कुहरा छंट गया- भाग 2: रोहित क्या निभा पाया कर्तव्य

यह मुद्दा ऐसा उठा जिस ने रोहित और मीनाक्षी के बीच एक अनजानी दूरी बिखेर दी. अब तो रोहित भी तंग आ चुका था. यारदोस्त उस से कुछ पूछते या सहानुभूति जताते या डाक्टर का पता देते तो उसे लगता, उस का पौरुष मोम बन कर पिघल रहा है. कुदरत ने उस के साथ ऐसा मजाक क्यों किया? उस के आंगन में एक भी फूल नहीं खिल रहा था. मां कई बार उस से कह चुकी थीं कि वह बहू की जांच करवा ले, पर वह उन्हें कैसे बताता कि कमी उन की बहू में नहीं, स्वयं उसी में है. धीरेधीरे रोहित और मीनाक्षी इस तथ्य को स्वीकारने लगे कि उन के बीच तीसरा कभी नहीं आएगा. मीनाक्षी स्कूल में और रोहित दफ्तर में अपना वक्त गुजारता रहा. मांबाप की बातें दोनों एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते. उन्हीं दिनों रोहित ने मीनाक्षी को फिर आ कर बताया कि उस का एक मित्र अपनी पत्नी का कृत्रिम गर्भाधान करवा कर आया है. न जाने रोहित सच कह रहा था या मीनाक्षी को मानसिक रूप से तैयार कर रहा था, लेकिन मीनाक्षी को प्रतीत हुआ जैसे यह मुद्दा उन के विवाहित जीवन में खाई पैदा कर देगा. वह जानती थी कि बच्चा पैदा कर के वह रोहित से और दूर हो जाएगी. कहीं रोहित के दिमाग में कोई बात बैठ गई तो? मर्द के स्वभाव का क्या भरोसा? मीनाक्षी पढ़ीलिखी, अच्छे संस्कार वाले परिवार की बेटी थी, पति को हर हाल में स्वीकार करने वाली. उस ने रोहित को कई बार समझाने का प्रयास किया कि एक बच्चा ही तो जीवन की मंजिल नहीं. वह चाहे तो अनाथालय से कोई बच्चा गोद ले ले.

लेकिन लक्ष्मी या दयाशंकर इस के लिए तैयार न होते थे. अगर रिश्तेदारों का बच्चा गोद लेते तो उस पर अंत तक रोहित या मीनाक्षी अपना हक न समझ पाते. इस तरह के कई केस हुए थे, जब बच्चों के मांबाप महज जायदाद के लालच में अपना बच्चा दे तो देते हैं, लेकिन हर मामले में राय देने भी पहुंच जाते हैं. अब समस्या यह थी कि बच्चा आए कहां से? गोद लेना नहीं था और कृत्रिम गर्भाधान के लिए मीनाक्षी तैयार नहीं थी. ‘तो क्या रोहित का दूसरा ब्याह कर दिया जाए?’ यह लक्ष्मी की राय थी. लेकिन रोहित जानता था कि वह चाहे दूसरी शादी कर ले या तीसरी, वह बच्चा पैदा नहीं कर सकता. वह एक उमस भरी रात थी. अचानक मीनाक्षी उठी तो देखा, कूलर का पानी खत्म हो गया है, सिर्फ पंखा चल रहा है. उस ने सोचा, गुसलखाने से पानी ला कर डाल दे, तभी उस की नजर बगल में पड़े पलंग पर पड़ी. रोहित वहां नहीं था. वह चौंकी और घड़ी पर नजर डाली. रात के 2 बजे थे. इस समय रोहित कहां चला गया? उबासी लेते हुए उस ने खिड़की से बाहर झांका. छत पर दीवार का सहारा लिए एक साया सा नजर आया. कूलर बंद कर के मीनाक्षी दबेपांव छत पर गई.

‘यहां क्या कर रहे हो, रोहित?’ मीनाक्षी ने हौले से पूछा. रोहित घूमा तो मानो मीनाक्षी के दिल पर बिजली सी गिरी. उस की आंखें डबडबाई हुई थीं. मीनाक्षी का दिल धक से रह गया. उस ने आज तक रोहित को हंसतेमुसकराते या खामोश तो देखा था, पर रोते हुए पहली बार देखा था. उस का हृदय चीत्कार कर उठा. ऐसी कौन सी बात हो गई जो रोहित को रुला गई?

‘रोहित…तुम रो क्यों रहे हो?’

‘मीनाक्षी…’ कहता हुआ रोहित पत्नी के सीने में मुंह छिपा कर रो पड़ा. मीनाक्षी प्यार से उस के बालों में उंगलियां फेरती रही.

‘मीनाक्षी, मैं लोगों की नजरों की ताव नहीं सह सकता. मैं…मैं…’ मीनाक्षी ने अपनी हथेली रोहित के होंठों पर रख दी. आगे कुछ भी कहने की जरूरत न थी. वह सब समझ गई. उस ने रोहित को कस कर अपने सीने से चिपका लिया. उस ने फैसला कर लिया कि वह रोहित की बात मान कर गर्भधारण करेगी. घर में रोहित ने बताया कि वह बंबई के प्रसिद्ध डाक्टर से मीनाक्षी की जांच करवाएगा.  अगर जरूरत पड़ी तो उस का छोटा सा औपरेशन होगा और फिर कुदरत ने चाहा तो मीनाक्षी गर्भवती हो जाएगी. मां ने भी साथ चलने की बात की तो रोहित ने मना कर दिया. बंबई के नर्सिंग होम में दोनों की जांच हुई. गर्भधारण करने वाले दिनों के बीच मीनाक्षी के गर्भ में इंजैक्शन के जरिए वीर्य डाल दिया गया. 10 दिन के बाद जब मासिक तिथि गुजर गई तो उस के 24 घंटे के अंदर ही जांच की गई. तब पता चला कि मीनाक्षी गर्भवती हो गई है. इस झूठी खुशखबरी के साथ दोनों वापस घर लौट आए. मीनाक्षी के गर्भवती होने की खबर मानो पूरे घर में होली, दीवाली सा त्योहार ले कर आई. एक बार मीनाक्षी को लगा कि काश, यह गर्भ रोहित से होता तो इस खुशी में वह भागीदार होती. लेकिन फिर उस ने अपने विचारों को झटक दिया और सोचा, इस बच्चे को रोहित का ही मान कर उसे 9 माह गर्भ में रखना है.

एक दिन मां ने कहा, ‘लो बहू, इस में रोहित के बचपन की तसवीरें हैं. इन्हें देखती रहा करोगी तो बच्चा बिलकुल बाप पर जाएगा.’ उस समय रोहित भी वहीं बैठा चाय पी रहा था. मां की बात सुनते ही चाय का प्याला उस के हाथ से छलक गया. थोड़ी सी चाय पैंट पर भी गिर पड़ी. उसे महसूस हुआ जैसे उस के जीवन में भी ऐसा ही गरम छींटा पड़ चुका है. खुशी का यह माहौल कहीं उसे मानसिक क्षति न दे जाए. मीनाक्षी ने मुसकराते हुए तसवीरें ले लीं और गौर से देखने लगी. एक फोटो में रोहित के पूरे बदन पर साबुन का झाग था और वह नंगा था. यह देख कर मीनाक्षी जोर से हंस पड़ी. मां भी हंस दीं, पर रोहित चाह कर भी मुसकरा न सका. न जाने यह कैसी फांस उस  के गले में अटक गई थी जो न उसे हंसने दे रही थी, न सचाई को ईमानदारी से निगलने दे रही थी. धीरेधीरे प्रसव का समय पास आता गया. मीनाक्षी को डाक्टर के पास बराबर रोहित ही ले कर जाता. उस का विचार था कि प्रसव भी बंबई में ही हो, पर मां इस के लिए तैयार न हुईं.

मीनाक्षी ने प्रसव से एक माह पूर्व छुट्टी ले ली. लेकिन एक बात वह गहराई से महसूस कर रही थी कि रोहित उस से कटने लगा है. दफ्तर से भी वह देर से आता था. रात में भी उस की तरफ पीठ कर के सो जाता. कभी किसी काम के लिए वह उसे जगाती तो वह ले आता और स्वयं तकिया उठा कर दूसरे कमरे में जा कर सो जाता. मां को उठना पड़ता है, यह सोच कर मीनाक्षी कई बार तकलीफ होने पर भी रोहित को न उठाती. सोचती, अजीब होता है मर्द का स्वभाव. जिस काम को करवाने के लिए रोहित ने आंसुओं का सहारा लिया, वही आज उसे इस कदर कचोट रहा है कि वह पत्नी के दर्द से अनजान उस से दूर होता जा रहा है. मीनाक्षी जितना भी सोचती उतनी ही उलझती जाती. मां कहतीं, ‘रोहित, बहू को शाम को टहला लाया कर.’ पर उस समय रोहित जानबूझ कर कहीं चला जाता. मीनाक्षी समझ गई थी कि वह उस से कटना चाहता है. शायद कोई ऐसा प्रश्न है जो उसे सहज नहीं होने दे रहा है.

जिस दिन मीनाक्षी को प्रसव पीड़ा हुई उस समय रोहित दफ्तर से अभी तक लौटा न था. बाबूजी ने उसे फोन किया तो पता चला कि वहां से वह 4 बजे ही निकल चुका है. दयाशंकर ने ही आटोरिकशा बुलाया, मां और नेहा ने मीनाक्षी को आटो में बैठाया. पड़ोस की 2-3 महिलाएं भी मदद को आ गईं. फिर शीघ्र ही मीनाक्षी ने साधारण तरीके से एक गोलमटोल बच्चे को जन्म दिया. ‘‘भाभी, भैया आए हैं,’’ नेहा के स्वर पर मीनाक्षी ने ऊपर देखा. अब तक तो वह अतीत के बंद पन्नों में ही उलझी थी. रोहित के एक हाथ में खाने का डब्बा था और दूसरे में गुलाबों का गुलदस्ता. सिर नीचा किए उस ने डब्बा मेज पर रखा तो लक्ष्मी ने नेहा को इशारा किया कि वह भी बाहर चली चले और दोनों को थोड़ी देर अकेला छोड़ दे. मां एवं नेहा के जाते ही रोहित ने मीनाक्षी के कमजोर हाथों को पकड़ कर आंखों से लगा लिया. परंतु उस ने एक बार भी घूम कर बच्चे की तरफ न देखा. मीनाक्षी चाहती थी, रोहित उस से प्यार से कहे कि आज हम पूर्ण हो गए हैं. तुम ने मेरे प्यार को गरिमा प्रदान की है. लेकिन बिना एक शब्द बोले रोहित मीनाक्षी का हाथ हौले से दबा कर बाहर निकल गया. फिर शुरू हुआ रोहित और नन्हे के बीच एक अनजानी दूरी का मौन युद्ध. रोहित सब के बीच बच्चे को देख भी लेता, लेकिन अकेले में वह उस की तरफ रुख न करता. मीनाक्षी जानती थी कि ऐसा क्यों है. नन्हे के जन्म के उपलक्ष्य में दिए गए भोज में भी उस ने विशेष रुचि नहीं दिखाई थी.

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कुहरा छंट गया- भाग 1: रोहित क्या निभा पाया कर्तव्य

‘‘बेटे का जन्मदिन मुबारक हो…’’ रोहित ने मीनाक्षी की तरफ गुलाब के फूलों का गुलदस्ता बढ़ाते हुए कहा तो उसे यों प्रतीत हुआ मानो अचानक आसमान उस के कदमों तले आ गया हो. 2 वर्ष तक उस ने रोहित के द्वेष और क्रोध को झेला था. अब तो अपने सारे प्रयत्न उसे व्यर्थ लगने लगे थे. रोहित कभी भी नन्हे को नहीं अपनाएगा, उस ने यह सोच लिया था.

‘‘रोहित, तुम?’’ मीनाक्षी को मानो शब्द नहीं मिल रहे थे. उस ने आश्चर्य से रोहित को देखा, जो नन्हे को पालने से गोद में उठाने का प्रयास कर रहा था.

‘‘मैं ने तुम्हें बहुत कष्ट दिया है, मीनाक्षी. तुम ने जो भी किया, वह मेरे कारण, मेरे पौरुष की खातिर… और मैं इतना कृतघ्न निकला.’’

‘‘रोहित…’’

‘‘मीनाक्षी, मैं तुम्हारा ही नहीं, इस नन्हे का भी दोषी हूं,’’ कहते हुए रोहित की आंखों से आंसू बहने लगे. मीनाक्षी घबरा उठी. रोहित की आंखों में आंसू ही तो वह नहीं देख सकती थी. इन्हीं आंसुओं की खातिर तो वह गर्भ धारण करने को तैयार हुई थी. वह रोहित को बहुत प्यार करती थी और व्यक्ति जिसे प्यार करता है उसे रोता नहीं देख सकता. बच्चा रोहित की गोद में आ कर हैरानी से उसे देखने लगा. एक वर्ष में उसे इस का ज्ञान तो हो ही गया था कि कौन उसे प्यार करता है, कौन नहीं. नन्हे की तरफ देखते हुए मीनाक्षी उन बीते दिनों में खो गई, जब परिस्थितियों से मजबूर हो कर उसे मां बनना पड़ा था. अस्पताल का वह कक्ष अब भी उसे याद था, जहां उसे सुनाई पड़ा था, ‘मुबारक हो, बेटा हुआ है.’ नर्स के बताते ही लक्ष्मी, उन के पति दयाशंकर एवं छोटी ननद नेहा, सभी खुशी से पागल हुए जा रहे थे.

‘क्या हम अंदर आ सकते हैं?’ 14 वर्षीया नेहा ने चहकते हुए पूछा.

‘नहीं बेटे, अभी थोड़ी देर बाद तुम्हारी भाभी बाहर आ जाएंगी. थोड़ा धैर्य रखो,’ नर्स ने मुसकरा कर कहा.शीघ्र ही नर्स एक नवजात शिशु को ले कर बाहर आई तो लक्ष्मी उधर लपकी. उस ने बच्चे को अपने सीने से लगा लिया.प्रसव प्राकृतिक हुआ था, इस कारण थोड़ी देर बाद मीनाक्षी को भी स्ट्रेचर पर लिटा कर कमरे में पहुंचा दिया गया. लगभग 8 वर्ष बाद लक्ष्मी की बहू मीनाक्षी को पुत्र हुआ था. क्याक्या नहीं किया था लक्ष्मी ने, कितने डाक्टरों को दिखलाया था पर उन के लाख कहने पर भी नीमहकीमों और संतों के पास जाने को बहू कभी तैयार नहीं हुई थी. मीनाक्षी ने नजरें उठा कर सासससुर और नेहा को देखा पर उस की आंखें रोहित को तलाश रही थीं. वह उस से सुनना चाहती थी कि उस ने उसे बेटा दे कर सबकुछ दे दिया है. जब वह नहीं दिखा तो उस ने धीमे से नेहा से पूछा, ‘तुम्हारे भैया नहीं दिखाई दे रहे?’

‘बाहर ही तो थे, शायद संकोचवश कहीं चले गए होंगे,’ नेहा ने झूठ बोला ताकि भाभी का मन दुखी न हो. फिर नेहा हंस कर मुन्ने के छोटेछोटे हाथों की बंद मुट्ठियों को छूने लगी. उधर रोहित का व्यवहार पत्नी के प्रति अजीब तरह का हो गया था. कभी जरूरत से ज्यादा प्यार जताता तो कभी बिलकुल तटस्थ हो जाता.

8 वर्ष तक बच्चा न होने की यंत्रणा दोनों ने झेली थी. घर वालों, पासपड़ोस और रिश्तेदारों के सवाल सुनसुन कर दोनों ऊब चुके थे. लक्ष्मी जाने कहांकहां से गंडाताबीज लाती. उन का मन रखने के लिए मीनाक्षी पहन भी लेती लेकिन उस की समझ में नहीं आता था कि उन से बच्चा कैसे होगा. लक्ष्मी बहू को अकसर इधरउधर की घटनाएं बताया करती कि फलां की बहू या फलां की बेटी को 12 साल तक बच्चा नहीं हुआ. डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया. जलालपुर के एक पहुंचे हुए महात्मा आए थे. उन्हीं के पास देविका अपनी बेटी को ले गई थी. फिर ठीक नौवें महीने बेटा हुआ, एकदम गोराचिट्टा. ‘लेकिन उस की मां तो काली थी. और पिता भी…’

‘महात्मा के तेज से ही ऐसा हुआ… और नहीं तो क्या,’ नेहा की बात काट कर लक्ष्मी ने अपनी दलील दी थी. मीनाक्षी एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देती. उसे इन सब बातों में कोई रुचि नहीं थी. वह जानती थी कि यह सब कपोलकल्पित बातें हैं. महात्मा और संत औरतों के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, तभी बच्चे पैदा होते हैं. मर्द इस कारण चुप रहते हैं कि उन की मर्दानगी पर धब्बा न लगे और कुछ औरतें नासमझी में उसे महात्मा का ‘प्रसाद’ मान लेती हैं, तो कुछ बांझ कहलाए जाने के भय से यह दुराचार सहनेकरने पर मजबूर हो जाती हैं. इसी कारण लक्ष्मी जब भी उसे किसी साधुमहात्मा के पास चलने को कहती, वह टाल जाती. रोहित तटस्थ रहता. उस ने जांच करवा ली थी, कमी उसी में थी. अब तो आएदिन घर में इसी विषय पर बातचीत चलती रहती. घर का प्रत्येक सदस्य चाहता था कि उन के घर एक नन्हा मेहमान आए. मीनाक्षी ने इन सब बातों से ध्यान हटा कर एक स्कूल में नौकरी कर ली ताकि ध्यान बंटा रहे. खाली समय में नेहा की पढ़ाई में मदद कर देती. घर का काम भी करने के लिए मुंह से कुछ न कहती. उधर लक्ष्मी, दयाशंकर और नेहा बच्चे को खिलाने लगे. लक्ष्मी बोली, ‘देखिए, बिलकुल रोहित पर गया है.’

‘और आंखें तो भाभी की ली हैं इस ने,’ नेहा चहक कर बोली. उन की बातें सुन कर मीनाक्षी की आंखें अनायास नम हो आईं.

आंखों के आंसू में अतीत फिर आकार लेने लगा…

एक वर्ष पूर्व रोहित ने उस के सामने एक प्रस्ताव रखा था. उस दिन रोहित दफ्तर से जल्दी ही घर आ गया था. उस के हाथ में एक पत्रिका थी. पत्रिका उस के सामने रखते हुए उस ने कहा था, ‘आज मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूं.’ ‘क्या?’ शृंगारमेज के सामने बैठी मीनाक्षी ने घूम कर पति को देखा. रोहित ने उसे बांहों में भर लिया और पत्रिका का एक समस्या कालम खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘यह क्या है?’ पत्रिका पर उचटती नजर डालते हुए मीनाक्षी ने पूछा.

‘यह पढ़ो,’ एक प्रश्न पर रोहित ने अपनी उंगली रख दी. मीनाक्षी की नजर शब्दों पर फिसलने लगी. लिखा था, ‘मेरे पति के वीर्य में बच्चा पैदा करने के शुक्राणु नहीं हैं. हमारी शादी को 5 वर्ष हो चुके हैं. हम ने कृत्रिम गर्भाधान के विषय में पढ़ा है. क्या आप हमें विस्तार से बताएंगे कि हमें क्या कुछ करना होगा. हां, मेरे अंदर कोई कमी नहीं है.’ मीनाक्षी ने प्रश्नसूचक नजर ऊपर उठाई तो रोहित ने इशारा किया कि वह इस का जवाब भी पढ़ ले. जवाब में लिखा था कि इस तरह की समस्या आने पर औरत के गर्भ में किसी दूसरे पुरुष का वीर्य डाल दिया जाता है. बंबई के एक अस्पताल का पता भी दे रहे हैं, जहां वीर्य बैंक है. इस तरह की बात बहुत ही गुप्त रखी जाती है. वीर्य उन्हीं पुरुषों का लिया जाता है जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं. वैसे अब और भी कई शहरों में इस तरह कृत्रिम गर्भाधान करने का साधन सुलभ है.

‘तो?’ मीनाक्षी ने रोहित की तरफ देखा.

‘देखो मीनाक्षी, हम बच्चा पैदा नहीं कर सकते. इसी तरह की समस्या हमारी भी है. क्यों न हम भी यही करें,’ रोहित ने मीनाक्षी को समझाने का प्रयास किया.

‘तुम्हारा मतलब क्या है?’ मीनाक्षी की त्योरी चढ़ गईं.‘मतलब यह कि उस बच्चे को पैदा तुम करोगी और बाप मैं कहलाऊंगा.’

‘नहीं, रोहित…’ मीनाक्षी भड़क कर खड़ी हो गई, ‘एक पराए पुरुष का वीर्य मेरे गर्भ में जाएगा…वहां धीरेधीरे एक बच्चे का निर्माण होगा. न तुम जानते होगे कि वह बच्चा किस का है. न मैं जानूंगी कि वह वीर्य किस पुरुष का  है. पर जब किसी पराए पुरुष का वीर्य मेरे गर्भ में जाएगा तो मैं पवित्र कहां रहूंगी? पति के अलावा किसी दूसरे पुरुष की सहगामिनी तो बनी…?’

‘लेकिन यह कृत्रिम गर्भाधान होगा… वीर्य इंजैक्शन के सहारे तुम्हारे अंदर डाला जाएगा.’ ‘चाहे जैसे भी हो, शारीरिक मिलन के दौरान भी तो यही क्रिया होती है. फर्क यह है कि यहां बगैर पुरुष को देखे या छुए उस का वीर्य अंदर जाएगा. मैं तुम्हारी बात तो नहीं जानती लेकिन मेरा हृदय इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है.’रोहित खामोश हो गया. मीनाक्षी का कहना भी सही था. जाति, धर्म की तो उसे चिंता नहीं थी, लेकिन बच्चा अपने खानदान, अपने रक्त से तो जुड़ नहीं सकेगा. आजीवन वह उसे अपना बच्चा नहीं समझ पाएगा. क्या मात्र मां के गर्भ में रह कर वह उस का पुत्र हो जाएगा? बचपन से अब तक जो संस्कार उस के अंदर डाले गए हैं कि पिता को अग्नि देने का अधिकार पुत्र को है, क्या वह उसे नकार पाएगा? मीनाक्षी के गर्भ में रह कर, उस की छाती का दूध पी कर वह उस के वात्सल्य का भागीदार तो हो जाएगा, पर क्या उस से भी…?

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बेस्ट बहू औफ द हाउस- भाग 3: कैसा था श्रद्धा का ससुराल

घर की पार्किंग में महंगी व आलीशान कारों के साथ अब छोटी कारें भी खड़ी हो गईं. सास और भाभियां कई बार उस के साथ लेक्चर अटेंड करने पहुंचने लगीं. उन्हें भी समझ आ रहा था कि किटी पार्टीज में गहनेकपड़ों का शोऔफ़ करने या बिचिंग करने में समय बरबाद करने के बजाय बहुत अच्छा है नई बातें जानना और जीवन को दिशा देने वाले लेक्चर व सैमिनार अटेंड करना, ज्ञान बढ़ाना, किताबें पढ़ना और कला दीर्घा जैसी जगहों में जाना.

श्रद्धा ने कुछ किताबें और पत्रिकाएं खरीदी थीं और उन्हें अपने कमरे की एक छोटी सी अलमारी में करीने से लगा दिया था. पर धीरेधीरे जब किताबों और पत्रिकाओं की संख्या बढ़ने लगी तो अमन के कहने पर उस ने घर के एक कमरे को छोटी सी लाइब्रेरी का रूप दे दिया और सारी किताबें व पत्रिकाएं वहां सजा दीं. अब तो परिवार के दूसरे सदस्य भी आ कर वहां बैठते और शांति व सुकून के साथ पत्रिकाएं, किताबें पढ़ते.

श्रद्धा से प्रभावित हो कर घर धीरेधीरे घर का माहौल बदलने लगा था. दोनों भाभियों ने कुक को हटा कर खुद ही किचन का काम संभाल लिया, तो सास ने भी घर के माली का हिसाब कर दिया. अब सासबहू मिल कर गार्डनिंग करतीं. श्रद्धा की देखादेखी भाभियां खुद कपड़े धोने,  प्रैस करने और घर को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारियां निभाने लगी थीं. तुषिता भी अपने छोटेमोटे सारे काम खुद निबटा लेती.

इस तरह के परिवर्तनों का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि परिवार के सदस्य अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकदूसरे के साथ बिताने लगे. खाना बनाते समय जहां दोनों भाभियों, सास और श्रद्धा को आपस में अच्छा समय बिताने का मौका मिलता, वहीँ घर के सभी सदस्य प्यार से एक ही डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाना खाने लगे. खाने की तारीफें होने लगीं. घर की बहुओं को और अच्छा करने का प्रोत्साहन मिलने लगा. वहीं, गार्डनिंग के शौक ने सास के साथ श्रद्धा की बौन्डिंग बेहतर कर दी. अब तुषिता भी गार्डनिंग में रुचि लेने लगी थी. ननद और सास के साथ श्रद्धा इन पलों का खूब आनंद लेती.

इसी तरह शौपिंग के लिए नौकरों को भेजने के बजाय श्रद्धा खुद अमन को ले कर पैदल बाजार तक जाती. मौल के बजाय वह लोकल मार्केट से सामान लेना पसंद करती. फलसब्जियां भी खुद ही ले कर आती. श्रद्धा को देख कर बाकी दोनों भाभियां भी संडे शाम को अकसर अपने पति को ले कर शौपिंग के लिए निकलने लगीं. उन्हें अपने पति के साथ समय बिताने का अच्छा मौका मिल जाता था.

समय के साथ परिवार के सभी सदस्यों को नौकरों पर निर्भर रहने के बजाय खुद अपना काम करने की आदत लग चुकी थी. घर में प्यार और शांति का माहौल था. व्यापार पर भी इस का बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा. उन का व्यापार चमचमाने लगा था. बड़े बड़े और्डर्स मिलने लगे. दूरदूर तक उन के आउटलेट्स खुलने लगे थे. हर तरह के पारिवारिक, व्यावसायिक और सामाजिक विवाद समाप्त हो चले थे.

श्रद्धाके अच्छे व्यवहार का नतीजा था कि रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ उन के संबंध और भी ज्यादा सुधरने लगे थे. किसी रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ घर के किसी सदस्य का विवाद होता, तो श्रद्धा उसे समझाती. उस की ग़लतियों की तरफ ध्यान दिलाती. वह समझाती कि पड़ोसियों और रिश्तेदारों से अच्छे रिश्ते के लिए थोड़ा सब्र कर लेना और एकदूसरे को माफ कर देना भी जरूरी होता है. इस से रिश्ते गहरे हो जाते हैं. श्रद्धा की सोच और उस के व्यवहार का तरीका घर के सभी सदस्यों पर असर डाल रहा था. उन की जिंदगी बदल रही थी.

इसी दौरान एक दिन शाम के समय सास का फ़ोन आया. वह काफी घबराई हुई आवाज में बोली, “श्रद्धा, बेटा तू जल्दी से सिटी हौस्पिटल आ जा. तेरी अलका भाभी का एक्सिडैंट हो गया है. वह तुषिता के साथ स्कूटी पर जा रही थी, तभी किसी ने टक्कर मार दी. अलका को बहुत गहरी चोट लगी है. मैं और तुषिता हौस्पिटल में हैं. तेरे दोनों जेठ आज बिज़नैस के सिलसिले में ग्रेटर नोएडा गए हुए हैं. उन को आने में देर हो जाएगी. अमन भी लगता है मीटिंग में है, फोन नहीं उठा रहा.”

“कोई नहीं मां, आप घबराओ नहीं. मैं तुरंत आती हूं.”श्रद्धा ने तुरंत कैब किया और सिटी हौस्पिटल पहुंच गई. अलका के सिर में गहरी चोट लगी थी. उस का खून काफी बह गया था. उसे तुरंत औपरेट करना था, खून भी चढ़ाना था. श्रद्धा ने डाक्टर से अपना खून देने की बात की क्योंकि उस का ब्लड ग्रुप भी ‘ओ पौजिटिव’ था.

फटाफट सारे काम हो गए. आते समय श्रद्धा अपनी चैकबुक साथ लाई थी. डाक्टर ने 2 लाख रुपए जमा करने को कहा. उस ने तुरंत जमा कर दिए.

शाम तक घर के बाकी लोग भी हौस्पिटल पहुंच गए थे. अलका अभी आईसीयू में ही थी. उसे होश नहीं आया था. अगले दिन डाक्टर्स ने कहा कि अलका अब खतरे से बाहर है, मगर अभी उस के एक पैर की सर्जरी भी होनी है क्योंकि इस दुर्घटना में उस के एक पैर के घुटने से नीचे वाली हड्डी डैमेज हो गई थी. सो, उसे भी औपरेट करना था. आननफानन यह काम भी हो गया. एक सप्ताह हौस्पिटल में रह कर अलका घर आ गई.  मगर अभी भी उसे करीब 2 महीने बैडरैस्ट पर रहना था.

ऐसे समय में श्रद्धा ने अलका की सारी जिम्मेदारियां उठा लीं. उस ने औफिस से 15 दिनों की छुट्टी ले ली. अलका के सारे काम वह अपने हाथों से करती. यहां तक कि उस के बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना, स्कूल से लाना, पढ़ाना, खिलानापिलाना यह सब श्रद्धा करने लगी. औफिस जौइन करने के बाद भी वह सारी जिम्मेदारियां बखूबी उठाती रही. हालांकि, अब तुषिता भी यथासंभव उस की मदद करती.

धीरेधीरे यह कठिन समय भी गुजर गया. अलका अब ठीक हो गई थी. सारा परिवार श्रद्धा के व्यवहार की तारीफ़ करते नहीं थकता था. उस ने अपने प्यारभरे व्यवहार से सब को अपना मुरीद बना लिया था. सुख और दुख दोनों में ही श्रद्धा ने जिस तरह अपने जीवन में संतुलन बना कर रखा और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाया था, उस से हर कोई प्रभावित था.

कई महीनों बाद जब अलका पूर तरह ठीक हो गई तो सासससुर ने घर में ग्रैंड पार्टी रखी और उस में अपनी बहू श्रद्धा को ‘बेस्ट बहू औफ द हाउस’ का अवार्ड दे कर सम्मानित किया. घर का हर सदस्य आज मिल कर श्रद्धा के लिए तालियां बजा रहा था.

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बेस्ट बहू औफ द हाउस- भाग 2: कैसा था श्रद्धा का ससुराल

इस पर श्रद्धा ने बड़े प्रेम व आदर के साथ सास की बात का विरोध करते हुए कहा था, “मम्मी जी, मैं कुक के बनाए तरहतरह के व्यंजनों के बजाय अपना बनाया हुआ साधारण मगर हैल्दी खाना पसंद करती हूं. प्लीज, मुझ से किचन में काम करने का मेरा अधिकार मत छीनिएगा.’

उस की बात सुन कर सास को कुछ अटपटा सा लगा और भाभियों ने भी भवें चढ़ा लीं. छोटी भाभी ने व्यंग्य से कहा, “श्रद्धा, यह तुम्हारा छोटा सा घर नहीं है जहां खुद ही खाना बनाना पड़े. हमारे यहां बहुत सारे नौकरचाकर और रसोइए दिनरात काम में लगे रहते हैं.”

श्रद्धा मुसकरा कर किचन में चली गई. उस ने अपने हाथों से पूरा खाना तैयार किया. हलवा भी बनाया. जब श्रद्धा ने खाना परोसा, तो खाना खा कर सब उंगलियां चाटते रह गए. सबों को खाना बहुत पसंद आया. अमन तो उस के खाने की तारीफ करते नहीं थक रहा था. सासससुर ने खुश हो कर उसे नेग भी दिया.

बाद में भी घर में भले ही कुक तरहतरह के व्यंजन तैयार करते रहते मगर वह अपने हाथों का बना साधारण खाना ही खाती और अमन भी उस के हाथ का खाना ही पसंद करने लगा था. अमन को श्रद्धा के खाने की तारीफें करता देख दोनों भाभियों ने भी अपने हाथों से कुछ आइटम्स बना कर अपनेअपने पति को रिझाने का प्रयास किया. फिर तो अकसर ही दोनों भाभियां किचन में दिखने लगी थीं.

श्रद्धा भले ही अपना छोटा सा घर छोड़ कर बड़े बंगले में रहने आ गई थी मगर उस के रहने के तरीकों में कोई परिवर्तन नहीं आया था. उस ने अपने कमरे के बाहर वाले बरामदे में एक टेबलकुरसी डाल कर उसे स्टडीरूम बना लिया था. कंप्यूटर, प्रिंटर, टेबललैंप आदि अपने टेबल पर सजा लिए. अमन के कहने पर एक छोटा सा फ्रिज भी उस ने साइड में रखवा लिया. बरामदा बड़ा था और शीशे की खिड़कियां लगी हुई थीं. वह बाहर का नजारा देखते हुए बहुत आराम से अपना काम करती. जब दिल करता, खिड़कियां खोल कर ताजी हवा का आनंद लेती. बरामदे के कोने में 3 -4 छोटे गमलों में पौधे भी लगवा दिए.

भले ही उस की अलमारियां लेटेस्ट स्टाइल के कपड़ों व गहनों से भरी हुई थीं मगर वह अपनी पसंद के साधारण मगर कंफर्टेबल कपड़ों में ही रहना पसंद करती थी.

शानदार बाथटब होने के बावजूद वह शावर के नीचे खड़ी हो कर नहाती. तरहतरह के शैंपू होने के बावजूद वह मुल्तानी मिट्टी से बाल धोती. कभी भी हेयर ड्रायर या ऐसी चीजों का इस्तेमाल वह न करती.

घर में कई सारी कीमती गाड़ियों के होते हुए भी वह पहले की तरह बस से औफिस आतीजाती रही. बसस्टैंड पर उतर कर 10 मिनट वाक कर के औफिस पहुंचने की आदत बरकरार रखी.

शादी के बाद पहले दिन जब वह बस से औफिस जा रही थी तो तुषिता ने टोका था, “भाभी, हमारे घर में इतनी गाड़ियां हैं. कोई क्या कहेगा कि इतने बड़े खानदान की नईनवेली बहू बस से औफिस जा रही है.”

“तुषि, मैं बस से औफिस मजबूरी में नहीं जा रही हूं बल्कि इसलिए जा रही हूं ताकि मेरी दौड़नेभागने और वाक करने की आदत बनी रहे. बचपन से ही मुझे शरीर को जरूरत से ज्यादा आराम देने की आदत नहीं रही है. वैसे भी, बस में आप 10 लोगों से इंटरैक्ट करते हो. आप की प्रैक्टिकल नौलेज बढ़ती है. इस में गलत क्या है?”

“जी, गलत तो कुछ नहीं,” मुंह बना कर तुषिता ने कहा और अंदर चली गई.श्रद्धा ने अपने कमरे में से तमाम ऐसी चीजें निकाल कर बाहर कर दीं जो केवल शोऔफ के लिए थीं या लग्जरियस लाइफ के लिए थीं. जब श्रद्धा अपने कमरे से कुछ सामान बाहर करवा रही थी तो सास ने सवाल किया था, “यह क्या कर रही हो बहू?”

“मम्मी जी, मुझे कमरा खुलाखुला सा अच्छा लगता है. जिन चीजों की जरूरत नहीं, उन्हें हटा रही हूं. आप ही बताइए, नकली फूलों से सजे इस कीमती फ्लौवर पौट के बजाय क्या मिट्टी का यह गमला और इस में मनीप्लांट का पौधा अच्छा नहीं लग रहा? बाजार से खरीदे गए इन शोपीसेज के बजाय मैं ने अपने हाथ की बनाई कुछ कलात्मक चीजें दीवार पर लगा दी हैं. आप कहें तो हटा दूं. वैसे, मुझे तो अच्छी लग रही हैं.

“नहींनहीं, रहने दो. दूसरों को भी तो पता चले कि हमारी छोटी बहू में कितने हुनर हैं,” कह कर सास ने चुप्पी लगा ली.

श्रद्धा ने खुद को अपनी मिट्टी से भी जोड़े रखा था. सुबह उठ कर ऐक्सरसाइज करना, घास पर नंगे पांव चलना, गार्डनिंग करना, कुकिंग करना, वाक करना आदि उस की पसंदीदा गतिविधियां थीं. अमन के कहने पर उस ने स्विमिंग करना और कार चलाना जरूर सीख लिया था मगर दैनिक जीवन में इन से दूर ही रहती. शाम को समय मिलने पर डांस करती तो सुबहसुबह साइकिल ले कर निकल पड़ती. पैसे भले ही कितने भी आ जाएं मगर फालतू पैसे खर्च नहीं करती.

उस की ये हरकतें देख कर अमन के दोनों भाईभाभियां, बहन और मांबाप कसमसा कर रह जाते, पर कुछ कह नहीं पाते क्योंकि श्रद्धा शिकायत के लायक कुछ भी गलत नहीं करती थी.

इधर एक दिन जब दोनों भाभियां सास के साथ किटी पार्टी में जाने के लिए सजधज रही थीं तो सास ने श्रद्धा से भी चलने को कहा. इस पर श्रद्धा ने जवाब दिया, “मम्मी जी, आज तो मैं एक लैक्चर अटैंड करने जा रही हूं. संदीप माहेश्वरी के मोटिवेशनल स्पीच का प्रोग्राम है. सौरी, मैं आप के साथ किटी पार्टी में नहीं आ पाऊंगी.”

श्रद्धा को प्यार और आश्चर्य से देखते हुए सास ने कहा, “दूसरों से बहुत अलग है तू. पर, सही है. मुझे तेरी बातें कभीकभी अच्छी लगती हैं. एक दिन मैं भी चलूंगी तेरे साथ लेक्चर सुनने. पर आज किटी पार्टी का ही प्लान है. मेरी सहेली ने अरेंज किया है न.”

“जी मम्मी, जरूर,”  कह कर श्रद्धा मुसकरा पड़ी.अगले संडे सास भी श्रद्धा के साथ लेक्चर सुनने गई और आ कर बहुत तारीफें कीं.

इसी तरह वक्त गुजरता गया. शुरू में श्रद्धा की आदतों और हरकतों से चिढ़ने और पसंद न करने वाली श्रद्धा की सास, ननद और भाभियां धीरेधीरे उसी के रंग में रंगती चली गईं. अब वे भी अकसर कार अवौयड कर देतीं.

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बेस्ट बहू औफ द हाउस- भाग 1: कैसा था श्रद्धा का ससुराल

अमन ने श्रद्धा को सब से पहले एक बसस्टौप पर देखा था. सिंपल मगर आकर्षक गुलाबी रंग के टौप और डैनिम में दोस्तों साथ खड़ी थी. दूसरों से बहुत अलग दिख रही थी. उस के चेहरे पर शालीनता थी. खूबसूरत इतनी कि नजरें न हटें. अमन एकटक उसे देखता रहा जब तक कि वह बस में चढ़ नहीं गई. अगले दिन जानबूझ कर अमन उसी समय बसस्टौप के पास कार खड़ी कर रुक गया. उस की नजरें श्रद्धा को तलाश रही थीं. थोड़ी दूर पर उसे श्रद्धा नजर आ गई. आज उस ने स्काई ब्लू रंग की ड्रैस पहनी थी, जिस में वह बहुत जंच रही थी.

 

ऐसा दोतीन दिनों तक लगातार होता रहा. अमन समय पर उसी बसस्टौप पर पहुंचता. एक दिन बस आई और जब श्रद्धा उस में चढ़ने लगी तो अचानक अमन  ने भी अपनी कार पार्क की और तेजी से बस में चढ़ गया. श्रद्धा बाराखंबा मैट्रो स्टेशन की बगल वाले बसस्टैंड पर उतरी और वहां से वाक करते हुए सूर्यकिरण बिल्डिंग में घुस गई. पीछेपीछे अमन भी उसी बिल्डिंग में घुसा. वह लड़की सीढ़ियां चढ़ती हुई तीसरेफ्लोर पर जा कर रुकी. वहां एक एडवरटाइजिंग कंपनी का बड़ा सा औफिस था. लड़की उस औफिस में दाखिल हो गई.

अमन कुछ देर बाहर टहलता रहा. फिर उस ने बाहर खड़े गार्ड से पूछा, “भैया, अभी जो मैडम अंदर गई हैं, वे यहां की मैनेजर हैं क्या?””जी, वे यहां डिजिटल मार्केटिंग मैनेजर और कौपी एडिटर हैं. आप को क्या काम है? क्या आप श्रद्धा मैडम से मिलना चाहते हैं?”

“जी हां, मैं मिलना चाहता हूं,” अमन ने कहा.”ठीक है. मैं उन्हें खबर दे कर आता हूं,”  कह कर गार्ड अंदर चला गया और कुछ ही देर में निकल आया.

उस ने अमन को अंदर जाने का इशारा किया. अमन अंदर पहुंचा तो चपरासी उसे श्रद्धा के केबिन तक ले गया. केबिन बहुत आकर्षक था. सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं. एक कोने में छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे भी थे. अमन को बैठने का इशारा करते हुए श्रद्धा उस की तरफ मुखातिब हुई. अमन उसे देखता रह गया. दिल का प्यार आंखों में उभर आया. श्रद्धा अमन से पहली बार मिल रही थी.

उस ने सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा, “जी हां, बताइए मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?” “ऐक्चुअली मेरी एक कंपनी है. हम स्नैक्स आइटम्स बनाते हैं. मैं आप से अपने प्रोडक्ट्स की ब्रैंडिंग और ऐड कैंपेन के सिलसिले में बात करना चाहता था. आप कौपी एडिटर भी हैं, सो, आप से  ऐड भी लिखवाना था.”

“मगर मैं ही क्यों?” श्रद्धा ने कहा, तो अमन को कोई जवाब नहीं सूझा.फिर कुछ सोचता हुआ बोला, “दरअसल, मेरे एक दोस्त ने आप का नाम रेफर किया था. इस कंपनी के बारे में भी बताया था. काफी तारीफ़ की थी.”

“चलिए ठीक है. हम इस सिलसिले में विस्तार से बात करेंगे. अपने कुछ सहयोगियों के साथ मैं आप के मैनेजर की एक मीटिंग फिक्स कर देती हूं. आप या आप के मैनेजर मीटिंग अटेंड कर सकते हैं.”जी, मीटिंग में मैनेजर नहीं, बल्कि मैं खुद ही आना चाहता हूं. मैं इस तरह के कामों को खुद ही हैंडल करता हूं. मैं तो चाहूंगा कि आप भी उस मीटिंग में जरूर रहें, प्लीज.”

“ग्रेट. तो ठीक है. अगले मंडे हम मीटिंग कर लेते हैं.”अमन ने खुश हो कर हामी में सिर हिलाया और वापस लौट आया. मगर अपना दिल श्रद्धा के पास ही छोड़ आया. उस की आंखों के आगे श्रद्धा का ही शालीन और खूबसूरत चेहरा घूमता रहा. वह बेसब्री से अगले मंडे का इंतजार करने लगा.

अगले मंडे समय से पहले ही वह मीटिंग के लिए पहुंच गया. श्रद्धा को देख कर उस के चेहरे पर मीठी मुसकान खिल गई थी. श्रद्धा के साथ 2 और लोग थे. ऐड कैंपेन के बारे में डिटेल में बातें हुईं. मीटिंग के बाद श्रद्धा के दोनों सहयोगी चले गए. अमन अभी श्रद्धा के पास ही बैठा रहा. कोई न कोई बात निकालता रहा.

2 दिनों बाद वह फिर काम की प्रोग्रैस के बारे में जानने के बहाने श्रद्धा के पास पहुंच गया. अब तक अमन के व्यवहार और बातचीत के लहजे से श्रद्धा को महसूस होने लगा था कि अमन के मन में क्या चल रहा है. अमन के लिए भी अपनी फीलिंग अब और अधिक छिपाना कठिन हो रहा था.

अगली दफा वह श्रद्धा के पास एक कार्ड ले कर पहुंचा. कार्ड देते हुए अमन ने हौले से कहा, “इस कार्ड में लिखी एकएक बात मेरे दिल की आवाज है. प्लीज, एक बार पूरा पढ़ लो, फिर जवाब देना.”

श्रद्धा ने कार्ड खोला और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, “मैं लव ऐट फर्स्ट साइट पर विश्वास नहीं करता था. मगर बसस्टैंड पर तुम्हें पहली नजर देखते ही दिल दे बैठा हूं. तुम्हारे लिए जो महसूस कर रहा हूं वह आज तक जिंदगी में किसी के लिए भी महसूस नहीं किया. रियली, आई लव यू. क्या तुम्हें हमेशा के लिए मेरा बनना स्वीकार होगा?”

श्रद्धा ने पलकें उठाईं और अमन की तरफ मुसकरा कर देखती हुई बोली, “बसस्टैंड से मेरे औफिस तक का आप का सफर कमाल का रहा. मुझे भी इतने प्यार से कभी किसी ने अपना बनने की इल्तिजा नहीं की. मैं आप का प्रपोजल स्वीकार करती हूं,” कहते हुए श्रद्धा की आंखें शर्म से झुक गईं और अमन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

अमन ने अपने घर में श्रद्धा के बारे में बताया, तो सब दंग रह गए कि अमन जैसा शर्मीला लड़का लव मैरिज की बात कर रहा है. यानी, लड़की में कुछ तो खास बात जरूर होगी. अमन के घर में मांबाप के अलावा 2 बड़े भाई, भाभियां और एक बहन तुषिता थे. भाइयों के 2 छोटेछोटे बच्चे भी थे. उन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईसों में होती थी. जबकि, श्रद्धा एक गरीब परिवार की लड़की थी. उस ने अपनी काबिलीयत और लगन के बल पर ऊंची पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे तक पहुंची. उस के अंदर स्वाभिमान कूटकूट कर भरा था. वह मेहनती होने के साथ ही जिंदगी बहुत व्यवस्थित ढंग से जीना पसंद करती थी

जल्द ही दोनों के परिवार वालों की रजामंदी मिल गई और अमन ने श्रद्धा से शादी कर ली.शादी के बाद पहले दिन जब वह किचन की तरफ बढ़ी तो सास ने उस से कहा, “बेटा, रिवाज है कि नई बहू कुछ मीठा बनाती है. जा तू हलवा बना ले. उस के बाद तुझे किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बहुत सारे कुक हैं हमारे पास.”

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अपराजिता- भाग 3: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

उस दिन अपराजिता शाम को बैंक से थकीहारी वापस आई ही थी कि बड़े भाई ने उस के पास आ कर बैठते हुए उस का पर्स उठा लिया और उस में कुछ तलाशने लगा.

यह देख कर वह चिल्लाई, ‘‘भैया, मेरा पर्स रखो. क्या चाहिए आप को?’’

‘‘छुटकी, मुझे 3 हजार रुपए चाहिए. ये रहे 3 हजार,’’ अपराजिता के पर्स में रखे रुपयों की एक गड्डी से 3 हजार रुपए गिन कर निकालते हुए बड़े भाई ने कहा.

‘‘भैया…’’ वह क्रोध से चीखी, ‘‘ये  रुपए मुझे मां को देने हैं घर खर्च के लिए. इन्हें मत लो,’’ लेकिन उस के चिल्लाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और वह कुटिल भाव से मुसकराते हुए  कमरे से बाहर निकल गया, यह कहते हुए, ‘‘इतने रुपए कमाती है. थोड़े हमें दे देगी तो तेरा क्या घट जाएगा?’’

भाई की बात ने उस के क्रोध में आहुति

का काम किया और वह गुस्से में फनफनाती

हुई फिर से चीखी, ‘‘आप दोनों मौजमस्ती

करते रहो, यारीदोस्ती में पैसे उड़ाते रहो और

मैं आप को पैसे देती रहूं? खान लग रही है न

मेरे पास?’’

तभी मां हमेशा की तरह बेटे के पक्ष में बोल पड़ीं, ‘‘अरे छुटकी, क्या हुआ जो थोड़े रुपए ले गया तो? भाई है तेरा, कल को वह कमाएगा तो तू ले लेना उस से.’’

‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा मां… इन दोनों के यही लक्षण रहे तो इन की नौकरी तो लगने से रही.’’

‘‘तू तो जब बोलेगी अशुभ ही बोलेगी.  ऐसी बहन न देखी मैं ने जो भाइयों को कोसे. यह तू अच्छा नहीं कर रही छुटकी.’’

मां का यों भाई का गलत बात पर पक्ष लेते देख उस की आंखों में पानी भर आया. तभी छोटा भाई आ कर बोला, ‘‘ज्यादा हवा में मत उड़ छुटकी. दो पैसे क्या कमाने लगी है,  खुद को तीस मार खां समझने लगी है. अरे तू इस घर में रहती है, खाती है तो क्या इस घर के लिए, हमारे लिए तेरा कोई फर्ज नहीं बनता?’’

तभी मां भी बोल पड़ी, ‘‘छुटकी, भाई कह तो ठीक रहा है. जब से तू कमाने लगी है, तू आसमान में उड़ने लगी है. जरा धरती पर रह छुटकी. इतना घमंड अच्छा नहीं. रहती, खाती भी तो है न तू घर में. तो थोड़े पैसे हम पर खर्च कर देती है तो ऐसा कौन सा एहसान कर देती है तू हम पर? कोई पेड़ से तो नहीं टपकी तू… अभी तक तेरे खर्चे झेले ही हैं न हम ने.’’

दोनों भाइयों और मां की यह जलीकटी सुन उस का मन छलनी हो आया और फिर क्रोध से सुलगते हुए बोली, ‘‘ठीक है मां, वादा रहा जो आप की इतनी बातें सुन कर भी मैं इस घर में रहूं और खाऊं. आप लोगों को मुझ से नहीं मेरे पैसों से प्यार है. तो ठीक है मैं जल्द ही अपने रहने व खाने का इंतजाम और कहीं कर लूंगी,’’ कहते हुए वह बैंक चली गई.

उस दिन पूरे दिन वह आपे में नहीं रही. मां और भाइयों के जहर बुझे बोल उस के मन को चीरे जा रहे थे. उस ने घर से अलग होने के मुद्दे पर बहुत सोचा.

मां और भाइयों के अपने साथ के व्यवहार पर बहुत चिंतन के बाद वह इस निष्कर्ष पर

पहुंची कि मां और दोनों भाई महज उस के पैसों से प्यार करते हैं. उन्हें उस के सुखदुख, उस की भावनाओं की कोई परवाह नहीं. तो ऐसे स्वार्थी रिश्तों से बंध कर उस घर में रहने का कोई मतलब नहीं.

पिछले कुछ समय से काव्या के मातापिता और भाई का उस के प्रति केयरिंग व्यवहार

देख उसे अपने जीवन में इन सब की कमी

का एहसास शिद्दत से होता. उस के जीवन से अपने जीवन की तुलना करने को विवश हो

जाती और पाती कि उसे न तो काव्या की तरह

मां और भाइयों का प्यारदुलार मिला, न ही परवाह. तो ऐसे रिश्तों से चिपके रहने का क्या औचित्य है, जिन का आधार खुदगर्जी और

स्वार्थ हो?

इस मुद्दे पर गंभीरता से सोच उस ने घर से अलग होने का निर्णय लिया. जल्द ही उसे घर के पास एक स्टाफ क्वार्टर मिल गया और वह उस में शिफ्ट हो गई.

आज नए घर में उस की पहली सुबह थी. परदों की ओट से सवेरे का उजास छनछन कर

आ रहा था. अपने नए घर में वह बेहद सुकून महसूस कर रही थी. न मां की खिटपिट न भाइयों की चिकचिक.

उसे अपने घर में आए अभी 1 सप्ताह ही हुआ था कि मां का फोन आ गया. वह

रोतेरोते कहने लगीं, ‘‘बेटा, तू तो हम सब से

रूठ कर चली गई. दोनों भाई मुझे बहुत तंग करते हैं. तू पैसे देती थी तब घर में रोजाना सब्जी बन पाती थी. किराए की आमदनी से रोजरोज सब्जी का जुगाड़ नहीं हो पाता. दोनों भाइयों ने बहुत क्लेश कर रखा है. कल मैं ने बस दाल के साथ रोटी परोसी तो बड़े ने मेरा हाथ गुस्से में झटक कर थाली फेंक दी. मेरा हाथ अभी तक दुख

रहा है. छोटे ने भी बहुत झकझक के बाद दाल से रोटी खाई.’’

‘‘ये सब आप के अंधे प्यार का नतीजा है. अब मैं क्या कहूं? आप चाहो तो मेरे घर आ जाओ.’’

‘‘न बेटा, वहां आ गई तो दोनों भाइयों को रोटी बना कर कौन खिलाएगा? मैं उन्हें छोड़ कर नहीं आ सकती न.’’

‘‘अब मैं क्या कहूं? दोनों की इतनी उम्र हो आई अभी तक अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाए. चलो मैं थोड़े रुपए आप को अभी देते हुए बैंक निकल जाऊंगी.’’

अपराजिता ने घर जा कर मां के हाथों में

2 हजार रुपए रखे.

2-3 दिनों बाद ही मां का फोन फिर आ गया, ‘‘बेटा, कुछ रुपए दे जा… जो दे गई थी, खत्म हो गए.’’

‘‘खत्म हो गए? अभी 3 दिन पहले ही तो मैं ने आप को 2 हजार रुपए दिए थे. 2-3 दिनों में ही खर्च हो गए?’’

‘‘बेटा, दोनों रोना रो रहे थे. तेरे बाबूजी को याद कर रहे थे कि आज वे होते तो हम दोनों की कहीं न कहीं नौकरी जरूर लगवा देते. बेटा मुझ से उन का रोना देखा नहीं गया तो मैं ने दोनों को 5-5 सौ रुपए दे दिए.’’

‘‘आप भाइयों को कोई नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहने के बदले मेरी खूनपसीने की कमाई उन्हें गुलछर्रे उड़ाने के लिए दे रही हो, यह ठीक नहीं मां. अब से मैं आप को पैसे नहीं देने वाली. आप जानो आप का काम जाने,’’ कहते हुए अपराजिता ने गुस्से से फोन काट दिया.

मां का फोन शाम को फिर आया. घंटी बजे जा रही पर अपराजिता ने उसे सुन कर भी अनसुना कर दिया.

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अपराजिता- भाग 2: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

मातापिता और भाइयों के हाथों सतत अपमान और अवमानना से उस में उन सब के सामने अपने वजूद की सार्थकता सिद्ध करने की चाह जगी.

वह दिनरात पढ़ाई में जुटी रहती. अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान पर आती. जहां दोनों भाई कभी 50-55% से अधिक अंक नहीं ला पाते, वह हमेशा 90% से अधिक अंक लाती.

घर में जहां उसे लड़की होने की वजह से भाइयों की अपेक्षा हेय और कमतर समझा जाता, वहीं स्कूल में उस के शिक्षकशिक्षिकांएं उस की पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन एवं मृदु स्वभाव के कारण उसे बेहद प्यार करते. उस पर जान छिड़कते.

उस के घर की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत न थी. पिता एक निजी कंपनी में क्लर्क थे. उन  की तनख्वाह 5 प्राणियों के परिवार की जरूरतों को पूरा करने में ही खर्च हो जाती.

उसे याद नहीं मांपिता ने उस के निजी खर्च के लिए कभी 10 रुपए उस के हाथ में रखे हों.  10वीं कक्षा के बाद से ही वह अपने खर्चों के लिए अपने पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी, जो अभी तक जारी था. पिछले कुछ वर्षों से तो वह अपनी ट्यूशन की कमाई से कुछ रुपए हर महीने मां को भी देने लगी थी, जो हमेशा पैसों की तंगी से जूझती रहती थीं.

वक्त के साथ शिक्षा का पायदान उत्तरोत्तर चढ़ते हुए उस ने अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन पूरी की और फिर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी.  उन्ही दिनों उस के पिता का अचानक हार्ट अटैक से देहांत हो गया.

पिता की मृत्यु के बाद घर का माहौल और तंगहाल हो गया. पिता की नियमित आय बंद होने से घर में पैसों की बेहद कमी हो गई.

उन के बापदादों के जमाने के घर का एक हिस्सा किराए पर उठा था. उस के किराए से बड़ी मुश्किल से दालरोटी भर चल पाती.

उस तनाव भरे दौर में भी अपराजिता ने अपने हालात के सामने घुटने नहीं टेके और पूरी तैयारी से अनेक प्रतियोगी परीक्षाएं देती रही. उन्ही दिनों उस की प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और वह पहली बार में ही सफल रही.

तभी उस की सोच में व्यवधान डालते हुए काव्या का फोन आ गया. उस ने उस से कहा कि वह शाम के 7 बजे तक बबल्स जरूर पहुंच जाए.

बबल्स उस के घर के पास ही था. अत: 7 बजतेबजते वहां पहुंच गई.

‘‘अरे अपराजिता बिटिया, बहुतबहुत बधाई, पहली बार में ही कंपीटीशन ऐग्जाम क्लियर करने के लिए,’’ काव्या की मम्मी ने उसे बड़े स्नेह से गले लगाते हुए कहा.

‘‘थैंक यू सो मच आंटी.’’

‘‘बधाई बेटा,’’ काव्या के पापा भी बोल पड़े.

‘‘बधाई दीदी,’’ काव्या का छोटा भाई बोला.

‘‘थैंक यू सो मच अंकल. थैंक यू अभी.’’

‘‘भई, मैं तो इस बात से बहुत खुश हूं कि हमारी सीतागीता की जोड़ी यूनिवर्सिटी के बाद भी कायम रहेगी. तुम दोनों ने एकसाथ पढ़ाई की, अब नौकरी में भी दोनों साथसाथ रहोगे. बहुत बढि़या बच्चो,’’ काव्या के पापा ने कहा.

तभी काव्या की मम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे होते मुझे काव्या की बिलकुल फिक्र नहीं होती.’’

‘‘ओ मम्मा, कम औन, अब यह अपनी इस हैलिकौप्टर पेरैंटिंग पर ब्रेक लगाओ. मैं अब बच्ची नहीं रही, जो मुझे अभी भी अपराजिता की जरूरत हो,’’ काव्या ने तनिक बनावटी गुस्से से कहा.

‘‘यह तो तू गलत कह रही है मेरी लाडो. तू तो मेरे लिए हमेशा बच्ची ही रहेगी.’’

‘‘50 साल की हो जाऊंगी तब भी,’’ काव्या ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को चौड़ा करते हुए इठलाते हुए कहा.

इस पर उस की मां ने प्यार से उसे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘हां बिट्टो रानी, तू

50 साल की हो जाएगी तब भी.’’

तभी काव्या के पापा बोले, ‘‘हां तो भई, हमारी यह सीतागीता की जोड़ी बैंक पर धावा बोलने कब जा रही है?’’

उन की इस बात पर इस बार अपराजिता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंकल हम दोनों की जौइनिंग एक ही दिन है. पहली मार्च की

जौइनिंग है.’’

‘‘बढि़या, बहुत बढि़या. शायद इन बैंक वालों को भी खबर लग गई कि ये दोनों इकट्ठी अपनी बैस्ट परफौर्मैंस देती हैं.’’

इस पर अपराजिता ने तनिक मुसकराते हुए उन्हें जवाब दिया, ‘‘जी अंकल, साथसाथ तो हम अच्छेअच्छों की छुट्टी कर दें.’’

तभी काव्या की मां अपराजिता से बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे होते हुए मुझे इस की बिलकुल चिंता नहीं होती. फिर भी बेटा, इस का ध्यान रखना. तुझे तो पता है तेरी यह सहेली खाने की बड़ी

चोर है. दोनों एकसाथ लंच करना और यूनिवर्सिटी की तरह इस से इस का पूरा लंच खत्म करवा दिया करना.’’

‘‘जी… जी… आंटी, मेरे होते हुए आप को बिलकुल चिंता करने की जरूरत नहीं है. आई प्रौमिस, मैं इस का पूरापूरा ध्यान रखूंगी.’’

अपराजिता की वह पूरी शाम गप्पों, हंसीमजाक में बेहद खुशगवार गुजरी.

वह जब काव्या के परिवार से मिलती, तो जहां एक ओर उन सब का अपने प्रति गर्मजोशी भरा आत्मीय व्यवहार उसे भीतर तक अभिभूत कर देता, वहीं दूसरी ओर काव्या के प्रति उन सब का बेशर्त, भरपूर लाड़दुलार देख मन ही मन एक अजीब से खालीपन की अनुभूति से भी भर उठती.  आज भी यही हुआ था.

काव्या की फैमिली के बारे में सोचतेसोचते रात को कब वह नींद के आगोश में समा गई, उसे पता भी नहीं चला.

बैंक जौइनिंग का वक्त करीब आता जा रहा था और नियत दिन उस ने अपनी नौकरी जौइन  कर ली. उसे नौकरी करते 1 माह होने को आया.

उस दिन वह बहुत खुश थी. उस के अकाउंट में उस की पहली तनख्वाह आई थी. वह और काव्या दोनों साथसाथ अपनी  पहली सैलरी से अपनेअपने घर वालों के लिए गिफ्ट्स लेने बाजार गईं.

अपराजिता और काव्या दोनों ने अपनेअपने पेरैंट्स और

भाइयों के लिए बढि़या कपड़े खरीदे और फिर दोनों खुशीखुशी अपनेअपने घर लौटीं.

‘‘लो मां, यह साड़ी आप के लिए, हां बड़े भैया, यह शर्टपैंट आप के लिए, छोटे भैया, यह आप के लिए.’’

‘‘अरे वाह छुटकी, तेरे तो ठाट हो गए. अब हर महीने तेरे बैंक में 70 हजार रुपए आ जाएंगे?’’

‘‘हां भैया, वह तो है. भैया जरा मन लगा कर पढ़ाई कर लो, तो आप की भी जिंदगी बन जाएगी.’’

‘‘बस, बस कर छुटकी, ज्यादा भाषण मत झाड़. नौकरी ही लगी है, कोई खजाना हाथ नहीं लगा, जो सुबह से प्रवचन दे रही है.’’

‘‘आप दोनों 30 बरस के होने को आए और अभी तक मां को और मुझे आप दोनों के खर्चे उठाने पड़ते हैं. अपने दिल पर हाथ रख कर बोलिए, क्या यह सही है?’’

‘‘बस कर छुटकी. जल्द ही हमारे दिन भी आएंगे. ऐग्जाम दे रहे हैं न हम दोनों भी. अब हम दोनों मांगलिक हैं तो इस में हमारा क्या कुसूर?’’

‘‘भैया, फालतू के बहानेबाजी तो करो मत. पढ़ाई करो पढ़ाई,’’ लेकिन उन दोनों को अकल  नहीं आनी थी और नहीं आई.

अपराजिता की नौकरी लगे 1 साल होने को आया. दोनों भाइयों की यारीदोस्ती, मौजमस्ती बदस्तूर जारी रही.

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अपराजिता- भाग 1: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

‘‘हैलो अपराजिता, अभीअभी मेल आया है. मुझे यूनीयन बैंक की नेहरू पैलेस वाली ब्रांच में एक तारीख को जौइन करना है.  हम सब शाम को बबल्स जा रहे हैं पार्टी करने. तू 7 बजे तक वहां जरूर पहुंच जाना,’’ काव्या ने नौकरी मिलने की खुशी में चहकते हुए अपनी जिगरी सहेली अपराजिता से कहा.

‘‘क्या तुझे भी नेहरू पैलेस ब्रांच जौइन करना है? मुझे भी वहीं का अपौइंटमैंट लैटर आया है.’’

‘‘ओ…’’ वह खुशी से चीखी, ‘‘यार हम ने एक स्कूल में पढ़ाई की, एक ही कालेज, यूनिवर्सिटी में साथ रहे और अब एक ही जगह नौकरी. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. मैं अभी जा कर मम्मापापा को बताती हूं. वे भी बहुत

खुश होंगे. चल शाम को देर मत करना. टाइम पर पहुंच जाना. आज तो डबल धमाका करेंगे,’’ अपूर्व खुशी से उछलते हुए काव्या ने अपराजिता से कहा.

फोन रख कर अपराजिता तनिक उदास हो उठी. घर में ऐसा कोई भी तो नहीं है, जिस से वह खुल कर अपने मन की खुशी बांट पाए. कहने को 2 बड़े भाई हैं, लेकिन उन का होना न होने के ही बराबर है. उन दोनों की जिंदगी में उस की कोई अहमियत ही नहीं. बस अपनाअपना राग अलापते रहते हैं दोनों.

मां को भी उस की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं. उन की नजरों में उस की खुशियोंगमों का कोई मोल नहीं. उन्हें तो दोनों भाइयों के आगे कुछ दिखता ही नहीं.

अनायास आंखों के सामने काव्या का खिलाखिला चेहरा कौंध उठा

कि कितनी खुश है काव्या… जान छिड़कने वाले पेरैंट्स और एक छोटा भाई. उन के घर पर तो काव्या की बैंक जौइनिंग को ले कर जश्न मन

रहा होगा.

तभी उस की मां वहां आईं, ‘‘अरे छुटकी,  जरा कुछ रुपए तो देना. बड़ा भाई रुपए मांग

रहा है. उस के जूते टूट गए हैं. उसे नए जूते खरीदने हैं.’’

अपराजिता के मन की कड़वाहट जबान पर उतर आई, ‘‘मां, भैया से कहो अपने खर्चे खुद झेला करें. कल सहेलियों की पार्टी करी थी नई नौकरी की.  इस महीने के सारे ट्यूशन के रुपए खर्च हो गए.’’

‘‘अरे करम जली, पार्टी में सारे रुपए खर्च कर दिए? इतने में तो बड़ा भाई के जूते आ जाते. बिचारा टूटे जूतों से काम चला रहा है. क्या जरूरत थी भला पार्टी करने की? नौकरी ही तो लगी है. कोई राजपाट नहीं मिल गया जो पैसे उड़ाती फिर रही है. भाई चाहे जीए या मरे, इन महारानी को पार्टी करनी है.’’

मां के कड़वे बोलों से अपराजिता की आंखों में आंसू डबडबा आए. उन्हें रोकने का प्रयास करते हुए वह  बोली, ‘‘अभी पिछले

महीने ही भैया ने मुझ से पैसे ले कर अपने

बर्थडे की पार्टी की थी. उस से पिछले महीने

छोटे भैया ने  पिकनिक पार्टी में मेरे पूरे 5 हजार रुपए उड़ा डाले थे. उन से तो आप कुछ नहीं बोलतीं. मैं ने अपने ही पैसों से जरा पार्टी क्या कर दी, आप टोकाटाकी कर रही हैं. हद है मेरे

ही पैसों पर मेरा कोई हक नहीं. मां यह बात

सही नहीं.’’

‘‘चल, चल, चुप रह. ज्यादा जबान न चला. जरा दो पैसे क्या कमाने लग गई, जमीन पर तेरे पैर ही नहीं रहे. आसमान में उड़ने लगी है. अपनी हद में रह लड़की.’’

‘‘हमेशा भाइयों का ही पक्ष लेती हो आप. आप की इसी तरफदारी और अंधे प्यार की वजह से दोनों आज तक सही ढंग से सैट नहीं हो पाए हैं. मैं दोनों से इतनी छोटी हूं और मेरी बैंक में नौकरी लग गई. ये दोनों अभी तक नौकरी की तलाश में जूते घिस रहे हैं.’’

‘‘बस, बस कर छुटकी. तेरी जबान बहुत लंबी हो आई है आजकल. कोशिश कर तो रहा हूं. कहीं न कहीं नौकरी लग ही जाएगी,’’ बड़े भाई ने  तनिक तैश में आते अपराजिता से कहा.

‘‘भैया, आप बैठ कर ढंग से पढ़ाई तो

करते नहीं. दिन भर दोस्तों के साथ बाहर रहते

हो. बिना पढ़ाई करे कोई बढि़या नौकरी नहीं मिलती. नौकरी के लिए बहुत मेहनत करनी

पड़ती है. देखा नहीं? पूरा साल कितनी कड़ी मेहनत की मैं ने तब जा कर यह ऐग्जाम क्लियर कर पाई.’’

तभी बड़े भैया का पक्ष लेते हुए मां फिर

से बोलीं, ‘‘अरे, दोनों भाई भारी मांगलिक हैं

और मांगलिक बच्चों के हर काम देर से होते हैं. दोनों को नौकरी मिलने में देर जरूर हो रही है, लेकिन मेरी बात गांठ बांध ले लड़की जल्द ही तुझ से भी बढि़या नौकरी लगेगी मेरे दोनों कुंवरों  की.’’

‘‘हां मां, दिन भर यारदोस्तों के साथ रह कर नौकरी लग जाती तो आज कोई बेरोजगार ही नहीं होता. लेकिन आप सब को यह बात समझ में आए तब तो. नौकरी नहीं लगी तो मांगलिक होने की वजह से. वाह वाह क्या लौजिक है,’’ अपराजिता ने मां को पलट कर जवाब दिया और फिर खिन्न मन से अपने कमरे में चली गई.

उस ने एक बार फिर से अपना लैपटौप औन कर मेल खोल कर अपना अपौइंटमैंट लैटर देखा. उसे करीब 70 हजार रुपए सैलरी मिलेगी. इतना बढि़या वेतन देख कर मन की भीतरी तह तक  मानो गहरा सुकून पहुंचा. वह आंखें बंद कर पलंग पर लेट गई.  मन पखेरू कब वर्तमान से अतीत में जा कर फुदकने लगा पता ही नहीं चला.

उस ने एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में अपने मातापिता की सब से छोटी संतान के रूप में जन्म लिया था. उस से बड़े 2 भाई थे. पुरातनपंथी सोच वाले मातापिता ने हमेशा उसे भाइयों की तुलना में कमतर आंका. मांपिता ने बचपन से उस के लड़की होने की वजह से उस से भेदभाव किया.

हर कदम पर उसे एहसास दिलाया जाता कि लड़की होने की वजह से वह दोयम दर्जे पर है. मातापिता का लाड़प्यार क्या होता है, उस ने कभी महसूस ही नहीं किया. उन का सारा दुलार दोनों भाइयों के हिस्से में आता. उन की हर जरूरत का ध्यान रखा जाता. उन की हर छोटीबड़ी, जायजनाजायज मांग पूरी की जाती. खानेपीने, पहननेओढ़ने सब में उन दोनों और उस के बीच साफसाफ फर्क दिखता. उन की हर बात को तवज्जो दी जाती. दोनों भाई हमेशा मातापिता की गोद में चढ़ेचढ़े इठलाते, जबकि वह तृषित  निगाहों से उन्हें देखती.

अपराजिता के मासूम कोमल मन पर मातापिता के इस भेदभाव भरे रवैए ने बहुत गलत प्रभाव डाला. दिनरात मातापिता और भाइयों की उपेक्षा की शिकार वह उन सब के इस रवैए से अपनी ही खोल में सिमटती गई. अंतर्मुखी बन गई. बहुत कम बोलती.

उसे सुकून मिलता तो मात्र किताबों में. किताबों के काले अक्षरों में रम वह दीनदुनिया भूल जाती. अपना दर्द भूल जाती. दुनिया में कोई रोशन कोना था तो वह था उस का स्कूल.

जहां घर में उसे उपेक्षा मिलती, वहीं  स्कूल में उस की पढ़ाकू प्रवृत्ति ने उसे सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की आंखों का तारा बना दिया.

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इसमें बुरा क्या है: क्यों किया महेश और आभा ने वह फैसला

महेश और आभा औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि आभा का मोबाइल बज उठा. आभा ने नंबर देखा, ‘रुक्मिणी है,’ कहते हुए फोन उठाया. कुछ ही पलों बाद ‘ओह, अच्छा, ठीक है,’ कहते हुए फोन रख दिया. चेहरे पर चिंता झलक रही थी. महेश ने पूछा, ‘‘कहीं छुट्टी तो नहीं कर रही है?’’

‘‘3 दिन नहीं आएगी. उस के घर पर मेहमान आए हैं.’’ दोनों के तेजी से चलते हाथ ढीले पड़ गए थे. महेश ने कहा, ‘‘अब?’’

‘‘क्या करें, मैं ने पिछले हफ्ते 2 छुट्टियां ले ली थीं जब यह नहीं आई थी और आज तो जरूरी मीटिंग भी है.’’

‘‘ठीक है, आज और कल मैं घर पर रह लेता हूं. परसों तुम छुट्टी ले लेना,’’ कह कर महेश फिर घर के कपड़े पहनने लगे. उन की 10वीं कक्षा में पढ़ रही बेटी मनाली और चौथी कक्षा में पढ़ रहा बेटा आर्य स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे. नीचे से बस ने हौर्न दिया तो दोनों उतर कर चले गए. आभा भी चली गई. महेश ने अंदर जा कर अपनी मां नारायणी को देखा. वे आंख बंद कर के लेटी हुई थीं. महेश की आहट से भी उन की आंख नहीं खुली. महेश ने मां के माथे पर हाथ रख कर देखा, बुखार तो नहीं है?

मां ने आंखें खोलीं. महेश को देखा. अस्फुट स्वर में क्या कहा, महेश को समझ नहीं आया. महेश ने मां को चादर ओढ़ाई, किचन में जा कर उन के लिए चाय बनाई, साथ में एक टोस्ट ले कर मां के पास गए. उन्हें सहारा दे कर बिठाया. अपने हाथ से टोस्ट खिलाया. चाय भी चम्मच से धीरेधीरे पिलाई. 90 वर्ष की नारायणी सालभर से सुधबुध खो बैठी थीं. वे अब कभीकभी किसी को पहचानती थीं. अकसर उन्हें कुछ पता नहीं चलता था. रुक्मिणी को उन्हीं की देखरेख के लिए रखा गया था. रुक्मिणी के छुट्टी पर जाने से बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती थी. इतने में साफसफाई और खाने का काम करने वाली मंजू बाई आई तो महेश ने कहा, ‘‘मंजू, देख लेना मां के कपड़े बदलने हों तो बदल देना.’’

मां का बिस्तर गीला था. मंजू ने ही उन्हें सहारा दे कर खड़ा किया. बिस्तर महेश ने बदल दिया. ‘‘मां के कपड़े बदल दो, मंजू,’’ कह कर महेश कमरे से बाहर गए तो मंजू ने नारायणी को साफ धुले कपड़े पहनाए और मां को फिर लिटा दिया.

नारायणी के 5 बेटे थे. सब से बड़ा बेटा नासिक के पास एक गांव में रहता था. बाकी चारों बेटे मुंबई में ही रहते थे. महेश घर में सब से छोटे थे. नारायणी ने हमेशा महेश के ही साथ रहना पसंद किया था. महेश का टू बैडरूम फ्लैट एक अच्छी सोसाइटी में दूसरे फ्लोर पर था. एक वन बैडरूम फ्लैट इसी सोसाइटी में किराए पर दिया हुआ था. पहले महेश उसी में रहते थे पर बच्चों की पढ़ाई और मां की दिन पर दिन बढ़ती अस्वस्थता के चलते बाकी भाइयों के आनेजाने से वह फ्लैट काफी छोटा पड़ने लगा था. तो वे इस फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे. मां की सेवा और देखरेख में महेश और आभा ने कभी कोई कमी नहीं छोड़ी थी. कुछ महीनों पहले जब नारायणी चलतीफिरती थीं, रुक्मिणी का ध्यान इधरउधर होने पर सीढि़यों से उतर कर नीचे पहुंच जाती थीं. फिर वाचमैन ही उन्हें ऊपर तक छोड़ कर जाया करता था. महेश के सामने वाले फ्लैट में रहने वाले रिटायर्ड कुलकर्णी दंपती ने हमेशा महेश के परिवार को नारायणी की सेवा करते ही देखा था. उन के दोनों बेटे विदेश में कार्यरत थे. आमनेसामने दोनों परिवारों में मधुर संबंध थे. पर जब से नारायणी बिस्तर तक सीमित हो गई थीं, सब की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी.

बच्चे स्कूल से वापस आए तो महेश ने हमेशा की तरह पहले मां को बिठा कर अपने हाथ से खिलाया. उस के औफिस में रहने पर रुक्मिणी ही उन का हर काम करती थी. फिर बच्चों के साथ बैठ कर खुद लंच किया. मां की हालत देख कर महेश की आंखें अकसर भर आती थीं. उसे एहसास था कि उस के पैदा होने के एक साल बाद ही उस के पिता की मृत्यु हो गई थी. पिता गांव के साधारण किसान थे. 5 बेटों को नारायणी ने कई छोटेछोटे काम कर के पढ़ायालिखाया था. अपने बच्चों को सफल जीवन देने में जो मेहनत नारायणी ने की थी उस के कई प्रत्यक्षदर्शी रिश्तेदार थे जिन के मुंह से नारायणी के त्याग की बातें सुन कर महेश का दिल भर आता था. यह भी सच था कि जितनी जिम्मेदारी और देखरेख मां की महेश करते थे उतनी कोई और बेटा नहीं कर पाया था. शायद, इसलिए नारायणी हमेशा महेश के साथ ही रहना पसंद करती थीं.

नारायणी को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था, यहां तक कि घूमनेफिरने का प्रोग्राम भी इस तरह बनाया जाता था कि कोई न कोई घर पर उन के पास रहे. मनाली की इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा थी. तो वह अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी. शाम को महेश के बड़े भाई का फोन आया कि वे होली पर मां को देखने सपरिवार आ रहे हैं. मनाली के मुंह से तो सुनते ही निकला, ‘‘पापा, उस दौरान बोर्ड की परीक्षाएंशुरू होंगी. मैं सब लोगों के बीच कैसे पढ़ूंगी?’’ ‘‘ओह, देखते हैं,’’ महेश इतना ही कह पाए. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था पर आजकल मां को देखने के नाम पर जो भीड़ अकसर जुटती रहती थी उस से महेश और आभा को काफी असुविधा हो रही थी. हर भाई के 2 या 3 बच्चे तो थे ही, सब आते तो उन की आवभगत में महेश या आभा को औफिस से छुट्टी करनी ही पड़ती थी, ऊपर से बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ता. मां को देखने आने का नाम ही होता, उन के पास बैठ कर उन की सेवा करने की इच्छा किसी की भी नहीं होती. सब घूमतेफिरते, अच्छेअच्छे खाने की फरमाइश करते. भाभियां तो मां के गीले कपड़े बदलने के नाम से ही कोई बहाना कर वहां से हट जातीं. आभा ही रुक्मिणी के साथ मिल कर मां की सेवा में लगी रहती. अब महेश थोड़ा चिंतित हुए, दिनभर सोचते रहे कि क्या करें, मां की तरफ से भी लापरवाही न हो, बच्चों की पढ़ाई में भी व्यवधान न हो.

महेश और आभा दोनों ही मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पदों पर थे. आर्थिक स्थिति अच्छी ही थी, शायद इसलिए भी दिनभर कई तरह की बातें सोचतेसोचते आखिर एक रास्ता महेश को सूझ ही गया. रात को आभा लौटी तो महेश, भाई के सपरिवार आने का और मनाली की परीक्षाओं का एक ही समय होने के बारे में बताते हुए कहने लगे, ‘‘आभा, दिनभर सोचने के बाद एक बात सूझी है. मैं दूसरा फ्लैट खाली करवा लेता हूं. मां को वहां शिफ्ट कर देते हैं. मां के लिए किसी अतिविश्वसनीय व्यक्ति का उन के साथ रहने का प्रबंध कर देते हैं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो महेश? मां अकेली रहेंगी?’’

‘‘अकेली कहां? हम वहां आतेजाते ही रहेंगे. पूरी नजर रहेगी वहां हमारी. जो भी रिश्तेदार उन्हें देखने के नाम से आते हैं, वहीं रह लेंगे और यहां भी आने की किसी को मनाही थोड़े ही होगी. मैं ने बहुत सोचा है इस बारे में, मुझे इस में कुछ गलत नहीं लग रहा है. थोड़े खर्चे बढ़ जाएंगे, 2 घरों का प्रबंध देखना पड़ेगा, किराया भी नहीं आएगा. लेकिन हम मां की देखरेख में कोई कमी नहीं करेंगे. बच्चों की पढ़ाई भी डिस्टर्ब नहीं होने देंगे.’’

‘‘महेश, यह ठीक नहीं रहेगा? मां को कभी दूर नहीं किया हम ने,’’ आभा की आंखें भर आईं.

‘‘तुम देखना, यह कदम ठीक रहेगा. किसी को परेशानी नहीं होगी. और अगर किसी को भी तकलीफ हुई तो मां को यहीं ले आएंगे फिर.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’

अगला एक महीना महेश और आभा काफी व्यस्त रहे. दूसरा फ्लैट बस 2 बिल्ंडग ही दूर था. किराएदार भी महेश की परेशानी समझ जल्दी से जल्दी फ्लैट खाली करने के लिए तैयार हो गए. महेश ने स्वयं उन के लिए दूसरा फ्लैट ढूंढ़ने में सहयोग किया. महेश की रिश्तेदारी में एक लता काकी थीं, जो विधवा थीं, जिन की कोई संतान भी नहीं थी. वे कभी किसी रिश्तेदार के यहां रहतीं, कभी किसी आश्रम में चली जातीं. महेश ने उन की खोजबीन की तो पता चला वे पुणे में किसी रिश्तेदार के घर में हैं. महेश खुद कार ले कर उन्हें लेने गए. नारायणी जब स्वस्थ थीं, वे तब कई बार उन के पास मिलने आती थीं. महेश को देख कर लता काफी खुश हुईं और जब महेश ने कहा, ‘‘बस, मैं आप पर ही मां की देखभाल का भरोसा कर सकता हूं काकी, आप उन के साथ रहना, घर के कामों के लिए मैं एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दूंगा,’’ लता खुशीखुशी महेश के साथ आ गईं.

दूसरा फ्लैट खाली हो गया. एक फुलटाइम मेड राधा का प्रबंध भी हो गया था. एक रविवार को मां को दूसरे फ्लैट में ले जाया जा रहा था. महेश और आभा ने उन के हाथ पकड़े हुए थे. वे बिलकुल अंजान सी साथ चल रही थीं. सामने वाले फ्लैट के मिस्टर कुलकर्णी पूरी स्थिति जानते ही थे. वे कह रहे थे, ‘‘महेशजी, आप ने सोचा तो सही है पर आप की भागदौड़ और खर्चे बढ़ने वाले हैं.’’

‘‘हां, देखते हैं, आगे समझ आ ही जाएगा, यह सही है या नहीं?’’ आभा ने वहां किचन पूरी तरह से सैट कर ही दिया था. लता काकी को सब निर्देश दे दिए गए थे. महेश ने उन्हें यह भी संकेत दे दिया था कि वे उन्हें हर महीने कुछ धनराशि भी जरूर देंगे. वे खुश थीं. उन्हें अब एक ठिकाना मिल गया था. सोसाइटी में पहले तो जिस ने सुना, हैरान रह गया. कई तरह की बातें हुईं. किसी ने कहा, ‘यह तो ठीक नहीं है, बूढ़ी मां को अकेले घर में डाल दिया.’ पर समर्थन में भी लोग थे. उन का कहना था, ‘ठीक तो है, मां जी को देखने इतना आनाजाना होता है, लोगों की भीड़ रहती थी, यह अच्छा विचार है.’ महेश और बाकी तीनों भी मां के आसपास ही रहते, जिस को समय मिलता, वहीं पहुंच जाता. मां अब किसी को पहचानती तो थीं नहीं, पर फिर भी सब ज्यादा से ज्यादा समय वहीं बिताते. वहां की हर जरूरत पर उन का ध्यान रहता. मिस्टर कुलकर्णी ने अकसर देखा था महेश सुबह औफिस जाने से पहले और आने के बाद सीधे वहीं जाते हैं और छुट्टी वाले दिन तो अकसर सामने ताला रहता, मतलब सब नारायणी के पास ही होते. 3 महीने बीत गए. होली पर भाई सपरिवार आए. पहले तो उन्हें यह प्रबंध अखरा पर कुछ कह नहीं पाए. आखिर महेश ही थे जो सालों से मां की सेवा कर रहे थे. मनाली की परीक्षाएं भी बिना किसी असुविधा के संपन्न हो गई थीं. मां की हालत खराब थी. उन्होंने खानापीना छोड़ दिया था. डाक्टर को बुला कर दिखाया गया तो उन्होंने भी संकेत दे दिया कि अंतिम समय ही है. कभी भी कुछ हो सकता है. बड़ी मुश्किल से उन के मुंह में पानी की कुछ बूंदें या जूस डाला जाता. लता काकी को इन महीनों में एक परिवार मिल गया था.

मां को कुछ होने की आशंका से लता काकी हर पल उदास रहतीं और एक रात नारायणी की सांसें उखड़ने लगीं तो लता काकी ने फौरन महेश को इंटरकौम किया. महेश सपरिवार भागे. मां ने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं. सब बिलख उठे. महेश बच्चे की तरह रो रहे थे. आभा ने सब भाइयों को फोन कर दिया. सुबह तक मुंबई में ही रहने वाले भाई पहुंच गए, बाकी रिश्तेदारों का आना बाकी था. सोसाइटी में सुबह खबर फैलते ही लोग इकट्ठा होते गए. भीड़ में लोग हर तरह की बातें कर रहे थे. कोई महेश की सेवा के प्रबंध की तारीफ कर रहा था, वहीं सोसाइटी के ही दिनेशजी और उन की पत्नी सुधा बातें बना रहे थे, ‘‘अंतिम दिनों में अलग कर दिया, अच्छा नहीं किया, मातापिता बच्चों के लिए कितना करते हैं और बच्चे…’’

वहीं खड़े मिस्टर कुलकर्णी से रहा नहीं गया. उन्होंने कहा, ‘‘भाईसाहब, महेशजी ने अपनी मां की बहुत ही सेवा की है, मैं ने अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, पर अंतिम समय में दूर…’’

‘‘दूर कहां, हर समय तो ये सब उन के आसपास ही रहते थे. उन की हर जरूरत के समय, वे कभी अकेली नहीं रहीं, आर्थिक हानिलाभ की चिंता किए बिना महेशजी ने सब की सुविधा का ध्यान रखते हुए जो कदम उठाया था, उस में कुछ भी बुरा नहीं है. आप के बेटेबहू भी तो अपने बेटे को ‘डे केयर’ में छोड़ कर औफिस जाते हैं न, तो इस का मतलब यह तो नहीं है न, कि वे अपने बेटे से प्यार नहीं करते. आजकल की व्यस्तता, बच्चों की पढ़ाई, सब ध्यान में रखते हुए कुछ नए रास्ते सोचने पड़ते हैं. इस में बुरा क्या है. बातें बनाना आसान है. जिस पर बीतती है वही जानता है.  महेशजी और उन का परिवार सिर्फ प्रशंसा का पात्र है, एक उदाहरण है.’’ वहां उपस्थित बाकी लोग मिस्टर कुलकर्णी की बात से सहमत थे. दिनेशजी और उन की पत्नी ने भी अपने कहे पर शर्मिंदा होते हुए उन की बात के समर्थन में सिर हिला दिया था.

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इल्जाम- भाग 2: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

कामिनी जी ने यह बात स्वीकार कर ली.सही मौका देख कर रिसेप्शन का आयोजन किया गया. कामिनी ने इस में अपनी सारी अधूरी तमन्नाऐं पूरी कीं. खानपान और सजावट का शानदार प्रबंध किया गया. नए कपड़े, गहने और रिश्तेदारों की जमघट के बीच वह पुराने दर्द भूल गईं. कई दिनों तक मेहमानों का आनाजाना लगा रहा. हंसीठहाकों की मजलिस के बीच घर में एक नए माहौल की शुरुआत हुई.

भवानी प्रसाद को लगने लगा कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा. उन की तरह कामिनी भी समीक्षा को दिल से स्वीकार कर लेगी. समीक्षा के घर वालों से मेलजोल बढ़ाने और कामिनी के फूले मुंह को छिपाने के लिए भवानी प्रसाद ने समीक्षा के भाईबहन को 7-8 दिनों के लिए घर में ही रोक लिया.

समीक्षा का भाई अनुज काफी मजाकिया स्वभाव का था तो वहीं बहन दिशा डांस गाने में बहुत होशियार थी. मयंक की बहन दीक्षा और भाई विक्रांत भी अनुज और दिशा के साथ खूब मस्तीधमाल करते. 3 -4 दिन इसी तरह धमालमस्ती में बीत गए. समीक्षा और मयंक भी नए माहौल का मजा ले रहे थे. कामिनी भी नार्मल रहने लगी थी. सब कुछ अच्छा चल रहा था कि इसी बीच गहनों की चोरी वाली घटना ने सब को सकते में डाल दिया. हंसीखुशी और मस्ती का माहौल कुछ ही देर में तनावपूर्ण हो गया था.

अनुज और दिशा उसी शाम अपने घर चले गए थे और समीक्षा बिल्कुल खामोश सी हो गई थी. कामिनी का बड़बड़ाना चालू रहा जब कि मयंक समीक्षा को नार्मल करने के प्रयास में लगा रहता. भवानी प्रसाद अपने कमरे में उदास से बैठे रहते. उन्होंने सोचा था घर में हंसीखुशी आएगी पर हो गया था उलटा. वक्त के साथ जख्म भरते गए. कामिनी और समीक्षा सामान्य व्यवहार करने लगी थीं मगर एकदूसरे के प्रति उदासीनता लंबे समय तक कायम रही.

करीब 6-7 माह का समय इसी तरह गुजर गया. एक दिन मयंक घर लौटा तो चेहरे पर एक अलग ही तरह के सुकून और खुशी के भाव थे.

आते ही उस ने समीक्षा से कहा, मैं ने बताया था न कि मुंबई में एक जगह खाली है और उस के लिए मैं ने महीनों पहले ट्रांसफर की अर्जी दी थी. वह आज अप्रूव हो गई. इस महीने की 25 तारीख को मुझे वहां की ब्रांच ऑफिस को ज्वाइन करना है.”

सुन कर समीक्षा का चेहरा भी खिल उठा. मयंक ने अपनी मां को यह बात बताई तो उन्होंने सवालिया नजरों से बेटे की तरफ देखा और फिर उदास हो कर पलकें झुका लीं. भवानी प्रसाद ने भी उदास हो कर अपने बेटे की तरफ देखा. दोनों समझ रहे थे कि मयंक के इस फैसले की वजह क्या है. पर वे कहते भी तो क्या.

मयंक और समीक्षा मुंबई शिफ्ट हो गए. इस के एकदो साल बाद ही मयंक के भाई विक्रांत को पुणे यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया. वह एमबीए पढ़ने वहां चला गया और जल्द ही वहीँ उसे जॉब भी मिल गई. 2 -4 साल में छोटी बहन की शादी हो गई. अब घर में केवल भवानी प्रसाद और कामिनी ही रह गए थे.

वक्त इसी तरह गुजरता गया. मयंक और समीक्षा को मुंबई आए करीब 10 साल बीत चुके थे. उन को एक प्यारा सा बेटा भी हुआ जो अब 6 साल का हो चुका था.

एक दिन मयंक के पास भवानी प्रसाद का फोन आया. वह काफी दुखी स्वर में बोल रहे थे,” बेटा तेरी मां की तबियत सही नहीं है. उसे कैंसर…,” कहतेकहते भवानी प्रसाद रो पड़े.

“यह क्या कह रहे हैं पापा, सही से बताइए क्या हुआ मां को? पापा प्लीज रोइए मत.””बेटा उसे आंतों का कैंसर हो गया है. कुछ दिनों से न ढंग से खापी रही है और न कोई काम कर पाती है. तुरंत उल्टी हो जाती है. खून भी निकलता है. इतनी कमजोर हो गई है कि क्या बताऊं. डॉक्टर ने सर्जरी और कीमोथेरपी के लिए कहा है पर बेटा मैं अकेला सब कुछ कैसे संभालूं?”

“चिंता मत करो पापा. मैं कुछ करता हूं. पहले आप यह बताओ कि विक्रांत ने क्या कहा? क्या वह आ सकता है ?””नहीं बेटा वह कह रहा है कि उस के ऑफिस में अभी 4 महीने की ट्रेनिंग है. मैं ने कहा कि बहू को भेज दे तो कह रहा है कि वह भी तो वर्किंग है. ऑफिस छोड़ कर कैसे आएगी. हम ने दीक्षा से भी कहा था पर उस के दोनों बच्चे अभी बहुत छोटे हैं. कह रही थी कि बच्चे मां को परेशान करेंगे.”

“कोई बात नहीं पापा आप चिंता न करो. मैं समीक्षा से बात करता हूं. हो सका तो वह अपने स्कूल से एक महीने की छुट्टी ले कर मां के पास पहुंच जाएगी. ”

“बेटा देख ले हमें अभी किसी की जरूरत तो बहुत है पर बहू भी तो स्कूल टीचर है, वर्किंग है. उस के जॉब पर असर न पड़े तभी भेजना. वैसे भी बहू के साथ हम ने जो सलूक किया था उस के बाद हमारा कोई हक नहीं कि हम उसे बुलाएं.”

“डोंट वरी पापा मैं बात कर के बताता हूं.”अगले दिन ही मयंक ने फोन कर के बताया,” पापा समीक्षा ने मां की सेवा के लिए एक माह की छुट्टी ले ली है. जरूरत पड़ी तो छुट्टी आगे बढ़ा लेगी. मैं भी 1 सप्ताह के लिए आ रहा हूं.”

2 दिन बाद ही मयंक समीक्षा के साथ घर पहुंच गया. कामिनी जी बेड पर थीं. नौकर भी छुट्टी पर जा चुका था. समीक्षा ने सब से पहले नहाधो कर पूरे घर की साफसफाई की. फिर सास को अच्छी तरह नहला कर कपड़े बदले. उन के बेड का कवर, पिलो कवर आदि निकाल कर धो दिए. नए बेडशीट बिछाए. परदे आदि धोए. अगले दिन ही मयंक मां को ले कर अस्पताल पहुंचा. संभावित इलाजों के बारे में बात की. अभी मां को कीमो सेशन दिए जा रहे थे. मयंक ने डॉक्टर से हर मसले पर सलाहमशवरा कर बेहतर इलाज का इंतजाम कराया. एक सप्ताह रुक कर वह वापस चला गया और समीक्षा दिल लगा कर सास की सेवा करती रही.

कामिनी जी फिलहाल निजी काम करने में भी समर्थ नहीं थीं. कई बार कपड़े में उल्टी कर देतीं तो कभी कपड़े गंदे हो जाते. खुद पर कंट्रोल नहीं रख पातीं. पर समीक्षा हर तरह की परेशानियों में सास के साथ खड़ी रहती. उन की बैसाखी बन कर वह इस तकलीफ के समय में उन का सहारा बनी हुई थी. हमेशा उन्हें खुश रखने की कोशिश करती. शरीर की तकलीफ़ों के साथसाथ मन की तकलीफें भी घटाने के प्रयास में लगी रहती. कभी मालिश करती तो कभी चंपी.

समय इसी तरह गुजरता रहा. कामिनी जी समीक्षा को दिनरात आशीर्वाद देती रहतीं. उन को अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी महसूस होती कि जिस बहू के परिवार पर चोरी का इल्जाम लगा दिया था आज केवल वही उन के काम आ रही थी. वह चाहती तो दूसरों की तरह आने से इनकार भी कर सकती थी पर उस ने ऐसा नहीं किया. वह घर को और सास को ऐसे संभाल रही थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.

एक दिन कामिनी जी बैठीबैठी रोने लगीं. समीक्षा ने बहुत पूछा कि आखिर रोने की वजह क्या है मगर वह केवल रोती रहीं. उन्हें बहुत देर तक फफकफफक कर रोता देख समीक्षा बेचैन हो गई. वह ससुर को बुला कर लाई.

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