family story in hindi

family story in hindi
हादसे जिंदगी के ढांचे को बदलने की कितनी ताकत रखते हैं, इस का सही अंदाजा उन की खबर पढ़नेसुनने वालों को कभी नहीं हो सकता.
एक सुबह पापा अच्छेखासे आफिस गए और फिर उन का मृत शरीर ही वापस लौटा. सिर्फ 47 साल की उम्र में दिल के दौरे से हुई उन की असामयिक मौत ने हम सब को बुरी तरह से हिला दिया.
‘‘मेरी घरगृहस्थी की नाव अब कैसे पार लगेगी?’’ इस सवाल से उपजी चिंता और डर के प्रभाव में मां दिनरात आंसू बहातीं.
‘‘मैं हूं ना, मां,’’ उन के आंसू पोंछ कर मैं बारबार उन का हौसला बढ़ाती, ‘‘पापा की सारी जिम्मेदारी मैं संभालूंगी. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’
मुकेश मामाजी ने हमें आश्वासन दिया, ‘‘मेरे होते हुए तुम लोगों को भविष्य की ज्यादा चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. संगीता ने बी.काम. कर लिया है. उस की नौकरी लगवाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’
मुझ से 2 साल छोटे मेरे भाई राजीव ने मेरा हाथ पकड़ कर वादा किया, ‘‘दीदी, आप खुद को कभी अकेली मत समझना. अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही मैं आप का सब से मजबूत सहारा बन जाऊंगा.’’
राजीव से 3 साल छोटी शिखा के आंखों से आंसू तो ज्यादा नहीं बहे पर वह सब से ज्यादा उदास, भयभीत और असुरक्षित नजर आ रही थी.
मोहित मेरा सहपाठी था. उस के साथ सारी जिंदगी गुजारने के सपने मैं पिछले 3 सालों से देख रही थी. इस कठिन समय में उस ने मेरा बहुत साथ दिया.
‘‘संगीता, तुम सब को ‘बेटा’ बन कर दिखा दो. हम दोनों मिल कर तुम्हारी जिम्मेदारियों का बोझ उठाएंगे. हमारा प्रेम तुम्हारी शक्ति बनेगा,’’ मोहित के ऐसे शब्दों ने इस कठिन समय का सामना करने की ताकत मेरे अंगअंग में भर दी थी.
परिवर्तन जिंदगी का नियम है और समय किसी के लिए नहीं रुकता. जिंदगी की चुनौतियों ने पापा की असामयिक मौत के सदमे से उबरने के लिए हम सभी को मजबूर कर दिया.
मामाजी ने भागदौड़ कर के मेरी नौकरी लगवा दी. मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया तो सब रिश्तेदारों व परिचितों ने बड़ी राहत की सांस ली. क्योंकि हमारी बिगड़ी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने वाला यह सब से महत्त्वपूर्ण कदम था.
‘‘मेरी गुडि़या का एम.बी.ए. करने का सपना अधूरा रह गया. तेरे पापा तुझे कितनी ऊंचाइयों पर देखना चाहते थे और आज इतनी छोटी सी नौकरी करने जा रही है मेरी बेटी,’’ पहले दिन मुझे घर से विदा करते हुए मां अचानक फूटफूट कर रो पड़ी थीं.
‘‘मां, एम.बी.ए. मैं बाद में भी कर सकती हूं. अभी मुझे राजीव और शिखा के भविष्य को संभालना है. तुम यों रोरो कर मेरा मनोबल कम न करो, प्लीज,’’ उन का माथा चूम कर मैं घर से बाहर आ गई, नहीं तो वह मेरे आंसुओं को देख कर और ज्यादा परेशान होतीं.
मोहित और मैं ने साथसाथ ग्रेजुएशन किया था. उस ने एम.बी.ए. में प्रवेश लिया तो मैं बहुत खुश हुई. अपने प्रेमी की सफलता में मैं अपनी सफलता देख रही थी. मन के किसी कोने में उठी टीस को मैं ने उदास सी मुसकान होंठों पर ला कर बहुत गहरा दफन कर दिया था.
पापा के समय 20 हजार रुपए हर महीने घर में आते थे. मेरी कमाई के 8 हजार में घर खर्च पूरा पड़ ही नहीं सकता था. फ्लैट की किस्त, राजीव व शिखा की फीस, मां की हमेशा बनी रहने वाली खांसी के इलाज का खर्च आर्थिक तंगी को और ज्यादा बढ़ाता.
‘‘अगर बैंक से यों ही हर महीने पैसे निकलते रहे तो कैसे कर पाऊंगी मैं दोनों बेटियों की इज्जत से शादियां? हमें अपने खर्चों में कटौती करनी ही पडे़गी,’’ मां का रातदिन का ऐसा रोना अच्छा तो नहीं लगता पर उन की बात ठीक ही थी.
फल, दूध, कपडे़, सब से पहले खरीदने कम किए गए. मौजमस्ती के नाम पर कोई खर्चा नहीं होता. मां ने काम वाली को हटा दिया. होस्टल में रह रहे राजीव का जेबखर्च कम हो गया.
इन कटौतियों का एक असर यह हुआ कि घर का हर सदस्य अजीब से तनाव का शिकार बना रहने लगा. आपस में कड़वा, तीखा बोलने की घटनाएं बढ़ गईं. कोई बदली परिस्थितियों के खिलाफ शिकायत करता, तो मां घंटों रोतीं. मेरा मन कभीकभी बेहद उदास हो कर निराशा का शिकार बन जाता.
‘‘हिम्मत मत छोड़ो, संगीता. वक्त जरूर बदलेगा और मैं तुम्हारे पास न भी रहूं, पर साथ तो हूं ना. तुम बेकार की टेंशन लेना छोड़ दो,’’ मोहित का यों समझाना कम से कम अस्थायी तौर पर तो मेरे अंदर जीने का नया जोश जरूर भर जाता.
अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में मैं जीजान से जुटी रही और परिवर्तन का नियम एकएक कर मेरी आशाओं को चकनाचूर करता चला गया.
बी.टेक. की डिगरी पाने के बाद राजीव को स्कालरशिप मिली और वह एम.टेक. करने के लिए विदेश चला गया.
‘‘संगीता दीदी, थोड़ा सा इंतजार और कर लो, बस. फिर धनदौलत की कमी नहीं रहेगी और मैं आप की सब जिम्मेदारियां, अपने कंधों पर ले लूंगा. अपना कैरियर बेहतर बनाने का यह मौका मैं चूकना नहीं चाहता हूं.’’
राजीव की खुशी में खुश होते हुए मैं ने उसे अमेरिका जाने की इजाजत दे दी थी.
राजीव के इस फैसले से मां की आंखों में चिंता के भाव और ज्यादा गहरे हो उठे. वह मेरी शादी फौरन करने की इच्छुक थीं. उम्र के 25 साल पूरे कर चुकी बेटी को वह ससुराल भेजना चाहती थीं.
मोहित ने राजीव को पीठपीछे काफी भलाबुरा कहा था, ‘‘उसे यहां अच्छी नौकरी मिल रही थी. वह लगन और मेहनत से काम करता, तो आजकल अच्छी कंपनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करती हैं. मुझे उस का स्वार्थीपन फूटी आंख नहीं भाया है.’’
मोहित के तेज गुस्से को शांत करने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी थी.
मां कभीकभी कहतीं कि मैं शादी कर लूं, पर यह मुझे स्वीकार नहीं था.
‘‘मां, तुम बीमार रहती हो. शिखा की कालिज की पढ़ाई अभी अधूरी है. यह सबकुछ भाग्य के भरोसे छोड़ कर मैं कैसे शादी कर सकती हूं?’’
मेरी इस दलील ने मां के मुंह पर तो ताला लगाया, पर उन की आंखों से बहने वाले आंसुओं को नहीं रोक पाई.
एम.बी.ए. करने के बाद मोहित को जल्दी ही नौकरी मिल गई थी. उस ने पहली नौकरी से 2 साल का अनुभव प्राप्त किया और इस अनुभव के बल पर उसे दूसरी नौकरी मुंबई में मिली.
अपने मातापिता का वह इकलौता बेटा था. उन्हें मैं पसंद थी, पर वह उस की शादी अब फौरन करने के इच्छुक थे.
‘‘मैं कैसे अभी शादी कर सकती हूं? अभी मेरी जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई हैं, मोहित. मेरे ससुराल जाने पर अकेली मां घर को संभाल नहीं पाएंगी,’’ बडे़ दुखी मन से मैं ने शादी करने से इनकार कर दिया था.
‘‘संगीता, कब होंगी तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी? कब कहोगी तुम शादी के लिए ‘हां’?’’ मेरा फैसला सुन कर मोहित नाराज हो उठा था.
‘‘राजीव के वापस लौटने के बाद हम….’’
‘‘वह वापस नहीं लौटेगा…कोई भी इंजीनियर नहीं लौटता,’’ मोहित ने मेरी बात को काट दिया, ‘‘तुम्हारी मां विदेश में जा कर बसने को तैयार होंगी नहीं. देखो, हम शादी कर लेते हैं. राजीव पर निर्भर रह कर तुम समझदारी नहीं दिखा रही हो. हम मिल कर तुम्हारी मां व छोटी बहन की जिम्मेदारी उठा लेंगे.’’
‘‘शादी के बाद मुझे मां और छोटी बहन को छोड़ कर तुम्हारे साथ मुंबई जाना पड़ेगा और यह कदम मैं फिलहाल नहीं उठा सकती हूं. मेरा भाई मुझे धोखा नहीं देगा. मोहित, तुम थोड़ा सा इंतजार और कर लो, प्लीज.’’
मोहित ने मुझे बहुत समझाया पर मैं ने अपना फैसला नहीं बदला. मां भी उस की तरफ से बोलीं, पर मैं शादी करने को तैयार नहीं हुई.
मोहित अकेला मुंबई गया. मुझे उस वक्त एहसास नहीं हुआ पर इस कदम के साथ ही हमारे प्रेम संबंध के टूटने का बीज पड़ गया था.
वक्त ने यह भी साबित कर दिया कि राजीव के बारे में मोहित की राय सही थी.
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने वहीं नौकरी कर ली. वह हम से मिलने भी आया, एक बड़ी रकम भी मां को दे कर गया, पर मेरी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर लेने को वह तैयार नहीं हुआ.
परिस्थितियों ने मुझे कठोर बना दिया था. मेरे आंसू न मोहित ने देखे न राजीव ने. इन का सहारा छिन जाने से मैं खुद को कितनी अकेली और टूटा हुआ महसूस कर रही थी, इस का एहसास मैं ने इन दोनों को जरा भी नहीं होने दिया था.
मां रातदिन शादी के लिए शोर मचातीं, पर मेरे अंदर शादी करने का सारा उत्साह मर गया था. कभी कोई रिश्ता मेरे लिए आ जाता तो मां का शोर मचाना मेरे लिए सिरदर्द बन जाता. फिर रिश्ते आने बंद हो गए और हम मांबेटी एकदूसरे से खिंचीखिंची सी खामोश रह साथसाथ समय गुजारतीं.
मैं 30 साल की हुई तब शिखा ने कंप्यूटर कोर्स कर के अच्छी नौकरी पा ली. शादी की सही उम्र तो उसी की थी. उस के लिए एक अच्छा रिश्ता आया तो मैं ने फौरन ‘हां’ कर दी.
राजीव ने उस की शादी का सारा खर्च उठाया. वह खुद भी शामिल हुआ. मां ने शिखा को विदा कर के बड़ी राहत महसूस की.
राजीव ने जाने से पहले मुझे बता दिया कि वह अपनी एक सहयोगी लड़की से विवाह करना चाहता है. शादी की तारीख 2 महीने बाद की थी.
उस ने हम दोनों की टिकटें बुक करवा दीं. पर मैं उस की शादी में शामिल होने अमेरिका नहीं गई.
मां अकेली अमेरिका गईं और कुछ सप्ताह बिता कर वापस लौटीं. वह ज्यादा खुश नहीं थीं क्योंकि बहू का व्यवहार उन के प्रति अच्छा नहीं रहा था.
‘‘मां, तुम और मैं एकदूसरे का ध्यान रख कर मजे से जिंदगी गुजारेंगे. तुम बेटे की खुदगर्जी की रातदिन चर्चा कर के अपना और मेरा दिमाग खराब करना बंद कर दो अब,’’ मेरे समझाने पर एक रात मां मुझ से लिपट कर खूब रोईं पर कमाल की बात यह है कि मेरी आंखों से एक बूंद आंसू नहीं टपका.
अब रुपएपैसे की मेरी जिंदगी में कोई कमी नहीं रही थी. मैं ने मां व अपनी सुविधा के लिए किस्तों पर कार भी ले ली. हम दोनों अच्छा खातेपहनते. मेरी शादी न होने के कारण मां अपना दुखदर्द लोगों को यदाकदा अब भी सुना देतीं. मैं सब को हंसतीमुसकराती नजर आती, पर सिर्फ मैं ही जानती थी कि मेरी जिंदगी कितनी नीरस और उबाऊ हो कर मशीनी अंदाज में आगे खिसक रही थी.
‘संगीता, तू किसी विधुर से…किसी तलाकशुदा आदमी से ही शादी कर ले न. मैं नहीं रहूंगी, तब तेरी जिंदगी अकेले कैसे कटेगी?’ मां ने एक रात आंखों में आंसू भर कर मुझ से पुराना सवाल फिर पूछा था.
‘जिंदगी हर हाल में कट ही जाती है, मां. मैं जब खुश और संतुष्ट हूं तो तुम क्यों मेरी चिंता कर के दुखी होती हो? अब स्वीकार कर लो कि तुम्हारी बड़ी बेटी कुंआरी ही मरेगी,’ मैं ने मुसकराते हुए उन का दुखदर्द हलका करना चाहा था.
‘तेरे पिता की असामयिक मौत ने मुझे विधवा बनाया और तुझे उन की जिम्मेदारी निभाने की यह सजा मिली कि तू बिना शादी किए ही विधवा सी जिंदगी जीने को मजबूर है,’ मां फिर खूब रोईं और मेरी आंखें उस रात भी सूनी रही थीं.
अपने भाई, छोटी बहन व पुराने प्रेमी की जिंदगियों में क्या घट रहा है, यह सब जानने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रही थी. अतीत की बहुत कुछ गलीसड़ी यादें मेरे अंदर दबी जरूर पड़ी थीं, पर उन के कारण मैं कभी दुखी नहीं होती थी.
मेरी समस्या यह थी कि अपना वर्तमान नीरस व अर्थहीन लगता और भविष्य को ले कर मेरे मन में किसी तरह की आशा या उत्साह कतई नहीं बचा था. मैं सचमुच एक मशीन बन कर रह गई थी.
जिंदगी में समय के साथ बदलाव आना तो अनिवार्य ही है. मेरी जिंदगी की गुणवत्ता भी कपूर साहब के कारण बदली.
कपूर साहब आफिस में मेरे सीनियर थे. अपने काम में वह बेहद कुशल व स्वभाव के अच्छे थे. एक शाम बरसात के कारण मुझ से अपनी चार्टर्ड बस छूट गई तो उन्होंने अपनी कार से मुझे घर तक की ‘लिफ्ट’ दी थी. वह चाय पीने के लिए मेरे आग्रह पर घर के अंदर भी आए. मां से उन्होंने ढेर सारी बातें कीं. हम मांबेटी दोनों के दिलों पर अच्छा प्रभाव छोड़ने के बाद ही उन्होंने उस शाम विदा ली थी.
अगले सप्ताह ऐसा इत्तफाक हुआ कि हम दोनों साथसाथ आफिस की इमारत से बाहर आए. जरा सी नानुकुर के बाद मैं उन के साथ कार में घर लौटने को राजी हो गई.
‘‘कौफी पी कर घर चलेंगे,’’ मुझ से पूछे बिना उन्होंने एक लोकप्रिय रेस्तरां के सामने कार रोक दी थी.
हम ने कौफी के साथसाथ खूब खायापिया भी. एक लंबे समय के बाद मैं खूब खुल कर हंसीबोली भी.
उस रात मैं इस एहसास के साथ सोई कि आज का दिन बहुत अच्छा बीता. मन बहुत खुश था और यह चाह बलवती थी कि ऐसे अच्छे दिन मेरी जिंदगी में आते रहने चाहिए.
मेरी यह इच्छा पूरी भी हुई. कपूर साहब और मेरी उम्र में काफी अंतर था. इस के बावजूद मेरे लिए वह अच्छे साबित हो रहे थे. सप्ताह में 1-2 बार हम जरूर छोटीमोटी खरीदारी के लिए या खानेपीने को घूमने जाते. वह मेरे घर पर भी आ जाते. मां की उन से अच्छी पटती थी. मैं खुद को उन की कंपनी में काफी सुरक्षित व प्रसन्न पाती. मेरे भीतर जीने का उत्साह फिर पैदा करने में वह पूरी तरह से सफल रहे थे.
फिर एक शाम सबकुछ गड़बड़ हो गया. वह पहली बार मुझे अपने फ्लैट में उस शाम ले कर गए जब उन की पत्नी दोनों बच्चों समेत मायके गई हुई थीं.
उन्हें ताला खोलते देख मैं हैरान तो हुई थी, पर खतरे वाली कोई बात नहीं हुई. उन की नीयत खराब है, इस का एहसास मुझे कभी नहीं हुआ था.
फ्लैट के अंदर उन्होंने मेरे साथ अचानक जोरजबरदस्ती करनी शुरू की, तो मुझे जोर का सदमा लगा.
मैं ने शोर मचाने की धमकी दी, तो वह गुस्से से बिफर कर गुर्राए, ‘‘इतने दिनोें से मेरे पैसों पर ऐश कर रही हो, तो अब सतीसावित्री बनने का नाटक क्यों करती हो? कोई मैं पागल बेवकूफ हूं जो तुम पर यों ही खर्चा कर रहा था.’’
उन से निबटना मेरे लिए कठिन नहीं था, पर अकेली घर पहुंचने तक मैं आटोरिकशा में लगातार आंसू बहाती रही.
घर पहुंच कर भी मेरा आंसू बहाना जारी रहा. मां ने बारबार मुझ से रोने का कारण पूछा, पर मैं उन्हें क्या बताती.
रात को मुझे नींद नहीं आई. रहरह कर कपूर साहब का डायलाग कानों में गूंजता, ‘…अब सतीसावित्री बनने का नाटक क्यों करती हो? कोई मैं पागल, बेवकूफ हूं जो तुम पर यों ही खर्चा कर रहा था.’
यह सच है कि उन के साथ मेरा वक्त बड़ा अच्छा गुजरा था. अपनी जिंदगी में आए इस बदलाव से मैं बहुत खुश थी, पर अब अजीब सी शर्मिंदगी व अपमान के भाव ने मन में पैदा हो कर सारा स्वाद किरकिरा कर दिया था.
रात भर मैं तकिया अपने आंसुओं से भिगोती रही. अगले दिन रविवार होने के कारण मैं देर तक सोई.
जब आंखें खुलीं तो उम्मीद के खिलाफ मैं ने खुद को सहज व हलका पाया. मन ने इस स्थिति का विश्लेषण किया तो जल्दी ही कारण भी समझ में आ गया.
नींद आने से पहले मेरे मन ने निर्णय लिया था, ‘मैं अब खुश रह कर जीना चाहती हूं और जिऊंगी भी. यह नेक काम मैं अब अपने बलबूते पर करूंगी. किसी कपूर साहब, राजीव या मोहित पर निर्भर नहीं रहना है मुझे.’
‘परिस्थितियों के आगे घुटने टेक कर…अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले दब कर मेरी जीवनधारा अवरुद्ध हो गई थी, पर अब ऐसी स्थिति फिर नहीं बनेगी.’
‘मेरी जिंदगी मुझे जीने के लिए मिली है. दूसरों की जिंदगी सजानेसंवारने के चक्कर में अपनी जिंदगी को जीना भूल जाना मेरी भूल थी. कपूर साहब मेरी जिस नासमझी के कारण गलतफहमी का शिकार हुए हैं, उसे मैं कभी नहीं दोहराऊंगी. जिंदगी का गहराई से आनंद लेने से मुझे अब न अतीत की यादें रोक पाएंगी, न भविष्य की चिंताएं.’
अपने अंतर्मन में इन्हीं विचारों को गहराई से प्रवेश दिला कर मैं नींद के आगोश में पहुंची थी.
अपनी भावदशा में आए सुखद बदलाव का कारण मैं इन्हीं सकारात्मक विचारों को मान रही थी.
कुछ दिन बाद मेरे एक दूसरे सहयोगी नीरज ने मुझ से किसी बात पर शर्त लगाने की कोशिश की. मैं जानबूझ कर वह शर्त हारी और उसे बढि़या होटल में डिनर करवाया.
इस के 2 दिन बाद मैं चोपड़ा और उस की पत्नी के साथ फिल्म देखने गई. अपने इन दोनों सहयोगियों के टिकट मैं ने ही खरीदे थे.
पड़ोस में रहने वाले माथुर साहब मुझे मार्किट में अचानक मिले, तो उन्हें साथसाथ कुल्फी खाने की दावत मैं ने ही दी और जिद कर के पैसे भी मैं ने ही दिए.
मैं ने अपनी रुकी हुई जीवनधारा को फिर से गतिमान करने के लिए जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिए थे.
कपूर साहब की तरह मैं किसी दूसरे पुरुष को गलतफहमी का शिकार नहीं बनने देना चाहती थी.
इस में कोई शक नहीं कि मेरी जिंदगी में हंसीखुशी की बहार लौट आई थी. अपनों से मिले जख्मों को मैं ने भुला दिया था. उदासी और निराशा का कवच टूट चुका था.
हंसतेमुसकराते और यात्रा का आनंद लेते हुए मैं जिंदगी की राह पर आगे बढ़ चली थी. मेरा जिंदगी भर साथ निभाने को कभी कोई हमराही मिल गया, तो ठीक, नहीं तो उस के इंतजार में रुक कर अपने अंदर शिकायत या कड़वाहट पैदा करने की फुर्सत मुझे बिलकुल नहीं थी.
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गुरमीत पाटनकर के 30 साल के लंबे सेवाकाल में ऐसा पेचीदा मामला शायद पहली दफा सामने आया था. इस बहुराष्ट्रीय कंपनी में पिछले वर्ष पीआरओ पद पर जौइन करने वाली रिया ने अपनी 6 वर्ष की बच्ची के लिए कंपनी द्वारा शिक्षण संबंधित व्यय के पुनर्भरण के लिए प्रस्तुत आवेदन में बच्ची के पिता के नाम का कौलम खाली छोड़ा था. अभिभावक के नाम की जगह उसी का नाम और हस्ताक्षर थे. उन्होंने जब रिया को अपने कमरे में बुला कर बच्ची के पिता के नाम के बारे में पूछा तो वह भड़क कर बोली थी, ‘‘इफ क्वोटिंग औफ फादर्स नेम इज मैंडेटरी, प्लीज गिव मी बैक माइ एप्लीकेशन. आई डोंट नीड एनी मर्सी.’’ और बिफरती हुई चली गई थी. पाटनकर सोच रहे थे, अगर इस अधूरी जानकारी वाले आवेदनपत्र को स्वीकृत करते हैं तो वह (रिया) भविष्य में विधिक कठिनाइयां पैदा कर सकती है और अस्वीकृत कर देते हैं तो आजकल चलन हो गया है कि कामकाजी महिलाएं किसी भी दशा में उन के प्रतिकूल हुए किसी भी फैसले को उन के प्रति अधिकारी के पूर्वाग्रह का आरोप लगा देती हैं.
अकसर वे किसी पीत पत्रकार से संपर्क कर के ऐसे प्रकरणों का अधिकारी द्वारा महिला के शारीरिक शोषण के प्रयास का चटपटा मसालेदार समाचार बना कर प्रकाशितप्रसारित कर के अधिकारी की पद प्रतिष्ठा, सामाजिक सम्मान का कचूमर निकाल देती हैं. रिया भी ऐसा कर सकती है. आखिर 2 हजार रुपए महीने की अनुग्रह राशि का मामला है. टैलीफोन की घंटी बजने से उन की तंद्रा भंग हुई. उन्होंने फोन उठाया, मगर फोन सुनते ही वे और भी उद्विग्न हो उठे. फोन उन की पत्नी का था. वह बेहद घबराई हुई लग रही थी और उन से फौरन घर पहुंचने के लिए कह रही थी.
घर पहुंच कर उन्होंने जो दृश्य देखा तो सन्न रह गए. रिया भी उन के ही घर पर थी और भारी डिप्रैशन जैसी स्थिति में थी. कुछ अधिकारियों की पत्नियां उसे संभाल रही थीं, दिलासा दे रही थीं, मगर उसे रहरह कर दौरे पड़ रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन की पत्नी उन्हें यह बता पाई कि उस की 6 वर्षीय बच्ची आज सुबह स्कूल गई थी. लंचटाइम में वह पता नहीं कैसे सिक्योरिटी के लोगों की नजर बचा कर स्कूल से कहीं चली गई. उस के स्कूल से चले जाने का पता लंच समाप्त होने के आधे घंटे बाद अगले पीरियड में लगा. क्लासटीचर ने उस को क्लास में न पा कर उस की कौपी वगैरह की तलाशी ली. एक कौपी में लिखा था, ‘मैं अपने पापा को ढूंढ़ने जाना चाहती हूं. मम्मी कभी पापा के बारे में नहीं बतातीं. ज्यादा पूछने पर डांट देती हैं. कल तो मम्मी ने मुझे चांटा मारा था. मैं पापा को ढूंढ़ने जा रही हूं. मेरी मम्मी को मत बताना, प्लीज.’
स्कूल प्रशासन ने फौरन बच्ची की डायरी से अभिभावकों के टैलीफोन नंबर देख कर इस की सूचना रिया को दे दी और स्कूल से बच्ची के गायब होने की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करा दी. सभी स्तब्ध थे यह सोचते हुए कि क्या किया जाए. तभी कालोनी कैंपस में एक जीप रुकी. जीप में से एक पुलिस इंस्पैक्टर और कुछ सिपाही उतरे और पाटनकर के बंगले पर भीड़भाड़ देख कर उस तरफ बढ़े. पाटनकर खुद चल कर उन के पास गए और उन के आने का कारण पूछा. इंस्पैक्टर ने बताया कि स्कूल वालों ने जिस हुलिए की बच्ची के गायब होने की रिपोर्ट लिखाई है उसी कदकाठी की एक लड़की किसी अज्ञात वाहन की टक्कर से घायल हो गई. जिसे अस्पताल में भरती करा कर वे बच्ची की मां और कंपनी के कुछ लोगों को बतौर गवाह साथ ले जाने के लिए आए हैं.
इंस्पैक्टर का बयान सुन कर रिया तो मिसेज पाटनकर की गोदी में ही लुढ़क गई तो वे इंस्पैक्टर से बोलीं, ‘‘देखिए, आप बच्ची की मां की हालत देख रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि वह इस हालत में कोई मदद कर पाएगी. हम सभी इसी कालोनी के हैं और वह बच्ची स्कूल से आने के बाद इस की मां के औफिस से लौटने तक मेरे पास रहती है इसलिए मैं चलती हूं आप के साथ.’’ अब तक कंपनी के अस्पताल की एंबुलैंस भी मंगा ली गई थी. इसलिए कुछ महिलाएं अचेत रिया को ले कर एंबुलैंस में सवार हुईं और 2-3 महिलाएं मिसेज पाटनकर के साथ पुलिस की जीप में बैठ गईं. अस्पताल पहुंचते ही शायद मातृत्व के तीव्र आवेग से रिया की चेतना लौट आई. वह जोर से चीखी, ‘‘कहां है मेरी बच्ची, क्या हुआ है मेरी बच्ची को, मुझे जल्दी दिखाओ. अगर मेरी बच्ची को कुछ हो गया तो मैं किसी को छोड़ूंगी नहीं, और मिसेज पाटनकर, तुम तो दादी बनी थीं न पिऊ की,’’ कहतेकहते वह फिर अचेत हो गई.
बच्ची के पलंग के पास पहुंचते ही मिसेज पाटनकर और कालोनी की अन्य महिलाओं ने पट्टियों में लिपटी बच्ची को पहचान लिया. वह रिया की बेटी पिऊ ही थी. बच्ची की स्थिति संतोषजनक नहीं थी. वह डिलीरियम की स्थिति में बारबार बड़बड़ाती थी, ‘मुझे मेरे पापा को ढूंढ़ने जाना है, मुझे जाने दो, प्लीज. मम्मी मुझे पापा के बारे में क्यों नहीं बतातीं, सब बच्चे मेरे पापा के बारे में पूछते हैं, मैं क्या बताऊं. कल मम्मी ने मुझे क्यों मारा था, दादी, आप बताओ न…’ कहतेकहते अचेत हो जाती थी. बच्ची की शिनाख्त होते ही पुलिस इंस्पैक्टर ने मिसेज पाटनकर को बच्ची की दादी मान कर उस के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले वे दोपहर को महिला कल्याण समिति की बैठक में जाने के लिए निकली थीं. तभी रिया की बच्ची, जो अपनी आया से बचने के लिए अंधाधुंध दौड़ रही थी, उन से टकरा गई थी. बच्ची ने उन से टकराते ही उन की साड़ी को जोर से पकड़ कर कहा था, ‘आंटी, मुझे बचा लो, प्लीज. आया मुझे बाथरूम में बंद कर के अंदर कौकरोच छोड़ देगी.’
बच्ची की पुकार की आर्द्रता उन्हें अंदर तक भिगो गई थी. इसलिए उन्होंने आया को रुकने के लिए कहा और बच्ची से पूछा, ‘क्या बात है?’ तो जवाब आया ने दिया था कि यह स्कूल में किसी बच्चे के लंचबौक्स में से आलू का परांठा अचार से खा कर आई है और घर पर भी वही खाने की जिद कर रही है. मेमसाब ने इसे दोपहर के खाने में सिर्फ बर्गर और ब्रैड स्लाइस या नूडल्स देने को कहा है. यह बेहद जिद्दी है. उसे बहुत तंग कर रही है, इस ने खाना उठा कर फेंक दिया है, इसलिए वह इसे यों ही डरा रही थी. मगर बच्ची उन की साड़ी पकड़ कर उन से इस तरह चिपकी थी कि आया ज्यों ही उस की तरफ बढ़ी वह उन से और भी जोर से चिपक कर बोली, ‘आंटी प्लीज, बचा लो,’ और उन की साड़ी में मुंह छिपा कर सिसक उठी तो उन्होंने आया को कह दिया, ‘बच्ची को वे ले जा रही हैं, तुम लौट जाओ.’
कालोनी में उन की प्रतिष्ठा और व्यवहार से आया वाकिफ थी, इसलिए ‘मेमसाब को आप ही संभालना’, कह कर चली गई थी. उन्होंने मीटिंग में जाना रद्द कर दिया और अपने घर लौट पड़ी थीं. घर आने तक बच्ची उन की साड़ी पकड़े रही थी. पता नहीं कैसे बच्ची का हाथ थाम कर घर की तरफ चलते हुए वे हर कदम पर बच्ची के साथ कहीं अंदर से जुड़ती चली गई थीं. घर आ कर उन्होंने बच्ची के लिए आलू का परांठा बनाया और उसे अचार से खिला दिया. परांठा खाने के बाद बच्ची ने बड़े भोलेपन से उन से पूछा था, ‘आंटी, आप ने आया से तो बचा लिया, आप मम्मी से भी बचा लोगी न?’
मासूम बच्ची के मुंह से यह सुन कर उन के अंदर प्रौढ़ मातृत्व का सोता फूट निकला था कि उन्होंने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर बोलीं, ‘हां, जरूर, मगर एक शर्त है.’
‘क्या?’ बच्ची ने थोड़ा असमंजस से पूछा. जैसे वह हर समझौता करने को तैयार थी.
‘तुम मुझे आंटी नहीं, दादी कहोगी, कहोगी न?’
बच्ची ने उन्हें एक बार संशय की नजर से देखा फिर बोली, ‘दादी, आप जैसी होती है क्या? उस के तो बाल सफेद होते हैं, मुंह पर बहुत सारी लाइंस होती हैं. वह तो हाथ में लाठी रखती है. आप तो…’
‘हां, दादी वैसी भी होती है और मेरी जैसी भी होती है, इसलिए तुम मुझे दादी कहोगी. कहोगी न?’
‘हां, अगर आप कह रही हैं तो मैं आप को दादी कहूंगी,’ कह कर बच्ची उन से चिपट गई थी.
उस दिन शाम को जब रिया औफिस से लौटी तो आया द्वारा दी गई रिपोर्ट से उद्विग्न थी, मगर एक तो मिस्टर पाटनकर औफिस में उस के अधिकारी थे, दूसरे, कालोनी में मिसेज पाटनकर की सामाजिक प्रतिष्ठा थी, इसलिए विनम्रतापूर्वक बोली, ‘मैडम, यह आया बड़ी मुश्किल से मिली है. इस शैतान ने आप को पूरे दिन कितना परेशान किया होगा, मैं जानती हूं और आप से क्षमा चाहती हूं. आप आगे से इस का फेवर न करें.’ इस पर उन्होंने बड़ी सरलता से कहा था, ‘रिया, तुम्हें पता नहीं है, हमारी इस बच्ची की उम्र की एक पोती है. हमारा बेटा यूएसए में है इसलिए मुझे इस बच्ची से कोई तकलीफ नहीं हुई. हां, अगर तुम्हें कोई असुविधा हो तो बता दो.
अचानक गाड़ी को ब्रेक लगा तो उस ने देखा वह लखनऊ के अपने उसी बरसों पुराने महल्ले में खड़ी है.
‘‘चलो मां, अपना पुराना महल्ला आ गया.’’
‘‘हां, राजू, चलती हूं,’’ दो पल को मालती ठगी सी खड़ी रह गई. उस की आंखों के समक्ष यहां बीते हुए सभी पल साकार हो रहे थे.
सुधीर के साथ इस महल्ले के छोटे से कमरे से जीवन की शुरुआत करने से ले कर, नया घर बना कर यह जगह छोड़ कर जाने तक के सभी क्षण एकाएक उस की आंखों के आगे घूम गए. पर यहां आज भी कुछ नहीं बदला. आज भी यहां छोटेछोटे पुराने मकान उसी दृढ़ता के साथ खड़े दिखाई दे रहे थे.
एक ही शहर में रहते हुए भी यह जगह उस से कितनी दूर हो गई थी.
उसे देखते ही सरोज ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘अरे, मालती बहन. कितनी खुशी हो रही है तुम्हें देख कर, बता नहीं सकती.’’
भावातिरेक से मालती की आंखें भर आईं. शब्द उस के मुंह में ही अटक कर रह गए. तभी पड़ोस के घर से पुनीत की मां भी आ गई.
‘‘अरे, राजीव की मां, तुम. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. आज तुम इधर का रास्ता कैसे भूल गईं.’’
‘‘ऐसा न कहो बहन. तुम लोगों को भला कैसे भूल सकती हूं. हर पल तुम सभी को याद करती हूं. जब रहा नहीं गया तो मिलने चली आई.’’
फिर उस के बाद तो जो बातों का सिलसिला चला तो समय का पता ही नहीं चला. तीनों सहेलियां अपने बीते दिनों को याद कर के खुश होती रहीं.
राजीव ने कहा, ‘‘मां, अब चलें,’’
मालती को ध्यान आया, अरे, उसे तो वापस जाना है.
वहां से चली तो राजीव ने पूछा, ‘‘मां, कुछ खाओगी?’’
‘‘अरे नहीं राजू,’’ सकुचाते हुए मालती बोली.
‘‘नहीं क्यों, क्या तुम्हें याद नहीं पापा के साथ हम दोनों तिवारी के यहां अकसर शाम को चाट खाने आया करते थे? तुम्हें तो वैसे भी गणेशगंज के तिवारी के दहीबड़े बहुत पसंद थे. फिर आज क्यों मना कर रही हो?’’
‘‘मैं इतनी बड़ी, भला क्या बाजार में खाती अच्छी लगूंगी?’’
‘‘अरे, इतने दिनों बाद गणेशगंज आई हो तो दहीबड़े तो तुम्हें खाने ही पड़ेंगे. दहीबड़ों को थोड़े ही मालूम है कि मेरी मां खुद को बूढ़ा समझने लगी हैं,’’ कह कर राजीव हंस दिया.
उस की बात सुन कर मालती को भी हंसी आ गई. आखिर मालती को कहना पड़ा, ‘‘ठीक है, तेरा मन है तो चल, खिला दे.’’
समय के साथ यहां भी बहुत कुछ बदल गया है. पहले जहां ठेला हुआ करता था, आज वहां बढि़या दुकान है परंतु स्वाद आज भी वही है. उसे याद आया यहां सुधीर और राजीव के साथ वह हमेशा आया करती थीं पर आज पहली बार सुधीर साथ नहीं हैं. सोच कर मालती की आंखें नम हो आईं.
घर पहुंचतेपहुंचते काफी अंधेरा घिर आया. कपड़े बदल कर मालती रसोई की ओर चल दी तो राजीव ने कहा, ‘‘मां, अब खाने के लिए कुछ मत करना. मेरा तो पेट भरा है.’’
‘‘थोड़ा कुछ तो बना दूं.’’
‘‘नहींनहीं, तुम चाहो तो अपने लिए कुछ बना लो.’’
‘‘अरे, मुझ से अब कहां खाया जाएगा. वहां सरोज ने इतना नाश्ता करा दिया फिर तू ने भी खिला दिया.’’
‘‘ठीक है, अब तुम आराम से सो जाओ. थक गई होंगी.’’
मालती सच में थक गई थी. वह लाइट बंद कर बिस्तर पर लेट गई. परंतु आज शरीर थका होने पर भी मन बहुत प्रसन्न है. कितने दिनों बाद, चाहे कुछ समय के लिए ही सही, उसे अपना जीवन जीने का अवसर तो मिला.
तभी कुछ देर बाद दरवाजे पर आहट सुन उस ने देखा तो राजीव की आवाज सुनाई दी, ‘‘मां, सो गईं क्या?’’
‘‘नहीं तो, ऐसे ही लेटी थी. आ, अंदर आ, बत्ती जला ले.’’
‘‘नहीं, रहने दो, एक बार लेटने के बाद तुम्हें लाइट अच्छी नहीं लगती न. वैसे भी कुछ काम नहीं था, ऐसे ही आ गया. तुम थकी होगी न,’’ कह कर राजीव पलंग पर उस के पैरों के पास आ कर बैठ गया.
‘‘तो क्या हुआ? थकी तो हूं, पर साथ ही आज मैं बहुत खुश हूं. तू ने मेरी बहुत दिनों की इच्छा पूरी कर दी. न जाने कब से वहां जा कर उन सब से मिलना चाह रही थी. इसीलिए सच कहूं तो थकान महसूस ही नहीं हो रही.’’
‘‘सच ही तो है मां, वहां जा कर आज मुझे भी बहुत अच्छा लगा. पुराने लोगों में जो अपनापन और प्रेम है वह आज ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलता. लेकिन अपनी व्यस्तताओं के कारण हम अपने ही दायरे में सीमित हो कर रह जाते हैं.’’
‘‘ऐसा होता है, राजू.’’
‘‘लेकिन मां, ऐसा क्यों होता है कि हमारे अपनों को ही, जिन से हम बहुत प्रेम करते हैं, अपनी व्यस्तताओं के कारण समय नहीं दे पाते?’’
आज राजीव मां से अपने मन में उठी हर जिज्ञासा का समाधान चाह रहा था.
मालती ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ, राजू? असली चीज है मनुष्य का मन. यदि मन में प्रेम और अपनापन है तो जरूरी नहीं कि उस को हर समय व्यक्त किया जाए.’’
‘‘मां…’’ बोलतेबोलते राजीव अटक सा गया. मालती अंधेरा होने के बाद भी अपने बेटे के मुख के भावों को स्पष्ट देख पा रही थी. वह समझ रही थी कि राजीव क्या कहना चाह रहा है. ऋचा का मालती के प्रति रूखा व्यवहार राजीव से छिपा नहीं है. परंतु यह भी तो सच है कि स्वयं उसी ने तो बेटे को प्रारंभ से ही संस्कार दिए थे कि किसी भी प्रकार के तनावपूर्ण वातावरण को दूर करने के लिए यदि थोड़ा सहन भी करना पड़े तो कर लेना चाहिए.
बेटे की बात से वह इतना तो समझ गई कि ऋचा ने लाख प्रयत्न किया हो लेकिन आज भी राजीव के मन से मां के प्रति स्नेह को वह कम नहीं कर पाई है. अपने बेटे की लाचारी देख कर मालती का मन भर आया. उस ने राजीव के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अब जा कर सो जा. सुबह ऋचा को लेने भी तो जाना है.’’
‘‘मां…कोई कितना भी प्रयत्न कर ले लेकिन तुम्हारे राजू को तुम्हारे लिए कभी राजीव नहीं बना पाएगा?’’
यह कह कर राजीव कमरे से बाहर चला गया. घर में मां के साथ जो व्यवहार हो रहा है शायद उसी कारण मां से आंखें मिलाने का साहस नहीं रह गया है उस में. पर उस की विवशता को मां उस का बदलाव न समझें, यह बात बहुत कुछ न कह कर थोड़े में ही कह गया वह.
राजीव के जाने के बाद मालती लेटी तो उस ने देखा कि उस की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है. पर ये आंसू किसी दुख या लाचारी के नहीं अपितु अपने बेटे को पाने के हैं जिसे वह अपने से दूर जान कर दुखी रहती थी. आज उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है. ऋचा के प्रति मन में जो भी आक्रोश है वह राजीव से बात करने पर पल में धुल गया.
रमाकांत की सारी बात सुन डाक्टर सतीश धवन कुछ पलों के लिए सोच में पड़ गया और फिर बोला, ‘‘शारदा भाभी कहां तक पढ़ी हैं?’’
‘‘जहां तक मैं जानता हूं 12वीं से ज्यादा नहीं,’’ रमाकांत ने कहा.
‘‘आजकल डीएनए वाली
बात तो हरकोई जानता है. जगहजगह आईवीएफ के बोर्ड लगे हैं. सैरोगेट मदर का भी नाम उछलता रहता है,’’ डाक्टर सतीश ने गंभीरता से कहा.
‘‘जब आप के घर के अंदर व्हाट्सएप जैसा शुरू हो तो आप उन चीजों के बारे में भी आसानी से जान जाते हैं जोकि देखने में आप से बहुत दूर होता है और फिर वह पंडित रामकुमार तिवारी भी तो है जो लैब का कार्ड ले गया.’’ रमाकांत ने कहा तो वह व्हाट्सएप और पंडितों के जरिए मिला ज्ञान है. तब समस्या कोई बड़ी नहीं, तुम कल ही शारदा और खुशबू को ले कर वहां आ जाना. बाकी मैं देख लूंगा. सतीश ने कहा.
अगले दिन रमाकांत ने शारदा को खुद तैयार होने
और खुशबू को भी तैयार करने
को कहा.
‘‘कहां चलना है?’’ शारदा
ने पूछा.
इस पर रमाकांत ने फुसफुसाती हुई आवाज में कहा, ‘‘डाक्टर सतीश के कहां.’’
‘‘किसलिए?’’ शारदा ने पूछा.
‘‘तुम खुशबू को ले कर जो डीएनए टैस्ट करवाने की बात कर रही थी न, उसी के सिलसिले में,’’ रकामांत ने कहा.
रमाकांत के शब्द सुन कर शारदा एकाएक सकते में आ गईं. बोलीं, ‘‘इतनी अचानक ये सब? तुम ने मु झे इस के बारे में पहले कुछ बताया भी नहीं?’’
‘‘मैं ने कल ही डाक्टर सतीश से इस बारे में बात की थी. मैं तुम को बतलाना भूल गया था. डाक्टर सतीश हम तीनों के शरीर में से कुछ चीजों के नमूने ले कर बाहर किसी ऐसे शहर भेजेगा जहां किसी प्रयोगशाला में डीएनए टैस्ट की व्यवस्था होगी. रिपोर्ट के आने में 8-10 दिन का वक्त लगेगा.’’
कशमकश में नजर आ रही शारदा खामोश रहीं. जब सच का सामना करने की स्थिति पास आ कर खड़ी हो गई तो शारदा के अंदर एक दूसरी ही तरह का द्वंद्व शुरू हो गया था.
खुशबू और शारदा को साथ ले कर रमाकांत सुबह 11 बजे डाक्टर सतीश धवन के क्लीनिक पहुंच गए. डाक्टर धवन की लैब उस के क्लीनिक के ही एक हिस्से में थी.
डीएनए टैस्ट के नाम पर एक ड्रामा ही तो करना था, सब से पहले डाक्टर सतीश रमाकांत को साथ ले कर लैब के अंदर गया. लैब के अंदर डाक्टर सतीश ने रमाकांत के साथ बैठ आराम के साथ 5-7 मिनट तक गपशप की और फिर दिखावे के लिए उस ने रमाकांत के अंगूठे और कलाई पर पट्टी चिपका उन्हें लैब से बाहर भेज दिया.
लैब से बाहर आ कर रमाकांत ने तनाव में दिख रही शारदा को अंदर भेज दिया. ये सब देख मासूम खुशबू काफी डरी नजर आ रही थी. वह कुछ भी सम झने में असमर्थ थी.
सारे ड्रामे को असली रूप देने के लिए डाक्टर सतीश ने शारदा के साथ सबकुछ असली ही किया. शरीर के 1-2 हिस्सों में से खून ले कर उसे कांच की टैस्ट प्लूबों में डाला.
डाक्टर सतीश कोई भी ऐसा काम करना नहीं चाहता था जिस से शारदा के मन में जरा सा भी कोई शक पैदा हो.
वास्तविकता यह थी कि शारदा के खून के नमूनों की न तो सतीश खुद ही कोई जांच करने वाला था और न ही कहीं भेजने वाला था. खुशबू को ले कर शारदा के मन में बने संशय और दुविधा को दूर करने के लिए उस को यह विश्वास दिलाना जरूरी था कि खुशबू को ले कर वास्तव में ही कोई डीएनए टैस्ट होने वाला है.
शारदा के बाद डाक्टर सतीश डरी, घबराई खुशबू को लैब के अंदर ले गया.
शक की गुंजाइश कोई न रहे इस बात का खयाल कर के न चाहते हुए भी डाक्टर सतीश को उस के हाथ की एक उंगली में सूई चुभो कर खून निकालना पड़ा.
जब शारदा और खुशबू को ले कर रमाकांत डाक्टर सतीश से वापस आने लगे तो डाक्टर सतीश ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वह मेरे पेशे के साथ सरासर बेईमानी है.’’
‘‘किसी अच्छे काम के लिए की जाने वाली बेईमानी, बेईमानी नहीं होती,’’ रमाकांत ने जवाब में कहा.
शारदा जैसी औरतों के जटिल मनोविज्ञान को सम झना वास्तव में ही बड़ा कठिन होता है.
डाक्टर सतीश धवन के यहां से आने के बाद रमाकांत ने शारदा में फिर एक परिवर्तन देखा. उन्होंने देखा कि पिछले कुछ दिनों से खुशबू के प्रति बेरुखी दिखा रही शारदा एक बार फिर से उस के लिए प्रेम दिखाने लगी है. खुशबू के प्रति उस का लगाव पहले से अधिक बढ़ गया था.
यह देख रमाकांत भी हैरान थे. रमाकांत यह भी महसूस कर रहे थे कि डाक्टर सतीश के वहां से आने के बाद शारदा पहले से भी अधिक बेचैन और कशमकश में है.
वैसे शारदा को इस बात का कोई इल्म नहीं था कि खुशबू के डीएनए टैस्ट के नाम पर डाक्टर सतीश ने जो कुछ भी किया वह केवल एक नौटंकी था. शारदा के मन से खुशबू को ले कर जो सुविधा और वहम था उसे निकालने के लिए डीएनए टैस्ट की झूठमूठ की रिपोर्ट डाक्टर सतीश ने ही तैयार करनी थी.
शारदा इतनी पढ़ीलिखी नहीं थी कि इस झूठ को असानी से पकड़ पाती. डीएनए की बात करने वाली शारदा उस की एबीसी भी नहीं जानती थी. वैसे रमाकांत को यह भी विश्वास था कि डीएनए वाली बात का जिक्र शारदा किसी दूसरे से नहीं करेगी. जब उस ने पंडित रामकुमार तिवारी को डीएनए टैस्ट दूसरी लैब से कराने की बात कही तो वे बेचैन हो उठे थे. कल आऊंगा कह कर चलते बने थे पर आए नहीं.
8-10 दिन बीत गए. इस बीच एक बार भी शारदा ने डीएनए टैस्ट की रिपोर्ट का जिक्र रमाकांत से नहीं किया. ऐसा लगता जैसे उस की रिपोर्ट में कोई दिलचस्पी ही नहीं रही.
रमाकांत के लिए ये सब आश्चर्य के साथसाथ उल झन से भी भरा था.
इन 8-10 दिन में शारदा खुशबू के पहले से भी अधिक करीब नजर आने लगी थीं. कई
बार ऐसा भी लगता था कि जैसे शारदा अपनेआप से लड़ रही हों.
8-10 दिन के बाद रमाकांत ने डाक्टर सतीश से बात करने के बाद स्वयं ही शारदा से कहा, ‘‘डाक्टर सतीश का टैलीफोन आया था. उस का कहना था कि डीएनए टैस्ट की रिपोर्ट आ गई है.’’
रमाकांत की बात को सुन शारदा एकदम भावहीन और ठंडी रहीं. कुछ नहीं कहा.
यह देख रमाकांत ने कहा, ‘‘मैं शाम को घर आते हुए डाक्टर सतीश के क्लीनिक से रिपोर्ट लेता आऊंगा.’’
रमाकांत की इस बात पर भी शारदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
शाम को रमाकांत डाक्टर सतीश के यहां से एक बंद लिफाफा ले आए. लिफाफे के अंदर खुशबू की तथाकथित डीएनए रिपोर्ट थी. रिपोर्ट में क्या है, रमाकांत को मालूम था. डाक्टर सतीश ने उस की मनमाफिक रिपोर्ट ही बनाई थी.
बंद लिफाफा शारदा के सामने करते हुए रमाकांत ने कहा, ‘‘इस रिपोर्ट का संबंध हम लोगों के निजी जीवन से है, इसलिए डाक्टर सतीश ने इसे पढ़ना ठीक नहीं सम झा. इस से पहले कि मैं लिफाफा खोल इस रिपोर्ट को पढ़ूं तुम्हारे मन का शक सही भी हो सकता है और गलत भी. तुम्हें हर स्थिति का सामना शांत रह कर करना होगा.’’
अंतर्द्वंद्व में फंसी शारदा ने कुछ पल खामोश नजरों से रमाकांत और हाथ में पकड़े लिफाफे को देखा. फिर उन्होंने जो किया वह अप्रत्याशित था.
शारदा ने रमाकांत के हाथ से लिफाफे को बिजली की सी तेजी से छीना और फिर उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. इस के साथ ही ऐसा लगा जैसा वे अपनी कशमकश और अंतर्द्वंद्व से एक फटके में बाहर आ गई हो. पंडित रामकुमार तिवारी उस दिन से कभी नहीं आए.
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7 बज चुके थे. मिशैल के आने में अभी 1 घंटा बचा था. मैं ने अपनी मनपसंद कौफी बनाई और जूते उतार कर आराम से सोफे पर लेट गया. मैं ने टेलीविजन चलाया और एक के बाद एक कई चैनल बदले पर मेरी पसंद का कोई भी प्रोग्राम नहीं आ रहा था. परेशान हो टीवी बंद कर अखबार पढ़ने लगा. यह मेरा रोज का कार्यक्रम था. मिशैल के आने के बाद ही हम खाने का प्रोग्राम बनाते थे. जब कभी उसे अस्पताल से देर हो जाती, मैं चिप्स और जूस पी कर सो जाता. मैं यहां एक मल्टीस्टोर में सेल्समैन था और मिशैल सिटी अस्पताल में नर्स.
दरवाजा खुलने के साथ ही मेरी तंद्रा टूटी. मिशैल ने अपना पर्स दरवाजे के पास बने काउंटर पर रखा और मेरे पास पीछे से गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘बहुत थके हुए लग रहे हो.’’
‘‘हां,’’ मैं ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘वीकएंड के कारण सारा दिन व्यस्त रहा,’’ फिर उस की तरफ प्यार से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कैसी हो?’’
‘‘ठीक हूं. मैं भी अपने लिए कौफी बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह किचन में जातेजाते पूछने लगी, ‘‘मेरे कौफी बींस लाए हो या आज भी भूल गए.’’
‘‘ओह मिशैल, आई एम रियली सौरी. मैं आज भी भूल गया. स्टोर बंद होने के समय मुझे बहुत काम होता है. फूड डिपार्टमेंट में जा नहीं सका.’’
3 दिन से लगातार मिशैल के कहने के बावजूद मैं उस की कौफी नहीं ला सका था. मैं ने उसी समय उठ कर जूते पहने और कहा, ‘‘मैं अभी सामने की दुकान से ला देता हूं, वह तो खुली होगी.’’
‘‘ओह नो, टोनी. मैं आज भी तुम्हारी कौफी से गुजारा कर लूंगी. मुझे तो तुम इसीलिए अच्छे लगते हो कि फौरन अपनी गलती मान लेते हो. थके होने के बावजूद तुम अभी भी वहां जाने को तैयार हो. आई लव यू, टोनी. तुम्हारी जगह कोई यहां का लड़का होता तो बस, इसी बात पर युद्ध छिड़ जाता.’’
मैं ऐसे हजारों प्रशंसा के वाक्य पहले भी मिशैल से अपने लिए सुन चुका था. 5 साल पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जरमनी आया था और बस, यहीं का हो कर रह गया. भारत में वह जब भी मेरे घर आता, उस का व्यवहार और रहनसहन देख कर मैं बहुत प्रभावित होता था. उस का बातचीत का तरीका, उस का अंदाज, उस के कपड़े, उस के मुंह से निकले वाक्य और शब्द एकएक कर मुझ पर अमिट छाप छोड़ते गए. मुझ से कम पढ़ालिखा होने के बावजूद वह इतने अच्छे ढंग से जीवन जी रहा है और मैं पढ़ाई खत्म होने के 3 साल बाद भी जीवन की शुरुआत के लिए जूझ रहा था. मैं अपने परिवार की भावनाओं की कोई परवा न करते हुए उसी के साथ यहां आ गया था.
पहले तो मैं यहां की चकाचौंध और नियमित सी जिंदगी से बेहद प्रभावित हुआ. यहां की साफसुथरी सड़कें, मैट्रो, मल्टीस्टोर, शौपिंग मौल, ऊंचीऊंची इमारतों के साथसाथ समय की प्रतिबद्धता से मैं भारत की तुलना करता तो यहीं का पलड़ा भारी पाता. जैसेजैसे मैं यहां के जीवन की गहराई में उतरता गया, लगा जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं समझता था.
एक भारतीय औपचारिक समारोह में मेरी मुलाकत मिशैल से हो गई और उस दिन को अब मैं अपने जीवन का सब से बेहतरीन दिन मानता हूं. चूंकि मिशैल के साथ काम करने वाली कई नर्सें एशियाई मूल की थीं इसलिए उसे इन समारोहों में जाने की उत्सुकता होती थी. उसे पेइंग गेस्ट की जरूरत थी और मुझे घर की. हम दोनों की जरूरतें पूरी होती थीं इसलिए दोनों के बीच एक अलिखित समझौता हो गया.
मिशैल बहुत सुंदर तो नहीं थी पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था. धीरेधीरे हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि अब एकदूसरे के पर्याय बन गए हैं. मेरी नीरस जिंदगी में बहार आने लगी है.
मिशैल जब भी मुझ से भारत की संस्कृति, सभ्यता और भारतीयों की वफादारी की बात करती है तो मैं चुप हो जाता हूं. मैं कैसे बताता कि जो कुछ उस ने सुना है, भारत वैसा नहीं है. वहां की तंग और गंदी गलियां, गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी से भाग कर ही तो मैं यहां आया हूं. उसे कैसे बताता कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बिजलीपानी का अभाव कैसे वहां के आमजन को तिलतिल कर जीने को मजबूर करता है. इन बातों को बताने का मतलब था कि उस के मन में भारत के प्रति जो सम्मान था वह शायद न रहता और शायद वह मुझ से भी नफरत करने लग जाती. चूंकि मैं इतना सक्षम नहीं था कि अलग रह सकूं इसलिए कई बार उस की गलत बातों का भी समर्थन करना पड़ता था.
‘‘जानते हो, टोनी,’’ मिशैल कौफी का घूंट भरते हुए बोली, ‘‘इस बार हैनोवर इंटरनेशनल फेयर में तुम्हारे भारत को जरमन सरकार ने अतिथि देश चुना है और यहां के अखबार, न्यूज चैनलों में इस समाचार को बहुत बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. जगहजगह भारत के झंडे लगे हुए हैं.’’
‘‘भारत यहां का अतिथि देश होगा?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश की.
‘‘और क्या? देखा नहीं तुम ने…मैं एक बार तो जरूर जाऊंगी, शायद कोई सामान पसंद आ जाए.’’
‘‘मिशैल, भारतीय तो यहां से सामान खरीद कर भारत ले जाते हैं और तुम वहां का सामान…न कोई क्वालिटी होगी न वैराइटी,’’ मैं ने मुंह बनाया.
‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर उस ने कौफी का आखिरी घूंट भरा और मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर बोली, ‘‘टोनी, तुम भी चलो न, वस्तुओं को समझने में आसानी होगी.’’
फेयर के पहले दिन सुबहसुबह ही मिशैल तैयार हो गई. मैं ने सोचा था कि उस को वहां छोड़ कर कोई बहाना कर के वहां से चला जाऊंगा. पर मैं ने जैसे ही मेन गेट पर गाड़ी रोकी, गेट पर ही भारत के विशालकाय झंडे, कई विशिष्ट व्यक्तियों की टीम, भारतीय टेलीविजन चैनलों की कतार और नेवी का पूरा बैंड देख कर मैं दंग रह गया. कुल मिला कर ऐसा लगा जैसे सारा भारत सिमट कर वहीं आ गया हो.
मैं ने उत्सुकतावश गाड़ी पार्किंग में खड़ी की तो मिशैल भाग कर वहां पहुंच गई. मेरे वहां पहुंचते ही बोली, ‘‘देखो, कैसा सजा रखा है गेट को.’’
मैं ने उत्सुकता से वहां खड़े एक भारतीय से पूछा, ‘‘यहां क्या हो रहा है?’’
‘‘यहां तो हम केवल प्रधानमंत्रीजी के स्वागत के लिए खड़े हैं. बाकी का सारा कार्यक्रम तो भीतर हमारे हाल नं. 6 में होगा.’’
‘‘भारत के प्रधानमंत्री यहां आ रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकतावश मिशैल से पूछा.
‘‘मैं ने कहा था न कि भारत अतिथि देश है पर लगता है यहां हम लोग ही अतिथि हो गए हैं. जानते हो टोनी, उन के स्वागत के लिए यहां के चांसलर स्वयं आ रहे हैं.’’
थोड़ी देर में वंदेमातरम की धुन चारों तरफ गूंजने लगी. प्रधानमंत्रीजी के पीछेपीछे हम लोग भी हाल नं. 6 में आ गए, जहां भारतीय मंडप को दुलहन की तरह सजाया हुआ था.
प्रधानमंत्रीजी के वहां पहुंचते ही भारतीय तिरंगा फहराने लगा और राष्ट्रीय गीत के साथसाथ सभी लोग सीधे खड़े हो गए, जैसा कि कभी मैं ने अपने स्कूल में देखा था. टोनी आज भारतीय होने पर गर्व महसूस कर रहा था. उसे भीतर तक एक झुरझुरी सी महसूस हुई कि क्या यही वह भारत था जिसे मैं कई बरस पहले छोड़ आया था. आज यदि जरमनी के लोगों ने इसे अतिथि देश स्वीकार किया है तो जरूर अपने देश में कोई बात होगी. मुझे पहली बार महसूस हुआ कि अपना देश और उस के लोग किस कदर अपने लगते हैं.
समारोह के समाप्त होते ही एक विशेष कक्ष में प्रधानमंत्री चले गए और बाकी लोग भारतीय सामान को देखने में व्यस्त हो गए. थोड़ी देर में प्रधानमंत्रीजी अपने मंत्रिमंडल एवं विदेश विभाग के लोगों के साथ भारतीय निर्यातकों से मिलने चले गए. उधर हाल में अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होेते रहे. एक कोने में भारतीय टी एवं कौफी बोर्ड के स्टालों पर भी काफी भीड़ थी.
मैं ने मिशैल से कहा, ‘‘चलो, तुम्हें भारतीय कौफी पिलवाता हूं.’’
‘‘नहीं, पहले यहां कठपुतलियों का यह नाच देख लें. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.’’
अगले दिन मेरा मन पुन: विचलित हो उठा. मैं ने मिशैल से कहा तो वह भी वहां जाने को तैयार हो गई.
मैं एकएक कर के भारतीय सामान के स्टालों को देख रहा था. भारत की क्राकरी, हस्तनिर्मित सामान, गृहसज्जा का सामान, दरियां और कारपेट तथा हैंडीक्राफ्ट की गुणवत्ता और नक्काशी देख कर दंग रह गया. मैं जिस स्टोर में काम करता था वहां ऐसा कुछ भी सामान नहीं था. मैं एक भारतीय स्टैंड के पास बने बैंच पर कौफी ले कर सुस्ताने को बैठ गया. पास ही बैठे किसी कंपनी के कुछ लोग आपस में जरमन भाषा में बात कर रहे थे कि भारत का सामान कितना अच्छा और आधुनिक तरीकों से बना हुआ है. वे कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि यह सब भारत में ही बना हुआ है और एशिया के बाकी देशों की तुलना में भारत कहीं अधिक तरक्की कर चुका है. मुझे यह सब सुन कर अच्छा लग रहा था.
उन्होंने मेरी तरफ देख कर पूछा, ‘‘आप को क्या लगता है कि क्या सचमुच माल भी ऐसा ही होगा जैसा सैंपल दिखा रहे हैं?’’
‘‘मैं क्या जानूं, मैं तो कई वर्षों से यहीं रहता हूं,’’ मैं ने अपना सा मुंह बनाया.
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“अरे मिस्टर गुप्ता सुनो ना, प्लीज, आज आप वैसी सब्जी बनाओ ना, जैसे आप ने लौकडाउन में सीखी थी. मुझे बहुत अछी लगी थी. मैं ने आप से तब भी कहा था कि परफेक्ट बनी है. याद है न आप को,” सौम्या बोली.
नहींनहीं, आज नहीं, आज छुट्टी का आखिरी दिन है. कल से तो औफिस खुल जाएगा. आज तो बिलकुल नहीं बनाऊंगा, फिर कभी…
“ओके, मैं जरा मार्केट तक जा रहा हूं. कूरियर करना है,” राजेश ने कहा और बाहर निकल गया.
और इधर सौम्या सिर्फ मुसकरा कर कह रही थी, “अच्छा बच्चू अभी से नखरे… और मैं जो इतने दिनों से खाना बना रही हूं उस का क्या. मैं ने भी आज आप से खाना न बनवाया, तो मेरा नाम भी सौम्या नहीं,” ऐसा कह कर सौम्या ने जा कर लेपटाप बंद किया और बाकी काम करने में जुट गई. एक घंटा हो गया, राजेश अभी तक नहीं आए थे, सोचने लगी, चलो, मैं ही कुछ बना देती हूं हलकाफुलका सा, अभी डिनर भी है. हो सकता है कि तब पकड़ मे आ जाएं.
ऐसा सोच कर फ्रिज खोला तो लौकी देखी और वह लौकी को छीलने लगी.
“अरे कहां हो? खाना लगाओ. मुझे बड़ी भूख लगी है,” राजेश ने आते ही कहा.
“मिस्टर गुप्ता, अभी तो खाना बना ही नहीं है, तो कहां से लगा दूं,” सौम्या बोली.
“क्यों…? अभी तक क्यों नहीं बना? इतने बजे तक तो तुम हमेशा बना लेती थीं. आज क्या हो गया.”
“हुआ तो कुछ नहीं. बस आज आप के हाथ का खाना खाने का मन था, तो इसलिए… बाकी कुछ नहीं. अभी बना रही हूं.”
“लौकी… लौकी,” उस ने कुछ लंबा खींच कर कहा.
“क्या…? मुझे नहीं खानी है लौकी,” राजेश बोला.
“फिर क्या खाओगे? अब इतनी जल्दी में इस से ज्यादा कुछ नहीं बन सकता है मिस्टर गुप्ता,” उस ने बड़े भोलेपन से कहा.
“अच्छा, पहले तुम मेरे पास आओ. मुझे कुछ पूछना है.”
“पूछिए, क्या पूछना है?”
“ये तुम मुझे मिस्टर गुप्ता क्यों कहती हो, राजेश नहीं कह सकती हो.”
“क्यों? आप को अच्छा नहीं लगता मेरा ये कहना.”
“नहींनहीं, ये बात नहीं है.”
“फिर क्या बात है मिस्टर गुप्ता…” उस ने राजेश का गाल खींचते हुए कहा.
“जब तुम मिस्टर गुप्ता कहती हो तो ना जाने क्यों मुझे लगता है कि इस शब्द में तुम ने मुझे अपना पूरा प्यार समेट कर मुझे पुकारा या मेरा नाम लिया है.”
“सो तो है मिस्टर गुप्ता,
हमारी शादी को 3 महीने हो गए, और हम साथसाथ हैं जब से हमारी शादी हुई है, हम घर पर ही हैं, अब औफिस खुलने वाले हैं तो हम दोनों को ही औफिस जाना है, फिर कैसे मैनेज करेंगे?”
“तुम चिंता मत करो स्वीट हार्ट… मै हूँ न. मैं ने काफीकुछ सीख लिया है. इस पिछले 3 महीने में, खाना भी बनाना सीख लिया है.”
“क्या फायदा सीखने का, जब आप बनाओगे ही नहीं.”
“अरे, क्यों नहीं बनाऊंगा.”
“अभी मना किया है न आप ने.”
“हां, आज मूड नहीं है, फिर कभी बनाऊंगा.”
“ठीक है, मै चली किचन में…”
इतने में सौम्या के फोन की घंटी बजी. देखा तो सासू मां का फोन है. नंबर देख कर फिर उस के दिमाग में प्लान आया और फोन उठाया.
“चरण स्पर्श मांजी,” बड़े प्यार से उस ने अपनी सासू मां को बोला.
ये देख कर राजेश हैरान रह गया. सोचने लगा, ‘क्या सौम्या रोज ही ऐसे बात करती है मां से. मैं ने क्यों नहीं ध्यान नहीं दिया आज तक.’
इधर सौम्या बड़े अपनेपन से हंसहंस कर बात कर रही थी, और सासू मां भी सोच रही होंगी कि क्या खजाना मिल गया बहू को.
इधर राजेश ने सौम्या को देखा, फिर मन में आया कि ‘सौम्या कितनी अच्छी है. सब का कितना ध्यान रखती है, मेरा भी और मेरे घर वालों का भी. घर का काम भी खुद करती है.
‘मैं तो कभीकभी हाथ बंटा देता हूं. अब तो औफिस भी जाया करेगी तो कैसे करेगी मैनेज? घर और औफिस, नहींनहीं, मैं इस को परेशान नहीं देख सकता. कितनी अच्छी है सौम्या, मेरी जिंदगी संवार रही है और एक मैं हूं कि खाना बनाने के लिए भी…
‘चलो, इतने में ये बात कर रही है, मैं उस दिन वाली सब्जी बना देता हूं. बेचारी ने कितने मन से कहा था और मैं…’ ये सोचतेसोचते राजेश किचन में पहुंच चुका था.
सौम्या ने देखा कि राजेश किचन में चला गया है, तो उस के होंठों पर हंसी आ गई. अब आप की कमजोर नस मेरे हाथ लग गई है मिस्टर गुप्ता. मां सच ही कहती हैं कि पति के घर वालों का ध्यान रखो, तो पति तो खुद ही खुश रहेगा.
उस ने जल्दी से सासू मां को प्रणाम किया और दौड़ कर किचन में आई, और राजेश को देख कर बोली, “मिस्टर गुप्ता, आप क्या कर रहे हो, हटिए, मैं बनाती हूं खाना.”
राजेश ने सौम्या के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले कर कहा, “सौम्या, तुम बैठो या फिर और कुछ कर लो. खाना मैं बनाता हूं.”
“नहींनहीं मिस्टर गुप्ता, मैं ही बनाती हूं.”
“अरे सौम्या, मानो भी मैं ही बनाता हूं.”
“अच्छा चलो, साथ मिल कर बनाते हैं,” सौम्या बोली. फिर दोनों ही लंच तैयार करने मे जुट गए. वाकई सब्जी लाजवाब बनाई थी राजेश ने. बरतन उठाते हुए सौम्या बोली, “आप चलो, बाकी मैं करती हूं. बरतन साफ कर के कौफी बना कर लाती हूं, आराम से लौन मे झूले पर बैठ कर पिएंगे.”
“ठीक है, पर जल्दी आना,” राजेश ने कहा.
“जी मिस्टर गुप्ता,” कह कर उस ने अपनी एक आंख दबा दी.
सौम्या मन ही मन बहुत खुश थी कि आज मैं ने खाना आखिर बनवा ही लिया. अब आगे क्या, मुझे भी औफिस जाना होगा, तब कैसे संभालूंगी? नौकरानी रख नहीं सकते. ‘कोई बात नहीं मिस्टर गुप्ता, हम कोई हल निकाल ही लेंगे,’ सोचतेसोचते कौफी ले कर राजेश के पास आ कर बैठ गई. इधर राजेश तो जैसे उसी का इंतजार कर रहा था.
‘सौम्या कितनी देर कर दी तुम ने आने में,” राजेश बोला.
“देर कर दी… भई किचन समेट कर बरतन धो कर कौफी बना कर लाई हूं, कुछ वक्त तो लगता ही है मिस्टर गुप्ता,” सौम्या ने अपने लहजे में कहा.
“अच्छा ठीक है, मैं क्या सोच रहा था कि जब तुम औफिस जाने लगोगी, तो तब ये सब कैसे मैनेज करोगी?” राजेश ने कुछ चिंतित हो कर कहा.
“हां, मैं भी यही सोच रही हूं,” सौम्या ने भोला सा चेहरा बना कर कहा और राजेश के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.
“सौम्या, मैं सोच रहा हूं कि अब औफिस खुल गए हैं और घर और औफिस का काम एकसाथ करना मुश्किल हो जाएगा, तो हम फुलटाइम एक मेड रख लेते हैं.”
“नहींनहीं मिस्टर गुप्ता, ये मुमकिन नहीं हैं, हमारा बजट इतना नहीं हैं कि हम अभी ये फालतू खर्च कर सकें. अपना घर हो जाएगा तो फिर सोचेंगे.
“अच्छा ऐसा करते हैं कि हम मम्मीजी को यहां ले आते हैं, थोड़ा हमें सहारा भी हो जाएगा और वो भी खुश हो जाएंगी हमारे साथ रह कर,” सौम्या ने सुझाव दिया.
“तो क्या वो काम करने आएंगी हमारे यहां?” राजेश ने तल्खी से कहा.
“नहींनहीं मिस्टर गुप्ता, ऐसा नहीं हैं. घर की साफसफाई और कपड़ों के लिए तो मैं ने मिसेज शर्मा को बोल दिया है कि वे अपनी बाई को मेरे यहां भी भेज दें और उन्होंने हां भी भर दी है. बस थोड़ा खाना बनाने में मदद मिल जाएगी और कुछ नहीं. और हमें अच्छा भी लगेगा,” सौम्या ने कुछ मुंह लटका कर कहा.
“अरे, तुम मायूस क्यों होती हो? मैं हूं ना, मैं भी हेल्प करूंगा. मां को क्यों परेशान करना, जब मेरी और तुम्हारी वेकेशन होगी तब मां को बुलाएंगे,” राजेश ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा.
“ठीक है, अब जरा हंसो मिस्टर गुप्ता. आप ऐसे ही मुझे उल्लू बना लेते हो,” सौम्या बोली.
अब अगले दिन सुबह उठ कर देखा तो 6 बजे थे. इतने ही में घंटी बजी, तो बाई सामने खड़ी थी. सौम्या खुश हो गई. घंटी की आवाज सुन कर राजेश भी उठ कर आ गया था. अरे वाह सौम्या, तुम ने तो बाई का भी इंतजाम कर लिया और टाइम भी परफेक्ट चुना.
सौम्या मुसकराई और जल्दीजल्दी बाई को काम समझाने लगी और बोली, “देखो, मैं खाना बनाने जा रही हूं. तुम 9 बजे तक सारा काम निबटा लेना.”
“ठीक है,” बाई ने गरदन हिला कर कहा.
रसोई में जा कर सौम्या जल्दीजल्दी खाना बनाने में लग गई. अभी 15 मिनट ही हुए थे कि राजेश रसोई में आया और बोला, “चलो, मैं सब्जी काट देता हूं और तुम बना लेना, मैं आटा गूंथ दूंगा, तुम रोटी बना देना. फिर ब्रेकफास्ट की तैयारी भी ऐसे ही मिलजुल कर कर लेंगे.”
“क्या बात हैं मिस्टर गुप्ता, आप तो एक दिन में ही बदल गए,” सौम्या ने राजेश के गले में बांहें डाल कर आंखों में आंखें डाल कर कहा.
“देखो सौम्या, अब तुम खुद भी लेट होओगी और मुझे भी काराओगी,” राजेश बोला.
“अरे मिस्टर गुप्ता, मैं न आप को लेट करूंगी और न ही खुद लेट हुआ करूंगी,” सौम्या बोली.
“वो कैसे भला?” राजेश ने पूछा.
“क्योंकि मैं अब आप के साथ ही औफिस जाया करूंगी और आप के साथ ही आया करूंगी,” सौम्या ने बताया.
“नहींनहीं, ये नहीं हो सकता, तुम्हारा औफिस पूरब में है और मेरा पश्चिम में, हम दोनों साथसाथ कैसे जा सकते हैं?” राजेश बोला.
“मैं जानती हूं बाबा, पर तुम नहीं जानते कि मेरा आज से पश्चिम वाली ब्रांच में ट्रांसफर हो गया है,” सौम्या ने बताया.
इतना सुन कर राजेश ने सौम्या को गोद में उठाया और गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया, और बोला, “अरे वाह, पत्नी हो तो ऐसी, जो सब मैनेजे कर ले.”
“मैं ने तो सब मैनेज कर दिया मिस्टर गुप्ता, अब आप की बारी है,” सौम्या बोली.
“हां सौम्या, मैं भी पीछे नहीं रहूंगा, तुम्हारा पूरापूरा साथ दूंगा. बस तुम ऐसी ही रहना,” कह कर राजेश ने उस के माथे पर किस कर दिया. सौम्या लजा कर उस के गले लग गई और मन ही मन सोचने लगी कि सच में पति को खुश करना बड़ा ही आसान है. फिर दोनों ने मिल कर ब्रेकफास्ट और टिफिन तैयार किया और तैयार हो कर साथसाथ ऑफिस जाने लगे. अब ये राजेश का नियम बन गया था कि वो सौम्या की हर तरह से मदद करता और सौम्या भी खुशहाल जिंदगी में खोने लगी थी.
अचानक जया की नींद टूटी और वह हड़बड़ा कर उठी. घड़ी का अलार्म शायद बजबज कर थक चुका था. आज तो सोती रह गई वह. साढ़े 6 बज रहे थे. सुबह का आधा समय तो यों ही हाथ से निकल गया था.
वह उठी और तेजी से गेट की ओर चल पड़ी. दूध का पैकेट जाने कितनी देर से वैसे ही पड़ा था. अखबार भी अनाथों की तरह उसे अपने समीप बुला रहा था.
उस का दिल धक से रह गया. यानी आज भी गंगा नहीं आएगी. आ जाती तो अब तक एक प्याली गरम चाय की उसे नसीब हो गई होती और वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती. उसे अपनी काम वाली बाई गंगा पर बहुत जोर से खीज हो आई. अब तक वह कई बार गंगा को हिदायत दे चुकी थी कि छुट्टी करनी हो तो पहले बता दे. कम से कम इस तरह की हबड़तबड़ तो नहीं रहेगी.
वह झट से किचन में गई और चाय का पानी रख कर बच्चों को उठाने लगी. दिमाग में खयाल आया कि हर कोई थोड़ाथोड़ा अपना काम निबटाएगा तब जा कर सब को समय पर स्कूल व दफ्तर जाने को मिलेगा.
नल खोला तो पाया कि पानी लो प्रेशर में दम तोड़ रहा?था. उस ने मन ही मन हिसाब लगाया तो टंकी को पूरा भरे 7 दिन हो गए थे. अब इस जल्दी के समय में टैंकर को भी बुलाना होगा. उस ने झंझोड़ते हुए पति गणेश को जगाया, ‘‘अब उठो भी, यह चाय पकड़ो और जरा मेरी मदद कर दो. आज गंगा नहीं आएगी. बच्चों को तैयार कर दो जल्दी से. उन की बस आती ही होगी.’’
पति गणेश उठे और उठते ही नित्य कर्मों से निबटने चले गए तो पीछे से जया ने आवाज दी, ‘‘और हां, टैंकर के लिए भी जरा फोन कर दो. इधर पानी खत्म हुआ जा रहा है.’’
‘‘तुम्हीं कर दो न. कितनी देर लगती है. आज मुझे आफिस जल्दी जाना है,’’ वह झुंझलाए.
‘‘जैसे मुझे तो कहीं जाना ही नहीं है,’’ उस का रोमरोम गुस्से से भर गया. पति के साथ पत्नी भले ही दफ्तर जाए तब भी सब घरेलू काम उसी की झोली में आ गिरेंगे. पुरुष तो बेचारा थकहार कर दफ्तर से लौटता है. औरतें तो आफिस में काम ही नहीं करतीं सिवा स्वेटर बुनने के. यही तो जबतब उलाहना देते हैं गणेश.
कितनी बार जया मिन्नतें कर चुकी थी कि बच्चों के गृहकार्य में मदद कर दीजिए पर पति टस से मस नहीं होते थे, ऊपर से कहते, ‘‘जया यार, हम से यह सब नहीं होता. तुम मल्टी टास्किंग कर लेती हो, मैं नहीं,’’ और वह फिर बासी खबरों को पढ़ने में मशगूल हो जाते.
मनमसोस कर रह जाती जया. गणेश ने उस की शिकायतों को कुछ इस तरह लेना शुरू कर दिया?था जैसे कोई धार्मिक प्रवचन हों. ऊपर से उलटी पट्टी पढ़ाता था उन का पड़ोसी नाथन जो गणेश से भी दो कदम आगे था. दोनों की बातचीत सुन कर तो जया का खून ही खौल उठता था.
‘‘अरे, यार, जैसे दफ्तर में बौस की डांट नहीं सुनते हो, वैसे ही बीवी की भी सुन लिया करो. यह भी तो यार एक व्यावसायिक संकट ही है,’’ और दोनों के ठहाके से पूरा गलियारा गूंज उठा?था.
जया के तनबदन में आग लग आई थी. क्या बीवीबच्चों के साथ रहना भी महज कामकाज लगता?था इन मर्दों को. तब औरतों को तो न जाने दिन में कितनी बार ऐसा ही प्रतीत होना चाहिए. घर संभालो, बच्चों को देखो, पति की फरमाइशों को पूरा करो, खटो दिनरात अरे, आक्यूपेशन तो महिलाओं के लिए है. बेचारी शिकायत भी नहीं करतीं.
जैसेतैसे 4 दिन इसी तरह गुजर गए. गंगा अब तक नहीं लौटी थी. वह पूछताछ करने ही वाली थी कि रानी ने कालबेल बजाते हुए घर में प्रवेश किया.
‘‘बीबीजी, गंगा ने आप को खबर करने के लिए मुझ से कहा था,’’ रानी बोली, ‘‘वह कुछ दिन अभी और नहीं आ पाएगी. उस की तबीयत बहुत खराब है.’’
रानी से गंगा का हाल सुना तो जया उद्वेलित हो उठी. यह कैसी जिंदगी थी बेचारी गंगा की. शराबी पति घर की जिम्मेदारियां संभालना तो दूर, निरंतर खटती गंगा को जानवरों की तरह पीटता रहता और मार खाखा कर वह अधमरी सी हो गई थी.
‘‘छोड़ क्यों नहीं देती गंगा उसे. यह भी कोई जिंदगी है?’’ जया बोली.
माथे पर ढेर सारी सलवटें ले कर हाथ का काम छोड़ कर रानी ने एकबारगी जया को देखा और कहने लगी, ‘‘छोड़ कर जाएगी कहां वह बीबीजी? कम से कम कहने के लिए तो एक पति है न उस के पास. उसे भी अलग कर दे तो कौन करेगा रखवाली उस की? आप नहीं जानतीं मेमसाहब, हम लोग टिन की चादरों से बनी छतों के नीचे झुग्गियों में रहते हैं. हमारे पति हैं तो हम बुरी नजर से बचे हुए हैं. गले में मंगलसूत्र पड़ा हो तो पराए मर्द ज्यादा ताकझांक नहीं करते.’’
अजीब विडंबना थी. क्या सचमुच गरीब औरतों के पति सिर्फ एक सुरक्षा कवच भर ?हैं. विवाह के क्या अब यही माने रह गए? शायद हां, अब तो औरतें भी इस बंधन को महज एक व्यवसाय जैसा ही महसूस करने लगी हैं.
गंगा की हालत ने जया को विचलित कर दिया था. कितनी समझदार व सीधी है गंगा. उसे चुपचाप काम करते हुए, कुशलतापूर्वक कार्यों को अंजाम देते हुए जया ने पाया था. यही वजह थी कि उस की लगातार छुट्टियों के बाद भी उसे छोड़ने का खयाल वह नहीं कर पाई.
रानी लगातार बोले जा रही थी. उस की बातों से साफ झलक रहा?था कि गंगा की यह गाथा उस के पासपड़ोस वालों के लिए चिरपरिचित थी. इसीलिए तो उन्हें बिलकुल अचरज नहीं हो रहा था गंगा की हालत पर.
जया के मन में अचानक यह विचार कौंध आया कि क्या वह स्वयं अपने पति को गंगा की परिस्थितियों में छोड़ पाती? कोई जवाब न सूझा.
‘‘यार, एक कप चाय तो दे दो,’’ पति ने आवाज दी तो उस का खून खौल उठा.
जनाब देख रहे हैं कि अकेली घर के कामों से जूझ रही हूं फिर भी फरमाइश पर फरमाइश करे जा रहे हैं. यह समझ में नहीं आता कि अपनी फरमाइश थोड़ी कम कर लें.
जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.
दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.
पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.
वह कहते हैं न कि जब आदमी का पेट भरा हो तो वह दूसरे की भूख के बारे में भी सोच सकता?है. तभी तो वह इतने चाव से गंगा को अलग करवाने की योजना बना रही थी.
पद्मा अपनी ही रौ में सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी. महिला क्लब की एक खास सदस्य होने के नाते वह ऐसे तमाम रास्ते जया को बताए जा रही थी जिस से गंगा का उद्धार हो सके.
जया अचंभित थी. मात्र 4 घंटों के अंतराल में उसे इस विषय पर दो अलगअलग प्रतिक्रियाएं मिली थीं. कहां तो पद्मा तलाक की बात कर रही?थी और उधर सुबह ही रानी के मुंह से उस ने सुना था कि गंगा अपने ‘सुरक्षाकवच’ की तिलांजलि देने को कतई तैयार नहीं होगी. स्वयं गंगा का इस बारे में क्या कहना होगा, इस के बारे में वह कोई फैसला नहीं कर पाई.
जब जया ने अपना शक जाहिर किया तो पद्मा बिफर उठी, ‘‘क्या तुम ऐसे दमघोंटू बंधन में रह पाओगी? छोड़ नहीं दोगी अपने पति को?’’
जया बस, सोचती रह गई. हां, इतना जरूर तय था कि पद्मा को एक ताजातरीन स्टोरी अवश्य मिल गई थी.
महिला क्लब के सभी सदस्यों को पद्मा का सुझाव कुछ ज्यादा ही भा गया सिवा एकदो को छोड़ कर, जिन्हें इस योजना में खामियां नजर आ रही थीं. जया ने ज्यादातर के चेहरों पर एक अजब उत्सुकता देखी. आखिर कोई भी क्यों ऐसा मौका गंवाएगा, जिस में जनता की वाहवाही लूटने का भरपूर मसाला हो.
प्रस्ताव शतप्रतिशत मतों से पारित हो गया. तय हुआ कि महिला क्लब की ओर से पद्मा व जया गंगा के घर जाएंगी व उसे समझाबुझा कर राजी करेंगी.
गंगा अब तक काम पर नहीं लौटी थी. रानी आ तो रही?थी, पर उस का आना महज भरपाई भर था. जया को घर का सारा काम स्वयं ही करना पड़ रहा था. आज तो उस की तबीयत ही नहीं कर रही थी कि वह घर का काम करे. उस ने निश्चय किया कि वह दफ्तर से छुट्टी लेगी. थोड़ा आराम करेगी व पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पद्मा को साथ ले कर गंगा के घर जाएगी, उस का हालचाल पूछने. यह बात उस ने पति को नहीं बताई. इस डर से कि कहीं गणेश उसे 2-3 बाहर के काम भी न बता दें.
रानी से बातों ही बातों में उस ने गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब से महिला मंडली की बैठक हुई थी, रानी तो मानो सभी मैडमों से नाराज थी, ‘‘आप पढ़ीलिखी औरतों का तो दिमाग चल गया है. अरे, क्या एक औरत अपने बसेबसाए घर व पति को छोड़ सकती है? और वैसे भी क्या आप लोग उस के आदमी को कोई सजा दे रहे हो? अरे, वह तो मजे से दूसरी ले आएगा और गंगा रह जाएगी बेघर और बेआसरा.’’
40 साल की रानी को हाईसोसाइटी की इन औरतों पर निहायत ही क्रोध आ रहा था.
आज उसे किसी का भय नहीं था. वैसे भी पानी तो साढ़े 8 बजे तक आता है. इसलिए चैन की सांस ले कर वह फिर से सो गई. जब आंख खुली तो सुबह के 7 बज चुके थे. देखा राजीव चाय का कप हाथ में लिए उसे उठा रहा था, ‘‘मां, उठो, चाय पी लो, क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है? मुझे तो चिंता हो रही थी. तुम इतनी देर तक कभी सोती नहीं.’’
कुछ पल तक तो मालती राजीव को देखती ही रह गई. उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वह जो देख रही है वह सपना है या सच.
‘‘राजू, तू चाय बना कर लाया मेरे लिए?’’
‘‘तो क्या हुआ, तुम इतने आराम से गहरी नींद में सो रही थीं तो मुझे लगा कि तुम्हें कौन परेशान करे, मैं ही बना लाता हूं.’’
‘‘अरे, नहीं रे, बिलकुल ठीक हूं मैं, ऐसे ही मालूम नहीं क्यों, आज आंख नहीं खुली,’’ मालती बोली.
‘‘सर्दी भी तो बहुत पड़ रही है,’’ चाय की चुस्की लेते हुए राजीव बोला.
‘‘हां, शायद इसीलिए उठ नहीं पाई.’’
आज चाय में मालती को एक अजीब स्वाद की अनुभूति हो रही थी. न जाने कितने समय के बाद बेटे के पास बैठ कर बात करने का अवसर मिला है. उसे याद आने लगे वे पल जब राजीव छोटा था और वह बीमार हो जाती तो वह उसे बिस्तर से उठने ही न देता था.
उस की भोली, प्रेम से भरी बातें सुन कर मालती के बीमार चेहरे पर मुसकराहट तैर जाती थी. गर्व से वह सुधीर की तरफ देख कर कहती, ‘सुन रहे हो, मेरा बेटा मेरा कितना खयाल रखता है.’
चाय छलकने से मालती की तंद्रा भंग हुई और वह वर्तमान में लौट आई, ‘‘उठूं, तेरे लिए कुछ खाना बनाऊं.’’
‘‘नहीं मां, आज रहने दो, आज मुझे बाहर काम है, खाने का वक्त तो मिलेगा नहीं. इसलिए परेशान मत हो.’’
‘‘चल ठीक है, पर नाश्ता तो बना दूं.’’
‘‘नहीं, मां, आज मैं बे्रेड खा कर दूध पी लूंगा.’’
मालती के नेत्रों में अचानक जल भर आया और प्रतीत हुआ मानो उस का 20 बरस पहले का राजीव उस के सामने फिर छोेटा हो कर आ गया हो.
राजीव के आफिस जाने के बाद जब वह कमरे से बाहर निकली तो 10 बज चुके थे. धूप लान में बिखर चुकी थी. कुरसी डाल कर वह धूप का आनंद लेने लगी. और कोई दिन होता तो इस समय वह रसोई की सफाई में लगी होती. तभी उसे सामने से मिसेज शर्मा आती दिखाई दीं. वह उसी की हमउम्र थीं. तुरंत उठ कर मालती ने उन्हें रोका, ‘‘नमस्ते, बहनजी, सुबहसुबह कहां की सैर हो रही है?’’
‘‘अरे, सैर कहां, सब्जी वाले की आवाज सुनाई दी तो बाहर निकल आई, लेकिन तब तक वह आगे चला गया.’’
‘‘कोई बात नहीं. इसी बहाने आइए, थोड़ी देर बैठिए.’’
‘‘चलिए, आती हूं, इस वक्त तो मुझे भी कुछ काम नहीं है.’’
आज मालती बेफिक्र हो कर मिसेज शर्मा से बातें कर रही थी. उसे वह बहुत अच्छी लगती हैं पर ऋचा को वह बिलकुल पसंद नहीं. जब कभी वह उन से बात करती तो ऋचा उसे खा जाने वाली नजरों से देखती हुई कहती, ‘मुझे समझ में नहीं आता, मेरे बारबार मना करने पर भी आप इन से मेलजोल क्यों बढ़ाती हैं. यह गेट पर खड़े हो कर सब से बात करने की आप की आदत न जाने कब जाएगी.’
पर आज उसे टोकने वाला घर में कोई नहीं था. वह जिस से भी चाहे हंसबोल सकती है, अपने मन की बात कर सकती है.
जब मिसेज शर्मा गईं तो 11 बज चुके थे. 1 घंटा कैसे बीत गया मालूम ही नहीं पड़ा. कमरे में जा कर मालती आराम से लेट गई. वर्षों पश्चात उसे ऐसा लगा जैसे उसे किसी जेल से छुटकारा मिला हो.
फिर कुछ समय बाद उठ कर नहाधो कर उस ने अपने लिए थोड़ी सी खिचड़ी बना कर खा ली. लेटीलेटी वह किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. तभी अचानक अपने पुराने महल्ले वालों के यहां फोन मिलाने लगी, जिन से कि वह चाहते हुए भी कभी बात नहीं कर पाती थी. ऋचा उन लोगों को बिलकुल पसंद नहीं करती थी. वह नहीं चाहती कि पुराने लोगों से संबंध बनाए रखे जाएं.
फोन पर उस की आवाज सुन कर उस की पुरानी सहेली सरोज हैरान रह गई, ‘‘अरे, मालती, आज तुम्हें हम लोगों की याद कैसे आ गई?’’
‘‘बस, कुछ न पूछो, सरोज बहन, पर तुम सब ने भी तो मेरी खोजखबर लेना छोड़ दिया,’’ मालती बोली.
‘‘ऐसा न कहो, हम लोग जब भी दिन में एकसाथ बैठते हैं तो तुम्हें जरूर याद करते हैं. अच्छा, यह बताओ, यहां कब आ रही हो? क्या कभी भी अपने पुराने पड़ोसियों से मिलने का मन नहीं करता?’’ सरोज ने उलाहना दिया.
‘‘अच्छा, मैं आज राजीव से बात करती हूं. यदि उसे समय हुआ तो किसी दिन जरूर आऊंगी,’’ मालती ने कहा.
शाम को जब राजीव घर आया तो खाना खाते समय मालती ने उस से अपने मन की बात कही.
‘‘ठीक है, कल मेरी मीटिंग है. वह तो 1 बजे तक खत्म हो जाएगी. दोपहर को आ कर मैं तुम्हें ले चलूंगा.’’
राजीव की बात सुन कर मालती प्रसन्न हो उठी. वैसे तो वह जानती है कि राजीव बचपन से ही उस के कहे किसी भी काम को मना नहीं करता परंतु ऋचा से विवाह के पश्चात स्वयं उसी ने संकोचवश राजीव से किसी भी बात के लिए कहनासुनना छोड़ दिया है. आज बेटे की बात सुन कर उसे लगा कि यह उस की भूल थी. उस का राजीव आज भी उस की किसी बात को नहीं टालता.
अगले दिन समय पर मालती ने तैयार होना शुरू किया. बहुत समय बाद उस ने पहनने के लिए एक अच्छी साड़ी निकाली. जब साड़ी पहन कर शीशे के सामने खड़ी हुई तो एक फीकी मुसकान उस के अधरों पर खिल गई. आज न जाने कितने समय पश्चात यों निश्ंिचत हो कर उसे स्वयं को आईने में निहारने का अवसर मिला था. अन्यथा सदा तो यह सोच कर कि ऋचा सोचेगी कि सास को बुढ़ापे में भी शीशे के सामने खड़े होने का शौक है, वह कभी आईने के सामने खड़े होने का साहस नहीं कर पाती. समय बीतने के साथ नारी सुलभ इच्छाएं कम जरूर हो जाती हैं पर मरती तो नहीं हैं.
ठीक समय पर राजीव की मोटर- साइकिल की आवाज सुन कर वह बाहर निकली.
‘‘चलो मां, जल्दी से ताला लगा कर आ जाओ,’’ राजीव ने कहा.
ताला लगा कर जब वह राजीव के साथ अपने पुराने महल्ले में जाने के लिए मोटरसाइकिल पर बैठी तो उस का हृदय प्रसन्नता से भर उठा. आज न जाने कितने समय बाद उस ने खुले वातावरण में सांस ली.
‘‘बीबीजी…ओ बीबीजी, काम वाली की जरूरत हो तो मुझे आजमा कर देख लो न,’’ शहर की नई कालोनी में काम ढूंढ़ते हुए एक मकान के गेट पर खड़ी महिला से वह हाथ जोड़ते हुए काम पर रख लेने की मनुहार कर रही थी.
‘‘ऐसे कैसे काम पर रख लें तुझे, किसी की सिफारिश ले कर आई है क्या?’’
‘‘बीबीजी, हम छोटे लोगों की सिफारिश कौन करेगा?’’
‘‘तेरे जैसी काम वाली को अच्छी तरह देख रखा है, पहले तो गिड़गिड़ा कर काम मांगती हैं और फिर मौका पाते ही घर का सामान ले कर चंपत हो जाती हैं. कहां तेरे पीछे भागते फिरेंगे हम. अगर किसी की सिफारिश ले कर आए तो हम फिर सोचें.’’
ऐसे ही जवाब उस को न जाने कितने घरों से मिल चुके थे. सुबह से शाम तक गिड़गिड़ाते उस की जबान भी सूख गई थी, पर कोई सिफारिश के बिना काम देने को तैयार नहीं था.
कितनों से उस ने यह भी कहा, ‘‘बीबीजी, 2-4 दिन रख के तो देख लो. काम पसंद नहीं आए तो बिना पैसे दिए काम से हटा देना पर बीबीजी, एक मौका तो दे कर देखो.’’
‘‘हमें ऐसी काम वाली की जरूरत नहीं है. 2-4 दिन का मौका देते ही तू तो हमारे घर को साफ करने का मौका ढूंढ़ लेगी. ना बाबा ना, तू कहीं और जा कर काम ढूंढ़.’’
‘आज के दिन और काम मांग कर देखती हूं, यदि नहीं मिला तो कल किसी ठेकेदार के पास जा कर मजदूरी करने का काम कर लूंगी. आखिर पेट तो पालना ही है.’ मन में ऐसा सोच कर वह एक कोठी के आगे जा कर बैठ गई और उसी तरह बीबीजी, बीबीजी की रट लगाने लगी.
अंदर से एक प्रौढ़ महिला बाहर आईं. काम ढूंढ़ने की मुहिम में वह पहली महिला थीं, जिन्होंने बिना झिड़के उसे अंदर बुला कर बैठाते हुए आराम से बात की थी.
‘‘तुम कहां से आई हो? कहां रहती हो? कौन से घर का काम छोड़ा है? क्याक्या काम आता है? कितने रुपए लोगी? घर में कौनकौन हैं? शादी हुई है या नहीं?’’ इतने सारे प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी उन्होंने एकसाथ ही.
बातों में मिठास ला कर उस ने भी बड़े धैर्य के साथ उत्तर देते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मैं बाहर से आई हूं, मेरा यहां कोई घर नहीं है, मुझे घर का सारा काम आता है, मैं 24 घंटे आप के यहां रहने को तैयार हूं. मुझ से काम करवा कर देख लेना, पसंद आए तो ही पैसे देना. 24 घंटे यहीं रहूंगी तो बीबीजी, खाना तो आप को ही देना होगा.’’
उस कोठी वाली महिला पर पता नहीं उस की बातों का क्या असर हुआ कि उस ने घर वालों से बिना पूछे ही उस को काम पर रखने की हां कर दी.
‘‘तो बीबीजी, मैं आज से ही काम शुरू कर दूं?’’ बड़ी मासूमियत से वह बोली.
‘‘हां, हां, चल काम पर लग जा,’’ श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘तेरा नाम क्या है?’’
‘‘कमला, बीबीजी,’’ इतना बोल कर वह एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘बीबीजी, मेरा थोड़ा सामान है, जो मैं ने एक जगह रखा हुआ है. यदि आप इजाजत दें तो मैं जा कर ले आऊं,’’ उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.
‘‘कितनी देर में वापस आएगी?’’
‘‘बस, बीबीजी, मैं यों गई और यों आई.’’
काम मिलने की खुशी में उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस ने अपना सामान एक धर्मशाला में रख दिया था, जिसे ले कर वह जल्दी ही वापस आ गई.
उस के सामान को देखते ही श्रीमती चतुर्वेदी चौंक पड़ीं, ‘‘अरे, तेरे पास ये बड़ेबड़े थैले किस के हैं. क्या इन में पत्थर भर रखे हैं?’’
‘‘नहीं बीबीजी, इन में मेरी मां की निशानियां हैं, मैं इन्हें संभाल कर रखती हूं. आप तो बस कोई जगह बता दो, मैं इन्हें वहां रख दूंगी.’’
‘‘ऐसा है, अभी तो ये थैले तू तख्त के नीचे रख दे. जल्दी से बर्तन साफ कर और सब्जी छौंक दे. अभी थोड़ी देर में सब आते होंगे.’’
‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ कह कर उस ने फटाफट सारे बर्तन मांज कर झाड़ूपोंछा किया और खाना बनाने की तैयारी में जुट गई. पर बीबीजी ने एक पल को भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था, और छोड़तीं भी कैसे, नईनई बाई रखी है, कैसे विश्वास कर के पूरा घर उस पर छोड़ दें. भले ही काम कितना भी अच्छा क्यों न कर रही हो.
उस के काम से बड़ी खुश थीं वह. उन की दोनों बेटियां और पति ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो घर बड़ा चमक रहा है?’’
मिसेज चतुर्वेदी बोलीं, ‘‘चमकेगा ही, नई काम वाली कमला जो लगा ली है,’’ यह बोलते समय उन की आंखों में चमक साफ दिखाई दे रही थी.
‘‘अच्छी तरह देखभाल कर रखी है न, या यों ही कहीं से सड़क चलते पकड़ लाईं.’’
‘‘है तो सड़क चलती ही, पर काम तो देखो, कितना साफसुथरा किया है. अभी तो जब उस के हाथ का खाना खाओगे, तो उंगलियां चाटते रह जाओगे,’’ चहकते हुए मिसेज चतुर्वेदी बोलीं.
सब खाना खाते हुए खाने की तारीफ तो करते जा रहे थे पर साथ में बीबीजी को आगाह भी करा रहे थे कि पूरी नजर रखना इस पर. नौकर तो नौकर ही होता है. ऐसे ही ये घर वालों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर सबकुछ ले कर चंपत हो जाते हैं.
यह सब सुन कर कमला मन ही मन कह रही थी कि आप लोग बेफिक्र रहें. मैं कहीं चंपत होने वाली नहीं. बड़ी मुश्किल से तो तुझे काम मिला है, इसे छोड़ कर क्या मैं यों ही चली जाऊंगी.
खाना वगैरह निबटाने के बाद उस ने बीबीजी को याद दिलाते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मेरे लिए कौन सी जगह सोची है आप ने?’’
‘‘हां, हां, अच्छी याद दिलाई तू ने, कमला. पीछे स्टोररूम है. उसे ठीक कर लेना. वहां एक चारपाई है और पंखा भी लगा है. काफी समय पहले एक नौकर रखा था, तभी से पंखा लगा हुआ है. चल, वह पंखा अब तेरे काम आ जाएगा.’’
उस ने जा कर देखा तो वह स्टोररूम तो क्या बस कबाड़घर ही था. पर उस समय वह भी उसे किसी महल से कम नहीं लग रहा था. उस ने बिखरे पड़े सामान को एक तरफ कर कमरा बिलकुल जमा लिया और चारपाई पर पड़ते ही चैन की सांस ली.
पूरा दिन काम में लगे रहने से खाट पर पड़ते ही उसे नींद आ गई थी, रात को अचानक ही नींद खुली तो उसे, उस एकांत कोठरी में बहुत डर लगा था. पर क्या कर सकती थी, शायद उस का भविष्य इसी कोठरी में लिखा था. आंख बंद की तो उस की यादों का सिलसिला शुरू हो गया.
आज की कमला कल की डा. लता है, एस.एससी., पीएच.डी.. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कितने बड़े घर में उस का जन्म हुआ था. मातापिता ने उसे कितने लाड़प्यार से पाला था. 12वीं तक मुरादाबाद में पढ़ाने के बाद उस की जिद पर पिता ने उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया था. गुणसंपन्न (मेरिटोरिअस) छात्रा होने के कारण उसे जल्द ही हास्टल में रहने की भी सुविधा मिल गई थी.