यह कैसा धर्म है: क्या दूर हुआ संजय का अंधविश्वास

‘‘यह क्या? इस उम्र में प्याज और अंडा खाने लगी हो, प्रभु के चरणों में ध्यान लगाओ, सारे पाप दूर हो जाएंगे,’’ संजय ने अपनी पत्नी को ताना मारा, ‘‘सारी उम्र तो तुम ने इन चीजों को हाथ नहीं लगाया और अब न जाने कैसे इन का स्वाद आने लगा है तुम्हें. पहले जब मैं खाता था तो तुम्हें ही इस पर आपत्ति होती थी. अब तुम कहां इन चक्करों में पड़ रही हो. ईश्वरभक्ति करो, बस. सारी बीमारियां दूर हो जाएंगी.’’ ‘‘मेरी मजबूरी है, इसलिए खा रही हूं. यह बात तुम्हें भी पता है कि डाक्टर ने कहा है कि शरीर में विटामिन सी और डी की कमी हो गई है. जिस से हड्डियों में इन्फैक्शन हो गया है.

घुटनों और कमर में दर्द की वजह से ठीक से चल तक नहीं पाती हूं. वैजिटेरियन डाइट से ये विटामिन कहां मिलते हैं. आप जानते हुए भी ताना देने से बाज नहीं आ रहे हैं. प्याज और अंडा खाना अगर पाप होता तो दुनियाभर के अधिकांश लोग पापी कहलाते. इस बात का प्रभुभक्ति से क्या ताल्लुक? ‘‘वैसे, आप मुझे बताओगे कि मैं ने कौन से पाप किए हैं? रही बात प्रभु के चरणों में ध्यान लगाने की और तुम यह कहो कि सारा दिन बैठ कर भजन करूं या तुम्हारी तरह टीवी पर आने वाले बाबाओं के प्रवचन या उन का कथावाचन सुनूं तो मैं इसे जरूरी नहीं समझती.

निठल्ले लोग धर्म की आड़ में अपने दोषों को छिपाने के लिए सारे दिन ऐसे प्रोग्राम देख खुद को जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं.’’ शगुन लगातार बोलती गई, मानो आज वह मन में बरसों से दबाए ज्वालामुखी को फटने देने के लिए तैयार हो. ‘‘शगुन, कुछ ज्यादा नहीं बोल रही हो तुम?’’ चिढ़ते हुए संजय ने कहा, ‘‘मुझ से ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. मुझे पता है कि क्या सही है और क्या गलत. कितना ज्ञान और सुकून प्राप्त होता है प्रवचन सुन कर. प्रवचनों को सुनने से ही तो पापों से मुक्ति मिलती है.’’ ‘‘तो मानते हो न कि तुम ने पाप किए हैं?

झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना या बुरे काम करना जितना पाप है उतना ही अपनी जिम्मेदारियां न निभाना भी पाप है. सच बात तो यह है कि इस तरह से तुम्हारा टाइम पास हो जाता है और अपने को झूठा दिलासा भी दे लेते हो कि मैं तो सारा दिन ईश्वरभक्ति में लीन रहता हूं. अपने आलसी स्वभाव की वजह से तुम तो सारे काम छोड़ कर बैठ गए हो. बिजनैस पर ध्यान देना तक छोड़ दिया, तो वह चौपट होना ही था. ‘‘मेरी नौकरी से घर चल रहा है. लेकिन आजकल एक व्यक्ति की कमाई से क्या होता है. जब तक बच्चे सैटल नहीं हो जाते, तब तक तो उन्हें संभालना तुम्हारी ही जिम्मेदारी है.

मेरी जिम्मेदारी तो खैर तुम क्या उठाओगे. क्या तुम्हारा भगवान कहता है कि तुम उस की पूजा करना चाहते हो तो सब काम छोड़ कर बैठ जाओ. सबकुछ अपनेआप मिल जाएगा.’’ ‘‘ज्यादा भाषण न झाड़ो, अपनी औकात में रहो. और जो तुम कमाने का ताना दे रही हो, तो इस के लिए तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है, भगवान सब संभाल लेंगे.’’ संजय ने आज से पहले शगुन की बात कब सुनी थी जो अब सुनते. वे तो सदा ही उस की अवमानना करते आए थे. शगुन की बातबात पर बेइज्जती करना, बच्चों के सामने उस की खिल्ली उड़ाना और बाहर वालों के सामने उस का अपमान करना तो जैसे उन के लिए आम बात थी. शादी के बाद ही शगुन को पता चल गया था कि संजय रुढि़वादी सोच का व्यक्ति है जो कामचोर होने के साथसाथ बीवी की कमाई पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है पर उसे समान दर्जा देने में उस का अहम आड़े आता है. शादी के बाद तो संजय अकसर उस पर हाथ भी उठा देते थे.

गालियां देना, उस के हर काम में कमियां निकालना तो जैसे वे अपना हक समझते थे. ‘पुरुष हूं, जो चाहे कर सकता हूं’ की सोच ही उन्हें शायद घुट्टी में पिलाई गई थी. न खुद हंसना, न ही किसी की खुशी उन्हें बरदाश्त थी. यहां तक कि वे बच्चों के साथ मजाक तक करने से कतराते थे. शगुन के अंदर बीतते वक्त के साथ एक खीझ भरती गई थी कि आखिर संजय क्यों नहीं आम लोगों की तरह व्यवहार करते हैं. होटल में खाना खाना हो या कभी मूवी देखने जाना हो या घर पर किसी मेहमान को ही आना हो, हर बात उन्हें खलती थी. किसी के घर या फंक्शन में जाने की बात सुन कर ही चिढ़ जाते.

अपनी बात जारी रखते हुए संजय आगे बोले, ‘‘रोजरोज मुझ से इस बात पर बहस करने की जरूरत नहीं और न ही काम करने के लिए कहने की, मैं अपने और भगवान के बीच किसी को नहीं आने दूंगा. वही सब संभालेंगे.’’ ‘‘हां हां, सब भगवान ही संभालेंगे, पर उन को जिंदा रखने के लिए कर्म भी हम मनुष्यों को ही करना पड़ता है. मंदिरमसजिद क्या अपनेआप पेड़ों की तरह उग आते हैं. रोटी सामने रखी हो पर निवाला तभी मुंह में जाएगा जब उसे खुद तोड़ कर खाया जाए. संजय, अब भी संभल जाओ. अभी हमारी उम्र ही क्या हुई है. तुम 49 के हो और मैं 45 की. हमारी शादीशुदा जिंदगी को अपनी पलायन करने वाली सोच से बरबाद मत करो. पलायन करने से कोई मोक्षवोक्ष नहीं मिलता.

कर्म करने से ही मुक्ति मिलती है. ‘‘मैं तो अपनी नौकरी, बीमारी और घर के कामों की वजह से ज्यादा समय नहीं निकाल सकती, पर तुम तो सारा दिन घर में बैठे रहते हो. तुम बच्चों पर थोड़ा ध्यान दो वरना उन का कैरियर बरबाद हो जाएगा. उन के साथ बात किया करो, हंसा करो और उन्हें टीवी पर इन बाजारू प्रवचनों को देखने के लिए उकसाना बंद करो. नीरज को देखो, वह भी तुम्हारे साथ टीवी देखता रहता है या सोता रहता है. इस बार इसे 12वीं का एग्जाम देना है, पढ़ेगा नहीं तो पास कैसे होगा. कहीं ऐडमिशन कैसे होगा. आजकल कंपीटिशन कितना टफ हो गया है.’’ ‘‘उस की चिंता तुम मत करो. भगवान उसे पास कर देंगे. तुम्हारी बेटी नीरा तो दिनरात पढ़ती है, उसी से तुम तसल्ली रख लो.

नीरज के मामले में दखल मत दो. नहीं पढ़ेगा तो मेरा बिजनैस संभाल लेगा.’’ ‘‘बस करो संजय, यह राग अलापना. अरे, पढ़ेगा नहीं तो भगवान क्या आ कर उस के पेपर सौल्व कर देंगे. क्यों मूर्खों जैसी बातें करते हो. तुम्हें पढ़नेलिखने या तरक्की करने की इच्छा नहीं है तो नीरज को भी अपने जैसा क्यों बनाना चाहते हो, कैसे पिता हो तुम.’’ शगुन का मन कर रहा था कि वह संजय को झ्ंिझोड़ डाले, आखिर क्यों वे अपने ही बच्चों को अंधविश्वास के कुएं में ढकेलना चाहते हैं. ‘‘बेकार की बातों में उलझने के बजाय मेरे साथ वृंदावन चला करो. वहां घर इसीलिए तो बनाया है ताकि वहां जा कर मैं प्रभु के चरणों में पड़ा रहूं और अपना आगे का जीवन सुधार सकूं. यह जन्म तो कट गया, अगला जन्म सुधारना है, तो बस सारे दिन ईश्वर की पूजा किया करो, तुम्हें भी मैं यही सलाह दूंगा.’’ ‘‘मैं भी वृंदावन चली गई तो बिना नौकरी के घर कैसे चलेगा? बेटी की शादी कौन करेगा? बेटे को कौन संभालेगा?

तुम्हारे खर्चे कौन उठाएगा? तुम्हें रोज शराब पीने की लत है, उस के लिए भी पैसे क्या भगवान देगा? रोज शराब पीते हो तो क्या तुम्हारा ईश्वर इस की तुम्हें इजाजत देता है. वृंदावन जाते हो तो कौन सा शराब पीना छोड़ देते हो. बस, तुम्हें तो अपने दायित्वों से भागने का बहाना चाहिए. ‘‘सब से बड़ी बात तो यह है कि ईश्वर से लौ लगाने वाले शांत रहते हैं, उन्हें क्रोध नहीं आता, वे किसी पर चिल्लाते नहीं हैं या उन का अपमान नहीं करते हैं. इतने सालों से तुम बाबाओं के प्रवचन सुन रहे हो, पर तुम में तो रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया. गुस्सा करना और हमेशा चिढ़े रहना कहां छोड़ा है तुम ने. क्या फायदा ऐसे धर्म का जो दूसरों को दुख पहुंचाए या कर्तव्यों से विमुख करे.

‘‘धर्म के नाम पर तुम दान करते हो कि पुण्य मिलेगा, पर सोचा है कि बच्चों की कितनी जरूरतों का तुम गला घोंटते हो. और देखा जाए तो धर्म के नाम पर जो लाखों रुपए का चढ़ावा चढ़ाया जाता है, भला उस की क्या जरूरत है. भगवान को सोने का मुकुट दे कर आखिर इंसान क्या साबित करना चाहता है? अपनी बेवकूफी और क्या. धर्म के नाम पर चढ़ाए गए चढ़ावे अगर हम अपनी जरूरतों पर खर्च करें तो ज्यादा सुख मिलेगा. धार्मिक स्थलों पर जा कर देखो तो, आजकल सब पंडेपुजारी कारोबारी हो गए हैं.’’ ‘‘मम्मी, रहने दो न. बेकार बहस करने से क्या फायदा. पापा इस समय होश में नहीं हैं,’’ नीरज ने बात बढ़ती देख बीचबचाव करने की कोशिश की.

‘‘बेटा, तुझे ले कर मैं कितनी परेशान रहती हूं, यह नहीं बता सकती. डर लगता है कि कहीं तू अपने पापा के कदमों पर न चले,’’ शगुन की आंखें भर आई थीं. ‘‘चुप हो जा, तेरी जबान कुछ ज्यादा ही चलने लगी है. मुझे नहीं रहना तेरे साथ. जब देखो तब भूंकती रहती है. चला जाऊंगा हमेशा के लिए वृंदावन, फिर संभाल लेना बच्चों को. अपनेआप को कुछ ज्यादा ही स्मार्ट व पढ़ीलिखी समझती है,’’ संजय का तेज थप्पड़ शगुन के गाल पर पड़ा. संजय के इस व्यवहार से थरथरा गई शगुन. शराब पीने से हुई उस की लाल आंखें और डगमगाते कदमों को देख उस के दोनों बच्चे कांप गए. आखिर वे धर्म का ही पालन कर रहे थे कि औरत पाप की गठरी है, पैरों की जूती है. संजय का वीभत्स रूप और निरंतर उस के मुंह से निकलती गालियां सुन नीरा चुप न रह सकी. ‘‘अच्छा यही होगा पापा कि आप यहां से चले जाओ. जहां मन है, चले जाओ. आप के इस रूप को देख धर्म और ईश्वर पर से हमारा विश्वास उठ गया है.

प्यार की जगह आप ने हम में जो घृणा भर दी है, उस से हम दूर ही रहना चाहते हैं,’’ नीरा बोल पड़ी. ‘‘तू भी अपनी मां की जबान बोलने लगी है,’’ संजय ने उसे मारने के लिए हाथ उठाया ही था कि नीरज ने उस का हाथ पकड़ लिया. ‘‘खबरदार पापा, जो आप ने दीदी या मम्मी पर हाथ उठाया,’’ नीरज क्रोधित होते हुए बोला. ‘‘अरे, तू तो मेरा राजा बेटा है न, चल हम बापबेटे दोनों यहां नहीं रहेंगे,’’ संजय की आवाज की लड़खड़ाहट की वजह से उन से ठीक से बोला नहीं जा रहा था. वे बिस्तर पर गिर गए. ‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. पर बेहतर यही होगा कि आप यहां से चले जाएं.

हमें आप के झूठे पाखंडों और धर्म के नाम पर बनाए खोखले आदर्शों के साए तले नहीं जीना. आप जैसे जीना चाहते हैं, जिएं, पर अपनी बेकार की बातों को हम पर थोपने की कोशिश न करें. अब बहुत हो गया. और नहीं सहेंगे हम,’’ नीरज ने शगुन और नीरा को कस कर अपने से चिपका लिया था मानो वह उन्हें चिंतामुक्त रहने का आश्वासन दे रहा हो.

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घोंसले का तिनका- भाग 2: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

मिशैल ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई गलत बात कह दी हो. वह धीरे से मुझ से कहने लगी, ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. क्या तुम्हें अपने देश से कोई प्रेम नहीं रहा?’’

मैं उस की बातों का अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास करता रहा. शायद वह ठीक ही कह रही थी. हाल में दूर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में राजस्थानी लोकगीत की धुन के साथसाथ मिशैल के पांव भी थिरकने लगे. वह वहां से उठ कर चली गई.

मैं थोड़ी देर आराम करने के बाद भारतीय सामान से सजे स्टैंड की तरफ चला गया. मेरे हैंडीक्राफ्ट के स्टैंड पर पहुंचते ही एक व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया और बोला,  ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं तो बस, यों ही,’’ मैं हिंदी में बोलने लगा.

‘‘कोई बात नहीं, भीतर आ जाइए और आराम से देखिए,’’ वह मुसकरा कर हिंदी में बोला.

तब तक पास के दूसरे स्टैंड से एक सरदारजी आ कर उस व्यक्ति से पूछने लगे, ‘‘यार, खाने का यहां क्या इंतजाम है?’’

‘‘पता नहीं सिंह साहब, लगता है यहां कोई इंडियन रेस्तरां नहीं है. शायद यहीं की सख्त बै्रड और हाट डाग खाने पड़ेंगे और पीने के लिए काली कौफी.’’

जिस के स्टैंड पर मैं खड़ा था वह मेरी तरफ देख कर बोले, ‘‘सर, आप तो यहीं रहते हैं. कोई भारतीय रेस्तरां है यहां? ’’

‘‘भारतीय रेस्तरां तो कई हैं, पर यहां कुछ दे पाएंगे…यह पूछना पड़ेगा,’’ मैं ने अपनत्व की भावना से कहा.

मैं ने एक रेस्तरां में फोन कर के उस से पूछा. पहले तो वह यहां तक पहुंचाने में आनाकानी करता रहा. फिर जब मैं ने उसे जरमन भाषा में थोड़ा सख्ती से डांट कर और इन की मजबूरी तथा कई लोगों के बारे में बताया तो वह तैयार हो गया. देखते ही देखते कई लोगों ने उसे आर्डर दे दिया. सब लोग मुझे बेहद आत्मीयता से धन्यवाद देने लगे कि मेरे कारण उन्हें यहां खाना तो नसीब होगा.

अगले 3 दिन मैं लगातार यहां आता रहा. मैं अब उन में अपनापन महसूस कर रहा था. मैं जरमन भाषा अच्छी तरह जानता हूं यह जान कर अकसर मुझे कई लोगों के लिए द्विभाषिए का काम करना पड़ता. कई तो मुझ से यहां के दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछते तो कई यहां की मैट्रो के बारे में. मैं ने उन को कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां दीं, जिस से पहले दिन ही उन के लिए सफर आसान हो गया.

आखिरी दिन मैं उन सब से विदा लेने गया. हाल में विदाई पार्टी चल रही थी. सभी ने मुझे उस में शामिल होने की प्रार्थना की. हम ने आपस में अपने फोन नंबर दिए, कइयों ने मुझे अपने हिसाब से गिफ्ट दिए. भारतीय मेला प्राधिकरण के अधिकारियों ने मुझे मेरे सहयोग के लिए सराहा और भविष्य में इस प्रकार के आयोजनों में समर्थन देने को कहा. मिशैल मेरे साथ थी जो इन सब बातों को बड़े ध्यान से देख रही थी.

अगले कई दिन तक मैं निरंतर अपनों की याद में खोया रहा. मन का एक कोना लगातार मुझे कोसता रहा, न चाहते हुए भी रहरह कर यह विचार आता रहा कि किस तरह अपने मातापिता से झूठ बोल कर विदेश चला आया. उस समय यह भी नहीं सोचा कि मेरे पीछे उन्होंने कैसे यह सब सहा होगा.

एक दिन मिशैल और मैं टेलीविजन पर कोई भारतीय प्रोग्राम देख रहे थे. कौफी की चुस्कियों के साथसाथ वह बोली, ‘‘तुम्हें याद है टोनी, उस दिन इंडियन कौफी बोर्ड की कौफी पी थी. सचमुच बहुत ही अच्छी थी. सबकुछ मुझे बहुत अच्छा लगा और वह कठपुतलियों का नाच भी…कभीकभी मेरा मन करता है कुछ दिन के लिए भारत चली जाऊं. सुना है कला और संस्कृति में भारत ही विश्व की राजधानी है.’’

‘‘क्या करोगी वहां जा कर. जैसा भारत तुम्हें यहां लगा असल में ऐसा है नहीं. यहां की सुविधाओं और समय की पाबंदियों के सामने तुम वहां एक दिन भी नहीं रह सकतीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मैं जाना जरूर चाहूंगी. तुम वहां नहीं जाना चाहते क्या? क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि तुम अपने देश जाओ?’’

‘‘मन तो करता है पर तुम मेरी मजबूरी नहीं समझ सकोगी,’’ मैं ने बड़े बेमन से कहा.

‘‘चलो, अपने लोगों से तुम न मिलना चाहो तो न सही पर हम कहीं और तो घूम ही सकते हैं.’’

मैं चुप रहा. मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर क्या चल रहा है. दरअसल, जिन हालात में मैं यहां आया था उन का सामना करने का मुझ में साहस नहीं था.

सबकुछ जानते हुए भी मैं ने अपनेआप को आने वाले समय पर छोड़ दिया और मिशैल के साथ भारत रवाना हो गया.

हमारा प्रोग्राम 3 दिन दिल्ली रुकने के बाद आगरा, जयपुर और हरिद्वार होते हुए वापस जाने का तय हो गया था. मिशैल के मन में जो कुछ देखने का था वह इसी प्रोग्राम से पूरा हो जाता था.

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से बाहर निकला कि एक वातानुकूलित बस लुधियाना होते हुए अमृतसर के लिए तैयार खड़ी थी. मेरा मन कुछ क्षण के लिए विचलित सा हो गया और थोड़ा कसैला भी. मेरा अतीत इन शहरों के आसपास गुजरा था. इन 5 वर्षों में भारत में कितना बदलाव आ गया था. आज सबकुछ ठीक होता तो सीधा अपने घर चला जाता. मैं ने बड़े बेमन से एक टैक्सी की और मिशैल को साथ ले कर सीधा पहाड़गंज के एक होटल में चला गया. इस होटल की बुकिंग भी मिशैल ने की थी.

मैं जिन वस्तुओं और कारणों से भागता था, मिशैल को वही पसंद आने लगे. यहां के भीड़भाड़ वाले इलाके, दुकानों में जा कर मोलभाव करना, लोगों का तेजतेज बोलना, अपने अहं के लिए लड़ पड़ना और टै्रफिक की अनियमितताएं. हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठना, मंदिरों में जा कर घंटियां बजाना उस के लिए एक सपनों की दुनिया में जाने जैसा था.

जैसेजैसे हमारे जाने के दिन करीब आते गए मेरा मन विचलित होने लगा. एक बार घर चला जाता तो अच्छा होता. हर सांस के साथ ऐसा लगता कि कुछ सांसें अपने घर के लिए भी तैर रही हैं. अतीत छाया की तरह भरमाता रहा. पर मैं ने ऐसा कोई दरवाजा खुला नहीं छोड़ा था जहां से प्रवेश कर सकूं. अपने सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर के विदेश आया था. विदेश आने के लिए मैं इतना हद दर्जे तक गिर गया था कि बाबूजी के मना करने के बावजूद उन की अलमारी से फसल के सारे पैसे, बहन के विवाह के लिए बनाए गहने तक मैं ने नहीं छोड़े थे. तब मन में यही विश्वास था कि जैसे ही कुछ कमा लूंगा, उन्हें पैसे भेज दूंगा. उन के सारे गिलेशिक वे भी दूर हो जाएंगे और मैं भी ठीक से सैटल हो जाऊंगा. पर ऐसा हो न सका और धीरेधीरे अपने संबंधों और कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

शाम को मैं मिशैल के साथ करोल बाग घूम रहा था. सामने एक दंपती एक बच्चे को गोद में उठाए और दूसरे का हाथ पकड़ कर सड़क पार कर रहे थे. मिशैल ने उन की तरफ इशारा कर के मुझ से कहा, ‘‘टोनी, उन को देखो, कैसे खुशीखुशी बच्चों के साथ घूम रहे हैं,’’ फिर मेरी तरफ कनखियों से देख कर बोली, ‘‘कभी हम भी ऐसे होंगे क्या?’’

किसी और समय पर वह यह बात करती तो मैं उसे बांहों में कस कर भींच लेता और उसे चूम लेता पर इस समय शायद मैं बेगानी नजरों से उसे देखते हुए बोला, ‘‘शायद कभी नहीं.’’

‘‘ठीक भी है. बड़े जतन से उन के मातापिता उन्हें बड़ा कर रहे हैं और जब बडे़ हो जाएंगे तो पूछेंगे भी नहीं कि उन के मातापिता कैसे हैं…क्या कर रहे हैं… कभी उन को हमारी याद आती है या…’’ कहतेकहते मिशैल का गला भर गया.

मैं उस के कहने का इशारा समझ गया था, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मेरी आवाज भारी थी.

‘‘कुछ नहीं, डार्लिंग. मैं ने तो यों ही कह दिया था. मेरी बातों का गलत अर्थ मत लगाओ,’’ कह कर उस ने मेरी तरफ बड़ी संजीदगी से देखा और फिर हम वापस अपने होटल चले आए.

उस पूरी रात नींद पलकों पर टहल कर चली गई थी. सूरज की पहली किरणों के साथ मैं उठा और 2 कौफी का आर्डर दिया. मिशैल मेरी अलसाई आंखों को देखते हुए बोली, ‘‘रात भर नींद नहीं आई क्या. चलो, अब कौफी के साथसाथ तुम भी तैयार हो जाओ. नीचे बे्रकफास्ट तैयार हो गया होगा,’’ इतना कह कर वह बाथरूम चली गई.

दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने मिशैल को बाथरूम में ही रहने को कहा क्योंकि वह ऐसी अवस्था में नहीं थी  कि किसी के सामने जा सके.

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नव वर्ष का प्रकाश: कैसे घटी मनीष और निधि की दूरियां

उस के मन में आने वाले नव वर्ष के लिए बेचैनी होने लगी.प्रकाश ने फोन पर इतना ही कहा था कि वह दीया को ले कर पहुंच रहा है. अंधेरा घिर आया था लेकिन निधि ने अभी तक घर की बत्तियां नहीं जलाई थीं. जला कर वह करती भी क्या. जिस के जीवन से ही प्रकाश चला गया हो उस के घर के कमरों में प्रकाश हो न हो, क्या फर्क पड़ता है.

प्रकाश, जिसे पिछले 31 सालों से उन्होंने अपने खूनपसीने से सींचा था, जिस के पलपल का खयाल रखा था, जिस की पसंदनापसंद बड़ी माने रखती थी, उसी ने आज उन्हें बंजर, बेसहारा बना दिया था.

ममता भरे स्नेहिल आंचल की छांव में जो प्रकाश खेला था आज एकाएक अपने तक ही सीमित हो गया था. उस ने अपने मातापिता को बुढ़ापे में यों निकाल फेंका था मानो पैर में चुभा कांटा निकाल कर फेंक दिया हो. बेचारे मातापिता अपने बुढ़ापे के लिए कुछ बचा भी नहीं पाए थे. सोचा था प्रकाश पढ़लिख जाएगा तो कमा लेगा, हमारे बुढ़ापे की लाठी बनेगा. यह एहसास निधि के लिए जानलेवा था. सारे दिन वह व्यथित रहती. उस पर पति का कठोर जीवन उसे और भी सालता. पति को जीतोड़ मेहनत करते देख उसे बहुत दुख होता. अपने जिगर के टुकड़े से उसे ऐसी उम्मीद न थी.

निधि को वह दिन याद आया जब प्रकाश का नामकरण किया गया था. सब उसे राज…राजकुमार नाम से पुकारने लगे थे किंतु उस ने प्रकाश नाम रखा. शायद यह सोच कर कि प्रकाश नाम से उसे सदैव जीवन में प्रकाश मिलता रहेगा और दूसरों को भी वह अपने प्रकाश से प्रकाशित करेगा.

परंतु आज जब जीवन इतना गुजर गया तो अनुभव हुआ कि प्रकाश का अपना कोई वजूद ही नहीं है, उस का ऐसा कोई अस्तित्व नहीं है कि जैसा दीपक के साथ या बल्ब, ट्यूबलाइट के साथ जुड़ा होता है. प्रकाश के साथ जुड़ी चीजें भले ही उस के प्रकाश के साथ जुड़ी हों लेकिन उन से प्रकाश का कोई लेनदेन या सरोकार नहीं होता. बिना किसी आग्रह के वह वहीं चला जाता है जहां बल्ब, ट्यूब- लाइट या दीपक जल रहा होता है.

वह खुद भी इस बात को सोचने की जरूरत भी नहीं समझता कि उस के चले जाने के बाद किसी का जीवन प्रकाशहीन हो कर अंधेरे में डूब जाएगा.

बड़ी नौकरी मिलते ही प्रकाश का रुख बदल गया था. घर, कार, पैसा उस के पास होते ही उस ने अपने तेवर बदल लिए थे. जब तक उस को जरूरत थी मातापिता को एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करता रहा.

अपनी इच्छा से उस ने शादी भी बाहर ही कर ली. शादी के एक साल तक अपने शहर भी नहीं आया था. आज  आएगा, वह भी केवल 4 घंटे के लिए, क्योंकि बहू के गले में खानदान का पुश्तैनी हार जो डलवाना चाहता है. इस के लिए उसे घर फोन कर के सूचना देने की पूरी याद रही. फोन पर उस ने मां से पूछा, ‘मां, कैसी हो?’

‘अच्छी हूं,’ कहते ही कितना दिल भर आया था. क्या कहती कि तेरे बिना घर सूना लग रहा है. तू भूल गया है लेकिन हम नहीं भूले. तेरी शादी के अरमान ऐसे ही धरे के धरे रह गए. परंतु कहा कुछ भी नहीं था.

‘पिताजी कैसे हैं?’ प्रकाश ने पूछा.

‘ठीक हैं, मजे में हैं?’ सोचा, क्यों बताऊं कैसे जी रहे हैं. बेटा हो कर जब तुझे दायित्व का बोध नहीं रहा, केवल अपना अधिकार याद है. पुश्तैनी हार…बहू के नाम पर रखे गहने तो याद हैं किंतु कर्तव्य नहीं.

वह सोच में पड़ी थी, बेटे ने यह भी नहीं सोचा कि मांपिताजी कैसे थोड़ी सी रकम से गुजारा कर रहे होंगे. सारा जीवन तो कमाकमा कर उसे पढ़ाते रहे. होनहार निकले…कितनेकितने घंटे पढ़ाती रही और तुझे पढ़ाने के लिए खुद पढ़पढ़ कर समझती रही. उस का ऐसा परिणाम?

‘हम दोनों आप से आशीर्वाद लेने आ रहे हैं.’

निधि के मन की तटस्थता बनी रही थी. प्रकाश की बातें सुनती रही. वह कह रहा था, ‘शाम को आएंगे. रात में भोजन साथ करेंगे.’ निधि ने किसी प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दिया था. और फोन पर वार्तालाप बंद हो गया था.

निधि ने पति मनीष को प्रकाश और बहू दीया के आने की तथा बहू की मुंह दिखाई की रस्म में पुश्तैनी हार व अन्य गहने, जो उस के लिए कभी बनवाए थे, देने की मंशा जाहिर की साथ ही वह सारी बातें बता दीं जो प्रकाश ने उस से फोन पर कही थीं.

मनीष ने गहरी नजरों से निधि की ओर देखा. वह आश्वस्त हो गए कि निधि के चेहरे पर ममता का भाव तो है साथ ही पति के प्रति पूर्ण निष्ठा भी.

‘तुम क्या चाहती हो?’

पति के दिल को पढ़ते हुए निधि ने उत्तर दिया था, ‘जैसा आप कहें.’

थोड़ी देर चुप्पी छाई रही. दोनों के मन में एक जैसी भावनाएं चल रही थीं. मनीष वहीं से उठ कर आराम करने चले गए थे.

घर के खर्चे के लिए उन्होंने एक सेठ के यहां 2,500 रुपए की नौकरी कर ली थी. सुबह 6 बजे घर से निकलते और शाम 7 बजे घर आते. बसों में आनेजाने के कारण थकान बहुत ज्यादा हो जाती. अत: थोड़ी देर आराम करने के लिए भीतर के कमरे में चले गए.

बाहर घने बादलों के कारण कुछ ज्यादा ही अंधकार हो गया था. थोड़ी देर में टिपटिप बूंदाबांदी होने लगी. निधि उसी तरह बरामदे में बैठी रही. प्रकाश और दीया अभी तक नहीं आए थे. मन अनेक खट्टीमीठी घटनाओं को याद करता और भूलता रहा.

तभी एक टैक्सी गेट के पास आ कर रुकी. निधि उसी तरह बैठी खिड़की से देखती रही. वे दोनों उस के बहूबेटा ही थे, किंतु अंधकार के कारण कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था. तभी प्रकाश का स्वर सुनाई दिया, ‘‘लगता है, घर में रोशनी नहीं है.’’

आवाज सुन निधि की ममता उमड़ आई. मन में सोचा, ‘हां, ठीक कहा, घर में बेटा न हो तो प्रकाश कैसे होगा. तू आ गया है तो उजाला हो जाएगा.’ किंतु प्रकाश ने मां के भावों को नहीं समझा.

निधि ने उठ कर बत्ती जलाई. आवाज सुन कर मनीष भी उठ बैठे. मुख्यद्वार खोला. प्रकाश और दीया ने दोनों को प्रणाम किया. उन्होंने आशीर्वाद दिया, ‘‘सदा सुखी रहो.’’

मां और पिताजी ने बहू के आगमन की कोई तैयारी नहीं की थी, यह देख प्रकाश मन ही मन अपने को अपमानित महसूस करने लगा. न तो मां ने उठ कर कोई खातिरदारी का उपक्रम किया और न ही पिताजी ने.

कुछ देर तक निस्तब्धता छाई रही. मां और पिताजी के ठंडे स्वभाव को देख कर प्रकाश का तनमन क्रोधित हो उठा. वह सोचने लगा कि पुश्तैनी हार ले कर अब उसे चलना चाहिए. उस ने मां से कहा था, ‘‘अपनी बहू की मुंह दिखाई की रस्म पूरी करो, मां. हमारी टे्रन का समय हो रहा है.’’

मुंह दिखाई की रस्म की बात सुन कर मनीष ने कहा, ‘‘हां…हां…क्यों नहीं.’’ और जा कर अपने पर्स से 11 रुपए ला कर निधि को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘निधि, बहू की मुंह दिखाई की रस्म पूरी करो.’’

निधि ने पति की आज्ञानुसार वैसा ही किया. सगन देते हुए निधि ने कहा, ‘‘बहू, मुंह दिखाई की रस्म के बाद हम बहू से रसोई करवाते हैं. तुम जा कर रसोई में हलवापूरी बना दो. सारा सामान वहीं रखा हुआ है.’’

मां के मुंह से रस्म अदायगी की बात सुन कर प्रकाश ने अपने गुस्से को काबू में रखते हुए कहा, ‘‘वाह मां, क्या खूब. आप ने बहू को कुछ दिया तो नहीं पर काम करवा रही हैं…काम अगली बार करवाइएगा.’’

प्रकाश की बात सुन कर पिता ने कहा, ‘‘बेटा, अगली बार जब आएगी काम करेगी, घर के प्रति कर्तव्य निभाएगी तो फल भी पाएगी…यह सब तुम्हारा ही तो है…’’

‘‘दीया अभी खाना नहीं बनाएगी,’’ उस ने धीरे से कहा.

दीया चुपचाप सोफे पर बैठी थी. उस ने कलाई घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 8 बज रहे थे. उस ने उठते हुए कहा, ‘‘प्रकाश, ट्रेन का समय हो रहा है.’’

‘‘हां, हां, हमें चलना चाहिए. खाना हम ट्रेन में खा लेंगे,’’ प्रकाश ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘जैसा तुम दोनों चाहो,’’ मनीष ने मुसकराते हुए कहा.

दोनों ने प्रणाम किया. मातापिता ने उन्हें गले लगा कर प्यार किया और विदा कर दिया.

दोनों के चले जाने के बाद निधि रसोई में आ कर सब्जी काटने लगी. मनीष भी रसोई में आ गए.

‘‘आप को 11 रुपए देने की क्या जरूरत थी?’’ निधि ने कहा.

‘‘अपने उस पढ़ेलिखे बेटे को समझाने के लिए कि हम ने सदा अपने बेटे के प्रति कर्तव्य निभाया है लेकिन तुम ने क्या सीखा? मुंह दिखाई के लिए बहू को लाया था…वह भी एक साल बाद.’’

‘‘इसलिए कह रही हूं कि सवा रुपया देना चाहिए था,’’ निधि की बात सुन मनीष ठहाका मार कर हंसने लगे.

बहुत देर तक हंसते रहे. हमारा ही बेटा हमारे ही कान काटने पर तुला है. वह भूल गया है कि वह हमारा बेटा है,  बाप नहीं. वह दोनों पहली बार भावुक नहीं हुए थे.

पतिपत्नी ने मिल कर खाना खाया. एकसाथ एक ही थाली में खाया. मनीष खूब मजेदार बातें निधि को सुनाते रहे और वह मनीष को.

आज एक लंबे अरसे के बाद पतिपत्नी अत्यंत प्रफुल्लित एवं संतुष्ट थे मानो खोया हुआ खजाना मिल गया हो. आज मन में समझदारी का प्रकाश हुआ हो. इसी तरह 4 घंटे बीत गए. मनीष ने निधि को कहा, ‘‘नव वर्ष की बहुतबहुत बधाई हो.’’

‘‘आप को भी आज प्रकाश के आने पर मन में समझदारी का प्रकाश हुआ है. नव वर्ष सब को शुभ हो,’’ कहते हुए वे दोनों घर की छत पर आ गए और वहां से गली में आनेजाने वालों को नव वर्ष की मुबारकबाद देने लगे.

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घोंसले का तिनका- भाग 3: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

दरवाजा खोलते ही मैं ने एक दंपती को देखा तो देखता ही रह गया. 5 साल पहले मैं ने जिस बहन को देखा था वह इतनी बड़ी हो गई होगी, मैं ने सोचा भी न था. साथ में एक पुरुष और मांग में सिंदूर की रेखा को देख कर मैं समझ गया कि उस की शादी हो चुकी है. मेरे कदम वहीं रुक गए और शब्द गले में ही अटक कर रह गए. वह तेजी से मेरी तरफ आई और मुझ से लिपट गई…बिना कुछ कहे.

मैं उसे यों ही लिपटाए पता नहीं कितनी देर तक खड़ा रहा. मिशैल ने मुझे संकेत किया और हम सब भीतर आ गए.

‘‘भैया, आप को मेरी जरा भी याद नहीं आई. कभी सोचा भी नहीं कि आप की छोटी कैसी है…कहां है…आप के सिवा और कौन था मेरा,’’ यह कह कर वह सुबकने लगी.

मेरे सारे शब्द बर्फ बन चुके थे. मेरे भीतर का कठोर मन और देर तक न रह सका और बड़े यत्न से दबाया गया रुदन फूट कर सामने आ गया. भरे गले से मैं ने पूछा, ‘‘पर तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिशैल के कारण. उन्होंने ही यहां का पता बताया था,’’ छोटी सुबकियां लेती हुई बोली.

तब तक मिशैल भी मेरे पास आ चुकी थी. वह कहने लगी, ‘‘टोनी, सच बात यह है कि तुम्हारे एक दोस्त से ही मैं ने तुम्हारे घर का पता लिया था. मैं सोचती रही कि शायद तुम एक बार अपने घर जरूर जाओगे. मैं तुम्हारे भीतर का दर्द भी समझती थी और बाहर का भी. तुम ने कभी भी अपने मन की पीड़ा और वेदना को किसी से नहीं बांटा, मेरे से भी नहीं. मैं कहती तो शायद तुम्हें बुरा लगता और तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचती. मुझ से कोई गलती हो गई हो तो माफ कर देना पर अपनों से इस तरह नाराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मां कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मां तो रही नहीं…तुम्हें बताते भी तो कहां?’’ कहतेकहते छोटी की आंखें नम हो गईं.

‘‘कब और कैसे?’’

‘‘एक साल पहले. हर पल तुम्हारा इंतजार करती रहती थीं. मां तुम्हारे गम में बुरी तरह टूट चुकी थीं. दिन में सौ बार जीतीं सौ बार मरतीं. वह शायद कुछ और साल जीवित भी रहतीं पर उन में जीने की इच्छा ही मर चुकी थी और आखिरी पलों में तो मेरी गोद में तुम्हारा ही नाम ले कर दरवाजे पर टकटकी बांधे देखती रहीं और जब वह मरीं तो आंखें खुली ही रहीं.’’

यह सब सुनना और सहना मेरे लिए इतना कष्टप्रद था कि मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मैं दीवार का सहारा ले कर बैठ गया. मां की भोली आकृति मेरी आंखों के सामने तैरने लगी. मुझे एकएक कर के वे क्षण याद आते रहे जब मां मुझे स्कूल के लिए तैयार कर के भेजती थीं, जब मैं पास होता तो महल्ले भर में मिठाइयां बांटती फिरतीं, जब होलीदीवाली होती तो बाजार चल कर नए कपड़े सिलवातीं, जब नौकरी न मिली तो मुझे सांत्वना देतीं, जब राखी और भैया दूज का टीका होता तो इन त्योहारों का महत्त्व समझातीं और वह मां आज नहीं थीं.

‘‘उन के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी शायद मेरी तकदीर में नहीं थे,’’ कह कर मैं फूटफूट कर रोने लगा. छोटी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे इस अपमान और संवेदना से निकालने का प्रयत्न किया.

छोटी ने ही मेरे पूछने पर मुझे बताया था कि मेरे घर से निकलने के अगले दिन ही पता लग चुका था कि मैं विदेश के लिए रवाना हो चुका हूं. शुरू के कुछ दिन तो वह मुझे कोसने में लगे रहे पर बाद में सबकुछ सहज होने लगा. छोटी ही उन दिनों मां को सांत्वना देती रहती और कई बार झूठ ही कह देती कि मेरा फोन आया है और मैं कुशलता से हूं.

छोटी का पति उस की ही पसंद का था. दूसरी जाति का होने के बावजूद मांबाबूजी ने चुपचाप उसे शादी की सहमति दे दी. मेरे विदेश जाने में मेरी बातों का समर्थन न देने का अंजाम तो वे देख ही चुके थे.

अपने पति के साथ छोटी ने मुझे ढूंढ़ने की कोशिश भी की थी पर सब पुराने संपर्क टूट चुके थे. अब अचानक मिशैल के पत्र से वह खुश हो गई और बाबूजी को बताए बिना यहां तक आ पहुंची थी.

‘‘बाबूजी कैसे हैं?’’ मैं ने बड़ी धीमी और सहमी आवाज में पूछा.

‘‘ठीक हैं. बस, जी रहे हैं. मां के मरने के बाद मैं ने कई बार अपने साथ रहने को कहा था पर शायद वह बेटी के घर रहने के खिलाफ थे.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता, मिशैल बोली, ‘‘टोनी, यह देश तो तुम्हारे लिए पराया हो गया है पर मांबाप तो तुम्हारे अपने हैं. तुम अपने फादर को मिल लोगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हारे बेचैन मन को शांति मिलेगी…फिर न जाने तुम्हारा आना कब हो,’’  उस के स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया.

मिशैल ठीक ही कह रही थी. मेरे पास समय बहुत कम था. मैं बिना कोई समय गंवाए उन से मिलने चला गया.

बाबूजी को देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी. पर वह ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत थे. पहले वाली मुसकराहट उन के चेहरे पर अब नहीं थी. उन्होंने अपनी बूढ़ी पनीली आंखों से मुझे देखा तो मैं टूटी टहनी की तरह उन की गोद में जा गिरा और उन के कदमों में अपना सिर सटा दिया. बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी. मां की असामयिक मौत का मैं ही जिम्मेदार हूं.’’

मैं ने नजर उठा कर घर के चारों तरफ देखा. एकदम रहस्यमय वातावरण व्याप्त था. बीता समय बारबार याद आता रहा. बाबूजी ने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. आज पहली बार महसूस हुआ कि शांति तो अपनी जड़ों से मिल कर ही मिलती है. मैं उन्हें साथ ले जाने की जिद करता रहा पर वह तो जैसे वहां से कहीं जाना ही नहीं चाहते थे.

‘‘तू आ गया है बस, अब तेरी मां को भी शांति मिल जाएगी,’’ कह कर वह भीतर मेरे साथ अपने कमरे में आ गए और मां की तसवीर के पीछे से लाल कपड़ों में बंधी मां की अस्थियों को मुझे दे कर कहने लगे, ‘‘देख, मैं ने कितना संभाल कर रखा है तेरी मां को. जातेजाते कुरुक्षेत्र में प्रवाहित कर देना. बस, यही छोटी सी तेरी मां की इच्छा थी,’’ बाबूजी की सरल बातें मेरे अंतर्मन को छू गईं.

मां की अस्थियां हाथ में आते ही मेरे हाथ कांपने लगे. मां कितनी छोटी हो चुकी थीं. मैं ने उन्हें कस कर सीने में भींच लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां.’’

2 दिन बाद ही मैं, छोटी, उस के पति और पापा के साथ दिल्ली एअरपोर्र्ट रवाना हुआ. मिशैल बड़ी ही भावुक हो कर सब से विदा ले रही थी. भाषा न जानते हुए भी उस में अपनी भावनाओं को जाहिर करने की अभूतपूर्व क्षमता थी. बिछुड़ते समय वह बोली, ‘‘आप सब लोग एक बार हमारे पास जरूर आएं. मेरा आप के साथ कोई रिश्ता तो नहीं है पर मेरी मां कहती थीं कि कुछ रिश्ते इन सब से कहीं ऊपर होते हैं जिन्हें हम समझ नहीं सकते.’’

‘‘अब कब आओगे, भैया?’’ छोटी के पूछने पर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. मैं कोई भी उत्तर न दे सका और तेजी से भीतर आ गया. उस का सवाल अनुत्तरित ही रहा. मैं ने भीतर आते ही मिशैल से भरे हृदय से कहा, ‘‘मिशैल, आज तुम न होतीं तो शायद मैं…’’

सच तो यह था कि मेरा पूरा शरीर ही मर चुका था. मैं फूटफूट कर रोने लगा. मिशैल ने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे पास ही बिठा दिया और बड़े दार्शनिक स्वर में बोली, ‘‘सच, दुनिया तो यही है जो तुम्हारा तिलतिल कर इंतजार करती रही और करती रहेगी, और तुम अपनी ही झूठी दुनिया में खोए रहना चाहते हो. तुम यहां से जाना चाहते हो तो जाओ पर कितनी भी ऊंचाइयां छू लो जब भी नीचे देखोगे स्वयं को अकेला ही पाओगे.

‘‘मेरी मानो तो अपनी दुनिया में लौट जाओ. चले जाओ…अब भी वक्त है…लौट जाओ टोनी, अपनी दुनिया में.’’

मिशैल ने बड़ा ही मासूम सा अनुरोध किया. मेरे सोए हुए जख्म भीतर से रिसने लगे. मेरे सोचने के सभी रास्ते थोड़ी दूर जा कर बंद हो जाते थे. मैं ने इशारे से उस से सहमति जतलाई.

मैं उस से कस कर लिपट गया और वह भी मुझ से चिपक गई.

‘‘बहुत याद आओगे तुम मुझे,’’ कह कर वह रोने लगी, ‘‘पर मुझे भूल जाना, पता नहीं मैं पुन: तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं,’’ कह कर वह तेज कदमों से जहाज की ओर चली गई.

आज सोचता हूं और सोचता ही रह जाता हूं कि वह कौन थी…अपना सर्वस्व मुझे दे कर, मुझे रास्ता दिखा कर वह न जाने अब वहां कैसे रह रही होगी.

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लम्हों ने खता की थी: भाग 3- क्या डिप्रैशन से निकल पाई रिया

‘‘मैं सन्न रह गई थी संजय की बातें सुन कर. क्या यही सब सुनने के लिए मैं मौडर्न, फौरवर्ड और बोल्ड बनी थी? आज कई साल पहले कालेज में एक विदुषी लेखिका का भाषण का एक वाक्य याद आने लगा, ‘हमें नारी मुक्ति चाहिए, मुक्त नारी नहीं,’ और इन दोनों की स्थितियों में अंतर भी समझ में आ गया.

‘‘मैं ने इस स्थिति में एक प्रख्यात नारी सामाजिक कार्यकर्ता से बात की तो वह बड़ी जोश में बोली कि परिवार के लोगों और युगयुगों से चली आ रही सामाजिक संस्था विवाह की अवहेलना कर के और वयस्क होने तथा विरोध नहीं करने पर भी शारीरिक संबंध बनाना स्वार्थी पुरुष का नारी के साथ भोग करना बलात्कार ही है. इस के लिए वह अपने दल को साथ ले कर संजय के विरुद्ध जुलूस निकालेगी, उस का घेराव करेगी, उस के कालेज पर प्रदर्शन करेगी. इस में मुझे हर जगह संजय द्वारा किए गए इस बलात्कार की स्वीकृति देनी होगी. इस तरह वह संजय को विवाह पूर्व यौन संबंध बनाने को बलात्कार सिद्ध कर के उसे मुझ से कानूनन और सामाजिक स्वीकृति सम्मत विवाह करने के लिए विवश कर देगी अथवा एक बड़ी रकम हरजाने के रूप में दिलवा देगी, मगर इस के लिए मुझे कुछ पैसा लगभग 20 हजार रुपए खर्च करने होंगे. सामाजिक कार्यकर्ता की बात सुन कर मुझे लगा कि मुझे अपनी मूर्खता और निर्लज्जता का ढिंढोरा खुद ही पीटना है और उस के कार्यक्रम के लिए मुझे ही एक जीवित मौडल या वस्तु के रूप में इस्तेमाल होने के लिए कहा जा रहा है.

‘‘इस के बाद मैं ने एक प्रौढ़ महिला वकील से संपर्क किया जो वकील से अधिक सलाहकार के रूप में मशहूर थीं. उन्होंने साफ कह दिया, ‘अगर संजय को कानूनी प्रक्रिया में घसीट कर उस का नाम ही उछलवाना है तो वक्त और पैसा बरबाद करो. अदालत में संजय का वकील तुम से संजय के संपर्क से पूर्व योनि शुचिता के नाम पर किसी अन्य युवक के साथ शारीरिक संबंध नहीं होने के बारे में जो सवाल करेगा, उस से तुम अपनेआप को सब के सामने पूरी तरह निर्वस्त्र खड़ा हुआ महसूस करोगी. मैं यह राय तुम्हें सिर्फ तुम से उम्र में बड़ी होने के नाते एक अभिभावक की तरह दे रही हूं.

‘अगर तुम किसी तरह अदालत में यह साबित करने में सफल भी हो गईं कि यह बच्चा संजय का ही है और संजय ने उसे सामाजिक रूप से अपना नाम दे भी दिया तो जीवन में हरदम, हरकदम पर कानून से ही जूझती रहोगी क्या. देखो, जिन संबंधों की नींव ही रेत में रखी गई हो उन की रक्षा कानून के सहारे से नहीं हो पाएगी. यह मेरा अनुभव है. तुम्हारा एमबीए पूरा हो रहा है. तुम्हारा एकेडैमिक रिकौर्ड काफी अच्छा है. मेरी सलाह है कि तुम अपने को मजबूत बनाओ और बच्चे को जन्म दो. एकाध साल तुम्हें काफी संघर्ष करना पड़ेगा. 3 साल के बाद बच्चा तुम्हारी प्रौब्लम नहीं रहेगा. फिर अपना कैरियर और बच्चे का भविष्य बनाने के लिए तुम्हारे सामने जीवन का विस्तृत क्षेत्र और पूरा समय होगा.’

‘‘‘मगर जब कभी बच्चा उस के पापा के बारे में पूछेगा तो…’ मैं ने थोड़ा कमजोर पड़ते हुए कहा था तो महिला वकील ने कहा था, ‘मैं तुम से कोई कड़वी बात नहीं कहना चाहती मगर यह प्रश्न उस समय भी अपनी जगह था जब तुम ने युगयुगों से स्थापित सामाजिक, पारिवारिक, संस्था के विरुद्ध एक अपरिपक्व भावुकता में मौडर्न तथा बोल्ड बन कर निर्णय लिया था. मगर अब तुम्हारे सामने दूसरे विकल्प कई तरह के जोखिमों से भरे हुए होंगे. क्योंकि प्रैग्नैंसी को समय हो गया है. वैसे अब बच्चे के अभिभावक के रूप में मां के नाम को प्राथमिकता और कानूनी मान्यता मिल गई है. बाकी कुछ प्रश्नों का जवाब वक्त के साथ ही मिलेगा. वक्त के साथ समस्याएं स्वयं सुलझती जाती हैं.’’’

इतना सब कह कर रिया शायद थकान के कारण चुप हो गई. थोड़ी देर चुप रह कर वह फिर बोली, ‘‘मुझे लगता है आज समय वह विराट प्रश्न ले कर खड़ा हो गया है, मगर उस का समाधान नहीं दे रहा है. शायद ऐसी ही स्थिति के लिए किसी ने कहा होगा, ‘लमहों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई,’’’ यह कह कर उस ने बड़ी बेबस निगाहों से मिसेज पाटनकर को देखा. मिसेज पाटनकर किसी गहरी सोच में थीं. अचानक उन्होंने रिया से पूछा, ‘‘संजय का कोई पताठिकाना…’’ रिया उन की बात पूरी होने के पहले ही एकदम उद्विग्न हो कर बोली, ‘‘मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं मिसेज पाटनकर, मगर मुझे संजय से कोई मदद या समझौता नहीं चाहिए, प्लीज.’’

‘‘मैं तुम से संजय से मदद या समझौते के लिए नहीं कह रही, पर पिऊ के प्रश्न के उत्तर के लिए उस के बारे में कुछ जानना तो होगा. जो जानती हो वह बताओ.’’

‘‘उस का सिलेक्शन कैंपस इंटरव्यू में हो गया था. पिछले 4-5 साल से वह न्यूयार्क के एक बैंक में मैनेजर एचआरडी का काम कर रहा था. बस, इतना ही मालूम है मुझे उस के बारे में किसी कौमन फ्रैंड के जरिए से,’’ रिया ने मानो पीछा छुड़ाने के लिए कहा. रिया की बात सुन कर मिसेज पाटनकर कुछ देर तक कुछ सोचती रहीं, फिर बोलीं, ‘‘हां, अब मुझे लगता है कि समस्या का हल मिल गया है. तुम्हें और संजय को अलग हुए 6-7 साल हो गए हैं. इस बीच में तुम्हारा उस से कोई संबंध तो क्या संवाद तक नहीं हुआ है.

‘‘उस के बारे में बताया जा सकता है कि वह न्यूयार्क में रहता था. वहीं काम करता था. वहां किसी विध्वंसकारी आतंकवादी घटना के बाद उस का कोई पता नहीं चल सका कि वह गंभीर रूप से घायल हो कर पहचान नहीं होने से किसी अस्पताल में अनाम रोगी की तरह भरती है या मारा गया. अस्पताल के मनोचिकित्सक को यही बात पिऊ के पापा के बारे में बता देते हैं. वे अपनेआप जिस तरह और जितना चाहेंगे पिऊ को होश आने पर उस के पापा के बारे में अपनी तरह से बता देंगे और आज से यही औफिशियल जानकारी होगी पिऊ के पापा के बारे में.’’

‘‘लेकिन जब कभी पिऊ को यह पता चलेगा कि यह झूठ है तो?’’ कह कर रिया ने बिलकुल एक सहमी हुई बच्ची की तरह मिसेज पाटनकर की ओर देखा तो वे बोलीं, ‘‘रिया, वक्त अपनेआप सवालों के जवाब खोजता है. अभी पिऊ को नर्वस ब्रैकडाउन से बचाना सब से बड़ी जरूरत है.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप ठीक समझें. पिऊ ठीक हो जाएगी न, मिसेज पाटनकर?’’ रिया ने डूबती हुई आवाज में कहा.

‘‘पिऊ बिलकुल ठीक हो जाएगी, मगर एक शर्त रहेगी.’’

‘‘क्या, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. बस, पिऊ…’’

‘‘सुन तो ले,’’ मिसेज पाटनकर बोलीं, ‘‘अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर पिऊ स्वस्थ होने तक मेरे पास रहेगी और बाद में भी तुम्हारी अनुपस्थिति में वह हमेशा अपनी दादी के पास रहेगी. बोलो, मंजूर है?’’ उन्होंने ममतापूर्ण दृष्टि से रिया को देखा तो रिया डूबती सी आवाज में ही बोली, ‘‘आप पिऊ की दादी हैं या नानी, मैं कह नहीं सकती. मगर अब मुझे लग रहा है कि मेरे कुछ मूर्खतापूर्ण भावुक लमहों की जो लंबी सजा मुझे भोगनी है उस के लिए मुझे आप जैसी ममतामयी और दृढ़ महिला के सहारे की हर समय और हर कदम पर जरूरत होगी. आप मुझे सहारा देंगी न? मुझे अकेला तो नहीं छोड़ेंगी, बोलिए?’’ कह कर उस ने मिसेज पाटनकर का हाथ अपने कांपते हाथों में कस कर पकड़ लिया.

‘‘रिया, मुझे तो पिऊ से इतना लगाव हो गया है कि मैं तो खुद उस के बिना रहने की कल्पना कर के भी दुखी हो जाती हूं. मैं हमेशा तेरे साथ हूं. पर अभी इस वक्त तू अपने को संभाल जिस से हम दोनों मिल कर पिऊ को संभाल सकें. अभी मेरा हाथ छोड़ तो मैं यहां से जा कर मनोचिकित्सक को सारी बात बता सकूं,’’ कह कर उन्होंने रिया के माथे को चूम कर उसे आश्वस्त किया, बड़ी नरमी से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया और डाक्टर के कमरे की ओर चल पड़ीं.

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लम्हों ने खता की थी: भाग 2- क्या डिप्रैशन से निकल पाई रिया

‘देखो, मैं तो सिर्फ समय काटने के लिए महिला वैलफेयर सोसायटी में बच्चों को पढ़ाने का काम करती हूं. मैं कोई समाजसेविका नहीं हूं. मगर पाटनकर साहब के औफिस जाने के बाद 8 घंटे करूं क्या, इसलिए अगर तुम्हें कोई परेशानी न हो तो बच्ची को स्कूल से लौट कर तुम्हारे आने तक मेरे साथ रहने की परमिशन दे दो. मुझे और पाटनकर साहब को अच्छा लगेगा.’

‘मैडम, देखिए आया का इंतजाम…’ रिया ने फिर कहना चाहा तो उन्होंने बीच में टोक कर कहा, ‘आया को तुम रखे रहो, वह तुम्हारे और काम कर दिया करेगी.’ सब तरह के तर्कों से परास्त हो कर रिया चलने लगी तो उन्होंने कहा, ‘रिया, तुम सीधे औफिस से आ रही हो. तुम थकी होगी. मिस्टर पाटनकर भी आ गए हैं. चाय हमारे साथ पी कर जाना.’

‘जी, सर के साथ,’ रिया ने थोड़ा संकोच से कहा तो वे बोलीं, ‘सर होंगे तुम्हारे औफिस में. रिया, तुम मेरी बेटी जैसी हो. जाओ, बाथरूम में हाथमुंह धो लो.’

उस दिन से रिया की बेटी और उन में दादीपोती का जो रिश्ता कायम हुआ उस से वे मानो इस बच्ची की सचमुच ही दादी बन गईं. मगर जब कभी बच्ची उन से अपने पापा के बारे में प्रश्न करती, तो वे बेहद मुश्किल में पड़ जाती थीं. इंस्पैक्टर को यह संक्षिप्त कहानी सुना कर वे निबटी ही थीं कि डाक्टर आ कर बोले, ‘‘देखिए, बच्ची शरीर से कम मानसिक रूप से ज्यादा आहत है. इसलिए उसे किसी ऐसे अटैंडैंट की जरूरत है जिस से वह अपनापन महसूस करती हो.’’ स्थिति को देखते हुए मिसेज पाटनकर ने बच्ची की परिचर्या का भार संभाल लिया.

करीब 4-5 घंटे गुजर गए. बच्ची होश में आते ही, उसी तरह, ‘‘मुझे पापा को ढूंढ़ने जाना है, मुझे जाने दो न प्लीज,’’ की गुहार लगाती थी.

बच्ची की हालत स्थिर देखते हुए डाक्टर ने फिर कहा, ‘‘देखिए, मैं कह चुका हूं कि बच्ची शरीर की जगह मैंटली हर्ट ज्यादा है. हम ने अभी इसे नींद का इंजैक्शन दे दिया है. यह 3-4 घंटे सोई रह सकती है. मगर बच्ची की उम्र और हालत देखते हुए हम इसे ज्यादा सुलाए रखने का जोखिम नहीं ले सकते. बेहतर यह होगा कि बच्ची को होश में आने पर इस के पापा से मिलवा दिया जाए और इस समय अगर यह संभव न हो तो उन के बारे में कुछ संतोषजनक उत्तर दिया जाए. आप बच्ची की दादी हैं, आप समझ रही हैं न?’’

अब मिसेज पाटनकर ने डाक्टर को पूरी बात बताई तो वह बोला, ‘‘हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं मगर बच्ची के पापा के विषय में आप को ही बताना पड़ेगा.’’ बच्ची को मिसेज सान्याल को सुपुर्द कर मिसेज पाटनकर रिया के वार्ड में आ गईं. रिया को होश आ गया था. वह उन्हें देखते ही बोली, ‘‘मेरी बेटी कहां है, उसे क्या हुआ है, आप कुछ बताती क्यों नहीं हैं? इतना कहते हुए वह फिर बेहोश होने लगी तो मिसेज पाटनकर उस के सिरहाने बैठ गईं और बड़े प्यार से उस का माथा सहलाने लगीं.

उन के ममतापूर्ण स्पर्श से रिया को कुछ राहत मिली. उस की चेतना लौटी. वह कुछ बोलती, इस से पहले मिसेज पाटनकर उस से बोलीं, ‘‘रिया, बच्ची को कुछ नहीं हुआ. मगर वह शरीर से ज्यादा मानसिक रूप से आहत है. अब तुम ही उसे पूरी तरह ठीक होने में मदद कर सकती हो.’’ मिसेज पाटनकर बोलते हुए लगातार रिया का माथा सहला रही थीं. रिया ने इस का कोई प्रतिवाद नहीं किया तो उन्हें लगा कि वह उन से कहीं अंतस से जुड़ती जा रही है.

थोड़ी देर में वह क्षीण स्वर में बोली, ‘‘मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘देखो रिया, बच्ची अपने पापा के बारे में जानना चाहती है. हम उसे गोलमोल जवाब दे कर या उसे डांट कर चुप करा कर उस के मन में संशय व संदेह की ग्रंथि को ही जन्म दे रहे हैं. इस से उस का बालमन विद्रोही हो रहा है. मैं मानती हूं कि वह अभी इतनी परिपक्व नहीं है कि उसे तुम सबकुछ बताओ, मगर तुम एक परिपक्व उम्र की लड़की हो. तुम खुद निर्णय कर लो कि उसे क्या बताना है, कितना बताना है, कैसे बताना है. मगर बच्ची के स्वास्थ्य के लिए, उस के हित के लिए उसे कुछ तो बताना ही है. यही डाक्टर कह रहे हैं,’’ इतना कहते हुए मिसेज पाटनकर ने बड़े स्नेह से रिया को देखा तो उन्हें लगा कि वह उन के साथ अंतस से जुड़ गई है.

रिया बड़े धीमे स्वर में बोली, ‘‘अगर मैं ही यह सब कर सकती तो उसे बता ही देती न. अब आप ही मेरी कुछ मदद कीजिए न, मिसेज पाटनकर.’’

‘‘तुम मुझे कुछ बताओगी तो मैं कुछ निर्णय कर पाऊंगी न,’’ मिसेज पाटनकर ने रिया का हाथ अपने हाथ में स्नेह से थाम कर कहा.

रिया ने एक बार उन की ओर बड़ी याचनाभरी दृष्टि से देखा, फिर बोली, ‘‘आज से 7 साल पहले की बात है. मैं एमबीए कर रही थी. हमारा परिवार आम मध्य परिवारों की तरह कुछ आधुनिकता और कुछ पुरातन आदर्शों की खिचड़ी की सभ्यता वाला था. मैं ने अपनी पढ़ाई मैरिट स्कौलरशिप के आधार पर पूरी की थी. इसलिए जब एमबीए करने के लिए बेंगलुरु जाना तय किया तो मातापिता विरोध नहीं कर सके. एमबीए के दूसरे साल में मेरी दोस्ती संजय से हुई. वह भी मध्यवर्ग परिवार से था. धीरेधीरे हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई. मगर आज लगता है कि उसे प्यार कहना गलत था. वह तो 2 जवान विपरीत लिंगी व्यक्तियों का आपस में शारीरिक रूप से अच्छा लगना मात्र था, जिस के चलते हम एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा रहना चाहते थे.

‘‘5-6 महीने बीत गए तो एक दिन संजय बोला, ‘रिया, हमतुम दोनों वयस्क हैं. शिक्षित हैं और एकदूसरे को पसंद करते हैं, काफी दिन से साथसाथ घूमतेफिरते और रहते हुए एकदूसरे को अच्छी तरह समझ भी चुके हैं. यह समय हमारे कैरियर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है. इस में क्लासैज के बाद इस तरह रोमांस के लिए मिलनेजुलने में समय बिताना दरअसल समय का ही नहीं, कैरियर भी बरबाद करना है. अब हमतुम जब एकदूसरे से इतना घुलमिल गए हैं तो होस्टल छोड़ कर किसी किराए के मकान में एकसाथ मिल कर पतिपत्नी बन कर क्यों नहीं रह लेते. आखिर प्रोजैक्ट में भी किसी पार्टनर की जरूरत होगी.’

‘‘‘मगर एमबीए के बीच में शादी, वह भी बिना घर वालों को बताए, उन की रजामंदी के…’ मैं बोली तो संजय मेरी बात बीच में ही काट कर बोला था, ‘मैं बैंडबाजे के साथ शादी करने को नहीं, हम दोनों की सहमति से आधुनिक वयस्क युवकयुवती के एक कमरे में एक छत के नीचे लिव इन रिलेशनशिप के रिश्ते में रहने की बात कर रहा हूं. इस तरह हम पतिपत्नी की तरह ही रहेंगे, मगर इस में सात जन्म तो क्या इस जन्म में भी साथ निभाने के बंधन से दोनों ही आजाद रहेंगे.’

‘‘मैं संजय के कथन से एकदम चौंकी थी. तो संजय ने कहा था, ‘तुम और्थोडौक्स मिडिल क्लास की लड़कियों की यही तो प्रौब्लम है कि तुम चाहे कितनी भी पढ़लिख लो मगर मौडर्न और फौरवर्ड नहीं बन सकतीं. तुम्हें तो ग्रेजुएशन के बाद बीएड कर के किसी स्कूल में टीचर का जौब करना चाहिए था. एमबीए में ऐडमिशन ले कर अपना समय और इस सीट पर किसी दूसरे जीनियस का फ्यूचर क्यों बरबाद कर दिया.’

‘‘उस के इस भाषण पर भी मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं देख कर वह मानो समझाइश पर उतर आया, बोला, ‘अच्छा देखो, आमतौर पर मांबाप लड़की के लिए अच्छा सा लड़का, उस का घरपरिवार, कारोबार देख कर अपने तमाम सगेसंबंधी और तामझाम जोड़ कर 8-10 दिन का वक्त और 8-10 लाख रुपए खर्च कर के जो अरेंज्ड मैरिज नाम की शादी करते हैं क्या उन सभी शादियों में पतिपत्नी में जिंदगीभर निभा पाने और सफल रहने की गारंटी होती है? नहीं होती है न. मेरी मानो तो मांबाप का अब तक का जैसेतैसे जमा किया गया रुपया, उन के भविष्य में काम आने के लिए छोड़ो. देखो, यह लिव इन रिलेशनशिप दकियानूसी शादियों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी परिवर्तन है.

हम जैसे पढ़ेलिखे एडवांस्ड यूथ का समर्थन मिलेगा तभी इसे सामाजिक स्वीकृति मिलेगी. अब किसी को तो आगे आना होगा, तो हम ही क्यों नहीं इस रिवोल्यूशनरी चेंज के पायोनियर बनें. सो, कमऔन, बी बोल्ड, मौडर्न ऐंड फौरवर्ड. कैरियर बन जाने पर और पूरी तरह सैटल्ड हो जाने पर हम अपनी शादी डिक्लेयर कर देंगे. सो, कमऔन. वरना मुझे तो मेरे कैरियर पर ध्यान देना है. मुझे अपने कैरियर पर ध्यान देने दो.’ ‘‘एक तो संजय से मुझे गहरा लगाव हो गया था, दूसरे, मुझे उस के कथन में एक चुनौती लगी थी, अपने विचारों, अपनी मान्यताओं और अपने व्यक्तित्व के विरुद्ध. इसलिए मैं ने उस का समर्थन करते हुए उस के साथ ही अपना होस्टल छोड़ दिया और हम किराए पर एक मकान ले कर रहने लगे. ‘‘मकानमालिक एक मारवाड़ी था जिसे हम ने अपना परिचय किसी प्रोजैक्ट पर साथसाथ काम करने वाले सहयोगियों की तरह दिया. वह क्या समझा और क्या नहीं, बस उस ने किराए के एडवांस के रुपए ले व मकान में रहने की शर्तें बता कर छुट्टी पाई.

‘‘धीरेधीरे 1 साल बीत चला था. इस बीच हम ने कई बार पतिपत्नी वाले शारीरिक संबंध बनाए थे. इन्हीं में पता नहीं कब और कैसे चूक हो गई कि मैं प्रैग्नैंट हो गई. ‘‘मैं ने संजय को यह खबर बड़े उत्साह से दी मगर वह सुन कर एकदम खीझ गया और बोला, ‘मैं तो समझ रहा था कि तुम पढ़ीलिखी समझदार लड़की हो. कुछ कंट्रासैप्टिव पिल्स वगैरह इस्तेमाल करती रही होगी. तुम तो आम अनपढ़ औरतों जैसी निकलीं. अब फटाफट किसी मैटरनिटी होम में जा कर एमटीपी करा डालो. बच्चे पैदा करने के लिए और मां बनने के लिए जिंदगी पड़ी है. अगले महीने कुछ मल्टीनैशनल कंपनी के प्रतिनिधि कैंपस सिलैक्शन के लिए आएंगे इसलिए एमटीपी इस सप्ताह करा लो.’

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बिजली कहीं गिरी असर कहीं और हुआ- भाग 2: कौन थी खुशबू

इस तरह के विचार मन में आने के बाद शारदा कोशिश करने के बाद भी खुशबू के प्रति अपने व्यवहार को सामान्य नहीं कर पा रही थीं. यह बात जैसे आहिस्ताआहिस्ता शारदा के मन में घर बना रही थी कि 7 वर्ष पहले शायद नर्सिंगहोम में उस के बच्चे को भी बदल कर किसी दूसरे को दे दिया गया. अगर ऐसा हुआ था तो उस ने अवश्य एक बेटे को ही जन्म दिया होगा.

मन में उठने वाले इन विचारों ने जैसे शारदा के जीवन का सारा सुखचैन ही छीन लिया.

अपने मन में चल रहे विचारों के मंथन को शारदा अपने पति रमाकांत से छिपा नहीं सकी थी. उन ने बोलीं कि मैं ने भी तो अपने तीसरे बच्चे को इसी नर्सिंगहोम में जन्म दिया था. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि औरों की तरह मैं ने भी कहीं धोखा ही खाया हो? खुशबू वास्तव में हमारी बच्ची न हो?’’

शारदा की बात सुन रमाकांत स्तब्ध रह गए, ‘‘उन्हें इस तरह की बातें नहीं सोचनी चाहिए. ऐसी बातों का अब कोई मतलब नहीं. 7 साल बीत चुके हैं. ऐसी बातें सोचने से हमारी ही परेशानी बढ़ेगी,’’ रमाकांत ने उन्हें सम झाने की कोशिश की.

‘‘मैं चाह कर भी इस शक को अपने मन से निकाल नहीं  सकती. क्या तुम्हें नहीं लगता कि 7 साल पहले हमारे साथ जो कुछ भी हुआ था अजीब हुआ था? अपने दिल पर जरा हाथ रख कर कहो मैं जो भी कह रही हूं गलत कह रही हूं? तुम कह सकते हो कि पंडित और ज्योतिषयों ठोंग करते हैं. उन की बातें  झूठी होती हैं. मगर क्या मशीनें भी  झूठ बोलती हैं? मैडिकल साइंस भी अंधी है?’’

‘‘तुम्हारी इन सारी बातों के मेरे पास जवाब नहीं शारदा, मगर मैं तुम से इतना ही पूछना चाहता हूं कि गड़े मुरदे को उखाड़ने से क्या फायदा होगा? मैं मानता हूं नर्सिंगहोम में बहुत से लोगों के साथ धोखा हुआ, मगर इस बात का कोई सुबूत हम लोगों के पास नहीं कि उन लोगों में हम शामिल थे ही. बेकार मन में वहम पालो कि खुशबू हमारी बेटी नहीं.’’

‘‘यह वहम नहीं, एक हकीकत हो सकती है,’’ शारदा ने शब्दों पर जोर देते हुए शारदा ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारी बात मान भी लूं, तो इस हकीकत को साबित कौन करेगा? रमाकांत का लहजा तलख हो गया.

‘‘हमें पुलिस से संपर्क करना चाहिए.’’

‘‘क्या पुलिस इस बात का फैसला करेगी कि खुशबू हमारी बेटी है या नहीं?’’

‘‘तुम हमेशा मेरी बात का उलट मतलब निकालते हो, पुलिस सारे मामले की जांच कर रही है. वह इस मामलें में हमारी मदद कर सकती है,’’ शारदा ने कहा. उन के स्वर में बेसब्री थी.

‘‘तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि हम अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारें. पुलिस के पास जाए और उस से कहें कि हमें शक है कि खुशबू हमारी बेटी नहीं, नर्सिंगहोम वालों ने बेइमानी  कर के हमारे बच्चे को भी बदल दिया था. जानती हो इस के बाद क्या होगा? पुलिस इस मामले में हमें जांच का आश्वासन देगी, मगर इस के साथ ही वह एक काम और भी करेगी और खुशबू को हम से छीन किसी अनाथालय में भेज देगी. वह तब तक उसी अनाथालय में रहेगी जब तक पुलिस की जांच पूरी नहीं हो जाती. इस के साथ ही अगर तुम्हारे शक के मुताबिक पुलिस की जांच में यह साबित हो जाए कि नर्सिंगहोम वालों ने हमारा बच्चा भी बदला था तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि खुशबू के बदले में हमें कोई दूसरा बच्चा मिल ही जाएगा. अगर तुम इन सब चीजों का सामना करने के लिए तैयार हो तो मैं पुलिस स्टेशन चलने को तैयार हूं,’’ रमाकांत ने पत्नी को गहरी नजरों से देखते हुए कहा.

इस पर शारदा मानो धर्मसंकट में पड़ती हुई नजर आईं. इस के बाद पुलिस के पास जाने की बात शारदा ने पति से नहीं की. हां पंडित रामकुमार तिवारी से जरूर जिक्र किया, पर पुलिस के पास जाने को उस ने भी मना किया.

बिना कुछ हासिल किए ही कोई चीज गंवाने का रिस्क उठाने की हिम्मत शारदा में नहीं थी. अपने शक के कारण पुलिस के पास जाने का खयाल तो शारदा ने फिलहाल मन से निकाल दिया, मगर इस से उस के मन में जैसे घर बना चुका वहम नहीं निकला कि  वह भी नर्सिंगहोम वालों के धोखे की शिकार है.

शारदा के मन के वहम ने मासूम खुशबू के जीवन को बहुत ही उदास बना डाला था. वह मम्मी में पहले वाला प्यार ढूंढ़ती नजर आती थी जो उसे नहीं मिलता था. मम्मी के व्यवहार की बेरुखी देख मासूम खुशबू यह भी नहीं सम झ पाती कि उस से गलती क्या हुई है?

रमाकांत खुशबू के पति शारदा के बदले व्यवहार से परेशान थे, पर समस्या के तत्काल समाधान का रास्ता नहीं सू झ रहा था.

सारी कशमकश के बीच एक नई बात कह कर शारदा ने रमाकांत के लिए एक नया सिरदर्द पैदा कर दिया.

डीएनए के माने वास्तव में क्या थे और वह क्या था यह तो शारदा को मालूम नहीं था, मगर पंडित रामकुमार तिवारी के कहने पर और टीवी पर खबरें सुनने से उन्हें इतना अवश्य मालूम था कि उन के टैस्ट से किसी भी बच्चे के असली मांबाप का पता लगाया जा सकता है.

शारदा ने रमाकांत से कहा, ‘‘पंडितजी कह रहे थे कि एक टैस्ट होना है जिस से किसी भी बच्चे के असली मांबाप के बारे में बिलकुल सही ढंग से जाना जा सकता है. मैं ने मोबाइल पर पढ़ा था, डीएनए या ऐसा ही कोई मिलताजुलता नाम था इस टैस्ट का. क्यों न हम भी अपना व खुशबू का टैस्ट करवा लें? उस से दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. पंडितजी ने एक लैब का कार्ड भी दिया है कि वह उन की जानपहचान की है.

शारदा की बात सुन रमाकांत कुछ पलों के लिए तो हक्काबक्का रह गए.

वे नहीं जानते थे कि  खुशबू को ले कर शारदा की सोच इस हद तक चली गई है.

‘‘इस टैस्ट को क्या तुम ने कोई मजाक सम झा है? इस पर बहुत पैसा खर्च होगा,’’ रमाकांत ने शारदा को टालने की गरज से कहा.

‘‘चाहे जितना भी खर्च आए करो, मगर किसी तरह भी मु झे मेरी दिनरात की दिमागी तकलीफ से छुटकारा दिलाओ वरना यह मु झे मार डालेगी,’’ शारदा ने कहा.

शारदा की बात से रमाकांत को लगा कि मामला एक नाजुक शक्ल ले रहा है. खुशबू को ले कर लगातार अंदर से घुल रही शारदा का तनाव खतरनाक सीमा तक बढ़ गया है. अगर जल्दी शारदा को उस की वर्तमान मनोस्थिति से बाहर निकालने का कोई रास्ता नहीं खोजा गया तो इस के बुरे नतीजे सामने आ सकते हैं.

रमाकांत ने इस बारे में बहुत सोचा, बहुत मंथन किया. अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शारदा को उन की वर्तमान मनोस्थिति में से निकालने के लिए  झूठ का ही सहारा लेना पड़ेगा.

तभी रमाकांत को अपने बचपन के दोस्त सतीश धवन की याद आ गई, जो डाक्टर था.

सतीश धवन अपने क्लीनिक के साथसाथ एक लैब का भी मालिक था. रमाकांत ने डाक्टर सतीश धवन से मिल कर उसे अपनी सारी समस्या बताई. रामकुमार तिवारी के दिए गए लैब के कार्ड को भी दिखाया.

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सनक: नृपेंद्रनाथ को हुआ गलती का एहसास

धन होना अच्छी बात है, पर अधिक धन हो जाने से महत्त्वाकांक्षा इतनी बढ़ जाती है कि परिवार के लिए सिरदर्द और परिचितों के लिए हास्यास्पद हो जाती है.

सुनयना के पिता नृपेंद्रनाथ ने जो मकान बनवाया था वह काफी लंबाचौड़ा और शानदार था. लोग उस की कीमत 8 लाख रुपए के आसपास आंकते थे, पर नृपेंद्रनाथ उस की लागत दोढाई लाख ही बताते थे. मकान के अलावा बैंक में जमा धन था. गृहस्थी की हर नई से नई वस्तु मौजूद थी.

नृपेंद्रनाथ राजकीय सेवा में थे और एक विभाग में निरीक्षक थे. ऊपरी आमदनी का तो पता नहीं, पर उन के पास जो कुछ भी था, उसे मात्र वेतन से एकत्र नहीं कर सकते थे. वह कहा भी करते थे कि नौकरी तो उन्होंने शौक के लिए की है. गांव में उन के पास काफी कृषि भूमि है, बाग हैं और शानदार हवेली है. उसी की आमदनी से भरेपूरे हैं.

किसी को फुरसत न थी सुदूर गांव जा कर, अपना खर्चा कर के, नृपेंद्रनाथ की जायदाद का पता लगाए. जरूरत भी क्या थी? इस कारण नृपेंद्रनाथ की बात सच भी माननी पड़ती थी.

सुनयना उन की एकमात्र कन्या थी. 2 पुत्र भी थे. सुनयना तो किसी प्रकार स्नातक हो गई थी, पर बेटों ने शिक्षा की अधिक आवश्यकता महसूस नहीं की थी. जरूरत भी क्या थी? जब पिता के पास ढेर सारा धन हो, जायदाद हो तो शिक्षा का सिरदर्द मोल लेना उचित नहीं होता. वे दोनों भी वही सोचते थे जो आमतौर पर अपने देश में भरपूर धन और जायदाद वालों के पुत्र सोचते हैं.

सुनयना के नाकनक्श अच्छे थे. बोली भी अच्छी थी. केवल कमी थी तो यह कि रंग गहरा सांवला था. आर्थिक रूप से कमी न होने के कारण उस ने गृहकार्य सीखने की आवश्यकता नहीं समझी थी.

सुनयना की मां स्नेहलता तो उस के ब्याह के लिए नृपेंद्रनाथ को तभी से कोंचने लगी थी जब उस ने 18वें में कदम रखा था. यह नहीं कि नृपेंद्रनाथ को चिंता नहीं थी. थी और बहुत थी. वह जैसा चाहते थे वैसा वर नहीं दिखाई दे रहा था. जिस का भी पता लगता, वह उन की शर्तों पर खरा नहीं उतरता था.

नृपेंद्रनाथ चाहते थे कि लड़का भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो. उच्च ब्राह्मण कुल का हो. गोश्त, प्याज, लहसुन आदि न खाता हो. शराब न छूता हो. शानदार व्यक्तित्व का मालिक हो.

ऐसे दामाद की कीमत वह डेढ़ लाख स्वयं लगा चुके थे. 2 लाख तक जा चुके थे. ऐसे लड़के का पता लगता तो दौड़े चले जाते. प्रतीक्षा सूची में लग जाते, पर अभी तक ऐसा हुआ था कि ऐसे लड़कों को 3 लाख और साढ़े 3 लाख वाले उड़ा ले जाते.

नृपेंद्रनाथ भी धुन के पक्के थे. एक वांछित शर्तों वाला लड़का हाथ से निकल जाता तो दूसरे के पीछे पड़ जाते और तब तक पीछे पड़े रहते जब तक उसे भी ऊंची कीमत वाले छीन न लेते.

सुनयना के पास करने को कोई काम नहीं था. मां ने भी कुछ करवाने की जरूरत नहीं समझी. वह खूब खाती, खूब सोती और जागते समय उपन्यास पढ़ती. मुसीबत घर के बड़ेबूढ़े की होती है और ऐसी कन्या के विवाह में कठिनाई होती है, जिस का बाप अपने को बहुत बड़ा और कुलीन समझता हो. पिता की जिद ने सुनयना को 28 वर्ष की परिधि में ला दिया. उम्र के कारण कठिनाई और बढ़ गई थी.

स्थिति यह आ गई थी कि लोग नृपेंद्रनाथ को देख कर वक्रता से मुसकरा पड़ते. कह ही डालते, ‘‘कायदे से इन्हें कोई मिनिस्टर तलाशना चाहिए जिस के आगेपीछे प्रशासनिक सेवा वाले दुम हिलाते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के कान में भी बात गई. कोई असर न हुआ. उत्तर दे दिया, ‘‘मंत्री अस्थायी होते हैं और प्रशासनिक सेवा वाले स्थायी होते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के साले चक्रपाणि ने सुझाया, ‘‘जीजाजी, हो सकता है कि लड़का अभी शराब न पीता हो, गोश्त न खाता हो, सिगरेट न पीता हो. पर शादी के बाद यह सब करने लगे तो आप क्या कर लेंगे?’’

नृपेंद्रनाथ ने कोई उत्तर न दिया. उन के कानों पर जूं भी न रेंगी. वह अपनी शर्तों से तिल भर भी अलग होने को तैयार नहीं थे.

प्रो. कैलाशनाथ मिश्र का पुत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया.

नृपेंद्रनाथ ने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लड़के पंकज ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘एक मामूली इंस्पेक्टर की बेटी से विवाह? क्या हमारे स्तर के लोग देश में खत्म हो गए हैं?’’

नृपेंद्रनाथ ने उत्तर सुना. उत्तर क्या था जहर का घूंट था. जिद की सनक में उन्हें पीना ही पड़ गया, पर वह अपने उद्देश्य पर कायम रहे.

ऊब कर सुनयना की मां ने भी कह डाला, ‘‘अच्छे परिवार का ऐसा स्वस्थ लड़का देखिए जिस से दोनों की जोड़ी अच्छी लगे. इतना और ध्यान रखिए कि कामकाज से लगा हो.’’

नृपेंद्रनाथ झिड़क देते, ‘‘तुम्हें तो अक्ल आ ही नहीं सकती. जब अपने पास सबकुछ है तो इकलौती बेटी के लिए लड़का भी उच्च पद वाला ही ढूंढ़ना है.’’

जवाब मिला, ‘‘तुम्हारी सनक के कारण लड़की बूढ़ी हुई जा रही है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें 2-2 बच्चों की मां बन गई हैं. जब खेत ही सूख गया तो वर्षा का क्या फायदा?’’

इस कटु सत्य का कोई उत्तर देने के स्थान पर नृपेंद्रनाथ टाल जाना ही उचित समझते थे. अपनी शर्तों के संबंध में झुकने को तैयार होने की बात सोच ही न सकते थे. ऐसा न था कि लड़के न थे. उच्च कुल वाले भी थे. अच्छे पदों पर भी थे. पूर्ण शाकाहारी भी थे. स्वस्थ और सुंदर थे. परंतु नृपेंद्रनाथ की सनक भारतीय प्रशासनिक सेवा वाले के लिए ही थी.

कपिलजी को रामायण याद थी. जो कुछ कहते थे उस में एक चौपाई जरूर जोड़ देते. रामायण कंठस्थ थी पर उस के कोई आदर्श चरित्र उन में न थे.

पर वह भी एक दिन बोल ही पड़े, ‘‘लिखा न विधि वैदेहि विवाहू. प्रशासनिक सेवा का शुभ धनु न टूटेगा और न नृपेंद्रनाथ भाई की पुत्री का ब्याह होगा.’’

कपिलजी की पत्नी हां में हां मिलाती हुई बोलीं, ‘‘अब सुनयना का ब्याह क्या होगा. उस का 32वां वर्ष खत्म हो रहा है. अब उस को कुंआरा वर शायद ही मिले. विधुर या तलाकशुदा ही मिल सकता है.’’

सुनयना भी ऊब सी गई थी. अपनी सहेली शिल्पा से यों ही कह गई, ‘‘पिताजी की सनक भी खूब है. जिद में पड़े हैं. क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा वालों को छोड़ कर और अच्छे लड़के नहीं मिल सकते समाज में? अच्छा हुआ कि नानीजी ने ऐसा नहीं सोचा. नहीं तो मां भी अभी तक कुंआरी ही होतीं अथवा कुंआरी ही मर चुकी होतीं.’’

वैसे हर कन्या चाहती है कि उस का पति कमाने वाला हो, पर कमाई से भी बढ़ कर वह अच्छे स्वभाव का स्वस्थ पुरुष पसंद करती है, जिस के पास 2 भुजाएं हैं वह कमाई तो कर ही लेता है.

नृपेंद्रनाथ अब अजीब स्थिति में आ गए थे. वह जिसे पसंद करते उसे वह और उन का परिवार पसंद न आता. कभी कुछ बात बनती भी तो कन्या की उम्र और सांवलापन आड़े आ जाता.

पुत्रों को अपनी मस्ती से मतलब था. पत्नी कभीकभी भुनभुना लेती थी. रिश्तेदारों और सुहृदों ने जिक्र करना ही छोड़ दिया था.

नृपेंद्रनाथ मूर्ख नहीं थे, पर उन की सनक ने उन्हें मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया था. उन की सनक ध्यान ही न दे पाती थी कि कन्या के विचारों में कुंठाएं घर कर चुकी हैं और शरीर की कोमलता जठरता में बदल चुकी है. किसी विवाह या अन्य समारोह में जाने पर वह अलगथलग पड़ जाती. लोग कहते कुछ न थे पर उन की निगाहें उस में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा कर देती थीं. यही सनसनाहट एक अजीब सी ग्रंथि को जन्म दे चुकी थी.

एक बूढ़ी महिला ने सुनयना को बिना सुहाग चिह्नों के देखा तो दुखी हो कर उस की मामी से कह ही डाला, ‘‘क्या यह जवानी में ही विधवा हो गई?’’

मामी ने उस का मुंह पकड़ा, ‘‘ताईजी, अभी तो इस का विवाह ही नहीं हुआ है. इस के पिताजी इस के लिए काफी दिनों से अच्छा लड़का तलाश रहे हैं.’’

बूढ़ी का पोपला मुंह और बिगड़ गया. कुछ तो प्रकृति ने पहले से बिगाड़ दिया था, ‘‘इस का बाप तो मूर्ख लगता है. गरीब से गरीब लड़की का ब्याह हो जाता है. अगर इस के बाप के पास कुछ नहीं है तो भी एक जोड़ी कपड़े में ही किसी को कन्या का दान कर देता. बेचारी कुंआरी विधवा बन कर तो न घूमती.’’

मामी ने राज उजागर कर दिया, ‘‘इस के पिताजी गरीब नहीं हैं, पैसे वाले हैं. पैसा जब अधिक हो जाता है तो दिमाग को खराब कर देता है और आदमी औकात से बढ़ कर सोचने लगता है. इस के पिताजी अगर औकात से बढ़ कर न सोचते तो आज से वर्षों पूर्व इस का विवाह हो जाता. अब तक बालबच्चों वाली हो गई होती.’’

बूढ़ी ने आगे कहना चाहा तो सुनयना की मामी ने रोक दिया, ‘‘रहने दो, ताईजी, अगर किसी के कान में भनक पड़ गई तो अच्छा नहीं होगा.’’

बात आईगई हो गई, पर कोई बात अगर मुख से निकल जाए तो किसी न किसी प्रकार किसी न किसी कान में पहुंच ही जाती है.

कुंआरी विधवा की बात सुन कर नृपेंद्रनाथ खूब बड़बड़ाए. कहने वाली को उलटीसीधी सुनाईं. पर वह सामने न थी. लेकिन उन की सनक पर इतना असर जरूर पड़ा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की शर्त को प्रांतीय प्रशासनिक सेवा में बदल दिया. बाकी शर्तें पूर्ववत ही रहीं.

फिलहाल किसी में इतना दम बाकी न था कि उन्हें समझा पाए कि फसल यदि समय से न बोई जाए और उगे पौधों को समय से पानी न दिया जाए तो अच्छी जुताई और भरपूर खाद देने के बावजूद फसल पर पीलापन छा जाता है. उपज मात्र भूसा रह जाती है. दानों के लिए तरसना पड़ता है.

सुनयना अब भी कुंआरी ही है. बाप की सनक उसे जला चुकी है. रहीसही कमी भी पूरी करती जा रही है.

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