
कुमुद को पछतावा हो रहा था कि उस ने समय रहते सुमित्रा की बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया. शादी से पहले उस प्राइवेट कालेज में सुमित्रा उस की घनिष्ठ सहेली थी. कुमुद के विवाह की बात चल रही थी. सुमित्रा विवाहित थी और शादी के बाद अब फिर बीए पूरा करने कालेज जा रही थी. एक दिन खाली घंटी में लाइब्रेरी के एक कोने में बैठ कर उस ने जोजो बातें कुमुद को सम?ाई थीं, वे याद आने लगीं.
कुमुद ने करवट बदली. घड़ी में 3 बज गए पर उस का पलंग से उठने का मन नहीं हो रहा था. चाय में अभी देरी थी. वह सुमित्रा की बातें सोचने लगी…
सुमित्रा ने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘कुम, मेरी बात पर ध्यान दे. पत्रपत्रिकाओं या किताबों में पढ़ी बातें कह रही हूं, व्हाट्सऐप वाली नहीं. जो कुछ जिंदगी में थोड़ा सा देखा हुआ है, जो गंभीर पढ़ा था, जो भोगा है वही बता रही हूं कि किसी भी हालत में किसी लड़के को पत्र मत लिखना, डायरी न रखना कंप्यूटर पर चाहे पासवर्ड से सेफ क्यों न हों. डायरी रखनी हो तो बस रोजमर्रा की मामूली बातें लिखना, शरत की नायिका की तरह उस में अपनी भावुकता किसी के बारे में बघारने मत बैठ जाना, सम?ा? सब से बड़ी बात सैल्फी लेने में हिचकना. कम से कम सैल्फी या फोटो ही अच्छे रहते हैं.’’
कुमुद ने हंस कर पूछा, ‘‘तू ये बातें कैसे जानती है? क्या कोई…’’
‘‘चुप रह, बेवकूफ लड़की,’’ सुमित्रा ने गुस्से से उसे डांटा, ‘‘तुझे क्या पता. हंस रही है. उस सोमेन को ज्यादा मुंह न लगा. कोई खास
बात हो तुम लोगों के बीच, इस से बहस नहीं, पर वह नौजवान लड़का है. उस के प्रति या तो पूरी तरह समर्पित हो कर उस पर मर मिट और उस से अभी शादी कर ले या फिर उस से दूर रह.’’
कुमुद ने गंभीरता से कहा, ‘‘सुमि, सोमेन या किसी लड़के से मैं मित्र या भाई का संबंध रखूं तो क्या हो गया, लोगों की तो आदत है कि जहां किसी लड़की को किसी लड़के से मिलते देखा नहीं कि झट उन्हें प्रेमीप्रेमिका मान बैठते हैं. अपना दिल साफ रहना चाहिए, बस. प्रेम विवाह तो आज की जरूरत है.’’
‘‘भई, अब तू जाने, तेरा काम जाने,’’ सुमित्रा ने ऊब कर कहा, ‘‘मेरा काम तुझे समझना था सो समझ दिया. ये सारे किताबी सिद्धांत हैं. मेरा मतलब है जरा होशियार रह.
प्रेम विवाह पर पात्र भी तो देखा जाता है. देखसुन कर काम कर. अब मैं कुछ नहीं कहूंगी, तू बच्ची नहीं.’’
सुमित्रा की ये बातें कुमुद के कानों में लगातार गूंज रही थीं. खट की आवाज पर वह चौंकी. बाई ने पलंग की बगल के स्टूल पर चाय की ट्रे ला कर रख दी थी.
कुमुद ने पूछा, ‘‘नीता कहां हैं, देखो.’’
तभी परदा हटा कर चमकतीदमकती नीता भीतर आई. बोली, ‘‘लो भाभी, मैं आ गई. जरा हाथमुंह धोने बाथरूम तक गई थी.’’
कुमुद ने देखा, नीता के सुंदर चेहरे पर से पानी की बूंदें टपक रही थीं. कई बड़ीबड़ी बूंदें कनपटियों के बालों में उलझ हुई थीं. उस ने प्यार से कहा, ‘‘चेहरे से पानी तो पोंछ लो.’’
कुमुद चाय बनाने लगी.
नीता ने आंचल से मुंह थपक कर पानी सुखाते हुए कहा, ‘‘भैया के आने का समय तो 5 बजे का है. तब तुम्हें चाय फिर पीनी पड़ेगी, भाभी.’’
‘‘और?’’ कुमुद मुसकराई, ‘‘बरामदे पर चाय की मेज सजाए. खुद भी सजधज कर मधुर मुसकान बिखेरते तुम्हारे भैया का स्वागत भी तो करना पड़ेगा. आखिर आजकल मैं औफिस से 10 दिन की पेड लीव पर हूं.’’
नीता हंसी, ‘‘सच भाभी, क्या वाहियात औपचारिकता है.’’
‘‘जरूरी है,’’ कुमुद ने हलके व्यंग्यात्मक भाव से कहा, ‘‘कोई बेचारा दिनभर चक्की में जुत कर घर लौटे तो दूसरा दरवाजे पर खड़ा उस का स्वागत करे, यही नया नियम बनाया है आज के मनी वैज्ञानिकों ने.’’
नीता ने बगल की बुक शैल्फ से हैराल्ड राबिंस की किताब ‘द पाइरेट’ उठाई. 1-2 पृष्ठ उलटेपलटे, फिर बोली, ‘‘फिर भी भाभी जरा उन विकसित उन्नत देशों की स्त्रियों को देखो, जो अपने को बड़ी स्वतंत्र, पुरुष की बराबरी का समझती हैं. उन्हें किस प्रकार पुरुषों की गुलामी में सामूहिक रूप से जीना पड़ रहा है, कैसे वे आर्थिक, सामाजिक चक्रव्यूह में फंसी नाचती रहती हैं. पुरुषों की नजर में उन की कीमत सिर्फ उन के शरीर की है. वहां तो सामाजिक निर्माण में स्त्रियों की अभी भी मर्दों के बराबर की भूमिका नहीं. वहां के समाज ने उन्हें फुसलाने को ऊंची पोस्टों पर रख तो लिया है, पर असल में सारे फैसले पुरुष मैजोरिटी से ही होते हैं. ऊंचे पद पर बैठी औरत पर अभी भी हर जगह पुरुष का अहं चलता है. उस का निजी सम्मान उस की गर्लफ्रैंड या पत्नी में बसता है.’’
‘‘दूसरी तरफ,’’ कुमुद बोली, ‘‘हम लोगों में भी गांव की और मजदूरपेशा स्त्रियां पुरुष के साथ ज्यादा बराबरी का दर्जा रखती हैं. हम तो कभी गृहिणी बन जाती हैं तो कभी ड्राइंग रूमी शो पीस.’’
नीता ने जरा गंभीर हो कर पूछा, ‘‘तुम्हारे वे ओल्ड फ्रैंड तो बहुत मानते हैं तुम्हें, भाभी?’’
कुमुद के हाथ का कप हौले से कांप गया. नीता का ध्यान उधर नहीं था. वह अपनी ही रौ में कहती रही, ‘‘बड़े सीधे लगते हैं.’’
‘‘हां, सीधासादा है,’’ कुमुद की आवाज जैसे कहीं दूर से आ रही हो, ‘‘छोड़ो उसे. उस से मेरा कोई विशेष संबंध नहीं है. यों ही पड़ोस के नाते दोस्ती है.’’
नीता चाय की चुसकी लेती रही. कुमुद को पहले क्या पता कि उस कमबख्त सुमित्रा की बातें कैसे आड़े आएंगी. किसे पता था उस के पड़ोस का वही सोमेन यहीं की ब्रांच में बदल कर आ पहुंचेगा और बीच बाजार में उस से भेंट भी होगी.
उस ने कभी सोमेन को एक नटखट, गैरजिम्मेदार और खिलाड़ी टाइप के नौजवान से अधिक कुछ नहीं समझ था. पड़ोस का मुंहबोला भाई होने के नाते वह प्राय: घर में आता रहता. कुमुद की मां को वह आंटी कहता. कुमुद को जरा चोर निगाहों से देखता था, जो इस अवस्था में सहज स्वाभाविक ही था. कुमुद को याद है, हर साल रक्षाबंधन पर जब वह उन के घर जाती तो प्राय: किसी जरूरी काम से वह दिनभर बाहर रहता. उसे राखीटीका सब ढोंग प्रतीत होते.
कुमुद इन बातों का अर्थ समझती थी पर उस की नई उम्र में एक कुतूहल, एक सुखद सी उत्तेजना के सिवा इन का महत्त्व कुछ और नहीं था. कभीकभार जब कई लोग कहीं जा रहे होते तो वह भी साथ रहता था. रात वाली पार्टियों के बाद उसे घर छोड़ने भी वही आता. समवयस्क किशोरियों की भांति वह भी लड़कों को अपने प्रति आकर्षित देख प्रसन्न होती. उम्र की मांग के अनुरूप इस का भी विभिन्न तरीकों से अंदाजा लगाती रहती कि उस में लड़कों को खींचने योग्य कितना आकर्षण है. वह गु्रप फोटो में अकसर साथ होता.
यही छोटा सा, नगण्य खेल उस की विवाहिता सहेली सुमित्रा की नजरों से बच न पाया. कुमुद को उस ने तभी वे बातें समझाई थीं. उस ने उसे देर रात घर छोड़ते भी देखा था और साथ में कई दोस्तों के साथ रेस्तरांओं में खातेपीते भी.
कुमुद सोचने लगी, ‘क्या किया उस ने आखिर? सोमेन को कभी कोई साहस भी न हो पाया कि उसे उस से कुछ है या उस से कोई अपेक्षा है. वही बिंदास सा सामान्य खेल था, जो घर वालों की उपस्थिति में टीनऐजर्स खेल लेते हैं. कभी भी कोई प्यारव्यार या क्रश की बात नहीं, कोई फिल्मी डायलाग नहीं? कोई व्हाट्सऐप चैंट नहीं. न ही किसी तरह की कोई रंचमात्र की हरकत, न उस की रसीद. सोमेन उन दिनों बड़े दब्बू किस्म का लड़का था.’
फिर वह क्यों डरती है सोमेन से. नहीं, वह सोमेन से नहीं डरती. वह तो डरती है खुद से, रघु की संभावित प्रतिक्रियाओं से, उस के पति के अधिकारबोध से, उस की पतिसुलभ मानसिकता से, नीता से और सब से, एक सोमेन को छोड़ वह सब से डर रही है.
नीता चाय का खाली कप रख कर जा चुकी थी. कुमुद ने विचारमग्न सा दूसरा कप तैयार किया.
आज से एक सप्ताह पहले सोमेन बाजार में अकस्मात मिल गया. कुमुद नीता के साथ एक दुकान पर खड़ी साडि़यां और रघु के लिए शर्ट देख रही थी.
बगल के काउंटर पर कपड़े पसंद करता सोमेन उसे देख लपक आया. खुशीखुशी बोला, ‘‘हैलो, कुमुद तुम हो? भई वाह, खूब मिली. मेरी बदली यहीं की ब्रांच में हुई है. परसों ही तो आया हूं. तुम से मिलने की सोच रहा था.’’
कुमुद ने नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘सोमेन भैया, यह मेरी ननद है नीता… तुम कभी घर पर आना न, पता तो जानते ही होंगे.’’
सोमेन बुजुर्गों की तरह हंसा, ‘‘पता नहीं जानूंगा. तिलक ले कर मैं भी तो आया था.’’
पता नहीं, सोमेन से यों भेंट होना कुमुद को पसंद नहीं आ रहा था. वह यह भी देख रही थी कि सालभर पहले का दब्बू सा सोमेन अब काफी तेज लग रहा है. तेजी से बोलने लगा है. पहले सा मन में बात दबाता नहीं लगा.
‘‘तुम्हें तो बहाना चाहिए मुझे ताना मारने का.’’
‘‘क्यों न मारूं ताना? एक बाली तक खरीद कर ला न सके. जो हैं वही बेटी के काम आ रहे हैं. मुझे पहनने का मौका कब मिला?’’ ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’’ विनोद ने हंसी की, ‘‘अब कौन सा सजसंवर कर बरात की शोभा बढ़ानी है तुम्हें.’’
‘‘जब थी तब ही कौन सा गहनों से लाद दिया था.’’
‘‘स्त्री का सब से बड़ा गहना उस का पति होता है.’’
‘‘रहने दीजिए, रहने दीजिए. खाली बातों से हम औरतों का दिल नहीं भरता. मैं मर्दों के चोंचले अच्छी तरह से जानती हूं. हजारों सालों से यही जुमले कह कर आप लोगों ने हम औरतों को बहलाया है.’’
‘‘तुम्हें कौन बहला सकता है.’’
‘‘बहकी हूं तभी तो 30 साल तुम्हारे साथ गुजार दिए.’’
‘‘नहीं तो क्या किसी के साथ भाग जातीं?’’
‘‘भाग ही जाती अगर कोई मालदार मिलता,’’ सुमन ने भी हंसी की. ‘‘भागना क्या आसान है? मुझ जैसा वफादार पति चिराग ले कर भी ढूंढ़तीं तो भी नहीं मिलता.’’ ‘‘वफादारी की चाशनी से पेट नहीं भरता. अंटी में रुपया भी चाहिए. वह तो आप से ताउम्र नहीं हुआ. थोड़े से गहने बचे हैं, उन्हें बेटी को दे कर खाली हो जाऊंगी,’’ सुमन जज्बाती हो गई, ‘‘औरतों की सब से बड़ी पूंजी यही होती है. बुरे वक्त में उन्हें इसी का सहारा होता है.’’ ‘‘कल कुछ बुरा हो गया तो दवादारू के लिए कुछ भी नहीं बचेगा.’’ सुमन के साथ विनोद भी गहरी चिंता में डूब गए, जब उबरे तो उसांस ले कर बोले, ‘‘यह मकान बेच देंगे.’’
‘‘बेच देंगे तो रहेंगे कहां?’’
‘‘किराए पर रह लेंगे.’’ ‘‘कितने दिन? वह भी पूंजी खत्म हो जाएगी तब क्या भीख मांगेंगे?’’ ‘‘तब की तब देखी जाएगी. अभी रेखा की शादी निबटाओ,’’ विनोद यथार्थ की तरफ लौटा. गहने लगभग 3 लाख रुपए के थे. एकाध सुमन अपने पास रखना चाहती थी. एकदम से खाली गले व कान से रहेगी तो समाज क्या कहेगा? खुद को भी अच्छा नहीं लगेगा. यही सोच कर सुमन ने तगड़ी और कान के टौप्स अपने पास रख लिए. वैसे भी 2 लाख रुपए के गहने ही देने का तय था. जैसेजैसे शादी के दिन नजदीक आ रहे थे वैसेवैसे चिंता के कारण सुमन का ब्लडप्रैशर बढ़ता जा रहा था. एकाध बार वह चक्कर खा कर गिर भी चुकी थी. विनोद ने जबरदस्ती ला कर दवा दी. खाने से आराम मिला मगर बीमारी तो बीमारी थी. अगर जरा सी लापरवाही करेगी तो कुछ भी हो सकता है. विनोद को शुगर और ब्लडप्रैशर दोनों था. तमाम परेशानियों के बाद भी वे आराम महसूस नहीं कर पाते. वकालत का पेशा ऐसा था कि कोई मुवक्किल बाजार का बना समोसा या मिठाई ला कर देता तो ना नहीं कर पाते. सुमन का हाल था कि वह अपने को देखे कि विनोद को. आखिर शादी का दिन आ ही गया, जिस को ले कर दोनों परेशान थे. रेखा सजने के लिए ब्यूटीपार्लर गई. विनोद की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘अब यह खर्चा कहां से दें? 5 हजार रुपए कम होते हैं. एकएक पैसा बचा रहा हूं जबकि मांबेटी बरबाद करने पर तुली हुई हैं.’’ ‘‘बेटी पैदा की है तो सहन करना भी सीखिए. इस का पेमैंट रेखा खुद करेगी. अब खुश.’’
यह सुन कर विनोद ने राहत की सास ली और चैन से बैठ गया. फुटकर सौ तरह के खर्च थे. शादी के चंद दिनों पहले वर के पिता बोले कि सिर्फ डीजे लाएंगे. अगर बैंड पार्टी करनी हो तो अपने खर्च पर करें. विनोद को तो कोई फर्क नहीं पड़ा, सुमन ने मुंह बना लिया, ‘‘कैसा लगेगा बिना बैंड पार्टी के?’’ ‘‘जैसा भी लगे, हमें क्या. हमें शादी से मतलब है. रेखा सात फेरे ले ले तो मैं गंगा नहाऊं.’’ विनोद के कथन पर सुमन चिढ़ गई, ‘‘चाहे तो अभी नहा लीजिए. लोकलाज भी कुछ चीज है. सादीसादी बरात आएगी तो कैसा लगेगा?’’ ‘‘जैसा भी लगे. मैं फूटी कौड़ी भी खर्च करने वाला नहीं,’’ थोड़ा रुक कर, ‘‘जब उन्हें कोई एतराज नहीं तो हम क्यों बिलावजह टांग अड़ाएं?’’
‘‘मुझे एतराज है,’’ सुमन बोली.
‘‘तो लगाओ अपनी जेब से रुपए,’’ विनोद खीझे.
‘‘मेरे पास रुपए होते तो मैं क्या आप का मुंह जोहती,’’ सुमन रोंआसी हो गई. तभी राकेश आया. दोनों का वार्त्तालाप उस के कानों में पड़ा. ‘‘दीदी, तुम बिलावजह परेशान होती हो. बाजे का मैं इंतजाम कर देता हूं.’’ सुमन ने जहां आंसू पोंछे वहीं विनोद के रुख पर वह लज्जित हुई. विनोद को अब भी आशंका थी कि लड़के वाले ऐन मौके पर कुछ और डिमांड न कर बैठें. सजधज कर रेखा बहुत ही सुंदर दिख रही थी. विनोद और सुमन की आंखें भर आईं. भला किस पिता को अपनी बेटी से लगाव नहीं रहेगा. विनोद को आज इस बात की कसक थी कि काश, उस की अच्छी कमाई होती तो निश्चय ही रेखा की बेहतर परवरिश करता. रातभर शादी का कार्यक्रम चलता रहा. भोर होते ही रेखा की विदाई होने लगी तो सभी की आंखें नम थीं. रेखा का रोरो कर बुरा हाल था. सिसकियों के बीच बोली, ‘‘मम्मी, पापा, मैं चली जाऊंगी तो आप लोगों का खयाल कौन करेगा?’’
‘‘उस की चिंता मत करो, बेटी,’’ सुमन नाक पोंछते हुए बोली. अपनी बड़ी मौसी की तरफ मुखातिब हो कर रेखा भर्राए कंठ से बोली, ‘‘मौसी, इन का खयाल रखना. इन का मेरे सिवा है ही कौन?’’
‘‘ऐसा नहीं कहते, हम लोग भरसक इन की देखभाल करेंगे,’’ मौसी रेखा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं. ‘‘मम्मी को अकसर गरमी में डिहाइड्रेशन हो जाता है. आप खयाल कर के दवा का इंतजाम कर दीजिएगा ताकि रातबिरात मां की हालत बिगड़े तो संभाला जा सके.’’
‘‘तू उस की फिक्र मत कर. मैं अकसर आतीजाती रहूंगी.’’ सुमन इस कदर रोई कि उस की हालत बिगड़ गई. एक हफ्ता बिस्तर पर थी. विनोद का भी मन नहीं लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो उन के शरीर का कोई हिस्सा उन से अलग हो गया हो. हालांकि रेखा 2 साल से बाहर नौकरी कर रही थी लेकिन तब तक एहसास था कि वह विनोद के परिवार का हिस्सा थी. अब तो हमेशा के लिए दूसरे परिवार का हिस्सा बन गई. उन्हीं के तौरतरीके से जीना होगा उसे. सुमन की तबीयत संभली तो रेखा को फोन किया.
‘‘हैलो, बेटा…’’
‘‘कैसी हो, मम्मी,’’ रेखा का गला भर आया.
‘‘ठीक हूं.’’
‘‘अपना खयाल रखना.’’
‘‘अब रखने का क्या औचित्य? बेटाबहू होते तो जीने का बहाना होता,’’ सुमन का कंठ भीग गया.
‘‘मम्मी,’’ रेखा ने डांटा, ‘‘आइंदा इस तरह की बातें कीं तो मैं आप से बात नहीं करूंगी,’’ उस ने बातचीत का विषय बदला, ‘‘जयपुर जा रही हूं,’’ रेखा के स्वर से खुशी स्पष्ट थी. ‘‘यह तुम लोगों ने अच्छा सोचा. यही उम्र है घूमनेफिरने की. बाद में कहां मौका मिलता है, घरगृहस्थी में रम जाओगी.’’ रेखा ने फोन रख दिया. विनोद ने सुना तो खुश हो गए. यहां भी सुमन ताना मारने से बाज न आई, ‘‘एक हमारी शादी हुई. बहुत हुआ तो आप ने रिकशे पर बिठा कर किसी हाटबाजार के दर्शन करा दिए. हो गया हनीमून…’’
‘‘बुढ़ापे में तुम्हें हनीमून सूझ रहा है.’’
‘‘मैं जवानी की बात कर रही हूं. शादी के पहले दिन आप रुपयों का रोना ले कर बैठ गए. आज 30 साल बाद भी रोना गया नहीं. कम से कम रेखा का पति इतना तो समझदार है कि अपनी बीवी को जयपुर घुमाने ले जा रहा है.’’ ‘‘सारी दुनिया बनारस घूमने आती है और तुम्हें जयपुर की पड़ी है,’’ विनोद ने अपनी खीझ मिटाई. ‘‘आप से तो बहस करना ही बेकार है. नईनई शादी की कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें क्या बुढ़ापे में पूरी करेंगे?’’ ‘‘अब ऊपर जा कर पूरी करना,’’ कह कर विनोद अपने काम में लग गए. 3 साल गुजर गए. इस बीच रेखा 1 बेटे की मां बनी. ससुराल वाले ननिहाल का मुख देखने लगे. सुमन ने अपने हाथों की एक जोड़ी चूड़ी बेच कर अपने नाती के लिए सोने की पतली सी चेन, कपड़े और फल व मिठाइयों का प्रबंध किया. विनोद की हालत ऐसी नहीं थी कि वे इस सामान को ले जा सकें. वजह, उन्हें माइनर हार्ट का दौरा पड़ा था. चूंकि घर में और कोई नहीं था सो वे ही किसी तरह इलाहाबाद गए.
शादी की धूमधाम में शहनाई के मधुर स्वर हवा में तैर रहे थे. रंग, फूल, सुगंध, कहकहे, रंगबिरंगी रोशनी सब मिला कर एक स्वप्निल वातावरण बना हुआ था. इतने में शोर उठा, ‘बरात आ गई, बरात आ गई.’
सब एकसाथ स्वागत द्वार की ओर दौड़ पड़े. सजीसंवरी दुलहन को उस की कुछ सहेलियां द्वार की ओर ला रही थीं. वरमाला की रस्म अदा हुई, पहली बार वर ने वधू की ओर देखा और जैसे कोई उस के कलेजे पर वार कर गया. सारे रंगीन ख्वाब टूट कर बिखर गए.
दूल्हा सोचने लगा, जिंदगी ने यह कैसा मजाक उस के साथ किया है. सांवला, दुबलापतला शरीर, गड्ढे में धंसी आंखें, रूखे मोटे होंठ, दुलहन का शृंगार भी क्या उस की कुरूपता को ढक पाया था लेकिन अब क्या हो सकता था. यह गले पड़ा ढोल तो उसे बजाना ही था. इस से अब वह बच नहीं सकता था.
पिता के कठोर अनुशासन ने गौरव को अत्यंत लजीला और भीरु बना दिया था. उन के सामने वह मुंह तक नहीं खोल सकता था. जो कुछ वे कहते, वह सिर झुका कर मान लेता.
यह रिश्ता गौरव के लालची पिता ने लड़की वालों की अमीरी देख कर तय किया था. लड़की के पिता की लाखों की संपत्ति, उस पर इकलौती संतान, वे फौरन ही इस रिश्ते के लिए मान गए थे. पैसे से उन का मोह जगत प्रसिद्ध था.
गौरव ने सुधा के स्वभाव के बारे में तो पहले ही धारणा बना ली थी, बड़े बाप की इकलौती, पढ़ीलिखी लड़की घमंडी और बदमिजाज तो होगी ही. उस के पिता को ऐसी बहू मिलेगी जो उस की तरह उन से नहीं दबेगी, उलटा वे ही कुछ न कह सकेंगे, यह सोच कर उस की पिता से बदला लेने की भावना को कहीं संतुष्टि मिली.
लेकिन आशा के विपरीत सुधा बहुत ही मधुरभाषिणी, कम बोलने वाली और संकोची प्रवृत्ति की निकली. बड़ों का आदरसम्मान, बच्चों में प्यार से घुलमिल जाना, हर समय हर किसी को खुश करने के लिए काम में जुटे रहना, अपने इन्हीं गुणों से उस ने धीरेधीरे घर भर का मन मोह लिया था.
गौरव की बहन अरुणा दीदी, जो उम्र में उस से काफी बड़ी थीं, सुधा की तारीफ करते न थकतीं. दीदी, जीजाजी और उन के बच्चे शादी के बाद कुछ दिन उन के पास रुक गए थे. इसी दौरान सुधा उन से यों घुलमिल गई थी मानो बरसों से उन्हें पहचानती हो.
आश्चर्य की बात यह थी कि सिवा गौरव के घर भर में कोई भी सुधा के रूपरंग का जिक्र न करता, सब उस के स्वभाव का ही बखान करते. गौरव पत्नी की तारीफ सुन कर खीज उठता. वह अपने दोस्तों में हमेशा सुधा की कुरूपता की चर्चा करता और अपने से उस की तुलना कर अपने खूबसूरत होने पर गर्व महसूस करता.
सुधा पति को प्रसन्न करने का हर तरह से प्रयत्न करती, उस की छोटीछोटी सुविधाओं का पूरा ध्यान रखती लेकिन गौरव उस से बात तक न करता. जो कहना होता, मां से या नौकरों से कहता. सुधा धैर्यपूर्वक पलपल उस की बर्फीली बेरुखी सहती. उसे उम्मीद थी कि शायद कभी उस की जिंदगी का सूरज उदय होगा, जिस की आंच में यह बर्फ पिघल जाएगी और उस की कंपकंपाती जिंदगी को प्यार की नरम धूप का सेंक मिलेगा.
इस बीच गौरव का अपने दफ्तर की स्टेनो नंदिनी से मेलजोल बढ़ने लगा. नंदिनी उस पर काफी पहले से ही डोरे डाल रही थी. वह गौरव को फांस कर उस से शादी के सपने देखा करती. सुंदरसजीले गौरव पर बहुत सी लड़कियां मरती थीं, उस से दोस्ती करना चाहती थीं मगर गौरव शरमीले स्वभाव का होने के कारण लड़कियों से बहुत झेंपता, उन से बात करने में भी झिझकता और नजरें बचा कर निकल जाता.
शादी के बाद वही गौरव नारी के मांसल आकर्षण में अजीब खिंचाव और आनंद लेने लगा था. अब वह पहले सा लजीला, रूखा और नीरस युवक नहीं रह गया था. औरत के दैहिक सम्मोहन में आकंठ डूब चला था. सुधा की सूखी देह जब उस की बांहों में होती तो गौरव की कल्पना उसे नंदिनी की मांसल, आकर्षक देह बना देती. मगर वह क्षणिक दैहिक सुख गौरव को तृप्ति न दे पाता और वह प्यासा रह जाता, उस मिलन में उसे एक अधूरापन लगता.
नंदिनी गौरव के दिल की हालत समझ रही थी. उस ने सुन रखा था कि गौरव की पत्नी एक कुरूप नारी है. नंदिनी को अपनी सुंदरता और सुडौल शरीर पर बड़ा अभिमान था. वह रोज तरहतरह से अपने को सजासंवार कर दफ्तर आती और गौरव को रिझाने का प्रयास करती. आखिर गौरव भी कब तक धैर्य रखता. वह दिनोदिन उस की सुंदरता में डूबता जा रहा था.
आर्थिक रूप से गौरव सक्षम हो चुका था. दहेज में मिली लाखों की संपत्ति उस की थी. पिता बूढ़े हो रहे थे. गठिया के रोग से पीडि़त थे, चलफिर नहीं सकते थे, स्वत: ही उन का रोबदाब कम हो चला था. गौरव धीरेधीरे मनमानी पर उतर आया था.
सुधा को गौरव ने पत्नी का दर्जा कभी नहीं दिया था. बस, उस की झोली में एक प्यारा सा बेटा डाल कर उस के प्रति अपने कर्तव्य की इति समझ बैठा था. वह सारा दिन घर के कामकाज एवं सासससुर और बच्चे की देखभाल में जुटी रहती, इधर गौरव रातरात भर गायब रहता. उस के और नंदिनी के संबंध किसी से छिपे न रहे, लेकिन किसी की हिम्मत न थी जो उसे कुछ कह सके, पूरा घर उस से भयभीत रहने लगा था.
भीतर ही भीतर सुधा घुटती रहती मगर ऊपर से खामोश रहती. वह घर में किसी प्रकार की कलह नहीं करना चाहती थी. हीनभावना की गहराई में उस की अपनी अस्मिता कहीं डूब गई थी.
गौरव की ऐयाशी के किस्से जब एक दिन सुधा के मातापिता तक पहुंचे तो वे चुप न रहे. एक दिन जब गौरव नंदिनी के साथ कोई फिल्म देख कर लौटा तो अचानक अपने ससुर को वहां देख चौंक पड़ा.
‘‘कहां से आ रहे हो, गौरव?’’ ससुर कृष्णलाल ने व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा.
एकाएक गौरव से कोई उत्तर न बन पड़ा. धीरे से बोला, ‘‘दोस्तों के साथ फिल्म देखने गया था.’’
सुनते ही उस के ससुर कठोर स्वर में बोले, ‘‘यह मत समझो कि हमें तुम्हारी कारगुजारियों का पता नहीं. सोच रहे थे कि शायद तुम अपनेआप संभल जाओ. सुधा बेचारी ने तो आज तक तुम्हारे खिलाफ एक शब्द नहीं लिखा. हर पत्र में तुम्हारी तारीफ ही लिखती रहती थी. वह तो भला हो तुम्हारे पिताजी का जिन्होंने तार दे कर मुझे बुलवा लिया, अपने बेटे की चरित्रहीनता दिखलाने, उस की ‘कीर्ति’ सुनवाने.’’
फिर कुछ रुक कर वे बोले, ‘‘लेकिन सुधा को मैं अब और अपमानित होने के लिए यहां नहीं रहने दूंगा. मैं उसे ले जा रहा हूं. हम सुबह की गाड़ी से ही आगरा चले जाएंगे. तुम ने अगर अपने रंगढंग नहीं बदले तो मजबूरन हमें सुधा को तुम से तलाक दिलवाना पड़ेगा,’’ इतना कह कर बिना एक पल रुके कृष्णकांत उठ खड़े हुए.
सुधा की बातों और धमकी से गौरव काफी परेशान हो गया. मन ही मन सोचने लगा कि इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए. सुधा के जाने से तो पूरा घर अस्तव्यस्त हो जाएगा. बेटे चंदन की देखभाल कौन करेगा? उस की पढ़ाई का क्या होगा?
नंदिनी गौरव के लिए सिर्फ दिल बहलाव का जरिया थी वरना उस के छिछले स्वभाव को गौरव समझता था. वह इतना नासमझ नहीं था जो जानता न हो कि इस तरह की लड़कियां दुख की साथी नहीं होतीं, उन्हें तो अपनी मौजमस्ती चाहिए.
दूसरे दिन लाख मिन्नतें करने के बावजूद गौरव के ससुर बेटी को अपने साथ ले गए. चंदन को उस के दादाजी के कहने पर मजबूरन उन्हें वहीं छोड़ना पड़ा वरना गौरव के कहने से तो वे कदाचित न मानते.
सुधा के जाते ही घर का पूरा नक्शा ही बिगड़ गया. गौरव को दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़ी. उस ने नंदिनी से सहायता मांगी तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘‘गौरव, और कुछ करने को कहो लेकिन घर की देखभाल, न बाबा न, वो मेरा विभाग नहीं.’’
2-3 दिन की लगातार भागदौड़ के बाद उसे अपने एक दोस्त के जरिए एक नौकरानी मिल गई. करीब एक हफ्ते तो उस ने ठीक तरह से काम किया. 8वें दिन पता चला कि सुधा की अलमारी से सब साडि़यां और कुछ गहने ले कर वह चंपत हो गई है. बहुत कोशिश की, लेकिन उस का कुछ पता न चल सका.
चंदन हर वक्त मां को याद करता रहता, ‘‘पिताजी, मां कब आएंगी…कहां गई हैं? मुझे साथ क्यों नहीं ले गईं,’’ वह बारबार पूछता. मां के बगैर उसे खानापीना भी अच्छा न लगता. वह बहुत उदास और गुमसुम रहने लगा था. गौरव से अपने बेटे की यह हालत देखी न जाती. गौरव चाहता था कि सुधा लौट आए. उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा था.
ऐसे में ही एक दिन गौरव को अरुणा दीदी की याद आई. ‘हां, दीदी ही सुधा को वापस ला सकती हैं.’ यह विचार मन में आते ही तुरंत ही वह बेटे चंदन को ले कर मेरठ चल दिया.
दीदी उसे अचानक आया देख हैरान रह गईं. आश्चर्यचकित हर्ष से पूछने लगीं, ‘‘अरे, गौरव, अचानक कैसे आना हुआ. सुधा कहां है?’’ भाई को देख कर उन का चेहरा स्नेह से भीग उठा था. अभी तक उन्हें गौरव की हरकतों का पता न लग पाया था.
गौरव फीकी हंसी से सुधा के न आने की बात टाल गया. दीदी समझ गई थीं कि जरूर कुछ गड़बड़ है वरना गौरव यों चंदन को ले कर अकेला क्यों आता. दीदी ने उस समय ज्यादा कुछ न पूछा.
रात को खाने पर जीजाजी के बारबार पूछने पर आखिर गौरव फूट पड़ा, ‘‘जीजाजी, सुधा अब कभी नहीं आएगी. अपनी ही गलती से मैं ने उसे खो दिया है. मैं ने उस की कद्र नहीं की…क्या मुंह ले कर अब मैं उस के पास जाऊं,’’ गौरव ने उन से कुछ न छिपाया, सारी बातें सचसच कह दीं.
गौरव पश्चात्ताप की आग में जल रहा है, यह देख कर दीदी ने उसे समझाया, ‘‘गौरव, यह तुम तीनों की जिंदगी का सवाल है. जाने को तो मैं जा कर सुधा को ला सकती हूं लेकिन इस तरह तुम्हारा प्रायश्चित्त अधूरा रह जाएगा. सोच लो, सुधा को जो खुशी तुम्हारे जाने से होगी वह मेरे जाने से नहीं, फिर इस बात का क्या भरोसा कि उस के मातापिता सुधा को मेरे साथ भेज ही देंगे.’’
गौरव के ससुराल आने पर सुधा के मातापिता को जरा भी हैरानी न हुई, उन्हें अपनी संकोची स्वभाव की गुणवान बेटी पर बहुत मान था. उन्हें पूरा यकीन था कि उस जैसी आदर्श पत्नी की कद्र गौरव एक दिन जरूर करेगा. इसी भरोसे पर तो वे अपनी बेटी को लिवा लाए थे कि दूर रह कर ही गौरव उस के गुणों को आंक पाएगा और हुआ भी वही.
अपने कमरे में सुधा उत्सुकता से गौरव के आने का इंतजार कर रही थी. गौरव एक क्षण दरवाजे पर ठिठका. फिर उस ने आगे बढ़ कर सुधा को बांहों में भर कर उदास स्वर में पूछा, ‘‘मुझे माफ करोगी, सुधा?’’
सुधा खामोश थी लेकिन उस की आंखों से बहते आंसुओं ने गौरव के सारे अपराध क्षमा कर दिए थे.
इधर कुछ दिनों से सुगंधा को अपने दाएं स्तन में एक ठोस गांठ सी महसूस हो रही थी. जब उस ने इंद्र से स्थिति बयां की तो उस ने पूछा, ‘‘दर्द होता है क्या उस गांठ में?’’ ‘‘नहीं, दर्द तो नहीं होता,’’ सुगंधा ने जवाब दिया.
‘‘तो शायद तुम्हें मेनोपौज होने वाला है. मैं ने पढ़ा था कि मेनोपौज के दौरान कभीकभी ऐसे लक्षण पाए जाते हैं. घबराने की कोई बात नहीं, जान. कुछ नहीं होगा तुम्हें.’’
इंसान की फितरत होती है कि वह अनिष्ट की तरफ से आंखें बंद कर के सुरक्षित होने की गलतफहमी में खुश रहने की कोशिश करता है. सुगंधा भी इस का अपवाद नहीं थी. मगर जब कुछ महीनों के बाद उस के निपल्स के आसपास की त्वचा में परतें सी निकलने लगीं और कुछ द्रव्य सा दिखने लगा तो वह घबराई. धीरेधीरे निपल्स कुछ अंदर की तरफ धंसने लगे और शुरुआत में जो एक गांठ दाएं स्तन में प्रकट हुई थी, वैसी ही गांठें अब दोनों बगलों में भी उभर आई थीं. अब झटका लगने की बारी इंद्र की थी, वह अपने हाथ लगी ट्रौफी को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहता था. जब वह सुगंधा को फैमिली डाक्टर के पास ले कर पहुंचा तो डाक्टर ने जनरल चैकअप करने के बाद तत्काल ही मैमोग्राम कराने की सलाह दी. मैमोग्राम रिपोर्ट में स्तन कैंसर के संकेत पाए जाने पर जरूरी ब्लडटैस्ट कराए गए. स्तन से टिश्यूज ले कर टैस्ट के लिए पैथोलौजी भेजे गए. सुगंधा की सभी रिपोर्ट्स के रिजल्ट को देखते हुए अब फैमिली डाक्टर ने उसे स्तन कैंसर विशेषज्ञ औंकोलौजिस्ट के पास जाने की सलाह दी.
‘‘आप ने इन्हें यहां लाने में काफी देर कर दी है. अब तक तो कैंसरस सैल ब्रैस्ट के बाहर भी बड़े क्षेत्र में फैल चुके हैं और अब इस बीमारी को किसी भी तकनीकी सर्जरी द्वारा कंट्रोल नहीं किया जा सकता. मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है, सर, इन का कैंसर अब उस स्टेज पर पहुंच चुका है जहां कोई भी इलाज असर नहीं करता,’’ औंकोलौजिस्ट ने सारी रिपोर्ट्स का सूक्ष्म निरीक्षण और सुगंधा का पूरी तरह से चैकअप करने के बाद इंद्र से कहा. उस रात घर वापस आ कर इंद्र और सुगंधा दोनों ही न सो सके. इंद्र की नींद क्यों उड़ी हुई थी, यह तो अस्पष्ट था मगर सुगंधा एक अजब से सुकून में जागी हुई थी. उस के दिलोदिमाग में बारबार गुलजार की मशहूर गजल का शेर घूम रहा था, ‘‘दफन कर दो हमें कि सांस मिले, नब्ज कुछ देर से थमी सी है.’’ सुगंधा के लिए तो नब्ज पिछले 26 वर्षों से थमी सी थी.
उस रात सुगंधा ने निश्चय किया कि उस का तनमन उस का तनमन है, किसी नामर्द, फरेबी की मिल्कीयत नहीं. उसे खुद के सम्मान का पूरापूरा अधिकार है. जीतेजी तो वह अपना मान न रख पाई और इंद्र उस की भावनाओं से अधिकारपूर्व खेलता रहा. वह सोचता रहा उस के साथ सात फेरे ले कर सुगंधा उस की मिल्कीयत बन गई थी. मगर भूल गया था कि वह सात फेरे गृहस्थ जीवन की नींव होते हैं और वह नींव मजबूत होती है तनमन से एकदूसरे को पूर्ण समर्पित हो कर, एक दूजे का बन कर, खुशियों का आशियाना बनाने से. झूठ के जाल बिछा कर किसी के पंख काट पर उसे पिंजरे में रखने से नहीं.
सुगंधा उम्रभर चुप्पी साधे रही. जीतेजी वह इंद्र से बगावत करने का साहस नहीं कर पाई थी, मगर मौत में ही सही, वह अपना मान जरूर करेगी. वह बदला लेगी और इंद्र को दुनिया के सामने बेनकाब कर के ऐसी जिल्लत देगी जो हिंदुस्तान की किसी भी पत्नी ने अपने पति को न दी हो. ऐसी जिल्लत, जिस के बोझ से दब कर वह अपनी बाकी की जिंदगी कराहते हुए जीने को विवश हो जाएगा. वह अपने एक वार से इंद्र के अनगिनत सितम का हिसाब बराबर करेगी. वह जानती थी कि अब उस के पास ज्यादा सांसें नहीं बची हैं, इसलिए दूसरे ही दिन उस ने शहर के जानेमाने वकील सुधांशु राय को फोन लगाया, मिलने का वक्त निश्चित करने के लिए ताकि वह अपना वसीयतनामा तैयार करवा सके. वैसे भी, अभी तो उस का इंद्र को सिल्वर जुबली गिफ्ट देना भी तो बाकी था.
यह वसीयतनामा जायदाद के लिए नहीं था, बल्कि उस के अंतिम संस्कार का था. दुनिया को बताने के लिए कि उस की शादी अमान्य थी, इंद्र तो शादी के योग्य ही नहीं था. उम्रभर वह नारीत्व के लिए तरसी थी. मातृत्व की हूक कलेजे में दबाती रही थी. वह कोई हृदयरोगी नहीं थी. एक बच्चे को जन्म देने के लिए वह पूरी तरह स्वस्थ थी. रोग तो इंद्र को था नपुंसकता का. ऐसा रोग जिस से वह विवाहपूर्व पूरी तरह परिचित था. फिर भी उसे एक पत्नी चाहिए थी, घर में ट्रौफी की तरह सजाने और दुनिया से अपनी नामर्दगी छिपाने के लिए. वह अपनी वसीयत में इंद्र को अपने अंतिम संस्कार से बेदखल कर गई थी और खुद को एक विधवा की हैसियत से सुपुर्देखाक करने की जिम्मेदारी अपने बेटे समान इकलौते भतीजे को सौंप गई थी.
सुगंधा दुनिया से जा चुकी थी अतृप्त ख्वाहिशों के साथ. उस ने उम्रभर अपनी कामनाओं का गला घोंटा, अपनी इच्छाओं की जमीन को बंजर रख कर, इंद्र के कोरे अहं के पौधे को सींचा था. 26 वर्षों तक दुनियादारी के बोझ से दबी सुगंधा मौत में इंद्र को जबरदस्त तमाचा मार कर गई थी. झूठे बंधन से मुक्त हो कर वह शांति से चिरनिद्रा में सो गई थी और छोड़ गई थी इंद्र को बेनकाब कर के.
अब बाकी बची उम्र सिसकियों में काटने की बारी इंद्र की थी. वह जब भी दीवार पर लटकी सुगंधा की तसवीर को देखता तो सिहर उठता. तसवीर में उस की आंखों को देख कर उसे ऐसा प्रतीत होता मानों वे आंखें उस से पूछ रही हों, ‘एक बार मुझे मेरा दोष तो बताओ, क्या किया था मैं ने ऐसा, जिस की सजा तुम मुझे जिंदगीभर देते रहे. पूरी हो कर भी मैं ने मातृत्व का सुख न जाना. तुम अपना अधूरापन जानते थे, फिर भी तुम ने मेरी जैसी स्त्री से विवाह किया. अपराध तुम्हारा था, तुम से विवाह कर के आहें मैं भरती रही. दिल मेरा जलता रहा.’ इंद्र की रातें अब बिस्तर में करवटें बदलते हुए कटती थीं. उसे याद आतीं हर सुबह सुगंधा की रोई हुई उनींदी आंखें. काश, उस ने वक्त रहते सुगंधा का दर्द, उस की तड़प महसूस की होती तो उस की बेचैनी का आज यह आलम न होता और सुगंधा उसे ऐसा सिल्वर जुबली गिफ्ट दे कर दुनिया से अलविदा न होती.
‘‘ननदोईजी ठीक कहते हैं कि आप नाम के वकील हैं,’’ सुमन चिढ़ कर बोली.
‘‘खोज लेतीं कोई नाम वाला वकील. 6 बेटियों को पैदा करते हुए तुम्हारे बाप ने यह नहीं सोचा कि मेरे जैसे वकील से ही शादी होगी,’’ सुमन के पति विनोद ने उसी लहजे में जवाब दिया.
‘‘सोचा होता तो 6 बेटियां पैदा ही क्यों करते?’’
‘‘तो चुप रहो. मेरी ओर देखने से पहले अपने बारे में सोचो. तुम्हारे ननदोई को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वह एक नंबर का लंपट है. सारी जिंदगी नौकरी छोड़ कर भागता रहा. एकमात्र बेटी की शादी ढंग से न कर सका. चला है हम पर उंगली उठाने. मैं तो कम से कम अपनी जातिबिरादरी में बेटी की शादी कर रहा हूं. उस से तो वह भी नहीं करते बना.’’ जब से दोनों की इकलौती बेटी रेखा की शादी सुमन के भाई राकेश ने तय कराई तब से आएदिन दोनों में तूतू मैंमैं होती. इस की वजह दहेज में दी जाने वाली रकम थी. विनोद सारी जिंदगी वकालत कर के उम्र के 65वें बरस में सिर्फ 10-12 लाख रुपए ही जुटा पाए. इस में से 10 लाख रुपए खर्च हो गए तो भविष्य के लिए क्या बचेगा? यही सोचसोच कर दोनों दुबले हुए जा रहे थे. विनोद को यह आशंका सता रही थी कि अब वे कितने दिन वकालत कर पाएंगे? 2-4 साल तक और खींचतान कर कचहरी जा सकेंगे. उस के बाद? पुत्र कोई है नहीं जो बुढ़ापे में दोनों का सहारा बने. रहीसही इकलौती संतान बेटी थी जो एक प्राइवेट संस्थान में नौकरी करती थी. कल वह भी विदा हो कर चली जाएगी तब क्या होगा? उन की देखभाल कौन करेगा? घरखर्च कैसे चलेगा?
दहेज में दिया जाने वाला एकएक पैसा विनोद पर भारी पड़ रहा था. जबजब बैंक से रुपया निकालने जाते तबतब उन्हें लगता अपने खून का एक अंश बेच कर आ रहे हैं. मन झल्लाता तो कहते, रेखा भी प्रेमविवाह कर लेती तो ठीक होता. कम से कम दहेज से तो बच जाते. जातिबिरादरी का यह हाल है कि कमाऊ लड़की भी चाहिए, दहेज भी. इन को इतनी भी तमीज नहीं कि जब लड़की कमा रही है तो दहेज कहां से बीच में आ गया? विनोद की रातों की नींद गायब थी. वे अचानक उठ कर टहलने लगते. जितना सोचते, दिल उतना ही बैठने लगता. भविष्य में क्या होगा अगर मैं बीमार पड़ गया तो? अभी तक तो वकालत कर ली. घर से रोजाना 10 किलोमीटर कचहरी जाना क्या आसान है? 65 का हो चला हूं. रेखा 28वीं में चल रही थी. जहां भी शादी की बात चलाते 10 लाख से नीचे कोई बात ही नहीं करता. 23 साल की उम्र में रेखा ने सरकारी पौलिटैक्निक संस्थान से डिप्लोमा किया था. नौकरी लगी तो सब ने सोचा कि चलो, लड़की अपने पैरों पर खड़ी है तो लड़के वाले दहेज नहीं मांगेंगे. इस के बावजूद दहेजलोभियों का लोभ कम नहीं हुआ. विनोद झुंझलाते, कोई पुत्र होता तो वे भी दहेज ले कर हिसाब पूरा कर लेते.
सुमन रोजाना कुछ न कुछ खरीदने के लिए बाजार जाती. अभी से थोड़ीथोड़ी चीजें जुटाएगी तभी तो शादी कर पाएगी. आसपास कोई इतना करीबी भी नहीं था जिसे साथ ले कर बाजार निकल जाए. ले दे कर भाभी थीं जो उस के घर से 5 किलोमीटर दूर रहती थीं. अंगूठी एक से एक थीं, मगर सब महंगी. बड़ी मुश्किल से एक अंगूठी पसंद आई. विनोद को लगा सुमन ने कुछ ज्यादा महंगी अंगूठी खरीद ली. इसी बात पर वह उलझ गया, ‘‘क्या जरूरत थी महंगी अंगूठी खरीदने की?’’ ‘‘सोने का भाव कहां जा रहा है, आप को कुछ पता है. सब से सस्ती ली है.’’ ‘‘सब ढकोसला है. क्या हमारे समय में इतना भव्य इंगेजमैंट होता था? अधिक से अधिक दोचार लोग लड़की की तरफ से, चार लोग लड़के वालों की तरफ से 5 किलो लड्डू दिए, कुछ मेवे और फलफूल. हो गई रस्म. मगर नहीं, आज सौ लोगों को खिलाओपिलाओ, उस के बाद नेग भी दो. वह भी लड़की वालों के बलबूते पर,’’ विनोद की त्यौरियां चढ़ गईं.
‘‘करना ही होगा वरना चार लोग थूकेंगे. अपनी बेटी को भी अच्छा नहीं लगेगा. वह भी दस जगह गई है. उस के भी कुछ अरमान होंगे. उस का सादासादा इंगेजमैंट होगा तो उस के दिल पर क्या गुजरेगी.’’ ‘‘क्या वह हमारे हालात से वाकिफ नहीं है?’’ ‘‘बच्चों को इस से क्या मतलब? उन की भी कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें चाहे जैसे भी हों, पूरी करनी ही पड़ेंगी,’’ सुमन ने दोटूक कहा. वह आगे बोली, ‘‘हम ने रेखा को दिया ही क्या है. अब तक वह बेचारी अभावों में ही पलीबढ़ी. लोगों के बच्चे महंगे अंगरेजी स्कूलों में पढ़े जबकि हम ने उसे सरकारी स्कूल में पढ़ाया. न ढंग से कपड़ा दिया, न ही खाना. सिर्फ बचाते ही रहे ताकि उस की शादी अच्छे से कर सकें,’’ वह भावुक हो गई. विनोद का भी जी भर आया. एकाएक उन के सोचने की दिशा बदल गई. रेखा ही उन के घर रौनक थी. जब वह विदा हो कर चली जाएगी तब वे दोनों अकेले घर में क्या करेंगे? कैसे समय कटेगा? सोच कर उन की आंखें पनीली हो गईं. सुमन की नजरों से उन के जज्बात छिप न सके. वह बोली, ‘‘क्या आप भी वही सोच रहे हैं जो मैं?’’
अपने मन में उमड़ते भावों के ज्वार को छिपाते हुए वे बोले, ‘‘मैं समझा नहीं?’’ ‘‘बनते क्यों हैं? आप की यही आदत मुझे पसंद नहीं.’’
‘‘तुम्हें तो मैं हमेशा नापसंद रहा.’’
‘‘गलत क्या है? आप से शादी कर के मुझे कौन सा सुख मिला? आधाअधूरा आप के पिता का बनवाया यह मकान उस पर आप के पेशे की थोड़ी सी कमाई.’’
‘‘भूखों तो नहीं मरने दिया.’’
‘‘मन का भोजन न मिले तो समझो भूखे ही रहे. राशन की दुकान सभी ने छोड़ दी. कौन जाए पूरा दिन खराब करने? एक मैं ही थी जो आज तक 10 किलो गेहूं खरीदने के लिए दिनभर राशन की दुकान की लाइन में लगती रही. शर्म आती है मुझे एक वकील की बीवी कहते हुए.’’ ‘‘देखो, मेरा दिमाग मत खराब करो. बेटी की शादी कर लेने दो.’’
‘‘उस के बाद क्या कुबेर का खजाना मिलेगा?’’
‘‘मौत तो मिलेगी. कम से कम तुम्हारे उलाहने से मुक्ति तो मिलेगी,’’ विनोद का स्वर तल्ख था. तभी किसी के आने की आहट हुई. सुमन का भाई राकेश था. दोनों ने चुप्पी साध ली. सुमन को एक तरफ ले जा कर उस ने कुछ रुपए दिए. ‘‘ये 10 हजार रुपए हैं, रख लो. आगे भी जो बन पड़ेगा, देता रहूंगा. इस बार गांव में गेहूं की फसल अच्छी हुई है. आटे की चिंता मत करना.’’ सुमन की आंखें भर आईं. जैसे ही वह गया, सुमन फिर विनोद से उलझ पड़ी, ‘‘एक आप के परिवार के लोग हैं. मदद तो दूर झांकने भी नहीं आते.’’
‘‘झांकने लायक तुम ने किसी को छोड़ा है?’’
‘‘तुम्हीं लायक बन जाते उन के लिए.’’ ‘‘लायक होता तो तुम्हारी लताड़ सुनता. आजकल सब रुपयों के भूखे हैं. न मेरे पास रुपए थे, न ही परिवार वालों ने हमें तवज्जुह दी.’’
‘‘अब समझ में आया.’’
‘‘समझ तो मैं पहले ही गया था. तभी तो अपने बेटे की बीमारी में बड़ी बहन रुपए मांगती रही, मगर मैं ने फूटी कौड़ी भी नहीं दी. जबकि खेत बेचने के बाद उस समय मेरे पास रकम थी.’’ ‘‘अच्छा किया, दे देते तो आज भीख मांगते नजर आते.’’ इंगेजमैंट में सुमन ने सिर्फ अपने भाईबहनों को न बुला कर यही संदेश दिया कि उस की कूवत नहीं है बहुत ज्यादा लोगों को खिलानेपिलाने की. इस में दोराय नहीं, ऐसा ही था. मगर थोड़े से रपए बचा कर बिलावजह रिश्तेदारों को नाराज करना कहां की समझदारी थी. सुमन के पास अपनी सास के चढ़ाए कुछ गहने थे, जो उस ने सहेज कर रखे थे. शादीब्याह में भी पहन कर नहीं जाती थी कि कहीं गिर गए तो? विनोद की इतनी कमाई नहीं थी कि वे उसे एक तगड़ी भी खरीद कर दे सकें. ताउम्र उस की साध ही रह गई कि पति की कमाई से एक तगड़ी और चूड़ी अपनी पसंद की खरीदें, यह कसक आज भी ज्यों की त्यों थी. सुमन संदूक खोल कर उन गहनों को देख रही थी. विनोद भी पास थे. ‘‘काफी वजनी गहने हैं मेरी मां के,’’ विनोद की आंखें चमक उठीं. ‘‘मां के ही न,’’ सुमन के चेहरे पर व्यंग्य की रेखा तिर गई.
केक काटने की रस्म हो चुकी थी, अब बारी थी स्पीच देने की. सुगंधा ने तो उस शाम के लिए कुछ नहीं लिखा था क्योंकि सचाई पब्लिक में सुनाने लायक नहीं थी और झूठ को शब्दों का रुपहला जामा पहनाने की हिम्मत अब शिथिल होने लगी थी. मगर इंद्र ने पिछले कई महीनों से परिश्रम कर के, चिंतनमनन करकर के शब्दों का मखमली जाल बुना था और नातेरिश्तेदारों का दिल छू लेने वाली स्पीच तैयार की थी.
उस ने बड़े आत्मविश्वास के साथ स्पीच देना शुरू किया, ‘‘सुगंधा इज माई बैटरहाफ. मैं सुगंधा के बिना अपने वजूद की कल्पना भी नहीं कर सकता. सुगंधा मेरी वाइफ ही नहीं, मेरी लाइफ हैं. सुगंधा ही हैं जिन्होंने मेरे विचारों को पंख दिए हैं. सुगंधा वे हैं जो हर अच्छेबुरे वक्त में परछाईं की तरह मेरे साथ खड़ी रह कर मेरी ताकत बनी रही हैं. सुगंधा अपने नाम को पूर्ण सार्थक करते हुए मेरे जीवन के उपवन को महका कर खुशगवार बनाती रही हैं.
‘‘जब शादी की रात सुगंधा ने डरतेडरते मुझे बताया कि उन को दिल में छेद की बीमारी है और बच्चे को जन्म देना उन के लिए खतरनाक हो सकता है तो मैं ने उन से वादा किया था कि वे जैसी हैं, मुझे स्वीकार हैं. इतना ही नहीं, उस दिन के बाद मैं ने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया और सुगंधा के सामने संतान की चाहत या संतान न होने का मलाल भूल कर भी नहीं जताया. मैं ने वादा किया था और जगजाहिर है कि उसे निभा कर भी दिखा दिया.
मैं ने सुगंधा को उन की हर कमी के साथ अपनाया, और अपना तनमन सबकुछ उन पर वार दिया. अब आज के इस पावन अवसर पर मेरे पास इस से ज्यादा कुछ नहीं है जो कि मैं उन्हें सिल्वर जुबली गिफ्ट के रूप में दे सकूं.’’ इंद्र ने स्पीच खत्म करते हुए सुगंधा को अपनी बांहों में भर के एक जोरदार चुंबन दे दिया, जैसे कि सिल्वर जुबली की मुहर लगा रहा हो. रिसैप्शन हौल में चीयर्स की आवाजें और तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी. सुगंधा की पलकों की कोरों से 2 आंसू उस के गालों पर लुढ़क गए, जिन्हें इंद्र ने बड़े ही प्यार से पोंछ कर उपस्थितजनों के दिमाग में खुशी के आंसुओं का खिताब दे दिया.
इस से पहले कि कोई सुगंधा की आंखों में झांक कर सचाई के दीदार कर पाता और उस के गुलाब जैसे सुंदर चेहरे पर छाती म्लानता की एक झलक भी ले पाता, इंद्र उसे अपनी आगोश में समेट कर डिनरहौल की तरफ ले गया और अपने हाथों से किसी नवविवाहित की तरह मनुहार करते हुए उसे खाना खिलाने लगा.
जिस शादी में सुगंधा की सांसें घुट रही थीं, जिंदगी ढोना मुश्किल रहा था, उस की शानदार यादगार सिल्वर जुबली मनाई जा रही थी. उस के दिल में घृणा का दरिया बह रहा था. उस की हंसी खोखली थी, मुसकराहट में दर्द की लकीरें उभर आती थीं. कोई नहीं जानता था कि सुगंधा अपनी ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ इमेज के भीतर कितनी खोखली और कमजोर है.
इंद्र ने शादी की पहली रात को ही अपनी कमी का परदाफाश होने पर सुगंधा से स्पष्ट लहजे में कहा था, ‘किस को क्या बताओगी मेरी जान, यह हिंदुस्तान है. यहां एक बार लड़की की शादी करने में तो बाप के जूते घिस जाते हैं, फिर कोई भला तुम्हारा मुझ से तलाक करा कर क्या करेगा. माई लव, न तो तुम घर की रहोगी न घाट की. बेहतर होगा कि तुम मेरे साथ चुपचाप जिंदगी बसर कर लो. तुम क्या सोचती हो कि तुम मेरी कमजोरी का डंका दुनिया में बजाओगी और मैं चुपचाप इसे बरदाश्त कर लूंगा. अगर तुम ने यह जुर्रत की तो फिर मैं भी तुम्हारे चरित्र पर लांछन लगा कर तुम्हें सब की नजरों में गिरा दूंगा और तुम्हें कहीं का न छोड़ूंगा. अच्छे से अच्छा वकील करने की ताकत है मुझ में और उधर तुम्हारे पिताजी, वे तो तुम्हारी शादी की दावत भी ठीक से न कर पाए. फिर भला राजा भोज को गंगू तेली कैसे टक्कर दे सकता है…इसलिए माई लव, मेरी यह बेशुमार दौलत एंजौय करो और खुश रहो.
आखिर तुम शहर के जानेमाने बिजनैसमैन की पत्नी तो बनी रहोगी.’ सुगंधा की हालत उस पंछी की तरह थी जो चोट खा कर उड़ने को फड़फड़ा रहा हो. उड़ने का हर प्रयास विफल हो कर उस के दर्द में इजाफा कर रहा था, उस के आत्मविश्वास को ध्वस्त कर के उसे और कमजोर बना रहा था. शादी होते ही उस के कुंआरे सपनों की कलियां मुकम्मल फूल बनने के पहले ही मुरझा गई थीं.
सारे रिश्तेदार सिल्वर जुबली पार्टी के दूसरे ही दिन विदा हो चुके थे. आजकल किस को फुरसत होती है किसी के सुखदुख में लंबे समय तक शरीक होने की. जाते वक्त भी कइयों के चेहरे ईर्ष्या की स्याही से पुते हुए थे. रिश्तेदारी की विवाहयोग्य युवतियों के आंखों में सुगंधा जैसी शाही जिंदगी की तमन्ना का प्रतिबिंब झिलमिला रहा था. कोई नहीं सोचना चाहता कि कभीकभी ऊपर से ठीक दिखने वाला व्यक्ति अंदर से घुटघुट कर मर रहा होता है. खुशियों का पैमाना कीमती कपड़े, महंगा पर्यटन, लक्जरी कार नहीं होती. खुशी होती है मन की शांति से, संतृप्त खुशहाल जिंदगी से, मन की सुखी, चटकती धरती पर किसी के प्यार की फुहार से मिली ठंडक से, घर में गूंजती किलकारियों से.
क्या पाया है उस ने इंद्र से? नहीं पूरा कर पाया वह उस के कुंआरे सपनों को, नहीं पूर्ण कर पाया वह उस के नारीत्व को, ऐसे नाम के पति के साथ एक बच्चे का सपना संजोना तो रेगिस्तान में दूब उगाने की सोचने जैसा था.
अपनी खामी को ढांपने के लिए शादी के शुरुआती दिनों में ही उस ने रिश्तेदारों और दोस्तों में ऐलान कर दिया कि सुगंधा को हृदयरोग है और प्रैग्नैंसी उस के लिए घातक हो सकती है. संबंधों का एकतरफा निर्वाह सुगंधा ने किया था और दुनिया में उस को हृदयरोगी बता कर त्याग की मूर्ति स्वयं इंद्र बन बैठा था. यह कैसी विडंबना थी, यह कैसा न्याय था समय का, जहां गुनाहगार किसी की जिंदगी तबाह कर के इज्जतदार बना हुआ था. इंद्र के गुनाह की शिकार सुगंधा विवाहित हो कर भी उम्रभर अतृप्ति के एहसास में गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही थी.
शादी की जाती है खुशियों के लिए, खुशियों की तिलांजलि देने के लिए नहीं. सुगंधा करवाचौथ का व्रत करती आई थी दुनियादारी की मजबूरी में बिना किसी भाव, बिना किसी श्रद्धा के. उम्र बीती थी ठंडी आहें भरने में. ऐसे संबंधों में सोच ही कुचली जाती है, समर्पण नहीं होता. अब तक सिल्वर जुबली पार्टी को भी करीबकरीब 6 महीने पूरे हो चुके थे. सुगंधा के लिए खुद को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. मन के साथ अब तन भी टूटने लगा था. चलने में कदम डगमगाने लगे थे, हाथों के कंपन से मन की कमजोरी छिपाए न छिपती थी. उस शानदार सिल्वर जुबली की शहर में चर्चा पर अब धूल जमने लगी थी. सब के लिए जिंदगी कमज्यादा बदल रही थी, मगर सुगंधा का जीवन उसी ढर्रे पर चल रहा था, सदा की तरह तनहा दिन, लंबीकाली उदास रातें.
जाने से पहले मयंक ने कहा कि वह कल शाम को फोन करेगा, लेकिन उस का फोन 10 दिन बाद आया, ‘‘माफ करना, मैं जाने से पहले तुम्हें फोन नहीं कर सका. बौस ने राजस्थान में लोकेशन हंटिग का प्रोग्राम बना लिया और हम लोग अगली सुबह ही निकल गए,’’ मयंक ने बताया, ‘‘वहीं से घर चला गया, प्रियंक भैया की सगाई थी. फिर मुंबई से अपना सामान भी ले आया. अब अपने फ्लैट में हूं. शाम को आऊंगा तुम्हारे घर.’’
‘‘यह किस खुशी में?’’ समीरा ने पूछा. ‘‘प्रियंक भैया की सगाई और अपनी लाइन क्लीयर होने की खुशी में.’’
उस के बाद अकसर दोनों की मुलाकातें होने लगीं. फोन पर भी लंबीलंबी बातें होतीं, लेकिन शालीनता की परिधि में. कुछ महीने बाद मयंक भाई के विवाह के लिए गया तो समीरा को 1 सप्ताह काटना असहाय हो गया. वह भी आगरा चली गई. मयंक की याद या सुनील भैया का ठंडा व्यवहार और मां की अनमयंस्कता के कारण उसे घर में अच्छा नहीं लग रहा था. ‘‘भैया के लिए कोई लड़की नहीं देख रहीं मां?’’ ‘‘देखूं तो तब जब सुनील शादी के लिए तैयार हो.’’
‘‘मैं करवाती हूं भैया को तैयार,’’ और फिर समीरा ने सुनील से बात करी. ‘‘मेरी बजाय तू अपनी शादी रचवा समीरा, फिर मैं अपनी शादी की सोचूंगा,’’ सुनील ने सपाट स्वर में कहा.
समीरा ने कहना तो चाहा कि सच भैया पर कह न पाई. ‘अब जब मयंक की लाइन भी क्लीयर हो गई है तो मैं ही अपना ब्याह रचा लेती हूं,’ समीरा सोचने लगी. मयंक के लौटने के बाद उस ने उसे बताया कि भैया उस की शादी के बाद ही शादी करेंगे. अत: अब घर वाले उस की शादी जल्दी करना चाहते हैं.
‘‘किस से?’’ ‘‘तुम चाहो तो तुम से भी हो सकती है.’’
‘‘तो करवाओ जल्दी से. मैं ने भाभी को तुम्हारे बारे में बता दिया है. उन का कहना है कि लड़की के यहां से प्रस्ताव भिजवाओ. सगाई, शादी मैं आननफानन में करवा दूंगी. भाभी बहुत ही समझदार, स्नेहमयी और सुलझी हुई हैं और मेरे खयाल में तुम भी वैसी ही हो. खूब पटेगी तुम दोनों में. लेकिन यह बात मैं स्वयं घर वालों को नहीं बता सकता. तुम्हारे घर से प्रस्ताव आने के बाद तो कह सकता हूं कि काम के सिलसिले में तुम से मिलता रहता हूं. तुम हमारे परिवार के लिए उपयुक्त हो,’’ मयंक बोला.
‘‘मैं भी स्वयं घर वालों से तुम्हारे घर प्रस्ताव भेजने को नहीं कह सकती, मगर फोन पर तुम्हारी बात सुनील भैया से करवा सकती हूं.’’
‘‘हां, करवा देना,’’ मयंक बोला. उस के बाद सब बहुत तेजी से हुआ. मोबाइल पर संपर्क, ईमेल से फोटो और विवरण और फिर मयंक के पिता जनक का फोन आया, ‘‘लड़कीलड़के की मुलाकात की जरूरत न सही, लेकिन मयंक की मां और भाभी का लड़की से मिलना तो जरूरी है. खासकर मयंक की भाभी का. देवरानीजेठानी में तालमेल होना आवश्यक है कृपाशंकरजी ताकि हमारे बाद हमारे बच्चे हिलमिल कर रहें.’’
‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. आगरा या दिल्ली में आप का स्वागत है और अगर आप को आने में कोई परेशानी है, तो मैं सपरिवार पुणे आ जाता हूं.’’ ‘‘इतनी परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है. मयंक की मां और भाभी दिल्ली जा रही हैं मयंक के पास. आप भी अपनी पत्नी को वहां भेज दीजिए. समीरा से मिलने के बाद अगर मेरी बड़ी बहू उसे पसंद कर लेगी तो मैं भी आ जाऊंगा और आप भी आ जाना.’’
कृपाशंकर ने यह बात समीरा को बताई. ‘‘मयंक की बेसब्री देख कर तो लग रहा था कि यह मिलनामिलाना महज एक औपचारिकता है. रिश्ता तो पक्का है, लेकिन उस के पिताश्री के अनुसार उन की बड़ी बहू की सहमति ही सर्वोच्च होगी. असलियत क्या है?’’
‘‘मयंक अपनी भाभी को मेरे बारे में बता चुका है और उन्होंने चट मंगनी पट शादी करवाने का आश्वासन दिया है,’’ समीरा ने शरमाते हुए कहा. ‘‘लेकिन किसी कारण अगर भाभी ने तुझे पसंद न किया तो मयंक क्या करेगा?’’
‘‘यह तो मयंक से पूछना पड़ेगा पापा.’’ ‘‘पूछने की क्या जरूरत है समीरा?’’ सुनील पहली बार बोला, ‘‘तू भी मधुलिका वाली हिम्मत दिखाना. भाभी के असहमत होने पर अपना प्यार ठुकराने वाले युवक से तू स्वयं ही रिश्ता तोड़ लेना,’’ सुनील तुरंत बोला.
समीरा चौंक पड़ी कि भैया अभी तक मधुलिका को भूले नहीं हैं. ‘‘सुनील ठीक कह रहा है. भाभी के आज्ञाकारी देवर से तो तेरी निभने से रही तो बेहतर रहेगा रिश्ता जुड़ने से पहले ही तोड़ ले,’’ मां ने कहा.
समीरा को उन का नकारात्मक रवैया अच्छा तो नहीं लगा लेकिन चुप ही रही. मां उस के साथ दिल्ली आ गई. शाम को मयंक मां और भाभी के साथ आने वाला था, इसलिए समीरा औफिस से जल्दी आ गई. मां मेहमानों के लिए नाश्ता लाने ड्राइवर के साथ बाजार चली गईं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजे पर मधुलिका को देख कर समीरा चौंक पड़ी. वेशभूषा से लग रहा था कि उस की शादी हो चुकी है. ‘‘अचानक आने के लिए माफी चाहती हूं समीरा, लेकिन तुम से अकेले में मिलना जरूरी था. मैं मयंक की भाभी हूं.’’
‘‘अच्छा… आइए बैठिए,’’ समीरा समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे. ‘‘तुम ने रोके की रस्म रविवार को इसलिए नहीं होने दी थी कि उस रोज तुम्हें दिल्ली में मयंक से मिलना था?’’ मधुलिका ने बगैर किसी भूमिका के पूछा.
‘‘जी… हां मगर आप को कैसे मालूम?’’ समीरा हकलाई. ‘‘अटकल से,’’ मधुलिका हंसी, ‘‘मयंक ने विस्तार से तुम से पहली और अगली मुलाकात का समय व तारीख बताई थी. फिर जब तुम्हारी तसवीर देखी तो 2 और 2 जोड़ कर 44 बनाना मुश्किल नहीं था. ऐनी वे, ऐवरी थिंक इज फेयर इन लव ऐंड वार वैसे भी मुझे तो इस से फायदा ही हुआ है. पुणे तो खैर आगरा से बेहतर जगह है ही और प्रियंक की कंपनी भी बड़ी है, जिस में मेरी प्रतिभा और क्षमता का पूर्णतया विकास हो सकेगा. सुनील को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती, इसलिए प्रियंक से उस की तुलना नहीं करूंगी, लेकिन प्रियंक और उस के परिवार के साथ मैं बेहद खुश हूं और इस का श्रेय तुम्हारे और मयंक के प्यार को देती हूं. मेरे दिल में तुम्हारे लिए कोई कड़वाहट नहीं है.’’
‘‘लेकिन मेरे भैया के दिल में तो मेरे लिए है,’’ समीरा ने रोंआसे स्वर में कहा और फिर सब बता दिया. ‘‘जैसी पत्नी तुम्हारे भैया चाहते हैं, वैसी ही एक सहेली है मेरी. तुम्हारी शादी में दोनों की मुलाकात करवा दूंगी…’’
‘‘लेकिन मेरी शादी होने देंगी आप मयंक से?’’ समीरा ने हैरानी से पूछा, ‘‘सब पर अपनी मरजी थोपने वाली लड़की को आप अपनी देवरानी बनाएंगी?’’
‘‘जरूर बनाऊंगी समीरा, क्योंकि मुझे मालूम है कि उस ने मनमरजी क्यों की थी और फिर मयंक भी यह विश्वास होने पर ही कि लड़की स्वर्था उस के परिवार के उपयुक्त है उस से शादी कर रहा है,’’ मधुलिका ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘जीवन में खुश रहना है समीरा तो बगैर किसी पूर्वाग्रह या कड़वी यादों के जीना सीखो. भूल जाओ तुम कभी मुझ से मिली थीं. तुम्हारी मम्मी कहां हैं उन से भी एक विनती करनी है.’’
‘‘मैं भला तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूं?’’ मां का स्वर सुन कर दोनों चौंक पड़ीं. ‘‘तुम्हें आता देख मैं बाजार गई ही नहीं. दरवाजे के बाहर खड़ी तुम्हारी बातें सुन रही थी.’’
‘‘तो फिर तो आप समझ ही गई होंगी कि आप भी मुझ से अजनबी बन कर मिलेंगी और आप के परिवार के अन्य सदस्य भी… अपने मायके वालों को भी मैं आगरा वाली बात भूलने को कह दूंगी.’’ ‘‘ठीक है बिटिया. दुख तो रहेगा कि तुम मेरी बहू न बन सकीं, मगर यह तसल्ली भी रहेगी कि मेरी बेटी को ससुराल में तुम्हारे जैसी सहृदया जेठानी मिल रही है,’’ मां ने विह्वल स्वर में कहा.
‘‘सहृदया ही नहीं, सुलझी हुई और संतुलित भी हैं मम्मी,’’ समीरा धीरे से बोली.