई. लगभग 3 सप्ताह पहले सिमोन के बौयफ्रैंड ने उसे एक रौक म्यूजिक कंसर्ट में उस के साथ चलने को कहा था. उसी दिन सिमोन की एक पक्की सहेली का जन्मदिन भी था. वैसे भी सिमोन को रौक म्यूजिक ज्यादा पसंद नहीं. जब सिमोन ने अपनी मजबूरी बताई तो बौयफ्रैंड ने कुछ नहीं कहा. वह अकेला ही चला गया. उस के बाद उस की ओर से कुछ सुनाई नहीं दिया. न फोन, न मैसेज. सिमोन ने कई बार संपर्क करने की कोशिश की. परंतु कोई उत्तर नहीं.

‘‘गत रविवार को वह हिम्मत कर के उस स्थान पर गई जहां उस का बौयफ्रैंड अकसर शाम बिताता है. वहां उस ने उसे एक लड़की के साथ देखा. सिमोन को गुस्सा तो बहुत आया परंतु कोई हंगामा खड़ा न करने के विचार से वहां से चुपचाप चली आई. शायद बौयफ्रैंड ने उसे देख लिया था. कुछ समय बाद सिमोन के मोबाइल पर संदेश छोड़ दिया, ‘सौरी’.’’

मैं ने पूछा, ‘‘कोई स्पष्टीकरण?’’

‘‘नहीं. केवल यह कि वह लड़की उस की रुचियों को ज्यादा अच्छी तरह समझती है. शशि, मुझे तब से लगातार ऐसा महसूस हो रहा है कि सिमोन नहीं, मैं अपने लिए जीवनसाथी ढूंढ़ने में असफल हो गई हूं.’’

मेरे अपने परिवार में भी अपनी पुत्री शिवानी के लिए वर ढूंढ़ने की प्रक्रिया जोरशोर से चल रही थी. मैं भी जूली को हर छोटीबड़ी घटना की जानकारी देती रहती थी. किस तरह हम विज्ञापनों में से कुछ नाम चुनते, उन के परिवारों से संपर्क करते और आशा करते कि इस बार बात बन जाए. किस तरह ऐसे परिवारों में से कुछ से 4-5 की टोली हमारे घर आती.

कुछ परिवार लड़कालड़की को सीधा संपर्क करने की सलाह देते. मैं सोचती कि चाहे संपर्क सीधा करें या परिवार के साथ आएं, बात तो आगे बढ़ाएं.

आशानिराशा के हिंडोले में महीनों तक झूलने के बाद, जब आखिरकार शिवानी की स्वीकृति से एक परिवार में उस का संबंध होना निश्चित हो गया तो मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. मैं ने जूली को भी यह शुभ समाचार सुनाया. वह प्रसन्न हो कर बोली, ‘‘बधाई. मैं शिवानी के विवाह में अवश्य सम्मिलित होऊंगी. और याद रहे, मैं तुम्हारी परंपराओं से बहुत प्रभावित हूं. उन के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहती हूं. इसलिए तुम मुझे विवाह के सभी छोटेबड़े कार्यक्रमों के लिए निमंत्रित करती रहना.’’

विवाह के कार्यक्रमों की शृंखला में एक था भात. उस दिन मेरे भाई और भाभी सपरिवार भात ले कर आए थे. मेरी सूचना के आधार पर जूली सुबह से ही हमारे घर आ गई थी. मेरे हर काम में वह साथ रही. वह सबकुछ देखनासमझना चाहती थी. जब भातइयों की टोली को हमारे घर के दरवाजे पर रोक दिया गया तो जूली आश्चर्यचकित उत्सुकता के साथ मुझ से आ सटी थी. उस ने देखा कि किस प्रकार भातइयों को एक पटरे पर खड़ा कर के बारीबारी से उन की आरती उतारी गई और किस प्रकार भात की सामग्री भेंट की गई. उस में वस्त्र, आभूषण और मिठाइयां व अन्य उपहार सम्मिलित थे. अवसर मिलने पर मैं ने जूली को बताया, ‘‘इसी प्रकार बेटी के पिता के भाईबहनों की ओर से भी उपहार आएंगे. ये परंपराएं सभी को साथ ले कर चलने की भावना से विकसित हुई हैं. वृहत परिवार की प्रतिभागिता का एक परिष्कृत रूप तो है ही, साथ में विवाह पर होने वाले खर्चों को बांटने का अनूठा तरीका भी है. दादादादी, नानानानी, चाचाचाची, मामामामी, फूफाफूफी सभी खर्च के बोझ को बांटने के काम में उत्साह के साथ भाग लेते हैं,’’ मेरे इस स्पष्टीकरण से जूली बहुत प्रभावित हुई थी.

शिवानी को चुन्नी चढ़ाने की रस्म के लिए उस के ससुराल से लगभग 30 लोग आए थे. हमारी ओर से भी इतने ही सदस्य रहे होंगे, जिन में से एक जूली थी. हमारा घर विशेष रूप से बड़ा नहीं है. इतने लोग किस तरह उस में समा गए वह जूली के लिए एक अलग ही अनुभव था. परंतु उस से भी अधिक उस के मन को प्रफुल्लित कर डाला था चुन्नी के झीने कपड़े के पीछे छिपे नए परिवार के संरक्षण के भाव ने.

शिवानी के विवाह के कुछ समय बाद जूली ने मुझे सूचना दी कि उस के विवाह की 40वीं वर्षगांठ आने वाली है जिस पर वह एक आयोजन करेगी, ‘‘अभी से डायरी में लिख कर रख लो, 20 अगस्त. तुम्हें अपने पति के साथ आना होगा. स्थान है बुश म्यूज होटल.’’

बुश म्यूज होटल को कौन नहीं जानता. 150 साल पुराना है वह होटल. कहते हैं कि एक समय बड़ी संख्या में घोड़ागाडि़यां खड़ी करने की व्यवस्था उस से ज्यादा किसी अन्य होटल में नहीं थी. समय के साथ हुए परिवर्तनों के कारण अब ग्राहक घोड़ागाडि़यों के बदले कारों में आते थे. जूली ने मुझे बताया कि उस के लिए होटल के मैनेजर ने वही कमरा नंबर101 बुक कर दिया था, जिस में उस ने 40 वर्ष पूर्व अपनी सुहागरात मनाई थी.

यद्यपि वह होटल आबादी वाले क्षेत्र में नहीं था, मैं उस के सामने से अनगिनत बार गुजर चुकी थी. भीतर जाने का वह पहला अवसर था. वह एक भव्य होटल है, इस का आभास इमारत में जाने वाली सड़क पर जाते ही हो गया. होटल का मुख्यद्वार मुख्य सड़क पर नहीं, होटल के पिछवाड़े था. उस तक जाने के लिए एक लंबी, पतली सड़क बनी थी, जो दोनों ओर फूलों की क्यारियों में ढक गई लगती थी. उन क्यारियों के पार मखमली घास के मैदान थे जो टेम्स नदी के तट तक फैले हुए थे. अभी मैं और मेरे पति मानवनिर्मित उस प्राकृतिक सौंदर्य के प्रबल प्रभाव को अपने चारों ओर अनुभव कर ही रहे थे कि जा पहुंचे मुख्यद्वार के सामने. वह एक होटल का नहीं, किसी प्राचीन ग्रीक मंदिर का द्वार लगा.

गहराता शक: भाग 2-आखिर कुमुद को पछतावा क्यों हुआ?

सोमेन अगले ही दिन आया. शाम को 6 बजे कुमुद, रघु, नीता सभी पिक्चर के लिए तैयार हो रहे थे कि वह आ पहुंचा. उस के आने पर नक्शा पलट गया. कुमुद को अपना पड़ोस का पुराना दोस्त बता कर रघु से उस का परिचय कराना पड़ा. फिल्म के टिकट खरीदे नहीं थे इसलिए पिक्चर जाना छोड़ सभी बैठ गए.

नाश्ते पर सोमेन कहने लगा, ‘‘कुम्मू बहुत जंचने लगी है अब तो.’’

कुमुद सिर झुकाए प्लेट में चम्मच इधरउधर करती रही. वह अपने में मस्त कहता रहा, ‘‘सच रघु, यह पहले बड़ी दुबलीपतली सी थी. अब तो काफी भर गया है बदन. लड़कियां कहती हैं न ब्याह का पानी…’’ वह कुमुद को देख कर हंसा, ‘‘यह नटखट भी कम नहीं रही है. बचपन में, खेल ही खेल में इस ने एक बार मेरी कलाई पर इतने जोर से काट लिया कि कप भर खून तो

बहा ही होगा. अभी तक दाग बना है,’’ उस ने कलाई का दाग दिखाया रघु को. फिर मजे से किलकारी सी मार कर हंसा, ‘‘घर आ कर मैं ने मां से कहा कि पड़ोस के एक साथी ने खेल में काट लिया है… ये देवीजी उस दिन पिटने से बच गईं.’’

कुमुद ने कनखियों से देखा, रघु का चेहरा भावहीन, जड़ जैसा बना था. नीता सोमेन की

बातें उत्सुकता से सुन रही थी. कुमुद की इच्छा हुई एक प्लेट नीचे गिरा दे ताकि बातों का विषय बदले.

उधर सोमेन अपनी ही रौ में कहता जा रहा था, ‘‘अब तो यह बड़ी गंभीर बन गई है. कोई शैतानी तो नहीं करती?’’

रघु के होंठ फड़फड़ाए. जैसी किसी गहरे कुएं से आवाज आई हो, ऐसे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, बड़ी सीधी है.’’

‘‘हो सकता है, जनाब.’’ सोमेन ने बड़े दार्शनिक भाव से कहा, ‘‘विवाह चीज ही ऐसी है, बड़ेबड़े सीधे हो जाते हैं. तभी तो अभी तक शादी नहीं की, न कोई इरादा ही है.’’

फिर सोमेन एकाएक मुसकरा कर बोला, ‘‘कुमु, याद है वह बार्बी, जिसे तुम्हारे मामाजी लाए थे,’’ वह रघु और नीता से कहने लगा, ‘‘इन देवीजी को अपनी बार्बी का घर पूरा करना था. मेरे पास लीगों का सैट था. मैं ने ही बार्बी का घर बसाया, मेरा मतलब बनाया. याद है, कुमु,’’ सोमेन ने हंसते हुए पूछा.

कुमुद देख रही थी. दोनों भाईबहन खामोश हैं. उस बेवकूफ सोमेन को क्या जरा भी अक्ल नहीं? उस ने जबरन होंठों पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘सोमेन, तुम वैसे ही रहे नटखट. बकबक किए जा रहे हो, नाश्ता वैसे ही रखा है. इन बातों को छोड़ो, बहुत बचपन की बातें हैं.’’

‘‘हांहां,’’ कह सोमेन ने नाश्ते पर ध्यान दिया.

उस दिन किसी तरह जब सोमेन वहां से टला तो कुमुद ने चैन की सांस ली. जाते हुए वह वादा भी करता गया कि बीचबीच में मिलता रहेगा.

नीता के उठ जाने पर कुमुद ने हलके ढंग से रघु को बताया, ‘‘यह सोमेन भी बड़ा अजीब है. बचपन में उसे गरदन तोड़ बुखार हो गया था, तभी से इस के पेंच कुछ ढीले रहे हैं. मांबाप डरते रहते थे, पता नही कब क्या कर बैठे.

दिमाग की कमजोरी कभी दूर नहीं हुई. हैरानी है कि इसे बैंक में नौकरी मिल गई और यहीं की ब्रांच में.’’

रघु ने बड़े शांत भाव से कहा, ‘‘तुम्हारे तो बचपन के साथी ठहरे. यहीं नौकरी मिली तो क्या बुरा है. साथ रहेगा. तुम दोनों को खुशी होगी. कभीकभार औफिस से आतेजाते लिफ्ट भी दे दिया करेगा.’’

कुमुद ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘‘मुझे क्या खुशी होगी. बिना बात मिल कर बोर किया करेगा और मुझे लिफ्ट भी दे दिया करेगा पर उस की लिफ्ट की जरूरत ही क्या है जब तुम हो औफिस से पिकअप करने के लिए.’’

रघु उठ खड़ा हुआ. मोबाइल में मेल चैक करता हुआ बोला, ‘‘तो क्या हुआ, अब तो वह यहीं है, खूब देखना पिक्चर. बड़ा खुश था, तुम्हारे भरे बदन को देख कर. बेचारे ने तुम्हें हमेशा दुबलीपतली ही देखा. अब यह सुंदर दृश्य देखने बारबार न आएगा यहां तो गरीब का मन कैसे मानेगा?’’

कुमुद ने आंखें उठा कर रघू को देखा. ठहरे हुए स्वरों में पूछा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब?’’ रघु ने शांति से कहा, ‘‘मेरा क्या मतलब होगा. बचपन के 2 घनिष्ठ दोस्तों के बीच कुछ कहने, टांग अड़ाने वाला मैं कौन हूं?’’

‘‘रघू,’’ कुमुद ने आहत स्वरों में कहा, ‘‘तुम्हें तो ऐसा नहीं कहना चाहिए. तुम्हीं ऐसा कहोगे तो…’’

किसी को फोन करने की ऐक्टिंग करते हुए रघु बाहर निकल गया.

रात को भोजन की मेज पर दोनों परस्पर बड़े शिष्टाचार और ठंडेपन से पेश आते रहे. नीता को वातावरण कुछ ऐसा भारी और दमघोटू लगा कि वह जल्दी से अपना खाना खत्म कर पहले ही मेज से उठ खड़ी हुई.

रात को सोते समय चौड़े पलंग के किनारे पर लेटी कुमुद को लगा जैसे वह सागर के किनारे ठंडे बालू पर लेटी है. लहरें बारबार आ कर उसे भिगो देती हैं और रघु समुद्र के दूसरे किनारे पर सो रहा है. वह रघु को पुकारती पर

रघु उस की आवाज नहीं सुन पाता. लहरों की गर्जन के बीच वह जाग रही है या सोई, उसे यह भान न रहा.

आज सुबह से ही वही वातावरण बना है. नीता मन ही मन कुढ़ती रही और कुमुद…

5 बज गए थे. कुमुद अपने दफ्तर से चल दी. घर पहुंच कर कपड़े बदले, हलका सा मेकअप किया, चाय की मेज बरामदे में सजा दी और नित्य के नियमानुसार बरामदे में आ बैठी. रघु समय का पक्का है. ठीक 7 बजे घर आ पहुंचता है.

नीता आ कर बगल की कुरसी पर बैठी. कुमुद से पूछा, ‘‘रघु आए नहीं अभी?’’

कुमुद ने कलाई घड़ी देखी, 8 बजे थे. समय का पाबंद रघु अभी तक नहीं आया था. नीता ने टीकोजी उठाई और बोली, ‘‘भाभी, चाय ठंडी हो रही है.’’

कुमुद बेचैनी के साथ फाटक पर दृष्टि गड़ाए रही. धीरेधीरे 8:30 बज गए पर रघु अभी तक नहीं आया.

‘‘पता नहीं, कहां चले गए,’’ नीता ने खिन्न हो कर कहा, ‘‘दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने चल दिए होंगे. मैं तो जाती हूं पढ़ने, भाभी. परीक्षा सिर पर है,’’ और वह भीतर चल दी.

शेष जीवन: भाग 3- विनोद के खत में क्या लिखा था

लौट कर आए तो तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. दूसरे दिन कचहरी नहीं जाना चाहते थे, मगर गए. न जाने का मतलब अपना नुकसान. एक दिन सुमन से कहने लगे, ‘मेरा मन कचहरी जाने का नहीं करता. लोग कहते हैं कि वकील कभी रिटायर नहीं होता, क्यों नहीं होता. वह क्या हाड़मांस का नहीं बना होता? शरीर उस का भी कमजोर होता है. यह क्यों नहीं कहते कि वकील रोज कचहरी नहीं जाएगा तो खाएगा क्या?’ सुमन को विनोद व खुद पर तरस आया. सरकारी नौकरी में लोग बड़े आराम से अच्छी तनख्वाह लेते हैं. उस के बाद आजन्म पैंशन का लुत्फ उठा कर जिंदगी का सुख भोगते हैं. यहां तो न जवानी का सुख लिया, न ही बुढ़ापे का. मरते दम तक कोल्हू के बैल की तरह जुतो. काले कोट की लाज ढांपने में ही जीवन अभाव में गुजर जाता है. एक रात विनोद के सीने में दर्द उभरा. सुमन घबरा गई. पासपड़ोस के लोगों को बुलाया, मगर कोई नहीं आया. भाई को फोन लगाया. वह भागाभागा आया. उन्हें पास के निजी अस्पताल में ले जाया गया. वहां डाक्टरों ने कुछ दवाएं दीं. विनोद की हालत सुधर गई. अगले दिन डाक्टर ने सुमन से कहा कि वे इन्हें तत्काल दिल्ली ले जाएं. सुमन के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं. डाक्टर बोले, ‘‘इन के तीनों वौल्व जाम हो चुके हैं. अतिशीघ्र बाईपास सर्जरी न की गई तो जान जा सकती है.’’

सुमन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. बाईपास सर्जरी का मतलब 3-4 लाख रुपए का खर्चा. एकाएक इतना रुपया आएगा कहां से. लेदे कर एकडेढ़ लाख रुपया होगा. इतने गहने भी नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर विनोद की जान बचाई जा सके. मकान बेचने का खयाल आया जो तत्काल संभव नहीं था. ऐसे समय सुमन अपनेआप को नितांत अकेला महसूस करने लगी. उस के मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे. अगर विनोद को कुछ हो गया तब? वह भय से सिहर गई. अकेली जिंदगी किस के भरोसे काटेगी? क्या बेटी के पास जा कर रहेगी? लोग क्या कहेंगे? सुमन जितना सोचती, दिल उतना ही बैठता. उस की आंखों में आंसू आ गए. भाई राकेश की नजर पड़ी तो वह उस के करीब आया, ‘‘घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा. 1 लाख रुपए की मदद मैं कर दूंगा.’’ सुमन को थोड़ी राहत मिली. तभी रेखा का फोन आया, ‘‘मम्मी, रुपयों की चिंता मत करना. मैं तुरंत बनारस पहुंच रही हूं.’’

सुमन की जान में जान आई. अपने आंसू पोंछे. वह सोचने लगी कि अभी किसी तरह विनोद की जान बचनी चाहिए, बाद में जब वे ठीक हो जाएंगे तब मकान बेच कर सब का कर्ज चुका देंगे. विनोद को प्लेन से दिल्ली ले जाया गया. मगर इलाज से पूर्व ही विनोद की सांसें थम गईं. सुमन दहाड़ मारमार कर रोने लगी. वह बारबार यही रट लगाए हुए थी कि अब मैं किस के सहारे जिऊंगी. रेखा ने किसी तरह उन्हें संभाला. तेरहवीं खत्म होने के एक महीने तक रेखा सुमन के पास ही रही. राकेश उसे अपने पास ले जाना चाहता था जबकि रेखा चाहती थी कि मां उस के पास शेष जीवन गुजारे. सब से बड़ी समस्या थी जीविकोपार्जन की. विनोद के जाने के बाद आमदनी का स्रोत खत्म हो गया था. कचहरी से 50 हजार रुपए मिले थे. 50 हजार के आसपास बीमा के. कुछ वकीलों ने सहयोग किया. सुमन ने काफी सोचविचार कर दोनों से कहा, ‘‘मैं यहीं रह कर कोई छोटीमोटी दुकान कर लूंगी. अकेली जान, दालरोटी चल जाएगी. मैं तुम लोगों पर बोझ नहीं बनना चाहती.’’ ‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मी,’’ रेखा नाराज हो गई, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं है तो क्या, बेटी तो है. मैं तुम्हारा खयाल रखूंगी. यहां रातबिरात आप की तबीयत बिगड़ेगी तो कौन संभालेगा?’’ ‘‘मैं मर भी गई तो क्या फर्क पड़ेगा. मेरी जिम्मेदारी तुम थीं जिसे मैं ने निभा दिया. जब तक अकेले रह पाना संभव होगा, रहूंगी. उस के बाद तुम लोग तो हो ही,’’ सुमन के इनकार से दोनों को निराशा हुई.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी. मैं तुम्हारी रोजाना खबर लेता रहूंगा. तुम भी निसंकोच फोन करती रहना. मोबाइल के रिचार्ज की चिंता मत करना, मैं समयसमय पर पैसे डलवाता रहूंगा,’’ राकेश बोला. सब चले गए. घर अकेला हो गया. विनोद थे तो इंतजार था. अब तो जैसी सुबह वैसी रात. 3 कमरों में सुमन टहलती रहती. एक रोज अलमारी की सफाई करते हुए उसे एक खत मिला. खत को गौर से देखा तो लिखावट विनोद की थी. वह पढ़ने लगी :

‘‘प्रिय सुमन,

अब मुझ से काम नहीं होता. 70 साल की अवस्था हो गई है. रोजाना 10-12 किलोमीटर साइकिल चला कर कचहरी जाना संभव नहीं. सोचता हूं कि घर बैठ जाऊं पर घरखर्च कैसे चलेगा. इस सवाल से मेरी रूह कांप जाती. ब्लडप्रैशर और शुगर ने जीना मुहाल कर दिया है, सो अलग. कभीकभी सोचता हूं खुदकुशी कर लूं. फिर तुम्हारा खयाल आता है कि तुम अकेली कैसे रहोगी? क्यों न हम दोनों एकसाथ खुदकुशी कर लें. हो सकता है कि यह सब तुम्हें बचकाना लगे. जरा सोचो, कौन है जो हमारी देखभाल करेगा? एक बेटा भी तो नहीं है. क्या बेटीदामाद से सेवा करवाना उचित होगा? बेटी का तो चल जाएगा मगर दामादजी, वे भला हमें क्यों रखना चाहेंगे? मैं तुम्हें कोई राय नहीं देना चाहूंगा क्योंकि हर आदमी को अपनी जिंदगी पर अधिकार है. हां, अगर मेरे करीब मौत आएगी तो मैं बचाव का प्रयास नहीं करूंगा. इस के लिए मुझे क्षमा करना. मैं ने मकान तुम्हारे नाम कर दिया है. मकान बेच कर तुम इतनी रकम पा सकती हो कि शेष जिंदगी तुम बेटीदामाद के यहां आसानी से काट सको.

तुम्हारा विनोद.’’

खत पढ़ कर सुमन की आंखें भीग गईं. तो क्या उन्हें अपनी मौत का भान था? यह सवाल सुमन के मस्तिष्क में कौंधा. सुमन ने अलमारी ठीक से खंगाली. उस में उसे एक जांच रिपोर्ट मिली. निश्चय ही रिपोर्ट में उन के हार्ट के संबंध में जानकारी होगी? रिपोर्ट 6 माह पुरानी थी. इस का मतलब विनोद को अपनी बीमारी की गंभीरता का पहले से ही पता था? उन्होंने जानबूझ कर इलाज नहीं करवाया. इलाज का मतलब लंबा खर्चा. कहां से इतना रुपया आएगा? यही सब सोच कर विनोद ने रिपोर्ट को छिपा दिया था. सुमन गहरी वेदना में डूब गई.

यह तो पागल है: कौन थी वह औरत

अपनी पत्नी सरला को अस्पताल के इमरजैंसी विभाग में भरती करवा कर मैं उसी के पास कुरसी पर बैठ गया. डाक्टर ने देखते ही कह दिया था कि इसे जहर दिया गया है और यह पुलिस केस है. मैं ने उन से प्रार्थना की कि आप इन का इलाज करें, पुलिस को मैं खुद बुलवाता हूं. मैं सेना का पूर्व कर्नल हूं. मैं ने उन को अपना आईकार्ड दिखाया, ‘‘प्लीज, मेरी पत्नी को बचा लीजिए.’’ डाक्टर ने एक बार मेरी ओर देखा, फिर तुरंत इलाज शुरू कर दिया. मैं ने अपने क्लब के मित्र डीसीपी मोहित को सारी बात बता कर तुरंत पुलिस भेजने का आग्रह किया. उस ने डाक्टर से भी बात की. वे अपने कार्य में व्यस्त हो गए. मैं बाहर रखी कुरसी पर बैठ गया. थोड़ी देर बाद पुलिस इंस्पैक्टर और 2 कौंस्टेबल को आते देखा. उन में एक महिला कौंस्टेबल थी.

मैं भाग कर उन के पास गया, ‘‘इंस्पैक्टर, मैं कर्नल चोपड़ा, मैं ने ही डीसीपी मोहित साहब से आप को भेजने के लिए कहा था.’’ पुलिस इंस्पैक्टर थोड़ी देर मेरे पास रुके, फिर कहा, ‘‘कर्नल साहब, आप थोड़ी देर यहीं रुकिए, मैं डाक्टरों से बात कर के हाजिर होता हूं.’’

मैं वहीं रुक गया. मैं ने दूर से देखा, डाक्टर कमरे से बाहर आ रहे थे. शायद उन्होंने अपना इलाज पूरा कर लिया था. इंस्पैक्टर ने डाक्टर से बात की और धीरेधीरे चल कर मेरे पास आ गए. मैं ने इंस्पैक्टर से पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा कैसी है मेरी पत्नी क्या वह खतरे से बाहर है, क्या मैं उस से मिल सकता हूं ’’ एकसाथ मैं ने कई प्रश्न दाग दिए.

‘‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. डाक्टर अपना इलाज पूरा कर चुके हैं. उन की सांसें चल रही हैं. लेकिन बेहोश हैं. 72 घंटे औब्जर्वेशन में रहेंगी. होश में आने पर उन के बयान लिए जाएंगे. तब तक आप उन से नहीं मिल सकते. हमें यह भी पता चल जाएगा कि उन को कौन सा जहर दिया गया है,’’ इंस्पैक्टर ने कहा और मुझे गहरी नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘बताएं कि वास्तव में हुआ क्या था ’’ ‘‘दोपहर 3 बजे हम लंच करते हैं. लंच करने से पहले मैं वाशरूम गया और हाथ धोए. सरला, मेरी पत्नी, लंच शुरू कर चुकी थी. मैं ने कुरसी खींची और लंच करने के लिए बैठ गया. अभी पहला कौर मेरे हाथ में ही था कि वह कुरसी से नीचे गिर गई. मुंह से झाग निकलने लगा. मैं समझ गया, उस के खाने में जहर है. मैं तुरंत उस को कार में बैठा कर अस्पताल ले आया.’’

‘‘दोपहर का खाना कौन बनाता है ’’ ‘‘मेड खाना बनाती है घर की बड़ी बहू के निर्देशन में.’’

‘‘बड़ी बहू इस समय घर में मिलेगी ’’ ‘‘नहीं, खाना बनवाने के बाद वह यह कह कर अपने मायके चली गई कि उस की मां बीमार है, उस को देखने जा रही है.’’

‘‘इस का मतलब है, वह खाना अभी भी टेबल पर पड़ा होगा ’’ ‘‘जी, हां.’’

‘‘और कौनकौन है, घर में ’’ ‘‘इस समय तो घर में कोई नहीं होगा. मेरे दोनों बेटों का औफिस ग्रेटर नोएडा में है. वे दोनों 11 बजे तक औफिस के लिए निकल जाते हैं. छोटी बहू गुड़गांव में काम करती है. वह सुबह ही घर से निकल जाती है और शाम को घर आती है. दोनों पोते सुबह ही स्कूल के लिए चले जाते हैं. अब तक आ गए होंगे. मैं गार्ड को कह आया था कि उन से कहना, दादू, दादी को ले कर अस्पताल गए हैं, वे पार्क में खेलते रहें.’’

इंस्पैक्टर ने साथ खड़े कौंस्टेबल से कहा, ‘‘आप कर्नल साहब के साथ इन के फ्लैट में जाएं और टेबल पर पड़ा सारा खाना उठा कर ले आएं. किचन में पड़े खाने के सैंपल भी ले लें. पीने के पानी का सैंपल भी लेना न भूलना. ठहरो, मैं ने फोरैंसिक टीम को बुलाया है. वह अभी आती होगी. उन को साथ ले कर जाना. वे अपने हिसाब से सारे सैंपल ले लेंगे.’’

‘‘घर में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं ’’ इंस्पैक्टर ने मुझ से पूछा. ‘‘जी, नहीं.’’

‘‘सेना के बड़े अधिकारी हो कर भी कैमरे न लगवा कर आप ने कितनी बड़ी भूल की है. यह तो आज की अहम जरूरत है. यह पता भी चल गया कि जहर दिया गया है तो इसे प्रूफ करना मुश्किल होगा. कैमरे होने से आसानी होती. खैर, जो होगा, देखा जाएगा.’’ इतनी देर में फोरैंसिक टीम भी आ गई. उन को निर्देश दे कर इंस्पैक्टर ने मुझ से उन के साथ जाने के लिए कहा.

‘‘आप ने अपने बेटों को बताया ’’ ‘‘नहीं, मैं आप के साथ व्यस्त था.’’

‘‘आप मुझे अपना मोबाइल दे दें और नाम बता दें. मैं उन को सूचना दे दूंगा.’’ इंस्पैक्टर ने मुझ से मोबाइल ले लिया. फोरैंसिक टीम को सारी कार्यवाही के लिए एक घंटा लगा. टीम के सदस्यों ने जहर की शीशी ढूंढ़ ली. चूहे मारने का जहर था. मैं जब पोतों को ले कर दोबारा अस्पताल पहुंचा तो मेरे दोनों बेटे आ चुके थे. एक महिला कौंस्टेबल, जो सरला के पास खड़ी थी, को छोड़ कर बाकी पुलिस टीम जा चुकी थी. मुझे देखते ही, दोनों बेटे मेरे पास आ गए.

‘‘पापा, क्या हुआ ’’ ‘‘मैं ने सारी घटना के बारे में बताया.’’

‘‘राजी कहां है ’’ बड़े बेटे ने पूछा. ‘‘कह कर गई थी कि उस की मां बीमार है, उस को देखने जा रही है. तुम्हें तो बताया होगा ’’

‘‘नहीं, मुझे कहां बता कर जाती है.’’ ‘‘वह तुम्हारे हाथ से निकल चुकी है. मैं तुम्हें समझाता रहा कि जमाना बदल गया है. एक ही छत के नीचे रहना मुश्किल है. संयुक्त परिवार का सपना, एक सपना ही रह गया है. पर तुम ने मेरी एक बात न सुनी. तब भी जब तुम ने रोहित के साथ पार्टनरशिप की थी. तुम्हें 50-60 लाख रुपए का चूना लगा कर चला गया.

‘‘तुम्हें अपनी पत्नी के बारे में सबकुछ पता था. मौल में चोरी करते रंगेहाथों पकड़ी गई थी. चोरी की हद यह थी कि हम कैंटीन से 2-3 महीने के लिए सामान लाते थे और यह पैक की पैक चायपत्ती, साबुन, टूथपेस्ट और जाने क्याक्या चोरी कर के अपने मायके दे आती थी और वे मांबाप कैसे भूखेनंगे होंगे जो बेटी के घर के सामान से घर चलाते थे. जब हम ने अपने कमरे में सामान रखना शुरू किया तो बात स्पष्ट होने में देर नहीं लगी. ‘‘चोरी की हद यहां तक थी कि तुम्हारी जेबों से पैसे निकलने लगे. घर में आए कैश की गड्डियों से नोट गुम होने लगे. तुम ने कैश हमारे पास रखना शुरू किया. तब कहीं जा कर चोरी रुकी. यही नहीं, बच्चों के सारे नएनए कपड़े मायके दे आती. बच्चे जब कपड़ों के बारे में पूछते तो उस के पास कोई जवाब नहीं होता. तुम्हारे पास उस पर हाथ उठाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.

‘‘अब तो वह इतनी बेशर्म हो गई है कि मार का भी कोई असर नहीं होता. वह पागल हो गई है घर में सबकुछ होते हुए भी. मानता हूं, औरत को मारना बुरी बात है, गुनाह है पर तुम्हारी मजबूरी भी है. ऐसी स्थिति में किया भी क्या जा सकता है. ‘‘तुम्हें तब भी समझ नहीं आई. दूसरी सोसाइटी की दीवारें फांदती हुई पकड़ी गई. उन के गार्डो ने तुम्हें बताया. 5 बार घर में पुलिस आई कि तुम्हारी मम्मी तुम्हें सिखाती है और तुम उसे मारते हो. जबकि सारे उलटे काम वह करती है. हमें बच्चों के जूठे दूध की चाय पिलाती थी. बच्चों का बचा जूठा पानी पिलाती थी. झूठा पानी न हो तो गंदे टैंक का पानी पिला देती थी. हमारे पेट इतने खराब हो जाते थे कि हमें अस्पताल में दाखिल होना पड़ता था. पिछली बार तो तुम्हारी मम्मी मरतेमरते बची थी.

‘‘जब से हम अपना पानी खुद भरने लगे, तब से ठीक हैं.’’ मैं थोड़ी देर के लिए सांस लेने के लिए रुका, ‘‘तुम मारते हो और सभी दहेज मांगते हैं, इस के लिए वह मंत्रीजी के पास चली गई. पुलिस आयुक्त के पास चली गई. कहीं बात नहीं बनी तो वुमेन सैल में केस कर दिया. उस के लिए हम सब 3 महीने परेशान रहे, तुम अच्छी तरह जानते हो. तुम्हारी ससुराल के 10-10 लोग तुम्हें दबाने और मारने के लिए घर तक पहुंच गए. तुम हर जगह अपने रसूख से बच गए, वह बात अलग है. वरना उस ने तुम्हें और हमें जेल भिजवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इतना सब होने पर भी तुम उसे घर ले आए जबकि वह घर में रहने लायक लड़की नहीं थी.

‘‘हम सब लिखित माफीनामे के बिना उसे घर लाना नहीं चाहते थे. उस के लिए मैं ने ही नहीं, बल्कि रिश्तेदारों ने भी ड्राफ्ट बना कर दिए पर तुम बिना किसी लिखतपढ़त के उसे घर ले आए. परिणाम क्या हुआ, तुम जानते हो. वुमेन सैल में तुम्हारे और उस के बीच क्या समझौता हुआ, हमें नहीं पता. तुम भी उस के साथ मिले हुए हो. तुम केवल अपने स्वार्थ के लिए हमें अपने पास रखे हो. तुम महास्वार्थी हो. ‘‘शायद बच्चों के कारण तुम्हारा उसे घर लाना तुम्हारी मजबूरी रही होगी या तुम मुकदमेबाजी नहीं चाहते होगे. पर, जिन बच्चों के लिए तुम उसे घर ले कर आए, उन का क्या हुआ पढ़ने के लिए तुम्हें अपनी बेटी को होस्टल भेजना पड़ा और बेटे को भेजने के लिए तैयार हो. उस ने तुम्हें हर जगह धोखा दिया. तुम्हें किन परिस्थितियों में उस का 5वें महीने में गर्भपात करवाना पड़ा, तुम्हें पता है. उस ने तुम्हें बताया ही नहीं कि वह गर्भवती है. पूछा तो क्या बताया कि उसे पता ही नहीं चला. यह मानने वाली बात नहीं है कि कोई लड़की गर्भवती हो और उसे पता न हो.’’

‘‘जब हम ने तुम्हें दूसरे घर जाने के लिए डैडलाइन दे दी तो तुम ने खाना बनाने वाली रख दी. ऐसा करना भी तुम्हारी मजबूरी रही होगी. हमारा खाना बनाने के लिए मना कर दिया होगा. वह दोपहर का खाना कैसा गंदा और खराब बनाती थी, तुम जानते थे. मिनरल वाटर होते हुए भी, टैंक के पानी से खाना बनाती थी. ‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी से आशंका व्यक्त की थी कि यह पागल हो गई है. यह कुछ भी कर सकती है. हमें जहर भी दे सकती है. किचन में कैमरे लगवाओ, नौकरानी और राजी पर नजर रखी जा सकेगी. तुम ने हामी भी भरी, परंतु ऐसा किया नहीं. और नतीजा तुम्हारे सामने है. वह तो शुक्र करो कि खाना तुम्हारी मम्मी ने पहले खाया और मैं उसे अस्पताल ले आया. अगर मैं भी खा लेता तो हम दोनों ही मर जाते. अस्पताल तक कोई नहीं पहुंच पाता.’’

इतने में पुलिस इंस्पैक्टर आए और कहने लगे, ‘‘आप सब को थाने चल कर बयान देने हैं. डीसीपी साहब इस के लिए वहीं बैठे हैं.’’ थाने पहुंचे तो मेरे मित्र डीसीपी मोहित साहब बयान लेने के लिए बैठे थे. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे सब से पहले आप की छोटी बहू के बयान लेने हैं. पता करें, वह स्कूल से आ गई हो, तो तुरंत बुला लें.’’

छोटी बहू आई तो उसे सीधे डीसीपी साहब के सामने पेश किया गया. उसे हम में से किसी से मिलने नहीं दिया गया. डीसीपी साहब ने उसे अपने सामने कुरसी पर बैठा, बयान लेने शुरू किए.

2 इंस्पैक्टर बातचीत रिकौर्ड करने के लिए तैयार खड़े थे. एक लिपिबद्ध करने के लिए और एक वीडियोग्राफी के लिए. डीसीपी साहब ने पूछना शुरू किया-

‘‘आप का नाम ’’ ‘‘जी, निवेदिका.’’

‘‘आप की शादी कब हुई कितने वर्षों से आप कर्नल चोपड़ा साहब की बहू हैं ’’ ‘‘जी, मेरी शादी 2011 में हुई थी.

6 वर्ष हो गए.’’ ‘‘आप के कोई बच्चा ’’

‘‘जी, एक बेटा है जो मौडर्न स्कूल में दूसरी क्लास में पढ़ता है.’’ ‘‘आप को अपनी सास और ससुर से कोई समस्या मेरे कहने का मतलब वे अच्छे या आम सासससुर की तरह तंग करते हैं ’’

‘‘सर, मेरे सासससुर जैसा कोई नहीं हो सकता. वे इतने जैंटल हैं कि उन का दुश्मन भी उन को बुरा नहीं कह सकता. मेरे पापा नहीं हैं. कर्नल साहब ने इतना प्यार दिया कि मैं पापा को भूल गई. वे दोनों अपने किसी भी बच्चे पर भार नहीं हैं. पैंशन उन की इतनी आती है कि अच्छेअच्छों की सैलरी नहीं है. दवा का खर्चा भी सरकार देती है. कैंटीन की सुविधा अलग से है.’’ ‘‘फिर समस्या कहां है ’’

‘‘सर, समस्या राजी के दिमाग में है, उस के विचारों में है. उस के गंदे संस्कारों में है जो उस की मां ने उसे विरासत में दिए. सर, मां की प्रयोगशाला में बेटी पलती और बड़ी होती है, संस्कार पाती है. अगर मां अच्छी है तो बेटी भी अच्छी होगी. अगर मां खराब है तो मान लें, बेटी कभी अच्छी नहीं होगी. यही सत्य है. ‘‘सर, सत्य यह भी है कि राजी महाचोर है. मेरे मायके से 5 किलो दान में आई मूंग की दाल भी चोरी कर के ले गई. मेरे घर से आया शगुन का लिफाफा भी चोरी कर लिया, उस की बेटी ने ऐसा करते खुद देखा. थोड़ा सा गुस्सा आने पर जो अपनी बेटी का बस्ता और किताबें कमरे के बाहर फेंक सकती है, वह पागल नहीं तो और क्या है. उस की बेटी चाहे होस्टल चली गई परंतु यह बात वह कभी नहीं भूल पाई.’’

‘‘ठीक है, मुझे आप के ही बयान लेने थे. सास के बाद आप ही राजी की सब से बड़ी राइवल हैं.’’

उसी समय एक कौंस्टेबल अंदर आया और कहा, ‘‘सर, राजी अपने मायके में पकड़ी गई है और उस ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया है. उस की मां भी साथ है.’’ ‘‘उन को अंदर बुलाओ. कर्नल साहब, उन के बेटों को भी बुलाओ.’’

थोड़ी देर बाद हम सब डीसीपी साहब के सामने थे. राजी और उस की मां भी थीं. राजी की मां ने कहा, ‘‘सर, यह तो पागल है. उसी पागलपन के दौरे में इस ने अपनी सास को जहर दिया. ये रहे उस के पागलपन के कागज. हम शादी के बाद भी इस का इलाज करवाते रहे हैं.’’ ‘‘क्या यह बीमारी शादी से पहले की है ’’

‘‘जी हां, सर.’’ ‘‘क्या आप ने राजी की ससुराल वालों को इस के बारे में बताया था ’’ डीसीपी साहब ने पूछा.

‘‘सर, बता देते तो इस की शादी नहीं होती. वह कुंआरी रह जाती.’’ ‘‘अच्छा था, कुंआरी रह जाती. एक अच्छाभला परिवार बरबाद तो न होता. आप ने अपनी पागल लड़की को थोप कर गुनाह किया है. इस की सख्त

से सख्त सजा मिलेगी. आप भी बराबर की गुनाहगार हैं. दोनों को इस की सजा मिलेगी.’’

‘‘डीसीपी साहब किसी पागल लड़की को इस प्रकार थोपने की क्रिया ही गुनाह है. कानून इन को सजा भी देगा. पर हमारे बेटे की जो जिंदगी बरबाद हुई उस का क्या हो सकता है, इस के पागलपन का प्रभाव हमारी अगली पीढ़ी पर भी पड़े. उस का कौन जिम्मेदार होगा हमारा खानदान बरबाद हो गया. सबकुछ खत्म हो गया.’’ ‘‘मानता हूं, कर्नल साहब, इस की पीड़ा आप को और आप के बेटे को जीवनभर सहनी पड़ेगी, लेकिन कोई कानून इस मामले में आप की मदद नहीं कर पाएगा.’’

थाने से हम घर आ गए. सरला की तबीयत ठीक हो गई थी. वह अस्पताल से घर आ गई थी. महीनों वह इस हादसे को भूल नहीं पाई थी. कानून ने राजी और उस की मां को 7-7 साल कैद की सजा सुनाई थी. जज ने अपने फैसले में लिखा था कि औरतों के प्रति गुनाह होते तो सुना था लेकिन जो इन्होंने किया उस के लिए 7 साल की सजा बहुत कम है. अगर उम्रकैद का प्रावधान होता तो वे उसे उम्रकैद की सजा देते.

सच्चा प्यार: क्यों जुदा हो जाते हैं चाहने वाले दो दिल

अनुपम और शिखा दोनों इंगलिश मीडियम के सैंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ते थे. दोनों ही उच्चमध्यवर्गीय परिवार से थे. शिखा मातापिता की इकलौती संतान थी जबकि अनुपम की एक छोटी बहन थी. धनसंपत्ति के मामले में शिखा का परिवार अनुपम के परिवार की तुलना में काफी बेहतर था. शिखा के पिता पुलिस इंस्पैक्टर थे. उन की ऊपरी आमदनी काफी थी. शहर में उन का रुतबा था. अनुपम और शिखा दोनों पहली कक्षा से ही साथ पढ़ते आए थे, इसलिए वे अच्छे दोस्त बन गए थे. दोनों के परिवारों में भी अच्छी दोस्ती थी. शिखा सुंदर थी अनुपम देखने में काफी स्मार्ट था.

उस दिन उन का 10वीं के बोर्ड का रिजल्ट आने वाला था. शिखा भी अनुपम के घर अपना रिजल्ट देखने आई. अनुपम ने अपना लैपटौप खोला और बोर्ड की वैबसाइट पर गया. कुछ ही पलों में दोनों का रिजल्ट भी पता चल गया. अनुपम को 95 प्रतिशत अंक मिले थे और शिखा को 85 प्रतिशत. दोनों अपनेअपने रिजल्ट से संतुष्ट थे. और एकदूसरे को बधाई दे रहे थे. अनुपम की मां ने दोनों का मुंह मीठा कराया.

शिखा बोली, ‘‘अब आगे क्या पढ़ना है, मैथ्स या बायोलौजी? तुम्हारे तो दोनों ही सब्जैक्ट्स में अच्छे मार्क्स हैं?’’

‘‘मैं तो पीसीएम ही लूंगा. और तुम?’’

‘‘मैं तो आर्ट्स लूंगी, मेरा प्रशासनिक सेवा में जाने का मन है.’’

‘‘मेरी प्रशासनिक सेवा में रुचि नहीं है. जिंदगीभर नेताओं और मंत्रियों की जीहुजूरी करनी होगी.’’

‘‘मैं तुम्हें एक सलाह दूं?’’

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘तुम पायलट बनो. तुम पर पायलट वाली ड्रैस बहुत सूट करेगी और तुम दोगुना स्मार्ट लगोगे. मैं भी तुम्हारे साथसाथ हवा में उड़ने लगूंगी.’’

‘‘मेरे साथ?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, पायलट अपनी बीवी को साथ नहीं ले जा सकते, क्या.’’

तब शिखा को ध्यान आया कि वह क्या बोल गई और शर्म के मारे वहां से भाग गई. अनुपम पुकारता रहा पर उस ने मुड़ कर पीछे नहीं देखा. थोड़ी देर में अनुपम की मां भी वहां आ गईं. वे उन दोनों की बातें सुन चुकी थीं. उन्होंने कहा, ‘‘शिखा ने अनजाने में अपने मन की बात कह डाली है. शिखा तो अच्छी लड़की है. मुझे तो पसंद है. तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो. अगर तुम्हें पसंद है तो मैं उस की मां से बात करती हूं.’’

अनुपम बोला, ‘‘यह तो बाद की बात है मां, अभी तक हम सिर्फ अच्छे दोस्त हैं. पहले मुझे अपना कैरियर देखना है.’’

मां बोलीं, ‘‘शिखा ने अच्छी सलाह दी है तुम्हें. मेरा बेटा पायलट बन कर बहुत अच्छा लगेगा.’’

‘‘मम्मी, उस में बहुत ज्यादा खर्च आएगा.’’

‘‘खर्च की चिंता मत करो, अगर तुम्हारा मन करता है तब तुम जरूर पायलट बनो अन्यथा अगर कोई और पढ़ाई करनी है तो ठीक से सोच लो. तुम्हारी रुचि जिस में हो, वही पढ़ो,’’ अनुपम के पापा ने उन की बात सुन कर कहा.

उन दिनों 21वीं सदी का प्रारंभ था. भारत के आकाशमार्ग में नईनई एयरलाइंस कंपनियां उभर कर आ रही थीं. अनुपम ने मन में सोचा कि पायलट का कैरियर भी अच्छा रहेगा. उधर अनुपम की मां ने भी शिखा की मां से बात कर शिखा के मन की बात बता दी थी. दोनों परिवार भविष्य में इस रिश्ते को अंजाम देने पर सहमत थे.

एक दिन स्कूल में अनुपम ने शिखा से कहा, ‘‘मैं ने सोच लिया है कि मैं पायलट ही बनूंगा. तुम मेरे साथ उड़ने को तैयार रहना.’’

‘‘मैं तो न जाने कब से तैयार बैठी हूं,’’ शरारती अंदाज में शिखा ने कहा.

‘‘ठीक है, मेरा इंतजार करना, पर कमर्शियल पायलट बनने के बाद ही शादी करूंगा.’’

‘‘नो प्रौब्लम.’’

अब अनुपम और शिखा दोनों काफी नजदीक आ चुके थे. दोनों अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगे थे. देखतेदेखते दोनों 12वीं पास कर चुके थे. अनुपम को अच्छे कमर्शियल पायलट बनने के लिए अमेरिका के एक फ्लाइंग स्कूल जाना था.

भारत में मल्टीइंजन वायुयान और एयरबस ए-320 जैसे विमानों पर सिमुलेशन की सुविधा नहीं थी जोकि अच्छे कमर्शियल पायलट के लिए जरूरी था. इसलिए अनुपम के पापा ने गांव की जमीन बेच कर और कुछ प्रोविडैंट फंड से लोन ले कर अमेरिकन फ्लाइंग स्कूल की फीस का प्रबंध कर लिया था. अनुपम ने अमेरिका जा कर एक मान्यताप्राप्त फ्लाइंग स्कूल में ऐडमिशन लिया. शिखा ने स्थानीय कालेज में बीए में ऐडमिशनले लिया.

अमेरिका जाने के बाद फोन और वीडियो चैट पर दोनों बातें करते. समय का पहिया अपनी गति से घूम रहा था. देखतेदेखते 3 वर्ष से ज्यादा का समय बीत चुका था. अनुपम को कमर्शियल पायलट लाइसैंस मिल गया. शिखा को प्रशासनिक सेवा में सफलता नहीं मिली. उस ने अनुपम से कहा कि प्रशासनिक सेवा के लिए वह एक बार और कंपीट करने का प्रयास करेगी.

अनुपम ने प्राइवेट एयरलाइंस में पायलट की नौकरी जौइन की. लगभग 2 साल वह घरेलू उड़ान पर था. एकदो बार उस ने शिखा को भी अपनी फ्लाइट से सैर कराई. शिखा को कौकपिट दिखाया और कुछ विमान संचालन के बारे में बताया. शिखा को लगा कि उस का सपना पूरा होने जा रहा है. एक साल बाद अनुपम को अंतर्राष्ट्रीय वायुमार्ग पर उड़ान भरने का मौका मिला. कभी सिंगापुर, कभी हौंगकौंग तो कभी लंदन.

शिखा को दूसरे वर्ष भी प्रशासनिक सेवा में सफलता नहीं मिली. इधर शिखा के परिवार वाले उस की शादी जल्दी करना चाहते थे. अनुपम ने उन से 1-2 साल का और समय मांगा. दरअसल, अनुपम के पिता उस की पढ़ाई के लिए काफी कर्ज ले चुके थे. अनुपम चाहता था कि अपनी कमाई से कुछ कर्ज उतार दे और छोटी बहन की शादी हो जाए.

वैसे तो वह प्राइवेट एयरलाइंस घरेलू वायुसेवा में देश में दूसरे स्थान पर थी पर इस कंपनी की आंतरिक स्थिति ठीक नहीं थी. 2007 में कंपनी ने दूसरी घरेलू एयरलाइंस कंपनी को खरीदा था जिस के बाद इस की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी थी. 2010 तक हालत बदतर होने लगे थे. बीचबीच में कर्मचारियों को बिना वेतन 2-2 महीने काम करना पड़ा था.

उधर शिखा के पिता शादी के लिए अनुपम पर दबाव डाल रहे थे. पर बारबार अनुपम कुछ और समय मांगता ताकि पिता का बोझ कुछ हलका हो. जो कुछ अनुपम की कमाई होती, उसे वह पिता को दे देता. इसी वजह से अनुपम की बहन की शादी भी अच्छे से हो गई. उस के पिता रिटायर भी हो गए थे.

रिटायरमैंट के समय जो कुछ रकम मिली और अनुपम की ओर से मिले पैसों को मिला कर उन्होंने शहर में एक फ्लैट ले लिया. पर अभी भी फ्लैट के मालिकाना हक के लिए और रुपयों की जरूरत थी. अनुपम को कभी 2 महीने तो कभी 3 महीने पर वेतन मिलता जो फ्लैट में खर्च हो जाता. अब भी एक बड़ी रकम फ्लैट के लिए देनी थी.

एक दिन शिखा के पापा ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘आज अनुपम से फाइनल बात कर लेता हूं, आखिर कब तक इंतजार करूंगा और दूसरी बात, मुझे पायलट की नौकरी उतनी पसंद भी नहीं. ये लोग देशविदेश घूमते रहते हैं. इस का क्या भरोसा, कहीं किसी के साथ चक्कर न चल रहा हो.’’

अनुपम के मातापिता तो चाहते थे कि अनुपम शादी के लिए तैयार हो जाए, पर वह तैयार नहीं हुआ. उस का कहना था कि कम से कम यह घर तो अपना हो जाए, उस के बाद ही शादी होगी. इधर एयरलाइंस की हालत बद से बदतर होती गई. वर्ष 2012 में जब अनुपम घरेलू उड़ान पर था तो उस ने दर्दभरी आवाज में यात्रियों को संबोधित किया, ‘‘आज की आखिरी उड़ान में आप लोगों की सेवा करने का अवसर मिला. हम ने 2 महीने तक बिना वेतन के अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार आप की सेवा की है.’’

इस के चंद दिनों बाद इस एयरलाइंस की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों का लाइसैंस रद्द कर दिया गया. पायलट हो कर भी अनुपम बेकार हो गया.

शिखा के पिता ने बेटी से कहा, ‘‘बेटे, हम ने तुम्हारे लिए एक आईएएस लड़का देखा है. वे लोग तुम्हें देख चुके हैं और तुम से शादी के लिए तैयार हैं. वे कोई खास दहेज भी नहीं मांग रहे हैं वरना आजकल तो आईएएस को करोड़ डेढ़करोड़ रुपए आसानी से मिल जाता है.’’

‘‘पापा, मैं और अनुपम तो वर्षों से एकदूसरे को जानते हैं और चाहते भी हैं. यह तो उस के साथ विश्वासघात होगा. हम कुछ और इंतजार कर सकते हैं. हर किसी का समय एकसा नहीं होता. कुछ दिनों में उस की स्थिति भी अच्छी हो जाएगी, मुझे पूरा विश्वास है.’’

‘‘हम लोग लगभग 2 साल से उसी के इंतजार में बैठे हैं, अब और समय गंवाना व्यर्थ है.’’

‘‘नहीं, एक बार मुझे अनुपम से बात करने दें.’’

शिखा ने अनुपम से मिल कर यह बात बताई. शिखा तो कोर्ट मैरिज करने को भी तैयार थी पर अनुपम को यह ठीक नहीं लगा. वह तो अनुपम का इंतजार भी करने को तैयार थी.

शिखा ने पिता से कहा, ‘‘मैं अनुपम के लिए इंतजार कर सकती हूं.’’

‘‘मगर, मैं नहीं कर सकता और न ही लड़के वाले. इतना अच्छा लड़का मैं हाथ से नहीं निकलने दूंगा. तुम्हें इस लड़के से शादी करनी होगी.’’

उस के पिता ने शिखा की मां को बुला कर कहा, ‘‘अपनी बेटी को समझाओ वरना मैं अभी के तुम को गोली मार कर खुद को भी गोली मार दूंगा.’’ यह बोल कर उन्होंने पौकेट से पिस्तौल निकाल कर पत्नी पर तान दी.

मां ने कहा, ‘‘बेटे, पापा का कहना मान ले. तुम तो इन का स्वभाव जानती हो. ये कुछ भी कर बैठेंगे.’’

शिखा को आखिरकार पिता का कहना मानना पड़ा ही शिखा अब डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की पत्नी थी. उस के पास सबकुछ था, घर, बंगला, नौकरचाकर. कुछ दिनों तक तो वह थोड़ी उदास रही पर जब वह प्रैग्नैंट हुई तो उस का मन अब अपने गर्भ में पलने वाले जीव की ओर आकृष्ट हुआ.

उधर, अनुपम के लिए लगभग 1 साल का समय ठीक नहीं रहा. एक कंपनी से उसे पायलट का औफर भी मिला तो वह कंपनी उस की लाचारी का फायदा उठा कर इतना कम वेतन दे रही थी कि वह तैयार नहीं हुआ. इस के कुछ ही महीने बाद उसे सिंगापुर के एक मशहूर फ्लाइंग एकेडमी में फ्लाइट इंस्ट्रक्टर की नौकरी मिल गई. वेतन, पायलट की तुलना में कम था पर आराम की नौकरी थी. ज्यादा भागदौड़ नहीं करनी थी  इस नौकरी में. अनुपम सिंगापुर चला गया.

इधर शिखा ने एक बेटे को जन्म दिया. देखतेदेखते एक साल और गुजर गया. अनुपम के मातापिता अब उस की शादी के लिए दबाव बना रहे थे. अनुपम ने सबकुछ अपने मातापिता पर छोड़ दिया था. उस ने बस इतना कहा कि जिस लड़की को वे पसंद करें उस से फाइनल करने से पहले वह एक बार बात करना चाहेगा.

कुछ दिनों बाद अनुपम अपने एक दोस्त की शादी में भारत आया. वह दोस्त का बराती बन कर गया. जयमाला के दौरान स्टेज पर ही लड़की लड़खड़ा कर गिर पड़ी. उस का बाएं पैर का निचला हिस्सा कृत्रिम था, जो निकल पड़ा था. पूरी बरात और लड़की के यहां के मेहमान यह देख कर आश्चर्यचकित थे.

दूल्हे के पिता ने कहा, ‘‘यह शादी नहीं हो सकती. आप लोगों ने धोखा दिया है.’’

लड़की के पिता बोले, ‘‘आप को तो मैं ने बता दिया था कि लड़की का एक पैर खराब है.’’

‘‘आप ने सिर्फ खराब कहा था. नकली पैर की बात नहीं बताई थी. यह शादी नहीं होगी और बरात वापस जाएगी.’’

तब तक लड़की का भाई भी आ कर बोला, ‘‘आप को इसीलिए डेढ़ करोड़ रुपए का दहेज दिया गया है. शादी तो आप को करनी ही होगी वरना…’’

अनुपम का दोस्त, जो दूल्हा था, ने कहा, ‘‘वरना क्या कर लेंगे. मैं जानता हूं आप मजिस्ट्रेट हैं. देखता हूं आप क्या कर लेंगे. अपनी दो नंबर की कमाई के बल पर आप जो चाहें नहीं कर सकते. आप ने नकली पैर की बात क्यों छिपाई थी. लड़की दिखाने के समय तो हम ने इस की चाल देख कर समझा कि शायद पैर में किसी खोट के चलते लंगड़ा कर चल रही है, पर इस का तो पैर ही नहीं है, अब यह शादी नहीं होगी. बरात वापस जाएगी.’’

तब तक अनुपम भी दोस्त के पास पहुंचा. उस के पीछे एक महिला गोद में बच्चे को ले कर आई. वह शिखा थी. उस ने दुलहन बनी लड़की का पैर फिक्स किया. वह शिखा से रोते हुए बोली, ‘‘भाभी, मैं कहती थी न कि मेरी शादी न करें आप लोग. मुझे बोझ समझ कर घर से दूर करना चाहा था न?’’

‘‘नहीं मुन्नी, ऐसी बात नहीं है. हम तो तुम्हारा भला सोच रहे थे.’’ शिखा इतना ही बोल पाई थी और उस की आंखों से आंसू निकलने लगे. इतने में उस की नजर अनुपम पर पड़ी तो बोली, ‘‘अनुपम, तुम यहां?’’

अनुपम ने शिखा की ओर देखा. मुन्नी और विशेष कर शिखा को रोते देख कर वह भी दुखी था. बरात वापस जाने की तैयारी में थी. दूल्हेदोस्त ने शिखा को देख कर कहा, ‘‘अरे शिखा, तुम यहां?’’

‘‘हां, यह मेरी ननद मुन्नी है.’’

‘‘अच्छा, तो यह तुम लोगों का फैमिली बिजनैस है. तुम ने अनुपम को ठगा और अब तुम लोग मुझे उल्लू बना रहे थे. चल, अनुपम चल, अब यहां नहीं रुकना है.’’

अनुपम बोला, ‘‘तुम चलो, मैं शिखा से बात कर के आता हूं.’’

बरात लौट गई. शिखा अनुपम से बोली, ‘‘मुझे उम्मीद है, तुम मुझे गलत नहीं समझोगे और माफ कर दोगे. मैं अपने प्यार की कुर्बानी देने के लिए मजबूर थी. अगर ऐसा नहीं करती तो मैं अपनी मम्मी और पापा की मौत की जिम्मेदार होती.’’

‘‘मैं ने न तुम्हें गलत समझा है और न ही तुम्हें माफी मांगने की जरूरत है.’’

लड़की के पिता ने बरातियों से माफी मांगते हुए कहा, ‘‘आप लोग क्षमा करें, मैं बेटी के हाथ तो पीले नहीं कर सका लेकिन आप लोग कृपया भोजन कर के जाएं वरना सारा खाना व्यर्थ बरबाद जाएगा.’’

मेहमानों ने कहा, ‘‘ऐसी स्थिति में हमारे गले के अंदर निवाला नहीं उतरेगा. बिटिया की डोली न उठ सकी इस का हमें भी काफी दुख है. हमें माफ करें.’’

तब अनुपम ने कहा, ‘‘आप की बिटिया की डोली उठेगी और मेरे घर तक जाएगी. अगर आप लोगों को ऐतराज न हो.’’

वहां मौजूद सभी लोगों की निगाहें अनुपम पर गड़ी थीं. लड़की के पिता ने  झुक कर अनुपम के पैर छूने चाहे तो उस ने तुरंत उन्हें मना किया.

शिखा के पति ने कहा, ‘‘मुझे शिखा ने तुम्हारे बारे में बताया था कि तुम दोनों स्कूल में अच्छे दोस्त थे. पर मैं तुम से अभी तक मिल नहीं सका था. तुम ने मेरे लिए ऐसे हीरे को छोड़ दिया.’’

मुन्नी की शादी उसी मंडप में हुई. विदा होते समय वह अपनी भाभी शिखा से बोली, ‘‘प्यार इस को कहते हैं, भाभी. आप के या आप के परिवार को अनुपम अभी भी दुखी नहीं देखना चाहते हैं.’’

लव यू पापा: तनु ने उस रात आखिर क्या किया

‘‘अरे तनु, तुम कालेज छोड़ कर यहां कौफी पी रही हो? आज फिर बंक मार लिया क्या? इट्स नौट फेयर बेबी,’’ मौल के रेस्तरां में अपने दोस्तों के साथ बैठी तनु को देखते ही सृष्टि चौंक कर बोली. फिर तनु से कोई जवाब न पा कर खिसियाई सी सृष्टि उस के दोस्तों की तरफ मुड़ गई. पैरों में हाईहील, स्टाइल से बंधे बाल और लेटैस्ट वैस्टर्न ड्रैस में सजी सृष्टि को तनु के दोस्त अपलक निहार रहे थे.

‘‘चलो, अब आ ही गई हो तो ऐंजौय करो,’’ कहते हुए सृष्टि ने कुछ नोट तनु के पर्स में ठूंस सब को बाय किया और फिर रेस्तरां से बाहर निकल गई. ‘‘तनु, कितनी हौट हैं तुम्हारी मौम… तुम तो उन के सामने कुछ भी नहीं हो…’’

यह सुनते ही रेस्तरां के दरवाजे तक पहुंची सृष्टि मुसकरा दी. वैसे उस के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि उसे अकसर ऐसे कौंप्लिमैंट सुनने को मिलते रहते थे. मगर तनु के चेहरे पर अपनी मां के लिए खीज के भाव साफ देखे जा सकते हैं. सृष्टि बला की खूबसूरत है. इतनी आकर्षक कि किसी को भी मुड़ कर देखने पर मजबूर कर देती है. उसे देख कर कोई भी कह सकता है कि हां, कुछ लोग वाकई सांचे में ढाल कर बनाए जाते हैं.

16 साल की तनु उस की बेटी नहीं, बल्कि छोटी बहन लगती है. जिस खूबसूरती को लोग वरदान समझते हैं वही सुंदरता सृष्टि के लिए अभिशाप बन गई थी. 5 साल पहले जब तनु के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई तब इसी खूबसूरती ने 1-1 कर सब नातेरिश्तेदारों, दोस्तों और जानपहचान वालों के चेहरों से नकाब उठाने शुरू कर दिए थे.

नकाबों के पीछे छिपे कुछ चेहरे तो इतने घिनौने थे कि उन से घबरा कर सृष्टि ने यह दुनिया ही छोड़ने का फैसला कर लिया. मगर तभी तनु का खयाल आ गया. उसे लगा कि जब वही इस दुनिया का सामना नहीं कर पा रही है तो फिर यह नादान तनु कैसे कर पाएगी. फिर उन्हीं दिनों उस की जिंदगी में आए थे अभिषेक… अभिषेक सृष्टि के पति के सहकर्मी थे और उन की मृत्यु के बाद अब सृष्टि के, क्योंकि सृष्टि को उसी औफिस में अपने पति के स्थान पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल गई थी. अभिषेक अब तक कुंआरे क्यों थे, यह सभी के लिए कुतूहल का विषय था.

यह राज पहली बार खुद अभिषेक ने ही सृष्टि के सामने खोला था कि पिताविहीन घर में सब से बड़े होने के नाते छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारियां निभातेनिभाते कब खुद उन की शादी की उम्र निकल गई, उन्हें पता ही नहीं चला और इन सब के बीच उन का दिल भी तो कभी किसी के लिए ऐसे नहीं धड़का था जैसे अब सृष्टि को देख कर धड़कता है. यह सुन कर एकबार को तो सृष्टि सकपका गई, मगर फिर सोचा कि क्यों कटी पतंग की तरह खुद को लुटने के लिए छोड़ा जाए… क्यों न अपनी डोर किसी विश्वासपात्र के हाथों सौंप कर निश्चिंत हुआ जाए. मगर अपने इस निर्णय से पहले उसे तनु की राय जानना बहुत जरूरी था और तनु की राय जानने के लिए जरूरी था उस का अभिषेक से मिलना और फिर उन्हें अपने पिता के रूप में स्वीकार करने को सहमत होना, क्योंकि तनु अभी तक अपने पिता को भूल नहीं पाई थी. भूली तो वह भी कहां थी, मगर हकीकत यही है कि जीवन की सचाइयों को कड़वी गोलियों की तरह निगलना ही पड़ता है और यह बात उस की तरह तनु भी जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है.

अभिषेक का सौम्य और स्नेहिल व्यवहार… नानी का तनु को दुनियादारी समझाना और थोड़ीबहुत सामाजिक सुरक्षा की जरूरत भी, जोकि शायद खुद तनु ने महसूस की थी…सभी को देखते हुए तनु ने बेमन से ही सही मगर सृष्टि के साथ अभिषेक के रिश्ते को सहमति दे दी. अभिषेक को उन के साथ रहते हुए लगभग साल भर होने को आया था, लेकिन तनु अभी भी उन्हें अपने दिल में बसी पिता की तसवीर के फ्रेम में फिट नहीं कर पाई थी. वह उन्हें अपनी मां के पति के रूप में ही स्वीकार कर पाई थी, अपने पिता के रूप में नहीं. तनु ने एक बार भी अभिषेक को पापा कह कर नहीं पुकारा था.

पिता का असमय चले जाना और मां की नई पुरुष के साथ नजदीकियां तनु को भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर कर रही थीं. बातबात में चीखनाचिल्लाना, अपनी हर जिद मनवाना, हर वक्त अपने मोबाइल से चिपके रहना, अभिषेक के औफिस से घर आते ही अपने कमरे में घुस जाना तनु की आदत बनती जा रही थी. उस की मानसिक दशा देख कर कई बार सृष्टि को अपने फैसले पर अफसोस होने लगता. मगर तभी अभिषेक तनु के इस व्यवहार को किशोरावस्था के सामान्य लक्षण बता कर सृष्टि को इस गिल्ट से बाहर निकाल देते थे.

अभिषेक का साथ पा कर सृष्टि की मुरझाती खूबसूरती फिर से खिलने लगी थी. अभिषेक भी उसे हर समय सजीसंवरी देखना चाहते थे. इसीलिए उस के कपड़ों, गहनों और अन्य ऐक्सैसरीज पर दिल खोल कर खर्च करते थे. शायद लेट शादी होने के कारण पत्नी को ले कर अपनी सारी दबी इच्छाएं पूरी करना चाहते थे. मगर इस के ठीक विपरीत तनु अपनेआप को बेहद अकेला और असुरक्षित महसूस करने लगी थी. अपनेआप से बेहद लापरवाह हो चुकी थी.

धीरेधीरे तनु के कोमल मन में यह भावना घर करने लगी थी कि मां की सुंदरता ही उस के जीवन का सब से बड़ा अभिशाप है. जब कभी कोई उस की तुलना सृष्टि से करता तो तनु के सीने पर सांप लोट जाता था. उसे सृष्टि से घृणा सी होने लगी थी. अब तो उस ने सृष्टि के साथ बाहर आनाजाना भी लगभग बंद कर दिया था. उस के दिमाग में यही उथलपुथल रहती कि अगर मां इतनी सुंदर न होती तो अभिषेक का दिल भी उन पर नहीं आता और तब वे सिर्फ तनु की मां होतीं, अभिषेक या किसी और की पत्नी नहीं.

मां को भी तो देखो. कितनी इतराने लगी हैं आजकल… पांव हैं कि जमीन पर टिकते ही नहीं… हर समय अभिषेक आगेपीछे जो घूमते रहते हैं. तो क्या यह सब अभिषेक के प्यार की वजह से है? अगर अभिषेक इन की बजाय मुझे प्यार करने लगें तो? फिर मां क्या करेंगी? कैसे एकदम जमीन पर आ जाएंगी… कल्पना मात्र से ही तनु खिल उठी. तनु के मन में ईर्ष्या के नाग ने फन उठाना शुरू कर दिया. उस के दिमाग ने तेजी से सोचना शुरू कर दिया. कई तरह की योजनाएं बननेबिगड़ने लगीं. अचानक तनु के होंठों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. आखिर उसे रास्ता सूझने लगा था.

हां, मैं अब अभिषेक को अपना बनाऊंगी… उन्हें मां से दूर कर के मां का घमंड तोड़ दूंगी… तनु ने यह फैसला लेने में जरा भी देर नहीं लगाई. मगर यह इतना आसान नहीं है, यह बात भी वह अच्छी तरह से जानती थी. अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए उस ने अभिषेक पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी. उस की पसंदनापसंद को समझने की कोशिश करने लगी. उस के औफिस से आते ही वह उस के लिए पानी का गिलास भी लाने लगी थी. हां, अभिषेक को देख कर प्यार से मुसकराने में उसे जरूर थोड़ा वक्त लगा था. ‘‘मां, सिर में बहुत तेज दर्द है… थोड़ा बाम लगा दो न…’’ तनु जोर से चिल्लाई तो अभिषेक भाग कर उस के कमरे में गए. देखा तो तनु बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ी थी. शौर्ट पहने सोई तनु ने अपने शरीर पर चादर कुछ इस तरह से डाल रखी थी कि उस की खुली जांघों ने अभिषेक का ध्यान एक पल के लिए ही सही, अपनी तरफ खींच लिया. उन्हें अटपटा सा लगा तो चादर ठीक से ओढ़ा कर उस के सिर पर हाथ रखा. बुखार नहीं था. सृष्टि सब्जी लेने गई थी, अभी तक लौटी नहीं थी. इसीलिए वे तनु के सिरहाने बैठ कर उस का माथा सहलाने लगे. तनु ने खिसक कर अभिषेक की गोद में सिर रख लिया तो अभिषेक को अच्छा लगा. उन्हें विश्वास होने लगा कि शायद अब उन के रिश्ते में जमी बर्फ पिघल जाएगी.

धीरेधीरे तनु अभिषेक से खुलने लगी. कभीकभी सृष्टि की अनुपस्थिति में वह अभिषेक को जिद कर के बाहर ले जाने लगी. चलतेचलते कभी उस का हाथ पकड़ लेती तो कभी उस के कंधे पर सिर टिका लेती. अभिषेक भी पूरी कोशिश करते थे उसे खुश करने की. वे उस की जिंदगी में पिता की हर कमी को पूरा करना चाहते थे. मगर कभीकभी वे सोच में पड़ जाते थे कि आखिर तनु उन से क्या चाहती है, क्योंकि तनु ने अब तक उन्हें पापा कह कर संबोधित नहीं किया था. वह हमेशा उन से बिना किसी संबोधन के ही बात करती थी.

बाहर जाते समय कपड़ों के मामले में तनु अभिषेक के पसंदीदा रंग के कपड़े ही पहनती थी. एक दिन पार्क में बेंच पर अभिषेक के कंधे से लग कर बैठी तनु ने अचानक अभिषेक से पूछ लिया, ‘‘मैं आप को कैसी लगती हूं?’’ ‘‘जैसी हर पिता को अपनी बेटी लगती है… एकदम परी जैसी…’’ अभिषेक ने बहुत ही सहजता से जवाब दिया. मगर इसे सुन कर तनु के चेहरे की मुसकान गायब हो गई. फिर मन ही मन बड़बड़ाई कि किस मिट्टी का बना है यह आदमी… मैं तो इसे अपने मोहजाल में फंसाना चाह रही हूं और यह है कि मुझ में अपनी बेटी ढूंढ़ रहा है… या तो यह इंसान बहुत नादान है या फिर बहुत ही चालाक… कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेरी पहल का इंतजार कर रहा है? लगता है अब मुझे अपना मास्टर स्ट्रोक खेलना ही पड़ेगा और फिर मन ही मन कुछ तय कर लिया. ‘‘अभिषेक, मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है. मुझे 2-4 दिनों के लिए वहां जाना होगा. तुम तनु का खयाल रखना प्लीज…’’ सृष्टि ने अभिषेक के औफिस लौटते ही कहा तो तनु की जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई हो. वह ऐसे ही किसी मौके का तो इंतजार कर रही थी. वह कान लगा कर उन दोनों की बातें सुनने लगी. थोड़ी ही देर में सृष्टि ने कैब बुलाई और 4 दिनों के लिए अपनी मां के घर चली गई. जातेजाते उस ने तनु को गले लगा कर समझाया कि वह अपना और अभिषेक का खयाल रखे.

अभिषेक को रात में सोने से पहले शावर बाथ लेने की आदत थी. जब वह नहा कर बाथरूम से बाहर आया तो तनु को अपने बैड पर सोते देख चौंक गया. कमरे की डिम लाइट में पारदर्शी नाइटी से तनु के किशोर अंग झांक रहे थे. तनु दम साधे पड़ी अभिषेक की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही थी. अभिषेक कुछ देर तो वहां खड़े रहे, फिर धीरे से तनु को चादर ओढ़ाई और लाइट बंद कर के लौबी में आ कर बैठ गए. सुबह दूधवाले ने जब घंटी बजाई तो उसे भान हुआ कि वह रात भर यह सोफे पर ही सो रहा था. तनु हताश हो गई. अभिषेक को अपनी ओर खींचने के लिए किस डोरी से बांधे उसे… उस के सारे हथियार 1-1 कर निष्फल हो रहे थे. कल तो मां भी वापस आ जाएंगी… फिर उसे यह सुनहरा मौका नहीं मिलेगा… उसे जो कुछ करना है आज ही करना होगा. तनु ने आज आरपार का खेल खेलने की ठान ली.

रात लगभग आधी बीत चुकी थ्ीि. अभिषेक नींद में बेसुध थे. तभी अचानक किसी के स्पर्श से उन की आंख खुल गई. देखा तो तनु थी. उस से लिपटी हुई. अभिषेक कुछ देर तो यों ही लेटे रहे, फिर धीरे से करवट बदली. अभिषेक तनु के मुंह पर झुकने लगे. तनु अपनी योजना की कामयाबी पर खुश हो रही थी. अभिषेक ने धीरे से उस के माथे को चूमा और फिर अपने ऊपर आए उस के हाथ को छुड़ा तनु को वहीं सोता छोड़ लौबी में आ कर सो गए. उस दिन संडे था. सृष्टि कुछ ही देर पहले मां के घर से लौटी थी. नहानेधोने और नाश्ता करने के बाद सृष्टि अभिषेक को मां की तबीयत के बारे में बताने लगी. तनु के कान उन दोनों की बातों की ही तरफ लगे थे. वह डर रही थी कि कहीं अभिषेक उस की हरकतों की शिकायत सृष्टि से न कर दे. अचानक सृष्टि ने जरा शरमाते हुए कहा, ‘‘अभि, मां चाहती हैं किअब हम दोनों का भी एक बेबी आना चाहिए.’’

यह सुनते ही तनु को झटका सा लगा. ‘लो, अब यही दिन देखना बाकी रह गया था. अब इस उम्र में मां फिर से मां बनेंगी… हुंह,’ तनु ने सोच कर मुंह बिचका दिया.

‘‘सृष्टि मुझे तनु के प्यार में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहिए… मैं तुम से यह बात छिपाने के लिए माफी चाहता हूं, मगर तुम से शादी करने से पहले ही मैं ने फैसला कर लिया था कि मुझे तनु अपनी एकमात्र संतान के रूप में स्वीकार है, इसलिए मैं ने बिना किसी को बताए हमारी शादी से पहले ही अपना नसबंदी का औपरेशन करवा लिया था,’’ अभिषेक ने कहा. यह सुन कर सृष्टि और तनु दोनों ही

चौंक उठीं. ‘‘हमें तनु का खास खयाल रखना होगा सृष्टि… 16 साल की तनु मन से अभी भी 6 साल की अबोध बच्ची है… यह अपनेआप को बहुत अकेला महसूस करती है… कोई भी बाहरी व्यक्ति इस के भोलेपन का गलत फायदा उठा सकता है. बिना बाप की यह मासूम बच्ची कितनी डरी हुई है. यह मुझे पिछले 3 दिनों में एहसास हो गया. तुम्हें पता है, इसे रात में कितना डर लगता है? इसे जब डर लगता था तो यह कितनी मासूमियत से मुझ से लिपट जाती थी… नहीं सृष्टि मैं तनु का प्यार किसी और के साथ नहीं बांट सकता… मैं बहुत खुशनसीब हूं कि कुदरत ने मुझे इतनी प्यारी बेटी दी है,’’ अभिषेक अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे.

सृष्टि अपलक उन्हें निहार रही थी. और तनु? वह तो शर्म से पानीपानी हुई जैसे जमीन में गड़ जाना चाहती थी. फिर जैसे ही अभिषेक ने आ कर उसे गले से लगाया तो वह सिसक उठी. आंखों से बहते आंसुओं के साथ मन का सारा मैल धुलने लगा. सृष्टि ने पीछे से आ कर दोनों को अपनी बांहों में समेट लिया. अभिषेक ने तनु के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘अब बना है यह सही माने में स्वीट होम…’’

तनु ने मुसकराते हुए धीरे से कहा, ‘‘लव यू पापा,’’ और फिर उन से लिपट गई.

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