family story in hindi

family story in hindi
मौल में पहुंचे ही थे कि मिशिका को उस के फें्रड्स सामने दिख गए और वह मुझे तेजी से बायबाय कह कर उन के साथ हो ली. वह नोएडा के एमिटी कालिज से इंजीनियरिंग कर रही है. उस के सभी मित्रों को अच्छी कैंपस प्लेसमेंट मिल गई थी सो इसी खुशी में उस के ग्रुप के सभी साथी यहां पिज्जा हट में खुशियां मना रहे थे.
नोएडा का यह मशहूर जीआईपी यानी ‘गे्रट इंडिया प्लेस’ मौल युवाओं का पसंदीदा स्थान है. हम गाजियाबाद में रहते हैं. मिशिका अकेले ही रोज गाजियाबाद से कालिज आती है मगर इस तरह पार्टी आदि में जाना हो तो मैं या उस के पापा साथ आते हैं. यों अकेले तैयार हो कर बेटी को घूमनेफिरने जाने देने की हिम्मत नहीं होती. एक तो उस के पापा का जिला जज होना, पता नहीं कितने दुश्मन, कितने दोस्त, दूसरे आएदिन होने वाले हादसे, मैं तो डरी सी ही रहती हूं. क्या करूं? आखिर मां हूं न…
बच्चे अपने मातापिता की भावनाओं को कहां समझ पाते हैं. उन्हें तो यही लगता है कि हम उन की आजादी पर रोक लगा रहे हैं. कई बार मिशिका भी बड़ी हाइपर हुई है इस बात को ले कर कि ममा, आप ने तो मुझे अभी तक बिलकुल बच्चा बना कर रखा है. अब मैं बड़ी हो गई हूं. अपना ध्यान रख सकती हूं. अब उस नादान को क्या समझाएं कि मातापिता के लिए तो बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. चाहे वे कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं.
हां, मेरी तरह शायद जज साहब से वह इतना कुछ नहीं कह पाती. उन की लाडली, सिर चढ़ी जो है. जो बात मनवानी होती है, मनवा ही लेती है. बात तो शायद मैं भी उस की मान ही लेती हूं लेकिन उसे बहुत कुछ समझाबुझा कर, जिस से वह मुझ से खीझ सी जाती है.
अब क्या करूं, जब मुझे इस तरह के आधुनिक तौरतरीके पसंद नहीं आते तो. मैं तो हर बार इसे ही तरजीह देती हूं कि वह अपने पापा के संग ही आए. दोनों बापबेटी के शौकमिजाज एक से हैं. कितनी ही देर मौल में घुमवा लो, दोनों में से कोई पहल नहीं करता घर चलने की. मैं भी कभीकभी बस फंस ही जाती हूं. जैसे आज वह नहीं वक्त निकाल पाए. कोर्ट में कुछ जरूरी काम था.
मैं थोड़ी देर तक यों ही एक दुकान से दूसरी दुकान में टहलती रही. खरीदारी तो वैसे भी मुझे कुछ यहां करनी नहीं होती है. वह तो मैं हमेशा अपने शहर की कुछ चुनिंदा दुकानों से ही करती हूं. सरकारी गाड़ी में अर्दलियों और सिपाहियों के संग रौब से जाओ और बस, रौब से वापस आ जाओ. सामान में कोई कमी हो तो चाहे महीने भर बाद दुकान पर पटक आओ. यहां मौल में, इतनी भीड़ में किस को किस की परवा है, कौन पहचान रहा है कि जज की बीवी शौपिंग कर रही है या कोई और. शायद इतने सालों से इसी माहौल की आदी हो गई हूं और कुछ अच्छा ही नहीं लगता.
खैर समय तो गुजारना ही था. यों ही बेमतलब घूमते रहने से थकान सी भी होने लगी थी. घड़ी पर नजर डाली तो बस, आधा घंटा ही बीता था. सोचतेविचरते मैं मैकडोनाल्ड की तरफ आ गई. कार्य दिवस होने के बावजूद वहां इतनी भीड़ थी कि बस, लगा कालिज बंक कर के सब बच्चे यहीं आ गए हों. माहौल को देख कर मिशिका का खयाल फिर दिलोदिमाग पर छा गया कि पता नहीं, यह क्या मौलवौल में पार्टी करने का प्रचलन हो गया है. अरे, तसल्ली से घर में मित्रों को बुलाओ, खूब खिलाओपिलाओ, मौजमस्ती करो, कोई मनाही थोड़े ही है.
थोड़ी देर में ही सही, मेरा भी कौफी का नंबर आ ही गया था. कौफी और फ्रेंचफ्राइज ले कर भीड़ से बचतेबचाते मैं एक खाली सीट पर जा कर बैठ गई और अपने चारों तरफ देखती कौफी का सिप भरती जा रही थी.
तभी मेरे पास एक बड़ी स्मार्ट सी महिला आईं और खाली पड़ी सीट की ओर इशारा कर बोलीं, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकती हूं?’’
‘‘हांहां. क्यों नहीं…आप चाहें तो यहां बैठ सकती हैं,’’ इतना कहने के साथ ही मेरी इधरउधर की सोच पर वर्तमान ने बे्रक लगा दिया.
मैं उस संभ्रांत महिला को कौफी पीतेपीते देखती रही. उस ने कांजीवरम की भारी सी साड़ी पहन रखी थी. उसी से मेल खाता खूबसूरत सा कोई नैकलेस डाल रखा था. पर्स भी उस के हाथ में बहुत सुंदर सा था. कुल मिला कर वह हाइसोसाइटी की दिख रही थी.
मुझ से रहा नहीं गया. अटपटा सा लग रहा था कि उस के सामने मैं फे्रंचफ्राइज का मजा अकेले ही ले रही थी और वह सिर्फ कौफी ले कर बैठी थी. संकोच छोड़ मैं ने अपने चिप्स उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अकेले ही शौपिंग हो रही है…’’
अपने होंठों पर हलकी सी हंसी ला कर वह बोलीं, ‘‘शौपिंग नहीं, आज तो अपने बेटे के संग आई हूं. दरअसल, आज बच्चों की गेटटूगेदर है. मेरे पति रिटायर्ड आई.ए.एस. हैं. यहीं सेक्टर 30 में हमारा छोटा सा घर है. पति तो अपनी ताशमंडली में व्यस्त रहते हैं और मैं बस, कभी क्लब, कभी किटी और कभी समाज- सेवा…रिटायर होने के बाद कहीं न कहीं तो अपने को व्यस्त रखना ही पड़ता है न.’’
‘‘आज मेरा छोटा बेटा समर्थ बोला कि ममा, मेरे संग मौल चलिए, आप को अच्छा लगेगा. सो आज यहां का कार्यक्रम बना लिया,’’ उस ने दोचार फ्रेंचफ्राइज बिना किसी झिझक के उठाते हुए बताया.
हम समझ गए थे कि हमारे बच्चे एक ही ग्रुप में हैं. थोड़ी देर में ही हम सहज हो क र बातें करने लगे. कुछ अपने परिवार के बारे में वह बता रही थीं और कुछ मैं. बीचबीच में हम खानेपीने की चीजें भी मंगाते जा रहे थे. अब किसी के संग रहने से अच्छा लगने लगा था. बातोंबातों में ही पता चला कि उन के 2 बेटे थे. छोटा समर्थ, मिशिका के संग पढ़ रहा था और बड़ा पार्थ इंजीनियरिंग के बाद पिछले साल सिविल सर्विस में सिलेक्ट हो गया था. इस समय लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी, मसूरी में उस की टे्रनिंग चल रही थी.
मैं ने सोचा कि बापबेटा दोनों आईएएस. शुरू में ही मुझे लग गया था कि मेरी तरह यह महिला कोई ऊंची हस्ती है.
उन का बेटा आईएएस है और जल्दी ही वह उस की शादी करने की इच्छुक हैं, यह जान कर तो मेरी रुचि उन में और भी बढ़ गई. मैं तो खुद मिशिका के लिए अच्छा वर ढूंढ़ने की कोशिश में थी और एक आईएएस लड़के को अपना दामाद बनाना तो जैसे मेरे ख्वाबों में ही था.
उस दिन से आज तक दोनों के बीच सारे संबंध समाप्त हो गए थे. चूंकि अर्णव और आन्या एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिए सुमित्रा को आन्या की ऊंचाइयों को छूने की सारी दास्तां पूरी तरह से मिलती रहती थी.
अर्णव ट्यूशन के सहारे बस पास भर होता रहा. परंतु उन के लाड़ में बिगड़ा हुआ वह ब्रैंडेड कपड़ों के शौक में उलझा रहा. वे हमेशा से चाहती थीं कि उन का बेटा विदेश में जा कर डौलर में कमाई करे.
अपनी इच्छापूर्ति के चक्कर में सुमित्रा को इंजीनियरिंग के ऐडमिशन के लिए अपने प्रौविडैंट फंड से बड़ी रकम निकाल कर डोनेशन के लिए देनी पड़ी थी.
श्रीकांत एक बड़ी दुकान में सैल्समैन ही तो थे. कभी बेटे के लिए बाइक जरूरी हो गई थी तो कभी नए मौडल का एंड्रौएड फोन तो कभी ब्रैंडेड गौगल्स. प्राइवेट कालेज की फीस और बेटे का लंबाचौड़ा हाथ खर्च देतेदेते उन के फंड से काफीकुछ निकलता जा रहा था.
सुमित्रा सपनों में डूबी हुई थीं. ‘कांत, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? मेरा राजकुमार तो ब्लैंक चैक है. उस की शादी में मनचाही रकम भर के वसूल लेना. यह अमेरिका जा कर इतने डौलर कमाएगा कि आप रुपए गिन भी नहीं पाएंगे.’
कांत नाराज हो कर बोले थे, ‘हवा में मत उड़ो. अब समय बदल गया है, दहेज के बारे में सोचना भी अपराध है.’
एक दिन अपने मित्रों के सामने वे अपने दिल का दर्द उड़ेल बैठे थे, ‘आजकल बच्चों की पढ़ाई में जितना खर्च हो जाता है उतने में तो बेटी का ब्याह भी हो जाए.’
सभी जोर से ठहाका लगा कर हंस पड़े थे कि मित्र ने कहा था, ‘बात तो सही कह रहे हो पर लड़कियां भी तो बेटे के बराबर ही पढ़ती हैं. अब मेरी बेटी भी इंजीनियरिंग कर रही है. वह तो गवर्नमैंट कालेज में पढ़ रही है और उसे स्कौलरशिप भी मिल रही है. उस का तो कैंपस सलैक्शन भी हो गया है. जिस के घर जाएगी, पैसे से उस का घर भर देगी.’
अर्णव का कैंपस सलैक्शन नहीं हुआ था. उसे कौल सैंटर में नौकरी मिली थी. अमेरिका के हिसाब से उसे रात में जा कर काम करना पड़ता था. वह शाम 7 बजे जाता था और सुबह 8 बजे लौट कर आता था. उस का शरीर रात की नौकरी नहीं झेल पाया था. वह बीमार हो कर घर लौट आया था. काफी दिनों तक उस का इलाज चलता रहा था. वहां पर उस के कई दोस्त बन गए थे जो विदेशों में पढ़ाई के साथसाथ नौकरी कर रहे थे. अर्णव भी अमेरिका जाने को उतावला हो उठा था. उस ने जीआरई के लिए तैयारी करनी शुरू कर दी. कोचिंग और फीस उस ने स्वयं ही दी थी.
उस ने 2 बार जीआरई की परीक्षा दी परंतु असफल रहा था. वहीं पर वह उन दलालों के चंगुल में फंस गया जो ठेके पर लड़कों को अमेरिका, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया भेजते थे. वे लड़कों को अपने जाल में फंसाने के लिए सारे हथकंडे आजमाया करते थे.
एक दिन वह अपने मित्र सुधांशु को ले कर आया था. ‘पापा, सुधांशु अमेरिका जा रहा है. मां, प्लीज आप पापा को समझाइए. सब की जिंदगी बदल जाएगी. वहां मुझे स्कौलरशिप भी मिल जाएगी. मैं वहां से पोस्ट ग्रेजुएट कर के आऊंगा तो यहां मुझे बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. वहां रहूंगा तो डौलर में कमाऊंगा. सोचिए जरा, बड़ा सा बंगला, बड़ी सी गाड़ी, क्या ठाट होंगे आप के.’
‘कांत नाराज हो कर बोले थे, ‘सुधांशु तो नेता का बेटा है. अपने पिता के पैसे पर ऐश कर रहा है. मेरे पास पैसा कहां रखा है जो मैं दे दूं.’
‘पापा, प्लीज आप कहीं से कर्ज ले लीजिए. मैं एकएक पैसा लौटा दूंगा.’
परंतु श्रीकांत नहीं पिघले थे.
वह घर में पड़ा रहता. न मां से बात करता, न पापा से. वह सूख कर कांटा हो गया था.
‘कहीं नौकरी क्यों नहीं कर लेता?’
‘दिनभर नौकरी ही तो लैपटौप पर बैठाबैठा ढूंढ़ता रहता हूं.’
फिर किसी बीपीओ में उस की नौकरी लग गई थी. सालभर करता रहा था. कुछ रुपए इकट्ठे कर लिए थे.
अब उस ने बैंक में लोन के लिए अर्जी डाल दी थी. सीधा फौर्म ले कर गारंटर की जगह हस्ताक्षर करने का हुक्मनामा सुना दिया था. घर के पेपर्स उस ने श्रीकांत से पूछे बिना ही निकाल लिए थे.
कई दिनों तक घर में अशांति छाई रही थी. परंतु हमेशा की तरह ही सुमित्रा बेटे के समर्थन में खड़ी हो कर बोली थीं, ‘पेपर बैंक में रखने से उस का भविष्य सुधर जाता है तो इस में क्या परेशानी है? कर दीजिए हस्ताक्षर.
‘बेटे को पंख लग जाएंगे. वह आकाश की ऊंचाइयों को छू लेना चाहता है तो आप क्यों बाधा बने हुए हैं. हम लोगों का क्या? थोड़ी सी जिंदगी जी लेंगे किसी तरह. बेटा दुखी रहेगा, तो हम इस मकान का भला क्या करेंगे.’
कांत चिल्ला कर बोले थे, ‘जब तक जिंदा हूं, सिर पर छत चाहिए कि नहीं? एकएक ईंट जोड़ कर इस 2 कमरे का घर किसी तरह बना पाया हूं, वह भी जीतेजी गिरवी रख दूं. मैं ने इस घर को बनाने में अपना खूनपसीना बहाया है. तब जा कर यह बना पाया हूं.’
अर्णव भी कम नहीं था. वह बचपन से जिद्दी था. जो सोच लेता था, वह कर के रहता था. दलाल ने
उसे ऐसे सपने दिखाए थे मानो अमेरिका की सड़कों पर डौलर बिखरे पड़े हैं. वहां पहुंचते ही वह बटोर कर अपनी झोली में भर लेगा.
आखिरकार सुमित्रा के दबाव में कांत को मजबूर हो कर उस पर हस्ताक्षर करने ही पड़े थे. परंतु उस समय उन की आंखों से आंसू भरभर कर निकल पड़े थे. उस दिन सुमित्रा का भी मन खराब हुआ था पर बेटे की खुशी के लिए वे सबकुछ करने को तैयार थीं. आखिर वह उन का ब्लैंक चैक जो था.
बैंक से 10 लाख रुपए लोन ले कर सुमित्रा ने अर्णव को दे दिए थे. बेटे को खुश देख कर सुमित्रा को तसल्ली तो हुई थी परंतु कांत उस रात खून के आंसू रोए थे.
अर्णव उसी दिन मुंबई चला गया था. कुछ दिन फोन करता रहा था. फिर जल्दी ही शायद वह वहां की अपनी रंगीन दुनिया में खो गया और मांबाप, घरद्वार सब को पूरी तरह से भूल गया था.
आज सुमित्रा अपनी गलतियों पर पछता कर सिसक रही थीं. परंतु ‘अब पछताए होत का, जब चिडि़या चुग गई खेत.’ तभी दरवाजे की घंटी बजी थी. उन्होंने घबरा कर घड़ी पर निगाह डाली, सुबह के 6 बजे थे.
सुमित्रा ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने शची खड़ी थी. वे उस से लिपट कर जोरजोर से सिसक पड़ी. ‘‘भाभी, आप ने फोन करने में इतनी देर क्यों कर दी,’’ शची बोली थी.
शची के हाथ से छूट कर ब्लैंक चैक हवा में फड़फड़ा रहा था.
दोनों कागज पर लिख कर अपने दिल का हाल बयां करते और उस खत को रोल कर एकदूसरे की तरफ फेंकते. कभी मोबाइल से दोनों बातें करते, कभी चैटिंग करते. जोक्स बोल कर हंसतेहंसाते. लेकिन इस पर भी जब उन का मन नहीं भरता, तो दोनों अपनीअपनी छत पर खड़े हो कर लोगों के घरों में ताकझांक करते कि इस लौकडाउन में वे अपने घरों में क्या रहे हैं. कहीं पतिपत्नी साथ मिल कर खाना पका रहे होते. कहीं काम को ले कर सासबहू में झगड़े हो रहे होते. और एक घर में तो हसबैंड पोंछा लगा रहा था और उस की पत्नी उसे बता रही थी कि और कहांकहां पोंछा लगाना है. देख कर दोनों की हंसी रुक ही नहीं रही थी. रचना का तो पेट ही दुखने लगा हंसहंस कर. बड़ा मजा आ रहा था उन्हें लोगों के घरों में ताकझांक करने में. अकसर दोनों छत पर जा कर लोगों के घरों में ताकतेझांकते और खूब मजे लेते.
इस कोरोना ने पूरी दुनिया में कहर मचा रखा है. दुनियाभर में कोरोना की चपेट में लाखों लोग आ गए हैं. लाखों लोगों की मौत हो चुकी है. कोरोना के डर से करोड़ों लोग अपने घरों में कैद हैं. सोशल डिस्टैंसिंग के चलते लोग एकदूसरे से मिल नहीं रहे हैं. वहीं, इस दहशत के बीच रचना और शिखर के बीच प्यार का अंकुर फूट पड़ा है. यह अनोखी प्रेम कहानी भले ही लोगों की आंखों से ओझल है, पर दोनों एकदूसरे की आंखों में डूब चुके हैं.
लेकिन, उन का प्यार रचना के पति अमन और शिखर की पत्नी की आंखों से छिपा नहीं है. जान रहे हैं वे दोनों कि इन दोनों के बीच कुछ चल रहा है. तभी तो अमन जब भी घर में होता है, रचना के आसपास ही मंडराता रहता है, और उधर शिखर की पत्नी भी खिड़की खुली देख नाकभौं चढ़ा लेती है.
इसी बात पर कई बार अमन से रचना की लड़ाई भी हो चुकी है. अमन का कहना है कि क्यों वह वहीं बैठ कर काम करती है? घर में और भी तो जगह है? लेकिन रचना कहती कि उस की मरजी, जहां बैठ कर वह काम करे.
‘वह क्यों उस का मालिक बना फिरता है? घर का एक काम तो होता नहीं उस से, और बड़ा आया है नसीहतें देने,’ अपने मन में ही बोल रचना मुंह बिचका देती.
उधर, शिखर भी अपनी पत्नी के व्यवहार से परेशान है. जब देखो, वह उस के आगेपीछे मंडराती रहती. कभी चाय, कभी पानी देने के बहाने वहां पहुंच जाती और फालतू की बातें कर उसे बोर करती. कहता शिखर कि जाओ मुझे काम करने दो. पर नहीं, बकवास करनी ही है उसे. रचना को वह घूर कर देखती है और खिड़की बंद कर देती है. लेकिन जब वह चली जाती है, खिड़की फिर खुल जाती और फिर दोनों की गुपचुप बातें शुरू हो जातीं.
अमन के सो जाने पर, देररात तक रचना शिखर के साथ फोन पर चैटिंग करती रहती है. सुबह रचना को डेरी तक दूध लाने जाना पड़ता था, तो अब शिखर भी उस के साथ दूध और सब्जीफल लाने स्टोर तक जाने लगा है, ताकि दोनों को आपस में बातें करने का और मौका मिल सके. लोगों की नजरें बचा कर शिखर कूद कर रचना की छत पर आ जाता और दोनों एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए घंटों बिता देते हैं.
‘‘लगता है बारिश होगी. हवा भी कितनी ठंडीठंडी चल रही है’’ कह कर रचना उस रोज, जब दोनों एक ही छत पर साथ बैठे हुए थे, रचना अपनेआप में ही सिकुड़ने लगी, तभी अमन ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और दोनों वहीं जमीन पर बैठ गए. कुछ देर तक दोनों एकदूसरे की आंखों में ऐसे डूबे रहे जैसे उन के आसपास कोई हो ही न. शिखर हौलेहौले रचना के बालों में उंगलियां फेरने लगा और वह मदहोश उस की बांहों में सिकुड़ती चली गई. ‘‘अभी तो लोगों को डिस्टैंस बना कर कर चलने के लिए कहा जा रहा है और हम यहां एकसाथ बैठे प्यारमोहब्बत कर रहे हैं. अगर किसी ने देख लिया हमारा कोरोना प्यार तो?’’ हंसते हुए रचना बोली.
‘‘हां, सही है यार. किसी ने देख लिया तो? पता है, पुलिस लोगों को दौड़ादौड़ा कर डंडे बरसा रही है,’’ कह कर शिखर हंसा, तो रचना भी हंस पड़ी और बोली, ‘‘वैसे, क्यों न हम अपने प्यार का नाम ‘कोरोना लव’ रख दें. कैसा रहेगा?’’
तभी अचानक से शरीर पर पानी की बूंदें पड़ते देख दोनों चौंक पड़े. ‘‘ब…बारिश, बारिश हो रही है, शिखर. ओ मां, इस मार्च के महीने में बारिश?’’ बोल कर रचना एक बच्ची की तरह चिहुंक उठी और अपनी हथेलियां फैला कर गोलगोल घूमने लगी. मजा आ रहा था उसे बारिश में भीगने में. लेकिन तबीयत बिगड़ने के डर से दोनों वापस घर आ गए. यह बेमौसम की बारिश थी और वैसे भी, अभी कोरोना वायरस फैला हुआ है, तो बारिश में भीगना ठीक नहीं. लेकिन दोनों की बातें अभी खत्म नहीं हुई थीं. सो, वे अपनीअपनी खिड़की से ही इशारों मे बातें करने लगे.
‘‘आंखों की गुस्ताखियां माफ हों, एकटक तुम्हें देखती हैं, जो बात कहना चाहे जबां, तुम से वो यह कहती है. एक कागज पर ढेरों तारीफें लिख कर शिखर ने रचना की तरफ अभी फेंका ही था कि अमन आ गया और उन का कलेजा धक्क कर गया. खैर, वह उस कागज के गोले को देख नहीं पाया, क्योंकि रचना ने झट से उसे अपने पैर के नीचे दबा लिया और जब अमन वहां से चला गया, तब वह उसे खोल कर पढ़ने लगी. अपनी तारीफें पढ़ कर रचना के गाल शर्म से लाल हो गए. जब उस ने अपनी नजरें उठा कर शिखर की तरफ देखा, तो उस ने एक प्यारा सा ‘फ्लाइंग किस’ रचना को भेजा. बदले में रचना ने भी उसे फ्लाइंग किस भेजा और दोनों मोबाइल पर चैटिंग करने लगे.
कोरोना के डर से लोग सहमे हुए हैं, सड़केंगलियां वीरान पड़ी हैं जबकि रचना और शिखर को अपनी जिंदगी पहले से भी हसीन लगने लगी है. उन्हें वीरान पड़ी दुनिया रंगीन नजर आ रही है. सायंसायं करती हवा प्यार की धुन लग रही है. अपनी जिंदगी में यह नया बदलाव दोनों को भाने लगा है. लेकिन यही बातें अमन और शिखर की पत्नी को जरा भी नहीं भा रही हैं. उन्हें खुश देख वे जलभुन रहे हैं.
अमन और रचना ने लवमैरिज की थी. परिवार के खिलाफ जा कर दोनों ने शादी की थी. वैसे, फिर बाद में सब ने उन के रिश्ते को स्वीकार कर लिया. लेकिन अब उसी अमन में वह बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी. रचना तो आज भी अमन को प्यार करती है, पर ताली तो दोनों हाथों से बजती है न?
मानसी बताने लगी कि उस के 2 बच्चे हैं, ऊपर से बूढ़े सासससुर, घर के काम के साथसाथ उन का भी बराबर ध्यान रखना होता है और औफिस का काम भी करना पड़ता है. पति हैं कि जहां हैं वहीं फंस चुके हैं, आ नहीं सकते. तो उस पर ही घरबाहर सारे कामों की जिम्मेदारी पड़ गई है. उस पर भी कोई तय शिफ्ट नहीं है कि उसे कितने घंटे काम करना पड़ता है. बताने लगी कि कल रात वह 3 बजे सोई, क्योंकि 2 बजे रात तक तो व्हाट्सऐप पर ग्रुप डिस्कशन ही चलता रहा कि कैसे अगर वर्क फ्रौम होम लंबा चला तो, सब को इस की ऐसी प्रैक्टिस करवाई जाए कि सब इस में ढल जाएं.
उस की बातें सुन कर रचना का तो दिमाग ही घूम गया. जानती है वह कि उस के बच्चे कितने शैतान हैं और सासससुर ओल्ड. कैसे बेचारी सब का ध्यान रख पाती होगी? सोच कर ही उसे मानसी पर दया आ गई. लेकिन, इस लौकडाउन में वह उस की कोई मदद भी तो नहीं कर सकती थी. सो, फोन पर ही उसे ढाढ़स बंधाती रहती थी.
‘सच में, कैसी स्थिति हो गई है देश की? न तो हम किसी से मिल सकते हैं, न किसी को अपने घर बुला सकते हैं और न ही किसी के घर जा सकते हैं. आज इंसान, इंसान से भागने लगा है. लोग एकदूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं. क्या हो रहा है यह और कब तक चलेगा ऐसा? सरकार कहती रही कि अच्छे दिन आएंगे. क्या ये हैं अच्छे दिन? किसी ने सोचा था कभी कि ऐसे दिन भी आएंगे?’ अपने मन में यह सब सोच कर रचना दुखी हो गई.
रचना ने अपने घर के ही एक कोने में जहां से हवा अच्छी आती थी, टेबल लगा कर औफिस जैसा बना लिया और काम करने लगी. चारा भी क्या था? वैसे, अच्छा आइडिया दिया था मानसी ने उसे. थैंक यू बोला उस ने उसे फोन कर के.
काम करतेकरते जब रचना का मन उकता जाता, तो ब्रेक लेने के लिए थोड़ाबहुत इधरउधर चक्कर लगा आती. नहीं तो अपने घर की छत पर ही कुछ देर टहल लेती. और फिर अपने लिए चाय बना कर काम करने बैठ जाती. अब रचना का माइंड सैट होने लगा था. लेकिन बौस का दबाव तो था ही, जिस से मन चिड़चिड़ा जाता कभीकभी कि एक तो इस लौकडाउन में भी काम करो और ऊपर से इन्हें कुछ समझ नहीं आता. सबकुछ परफैक्ट और सही समय पर ही चाहिए. यह क्या बात हुई? बारबार फोन कर के चैक करते हैं कि कर्मचारी अपने काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं. कहीं वे अपने घर पर आराम तो नहीं फरमा रहे हैं.
उस दिन बौस से बातें करते हुए रचना को एहसास हुआ कि कोई उसे देख रहा है. ऐसा होता है न? कई बार तो भरी बस या ट्रेन के कोच में भी ऐसी फीलिंग आती है कि कोई हम पर नजरें गड़ाए हुए है. अकसर हमारा यह एहसास सच साबित होता है. अब ऐसा क्यों होता है, यह तो नहीं पता लेकिन सामने वाली खिड़की पर बैठा वह शख्स लगातार रचना को देखे ही जा रहा था.
जैसे ही रचना की नजर उस पर पड़ी, वह इधरउधर देखने लगा. लेकिन, फिर वही. रचना उसे नहीं जानती. आज पहली बार देख रही है. शायद, अभी वह नया यहां रहने आया होगा, नहीं तो वह उसे जरूर जानती होती. लेकिन वह उसे क्यों देखे जा रहा है? क्या वह इतनी सुंदर है और यंग है? वह बंदा भी कुछ कम स्मार्ट नहीं था. तभी तो रचना की नजर उस पर से हट ही नहीं रही थी. लेकिन, फिर यह सोच कर नजरें फेर लीं उस ने कि वह क्या सोचेगा.
एक दिन फिर दोनों की नजरें आपस में टकरा गईं, तो आगे बढ़ कर रचना ने ही उसे ‘हाय’ कहा. इस से उस बंदे को बात आगे बढ़ाने का ग्रीन सिग्नल मिल गया. अब रोज दोनों की खिड़की से ही ‘हायहैलो’ के साथसाथ थोड़ीबहुत बातें होने लगीं. दोनों कभी देश में बढ़ रहे कोरोना वायरस के बारे में बातें करते, कभी लौकडाउन को ले कर उन की बातें होतीं, तो कभी अपने वर्क फ्रौम होम को ले कर बातें करते. और इस तरह से उन के बीच बातों का सिलसिला चल पड़ता, तो रुकता ही नहीं.
‘‘वैसे, सच कहूं तो औफिस जैसी फीलिंग नहीं आती घर से काम करने में, है न?’’ रचना के पूछने पर वह बंदा कहने लगा, ‘‘हां, सही बात है, लेकिन किया भी क्या जा सकता है?’’
‘‘सही बोल रहे हैं आप, किया भी क्या जा सकता है. लेकिन पता नहीं, यह लौकडाउन कब खत्म होगा. कहीं लंबा चला तो क्या होगा?’’ रचना की बातों पर हंसते हुए वह कहने लगा कि भविष्य में क्या होगा, कौन जानता है? ‘‘वैसे जो हो रहा है सही ही है, जैसे हमारा मिलना’’ जब उस ने मुसकराते हुए यह कहा, तो रचना शरमा कर अपने बाल कान के पीछे करने लगी.
रचना के पूछने पर उस ने अपना नाम शिखर बताया और यह भी कि वह यहां एक कंपनी में काम करता है. अपना नाम बताते हुए रचना कहने लगी कि उस का औफिस उसी तरफ है.
काम के साथसाथ अब दोनों में पर्सनल बातें भी होने लगीं.
शिखर ने बताया कि पहले वह मुंबई में रहता था, मगर अभी कुछ महीने पहले ही तबादला हो कर दिल्ली शिफ्ट हुआ है.
‘‘ओह, और आप की पत्नी भी जौब में हैं?’’ रचना ने पूछा तो शिखर ने कहा, ‘‘नहीं, वह हाउसवाइफ है.’’
‘‘हाउसवाइफ नहीं, होममेकर कहिए शिखरजी, अच्छा लगता है,’’ बोल कर रचना खिलखिला पड़ी.
शिखर उसे देखता ही रह गया. रचना से बातें करते हुए शिखर के चेहरे पर अजीब सी संतुष्टि नजर आती थी. लेकिन वहीं, अपनी पत्नी से बातें करते हुए वह झल्ला पड़ता था.
अमन को औफिस भेज कर, घर के काम जल्दी से निबटा कर, रचना अपनी जगह पर जा कर बैठ जाती, उधर शिखर पहले से ही उस का इंतजार करता रहता और उसे देखते ही खिड़की के पास आ कर खड़ा हो जाता. फिर दोनों बातें करने लगते. लेकिन जैसे ही शिखर को अपनी पत्नी की आवाज सुनाई पड़ती, वह भाग कर अपनी जगह पर बैठ जाता और फिर दोनों इशारोंइशारों में बातें करने लगते. कहीं न कहीं दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे थे. कोरोना के चलते घर में क्वारंटाइन होने की वजह से उन के प्यार की गाड़ी अटक गई थी. लेकिन, उन्होंने इस का भी हल निकाल लिया.
अमन घर में पैर रखने ही जा रहा था कि रचना चीख पड़ी, ‘‘बाहर…बाहर जूता खोलो. अभी मैं ने पूरे घर में झाड़ूपोंछा लगाया है और तुम हो कि जूता पहन कर अंदर घुसे आ रहे हो.’’
‘‘अरे, तो क्या हो गया? रोज तो आता हूं,’’ झल्लाते हुए अमन जूता बाहर ही खोल कर जैसे ही अंदर आने लगा रचना ने फिर उसे टोका, ‘‘नहीं, बैठना नहीं, जाओ पहले बाथरूम और अच्छे से हाथमुंहपैर सब धो कर आओ. और हां, अपना मोबाइल भी सैनिटाइज करना मत भूलना. वरना यहांवहां कहीं भी रख दोगे और फिर पूरे घर में इन्फैक्शन फैलाओगे.’’
रचना की बात पर अमन ने उसे घूर कर देखा. ‘क्या है, घूर तो ऐसे रहे हैं जैसे खा ही जाएंगे. एक तो इस कोरोना की वजह से बाई नहीं आ रही है. सोसाइटी वालों की तरफ से सख्त मनाही है और ऊपर से इन की नवाबी देखो. जैसे मैं इन के बाप की नौकर हूं. यह नहीं होता जरा कि काम में मेरी थोड़ी हैल्प कर दें. नहीं, उलटे काम को और बड़ा कर रख देते हैं. कहीं जूता खोल कर रख देंगे, कहीं भीगा तौलिया फेंक आएंगे. कितनी बार कहा, हाथ धो कर फ्रिज या किचन का कोई सामान छुआ करो. लेकिन नहीं, समझ ही नहीं आता इन्हें. बेवकूफ कहीं के,’ अपने मन में ही भुनभुनाई रचना.
‘‘हूं, बड़ी आई साफसफाई पर लैक्चर देने वाली. समझती क्या है अपनेआप को? जैसे इस घर की मालकिन यही हो. हां, करूंगा, जैसा मेरा मन होगा करूंगा,’’ अमन भन्नाता हुआ अपने कमरे में घुस गया और दरवाजा बंद कर लिया.
‘‘वैसे, गलती इन मर्दों की भी नहीं है. गलती है उन मांओं की जो बेटियों को तो सारी शिक्षा, संस्कार दे डालती हैं, पर अपने बेटों को कुछ नहीं सिखातीं, क्योंकि उन्हें तो कोई जरूरत ही नहीं है न सीखने की. बीवी तो मिल ही जाएगी बना कर खिलाने वाली,’’ अमन को भुनभुनाते देख वह चुप नहीं रह पाई और बोल दिया जो मन में आया.
बहुत गुस्सा आ रहा था उसे आज. कहा था अमन से, लौकडाउन की वजह से बाई कुछ दिन काम पर नहीं आएगी, तो वह उस की मदद कर दिया करे काम में, क्योंकि उसे और भी काम होते हैं. ऊपर से अभी औफिस का काम भी उसे घर से करना पड़ रहा है, तो समय नहीं मिल पाता है. लेकिन अमन ने ‘तुम्हारा काम है तुम जानो, मुझ से नहीं होगा’ कह कर बात वहीं खत्म कर दी. तो गुस्सा तो आएगा ही न? क्या वह अकेली रहती है इस घर में जो सारे कामों की जिम्मेदारी उस की ही है? आखिर वह भी तो नौकरी करती है बाहर जा कर. यह बात अमन क्यों नहीं समझता.
खाना खाते समय भी दोनों में घर के काम को ले कर बहस शुरू हो गई. रचना ने सिर्फ इतना कहा कि घर के कुछ सामान लाने थे. अगर वह ले आता तो अच्छा होता. वह गई थी दुकान राशन का सामान लाने, पर वहां बड़ी लंबी लाइन लगी थी इसलिए वापस चली आई.
‘‘तो वापस क्यों आ गईं? क्या जरा देर खड़ी रह कर सामान खरीद नहीं सकती थीं जो बारबार मुझे फोन कर के परेशान कर रही थीं? एक तो मुझे इस लौकडाउन में भी बैंक जाना पड़ रहा है, ऊपर से तुम चाहती हो कि मैं घर के कामों में भी तुम्हारी मदद कर दूं? नहीं हो सकता है,’’ चिढ़ते हुए अमन बोला.
‘‘हां, पता है मुझे, तुम से तो कोई उम्मीद लगाना ही बेकार है. क्या करती मैं, धूप में खड़ीखड़ी पकती रहती? फोन इसलिए कर रही थी कि तुम औफिस से आते हुए घर के सामान लेते आना? लेकिन नहीं, तुम तो फोन भी नहीं उठा रहे थे मेरा. वैसे, एक बात बताओ, अभी तो बैंक में पब्लिक डीलिंग हो नहीं रही है, फिर करते क्या हो जो मेरा एक फोन नहीं उठा सकते या घर का कोई सामान खरीद कर नहीं ला सकते? बोलो न? घरबाहर के सारे कामों की जिम्मेदारी मेरी ही है क्या? तुम्हें कोई मतलब नहीं?’’
‘‘पब्लिक डीलिंग नहीं होती है तो क्या बैंक में काम नहीं होते हैं? और ज्यादा सवाल मत करो मुझ से. जो करना है, जैसे करना है, समझो खुद, समझी? खुद तो आराम से ‘वर्क फ्रौम होम’ कर रही हो. जब मरजी होती है, आराम कर लेती हो, दोस्तों से बातें कर लेती हो और दिखा रही हो कि कितना काम करती हो.’’
अमन की बातें सुन कर रचना दंग रह गई कि कैसा इंसान है यह? जरा भी हमदर्द नहीं है? क्या सोचता है? क्या वह घर में आराम करती रहती है? रचना खामोश ही रही.
अमन फिर बोल पड़ा, ‘‘हां, बोलो न, क्या मुश्किल है, बताओ मुझे? जब मन आए काम करो, जब मन आए आराम कर लो. इतना अच्छा तो है, फिर भी नाकमुंह चढ़ाए रहती हो. सच में, तुम औरतों को तो समझना ही मुश्किल है.’’
अब रचना का पारा और चढ़ गया. अभी वह कुछ बोलती ही कि उस की दोस्त मानसी का फोन आ गया.
‘‘हैलो मानसी, बता, कैसा चल रहा है तेरा? बच्चेवच्चे सब ठीक तो हैं न?’’ लेकिन मानसी बताने लगी कि बहुत मुश्किल हो रही है, घर, बच्चे और औफिस का काम संभालना. क्या करें, कुछ समझ नहीं आ रहा है.
‘‘ज्यादा चिंता मत कर. चलने दे जैसा चल रहा है. क्या कर सकती है तू. लेकिन बच्चे और अपनी सेहत का ध्यान रख, वह जरूरी है अभी.’’
थोड़ी देर और मानसी से बात कर रचना ने फोन रख दिया. फिर किचन का सारा काम समेट कर अपनी टेबल पर जा कर बैठ गई.
उस दिन जब उस ने मानसी से अपनी समस्या बताई थी कि घर में वह औफिस की तरह काम नहीं कर पा रही है और ऊपर से बौस का प्रैशर बना रहता है हरदम, तब मानसी ने ही उसे सुझाया था कि बैडरूम या डाइनिंग टेबल पर बैठ कर काम करने के बजाय वह अपने घर के किसी कोने को औफिस जैसा बना ले और वहीं बैठ कर काम करे तो सही रहेगा. जब ब्रेक लेने का मन हो तो अपनी सोसाइटी का एक चक्कर लगा आए या पार्क में कुछ देर बैठ जाए. इस से अच्छा लगेगा क्योंकि वह भी ऐसा ही करती है.
‘‘अरे वाह, क्या आइडिया दिया तू ने मानसी. मैं ऐसा ही करूंगी,’’ कहते हुए चहक पड़ी थी रचना. लेकिन मानसी की स्थिति जान कर दुख भी हुआ.
टैक्सी घर के बाहर रुकी तो मानसी ने चैन की सांस ली. घर को बाहर से निहारते हुए अंदर प्रवेश किया. यह घर उसे बहुत अच्छा लगता है. यह घर मानसी के पापा ने कुछ समय पहले ही खरीदा था. यहां बहुत शांति है.
मानसी ने जोर से आवाज दी, ‘‘बिट्टू,
कहां हो?’’
मानसी को विश्वास था बिट्टू किसी कोने से निकल कर अभी उस से लिपट जाएगा.
1 सप्ताह पहले जब मानसी को बैंक की तरफ से 4 दिन की ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जाना था तो बिट्टू ने रोरो कर घर सिर पर उठा लिया और मानसी के मम्मीपापा के लिए उसे संभालना मुश्किल हो गया था. शुरू में तो उस का मन भी नहीं लगा, लेकिन मम्मी ने जब फोन पर बताया कि बिट्टू को कोई अच्छा दोस्त मिल गया है तो वह बहुत खुश हो गईर् कि कम से कम अब वह आराम से रह लेगा क्योंकि घर के आसपास अधिकतर बंगले खाली थे. बिट्टू अकेला बोर हो जाता था.
बिट्टू, पापा, मम्मी, मानसी सब को आवाज देती अंदर आ रही थी कि तभी मम्मी किचन से निकलीं. बोली, ‘‘अरे मानी, तुम कब आई?’’
‘‘बस आ ही रही हूं. बिट्टू कहां है?’’
उस की मम्मी हंसते हुए बताने लगीं, ‘‘पहले दिन तो उस ने खूब हंगामा किया. फिर
उस की दोस्ती साथ वाले बंगले में रहने आए नए परिवार के बेटे से हो गई, बस, आजकल उसी के साथ रहता है. स्कूल भी उसी के साथ जाता है वह भी बिना जिद किए. बहुत खुश रहने लगा है आजकल.’’
मानसी ने चैन की सांस ली.
उस की मम्मी बोलीं, ‘‘तुम फ्रैश हो कर जरा आराम कर लो… खाने में क्या खाओगी?’’
‘‘मम्मी, जो बिट्टू खाए वही बना लो.’’
‘‘बिट्टू ने तो अपने दोस्त के साथ उसी के घर खा लिया है.’’
‘‘अरे, यह तो असंभव सी बात है मम्मी… उसे तो कहीं खाना अच्छा नहीं लगता है.’’
‘‘पूछो मत, मानी, अपने दोस्त के पीछेपीछे घूमता है जो वह कहता है, खा लेता है.’’
मानसी हंसती हुई फ्रैश होने चली गई. नहा कर लेटी तो बिट्टू के बारे में सोचने लगी. कुदरत को धन्यवाद देते हुए मन ही मन बोली कि बिट्टू को कोई खुशी तो मिली. न चाहते हुए भी उसे सुधांशु का खयाल आ गया. मानसी के पिता ने अपने बिजनैस पार्टनर की बातों में आ कर 18 साल में ही उस की शादी उन के आवारा बेटे सुधांशु से कर दी थी जो एक बहुत ही गलत निर्णय सिद्ध हुआ था.
सुधांशु उन से बिजनैस के बहाने से एक मोटी रकम ले कर शादी के 1 महीने के बाद ही अमेरिका चला गया था. शुरूशुरू में उस ने सुधांशु से संपर्क करने के बहुत प्रयत्न किए, लेकिन उधर से कभी कोईर् जवाब नहीं आया था. फिर धीरेधीरे मानसी ने अपनी पढ़ाई, साथ ही बिट्टू के जन्म के बाद बढ़ती जिम्मेदारी और फिर जौब की व्यस्तता इन सब में उस ने सुधांशु को एक बुरे स्वप्न की तरह भूल जाने का प्रयत्य किया था जिस में वह अब काफी हद तक सफल भी हो चुकी थी. कुछ समय पहले ही वह अपने मम्मीपापा और बिट्टू के साथ यहां नए घर में शिफ्ट हुईर् थी.
वह सो कर उठी तो बाहर बिट्टू बड़े उत्साह से बौलिंग कराता हुआ दौड़ता आ रहा था. उसे देख कर दौड़ कर उस की बांहों में समा गया. 8 साल के बिट्टू में मानसी की जान बसती थी. वह उसे मां के साथसाथ बाप का प्यार देने की भी जीजान से कोशिश करती थी. बिट्टू को लिपटा कर उस ने उस का माथा चूम लिया.
बिट्टू बड़े उत्साह से बताने लगा, ‘‘मम्मी, आप को पता है मैं बहुत अच्छा क्रिकेट खेलने लगा हूं. मैं 3 बार अपने दोस्त को बोल्ड भी कर चुका हूं. मम्मी, मेरा दोस्त बहुत अच्छा है.’’
‘‘कहां है तुम्हारा दोस्त, जिस के लिए तुम अपनी मम्मी को भूल गए हो?’’
उस ने इधरउधर देखते हुए बिट्टू को छेड़ा और सामने ही 28-30 साल के नौजवान को देख कर मानसी हैरान रह गई जो खुद बड़ी
हैरानी से उसे देख रहा था क्योंकि वह खुद एक बच्चे की मां कहीं से नहीं लगती थी. अच्छेखासे जवान लड़के को बिट्टू के इतने अच्छे दोस्त के रूप में देखना मानसी के लिए किसी शौक से कम नहीं था.
फिर जब उस ने ‘हैलो’ कहा तो वह बस सिर हिला कर खड़ी रह गई. बिट्टू बता रहा था, ‘‘मम्मी, ये मेरे दोस्त हैं यश अंकल. बहुत अच्छे हैं, मेरे साथ बहुत खेलते हैं.’’
‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी बिट्टू का दोस्त आप की एज का इंसान होगा. मम्मी ने भी कुछ नहीं बताया था.’’
मानसी की बात पर यश मुसकराया, ‘‘मेरे विचार से दोस्ती में उम्र का कोई बंधन नहीं होता. आप से मिल कर बहुत खुशी हुई, अच्छा मैं चलता हूं, बाय,’’ कह कर वह गेट की तरफ बढ़ गया.
पहले बैंक में बैठे हुए भी मानसी को बिट्टू की चिंता लगी रहती थी और अब वह जब भी फोन करती मम्मी उसे यही बताती कि वह यश के साथ है. कभी यश उस को पढ़ा रहा होता तो कभी खेल रहा होता उस के साथ. मम्मी ने ही बताया था कि यश के पिता कुलकर्णी यहां अकेले ही रहते हैं. यश की मम्मी का कई साल पहले सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया था. यश लंदन में पढ़ रहा है. आजकल पिता के पास आया हुआ है.
अपने मम्मीपापा के साथ मानसी भी कई बार पड़ोस में कुलकर्णी अंकल से मिलने जाती. दोनों बापबेटे बहुत ही सरल स्वभाव के हैं. सब में बहुत ही अपनापन बढ़ता जा रहा था.
एक दिन मानसी ने यश की बातों से अंदाजा लगाया कि वह काफी समझदार लड़का है. उस ने सीए किया था. शुरू में उस ने यश को एक लापरवाह सा लड़का समझ, लेकिन कई बार मिलने से उस की राय बदल गई. बिट्टू वह तो यश के पीछेपीछे घूमता. बिट्टू के साथ हंसतेखेलते यश को देख कर मानसी को भी अच्छा लगने लगा. बहुत सालों बाद दिल खुश हो कर मुसकराया था.
सीधीसादी गंभीर सी मानसी भी यश के दिल में उतर चुकी थी. अब अकसर यश भी
जिद कर के मानसी को भी अपने खेल में शामिल कर लेता. दोनों मन ही मन एकदूसरे को पसंद करने लगे. मानसी के जीवन में फिर से रंग बिखरने लगे.
एक दिन मानसी यश और बिट्टू के साथ डिनर के लिए गई. घर लौटने पर बिट्टू तो अंदर भाग गया, पर मानसी गाड़ी के पास कुछ पल रुकी तो यश ने एकदम अपना हाथ उस के कंधे पर रखा तो मानसी के सारे बदन में बिजली सी दौड़ गई. वह हड़बड़ा गई.
उस रात वह एकदो बार निन्नी के कमरे में गई पर चुपचाप लौट आई. मन कह रहा था, माफी मांग लूं, मस्तिष्क कह रहा था, कैसे, क्यों? यह सोच तो घुट्टी में पिलाई गई है. तू लड़की है, औरत है, तेरा वजूद कुछ नहीं. यह आभास तो पलपल दिलाया गया है. बचपन से पढ़ाया गया है.
सुबह गार्गी नीचे आ कर बैठ तो गई किंतु बारबार रात की अधूरी नींद उस की पलकों पर आ बैठती.
बच्चे स्कूल चले गए, निन्नी अपने काम पर. यहां मौसम का तो यह हाल है, न सुबह होती है न दोपहर, बस सांझ ही सांझ रहती है. कभीकभी बादलों के बीच से थोड़ा सा सूरज का मुंह बाहर निकलता है तब पतलीपतली छाया पूर्व से पश्चिम की ओर भागने लगती है. तब होंठों पर दबी सी मुसकराहट आ मिलती है.
घर पर काम भी अधिक न था. जितना गार्गी को समझ आता, कर लेती थी. गार्गी का मन अपने घर जाने को उचाट होने लगा था. मांबेटी में संकोच और तनाव की चट्टान खड़ी हो गई. दोनों अपनीअपनी चुप्पी की रेखाएं खींचे दिन काट रही थीं.
एक दिन बच्चे अपने स्कूल का काम करने में व्यस्त थे. गार्गी ने चुप्पी भंग करते हुए कहा, ‘‘निन्नी बेटा, तेरे पापा कह रहे थे कि अब तक तो निन्नी संभल गई होगी. तुम्हें गए भी 4 महीने हो गए हैं. कमल की शादी तय हो गई है. अगले महीने तक आ जाओ.’’
‘‘शादी? चाचाजी की? अभी 2 महीने पहले ही तो चाचीजी की मृत्यु हुई है. उन की तो राख भी ठंडी नहीं हुई. शादी है या मजाक?’’
‘‘निन्नी, क्या हो गया है तेरी बुद्धि को. कमल पुरुष है. भला कैसे संभाल सकता है गृहस्थी को? उस की भी व्यक्तिगत कई तरह की जरूरतें हैं. जीवन का रथ दो पहियों से ही चलता है. लड़की भी देखीभाली है. उस की साली है. बच्चों की मौसी. बच्चों के साथ सौतेला व्यवहार भी नहीं करेगी. स्थिति को ध्यान में रखते हुए मेरा वापसी का टिकट कटा दे.’’
‘‘मां, मैं कुछ भी कहती हूं तो आप को बुरा लगता है. मेरी इस बात को गलत मत लेना, समझना. जिस दिन से आप आई हैं, आप के मुख से ‘तेरा भाई’, ‘तेरा मामा’, ‘तेरा चाचा’ तीनों की पत्नियों के देहांत होते ही उन की दुलहनें तैयार खड़ी थीं. कभी उन सब की सालियों से भी पूछा या फिर उन की मजबूरी का लाभ उठाया. एक ही तर्क के साथ कि आदमी हैं, उन के जीवन की नाव अकेले कैसे चलेगी? बच्चे कैसे संभलेंगे? उन की जरूरतें हैं? नौकरियां करते हैं जबकि घर पर दादादादी, बूआ, चाचाचाची, नौकरचाकर सभी हैं. दूर क्या जाना, अर्णव भैया जान छिड़कते थे भाभी पर. भाभी के जाते ही, आप ही तूफान ले आई थीं, ‘हाय मेरा बेटा अकेला रह गया है. कैसे काटेगा जीवन? कौन करेगा उस की देखभाल?’ भैया तो आप के साथ ही रहते थे. क्या भैया सचमुच अकेले थे? उन को खाना नहीं मिल रहा था? कपड़े धुले हुए नहीं मिल रहे थे? बच्चे नहीं पल रहे थे? इतनी जल्दी भी क्या थी? क्या पुरुष इतना कमजोर है? या हम औरतों ने उसे बना दिया है? सदियों से हम नारियों का पुरुष की इतनी हिफाजत करने का परिणाम देखा है, इसीलिए वह अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बना कर हम पर अत्याचार करता आया है और करता रहेगा.
‘‘पिछले 4 महीनों से देख रही हूं, आप को सब की चिंता है. अपनी भी. केवल मेरी नहीं. कभी सोचा है मेरे बारे में. इस बियाबान घर में, परदेस में छोटेछोटे बच्चों के साथ लंबीलंबी सूनी रातें कैसे काटूंगी? क्या मेरे बच्चों को बाप की और मुझे पति की जरूरत नहीं? क्या मेरी जरूरतें नहीं हैं, क्यों? क्योंकि मैं बेटा नहीं हूं.
‘‘पापा ने तो कभी भेदभाव किया नहीं, फिर आप में भेदभाव के इतने तीक्ष्ण लक्षण कैसे आ गए? माताएं बेटों को
18 महीने पेट में रखती हैं क्या? बेटा पैदा होने पर अधिक पीड़ा होती है क्या? क्या बेटा आप को उतना ही प्यार देता है जितना बेटियां? मां, अपने अंतर्मन में झांक कर देखो. अगर हम औरतें ही बेटेबेटियों में भेदभाव रखेंगी तो कैसे मिलेगा बराबर का सम्मान लड़कियों को? कौन देगा? पति, ससुराल या समाज?
‘‘पैदा होते ही लड़कियों को मांबाप के घर में पलपल सुनना पड़ता है, पढ़ाना मत लड़की को? पैसा मत बरबाद करना बेटियों पर? वे पराया धन हैं. वहीं ससुराल में पैर पड़ते ही उन्हें सुनना पड़ता है, बाहर से आई है, पराई है, अपनी भला कैसे बन सकती है?
‘‘अब आप ही बताइए, क्या पहचान है बेटियों की? इन का कौन सा घर है, मांबाप का, ससुराल का या कोई नहीं? बेघर.
‘‘मां, आप को याद है मेरी सहेली गुड्डो? तलाक के बाद उस ने पूरे परिवार को अमेरिका में बुला कर स्थापित किया. बहनभाइयों की शादियां कीं. मांबाप भी सदा उसी के साथ रहे. पिछले 30 वर्षों में उन्हें एक बार भी ध्यान नहीं आया कि गुड्डो को भी पति की और उस के बेटे को बाप की जरूरत हो सकती है. मांबाप का फर्ज नहीं कि बेटी की दूसरी शादी कर दें?
‘‘आप बेफिक्र रहिए, मेरा दूसरी शादी करने का अभी कोई विचार नहीं है. मैं तो आप की दबी सोच की चेतना को जगा रही हूं. आप को एहसास दिला रही हूं. इस लड़कालड़की के भेदभाव को मिटाने का बीड़ा अगर हम स्त्रियां नहीं उठाएंगी तो कौन उठाएगा? अगर हम एक दीपक जलाएंगे, उस के संगसंग हजारों दीपक दिलों में उजाला करते जाएंगे.’’
उस दिन निन्नी ने गार्गी की वर्षों से सुप्त चेतना पर बर्फीला पानी डाल कर जगा दिया. आज बेटी के ताने, उलाहने, कटाक्ष अर्थहीन नहीं थे. उन का अर्थ था, उन में लौ थी. ठीक ही तो कह रही थी निन्नी, मां, तुम्हारी सोच अपाहिज हुई बैठी है. गूंगेबहरे व अंधों की तो लाचारी है पर आप तो जानबूझ कर अंधीबहरी हुई बैठी हैं उस कबूतर की भांति यह जानते हुए भी कि वह उड़ सकता है. किंतु बिल्ली को देखते ही आंखें मूंद लेता है और बिल्ली उसे खा जाती है. जान किस की जाती है, कबूतर की न?
‘‘मां, बेशक नारी पर समाज के अंकुश लगे हैं किंतु उस की सोच तो स्वतंत्र है, पराधीन नहीं.’’
गार्गी सोचने पर मजबूर हो गई. क्यों आज उस की सोच आजाद नहीं? क्यों उस ने अपनी सोच को समाज के रंग में ढलने दिया? उस ने स्वयं को च्यूंटी काट कर महसूस किया और बड़बड़ाने लगी, ‘मैं तो हाड़मांस की जिंदा औरत हूं. घर में भेदभाव का बीज तो मां ही बीजती है. क्या कभी सुना है ससुर ने बहू पर अत्याचार किए, उसे जला डाला? इसी सोच के कारण आज नारी की अस्मिता संकट में है.’
उस रात गार्गी मन में जागृति की लौ ले कर चैन से सोई. उस ने ठान लिया था, सुबह साहस बटोर कर बेटी से माफी मांग लेगी. फिर जरूर अपनी सोच बदलने का दीपक जलाएगी, जिस की लौ से और दीपक जलेंगे. मन ही मन भयभीत भी थी बेटी की सोच से.
सुबह उठते ही गार्गी डरतेडरते बोली, ‘‘बेटा निन्नी, बेटा मुझे…’’
‘‘जी मां, कहिए.’
‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं,’’ माफी शब्द उस के गले में अटका रहा.
दोनों के लिए एक नई सुबह थी. निन्नी ने संक्षिप्त मुसकराहट से कहा, ‘‘मां, बस, एक बार बेटी को बुढ़ापे की लाठी बनने का अवसर दे कर देखिए. उसे बेटे सा सम्मान दे कर देखिए.’’
गार्गी ने निन्नी की ओर प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘बेटा, कुछ इच्छाएं याद आ रही हैं. कुछ कामनाएं घुमड़ रही हैं. अब तो क्रिसमस के बाद ही जाऊंगी.’’
आज फिर गार्गी का अहं यानी ईगो आड़े आ खड़ा हुआ. एक बार फिर वह ‘माफी’ शब्द निगल गई और सवाल सुलगते रह गए.
गार्गी भी ऊपर अपने कमरे में आराम करने चली गई. कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. सुबह की खटपट से उस की आंख खुली. बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो रहे थे, निन्नी काम के लिए.
सुबह से शाम तक टैलीविजन देखना गार्गी की दिनचर्या में आ गया था. निन्नी कब घर वापस आई, कब गई, उसे पता ही नहीं चलता.
शाम को काम निबटा कर दोनों मांबेटी बैठी थीं. बच्चे स्कूल का काम कर रहे थे. गार्गी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘निन्नी, आज कमरे की खिड़कियां बंद करते समय मेरी निगाह पूरण की अलमारी पर पड़ी. बेटा, तुम क्यों नहीं उस का सामान समेट देतीं. सुनो, यह कुरसी भी हटा दो यहां से. इसे देख कर अकसर तुम उदास हो जाती हो.’’
इतना सुनते ही निन्नी तिलमिला उठी, ‘‘मां, बात यहीं समाप्त कर दीजिए. यह पूरण का घर है. हम उस की ही छत के नीचे खड़े हैं. उस की मिट्टी को मत कुरेदो. मर चुका है वह. नहीं आएगा अब वापस. कभी नहीं आएगा. बहुत कोस चुकी हैं आप उसे, अब बंद करो कोसना. मैं ने पति को और मेरे बच्चों ने पिता को खोया है. मां, आप के आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे जबानदराजगी के लिए मजबूर मत करो. पूरण की चीजें आसपास होने से मुझे उस के होने का एहसास होता है. उस के कपड़ों में से उस की महक आती है. मेरे उदास, कमजोर क्षणों में उस की चीजें मरहम का काम करती हैं. मेरा यही तरीका है अपने दुख से निबटने का. कई बार तो ऐसा लगता है, अगर कहीं वह लौट आया तो उसे क्या उत्तर दूंगी,’’ इतना कहते ही वह फूटफूट कर रोने लगी.
रोतेरोते कहती रही, ‘‘बचपन से ही आप के मुख से यह सुनती आई थी, उस की नाक पकौड़ा है, चीनी लगता है, वह टुंडा है, उस के चुंदीचुंदी आंखें हैं. बड़ी अकड़ से आप ने उसे चुनौती दी थी. वह भी शतप्रतिशत खरा उतरा था आप की चुनौती पर. इतना बड़ा घर, रुतबा इज्जत सभी कुछ तो प्राप्त किया था उस ने.’’
कहतेकहते वह फिर सुबकसुबक कर रोने लगी.
‘‘गलत ही क्या कहा है मैं ने? 2 बेटों की जिम्मेदारी छोड़ गया है. मुझे यहां और नहीं रहना. टिकट कटा दे मेरा वापसी का,’’ गार्गी ने झुंझला कर कहा.
‘‘बस, यही औजार रह गया है आप के पास?’’
एकाएक कमरे में बोझिल सा सन्नाटा छा गया. निन्नी और गार्गी के बीच चुप्पी की दीवार खड़ी हो गई थी. गार्गी ने अपना मुंह बंद रखने की ठान ली. समय कब पतझड़ व गरमियों का घेरा पार कर सर्दी की गोद में सिमट गया, पता ही नहीं चला. सर्दी बढ़ती जा रही थी. बर्फ, कोहरा, सर्द हवाओं ने अपना काम शुरू कर दिया था.
सुबह के 9 बजने को थे. अभी तक कोहरे की धुंध नहीं छटी थी. सूरज उगा या नहीं इस का अनुमान लगाना कठिन था. प्रतिदिन घर से सब के चले जाने के बाद गार्गी टैलीविजन में लीन रहती.
स्कूल से घर आते ही आज दोनों नाती चिल्लाने लगे, ‘‘नानी, भूख लगी है.’’
‘‘थोड़ा सा इंतजार करो. अभी तुम्हारी मम्मी आ जाएंगी,’’ इतना कह कर गार्गी फिर टीवी सीरियल में लीन होे गई.
सड़कों पर बर्फ पड़ने के कारण निन्नी को घर पहुंचने में देर हो गई. घर पहुंचते ही बच्चे बोले, ‘‘मम्मी, देर से क्यों आई हैं आप? भूख के मारे दम निकल रहा है.’’
‘‘नानी से क्यों नहीं कहा?’’ निन्नी ने झुंझलाते हुए कहा.
‘‘कहा था, नानी ने कहा कि मम्मी आने वाली हैं.’’
निन्नी ने चायनाश्ता बना कर सब को परोसा. रात के खाने के बाद बच्चे अपने कमरे में चले गए.
‘‘निन्नी, जब से आई हूं तब से तुम से कह रही हूं कि अपने कमल चाचा को चाची के पूरे होने पर शोक प्रकट कर दो,’’ गार्गी ने कहा.
निन्नी बोली, ‘‘मां, मैं हर रोज देखती हूं कि जब मैं काम से घर आती हूं, आप टीवी में इतनी मगन होती हैं कि मेरी उपस्थिति का भी एहसास नहीं होता आप को, क्यों? क्योंकि मैं भैया नहीं हूं. यों कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, लड़का जो नहीं हूं.
‘‘मुझे याद है, जब भी भैया के काम से घर आने का समय होता तो भाभी के होते हुए भी आप समय से पहले ही उन के लिए चायपकौड़े या समोसे मेज पर तैयार रखतीं और बच्चों से कहतीं, ‘पापा से दूर रहना, तुम्हारे पापा काम से हारेथके आए हैं.’ यही नहीं, उन के हाथमुंह धोने के लिए तौलियापानी सबकुछ तैयार रहता. अगर गरमी होती तो आप उन्हें पंखा भी झलतीं. ठीक कह रही हूं न? जवाब दो? यहां मैं भी तो नौकरी करती हूं. घर चला रही हूं. मां के कर्तव्यों के संग पिता की भूमिका भी निभा रही हूं. मुझे तो चाय का प्याला क्या देना, मुझी से सभी अपेक्षाएं करते हैं. आप एक औरत होते हुए भी आखिर क्यों औरत को उस की अहमियत से दूर कर रही हैं? क्यों उसे बारबार याद दिलाती हैं कि वह अस्तित्वहीन है? इतना भेदभाव क्यों, मां?
‘‘आप अपनी अहमियत जतलाने से कभी नहीं चूकतीं कि मैं मां हूं. यहां तक कि जब कोई पूरण का शोक प्रकट करने आता है, आप उस के सामने अपनी समस्याएं रख कर उसे अपने बखेड़ों में उलझा लेती हैं. आप क्यों भूल जाती हैं कि आप मेरे पति की मृत्यु पर शोक प्रकट करने व बेटी को सहारा देने आई हैं. छुट्टियां मनाने नहीं.’’
गार्गी ने बेटी के सवालों का उत्तर न देने की मंशा से गूंगेबहरे सी नीति अपना ली.
मांबेटी में परस्पर विरोधी विचारों का युद्ध चलता रहा. विचारों का अथाह समुद्र फैल गया जिस की तूफानी लहरों ने दोनों के दिलोदिमाग को अशांत कर दिया.
गार्गी अपने सोने के कमरे में चली गई. उस का सिर चकरा रहा था. कमरे में रात का धुंधलका चुपके से घिर आया था. मानो कनपटियों से धुएं की 2 लकीरें ऊपर उठती हुई सिर के बीचोंबीच मिलने की चेष्टा कर रही हों. उस के सीने में बेचैनी उतर आई थी. निन्नी ने उस की जंग लगी सोच का बटन दबा दिया था. उस के मस्तिष्क में उथलपुथल होने लगी, गार्गी नाराज नहीं थी. सोच रही थी, निन्नी ठीक कहती है. अपने ममत्व का गला घोंटते समय उसे यह एहसास क्यों नहीं हुआ. वह भी बहनभाइयों में पली है?
वह स्वयं के ही प्रश्नों में उलझ गई. क्या सचमुच अनपढ़ होने से मेरी सोच की सूई में विराम लग गया है? छिछिछि… शर्मिंदा थी वह अपने व्यवहार से, सोच से. माफी की सोचते ही उस का अहं आड़े आ जाता. सोचने लगती, क्या मां होने के नाते सभी अधिकार उसी के हैं. मां जो थी, गलत कैसे हो सकती थी? उस रात निन्नी की बातें उस के जेहन में उमड़तीघुमड़ती रहीं. एक शब्द ‘भेदभाव’ उस के जेहन में घर कर गया. गार्गी की वह रात बहुत भारी गुजरी. उसे ऐसा लगा, धरती से आकाश तक गहरी धुंध भर आई हो. गार्गी अपनी सोच का मातम मनाती रही.
गार्गी शर्मिंदगी का घूंट पीते हुए बोली, ‘‘बेटा, मैं ने अभी बात पूरी ही कहां की है. जानती हूं, अलका भी मेरी बेटी है.’’
‘‘मां, केवल कहने के लिए. बहुत दकियानूस हो. अपनी ही संतानों में भेदभाव करती हो.’’
स्थिति को भांपते हुए गार्गी ने अपने मुंह को बंद रखना ही उचित समझा और व्यंग्य से बड़बड़ाने लगी, ‘आगे से ध्यान रखूंगी मेरी मां.’
घर पहुंच कर निन्नी का विशाल मकान देख कर गार्गी हक्कीबक्की रह गई. न इधर, न उधर, न दाएं, न बाएं कोई भी तो घर दिखाई नहीं दे रहा था. उसे ऐसा लगा, मानो विशाल उपवन में एक गुडि़या का घर ला कर रख दिया गया हो. अभी घर के भीतर जाना शेष था. दरवाजा खुलते ही नानी, नानी करते नाती नानी से लिपट गए.
कुछ समय बैठने के बाद निन्नी ने बच्चों से कहा, ‘‘बेटा, नानी को उन का कमरा दिखाओ.’’
‘‘चलो नानी, सामान अंकल ऊपर ले जाएंगे.’’
‘‘मां, यहां नौकरोंचाकरों का चक्कर नहीं है. सबकुछ खुद ही करना पड़ता है.’’
सांझ के 4 बज चुके थे. पतझड़ का मौसम था. आसपास फैली हुई झाडि़यों की परछाइयां घर की दीवार पर सरकतीसरकती गायब हो चुकी थीं. रात का अंधकार उतर आया था. घर के पीछे चारों ओर बड़ेबड़े छायादार वृक्ष अंधकार में और भी काले लग रहे थे. ऐसा लगता था जैसे उन वृक्षों के पीछे एक दुनिया आबाद हो. वह हतप्रभ थी. चारों ओर धुंध उतर आई थी.
‘‘अमर बेटा, तुम्हें यहां डर नहीं लगता?’’ गार्गी ने प्यार से कहा.
‘‘नानी, डोंट वरी. यहां कोई नहीं आता,’’ 8 वर्ष के अमर ने नानी को आश्वासन देते हुए कहा.
‘‘नहीं नानी, आप को पता है, रात को यहां तरहतरह की आवाजें आती हैं,’’ नटखट अतुल ने शरारती लहजे में कहा जो अभी 5 वर्ष का ही था.
‘‘अतुल, प्लीज मत डराओ नानी को.’’
उस दिन आधी रात तक गार्गी डर के मारे जागती रही. उस ने जीवन में इतना भयावह सन्नाटा पहली बार महसूस किया था. उसे गली के चौकीदार के डंडे की ठकठक व आवारा कुत्तेबिल्लियों की आवाजें याद आने लगीं. घर में कोई पुरुष भी नहीं था. अब तक तो देवर भी अपने घर चले गए थे. फिर सोचती, मुझे यहां स्थायी रूप से थोड़े ही रहना है.
धीरेधीरे उस ने निन्नी के रहनसहन से समझौता कर लिया. घर में सभी सुविधाओं के होते हुए भी उस का मन नहीं टिक रहा था. अकेलापन व सूनापन उसे बहुत कचोटता. इंसान तो क्या, कोई परिंदा तक दिखाई नहीं देता था. डाकिया न जाने कब पत्र डाल जाता.
एक सप्ताह बाद निन्नी ने काम पर जाते समय मां को घर के तौरतरीके, गैस हीटिंग, टैलीफोन पर संदेश लेना, टैलीफोन करना व कुछ अंगरेजी के शब्द, थैंक्यू, प्लीज वगैरह सिखा दिए. रहीसही कसर अमर और अतुल ने पूरी कर दी.
काम पर जातेजाते निन्नी ने कहा, ‘‘मां, आप का मन करे तो घर का काम कर सकती हैं वरना कोई जरूरत नहीं.’’
गार्गी ने जीवन में पहली बार तनमन को जिम्मेदारियों के बोझ से मुक्त पाया था.
वह सारा दिन हिंदी के सीरियल देखती रहती. बच्चों के घर आ जाने पर उन के साथ अंगरेजी सीरियल देखती. अंगरेजी न आते हुए भी अंगरेजी रिश्तों के तानेबाने हावभाव से समझ जाती. किंतु उन सीरियलों के पतिपत्नी के संबंध दूसरे लोक के लगते. सोचती, ऐसा भी होता है क्या? उन के दृष्टिकोण, सोच बहुत अजीब लगते. काम पर जाने से पहले निन्नी मां को खाना परोस कर जाती थी. जब भूख लगती तो गार्गी माइक्रोवेव में खाना गरम कर के खा लेती. संपूर्ण स्वतंत्रता का एहसास उसे पहली बार हुआ था.
शाम को अमर व अतुल के बिस्तर में जाने के बाद मांबेटी दोनों बैठी रहतीं. अपने पति पूरण की खाली कुरसी को टुकरटुकर देखतेदेखते अकसर निन्नी की आंखें छलछला आतीं.
ऐसी स्थिति में गार्गी के लिए संयम रखना सहज न था. बस, भड़क उठती. ‘‘6 महीने हो गए हैं उसे गए, अगर मेरी बात मान लेती तो आज माथे पर विधवा का टीका न लगा होता.’’
‘‘हांहांहां, ऊपर से कोई अपनी लंबी उम्र का पट्टा लिखा कर थोड़े ही आता है. आप ने तो पूरा जोर लगा लिया था कि हमारी शादी न हो. मेरे जीवन में कितनी लक्ष्मणरेखाएं खींच दी थीं आप ने? जब तक उन पर चलती रही, ठीक था. जब नहीं मानी तो हर समय वही व्यंग्य, कटाक्षों की बरसात. पूरण के मांबाप पुराने विचारों के हैं. तू मन चाहे कपड़ेलत्ते नहीं पहन सकेगी. वगैरहवगैरह.’’
‘‘निन्नी, गरम जुराबें तो देना. बहुत सर्दी है,’’ गार्गी ने बात को दूसरा मोड़ देते हुए कहा.
‘‘यह लो मां, मेरी बात अभी समाप्त नहीं हुई. बलि चढ़ाना चाहती थीं मुझे, लड़की थी न? और भैया, जिस का नाम लिया उस से शादी कर दी, लड़का था न इसलिए,’’ निन्नी ने गुस्से में कहा.
अचानक वातावरण में एक घुटा सा सन्नाटा छा गया.
‘‘कैसे कैंची सी जबान चलाती है. मां हूं तेरी. आगे एक शब्द नहीं सुनूंगी.’’
कुछ क्षण दोनों के बीच नाराजगी व औपचारिकता में गुजरे. कुछ मिनट बाद गार्गी गुस्से में बड़बड़ाती हुई सोने के कमरे में चली गई.
गार्गी ने खिड़की से बाहर झांका. तेज हवा चल रही थी. चारों ओर व्यापक वीरान, चुप्पी से डर लग रहा था. हवा के झोंकों से परदों का हिलनाडुलना उसे और डराने लगा. डरतेडरते न जाने
कब उस की आंख लगी और सुबह भी हो गई. निन्नी की आज छुट्टी थी.
‘‘मां, शौपिंग करनी है तो आधे घंटे में तैयार हो जाइएगा,’’ निन्नी ने कहा.
बडे़बड़े शौपिंग मौल देख कर गार्गी की आंखें खुली की खुली रह गईं.
निन्नी ने गार्गी की सोच पर ब्रेक लगाते हुए कहा, ‘‘मां, लिस्ट निकालो अपनी.’’
एक ही सांस में गार्गी ने अपनी लिस्ट दोहरा दी.
‘‘तुम्हारे भाई के लिए डिजिटल कैमरा, भाभी के लिए चमड़े का पर्स, सुधांशु के लिए फुटबाल और टिसौट की घड़ी, विधि के लिए सुंदर सी फ्रौक और एक बढि़या सी घड़ी. कुछ तुम्हारी नई मामी के लिए.’’
‘‘नई मामी? अभी तो मामीजी की मृत्यु को 6 महीने भी नहीं हुए?’’
‘‘हां, मेरे आने से 1 महीना पहले ही उस की शादी उस की छोटी साली से हुई. अकेले बच्चे पालना बहुत कठिन है मर्दों के लिए.’’
‘‘हांहां, सब जानती हूं. मुझ से मर्दऔरतों की बातें मत किया करो. अब अलका की लिस्ट निकालो.’’
‘‘उस के लिए पैसे बचे तो लूंगी. उस का पति जो है, वही ले कर देगा.’’
निन्नी ने गार्गी की बात को सुनाअनसुना करते हुए कहा, ‘‘मां, अगर ऐसी बात है तो आप ने अर्णव भैया का ठेका क्यों लिया है? वे भी तो शादीशुदा हैं, कमाते हैं, क्या अलका को कूड़े के ढेर से उठा कर लाई थीं मेरी भांति?’’
गार्गी ने निन्नी की बातों को नजरअंदाज कर के पलक झपकते ही 200 पाउंड खर्च कर डाले. इतने पैसों की अहमियत से अनजान थी वह? शायद पहली बार उसे पैसे खर्च करने की छूट मिली थी.
‘‘निन्नी, तुम बेकार में अपने भाई के पीछे क्यों पड़ी रहती हो? शायद भूल रही हो, वंश उसी से चलने वाला है.’’
ऐसी बातें सुन कर निन्नी के होंठों पर फीकी मुसकान उभर आई. घर पहुंचते ही सब ने गरमागरम चाय पी, निन्नी सोफे पर आंखें मूंद आराम करने लगी.