Serial Story: एहसास (भाग-3)

लेखिका- रश्मि राठी

सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से देख रही थी. आज उस का परिचय प्यार के एक नए रूप से हो रहा था. यह भी तो प्यार है कितना पवित्र, एकदूसरे के लिए समर्पण की भावना लिए हुए. उसे महसूस हो रहा था कि प्यार सिर्फ वह नहीं जो रात के अंधेरे में किया जाए. प्यार के तो और भी रूप हो सकते हैं. लेकिन उस ने तो कभी सुशांत की पसंद जानने की भी कोशिश न की. उस ने तो हमेशा अपनी आकांक्षाओं को ही महत्त्व दिया.

‘‘चलो, हम दूसरे कमरे में बैठ कर बातें करते हैं, ये लोग तो अपने दफ्तर की बातें करेंगे,’’ अमिता ने सुधांशी को उठाते हुए कहा.

अमिता और सुधांशी के विचारों में जमीनआसमान का फर्क था. अमिता घर के बारे में बातें कर रही थी, जबकि सुधांशी ने कभी घर के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था. तभी अमिता ने कहा, ‘‘बड़ी सुंदर साड़ी है तुम्हारी, क्या सुशांत ने ला कर दी है?’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ चौंक सी गई सुधांशी, ‘‘मैं ने खुद ही खरीदी है.’’

‘‘भई, ये तो मुझे कभी खुद लाने का मौका ही नहीं देते. इस से पहले कि मैं लाऊं ये खुद ही ले आते हैं. लेकिन इस बार मैं ने भी कह दिया है कि अगर मेरे लिए साड़ी लाए तो बहुत लड़ूंगी. हमेशा मेरा ही सोचते हैं. यह नहीं कि कभी कुछ अपने लिए भी लाएं. इस बार मैं उन्हें बिना बताए उन के लिए कपड़े ले आई. दूसरों की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है वह अपनी इच्छाएं पूरी करने में नहीं है.’’

‘‘चलो, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सुशांत ने उस की बातों में खलल डालते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं. किसी दिन आप लोग भी समय निकाल कर आइए न,’’ सुधांशी ने चलते हुए कहा.

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आज हर्षल के घर से लौटने पर सुधांशी के मन में हलचल मची हुई थी. उस के कानों में अमिता के स्वर गूंज रहे थे, ‘एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है, अपनी इच्छाएं पूरी करने में वह नहीं है.’

लेकिन उस ने तो कभी दूसरों की जरूरतों को जानना भी नहीं चाहा था. उस ने तो यह भी नहीं सोचा कि घर में किस चीज की जरूरत है और किस की नहीं? और एक अमिता है, सुंदर न होते हुए भी उस से कहीं ज्यादा सुंदर है. जिम्मेदारियों के प्रति अमिता की सजगता देख कर सुधांशी के मन में ग्लानि का अनुभव हो रहा था.

‘‘अमिता भाभी, बहुत अच्छी हैं न,’’ सुधांशी ने मौन तोड़ते हुए कहा.

‘‘हां,’’ सुशांत ने ठंडी आह छोड़ते हुए कहा.

उस रात सुधांशी चैन से सो न सकी. सुबह उठी तो उसे तेज बुखार था. सुशांत ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने दवा दे दी. सुधांशी को आराम करने के लिए कह कर सुशांत दफ्तर चला गया. सुधांशी को बुखार के कारण सिर में बहुत दर्द था. तभी गरिमा लड़खड़ाते हुए आई, ‘‘कैसी तबीयत है, भाभी? लाओ, तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ कह कर सिर दबाने लगी.

मां भी बहुत चिंतित थीं. समयसमय पर मां दवा दे रही थीं. आज सुधांशी को महसूस हो रहा था कि उस ने कभी भी इन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर भी उस के जरा से बुखार ने किस तरह सब को दुखी कर दिया. अपने पैर में चोट होने के बावजूद गरिमा उस का कितना ध्यान रख रही थी. मां भी कितनी परेशान थीं उस के लिए?

3-4 दिन में सुधांशी ठीक हो गई. आज वह सुशांत से पहले ही उठ गई थी. चाय बना कर सुशांत के पास आई, ‘‘उठिए जनाब, चाय पीजिए, आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’’

सुशांत को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न, आज इतनी जल्दी कैसे जाग गईं?’’ उस ने हड़बड़ाते हुए पूछा.

‘‘जल्दी कहां, मेरी आंखें तो बहुत देर में खुलीं,’’ शून्य में देखते हुए सुधांशी ने कहा.

आज उस ने घर के सारे काम खुद ही किए थे. काम करने में मुश्किल तो बड़ी हो रही थी, मगर फिर भी यह सब करना उसे अच्छा लग रहा था. आज वह पहली बार नाश्ता बनाने के लिए रसोई में आई थी.

‘‘मांजी, आज से नाश्ता मैं बनाया करूंगी,’’ मांजी के हाथ से बरतन लेते हुए सुधांशी ने कहा.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाओगी?’’ मां ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं जानती हूं, मांजी, मुझे कुछ बनाना नहीं आता, लेकिन आप मझे सिखाएंगी न? बोलिए न मांजी, आप सिखाएंगी मुझे?’’

‘‘हां बहू, अगर तुम सीखना चाहोगी तो जरूर सिखाऊंगी.’’

आज सुशांत को बड़ा अजीब लग रहा था. उस का सारा सामान उसे जगह पर मिल गया था. कपड़े भी सलीके से रखे हुए थे. जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आया तो सुधांशी को नाश्ता लाते देख चौंक गया.

‘‘आज तुम ने नाश्ता बनाया है क्या?’’

‘‘क्यों? मेरे हाथ का बना नाश्ता क्या गले से नीचे नहीं उतर पाएगा?’’ मुसकराते हुए सुधांशी बोली.

‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सैंडविच उठाते हुए सुशांत बोला, ‘‘सैंडविच तो बड़े अच्छे बने हैं. तुम ने खुद बनाए हैं?’’ सुशांत ने पूछा, फिर कुछ रुपए देते हुए बोला, ‘‘तुम कल अपनी साडि़यों के लिए पैसे मांग रही थीं न, ये रख लो.’’

सुशांत के दफ्तर जाने के बाद जब सुधांशी ने सैंडविच चखे तो उस से खाए नहीं गए. नमक बहुत तेज हो गया था. उसे सुशांत का खयाल आ गया, जो इतने खराब सैंडविच खा कर भी उस की तारीफ कर रहा था, शायद उस का दिल रखने के लिए सुशांत ने ऐसा किया था. उस की पलकें भीग गईं. प्यार की भावना को देख कर उस का मन श्रद्धा से भर उठा.

उस ने जल्दीजल्दी सारा काम खत्म किया. घर का काम करने में आज उसे अपनत्व का एहसास हो रहा था. फिर उसे सुशांत के दिए गए पैसों का खयाल आया. उस ने गरिमा को साथ लिया

और बाजार गई. सुशांत के दफ्तर से लौटने से पहले उस ने सारा काम निबटा लिया था.

‘‘अपनी साडि़यां ले आईं?’’ शाम को चाय पीतेपीते सुशांत ने पूछा.

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‘‘मेरे पास साडि़यों की कमी कहां है? आज तो मैं ढेर सारा सामान ले कर आई हूं,’’ इतना कह कर उस ने सारा सामान सुशांत के सामने रख दिया, ‘‘यह मां की साड़ी है, यह गरिमा का सूट और यह तुम्हारे लिए.’’

सुशांत उसे अपलक निहार रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही सुधांशी है, जिसे अपनी जरूरतों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था. आज उसे सुधांशी पहले से कहीं अधिक सुंदर लगने लगी थी.

‘‘अपने लिए कुछ नहीं लाईं?’’ प्यार से पास बिठाते हुए सुशांत ने पूछा.

‘‘क्या तुम सब लोग मेरे अपने नहीं हो? सच तो यह है कि आज पहली बार ही मैं अपने लिए कुछ ला पाई हूं. यह सामान ला कर जितनी खुशी मुझे हुई है उतनी कई साडि़यां ला कर भी न मिल पाती. सच, आज ही मैं प्यार का वास्तविक मतलब समझ पाई हूं.

‘‘प्यार एक भावना है, समर्पण की चेतना, खो जाने की प्रक्रिया, मिट जाने की तमन्ना. इस का एहसास शरीर से नहीं होता, अंतर्मन से होता है, हृदय ही उस का साक्षी होता है,’’ कह कर सुधांशी ने अपना सिर सुशांत के सीने पर रख दिया.

Serial Story: एहसास (भाग-2)

लेखिका- रश्मि राठी

सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.

आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.

उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’

उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

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सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.

तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’

‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.

जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.

घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.

एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.

‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.

मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’

शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.

‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.

सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.

अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.

‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.

‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.

वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.

‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.

‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना

चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.

मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.

शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’

‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’

घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.

‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’

‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’

अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.

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सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.

‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.

आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’

यह देख सभी लोग हंस पड़े.

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Serial Story: एहसास (भाग-1)

लेखिका- रश्मि राठी

कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’

मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.

आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.

शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.

सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’

‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.

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सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’

सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.

‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.

सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’

‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’

‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.

आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी  भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’

‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’

‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.

आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.

‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.

‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’

‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’

‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.

आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.

‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.

‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.

‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’

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‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.

याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.

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तसवीर: भाग-3

औपरेशन होने के बाद केशवन ने पूछा, ‘अब आप क्या करना चाहेंगी? न्यूजर्सी अपनी भतीजी के पास रहेंगी या…’

‘और कहां जाऊंगी? मेरा तो और कोई ठौर नहीं है,’ मालविका ने कहा.

‘मेरा एक सुझाव है. यदि अन्यथा न समझें तो आप कुछ दिन मेरे यहां रह सकती हैं.’

‘आप के यहां?’ मालविका चौंक पड़ी, ‘लेकिन आप की पत्नी, आप का परिवार?’

केशवन हंस दिया, ‘मैं अकेला हूं. विश्वास कीजिए मुझे आप के रहने से कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि इस में मेरा भी एक स्वार्थ है. मैं कभीकभी अपने देश का खाना खाने को तरस जाता हूं. हो सके तो मेरे लिए एकाध डिश बना दिया करिए और कौफी का तो मैं बहुत ही शौकीन हूं. दिन में 5-6 प्याले पीता हूं. आप बना दिया करेंगी न?’

वह हंस पड़ी. वह उस से ढेरों सवाल करना चाहती थी. वह अकेला क्यों था? उस की बीवी कहां थी? लेकिन वह अभी उस के लिए नितांत अजनबी थी इसलिए उस ने चुप्पी साध ली.

केशवन के घर पर आ कर उसे ऐसा लगा था कि वह अपने मुकाम पर पहुंच गई है.

उसे एक फिल्मी गाना याद आया. ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते…’

2 माह में ही वह ठीक हो कर चलने लगी. इतने दिन में केशवन के घर का चप्पाचप्पा उस का हो गया. उस ने बड़ी जतन से उसे ठीक कर दिया. वह डाक्टर का एहसान सेवा से चुकाना चाहती थी, उधर केशवन की बात ने उसे अंदर तक हिला दिया.

लेकिन मालविका ने सोचा, आज उस के जीवन में ये अनहोनी घटी थी. उस का गुजरा हुआ मुकाम फिर लौट आया था. जिस आदमी की तसवीर को देखदेख कर उस ने इतने साल गुजारे थे वह आज उस के सामने खड़ा था और उसे अपनाना चाह रहा था. ये एक चमत्कार नहीं तो क्या था. उस ने अपने लिए थोड़ी सी खुशी की कामना की थी. केशवन ने उस की झोली में दुनिया भर की खुशी उड़ेल दी थी.

भला ऐसा क्यों होता है कि इस भरी दुनिया में केवल एक व्यक्ति हमारे लिए अहम बन जाता है? उस ने सोचा. ऐसा क्यों लगता है कि हमारा जन्मजन्मांतर का साथ है, हम एकदूसरे के लिए ही बने हैं. एक चुंबकीय शक्ति हमें उस की ओर खींच ले जाती है. हर पल उस मनुष्य की शक्ल देखने को जी करता है, उस से बातें करने के लिए मन लालायित रहता है. उस की हर एक बात, हर एक आदत मन को भाती है. उस के बिना जीवन अधूरा लगता है, व्यर्थ लगता है. उस की छुअन शरीर में एक सिहरन पैदा करती है, तनमन में एक मादक एहसास होता है और हमारा रोमरोम पुकार उठता है- यही है मेरे मन का मीत, मेरा जीवनसाथी.

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इस मनुष्य की तसवीर के सहारे उस ने इतने साल गुजार दिए थे. आज वह उस के सामने प्रार्थी बन कर खड़ा था. उस से प्यार की याचना करते हुए. क्या वह इस मौके को गवां देगी?

नहीं, उस ने सहसा तय कर लिया कि वह केशवन का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगी. अगर उस ने ये मौका हाथ से निकल जाने दिया तो वह जीवन भर पछताएगी. आज तक वह औरों के लिए जीती आई थी. अब वह अपने लिए जिएगी और रही उस के परिवार की बात तो चाहे उन्हें अच्छा लगे चाहे बुरा, उन्हें उस के निर्णय को स्वीकार करना ही होगा.

घड़ी का घंटा बज उठा तो उस की तंद्रा भंग हुई. ओह वह बीते दिनों की यादों में इतना खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही न रहा. वह उठी और उस ने एकएक कर के घर का काम निबटाना शुरू किया. उस ने कमरों की सफाई की. आज उसे इस घर में एक अपनापन महसूस हो रहा था. हर एक वस्तु पर प्यार आ रहा था. उस ने केशवन के कपड़े करीने से लगाए. बगीचे से फूल ला कर कमरों में सजाए.

उस की निगाहें घड़ी की ओर लगी रहीं. जैसे ही घड़ी में 10 बजे घर का मुख्य द्वार खुला और केशवन ने प्रवेश किया.

‘‘ओह,’’ वह एक कुरसी में पसर कर बोला, ‘‘आज मैं बहुत थक गया हूं. आज सुबह 3 औपरेशन करने पड़े.’’

मालविका के मन में केशवन पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया. उस ने कौफी का प्याला आगे बढ़ाया.

‘‘ओह, थैंक्स.’’

वह कौफी के घूंट भरता रहा और उसे एकटक देखता रहा.

वह तनिक असहज हो गई, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें देख रहा हूं. आज तुम्हारे चेहरे पर एक नई आभा है, एक लुनाई है, एक अजब सलोनापन है. ये कायापलट क्यों हुई?’’

वह लजा गई, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘शायद जानता हूं पर तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’

उस के मुंह से बोल न निकला.

‘‘मालविका, कल मैं ने तुम से कुछ पूछा था. उस का जवाब क्या है बोलो, हां कि ना?’’

मालविका ने धीरे से कहा , ‘‘हां.’’

केशवन ने उठ कर उसे अपनी बांहों में ले लिया.

‘‘मालविका, आज मैं बहुत खुश हूं मुझे मालूम था कि तुम मेरा प्रस्ताव नहीं ठुकराओगी. तभी मैं ने तुम्हारे लिए ये अंगूठी पहले से ही खरीद कर रखी थी.’’

उस ने जेब से एक मखमली डब्बी निकाली और उस में से एक हीरे की अंगूठी निकाल कर उस की उंगली में पहना दी.

‘‘मैं तुम्हें एक और चीज दिखाना चाहता था.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘केशवन ने अपना हाथ आगे किया. मालविका चिंहुक उठी. उसे लगा वह रंगे हाथों पकड़ी गई है.’’

‘‘अरे,’’ वह हकलाने लगी, ‘‘ये तसवीर तो मेरे बक्से में थी. ये आप को कहां से मिली?’’

‘‘ये तसवीर मैं ने आप के बक्से से नहीं ली मैडम. ये तो मेरे मेज की दराज में पड़ी रहती है.’’

‘‘मालविका अवाक उस की ओर देखने लगी. शर्म से उस की कनपटियां लाल हो गईं.’’

मालविका की प्रतिक्रिया देख कर केशवन हंस पड़ा, ‘‘अरे पगली, जिस तरह तुम ने हमारी मंगनी के अवसर पर ली गई ये तसवीर संभाल कर रखी थी, उसी तरह मैं ने भी एक तसवीर मौका पा कर उड़ा ली थी. इसे जबतब देख कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करता था.’’

वह झेंप गई. ‘‘ओह, तो आप जान गए थे कि मैं कौन हूं.’’

‘‘और नहीं तो क्या. तुम ने क्या सोचा कि मुझे अनजान लोगों का मुफ्त इलाज करने का शौक है? उस दिन अस्पताल में तुम्हें मैं पहली नजर में ही पहचान गया था. तुम्हें भला कैसे भूल सकता था? आखिर तुम मेरा पहला प्यार थीं.’’

‘‘और आप ने यह बात मुझ से इतने दिनों तक बड़ी होशियारी से छिपाए रखी,’’ उस ने मीठा उलाहना दिया.

‘‘और करता भी क्या. तुम्हारा आगापीछा जाने बगैर मैं अपना मुंह न खोलना चाहता था. मैं तो यह भी न जानता था कि तुम शादीशुदा हो या नहीं, तुम्हारे बालबच्चे हैं या नहीं. तुम्हें अचानक अपने सामने देख कर मैं चकरा गया था. जब तुम्हें रोते हुए देखा तो कारण जान कर तुम्हारी मदद करने का फैसला कर लिया.

‘‘जब हमारी बातों के दौरान यह पता चला कि तुम्हारी शादी नहीं हुई है और न ही तुम्हारे जीवन में और कोई पुरुष आया है तो मैं ने तुम्हें अपना बनाने का निश्चय कर लिया. मेरा तुम्हें अपने घर बुलाने का भी यही मकसद था. मैं तुम्हारा मन टटोलना चाहता था. मैं चाहता था कि हम दोनों में नजदीकियां बढ़ें. हम एकदूसरे को जानें और परखें और जब मैं ने जान लिया कि तुम्हारे मन में मेरे प्रति कोई कड़वाहट नहीं है, कोई मनमुटाव नहीं है तो मेरी हिम्मत बढ़ी. मैं ने तुम से शादी करने की ठान ली.’’

मालविका की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. इतने बड़े संयोग की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

केशवन ने उसे बांहों में भींच लिया, ‘‘एक बार भारी गलती की कि अपने पिता का विरोध न कर तुम्हें खो दिया. शादी के बाद घर पहुंच कर मैं ने अपने पिता से बहुत बहस की पर वे यही कहते रहे कि उन्होंने मेरी पढ़ाई पर अपनी सारी पूंजी लगा दी है और ये रकम वे कन्या पक्ष से वसूल कर के ही रहेंगे. मैं ने भी गुस्से से भर कर अमेरिका जाने की ठान ली जहां से ढेर सारे डौलर कमा कर अपने पिता को भेज सकूं और उन की धनलोलुपता को शांत कर सकूं. उस के बाद नैन्सी मेरे जीवन में आई और मैं ने तुम्हें भुला देना चाहा.

‘‘मैं मानता हूं कि मैं ने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया. अब मैं तुम से शादी कर के इस का प्रतिकार करना चाहता हूं.

मालविका क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम दोनों का मिलन अवश्यंभावी था? किसी अज्ञात शक्ति ने हमें एकदूसरे से मिलाया है. नहीं तो न तुम अमेरिका आतीं और न हम यों अचानक मिलते.’’

उस ने मालविका के आंसू पोंछे, ‘‘यह समय इन आंसुओं का नहीं है. ये हमारी नई जिंदगी की शुरुआत है. मालविका, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. जो कुछ बीत गया उसे भुला दो और भावी जीवन की सोचो. हमें एकदूसरे का साथ मिला तो हम बाकी जिंदगी हंसतेखेलते गुजार देंगे, कल हम अपनी शादी के लिए रजिस्ट्रार औफिस जाएंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘फिर भी शादी के लिए हमें 2-4 चीजों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मसलन, नई साड़ी, मंगलसूत्र वगैरह…’’

‘‘मंगलसूत्र मेरे पास है.’’

‘‘अरे वह कैसे?’’

‘‘मैं आप का दिया हुआ ये मंगलसूत्र हमेशा अपने गले में पहने रहती हूं. यह 20 साल से एक कवच की तरह मेरे गले में पड़ा हुआ है.’’

‘‘सच?’’ केशवन हंस पड़ा. उस ने झुक कर मालविका का मुंह चूम लिया.

मालविका का सर्वांग सिहर उठा. उसे ऐसा लगा कि उस का शरीर एक फूल की तरह खिलता जा रहा है. वह केशवन के आगोश में सिमट गई. उसे अपनी मंजिल जो मिल गई थी.

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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-2

कनिष्क पूरा दिन इंतजार करता रहा. लेकिन उस लड़की ने रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की. आखिर उसे खुद को रोका नहीं गया और उस ने उसे मैसेज कर दिया, ‘हाय, आई एम कनिष्क. मैं ने तुम्हें मैट्रो में देखा था, आज तुम मेरे बगल में आ कर बैठी भी थीं. मैं तुम से बात करना चाहता था. और हां, मैं ने तुम्हारी कुछ तसवीरें भी ली थीं, तुम इतनी सुंदर लग रही थीं कि

मैं खुद को रोक नहीं पाया,’ कनिष्क ने इतना लिखा और तसवीरें उस लड़की को भेज दीं.

5 मिनट बाद ही उधर से रिप्लाई आ गया, ‘हाय, ये तसवीरें बहुत खूबसूरत हैं, थैंक्यू.’ कनिष्क तो मानो रिप्लाई देख कर उछल पड़ा. उस ने लिखा, ‘ओह वेल, आई एम ग्लैड. बाई द वे तुम्हारा नाम क्या है?’

‘रीतिका,’ रिप्लाई आया.

‘तुम्हारा नाम भी तुम्हारी तरह ही खूबसूरत है,’ कनिष्क ने लिखा और उस की मुसकराहट मानो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी.

‘हाहाहा, इतनी तारीफ?’

‘तुम हो ही तारीफ के काबिल, वैसे मेरा नाम कनिष्क है. मैं हंसराज कालेज का स्टूडैंट हूं, और तुम?’

‘गार्गी कालेज, सैकंड ईयर बीकौम,’ रीतिका ने उधर से लिखा.

‘ओहह, इंप्रैसिव.’

‘थैंक्स.’

कनिष्क सोच में पड़ गया कि अब क्या लिखे. उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि अब आगे क्या कहे सो, वह पूछ उठा, ‘तुम ने अपना यूजरनेम टोस्का क्यों रखा?’

‘मुझे इस का अर्थ पसंद है, मैं खुद को इस शब्द से कनैक्ट कर पाती हूं.’

‘मैं ने इस शब्द को गूगल किया था. यह रूसी शब्द है जिस का अर्थ है अनंत दुख, दर्द, पीड़ा. आखिर इतने दुखी शब्द से तुम कनैक्ट कैसे कर लेती हो?’

‘बस, कर लेती हूं, कोई विशेष कारण नहीं है इस के पीछे.’

‘अच्छा, तुम्हें किताबें पढ़ना भी पसंद है न?’

‘हां, बेहद.’

‘अच्छा सुनो?’ कनिष्क ने लिखा.

‘कहो,’ रीतिका ने कहा.

‘तुम ने अब तक मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की है, मैं तुम्हारी प्रोफाइल नहीं देख पा रहा हूं.’

‘हां, नैटवर्क में कुछ प्रौब्लम है शायद. नैटवर्क ठीक होते ही एक्सैप्ट कर लूंगी.’

‘ओह, कोई बात नहीं. वैसे एक बात कहूं?’

‘कहो.’

‘तुम्हें देखते ही तुम पर क्रश आ गया था मुझे,’ कनिष्क खुद को कहने से रोक नहीं पाया.

‘सचमुच?’

‘हां, सच. तुम ने तो मुझे बिलकुल नोटिस नहीं किया था वैसे.’

‘ऐसा तो कुछ नहीं है. तुम अपना फोन हाथ में ले कर बैठे थे, बारबार मेरी तरफ देख रहे थे. तुम ने ग्रीन शर्ट पहनी थी चैक वाली. ब्लैक स्पोर्ट्स शूज और ब्लू जींस. मैं तुम्हारे बगल में आ कर बैठी थी तो तुम्हारे चेहरे पर मुसकान आ गई थी.’

रीतिका का मैसेज देख कर कनिष्क सातवें आसमान पर पहुंच गया. वे दोनों रातभर एकदूसरे से बातें करते रहे. कौन सा गाना पसंद है, खाने में क्या पसंद है, कालेज की ऐक्टिविटीज, दोस्तयार. लगभग हर टौपिक पर दोनों बातें करते रहे. देखतेदेखते कब सुबह के 4 बज गए, दोनों को पता ही नहीं चला.

‘वैसे किताबें किस तरह की पढ़ती हो तुम, फिक्शन या नौनफिक्शन?’

‘दोनों ही, लेकिन मुझे फिक्शन ज्यादा पसंद है.’

‘ऐसा क्यों? हकीकत से बेहतर कल्पनाएं लगती हैं तुम्हें?’

‘हकीकत मुझे डराती है.’

‘अच्छा, फिर बीकौम क्यों ली तुम ने? उस में तो सब हकीकत ही है, कुछ कल्पना नहीं है.’ कनिष्क ने चुटकी लेने के अंदाज में पूछा.

‘हाहा, टौपर थी मैं स्कूल में और फर्स्ट सैमेस्टर की भी.’

‘तुम तो समझदार भी हो मतलब.’

‘वो तो मैं हूं.’

‘कल मिलोगी?’ कनिष्क ने मैसेज किया. उधर से मैसेज का जवाब आया, ‘सुबह

8:55, सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन.’

‘मिलते हैं,’ आखिरी मैसेज में कनिष्क ने छोटा सा दिल भी भेज दिया और उधर से भी रिप्लाई में दिल आया तो उस की खुशी और बढ़ गई.

अगली सुबह कनिष्क 8:40 पर ही मैट्रो पर पहुंच गया. वह इंतजार में था कि कब रीतिका आए और वह उस का चेहरा देखे, उस से हाथ मिलाए, बातें करे. उस ने सुबह से अब तक रीतिका को कोई मैसेज नहीं भेजा. उसे लगा, कहीं वह ज्यादा उत्सुकता दिखाएगा तो रीतिका उसे डैसप्रेट न समझने लगे. वह मैट्रो में नवादा से चढ़ा था और लगभग 5 मिनट में ही सुभाष नगर पहुंच गया था. वह सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन के प्लैटफौर्म पर रखी बैंच पर बैठ गया. उस की नजरें बारबार रीतिका के इंतजार में दाईं ओर मुड़ रही थीं.

वह सोच रहा था कि रीतिका से क्या कहेगा, हाय कैसी हो, नहीं यह नहीं. हाय यू लुक ब्यूटीफुल, नहीं यह तो बड़ा फ्लर्टी साउंड कर रहा है. हैलो, आज तो तुम कल से भी ज्यादा सुंदर लग रही हो, हां परफैक्ट, कनिष्क सब सोच ही रहा था कि एक लड़की उस के सामने आ कर रुक गई. वह समझ गया कि यह रीतिका है. आज उस ने पीला टौप पहना हुआ था, बाल खोले हुए थे और चेहरे पर अब भी मास्क था. रीतिका की आंखें खुशी से चमचमाती हुई दिख रही थीं. कनिष्क की आंखों में उस से मिलने की ललक साफसाफ झलक रही थी.

‘‘हाय,’’ रीतिका ने कहा और हाथ आगे बढ़ाया.

‘‘हैलो,’’ कनिष्क ने कहते हुए हाथ मिलाया. वह कुछ और कह पाता उस से पहले ही रीतिका ने अपना मास्क उतारना शुरू कर दिया. कनिष्क का चेहरा अचानक पीला पड़ गया. वह रीतिका का चेहरा देख कर दंग रह गया. रीतिका के होंठों का आकार बिगड़ा हुआ था, वे कटेफटे हुए लग रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो कोई हादसा हुआ हो उस के साथ. उस की सारी खूबसूरती उस के होंठों की बदसूरती से धरी की धरी रह गई. कनिष्क की आंखें फटी हुई थीं. कुछ कहने के लिए जैसे उस की जबान पर ताले पड़ गए थे.

रीतिका शायद समझ चुकी थी कनिष्क के मन का हाल. उस ने कहा, ‘‘ओह, मैं अपने नोट्स घर भूल गई हूं आज सबमिट करने थे कालेज में. मैं तुम से बाद में मिलती हूं, तुम जाओ कालेज के लिए लेट हो जाओगे वरना,’’ रीतिका ने बनावटी मुसकराहट के साथ कहा.

कनिष्क ने ओके कहा और मैट्रो उस के सामने आ कर रुकी ही थी कि वह उस में चढ़ गया. पूरे रास्ते वह सोचता रहा कि अब क्या करे. अब उसे रीतिका की खूबसूरती नजर नहीं आ रही थी बल्कि उस के चेहरे का वह दाग बारबार उस की आंखों के सामने आ रहा था. उस ने फोन चैक किया तो रीतिका उस की फौलो रिक्वैस्ट एक्सैप्ट कर चुकी थी. उस ने उस की प्रोफाइल देखी तो एक बार फिर उस के होंठों की जगह मांस के लोथड़े को देख उस का मन खीझ उठा.

आगे पढ़ें- वह कालेज पहुंचा और अपनी…

अटूट बंधन: भाग-1

विशू  देर तक सोया पड़ा था. वैसे तो जल्दी ही उठ जाता है वह या कहें कि उठना पड़ता है. विश्वनाथ तिवारी, डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर एक मल्टीनैशनल कंपनी में रोबदाब के साथ 13 साल से काम कर रहा है. वह कंपनी के मालिक जालान का दाहिना हाथ है. आकाश चूमता वेतन,  साथ में अन्य सुविधाएं जैसे ड्राइवर, पैट्रोल समेत गाड़ी, फुल फर्निश्ड फ्लैट, मैडिकल और बच्चों की पढ़ाई का पैसा, साल में एक बार देश या विदेश में घूमने का खर्चा और पूरे विश्व में औफिशियल टूर का अलग पैसा. जब  इतनी सारी सुविधाएं देती है कंपनी तो काम भी दबा कर लेती है.

सच तो यह है कि उसी ने ही कंपनी को सफलता की चोटी पर बैठाया है. इस की टक्कर की जो दूसरी कंपनी हैं वे उस पर नजर लगाए हैं कि कब विश्वनाथ का जालान से मतभेद हो और कब वे उसे चारा फेंक, अपनी कंपनी में खींच लें. हां, तो यह भोर की नींद उसे बचपन से लुभाती है.

उस के पिता एक निष्ठावान ब्राह्मण पंडित केशवदास थे. गांव के छोटे से प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर, वेतन अनियमित. पहली पत्नी डेढ़ साल के विश्वनाथ को छोड़ कर दुनिया से चल बसी तो विशू की देखभाल के लिए ही गरीब ब्राह्मण कन्या निर्मला को ब्याह लाए थे वे. उस से 2 बच्चे, बेटा दीनानाथ और बेटी सुलक्षणा हैं. अपनी आय में गृहस्थी नहीं चलती पर 5 बीघा जमीन थी उन के पास. उसी से रोटीकपड़ा चल जाता. मिट्टी का कच्चा घर तो अपना था ही. पर उन के पास सब से बड़ी संपत्ति थी पूरे गांव का आदरसम्मान. भोर में 4 बजे वे उठ जाते. अपने साथ ही वे विशू को जगा कर पढ़ने बैठा देते. कहते, ‘‘ऊषाकाल का अध्ययन सब से श्रेष्ठ होता है, सूर्योदय तक बिस्तर पर रहना चांडालों का काम है.’’

बेचारा विशू, बचपन से ही भोर की मीठी नींद से वंचित रह गया. विद्यार्थी जीवन समाप्त होते ही कंधों पर आ बैठा ऊंचे पद का दायित्व. भोर की तो क्या रात की नींद भी छिन रही थी. पर रविवार के दिन विशू देर तक सोता है, रीमा भी नहीं जगाती, उलटे बच्चों को हल्लागुल्ला करने से रोकती है.

आज रविवार नहीं सोमवार है. हफ्तेभर काम करने का पहला दिन. विशू गहरी नींद में सो रहा था. इतनी निश्चिंत शांति की नींद वह वर्षों से नहीं सोया. बच्चे कब स्कूल चले गए, पता नहीं चला. पहली चाय रोज की तरह सिरहाने रख कर कब नौकर भी चला गया उस का भी पता नहीं चला. रीमा के जोरदार झकझोरने से उठा. हड़बड़ा कर देखा खिड़की के परदे हटा दिए गए हैं. फर्श पर धूप, सामने रीमा हाउसकोट पहने खड़ी हंस रही है.

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‘‘उठिए साहब, पता है 8 बज गए. आज आस्ट्रेलिया की पार्टी से मीटिंग है न?’’

‘‘धत, नींद खराब कर दी मेरी.’’ रीमा बिस्तर पर बैठी प्यार से उस के बिखरे बालों को संवार रही थी और हंस रही थी.

‘‘बच्चों से कम नहीं हो तुम. वे भी तैयार हो, स्कूल चले गए. चलो, उठो.’’

वह फिर लुढ़कने को तैयार.

‘‘सोने दो मुझे.’’

‘‘अरे अरे, ठीक 11 बजे मीटिंग है तुम्हारी.’’

‘‘भाड़ में जाए मीटिंग. जालान का बच्चा संभाले अपनेआप.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक ही कह रहा हूं. शनिवार को ही मैं रैजिगनेशन लैटर उस के मुंह पर मार आया हूं. आजाद हूं अब मैं.’’

‘‘क्या?’’

रीमा इस तरह छिटक कर खड़ी हो गई मानो हजार वोल्ट का झटका लगा हो.

‘‘नौकरी छोड़ दी तुम ने?’’

‘‘हां.’’

‘‘इतना बड़ा फैसला तुम ने मुझ से पूछे बिना लिया कैसे?’’

विशू ने देखा, एक क्षण पहले की रोमांसभरी मधुर मुसकान उस के मुख से गायब थी. अब वहां क्रोध की ज्वाला थी.

‘‘क्या? तुम से पूछता? यह तो मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं नौकरी करूंगा या नहीं, यह मेरा फैसला है.’’

गुस्से में हांफ रही थी रीमा, ‘‘तुम्हारा फैसला? वाह, बहुत बढि़या. अब तुम्हारा व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है जो अपनी मरजी से चलोगे. घरपरिवार वाले हो. तुम्हारे सबकुछ पर हमारा अधिकार है. तुम बिना पूछे इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हो? सोने की खान जैसी नौकरी, जिस ने तुम को झोंपड़े से उठा कर राजमहल में बैठा दिया. समाज की सर्वोच्च सोसाइटी में तुम को पहचान दी, तुम उसी नौकरी को मिजाज दिखा छोड़ आए.’’

‘‘ऐ, हैलो, यह सब जो तुम मुझे गिना रही हो वह सब खैरात में नहीं दिया है किसी ने मुझे. अपनी योग्यता और ईमानदारी की बदौलत हासिल किया था मैं ने यह मुकाम. कैंपस सिलैक्शन में टौप किया था. एक पिछड़ी कंपनी को कहां से कहां पहुंचा दिया इन 13 वर्षों में. खरबों का मुनाफा कमा कर दिया कंपनी को, नहीं तो बड़ीबड़ी कंपनियों के सामने तिनके की तरह बह जाता जालान का बच्चा.’’

‘‘अपने मुंह मियांमिट्ठू तो बनो मत. तुम जैसे एमबीए आजकल क्लर्क का काम कर रहे हैं.’’

‘‘हां, कर रहे हैं पर 13 वर्ष पहले आज की तरह छवड़ा भरभर एमबीए नहीं निकलते थे प्रति वर्ष.’’

थोड़ी नरम दिखाई दी रीमा, ‘‘देखो, आपस में लड़ाई करने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता. जालान साहब इतनी बड़ी कंपनी के मालिक हैं, कोई मूर्ख तो हैं नहीं. तुम से कंपनी को कितना फायदा है, यह वे भी समझते हैं. तुम इतने वर्षों से इस कंपनी के प्रतिनिधि हो. बहुत से देशों के लोग तुम को ही जानते हैं इस कंपनी के नाम से. तुम्हारे न रहने का मतलब है कंपनी का बहुत नुकसान हो सकता है. बहुत सारे बाहर के कस्टमर तुम्हारी जगह नया आदमी देख डील ही न करें. इस बात को जालान साहब भी जानते हैं.’’

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विशू अवाक हो रीमा को देख रहा था. वह भी एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत है. 50 हजार रुपए से ऊपर ही वेतन लेती है. उस में इतनी प्रैक्टिकल समझ, व्यावसायिक बुद्धि है, यह तो उस ने सोचा ही नहीं था और ऐसा दांवपेंच तो इतने बड़ेबड़े डील कर के भी उस के मस्तिष्क में नहीं आया.

‘‘देखो, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा. जालान साहब मंजे हुए व्यापारी हैं. अपना फायदा अच्छी तरह समझते हैं. तुम्हारी जगह नए आदमी को ले कर उसे अपने हिसाब से तैयार करने में उन को वर्षों लग जाएंगे. कंपनी को बहुत नुकसान होगा. चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. वे मुझे बेटी मानते हैं. तुम माफी मांग कर रैजिगनेशन वापस ले लो. आज की आस्ट्रेलिया वाली डील में सफल हो जाओगे तो वे औैर भी खुश हो जाएंगे. चलो, उठो, मैं भी तैयार होती हूं. तुम्हारी समस्या का समाधान कर मैं अपने औफिस चली जाऊंगी.’’

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शह और मात: भाग-3

उस की इच्छाओं की पूर्ति करतेकरते भी उस से गालियां सुनती है, मार खाती है. पल्लवी उन मूर्खों में से थी जिस ने खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर दे मारा था. अपनी गलतियों के कारण वह संजीव की बिछाई शतरंज की बिसात पर सिर्फ एक मुहरा बन कर रह गई थी. पल्लवी ने आंसू पोंछे और मन मार कर संजीव को खाना परोसने चली गई.

इस के बाद कुछ दिनों तक तो संजीव शांत रहा, लेकिन वह ₹10 हजार रुपयों पर आखिर कितने दिन ऐश करता? उस ने पल्लवी को शरद से ₹1 लाख निकलवाने के लिए कहा और इस के लिए योजना भी समझा दी.

पल्लवी ने संजीव के कहे अनुसार अभिनय करना शुरू कर दिया. एक दोपहर शरद के साथ खाना खाते समय उस ने अपनी छोटी बहन से फोन पर बात करने का नाटक किया और रोने लगी. पल्लवी को इस तरह रोता देख कर शरद परेशान हो गया.

“पल्लवी तुम इस तरह क्यों रो रही हो? घर पर सब ठीक है न?” शरद ने पूछा.

“शरद मेरी मां की तबीयत बहुत खराब है. मुझे उन के औपरेशन के लिए ₹1 लाख का इंतजाम करना होगा और वह भी 2 दिनों के अंदर. मैं इतनी जल्दी इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगी?” पल्लवी ने परेशान होने का नाटक किया.

“तुम फिक्र मत करो पल्लवी. कोई न कोई इंतजाम हो जाएगा,” शरद ने उसे हौसला बंधाते हुए कहा.

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“कैसे फिक्र न करूं शरद. मेरा बैंक अकाउंट संजीव खाली कर चुका है. जो थोड़ेबहुत गहने थे वे मैंने कर्ज उतारने के लिए बेच दिए थे. अभी कुछ दिन पहले मेरे पास घर का किराया देने के लिए एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी. उस वक्त तुम ने मेरी मदद की थी. अब मैं किस के आगे हाथ फैलाऊं?” पल्लवी अपने चेहरे को हथेलियों के पीछे छिपा कर रो पड़ी.

शरद अपनी कुरसी खींच कर पल्लवी के पास ले आया और उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा,“पल्लवी ‌सब ठीक हो जाएगा, पहले तुम रोना बंद करो प्लीज.”

शरद को पिघलता देख कर पल्लवी ने उस की बांह को कस कर पकड़ लिया और अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया और रोते हुए कहा, “अगर मां को कुछ हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. मैं क्या करूं मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मैं बहुत अकेली हो गई हूं शरद.”

“तुम अकेली नहीं हो पल्लवी. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं,” शरद ने पल्लवी के हाथ पर अपना हाथ रखा. वह उस के चेहरे पर उभरती कुटिल मुसकान से बेखबर था.

अगले दिन औफिस पहुंचने से पहले ही पल्लवी को मालूम था कि शरद ने रुपयों का इंतजाम कर लिया होगा. आखिर उस ने अभिनय भी तो कमाल का किया था.

पल्लवी का अंदाजा बिलकुल सही निकला. शरद ने लंच ब्रैक के समय उस के हाथ में ₹1 लाख थमा दिए.

“थैंक यू सो मच शरद. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी. मैं जल्द से जल्द तुम्हारे सारे रुपए लौटा दूंगी,” पल्लवी ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा.

“कैसी बातें करती हो पल्लवी, क्या मेरा सब कुछ तुम्हारा नहीं है? अब बातें करने में समय बरबाद मत करो. जाओ और अपनी बहन को यह रुपए दे दो,” शरद ने मुसकरा कर उस का माथा चूम लिया.

पल्लवी ने एक बार फिर से शरद को धन्यवाद कहा और रुपए ले कर अपने घर आ गई. ₹1 लाख देख कर संजीव खुशी से उछल पड़ा और एक पल गंवाए बिना पल्लवी के हाथ से नोट झपट लिए, “अरे वाह पल्लवी, आज तो तुम ने कमाल ही कर दिया. अच्छा यह बताओ शरद को तुम पर शक तो नहीं हुआ?”

“नहीं…”

“वैरी गुड… अब अगली बार ₹2 लाख से कम मत मांगना,” संजीव ने हिदायत दी.

“लेकिन संजीव, इस तरह बारबार बहाने कर के ज्यादा रुपए मांगूगी तो शरद को मुझ पर शक हो जाएगा,” पल्लवी ने तर्क दिया.

“पल्लवी, तुम अपने छोटे से दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालो. यह शरद तुम पर पूरी तरह से लट्टू हो चुका है. इस का जितना फायदा उठा सकती हो उठा लो. फिर कोई नया बकरा फंसा लेना,” संजीव ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा और चलता बना.

संजीव के जाने के बाद पल्लवी का हाथ अनायास ही अपने माथे पर चला गया. जब शरद ने उस के माथे को चूमा था तो उसे अजीब सी सुखद अनुभूति हुई थी. शरद ने उसे भीतर तक छू लिया था. आज से पहले उस ने न जाने कितने लोगों के साथ प्यार का नाटक किया था मगर उसे ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ. सिर्फ यही नहीं, शरद के रुपए संजीव को देते समय उसे ग्लानि हो रही थी. वह संजीव के पूछने पर इनकार कर देती थी लेकिन सच तो यह था कि उसे शरद का साथ अच्छा लगने लगा था.

पल्लवी को आभास हुआ कि उस का मन भटक रहा है. वह शादीशुदा होते हुए भी पता नहीं क्याक्या सोचने लगी थी. उसने मन ही मन खुद को फटकारा और अपना ध्यान बंटाने के लिए घर के काम में व्यस्त हो गई.

₹1 लाख रुपए मिलने के बाद भी संजीव का पेट नहीं भरा. उस;ने जल्द ही सारे रुपए उड़ा दिए और पल्लवी को शरद से दोबारा रुपए मांगने के लिए मजबूर करने लगा. इस बार उस:के लालच के साथ रुपयों की मांग भी बड़ी थी. पल्लवी के इनकार करने पर वह उसे प्रताड़ित करने लगा.

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इधर औफिस में पल्लवी और शरद के बीच नजदीकियां बढ़ती जा रहीं थीं. संजीव का बुरा बरताव आग में घी का काम कर रहा था. संजीव के दिए जख्मों को शरद के प्रेम का मरहम भरने लगा था. पल्लवी के प्रति शरद की परवाह उसे शरद की तरफ खींचती चली जा रही थी. जब पल्लवी शरद के करीब होती तो खुद को बेहद सुरक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि शरद की बांहों में ही उस का घर है. पल्लवी के लिए प्यार का नाटक धीरेधीरे सच होता चला गया. उस ने बहुत कोशिश की मगर वह खुद को शरद से प्यार करने से नहीं रोक पाई. पल्लवी ने निश्चय कर लिया था कि अब चाहे जो हो जाए, वह शरद से कभी रुपयों की मांग नहीं करेगी.

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तालमेल: भाग-1

‘‘गोपाल जीजाजी सुनिए,’’ अचानक अपने लिए जीजाजी का संबोधन सुन कर विधुर गोपाल चौंक पड़ा. उस ने मुड़ कर देखा, ऋतु एक सुदर्शन युवक के साथ खड़ी मुसकरा रही थी. चंडीगढ़ में उस के परिवार के साथ गोपाल और उस की पत्नी रचना का दिनरात का उठनाबैठना था.

‘‘अरे, साली साहिबा आप? अरे, शादी कर ली और मुझे बताया तक नहीं?’’

‘‘आप का कोई अतापता होता तो शादी में बुलाती,’’ ऋतु ने शिकायत भरे स्वर में कहा और फिर युवक की ओर मुड़ कर बोली, ‘‘राहुल, यह गोपाल जीजाजी हैं.’’

‘‘मुझे मालूम है. जब पहली बार तुम्हारे घर आया था तो अलबम में इन की कई तसवीरें देखी थीं. पापा ने बताया था कि ये भी कभी परिवार के ही सदस्य थे. दिल्ली ट्रांसफर होने के बाद भी संपर्क रहा था. फिर पत्नी के आकस्मिक निधन के बाद न जाने कहां गायब हो गए,’’ राहुल बीच ही में बोल उठा.

‘‘रचना के निधन के बाद मनु को अकेले संभालना मुश्किल था, इसलिए उसे देहरादून में एक होस्टल में डाल दिया. यहां से देहरादून नजदीक है, इसलिए अपना ट्रांसफर भी यहीं करवा लिया. अकसर आप लोगों से संपर्क करने की सोचता था, मगर व्यस्तता के चलते टाल जाता था.’’

गोपाल ने जैसे सफाई दी, ‘‘चलो, सामने रेस्तरां में बैठ कर इतमीनान से बातें करते हैं. अकेले रहता हूं, इसलिए घर तो ले जा नहीं सकता.’’

‘‘तो हमारे घर चलिए न जीजाजी,’’ राहुल ने आग्रह किया.

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‘‘तुम्हारे घर जाने और वहां खाना बनने में देर लगेगी और मुझे बहुत भूख लगी है. मैं रेस्तरां में खाना खाने जा रहा हूं, तुम भी मेरे साथ खाना खाओ. अब मुलाकात हो गई है तो घर आनाजाना तो होता ही रहेगा.’’

रेस्तरां में खाना और्डर करने के बाद गोपाल ने ऋतु से उस के परिवार का हालचाल पूछा और फिर राहुल से उस के बारे में. राहुल ने बताया कि वह एक फैक्टरी में इंजीनियर है.

‘‘नया प्लांट लगाने की जिम्मेदारी मुझ पर है, इसलिए बहुत व्यस्त रहता हूं. घर वालों से बहुत कहा था कि फिलहाल मेरे पास घरगृहस्थी के लिए बिलकुल समय नहीं होगा. अत: शादी स्थगित कर दें. मगर कोई माना ही नहीं और उस की सजा भुगतनी पड़ ही है बेचारी ऋतु को. खैर, अब आप मिल गए हैं तो मेरी चिंता दूर हो गई. अब आप इसे संभालिए और मैं अपनी नौकरी को समय देता हूं. अगर मैं यह प्रोजैक्ट समय पर यानी अगले 3 महीने में सफलतापूर्वक पूरा नहीं कर सका तो मेरी यह नौकरी ही नहीं पूरा भविष्य ही खतरे में पड़ जाएगा जीजाजी,’’ राहुल ने बताया.

‘‘दायित्व वाली नौकरी में तो ऐसे तनाव और दबाव रहते ही हैं. खैर, अब साली साहिबा की फिक्र छोड़ कर तुम अपने प्रोजैक्ट पर ध्यान दो और फिलहाल खाने का मजा लो, अच्छा लग रहा है न?’’

‘‘हां, क्या आप रोज यहीं खाना खाते हैं?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘अकसर सुबह नौकरानी नाश्ता और साथ ले जाने के लिए लंच बना देती है, शाम को यहीं कहीं खा लेता हूं.’’

‘‘अब आप इधरउधर नहीं हमारे साथ खाना खाया करेंगे जीजाजी. ऋतु बढि़या खाना बनाती है.’’

‘‘जीजाजी को मालूम है, मैं ने रचना दीदी से ही तो तरहतरह का खाना बनाना सीखा है,’’ ऋतु बोली.

‘‘तब तो तुम्हें जीजा को क्याक्या पसंद है, यह भी मालूम होगा?’’ राहुल ने पूछा, तो ऋतु ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘तो फिर कल रात का डिनर जीजाजी की पसंद का बनेगा,’’ राहुल ने कहा, ‘‘मना न करिएगा जीजाजी.’’

‘‘जीजाजी को अपने घर का पता तो बताओ,’’ ऋतु बोली.

‘‘आप के पास व्हीकल है न जीजाजी?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘हां, मोटरसाइकिल है.’’

‘‘तो फिर पता क्या बताना तुम घर ही दिखा दो न. मैं यहां से सीधा फैक्टरी के लिए निकल जाता हूं. तुम जीजाजी के साथ घर जाओ, मैं एक राउंड लगा कर आता हूं. तब तक आप लोग बरसों की जमा की हुई बातें कर लेना.’’

‘‘कमाल के आदमी हो यार… कुछ देर पहले मिले अजनबी के भरोसे बीवी को छोड़ कर जा रहे हो.’’

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं जीजाजी, ऋतु के घर में आप की भी वही इज्जत है, जो ललित जीजाजी की,’’ राहुल ने उठते हुए कहा.

गोपाल अभिभूत हो गया. ललित ऋतु की बड़ी बहन लतिका का पति था. मोटरसाइकिल पर ऋतु उस से सट कर बैठी. एक अरसे के बाद नारीदेह के स्पर्श से शरीर में एक अजीब सी अनुभूति का एहसास हुआ. लेकिन अगले ही पल उस ने उस एहसास को झटक दिया कि ऐसा सोचना भी राहुल और ऋतु के परिवार के साथ विश्वासघात है. बातों में समय कब बीत गया पता ही नहीं चला. राहुल के लौटने के बाद वह चलने के लिए उठ खड़ा हुआ.

‘‘आप कल जरूर आना जीजाजी,’’ राहुल ने याद दिलाया.

‘कल नहीं, आज शाम

को कहो, 12 बज चुके हैं बरखुरदार. वैसे भी शाम को मुझे औफिस में देर हो जाएगी, इसलिए फिर कभी आऊंगा.’’

‘‘देरसवेर से अपने यहां कुछ फर्क नहीं पड़ता जीजाजी और फिर देर तक काम करने के बाद तो घर का बना खाना ही खाना चाहिए,’’ राहुल ने जोड़ा.

‘‘लेकिन हलका, दावत वाला नहीं,’’ गोपाल ने हथियार डाल दिए.

‘‘हलका यानी दालचावल बना लूंगी, मगर आप को आना जरूर है,’’ ऋतु ठुनकी.

शाम को जब गोपाल ऋतु के घर पहुंचा तो राहुल तब तक नहीं आया था.

‘‘हो सकता है 10 मिनट में आ जाएं और यह भी हो सकता है कि 10 बजे तक भी न आएं… फोन कर बता देती हूं कि आप आ गए हैं,’’ ऋतु ने मोबाइल उठाते हुए कहा.

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‘‘ठीक है, मैं खाना पैक कर देती हूं. आप ड्राइवर को आने के लिए कह दीजिए,’’ कह कर ऋतु ने मोबाइल रख दिया. बोली, ‘‘कहते हैं आने में देर हो जाएगी, ड्राइवर को खाना लाने भेज रहे हैं. आप टीवी देखिए जीजाजी, मैं अभी इन का टिफिन पैक कर के आती हूं.’’

‘‘मुझे फोन दो पूछता हूं कि यह कहां की शराफत है कि मुझे घर बुला कर खुद औफिस

में खाना खा रहा है,’’ गोपाल की बात सुन

कर ऋतु ने नंबर मिला कर मोबाइल उसे पकड़ा दिया.

‘‘आप घर पर हैं, इसलिए मैं भी समय पर घर का खाना खा लूंगा जीजाजी वरना

अकेली ऋतु के पास तो ड्राइवर को घर पर खाना लाने नहीं भेज सकता ना,’’ गोपाल की शिकायत सुन कर राहुल ने कहा, ‘‘आप के साथ ऋतु भी खा लेगी वरना भूखी ही सो जाती है.

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Serial Story: उड़ान (भाग-3)

आखिर एक दिन उस का मन इतना विरक्त हुआ कि उस ने तय कर लिया कि वह अपने केश उतरवा देगी.

घर में उत्सव जैसा माहौल था. नाई आया. आंगन में एक पीढ़े पर वह बैठी. नाई ने अपना उस्तरा तेज किया और उस के सिर पर फेरना शुरू किया. केशगुच्छ जमीन पर गिरते गए. नाई के जाने के बाद घर की बड़ीबूढि़यां आईं और बोलीं, ‘‘चलो बेटी, अब नहा लो.’’

अरुणा उठ खड़ी हुई. नहा कर उस ने एक कोरी रेशम की साड़ी पहनी जो विधवाओं का लिबास था. अब उस की दिनचर्या बिलकुल बदल गई थी. उस के हिस्से में आए जप, तप, पूजापाठ, व्रतउपवास और संयमी जीवन.

उस के गांव से कुछ स्त्रियां तीर्थयात्रा पर जा रही थीं. अरुणा भी उन के साथ हो ली.

घर लौटी तो हमेशा की तरह उस के भाई उसे बसस्टैंड पर लेने आए थे.

‘‘कहो अक्का, तुम्हारी यात्रा सुखद रही न?’’ केशव ने पूछा.

‘‘हां,’’ वह बताने लगी, ‘‘मैं ने चारों धाम के दर्शन कर लिए. मेरा जीवन सार्थक हो गया.’’

उस ने देखा राघव कुछ अनमना सा था.

‘‘क्या बात है राघव, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, अक्का.’’

नागमणि द्वार पर खड़ी उस का रास्ता देख रही थी.

‘‘भाभी, मैं तुम सब के लिए उपहार लाई हूं,’’ अरुणा बोली, ‘‘तुम्हारे और जया के लिए चंदेरी साडि़यां…’’

कहतेकहते उस की निगाह अंदर सहन में झूले पर बैठी जया पर पड़ी तो वह ठिठक गई.

‘‘अरे, यह क्या?’’ उस के मुंह से निकला.

जया का गला व माथा सूना था. सारे सुहाग के चिह्न नदारद. एक मैली सी साड़ी लपेटे वह शून्य में ताकती अनमनी सी बैठी थी.

‘‘भाभी,’’ अरुणा ने अस्फुट चीत्कार किया, ‘‘यह क्या देख रही हूं मैं? यह कब और कैसे हुआ?’’

नागमणि ने रोरो कर बताया कि जया का पति उसे मायके छोड़ने आया था. सुबह नदी में नहाने गया. हेमावती नदी में बाढ़ आई हुई थी. सुरेश तैरते हुए एक भंवर में फंस गया और तुरंत डूब गया.

‘‘ओह, इतना बड़ा हादसा हो गया और आप लोगों ने मुझे खबर तक न की.’’

‘‘यही नहीं,’’ नागमणि रो कर बोली, ‘‘पति की मृत्यु की खबर से जया को इतना गहरा सदमा लगा कि उसी शाम उसे प्रसव वेदना हुई और एक सतमासा बच्चा पैदा हुआ, वह भी मरा हुआ. इस दोहरे आघात से लड़की एकदम विक्षिप्त सी हो गई है. न किसी से बोलतीचालती है न ठीक से खातीपीती है. बस, दिनभर गुमसुम सी इस झूले पर बैठी रहती है.’’

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‘‘लेकिन आप लोगों ने इस के गहने क्यों उतरवा दिए? यह तो बड़ी ज्यादती है.’’

‘‘हम ने नहीं, इस ने खुद उतार फेंके हैं. मुझे तो डर है कि यह कहीं दुख से पागल न हो जाए.’’

‘‘ओह,’’ अरुणा ने ठंडा निश्वास छोड़ा. इस भतीजी से उसे बहुत लगाव था. पलभर में उस का सुखी संसार उजड़ गया था.

कुछ दिन बाद बैठक में भाई राघव, भाभी नागमणि, भतीजे श्रीधर और भतीजी जया के साथ अरुणा बैठी हुई थी. अचानक भाई ने प्रसंग छेड़ा.

‘‘स्वामीजी ने कहा था कि जया मांगलिक है इसलिए उस का एक वटवृक्ष से गठबंधन करा कर बाद में उस का विवाह करना चाहिए. हम ने वह भी किया. फिर भी पता नहीं क्यों यह हादसा हो गया? स्वामीजी के अनुसार तो यदि एक नवग्रह जाप करा कर ग्रहशांति के लिए एक छोटा सा यज्ञ करा दिया गया होता तो यह अनर्थ न होता.’’

‘‘उन की छोड़ो, आगे की सोचो. अब जया के बारे में क्या इरादा है?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘उसे यों मझधार में तो छोड़ा नहीं जा सकता. तुम लोग उस की दूसरी शादी क्यों नहीं कर देते?’’

‘‘दूसरी शादी?’’

नागमणि भौचक उस का मुंह ताकने लगी. उस के होंठ कांपे और आंखों से आंसू ढुलकने लगे, ‘‘अक्का, क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज इस की अनुमति देगा?’’ राघव ने टोका.

‘‘राघव, तुम किस समाज की बात कर रहे हो? हम लोग भी तो समाज का अंग हैं और तुम तो गांव के मुखिया हो. सब के अगुआ हो. तुम्हें यह क्रांतिकारी कदम उठाना ही होगा. तुम्हें एक दृष्टांत कायम करना होगा. आखिर किसी को तो पहल करनी चाहिए तभी तो इन कुरीतियों का अंत होगा.’’

‘‘लेकिन बिरादरी वाले हमें जीने नहीं देंगे.’’

‘‘न सही, पर बेटी पहले है या बिरादरी? जरा सोचो, जया के पति की अकाल मृत्यु हुई है, पर तुम लोग जया को जीतेजी मार रहे हो. क्षति उस की हुई और सजा भी वही भुगते. यह कहां का न्याय है?’’

‘‘अक्का ठीक कह रही हैं,’’ केशव ने कहा.

‘‘लेकिन मेरा मन इस की गवाही नहीं देता. हमारे हिंदू धर्म में विधवा विवाह वर्जित है.’’

‘‘अन्य धर्मों में विधवा विवाह की छूट है. मुसलमानों और ईसाइयों में विधवा विवाह होते रहते हैं. पता नहीं, हम हिंदू ही नारी के प्रति इतने बर्बर क्यों हैं? पुरुष एक छोड़ दस शादियां कर सकता है. एक पत्नी के मरने पर दोबारा कुंआरी कन्या से विवाह कर सकता है. ये सारे कायदेकानून, सारे प्रतिबंध स्त्रियों के लिए ही हैं. क्यों न हों, ये नियम पुरुषों ने ही तो बनाए हैं. लेकिन अब सारे देश में बदलाव की लहर बह रही है.

‘‘स्त्रियों के हित में नित नए कानून बन रहे हैं. स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं. वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं, पर अफसोस, हमारा गांव वहीं का वहीं है. वही संकीर्ण मानसिकता, वही पिछड़ापन. कुप्रथाओं के मकड़जाल में फंसा, तंत्रमंत्र, छुआछूत, टोनाटोटका, झाड़फूंक और अंधविश्वासों से घिरा है हमारा ग्रामीण समाज. ऊपर से हमारे धर्म के ठेकेदार हमें धर्म की दुहाई दे कर तिगनी का नाच नचाते रहते हैं. मैं यह सब इसलिए कह रही हूं कि हमें जया को आजीवन रोने व कलपने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए. उस का भविष्य संवारने के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहिए.’’

‘‘मैं अक्का से सहमत हूं,’’ केशव बोला, ‘‘हमें जया की दूसरी शादी कर देनी चाहिए. मेरी नजर में एक अति उत्तम लड़का है. वह सुलझे विचारों वाला है. उस की सोच नई है. मैं उस से बात करूंगा.’’

‘‘ठीक है, पर एक बात, जातपांत को ले कर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए. जया को इस माहौल से निकालो. उसे शहर भेजो. वहां के उन्मुक्त वातावरण में उसे सांस लेने दो. उस के पंख मत कतरो. उस पर अंकुश मत लगाओ. उसे उड़ान भरने दो. उसे स्वच्छंद विचरने दो. उस के  व्यक्तित्व को विकसित होने दो.’’

‘‘अक्का, तुम ने भी तो कम उम्र में अपने पति को गंवाया था. तुम ने भी तो सारी उम्र निष्ठा से वैधव्य धर्म का पालन किया.’’

‘‘राघव, उस समय मेरे सामने और कोई विकल्प नहीं था. मुझ में मातापिता के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं थी. लेकिन यह जरूरी नहीं कि जया का हश्र मेरे जैसा हो. उस में और मुझ में एक पीढ़ी का फर्क है. हमारे समय में लड़कियों को पढ़ायालिखाया नहीं जाता था. उसे पहले पिता फिर पति और फिर पुत्र का आश्रित हो कर रहना पड़ता था. विधवा होना तो उस के लिए एक बड़ा अभिशाप था.

अपनी इच्छाओं का दमन कर, रूखासूखा खा कर, मोटाझोटा पहन कर वह एक उपेक्षित की जिंदगी गुजारती थी. उसे मनहूस, कुलच्छिनी माना जाता था और उस की दशा जानवरों से भी बदतर होती थी. तुम तो जानते हो कि हमारी तमिल भाषा में ‘मुंडे’ यानी ‘विधवा’ गाली है. ‘मुंडेदे’ यानी विधवा की अवैध संतान भी एक गाली है. लेकिन अब हम विधवा के प्रति सदय हैं. हम में जागरूकता आई है. हम ने कई पुरानी कुप्रथाओं का त्याग किया है. एक समय था कि हमारे देश में सती का चलन था. बालविवाह और देवदासी की प्रथा थी. हमारे दक्षिण भारत के गांवों में नवजात बच्चियों को दूध के गागर में डुबो कर मार दिया जाता था. अब जमाना बदल रहा है. हमें जमाने के साथ चलना चाहिए. जया पढ़ीलिखी है, सबल है, सक्षम है. उसे स्वावलंबी बनने दो. उसे नया जीवनदान दो.’’

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नागमणि अरुणा के पैरों पर गिर पड़ी, ‘‘अक्का, मुझे क्षमा कर दो. मैं ने आप को बहुत जलीकटी सुनाई है. आप को बहुत दुख पहुंचाया है.’’

‘‘वह सब भूल जाओ. अब हमारे सामने जया की ज्वलंत समस्या है. इस का समाधान ढूंढ़ना है. जिंदगी जीने के लिए है, घुटघुट कर मरने के लिए नहीं.’’

वह उठ कर जया की बगल में जा बैठी. उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए उस ने कहा, ‘‘क्यों बिटिया, मैं ने ठीक कहा न?’’

जया के निस्पंद शरीर में तनिक हरकत हुई. उस ने सिर घुमा कर अरुणा को देखा और बिना कुछ बोल अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया.

वार्निंग साइन बोर्ड: भाग-4

डा. सुभाष के ट्रीटमैंट तथा शुचि के साथ के कारण निधि में काफी परिवर्तन आ रहा था. कक्षा में भी वह अच्छा प्रदर्शन कर रही थी. देखते ही देखते 4 वर्ष बीत गए. निधि को खुश देख कर हम भी बेहद प्रसन्न थे. आखिर हमारी बच्ची उस दु:स्वप्न को भूल कर जीवन में आगे बढ़ रही थी.

एक दिन शाम के समय हम सब बैठे टीवी देख रहे थे कि एकाएक निधि ने पूछा, ‘‘ममा, रेप क्या होता है?’’

उस का प्रश्न सुन कर निशा और दीपक चौंके. ध्यान दिया तो पाया कि न्यूज चैनल में एक गैंगरेप की घटना को पूरे जोरशोर से दिखाया जा रहा था. दीपक ने तुरंत चैनल चेंज कर दिया.

‘‘ममा रेप क्या होता है?’’ उस ने पुन: अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘निशा खाना लगा दो… कल मुझे औफिस जल्दी जाना है,’’ दीपक ने निधि का ध्यान हटाने के लिए कहा.

‘‘ओके,’’ कह कर वह उठ गई.

निधि का बारबार प्रश्न पूछना उसे आतंकित करने लगा था, पर उत्तर तो देना ही था. अंतत: उस ने कहा, ‘‘जब कोई किसी को परेशान करता है, तो उसे रेप कहते हैं.’’

‘‘जैसे उन अंकल ने मुझे किया था?’’

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‘‘नहीं बेटा,’’ कहते हुए उसे सीने से लगा लिया. वह समझ गई थी कि निधि के मन का घाव अभी भरा नहीं है. उन्हें बहुत सावधानी बरतनी होगी पर इन टीवी वालों का क्या करें. इन की तो कोई न्यूज इस तरह की घटनाओं के बिना समाप्त ही नहीं होती. नित्य ऐसी घटनाओं को देख कर उसे न जाने ऐसा क्यों महसूस होने लगा था जैसे कि हमारे समाज में चारों ओर अमानुष ही अमानुष अपना डेरा जमाए हैं, जिन्होंने न केवल हमारा जीना हराम कर रखा है वरन अराजकता भी फैला रखी है. अकसर लड़कों के जन्म पर उत्सव मनाया जाता है, क्योंकि उन से वंश चलता है, उन्हें समाज का रक्षक माना जाता है पर संस्कार देने में कहां चूक हो जाती है जो वे नर से राक्षस बन जाते हैं?

अपनी मांबहन समान नारियों पर दरिंदगी करते समय उन का मन उन्हें नहीं कचोटता? हम अपनी लड़कियों को तो ‘यह न करो वह न करो के बंधन में बांधते हैं पर लड़कों को क्यों नहीं? हमें अपने लड़कों को नैतिकता की शिक्षा देने का प्रयास करना होगा, क्योंकि जब तक व्यक्ति की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक अपराध कम नहीं होंगे. इस के साथ ही अपनी लड़कियों को ऐसे शातिर अपराधियों से बचाने के उपाय भी बताने होंगे.

निशा के मन के दर्द ने उस के मन में ऐसी ऊहापोह मचा रखी थी कि उस के तनमन की शांति भंग हो गई थी. कहते हैं कड़वे अतीत को भूल कर आगे बढ़ने में ही भलाई है पर अगर अतीत बारबार दिल पर दस्तक दे तो इनसान क्या करे? घरबाहर का काम करने के बावजूद कुछ ऐसा था जो उस के मन की ज्वाला को शांत नहीं होने दे रहा था.

उस दिन निशा को अपनी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी. अत: औफिस से छुट्टी ले ली. दीपक के औफिस और निधि के स्कूल जाने के बाद वह पेपर ले कर बैठी ही थी कि एक समाचार पर उस की नजर ठहर गई. दिव्या खन्ना की मौत. पुलिस छानबीन में लगी है. इनसैट में फोटो देख कर चौंक गई कि अरे, यह तो उस की ननद विभा की जेठानी रमा की लड़की है. पिछले वर्ष ही इस का विवाह तय हुआ था पर दहेज की मांग सुन कर इस ने स्वयं ही उस लड़के के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया था.

उस के इस निर्णय की समाज तथा मीडिया में काफी चर्चा हुई थी. अब वह सिविल सर्विसेज के लिए कोचिंग ले रही थी. ऐसी साहसी और दृढ़निश्चयी युवती के साथ ऐसा हादसा?

निशा से आगे पढ़ा नहीं गया. उस ने गाड़ी निकाली तथा विभा के घर की ओर चल दी. वह पहुंची ही थी कि विभा अपनी जेठानी रमा के घर खाना ले कर जाने की तैयारी कर रही थी. उसे देख कर विभा ने कहा, ‘‘निशा कल से किसी के मुंह में अन्न का एक ग्रास भी नहीं गया है, कुछ ले कर जा रही हूं, शायद कुछ खा लें.’’

‘‘मुझे तो आज पेपर से पता चला, कम से कम सूचना तो दे देती,’’ उस ने कह तो दिया पर तुंरत ही अपने प्रश्न पर यह सोच कर संकुचित हो उठी कि ऐसे समय में उलाहना देना उचित नहीं है.

‘‘निशा परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हो गई थीं कि दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था.’’

‘‘मैं समझ सकती हूं… चलो, मैं गाड़ी ले कर आई हूं.’’

विभा के साथ वह रमा के घर पहुंची. रमा का बुरा हाल था. उन की आंखें रोरो कर सूज गई थीं. बारबार यही कह रही थीं कि मेरी फूल सी बेटी ने उस का क्या बिगाड़ा था जो उस दरिंदे ने उसे ऐसी मौत दी.

समझ में नहीं आ रहा था कि रमा को क्या कह कर सांत्वना दे… विभा ने उन्हें खिलाने का प्रयास किया पर उन के मुंह से निकला कि जिस की बेटी का अभी तक अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ उस के मुंह में अन्न कैसे जा सकता है.

रमा का प्रलाप कठोर से कठोर मन को भी द्रवित कर रहा था. आखिर जवान इकलौती बेटी की दुर्दांत मृत्यु से किस का दिल नहीं उबलेगा पर चाह कर भी कोई कुछ नहीं कर सकता था… इस दर्द को सहने के अतिरिक्त कोई चारा भी तो न था.

इसी बीच इंस्पैक्टर ने हाल में प्रवेश किया. उसे देखते ही रमा ने पूछा, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, अपराधी का पता चला?’’

‘‘अभी तो नहीं पर क्या दिव्या से किसी की कोई दुश्मनी थी?’’

‘‘नहीं, मेरी बेटी तो बहुत मृदुभाषी थी. उस का किसी से कोई बैर नहीं था,’’ रमा रुंधे गले से बोली.

‘‘आप याद कीजिए विशाल साहब, बिना दुश्मनी के कोई किसी के साथ बलात्कार कर उसे इतनी बेरहमी से मौत के घाट नहीं उतारता,’’ इंस्पैक्टर ने रमा के पति से पूछा.

‘‘मुझे तो याद नहीं है, सिवा इस के कि उस ने विवाह के लिए संजीव नामक युवक से इसलिए मना कर दिया था कि वे दहेज मांग रहे थे.’’

‘‘आप मुझे उस का पता दीजिए. उस से भी पूछताछ कर के देखते हैं. वैसे हम ने इस काम के लिए खोजी कुत्ते भी लगाए हैं… दिव्या की कौल्स भी खंगाल रहे हैं. उस समय एक नंबर से उसे कौल आई थी. उस नंबर को तलाशने का प्रयास कर रहे हैं… खोजी कुत्ते ने जिस स्पौट की ओर हमारा ध्यान केंद्रित किया वहां पर सीसीटीवी कैमरे भी लगे हैं. उन की फुटेज बाइक के पीछे चेहरा ढके किसी लड़की को बैठा तो दिखा रही हैं पर हैलमेट लगा होने के कारण न तो आदमी को पहचान पा रहे हैं न ही चेहरा ढका होने के कारण लड़की को. आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस रूट से वह बाइक गई है, उस रूट पर सीसीटीवी कैमरे लगे होने के बावजूद हमें न बाइक का नंबर दिखा और न ही उस लड़के का पता चल पा रहा है. पर आप चिंता न करें, कानून के हाथ बहुत लंबे हैं… अपराधी पकड़ा अवश्य जाएगा.’’

‘‘सर, बुरा न मानें तो एक बात कहूं?’’ निशा ने पूछा.

‘‘जी, कहिए.’’

‘‘जैसे मूवी में पुलिस सायरन बजाती आती है ताकि अपराधी को भागने का अवसर मिल जाए ठीक वैसे ही जगहजगह लगे आप के सीसीटीवी कैमरे हैं… जहांजहां कैमरे लगे हैं वहांवहां ‘आप कैमरे की नजर में हैं’ लिखी वार्निंग क्या अपराधी को उस की कैद में आने देगी? आशा है मेरे इस प्रश्न पर आप और आप की सरकार अवश्य ध्यान देगी.

‘‘‘आप कैमरे की नजर में हैं’ के बोर्ड जगहजगह मिल जाएंगे. कहीं कैमरे चल रहे होते हैं तो कहीं बंद पड़े होते हैं, उन्हें ठीक कराने की भी किसी को फुरसत नहीं होती है. चाहे हम कितने भी उपाय कर लें, अगर अपराधी को अपराध करना है तो उस का शातिर दिमाग कोई न कोई उपाय खोज ही लेगा,’’ काफी दिनों से मन में उमड़तीघुमड़ती बात कह देने से जहां निशा के मन का बोझ कम हो गया था, वहीं उस की बात सुन कर सन्नाटा भी छा गया था. निधि के स्कूल से आने का समय हो गया था. अत: वह क्षमा मांगते हुए घर लौट आई.

रोज घटती ये घटनाएं उसे चैन नहीं लेने दे रही थीं. 7 वर्षीय बच्ची हो या वयस्क लड़की. क्या लड़की सिर्फ देह भर ही है, जिसे जब चाहा, जैसे चाहा रौंदा और चलते बने? अगर किसी ने विरोध करने का प्रयास किया तो उसे रास्ते से हटाने में भी संकोच नहीं किया… निधि और दिव्या दोनों ही केसों में अपराधी अनजान नहीं थे. अगर जानपहचान वाले ही धोखा करें तो एक स्त्री क्या करे? जीवन को चलना है सो वह तो चलता ही जाता है, चाहे आंधी आए या तूफान…

धीरेधीरे 6 महीने बीत गए. कभी पुलिस की खोज दिव्या के फेसबुक फ्रैंड की ओर घूमती, तो कभी उस के क्लास के लड़कों पर… निशा के मतानुसार, ‘आप कैमरे की नजर में हैं’ के वार्निंग साइन बोर्ड के कारण अपराधी अभी तक पकड़ में नहीं आ पाया था. 6 महीने बाद भी पुलिस अंधेरे में हाथपैर मार रही थी. निशा को लग रहा था कि अगर यही हाल रहा तो शायद एक दिन कोई क्लू न मिलने के कारण केस ही बंद न हो जाए. उस से भी बुरा उसे यह सोच कर लग रहा था कि सारे सुबूत पेश करने के बावजूद भी निधि के आरोपी को सजा नहीं मिल पाई है… तारीख पर तारीख लगती जा रही है… अगर न्याय में ऐसे ही देरी होती रही तो अपराधी को अपराध करने से शायद ही कोई रोक पाए.

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अमानुषों द्वारा दिल में लगाई गई इस आग में उस जैसे लोगों का तिलतिल जलना नियति बनती जा रही है. निशा ने निश्चय कर लिया था कि उसे इन आग की लपटों से अपनी बेटी को बचाना है.. वह निधि को जूडोकराटे की शिक्षा देने के साथसाथ उस की उम्र के अनुसार शारीरिक संरचना में होते परिवर्तनों व सैक्स ऐजुकेशन देने का भी भरपूर प्रयास करेगी ताकि दोबारा ऐसी अनहोनी उस के जीवन में न आए. वह इस हादसे को अपने जीवन पर हावी नहीं होने देगी… उस की इस सोच ने उस के मन में छाए अंधेरे को दूर करने का प्रयास शुरू कर दिया.

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