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‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे,

इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोहे.’

मेरी पत्नी रसोई में व्यस्त गुनगुना रही थी और बीचबीच में आवाज भी लगा रही थी, ‘‘रामजी, बेटा आ जाओ और अपने चाचाजी से भी कहो कि जल्दी आ जाएं वरना वह कहेंगे कि रोटी अकड़ गई.’’

‘‘चाचीजी, आप को नहीं लगता कि आप अभीअभी जो गा रही थीं वह कुछ ठीक नहीं था?’’

‘‘अरे, कबीर का दोहा है. गलत कैसे हुआ?’’

‘‘गलत है, मैं ने नहीं कहा, जरा एकपक्षीय है, ऐसा लगता है न कि मिट्टी अहंकार में है, कुम्हार उसे रौंद रहा है और वह उसे समझा रही है कि एक दिन वह भी इसी तरह मिट्टी बन जाएगा.’’

‘‘सच ही तो है, हमें एक दिन मिट्टी ही तो बन जाना है.’’

‘‘मिट्टी बन जाना सच है, चाचीजी, मगर यह सच नहीं कि कुम्हार से मिट्टी ने कभी ऐसा कहा होगा. कुम्हार और मिट्टी का रिश्ता तो बहुत प्यारा है, मां और बच्चे जैसा, ममता से भरा. कोई भी रिश्ता अहंकार की बुनियाद पर ज्यादा दिन नहीं टिकता और यह रिश्ता तो बरसों से निभ रहा है, सदियों से कुम्हार और मिट्टी साथसाथ हैं. यह दोहा जरा सा बदनाम नहीं करता इस रिश्ते को?’’

चुप रह गई थी मेरी पत्नी रामसिंह के सवाल पर. मात्र 26-27 साल का है यह लड़का, पता नहीं क्यों अपनी उम्र से कहीं बड़ा लगता है.

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60 साल के आसपास पहुंचा मैं कभीकभी स्वयं को उस के सामने बौना महसूस करता हूं. राम के बारे में जो भी सोचता हूं वह सदा कम ही निकल पाता है. हर रोज कुछ नया ही सामने चला आता है, जो उस के चरित्र की ऊंचाई मेरे सामने और भी बढ़ा देता है.

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